विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिनामु करता पुरखु गुरप्रसादि ॥ रागु गउड़ी पूरबी छंत महला १ ॥
मूलम्
ੴ सतिनामु करता पुरखु गुरप्रसादि ॥ रागु गउड़ी पूरबी छंत महला १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुंध रैणि दुहेलड़ीआ जीउ नीद न आवै ॥ सा धन दुबलीआ जीउ पिर कै हावै ॥ धन थीई दुबलि कंत हावै केव नैणी देखए ॥ सीगार मिठ रस भोग भोजन सभु झूठु कितै न लेखए ॥ मै मत जोबनि गरबि गाली दुधा थणी न आवए ॥ नानक सा धन मिलै मिलाई बिनु पिर नीद न आवए ॥१॥
मूलम्
मुंध रैणि दुहेलड़ीआ जीउ नीद न आवै ॥ सा धन दुबलीआ जीउ पिर कै हावै ॥ धन थीई दुबलि कंत हावै केव नैणी देखए ॥ सीगार मिठ रस भोग भोजन सभु झूठु कितै न लेखए ॥ मै मत जोबनि गरबि गाली दुधा थणी न आवए ॥ नानक सा धन मिलै मिलाई बिनु पिर नीद न आवए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुंध = (मुग्धा = a young girl attractive by her youthful simplicity, not yet acquainted with love) जवान स्त्री, युवती। रैणि = रात। दुहेलड़ी = दुखी। साधन = जीव-स्त्री। दुबली = कमजोर। हावै = हहुके में। धन = जीव-स्त्री। थीई = हो जाती है। केव = किस तरह?। लेखए = लेखे, लेखे में। मै मत = मय मस्त, शराब में मस्त। जोबन = जवानी में। गरबि = गर्व ने, अहंकार ने। गाली = गला दिया, नाश कर दिया। दुधाथणी = स्त्री की वह अवस्था जब उसके थनों में दूध आता है, सुहाग भाग वाली हालत, पति का मिलाप। न आवए = ना आए, नहीं आती। मिलाई = (अगर गुरु) मिला दे।1।
अर्थ: पति के विछोड़े के हहुके में जवान सुंदर स्त्री की रात दुख में (बीतती है), उसे नींद नहीं आती, और सिसकते हुए (हहुकों में) वह कमजोर होती जाती है। स्त्री पति के (विछोड़े के) हहुके में (दिनों दिन) कमजोर होती जाती है (वह हर वक्त चाहत रखती है कि) वह किसी तरह (अपने) पति को आँखों से देखे। उसे (शारीरिक) श्रंगार व मीठे रसों का भोग - ये सब कुछ फीका लगता है, उसे ये सब कुछ बेअर्थ दिखता है।
जिस स्त्री को जवानी में अहंकार ने गला दिया हो जो जवानी के नशे में ऐसे मस्त हो, जैसे शराब में मस्त हो, (उसे अपने पति का मिलाप नसीब नहीं होता और) उसे सुहाग-भाग वाली अवस्था नसीब नहीं होती।
हे नानक! (यही हाल होता है उस जीव-स्त्री का, जो दुनिया के झूठे गुमान में मस्त रहती है, उसे) सारी जिंदगी-रूपी रात में आत्मिक शांति प्राप्त नहीं होती। वह तभी प्रभु पति से मिल सकती है, जब (गुरु विचौला, माध्यम बन के उसे प्रभु-चरणों में) मिला दे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुंध निमानड़ीआ जीउ बिनु धनी पिआरे ॥ किउ सुखु पावैगी बिनु उर धारे ॥ नाह बिनु घर वासु नाही पुछहु सखी सहेलीआ ॥ बिनु नाम प्रीति पिआरु नाही वसहि साचि सुहेलीआ ॥ सचु मनि सजन संतोखि मेला गुरमती सहु जाणिआ ॥ नानक नामु न छोडै सा धन नामि सहजि समाणीआ ॥२॥
मूलम्
मुंध निमानड़ीआ जीउ बिनु धनी पिआरे ॥ किउ सुखु पावैगी बिनु उर धारे ॥ नाह बिनु घर वासु नाही पुछहु सखी सहेलीआ ॥ बिनु नाम प्रीति पिआरु नाही वसहि साचि सुहेलीआ ॥ सचु मनि सजन संतोखि मेला गुरमती सहु जाणिआ ॥ नानक नामु न छोडै सा धन नामि सहजि समाणीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनी = पति। उर = छाती, हृदय। नाह = नाथ,पति। घर वासु = घर का वसेवा। साचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में। मनि = मन में। सजन मेला = सज्जन का मिलाप। संतोखि = संतोष में। नामि = नाम से। सहिज = आत्मिक अडोलता में।2।
अर्थ: प्यारे पति के मिलाप के बिना युवती पस्त-हौसलों में ही रहती है। अगर पति उसे अपनी छाती से ना लगाए, तो उसे सुख महिसूस नहीं हो सकता। पति के बिना घर नहीं बस सकता। (अगर) और सखियों-सहेलयों को पूछोगे (तो वो भी यही उत्तर देंगी)। (प्यारे पति-प्रभु के मिलाप के बिना जीव-स्त्री मुरझाई ही रहती है। जब तक वह पति प्रभु को अपने हृदय में नहीं बसाती, उसे आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता। पति-प्रभु के मिलाप के बिना हृदय में आत्मिक गुणों का वास नहीं हो सकता। सत्संगी सहेलियों को पूछ कर देखो, वे यही उत्तर देंगी कि) प्रभु का नाम जपे बिना उसकी प्रीति उसका प्यार प्राप्त नहीं हो सकता। वही जीव-दुल्हनें सुखी बस सकती हैं, जो सदा स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ती हैं।
गुरु की मति लेकर जिस जीव-स्त्री के मन में सदा स्थिर प्रभु का नाम बसता है, जो संतोष में (जीती है), उसे सज्जन प्रभु का मिलाप प्राप्त हो जाता है, वह पति प्रभु को (अंग-संग) जान लेती है। हे नानक! वह जीव-स्त्री प्रभु का नाम (जपना) नहीं छोड़ती, प्रभु के नाम में जुड़ के वह आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिलु सखी सहेलड़ीहो हम पिरु रावेहा ॥ गुर पुछि लिखउगी जीउ सबदि सनेहा ॥ सबदु साचा गुरि दिखाइआ मनमुखी पछुताणीआ ॥ निकसि जातउ रहै असथिरु जामि सचु पछाणिआ ॥ साच की मति सदा नउतन सबदि नेहु नवेलओ ॥ नानक नदरी सहजि साचा मिलहु सखी सहेलीहो ॥३॥
मूलम्
मिलु सखी सहेलड़ीहो हम पिरु रावेहा ॥ गुर पुछि लिखउगी जीउ सबदि सनेहा ॥ सबदु साचा गुरि दिखाइआ मनमुखी पछुताणीआ ॥ निकसि जातउ रहै असथिरु जामि सचु पछाणिआ ॥ साच की मति सदा नउतन सबदि नेहु नवेलओ ॥ नानक नदरी सहजि साचा मिलहु सखी सहेलीहो ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिरु = पति प्रभु। रावेहा = हम स्मरण करें। लिखउगी = मैं लिखूँगी। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। गुरि = गुरु ने। मनमुखी = अपने मन के पीछे चलने वाली। निकसि = निकल के। जातउ = जाता, भटकता (मन)। असथिरु = स्थिर, टिका हुआ। जामि = जब। नउतन = नई। नेहु = प्यार। नवेलिओ = नया।3।
अर्थ: हे (सत्संगी) सहेलियो! आओ मिल बैठें और हम (मिल के) पति प्रभु का भजन करें। (सत्संगति में बैठ के) गुरु की शिक्षा ले के हे सहेलियो! मैं गुरु के शब्द के द्वारा पति-प्रभु को संदेश भेजूँगी (कि आ के मिल)।
(जिस जीव-स्त्री को) गुरु ने अपना शब्द बख्शा, उसे उसने सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा (अंग-संग) दिखा दिया, पर अपने मन के पीछे चलने वाली पूछती ही रहती हैं। (जिसे गुरु ने शब्द की दाति दी, शब्द की इनायत से) जब उस ने सदा स्थिर प्रभु को (अंग-संग) पहिचान लिया, तब उसका बाहर (माया के पीछे) दौड़ता मन टिक जाता है।
जिस जीव-स्त्री के अंदर सदा स्थिर प्रभु टिक जाता है, उसकी मति सदा नई-नरोई रहती है (कभी विकारों से मैली नहीं होती)। शब्द की इनायत से उसके अंदर प्रभु के वास्ते नित्य नया प्यार बना रहता है। हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु अपनी मेहर की निगाह से उस जीव-स्त्री को आत्मिक अडोलता में टिकाए रखता है।
हे सत्संगी सहेलियो! आओ मिल के बैठें और प्रभु की महिमा करें।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरी इछ पुनी जीउ हम घरि साजनु आइआ ॥ मिलि वरु नारी मंगलु गाइआ ॥ गुण गाइ मंगलु प्रेमि रहसी मुंध मनि ओमाहओ ॥ साजन रहंसे दुसट विआपे साचु जपि सचु लाहओ ॥ कर जोड़ि सा धन करै बिनती रैणि दिनु रसि भिंनीआ ॥ नानक पिरु धन करहि रलीआ इछ मेरी पुंनीआ ॥४॥१॥
मूलम्
मेरी इछ पुनी जीउ हम घरि साजनु आइआ ॥ मिलि वरु नारी मंगलु गाइआ ॥ गुण गाइ मंगलु प्रेमि रहसी मुंध मनि ओमाहओ ॥ साजन रहंसे दुसट विआपे साचु जपि सचु लाहओ ॥ कर जोड़ि सा धन करै बिनती रैणि दिनु रसि भिंनीआ ॥ नानक पिरु धन करहि रलीआ इछ मेरी पुंनीआ ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इछ = इच्छा, ख्वाइश। पुनी = पुंन्नी, पूरी हो गई। जीउ = हे जी! घरि = हृदय घर में। मिलि = मिले, जब मिलता है। वरु = पति। नारी = नारियों ने, ज्ञानेंद्रियों ने। मंगलु = खुशी के गीत। रहसी = प्रसन्न हुई। मनि = मन में। ओमाहओ = उत्साह, चाउ। रहंसे = खुश हुए। विआपे = दबाए गए, दुखी हुए। लाहओ = लाहा, लाभ। कर = हाथ (बहुवचन)। रसि = रस में, आनंद में। रलीआं = खुशियां, मौजें।4।
अर्थ: हे सहेलियो! मेरी मनो कामना पूरी हो गई है, मेरे हृदय घर में सज्जन परमात्मा आ बसा है। जिस जीव-स्त्री को पति-प्रभु मिल जाता है उसकी ज्ञानेंद्रियां (विकारों की तरफ दौड़ने की बजाए मिल के जैसे) खुशी के गीत गाती हैं।
प्रभु की महिमा के गीत गा के जीव-स्त्री प्रभु-प्यार के (उत्साह) में खिल पड़ती है, उसके मन में उत्साह की उमंग पैदा हो जाती है। उसके अंदर अच्छे गुण प्रफुल्लित होते हैं, दुष्टता भरे विकार दब जाते हैं। सदा स्थिर नाम जप-जप के उसे अटल आत्मिक जीवन का लाभ मिल जाता है। वह जीव-स्त्री दिन-रात प्रभु के प्यार रस में भीगी हुई हाथ जोड़ के प्रभु-पति के दर पर अरदासें करती रहती है। हे नानक! प्रभु पति और वह जीव-स्त्री (जीव-स्त्री की हृदय सेज पर) मिल के आत्मिक आनंद लेते हैं।
हे सहेलियो! मेरी मनो-कामना पूरी हो गई है (मेरे हृदय घर में सज्जन प्रभु आ बसा है)।4।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी छंत महला १ ॥ सुणि नाह प्रभू जीउ एकलड़ी बन माहे ॥ किउ धीरैगी नाह बिना प्रभ वेपरवाहे ॥ धन नाह बाझहु रहि न साकै बिखम रैणि घणेरीआ ॥ नह नीद आवै प्रेमु भावै सुणि बेनंती मेरीआ ॥ बाझहु पिआरे कोइ न सारे एकलड़ी कुरलाए ॥ नानक सा धन मिलै मिलाई बिनु प्रीतम दुखु पाए ॥१॥
मूलम्
गउड़ी छंत महला १ ॥ सुणि नाह प्रभू जीउ एकलड़ी बन माहे ॥ किउ धीरैगी नाह बिना प्रभ वेपरवाहे ॥ धन नाह बाझहु रहि न साकै बिखम रैणि घणेरीआ ॥ नह नीद आवै प्रेमु भावै सुणि बेनंती मेरीआ ॥ बाझहु पिआरे कोइ न सारे एकलड़ी कुरलाए ॥ नानक सा धन मिलै मिलाई बिनु प्रीतम दुखु पाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाह = हे नाथ! हे पति! बन = संसार जंगल। माहे = माहि में। धन = जीव-स्त्री। बिखम = मुश्किल। रैणि = जिंदगी की रात। घणेरीआ = बहुत। सारे = संभालता, बात पूछता। कुरलाए = तरले लेती है, मिन्नतें करती है। साधन = जीव-स्त्री।1।
अर्थ: हे प्रभु पति जी! (मेरी विनती) सुनो। (तेरे बिना) मैं जीव-स्त्री इस संसार-जंगल में अकेली हूँ। हे बेपरवाह प्रभु! तुझ पति के बगैर मेरी जीवात्मा धैर्य नहीं पा सकती। जीव-स्त्री प्रभु-पति के बिना रह नहीं सकती (प्रभु-पति के बिना इसकी) जिंदगी की रात बहुत ही मुश्किल में गुजरती है। हे पति प्रभु! मेरी विनती सुन, मुझे तेरा प्यार अच्छा लगता है (तेरे विछोड़े में) मुझे शांति नहीं आ सकती।
प्यारे प्रभु-पति के बिना (इस जीवात्मा की) कोई बात नहीं पूछता। ये अकेली ही (इस संसार-जंगल में) पुकारती फिरती है, (पर) हे नानक! जीव-स्त्री तभी प्रभु-पति को मिल सकती है, यदि इसे गुरु मिलवा दे, वरना प्रीतम प्रभु के बिना दुख ही दुख बर्दाश्त करती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिरि छोडिअड़ी जीउ कवणु मिलावै ॥ रसि प्रेमि मिली जीउ सबदि सुहावै ॥ सबदे सुहावै ता पति पावै दीपक देह उजारै ॥ सुणि सखी सहेली साचि सुहेली साचे के गुण सारै ॥ सतिगुरि मेली ता पिरि रावी बिगसी अम्रित बाणी ॥ नानक सा धन ता पिरु रावे जा तिस कै मनि भाणी ॥२॥
मूलम्
पिरि छोडिअड़ी जीउ कवणु मिलावै ॥ रसि प्रेमि मिली जीउ सबदि सुहावै ॥ सबदे सुहावै ता पति पावै दीपक देह उजारै ॥ सुणि सखी सहेली साचि सुहेली साचे के गुण सारै ॥ सतिगुरि मेली ता पिरि रावी बिगसी अम्रित बाणी ॥ नानक सा धन ता पिरु रावे जा तिस कै मनि भाणी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिरि = पति ने। रसि = नाम रस में। सुहावै = शोभती है। पति = इज्जत। दीपक = दीया। देह = शरीर। उजारै = प्रकाश करता है। साचि = सदा स्थिर प्रभु में (जुड़ के)। रावी = अपने साथ मिलाना। बिगसी = खिल पड़ी, प्रसन्न हुई। जा = जब। ता = तब। मनि = मन में। भाणी = प्यारी लगी।2।
अर्थ: हे सहेलियो! जिसे पति ने भुला दिया, उसे और कौन (पति-प्रभु के साथ) मिला सकता है? हे सहेलियो! जो जीव-दुल्हन गुरु के शब्द द्वारा प्रभु के नाम-रस में प्रभु के प्रेम-रस में जुड़ती है, वह (अंतरात्मे) सुंदर हो जाती है। जब गुरु के शब्द द्वारा जीव-स्त्री (अंतरात्मा में) सुंदर हो जाती है, तब (लोक-परलोक में) इज्जत कमाती है; ज्ञान का दीपक इसके शरीर में (हृदय में) प्रकाश कर देता है। हे सहेली! सुन! जो जीव-स्त्री सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के गुण याद करती है, वह सदा स्थिर प्रभु में जुड़ के सुखी हो जाती है। जब सतिगुरु ने उसे अपने शब्द में जोड़ा, तब प्रभु पति ने उसे अपने चरणों में मिला लिया, आत्मिक जीवन देने वाली वाणी की इनायत से उसका हृदय-कमल फूल खिल जाता है। हे नानक! जीव-स्त्री तभी प्रभु-पति को मिलती है, जब (गुरु के शब्द द्वारा) ये प्रभु पति के मन को प्यारी लगती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ मोहणी नीघरीआ जीउ कूड़ि मुठी कूड़िआरे ॥ किउ खूलै गल जेवड़ीआ जीउ बिनु गुर अति पिआरे ॥ हरि प्रीति पिआरे सबदि वीचारे तिस ही का सो होवै ॥ पुंन दान अनेक नावण किउ अंतर मलु धोवै ॥ नाम बिना गति कोइ न पावै हठि निग्रहि बेबाणै ॥ नानक सच घरु सबदि सिञापै दुबिधा महलु कि जाणै ॥३॥
मूलम्
माइआ मोहणी नीघरीआ जीउ कूड़ि मुठी कूड़िआरे ॥ किउ खूलै गल जेवड़ीआ जीउ बिनु गुर अति पिआरे ॥ हरि प्रीति पिआरे सबदि वीचारे तिस ही का सो होवै ॥ पुंन दान अनेक नावण किउ अंतर मलु धोवै ॥ नाम बिना गति कोइ न पावै हठि निग्रहि बेबाणै ॥ नानक सच घरु सबदि सिञापै दुबिधा महलु कि जाणै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीघरीआ = बे घर। मुठी = लूटी गई। जेवड़ीआ = जंजीर, फाही। सबदि = शब्द से। सो = वह जीव। अंतर मलु = अंदर की मैल। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। हठि = हठ से। निग्रहि = इंद्रियों को रोकने से। बेबाणै = बियाबान में, जंगल में। दुबिधा = प्रभु के बिना और किसी आसरे की झाक। कि = कौन?।3।
अर्थ: हे सहेली! जिस जीव-स्त्री को मोहनी माया ने मोह लिया, जिसे नाशवान पदार्थों के प्यार ने ठग लिया, वह नाशवान पदार्थों के वणज में लग गई। (उसके गले में मोह की फाँसी पड़ जाती है) उसके गले की ये फाँसी अति प्यारे गुरु (की सहायता) के बिना नहीं खुल सकती।
जो आदमी प्रभु से प्रीत डालता है, गुरु के शब्द द्वारा प्रभु के गुणों को विचारता है, वह प्रभु का सेवक हो जाता है। (स्मरण के बिना महिमा के बिना) अनेक पुन्न-दान करने से, अनेक तीर्थ-स्नान करने से कोई जीव अपने अंदर की (विकारों की) मैल नहीं धो सकता।
हठ करके इंद्रियों को रोकने का प्रयत्न करके जंगल में जाकर बैठने से कोई मनुष्य उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं कर सकता। हे नानक! सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का दरबार गुरु के शब्द के द्वारा पहिचाना जा सकता है। प्रभु के बिना किसी और आसरे की झाक से उस दरबार को नहीं पाया जा सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरा नामु सचा जीउ सबदु सचा वीचारो ॥ तेरा महलु सचा जीउ नामु सचा वापारो ॥ नाम का वापारु मीठा भगति लाहा अनदिनो ॥ तिसु बाझु वखरु कोइ न सूझै नामु लेवहु खिनु खिनो ॥ परखि लेखा नदरि साची करमि पूरै पाइआ ॥ नानक नामु महा रसु मीठा गुरि पूरै सचु पाइआ ॥४॥२॥
मूलम्
तेरा नामु सचा जीउ सबदु सचा वीचारो ॥ तेरा महलु सचा जीउ नामु सचा वापारो ॥ नाम का वापारु मीठा भगति लाहा अनदिनो ॥ तिसु बाझु वखरु कोइ न सूझै नामु लेवहु खिनु खिनो ॥ परखि लेखा नदरि साची करमि पूरै पाइआ ॥ नानक नामु महा रसु मीठा गुरि पूरै सचु पाइआ ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। लाहा = लाभ। अनदिनो = हर रोज। वखरु = सौदा। खिनु खिनो = हर पल, हर घड़ी। परखि = परख के। करमि पूरै = पूरी बख्शिश से। गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा।4।
अर्थ: हे प्रभु जी! तेरा नाम सदा स्थिर रहने वाला है, तेरी महिमा की वाणी अटल है, तेरे गुणों की विचार सदा स्थिर (कर्म) है। हे प्रभु! तेरा दरबार सदा-स्थिर है, तेरा नाम और तेरे नाम का व्यापार सदा साथ निभने वाला व्यापार है।
परमात्मा के नाम का व्यापार स्वादिष्ट व्यापार है, भक्ती के व्यापार से सदा मुनाफा बढ़ता ही रहता है। प्रभु के नाम के बिना और कोई ऐसा सौदा नहीं जो सदा लाभ ही लाभ दे। हे भाई! सदा छिन-छिन पल-पल नाम जपो। जिस मनुष्य ने नाम-व्यापार के लेखे की परख की, उस पर प्रभु की अटल मेहर की निगाह हुई, प्रभु की पूरी मेहर से उसने नाम-वखर (नाम-धन) हासिल कर लिया। हे नानक! प्रभु का नाम सदा स्थिर रहने वाला और बहुत ही मीठे स्वाद वाला पदार्थ है, पूरे गुरु के द्वारा ही ये पदार्थ मिलता है।4।2।