विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी गुआरेरी महला ५ असटपदीआ ੴ सतिनामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी गुआरेरी महला ५ असटपदीआ ੴ सतिनामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब इहु मन महि करत गुमाना ॥ तब इहु बावरु फिरत बिगाना ॥ जब इहु हूआ सगल की रीना ॥ ता ते रमईआ घटि घटि चीना ॥१॥
मूलम्
जब इहु मन महि करत गुमाना ॥ तब इहु बावरु फिरत बिगाना ॥ जब इहु हूआ सगल की रीना ॥ ता ते रमईआ घटि घटि चीना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जब = जब। इहु = ये जीव। गुमाना = मान, अहंकार। बावरु = झल्ला, कमला। बिगाना = बेगाना। रीना = चरणों की धूल। ता ते = तब से। रमईआ = सोहणा राम। चीना = पहचान लिया। घटि घटि = हरेक शरीर में।1।
अर्थ: (हे भाई!) जब मनुष्य (अपने) मन में (बड़े होने का) मान करता है तब (वह अहंकार में) बावरा (हुआ) मनुष्य (सब लोगों से) अलग अलग हो के चलता फिरता है, पर जब ये सब लोगों की चरणधूड़ हो गया, तब इसने सोहणे राम को हरेक शरीर में देख लिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज सुहेला फलु मसकीनी ॥ सतिगुर अपुनै मोहि दानु दीनी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सहज सुहेला फलु मसकीनी ॥ सतिगुर अपुनै मोहि दानु दीनी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। सुहेला = आसान, सुखी। मसकीनी = गरीबी स्वभाव, आजजी। अपुनै = अपने ने। मोहि = मुझे।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मेरे गुरु ने मुझे (गरीबी स्वभाव की) दाति बख्शी। उस गरीबी स्वभाव का फल ये हुआ है कि मुझे आत्मिक अडोलता मिल गई, मैं सुखी हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब किस कउ इहु जानसि मंदा ॥ तब सगले इसु मेलहि फंदा ॥ मेर तेर जब इनहि चुकाई ॥ ता ते इसु संगि नही बैराई ॥२॥
मूलम्
जब किस कउ इहु जानसि मंदा ॥ तब सगले इसु मेलहि फंदा ॥ मेर तेर जब इनहि चुकाई ॥ ता ते इसु संगि नही बैराई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किस कउ = किसी को। सगले = सारे (मनुष्य)। फंदा = जाल, फरेब। इनहि = इसने। चुकाई = खत्म कर दी। बैराई = वैर।2।
अर्थ: जब तक मनुष्य हर किसी को बुरा समझता है तब तक (इसे ऐसा प्रतीत होता है कि) सारे लोग इसके वास्ते (ठगी के) जाल बिछा रहे हैं, पर जब इसने (अपने अंदर से) भेद भाव दूर कर दिया, तब (इसे) यकीन बन जाता है कि (कोई) इसके साथ वैर नहीं कर रहा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब इनि अपुनी अपनी धारी ॥ तब इस कउ है मुसकलु भारी ॥ जब इनि करणैहारु पछाता ॥ तब इस नो नाही किछु ताता ॥३॥
मूलम्
जब इनि अपुनी अपनी धारी ॥ तब इस कउ है मुसकलु भारी ॥ जब इनि करणैहारु पछाता ॥ तब इस नो नाही किछु ताता ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इनि = इस ने। धारी = मन में टिकाव के लिए। अपुनी अपनी-अपनी ही गर्ज (मतलब)। इस कउ = इसे, इस को। ताता = जलन ईष्या।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इस कउ’ मे शब्द ‘इसु’ की ‘ु’ संबंधक ‘कउ’ के कारण हट गई है। ‘इस नो’ में से शब्द ‘इसु’ की ‘ु’ संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जब तक मनुष्य के (मन में) अपना ही मतलब टिकाए रखा, तब तक इसे बड़ी मुश्किल बनी रहती है। पर जब इसने (हर जगह) विधाता को ही (बसता) पहिचान लिया, तब इसे (किसी से) कोई जलन नहीं रह जाती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब इनि अपुनो बाधिओ मोहा ॥ आवै जाइ सदा जमि जोहा ॥ जब इस ते सभ बिनसे भरमा ॥ भेदु नाही है पारब्रहमा ॥४॥
मूलम्
जब इनि अपुनो बाधिओ मोहा ॥ आवै जाइ सदा जमि जोहा ॥ जब इस ते सभ बिनसे भरमा ॥ भेदु नाही है पारब्रहमा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाधिओ = बाँध लिया, पक्का कर लिया। जमि = यम ने। आत्मिक मौत ने। जोहा = निगाह में रखा। इस ते = इससे। भेदु = फर्क।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इस ते’ में से शब्द ‘इसु’ की ‘ु’ संबंधक ‘ते’ के कारण हट गई।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जब तक इस मनुष्य ने (दुनिया से) अपना मोह पक्का किया हुआ है, तब तक ये भटकता रहता है, आत्मिक मौत ने (तब तक) सदा इसे अपनी ताक में रखा हुआ है। पर जब इसके अंदर से सारी भटकने खत्म हो जाती हैं, तब इसमें और परमात्मा में कोई दूरी नहीं रह जाती।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब इनि किछु करि माने भेदा ॥ तब ते दूख डंड अरु खेदा ॥ जब इनि एको एकी बूझिआ ॥ तब ते इस नो सभु किछु सूझिआ ॥५॥
मूलम्
जब इनि किछु करि माने भेदा ॥ तब ते दूख डंड अरु खेदा ॥ जब इनि एको एकी बूझिआ ॥ तब ते इस नो सभु किछु सूझिआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेदा = दूरियां, अलगाव। अरु = और (शब्द ‘अरु’ व ‘अरि’)। खेदा = कष्ट। एको एकी = एक परमात्मा को ही। सभ किछु = हरेक ठीक जीवन जुगति।5।
अर्थ: जब तक इस मनुष्य ने (दूसरों से) कोई दूरियां मिथ रखीं हैं, तब तक इसकी आत्मा को दुखों-कष्टों की सजाएं मिलती रहती हैं, पर जब इसने (हर जगह) एक परमात्मा को ही बसता समझ लिया, तब इसे (सही जीवन जुगति का) हरेक तरीका समझ आ जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब इहु धावै माइआ अरथी ॥ नह त्रिपतावै नह तिस लाथी ॥ जब इस ते इहु होइओ जउला ॥ पीछै लागि चली उठि कउला ॥६॥
मूलम्
जब इहु धावै माइआ अरथी ॥ नह त्रिपतावै नह तिस लाथी ॥ जब इस ते इहु होइओ जउला ॥ पीछै लागि चली उठि कउला ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धावै = दौड़ता है। अरथी = जरूरतमंद (हो के), मुथाज। तिस = तृष्णा। जउला = परे, अलग। कउला = माया लक्ष्मी।6।
अर्थ: जब तक ये मनुष्य माया का मुहताज हो के (हर तरफ) भटकता फिरता है, तब तक ये तृप्त नहीं होता। इसकी माया वाली तृष्णा खत्म नहीं होती। जब ये मनुष्य माया के मोह से अलग हो जाता है, तब माया इसके पीछे पीछे चल पड़ती है। (माया इसकी दासी बन जाती है)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा जउ सतिगुरु मिलिओ ॥ मन मंदर महि दीपकु जलिओ ॥ जीत हार की सोझी करी ॥ तउ इसु घर की कीमति परी ॥७॥
मूलम्
करि किरपा जउ सतिगुरु मिलिओ ॥ मन मंदर महि दीपकु जलिओ ॥ जीत हार की सोझी करी ॥ तउ इसु घर की कीमति परी ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = जब। दीपक = दीया। जलिओ = जल पड़ा। कीमति = कद्र।7।
अर्थ: जब (किसी मनुष्य को) गुरु मेहर करके मिल जाता है, उसके मन में ज्ञान हो जाता है, जैसे घर में दीपक जल पड़ता है (और घर की हरेक चीज दिखाई देने लग पड़ती है) तब मनुष्य को समझ आ जाती है कि मानव जन्म में दरअसल जीत क्या है और हार क्या, तब इसे अपने शरीर की कद्र मालूम हो जाती है (और इसे विकारों में नहीं बर्बाद करता)।7।
[[0236]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
करन करावन सभु किछु एकै ॥ आपे बुधि बीचारि बिबेकै ॥ दूरि न नेरै सभ कै संगा ॥ सचु सालाहणु नानक हरि रंगा ॥८॥१॥
मूलम्
करन करावन सभु किछु एकै ॥ आपे बुधि बीचारि बिबेकै ॥ दूरि न नेरै सभ कै संगा ॥ सचु सालाहणु नानक हरि रंगा ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एको = एक परमात्मा ही। आपे = स्वयं ही। बीचारि = विचार के। बिबेकै = परखता है। रंगा = सब चोज तमाशे करने वाला।8।
अर्थ: हे नानक! (जीव बिचारे के क्या वश?) सिर्फ परमात्मा ही (हरेक जीव में व्यापक हो के) सब कुछ कर रहा है और वह प्रभु खुद ही (हरेक जीव को) अक्ल (बख्शता है), खुद ही (हरेक जीव में व्यापक हो के) विचार के (जीवन जुगति को) परखता है। वह परमात्मा किसी से दूर नहीं बसता, सब के नजदीक बसता है, सब के साथ बसता है। वह प्रभु सदा स्थिर रहने वाला है, वही सब चोज तमाशे करने वाला है, वही सराहनीय है।8।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ गुर सेवा ते नामे लागा ॥ तिस कउ मिलिआ जिसु मसतकि भागा ॥ तिस कै हिरदै रविआ सोइ ॥ मनु तनु सीतलु निहचलु होइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ गुर सेवा ते नामे लागा ॥ तिस कउ मिलिआ जिसु मसतकि भागा ॥ तिस कै हिरदै रविआ सोइ ॥ मनु तनु सीतलु निहचलु होइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से, साथ। गुर सेवा ते = गुरु की सेवा से, गुरु की शरण पड़ने से। नामे = नाम में। जिसु मसतकि = जिसके माथे पर। हिरदै = हृदय में। सोइ = वह परमात्मा। निहचलु = अडोल।1।
अर्थ: (पर, हे मेरे मन!) वह मनुष्य ही परमात्मा के नाम में जुड़ता है जो गुरु की शरण पड़ता है (गुरु की शरण पड़ा मनुष्य हरि नाम में जुड़ता है, और गुरु) उस मनुष्य को मिलता है जिसके माथे के भाग्य जाग जाएं। (फिर) उस मनुष्य के हृदय में वह परमात्मा आ बसता है, उसका मन और शरीर (हृदय) ठण्डा ठार हो जाता है, विकारों की तरफ से अडोल हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा कीरतनु करि मन मेरे ॥ ईहा ऊहा जो कामि तेरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा कीरतनु करि मन मेरे ॥ ईहा ऊहा जो कामि तेरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! ईहा = इस जिंदगी में। ऊहा = परलोक में। तेरै कामि = तेरे काम, तेरे वास्ते लाभदायक।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! तू परमात्मा की ऐसी महिमा करता रह, जो तेरी इस जिंदगी में भी काम आए, और परलोक में भी तेरे काम आए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जासु जपत भउ अपदा जाइ ॥ धावत मनूआ आवै ठाइ ॥ जासु जपत फिरि दूखु न लागै ॥ जासु जपत इह हउमै भागै ॥२॥
मूलम्
जासु जपत भउ अपदा जाइ ॥ धावत मनूआ आवै ठाइ ॥ जासु जपत फिरि दूखु न लागै ॥ जासु जपत इह हउमै भागै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जासु जपत = जिसका नाम जपते हुए। अपदा = मुसीबत, बिपदा। धावत = विकारों की ओर दौड़ता। ठाइ = जगह पर, ठिकाने। न लागै = छू नहीं सकता।2।
अर्थ: (हे मेरे मन! तू उस परमात्मा की महिमा करता रह) जिसका नाम जप के हरेक किस्म का डर दूर हो जाता है, हरेक बिपदा टल जाती है, विकारों की तरफ दौड़ता मन ठहर जाता है, जिसका नाम जपने से फिर कोई दुख छू नहीं सकता, और अंदर से अहंकार दूर हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जासु जपत वसि आवहि पंचा ॥ जासु जपत रिदै अम्रितु संचा ॥ जासु जपत इह त्रिसना बुझै ॥ जासु जपत हरि दरगह सिझै ॥३॥
मूलम्
जासु जपत वसि आवहि पंचा ॥ जासु जपत रिदै अम्रितु संचा ॥ जासु जपत इह त्रिसना बुझै ॥ जासु जपत हरि दरगह सिझै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वसि = काबू में। संचा = एकत्र कर लेते हैं। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सिझै = कामयाब हो जाता है।3।
अर्थ: जिसका नाम जपने से (कामादिक) पाँचों विकार काबू आ जाते हैं, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल हृदय में इकट्ठा कर सकते हैं, माया की प्यास बुझ जाती है और परमात्मा की दरगाह में भी कामयाब हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जासु जपत कोटि मिटहि अपराध ॥ जासु जपत हरि होवहि साध ॥ जासु जपत मनु सीतलु होवै ॥ जासु जपत मलु सगली खोवै ॥४॥
मूलम्
जासु जपत कोटि मिटहि अपराध ॥ जासु जपत हरि होवहि साध ॥ जासु जपत मनु सीतलु होवै ॥ जासु जपत मलु सगली खोवै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। साध = भले मनुष्य। सगली = सारी। खोवै = नाश कर लेता है।4।
अर्थ: (हे भाई! तू उस परमात्मा की महिमा करता रह) जिसका नाम जपने से (पिछले किए हुए) करोड़ों पाप मिट जाते हैं, तथा (आगे के लिए) भले मनुष्य बन जाते हैं, जिसका नाम जपने से मन (विकारों की तपश से) ठण्डा शीतल हो जाता है और अपने अंदर की (विकारों की) सारी मैल दूर कर लेता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जासु जपत रतनु हरि मिलै ॥ बहुरि न छोडै हरि संगि हिलै ॥ जासु जपत कई बैकुंठ वासु ॥ जासु जपत सुख सहजि निवासु ॥५॥
मूलम्
जासु जपत रतनु हरि मिलै ॥ बहुरि न छोडै हरि संगि हिलै ॥ जासु जपत कई बैकुंठ वासु ॥ जासु जपत सुख सहजि निवासु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहुरि = दुबारा, फिर कभी। हिल = गिझ जाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में।5।
अर्थ: जिस का जाप करने से मनुष्य को हरि नाम रत्न प्राप्त हो जाता है, (नाम जपने की इनायत से) मनुष्य परमात्मा के साथ इतना रच-मिच जाता है कि (प्राप्त किए हुए उस नाम-रत्न को) दुबारा नहीं छोड़ता, जिसका नाम जपने से आत्मिक आनंद मिलता है आत्मिक अडोलता में ठिकाना मिल जाता है, तथा, मानो जैसे, अनेक बैकुंठों का निवास हासिल हो जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जासु जपत इह अगनि न पोहत ॥ जासु जपत इहु कालु न जोहत ॥ जासु जपत तेरा निरमल माथा ॥ जासु जपत सगला दुखु लाथा ॥६॥
मूलम्
जासु जपत इह अगनि न पोहत ॥ जासु जपत इहु कालु न जोहत ॥ जासु जपत तेरा निरमल माथा ॥ जासु जपत सगला दुखु लाथा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कालु = मौत, आत्मिक मौत, मौत का सहम। जोहत = देख सकता। निरमल = साफ, रौशन।6।
अर्थ: (हे भाई! तू उस परमात्मा की महिमा करता रह) जिसका नाम जपने से तृष्णा की आग छू नहीं सकेगी, मौत का सहम नजदीक नहीं फटकेगा (आत्मिक मौत अपना जोर नहीं डाल पाएगी), हर जगह तू उज्जवल-मुख रहेगा, और तेरा हरेक किस्म का दुख दूर हो जाएगा।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जासु जपत मुसकलु कछू न बनै ॥ जासु जपत सुणि अनहत धुनै ॥ जासु जपत इह निरमल सोइ ॥ जासु जपत कमलु सीधा होइ ॥७॥
मूलम्
जासु जपत मुसकलु कछू न बनै ॥ जासु जपत सुणि अनहत धुनै ॥ जासु जपत इह निरमल सोइ ॥ जासु जपत कमलु सीधा होइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणि = सुने, सुनता है। अनहत = (अन+आहत् = बिनाबजाए बजने वाली) एक रस, लगातार। धुनै = धुनि, आवाज, आत्मिक आनंद की लहर। सोइ = शोभा। कमलु = कमल फूल रूपी हृदय। सीधा = सीधा।7।
अर्थ: (हे भाई! तू उस परमात्मा की महिमा करता रह) जिसका नाम जपने से (मनुष्य के जीवन सफर में) कोई मुश्किल नहीं बनती, मनुष्य एक-रस आत्मिक आनंद के गीत की धुनि सुनता रहता है (मनुष्य के अंदर हर वक्त आत्मिक आनंद की लहर चली रहती है), जिसका नाम जपने से मनुष्य का कमल रूपी हृदय (विकारों से पलट के, परमात्मा की याद की तरफ) सीधा हो जाता है, और मनुष्य (लोक-परलोक में) पवित्र शोभा कमाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि सुभ द्रिसटि सभ ऊपरि करी ॥ जिस कै हिरदै मंत्रु दे हरी ॥ अखंड कीरतनु तिनि भोजनु चूरा ॥ कहु नानक जिसु सतिगुरु पूरा ॥८॥२॥
मूलम्
गुरि सुभ द्रिसटि सभ ऊपरि करी ॥ जिस कै हिरदै मंत्रु दे हरी ॥ अखंड कीरतनु तिनि भोजनु चूरा ॥ कहु नानक जिसु सतिगुरु पूरा ॥८॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। द्रिसटि = दृष्टि, नजर। सभ ऊपरि = सब से बढ़िया। मंत्रु दे हरी = हरि के नाम का मंत्र देता है। तिनि = उस मनुष्य ने। चूरा = चूरी, चूरमा।8।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई! गुरु) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम जपने का उपदेश बसाता है उस मनुष्य पर गुरु ने (जैसे) सबसे बढ़िया किस्म की मेहर की नजर कर दी। जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल पड़ा, उसने परमात्मा की एक-रस महिमा को अपनी आत्मा के लिए स्वादिष्ट भोजन बना लिया।8।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ गुर का सबदु रिद अंतरि धारै ॥ पंच जना सिउ संगु निवारै ॥ दस इंद्री करि राखै वासि ॥ ता कै आतमै होइ परगासु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ गुर का सबदु रिद अंतरि धारै ॥ पंच जना सिउ संगु निवारै ॥ दस इंद्री करि राखै वासि ॥ ता कै आतमै होइ परगासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिद अंतरि = हृदय में। संगु = साथ। निवारै = हटा लेता है। वासि = वश में। परगासु = प्रकाश।1।
अर्थ: वह मनुष्य अपने हृदय में गुरु का शब्द बसाता है, कामादिक पाँचों विकारों से अपना साथ हटा लेता है, दसों ही इंद्रियों को अपने काबू में कर लेता हैऔर उसकी आत्मा में प्रकाश हो जाता है (उसे आत्मिक जीवन की समझ आ जाती है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी द्रिड़ता ता कै होइ ॥ जा कउ दइआ मइआ प्रभ सोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसी द्रिड़ता ता कै होइ ॥ जा कउ दइआ मइआ प्रभ सोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिढ़ता = दृढ़ता, मजबूती, मानसिक ताकत। ता कै = उस मनुष्य के अंदर। जा कउ = जिससे।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा की दया होती है, कृपा होती है, उस मनुष्य के हृदय में ऐसा आत्मिक बल पैदा होता है, कि।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साजनु दुसटु जा कै एक समानै ॥ जेता बोलणु तेता गिआनै ॥ जेता सुनणा तेता नामु ॥ जेता पेखनु तेता धिआनु ॥२॥
मूलम्
साजनु दुसटु जा कै एक समानै ॥ जेता बोलणु तेता गिआनै ॥ जेता सुनणा तेता नामु ॥ जेता पेखनु तेता धिआनु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुसटु = वैरी। जेता = जितना भी। तेता = उतना ही। पेखनु = देखना।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को अपने हृदय में मित्र और वैरी एक जैसे ही प्रतीत होते हैं, जितना कुछ वह बोलता है, आत्मिक जीवन की सूझ के बारे में बोलता है, जितना कुछ सुनता है, परमात्मा की महिमा ही सुनता है, जितना कुछ देखता है, परमात्मा में तवज्जो जोड़ने के कारण ही बनता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजे जागणु सहजे सोइ ॥ सहजे होता जाइ सु होइ ॥ सहजि बैरागु सहजे ही हसना ॥ सहजे चूप सहजे ही जपना ॥३॥
मूलम्
सहजे जागणु सहजे सोइ ॥ सहजे होता जाइ सु होइ ॥ सहजि बैरागु सहजे ही हसना ॥ सहजे चूप सहजे ही जपना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजे = आत्मिक अडोलता में। सोइ = सोता है। होता जाइ = होता जाता है। बैरागु = शक पैदा करने वाली घटना। चूप = चुप। जपना = बोलना।3।
अर्थ: वह मनुष्य चाहे जागता है, चाहे सोया हुआ है, वह सदा आत्मिक अडोलता में ही टिका रहता है; परमात्मा की रजा में जो कुछ होता है, उसे ठीक मानता है, और आत्मिक अडोलता में ही लीन रहता है; कोई गमी की घटना हो जाए, चाहे खुशी का कारण बने, वह आत्मिक अडोलता में ही रहता है; अगर वह चुप बैठा है तो भी अडोलता में है और अगर बोल रहा है तो भी अडोलता में है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजे भोजनु सहजे भाउ ॥ सहजे मिटिओ सगल दुराउ ॥ सहजे होआ साधू संगु ॥ सहजि मिलिओ पारब्रहमु निसंगु ॥४॥
मूलम्
सहजे भोजनु सहजे भाउ ॥ सहजे मिटिओ सगल दुराउ ॥ सहजे होआ साधू संगु ॥ सहजि मिलिओ पारब्रहमु निसंगु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुराउ = छुपाना, कपट भाव। निसंगु = प्रत्यक्ष।4।
अर्थ: आत्मिक अडोलता में टिका हुआ ही वह खाने-पीने का व्यवहार करता है, आत्मिक अडोलता में ही वह दूसरों के साथ प्रेम भरा सलूक करता है; आत्मिक अडोलता में टिके रहने के कारण उसके अंदर से सारा कपट-भाव मिट जाता है; आत्मिक अडोलता में ही उसे गुरु का मिलाप हो जाता है, और प्रत्यक्ष तौर पर उसे परमात्मा मिल जाता है।4।
[[0237]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजे ग्रिह महि सहजि उदासी ॥ सहजे दुबिधा तन की नासी ॥ जा कै सहजि मनि भइआ अनंदु ॥ ता कउ भेटिआ परमानंदु ॥५॥
मूलम्
सहजे ग्रिह महि सहजि उदासी ॥ सहजे दुबिधा तन की नासी ॥ जा कै सहजि मनि भइआ अनंदु ॥ ता कउ भेटिआ परमानंदु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुबिधा = मेर-तेर। सहजि = आत्मिक अडोलता के द्वारा। मनि = मन में। परमानंदु = ऊँचे आनंद का मालिक, परमात्मा।5।
अर्थ: अगर वह घर में है तो भी आत्मिक अडोलता में, अगर वह दुनिया से उपराम फिरता है तो भी आत्मिक अडोलता में टिके रहने के कारण उसके हृदय में से मेर-तेर दूर हो जाती है। (हे भाई!) आत्मिक अडोलता के कारण जिस मनुष्य के मन में आनंद पैदा होता है उसे वह परमात्मा मिल जाता है जो सबसे ऊँचे आत्मिक आनंद का मालिक है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजे अम्रितु पीओ नामु ॥ सहजे कीनो जीअ को दानु ॥ सहज कथा महि आतमु रसिआ ॥ ता कै संगि अबिनासी वसिआ ॥६॥
मूलम्
सहजे अम्रितु पीओ नामु ॥ सहजे कीनो जीअ को दानु ॥ सहज कथा महि आतमु रसिआ ॥ ता कै संगि अबिनासी वसिआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पीओ = पीता। जीअ को = आत्मिक जीवन का। को = का। आतमु = अपना आप। रसिआ = रच-मिच गया।6।
अर्थ: वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के नाम-अमृत पीता रहता है, इस आत्मिक अडोलता की इनायत से वह (और लोगों को भी) आत्मिक जीवन की दाति देता है। आत्मिक अडोलता पैदा करने वाली प्रभु की महिमा की बातों में उसकी जिंद घुली-मिली रहती है, उसके दिल में अविनाशी परमात्मा आ बसता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजे आसणु असथिरु भाइआ ॥ सहजे अनहत सबदु वजाइआ ॥ सहजे रुण झुणकारु सुहाइआ ॥ ता कै घरि पारब्रहमु समाइआ ॥७॥
मूलम्
सहजे आसणु असथिरु भाइआ ॥ सहजे अनहत सबदु वजाइआ ॥ सहजे रुण झुणकारु सुहाइआ ॥ ता कै घरि पारब्रहमु समाइआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आसणु = ठिकाना। भाइआ = अच्छा लगा। अनहत = एक रस। रुणझुणकार = आत्मिक आनंद की एक रस लहर। घरि = घर में।7।
अर्थ: आत्मिक अडोलता में उसका सदा-टिकने वाला ठिकाना बना रहता है और उसे वह ठिकाना अच्छा लगता है, आत्मिक अडोलता में टिक के ही वह अपने अंदर एक-रस महिमा की वाणी प्रबल किए रखता है, आत्मिक अडोलता के कारण ही उसके अंदर आत्मिक आनंद की एक-रस लहर सुहानी बनी रहती है। (हे भाई!) उसके हृदय में परमात्मा सदा प्रगट रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजे जा कउ परिओ करमा ॥ सहजे गुरु भेटिओ सचु धरमा ॥ जा कै सहजु भइआ सो जाणै ॥ नानक दास ता कै कुरबाणै ॥८॥३॥
मूलम्
सहजे जा कउ परिओ करमा ॥ सहजे गुरु भेटिओ सचु धरमा ॥ जा कै सहजु भइआ सो जाणै ॥ नानक दास ता कै कुरबाणै ॥८॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमा = करम, बख्शिश। परिओ करमा = मेहर हुई। भेटिओ = मिल पड़ा सहजु = आत्मिक अडोलता।8।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा की कृपा होती है वह आत्मिक अडोलता में टिकता है, उसे गुरु मिलता है, सदा स्थिर नाम के स्मरण को वह अपना धर्म बना लेता है।
(पर ये सहज अवस्था बयान नहीं की जा सकती) जिस मनुष्य के अंदर ये आत्मिक अडोलता पैदा होती है, वही मनुष्य उसे समझ सकता है, दास नानक उस (भाग्यशाली मनुष्य) से कुर्बान जाता है।8।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ प्रथमे गरभ वास ते टरिआ ॥ पुत्र कलत्र कुट्मब संगि जुरिआ ॥ भोजनु अनिक प्रकार बहु कपरे ॥ सरपर गवनु करहिगे बपुरे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ प्रथमे गरभ वास ते टरिआ ॥ पुत्र कलत्र कुट्मब संगि जुरिआ ॥ भोजनु अनिक प्रकार बहु कपरे ॥ सरपर गवनु करहिगे बपुरे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रथमे = पहले। गरभ वास ते = माँ के पेट में बसने से। टरिआ = टला, खलासी हासिल करता है। कलत्र = स्त्री। जुरिआ = जुड़ा रहता है, मोह में फंसा रहता है। कपरे = कपड़े। सरपर = जरूर। गवनु = गमन, प्रस्थान, चलाणा। बपुरे = बिचारे, यतीमों की तरह।1।
अर्थ: (हे भाई!) जीव पहले माँ के पेट में बसने से निजात हासिल करता है, (जगत में जन्म लेकर फिर धीरे-धीरे जवानी पे पहुँच के) पुत्र-स्त्री आदि परिवार के मोह में फसा रहता है, कई किस्मों का खाना खाता है, कई किस्मों के कपड़े पहनता है (सारी उम्र इन रंगों में ही मस्त रह के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है, पर ऐसे लोग भी) जरूर यतीमों की तरह ही (जगत से) कूच कर जाएंगे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवनु असथानु जो कबहु न टरै ॥ कवनु सबदु जितु दुरमति हरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कवनु असथानु जो कबहु न टरै ॥ कवनु सबदु जितु दुरमति हरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवनु = कौन सा? न टरै = नाश नहीं होता। जितु = जिससे। दुरतमि = खोटी बुद्धि। हरै = दूर होती है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) वह कौन सी जगह है जो सदा अटल रहती है (चिरस्थाई है)? वह कौन सा शब्द है जिसकी इनायत से (मनुष्य की) दुर्मति दूर होती है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इंद्र पुरी महि सरपर मरणा ॥ ब्रहम पुरी निहचलु नही रहणा ॥ सिव पुरी का होइगा काला ॥ त्रै गुण माइआ बिनसि बिताला ॥२॥
मूलम्
इंद्र पुरी महि सरपर मरणा ॥ ब्रहम पुरी निहचलु नही रहणा ॥ सिव पुरी का होइगा काला ॥ त्रै गुण माइआ बिनसि बिताला ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इंद्र पुरी = वह पुरी जिसे इंद्र देवते का राज माना जाता है। ब्रहमपुरी = ब्रहमा की पुरी। मरणा = मौत। काल = नाश। बिनसि = नाश होता है। बिताला = बे ताला, ताल के बगैर।2।
अर्थ: (हे भाई! औरों की तो बात ही क्या है?) इंद्र पुरी में मौत अवश्य आती है, ब्रहमपुरी भी सदा अटल नहीं रह सकती, शिवपुरी का भी नाश हो जाएगा। (पर जगत) तीन गुणों वाली माया के असर तहित जीवन के सही राह से विछुड़ के आत्मिक मौत बर्दाश्त करता रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरि तर धरणि गगन अरु तारे ॥ रवि ससि पवणु पावकु नीरारे ॥ दिनसु रैणि बरत अरु भेदा ॥ सासत सिम्रिति बिनसहिगे बेदा ॥३॥
मूलम्
गिरि तर धरणि गगन अरु तारे ॥ रवि ससि पवणु पावकु नीरारे ॥ दिनसु रैणि बरत अरु भेदा ॥ सासत सिम्रिति बिनसहिगे बेदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिरि = पहाड़। तर = वृक्ष। धरणि = धरती। गगन = आकाश। अरु = और। रवि = सूर्य। ससि = चंद्रमा। पावकु = आग। नीरारे = नीर, पानी। रैणि = रात। भेदा = अलग अलग मर्यादा।3।
अर्थ: (हे भाई!) पहाड़, वृक्ष, धरती, आकाश व तारे, सूरज, चाँद, हवा, आग पानी, दिन और रात; व्रत आदि भिन्न-भिन्न किस्म की मर्यादाएं, वेद, स्मृतियां, शास्त्र–ये सब कुछ आखिर नाश हो जाएंगे।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथ देव देहुरा पोथी ॥ माला तिलकु सोच पाक होती ॥ धोती डंडउति परसादन भोगा ॥ गवनु करैगो सगलो लोगा ॥४॥
मूलम्
तीरथ देव देहुरा पोथी ॥ माला तिलकु सोच पाक होती ॥ धोती डंडउति परसादन भोगा ॥ गवनु करैगो सगलो लोगा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देव = देवते। देहुरा = देवते का घर, मंदिर। पोथी = पुस्तक। सोच पाक = पवित्र रसोई। पाक = भोजन पकाना। होती = होत्री, आहुति, हवन करने वाले। धोती = नेती धोती कर्म, कपड़े के टुकड़े के साथ मेदे को साफ करने का तरीका। परसादन भोगा = (प्रसाधन = महल) महलों के भोग।4।
अर्थ: (हे भाई!) तीर्थ, देवते, मंदिर, (धर्म-) पुस्तकें; माला, तिलक, स्वच्छ रसोई, हवन करने वाले; (नेती-) धोती व डंडवत-नमस्कारें; (दूसरी तरफ) महलों के भोग विलास- सारा जगत ही (आखिर) कूच कर जाएगा।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाति वरन तुरक अरु हिंदू ॥ पसु पंखी अनिक जोनि जिंदू ॥ सगल पासारु दीसै पासारा ॥ बिनसि जाइगो सगल आकारा ॥५॥
मूलम्
जाति वरन तुरक अरु हिंदू ॥ पसु पंखी अनिक जोनि जिंदू ॥ सगल पासारु दीसै पासारा ॥ बिनसि जाइगो सगल आकारा ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरन = वर्ण (ब्राहमण, खत्री, वैश्य, शूद्र)। जिंदू = जीव। आकारा = दिखाई देता जगत।5।
अर्थ: (अलग-अलग) जातियों (ब्राहमण, क्षत्रिय आदि) वर्ण, मुसलमान व हिंदू; पशु-पक्षी, अनेक जूनियों के जीव; ये सारा जगत पसारा जो दिखाई दे रहा है, ये सारा दृष्टमान जगत (आखिर) नाश हो जाएगा।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज सिफति भगति ततु गिआना ॥ सदा अनंदु निहचलु सचु थाना ॥ तहा संगति साध गुण रसै ॥ अनभउ नगरु तहा सद वसै ॥६॥
मूलम्
सहज सिफति भगति ततु गिआना ॥ सदा अनंदु निहचलु सचु थाना ॥ तहा संगति साध गुण रसै ॥ अनभउ नगरु तहा सद वसै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। ततु = जगत का मूल प्रभु! निहचल = अटल। सचु = सदा कायम रहने वाला। तहा = वहाँ, उस अवस्था में। गुण रसै = गुणों का आनंद लेती है। अनभउ नगरु = वह अवस्था रूप नगर जहाँ कोई डर नहीं व्याप सकता।6।
अर्थ: (पर, हे भाई!) वह (उच्च आत्मिक अवस्था-) स्थल सदा कायम रहने वाला है अटल है और वहाँ सदा ही आनंद भी है, जहाँ आत्मिक अडोलता देने वाली महिमा हो रही है जहाँ भक्ति हो रही है, जहाँ जगत के मूल परमात्मा के साथ सांझ पड़ रही है, वहाँ साधु-संगत परमात्मा के गुणों का आनंद लेती है, वहाँ सदा एक ऐसा नगर बसा रहता है जहाँ किसी किस्म का कोई डर फटक नहीं सकता।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तह भउ भरमा सोगु न चिंता ॥ आवणु जावणु मिरतु न होता ॥ तह सदा अनंद अनहत आखारे ॥ भगत वसहि कीरतन आधारे ॥७॥
मूलम्
तह भउ भरमा सोगु न चिंता ॥ आवणु जावणु मिरतु न होता ॥ तह सदा अनंद अनहत आखारे ॥ भगत वसहि कीरतन आधारे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तह = उस अवस्था-नगर में। मिरतु = मौत, मौत का सहम, आत्मिक मौत। अनहत = एक रस। अनंद आखारे = आनंद के एकत्र। आधारे = आसरे।7।
अर्थ: (हे भाई!) उस (ऊँची आत्मिक अवस्था-) स्थल में कोई डर, कोई भ्रम, कोई गम, कोई चिन्ता नहीं पहुँच सकते, वहाँ जनम मरण का चक्र नहीं रहता, वहाँ आत्मिक मौत नहीं होती, वहाँ सदा एक रस आत्मिक आनंद के (जैसे) अखाड़े लगे रहते हैं, वहाँ भक्त-जन परमात्मा की महिमा के आसरे बसते हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम का अंतु न पारु ॥ कउणु करै ता का बीचारु ॥ कहु नानक जिसु किरपा करै ॥ निहचल थानु साधसंगि तरै ॥८॥४॥
मूलम्
पारब्रहम का अंतु न पारु ॥ कउणु करै ता का बीचारु ॥ कहु नानक जिसु किरपा करै ॥ निहचल थानु साधसंगि तरै ॥८॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता का = उस (पारब्रहम) का। साध संगि = साधु-संगत में।8।
अर्थ: (हे भाई! जिस परमात्मा की ये रचना रची हुई है) उस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पड़ सकता, उस पार का छोर नहीं मिल सकता। (जगत में) ऐसा कोई मनुष्य नहीं है, जो उसके गुणों का अंत पाने का विचार कर सके। हे नानक! कह: जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करता है उसे सदा कायम रहने वाली जगह साधु-संगत प्राप्त हो जाती है, साधु-संगत में रह कर वह मनुष्य (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है।8।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जो इसु मारे सोई सूरा ॥ जो इसु मारे सोई पूरा ॥ जो इसु मारे तिसहि वडिआई ॥ जो इसु मारे तिस का दुखु जाई ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जो इसु मारे सोई सूरा ॥ जो इसु मारे सोई पूरा ॥ जो इसु मारे तिसहि वडिआई ॥ जो इसु मारे तिस का दुखु जाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरा = शूरवीर, बली। पूरा = सारे गुणों का मालिक। तिसहि = उसी को। जाई = दूर होता है।1।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य इस मेर-तेर को खत्म कर लेता है, वही (विकारों के मुकाबले में) बली शूरवीर है, वही सारे गुणों का मालिक है। जो मनुष्य इस दुबिधा को मार लेता है, उसे (हर जगह) आदर मिलता है, उस मनुष्य का (हरेक किस्म का) दुख दूर हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा कोइ जि दुबिधा मारि गवावै ॥ इसहि मारि राज जोगु कमावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा कोइ जि दुबिधा मारि गवावै ॥ इसहि मारि राज जोगु कमावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोइ = कोई विरला। दुबिधा = मेर-तेर। मारि = मार के। राज जोगु = राज कमाते हुए प्रभु से मिलाप, गृहस्थ में रहते हुए प्रभु से मेल। इसहि = इस (दुबिधा) को।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जगत में) ऐसा कोई विरला मनुष्य है, जो अपने अंदर से मेर-तेर को खत्म कर देता है। जो इस मेर-तेर को मार लेता है, वह गृहस्थ में रहते हुए ही परमात्मा के साथ जोड़ (योग) पैदा करने का अभ्यासी है।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
जो इसु मारे तिस कउ भउ नाहि ॥ जो इसु मारे सु नामि समाहि ॥ जो इसु मारे तिस की त्रिसना बुझै ॥ जो इसु मारे सु दरगह सिझै ॥२॥
मूलम्
जो इसु मारे तिस कउ भउ नाहि ॥ जो इसु मारे सु नामि समाहि ॥ जो इसु मारे तिस की त्रिसना बुझै ॥ जो इसु मारे सु दरगह सिझै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। समाहि = लीन रहते हैं (‘समाहि’ बहुवचन है)। सिझै = कामयाब होता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य इस दुबिधा को खत्म कर लेता है, उसे (दुनिया का कोई) डर सता नहीं सकता। जो जो मनुष्य इसे समाप्त कर लेते हैं, वह सारे परमात्मा के नाम में लीन हो जाते हैं। जो मनुष्य इस मेर-तेर को अपने अंदर से दूर कर लेते हैं, उनकी माया की तृष्णा समाप्त हो जाती है, वे परमात्मा की दरगाह में कामयाब हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो इसु मारे सो धनवंता ॥ जो इसु मारे सो पतिवंता ॥ जो इसु मारे सोई जती ॥ जो इसु मारे तिसु होवै गती ॥३॥
मूलम्
जो इसु मारे सो धनवंता ॥ जो इसु मारे सो पतिवंता ॥ जो इसु मारे सोई जती ॥ जो इसु मारे तिसु होवै गती ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पति = इज्जत। जती = कामवासना पर काबू रखने वाला। गती = ऊँची आत्मिक अवस्था।3।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य दुबिधा को मिटा लेता है, वह नाम-धन का मालिक बन जाता है, वह इज्जत वाला हो जाता है। वही असल जती है। उसको उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो इसु मारे तिस का आइआ गनी ॥ जो इसु मारे सु निहचलु धनी ॥ जो इसु मारे सो वडभागा ॥ जो इसु मारे सु अनदिनु जागा ॥४॥
मूलम्
जो इसु मारे तिस का आइआ गनी ॥ जो इसु मारे सु निहचलु धनी ॥ जो इसु मारे सो वडभागा ॥ जो इसु मारे सु अनदिनु जागा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गनी = गिना जाता है। निहचलु = विकारों के मुकाबले में अडोल। धनी = मालिक। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागा = जागता है, माया के हमलों की ओर से सुचेत रहता है।4।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य दुबिधा को मिटा लेता है, उसका जगत में आना सफल समझा जाता है, वह माया के हमलों के मुकाबले से अडोल रहता है, वही असल धनवान है। जो मनुष्य अपने अंदर से मेर-तेर दूर कर लेता है, वह बड़ा भाग्यशाली है, वह हर वक्त माया के हमलों से सुचेत रहता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो इसु मारे सु जीवन मुकता ॥ जो इसु मारे तिस की निरमल जुगता ॥ जो इसु मारे सोई सुगिआनी ॥ जो इसु मारे सु सहज धिआनी ॥५॥
मूलम्
जो इसु मारे सु जीवन मुकता ॥ जो इसु मारे तिस की निरमल जुगता ॥ जो इसु मारे सोई सुगिआनी ॥ जो इसु मारे सु सहज धिआनी ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवन मुकता = जीवित ही विकारों से बचा हुआ, दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही विकारों से मुक्त। निरमल = पवित्र। जुगता = जीवन जुगति, रहन सहन। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज धिआनी = आत्मिक अडोलता में टिके रहने वाला।5।
अर्थ: जो मनुष्य इस दुबिधा को खत्म कर लेता है, वह दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही विकारों से आजाद रहता है, उसका रहन-सहन सदा पवित्र होता है, वही मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ वाला है, वह सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु मारी बिनु थाइ न परै ॥ कोटि करम जाप तप करै ॥ इसु मारी बिनु जनमु न मिटै ॥ इसु मारी बिनु जम ते नही छुटै ॥६॥
मूलम्
इसु मारी बिनु थाइ न परै ॥ कोटि करम जाप तप करै ॥ इसु मारी बिनु जनमु न मिटै ॥ इसु मारी बिनु जम ते नही छुटै ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थाइ न परै = स्वीकार नहीं होता। कोटि = करोड़ों। जाप = देवताओं को वश करने वाले मंत्रों का अभ्यास। तप = धूणियां आदि शारीरिक कष्ट। जम ते = जम से, मौत के डर से, आत्मिक मौत से।6।
अर्थ: (हे भाई!) इस मेर-तेर को दूर किए बिना कोई भी मनुष्य परमात्मा की नजरों में स्वीकार नहीं होता, चाहे वह करोड़ों जप और तप आदि कर्म करता रहे। दुबिधा को मिटाए बिना मनुष्य का जन्मों का चक्र खत्म नहीं होता, जमों से निजात नहीं मिलती।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु मारी बिनु गिआनु न होई ॥ इसु मारी बिनु जूठि न धोई ॥ इसु मारी बिनु सभु किछु मैला ॥ इसु मारी बिनु सभु किछु जउला ॥७॥
मूलम्
इसु मारी बिनु गिआनु न होई ॥ इसु मारी बिनु जूठि न धोई ॥ इसु मारी बिनु सभु किछु मैला ॥ इसु मारी बिनु सभु किछु जउला ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ किछु = हरेक काम। जउला = अलग।7।
अर्थ: (हे भाई!) दुबिधा दूर किए बिना मनुष्य की परमात्मा के साथ गहरी सांझ नहीं बन सकती, मन में से विकारों की मैल नहीं धुलती। जब तक मनुष्य दुबिधा को नहीं खत्म करता, (वह) जो कुछ भी करता है मन को और विकारी बनाए जाता है और परमात्मा से दूरी बनाए रखता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ भए क्रिपाल क्रिपा निधि ॥ तिसु भई खलासी होई सगल सिधि ॥ गुरि दुबिधा जा की है मारी ॥ कहु नानक सो ब्रहम बीचारी ॥८॥५॥
मूलम्
जा कउ भए क्रिपाल क्रिपा निधि ॥ तिसु भई खलासी होई सगल सिधि ॥ गुरि दुबिधा जा की है मारी ॥ कहु नानक सो ब्रहम बीचारी ॥८॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रिपानिधि = दया का खजाना। सिधि = सिद्धि, सफलता। गुरि = गुरु ने। जा की = जिस की। ब्रहम बीचारी = परमात्मा के गुणों की विचार करने वाला।8।
अर्थ: जिस मनुष्य पर दया का खजाना परमात्मा दयावान होता है, उसे दुबिधा से निजात मिल जाती है, उसे जीवन की पूरी सफलता प्राप्त हो जाती है।
हे नानक! कह: गुरु ने जिस मनुष्य के अंदर से मेर-तेर दूर कर दी, वह परमात्मा के गुणों के विचार करने के काबिल हो गया।8।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हरि सिउ जुरै त सभु को मीतु ॥ हरि सिउ जुरै त निहचलु चीतु ॥ हरि सिउ जुरै न विआपै काड़्हा ॥ हरि सिउ जुरै त होइ निसतारा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हरि सिउ जुरै त सभु को मीतु ॥ हरि सिउ जुरै त निहचलु चीतु ॥ हरि सिउ जुरै न विआपै काड़्हा ॥ हरि सिउ जुरै त होइ निसतारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। जुरै = जुड़ता है, प्यार पैदा करता है। सभु को = हरेक मनुष्य। त = तो, तब। निहचलु = (विकारों के हमलों की ओर से) अडोल। काढ़ा = फिक्र, चिन्ता, झोरा। विआपै = जोर डाल सकता। निसतारा = पार उतारा।1।
अर्थ: (हे भाई!) जब मनुष्य परमात्मा के साथ प्यार पैदा करता है, तो उसे हरेक मनुष्य अपना मित्र दिखाई देता है, तब उसका चित्त (विकारों के हमलों के मुकाबले पर सदा) अडोल रहता है, कोई चिन्ता-फिक्र उस पर अपना जोर नहीं डाल सकती, (इस संसार समुंदर में से) उसका पार उतारा हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे मन मेरे तूं हरि सिउ जोरु ॥ काजि तुहारै नाही होरु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रे मन मेरे तूं हरि सिउ जोरु ॥ काजि तुहारै नाही होरु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोरु = जोड़, प्रीत बना। काजि = काम में। होरु = कोई और उद्यम।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! तू अपनी प्रीति परमात्मा से बना। (परमात्मा से प्रीति बनाए बगैर) कोई और उद्यम तेरे किसी काम नहीं आएगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडे वडे जो दुनीआदार ॥ काहू काजि नाही गावार ॥ हरि का दासु नीच कुलु सुणहि ॥ तिस कै संगि खिन महि उधरहि ॥२॥
मूलम्
वडे वडे जो दुनीआदार ॥ काहू काजि नाही गावार ॥ हरि का दासु नीच कुलु सुणहि ॥ तिस कै संगि खिन महि उधरहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुनीआदार = धनाढ। काहू काजि = किसी काम में। गावार = मूर्ख। नीच कुलु = नीच कुल वाला, नीच घराने में पैदा हुआ हुआ। सुणहि = लोग सुनते हैं। संगि = संगति में। उधरहि = (विकारों से) बच जाते हैं।2।
अर्थ: (हे भाई! जगत में) जो जो बड़ी बड़ी जायदादों वाले हैं, उन मूर्खों की (कोई जयदाद आत्मिक जीवन के रास्ते में) उनके काम नहीं आती। (दूसरी तरफ) परमात्मा का भक्त चाहे छोटे कुल में भी पैदा हुआ हो, तो भी लोग उसकी शिक्षा सुनते हैं, और उसकी संगति में रह के (संसार समुंदर की विकारों की लहरों में से) एक पल में बच निकलते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि मजन जा कै सुणि नाम ॥ कोटि पूजा जा कै है धिआन ॥ कोटि पुंन सुणि हरि की बाणी ॥ कोटि फला गुर ते बिधि जाणी ॥३॥
मूलम्
कोटि मजन जा कै सुणि नाम ॥ कोटि पूजा जा कै है धिआन ॥ कोटि पुंन सुणि हरि की बाणी ॥ कोटि फला गुर ते बिधि जाणी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। मजन = तीर्थ स्नान। जा कै सुणि नामि = जिसका नाम सुनने में। जा कै धिआन = जिसका ध्यान धरने में। सुणि = सुन के। गुर ते = गुरु से। बिधि = (मिलने का) तरीका। जाणी = जाना।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का नाम सुनने में करोड़ों तीर्थ स्नान आ जाते हैं, जिस परमात्मा का ध्यान धरने में करोड़ों देव-पूजा आ जाती हैं, जिस परमात्मा की महिमा की वाणी सुनने में करोड़ों पुण्य हो जाते हैं, गुरु से उस परमात्मा से मिलाप की विधि सीखने से ये सारे करोड़ों फल प्राप्त हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन अपुने महि फिरि फिरि चेत ॥ बिनसि जाहि माइआ के हेत ॥ हरि अबिनासी तुमरै संगि ॥ मन मेरे रचु राम कै रंगि ॥४॥
मूलम्
मन अपुने महि फिरि फिरि चेत ॥ बिनसि जाहि माइआ के हेत ॥ हरि अबिनासी तुमरै संगि ॥ मन मेरे रचु राम कै रंगि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फिरि फिरि = बार बार, सदा। चेत = याद कर। हेत = मोह। संगि = साथ। रचु = जुड़ा रह। रंगि = प्रेम में।4।
अर्थ: (हे भाई!) अपने मन में तू सदा परमात्मा को याद रख, माया वाले तेरे सारे ही मोह नाश हो जाएंगे। हे मेरे मन! वह कभी नाश ना होने वाला परमात्मा सदा तेरे साथ बसता है, तू उस परमात्मा के प्रेम-रंग में सदा जुड़ा रह।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै कामि उतरै सभ भूख ॥ जा कै कामि न जोहहि दूत ॥ जा कै कामि तेरा वड गमरु ॥ जा कै कामि होवहि तूं अमरु ॥५॥
मूलम्
जा कै कामि उतरै सभ भूख ॥ जा कै कामि न जोहहि दूत ॥ जा कै कामि तेरा वड गमरु ॥ जा कै कामि होवहि तूं अमरु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै कामि = जिसकी सेवा से। न जोहहि = नहीं देखते। गमरु = ग़मर, तेज प्रताप। अमरु = सदीवी (चिरंकाल तक) आत्मिक जीवन वाला।5।
अर्थ: (हे भाई!) जिसकी सेवा भक्ति में लगने से (माया की) सारी भूख दूर हो जाती है, और जमदूत देख भी नहीं सकते, (हे भाई!) जिसकी सेवा भक्ति की इनायत से तेरा (हर जगह) बहुत तेज प्रताप बन सकता है, और तू चिर-आत्मिक जीवन वाला बन सकता है; ।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा के चाकर कउ नही डान ॥ जा के चाकर कउ नही बान ॥ जा कै दफतरि पुछै न लेखा ॥ ता की चाकरी करहु बिसेखा ॥६॥
मूलम्
जा के चाकर कउ नही डान ॥ जा के चाकर कउ नही बान ॥ जा कै दफतरि पुछै न लेखा ॥ ता की चाकरी करहु बिसेखा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा के = जिस के। डान = दण्ड, सजा, दुख-कष्ट। बान = (वयस्न) एब। जा कै दफतरि = जिसके दफतर में। चाकरी = सेवा। बिसेखा = विशेष तौर पर।6।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जा कै’ और ‘जा के’ का फर्क ध्यान रखने योग्य है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा के सेवक-भक्त को कोई दुख-कष्ट छू नहीं सकता, कोई ऐब नहीं चिपक सकता, जिस परमात्मा के दफतर में (सेवक भक्त से किए कर्मों का कोई) हिसाब नहीं मांगा जाता (क्योंकि सेवा-भक्ति कीबरकति से उससे कोई कुकर्म होते ही नहीं) उस परमात्मा की सेवा भक्ति विशेष तौर पर करते रहो।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै ऊन नाही काहू बात ॥ एकहि आपि अनेकहि भाति ॥ जा की द्रिसटि होइ सदा निहाल ॥ मन मेरे करि ता की घाल ॥७॥
मूलम्
जा कै ऊन नाही काहू बात ॥ एकहि आपि अनेकहि भाति ॥ जा की द्रिसटि होइ सदा निहाल ॥ मन मेरे करि ता की घाल ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै = जिसके घर में। ऊन = कमी। अनेकहि भाति = अनेक तरीकों से। निहाल = खुश प्रसन्न। द्रिसटि = दृष्टि, नजर, निगाह। घाल = सेवा।7।
अर्थ: हे मेरे मन! जिस परमात्मा के घर में किसी चीज की कमी नहीं, जो परमात्मा एक स्वयं ही स्वयं होता हुआ अनेक रूपों में प्रगट हो रहा है, जिस परमात्मा की मेहर की निगाह से हरेक जीव निहाल हो जाता है, तू उस परमात्मा की सेवा भक्ति कर।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना को चतुरु नाही को मूड़ा ॥ ना को हीणु नाही को सूरा ॥ जितु को लाइआ तित ही लागा ॥ सो सेवकु नानक जिसु भागा ॥८॥६॥
मूलम्
ना को चतुरु नाही को मूड़ा ॥ ना को हीणु नाही को सूरा ॥ जितु को लाइआ तित ही लागा ॥ सो सेवकु नानक जिसु भागा ॥८॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चतुरु = चालाक, समझदार। मूढ़ा = मूर्ख। को = कोई मनुष्य। होणु = हीन, कमजोर। सूरा = शूरवीर। जितु = जिस (काम) में। तित ही = उसमें ही।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तित ही’ में से ‘तितु’ की मात्रा‘ु’ क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गया है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (पर) हे नानक! (अपने आप) ना कोई मनुष्य समझदार बन सकता है, ना कोई मनुष्य (अपनी मर्जी से) मूर्ख टिका रहता है, ना कोई शक्तिहीन है ना कोई बलवान शूरवीर है। हरेक जीव उसी तरफ ही लगा हुआ है जिस तरफ परमात्मा ने उसे लगाया हुआ है। (परमात्मा की मेहर से) जिसकी किस्मत जाग जाती है, वही उसका सेवक बनता है।8।6।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ बिनु सिमरन जैसे सरप आरजारी ॥ तिउ जीवहि साकत नामु बिसारी ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ बिनु सिमरन जैसे सरप आरजारी ॥ तिउ जीवहि साकत नामु बिसारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आरजारी = उम्र। सर्प = सांप। जीवहि = जीते हैं। बिसारी = बिसार के।1।
अर्थ: (हे भाई!) जैसे साँप की उम्र है (उम्र तो लंबी है, पर साँप हमेशा दूसरों को डंक ही मारता रहता है) इसी तरह परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य परमात्मा का नाम भुला के स्मरण के बिना (व्यर्थ जीवन ही) जीते हैं (मौका मिलने पर दूसरों को डंक ही मारते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक निमख जो सिमरन महि जीआ ॥ कोटि दिनस लाख सदा थिरु थीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
एक निमख जो सिमरन महि जीआ ॥ कोटि दिनस लाख सदा थिरु थीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। जीआ = जीया गया, गुजारा वक्त। कोटि = करोड़ों। थिरु = कायम। थीआ = हो गया।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जो एक पलक झपकने मात्र समय भी परमात्मा के स्मरण में गुजारा जाए, वह, मानो, लाखों करोड़ों दिन (जी लिया, क्योंकि नाम जपने की इनायत से मनुष्य का आत्मिक जीवन) सदा के लिए अडोल हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सिमरन ध्रिगु करम करास ॥ काग बतन बिसटा महि वास ॥२॥
मूलम्
बिनु सिमरन ध्रिगु करम करास ॥ काग बतन बिसटा महि वास ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। काग = कौआ। बतन = वदन, मुंह। बिसटा = गंद, विष्टा।2।
अर्थ: (हे भाई!) प्रभु-स्मरण से विछुड़ के अन्य काम करने धिक्कारयोग्य ही हैं, जैसे कौए की चोंच गंदगी में ही रहती है, वैसे ही स्मरण-हीन मनुष्यों के मुंह (निंदा आदि की) गंदगी में ही रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सिमरन भए कूकर काम ॥ साकत बेसुआ पूत निनाम ॥३॥
मूलम्
बिनु सिमरन भए कूकर काम ॥ साकत बेसुआ पूत निनाम ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूकर काम = कुत्तों के कामों वाले। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। निनाम = जिनके पिता का नाम नहीं बताया जा सकता।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य वैश्याओं के पुत्रों की तरह (निर्लज) हो जाते हैं, जिनके पिता का नाम नहीं बताया जा सकता। प्रभु की याद से टूट के मनुष्य (लोभ व कामादिक में फंस के) कुत्तों जैसे कामों में प्रवृति रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सिमरन जैसे सीङ छतारा ॥ बोलहि कूरु साकत मुखु कारा ॥४॥
मूलम्
बिनु सिमरन जैसे सीङ छतारा ॥ बोलहि कूरु साकत मुखु कारा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीज्ञ = सींग। छतारा = भेड़। कूरु = झूठ। कारा = काला।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य (सदा) झूठ बोलते हैं, हर जगह मुंह की कालिख ही कमाते हैं। परमात्मा की याद से टूट के वह (धरती पर भार ही हैं, जैसे) भेड़ों के सिर पर सींग।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सिमरन गरधभ की निआई ॥ साकत थान भरिसट फिराही ॥५॥
मूलम्
बिनु सिमरन गरधभ की निआई ॥ साकत थान भरिसट फिराही ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरधभ = गदर्भ, गधा। निआई = जैसा। भरिसट भ्रष्ट, गंदे, विकारी। फिराही = फिरते हैं।5।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य (कुकर्मों वाली) गंदी जगहों पर ही फिरते रहते हैं, स्मरण से टूट के वे गधे जैसी (मलीन जीवन गुजारते हैं, जैसे गधा हमेशा राख-मिट्टी में लेट के खुश होता है)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सिमरन कूकर हरकाइआ ॥ साकत लोभी बंधु न पाइआ ॥६॥
मूलम्
बिनु सिमरन कूकर हरकाइआ ॥ साकत लोभी बंधु न पाइआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरकाइआ = पागल हुआ। बंधु = बाँध, रोक।6।
अर्थ: (हे भाई!) ईश्वर से टूटे हुए मनुष्य लोभ में ग्रसे रहते हैं (उनके राह में, लाखों रुपए कमा के भी) रोक नहीं पड़ सकती, स्मरण से टूट के वो, जैसे, पागल कुत्ते बन जाते हैं (जिसका संग करते हैं, उसी को लोभ का पागलपन चिपका देते हैं)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सिमरन है आतम घाती ॥ साकत नीच तिसु कुलु नही जाती ॥७॥
मूलम्
बिनु सिमरन है आतम घाती ॥ साकत नीच तिसु कुलु नही जाती ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आतमघाती = आत्मिक जीवन को नाश करने वाला। जाती = जाति।7।
अर्थ: (हे भाई!) ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य स्मरण से वंचित रह कर आत्मिक मौत ले लेता है, वह सदा नीच कर्मों में रुची रखता है, उसकी ना ऊँची कुल रह जाती है ना ही ऊँची जाति।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु भइआ क्रिपालु तिसु सतसंगि मिलाइआ ॥ कहु नानक गुरि जगतु तराइआ ॥८॥७॥
मूलम्
जिसु भइआ क्रिपालु तिसु सतसंगि मिलाइआ ॥ कहु नानक गुरि जगतु तराइआ ॥८॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु से।8।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य पर परमात्मा दयावान हो जाता है, उसे साधु-संगत में ला के शामिल कर लेता है, और इस तरह जगत को गुरु के द्वारा (संसार समुंदर के विकारों से) पार लंघाता है।8।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ गुर कै बचनि मोहि परम गति पाई ॥ गुरि पूरै मेरी पैज रखाई ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ गुर कै बचनि मोहि परम गति पाई ॥ गुरि पूरै मेरी पैज रखाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बचनि = वचन से, उपदेश की इनायत से। मोहि = मैं। परम गति = सब से ऊँची आत्मिक अवस्था। गुरि = गुरु ने। पैज = लज्जा।1।
अर्थ: गुरु के उपदेश पर चल के मैंने सब से ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली है, (दुनिया के विकारों के मुकाबले से) पूरे गुरु ने मेरी इज्जत रख ली है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै बचनि धिआइओ मोहि नाउ ॥ गुर परसादि मोहि मिलिआ थाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुर कै बचनि धिआइओ मोहि नाउ ॥ गुर परसादि मोहि मिलिआ थाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि मिलिआ = मुझे मिला। थाउ = स्थान, ठिकाना।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के उपदेश की इनायत से मैंने परमात्मा का नाम स्मरण किया है, और, गुरु की कृपा से मुझे (परमात्मा के चरणों में) जगह मिल गई है (मेरा मन प्रभु चरणों में टिका रहता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै बचनि सुणि रसन वखाणी ॥ गुर किरपा ते अम्रित मेरी बाणी ॥२॥
मूलम्
गुर कै बचनि सुणि रसन वखाणी ॥ गुर किरपा ते अम्रित मेरी बाणी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणि = सुन के। रसन = जीभ (से)। वखाणी = मैं बखान करता हूँ। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी। मेरी = मेरी (राशि पूंजी बन गई है)।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के उपदेश द्वारा (परमात्मा की महिमा) सुन के मैं अपनी जीभ से भी महिमा उचारता रहता हूँ, गुरु की कृपा से आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी मेरी (राशि पूंजी बन गई है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै बचनि मिटिआ मेरा आपु ॥ गुर की दइआ ते मेरा वड परतापु ॥३॥
मूलम्
गुर कै बचनि मिटिआ मेरा आपु ॥ गुर की दइआ ते मेरा वड परतापु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपु = स्वैभाव, अहम्। ते = से, साथ।3।
अर्थ: गुरु के उपदेश की इनायत से (मेरे अंदर से) मेरा स्वैभाव मिट गया है, गुरु की दया से मेरा बड़ा तेज-प्रताप बन गया है (कि कोई विकार अब मेरे नजदीक नहीं फटकता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै बचनि मिटिआ मेरा भरमु ॥ गुर कै बचनि पेखिओ सभु ब्रहमु ॥४॥
मूलम्
गुर कै बचनि मिटिआ मेरा भरमु ॥ गुर कै बचनि पेखिओ सभु ब्रहमु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमु = भटकना। पेखिओ = मैंने देख लिया है। सभु = हर जगह। ब्रहमु = परमात्मा।4।
अर्थ: गुरु के उपदेश पर चल के मेरे मन की भटकना दूर हो गई है, और अब मैंने सर्व-व्यापी परमात्मा देख लिया है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै बचनि कीनो राजु जोगु ॥ गुर कै संगि तरिआ सभु लोगु ॥५॥
मूलम्
गुर कै बचनि कीनो राजु जोगु ॥ गुर कै संगि तरिआ सभु लोगु ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजु जोगु = राज भी और जोग भी, गृहस्थ में रहते हुए परमात्मा से मिलाप। लोगु = लोक, जगत।5।
अर्थ: गुरु के उपदेश की इनायत से गृहस्थ में रह के ही मैं प्रभु-चरणों का मिलाप सुख पा रहा हूँ। (हे भाई!) गुरु की संगति में (रह के) सारा जगत ही (संसार समुंदर से) पार हो जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै बचनि मेरे कारज सिधि ॥ गुर कै बचनि पाइआ नाउ निधि ॥६॥
मूलम्
गुर कै बचनि मेरे कारज सिधि ॥ गुर कै बचनि पाइआ नाउ निधि ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिधि = सिद्धि, सफलता, कामयाबी। निधि = खजाना।6।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के उपदेश पर चल के मेरे सारे कामों में सफलता हो रही है, गुरु के उपदेश से मैंने परमात्मा का नाम हासिल कर लिया है (जो मेरे लिए सब कामयाबियों का) खजाना है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि जिनि कीनी मेरे गुर की आसा ॥ तिस की कटीऐ जम की फासा ॥७॥
मूलम्
जिनि जिनि कीनी मेरे गुर की आसा ॥ तिस की कटीऐ जम की फासा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। कीनी = की, बनाई, धारण की। कटीऐ = काटी जाती है।7।
अर्थ: (हे भाई!) जिस जिस मनुष्य ने मेरे गुरु की आस (अपने मन में) धारण कर ली है, उसकी जम की फांसी कट गई हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर कै बचनि जागिआ मेरा करमु ॥ नानक गुरु भेटिआ पारब्रहमु ॥८॥८॥
मूलम्
गुर कै बचनि जागिआ मेरा करमु ॥ नानक गुरु भेटिआ पारब्रहमु ॥८॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमु = किस्मत, भाग्य। भेटिआ = मिल गया।8।
अर्थ: हे नानक! (कह:) गुरु के उपदेश की इनायत से मेरी किस्मत जाग गई है, मुझे गुरु मिल गया है (और गुरु की मेहर से) मुझे परमात्मा मिल गया है।8।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ तिसु गुर कउ सिमरउ सासि सासि ॥ गुरु मेरे प्राण सतिगुरु मेरी रासि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ तिसु गुर कउ सिमरउ सासि सासि ॥ गुरु मेरे प्राण सतिगुरु मेरी रासि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। सिमरउ = स्मरण करूँ, मैं स्मरण करता हूँ। सासि = साँस से। सासि सासि = हरेक साँस से। प्राण = जिंद, जिंद का आसरा। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जो गुरु मेरी जिंद का आसरा है मेरी (आत्मिक जीवन की) राशि पूंजी (का रक्षक) है, उस गुरु को मैं (अपने) हरेक श्वास के साथ-साथ याद करता रहता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का दरसनु देखि देखि जीवा ॥ गुर के चरण धोइ धोइ पीवा ॥१॥
मूलम्
गुर का दरसनु देखि देखि जीवा ॥ गुर के चरण धोइ धोइ पीवा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखि देखि = बार बार देख के। जीवा = जीऊँ, मैं जीता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। धोइ = धो के। पीवा = पीऊँ, मैं पीता हूँ।1।
अर्थ: (हे भाई!) जैसे जैसे मैं गुरु के दर्शन करता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिलता है। जैसे जैसे मैं गुरु के चरण धोता हूँ, मुझे (आत्मिक जीवन देने वाला) नाम जल (पीने को, जपने को) मिलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर की रेणु नित मजनु करउ ॥ जनम जनम की हउमै मलु हरउ ॥२॥
मूलम्
गुर की रेणु नित मजनु करउ ॥ जनम जनम की हउमै मलु हरउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेणु = चरण धूल। मजनु = स्नान। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। मलु = मैल। हरउ = मैं दूर करता हूँ।2।
अर्थ: गुरु के चरणों की धूल (मेरे वास्ते तीर्थ का जल है उस) में मैं सदा स्नान करता हूँ, और अनेक जन्मों की (एकत्र की हुई) अहंकार की मैल (अपने मन में से) दूर करता हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु गुर कउ झूलावउ पाखा ॥ महा अगनि ते हाथु दे राखा ॥३॥
मूलम्
तिसु गुर कउ झूलावउ पाखा ॥ महा अगनि ते हाथु दे राखा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झूलावउ = मैं झुलाता हूँ। ते = से। दे = देकर।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस गुरु ने मुझे (विकारों की) बड़ी आग में से (अपना) हाथ दे कर बचाया हुआ है, उस गुरु को मैं पंखा झलता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु गुर कै ग्रिहि ढोवउ पाणी ॥ जिसु गुर ते अकल गति जाणी ॥४॥
मूलम्
तिसु गुर कै ग्रिहि ढोवउ पाणी ॥ जिसु गुर ते अकल गति जाणी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कै ग्रिहि = के घर में। ढोवउ = मैं ढोता हूँ। ते = से। अकल = कल रहित, जिसके टुकड़े नहीं हो सकते, जो घटता बढ़ता नहीं जैसे चंद्रमा की कला घटती बढ़ती हैं। गति = अवस्था, हालत।4।
अर्थ: (हे भाई!) जिस गुरु से मैंने उस परमात्मा की सूझ-बूझ हासिल की है, जो कभी घटता-बढ़ता नहीं, मैं उस गुरु के घर में (हमेशा) पानी ढोता हूँ।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु गुर कै ग्रिहि पीसउ नीत ॥ जिसु परसादि वैरी सभ मीत ॥५॥
मूलम्
तिसु गुर कै ग्रिहि पीसउ नीत ॥ जिसु परसादि वैरी सभ मीत ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पीसउ = मै (चक्की) पीसता हूँ। नीति = नित्य, सदा। प्रसादि = कृपा से।5।
अर्थ: (हे भाई!) जिस गुरु की कृपा से (पहले) वैरी (दिखाई दे रहे लोग अब) सारे मित्र प्रतीत हो रहे हैं, उस गुरु के घर में मैं हमेशा चक्की पीसता हूँ।5।
[[0240]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि गुरि मो कउ दीना जीउ ॥ आपुना दासरा आपे मुलि लीउ ॥६॥
मूलम्
जिनि गुरि मो कउ दीना जीउ ॥ आपुना दासरा आपे मुलि लीउ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि गुरि = जिस गुरु ने। जीउ = आत्मिक जीवन। दासरा = छोटा सा दास। मुलि = मुल्य से।6।
अर्थ: (हे भाई!) जिस गुरु ने मुझे आत्मिक जीवन दिया है, जिसने मुझे अपना तुच्छ दास बना के खुद ही मुल्य ले लिया है (मेरे साथ गहरा अपनत्व बना लिया है),।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे लाइओ अपना पिआरु ॥ सदा सदा तिसु गुर कउ करी नमसकारु ॥७॥
मूलम्
आपे लाइओ अपना पिआरु ॥ सदा सदा तिसु गुर कउ करी नमसकारु ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करी = मैं करता हूँ।7।
अर्थ: जिस गुरु ने खुद ही मेरे अंदर अपना प्यार पैदा किया है, उस गुरु को मैं सदा ही सदा ही अपना सिर झुकाता रहता हूँ।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलि कलेस भै भ्रम दुख लाथा ॥ कहु नानक मेरा गुरु समराथा ॥८॥९॥
मूलम्
कलि कलेस भै भ्रम दुख लाथा ॥ कहु नानक मेरा गुरु समराथा ॥८॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलि = कष्ट, झगड़े। भै = डर, खतरे। नानक = हे नानक! समरथा = सब ताकतों वाला।8।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! कह: मेरा गुरु बहुत सारी ताकतों का मालिक है, उसकी शरण पड़ने से (मेरे अंदर से) झगड़े-कष्ट सहम-भटकना और सारे दुख दूर हो गए हैं।8।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ मिलु मेरे गोबिंद अपना नामु देहु ॥ नाम बिना ध्रिगु ध्रिगु असनेहु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ मिलु मेरे गोबिंद अपना नामु देहु ॥ नाम बिना ध्रिगु ध्रिगु असनेहु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोबिंद = हे गोबिंद! असनेहु = स्नेह, प्यार, मोह।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे गोबिंद! (मुझे) मिल, (और मुझे) अपना नाम दे। (हे गोबिंद! तेरे) नाम (के प्यार) के बिना (और दुनिया वाला मोह-) प्यार धिक्कार है धिक्कार है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम बिना जो पहिरै खाइ ॥ जिउ कूकरु जूठन महि पाइ ॥१॥
मूलम्
नाम बिना जो पहिरै खाइ ॥ जिउ कूकरु जूठन महि पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहिरै = पहनता है। खाइ = खाता है। जूठन महि = जूठी चीजों में।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की नाम के याद के बिना मनुष्य जो कुछ भी पहनता है जो कुछ भी खाता है (वह ऐसे ही है) जैसे (कोई) कुक्ता जूठी (गंदगी) चीजों में (अपना मुंह) मारता फिरता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम बिना जेता बिउहारु ॥ जिउ मिरतक मिथिआ सीगारु ॥२॥
मूलम्
नाम बिना जेता बिउहारु ॥ जिउ मिरतक मिथिआ सीगारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेता = जितना भी। मिरतक = मृतक, मुर्दा। मिथिआ = झूठा।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम भुला के मनुष्य और जितने भी कार्य-व्यवहार करता है, (वह ऐसे है) जैसे किसी लाश का श्रृंगार व्यर्थ (उद्यम) है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु बिसारि करे रस भोग ॥ सुखु सुपनै नही तन महि रोग ॥३॥
मूलम्
नामु बिसारि करे रस भोग ॥ सुखु सुपनै नही तन महि रोग ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसारि = भुला के।3।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा का नाम भुला के दुनिया के पदार्थ ही भोगता फिरता है उसे (उन भोगों से) सुपने में भी (कभी ही) सुख नहीं मिल सकता (पर, हां इन भोगों से) उसके शरीर में रोग पैदा हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु तिआगि करे अन काज ॥ बिनसि जाइ झूठे सभि पाज ॥४॥
मूलम्
नामु तिआगि करे अन काज ॥ बिनसि जाइ झूठे सभि पाज ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अन काज = अन्य काम। सभि = सारे। पाज = दिखावे।4।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा को छोड़ के अन्य-अन्य काम-काज करता रहता है, उसका आत्मिक जीवन नाश हो जाता है, और उसके (दुनिया वाले) सारे दिखावे व्यर्थ हो जाते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम संगि मनि प्रीति न लावै ॥ कोटि करम करतो नरकि जावै ॥५॥
मूलम्
नाम संगि मनि प्रीति न लावै ॥ कोटि करम करतो नरकि जावै ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। संगि = साथ। कोटि = करोड़ों। नरकि = नर्क में।5।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) अपने मन में परमात्मा के नाम के साथ प्रीति नहीं जोड़ता, वह और करोड़ों ही (बनाए हुए धार्मिक) कर्म करता हुआ भी नर्क में पहुँचता है (पड़ा रहता है, सदैव नरकीय जीवन व्यतीत करता है)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु जिनि मनि न आराधा ॥ चोर की निआई जम पुरि बाधा ॥६॥
मूलम्
हरि का नामु जिनि मनि न आराधा ॥ चोर की निआई जम पुरि बाधा ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम नहीं स्मरण किया, वह जम की पुरी में बंधा रहता है (वह आत्मिक मौत के पँजे में फंसा हुआ दुखों की चोटें सहता रहता है) जैसे कोई चोर (सेंध लगाते पकड़ा जाए तो मार खाता है)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाख अड्मबर बहुतु बिसथारा ॥ नाम बिना झूठे पासारा ॥७॥
मूलम्
लाख अड्मबर बहुतु बिसथारा ॥ नाम बिना झूठे पासारा ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अडंबर = दिखावे का सामान। बिसथारा = विस्तार, फैलाव, खिलारा।7।
अर्थ: (हे भाई! दुनिया में इज्जत बनाए रखने के) लाखों ही दिखावे के उद्यम व अनेक फैलाव- ये सारे ही परमात्मा के नाम के बिना व्यर्थ के पसारे हैं।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु सोई जनु लेइ ॥ करि किरपा नानक जिसु देइ ॥८॥१०॥
मूलम्
हरि का नामु सोई जनु लेइ ॥ करि किरपा नानक जिसु देइ ॥८॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लेइ = लेता है। देइ = देता है।8।
अर्थ: (पर,) हे नानक! वही मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है, जिसे परमात्मा स्वयं कृपा करके (ये दाति) देता है।8।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ आदि मधि जो अंति निबाहै ॥ सो साजनु मेरा मनु चाहै ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ आदि मधि जो अंति निबाहै ॥ सो साजनु मेरा मनु चाहै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = शुरू में। मधि = (जिंदगी के) बीच में। अंति = (जीवन के) आखिर में। निबाहै = साथ देता है।1।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा मन उस सज्जन प्रभु को (मिलना) चाहता है जो सदा ही हर वक्त मनुष्य का साथ देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि की प्रीति सदा संगि चालै ॥ दइआल पुरख पूरन प्रतिपालै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि की प्रीति सदा संगि चालै ॥ दइआल पुरख पूरन प्रतिपालै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। दइआल = दया का घर। पुरख = सर्व-व्यापक। पूरन = सब गुणों का मालिक।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के साथ जुड़ी हुई प्रीति सदा मनुष्य का साथ देती है। वह दया का घर सर्व-व्यापक और सब गुणों का मालिक परमात्मा (अपने सेवक भक्त की सदैव) पालना करता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनसत नाही छोडि न जाइ ॥ जह पेखा तह रहिआ समाइ ॥२॥
मूलम्
बिनसत नाही छोडि न जाइ ॥ जह पेखा तह रहिआ समाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। जह = जहाँ (भी)। पेखा = देखूँ, मैं देखता हूँ। तह = वहीं, वहां (ही)।2।
अर्थ: (हे भाई!) मैं तो जिधर देखता हूँ उधर ही हर जगह परमात्मा मौजूद है। ना वह परमात्मा कभी मरता है, और ना ही वह जीवों को छोड़ के कहीं जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंदरु सुघड़ु चतुरु जीअ दाता ॥ भाई पूतु पिता प्रभु माता ॥३॥
मूलम्
सुंदरु सुघड़ु चतुरु जीअ दाता ॥ भाई पूतु पिता प्रभु माता ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुघड़ = सुंदर मानसिक रचना वाला, कुशलता वाला। जीअ दाता = जिंद देने वाला।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा सुंदर स्वरूप वाला है, कुशलता वाला है, समझदार है, जिंद देने वाला है, वही हमारा (असली भाई) है, पुत्र है, पिता है, माँ है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवन प्रान अधार मेरी रासि ॥ प्रीति लाई करि रिदै निवासि ॥४॥
मूलम्
जीवन प्रान अधार मेरी रासि ॥ प्रीति लाई करि रिदै निवासि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अधार = आसरा। करि = करके। रिदै निवासि = हृदय का निवासी।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा मेरे जीवन का, मेरी जिंद का आसरा है, मेरे आत्मिक जीवन की राशि पूंजी है। मैंने उसे अपने हृदय में टिका के उसके साथ अपनी प्रीति जोड़ी हुई है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माइआ सिलक काटी गोपालि ॥ करि अपुना लीनो नदरि निहालि ॥५॥
मूलम्
माइआ सिलक काटी गोपालि ॥ करि अपुना लीनो नदरि निहालि ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिलक = फाही, फांसी। गोपालि = गोपाल ने, सृष्टि के पालणहार ने। निहालि = देख के।5।
अर्थ: (हे भाई!) सृष्टि के रक्षक उस प्रभु ने मेरी माया (के मोह) की जंजीरें काट दी हैं। (मेरी ओर) मेहर की निगाह से देख के उसने मुझे अपना बना लिया है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरि सिमरि काटे सभि रोग ॥ चरण धिआन सरब सुख भोग ॥६॥
मूलम्
सिमरि सिमरि काटे सभि रोग ॥ चरण धिआन सरब सुख भोग ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। काटे = कट जाते हैं। सभि = सारे।6।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के सारे रोग काटे जा सकते हैं। परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़नी ही (दुनिया के) सारे सुख हैं, सारे पदार्थों के भोग हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरन पुरखु नवतनु नित बाला ॥ हरि अंतरि बाहरि संगि रखवाला ॥७॥
मूलम्
पूरन पुरखु नवतनु नित बाला ॥ हरि अंतरि बाहरि संगि रखवाला ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नवतनु = नया। नित = सदा। बाला = जवान।7।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा हरेक जीव के अंदर बसता है, सारे जगत में हर जगह बसता है, हरेक जीव के साथ है, और सब जीवों का रक्षक है। परमात्मा सारे गुणों का मालिक है, सब जीवों में व्यापक है, वह सदा नया है, सदा जवान है (वह प्यार करने से कभी थकता नहीं, उक्ताता है)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक हरि हरि पदु चीन ॥ सरबसु नामु भगत कउ दीन ॥८॥११॥
मूलम्
कहु नानक हरि हरि पदु चीन ॥ सरबसु नामु भगत कउ दीन ॥८॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि पद = प्रभु मिलाप का दर्जा। पदु = दरजा। कउ = को। सरबसु = (सर्वस्व। सर्व = सारा। स्व = सवै, धन) सारा ही धन पदार्थ, सब कुछ।8।
अर्थ: हे नानक! कह: परमात्मा अपना नाम अपने भक्त को देता है, (भक्त के वास्ते उसका नाम ही दुनिया का) सारा धन पदार्थ है (जिसे परमात्मा अपने नाम की दाति देता है वह) परमात्मा के मिलाप की अवस्था को समझ लेता है।8।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी माझ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी माझ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत फिरे असंख अंतु न पारीआ ॥ सेई होए भगत जिना किरपारीआ ॥१॥
मूलम्
खोजत फिरे असंख अंतु न पारीआ ॥ सेई होए भगत जिना किरपारीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोजत = ढूंढते। असंख = अनगिनत, जिनकी गिनती ना हो सके। पारीआ = पाया, ढूँढा। सेई = वही लोग। भगत = (वहुवचन)।1।
अर्थ: अनगिनत जीव ढूँढते फिरते हैं, पर किसी ने परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया। वही मनुष्य परमात्मा के भक्त बन सकते हैं, जिस पर उसकी कृपा होती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ वारीआ हरि वारीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ वारीआ हरि वारीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वारीआ = कुर्बान।1। रहाउ।
अर्थ: मैं कुर्बान हूँ, हरि से कुर्बान हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि सुणि पंथु डराउ बहुतु भैहारीआ ॥ मै तकी ओट संताह लेहु उबारीआ ॥२॥
मूलम्
सुणि सुणि पंथु डराउ बहुतु भैहारीआ ॥ मै तकी ओट संताह लेहु उबारीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणि = सुन के। पंथु = रास्ता। डराउ = डरावना। भै हारीआ = भयभीत। संताह = संतों की। लेहु उबारीआ = बचा लो।2।
अर्थ: बार बार ये सुन के कि जगत-जीवन का रास्ता डरावना है, मैं बहुत सहमा हुआ था (कि मैं कैसे ये सफर तय करूँगा?); आखिर मैंने संतों का आसरा देखा है, (मैं संत जनों के आगे अरदास करता हूँ कि आत्मिक जीवन के रास्ते के खतरों से) मुझे बचा लें।2।
[[0241]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहन लाल अनूप सरब साधारीआ ॥ गुर निवि निवि लागउ पाइ देहु दिखारीआ ॥३॥
मूलम्
मोहन लाल अनूप सरब साधारीआ ॥ गुर निवि निवि लागउ पाइ देहु दिखारीआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहन = हे (मन को) मोहने वाले प्रभु! अनूप = हे सुंदर! सरब साधारीआ = हे सब के आसरे! निवि = झुक के। लागउ = मैं लगता हूँ। गुर पाइ = गुरु के पैरों पर। देहु दिखारीआं = दिखारि देहु।3।
अर्थ: हे मन को मोह लेने वाले सुंदर लाल! हे सब जीवों के आसरे प्रभु! मैंझुक झुक के गुरु के चरणों में लगता हूँ (और गुरु के आगे विनती करता हूँ कि मुझे तेरा) दर्शन करवा दे।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै कीए मित्र अनेक इकसु बलिहारीआ ॥ सभ गुण किस ही नाहि हरि पूर भंडारीआ ॥४॥
मूलम्
मै कीए मित्र अनेक इकसु बलिहारीआ ॥ सभ गुण किस ही नाहि हरि पूर भंडारीआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकसु = एक से। पूर = भरे हुए। भंडारीआ = खजाने।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किस ही’ में से ‘किसु’ की ‘ु’मात्रा ‘ही’ के कारण हट गया है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: मैंने अनेको साक-संबंधियों को अपना मित्र बनाया (पर किसी के साथ भी सिरे का साथ नहीं निभता, अब मैं) एक परमात्मा से ही कुर्बान जाता हूँ (वही साथ निभने वाला साथी है)। सारे गुण (भी) और किसी में नहीं हैं, एक परमात्मा ही भरे खजानों वाला है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चहु दिसि जपीऐ नाउ सूखि सवारीआ ॥ मै आही ओड़ि तुहारि नानक बलिहारीआ ॥५॥
मूलम्
चहु दिसि जपीऐ नाउ सूखि सवारीआ ॥ मै आही ओड़ि तुहारि नानक बलिहारीआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चहु दिसि = चारों दिशाओं में। दिस = दिशा। सूखि = सुख में। आही = चाही है। ओड़ि = ओट, आसरा। तुहारि = तुम्हारी, तेरी।5।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) चारों तरफ तेरा ही नाम जपा जा रहा है, (जो मनुष्य जपता है वह) सुख-आनंद में (रहता है, उसका जीवन) सँवर जाता है। (हे प्रभु!) मैंने तेरा आसरा लिया है, मैं तुझसे सदके जाता हूँ।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि काढिओ भुजा पसारि मोह कूपारीआ ॥ मै जीतिओ जनमु अपारु बहुरि न हारीआ ॥६॥
मूलम्
गुरि काढिओ भुजा पसारि मोह कूपारीआ ॥ मै जीतिओ जनमु अपारु बहुरि न हारीआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। भुजा = बाँह। पसारि = पसार के, खिलार के। कूप = खू। बहुरि = मुड़, फिर।6।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने मुझे बाँह फैला के मोह के कूएं में से निकाल लिया है, (उसकी इनायत से) मैंने कीमती मानव जन्म (की बाजी) जीत ली है, दुबारा मैं (मोह के मुकाबले में) बाजी नहीं हारूँगा।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै पाइओ सरब निधानु अकथु कथारीआ ॥ हरि दरगह सोभावंत बाह लुडारीआ ॥७॥
मूलम्
मै पाइओ सरब निधानु अकथु कथारीआ ॥ हरि दरगह सोभावंत बाह लुडारीआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरब निधानु = सारे गुणों का खजाना। अकथु = जिसको बयान नहीं किया जा सकता। बाह लुडारीआ = बाँह हुलारते हैं।7।
अर्थ: (गुरु की कृपा) मैंने सारे गुणों का खजाना वह परमात्मा ढूँढ लिया है, जिसकी महिमा की कहानियां बयान नहीं की जा सकतीं। (जो मनुष्य सरब-निधान प्रभु को मिल लेते हैं) वह उसकी दरगाह में शोभा हासिल कर लेते हैं, वह वहाँ बाँह उलार के चलते हैं (अर्थात, मौज-आनंद में रहते हैं)।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन नानक लधा रतनु अमोलु अपारीआ ॥ गुर सेवा भउजलु तरीऐ कहउ पुकारीआ ॥८॥१२॥
मूलम्
जन नानक लधा रतनु अमोलु अपारीआ ॥ गुर सेवा भउजलु तरीऐ कहउ पुकारीआ ॥८॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमोलु = जिस का मुल्य ना पाया जा सके। अपारीआ = बेअंत। भउजलु = संसार समुंदर। तरीऐ = तारा जा सकता है। कहउ = मैं कहता हूँ। पुकारीआ = पुकार के।8।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: जिन्होंने गुरु का पल्ला पकड़ा, उन्होंने) परमात्मा का बेअंत कीमती नाम-रत्न हासिल कर लिया। (हे भाई!) मैं पुकार के कहता हूँ कि गुरु की शरण पड़ने से संसार समुंदर में (से बेदाग रह के) पार लांघ जाते हैं।8।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाराइण हरि रंग रंगो ॥ जपि जिहवा हरि एक मंगो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नाराइण हरि रंग रंगो ॥ जपि जिहवा हरि एक मंगो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगो = रंग चढ़ाओ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) अपनी जीभ से परमात्मा का नाम जप, हरि के दर से उसका नाम मांग, हरि परमात्मा के प्यार रंग में अपने मन को रंग।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजि हउमै गुर गिआन भजो ॥ मिलि संगति धुरि करम लिखिओ ॥१॥
मूलम्
तजि हउमै गुर गिआन भजो ॥ मिलि संगति धुरि करम लिखिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = त्याग के। भजो = भजो, याद करो। मिलि = मिल के। धुरि = प्रभु की दरगाह से। करम = बख्शिश।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के बख्शे ज्ञान की इनायत से (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके परमात्मा का नाम स्मरण कर। जिस मनुष्य के माथे पर धुर दरगाह से बख्शिश का लेख लिखा जाता है, वह साधु-संगत में मिल के (अहंकार दूर करता है और हरि-नाम जपता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो दीसै सो संगि न गइओ ॥ साकतु मूड़ु लगे पचि मुइओ ॥२॥
मूलम्
जो दीसै सो संगि न गइओ ॥ साकतु मूड़ु लगे पचि मुइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। साकतु = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य। लगे = लगि, लग के। पचि = खुआर हो के।2।
अर्थ: (हे भाई! जगत में आँखों से) जो कुछ दिखाई दे रहा है, ये किसी के भी साथ नहीं जाता, पर मूर्ख माया में ग्रसित मनुष्य (इस दिखते प्यार में) लग के परेशान हो के आत्मिक मौत बर्दाश्त करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहन नामु सदा रवि रहिओ ॥ कोटि मधे किनै गुरमुखि लहिओ ॥३॥
मूलम्
मोहन नामु सदा रवि रहिओ ॥ कोटि मधे किनै गुरमुखि लहिओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहन नामु = मोहन का नाम। रवि रहिओ = व्यापक हो के, हर जगह मौजूद है। लहिओ = ढूँढा।3।
अर्थ: (हे भाई!) करोड़ों में किसी विरले मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर उस मोहन प्रभु का नाम प्राप्त किया है जो सदा हर जगह व्याप रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि संतन करि नमो नमो ॥ नउ निधि पावहि अतुलु सुखो ॥४॥
मूलम्
हरि संतन करि नमो नमो ॥ नउ निधि पावहि अतुलु सुखो ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नमो = नमसकार। पावहि = तू पाएगा। नउ निधि = (धरती के सारे ही) नौ खजाने।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के संत जनों को सदा सदा नमस्कार करता रह, तू बेअंत सुख पाएगा, तूझे वह नाम मिल जाएगा, जो, मानो, धरती के नौ खजाने हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैन अलोवउ साध जनो ॥ हिरदै गावहु नाम निधो ॥५॥
मूलम्
नैन अलोवउ साध जनो ॥ हिरदै गावहु नाम निधो ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलोवउ = मैं देखता हूँ, अवलोकन करता हूँ। निधो = निधि, खजाना।5।
अर्थ: हे साधु जनो! अपने हृदय में परमात्मा का नाम गाते रहो जो सारे सुखों का खजाना है, (मेरी तो यही प्रार्थना है कि) मैं अपनी आँखों से (उनका) दर्शन करता रहूँ (जो नाम जपते हैं)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध लोभु मोहु तजो ॥ जनम मरन दुहु ते रहिओ ॥६॥
मूलम्
काम क्रोध लोभु मोहु तजो ॥ जनम मरन दुहु ते रहिओ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजो = त्यागो। दुहु ते = दोनों से। रहिओ = बच जाता है।6।
अर्थ: (हे भाई! अपने मन में से) काम-क्रोध-लोभ-मोह दूर करो। (जो मनुष्य इन विकारों को मिटाता है) वह जनम और मरन दोनों (के चक्र) से बच जाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूखु अंधेरा घर ते मिटिओ ॥ गुरि गिआनु द्रिड़ाइओ दीप बलिओ ॥७॥
मूलम्
दूखु अंधेरा घर ते मिटिओ ॥ गुरि गिआनु द्रिड़ाइओ दीप बलिओ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि ते = हृदय घर से। गुरि = गुरु ने। द्रिढ़ाइओ = पक्का कर दिया। दीप = दीया।7।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के साथ गहरी सांझ पक्की कर ली, उसके अंदर (आत्मिक सूझ का) दीपक जग जाता है, उसके हृदय-घर में दुख का अंधकार मट जाता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि सेविआ सो पारि परिओ ॥ जन नानक गुरमुखि जगतु तरिओ ॥८॥१॥१३॥
मूलम्
जिनि सेविआ सो पारि परिओ ॥ जन नानक गुरमुखि जगतु तरिओ ॥८॥१॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।8।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने परमात्मा का स्मरण किया, वह संसार समुंदर से पार लांघ गया। गुरु की शरण पड़ कर जगत (संसार समुंदर को) तैर जाता है।8।1।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला ५ गउड़ी ॥ हरि हरि गुरु गुरु करत भरम गए ॥ मेरै मनि सभि सुख पाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
महला ५ गउड़ी ॥ हरि हरि गुरु गुरु करत भरम गए ॥ मेरै मनि सभि सुख पाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करत = करते हुए, जपते हुए। भरम = सब भटकनें। मेरै मनि = मेरे मन ने। सभि = सारे।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए, गुरु गुरु करते हुए मेरे मन की सारी भटकनें दूर हो गई हैं, और मेरे मन ने सारे ही सुख प्राप्त कर लिए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलतो जलतो तउकिआ गुर चंदनु सीतलाइओ ॥१॥
मूलम्
बलतो जलतो तउकिआ गुर चंदनु सीतलाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलतो = जलता। तउकिआ = छिड़का। गुर चंदनु = गुरु का शब्द-चंदन।1।
अर्थ: (हे भाई! मन विकारों में) जल रहा था, तप रहा था। (जब) गुरु का शब्द रूपी चँदन (घिसा के इस पर) छिड़का, तो यह मन शीतल हो गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगिआन अंधेरा मिटि गइआ गुर गिआनु दीपाइओ ॥२॥
मूलम्
अगिआन अंधेरा मिटि गइआ गुर गिआनु दीपाइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीपाइओ = जल पड़ा, रौशन हो गया।2।
अर्थ: (हे भाई! मन विकारों में) सड़ रहा था, जल रहा था, (जब) गुरु का शब्द-चंदन (घिसा के इस पर) छिड़का तो ये मन ठण्डा-ठार हो गया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पावकु सागरु गहरो चरि संतन नाव तराइओ ॥३॥
मूलम्
पावकु सागरु गहरो चरि संतन नाव तराइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पावक = आग। सागरु = समुंदर। गहरो = गहरा। चरि = चढ़ के। नाव = बेड़ी।3।
अर्थ: (हे भाई!) ये गहरा संसार-समुंदर (विकारों की तपश से) आग (आग बना पड़ा था) मैं साधु-संगत बेड़ी में चढ़ के इससे पार गुजर आया हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना हम करम न धरम सुच प्रभि गहि भुजा आपाइओ ॥४॥
मूलम्
ना हम करम न धरम सुच प्रभि गहि भुजा आपाइओ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुच = पवित्रता। प्रभि = प्रभु ने। गहि = पकड़ के। भुजा = बाँह। आपाइओ = अपना बना लिया।4।
अर्थ: (हे भाई!) मेरे पास ना कोई कर्म, ना धर्म, ना पवित्रता (आदि राशि-पूंजी) थी, प्रभु ने मेरी बाँह पकड़ के (खुद ही मुझे) अपना (दास) बना लिया है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भउ खंडनु दुख भंजनो भगति वछल हरि नाइओ ॥५॥
मूलम्
भउ खंडनु दुख भंजनो भगति वछल हरि नाइओ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भउ खंडनु = डर नाश करने वाला। भगति वछल हरि नाइओ = भक्ति से प्यार करने वाले हरि का नाम।5।
अर्थ: (हे भाई!) भक्ति से प्यार करने वाले हरि का वह नाम जो हरेक किस्म का डर व दुख नाश करने में समर्थ है (मुझे उसकी अपनी मेहर से ही मिल गया है)।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाथह नाथ क्रिपाल दीन सम्रिथ संत ओटाइओ ॥६॥
मूलम्
अनाथह नाथ क्रिपाल दीन सम्रिथ संत ओटाइओ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संम्रिथ = समर्थ, सब ताकतों का मालिक। ओटाइओ = आसरा।6।
अर्थ: तेरा नाम है डर और दु:ख दूर करने वाला, संतों के सहारा,।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरगुनीआरे की बेनती देहु दरसु हरि राइओ ॥७॥
मूलम्
निरगुनीआरे की बेनती देहु दरसु हरि राइओ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि राइओ = हे प्रभु पातशाह।7।
अर्थ: हे अनाथों के नाथ! हे दीनों पर दया करने वाले! सर्वसशाली भक्तों का समर्थन।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक सरनि तुहारी ठाकुर सेवकु दुआरै आइओ ॥८॥२॥१४॥
मूलम्
नानक सरनि तुहारी ठाकुर सेवकु दुआरै आइओ ॥८॥२॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर!।8।
अर्थ: हे नानक! (अरदास कर, और कह:) हे ठाकुर! मैं तेरा सेवक तेरी शरण आया हूँ, तेरे दर पर आया हूँ।8।2।14।
[[0242]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ रंग संगि बिखिआ के भोगा इन संगि अंध न जानी ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ रंग संगि बिखिआ के भोगा इन संगि अंध न जानी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंग संगि = मौजों के साथ। बिखिआ = माया। इन संगि = इन से।1।
अर्थ: मौजों से माया के भोग (मनुष्य भोगता रहता है), (माया के मोह में) अंधा हुआ मनुष्य इन भोगों में खचित हुआ समझता नहीं (कि उम्र व्यर्थ गुजर रही है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ संचउ हउ खाटता सगली अवध बिहानी ॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ संचउ हउ खाटता सगली अवध बिहानी ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संचउ = मैं इकट्ठी करता हूँ। हउ = मैं। सगली = सारी। अवध = उम्र। रहाउ।
अर्थ: मैं माया जोड़ रहा हूँ, मैं माया कमाता हूँ- (इन ही ख्यालों में अंधे हुए मनुष्य की) सारी ही उम्र गुजर जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ सूरा परधानु हउ को नाही मुझहि समानी ॥२॥
मूलम्
हउ सूरा परधानु हउ को नाही मुझहि समानी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूरा = सूरमा। परधानु = चौधरी। समानी = जैसा, बराबर का।2।
अर्थ: मैं शूरवीर हूँ, मैं चौधरी हूँ, कोई मेरे बराबर का नहीं है,।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोबनवंत अचार कुलीना मन महि होइ गुमानी ॥३॥
मूलम्
जोबनवंत अचार कुलीना मन महि होइ गुमानी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचार = आचरण। कुलीना = अच्छे कुल वाला। जोबनवंत = यौवन का मालिक, सुंदर। गुमानी = अहंकारी।3।
अर्थ: मैं सुंदर हूँ, मैं ऊँचे आचरण वाला हूँ, अच्छे खानदान वाला हूँ, (मनुष्य) मन में इस प्रकार अहंकारी होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ उलझाइओ बाध बुधि का मरतिआ नही बिसरानी ॥४॥
मूलम्
जिउ उलझाइओ बाध बुधि का मरतिआ नही बिसरानी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उलझाइओ = उलझा हुआ। बाध बुधिका = मारी हुई मति वाला।4।
अर्थ: (माया के मोह में) मारी हुई मति वाला मनुष्य जैसे (जवानी के समय माया के मोह में) फंसा रहता है, मरने के वक्त भी उसे यह माया नहीं भूलती;।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भाई मीत बंधप सखे पाछे तिनहू कउ स्मपानी ॥५॥
मूलम्
भाई मीत बंधप सखे पाछे तिनहू कउ स्मपानी ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंधप = रिश्तेदार। सखे = मित्र, साथी। संपानी = सौंपी।5।
अर्थ: भाई, मित्र, रिश्तेदार, साथी- मरने के पीछे आखिर इनको ही (अपनी सारी उम्र की इकट्ठी की हुई माया) सौंप जाता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितु लागो मनु बासना अंति साई प्रगटानी ॥६॥
मूलम्
जितु लागो मनु बासना अंति साई प्रगटानी ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु बासना = जो वासना में। अंति = आखिरी समय में। साई = वह (वासना)।6।
अर्थ: जिस वासना में मनुष्य का मन (सारी उम्र) लगा रहता है, आखिर मौत के समय वही वासना जोर डालती है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अह्मबुधि सुचि करम करि इह बंधन बंधानी ॥७॥
मूलम्
अह्मबुधि सुचि करम करि इह बंधन बंधानी ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहंबुद्धि = अहंकार के आसरे। सुचि = शारीरिक पवित्रता।7।
अर्थ: अहंकार के आसरे (शारीरिक पवित्रता के तीर्थ-स्नान आदि मिहित धार्मिक) कर्म कर कर के इनके बंधनों में बंधा रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दइआल पुरख किरपा करहु नानक दास दसानी ॥८॥३॥१५॥४४॥ जुमला
मूलम्
दइआल पुरख किरपा करहु नानक दास दसानी ॥८॥३॥१५॥४४॥ जुमला
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दास दसानी = दासों का दास।8।
अर्थ: हे नानक! (प्रार्थना कर और कह:) हे दया के घर सर्व-व्यापक प्रभु! मेरे पर कृपा कर, मुझे अपने दासों का दास (बनाए रख, और मुझे इन अहंकार के बंधनों से बचाए रख)।8।3।15।44।