विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी पूरबी महला ४ करहले ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी पूरबी महला ४ करहले ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करहले मन परदेसीआ किउ मिलीऐ हरि माइ ॥ गुरु भागि पूरै पाइआ गलि मिलिआ पिआरा आइ ॥१॥
मूलम्
करहले मन परदेसीआ किउ मिलीऐ हरि माइ ॥ गुरु भागि पूरै पाइआ गलि मिलिआ पिआरा आइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करहले = हे करहला! हे ऊँठ के बच्चे की तरह बे-मुहार! (बे-मुहार = चंचल, करभ = ऊँठ, ऊँठ का बच्चा)। परदेसीआ = हे पराए देश में रहने वाले! हरि माइ = परमात्मा माँ। भागि पूरै = पूरी किस्मत से। गलि = गले से।1।
अर्थ: हे बे-मुहारे मन! हे (यहाँ) परदेस में रहने वाले मन! (तूने सदा इस वतन में ही नहीं टिके रहना। कभी सोच कि उस) परमात्मा को कैसे मिला जाए (जो) माँ (की तरह हमें पालता है)। (हे बे-मुहारे मन! जिस मनुष्य को) पूरी किस्मत से गुरु मिल जाता है, प्यारा परमात्मा उसके गले से आ लगता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला सतिगुरु पुरखु धिआइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन करहला सतिगुरु पुरखु धिआइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन करहला = हे करहले मन! हे बे-मुहारे मन!।1। रहाउ।
अर्थ: हे ऊँठ के बच्चे की तरह बे-मुहारे (मेरे) मन! परमात्मा के रूप गुरु को याद रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला वीचारीआ हरि राम नाम धिआइ ॥ जिथै लेखा मंगीऐ हरि आपे लए छडाइ ॥२॥
मूलम्
मन करहला वीचारीआ हरि राम नाम धिआइ ॥ जिथै लेखा मंगीऐ हरि आपे लए छडाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वीचारीआ = विचारवान (बन)। मंगीऐ = मांगा जाता है। आपे = स्वयं ही।2।
अर्थ: हे बे-मुहार मन! विचारवान बन, और, परमात्मा का नाम स्मरण करता रह, (अगर स्मरण करता रहेगा तो) परमात्मा खुद ही (वहाँ) सही स्वीकार करवा लेगा जहाँ (किए कर्मों का) हिसाब मांगा जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला अति निरमला मलु लागी हउमै आइ ॥ परतखि पिरु घरि नालि पिआरा विछुड़ि चोटा खाइ ॥३॥
मूलम्
मन करहला अति निरमला मलु लागी हउमै आइ ॥ परतखि पिरु घरि नालि पिआरा विछुड़ि चोटा खाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अति = बहुत। मलु = मैल। पिरु = पति परमात्मा। घरि = घर में, हृदय में। विछुड़ि = विछुड़ के।3।
अर्थ: हे बे’मुहार मन! तू (अस्लियत में) बहुत पवित्र था, पर तुझे अहंकार की मैल चिपकी हुई है। (क्या अजीब दुर्भाग्य है कि) पति-प्रभु प्रत्यक्ष तौर पर हृदय में बस रहा है, (जिंद के) साथ बस रहा है, (पर जिंद माया के मोह के कारण उससे) विछड़ के दुखी हो रही है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला मेरे प्रीतमा हरि रिदै भालि भालाइ ॥ उपाइ कितै न लभई गुरु हिरदै हरि देखाइ ॥४॥
मूलम्
मन करहला मेरे प्रीतमा हरि रिदै भालि भालाइ ॥ उपाइ कितै न लभई गुरु हिरदै हरि देखाइ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। भालि = खोज कर। भालाइ = खोज करूँ। उपाइ कितै = किसी उपाय से, किसी तरीके से। लभई = ढूँढता है।4।
अर्थ: हे मेरे प्यारे मन! हे बे-मुहार मन! अपने हृदय में परमात्मा की खोज कर, तलाश कर। वह परमात्मा किसी और तरीके से नहीं मिलता। गुरु (ही) हृदय में (बसता) दिखा देता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला मेरे प्रीतमा दिनु रैणि हरि लिव लाइ ॥ घरु जाइ पावहि रंग महली गुरु मेले हरि मेलाइ ॥५॥
मूलम्
मन करहला मेरे प्रीतमा दिनु रैणि हरि लिव लाइ ॥ घरु जाइ पावहि रंग महली गुरु मेले हरि मेलाइ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैणि = रात। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान लगा। घरु = ठिकाना। जाइ = जा के। रंग महली = आत्मिक आनंद दाते प्रभु के महल में।5।
अर्थ: हे बे-मुहार मन! हे मेरे प्यारे मन! दिन रात परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़। (इस तरह उस) आनंदी के महल में जा के ठिकाना ढूँढ लेगा। पर गुरु ही परमात्मा से मिला सकता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला तूं मीतु मेरा पाखंडु लोभु तजाइ ॥ पाखंडि लोभी मारीऐ जम डंडु देइ सजाइ ॥६॥
मूलम्
मन करहला तूं मीतु मेरा पाखंडु लोभु तजाइ ॥ पाखंडि लोभी मारीऐ जम डंडु देइ सजाइ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजाइ = त्याग, दूर कर। पाखंडि = पाखण्डी। मारीऐ = मारा जाता है। जम डंडु = जम का डण्डा, मौत का सहम, आत्मिक मौत का खतरा।6।
अर्थ: हे मेरे बे-मुहार मन! तू मेरा मित्र है (मैं तुझे समझाता हूँ) माया का लालच छोड़ के पाखण्ड छोड़ दे। पाखण्डी और लालची का आत्मिक जीवन खत्म हो जाता है। आत्मिक मौत का सहम सदा उसके सिर पर रहता है, परमात्मा उसे ये सजा देता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला मेरे प्रान तूं मैलु पाखंडु भरमु गवाइ ॥ हरि अम्रित सरु गुरि पूरिआ मिलि संगती मलु लहि जाइ ॥७॥
मूलम्
मन करहला मेरे प्रान तूं मैलु पाखंडु भरमु गवाइ ॥ हरि अम्रित सरु गुरि पूरिआ मिलि संगती मलु लहि जाइ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मेरे प्रान = हे मेरी जिंद! , हे मेरी जीवात्मा! , हे मेरे प्यारे! अंम्रित सरु = हरि नाम का सरोवर। गुरि = गुरु ने। पूरिआ = नाको नाक भरा हुआ है। मिलि = मिल के।7।
अर्थ: हे मेरे प्यारे मन! हे बे-मुहार मन! तू (अपने अंदर से विकारों की) मैल दूर कर, पाखण्ड छोड़ दे और (माया के पीछे) भटकना त्याग दे। (देख! साधु-संगत में) पूरे गुरु ने हरि नाम अमृत का सरोवर लबा लब भरा हुआ है, साधु-संगत में मिल के (उस सरोवर में स्नान कर, तेरी विकारों की) मैल उतर जाएगी।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला मेरे पिआरिआ इक गुर की सिख सुणाइ ॥ इहु मोहु माइआ पसरिआ अंति साथि न कोई जाइ ॥८॥
मूलम्
मन करहला मेरे पिआरिआ इक गुर की सिख सुणाइ ॥ इहु मोहु माइआ पसरिआ अंति साथि न कोई जाइ ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणाइ = सुन। सिख = शिक्षा। पसरिआ = फैला हुआ है। अंति = आखिरी समय।8।
अर्थ: हे बे-मुहार मन! हे मेरे मन! गुरु की ये शिक्षा (ध्यान से) सुन (ये सारे साक-संबंधी और धन-पदार्थ-) ये सारा माया का मोह (-जाल) बिखरा हुआ है, और अंत के समय (इनमें से) कोई भी (तेरे) साथ नहीं जाएगा।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला मेरे साजना हरि खरचु लीआ पति पाइ ॥ हरि दरगह पैनाइआ हरि आपि लइआ गलि लाइ ॥९॥
मूलम्
मन करहला मेरे साजना हरि खरचु लीआ पति पाइ ॥ हरि दरगह पैनाइआ हरि आपि लइआ गलि लाइ ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पति = इज्जत। पाइ = हासिल करता है। पैनाइआ = आदर मिलता है, सत्कारा जाता है, सिरोपा दिया जाता है।9।
अर्थ: हे मेरे सज्जन मन! हे मेरे बे-मुहार मन! जिस मनुष्य ने (इस जीवन-यात्रा में) परमात्मा (का नाम धन-) खर्च पल्ले बाँधा है, वह (लोक परलोक में) इज्जत कमाता है, परमात्मा की दरगाह में उसे आदर-सम्मान मिलता है, परमात्मा स्वयं उसे अपने गले से लगा लेता है।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला गुरि मंनिआ गुरमुखि कार कमाइ ॥ गुर आगै करि जोदड़ी जन नानक हरि मेलाइ ॥१०॥१॥
मूलम्
मन करहला गुरि मंनिआ गुरमुखि कार कमाइ ॥ गुर आगै करि जोदड़ी जन नानक हरि मेलाइ ॥१०॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु मे। मंनिआ = पतीजने से, श्रद्धा धार के, मानने से। गुरमुखि = गुरु के बताए रास्ते पर चल के। जोदड़ी = विनती, तरला। मेलाइ = मिला दे।10।
अर्थ: हे मेरे बे-मुहार मन! गुरु में श्रद्धा धारण कर के गुरु की बताई हुई कार कर। हे दास नानक! (कह: हे बे-मुहार मन!) गुरु के आगे अरजोई कर (हे गुरु मेहर कर, मुझे) परमात्मा (के चरणों) में जोड़े रख।10।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस वाणी का शीर्षक ‘करहले’ है ‘अष्टपदियां’ ही है। ये गिनती में दो हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ४ ॥ मन करहला वीचारीआ वीचारि देखु समालि ॥ बन फिरि थके बन वासीआ पिरु गुरमति रिदै निहालि ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ४ ॥ मन करहला वीचारीआ वीचारि देखु समालि ॥ बन फिरि थके बन वासीआ पिरु गुरमति रिदै निहालि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! करहला = (करभ् = ऊँठ का बच्चा) ऊठ के बच्चे की तरह बेमुहार। वीचारीआ = विचारवान (बन)। विचारि = विचार के। समालि = संभल के, होश करके। बनवासिया = हे बन वासी! रिदै = हृदय में। निहालि = देख के।1।
अर्थ: हे मेरे बे-मुहार मन! तू विचारवान बन, तू विचार के देख, तू होश करके देख। जंगलों में भटक-भटक के जंगलवासी (मन)! (तेरा) मालिक प्रभु (तेरे) हृदय में (बस रहा है, उसे) गुरु की मति ले कर (अपने अंदर) देख।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला गुर गोविंदु समालि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन करहला गुर गोविंदु समालि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समालि = हृदय में सम्भाल, याद कर।1। रहाउ।
अर्थ: ऊँठ के बच्चे की तरह हे (मेरे) बे-मुहार मन! तू परमात्मा (की याद) को (अपने अंदर) संभाल के रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला वीचारीआ मनमुख फाथिआ महा जालि ॥ गुरमुखि प्राणी मुकतु है हरि हरि नामु समालि ॥२॥
मूलम्
मन करहला वीचारीआ मनमुख फाथिआ महा जालि ॥ गुरमुखि प्राणी मुकतु है हरि हरि नामु समालि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। जालि = जाल में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। मुकतु = आजाद, बचा हुआ। समालि = संभाल के।2।
अर्थ: हे बे-मुहार मन! तू विचारवान बन। (देख) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (माया के मोह के) बड़े जाल में फंसे हुए हैं। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह परमात्मा का नाम (हृदय में) संभाल के (इस जाल से) बच जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला मेरे पिआरिआ सतसंगति सतिगुरु भालि ॥ सतसंगति लगि हरि धिआईऐ हरि हरि चलै तेरै नालि ॥३॥
मूलम्
मन करहला मेरे पिआरिआ सतसंगति सतिगुरु भालि ॥ सतसंगति लगि हरि धिआईऐ हरि हरि चलै तेरै नालि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भालि = ढूँढ। लगि = लग के, आसरा ले के।3।
अर्थ: हे मेरे प्यारे मन! हे बे-मुहार मन! साधु-संगत में जा, (वहां) गुरु को तलाश। साधु-संगत का आसरा लेकर परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए, ये हरि नाम ही तेरे (सदा) साथ रहेगा।3।
[[0235]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला वडभागीआ हरि एक नदरि निहालि ॥ आपि छडाए छुटीऐ सतिगुर चरण समालि ॥४॥
मूलम्
मन करहला वडभागीआ हरि एक नदरि निहालि ॥ आपि छडाए छुटीऐ सतिगुर चरण समालि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नदरि = मेहर की निगाह से। निहालि = देखे। छडाए = माया के जाल से बचाए। छुटीऐ = (जाल से) खलासी मिल सकती है।4।
अर्थ: हे बे-मुहार मन! वह मनुष्य बहुत भाग्यशाली बन जाता है जिस पर परमात्मा मिहर की निगाह करता है। अगर परमात्मा स्वयं ही (माया के जाल में) से खलासी कराए तो ही गुरु के चरणों को (हृदय में) संभाल के (इस जाल में से) निकल सकते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला मेरे पिआरिआ विचि देही जोति समालि ॥ गुरि नउ निधि नामु विखालिआ हरि दाति करी दइआलि ॥५॥
मूलम्
मन करहला मेरे पिआरिआ विचि देही जोति समालि ॥ गुरि नउ निधि नामु विखालिआ हरि दाति करी दइआलि ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देही = शरीर। समालि = संभाल के रख। गुरि = गुरु ने। नउ निधि = (दुनिया के सारे) नौ खजाने। दइआलि = दयालु ने।5।
अर्थ: हे मेरे प्यारे मन! हे बे-मुहार मन! (तेरे) शरीर में (ईश्वरीय) ज्योति (बस रही है, इसे) संभाल के रख। परमात्मा का नाम (मानो, जगत के सारे) नौ खजाने (हैं) जिसे गुरु ने ये नाम दिखा दिया है, दयालु परमात्मा ने उस मनुष्य पर (नाम की यह) बख्शिश कर दी है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला तूं चंचला चतुराई छडि विकरालि ॥ हरि हरि नामु समालि तूं हरि मुकति करे अंत कालि ॥६॥
मूलम्
मन करहला तूं चंचला चतुराई छडि विकरालि ॥ हरि हरि नामु समालि तूं हरि मुकति करे अंत कालि ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: विकरालि = डरावने (कूएं) में। अंतकालि = आखिरी समय।6।
अर्थ: हे बे-मुहार मन! तू कभी कहीं टिक के नहीं बैठता, ये चंचलता ये चालाकी छोड़ दे, (ये चतुराई) भयानक (कूएं) में (गिरा देगी)। (हे बे-मुहार मन!) परमात्मा का नाम सदा याद रख, परमात्मा (का नाम) ही अंत समय (माया के मोह के जाल से) खलासी दिलवाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन करहला वडभागीआ तूं गिआनु रतनु समालि ॥ गुर गिआनु खड़गु हथि धारिआ जमु मारिअड़ा जमकालि ॥७॥
मूलम्
मन करहला वडभागीआ तूं गिआनु रतनु समालि ॥ गुर गिआनु खड़गु हथि धारिआ जमु मारिअड़ा जमकालि ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर गिआनि = गुरु का दिया हुआ ज्ञान। खड़गु = तलवार। हथि = हाथ में। जम कालि = जम काल ने, जम के काल ने, आत्मिक मौत को समाप्त करने वाले (ज्ञान-खड़ग) ने।7।
अर्थ: हे बे-मुहार मन! परमात्मा के साथ गहरी सांझ (एक) रत्न (है, इसे) तू संभाल के रख, और बहुत भाग्यशाली बन। गुरु का दिया हुआ ज्ञान (गुरु के द्वारा परमात्मा के साथ डाली हुई गहरी सांझ, एक) तलवार है (खड़ग है), (जिस मनुष्य ने ये तलवार अपने) हाथ में पकड़ ली, उसने (आत्मिक) मौत को मारने वाले (इस ज्ञान-खड़ग) के द्वारा जम को (मौत के सहम को, आत्मिक मौत को) मार डाला।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि निधानु मन करहले भ्रमि भवहि बाहरि भालि ॥ गुरु पुरखु पूरा भेटिआ हरि सजणु लधड़ा नालि ॥८॥
मूलम्
अंतरि निधानु मन करहले भ्रमि भवहि बाहरि भालि ॥ गुरु पुरखु पूरा भेटिआ हरि सजणु लधड़ा नालि ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधानु = खजाना। भ्रमि = भटकना में (पड़ कर)। भेटिआ = मिल पड़ा।8।
अर्थ: हे बे-मुहार मन! (परमात्मा का नाम-) खजाना (तेरे) अंदर है, पर तू भटकना में पड़ के बाहर ढूँढता फिरता है। (हे मन!) परमात्मा का रूप गुरु जिस मनुष्य को मिल जाता है, वह मनुष्य सज्जन परमात्मा को अपने साथ बसता (अंदर ही) ढूँढ लेता है।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रंगि रतड़े मन करहले हरि रंगु सदा समालि ॥ हरि रंगु कदे न उतरै गुर सेवा सबदु समालि ॥९॥
मूलम्
रंगि रतड़े मन करहले हरि रंगु सदा समालि ॥ हरि रंगु कदे न उतरै गुर सेवा सबदु समालि ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि = दुनिया के रंग तमाशे में। रतड़े = मस्त। समालि = संभाल के रख।9।
अर्थ: (माया के मोह के) रंग में रंगे हुए हे बे-मुहारे मन! परमात्मा का प्रेम रंग सदा (अपने अंदर) संभाल के रख, परमात्मा (के प्यार) का (ये) रंग फिर कभी फीका नहीं पड़ता, (इस वास्ते ये रंग प्राप्त करने के लिए) तू गुरु की शरण पड़, तू गुरु का शब्द अपने हृदय में संभाल।9।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम पंखी मन करहले हरि तरवरु पुरखु अकालि ॥ वडभागी गुरमुखि पाइआ जन नानक नामु समालि ॥१०॥२॥
मूलम्
हम पंखी मन करहले हरि तरवरु पुरखु अकालि ॥ वडभागी गुरमुखि पाइआ जन नानक नामु समालि ॥१०॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंखी = पक्षी। अकालि = अकाल ने।10।
अर्थ: हे बे-मुहारे मन! हम जीव पक्षी हैं। अकाल पुरख ने (हमें जगत में भेजा है जैसे कोई वृक्ष पक्षियों के रैन-बसेरा के लिए आसरा होता है, वैसे ही) वह सर्व-व्यापक हरि (हम जीव-पक्षियों का आसरा-) वृक्ष है। हे दास नानक! (कह: हे मन!) गुरु के द्वारा परमात्मा का नाम हृदय में संभाल के बहुत भाग्यशाली (जीव-पक्षियों) ने वह आसरा हासिल किया है।10।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: गुरु रामदास साहिब जी के ये दो “करहले” अष्टपदियों में ही शामिल हैं। इन अष्टपदियों का शीर्षक उन्होंने ‘करहले’ रखा है क्योंकि इनके हरेक बंद में सतिगुरु जी ने मन को ‘करहल’ से उपमा दे के संबोधन किया है।