०८ गुरु अमर-दास असटपदीआ

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गउड़ी गुआरेरी महला ३ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गउड़ी गुआरेरी महला ३ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन का सूतकु दूजा भाउ ॥ भरमे भूले आवउ जाउ ॥१॥

मूलम्

मन का सूतकु दूजा भाउ ॥ भरमे भूले आवउ जाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूतकु = किसी बालक के जन्म से किसी के घर में पैदा हुई अपवित्रता। भाउ = प्यार। दूजा भाउ = परमात्मा को बिसार के माया आदि के साथ डाला हुआ प्यार। अवउ जाउ = जनम मरण का चक्कर।1।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा को भुला के माया आदि) के साथ डाला प्यार मन की अपवित्रता (का कारण बनता) है (इस अपवित्रता के कारण माया की) भटकना में गलत रास्ते पर पड़े हुए मनुष्य को जनम मरण का चक्र बना रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि सूतकु कबहि न जाइ ॥ जिचरु सबदि न भीजै हरि कै नाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मनमुखि सूतकु कबहि न जाइ ॥ जिचरु सबदि न भीजै हरि कै नाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। सबदि = शब्द में। भीजै = भीगता है, पतीजता। नाइ = नाम में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जब तक (मनुष्य गुरु के) शब्द में नहीं पतीजता, परमात्मा के नाम में नहीं जुड़ता (तब तक मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, और) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (के मन) की अपवित्रता कभी दूर नहीं होती।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभो सूतकु जेता मोहु आकारु ॥ मरि मरि जमै वारो वार ॥२॥

मूलम्

सभो सूतकु जेता मोहु आकारु ॥ मरि मरि जमै वारो वार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभो = सारा ही। जेता = जितना ही। आकारु = ये दिखाई देता जगत। वारो वार = बार बार।2।
अर्थ: (हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के लिए) ये जितना ही जगत है, जितना ही जगत का मोह है ये सारा अपवित्रता (का मूल) है, वह मनुष्य (इस आत्मिक मौत में) मर मर के बारंबार पैदा होता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूतकु अगनि पउणै पाणी माहि ॥ सूतकु भोजनु जेता किछु खाहि ॥३॥

मूलम्

सूतकु अगनि पउणै पाणी माहि ॥ सूतकु भोजनु जेता किछु खाहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माहि = में। जेता किछु = जितना कुछ।3।
अर्थ: (मनमुखों के वास्ते) आग में, हवा में, पानी में भी अपवित्रता ही है, जितना कुछ भोजन आदि वो खाते हैं वह भी (उनके मन के वास्ते) अपवित्रता (का कारण ही बनता) है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूतकि करम न पूजा होइ ॥ नामि रते मनु निरमलु होइ ॥४॥

मूलम्

सूतकि करम न पूजा होइ ॥ नामि रते मनु निरमलु होइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूतकि = अपवित्रता के कारण। नामि = नाम में।4।
अर्थ: (हे भाई!) सूतक (के भ्रम में ग्रसे हुए मन को) कोई कर्म-कांड पवित्र नहीं कर सकते। कोई देव-पूजा पवित्र नहीं कर सकती। परमात्मा के नाम में रंगे जा के ही मन पवित्र होता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेविऐ सूतकु जाइ ॥ मरै न जनमै कालु न खाइ ॥५॥

मूलम्

सतिगुरु सेविऐ सूतकु जाइ ॥ मरै न जनमै कालु न खाइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेविऐ = अगर सेवा की जाए, अगर शरण ली जाए। जाइ = दूर होता है। कालु = मौत, आत्मिक मौत।5।
अर्थ: (हे भाई!) अगर सतिगुरु का आसरा लिया जाए तो मन की अपवित्रता दूर हो जाती है, (गुरु की शरण में रहने वाला मनुष्य) ना मरता है ना पैदा होता है, ना ही उसे आत्मिक मौत खाती है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासत सिम्रिति सोधि देखहु कोइ ॥ विणु नावै को मुकति न होइ ॥६॥

मूलम्

सासत सिम्रिति सोधि देखहु कोइ ॥ विणु नावै को मुकति न होइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोधि देखहु = विचार के देख लो। को = कोई मनुष्य। मुकति = सूतक से खलासी।6।
अर्थ: (हे भाई! बेशक) कोई स्मृतियों-शास्त्रों को भी विचार के देख लो। परमात्मा के नाम के बिना कोई मनुष्य मानसिक अपवित्रता से खलासी नहीं पा सकता।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जुग चारे नामु उतमु सबदु बीचारि ॥ कलि महि गुरमुखि उतरसि पारि ॥७॥

मूलम्

जुग चारे नामु उतमु सबदु बीचारि ॥ कलि महि गुरमुखि उतरसि पारि ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही। सबदु बीचारि = गुरु के शब्द को विचार के। कलि महि = इस समय में भी जिसे कलिजुग कह रहे हैं। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ा मनुष्य (ही)।7।
अर्थ: (हे भाई!) चारों युगों में गुरु के शब्द को विचार के (परमात्मा का) नाम (जप के ही मनुष्य) उत्तम बन सकता है। इस युग में भी जिसे कलियुग कहा जा रहा है वही मनुष्य (विकारों के समुंद्रों से) पार लांघता है जो गुरु की शरण पड़ता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचा मरै न आवै जाइ ॥ नानक गुरमुखि रहै समाइ ॥८॥१॥

मूलम्

साचा मरै न आवै जाइ ॥ नानक गुरमुखि रहै समाइ ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। न आवै जाइ = आता जाता नहीं, पैदा होता मरता नहीं। गुरमुखि = गुरु की शरण में रहने वाला मनुष्य।8।
अर्थ: हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य उस परमात्मा में सदा लीन रहता है जो सदा कायम रहने वाला है और जो कभी पैदा होता मरता नहीं (इस तरह उस मनुष्य को कोई अपवित्रता छू नहीं सकती)।8।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ३ ॥ गुरमुखि सेवा प्रान अधारा ॥ हरि जीउ राखहु हिरदै उर धारा ॥ गुरमुखि सोभा साच दुआरा ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला ३ ॥ गुरमुखि सेवा प्रान अधारा ॥ हरि जीउ राखहु हिरदै उर धारा ॥ गुरमुखि सोभा साच दुआरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह करके। हिरदै = हृदय में। उर = हृदय। साच दुआरा = सदा स्थिर रहने वाले हरि के दर पर।1।
अर्थ: (हे पंडित!) गुरु के सन्मुख हो के परमात्मा की सेवा भक्ति को अपने जीवन का आसरा बना। परमात्मा को अपने हृदय में अपने मन में टिका के रख, (हे पंडित!) गुरु की शरण पड़ कर तू सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर आदर मान हासिल करेगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंडित हरि पड़ु तजहु विकारा ॥ गुरमुखि भउजलु उतरहु पारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पंडित हरि पड़ु तजहु विकारा ॥ गुरमुखि भउजलु उतरहु पारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंडित = हे पण्डित! पढ़ = पढ़। भउजल = संसार समुंदर।1। रहाउ।
अर्थ: हे पंडित! परमात्मा की महिमा पढ़ (और इसकी इनायत से अपने अंदर से) विकार छोड़। (हे पंडित!) गुरु की शरण पड़ कर तू संसार समुंदर से पार लांघ जाएगा।1। रहाउ।

[[0230]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि विचहु हउमै जाइ ॥ गुरमुखि मैलु न लागै आइ ॥ गुरमुखि नामु वसै मनि आइ ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि विचहु हउमै जाइ ॥ गुरमुखि मैलु न लागै आइ ॥ गुरमुखि नामु वसै मनि आइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विचहु = मन में से। मनि = मन में।2।
अर्थ: (हे पंडित!) गुरु की शरण पड़ने से मन में से अहंकार दूर हो जाता है, गुरु की शरण पड़ने से (मन के अहंकार की) मैल आ के नहीं चिपकती, (क्योंकि) गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा का नाम मन में आ बसता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि करम धरम सचि होई ॥ गुरमुखि अहंकारु जलाए दोई ॥ गुरमुखि नामि रते सुखु होई ॥३॥

मूलम्

गुरमुखि करम धरम सचि होई ॥ गुरमुखि अहंकारु जलाए दोई ॥ गुरमुखि नामि रते सुखु होई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु में। दोई = द्वैत, मेर तेर। नामि = नाम में।3।
अर्थ: (हे पंडित!) गुरु के सन्मुख रहने से सदा स्थिर परमात्मा में लीनता हो जाती है (और यही है असली) कर्म-धर्म। जो गुरु की शरण पड़ता है वह (अपने अंदर से) अहंकार व मेर तेर जला देता है। प्रभु के नाम में रंगे जा के गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपणा मनु परबोधहु बूझहु सोई ॥ लोक समझावहु सुणे न कोई ॥ गुरमुखि समझहु सदा सुखु होई ॥४॥

मूलम्

आपणा मनु परबोधहु बूझहु सोई ॥ लोक समझावहु सुणे न कोई ॥ गुरमुखि समझहु सदा सुखु होई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परबोधहु = जगाओ। सोई = उस परमात्मा को।4।
अर्थ: (हे पंडित! पहले) अपने मन को जगाओ और उस परमात्मा की हस्ती को समझो। (हे पण्डित! तुम्हारा अपना मन माया के मोह में सोया पड़ा है, पर) तुम लोगों को शिक्षा देते हो (इस तरह कभी) कोई मनुष्य (शिक्षा) नहीं सुनता। गुरु की शरण पड़ कर तुम खुद (सही जीवन मार्ग को) समझो, तुम्हें सदा आत्मिक आनंद मिलेगा।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि ड्मफु बहुतु चतुराई ॥ जो किछु कमावै सु थाइ न पाई ॥ आवै जावै ठउर न काई ॥५॥

मूलम्

मनमुखि ड्मफु बहुतु चतुराई ॥ जो किछु कमावै सु थाइ न पाई ॥ आवै जावै ठउर न काई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन की ओर मुंह रखने वाला मनुष्य। डंफु = दिखावा। थाइ = जगह में। थाइ न पाई = स्वीकार नहीं होता। ठउर = ठिकाना, टिकने वाली जगह।5।
अर्थ: (हे पंडित!) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (धार्मिक) दिखावा करता है, बड़ी चतुराई दिखाता है। (पर जो कुछ वह) खुद (अमली जीवन) कमाता है वह (परमात्मा की नजरों में) स्वीकार नहीं होता, वह मनुष्य जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहता है, उसे आत्मिक शांति की कोई जगह नहीं मिलती।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख करम करे बहुतु अभिमाना ॥ बग जिउ लाइ बहै नित धिआना ॥ जमि पकड़िआ तब ही पछुताना ॥६॥

मूलम्

मनमुख करम करे बहुतु अभिमाना ॥ बग जिउ लाइ बहै नित धिआना ॥ जमि पकड़िआ तब ही पछुताना ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बग = बगुला। जमि = जम ने।6।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (अपनी ओर से धार्मिक) कर्म करता है (पर) इस तरह उसके अंदर बहुत गुरूर पैदा होता है, वह सदा बगुले की तरह ही समाधि लगा के बैठता है। वह तभी पछताएगा जब मौत ने (उसे सिर से) आ जकड़ा।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतिगुर सेवे मुकति न होई ॥ गुर परसादी मिलै हरि सोई ॥ गुरु दाता जुग चारे होई ॥७॥

मूलम्

बिनु सतिगुर सेवे मुकति न होई ॥ गुर परसादी मिलै हरि सोई ॥ गुरु दाता जुग चारे होई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकति = (डंफु की ओर से) खलासी। परसादी = प्रसादि, कृपा से। दाता = हरि नाम की दात देने वाला। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही।7।
अर्थ: (हे पण्डित!) सतिगुरु की शरण पड़े बिना (दंभ आदि से) खलासी नहीं होती। गुरु की कृपा से ही वह (घट-घट की जानने वाला) परमात्मा मिलता है। (हे पण्डित! सतियुग कलियुग कह कह के किसी युग के जिम्मे बुराई लगा के गलती ना कर) चारों युगों में गुरु ही परमात्मा के नाम की दाति देने वाला है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि जाति पति नामे वडिआई ॥ साइर की पुत्री बिदारि गवाई ॥ नानक बिनु नावै झूठी चतुराई ॥८॥२॥

मूलम्

गुरमुखि जाति पति नामे वडिआई ॥ साइर की पुत्री बिदारि गवाई ॥ नानक बिनु नावै झूठी चतुराई ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाति पाति = जात पात, जात व कुल। नामे = नाम में ही। साइर = समुंदर। साइर की पुत्री = समुंदर की बेटी, समुंदर से पैदा हुई (जब देवताओं ने समुंदर मंथन किया था), माया। बिदारि = चीर फाड़ के।8।
अर्थ: (हे पंडित!) गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य के लिए हरि-नाम ही ऊँची जाति है, ऊँचा कुल है, परमात्मा के नाम में वह अपनी इज्जत मानता है। नाम की इनायत से ही उसने माया का प्रभाव (अपने अंदर से) काट के परे रख दिया है।
हे नानक! (कह: हे पंडित!) परमात्मा के नाम से वंचित रह कर और-और चतुराईयां दिखानी व्यर्थ हैं।8।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी मः ३ ॥ इसु जुग का धरमु पड़हु तुम भाई ॥ पूरै गुरि सभ सोझी पाई ॥ ऐथै अगै हरि नामु सखाई ॥१॥

मूलम्

गउड़ी मः ३ ॥ इसु जुग का धरमु पड़हु तुम भाई ॥ पूरै गुरि सभ सोझी पाई ॥ ऐथै अगै हरि नामु सखाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुग = मानव जीवन, संसार। धमु = कर्तव्य, फर्ज। भाई = हे भाई! पूरै गुरि = पूरे गुरु ने। पाई = दे दी है। ऐथै = इस लोक में। अगै = परलोक में। सखाई = साथी।1।
अर्थ: हे भाई! इस मानव जन्म के कर्तव्य पढ़ो (अर्थात, ये सीखो कि मानव जन्म में जीवन सफल करने के लिए क्या प्रयास करने चाहिए)। (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ा है) पूरे गुरु ने उसे ये सूझ दी कि इस लोक में और परलोक में परमात्मा का नाम (ही असल) साथी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम पड़हु मनि करहु बीचारु ॥ गुर परसादी मैलु उतारु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम पड़हु मनि करहु बीचारु ॥ गुर परसादी मैलु उतारु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। परसादी = प्रसादि, कृपा से। उतारु = उतार, दूर कर।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा (की महिमा) पढ़ो, (अपने) मन में (परमात्मा के गुणों का) विचार करो, (इस तरह) गुरु की कृपा से (अपने मन में से विकारों की) मैल दूर करो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वादि विरोधि न पाइआ जाइ ॥ मनु तनु फीका दूजै भाइ ॥ गुर कै सबदि सचि लिव लाइ ॥२॥

मूलम्

वादि विरोधि न पाइआ जाइ ॥ मनु तनु फीका दूजै भाइ ॥ गुर कै सबदि सचि लिव लाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वादि = वाद-विवाद से, झगड़े से, धार्मिक बहिस से। विरोधि = विरोध से, खण्डन करने से। फीका = बेरस, रूखा, आत्मिक रस विहीन। दूजै भाइ = परमात्मा के बिना किसी और के प्यार में।2।
अर्थ: (हे भाई! किसी धार्मिक) बहिस करने से (या किसी धर्म का) खण्डन करने से परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं होता (इस तरह परमात्मा के नाम की लगन से टूट के) और ही स्वादों में पड़ा मन आत्मिक जीवन से वंचित हो जाता है, शरीर (हृदय) आत्मिक जीवन विहीन हो जाता है। गुरु के शब्द के द्वारा (ही मनुष्य) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में लगन जोड़ सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै मैला इहु संसारा ॥ नित तीरथि नावै न जाइ अहंकारा ॥ बिनु गुर भेटे जमु करे खुआरा ॥३॥

मूलम्

हउमै मैला इहु संसारा ॥ नित तीरथि नावै न जाइ अहंकारा ॥ बिनु गुर भेटे जमु करे खुआरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। नावै = नहाए, स्नान करता है। बिनु गुर भेटे = गुरु को मिले बगैर। जम = मौत, आत्मिक मौत।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु को मिले बिना) ये जगत (भाव, दुनिया का ये मनुष्य) अहम् (के विकार) से मलीन (-मन) हो जाता है। सदा तीर्थों पर स्नान भी करता है (पर इस तरह इसके मन का) अहंकार दूर नहीं होता, गुरु को मिले बगैर आत्मिक मौत इसे ख्वार करती रहती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो जनु साचा जि हउमै मारै ॥ गुर कै सबदि पंच संघारै ॥ आपि तरै सगले कुल तारै ॥४॥

मूलम्

सो जनु साचा जि हउमै मारै ॥ गुर कै सबदि पंच संघारै ॥ आपि तरै सगले कुल तारै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जि = जो। सबदि = शब्द के द्वारा। पंच = कामादिक पाँचों को। संघारै = मार देता है।4।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर लेता है (कामादिक) पाँचों विकारों को खत्म कर देता है, वह मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का रूप हो जाता है, वह खुद (संसार समुंदर में से) पार लांघ जाता है और अपने सारे कुलों को भी पार लंघा लेता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहि नटि बाजी पाई ॥ मनमुख अंध रहे लपटाई ॥ गुरमुखि अलिपत रहे लिव लाई ॥५॥

मूलम्

माइआ मोहि नटि बाजी पाई ॥ मनमुख अंध रहे लपटाई ॥ गुरमुखि अलिपत रहे लिव लाई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मोह से। नटि = नट ने, प्रभु-नट ने। बाजी = जगत रचना की बाजी। अलिपत = अलिप्त, निर्लिप। लिव = लगन।5।
अर्थ: (हे भाई! जैसे जब कोई नट बाजी डालता है तो लोग तमाशा देखने आ इकट्ठे होते हैं, वैसे ही) (प्रभु) नट ने माया के मोह से ये (जगत रचना का) तमाशा रच दिया है। (इसे देख देख के) अपने मन के पीछे चलने वाले (माया के मोह में) अंधे हुए मनुष्य (इस तमाशे के साथ) चिपक रहे हैं। पर, गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़ के (इस तमाशे से) निर्लिप रहते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुते भेख करै भेखधारी ॥ अंतरि तिसना फिरै अहंकारी ॥ आपु न चीनै बाजी हारी ॥६॥

मूलम्

बहुते भेख करै भेखधारी ॥ अंतरि तिसना फिरै अहंकारी ॥ आपु न चीनै बाजी हारी ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भेख = धार्मिक पहरावे। भेखधारी = धार्मिक पोशाक का धारणी, धार्मिक पहरावे को ही धर्म समझने वाला। तिसना = तृष्णा, माया की प्यास। आपु = अपने आप को। चीनै = परखता है।6।
अर्थ: (हे भाई!) निरे धार्मिक पहिरावे को ही धर्म समझने वाला मनुष्य विभिन्न तरह की धार्मिक वेश-भूषाएं पहनता है (पर उसके) अंदर (माया की) तृष्णा (बनी रहती है) वह अहंकार में ही विचरता है। वह अपने जीवन को नहीं परखता (इस वास्ते) वह मनुष्य-जनम की बाज़ी हार जाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कापड़ पहिरि करे चतुराई ॥ माइआ मोहि अति भरमि भुलाई ॥ बिनु गुर सेवे बहुतु दुखु पाई ॥७॥

मूलम्

कापड़ पहिरि करे चतुराई ॥ माइआ मोहि अति भरमि भुलाई ॥ बिनु गुर सेवे बहुतु दुखु पाई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कापड़ = धार्मिक पहरावे। भरमि = भटकना में। भुलाई = गलत राह पर पड़ा रहता है।7।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य निरे धार्मिक पहिरावे करके ही चतुराई (भरी बातें) करता है (कि मैं धार्मिक हूँ, पर अंदर से) माया के मोह के कारण बहुत भटकना में फंस के गलत राह पर पड़ा रहता है, वह मनुष्य गुरु की शरण ना आने के कारण बहुत दुख पाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामि रते सदा बैरागी ॥ ग्रिही अंतरि साचि लिव लागी ॥ नानक सतिगुरु सेवहि से वडभागी ॥८॥३॥

मूलम्

नामि रते सदा बैरागी ॥ ग्रिही अंतरि साचि लिव लागी ॥ नानक सतिगुरु सेवहि से वडभागी ॥८॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामि = नाम में। बैरागी = वैरागवान, विरक्त, माया के प्रभाव से बचे हुए। ग्रिही अंतरि = गृह ही अंतरि, घर के अंदर ही। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। से = वह लोग।8।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे रहते हैं, वे सदैव वैरागमयी रहते हैं। गृहस्थ में रहते हुए ही उनकी लगन सदा-स्थिर परमात्मा में लगी रहती है। हे नानक! वे मनुष्य बहुत भाग्यशाली हैं, क्योंकि वे गुरु की शरण में रहते हैं।8।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ३ ॥ ब्रहमा मूलु वेद अभिआसा ॥ तिस ते उपजे देव मोह पिआसा ॥ त्रै गुण भरमे नाही निज घरि वासा ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला ३ ॥ ब्रहमा मूलु वेद अभिआसा ॥ तिस ते उपजे देव मोह पिआसा ॥ त्रै गुण भरमे नाही निज घरि वासा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूलु = आदि। तिस ते = उस (ब्रहमा) से। देव = देवते। पिआसा = तृष्णा, प्यास। भरमे = भटकते रहे। घरि = घर में। निज घरि = अपने (असल) घर में, प्रभु चरणों में।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस) ब्रहमा को वेद-अभ्यास का रास्ता चलाने वाला माना जाता है (जो ब्रह्मा वेद-अभ्यास का मूल माना जाता है) उससे (सारे) देवते पैदा हुए (माने जाते हैं, पर वह देवते माया के) मोह (-माया की) तृष्णा में फंसे हुए ही बताए जा रहे हैं। वह देवते माया के तीन गुणों में ही भटकते रहे, उन्हे प्रभु चरणों में ठिकाना ना मिला।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम हरि राखे सतिगुरू मिलाइआ ॥ अनदिनु भगति हरि नामु द्रिड़ाइआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हम हरि राखे सतिगुरू मिलाइआ ॥ अनदिनु भगति हरि नामु द्रिड़ाइआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हमें। अनदिनु = हर रोज। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) हमें परमात्मा ने (माया के प्रभाव से बचा) लिया है, (परमातमा ने हमें) गुरु मिला दिया है, (जिस गुरु ने हमारे दिल में) हर वक्त (परमात्मा की) भक्ति पक्की टिका दी है, परमात्मा का नाम पक्का टिका दिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रै गुण बाणी ब्रहम जंजाला ॥ पड़ि वादु वखाणहि सिरि मारे जमकाला ॥ ततु न चीनहि बंनहि पंड पराला ॥२॥

मूलम्

त्रै गुण बाणी ब्रहम जंजाला ॥ पड़ि वादु वखाणहि सिरि मारे जमकाला ॥ ततु न चीनहि बंनहि पंड पराला ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाणी ब्रहम = ब्रहमा की रची वाणी, वेद। पढ़ि = पढ़ के। वादु = झगड़ा, बहस। सिरि = सिर पर। जम काला = मौत, आत्मिक मौत। ततु = अस्लियत। चीनहि = पहचानते। पंड पराला = पराली के बंडल, बेमतलब के भार।2।
अर्थ: (हे भाई!) ब्रह्मा की रची हुई वाणी (वह वाणी जो ब्रहमा की रची हुई बताई जाती है) माया के तीन गुणों में ही रखती है, (क्योंकि इसे) पढ़ के (विद्वान पण्डित) बहिस ही करते हैं, उनके सिर पर आत्मिक मौत अपनी चोट कायम रखती है। वह असल (जीवन उद्देश्य) को नहीं पहचानते, वह (धार्मिक चर्चा की) फूस के बंडल ही (अपने सिर पर) बाँधे रखते हैं।2।

[[0231]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख अगिआनि कुमारगि पाए ॥ हरि नामु बिसारिआ बहु करम द्रिड़ाए ॥ भवजलि डूबे दूजै भाए ॥३॥

मूलम्

मनमुख अगिआनि कुमारगि पाए ॥ हरि नामु बिसारिआ बहु करम द्रिड़ाए ॥ भवजलि डूबे दूजै भाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। अगिआनि = ज्ञान हीनता के कारण। कुमारगि = कुमार्ग, गलत रास्ते पर। बहु करम = अनेक (निहित हुए धार्मिक) कर्म। भवजल = संसार समुंदर में। दूजै भाइ = माया के प्यार में।3।
अर्थ: (हे भाई! वे लोग ब्रहमा की रची हुई वाणी पढ़ते हैं, पर) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य परमात्मा के साथ जान-पहिचान से वंचित रहने के कारण गलत जीवन-राह पर पड़े रहते हैं। वे परमात्मा का नाम तो भुला देते हैं, पर (अन्य व्रत-नेम आदिक) अनेक कर्म करने पर जोर देते रहते हैं। ऐसे मनुष्य परमात्मा के बिना और प्यार में फंसे रहने के कारण संसार समुंदर में डूबे रहते हैं (विकारों में फंसे रहते हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ का मुहताजु पंडितु कहावै ॥ बिखिआ राता बहुतु दुखु पावै ॥ जम का गलि जेवड़ा नित कालु संतावै ॥४॥

मूलम्

माइआ का मुहताजु पंडितु कहावै ॥ बिखिआ राता बहुतु दुखु पावै ॥ जम का गलि जेवड़ा नित कालु संतावै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुहताजु = जरूरतमंद। बिखिआ = माया। राता = लीन हुआ, मगन। गलि = गले में। जेवड़ा = जंजीर, फाही, रस्सा। कालु = मौत, आत्मिक मौत।4।
अर्थ: (हे भाई! ब्रह्मा की रची वाणी का विद्वान मनुष्य) माया का तृष्णालु रहता हुआ भी (अपने आप को) पंडित कहलवाता है। माया के मोह में फंसा वह (अंतरात्मे) बहुत दुख सहता रहता है, उसके गले में आत्मिक मौत का फंदा पड़ा रहता है, आत्मिक मौत उसे सदैव दुखी रखती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि जमकालु नेड़ि न आवै ॥ हउमै दूजा सबदि जलावै ॥ नामे राते हरि गुण गावै ॥५॥

मूलम्

गुरमुखि जमकालु नेड़ि न आवै ॥ हउमै दूजा सबदि जलावै ॥ नामे राते हरि गुण गावै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। दूजा = माया का प्यार। सबदि = शब्द द्वारा। नामे = नामि ही, नाम में ही।5।
अर्थ: (पर, हे भाई!) आत्मिक मौत गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के नजदीक नहीं फटकती, वह गुरु के शब्द की इनायत से (अपने अंदर से) अहंकार जला देता है, वह परमात्मा के नाम में ही रंगा रह के परमात्मा के गुण गाता रहता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ दासी भगता की कार कमावै ॥ चरणी लागै ता महलु पावै ॥ सद ही निरमलु सहजि समावै ॥६॥

मूलम्

माइआ दासी भगता की कार कमावै ॥ चरणी लागै ता महलु पावै ॥ सद ही निरमलु सहजि समावै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महलु = प्रभु चरणों में जगह। सद = सदा ही। सहिज = आत्मिक अडोलता में।6।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करते हैं, माया उनकी दासी बनी रहती है, और उनकी जरूरतें पूरी करती है। जो मनुष्य उन भक्त जनों की चरणों में लगता है, वह भी प्रभु चरणों में ठिकाना प्राप्त कर लेता है। वह भी सदा ही पवित्र मन वाला हो जाता है और आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि कथा सुणहि से धनवंत दिसहि जुग माही ॥ तिन कउ सभि निवहि अनदिनु पूज कराही ॥ सहजे गुण रवहि साचे मन माही ॥७॥

मूलम्

हरि कथा सुणहि से धनवंत दिसहि जुग माही ॥ तिन कउ सभि निवहि अनदिनु पूज कराही ॥ सहजे गुण रवहि साचे मन माही ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणहि = सुनते हैं। से = वे लोग। दिसहि = दिखते हैं। जुग माही = जिंदगी में, संसार में। कउ = को। सभि = सारे। कराही = करते हैं। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। रवहि = याद करते हैं।7।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा की महिमा की बातें सुनतें हैं, वह जगत में (प्रत्यक्ष) धनवान दिखते हैं (वे माया की तृष्णा में नहीं भटकते फिरते), सारे लोग उनके आगे नत्मस्तक होते हैं, और हर वक्त उनका आदर-सत्कार करते हैं (क्योंकि वह मनुष्य) आत्मिक अडोलता में टिक के सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुण अपने मन में याद करे रखते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरै सतिगुरि सबदु सुणाइआ ॥ त्रै गुण मेटे चउथै चितु लाइआ ॥ नानक हउमै मारि ब्रहम मिलाइआ ॥८॥४॥

मूलम्

पूरै सतिगुरि सबदु सुणाइआ ॥ त्रै गुण मेटे चउथै चितु लाइआ ॥ नानक हउमै मारि ब्रहम मिलाइआ ॥८॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। चउथै = चौथे दर्जे में, उस अवस्था में जहाँ माया के तीन गुण अपना असर नहीं डाल सकते। मारि = मार के।8।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जिस मनुष्य को) पूरे गुरु ने परमात्मा की महिमा की वाणी सुनाई है, उसने अपने अंदर से (माया के) तीनों गुणों का प्रभाव मिटा लिया है, उसने अपना मन उस आत्मिक अवस्था में टिका लिया है जहाँ माया के तीन गुण अपना असर नहीं डाल सकते, (गुरु ने उसके अंदर से) अहंकार मार के उसको परमात्मा के साथ जोड़ दिया है।8।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ३ ॥ ब्रहमा वेदु पड़ै वादु वखाणै ॥ अंतरि तामसु आपु न पछाणै ॥ ता प्रभु पाए गुर सबदु वखाणै ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला ३ ॥ ब्रहमा वेदु पड़ै वादु वखाणै ॥ अंतरि तामसु आपु न पछाणै ॥ ता प्रभु पाए गुर सबदु वखाणै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहमा वेद = ब्रह्मा का उच्चारा हुआ वेद। पढ़ै = (पंडित) पढ़ता है। वादु = झगड़ा, बहस, चर्चा। वखाणै = कहता है, सुनता है। तामसु = तमोगुण वाला स्वभाव, अंधेरा, आत्मिक जीवन की ओर से अंधकार। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। ता = तब।1।
अर्थ: (हे भाई! पंडित उस) वेद को पढ़ता है (जिसे वह) ब्रह्मा का उच्चारा हुआ (समझता है, उसके आसरे) बहिस (की बातें) सुनाता है, पर उसके अपने अंदर आत्मिक जीवन वाला अंधेरा ही रहता है, क्योंकि वह अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता ही नहीं। जब मनुष्य गुरु का शब्द (जो प्रभु की महिमा से भरपूर है) उच्चारता है, तभी प्रभु का मिलाप हासिल करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सेवा करउ फिरि कालु न खाइ ॥ मनमुख खाधे दूजै भाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुर सेवा करउ फिरि कालु न खाइ ॥ मनमुख खाधे दूजै भाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। काल = मौत, आत्मिक मौत। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। दूजै भाइ = माया के प्यार में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं (तो) गुरु की सेवा करता हूँ (मैं तो गुरु की शरण पड़ा हूँ। जो मनुष्य गुरु का प्रभाव लेता है उसे) फिर कभी आत्मिक मौत नहीं खाती (आत्मिक मौत उसके आत्मिक जीवन को तबाह नहीं करती)। (पर) जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते हैं, माया के प्यार में (फंसने के कारण) उनके आत्मिक जीवन खत्म हो जाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि प्राणी अपराधी सीधे ॥ गुर कै सबदि अंतरि सहजि रीधे ॥ मेरा प्रभु पाइआ गुर कै सबदि सीधे ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि प्राणी अपराधी सीधे ॥ गुर कै सबदि अंतरि सहजि रीधे ॥ मेरा प्रभु पाइआ गुर कै सबदि सीधे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। सीधे = सिझ जाते हैं। सबदि = शब्द द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। रीधे = रीझ गए।2।
अर्थ: (हे भाई!) पापी मनुष्य भी गुरु की शरण पड़ कर अपना जीवन सफल कर लेते हैं, गुरु के शब्द की इनायत से वह आत्मिक अडोलता में टिक जाते हैं, उनके अंदर प्रभु मिलाप की रीझ पैदा हो जाती है, वह प्रभु को मिल जाते हैं, गुरु के शब्द द्वारा वे सफल जीवन वाले हो जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरि मेले प्रभि आपि मिलाए ॥ मेरे प्रभ साचे कै मनि भाए ॥ हरि गुण गावहि सहजि सुभाए ॥३॥

मूलम्

सतिगुरि मेले प्रभि आपि मिलाए ॥ मेरे प्रभ साचे कै मनि भाए ॥ हरि गुण गावहि सहजि सुभाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। प्रभि = प्रभु ने। कै मनि = के मन में। भाए = अच्छे लगे। गावहि = गाते हैं। सुभाए = प्रेम से।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिन्हें गुरु ने (अपने शब्द में) जोड़ा है, उन्हें प्रभु ने अपने चरणों में मिला लिया है, वह मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के मन में प्यारे लगने लग पड़ते हैं, वे आत्मिक अडोलता में प्रेम में जुड़ के प्रभु के गुण गाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु गुर साचे भरमि भुलाए ॥ मनमुख अंधे सदा बिखु खाए ॥ जम डंडु सहहि सदा दुखु पाए ॥४॥

मूलम्

बिनु गुर साचे भरमि भुलाए ॥ मनमुख अंधे सदा बिखु खाए ॥ जम डंडु सहहि सदा दुखु पाए ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाए = गलत रास्ते पड़ गए। बिखु = जहर। जम डंडु = जम की सजा।4।
अर्थ: (हे भाई!) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सदा स्थिर प्रभु के रूप गुरु से विछुड़ के भटकना के कारण गलत राह पर पड़े रहते हैं। माया के मोह में अंधे हुए हुये वे सदा (इस मोह का) जहर ही खाते रहते हैं जिस कारण वे आत्मिक मौत की सजा ही सहते हैं और सदा दुख पाते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जमूआ न जोहै हरि की सरणाई ॥ हउमै मारि सचि लिव लाई ॥ सदा रहै हरि नामि लिव लाई ॥५॥

मूलम्

जमूआ न जोहै हरि की सरणाई ॥ हउमै मारि सचि लिव लाई ॥ सदा रहै हरि नामि लिव लाई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जमूआ = बिचारा जम। न जोहै = देख नहीं सकता। मारि = मार के। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। लिव = लगन। नामि = नाम में।5।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा की शरण पड़ा रहता है विचारा जम उसकी तरफ देख भी नहीं सकता (आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती)। वह मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके सदा स्थिर प्रभु (के चरणों) में तवज्जो जोड़े रखता है, वह सदा परमात्मा के नाम में लगन लगाए रखता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवहि से जन निरमल पविता ॥ मन सिउ मनु मिलाइ सभु जगु जीता ॥ इन बिधि कुसलु तेरै मेरे मीता ॥६॥

मूलम्

सतिगुरु सेवहि से जन निरमल पविता ॥ मन सिउ मनु मिलाइ सभु जगु जीता ॥ इन बिधि कुसलु तेरै मेरे मीता ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवहि = सेवा करते हैं। मन सिउ = (गुरु के) मन से। मिलाइ = जोड़ के। कुसलु = सुख। तेरै = तेरे अंदर। मीता = हे मीत!।6।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे पवित्र और स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं, वह गुरु के मन के साथ अपना मन जोड़ के (गुरु की रजा में चल के) सारे जगत को जीत लेते हैं (कोई विकार उनके ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता)। हे मेरे मित्र! (अगर तू भी गुरु की शरण पड़े, तो) इस तरीके से तेरे अंदर भी आनंद बना रहेगा।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरू सेवे सो फलु पाए ॥ हिरदै नामु विचहु आपु गवाए ॥ अनहद बाणी सबदु वजाए ॥७॥

मूलम्

सतिगुरू सेवे सो फलु पाए ॥ हिरदै नामु विचहु आपु गवाए ॥ अनहद बाणी सबदु वजाए ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। हिरदै = हृदय में। आपु = स्वैभाव। अनहद = अन+आहत्, बिना बजाए, एक रस, लगातार, सदा ही। बाणी वजाए = वाणी बजाता है, वाणी का प्रबल प्रभाव डाले रखता है (जिस करके विकारों की प्रेरणा सुनी नहीं जा सकती)।7।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह (यह) फल हासिल करता है (कि) उसके हृदय में परमात्मा का नाम बस पड़ता है, वह अपने अंदर से स्वैभाव (अहम्-अहंकार) दूर कर लेता है। (जैसे ढोल बजने पर कोई छोटी मोटी आवाज सुनाई नहीं देती) वह मनुष्य (अपने अंदर) एक रस महिमा की वाणी, महिमा का शब्द उजागर करता है (जिसकी इनायत से) कोई अन्य बुरी प्रेरणा असर नहीं डाल सकती।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर ते कवनु कवनु न सीधो मेरे भाई ॥ भगती सीधे दरि सोभा पाई ॥ नानक राम नामि वडिआई ॥८॥५॥

मूलम्

सतिगुर ते कवनु कवनु न सीधो मेरे भाई ॥ भगती सीधे दरि सोभा पाई ॥ नानक राम नामि वडिआई ॥८॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। सीधो = सीझा, सफल हुआ। भाई = हे भाई! दरि = दर पर। नामि = नाम से।8।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मेरे भाई! गुरु की शरण पड़ने से कौन कौन सा मनुष्य (जीवन में) कामयाब नहीं होता? (जो भी मनुष्य गुरु का पल्ला पकड़ता है, उसकी जिंदगी सफल हो जाती है)। (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा की भक्ति की इनायत से मनुष्य कामयाब जीवन वाले हो जाते हैं, प्रभु के दर पर उन्हें शोभा मिलती है। परमात्मा के नाम की इनायत से उन्हें (हर जगह बड़ाई) आदर, शोभा मिलती है।8।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ३ ॥ त्रै गुण वखाणै भरमु न जाइ ॥ बंधन न तूटहि मुकति न पाइ ॥ मुकति दाता सतिगुरु जुग माहि ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला ३ ॥ त्रै गुण वखाणै भरमु न जाइ ॥ बंधन न तूटहि मुकति न पाइ ॥ मुकति दाता सतिगुरु जुग माहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रैगुण वखाणै = माया के तीनों गुणों की बातें करता है, माया के पसारे की बातों में दिलचस्पी रखता है। भरमु = भटकना। मुकति = (माया के मोह से) आजादी। जुग माहि = जगत में, जिंदगी में।1।
अर्थ: (पर, हे भाई!) जो मनुष्य माया के पसारे की बातों में दिलचस्पी रखता है, उसके मन की भटकना दूर नहीं हो सकती, उसके (माया के मोह के) बंधन नहीं टूटते। उसे (माया के मोह से) आजादी प्राप्त नहीं होती। (हे भाई!) जगत में माया के मोह से निजात देने वाला (सिर्फ) गुरु (ही) है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि प्राणी भरमु गवाइ ॥ सहज धुनि उपजै हरि लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरमुखि प्राणी भरमु गवाइ ॥ सहज धुनि उपजै हरि लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की लहर।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह अपने मन की भटकना दूर कर लेता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता की लहर पैदा हो जाती है (क्योंकि, गुरु की कृपा से) वह परमात्मा में तवज्जो जोड़े रखता है।1। रहाउ।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रै गुण कालै की सिरि कारा ॥ नामु न चेतहि उपावणहारा ॥ मरि जमहि फिरि वारो वारा ॥२॥

मूलम्

त्रै गुण कालै की सिरि कारा ॥ नामु न चेतहि उपावणहारा ॥ मरि जमहि फिरि वारो वारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि कारा = सिर पर दबाव। कालै की = मौत की, आत्मिक मौत की। वारो वारा = बार बार।2।
अर्थ: (हे भाई!) माया के पसारे में दिलचस्पी रखने वालों के सिर पर (सदा) आत्मिक मौत का हुक्म चलता है, वे विधाता परमात्मा का नाम कभी याद नहीं करते, वह बार बार (जगत में) पैदा होते हैं, मरते हैं, पैदा होते हैं मरते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंधे गुरू ते भरमु न जाई ॥ मूलु छोडि लागे दूजै भाई ॥ बिखु का माता बिखु माहि समाई ॥३॥

मूलम्

अंधे गुरू ते भरमु न जाई ॥ मूलु छोडि लागे दूजै भाई ॥ बिखु का माता बिखु माहि समाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से, के द्वारा। मूलु = जगत का मूल प्रभु। दूजै भाई = माया के प्यार में। बिखु = जहर (माया का मोह जो आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है)।3।
अर्थ: (पर, हे भाई! माया के मोह में खुद) अंधे हुए गुरु से (शरण आए सेवक के मन की) भटकना दूर नहीं हो सकती। (ऐसे गुरु की शरण पड़ के तो मनुष्य बल्कि) जगत के मूल कर्तार को छोड़ के माया के मोह में फसते हैं। (आत्मिक मौत पैदा करने वाली माया के) जहर में मस्त हुआ मनुष्य उस जहर में ही मस्त रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ करि मूलु जंत्र भरमाए ॥ हरि जीउ विसरिआ दूजै भाए ॥ जिसु नदरि करे सो परम गति पाए ॥४॥

मूलम्

माइआ करि मूलु जंत्र भरमाए ॥ हरि जीउ विसरिआ दूजै भाए ॥ जिसु नदरि करे सो परम गति पाए ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूलु = आसरा। करि = कर के, ठान के। जंत्र = जीव। गति = आत्मिक अवस्था। परम गति = सबसे ऊँची अवस्था।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जंत्र’ है ‘जंतु’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (अभागी) मनुष्य माया को (जिंदगी का) आसरा बना के (माया की खातिर ही) भटकते रहते हैं, माया के प्यार के कारण उन्हें परमात्मा भूला रहता है। (पर, हे भाई!) जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वह मनुष्य सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है (जहाँ माया का मोह छू नहीं सकता)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि साचु बाहरि साचु वरताए ॥ साचु न छपै जे को रखै छपाए ॥ गिआनी बूझहि सहजि सुभाए ॥५॥

मूलम्

अंतरि साचु बाहरि साचु वरताए ॥ साचु न छपै जे को रखै छपाए ॥ गिआनी बूझहि सहजि सुभाए ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। बाहरि = जगत से बरतण-बर्ताव करते हुए। साचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = प्रेम में।5।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, गुरु उस के) हृदय में सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का प्रकाश कर देता है। जगत से बरतते हुए भी सारे जगत में उसको सदा स्थिर प्रभु दिखा देता है। (जिस मनुष्य के अंदर-बाहर प्रभु का प्रकाश हो जाए), वह जो इस (मिली दात) को छुपा के रखने का यत्न करे, तो भी सदा-स्थिर प्रभु (का प्रकाश) छुपता नहीं। परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले मनुष्य आत्मिक अडोलता में (टिक के) प्रभु प्रेम में जुड़ के (इस अस्लियत को) समझ लेते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि साचि रहिआ लिव लाए ॥ हउमै माइआ सबदि जलाए ॥ मेरा प्रभु साचा मेलि मिलाए ॥६॥

मूलम्

गुरमुखि साचि रहिआ लिव लाए ॥ हउमै माइआ सबदि जलाए ॥ मेरा प्रभु साचा मेलि मिलाए ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचि = सदा स्थिर प्रभु में। सबदि = शब्द के द्वारा। मेलि = मेल में।6।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा में अपनी तवज्जो जोड़े रखता है, गुरु के शब्द की इनायत से वह (अपने अंदर से) अहंकार और माया (का मोह) जला लेता है। (इस तरह) सदा स्थिर रहने वाला प्यारा प्रभु उसे अपने चरणों में मिलाए रखता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु दाता सबदु सुणाए ॥ धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ पूरे गुर ते सोझी पाए ॥७॥

मूलम्

सतिगुरु दाता सबदु सुणाए ॥ धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ पूरे गुर ते सोझी पाए ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावतु = (माया के पीछे) दौड़ते मन को। ठाकि = रोक के। ते = से।7।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के नाम की) दाति देने वाला सतिगुरु जिस मनुष्य को अपना शब्द सुनाता है, वह माया के पीछे भटकते अपने मन को (माया के मोह से) बचा लेता है, रोक के काबू कर लेता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करता स्रिसटि सिरजि जिनि गोई ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥ नानक गुरमुखि बूझै कोई ॥८॥६॥

मूलम्

आपे करता स्रिसटि सिरजि जिनि गोई ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥ नानक गुरमुखि बूझै कोई ॥८॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्रिसटि = सृष्टि, दुनिया। सिरजि = पैदा करके। गोई = नाश की। जिनि = जिस (कर्तार) ने।8।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की शरण पड़ने वाला कोई (विरला भाग्यशाली) मनुष्य ये समझ लेता है कि उस परमात्मा के बगैर कोई अन्य (सदा स्थिर रहने वाला) नहीं है जो स्वयं ही सृजक है जिस ने स्वयं ये सृष्टि पैदा करके स्वयं ही (अनेक बार) नाश की।8।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ३ ॥ नामु अमोलकु गुरमुखि पावै ॥ नामो सेवे नामि सहजि समावै ॥ अम्रितु नामु रसना नित गावै ॥ जिस नो क्रिपा करे सो हरि रसु पावै ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला ३ ॥ नामु अमोलकु गुरमुखि पावै ॥ नामो सेवे नामि सहजि समावै ॥ अम्रितु नामु रसना नित गावै ॥ जिस नो क्रिपा करे सो हरि रसु पावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमोलक = जो किसी भी मूल्य में ना मिल सके। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। नामो = नाम ही। नामि = नाम के द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता मे। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। रसना = जीभ से।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम किसी भी मूल्य में मिल नहीं सकता। वही मनुष्य हासिल करता है जो गुरु की शरण पड़ता है। वह (हर वक्त) नाम ही स्मरण करता है और नाम से ही आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। पर, वही मनुष्य हरि नाम का रस पाता है जिस पर परमात्मा स्वयं कृपा करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनदिनु हिरदै जपउ जगदीसा ॥ गुरमुखि पावउ परम पदु सूखा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अनदिनु हिरदै जपउ जगदीसा ॥ गुरमुखि पावउ परम पदु सूखा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। हिरदै = हृदय में। जपउ = मैं जपता हूँ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। पावउ = मैं प्राप्त करता हूँ। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं हर समय अपने हृदय में जगत के मालिक परमात्मा का नाम जपता हूँ। गुरु की शरण पड़ कर मैंने सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया है, मैं आत्मिक आनंद ले रहा हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरदै सूखु भइआ परगासु ॥ गुरमुखि गावहि सचु गुणतासु ॥ दासनि दास नित होवहि दासु ॥ ग्रिह कुट्मब महि सदा उदासु ॥२॥

मूलम्

हिरदै सूखु भइआ परगासु ॥ गुरमुखि गावहि सचु गुणतासु ॥ दासनि दास नित होवहि दासु ॥ ग्रिह कुट्मब महि सदा उदासु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परगासु = प्रकाश। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। गुणतास = गुणों का खजाना। ग्रिह = घर। कुटंब = परिवार।2।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर गुणों के खजाने सदा स्थिर प्रभु के गुण गाते हैं, उनके हृदय में आत्मिक आनंद बना रहता है, उनके अंदर प्रकाश पैदा हो जाता है, वह सदा परमात्मा के सेवक बने रहते हैं, वह मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहते हुए परिवार में रहते हुए भी (माया के मोह से) उपराम रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवन मुकतु गुरमुखि को होई ॥ परम पदारथु पावै सोई ॥ त्रै गुण मेटे निरमलु होई ॥ सहजे साचि मिलै प्रभु सोई ॥३॥

मूलम्

जीवन मुकतु गुरमुखि को होई ॥ परम पदारथु पावै सोई ॥ त्रै गुण मेटे निरमलु होई ॥ सहजे साचि मिलै प्रभु सोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकतु = माया के बंधनों से आजाद। को = कोई विरला। सहजे = आत्मिक अडोलता में टिक के। साचि = सदा स्थिर प्रभु में (जुड़े रहने करके)।3।
अर्थ: (हे भाई!) कोई विरला मनुष्य जो गुरु की शरण पड़ता है दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी माया के बंधनों से आजाद होता है, वही मनुष्य सारे पदार्थों से श्रेष्ठ नाम-पदार्थ हासिल करता है, वह मनुष्य (अपने अंदर से माया के) तीन गुणों का प्रभाव मिटा लेता है और पवित्रात्मा बन जाता है। आत्मिक अडोलता में सदा स्थिर प्रभु के नाम में जुड़े रहने के कारण उसे वह प्रभु मिल जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोह कुट्मब सिउ प्रीति न होइ ॥ जा हिरदै वसिआ सचु सोइ ॥ गुरमुखि मनु बेधिआ असथिरु होइ ॥ हुकमु पछाणै बूझै सचु सोइ ॥४॥

मूलम्

मोह कुट्मब सिउ प्रीति न होइ ॥ जा हिरदै वसिआ सचु सोइ ॥ गुरमुखि मनु बेधिआ असथिरु होइ ॥ हुकमु पछाणै बूझै सचु सोइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुटंब सिउ = कुटंब के साथ। जा = जब। बेधिआ = बेधा जाता है। असथिरु = स्थिर, शांत, अडोल, टिका हुआ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।4।
अर्थ: (हे भाई! जब किसी मनुष्य के हृदय में वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा आ बसता है, तो उसका अपने परिवार से) वह मोह प्यार नहीं रहता (जो त्रैगुणी माया में फसाता है)। गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य का मन (परमात्मा की याद में) बेधा जाता है और अडोल हो जाता है, वह मनुष्य परमात्मा की रजा को पहिचानता है (परमात्मा के स्वभाव से अपना स्वभाव मिला लेता है) वह मनुष्य उस सदा स्थिर प्रभु को समझ लेता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं करता मै अवरु न कोइ ॥ तुझु सेवी तुझ ते पति होइ ॥ किरपा करहि गावा प्रभु सोइ ॥ नाम रतनु सभ जग महि लोइ ॥५॥

मूलम्

तूं करता मै अवरु न कोइ ॥ तुझु सेवी तुझ ते पति होइ ॥ किरपा करहि गावा प्रभु सोइ ॥ नाम रतनु सभ जग महि लोइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवी = सेवा करूँ, मैं स्मरण करता हूँ। ते = से। पति = इज्जत। करहि = तू करे। गावा = गाऊँ, मैं गाता रहूँ। लोइ = प्रकाश।5।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य का मन परमात्मा की याद में बेधित हो जाता है, वह ऐसे अरदास करता है: हे प्रभु!) तू ही जगत का पैदा करने वाला है, मुझे तेरे बिना कोई आसरा नहीं दिखता, मैं सदा तेरा ही स्मरण करता हूँ, मुझे तेरे दर से ही इज्जत मिलती है। अगर तू खुद मेहर करे, तो ही मैं तेरी महिमा कर सकता हूँ। तेरा नाम ही मेरे वास्ते सबसे श्रेष्ठ पदार्थ है, तेरा नाम ही जगत में (आत्मिक जीवन के लिए) प्रकाश (पैदा करने वाला) है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि बाणी मीठी लागी ॥ अंतरु बिगसै अनदिनु लिव लागी ॥ सहजे सचु मिलिआ परसादी ॥ सतिगुरु पाइआ पूरै वडभागी ॥६॥

मूलम्

गुरमुखि बाणी मीठी लागी ॥ अंतरु बिगसै अनदिनु लिव लागी ॥ सहजे सचु मिलिआ परसादी ॥ सतिगुरु पाइआ पूरै वडभागी ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। अंतरु = हृदय। अंतरि = अंदर। अंतरु = अंदर का हृदय। बिगसे = खिल पड़ता है। परसादी = प्रसादि, (गुरु की) कृपा से। पूरे वडभागी = पूरे बड़े भाग्यों से।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘अंतरि’ और ‘अंतरु’ का फर्क ध्यान रखने योग्य है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ के जिस मनुष्य को परमात्मा की महिमा की वाणी मीठी लगने लग पड़ती है, उसका हृदय खिल जाता है, उसकी तवज्जो हर वक्त (प्रभु चरणों में) जुड़ी रहती है। गुरु की कृपा से आत्मिक अडोलता द्वारा उसे सदा स्थिर प्रभु मिल जाता है। (पर, हे भाई!) गुरु पूरे भाग्यों से बड़े भाग्यों से ही मिलता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै ममता दुरमति दुख नासु ॥ जब हिरदै राम नाम गुणतासु ॥ गुरमुखि बुधि प्रगटी प्रभ जासु ॥ जब हिरदै रविआ चरण निवासु ॥७॥

मूलम्

हउमै ममता दुरमति दुख नासु ॥ जब हिरदै राम नाम गुणतासु ॥ गुरमुखि बुधि प्रगटी प्रभ जासु ॥ जब हिरदै रविआ चरण निवासु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ममता = अपनत्व। दुरमति = खोटी बुद्धि। दुख नास = दुखों का नाश। प्रभ जासु = प्रभु का यश। रविआ = स्मरण किया।7।
अर्थ: (हे भाई!) जब हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है गुणों का खजाना प्रभु आ बसता है, तब अंदर से अहंकार का, अपनत्व का, दुर्मति का, दुखों का नाश हो जाता है।
(हे भाई!) जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ के अपने हृदय में परमात्मा का नाम स्मरण करता है, जब प्रभु के चरणों में टिकता है, प्रभु की महिमा सुनता है तो इसकी बुद्धि उज्जवल हो जाती है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु नामु देइ सोई जनु पाए ॥ गुरमुखि मेले आपु गवाए ॥ हिरदै साचा नामु वसाए ॥ नानक सहजे साचि समाए ॥८॥७॥

मूलम्

जिसु नामु देइ सोई जनु पाए ॥ गुरमुखि मेले आपु गवाए ॥ हिरदै साचा नामु वसाए ॥ नानक सहजे साचि समाए ॥८॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देइ = देता है। आपु = स्वैभाव।8।
अर्थ: हे नानक! वही मनुष्य परमात्मा का नाम हासिल करता है, जिसे परमात्मा स्वयं अपना नाम बख्शता है। जिस मनुष्य को गुरु की शरण पा के प्रभु अपने साथ मिलाता है, वह मनुष्य अपने अंदर से स्वैभाव दूर कर देता है, वह मनुष्य अपने हृदय में सदा स्थिर रहने वाला हरि नाम बसाता है, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में जुड़ा रहता है।8।7।

[[0233]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ३ ॥ मन ही मनु सवारिआ भै सहजि सुभाइ ॥ सबदि मनु रंगिआ लिव लाइ ॥ निज घरि वसिआ प्रभ की रजाइ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला ३ ॥ मन ही मनु सवारिआ भै सहजि सुभाइ ॥ सबदि मनु रंगिआ लिव लाइ ॥ निज घरि वसिआ प्रभ की रजाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनही = मनि ही, मन में ही, अंतरात्मे ही, अंदर ही अंदर। सवारिआ = सुंदर बना लिया। भै = (परमात्मा के) डर अदब में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्यार में। सबदि = गुरु शब्द के द्वारा। लाइ = लगा के। निजघरि = अपने घर में, प्रभु चरणों में। रजाइ = रजा में।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द द्वारा (प्रभु के चरणों में) तवज्जो जोड़ के (अपने) मन को (प्रभु के प्रेम रंग में) रंग लिया है, उसने प्रभु के डर-अदब में टिक के, आत्मिक अडोलता में टिक के, प्रभु प्रेम में जुड़ के अपने मन को अंतरात्मे ही सुंदर बना लिया है, (गृहस्थ त्याग के कहीं बाहर जाने की आवश्यक्ता नहीं पड़ी)। वह मनुष्य प्रभु-चरणों में टिका रहता है, वह मनुष्य प्रभु-रजा में राजी रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेविऐ जाइ अभिमानु ॥ गोविदु पाईऐ गुणी निधानु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सतिगुरु सेविऐ जाइ अभिमानु ॥ गोविदु पाईऐ गुणी निधानु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवीऐ = अगर सेवा करे, अगर शरण पड़ें। गुणी निधान = गुणों का खजाना।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ने से (मन में से) अहंकार दूर हो जाता है और गुणों का खजाना परमात्मा मिल जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु बैरागी जा सबदि भउ खाइ ॥ मेरा प्रभु निरमला सभ तै रहिआ समाइ ॥ गुर किरपा ते मिलै मिलाइ ॥२॥

मूलम्

मनु बैरागी जा सबदि भउ खाइ ॥ मेरा प्रभु निरमला सभ तै रहिआ समाइ ॥ गुर किरपा ते मिलै मिलाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैरागी = बैरागवान, माया के मोह से बचा हुआ। जा = जब। भउ = डर, ये डर कि परमात्मा सर्व-व्यापक और अंतरयामी है। खाइ = खाता है, आत्मिक खुराक बनाता है। सभतै = हर जगह। ते = से, साथ।2।
अर्थ: (हे भाई!) जब (कोई मनुष्य इस) डर को (कि परमात्मा हरेक के अंदर बस रहा है और हरेक के दिल की जानता है, अपनी आत्मा की) खुराक बनाता है, (उस का) मन माया के मोह से उपराम हो जाता है, उसे पवित्र स्वरूप प्यारा प्रभु हर जगह व्यापक दिखाई देता है। वह मनुष्य गुरु की कृपा से (गुरु का) मिलाया हुआ (परमात्मा को) मिल जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि दासन को दासु सुखु पाए ॥ मेरा हरि प्रभु इन बिधि पाइआ जाए ॥ हरि किरपा ते राम गुण गाए ॥३॥

मूलम्

हरि दासन को दासु सुखु पाए ॥ मेरा हरि प्रभु इन बिधि पाइआ जाए ॥ हरि किरपा ते राम गुण गाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = का। इन बिधि = इस तरीके से। ते = से। गाए = गाता है।3।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के सेवकों का सेवक बन जाता है, वह आत्मिक आनंद पाता है। (हे भाई!) इस तरीके से (ही) प्यारे परमात्मा का मेल प्राप्त होता है। वह मनुष्य परमात्मा की मेहर से परमात्मा के गुण गाता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रिगु बहु जीवणु जितु हरि नामि न लगै पिआरु ॥ ध्रिगु सेज सुखाली कामणि मोह गुबारु ॥ तिन सफलु जनमु जिन नामु अधारु ॥४॥

मूलम्

ध्रिगु बहु जीवणु जितु हरि नामि न लगै पिआरु ॥ ध्रिगु सेज सुखाली कामणि मोह गुबारु ॥ तिन सफलु जनमु जिन नामु अधारु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहु जीवन = लंमी उमर, (प्राणयाम आदि से बढ़ाई हुई) लंबी उम्र। जितु = जिससे, यदि उसके द्वारा। नामि = नाम में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। कामणि = स्त्री। सुखाली = सुख देने वाली, सुखदाई (सुख+आलय)। गुबार = घुप अंधेरा। अधारु = आसरा।4।
अर्थ: (हे भाई! प्राणयाम आदि द्वारा बढ़ाई गयी) लम्बी उम्र (बल्कि) धिक्कारयोग्य है, अगर उससे परमात्मा के नाम में (उस लंबी उम्र वाले का) प्यार नहीं बनता। (दूसरी तरफ, हे भाई! सुंदर) स्त्री की सुखदाई सेज (भी) धिक्कारयोग्य है (अगर वह) मोह का गुबार (घोर अंधेरा) (पैदा करती) है। (हे भाई! सिर्फ) उन मनुष्यों का जन्म ही कामयाब है, जिन्होंने परमात्मा के नाम को (अपनी जिंदगी का) आसरा बनाया है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रिगु ध्रिगु ग्रिहु कुट्मबु जितु हरि प्रीति न होइ ॥ सोई हमारा मीतु जो हरि गुण गावै सोइ ॥ हरि नाम बिना मै अवरु न कोइ ॥५॥

मूलम्

ध्रिगु ध्रिगु ग्रिहु कुट्मबु जितु हरि प्रीति न होइ ॥ सोई हमारा मीतु जो हरि गुण गावै सोइ ॥ हरि नाम बिना मै अवरु न कोइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ग्रिहु = गृहस्थ जीवन, घर। कुटंबं = परिवार।5।
अर्थ: (हे भाई!) वह गृहरथ जीवन धिक्कारयोग्य है, वह परिवार (वाला जीवन) धिक्कार योग्य है, जिससे परमात्मा की प्रीति नहीं बनती। (हे भाई!) हमारा तो मित्र वही मनुष्य है, जो उस परमात्मा के गुण गाता है (और हमें भी महिमा के लिए प्रेरित करता है)। (हे भाई!) परमात्मा के नाम के बगैर मुझे और कोई (सदा साथ निभने वाला साथी) नहीं दिखता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर ते हम गति पति पाई ॥ हरि नामु धिआइआ दूखु सगल मिटाई ॥ सदा अनंदु हरि नामि लिव लाई ॥६॥

मूलम्

सतिगुर ते हम गति पति पाई ॥ हरि नामु धिआइआ दूखु सगल मिटाई ॥ सदा अनंदु हरि नामि लिव लाई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत।6।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु से हम उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर सकते हैं (जिसकी इनायत से हर जगह) इज्जत मिलती है। (गुरु की शरण में आ के जिसने) परमात्मा का नाम स्मरण किया है, उसने अपना हरेक किस्म का दुख दूर कर लिया है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के सदा आनंद पाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि मिलिऐ हम कउ सरीर सुधि भई ॥ हउमै त्रिसना सभ अगनि बुझई ॥ बिनसे क्रोध खिमा गहि लई ॥७॥

मूलम्

गुरि मिलिऐ हम कउ सरीर सुधि भई ॥ हउमै त्रिसना सभ अगनि बुझई ॥ बिनसे क्रोध खिमा गहि लई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। सरीर सुधि = शरीर की सूझ, शरीर को पवित्र रखने की सूझ, शरीर को विकारों से बचा के रखने की समझ। बुझई = समझ गई। गहि लई = पकड़ ली।7।
अर्थ: (हे भाई!) अगर गुरु मिल जाए तो हम अपने शरीर को विकारों से बचा के रखने की समझ भी हासिल कर लेते हैं। (जो मनुष्य गुरु की शरण में आता है उसके अंदर से) अहम् व तृष्णा की सारी आग बुझ जाती है, (उसके अंदर से) क्रोध खत्म हो जाता है, वह सदैव क्षमा धारण किए रखता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि आपे क्रिपा करे नामु देवै ॥ गुरमुखि रतनु को विरला लेवै ॥ नानकु गुण गावै हरि अलख अभेवै ॥८॥८॥

मूलम्

हरि आपे क्रिपा करे नामु देवै ॥ गुरमुखि रतनु को विरला लेवै ॥ नानकु गुण गावै हरि अलख अभेवै ॥८॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलख = जिसका स्वरूप समझ में ना आ सके। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।8।
अर्थ: (पर, हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही कृपा करता है, और अपना नाम बख्शता है, कोई विरला (भाग्यशाली) मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर ये नाम-रत्न पल्ले बाँधता है। नानक (तो गुरु की कृपा से ही) उस अलख व अभेव परमात्मा के गुण सदा गाता है।8।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर ते जो मुह फेरे ते वेमुख बुरे दिसंनि ॥ अनदिनु बधे मारीअनि फिरि वेला ना लहंनि ॥१॥

मूलम्

सतिगुर ते जो मुह फेरे ते वेमुख बुरे दिसंनि ॥ अनदिनु बधे मारीअनि फिरि वेला ना लहंनि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। जो = जो लोग। ते = वह लोग। दिसंनि = दिखते हैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। बधे = (माया के मोह के बंधनों में) बंधे हुए। मारीअनि = मारे जाते हैं, मोह की चोटें खाते हैं। वेला = समय (इन चोटों से बच निकलने के वास्ते)। लहंनि = लेते, ढूँढ सकते।1।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु से मुंह फेरे रखते हैं, गुरु की ओर से बे-मुख हुए वो मनुष्य (देखने को ही भले) बुरे दिखते हैं। (माया के मोह के बंधनों में) बंधे हुए वह मनुष्य हर समय मोह की चोटें खाते रहते हैं, (इन चोटों से बचने के लिए) उन्हें दुबारा समय हाथ नहीं लगेगा, (अर्थात, मार भी खाते रहते हैं, फिर भी ये मोह इतना प्यारा लगता है कि इसमें से निकलने को जीअ नहीं करता)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि राखहु क्रिपा धारि ॥ सतसंगति मेलाइ प्रभ हरि हिरदै हरि गुण सारि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि राखहु क्रिपा धारि ॥ सतसंगति मेलाइ प्रभ हरि हिरदै हरि गुण सारि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! धारि = धरण करके। प्रभ = हे प्रभु! सारि = मैं संभालूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! हे हरि! मेहर कर, (मुझे माया के पँजे से) बचा के रख। हे हरि! हे प्रभु! मुझे साधु-संगत में मिला के रख, ता कि मैं तेरे गुण अपने हृदय में संभाल के रखूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

से भगत हरि भावदे जो गुरमुखि भाइ चलंनि ॥ आपु छोडि सेवा करनि जीवत मुए रहंनि ॥२॥

मूलम्

से भगत हरि भावदे जो गुरमुखि भाइ चलंनि ॥ आपु छोडि सेवा करनि जीवत मुए रहंनि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: (भगत: वहुवचन)। भाइ = प्रेम में। चलंनि = चलते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं। आपु = स्वै भाव। मुए = विकारों की ओर से अछोह।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा को वह भक्त प्यारे लगते हैं, जो गुरु की शरण पड़ कर गुरु के दर्शाए मुताबिक जीवन व्यातीत करते हैं, जो (गुरु के हुक्म अनुसार) स्वैभाव (स्वार्थ) छोड़ के सेवा भक्ति करते हैं और दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए भी माया के मोह की ओर से अछोह रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस दा पिंडु पराण है तिस की सिरि कार ॥ ओहु किउ मनहु विसारीऐ हरि रखीऐ हिरदै धारि ॥३॥

मूलम्

जिस दा पिंडु पराण है तिस की सिरि कार ॥ ओहु किउ मनहु विसारीऐ हरि रखीऐ हिरदै धारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिंडु = शरीर। पराण = जिंद, जीवात्मा। सिरि = सिर पर। कार = हकूमत। मनहु = मन से।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का दिया हुआ ये शरीर है, जिस परमात्मा की दी हुई ये जिंद है, उसी का हुक्म (ही) हरेक के शरीर पर चल रहा है। उसे किसी भी हालत में अपने मन से भुलाना नहीं चाहिए। उस परमात्मा को अपने हृदय में बसा के रखना चाहिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामि मिलिऐ पति पाईऐ नामि मंनिऐ सुखु होइ ॥ सतिगुर ते नामु पाईऐ करमि मिलै प्रभु सोइ ॥४॥

मूलम्

नामि मिलिऐ पति पाईऐ नामि मंनिऐ सुखु होइ ॥ सतिगुर ते नामु पाईऐ करमि मिलै प्रभु सोइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामि मिलिऐ = यदि नाम मिल जाए। पति = इज्जत। नामि मंनिऐ = अगर मन नाम में पतीज जाए। ते = से। करमि = मेहर से।4।
अर्थ: (हे भाई!) अगर परमात्मा का नाम मिल जाए तो (हर जगह) इज्जत मिलती है, अगर परमात्मा के नाम से मन लग जाए तो आत्मिक आनंद हासिल होता है, (पर, हे भाई!) गुरु से ही परमात्मा का नाम मिलता है, अपनी मेहर से ही वह परमात्मा मिलता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर ते जो मुहु फेरे ओइ भ्रमदे ना टिकंनि ॥ धरति असमानु न झलई विचि विसटा पए पचंनि ॥५॥

मूलम्

सतिगुर ते जो मुहु फेरे ओइ भ्रमदे ना टिकंनि ॥ धरति असमानु न झलई विचि विसटा पए पचंनि ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भ्रमदे = भटकते। झलई = बर्दाश्त करना, सहारा देना। पचंनि = दुखी होते हैं, जलते हैं, आत्मिक जीवन जला लेते हैं।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु की ओर से मुंह मोड़े रखते हैं, वो मनुष्य (माया के मोह में सदैव) भटकते फिरते हैं, उन्हें कभी आत्मिक शांति नहीं मिलती। उन्हें ना धरती ना ही आसमान झेल सकता है (सारी सृष्टि में कोई अन्य जीव उन्हें आत्मिक सहारा नहीं दे सकता) वे माया के मोह की गंदगी में पड़े हुए ही आत्मिक जीवन जलाते रहते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जगु भरमि भुलाइआ मोह ठगउली पाइ ॥ जिना सतिगुरु भेटिआ तिन नेड़ि न भिटै माइ ॥६॥

मूलम्

इहु जगु भरमि भुलाइआ मोह ठगउली पाइ ॥ जिना सतिगुरु भेटिआ तिन नेड़ि न भिटै माइ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमि = भटकना में। भुलाइआ = कुराहे डाला हुआ है। ठगउली = ठग-बूटी, ठग-मूरी। भेटिआ = मिला। माइ = माया। भिटै = फिट बैठती है, ठीक लगती है।6।
अर्थ: (हे भाई! माया ने) इस जगत को (अपने मोह की) भटकना में (डाल के) मोह की ठग-बूटी खिला के गलत जीवन-राह पर डाला हुआ है। (पर, हे भाई!) जिन्हें सतिगुरु मिल जाता है, ये माया उनके नजदीक भी नहीं फटकती (उन पर अपने मोह का जादू नहीं चला सकती)।6।

[[0234]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवनि सो सोहणे हउमै मैलु गवाइ ॥ सबदि रते से निरमले चलहि सतिगुर भाइ ॥७॥

मूलम्

सतिगुरु सेवनि सो सोहणे हउमै मैलु गवाइ ॥ सबदि रते से निरमले चलहि सतिगुर भाइ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवनि = सेवते हैं। सबदि = शब्द में। रते = रंगे हुए। भाइ = प्रेम में।7।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य सतिगुरु की शरण पड़ते हैं वह (अपने अंदर से) अहंकार की मैल दूर करके स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं। जो मनुष्य गुरु के शब्द (के रंग) में रंगे जाते हैं, वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, वे गुरु के बताए हुक्म के अनुसार चलते हैं, (जीवन बिताते हैं)।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि प्रभ दाता एकु तूं तूं आपे बखसि मिलाइ ॥ जनु नानकु सरणागती जिउ भावै तिवै छडाइ ॥८॥१॥९॥

मूलम्

हरि प्रभ दाता एकु तूं तूं आपे बखसि मिलाइ ॥ जनु नानकु सरणागती जिउ भावै तिवै छडाइ ॥८॥१॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! बखसि = बख्शिश करके। मिलाइ = (अपने चरणों से) जोड़। जनु = दास। सरणागती = शरण आया है। भावै = अच्छा लगे।8।
अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! सिर्फ तू ही है जो (गुरु के द्वारा अपने नाम की) दात देने वाला है, तू स्वयं ही मेहर करके मुझे अपने चरणों में जोड़। (मैं तेरा) दास नानक तेरी शरण आया हूँ, जैसे तुझे ठीक लगे, मुझे उसी तरह (इस माया के मोह के पँजे से) बचा ले।8।1।9।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अंक 1 बताता है कि ये अष्टपदी ‘गउड़ी बैरागणि’ की है, उससे पहली आठ (8) अष्टपदियां ‘गउड़ी गुआरेरी’ की हैं। कुल जोड़ 9 है।