०७ गुरु नानक असटपदीआ

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ९ ॥ कोऊ माई भूलिओ मनु समझावै ॥ बेद पुरान साध मग सुनि करि निमख न हरि गुन गावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गउड़ी महला ९ ॥ कोऊ माई भूलिओ मनु समझावै ॥ बेद पुरान साध मग सुनि करि निमख न हरि गुन गावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माई = हे माँ! भूलिओ मनु = रास्ते से भटके हुए मन को। साध मग = संत जनों के रास्ते, संत जनों के बताए हुए जीवन-राह। सुनि कर = सुन के। निमख = आँख झपकने जितना समय।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) माँ! (माया के मोह से नाको नाक भरे हुए संसार जंगल में मेरा मन कुमार्ग पर पड़ गया है, मुझे) कोई (ऐसा गुरमुख मिल जाए जो मेरे इस) गलत रास्ते पर पड़े हुए मन को मति दे (समझा दे)। (ये भूला हुआ मन) वेद-पुराण (आदि धर्म-पुस्तकों और) संत जनों के उपदेश सुन के (भी) रत्ती भर समय के लिए भी परमात्मा के गुण नहीं गाता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुरलभ देह पाइ मानस की बिरथा जनमु सिरावै ॥ माइआ मोह महा संकट बन ता सिउ रुच उपजावै ॥१॥

मूलम्

दुरलभ देह पाइ मानस की बिरथा जनमु सिरावै ॥ माइआ मोह महा संकट बन ता सिउ रुच उपजावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देह = शरीर। पाइ = प्राप्त करके, पा के। बिरथा = व्यर्थ। सिरावै = गुजारता है। संकट = (a full of, crowded with) संकट भरपूर, नाको नाक भरे हुए। बन = जंगल। ता सिउ = उससे। रुच = प्यार। उपजावै = पैदास करता है।1।
अर्थ: (हे मेरी माँ! ये मन ऐसा कुमार्ग पर पड़ा हुआ है कि) बड़ी मुश्किल से मिल सकने वाले मानव शरीर प्राप्त करके भी इस जन्म को व्यर्थ गुजार रहा है। (हे माँ! ये संसार) जंगल माया के मोह से नाको नाक भरा पड़ा है (और मेरा मन) इस (जंगल से ही) प्रेम बना रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि बाहरि सदा संगि प्रभु ता सिउ नेहु न लावै ॥ नानक मुकति ताहि तुम मानहु जिह घटि रामु समावै ॥२॥६॥

मूलम्

अंतरि बाहरि सदा संगि प्रभु ता सिउ नेहु न लावै ॥ नानक मुकति ताहि तुम मानहु जिह घटि रामु समावै ॥२॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! ताहि = उस को ही। मुकति = विकारों से खलासी। मानहु = समझो। जिह घटि = जिस हृदय में।2।
अर्थ: (हे मेरी माँ! जो) परमात्मा (हरेक जीव के) अंदर व बाहर हर समय बसता है उससे (ये मेरा मन) प्यार नहीं डालता।
हे नानक! (कह: माया के मोह से भरपूर संसार जंगल में से) खलासी तुम उसी मनुष्य को (मिली) समझो जिसके हृदय में परमात्मा बस रहा है।2।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ९ ॥ साधो राम सरनि बिसरामा ॥ बेद पुरान पड़े को इह गुन सिमरे हरि को नामा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गउड़ी महला ९ ॥ साधो राम सरनि बिसरामा ॥ बेद पुरान पड़े को इह गुन सिमरे हरि को नामा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधो = हे संत जनो! बिसरामा = शांति, सुख। को = का। गुन = लाभ।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा की शरण पड़ने से ही (विकारों की भटकना से) शांति प्राप्त होती है। वेद पुराण (आदि धार्मिक पुस्तकों) पढ़ने का यही लाभ (होना चाहिए) कि मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता रहे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभ मोह माइआ ममता फुनि अउ बिखिअन की सेवा ॥ हरख सोग परसै जिह नाहनि सो मूरति है देवा ॥१॥

मूलम्

लोभ मोह माइआ ममता फुनि अउ बिखिअन की सेवा ॥ हरख सोग परसै जिह नाहनि सो मूरति है देवा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ममता = अपनत्व। फुनि = भी, और। अउ = और। बिखिअन की सेवा = विषियों का सेवन। हरखु = खुशी। सोगु = गमी। जिह = जिसे। नाहिन = नहीं। देव = भगवान।1।
अर्थ: (हे संत जनो!) लोभ, माया का मोह, अपनत्व और विषियों का सेवन, खुशी, गमी- (इनमें से कोई भी) जिस मनुष्य को छू नहीं सकता (जिस मनुष्य पर अपना जोर नहीं डाल सकता) वह मनुष्य परमात्मा का रूप है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरग नरक अम्रित बिखु ए सभ तिउ कंचन अरु पैसा ॥ उसतति निंदा ए सम जा कै लोभु मोहु फुनि तैसा ॥२॥

मूलम्

सुरग नरक अम्रित बिखु ए सभ तिउ कंचन अरु पैसा ॥ उसतति निंदा ए सम जा कै लोभु मोहु फुनि तैसा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखु = जहर। सम = एक जैसा। तिउ = उसी तरह। अरु = और। पैसा = तांबा। कंचन = सोना। जा कै = जिसके हृदय में।2।
अर्थ: (हे संत जनो! वह मनुष्य परमात्मा का रूप है जिसे) स्वर्ग एवं नर्क, अमृत और जहर एक जैसे प्रतीत होते हैं। जिसे सोना व तांबा एक समान लगता है। जिसके हृदय में स्तुति और निंदा भी एक जैसे हैं (कोई उसकी उपमा करे, या कोई उसकी निंदा करे- उसके लिए एक समान हैं)। जिसके हृदय में लोभ भी प्रभाव नहीं डाल सकता, मोह भी असर नहीं कर सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुखु सुखु ए बाधे जिह नाहनि तिह तुम जानउ गिआनी ॥ नानक मुकति ताहि तुम मानउ इह बिधि को जो प्रानी ॥३॥७॥

मूलम्

दुखु सुखु ए बाधे जिह नाहनि तिह तुम जानउ गिआनी ॥ नानक मुकति ताहि तुम मानउ इह बिधि को जो प्रानी ॥३॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ए = ये (दुख और सुख)। बाधे = बांधते। तिह = उसे। गिआनी = परमात्मा के साथ जान पहिचान डाल के रखने वाला। जो = जो।3।
अर्थ: (हे संत जनो!) तुम उस मनुष्य को परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल के रखने वाला समझो, जिसे ना कोई दुख ना ही कोई सुख (अपने प्रभाव में) बाँध सकता है। हे नानक! (कह: हे संत जनो! लोभ, मोह, दुख सुख आदि से) खलासी उस मनुष्य को (मिली) मानो, जो मनुष्य इस किस्म की जीवन-युक्ति वाला है।3।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ९ ॥ मन रे कहा भइओ तै बउरा ॥ अहिनिसि अउध घटै नही जानै भइओ लोभ संगि हउरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गउड़ी महला ९ ॥ मन रे कहा भइओ तै बउरा ॥ अहिनिसि अउध घटै नही जानै भइओ लोभ संगि हउरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहा = कहां? बउरा = पागल, कमला, झल्ला। अहि = अहर्, दिन। निस = निश्, रात। अउध = उम्र। जानै = जानता। लोभ संगि = लोभ से, लोभ में फंस के। हउरा = हलका, हलके जीवन वाला, कमजोर आत्मिक जीवन वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! तू कहां (लोभ आदि में फंस के) पागल हो रहा है? (हे भाई!) दिन रात उम्र घटती रहती है, पर मनुष्य ये बात समझता नहीं और लोभ में फंस के कमजोर आत्मिक जीवन वाला बनता जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तनु तै अपनो करि मानिओ अरु सुंदर ग्रिह नारी ॥ इन मैं कछु तेरो रे नाहनि देखो सोच बिचारी ॥१॥

मूलम्

जो तनु तै अपनो करि मानिओ अरु सुंदर ग्रिह नारी ॥ इन मैं कछु तेरो रे नाहनि देखो सोच बिचारी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै = तू। अपनो करि = अपना कर के। ग्रिह नारी = घर की स्त्री। इन महि = इन में। रे = हे (मन)! सोचि = सोच के। बिचारी = विचार के।1।
अर्थ: हे (मेरे) मन! जो (ये) शरीर, जिसे तू अपना करके समझ रहा है, और घर की सुंदर स्त्री को तू अपनी मान रहा है, इनमें से कोई भी तेरा (सदा निभने वाला साथी) नहीं है, सोच के देख ले, विचार के देख ले।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रतन जनमु अपनो तै हारिओ गोबिंद गति नही जानी ॥ निमख न लीन भइओ चरनन सिंउ बिरथा अउध सिरानी ॥२॥

मूलम्

रतन जनमु अपनो तै हारिओ गोबिंद गति नही जानी ॥ निमख न लीन भइओ चरनन सिंउ बिरथा अउध सिरानी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हारिओ = (जूए में) हार लिया है। गति = हालत, अवस्था। सिउ = से। सिरानी = गुजार दी।2।
अर्थ: हे (मेरे) मन! जैसे जुआरी जूए में बाजी हारता है, (वैसे ही) तू अपना कीमती मानव जनम हार रहा है। क्योंकि तूने परमात्मा के साथ मिलाप की अवस्था की कद्र नहीं पाई। तू रक्ती भर समय के लिए भी गोबिंद प्रभु के चरणों में नहीं जुड़ता, तू व्यर्थ उम्र गुजार रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु नानक सोई नरु सुखीआ राम नाम गुन गावै ॥ अउर सगल जगु माइआ मोहिआ निरभै पदु नही पावै ॥३॥८॥

मूलम्

कहु नानक सोई नरु सुखीआ राम नाम गुन गावै ॥ अउर सगल जगु माइआ मोहिआ निरभै पदु नही पावै ॥३॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउर = और। सगल = सारा। निरभै पदु = वह आत्मिक अवस्था जहां कोई डर नहीं छू सकता।3।
अर्थ: हे नानक! कह: वही मनुष्य सुखी जीवन वाला है जो परमात्मा का नाम (जपता है, जो) परमात्मा के गुण गाता है। बाकी का सारा जहान (जो) माया के मोह में फंसा रहता है (वह सहमा रहता है, वह) उस आत्मिक अवस्था पर नहीं पहुँचता, जहां कोई डर छू नहीं सकता।3।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ९ ॥ नर अचेत पाप ते डरु रे ॥ दीन दइआल सगल भै भंजन सरनि ताहि तुम परु रे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गउड़ी महला ९ ॥ नर अचेत पाप ते डरु रे ॥ दीन दइआल सगल भै भंजन सरनि ताहि तुम परु रे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नर = हे नर! अचेत = गाफिल, बेपरवाह। नर अचेत = हे गाफिल मनुष्य।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘अचेत’ किसी मनुष्य के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, किसी ‘पाप’ को ‘अचेत’ नहीं कहा जा सकता। सारे श्री गुरु ग्रंथ साहिब में इस्तेमाल हुआ शब्द ‘अचेत’ देखें निम्न-लिखित पृष्ठों पर: 30, 75, 85, 224, 364, 374, 439, 491, 499, 609, 633, 740, 842, 909, 955)। (भै: शब्द ‘भउ’ का बहुवचन)।

दर्पण-भाषार्थ

ते = से। रे = हे! हे अचेत नर! हे गाफिल मनुष्य! सगल = सारे। भै भंजन = डरों के नाश करने वाला। परु = पड़। ताहि = उसकी।1। रहाउ।
अर्थ: हे गाफिल मनुष्य! पापों से बचा रह। (और इन पापों से बचने के वास्ते उस) परमात्मा की शरण पड़ा रह, जो गरीबों पर दया करने वाला है, और सारे डर दूर करने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेद पुरान जास गुन गावत ता को नामु हीऐ मो धरु रे ॥ पावन नामु जगति मै हरि को सिमरि सिमरि कसमल सभ हरु रे ॥१॥

मूलम्

बेद पुरान जास गुन गावत ता को नामु हीऐ मो धरु रे ॥ पावन नामु जगति मै हरि को सिमरि सिमरि कसमल सभ हरु रे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जास = जिस के। ता को = उस का। हीऐ मो = हृदय में। पावन = पवित्र करने वाला। कसमल = पाप। सभि = सारे। हरु = दूर कर।1।
अर्थ: (हे गाफिल मनुष्य!) उस परमात्मा का नाम अपने हृदय में परोए रख, जिसके गुण वेद पुराण (आदि धर्म पुस्तकें) गा रहे हैं। (हे गाफिल मनुष्य! पापों से बचा के) पवित्र करने वाला जगत में परमात्मा का नाम (ही) है, तू उस परमात्मा को स्मरण कर-कर के (अपने अंदर से) सारे पाप दूर कर ले।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानस देह बहुरि नह पावै कछू उपाउ मुकति का करु रे ॥ नानक कहत गाइ करुना मै भव सागर कै पारि उतरु रे ॥२॥९॥२५१॥

मूलम्

मानस देह बहुरि नह पावै कछू उपाउ मुकति का करु रे ॥ नानक कहत गाइ करुना मै भव सागर कै पारि उतरु रे ॥२॥९॥२५१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहुरि = दुबारा, फिर कभी। नहि पावहि = तू प्राप्त नहीं करेगा। उपाउ = इलाज। मुकति = (कसमलों से) निजात। नानकु कहत = नानक कहता है। करुनामै = करुणामय, (करुणा = तरस। मय = भरपूर) तरस भरपूर, तरस रूप। भव सागर = संसार समुंदर। कै पारि = से पार। उतरु = लांघ। रे = हे (अचेत नर)!।2।
अर्थ: (हे गाफिल मनुष्य!) तू ये मानव शरीर फिर कभी नहीं पा सकेगा (इसे क्यूँ पापों में लगा के गवा रहा है? यही समय है, इन पापों से) मुक्ति प्राप्त करने का। कोई इलाज कर ले। तुझे नानक कहता है: तरस-रूप परमात्मा के गुण गा के संसार समुंदर पार हो जा।2।9।251।

[[0221]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गउड़ी असटपदीआ महला १ गउड़ी गुआरेरी ੴ सतिनामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गउड़ी असटपदीआ महला १ गउड़ी गुआरेरी ੴ सतिनामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निधि सिधि निरमल नामु बीचारु ॥ पूरन पूरि रहिआ बिखु मारि ॥ त्रिकुटी छूटी बिमल मझारि ॥ गुर की मति जीइ आई कारि ॥१॥

मूलम्

निधि सिधि निरमल नामु बीचारु ॥ पूरन पूरि रहिआ बिखु मारि ॥ त्रिकुटी छूटी बिमल मझारि ॥ गुर की मति जीइ आई कारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधि = खजाना। सिधि = सिद्धि, करामाती ताकत। बिखु = माया, जहर। त्रिकुटी = (त्रि+कुटी = तीन टेढ़ी लकीरें) मन की खिझ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: माथे पर लकीरें तब पड़ती हैं, जब मन में खिझ हो। सो, त्रिकुटी का अर्थ है, ‘मन की खिझ’।

दर्पण-भाषार्थ

बिमल = साफ, पवित्र। मझारि = बीच में। जीइ = जीअ में, अंतर आत्मे। कारि = कारी, रास आना, लाभदायक।1।
अर्थ: गुरु की दी हुई मति मेरे चिक्त को रास आ गई है (लाभदायक साबित हुई है)। (उस मति की इनायत से) पवित्र हरि नाम में लीन रहने से मेरी अंदर की खिझ समाप्त हो गई है, मैंने माया के जहर को (अपने अंदर से) मार लिया है। अब मुझे परमात्मा हर जगह व्यापक दिखाई दे रहा है। परमात्मा का निर्मल नाम मेरे वास्ते (आत्मिक) खजाना है। परमातमा के गुणों की विचार ही मेरे वास्ते रिद्धियां (-सिद्धियां) हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन बिधि राम रमत मनु मानिआ ॥ गिआन अंजनु गुर सबदि पछानिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इन बिधि राम रमत मनु मानिआ ॥ गिआन अंजनु गुर सबदि पछानिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मानिआ = मान गया। अंजन = सुरमा।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के शब्द में जुड़ के मैंने वह (आत्मिक) सुरमा ढूँढ लिया है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल देता है। परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के मेरा मन (स्मरण में) इस प्रकार रम गया है (कि अब) स्मरण के बिना रह ही नहीं सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकु सुखु मानिआ सहजि मिलाइआ ॥ निरमल बाणी भरमु चुकाइआ ॥ लाल भए सूहा रंगु माइआ ॥ नदरि भई बिखु ठाकि रहाइआ ॥२॥

मूलम्

इकु सुखु मानिआ सहजि मिलाइआ ॥ निरमल बाणी भरमु चुकाइआ ॥ लाल भए सूहा रंगु माइआ ॥ नदरि भई बिखु ठाकि रहाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में। भरमु = भटकना। नदरि = मेहर की नजर।2।
अर्थ: (परमात्मा की महिमा वाली) पवित्र वाणी ने मेरी भटकना समाप्त कर दी है। मुझे सहज अवस्था में मिला दिया है। (अब मेरा मन) मान गया है कि यही (आत्मिक) सुख (सब सुखों से श्रेष्ठ सुख है)। (नाम जपने की इनायत से नाम में रंग के मेरा मन मजीठ जैसे पक्के रंग वाला) लाल हो गया है। माया कारंग मुझे कुसंभ के रंग जैसा कच्चा लाल दिखाई दे गया है। (मेरे ऊपर परमात्मा की मेहर की) नजर हुई है, मैंने माया के जहर को (अपने ऊपर असर करने से) रोक लिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलट भई जीवत मरि जागिआ ॥ सबदि रवे मनु हरि सिउ लागिआ ॥ रसु संग्रहि बिखु परहरि तिआगिआ ॥ भाइ बसे जम का भउ भागिआ ॥३॥

मूलम्

उलट भई जीवत मरि जागिआ ॥ सबदि रवे मनु हरि सिउ लागिआ ॥ रसु संग्रहि बिखु परहरि तिआगिआ ॥ भाइ बसे जम का भउ भागिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरि = (माया की ओर से) मर के। सबदि = (गुरु के शब्द) द्वारा। संग्रहि = एकत्र करके। भाइ = प्रेम में। परहरि = दूर करके।3।
अर्थ: (मेरी तवज्जो माया के मोह से) पलट गयी है। दुनिया का धंधा करते हुए (मेरा मन माया की तरफ से) मर गया है। मुझे आत्मिक जागृति आ गई है। गुरु के शब्द के द्वारा मैं स्मरण कर रहा हूँ। मेरा मन परमात्मा के साथ प्रीत पा चुका है। (आत्मिक) आनंद (अपने अंदर) इकट्ठा करके मैंने माया के जहर को (अपने अंदर से) दूर करके (सदा के लिए) त्याग दिया है। परमात्मा के प्रेम में टिकने के कारण मेरा मौत का डर दूर हो गया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साद रहे बादं अहंकारा ॥ चितु हरि सिउ राता हुकमि अपारा ॥ जाति रहे पति के आचारा ॥ द्रिसटि भई सुखु आतम धारा ॥४॥

मूलम्

साद रहे बादं अहंकारा ॥ चितु हरि सिउ राता हुकमि अपारा ॥ जाति रहे पति के आचारा ॥ द्रिसटि भई सुखु आतम धारा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साद = चस्के। बादं = झगड़ा। पति = इज्जत, लोक-लज्जा। आचारा = कर्मकांड, धार्मिक रस्में। द्रिसटि = (मेहर की) निगाह।4।
अर्थ: (नाम जपने की इनायत से मेरे अंदर से मायावी पदार्थों के) चस्के दूर हो गए हैं। (मन में रोजाना हो रहा माया वाला) झगड़ा मिट गया है, अहंकार रह गया है। मेरा चिक्त अब परमात्मा (के नाम) से रंगा गया है, मैं अब उस बेअंत प्रभु की रजा में टिक गया हूँ। जाति-वर्ण और लोक-लज्जा की खातिर किए जाने वाले धर्म-कर्म बस हो गए हैं। (मेरे पर प्रभु की) मेहर की निगाह हुई है, मुझे आत्मिक सुख मिल गया है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुझ बिनु कोइ न देखउ मीतु ॥ किसु सेवउ किसु देवउ चीतु ॥ किसु पूछउ किसु लागउ पाइ ॥ किसु उपदेसि रहा लिव लाइ ॥५॥

मूलम्

तुझ बिनु कोइ न देखउ मीतु ॥ किसु सेवउ किसु देवउ चीतु ॥ किसु पूछउ किसु लागउ पाइ ॥ किसु उपदेसि रहा लिव लाइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न देखउ = मैं नहीं देखता। सेवउ = मैं सेवा करूँ। पाइ = पैरों पर। उपदेसि = उपदेश में।5।
अर्थ: (गुरु के शब्द की इनायत से, हे प्रभु!) मुझे तेरे बिना कोई और (पक्का) मित्र नहीं दिखता। मैं अब किसी और को नहीं स्मरण करता, मैं किसी और को अपना मन नहीं भेट करता। मैं किसी और से सालाह नहीं लेता। मैं किसी और के पैर नहीं लगता फिरता। मैं किसी और के उपदेश में तवज्जो नहीं जोड़ता फिरता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर सेवी गुर लागउ पाइ ॥ भगति करी राचउ हरि नाइ ॥ सिखिआ दीखिआ भोजन भाउ ॥ हुकमि संजोगी निज घरि जाउ ॥६॥

मूलम्

गुर सेवी गुर लागउ पाइ ॥ भगति करी राचउ हरि नाइ ॥ सिखिआ दीखिआ भोजन भाउ ॥ हुकमि संजोगी निज घरि जाउ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवी = मैं सेवा करता हूँ। करी = मैं करता हूँ। नाइ = नाम में। दीखिआ = दीक्षा, किसी धर्म में शामिल होने के समय जो खास उपदेश मिलता है। भाउ = प्रेम। संजोगी = संयोगों से, किए कर्मों के अंकुर फूटने से। जाउ = मैं जाता हूँ।6।
अर्थ: (गुरु के शब्द ने ही मुझे तेरे ज्ञान का अंजन दिया है, इस वास्ते) मैं गुरु की ही सेवा करता हूँ, गुरु के ही चरणों में लगता हूँ। (गुरु की ही सहायता से हे भाई!) मैं परमात्मा की भक्ति करता हूँ, हरि के नाम में टिकता हूँ। गुरु की शिक्षा, गुरु की दीक्षा, गुरु के प्रेम को ही मैंने अपनी आत्मा का भोजन बनाया है। प्रभु की रजा में ही ये पिछले कर्मों का अंकुर फूटा है, और मैं अपने असल घर (प्रभु-चरणों) में टिका बैठा हूँ।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गरब गतं सुख आतम धिआना ॥ जोति भई जोती माहि समाना ॥ लिखतु मिटै नही सबदु नीसाना ॥ करता करणा करता जाना ॥७॥

मूलम्

गरब गतं सुख आतम धिआना ॥ जोति भई जोती माहि समाना ॥ लिखतु मिटै नही सबदु नीसाना ॥ करता करणा करता जाना ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरब गतं = अहंकार दूर हो गया। जोति = रोशनी, प्रकाश। लिखतु = हृदय में उकरा हुआ लेख। नीसाना = प्रकट। करणा = सृष्टि। जाना = मैंने जान लिया है।7।
अर्थ: (नाम जपने की इनायत से) अहंकार दूर हो गया है, आत्मिक आनंद में मेरी तवज्जो टिक गई है। मेरे अंदर आत्मिक प्रकाश हो गया है, मेरी जीवात्मा प्रभु की ज्योति में लीन हो गई है। (मेरे हृदय में) उकरा हुआ गुरु-शब्द (रूपी) लेख अब ऐसा प्रकट हुआ है कि मिट नहीं सकता। मैंने करते व (करते की) रचना को कर्तार रूप ही जान लिया है, (मैंने कर्तार को ही सृष्टि का रचनहारा जान लिया है)।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नह पंडितु नह चतुरु सिआना ॥ नह भूलो नह भरमि भुलाना ॥ कथउ न कथनी हुकमु पछाना ॥ नानक गुरमति सहजि समाना ॥८॥१॥

मूलम्

नह पंडितु नह चतुरु सिआना ॥ नह भूलो नह भरमि भुलाना ॥ कथउ न कथनी हुकमु पछाना ॥ नानक गुरमति सहजि समाना ॥८॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमि = भटकना में। कथउ न = मैं कहता नहीं हूँ। समाना = मैं लीन हो गया हूँ।8।
अर्थ: मैं कोई पण्डित नहीं हूँ, चतुर नहीं हूँ, मैं समझदार नहीं हूँ (भाव, किसी विद्वता,चतुराई, समझदारी का आसरा नहीं लिया) तभी तो मैं (रास्ते से) भटका नहीं, गलत राह पर नहीं पड़ा। मैं कोई चतुराई की बातें नहीं करता।
हे नानक! (कह:) मैंने तो सतिगुरु की मति ले कर परमात्मा के हुक्म को पहिचाना है (भाव, मैंने ये समझ लिया है कि प्रभु के हुक्म में चलना ही सही रास्ता है) और मैं अडोल अवस्था में टिक गया हूँ।8।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥ मनु कुंचरु काइआ उदिआनै ॥ गुरु अंकसु सचु सबदु नीसानै ॥ राज दुआरै सोभ सु मानै ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥ मनु कुंचरु काइआ उदिआनै ॥ गुरु अंकसु सचु सबदु नीसानै ॥ राज दुआरै सोभ सु मानै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुंचरु = हाथी। काइआ = शरीर। उदिआनै = जंगल में। अंकसु = (हाथी को वश में करने के लिए) कुंडा। नीसानै = झण्डा (झूलता है)। दुआरै = द्वार पर। सु = वह। मानै = मान पाता है।1।
अर्थ: (इस) शरीर जंगल में मन हाथी (के समान) है। (जिस मन हाथी के सिर पर) गुरु का अंकुश हो और सदा स्थिर (प्रभु की महिमा का) शब्द निशान (झूल रहा) हो, (वह मन-हाथी) प्रभु-पातशाह के दर पर शोभा पाता है वह आदर पाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुराई नह चीनिआ जाइ ॥ बिनु मारे किउ कीमति पाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

चतुराई नह चीनिआ जाइ ॥ बिनु मारे किउ कीमति पाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चीनिआ जाइ = पहचाना जाता है। कीमति = मूल्य, कद्र।1। रहाउ।
अर्थ: मन को विकारों की ओर से मारे बिना मन की कद्र नहीं पड़ सकती (भाव, वही मन आदर-सत्कार का हकदार होता है, जो वश में आ जाता है)। चतुराई दिखाने से ये पहिचान नहीं होती कि (चतुराई दिखाने वाला) मन कीमत पाने का हकदार हो गया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घर महि अम्रितु तसकरु लेई ॥ नंनाकारु न कोइ करेई ॥ राखै आपि वडिआई देई ॥२॥

मूलम्

घर महि अम्रितु तसकरु लेई ॥ नंनाकारु न कोइ करेई ॥ राखै आपि वडिआई देई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तसकरु = चोर। नंनाकारु = ना नुकर, इनकार। देई = देता है।2।
अर्थ: (मनुष्य के हृदय-) घर में नाम-अंमृत मौजूद है, (पर मोह में फंसा हुआ मन-) चोर (उस अमृत को) चुराए जाता है, (ये मन इतना आकी हुआ पड़ा है कि कोई भी जीव इसके आगे इनकार नहीं कर सकता)। परमात्मा खुद जिस (के अंदर बसते अमृत) की रक्षा करता है, उसे इज्जत (मान-सम्मान) बख्शता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नील अनील अगनि इक ठाई ॥ जलि निवरी गुरि बूझ बुझाई ॥ मनु दे लीआ रहसि गुण गाई ॥३॥

मूलम्

नील अनील अगनि इक ठाई ॥ जलि निवरी गुरि बूझ बुझाई ॥ मनु दे लीआ रहसि गुण गाई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नील अनील = गिनती से परे। अगनि = तृष्णा की आग। इक ठाई = एक जगह पर। जलि = जल से। गुरि = गुरु ने। बूझ = समझ। दे = दे कर। रहसि = चाव से।3।
अर्थ: (इस मन में) तृष्णा की बेअंत आग एक ही जगह पर पड़ी है, जिसे गुरु ने (तृष्णा की आग से बचने की) समझ बख्शी है, उसकी ये आग प्रभु के नाम-जल से बुझ जाती है, (पर जिसने भी नाम-जल लिया है) अपना मन (बदले में) दे कर लिया है, वह (फिर) चाव से परमात्मा की महिमा के गुण गाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसा घरि बाहरि सो तैसा ॥ बैसि गुफा महि आखउ कैसा ॥ सागरि डूगरि निरभउ ऐसा ॥४॥

मूलम्

जैसा घरि बाहरि सो तैसा ॥ बैसि गुफा महि आखउ कैसा ॥ सागरि डूगरि निरभउ ऐसा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैसि = बैठ के। आखउ = मैं कहूँ। कैसा = किस तरह का? सागरि = सागर में। डूगरि = पहाड़ (की गुफा) में। ऐसा = एसा, एक समान।4।
अर्थ: (अगर, मन-हाथी के सिर पर गुरु का अंकुश नहीं है तो) जैसा (अमोड़, भटकने वाला) ये गृहस्थ में (रहते हुए) है, वैसा ही (अमोड़) ये बाहर (जंगलों में रहते हुए) होता है। पहाड़ की गुफा में भी बैठ के मैं क्या कहूँ कि कैसा बन गया है? (गुफा में रहने पर भी ये मन अमोड़ ही रहता है)। समुंदर में प्रवेश से (तीर्थों पर डुबकी लगाए, चाहे) पहाड़ (की गुफा) में बैठे, ये एक सा ही निडर रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूए कउ कहु मारे कउनु ॥ निडरे कउ कैसा डरु कवनु ॥ सबदि पछानै तीने भउन ॥५॥

मूलम्

मूए कउ कहु मारे कउनु ॥ निडरे कउ कैसा डरु कवनु ॥ सबदि पछानै तीने भउन ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूए कउ = विकारों की ओर से मरे को। सबदि = शब्द में (जुड़ के)।5।
अर्थ: पर अगर ये (मन-हाथी गुरु अंकुश के अधीन रह के विकारों की ओर से) मर जाए तो कोई विकार इस पर चोट नहीं कर सकता। यदि ये (गुरु-अंकुश के डर में रह कर) निडर (दलेर) हो जाए, तो दुनिया वाला कोई डर इसे छू नहीं सकता (क्योंकि) गुरु के शब्द में जुड़ के ये पहिचान लेता है (कि इसका रक्षक परमात्मा) तीनों ही भवनों में हर जगह बसता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि कहिआ तिनि कहनु वखानिआ ॥ जिनि बूझिआ तिनि सहजि पछानिआ ॥ देखि बीचारि मेरा मनु मानिआ ॥६॥

मूलम्

जिनि कहिआ तिनि कहनु वखानिआ ॥ जिनि बूझिआ तिनि सहजि पछानिआ ॥ देखि बीचारि मेरा मनु मानिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (जीव) ने। कहनु वखानिआ = निरा जुबानी जुबानी कह दिया। सहजि = सहज अवस्था में। मेरा मनु = ‘मेरा मेरा’ कहने वाला मन।6।
अर्थ: जिस मनुष्य ने (निरी मन की चतुराई से यह) कह दिया (कि परमात्मा तीनों भवनों में हर जगह मौजूद है) उसने जुबानी जुबानी ही कह दिया (उसका मन हाथी अभी भी टिकाव में नहीं है भटक रहा है, अमोड़ है)। जिस ने (गुरु अंकुश के अधीन रह के ये भेद) समझ लिया, उसने अडोल आत्मिक अवस्था में टिक के (उस तीनों भवनों में बसते को) पहिचान भी लिया। (हर जगह प्रभु का) दर्शन करके प्रभु के गुणों को विचार के उस का ‘मेरा मेरा’ कहने वाला मन (प्रभु की महिमा में) डूब जाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीरति सूरति मुकति इक नाई ॥ तही निरंजनु रहिआ समाई ॥ निज घरि बिआपि रहिआ निज ठाई ॥७॥

मूलम्

कीरति सूरति मुकति इक नाई ॥ तही निरंजनु रहिआ समाई ॥ निज घरि बिआपि रहिआ निज ठाई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीरति = शोभा। सूरति = सुंदरता। मुकति = विकारों से खलासी। नाई = बड़ाई, उपमा। निरंजनु = माया रहित प्रभु। निज ठाई = बिलकुल अपनी जगह में।7।
अर्थ: जिस हृदय में एक परमात्मा की महिमा है, वहां शोभा है, वहाँ सुंदरता है, वहाँ विकारों से निजात है, वहीं माया के प्रभाव से रहित परमात्मा हर वक्त मौजूद है। (वह हृदय परमात्मा का अपना घर बन गया, अपना निवास स्थान बन गया), उस अपने घर में, उस अपने निवास स्थान में परमात्मा हर वक्त मौजूद है।7।

[[0222]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

उसतति करहि केते मुनि प्रीति ॥ तनि मनि सूचै साचु सु चीति ॥ नानक हरि भजु नीता नीति ॥८॥२॥

मूलम्

उसतति करहि केते मुनि प्रीति ॥ तनि मनि सूचै साचु सु चीति ॥ नानक हरि भजु नीता नीति ॥८॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तनि मनि सूचै = स्वच्छ तन से स्वच्छ मन से। चीति = चिक्त में।8।
अर्थ: अनेक ही मुनि जन (मन-हाथी को गुरु अंकुश के अधीन करके) पवित्र शरीर से पवित्र मन से प्यार में जुड़ के परमात्मा की महिमा करते हैं, वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभु उनके हृदय में बसता है।
हे नानक! तू भी (इसी तरह) सदा सदा उस परमात्मा का भजन कर।8।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥ ना मनु मरै न कारजु होइ ॥ मनु वसि दूता दुरमति दोइ ॥ मनु मानै गुर ते इकु होइ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥ ना मनु मरै न कारजु होइ ॥ मनु वसि दूता दुरमति दोइ ॥ मनु मानै गुर ते इकु होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारजु = (परमात्मा के साथ एक-रूप होने का) जनम उद्देश्य। वसि = वश में। दूता = कामादिक दूतों ने। दोइ = द्वैत, मेर-तेर। गुर ते = गुरु से। इकु = परमात्मा के साथ एक रूप।1।
अर्थ: जब तक मनुष्य का मन कामादिक विकारों के वश में है, घटिया मति के अधीन है, मेरे-तेर के काबू में है, तब तक मन (में से तृष्णा) मरती नहीं और तब तक (परमात्मा के साथ एक-रूप होने का) जनम उद्देश्य भी सम्पूर्ण नहीं होता। जब गुरु से (शिक्षा ले के मनुष्य का) मन (महिमा में) रम जाता है, तब ये परमात्मा के साथ एक-रूप हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरगुण रामु गुणह वसि होइ ॥ आपु निवारि बीचारे सोइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

निरगुण रामु गुणह वसि होइ ॥ आपु निवारि बीचारे सोइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरगुण = माया के तीन गुणों से ऊपर। गुणह वसि = ऊूंचे आत्मिक गुणों के वश में। आपु = स्वै भाव। सोइ = वही मनुष्य।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा माया के तीन गुणों से परे है, और, ऊँचे आत्मिक गुणों के वश में है (भाव, मनुष्य ऊँचे आत्मिक गुणों को अपने अंदर बसाता है, परमात्मा उससे प्यार करता है)। जो मनुष्य स्वैभाव दूर कर लेता है वह शुभ गुणों को अपने मन में बसाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु भूलो बहु चितै विकारु ॥ मनु भूलो सिरि आवै भारु ॥ मनु मानै हरि एकंकारु ॥२॥

मूलम्

मनु भूलो बहु चितै विकारु ॥ मनु भूलो सिरि आवै भारु ॥ मनु मानै हरि एकंकारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चितै = चितवै। सिरि = सिर पर। भारु = विकारों का भार।2।
अर्थ: (माया के वशीभूत हो के जब तक) मन गलत राह पर रहता है, तब तक ये विकार ही विकार चितवता रहता है। (और मनुष्य के) सिर पर विकारों का बोझ इकट्ठा होता जाता है। पर जब (गुरु से शिक्षा ले के) मन (प्रभु की महिमा में) परचता है (पसीजता है) तब ये परमात्मा के साथ एक-सुर हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु भूलो माइआ घरि जाइ ॥ कामि बिरूधउ रहै न ठाइ ॥ हरि भजु प्राणी रसन रसाइ ॥३॥

मूलम्

मनु भूलो माइआ घरि जाइ ॥ कामि बिरूधउ रहै न ठाइ ॥ हरि भजु प्राणी रसन रसाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घरि = घर में, घेरे में। कामि = काम-वासना में। बिरूधउ = उलझा हुआ, फंसा हुआ। ठाइ = स्थान पर, टिका हुआ, अडोल। प्राणी = हे प्राणी! रसन = जीभ को। रसाइ = रसा के।3।
अर्थ: (माया के प्रभाव में आ के) गलत राह पर पड़ा मन माया के घर (बारंबार) जाता है, काम-वासना में फंसा हुआ मन ठिकाने पे नहीं रहता। (इस माया के प्रभाव से बचने के लिए) हे प्राणी! अपनी जीभ को (अमृत रस में) रसा के परमात्मा का भजन कर।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गैवर हैवर कंचन सुत नारी ॥ बहु चिंता पिड़ चालै हारी ॥ जूऐ खेलणु काची सारी ॥४॥

मूलम्

गैवर हैवर कंचन सुत नारी ॥ बहु चिंता पिड़ चालै हारी ॥ जूऐ खेलणु काची सारी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गैवर = गज वर, बढ़िया हाथी। हैवर = हय वर, बढ़िया घोड़े। कंचन = सोना। सुत = पुत्र। पिढ़ = कुश्ती का अखाड़ा। हारी = हार के। जूऐ खेलणु = जूए की खेल। सारी = नरद।4।
अर्थ: बढ़िया हाथी, बढ़िया घोड़े, सोना, पुत्र, स्त्री- (इनका मोह) जूए की खेल है। (जैसे चौपड़ की) कच्ची नर्दें (बारंबार मार खाती हैं। वैसे ही इस जूए की खेल खेलने वाले का मन कमजोर रह के विकारों की चोटें खाता रहता है)। (पुत्र, स्त्री आदि के मोह के कारण) मन बहुत चिंतातुर रहता है, और, आखिर इस जगत अखाड़े से मनुष्य बाजी हार के जाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्मपउ संची भए विकार ॥ हरख सोक उभे दरवारि ॥ सुखु सहजे जपि रिदै मुरारि ॥५॥

मूलम्

स्मपउ संची भए विकार ॥ हरख सोक उभे दरवारि ॥ सुखु सहजे जपि रिदै मुरारि ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संपउ = धन। संची = एकत्र की, जोड़ी। सोक = चिन्ता। उभे = खड़े हुए। दरवारि = दरवाजे पर। सहजे = सहज में, अडोल अवस्था में। जपि = जप के। मुरारि = परमात्मा।5।
अर्थ: जैसे जैसे मनुष्य धन जोड़ता है मन में विकार पैदा होते जाते हैं, (कभी खुशी कभी गम) ये खुशी व सहम सदा मनुष्य के दरवाजे पर खड़े रहते हैं। पर हृदय में परमात्मा का स्मरण करने से मन अडोल अवस्था में टिक जाता है और आत्मिक आनंद पाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदरि करे ता मेलि मिलाए ॥ गुण संग्रहि अउगण सबदि जलाए ॥ गुरमुखि नामु पदारथु पाए ॥६॥

मूलम्

नदरि करे ता मेलि मिलाए ॥ गुण संग्रहि अउगण सबदि जलाए ॥ गुरमुखि नामु पदारथु पाए ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संग्रहि = एकत्र करके। सबदि = गुरु शब्द के द्वारा। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।6।
अर्थ: (पर जीव के भी क्या वश?) जब परमात्मा मेहर की निगाह करता है, तब गुरु इसे अपने शब्द में जोड़ के प्रभु चरणों में मिला देता है। (गुरु के सन्मुख हो के) जीव आत्मिक गुण (अपने अंदर) इकट्ठे करके गुरु शब्द के द्वारा (अपने अंदर से) अवगुणों को जला देता है। गुरु के सन्मुख हो के मनुष्य नाम-धन ढूँढ लेता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु नावै सभ दूख निवासु ॥ मनमुख मूड़ माइआ चित वासु ॥ गुरमुखि गिआनु धुरि करमि लिखिआसु ॥७॥

मूलम्

बिनु नावै सभ दूख निवासु ॥ मनमुख मूड़ माइआ चित वासु ॥ गुरमुखि गिआनु धुरि करमि लिखिआसु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूख निवास = दुखों का निवास (मन में)। मनमुख = मन का मुरीद। चित वासु = चिक्त का वास, चिक्त का ठिकाना। करमि = मेहर से।7।
अर्थ: प्रभु के नाम में जुड़े बिना मनुष्य के मन में सारे दुख-कष्टों का डेरा आ लगता है, मूर्ख मनुष्य के चिक्त का बसेरा माया (के मोह) में रहता है। धुर से ही परमात्मा की मेहर से (जिस माथे पर किए कर्मों के संस्कारों के) लेख उघाड़ता है, वह मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु चंचलु धावतु फुनि धावै ॥ साचे सूचे मैलु न भावै ॥ नानक गुरमुखि हरि गुण गावै ॥८॥३॥

मूलम्

मनु चंचलु धावतु फुनि धावै ॥ साचे सूचे मैलु न भावै ॥ नानक गुरमुखि हरि गुण गावै ॥८॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फुनि = बारंबार। धावै = (माया के पीछे) दौड़ता है।8।
अर्थ: (आत्मिक गुणों से वंचित) मन चंचल रहता है (माया के पीछे) दौड़ता है बार बार भागता है। सदा स्थिर रहने वाले और (विकारों की झूठ, अपवित्रता से) स्वच्छ परमात्मा को (मनुष्य के मन की ये) मैल अच्छी नहीं लगती (इस वास्ते ये परमात्मा से विछुड़ा रहता है)।
हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह परमात्मा के गुण गाता है (और उसका जनम उद्देश्य सफल हो जाता है)।8।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥ हउमै करतिआ नह सुखु होइ ॥ मनमति झूठी सचा सोइ ॥ सगल बिगूते भावै दोइ ॥ सो कमावै धुरि लिखिआ होइ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला १ ॥ हउमै करतिआ नह सुखु होइ ॥ मनमति झूठी सचा सोइ ॥ सगल बिगूते भावै दोइ ॥ सो कमावै धुरि लिखिआ होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउमै = हउ हउ, मैं मैं। हउमै करतिआ = हर वक्त अपने ही बड़प्पन और सुख की बातें करते हुए। मन मति = मन की समझदारी। झूठी = नाशवान पदार्थों में। सोइ = वह प्रभु। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। बिगूते = दुखी हुए। दोइ = द्वैत, तेर-मेर।1।
अर्थ: (अपने मन की अगवाई में रह के) हर समय अपने ही बड़प्पन व सुख की बातें करने से सुख नहीं मिल सकता। मन की समझदारी नाशवान पदार्थों में (जोड़ती है), वह परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है (और सुख का श्रोत है। ‘मन मति’ और ‘परमात्मा’ का स्वाभाव अलग अलग है, दोनों का मेल नहीं। सुख कहाँ से आए?) जिस को (नाम विसार के) मेर-तेर अच्छी लगती है, वह सारे खुआर ही होते हैं। (पर जीवों के भी क्या वश?) (किए कर्मों के अनुसार जीव के माथे पर) जो धुर से लेख लिखे होते हैं, उसी के अनुसार यहाँ कमाई करता है (नाम-स्मरण छोड़ के नाशवान पदार्थों में सुख की तलाश के व्यर्थ प्रयत्न करता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा जगु देखिआ जूआरी ॥ सभि सुख मागै नामु बिसारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा जगु देखिआ जूआरी ॥ सभि सुख मागै नामु बिसारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। बिसारी = बिसार के, भुला के।1। रहाउ।
अर्थ: मैंने देखा है कि जगत जूए की खेल खेलता है, ऐसी (खेल खेलता है कि) सुख तो सारे ही मांगता है, पर (जिस नाम से सुख मिलते हैं उस) नाम को विसार रहा है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदिसटु दिसै ता कहिआ जाइ ॥ बिनु देखे कहणा बिरथा जाइ ॥ गुरमुखि दीसै सहजि सुभाइ ॥ सेवा सुरति एक लिव लाइ ॥२॥

मूलम्

अदिसटु दिसै ता कहिआ जाइ ॥ बिनु देखे कहणा बिरथा जाइ ॥ गुरमुखि दीसै सहजि सुभाइ ॥ सेवा सुरति एक लिव लाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अदिसटु = इन आँखों से ना दिखने वाला। ता = तब। कहिआ जाइ = स्मरण किया जा सकता है, उसका जिक्र किया जा सकता है, जिक्र करने को जी करता है। बिरथा = व्यर्थ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। दीसै = दिखाई दे जाता है। सहजि = सहज अवस्था में, अडोल अवस्था में। सुभाइ = प्रेम में।2।
अर्थ: परमात्मा (इन आँखों से) दिखाई नहीं देता। अगर आँखों से दिखाई दे, तो ही (उससे मिलने की कसक पैदा हो, और) उसका नाम लेने को चिक्त करे। आँखों को दिखे बिना (उसके दीदार की खींच नहीं बनती और चाह से) उसका नाम नहीं लिया जा सकता (खींच बनी रहती है दिखाई देते पदार्थों से)। गुरु के सन्मुख रहने से मनुष्य का मन (दिखते पदार्थों से हट के) अडोलता में टिकता है, प्रभु के प्रेम में लीन होता है और इस तरह अंतरात्मे वह प्रभु दिख पड़ता है। गुरु के सन्मुख मनुष्य की सूरति गुरु की बताई सेवा में जुड़ती है, उसकी लगन एक परमात्मा में लगती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखु मांगत दुखु आगल होइ ॥ सगल विकारी हारु परोइ ॥ एक बिना झूठे मुकति न होइ ॥ करि करि करता देखै सोइ ॥३॥

मूलम्

सुखु मांगत दुखु आगल होइ ॥ सगल विकारी हारु परोइ ॥ एक बिना झूठे मुकति न होइ ॥ करि करि करता देखै सोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आगल = ज्यादा। विकारी हारु = विकारों का हार। झूठे = नाशवान पदार्थों के मोह में फंसे हुए को। मुकति = दुखों और विकारों से खलासी।3।
अर्थ: (प्रभु का नाम विसार के) सुख मांगने से (बल्कि) बहुत दुख बढ़ता है (क्योंकि) मनुष्य सारे विकारों का हार परो के (अपने गले में डाल लेता है)। नाशवान पदार्थों के मोह में फंसे हुए को परमात्मा के नाम के बिना (दुखों व विकारों से) खलासी हासिल नहीं होती। (प्रभु की ऐसी ही रजा है) वह कर्तार स्वयं ही सब कुछ करके खुद ही इस खेल को देख रहा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिसना अगनि सबदि बुझाए ॥ दूजा भरमु सहजि सुभाए ॥ गुरमती नामु रिदै वसाए ॥ साची बाणी हरि गुण गाए ॥४॥

मूलम्

त्रिसना अगनि सबदि बुझाए ॥ दूजा भरमु सहजि सुभाए ॥ गुरमती नामु रिदै वसाए ॥ साची बाणी हरि गुण गाए ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। दूजा भरमु = प्रभु के बिना और-और तरफ की भटकना। रिदै = हृदय में। साची बाणी = महिमा की वाणी के द्वारा।4।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (अपने अंदर से) तृष्णा की आग बुझाता है, अडोल अवस्था में टिक के प्रभु के प्रेम में जुड़ के उसकी मायावी पदार्थों की ओर की भटकना खत्म हो जाती है। गुरु की शिक्षा पर चल कर वह परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाता है। प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा वह परमात्मा के गुण गाता है (और उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन महि साचो गुरमुखि भाउ ॥ नाम बिना नाही निज ठाउ ॥ प्रेम पराइण प्रीतम राउ ॥ नदरि करे ता बूझै नाउ ॥५॥

मूलम्

तन महि साचो गुरमुखि भाउ ॥ नाम बिना नाही निज ठाउ ॥ प्रेम पराइण प्रीतम राउ ॥ नदरि करे ता बूझै नाउ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचो = सदा स्थिर प्रभु। भाउ = प्रेम। निज ठाउ = अपना असल ठिकाना, शांति, अडोलता। पराइण = आसरे। प्रेम पराइण = प्रेम के वश। प्रीतम राउ = परमात्मा।5।
अर्थ: (वैसे तो) हरेक शरीर में सदा स्थिर प्रभु बसता है, पर गुरु की शरण पड़ने से ही उसके साथ प्रेम जागता है (और मनुष्य नाम स्मरण करता है) नाम के बिना मन एक टिकाने पर आ नहीं सकता। प्रीतम प्रभु भी प्रेम के अधीन है (जो उसके साथ प्रेम करता है) प्रभु उस के ऊपर मेहर की नजर करता है और वह उसके नाम की कद्र समझता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहु सरब जंजाला ॥ मनमुख कुचील कुछित बिकराला ॥ सतिगुरु सेवे चूकै जंजाला ॥ अम्रित नामु सदा सुखु नाला ॥६॥

मूलम्

माइआ मोहु सरब जंजाला ॥ मनमुख कुचील कुछित बिकराला ॥ सतिगुरु सेवे चूकै जंजाला ॥ अम्रित नामु सदा सुखु नाला ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुचील = गंदा। कुछित = कुत्सित, बदनाम, निंदित। बिकराला = डरावना। नाला = अपने साथ (ले जाता है)।6।
अर्थ: माया के मोह सारे (मायावी) बंधन पैदा करते हैं। (इस करके) मन के मुरीद मनुष्य का जीवन गंदा, बुरा व डरावना बन जाता है। जो मनुष्य गुरु का बताया हुआ राह पकड़ता है, उसके माया वाले बंधन टूट जाते हैं। वह आत्मिक जीवन देने वाला नाम जपता है, और सदा ही आत्मिक आनंद अपने अंदर पाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि बूझै एक लिव लाए ॥ निज घरि वासै साचि समाए ॥ जमणु मरणा ठाकि रहाए ॥ पूरे गुर ते इह मति पाए ॥७॥

मूलम्

गुरमुखि बूझै एक लिव लाए ॥ निज घरि वासै साचि समाए ॥ जमणु मरणा ठाकि रहाए ॥ पूरे गुर ते इह मति पाए ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निज घरि = अपने असल घर में, अडोलता में। ठाकि रहाए = रोक लेता है। गुर ते = गुरु से।7।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (नाम की कद्र) समझता है, एक परमात्मा में तवज्जो जोड़ता है, अपने स्वै-स्वरूप में टिका रहता है, सदा स्थिर प्रभु (के चरणों) में लीन रहता है। वह अपना जनम मरन का चक्र रोक लेता है। पर ये बुद्धि वह पूरे गुरु से ही प्राप्त करता है।7।

[[0223]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथनी कथउ न आवै ओरु ॥ गुरु पुछि देखिआ नाही दरु होरु ॥ दुखु सुखु भाणै तिसै रजाइ ॥ नानकु नीचु कहै लिव लाइ ॥८॥४॥

मूलम्

कथनी कथउ न आवै ओरु ॥ गुरु पुछि देखिआ नाही दरु होरु ॥ दुखु सुखु भाणै तिसै रजाइ ॥ नानकु नीचु कहै लिव लाइ ॥८॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओरु = ओड़क, आखिर तक, गुणों का अंत। कथनी कथउ = मैं गुणों का कथन करता हूँ, मैं गुण गाता हूँ। पुछि = पूछ के। तिसै रजाइ = उस परमात्मा के हुक्म अनुसार। नीचु = अंजान मति।8।
अर्थ: जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पड़ सकता, मैं उसके गुण गाता हूँ। मैंने अपने गुरु को पूछ के देख लिया है कि (उस प्रभु के बिना सुख का) और कोई ठिकाना नहीं है। जीव के दुख और सुख उस प्रभु की रजा में ही उस प्रभु की मर्जी से ही मिलते हैं। अंजान मति नानक (प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़ के प्रभु की महिमा ही करता है (इसी में ही सुख है)।8।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ दूजी माइआ जगत चित वासु ॥ काम क्रोध अहंकार बिनासु ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ दूजी माइआ जगत चित वासु ॥ काम क्रोध अहंकार बिनासु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूजी = दूसरा-पन (द्वैत) पैदा करने वाली, मेर तेर पैदा करने वाली, परमात्मा से दूरी बनाने वाली। जगत चिक्त = जगत के जीवों के मनों में। बिनासु = आत्मिक जीवन की तबाही।1।
अर्थ: परमात्मा से दूरी डालने वाली (परमात्मा की) माया (ही है जिस ने) जगत के जीवों के मनों में अपना ठिकाना बनाया हुआ है। (इस माया से पैदा हुए) काम-क्रोध-अहंकार (आदि विकार जीवों के आत्मिक जीवन का) नाश कर देते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूजा कउणु कहा नही कोई ॥ सभ महि एकु निरंजनु सोई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

दूजा कउणु कहा नही कोई ॥ सभ महि एकु निरंजनु सोई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूजा = परमात्मा के बिना कोई और। कहा = मैं कहूँ। निरंजनु = माया के प्रभाव से निर्लिप।1। रहाउ।
अर्थ: सारे जीवों में एक वही परमात्मा बस रहा है, जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। कहीं भी उससे बिना कोई और नहीं है। उस प्रभु से अलग (अलग अस्तित्व वाला) मैं कोई भी बता नहीं सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूजी दुरमति आखै दोइ ॥ आवै जाइ मरि दूजा होइ ॥२॥

मूलम्

दूजी दुरमति आखै दोइ ॥ आवै जाइ मरि दूजा होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दोइ = द्वैत, प्रभु के बिना और किसी हस्ती का अस्तित्व। मरि = आत्मिक मौत मर के। दूजा = प्रभु से अलग।2।
अर्थ: परमात्मा से दूरी पैदा करने वाली (माया के कारण ही मनुष्य की) बुरी मति (मनुष्य को) बताती रहती है कि माया की हस्ती प्रभु से अलग है। (इस दुरमति के असर तहत) जीव पैदा होता है मरता है, पैदा होता है मरता है। (इस तरह) आत्मिक मौत मर के परमात्मा से दूर हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धरणि गगन नह देखउ दोइ ॥ नारी पुरख सबाई लोइ ॥३॥

मूलम्

धरणि गगन नह देखउ दोइ ॥ नारी पुरख सबाई लोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धणि = धरती। गगनि = आकाश में। देखउ = मैं देखता हूँ। दोइ = कोई दूसरी हस्ती। लोइ = सृष्टि।3।
अर्थ: पर मैं तो धरती आकाश में, स्त्री पुरुष में, सारी ही सृष्टि में (कहीं भी परमात्मा के बिना) किसी और हस्ती को नहीं देखता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रवि ससि देखउ दीपक उजिआला ॥ सरब निरंतरि प्रीतमु बाला ॥४॥

मूलम्

रवि ससि देखउ दीपक उजिआला ॥ सरब निरंतरि प्रीतमु बाला ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवि = सूर्य। ससि = चंद्रमा। उजिआला = प्रकाश। सरब निरंतरि = सब के अंदर एक रस। बाला = जवान।4।
अर्थ: मैं सूर्य चंद्रमा (इन सृष्टि के) दीपकों का प्रकाश देखता हूँ, सभी के अंदर मुझे एक-रस सदा यौवन प्रीतम प्रभु ही दिखाई दे रहा है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा मेरा चितु लाइआ ॥ सतिगुरि मो कउ एकु बुझाइआ ॥५॥

मूलम्

करि किरपा मेरा चितु लाइआ ॥ सतिगुरि मो कउ एकु बुझाइआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = कर के। सतिगुरि = सतिगुरु ने। मो कउ = मुझे।5।
अर्थ: सतिगुरु ने मेहर करके मेरा चिक्त प्रभु चरणों में जोड़ दिया, और मुझे ये समझ दे दी कि हर जगह एक परमात्मा ही बस रहा है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु निरंजनु गुरमुखि जाता ॥ दूजा मारि सबदि पछाता ॥६॥

मूलम्

एकु निरंजनु गुरमुखि जाता ॥ दूजा मारि सबदि पछाता ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुंह करके। सबदि = (गुरु) के शब्द के द्वारा।6।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है वह गुरु शब्द की इनायत से (अपने अंदर से) परमात्मा से अलगाव मिटा के परमात्मा (के अस्तित्व) को पहचान लेता है, और ये जान लेता है कि एक निरंजन ही हर जगह मौजूद है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको हुकमु वरतै सभ लोई ॥ एकसु ते सभ ओपति होई ॥७॥

मूलम्

एको हुकमु वरतै सभ लोई ॥ एकसु ते सभ ओपति होई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोई = सृष्टि (में)। ओपति = उत्पक्ति।7।
अर्थ: सारी सृष्टि में सिर्फ परमात्मा का ही हुक्म चल रहा है, एक परमात्मा से ही सारी उत्पक्ति हुई है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राह दोवै खसमु एको जाणु ॥ गुर कै सबदि हुकमु पछाणु ॥८॥

मूलम्

राह दोवै खसमु एको जाणु ॥ गुर कै सबदि हुकमु पछाणु ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राह दोवै = दो रास्ते (गुरमुखता एवं दुरमति)।8।
अर्थ: (एक प्रभु से ही सारी उत्पक्ति होने पर भी माया के प्रभाव तले जगत में) दोनों रास्ते चल पड़ते हैं (-गुरमुखता व दुरमति)। (पर, हे भाई! सब में) एक परमात्मा को ही (रचा हुआ) जान। गुरु के शब्द में जुड़ के (सारे जगत में परमात्मा का ही) हुक्म चलता पहिचान।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल रूप वरन मन माही ॥ कहु नानक एको सालाही ॥९॥५॥

मूलम्

सगल रूप वरन मन माही ॥ कहु नानक एको सालाही ॥९॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सराही = सलाहूँ, मैं सराहना करता हूँ।9।
अर्थ: हे नानक! कह: मैं उस एक परमात्मा की ही महिमा करता हूँ, जो सारे रूपों में सारे वर्णों में और सार (जीवों के) मनों में व्यापक है।9।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ अधिआतम करम करे ता साचा ॥ मुकति भेदु किआ जाणै काचा ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ अधिआतम करम करे ता साचा ॥ मुकति भेदु किआ जाणै काचा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अधिआतम = आत्मा संबंधी, आत्मिक जीवन संबन्धी। अधिआतम करम = आत्मिक जीवन को ऊँचा करने वाले कर्म। साचा = सदा स्थिर, अडोल, अहिल। मुकति = विकारों से खलासी। भेदु = राज की बात। काचा = कच्चे मन वाला, जिसका मन विकारों के मुकाबले में कमजोर है।1।
अर्थ: जब मनुष्य आत्मिक जीवन ऊँचे करने वाले कर्म करता है, तब ही सच्चा (जोगी) है पर जिसका मन विकारों के मुकाबले में कमजोर है, वह विकारों से खलासी हासिल करने के भेद को क्या जान सकता है? 1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा जोगी जुगति बीचारै ॥ पंच मारि साचु उरि धारै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा जोगी जुगति बीचारै ॥ पंच मारि साचु उरि धारै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एसा = ऐसा आदमी। जुगति = सही जीवन का तरीका। पंच = कामादिक पाँचों विकार। उरि = हृदय में।1। रहाउ।
अर्थ: ऐसा (आदमी) जोगी (कहलाने का हकदार हो सकता है जो जीवन की सही) जुगति समझता है (वह जीवन-जुगति ये है कि कामादिक) पाँचों (विकारों) को मार के सदा कायम रहने वाले परमात्मा (की याद) को अपने हृदय में टिकाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस कै अंतरि साचु वसावै ॥ जोग जुगति की कीमति पावै ॥२॥

मूलम्

जिस कै अंतरि साचु वसावै ॥ जोग जुगति की कीमति पावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जोग = प्रभु मिलाप। कीमति = कद्र।2।
अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा अपना सदा स्थिर नाम बसाता है, वह मनुष्य प्रभु मिलाप की जुगति की कद्र समझता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रवि ससि एको ग्रिह उदिआनै ॥ करणी कीरति करम समानै ॥३॥

मूलम्

रवि ससि एको ग्रिह उदिआनै ॥ करणी कीरति करम समानै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवि = सूर्य, तपश। ससि = चंद्रमा, ठण्ड। उदिआनै = जंगल में। समानै = समान, साधारण। करम समानै = (उसके) साधारन कर्म (हैं), सोए हुए ही इस ओर लगा रहता है।3।
अर्थ: तपश, ठण्ड (भाव, किसी की ओर से बेरुखी भरा सलूक और किसी की तरफ से मधुर रवईया) घर, जंगल (भाव, घर में रहते हुए निर्मोही सलूक) उसे एक समान दिखते हैं। परमात्मा की महिमा रूपी करणी उसका समान (साधारन) कर्म हें (भाव, सोए हुए ही वह अर्थात सहज ही वह महिमा में जुड़ा रहता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक सबद इक भिखिआ मागै ॥ गिआनु धिआनु जुगति सचु जागै ॥४॥

मूलम्

एक सबद इक भिखिआ मागै ॥ गिआनु धिआनु जुगति सचु जागै ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भिखिआ = खैर, दान, भिक्षा।4।
अर्थ: (दर-दर से रोटियां माँगने की जगह वह जोगी गुरु के दर से) परमातमा की महिमा की वाणी की खैर (भिक्षा) माँगता है। उसके अंदर प्रभु के साथ गहरी सांझ पड़ती है, उसकी ऊँची सूझ जाग पड़ती है, उसके अंदर स्मरण रूपी जुगति जाग जाती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भै रचि रहै न बाहरि जाइ ॥ कीमति कउण रहै लिव लाइ ॥५॥

मूलम्

भै रचि रहै न बाहरि जाइ ॥ कीमति कउण रहै लिव लाइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = प्रभु का डर अदब।5।
अर्थ: वह जोगी सदा प्रभु के डर-अदब में लीन रहता है, (इस डर से) बाहर नहीं जाता। ऐसे जोगी का कौन मुल्य डाल सकता है? वह सदा प्रभु चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे मेले भरमु चुकाए ॥ गुर परसादि परम पदु पाए ॥६॥

मूलम्

आपे मेले भरमु चुकाए ॥ गुर परसादि परम पदु पाए ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमु = भटकना। चुकाए = चुका देता है, समाप्त कर देता है। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।6।
अर्थ: (ये जो साधना के हठ कुछ नहीं सवार सकते) प्रभु स्वयं ही अपने साथ मिलाता है और जीव की भटकना को खत्म करता है। गुरु की कृपा से मनुष्य सबसे ऊूंचा आत्मिक दर्जा हासिल करता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर की सेवा सबदु वीचारु ॥ हउमै मारे करणी सारु ॥७॥

मूलम्

गुर की सेवा सबदु वीचारु ॥ हउमै मारे करणी सारु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ।7।
अर्थ: (असल जोगी) गुरु की बताई हुई सेवा करता है, गुरु के शब्द को अपनी विचार बनाता है। अहंकार को (अपने अंदर से) मारता है - यही है उस जोगी की श्रेष्ठ करणी।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जप तप संजम पाठ पुराणु ॥ कहु नानक अपर्मपर मानु ॥८॥६॥

मूलम्

जप तप संजम पाठ पुराणु ॥ कहु नानक अपर्मपर मानु ॥८॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपरंपर = वह प्रभु जो परे से परे है, जिसके गुणों का अंत नहीं। संजम = इन्द्रियों को विकारों की तरफ से रोकने का उद्यम। मानु = मानना, मन को समझाना।8।
अर्थ: हे नानक! कह: बेअंत प्रभु की महिमा में अपने आप को जोड़ लेना - ये हैं जोगी के जप, तप, संजम और पाठ। यही है जोगी का पुराण आदिक कोई धर्म-पुस्तक।8।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ खिमा गही ब्रतु सील संतोखं ॥ रोगु न बिआपै ना जम दोखं ॥ मुकत भए प्रभ रूप न रेखं ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ खिमा गही ब्रतु सील संतोखं ॥ रोगु न बिआपै ना जम दोखं ॥ मुकत भए प्रभ रूप न रेखं ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खिमा = दूसरों की ज्यादतियों को बर्दाश्त करने का स्वभाव। गही = पकड़ी, ग्रहण की। ब्रत = नित्य के नियम। सील = शील, मीठा स्वभाव। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। जम दोखं = जम का डर। मुकत = विकारों से आजाद।1।
अर्थ: वह जोगी (गृहस्थ में रह के ही) दूसरों की ज्यादती बर्दाश्त करने का स्वाभाव बनाता है। मीठा स्वभाव एवं संतोष उसके नित्य के कर्म हैं। (ऐसे असल जोगी पर कामादिक कोई) रोग जोर नहीं डाल सकता। उसे मौत का भी डर नहीं होता। ऐसे जोगी विकारों से आजाद हो जाते हैं, क्योंकि वह रूप-रेख रहित परमात्मा का रूप हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोगी कउ कैसा डरु होइ ॥ रूखि बिरखि ग्रिहि बाहरि सोइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जोगी कउ कैसा डरु होइ ॥ रूखि बिरखि ग्रिहि बाहरि सोइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रुखि = पेड़ के नीचे। बिरखि = वृक्ष के नीचे। ग्रिहि = घर में। बाहरि = घर से बाहर जंगल में। सोइ = वह प्रभु ही।1। रहाउ।
अर्थ: जिस मनुष्य को पेड़ पौधों में, घर में, बाहर जंगल (आदि) में हर जगह वह परमात्मा ही नजर आता है (वही है असल जोगी, और उस) जोगी को (माया के शूरवीरों कामादिकों के हमलों से) किसी तरह का कोई डर नहीं रहता (जिससे घबरा के वह गृहस्थ त्याग के भाग जाए)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरभउ जोगी निरंजनु धिआवै ॥ अनदिनु जागै सचि लिव लावै ॥ सो जोगी मेरै मनि भावै ॥२॥

मूलम्

निरभउ जोगी निरंजनु धिआवै ॥ अनदिनु जागै सचि लिव लावै ॥ सो जोगी मेरै मनि भावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। जागै = विकारों के हमलों से सुचेत रहता है। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।2।
अर्थ: जो परमात्मा माया के प्रभाव में नहीं आता, उसे जो मनुष्य स्मरण करता है वह है (असल) जोगी। वह भी (माया के हमलों से) नहीं डरता (उसे क्या जरूरत पड़ी है गृहस्थ से भागने की?)। वह तो हर समय (माया के हमलों से) सुचेत रहता है, क्योंकि वह सदा स्थिर प्रभु में मन जोड़े रखता है। मेरे मन में वह जोगी प्यारा लगता है (वही है असल जोगी)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालु जालु ब्रहम अगनी जारे ॥ जरा मरण गतु गरबु निवारे ॥ आपि तरै पितरी निसतारे ॥३॥

मूलम्

कालु जालु ब्रहम अगनी जारे ॥ जरा मरण गतु गरबु निवारे ॥ आपि तरै पितरी निसतारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कालु = मौत का डर। जारे = जला देता है। ब्रहम अगनि = अंदर प्रकट हुए परमात्मा के तेज-रूप आग से। जरा = बुढ़ापा। मरण = मौत। गतु = दूर हो जाता है। गरबु = अहंकार। पितरी = पित्रों को, बड़े बडेरों को।3।
अर्थ: (वही जोगी अपने अंदर प्रकट हुए) ब्रहम् (के तेज) की अग्नि से मौत (मौत के डर को) जाल को (जिसके सहम ने सारे जीवों को फंसाया हुया है) जला देता है। उस जोगी को बुढ़ापे का डर मौत का सहम दूर दूर हो जाता है। वह जोगी (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर लेता है। वह स्वयं भी (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है, अपने पित्रों को भी पार लंघा लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवे सो जोगी होइ ॥ भै रचि रहै सु निरभउ होइ ॥ जैसा सेवै तैसो होइ ॥४॥

मूलम्

सतिगुरु सेवे सो जोगी होइ ॥ भै रचि रहै सु निरभउ होइ ॥ जैसा सेवै तैसो होइ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = (परमात्मा के) डर अदब में। सेवे = स्मरण करता है, सेवा करता है।4।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चलता है, वह (असल) जोगी बनता है, वह परमात्मा के डर अदब में (जीवन-राह पर) चलता है, वह (कामादिक विकारों के हमलों से) निडर रहता है (क्योंकि ये एक असूल की बात है कि) मनुष्य जैसे की सेवा (-भक्ति) करता है वैसा ही स्वयं बन जाता है (निरभउ निरंकार को स्मरण करके निर्भय ही बनना हुआ)।4।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

नर निहकेवल निरभउ नाउ ॥ अनाथह नाथ करे बलि जाउ ॥ पुनरपि जनमु नाही गुण गाउ ॥५॥

मूलम्

नर निहकेवल निरभउ नाउ ॥ अनाथह नाथ करे बलि जाउ ॥ पुनरपि जनमु नाही गुण गाउ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नर निहकेवल = वासना रहित (शुद्ध) मनुष्य। बलि जाउ = मैं कुर्बान जाता हूँ। पुनरपि = पुनः +अपि, बार बार।5।
अर्थ: मनुष्य निर्भय परमात्मा का नाम जप के (माया के हमलों से निर्भय हो के) वासना-रहित (शुद्ध) हो जाता है। वह पति-विहीनों को पति वाला बना देता है (वह है असल जोगी, और ऐसे जोगी से) मैं कुर्बान हूँ। उसे मुड़ मुड़ जनम नहीं लेना पड़ता, वह सदा प्रभु की महिमा करता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि बाहरि एको जाणै ॥ गुर कै सबदे आपु पछाणै ॥ साचै सबदि दरि नीसाणै ॥६॥

मूलम्

अंतरि बाहरि एको जाणै ॥ गुर कै सबदे आपु पछाणै ॥ साचै सबदि दरि नीसाणै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदे = शब्द में (जुड़ के)। आपु = अपने असल को। नीसाण = राहदारी, परवाना। दरि = परमात्मा के दर पर।6।
अर्थ: वह जोगी अपने अंदर व बाहर सारे जगत में एक परमात्मा को ही व्यापक जानता है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह अपने असले को पहिचानता है। गुरु के सच्चे शब्द की इनायत से वह जोगी परमात्मा के दर पर (महिमा की) राहदारी ले कर जाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदि मरै तिसु निज घरि वासा ॥ आवै न जावै चूकै आसा ॥ गुर कै सबदि कमलु परगासा ॥७॥

मूलम्

सबदि मरै तिसु निज घरि वासा ॥ आवै न जावै चूकै आसा ॥ गुर कै सबदि कमलु परगासा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निज घरि = अपने घर में, अपने अंतरात्मे में ही। चूके = खत्म हो जाती है। कमलु = हृदय रूपी कमल फूल। परगासा = खिल जाता है।7।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा (विकारों की ओर से) मर जाता है (वह है असल जोगी, और) उसका निवास सदैव अपने अंतरात्में में रहता है। उसकी आशा (तृष्णा) खत्म हो जाती है, वह भटकना में नहीं पड़ता। गुरु के शब्द में जुड़ने से उसका कमल रूपी हृदय सदैव खिला रहता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो दीसै सो आस निरासा ॥ काम क्रोध बिखु भूख पिआसा ॥ नानक बिरले मिलहि उदासा ॥८॥७॥

मूलम्

जो दीसै सो आस निरासा ॥ काम क्रोध बिखु भूख पिआसा ॥ नानक बिरले मिलहि उदासा ॥८॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आस निरासा = आशा में निराशा, जिसकी आशाएं उम्मीदें बीच में ही रह गईं। बिखु = जहर। उदासा = आशाओं से ऊपर, निर्मोह।8।
अर्थ: जगत में जो भी दिखाई देता है, वही गिरी हुई आशाओं वाला (निराशा में डूबा हुआ) ही दिखता है (किसी की सारी आशाएं कभी पूरी नहीं हुई)। हरेक को काम का जहर, क्रोध का विष (मारता जा रहा है, हरेक को माया की) भूख (माया की) प्यास (लगी हुई है)।
हे नानक! जगत में गिने चुने (विरले) लोग ही ऐसे मिलते हैं, जो आशा-तृष्णा के अधीन नहीं हैं (और, वही असल जोगी हैं)।8।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ ऐसो दासु मिलै सुखु होई ॥ दुखु विसरै पावै सचु सोई ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ ऐसो दासु मिलै सुखु होई ॥ दुखु विसरै पावै सचु सोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दासु = हरि का दास। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु (का मिलाप)। सोई = वह मनुष्य ही।1।
अर्थ: (परमात्मा का) ऐसा दास (मनुष्य को) मिल जाता है, (उसके अंदर) आत्मिक आनंद पैदा होता है। वह मनुष्य सदा स्थिर प्रभु की प्राप्ति कर लेता है, दुख उसके नजदीक नहीं फटकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरसनु देखि भई मति पूरी ॥ अठसठि मजनु चरनह धूरी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

दरसनु देखि भई मति पूरी ॥ अठसठि मजनु चरनह धूरी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखि = देख के। पूरी = अमोध। अठसठि = अढ़सठ (तीर्थ)। मजनु = स्नान। चरनह = (गुरु के) चरणों की।1। रहाउ।
अर्थ: (हरि के दास, गुरु का) दर्शन करके मनुष्य की अक्ल पूरी (सूझ वाली) हो जाती है। (गुरु के) चरणों की धूल (ही) अढ़सठ तीर्थों का स्नान है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेत्र संतोखे एक लिव तारा ॥ जिहवा सूची हरि रस सारा ॥२॥

मूलम्

नेत्र संतोखे एक लिव तारा ॥ जिहवा सूची हरि रस सारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नेत्र = आँखें। संतोखे = पर तन रूप देखने की ओर से तृप्त हो जाते हैं। सूची = पवित्र। सारा = श्रेष्ठ।2।
अर्थ: उसकी आँखें (पराया रूप देखने की ओर से) तृप्त रहती हैं, उसकी तवज्जो की तार एक परमात्मा में रहती है। परमात्मा के नाम का श्रेष्ठ रस चख के उसकी जीभ पवित्र हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु करणी अभ अंतरि सेवा ॥ मनु त्रिपतासिआ अलख अभेवा ॥३॥

मूलम्

सचु करणी अभ अंतरि सेवा ॥ मनु त्रिपतासिआ अलख अभेवा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अभ अंतर = अभ्यंतर, दिल के अंदर। अलख अभेव सेवा = अलख अभेव प्रभु की सेवाभक्ति।3।
अर्थ: (परमात्मा का ऐसा दास, गुरु जिस मनुष्य को मिलता है) प्रभु का स्मरण उसकी (नित्य की) करनी बन जाता है। अलख और अभेव परमात्मा की अपने अंदर सेवा-भक्ति करके उसका मन (माया की ओर से) तृप्त हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह जह देखउ तह तह साचा ॥ बिनु बूझे झगरत जगु काचा ॥४॥

मूलम्

जह जह देखउ तह तह साचा ॥ बिनु बूझे झगरत जगु काचा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखउ = मैं देखता हूँ। साचा = सदा स्थिर प्रभु। जगु काचा = (विकारों के मुकाबले) कमजोर मन वाला जगत।4।
अर्थ: (उस गुरु के दीदार की इनायत से ही) मैं जिधर देखता हूँ उधर उधर मुझे सदा स्थिर प्रभु दिखता है। पर माया के मुकाबले कमजोर मन वाला जगत इस ज्ञान से वंचित होने के कारण खहि खहि कर रहा है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु समझावै सोझी होई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥५॥

मूलम्

गुरु समझावै सोझी होई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोझी = ये समझ कि प्रभु हर जगह मौजूद है।5।
अर्थ: ये समझ कि परमात्मा हर जगह मौजूद है उसी को होती है जिसे गुरु ये समझ दे। कोई विरला मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के ये समझ प्राप्त करता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा राखहु रखवाले ॥ बिनु बूझे पसू भए बेताले ॥६॥

मूलम्

करि किरपा राखहु रखवाले ॥ बिनु बूझे पसू भए बेताले ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेताले = जीवन ताल से वंचित, भूतने।6।
अर्थ: हे राखनहार प्रभु! मेहर कर, और जीवों को (खहि खहि से) तू खुद बचा। गुरु से ज्ञान प्राप्त किए बिना जीव पशू (-स्वभाव) बन रहे हैं। भूतने हो रहे हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि कहिआ अवरु नही दूजा ॥ किसु कहु देखि करउ अन पूजा ॥७॥

मूलम्

गुरि कहिआ अवरु नही दूजा ॥ किसु कहु देखि करउ अन पूजा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। कहु = बताओ। करउ = मैं करूँ। अनपूजा = किसी और की पूजा।7।
अर्थ: मुझे सतिगुरु ने समझा दिया है कि प्रभु के बिना उस जैसा कोई नहीं है। बताओ, (हे भाई!) मैं किसे (उस जैसा) देख के किसी और की पूजा कर सकता हूँ?।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत हेति प्रभि त्रिभवण धारे ॥ आतमु चीनै सु ततु बीचारे ॥८॥

मूलम्

संत हेति प्रभि त्रिभवण धारे ॥ आतमु चीनै सु ततु बीचारे ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत हेति = (मनुष्य को) संत बनाने के वास्ते। प्रभि = प्रभु ने। त्रिभवण = तीनों भवन, सारी सृष्टि। धारे = रचे हैं। चीनै = पहिचानता है, परखता है। ततु = असलियत।8।
अर्थ: परमात्मा ने (मनुष्यों को) संत बनाने के लिए ये सृष्टि रची है। जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ कर) अपने आप को पहिचानता है, वह इस अस्लियत को समझ लेता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचु रिदै सचु प्रेम निवास ॥ प्रणवति नानक हम ता के दास ॥९॥८॥

मूलम्

साचु रिदै सचु प्रेम निवास ॥ प्रणवति नानक हम ता के दास ॥९॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। प्रणवति = विनती करता है। ता के = उस (गुरु) के।9।
अर्थ: (गुरु का दीदार करके ही) सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा मनुष्य के हृदय में निवास करता है, परमात्मा का प्यार हृदय में टिकता है।
नानक विनती करता है: मैं भी उस गुरु का दास हूँ।9।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ ब्रहमै गरबु कीआ नही जानिआ ॥ बेद की बिपति पड़ी पछुतानिआ ॥ जह प्रभ सिमरे तही मनु मानिआ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ ब्रहमै गरबु कीआ नही जानिआ ॥ बेद की बिपति पड़ी पछुतानिआ ॥ जह प्रभ सिमरे तही मनु मानिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ब्रहमै = ब्रहमा ने। गरबु = अहंकार (ब्रहमा ने अहंकार किया कि मैं कमल की नाभि में से नहीं जन्मा बल्कि अपने आप से ही पैदा हुआ हूँ)। बेद बिपति = वेदों के चुराए जाने की बिपता, (दैंत वेद छीन के ले गए थे। दुखी हुआ, परमात्मा का आसरा लिया। वेद वापिस दिलाए, दैंत मार के)। जह = जहां, जिस वक्त। तही = वहीं, उस वक्त। मानिआ = मान गया कि परमात्मा ही सबसे बड़ा है।1।
अर्थ: ब्रहमा ने अहंकार किया (कि मैं इतना बड़ा हूँ, मैं कमल की नाभि में से कैसे पैदा हो सकता हूँ?) उसने परमात्मा की बेअंतता को नहीं समझा। (जब उसका घमण्ड तोड़ने के लिए उसके) वेद चुराए जाने की बिपदा उस पर आ पड़ी तब वह पछताया (कि मैंने अपने आप को व्यर्थ ही इतना बड़ा समझा)। जब (उस विपदा के वक्त) उसने परमात्मा को स्मरण किया (तो परमात्मा ने उसकी सहायता की) तब उसे यकीन आया (कि परमात्मा ही सबसे बड़ा है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा गरबु बुरा संसारै ॥ जिसु गुरु मिलै तिसु गरबु निवारै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा गरबु बुरा संसारै ॥ जिसु गुरु मिलै तिसु गरबु निवारै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसारै = संसार में। निवारै = दूर करता है।1। रहाउ।
अर्थ: जगत में अहंकार एक ऐसा विकार है, जो बहुत बुरा है। (बड़े-बड़े कहलवाने वाले भी जब जब अहंकार में आए तो बहुत खुआर हुए)। जिस (भाग्यशाली मनुष्य) को गुरु मिल जाता है (गुरु) उसका अहंकार दूर कर देता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलि राजा माइआ अहंकारी ॥ जगन करै बहु भार अफारी ॥ बिनु गुर पूछे जाइ पइआरी ॥२॥

मूलम्

बलि राजा माइआ अहंकारी ॥ जगन करै बहु भार अफारी ॥ बिनु गुर पूछे जाइ पइआरी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बलि राजा = (एक दैंत राजा था। तप करके इसने सारे देवते जीत लिए। इंद्र की पदवी प्राप्त कर ली। इसने इकोत्र-सौ यज्ञ आरम्भ किए। आखिरी यज्ञ के निर्विघ्न समाप्ति पर इंद्र का तख्त छिन जाना था। इसने विष्णु से मदद मांगी। विष्णु ने बावन रूप धारण किया। ब्राहमण बल के राजे के यज्ञ-स्थल पे पहुँचा। कुटिया बनाने के लिए ढाई करम जगह माँगी। बल राजे के गुरु शुक्राचार्य ने मना किया कि ये छल है, इससे बचो। अपने दानी होने के अहंकार में गुरु का हुक्म नहीं माना, और ढाई करम धरती देना मान गया। ब्राहमण-रूप धारे विष्णु ने एक ही करम में सारी धरती, और दूसरे में सारा आकाश नाप लिया। आधे करम के वास्ते बलि ने अपना सिर पेश किया। विष्णु ने असकी छाती पर पैर रख के उसे पाताल में पहुँचा दिया। पाताल का राज भी दिया, प्रसन्न हो के। पर विष्णु को वहाँ इस राजे का दरबान बनना पड़ा)। जगन = यज्ञ। अफारी = अफर के। पइआरी = पाताल में।2।
अर्थ: राजे बलि को माया का गुमान हो गया। उसने बड़े यज्ञ किए। अहंकार प्रचण्ड हो गया। (इन्द्र का सिंहासन) छीनने के लिए उसने इकोत्र-सौ यज्ञ किये। अगर आखिरी यज्ञ निर्विघ्न सिरे चढ़ जाता, तो इन्द्र का राज भी छीन लेता। इंद्र ने विष्णु से सहायता मांगी। विष्णु ब्राहमण का रूप धारण करने दान मांगने आ गया। बलि के गुरु शुक्र ने बलि को समझाया कि ये छल है, इसमें ना फंसना। पर (माया के मान में) अपने गुरु की सालाह लिए बिना (उसने ब्राहमण-रूप धारी विष्णु को दान देना मान लिया और) पाताल में चला गया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरीचंदु दानु करै जसु लेवै ॥ बिनु गुर अंतु न पाइ अभेवै ॥ आपि भुलाइ आपे मति देवै ॥३॥

मूलम्

हरीचंदु दानु करै जसु लेवै ॥ बिनु गुर अंतु न पाइ अभेवै ॥ आपि भुलाइ आपे मति देवै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरीचंद = एक वचन-पाल धर्मी और दानी राजा। हरणाखसु = हर्णाकश्यप, मुल्तान का राजा। अभेवै = अभेव प्रभु का। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। हरीचंद = (हरिशचंद्र, एक वचन:पाल धर्मी और दानी राजा। पटना राजधानी। विशिष्ट इसका परोहित था। विशिष्ट ने विश्वामित्र के पास राजे के दान की शोभा बयान की। विश्वामित्र ने परीक्षा लेनी चाही। विशिष्ट की गैरहाजरी में राजे ने सारा राज दान कर दिया। दक्षिणा बन के राजा स्वयं उसकी रानी तारा और उसका पुत्र कांसी की मण्डी में बिके। राजे को शमशानघाट के ठेकेदार एक चूहड़े ने मूल्य ले लिया। रानी तारा और उसके पुत्र को एक ब्राहमण ने खरीद लिया। पुत्र सांप के डंक से मर गया। तारा शमशानघाट में पुत्र को जलाने के लिए ले गई। आगे मसूल लिए बगैर हरीचंद ने इजाजत नहीं दी। रानी के पास मसूल देने के पैसे नहीं थे। परीक्षा की हद हो गई। विश्वामित्र शर्मिंदा हुआ। राजे की जीत हुई, पर ये सारा कष्ट मिला क्योंकि राजे ने अपने गुरु विशिष्ट से सलाह नहीं ली)।3।
अर्थ: (राजा) हरिश्चंद्र (भी) बहुत दानी था, (दान की शोभा में ही मस्त रहा)। गुरु के बगैर वह भी ये ना समझ सका कि परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, उसका भेद नहीं पाया जा सकता (उसकी दृष्टि में बेअंत दानी हैं), (पर जीव के भी क्या वश?) परमात्मा खुद ही अक्ल देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुरमति हरणाखसु दुराचारी ॥ प्रभु नाराइणु गरब प्रहारी ॥ प्रहलाद उधारे किरपा धारी ॥४॥

मूलम्

दुरमति हरणाखसु दुराचारी ॥ प्रभु नाराइणु गरब प्रहारी ॥ प्रहलाद उधारे किरपा धारी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरणाखसु = हर्णाकश्यप, मुल्तान का राजा। जालिम होने के कारण दैंत कहलवाया। इसका पुत्र था प्रहिलाद। मुंद्राचल पर्वतों पर तप करके ब्रहमा से वर लिया था: ना दिन में मरूँ, ना रात मरूँ, ना घर के अंदर, ना घर के बाहर मरूँ, ना मनुष्य से मरूँ, ना देवताओं से मरूँ। इसने राज में हुक्म दे दिया कि मैं ही ईश्वर हूँ, मेरा नाम जपो। प्रहिलाद प्रभु का भक्त निकला। प्रहिलाद को कई कष्ट दिए। विष्णु ने नरसिंह का रूप धार के नाखूनों से मारा, (नर व सिंह का रूप)। दुराचारी = बुरे आचरण वाला। प्रहारी = नाश करने वाला।4।
अर्थ: बुरी मति के कारण हर्णाकश्यप दुराचारी हो गया (अत्याचार करने लग पड़ा)। पर, नारायण प्रभु स्वयं ही (अहंकारियों का) अहंकार दूर करने वाला है। उसने मेहर की और प्रहलाद की रक्षा की (हर्णाक्षस का गुमान तोड़ा)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूलो रावणु मुगधु अचेति ॥ लूटी लंका सीस समेति ॥ गरबि गइआ बिनु सतिगुर हेति ॥५॥

मूलम्

भूलो रावणु मुगधु अचेति ॥ लूटी लंका सीस समेति ॥ गरबि गइआ बिनु सतिगुर हेति ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचेति = अचेत पन में, मूर्खता में। सीस = सिर। गरबि = अहंकार के कारण। हेति = के कारण।5।
अर्थ: मूर्ख रावण बेसमझी में गलत रास्ते पर पड़ गया। (नतीजा ये निकला कि) उसकी लंका लूटी गई, और उसका सिर भी काट दिया गया। अहंकार के कारण, गुरु की शरण पड़े बिना अहंकार के मद में ही रावण तबाह हुआ।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहसबाहु मधु कीट महिखासा ॥ हरणाखसु ले नखहु बिधासा ॥ दैत संघारे बिनु भगति अभिआसा ॥६॥

मूलम्

सहसबाहु मधु कीट महिखासा ॥ हरणाखसु ले नखहु बिधासा ॥ दैत संघारे बिनु भगति अभिआसा ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहसबाहु = परशुराम के पिता जमदग्नि ऋषि का सांडू। ये राजा था। एक बार ऋषि ने राजे और उसकी सेना के भोजन की सेवा कामधेनु की सहायता से की। सहसबाहु ने कामधेनु काबू करनी चाही। लड़ाई हो गई। जमदाग्नि ऋषि मारा गया। जमदाग्नि के पुत्र परशुराम ने बदला लिया और सहसबाहु को मार दिया। मधु कीट = मधु, कैटभ ये दोनों दैंत्य विष्णु के कानों में से पैदा हुए। ये विष्णु ने ही मार दिए थे। महिखासा = (महिसासुर) राजा सुंभ नसुंभ का जरनैल, भैंसे की शक्ल, दुर्गा के हाथों मारा गया था। नखहु = नाखूनों से। बिधासा = फाड़ा।6।
अर्थ: सहसबाहु (को परशुराम ने मारा), मधु और कैटभ (को विष्णु ने मार दिया), महिसासुर (दुर्गा के हाथों मरा), हरणाखश को (नर सिंह ने) नाखूनों से मार दिया। ये सारे दैत्य प्रभु भक्ति के अभ्यास से वंचित रहने के कारण (अपनी मूर्खता की सजा भुगतते हुए) मारे गए।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरासंधि कालजमुन संघारे ॥ रकतबीजु कालुनेमु बिदारे ॥ दैत संघारि संत निसतारे ॥७॥

मूलम्

जरासंधि कालजमुन संघारे ॥ रकतबीजु कालुनेमु बिदारे ॥ दैत संघारि संत निसतारे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जरासंधि = बिहार उड़ीसा का एक राजा। कंस का ससुर। कंस का बदला लेने के लिए इसने कृष्ण जी पर हमला किया। भीम ने कृष्ण जी की सहायता से इसे दो-फाड़ चीर दिया था। जरासंधि = दो रानियों से दो हिस्सों में पैदा हुआ बताया गया है। रकतबीजु = सुंभ व नसुंभ का जरनैल। इसका दुर्गा के साथ युद्ध हुआ। घायल होने से जितने भी खून के कतरे धरती पर गिरते, उतने ही नए दैंत्य पैदा हो जाते। दुर्गा ने अपने माथे में से एक काली देवी कालिका निकाली। कालिका रक्तबीज के लहू के कतरे साथ-साथ पीती गई। आखिर दुर्गा ने रक्तबीज को मारा। कालुनेमु = राजा बलि का मुख्य योद्ध। विष्णु ने त्रिशूल से इसका सिर काटा था। कालजमुन = जरासंधि का साथी था। कृष्ण जी ने मारा।7।
अर्थ: परमात्मा ने दैत्य मार के संतों की रक्षा की। जरासंधि व कालजमुन (कृष्ण के हाथों) मारे गए। रक्तबीज (दुर्गा के हाथों) मरा। कालनेम (विष्णु के त्रिशूल से) चीरा गया (इन अहंकारियों को इनके अहंकार ने ही ले लिया)।7।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे सतिगुरु सबदु बीचारे ॥ दूजै भाइ दैत संघारे ॥ गुरमुखि साचि भगति निसतारे ॥८॥

मूलम्

आपे सतिगुरु सबदु बीचारे ॥ दूजै भाइ दैत संघारे ॥ गुरमुखि साचि भगति निसतारे ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूजै भाइ = प्रभु को त्याग के किसी और के प्रेम में।8।
अर्थ: (इस सारी खेल का मालिक परमात्मा) खुद ही गुरु रूप हो के अपनी महिमा की वाणी को विचारता है, खुद ही दैत्यों को माया के मोह में फंसा के मारता है, खुद ही गुरु की शरण पड़े लोगों को अपने स्मरण में अपनी भक्ति मेुं जोड़ के (संसार समुंदर से) पार लंघाता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बूडा दुरजोधनु पति खोई ॥ रामु न जानिआ करता सोई ॥ जन कउ दूखि पचै दुखु होई ॥९॥

मूलम्

बूडा दुरजोधनु पति खोई ॥ रामु न जानिआ करता सोई ॥ जन कउ दूखि पचै दुखु होई ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पति = इज्जत। दुरजोधनु = धृतराष्ट् का बड़ा बेटा जो बड़ा अहंकारी व लोभी था। इसी ने पांडवों से जूए में दगा-फरेब से राज छीना था। आखिर पांडवों के हाथों युद्ध में मारा गया।9।
अर्थ: दुर्योधन (अहंकार में) डूबा, और अपनी इज्जत गवा बैठा। (अहंकार में आ के) उसने परमात्मा को कर्तार को याद ना रखा (इस हद तक गिरा कि अनाथ द्रोपदी को बेआबरू करने पर उतर आया)। पर जो परमात्मा के दास को (दुख देता है वह उस) दुख के कारण खुद ही खुआर होता है। उसे खुद ही वह दुख (मार) देता है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनमेजै गुर सबदु न जानिआ ॥ किउ सुखु पावै भरमि भुलानिआ ॥ इकु तिलु भूले बहुरि पछुतानिआ ॥१०॥

मूलम्

जनमेजै गुर सबदु न जानिआ ॥ किउ सुखु पावै भरमि भुलानिआ ॥ इकु तिलु भूले बहुरि पछुतानिआ ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनमेजै = (जनमेजा) परीक्षित का पुत्र, एक प्रसिद्ध राजा था। इसके पिता परीक्षित को तक्शक साँप ने डस लिया था। जनमेजा साँपों का वैरी बना। सर्पमेध यज्ञ करके अनेक साँप मारे। ब्यास इसका गुरु था। एक बार अश्वमेध यज्ञ इसने किया। इसकी स्त्री बहुत ही बारीक वस्त्रों में वहाँ आई। भोजन खाने आए अठारह ब्राहमण ये देख के हस पड़े। राजा ने कत्ल करा दिए। ब्रहम् हत्या के कारण, कुष्ठ हो गया। महाभारत की कथा सुनी। कुष्ठ हटता गया। जब ये सुना कि भीम ने जो हाथी आकाश में फेंके थे अभी तक वापस नहीं गिरे तो जनमेजे ने शक किया। कुष्ठ अंगूठे पर ही टिक गया।10।
अर्थ: राजा जनमेजा ने अपने गुरु की शिक्षा को ना समझा (अपने धन और अक्ल पर गुमान किया। अहंकार के कारण) भुलेखे में पड़ के गलत राह पड़ गया, फिर सुख कहाँ मिलता? (गुरु ने समझा के कुष्ठ की भारी बिपदा से बचाने का उद्यम किया, पर फिर भी) थोड़ा सा थिरक गया, और फिर पछताया। (अहंकार बड़े बड़े समझदारों की अक्ल को चक्कर में डाल देता है)।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंसु केसु चांडूरु न कोई ॥ रामु न चीनिआ अपनी पति खोई ॥ बिनु जगदीस न राखै कोई ॥११॥

मूलम्

कंसु केसु चांडूरु न कोई ॥ रामु न चीनिआ अपनी पति खोई ॥ बिनु जगदीस न राखै कोई ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंसु = उग्रसेन का पुत्र, कृष्ण का मामा। कृष्ण जी के हाथों मारा गया। केसु = केसी, कंस का पहलवान। कृष्ण जी ने मारा था। चांडूरु = कंस का योद्धा, कृष्ण जी ने मारा था।11।
अर्थ: कंस, केसी और चांडूर (महान योद्धा थे, शूरबीरता में इनके बराबर का) और कोई नहीं था। (पर अपने ताकत के अहंकार में) इन्होंने परमात्मा की लीला को नहीं समझा और अपनी इज्जत गवा ली। (अपनी शक्ति का मान झूठा है। ये ताकत कोई मदद नहीं करती) ईश्वर के बिना और कोई (किसी की) रक्षा नहीं कर सकता।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु गुर गरबु न मेटिआ जाइ ॥ गुरमति धरमु धीरजु हरि नाइ ॥ नानक नामु मिलै गुण गाइ ॥१२॥९॥

मूलम्

बिनु गुर गरबु न मेटिआ जाइ ॥ गुरमति धरमु धीरजु हरि नाइ ॥ नानक नामु मिलै गुण गाइ ॥१२॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाइ = नाम में जुड़ने से।12।
अर्थ: (अहंकार बड़ा बलशाली है) गुरु की शरण पड़े बिना इस अहंकार को (अंदर से) मिटाया नहीं जा सकता। जो मनुष्य गुरु की शिक्षा धारण करता है वह (अहंकार मिटा के) धीरज धारता है। (धैर्य बहुत ऊँचा) धर्म है। हे नानक! गुरु की शिक्षा पर चलने से ही परमात्मा का नाम प्राप्त होता है, और जीव परमात्मा की महिमा करता है।12।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ चोआ चंदनु अंकि चड़ावउ ॥ पाट पट्मबर पहिरि हढावउ ॥ बिनु हरि नाम कहा सुखु पावउ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ चोआ चंदनु अंकि चड़ावउ ॥ पाट पट्मबर पहिरि हढावउ ॥ बिनु हरि नाम कहा सुखु पावउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चोआ = इत्र। अंकि = शरीर पर। चढ़ावउ = (अगर) मैं लगा लूँ। पाट = रेशम। पटंबर = (पट+अंबर; पट = रेशम; अंबर = कपड़े) रेशम के कपड़े। पहिरि = पहिन के। पावउ = मैं पाऊँ, मैं पा सकता हूँ।1।
अर्थ: अगर मैं इत्र और चंदन अपने तन पर लगा लूँ, अगर मैं रेशम व रेशमी कपड़े पहनूँ, (फिर भी) अगर मैं परमात्मा के नाम से वंचित हूँ, तो कहीं भी मुझे सुख नहीं मिल सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ पहिरउ किआ ओढि दिखावउ ॥ बिनु जगदीस कहा सुखु पावउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किआ पहिरउ किआ ओढि दिखावउ ॥ बिनु जगदीस कहा सुखु पावउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ पहिरउ = बढ़िया कपड़े पहनने से क्या लाभ? ओढि = पहन के। जगदीस = जगत का मालिक।1। रहाउ।
अर्थ: बढ़िया बढ़िया कपड़े पहनने और पहन कर दूसरों को दिखाने से क्या लाभ है? परमात्मा (के चरणों में जुड़े) बिनां कहीं और सुख नहीं मिल सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कानी कुंडल गलि मोतीअन की माला ॥ लाल निहाली फूल गुलाला ॥ बिनु जगदीस कहा सुखु भाला ॥२॥

मूलम्

कानी कुंडल गलि मोतीअन की माला ॥ लाल निहाली फूल गुलाला ॥ बिनु जगदीस कहा सुखु भाला ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कानी = कानों में। गलि = गले में। लाल निहाली = लाल रंग की तुलाई (गद्दा)। फूल गुलाला = गुलाल के फूल।2।
अर्थ: अगर मैं अपने कानों में कुण्डल डाल लूँ, गले में मोतियों की माला पहन लूँ, मेरे लाल रंग गद्दे पर गुलाल के फूल (बिखरे हुए) हों, (फिर भी) परमात्मा के स्मरण के बिना मुझे कहीं भी सुख नहीं मिल सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैन सलोनी सुंदर नारी ॥ खोड़ सीगार करै अति पिआरी ॥ बिनु जगदीस भजे नित खुआरी ॥३॥

मूलम्

नैन सलोनी सुंदर नारी ॥ खोड़ सीगार करै अति पिआरी ॥ बिनु जगदीस भजे नित खुआरी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नैन = आँखें। सलोनी = सुंदर लोइण वाली, सुंदर आँखों वाली। खोड़ = सोलह। बिनु भजे = स्मरण के बिना।3।
अर्थ: अगर सुंदर आँखों वाली खूबसूरत मेरी स्त्री हो, वह सोलह तरह के हार-श्रृंगार करती हो, और मुझे बहुत प्यारी लगती हो; फिर भी जगत के मालिक प्रभु का स्मरण किए बगैर सदा ख्वारी ही होती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर घर महला सेज सुखाली ॥ अहिनिसि फूल बिछावै माली ॥ बिनु हरि नाम सु देह दुखाली ॥४॥

मूलम्

दर घर महला सेज सुखाली ॥ अहिनिसि फूल बिछावै माली ॥ बिनु हरि नाम सु देह दुखाली ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महला = महल माढ़ीयां। सुखली = सुख देने वाली। अहि = दिन। निसि = रात। दुखाली = दुखों का घर।4।
अर्थ: अगर मेरे पास बसने के लिए महिल-माढ़ियां हों, सुख देने वाला मेरा पलंघ हो, उस पर माली दिन रात फूल बिछाता रहे, (फिर भी) परमात्मा के नाम स्मरण के बगैर ये शरीर दुखों का घर ही बना रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हैवर गैवर नेजे वाजे ॥ लसकर नेब खवासी पाजे ॥ बिनु जगदीस झूठे दिवाजे ॥५॥

मूलम्

हैवर गैवर नेजे वाजे ॥ लसकर नेब खवासी पाजे ॥ बिनु जगदीस झूठे दिवाजे ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हैवर = हय+वर, बढ़िया घोड़े। गैवर = (गज+वर) बढ़िया हाथी। नेब = नायब। खवासी = शाही नौकर। पाजे = पाज, दिखावा। दिवाजे = दिखावे।5।
अर्थ: अगर मेरे पास बढ़िया घोड़े हाथी हों, शस्त्रों से लेस फौजें हों, लश्कर हों, हायब हों, शाही नौकर हों, ये सारा दिखावा हो, (फिर भी) जगत के मालिक परमात्मा का स्मरण किए बिना ये (शक्ति के) दिखावे नाशवान ही हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिधु कहावउ रिधि सिधि बुलावउ ॥ ताज कुलह सिरि छत्रु बनावउ ॥ बिनु जगदीस कहा सचु पावउ ॥६॥

मूलम्

सिधु कहावउ रिधि सिधि बुलावउ ॥ ताज कुलह सिरि छत्रु बनावउ ॥ बिनु जगदीस कहा सचु पावउ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिधु = करामाती योगी। कहावउ = अगर मैं कहलाऊँ। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। कुलह = टोपी। सिरि = सिर पर। सचु = सदा स्थिर रहने वाला (राज-भाग)।6।
अर्थ: अगर मैं (अपने आप को) करामाती साधु कहला लूँ, (जब चाहूँ) चमत्कारी शक्तियों को (अपने पास) बुला सकूँ। मेरे सिर पर ताज की टोपी हो, मैं अपने सिर पर (शाही) छत्र झुला सकूँ, (फिर भी) जगत के मालिक प्रभु के स्मरण के बिना सदा टिके रहने वाली (आत्मिक) शक्ति कहीं से हासिल नहीं कर सकता।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खानु मलूकु कहावउ राजा ॥ अबे तबे कूड़े है पाजा ॥ बिनु गुर सबद न सवरसि काजा ॥७॥

मूलम्

खानु मलूकु कहावउ राजा ॥ अबे तबे कूड़े है पाजा ॥ बिनु गुर सबद न सवरसि काजा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मलूक = बादशाह। अबे तबे = नौकरों को झिड़कें। कूड़े = झूठे, नाशवान। काजा = जीवन उद्देश्य।7।
अर्थ: यदि मैं अपने आप को खान कहलवा लूँ, बादशाह कहलवाऊँ, राजा कहलाऊँ, नौकरों चाकरों को डांट-फटकार भी दे सकूँ, (ताकत का सारा ये) दिखावा नाश हो जाने वाला है। गुरु के शब्द का आसरा लिए बिना मानव जीवन का उद्देश्य सिरे नहीं चढ़ता।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै ममता गुर सबदि विसारी ॥ गुरमति जानिआ रिदै मुरारी ॥ प्रणवति नानक सरणि तुमारी ॥८॥१०॥

मूलम्

हउमै ममता गुर सबदि विसारी ॥ गुरमति जानिआ रिदै मुरारी ॥ प्रणवति नानक सरणि तुमारी ॥८॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ममता = मल्कियत की तमन्ना। सबदि = शब्द से। गुरमति = गुरु की शिक्षा से। मुरारी = मुर+अरि, परमात्मा।8।
अर्थ: मैं बड़ा बन जाऊँ, और मेरी बहुत सारी मल्कियतें हों -ये चाहत गुरु के शब्द में जुड़ने से ही मन से भूलती हैं। गुरु की मति पर चलने से ही परमात्मा हृदय में टिका पहचाना जा सकता है। (पर, ये सब कुछ तभी हो सकता है अगर परमात्मा की अपनी मेहर हो। इस वास्ते) नानक प्रभु-दर पे विनती करता है - (हे प्रभु!) मैं तेरी शरण आया हूँ।8।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ सेवा एक न जानसि अवरे ॥ परपंच बिआधि तिआगै कवरे ॥ भाइ मिलै सचु साचै सचु रे ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ सेवा एक न जानसि अवरे ॥ परपंच बिआधि तिआगै कवरे ॥ भाइ मिलै सचु साचै सचु रे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एक = एक परमात्मा की। परपंच = सृष्टि। बिआधि = रोग। कवरे = कड़वे। भाइ = प्रेम में। साचै = सदा स्थिर प्रभु को। रे = हे भाई!।1।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का भक्त एक परमात्मा की सेवा (भक्ति) करता है, किसी और को वह (परमात्मा के बराबर का) नहीं समझता। संसार के रोग (पैदा करने वाले भोगों) को वह कड़वा जान के त्याग देता है। (परमात्मा के) प्रेम में जुड़ के वह सदा स्थिर परमात्मा (के चरणों) में मिल जाता है, वह सदा स्थिर प्रभु का रूप हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसा राम भगतु जनु होई ॥ हरि गुण गाइ मिलै मलु धोई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ऐसा राम भगतु जनु होई ॥ हरि गुण गाइ मिलै मलु धोई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राम भगतु = परमात्मा का भक्त। गाइ = गा के।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा का भक्त परमात्मा का सेवक इस तरह का होता है, वह परमात्मा के गुण गा के (उसके चरणों में) मिलता है और (अपने मन के विकारों की) मैल धो लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊंधो कवलु सगल संसारै ॥ दुरमति अगनि जगत परजारै ॥ सो उबरै गुर सबदु बीचारै ॥२॥

मूलम्

ऊंधो कवलु सगल संसारै ॥ दुरमति अगनि जगत परजारै ॥ सो उबरै गुर सबदु बीचारै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊंधो = उलटा, उध्र्व (परमात्मा की याद से बेमुख हुआ)। संसारै = संसार का। परजारै = अच्छी तरह जलाती है। सो = वह मनुष्य।2।
अर्थ: सारे जगत (के जीवों) का हृदय कमल (परमात्मा के नाम जपने की ओर से) उल्टा हुआ है। इस बुरी अनुचित मति की आग संसार (के जीवों के आत्मिक जीवन) को अच्छी तरह जला रही है। (इस आग में से) वही मनुष्य बचता है जो गुरु के शब्द को विचारता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रिंग पतंगु कुंचरु अरु मीना ॥ मिरगु मरै सहि अपुना कीना ॥ त्रिसना राचि ततु नही बीना ॥३॥

मूलम्

भ्रिंग पतंगु कुंचरु अरु मीना ॥ मिरगु मरै सहि अपुना कीना ॥ त्रिसना राचि ततु नही बीना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भ्रिंग = भृंग, भंवरा। कुंचरु = हाथी। अरु = और। मीना = मछली। मिरग = हिरन। सहि = सह के। राचि = रच के, फस के। ततु = अस्लियत। बीना = पहचाना, देखा।3।
अर्थ: भंवरा, पतंगा, हाथी, मछली और हिरन - हरेक अपना अपना किया पा के मर जाते हैं। (इसी तरह दुरमति का मारा मनुष्य) तृष्णा में फंस के अपने असल (परमात्मा) को नहीं देखता (और आत्मिक मौत मरता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामु चितै कामणि हितकारी ॥ क्रोधु बिनासै सगल विकारी ॥ पति मति खोवहि नामु विसारी ॥४॥

मूलम्

कामु चितै कामणि हितकारी ॥ क्रोधु बिनासै सगल विकारी ॥ पति मति खोवहि नामु विसारी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चितै = चितवता है। हितकारी = हित करने वाला, प्रेमी। कामणि = स्त्री। विकारी = विकारियों को। पति = इज्जत। विसारी = बिसार के, भुला के।4।
अर्थ: (दुरमति के अधीन हो के) स्त्री का प्रेमी मनुष्य सदा काम-वासना ही चितवता है। (फिर) क्रोध सारे विकारियों (के आत्मिक जीवन) को तबाह करता है। ऐसे मनुष्य प्रभु का नाम भुला के अपनी इज्जत और अक्ल गवा लेते हैं।4।

[[0226]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर घरि चीतु मनमुखि डोलाइ ॥ गलि जेवरी धंधै लपटाइ ॥ गुरमुखि छूटसि हरि गुण गाइ ॥५॥

मूलम्

पर घरि चीतु मनमुखि डोलाइ ॥ गलि जेवरी धंधै लपटाइ ॥ गुरमुखि छूटसि हरि गुण गाइ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पर घरि = पराए घर में। गलि = गले में। जेवरी = जंजीर, रस्सी, फांसी।5।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पराए घर में अपने चिक्त को डुलाता है (नतीजा ये निकलता है कि विकारों के) जंजाल में वह फंसता है और उसके गले में विकारों की जंजीर (पक्की होती जाती है)। जो मनुष्य गुरु के बताए रास्ते पर चलता है, वह परमात्मा की महिमा करके इस जंजाल में से बच निकलता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ तनु बिधवा पर कउ देई ॥ कामि दामि चितु पर वसि सेई ॥ बिनु पिर त्रिपति न कबहूं होई ॥६॥

मूलम्

जिउ तनु बिधवा पर कउ देई ॥ कामि दामि चितु पर वसि सेई ॥ बिनु पिर त्रिपति न कबहूं होई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पर कउ = पराए (मनुष्य) को। कामि = काम में। दामि = दाम (के लालच) में। सेई = वही, वह विधवा। त्रिपति = शांति।6।
अर्थ: जैसे विधवा अपना शरीर पराए मनुष्य के हवाले करती है, काम-वासना में (फंस के) पैसे (के लालच) में (फंस के) वह अपना मन (भी) पराए मनुष्य के वश में करती है, पर पति के बिना उसे कभी भी शांति नसीब नहीं हो सकती (ऐसे ही पति प्रभु को भुलाने वाली जीव-स्त्री अपना आप विकारों के अधीन करती है, पर पति प्रभु के बिना आत्मिक सुख कभी नहीं मिल सकता)।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पड़ि पड़ि पोथी सिम्रिति पाठा ॥ बेद पुराण पड़ै सुणि थाटा ॥ बिनु रस राते मनु बहु नाटा ॥७॥

मूलम्

पड़ि पड़ि पोथी सिम्रिति पाठा ॥ बेद पुराण पड़ै सुणि थाटा ॥ बिनु रस राते मनु बहु नाटा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थाटा = बनावट, रचना। नाटा = नाटक, चंचलता की बातें।7।
अर्थ: (विद्वान पंडित) वेद-पुराण-स्मृतियां आदिक धर्म पुस्तकें बारंबार पढ़ता है, उनकी (काव्य) रचना बार बार सुनता है, पर जब तक उसका मन परमात्मा के नाम रस का रसिया नहीं बनता, तब तक (माया के हाथों पर ही) नाच करता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ चात्रिक जल प्रेम पिआसा ॥ जिउ मीना जल माहि उलासा ॥ नानक हरि रसु पी त्रिपतासा ॥८॥११॥

मूलम्

जिउ चात्रिक जल प्रेम पिआसा ॥ जिउ मीना जल माहि उलासा ॥ नानक हरि रसु पी त्रिपतासा ॥८॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहा। उलासा = खुश। पी = पी कर। त्रिपतासा = तृप्त होता है, संतुष्ट होता है।8।
अर्थ: जैसे पपीहे का (वर्षा-) जल से प्रेम है, (वर्षा-) जल की उसे प्यास है। जैसे मछली पानी में बहुत प्रसन्न रहती है, वैसे ही, हे नानक! परमात्मा का भक्त परमात्मा का नाम-रस पी के तृप्त हो जाता है।8।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ हठु करि मरै न लेखै पावै ॥ वेस करै बहु भसम लगावै ॥ नामु बिसारि बहुरि पछुतावै ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ हठु करि मरै न लेखै पावै ॥ वेस करै बहु भसम लगावै ॥ नामु बिसारि बहुरि पछुतावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = करके। मरै = मरता है, दुखी होता है। लेखै = लेखे में। न लेखै पावै = किसी गिनती में नहीं गिना जाता। वेस = धार्मिक वेष। भसम = राख। बिसारि = विसार के। बहुरि = दुबारा, अंत को।1।
अर्थ: (अगर कोई मनुष्य मन का हठ करके धूणियां आदि तपा के) शारीरिक मुश्कलें बर्दाश्त करता है, तो उसका ये कष्ट सहना किसी गिनती में नहीं गिना जाता। अगर कोई मनुष्य (शरीर पर) राख मलता है और (योग आदि के) कई भेस करता है (ये भी व्यर्थ जाते हैं)। परमात्मा का नाम भुला के वह अंत को पछताता है (कि इन उद्यमों में जीवन व्यर्थ गवाया)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं मनि हरि जीउ तूं मनि सूख ॥ नामु बिसारि सहहि जम दूख ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तूं मनि हरि जीउ तूं मनि सूख ॥ नामु बिसारि सहहि जम दूख ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में (बसा लो)।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) तू (अपने) मन में प्रभु जी को (बसा ले, और इस तरह) तू (अपने) मन में (आत्मिक) आनंद (ले)। (याद रख) परमात्मा के नाम को भुला के तू जमों के दुख सहेगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चोआ चंदन अगर कपूरि ॥ माइआ मगनु परम पदु दूरि ॥ नामि बिसारिऐ सभु कूड़ो कूरि ॥२॥

मूलम्

चोआ चंदन अगर कपूरि ॥ माइआ मगनु परम पदु दूरि ॥ नामि बिसारिऐ सभु कूड़ो कूरि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चोआ = इत्र। कपूरि = कपूर (आदि के इस्तेमाल) में (मगन)। मगन = मस्त। परम पदु = सब से ऊँची आत्मिक अवस्था। नामि बिसारिऐ = अगर (परमात्मा का) नाम बिसार दिया जाए। कूड़ो = झूठ ही, व्यर्थ ही। कूरि = झूठ में, व्यर्थ प्रयत्नों में।2।
अर्थ: (दूसरी तरफ अगर कोई मनुष्य) इत्र, चंदन, अगर, कपूर (आदि सुगंधियों के प्रयोग में) मस्त है, माया के मोह में मस्त है, तो उच्च आत्मिक अवस्था (उससे भी) दूर है। अगर प्रभु का नाम भुला दिया जाए, तो ये सारा (दुनिया वाली ऐश भी) व्यर्थ है (सुख नहीं मिलता, मनुष्य सुख के) व्यर्थ प्रयत्नों में रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेजे वाजे तखति सलामु ॥ अधकी त्रिसना विआपै कामु ॥ बिनु हरि जाचे भगति न नामु ॥३॥

मूलम्

नेजे वाजे तखति सलामु ॥ अधकी त्रिसना विआपै कामु ॥ बिनु हरि जाचे भगति न नामु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तखति = तख्त पर। अधकी = बहुत। विआपै = जोर डालता है। जाचे = मांगने से।3।
अर्थ: (अगर कोई मनुष्य राजा भी बन जाए) तख्त पर (बैठे हुए को) नेजा-बरदार फौजी व बाजे वाले सलामें करें, तो भी माया की तृष्णा ही बढ़ती है, काम-वासना जोर डालती है (इनमें आत्मिक सुख नहीं है! सुख है केवल प्रभु के नाम में भक्ति में)। पर प्रभु के दर से मांगे बिना ना तो भक्ति मिलती है ना ही नाम मिलता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वादि अहंकारि नाही प्रभ मेला ॥ मनु दे पावहि नामु सुहेला ॥ दूजै भाइ अगिआनु दुहेला ॥४॥

मूलम्

वादि अहंकारि नाही प्रभ मेला ॥ मनु दे पावहि नामु सुहेला ॥ दूजै भाइ अगिआनु दुहेला ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वादि = झगड़े मे। अहंकारि = अहंकार में। दे = दे कर। पावहि = तू हासिल करेगा। सुहेला = सुख+आलय, सुख का घर, सुख का श्रोत। दुहेला = दुख+आलय, दुखों का घर, दुखदाई।4।
अर्थ: (विद्या के बल पर धार्मिक पुस्तकों की चर्चा के) झगड़े में (पड़ने से) (व विद्या के) अहंकार में (भी) परमात्मा का मिलाप नहीं होता। (हे भाई!) अपना मन दे के (ही, अहंकार गवा के ही) सुखों का श्रोत प्रभु नाम प्राप्त करेगा। (प्रभु को बिसार के) और ही प्यार में रहने से दुखद अज्ञान ही बढ़ेगा।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु दम के सउदा नही हाट ॥ बिनु बोहिथ सागर नही वाट ॥ बिनु गुर सेवे घाटे घाटि ॥५॥

मूलम्

बिनु दम के सउदा नही हाट ॥ बिनु बोहिथ सागर नही वाट ॥ बिनु गुर सेवे घाटे घाटि ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दम = धन-पदार्थ। बोहिथ = जहाज। सागर वाट = समुंदर का सफर। घाटे घाटि = घाटे में ही, नुकसान में ही।5।
अर्थ: जैसे रास पूंजी के बिना दुकान का सौदा नहीं लिया जा सकता, वैसे ही जहाज के बिना समुंदर का सफर नहीं हो सकता, वैसे ही गुरु की शरण पड़े बिना (जीवन सफर में आत्मिक राशि-पूंजी की तरफ से) घाटे ही घाटे में रहना पड़ता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिस कउ वाहु वाहु जि वाट दिखावै ॥ तिस कउ वाहु वाहु जि सबदु सुणावै ॥ तिस कउ वाहु वाहु जि मेलि मिलावै ॥६॥

मूलम्

तिस कउ वाहु वाहु जि वाट दिखावै ॥ तिस कउ वाहु वाहु जि सबदु सुणावै ॥ तिस कउ वाहु वाहु जि मेलि मिलावै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वाहु वाहु = धन्य धन्य (कहो)। जि = जो (गुरु)। मेलि = (प्रभु के) मिलाप में।6।
अर्थ: (हे भाई!) उस पूरे गुरु को धन्य-धन्य कह जो सही जीवन-राह दिखाता है, जो परमात्मा की महिमा के शब्द सुनाता है, और (इस तरह) जो परमात्मा के मिलाप में मिला देता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाहु वाहु तिस कउ जिस का इहु जीउ ॥ गुर सबदी मथि अम्रितु पीउ ॥ नाम वडाई तुधु भाणै दीउ ॥७॥

मूलम्

वाहु वाहु तिस कउ जिस का इहु जीउ ॥ गुर सबदी मथि अम्रितु पीउ ॥ नाम वडाई तुधु भाणै दीउ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिस कउ = उस (परमातमा) को। जीउ = जीवातमा, जिंद। मथि = मंथन करके, रिड़क के, अच्छी तरह विचार के। तुधु = तुझे। भाणै = अपनी रजा में। दीउ = देगा।7।
अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा की महिमा कर जिसकी (दी हुई) ये जिंद है। गुरु के शब्द के द्वारा (परमात्मा के गुणों को) बार बार विचार के आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस पी। वह प्रभु तुझे अपनी रजा में नाम जपने का बड़प्पन देगा।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम बिना किउ जीवा माइ ॥ अनदिनु जपतु रहउ तेरी सरणाइ ॥ नानक नामि रते पति पाइ ॥८॥१२॥

मूलम्

नाम बिना किउ जीवा माइ ॥ अनदिनु जपतु रहउ तेरी सरणाइ ॥ नानक नामि रते पति पाइ ॥८॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवा = जीऊँ, मैं जी सकूँ। माइ = हे माँ! अनदिनु = हररोज। जपतु रहउ = जपता रहूँ। नामि = नाम में। नामि रहे = अगर नाम (रंग) में रंगे रहें। पति = इज्जत।8।
अर्थ: हे मेरी माँ! परमात्मा के नाम के बिना मैं (आत्मिक जीवन) जी नहीं सकता।
हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ, (मेहर कर) मैं दिन रात तेरा ही नाम जपता रहूँ।
हे नानक! अगर प्रभु के नाम-रंग में रंगे रहें, तभी (लोक-परलोक में) आदर-मान मिलता है।8।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ हउमै करत भेखी नही जानिआ ॥ गुरमुखि भगति विरले मनु मानिआ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ हउमै करत भेखी नही जानिआ ॥ गुरमुखि भगति विरले मनु मानिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउमै = “हउ हउ, मैं मैं”, “मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा बन जाऊँ”। करत = करते हुएं। भेखी = धार्मिक भेषों से। जानिआ = परमात्मा के साथ सांझ डाली। मानिआ = मान गया, पतीज गया, गिझ गया।1।
अर्थ: (“मैं धर्मी हूँ मैं धर्मी हूँ” ये) मैं मैं करते हुए (निरे) धार्मिक वेष से कभी किसी ने परमात्मा के साथ गहरी सांझ नहीं डाली। गुरु की शरण पड़ कर ही (भाव, गुरु के आगे स्वैभाव त्याग के ही) परमात्मा की भक्ति में मन रमता है। पर, ऐसा स्वैभाव त्यागने वाला कोई एक-आध ही होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ हउ करत नही सचु पाईऐ ॥ हउमै जाइ परम पदु पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ हउ करत नही सचु पाईऐ ॥ हउमै जाइ परम पदु पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।1। रहाउ।
अर्थ: (मैं बड़ा धर्मी हूँ, मैं बड़ा राजा हूँ, ऐसी) मैं मैं करते हुए (कभी) सदा कायम रहने वाला परमात्मा मिल नहीं सकता। जब ये अहंकार दूर हो, तब ही सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर सकते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै करि राजे बहु धावहि ॥ हउमै खपहि जनमि मरि आवहि ॥२॥

मूलम्

हउमै करि राजे बहु धावहि ॥ हउमै खपहि जनमि मरि आवहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = करके, के कारण। धावहि = (एक दूसरे पर) हमले करते हैं। खपहि = खुआर होते हैं।2।
अर्थ: (‘हम बड़े राजा है”, इसी) अहंकार के कारण ही राजे एक दूसरे के (देशों पर) कई बार हमले करते रहते हैं अपने बड़प्पन के गुमान में दुखी होते हैं (नतीजा ये निकलता है कि प्रभु की याद भुला के) जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै निवरै गुर सबदु वीचारै ॥ चंचल मति तिआगै पंच संघारै ॥३॥

मूलम्

हउमै निवरै गुर सबदु वीचारै ॥ चंचल मति तिआगै पंच संघारै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निवरै = दूर होती है। पंच = कामादिक पाँचों को। संघारै = नाश करता है, मारता है।3।
अर्थ: जो (भाग्यशाली) मनुष्य गुरु का शब्द विचारता है (अपने सोच मण्डल में टिकाता है) उसका अहंकार दूर हो जाता है, वह (भटकना में डालने वाली अपनी) होछी मति त्यागता है, और कामादिक पाँचों वैरियों का नाश करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि साचु सहज घरि आवहि ॥ राजनु जाणि परम गति पावहि ॥४॥

मूलम्

अंतरि साचु सहज घरि आवहि ॥ राजनु जाणि परम गति पावहि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर प्रभु। सहज घरि = सहज के घर में, शांत अवस्था में। राजनु = सारी सृष्टि का राजा प्रभु। जाणि = सांझ डाल के। परम गति = सबसे उच्च आत्मिक अवस्था।4।
अर्थ: जिस लोगों के हृदय में सदा कायम रहने वाला परमात्मा (बसता) है, वे अडोल आत्मिक अवस्था में टिके रहते हैं। सारी सृष्टि के मालिक प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल के वे सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल करते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु करणी गुरु भरमु चुकावै ॥ निरभउ कै घरि ताड़ी लावै ॥५॥

मूलम्

सचु करणी गुरु भरमु चुकावै ॥ निरभउ कै घरि ताड़ी लावै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरभउ कै घरि = निर्भय प्रभु के स्वरूप में। ताड़ी लावै = तवज्जो जोड़ता है।5।
अर्थ: जिस मनुष्य के मन की भटकन गुरु दूर करता है, सदा स्थिर प्रभु का स्मरण उस का नित्य कर्म बन जाता है, वह निर्भव प्रभु के चरणों में सदा अपनी तवज्जो जोड़े रखता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ हउ करि मरणा किआ पावै ॥ पूरा गुरु भेटे सो झगरु चुकावै ॥६॥

मूलम्

हउ हउ करि मरणा किआ पावै ॥ पूरा गुरु भेटे सो झगरु चुकावै ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरणा = आत्मिक मौत लेना। किआ पावै = कोई आत्मिक गुण प्राप्त नहीं होता। भेटे = मिले। झगरु = अहंकार के मसले।6।
अर्थ: “हउ हउ, मैं मैं” के कारण आत्मिक मौत ही मिलती है, इससे और कोई आत्मिक गुण नहीं मिलता। जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है, वह अहंकार के इस मसले को अंदर से खत्म कर लेता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेती है तेती किहु नाही ॥ गुरमुखि गिआन भेटि गुण गाही ॥७॥

मूलम्

जेती है तेती किहु नाही ॥ गुरमुखि गिआन भेटि गुण गाही ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेती है = अहंकार के आसरे जितनी भी दौड़ भाग है। तेती = ये सारी दौड़ भाग। किहु नाही = कुछ भी नहीं, कोई आत्मिक लाभ नहीं पहुँचाती, व्यर्थ जाती है। गिआन भेटि = ज्ञान को प्राप्त करके।7।
अर्थ: अहंकार के आसरे जितनी भी दौड़ भाग है ये सारी दौड़भाग कोई आत्मिक लाभ नहीं पहुँचाती। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (गुरु से) ज्ञान प्राप्त करके परमात्मा के गुण गाते हैं।7।

[[0227]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै बंधन बंधि भवावै ॥ नानक राम भगति सुखु पावै ॥८॥१३॥

मूलम्

हउमै बंधन बंधि भवावै ॥ नानक राम भगति सुखु पावै ॥८॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बंधन बंधि = बंधनों में बंध के।8।
अर्थ: अहंकार (जीवों को मोह के) बंधनों में बाँध के जनम मरण के चक्कर में डालती है। जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है (वह अहंकार से बचा रहता है, और) सुख पाता है।8।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ प्रथमे ब्रहमा कालै घरि आइआ ॥ ब्रहम कमलु पइआलि न पाइआ ॥ आगिआ नही लीनी भरमि भुलाइआ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ प्रथमे ब्रहमा कालै घरि आइआ ॥ ब्रहम कमलु पइआलि न पाइआ ॥ आगिआ नही लीनी भरमि भुलाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रथमे = सबसे पहले। कालै घरि = काल के घर में, मौत के सहम में। पइआलि = पाताल में। ब्रहम कमलु = विष्णु का कमल, विष्णु की नाभि में से उगे हुए कमल का अंत। भरमि = भटकना में। भुलाइआ = गलत रास्ते पड़ गया।1।
अर्थ: (और जीवों की तो बात ही क्या करनी है) सबसे पहले ब्रहमा ही आत्मिक मौत की जंजीर में फंस गया। उसने अपने गुरु की आज्ञा पर गौर ना किया, (इस अहंकार में आ के मैं इतना बड़ा हूँ कि मैं कैसे कमल की डंडी में से पैदा हो सकता हूँ) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ गया (विष्णु की नाभि से उगे हुए जिस कमल में से ब्रहमा पैदा हुआ था, उस का अंत लेने के लिए) पाताल में (जा पहुँचा) पर ब्रहम् कमल (का अंत) ना ढूँढ सका (और शर्मिंदा होना पड़ा। ये अहंकार ही मौत है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो उपजै सो कालि संघारिआ ॥ हम हरि राखे गुर सबदु बीचारिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जो उपजै सो कालि संघारिआ ॥ हम हरि राखे गुर सबदु बीचारिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपजै = पैदा होता है। सो = उसे। कालि = काल ने, मौत (के सहम) ने। संघारिआ = मारा है, आत्मिक जीवन की ओर से मारा। हम = मुझे। राखे = आत्मिक मौत से बचा लिया।1। रहाउ।
अर्थ: (जगत में) जो जो जीव जनम लेता है (और गुरु का शब्द अपने हृदय में नहीं बसाता) मौत (के सहम) ने उस उस का आत्मिक जीवन प्रफुल्लित नहीं होने दिया। मेरे आत्मिक जीवन को परमात्मा ने खुद बचा लिया, (क्योंकि उसकी मेहर से) मैंने गुरु के शब्द को अपने हृदय में बसा लिया।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहे देवी सभि देवा ॥ कालु न छोडै बिनु गुर की सेवा ॥ ओहु अबिनासी अलख अभेवा ॥२॥

मूलम्

माइआ मोहे देवी सभि देवा ॥ कालु न छोडै बिनु गुर की सेवा ॥ ओहु अबिनासी अलख अभेवा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। कालु = मौत का सहम।2।
अर्थ: सारे देवियां और देवते माया के मोह में फंसे हुए हैं (यही है आत्मिक मौत, ये आत्मिक) मौत गुरु की बताई हुई सेवा किए बिना खलासी नहीं करती। (इस आत्मिक) मौत से बचा हुआ सिर्फ एक परमातमा है जिसके गुण बयान नहीं हो सकते, जिसका भेद पाया नहीं जा सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुलतान खान बादिसाह नही रहना ॥ नामहु भूलै जम का दुखु सहना ॥ मै धर नामु जिउ राखहु रहना ॥३॥

मूलम्

सुलतान खान बादिसाह नही रहना ॥ नामहु भूलै जम का दुखु सहना ॥ मै धर नामु जिउ राखहु रहना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामहु = नाम से। भूले = वंचित रहता है। मै = मुझे। धर = आसरा।3।
अर्थ: (वैसे तो) सुल्तान हों, खान हों, बादशाह हों, किसी ने भी सदा यहाँ टिके नहीं रहना, पर परमातमा के नाम से जो जो वंचित रहता है वह जम का दुख सहता है (वह अपनी आत्मिक मौत भी सहेड़ लेता है, इस करके, हे प्रभु!) मुझे तेरा नाम ही सहारा है (मैं यही अरदास करता हूँ) जैसे हो सके मुझे अपने नाम में जोड़े रख, मैं तेरे नाम में ही टिका रहूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चउधरी राजे नही किसै मुकामु ॥ साह मरहि संचहि माइआ दाम ॥ मै धनु दीजै हरि अम्रित नामु ॥४॥

मूलम्

चउधरी राजे नही किसै मुकामु ॥ साह मरहि संचहि माइआ दाम ॥ मै धनु दीजै हरि अम्रित नामु ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकामु = पक्का ठिकाना। मरहि = मरते हैं। संचहि = इकट्ठा करते हैं। दाम = पैसे, धन।4।
अर्थ: चौधरी हों, राजे हों, किसी का भी यहाँ पक्का डेरा नहीं है। पर (जो) शाह निरी माया ही जोड़ते हैं, सिर्फ पैसे ही एकत्र करते हैं, वे आत्मिक मौत मर जाते हैं। हे हरि! मुझे आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम-धन बख्श।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रयति महर मुकदम सिकदारै ॥ निहचलु कोइ न दिसै संसारै ॥ अफरिउ कालु कूड़ु सिरि मारै ॥५॥

मूलम्

रयति महर मुकदम सिकदारै ॥ निहचलु कोइ न दिसै संसारै ॥ अफरिउ कालु कूड़ु सिरि मारै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महर = रहनुमा। मुकदम = चौधरी। सिकदार = सरदार। संसारै = संसार में। अफरिओ = बली, अमोड़। कूड़ु = माया का मोह। सिरि = (उसके) सिर पर। मारै = मारता है, आत्मिक मौत मरता है, आत्मिक जीवन को प्रफुल्लित नहीं होने देता।5।
अर्थ: प्रजा, प्रजा के रहनुमा, चौधरी, सरदार - कोई भी ऐसा नहीं दिखता जो संसार में सदा टिका रह सके। पर बली काल उसके सिर पर चोट मारता है (उसे आत्मिक मौत मारता है) जिसके हृदय में माया का मोह है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निहचलु एकु सचा सचु सोई ॥ जिनि करि साजी तिनहि सभ गोई ॥ ओहु गुरमुखि जापै तां पति होई ॥६॥

मूलम्

निहचलु एकु सचा सचु सोई ॥ जिनि करि साजी तिनहि सभ गोई ॥ ओहु गुरमुखि जापै तां पति होई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निहचलु = अटल, सदा स्थिर। जिनि = जिस (परमातमा) ने। तिनहि = उसी (प्रभु) ने। गोई = ले कर दी। सभ = सारी सृष्टि। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। ओह = वह परमात्मा। पति = इज्जत।6।
अर्थ: सदा अटल रहने वाला केवल एक ही एक परमात्मा ही है, जिस ने यह सारी सृष्टि रची बनाई है, वह खुद ही इसे (अपने अंदर) लय कर लेता है। जब गुरु की शरण पड़ने से वह परमात्मा हर जगह दिखाई दे जाए (तो जीव का आत्मिक जीवन प्रफुल्लित होता है) तब (इसे प्रभु की हजूरी में) आदर मिलता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काजी सेख भेख फकीरा ॥ वडे कहावहि हउमै तनि पीरा ॥ कालु न छोडै बिनु सतिगुर की धीरा ॥७॥

मूलम्

काजी सेख भेख फकीरा ॥ वडे कहावहि हउमै तनि पीरा ॥ कालु न छोडै बिनु सतिगुर की धीरा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तनि = तन में। पीरा = पीड़ा। धीरा = धीरज, सहारा।7।
अर्थ: काजी कहलाएं, शेख कहलवाएं, बड़े बड़े भेषों वाले फ़कीर कहलाएं, (दुनिया में अपने आप को) बड़े बड़े कहलवाएं; पर अगर शरीर में अहंकार की पीड़ा है, तो मौत खलासी नहीं करती (आत्मिक मौत खलासी नहीं करती, आत्मिक जीवन प्रफुल्लित नहीं होता)। सतिगुरु से मिले (नाम-) आधार के बिना (ये आत्मिक मौत टिकी ही रहती है)।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालु जालु जिहवा अरु नैणी ॥ कानी कालु सुणै बिखु बैणी ॥ बिनु सबदै मूठे दिनु रैणी ॥८॥

मूलम्

कालु जालु जिहवा अरु नैणी ॥ कानी कालु सुणै बिखु बैणी ॥ बिनु सबदै मूठे दिनु रैणी ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिहवा = जीभ से। नैणी = आँखों से। कानी = कानों से। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाले। बैणी = वचन। मूठे = लूटे जाते हैं।8।
अर्थ: (निंदा आदि के कारण) जीभ से, (पराया रूप देखने के कारण) आँखों द्वारा, और कानों से (क्योंकि जीव) आत्मिक मौत लाने वाले (निंदा आदि के) वचन सुनता है आत्मिक मौत (का) जाल (जीवों के सिर पर सदैव तना रहता है)। गुरु के शब्द (का आसरा लिए) बिना जीव दिन रात (आत्मिक जीवन के गुणों से) लूटे जा रहे हैं।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरदै साचु वसै हरि नाइ ॥ कालु न जोहि सकै गुण गाइ ॥ नानक गुरमुखि सबदि समाइ ॥९॥१४॥

मूलम्

हिरदै साचु वसै हरि नाइ ॥ कालु न जोहि सकै गुण गाइ ॥ नानक गुरमुखि सबदि समाइ ॥९॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाइ = नाम में। न जोहि सकै = देख नहीं सकता, सहम नहीं डाल सकता, आत्मिक जीवन को मार नहीं सकता। सबदि = शब्द द्वारा।9।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में सदा-स्थिर प्रभु (सदा) बसा रहता है, जो मनुष्य परमात्मा के नाम में (सदा) टिका रहता है, आत्मिक मौत (मौत का सहम) उसकी तरफ कभी देख भी नहीं सकती (क्योंकि वह सदा प्रभु के) गुण गाता है। हे नानक! वह मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के गुरु के शब्द के द्वारा (प्रभु के चरणों में सदा) लीन रहता है।9।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ बोलहि साचु मिथिआ नही राई ॥ चालहि गुरमुखि हुकमि रजाई ॥ रहहि अतीत सचे सरणाई ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ बोलहि साचु मिथिआ नही राई ॥ चालहि गुरमुखि हुकमि रजाई ॥ रहहि अतीत सचे सरणाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोलहि = बोलते हैं। साचु = सदा अटल रहने वाला बोल। मिथिआ = झूठ। राई = रत्ती भर। हुकमि रजाई = रजा के मालिक प्रभु के हुक्म में। अतीत = माया के प्रभाव से परे।1।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रह के रजा के मालिक प्रभु के हुक्म में चलते हैं, वे सदा स्थिर प्रभु की शरण में रह के माया के प्रभाव से ऊपर रहते हैं। इस वास्ते वो रत्ती भर भी झूठ नहीं बोलते, वे सदा अटल रहने वाले बोल ही बोलते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सच घरि बैसै कालु न जोहै ॥ मनमुख कउ आवत जावत दुखु मोहै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सच घरि बैसै कालु न जोहै ॥ मनमुख कउ आवत जावत दुखु मोहै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सच घरि = सच के घर में, सदा स्थिर प्रभु के चरणों में। बैसे = (जो) बैठता है। कालु = मौत का सहम, आत्मिक मौत। मोहै = मोह के कारण। आवत जावत = पैदा होने मरने का।1। रहाउ।
अर्थ: जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु के चरणों में टिका रहता है, उसे मौत का सहम छू नहीं सकता (उसके आत्मिक जीवन को कोई खतरा नहीं होता) पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को मोह (में फंसे होने) के कारण जनम मरण का दुख (दबाए रखता) है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपिउ पीअउ अकथु कथि रहीऐ ॥ निज घरि बैसि सहज घरु लहीऐ ॥ हरि रसि माते इहु सुखु कहीऐ ॥२॥

मूलम्

अपिउ पीअउ अकथु कथि रहीऐ ॥ निज घरि बैसि सहज घरु लहीऐ ॥ हरि रसि माते इहु सुखु कहीऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। पीअउ = बेशक कोई भी पक्ष पीए। कथि = कह के, महिमा करके। रहीऐ = रह सकते हैं, (निज घर में टिके) रह सकते हैं। बैसि = बैठ के, टिक के। सहज घरु = आत्मिक अडोलता देने वाला घर। लहीऐ = प्राप्त कर सकते हैं। रसि = रस में। माते = मस्त होने से। कहीऐ = कह सकते हैं।2।
अर्थ: कोई भी जीव नाम-रस पीए (और पी के देख ले), बेअंत गुणों के मालिक प्रभु की महिमा करके (“निज घर में”) टिके रह सकते हैं, और उस स्वै-स्वरूप में बैठ के आत्मिक अडोलता का ठिकाना ढूँढ सकते हैं। हरि-नाम-रस में मस्त होने से ये कह सकते हैं कि यही है असल आत्मिक सुख।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमति चाल निहचल नही डोलै ॥ गुरमति साचि सहजि हरि बोलै ॥ पीवै अम्रितु ततु विरोलै ॥३॥

मूलम्

गुरमति चाल निहचल नही डोलै ॥ गुरमति साचि सहजि हरि बोलै ॥ पीवै अम्रितु ततु विरोलै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चाल = जीवन चाल, जिंदगी की जुगति। निहचल = जिसे माया का मोह हिला नहीं सकता। साचि = सदा स्थिर प्रभु में (टिक के)। विरोलै = मथना, मंथन करके, मथ के ढूँढ लेता है।3।
अर्थ: गुरु की मति पर चलने वाली जीवन-जुगति (ऐसी है कि इसे) माया का मोह हिला नहीं सकता, माया के मोह में ये डोल नहीं सकती। जो मनुष्य गुरु की मति धारण करके नाम-रस पीता है, वह अस्लियत को मथ कर तलाश लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु देखिआ दीखिआ लीनी ॥ मनु तनु अरपिओ अंतर गति कीनी ॥ गति मिति पाई आतमु चीनी ॥४॥

मूलम्

सतिगुरु देखिआ दीखिआ लीनी ॥ मनु तनु अरपिओ अंतर गति कीनी ॥ गति मिति पाई आतमु चीनी ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीखिआ = शिक्षा। अरपिओ = अर्पित किया, हवाले किया। अंतर गति = आंतरिक आत्मिक हालत। गति = परमात्मा की आत्मिक अवस्था। मिति = परमात्मा का बड़प्पन। आतमु = आपना आप।4।
अर्थ: जिस मनुष्य ने (पूरे) गुरु के दर्शन कर लिए और गुरु की शिक्षा ग्रहण कर ली, अपने अंतरात्मे बसा ली और (उस शिक्षा की खातिर) अपना मन और अपना तन भेट कर दिया, (और जिस मनुष्य ने इस शिक्षा की इनायत से सदा स्थिर प्रभु के चरणों में जुड़ना आरम्भ कर दिया) उसने अपनी अस्लियत को पहिचान लिया, उसे समझ आ गई कि परमात्मा सबसे उच्च आत्मिक अवस्था वाला है और बेअंत वडियाई वाला है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोजनु नामु निरंजन सारु ॥ परम हंसु सचु जोति अपार ॥ जह देखउ तह एकंकारु ॥५॥

मूलम्

भोजनु नामु निरंजन सारु ॥ परम हंसु सचु जोति अपार ॥ जह देखउ तह एकंकारु ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सारु = श्रेष्ठ। परम = सब से बड़ा। सचु = सदा स्थिर। देखउ = बेशक वह देख ले।5
अर्थ: जो मनुष्य (सदा स्थिर प्रभु के चरणों में जुड़ता है) निरंजन के श्रेष्ठ नाम को अपनी आत्मिक खुराक बनाता है, वह सदा स्थिर रहने वाला परम हंस बन जाता है। बेअंत (प्रभु) की ज्योति (उसके अंदर चमक पड़ती है)। बेशक किसी भी तरफ वह देख ले, उसे हर जगह वह एक परमात्मा ही दिखाई देता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहै निरालमु एका सचु करणी ॥ परम पदु पाइआ सेवा गुर चरणी ॥ मन ते मनु मानिआ चूकी अहं भ्रमणी ॥६॥

मूलम्

रहै निरालमु एका सचु करणी ॥ परम पदु पाइआ सेवा गुर चरणी ॥ मन ते मनु मानिआ चूकी अहं भ्रमणी ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरालमु = निर्लिप। करणी = नित्य आचरण। परम पदु = सबसे उच्च आत्मिक दर्जा। मन ते = मन से, अंदर ही। अहं = अहंकार। भ्रमणी = भटकना।6।
अर्थ: (‘सच घर’ में बैठने वाला) वह मनुष्य माया (के प्रभाव) से निर्लिप रहता है, सदा स्थिर प्रभु का नाम जपना ही उसकी नित्य की करनी हो जाती है।
गुरु की बताई सेवा करके गुरु के चरणों में टिका रह के वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है। अंदर अंदर से उसका मन स्मरण में रच-मिच जाता है, अहंकार वाली उसकी भटकना समाप्त हो जाती है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन बिधि कउणु कउणु नही तारिआ ॥ हरि जसि संत भगत निसतारिआ ॥ प्रभ पाए हम अवरु न भारिआ ॥७॥

मूलम्

इन बिधि कउणु कउणु नही तारिआ ॥ हरि जसि संत भगत निसतारिआ ॥ प्रभ पाए हम अवरु न भारिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जसि = यश ने। भारिआ = ढूँढा।7।
अर्थ: (‘सच घर’ में बैठे रहने की) इस विधी ने किस किस को (संसार समुंदर से) पार नहीं लंघाया? परमात्मा की महिमा ने सारे संतों को भक्तों को पार लंघा दिया है। जिस जिस ने यश किया, उसे प्रभु जी मिल गए। (मैं भी प्रभु की महिमा ही करता हूँ और) उसके बिना किसी और को नहीं ढूँढता।7।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

साच महलि गुरि अलखु लखाइआ ॥ निहचल महलु नही छाइआ माइआ ॥ साचि संतोखे भरमु चुकाइआ ॥८॥

मूलम्

साच महलि गुरि अलखु लखाइआ ॥ निहचल महलु नही छाइआ माइआ ॥ साचि संतोखे भरमु चुकाइआ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महलि = महल में। गुरि = गुरु ने। छाइआ = छाया, साया, प्रभाव।8।
अर्थ: सदा स्थिर प्रभु के महल में (पहुँचा के) गुरु ने जिस मनुष्य को अलख प्रभु का स्वरूप (हृदय में) प्रत्यक्ष कर दिया है, उसे वह अटल ठिकाना (सदा के लिए प्राप्त हो जाता है) जिस पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता। जो जो लोग सदा स्थिर प्रभु में जुड़ के माया की ओर से तृप्त हो जाते हैं, उनकी भटकना समाप्त हो जाती है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कै मनि वसिआ सचु सोई ॥ तिन की संगति गुरमुखि होई ॥ नानक साचि नामि मलु खोई ॥९॥१५॥

मूलम्

जिन कै मनि वसिआ सचु सोई ॥ तिन की संगति गुरमुखि होई ॥ नानक साचि नामि मलु खोई ॥९॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। सचु = सदा स्थिर प्रभु! नामि = नाम में (जुड़ के)।9।
अर्थ: जिस मनुष्यों के मन में वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा बस पड़ता है, उनकी संगति जिस मनुष्य को गुरु की संगति पड़ कर प्राप्त होती है। हे नानक! वह मनुष्य प्रभु के सदा-स्थिर नाम में जुड़ के (अपने मन की विकारों की) मैल साफ कर लेता है।9।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ रामि नामि चितु रापै जा का ॥ उपज्मपि दरसनु कीजै ता का ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ रामि नामि चितु रापै जा का ॥ उपज्मपि दरसनु कीजै ता का ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रामि = राम में। नामि = नाम में। रापै = रंगा जाता है। जा का चितु = जिस (मनुष्य) का चित्त। उपजंपि = सवेरे उठते ही।1।
अर्थ: जिस मनुष्य का मन परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगा हुआ है, उसका दर्शन नित्य सवेरे उठते हुए ही करना चाहिए (ऐसे भाग्यशाली मनुष्य की संगति से परमात्मा का नाम याद आता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम न जपहु अभागु तुमारा ॥ जुगि जुगि दाता प्रभु रामु हमारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

राम न जपहु अभागु तुमारा ॥ जुगि जुगि दाता प्रभु रामु हमारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अभागु = बद्किस्मती। जुगि जुगि = हरेक युग में, सदा ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (अगर) तुम परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करते, तो ये तुम्हारी बद्किस्मती है। परमात्मा प्रभु सदा से ही हमें (सभी जीवों को) दातें देता चला आ रहा है (ऐसे दाते को भुलाना दुर्भाग्यपूर्ण है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमति रामु जपै जनु पूरा ॥ तितु घट अनहत बाजे तूरा ॥२॥

मूलम्

गुरमति रामु जपै जनु पूरा ॥ तितु घट अनहत बाजे तूरा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तितु = उस में। घटि = घट में। तितु घटि = उस हृदय में। अनाहत = (हत् = चोट करनी) अन+आहत, बिना चोट के, बिना बजाए, एक रस, लगातार। तूरा = तुरम।2।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शिक्षा ले के परमात्मा का नाम जपता है, वह पूर्ण हो जाता है (उसका मन माया के मोह में डोलता नहीं)। उस (के) हृदय में (प्रसन्नता ही प्रसन्नता बनी रहती है, जैसे) एक-रस तुर्मा आदि बाजे बजते रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जन राम भगति हरि पिआरि ॥ से प्रभि राखे किरपा धारि ॥३॥

मूलम्

जो जन राम भगति हरि पिआरि ॥ से प्रभि राखे किरपा धारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिआरि = प्यार में। से = वह लोग। प्रभि = प्रभु ने। धारि = धर के, कर के।3।
अर्थ: जो लोग हरि परमात्मा की भक्ति और प्यार में (जुड़ते) हैं, उन्हें प्रभु ने मेहर करके (अहंकार आदि से) बचा लिया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन कै हिरदै हरि हरि सोई ॥ तिन का दरसु परसि सुखु होई ॥४॥

मूलम्

जिन कै हिरदै हरि हरि सोई ॥ तिन का दरसु परसि सुखु होई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसि = परस के, छू के, कर के।4।
अर्थ: जिस मनुष्यों के हृदय में वह (दया-निधि) परमात्मा बसता है, उसका दर्शन करने से (आत्मिक) आनंद मिलता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब जीआ महि एको रवै ॥ मनमुखि अहंकारी फिरि जूनी भवै ॥५॥

मूलम्

सरब जीआ महि एको रवै ॥ मनमुखि अहंकारी फिरि जूनी भवै ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रवै = व्यापक है।5।
अर्थ: सब जीवों के अंदर एक परमात्मा ही व्यापक है। (पर) मन का मुरीद (मन के पीछे चलने वाला) मनुष्य (ये बात नहीं समझता, वह इन में ईश्वर बसता नहीं देखता, वह) जीवों के साथ अहंकार भरा बर्ताव करता है, और मुड़ मुड़ के जूनियों में भ्रमित होता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो बूझै जो सतिगुरु पाए ॥ हउमै मारे गुर सबदे पाए ॥६॥

मूलम्

सो बूझै जो सतिगुरु पाए ॥ हउमै मारे गुर सबदे पाए ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मनुष्य को सतिगुरु मिलता है वह समझ लेता है (कि सब जीवों में परमात्मा ही बसता है, इस वास्ते) वह (अपने अंदर से) अहंकार मारता है, गुरु के शब्द में जुड़ के वह (परमात्मा का मेल) प्राप्त कर लेता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरध उरध की संधि किउ जानै ॥ गुरमुखि संधि मिलै मनु मानै ॥७॥

मूलम्

अरध उरध की संधि किउ जानै ॥ गुरमुखि संधि मिलै मनु मानै ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरध = अर्ध, निचले लोक से संबंध रखने वाला, जीवात्मा। उरध = उध्र्व, ऊँचे मण्डलों का वासी, परमात्मा। संधि = मिलाप। मानै = पतीजता है।7।
अर्थ: (स्मरण से वंचित रहने से मनुष्य को) जीवात्मा और परमात्मा के मिलाप की पहिचान नहीं आ सकती, (वही पहिचानता है) जो गुरमुखों की संगति में मिलता है, और उसका मन (स्मरण में) लग जाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम पापी निरगुण कउ गुणु करीऐ ॥ प्रभ होइ दइआलु नानक जन तरीऐ ॥८॥१६॥ सोलह असटपदीआ गुआरेरी गउड़ी कीआ ॥

मूलम्

हम पापी निरगुण कउ गुणु करीऐ ॥ प्रभ होइ दइआलु नानक जन तरीऐ ॥८॥१६॥ सोलह असटपदीआ गुआरेरी गउड़ी कीआ ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। करीऐ = (कृपा करके) करो।8।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव विकारी हैं, गुण-हीन हैं (अपना नाम स्मरण करने का) गुण तू खुद बख्श। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! तू दयाल हो के (जब नाम की दाति बख्शता है, तब) तेरे दास (संसार समुंदर से) पार लांघ सकते हैं।8।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी बैरागणि महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गउड़ी बैरागणि महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ गाई कउ गोइली राखहि करि सारा ॥ अहिनिसि पालहि राखि लेहि आतम सुखु धारा ॥१॥

मूलम्

जिउ गाई कउ गोइली राखहि करि सारा ॥ अहिनिसि पालहि राखि लेहि आतम सुखु धारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गोइली = ग्वाला, गाएं चराने वाला, गायों का रखवाला। राखहि = तू रक्षा करता है। सारा = संभाल, ध्यान। अहि = दिन। निसि = रात। आतम सुखु = आत्मिक आनंद। धारा = धरता है, देता है।1।
अर्थ: जैसे ग्वाला गायों की रक्षा करता है, वैसे ही तू संभाल करके (जीवों की) रक्षा करता है, तू दिन रात जीवों को पालता है, रक्षा करता है और, आत्मिक सुख बख्शता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत उत राखहु दीन दइआला ॥ तउ सरणागति नदरि निहाला ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इत उत राखहु दीन दइआला ॥ तउ सरणागति नदरि निहाला ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इत उत = लोक परलोक में, यहाँ वहाँ। तउ = तेरी। सरणागति = शरण आए हैं। नदरि निहाला = मेहर की निगाह से देख।1। रहाउ।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! लोक परलोक में (मेरी) रक्षा कर। (मैं) तेरी शरण आया हूँ, मेहर की निगाह से (मेरी ओर) देख!।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह देखउ तह रवि रहे रखु राखनहारा ॥ तूं दाता भुगता तूंहै तूं प्राण अधारा ॥२॥

मूलम्

जह देखउ तह रवि रहे रखु राखनहारा ॥ तूं दाता भुगता तूंहै तूं प्राण अधारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। रवि रहे = तू व्यापक है। भुगता = भोगने वाला।2।
अर्थ: हे राखनहार प्रभु! मैं जिधर देखता हूँ, उधर ही (हर जगह) तू मौजूद है, और सब का रक्षक है, तू स्वयं ही जीवों को दातें देने वाला है और (सब जीवों में व्यापक हो के) खुद ही भोगने वाला है, तू ही सबकी जिंदगी का आसरा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरतु पइआ अध ऊरधी बिनु गिआन बीचारा ॥ बिनु उपमा जगदीस की बिनसै न अंधिआरा ॥३॥

मूलम्

किरतु पइआ अध ऊरधी बिनु गिआन बीचारा ॥ बिनु उपमा जगदीस की बिनसै न अंधिआरा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरतु = किए कर्मों का संग्रह। पइआ = इकट्ठा हुआ। किरत पइआ = किए कर्मों के इकट्ठे हुए संस्कारों के अनुसार। अध = अधस्, नीचे। ऊरधी = ऊपर। उपमा = स्तुति।3।
अर्थ: (इस) ज्ञान के बिना, विचार के बिना, जीव अपने किए कर्मों के इकट्ठे हुए संस्कारों के तहत कभी पाताल में गिरता है और कभी आकाश की ओर चढ़ता है (कभी दुखी तो कभी सुखी)। प्रभु की महिमा किए बिना जीव की अज्ञानता नहीं मिटती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगु बिनसत हम देखिआ लोभे अहंकारा ॥ गुर सेवा प्रभु पाइआ सचु मुकति दुआरा ॥४॥

मूलम्

जगु बिनसत हम देखिआ लोभे अहंकारा ॥ गुर सेवा प्रभु पाइआ सचु मुकति दुआरा ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिनसत = विनाश होते हुए, आत्मिक मौत मरते हुए। मुकति = विकारों से मुक्ति।4।
अर्थ: रोजाना देखते हैं कि जगत लोभ व अहंकार के वश हो के आत्मिक मौत मरता रहता है। गुरु की बताई सेवा करने से सदा स्थिर प्रभु मिल जाता है, और (लोभ व अहंकार से) मुक्ति का रास्ता मिल जाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज घरि महलु अपार को अपर्मपरु सोई ॥ बिनु सबदै थिरु को नही बूझै सुखु होई ॥५॥

मूलम्

निज घरि महलु अपार को अपर्मपरु सोई ॥ बिनु सबदै थिरु को नही बूझै सुखु होई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निज घरि = अपने घर में, अपने हृदय में, अपने आप में। महलु = ठिकाना। को = का। अपरंपरु = परे से परे। थिरु = (अपने आप में) टिका हुआ।5।
अर्थ: बेअंत परमात्मा का ठिकाना अपने आप में है, वह प्रभु (लोभ व अहंकार के प्रभाव से) परे से परे है। कोई भी जीव गुरु के शब्द (में जुड़े) बिना (उस स्वरूप में) सदा स्थिर नहीं हो सकता। जो मनुष्य गुरु के शब्द को समझता है, उसे आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ लै आइआ ले जाइ किआ फासहि जम जाला ॥ डोलु बधा कसि जेवरी आकासि पताला ॥६॥

मूलम्

किआ लै आइआ ले जाइ किआ फासहि जम जाला ॥ डोलु बधा कसि जेवरी आकासि पताला ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लै = ले कर। ले = ले के। फासहि = तू फंस रहा है। कसि = कस के। आकासि = आकाश में।6।
अर्थ: हे जीव! ना तू कोई धन-पदार्थ अपने साथ ले के (जगत में) आया था, और ना ही (यहां से कोई माल धन) ले कर जाएगा। (व्यर्थ ही माया मोह के कारण) जम के जाल में फंस रहा है। जैसे रस्सी से बंधा हुआ डोल (कभी कूएं में जाता है कभी बाहर आ जाता है, वैसे ही तू कभी) आकाश में चढ़ता है कभी पाताल में गिरता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमति नामु न वीसरै सहजे पति पाईऐ ॥ अंतरि सबदु निधानु है मिलि आपु गवाईऐ ॥७॥

मूलम्

गुरमति नामु न वीसरै सहजे पति पाईऐ ॥ अंतरि सबदु निधानु है मिलि आपु गवाईऐ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पति = इज्जत। सहजे = सहज ही, अडोल अवस्था में (टिक के)। निधानु = खजाना। मिलि = मिल के। आपु = स्वै भाव।7।
अर्थ: (हे जीव!) अगर गुरु की मति ले कर कभी परमात्मा का नाम ना भूले, तो (नाम की इनायत से) अडोल अवस्था में टिक के (प्रभु के दर पर) इज्जत प्राप्त कर लेते हैं। जिस मनुष्य के हृदय में गुरु का शब्द रूपी खजाना है (वह प्रभु को मिल जाता है)। (प्रभु को) मिल के स्वैभाव गवा सकते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदरि करे प्रभु आपणी गुण अंकि समावै ॥ नानक मेलु न चूकई लाहा सचु पावै ॥८॥१॥१७॥

मूलम्

नदरि करे प्रभु आपणी गुण अंकि समावै ॥ नानक मेलु न चूकई लाहा सचु पावै ॥८॥१॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंकि = (प्रभु के) अंक में, आग़ोश में, गले मिल के। न चूकई = नहीं खत्म होता।8।
अर्थ: जिस जीव पर प्रभु अपनी मेहर की नजर करता है (उसे अपने) गुण (बख्शता है, और गुणों की इनायत से वह प्रभु के) अंक में लीन हो जाता है। हे नानक! उस जीव का परमात्मा से बना मिलाप कभी टूटता नहीं, वह जीव प्रभु की महिमा कमा लेता हैं8।1।17।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अंक नं: १ बताता है ‘गउड़ी बैरागणि’ रागणी में गुरु नानक देव जी की ये पहली अष्टपदी है। ‘गउड़ी गुआरेरी’ की १६ मिला के कुल जोड़ १७ बन गया है।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला १ ॥ गुर परसादी बूझि ले तउ होइ निबेरा ॥ घरि घरि नामु निरंजना सो ठाकुरु मेरा ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला १ ॥ गुर परसादी बूझि ले तउ होइ निबेरा ॥ घरि घरि नामु निरंजना सो ठाकुरु मेरा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेझि ले = समझ ले। तउ = तब। निबेरा = निर्णय, खलासी, माया के मोह के अंधेरे से निजात। घरि घरि = हरेक हृदय घर में। ठाकुरु = पालणहार, मालिक।1।
अर्थ: (हे भाई!) अगर तू गुरु की कृपा से ये बात समझ ले कि माया रहित प्रभु का नाम हरेक हृदय-घर में बसता है और वही निरंजन मेरा भी पालनहार मालिक है, तो माया के प्रभाव से पैदा हुए आत्मिक अंधेरे में से तुझे निजात मिल जाएगी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु गुर सबद न छूटीऐ देखहु वीचारा ॥ जे लख करम कमावही बिनु गुर अंधिआरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिनु गुर सबद न छूटीऐ देखहु वीचारा ॥ जे लख करम कमावही बिनु गुर अंधिआरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: न छूटीऐ = (माया के मोह के अंधकार से) खलासी नहीं होती। जे कमावही = अगर तू कमाए, अगर तू करे। अंधिआरा = अंधेरा, आत्मिक अंधेरा, माया के प्रभाव का अंधकार।1। रहाउ।
अर्थ: (माया के मोह ने जीवों की आत्मिक आँखों के आगे अंधकार खड़ा कर दिया है, हे भाई!) विचार करके देख लो, गुरु के शब्द के बिना (इस आत्मिक अंधेरे से) खलासी नहीं हो सकती। (हे भाई!) अगर तू लाखों ही धर्म-कर्म करता रहे, तो भी गुरु की शरण आए बिना ये आत्मिक अंधेरा (टिका ही रहेगा)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंधे अकली बाहरे किआ तिन सिउ कहीऐ ॥ बिनु गुर पंथु न सूझई कितु बिधि निरबहीऐ ॥२॥

मूलम्

अंधे अकली बाहरे किआ तिन सिउ कहीऐ ॥ बिनु गुर पंथु न सूझई कितु बिधि निरबहीऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकली बाहरे = अक्ल से खाली। किआ तिन सिउ कहीऐ = उन्हें समझाने का कोई लाभ नहीं। पंथु = (जीवन का सीधा) रास्ता। कितु बिधि निरबहीऐ = (सही जीवन-राह के राही का उनके साथ) किसी तरह भी निर्बाह नहीं हो सकता, साथ नहीं निभ सकता।2।
अर्थ: जिस लोगों को माया के मोह ने अंधा कर दिया है और बुद्धि हीन कर दिया है, उन्हें ये समझाने का कोई लाभ नहीं। गुरु की शरण के बिना उन्हे जीवन का सही रास्ता मिल नहीं सकता, सही जीवन-राह के राही का उनके साथ किसी तरह का भी साथ नहीं निभ सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खोटे कउ खरा कहै खरे सार न जाणै ॥ अंधे का नाउ पारखू कली काल विडाणै ॥३॥

मूलम्

खोटे कउ खरा कहै खरे सार न जाणै ॥ अंधे का नाउ पारखू कली काल विडाणै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहै = कहता है। सार = कद्र, कीमत। पारखू = समझदार। विडाणै = आश्चर्य का। कली काल विडाणै = आश्चर्यजनक कलिजुग का हाल। आश्चर्य माया में फंसी दुनिया का हाल।3।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: सतिगुरु जी ये नहीं कह रहे कि कोई एक युग किसी दूसरे युग से अच्छा है या बुरा। माया में मोह जगत का जिक्र है। जिस समय का नाम ब्राहमण ने कलियुग रख दिया था, उसी में आने के कारण आप शब्द ‘जगत’ की जगह ‘कली काल’ बरत रहे हैं)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य उस धन को जिसका प्रभु की दरगाह में कोई मूल्य नहीं है, असल धन कहता है। पर (जो नाम-धन) असल धन (है उस) की कद्र ही नहीं समझता। माया में अंधे हुए मनुष्य को समझदार कहा जा रहा है - ये आश्चर्यजनक चाल है दुनिया के समय की।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूते कउ जागतु कहै जागत कउ सूता ॥ जीवत कउ मूआ कहै मूए नही रोता ॥४॥

मूलम्

सूते कउ जागतु कहै जागत कउ सूता ॥ जीवत कउ मूआ कहै मूए नही रोता ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूते कउ = (माया के मोह में) सोए हुए को। जागतु = सुचेत। जागत कउ = उसे जो प्रभु नाम में जुड़ के माया के हमलों से सुचेत हैं। मूआ = दुनिया के मतलब का गया गुजरा।4।
अर्थ: माया की मोह की नींद में सोए हुए को जगत कहता है कि ये जागता है सुचेत है, पर जो मनुष्य (परमातमा की याद में) जागता है सुचेत है, उसको कहता है कि ये सोया हुआ है। प्रभु की भक्ति की इनायत से जीते आत्मिक जीवन वाले को जगत कहता है कि हमारे लिए तो मरा हुआ है। पर आत्मिक मौत मरे हुए को देख के कोई अफसोस नहीं करता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवत कउ जाता कहै जाते कउ आइआ ॥ पर की कउ अपुनी कहै अपुनो नही भाइआ ॥५॥

मूलम्

आवत कउ जाता कहै जाते कउ आइआ ॥ पर की कउ अपुनी कहै अपुनो नही भाइआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पर की कउ = उस माया को जो पराए की बन जानी है। भाइआ = भाया, अच्छा लगा।5।
अर्थ: परमात्मा के रास्ते पर आने वाले को जगत कहता है कि ये गया गुजरा है, पर प्रभु की ओर से गए गुजरे को जगत समझता है कि इसी का जगत में आना सफल हुआ है। जिस माया ने दूसरे की बन जाना है उसे जगत अपनी कहता है, पर जो नाम-धन असल में अपना है वह अच्छा नहीं लगता।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मीठे कउ कउड़ा कहै कड़ूए कउ मीठा ॥ राते की निंदा करहि ऐसा कलि महि डीठा ॥६॥

मूलम्

मीठे कउ कउड़ा कहै कड़ूए कउ मीठा ॥ राते की निंदा करहि ऐसा कलि महि डीठा ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राते की = नाम रंग में रंगे हुए की। करहि = करते हैं। कलि महि = जगत में।6।
अर्थ: नाम-रस और सारे रसों से मीठा है, इसको जगत कड़वा कहता है। विषियों का रस (अंत को) कड़वा (दुखदाई साबत होता) है, इसे जगत स्वादिष्ट कह रहा है। प्रभु के नाम-रंग में रंगे हुए की लोग निंदा करते हैं। जगत में ये आश्चर्यजनक तमाशा देखने में आ रहा है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चेरी की सेवा करहि ठाकुरु नही दीसै ॥ पोखरु नीरु विरोलीऐ माखनु नही रीसै ॥७॥

मूलम्

चेरी की सेवा करहि ठाकुरु नही दीसै ॥ पोखरु नीरु विरोलीऐ माखनु नही रीसै ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चेरी = परमात्मा की दासी, माया। दीसै = दिखता। पोखरु = छप्पड़। नीरु = पानी। विरोलीऐ = अगर मंथन करें। नही रीसै = नहीं निकलता।7।
अर्थ: लोग परमात्मा की दासी (माया) की तो सेवा खुशामद कर रहे हैं, पर (माया का) मालिक किसी को दिखता ही नहीं। (माया में से सुख ढूँढना इस तरह है जैसे पानी मथ के उसमें से मक्खन ढूँढना)। यदि छप्पड़ को मथें, अगर पानी को मथें, उसमें से मक्खन नहीं निकल सकता।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु पद जो अरथाइ लेइ सो गुरू हमारा ॥ नानक चीनै आप कउ सो अपर अपारा ॥८॥

मूलम्

इसु पद जो अरथाइ लेइ सो गुरू हमारा ॥ नानक चीनै आप कउ सो अपर अपारा ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पद = आत्मिक दर्जा। अरथाइ लेइ = यत्न से हासिल कर ले। चीनै = परखे, पहचाने। अपर = माया के प्रभाव से परे। अपारा = जिसके गुणों का पार न पाया जा सके।8।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य अपनी अस्लियत को पहिचान लेता है, वह उस परमात्मा का रूप बन जाता है जो माया के प्रभाव से परे है और जिसके गुणों का परला छोर नहीं मिल सकता। स्वै-पहिचान के आत्मिक दर्जे को मनुष्य प्राप्त कर लेता है, मैं उसके आगे अपना सिर झुकाता हूँ।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु आपे आपि वरतदा आपे भरमाइआ ॥ गुर किरपा ते बूझीऐ सभु ब्रहमु समाइआ ॥९॥२॥१८॥

मूलम्

सभु आपे आपि वरतदा आपे भरमाइआ ॥ गुर किरपा ते बूझीऐ सभु ब्रहमु समाइआ ॥९॥२॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = हर जगह। आपे = (प्रभु) स्वयं ही। भरमाइआ = भुलेखे में डाला। ते = से, साथ।9।
अर्थ: (पर माया में और जीवों में) हर जगह परमात्मा स्वयं ही स्वयं व्यापक है, खुद ही जीवों को गलत राह पर डालता है। गुरु की मेहर से ही ये समझ पड़ती है कि परमातमा हरेक जगह मौजूद है।9।2।18।