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विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी महला ९ ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी महला ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधो मन का मानु तिआगउ ॥ कामु क्रोधु संगति दुरजन की ता ते अहिनिसि भागउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
साधो मन का मानु तिआगउ ॥ कामु क्रोधु संगति दुरजन की ता ते अहिनिसि भागउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधो = हे संत जनो! तिआगउ = त्यागो, तिआगहु।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: जो नियम गुरु तेग बहादर साहिब जी की वाणी के बिना सब जगह इस्तेमाल हुआ मिलता है उसके अनुसार शब्द ‘तिआगहु’ है। इसी तरह ‘भागउ’ की जगह ‘भागहु’)।
दर्पण-भाषार्थ
ता ते = उससे। अहि = दिन। निसि = रात।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! (अपने) मन का अहंकार छोड़ दो। काम और क्रोध (भी) बुरे मनुष्य की संगत (समान ही) हैं। इससे (भी) दिन रात (हर वक्त) परे रहो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखु दुखु दोनो सम करि जानै अउरु मानु अपमाना ॥ हरख सोग ते रहै अतीता तिनि जगि ततु पछाना ॥१॥
मूलम्
सुखु दुखु दोनो सम करि जानै अउरु मानु अपमाना ॥ हरख सोग ते रहै अतीता तिनि जगि ततु पछाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सम = बराबर, एक जैसे। करि = करके। अउरु = और। मानु = आदर। अपमाना = निरादरी। हरख = खुशी। सोग = गम। अतीता = परे, विरक्त, निर्लिप। तिनि = उस (मनुष्य) ने। ततु = जिंदगी का राज, अस्लियत।1।
अर्थ: (हे संत जनो! जो मनुष्य) सुख और दुख दोनों को एक समान जानता है, और जो आदर व निरादर को भी एक समान जानता है। (कोई मनुष्य उसका आदर करे तो भी परवाह नहीं,) और जो मनुष्य खुशी और गमी दोनों से निर्लिप रहता है (खुशी के समय अहंकार में नहीं आ जाता और गमी के वक्त घबरा नहीं जाता) उसने जगत में जीवन के भेद को समझ लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उसतति निंदा दोऊ तिआगै खोजै पदु निरबाना ॥ जन नानक इहु खेलु कठनु है किनहूं गुरमुखि जाना ॥२॥१॥
मूलम्
उसतति निंदा दोऊ तिआगै खोजै पदु निरबाना ॥ जन नानक इहु खेलु कठनु है किनहूं गुरमुखि जाना ॥२॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उसतति = खुशामद। पदु = दर्जा, आत्मिक अवस्था। निरबाना = वासना रहित। किन हू = किसी विरले ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।2।
अर्थ: (हे संत जनो! उस मनुष्य ने अस्लियत ढूँढ ली है जो) ना किसी की खुशामद करता है ना ही किसी की निंदा, और जो उस आत्मिक अवस्था को सदा तलाश करता है जहां कोई वासना छू नहीं सकती। (पर) हे नानक! ये (जीवन-) खेल (खेलनी) मुश्किल है। कोई विरला मनुष्य ही गुरु की शरण पड़ कर इसे समझता है।2।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ९ ॥ साधो रचना राम बनाई ॥ इकि बिनसै इक असथिरु मानै अचरजु लखिओ न जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ९ ॥ साधो रचना राम बनाई ॥ इकि बिनसै इक असथिरु मानै अचरजु लखिओ न जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रामि = राम ने। इकि = कोई मनुष्य। बिनसै = मरता है। असथिरु = सदा कायम रहने वाला। मानै = मानता है, समझता है। लखिओ न जाई = बयान नहीं किया जा सकता।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा ने (जगत की ये आश्चर्यजनक) रचना रच दी है (कि) एक मनुष्य (तो) मरता है (पर) दूसरा मनुष्य (उसे मरता देख के भी अपने आप को) सदा टिके रहने वाला समझता है। ये एक आश्चर्यजनक तमाशा है जो बयान नहीं किया जा सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध मोह बसि प्रानी हरि मूरति बिसराई ॥ झूठा तनु साचा करि मानिओ जिउ सुपना रैनाई ॥१॥
मूलम्
काम क्रोध मोह बसि प्रानी हरि मूरति बिसराई ॥ झूठा तनु साचा करि मानिओ जिउ सुपना रैनाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसि = वश में। प्रानी = जीव। हरि मूरति = हरि की मूर्ति, परमात्मा की हस्ती। झूठा = नाशवान। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। रैनाई = रात (का)।1।
अर्थ: (हे संत जनो!) मनुष्य काम के, क्रोध के, मोह के काबू में रहता है और परमात्मा की हस्ती को भुलाए रखता है। ये शरीर सदा साथ रहने वाला नहीं है, पर मनुष्य इसे सदा कायम रहने वाला समझता है, जैसे रात को (सोते समय जो) सपना (आता है मनुष्य नींद की हालत में उस सपने को असली घटित हो रही बात समझता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो दीसै सो सगल बिनासै जिउ बादर की छाई ॥ जन नानक जगु जानिओ मिथिआ रहिओ राम सरनाई ॥२॥२॥
मूलम्
जो दीसै सो सगल बिनासै जिउ बादर की छाई ॥ जन नानक जगु जानिओ मिथिआ रहिओ राम सरनाई ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारा। बादर = बादल। छाई = छाया। जानिओ = जाना है। मिथिआ = नाशवान। रहिओ = टिका रहता है।2।
अर्थ: (हे संत जनो!) जैसे बादल की छाया (सदा एक जगह टिकी नहीं रह सकती, वैसे ही) जो कुछ (जगत में) दिखाई दे रहा है ये सब कुछ (अपने-अपने समय में) नाश हो जाता है। हे दास नानक! (जिस मनुष्य ने) जगत को नाशवान समझ लिया है, वह (सदा स्थिर रहने वाले) परमात्मा की शरण पड़ा रहता है।2।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ९ ॥ प्रानी कउ हरि जसु मनि नही आवै ॥ अहिनिसि मगनु रहै माइआ मै कहु कैसे गुन गावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ९ ॥ प्रानी कउ हरि जसु मनि नही आवै ॥ अहिनिसि मगनु रहै माइआ मै कहु कैसे गुन गावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। जसु = महिमा। मनि = मन में। अहि = दिन। निसि = रात। मगनु = मस्त। मै = में। कहु = कहो, बताओ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मनुष्य को परमात्मा की महिमा (अपने) मन में (बसानी) नहीं आती। (हे भाई!) बताओ, वह मनुष्य कैसे परमात्मा के गुण गा सकता है जो दिन रात माया (के मोह) में मस्त रहता है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूत मीत माइआ ममता सिउ इह बिधि आपु बंधावै ॥ म्रिग त्रिसना जिउ झूठो इहु जग देखि तासि उठि धावै ॥१॥
मूलम्
पूत मीत माइआ ममता सिउ इह बिधि आपु बंधावै ॥ म्रिग त्रिसना जिउ झूठो इहु जग देखि तासि उठि धावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ममता = (मम = मेरा) अपनत्व। सिउ = साथ। इह बिधि = इस तरह। बिधि = तरीका। आपु = अपने आप को। म्रिग = मृग, हिरन। त्रिसना = तृष्णा, प्यास। म्रिग त्रिसना = ठगनीरा, वह ख्याली पानी जो हिरन को प्यास के समय अपने पीछे भगाई फिरती है (चमकती रेत हिरन को पानी प्रतीत होती है, वह पीने के लिए दौड़ता है, पानी वाला दृश्य उसे आगे आगे भगाए जाता है, मृग मारीचिका)। देखि = देख कर। तासि = उस (ठगनीरे) की ओर।1।
अर्थ: (हे भाई! माया के मोह में मस्त रहने वाला मनुष्य) पुत्र-मित्र-माया (आदि) की ममता से बंधा रहता है, और इस तरह अपने आप को (मोह के बंधनों में) बांधे रखता है। (माया-ग्रसित मनुष्य ये नहीं समझता कि) ये जगत (तो) ठगनीरे की तरह (ठगी ही ठगी है, जैसे हिरन मारीचिका को देख कर उसकी ओर दौड़ता और भटक भटक के मरता है, वैसे ही मनुष्य इस जगत को) देख कर इसकी ओर (सदा) दौड़ता रहता है (और आत्मिक मौत अपनाता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुगति मुकति का कारनु सुआमी मूड़ ताहि बिसरावै ॥ जन नानक कोटन मै कोऊ भजनु राम को पावै ॥२॥३॥
मूलम्
भुगति मुकति का कारनु सुआमी मूड़ ताहि बिसरावै ॥ जन नानक कोटन मै कोऊ भजनु राम को पावै ॥२॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भुगति = दुनिया के भोग व सुख। मुकति = मोक्ष। मूढ़ = मूर्ख मनुष्य। ताहि = उसे। कोटन मै = करोड़ों में। कोऊ = कोई विरला। को = का।2।
अर्थ: मूर्ख मनुष्य उस मालिक प्रभु को भुलाए रखता है जो दुनिया के सुखों और भोगों का भी मालिक है और जो मोक्ष भी देने वाला है।
हे दास नानक! (कह:) करोड़ों में कोई विरला मनुष्य ही होता है जो (जगत ठगनीरे के मोह से बच के) परमात्मा की भक्ति प्राप्त करता है।2।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ९ ॥ साधो इहु मनु गहिओ न जाई ॥ चंचल त्रिसना संगि बसतु है या ते थिरु न रहाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ९ ॥ साधो इहु मनु गहिओ न जाई ॥ चंचल त्रिसना संगि बसतु है या ते थिरु न रहाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गहिओ न जाई = पकड़ा नहीं जाता। चंचल = कभी ना टिकने वाली, अनेक हाव भाव करने वाली। या ते = इस कारण। थिरु = स्थिर, सदा टिका हुआ।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! ये मन वश में नहीं किया जा सकता, (क्योंकि ये मन सदा) अनेक हाव-भाव करने वाली तृष्णा के साथ बसा रहता है, इस वास्ते ये कभी टिक के नहीं रहता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कठन करोध घट ही के भीतरि जिह सुधि सभ बिसराई ॥ रतनु गिआनु सभ को हिरि लीना ता सिउ कछु न बसाई ॥१॥
मूलम्
कठन करोध घट ही के भीतरि जिह सुधि सभ बिसराई ॥ रतनु गिआनु सभ को हिरि लीना ता सिउ कछु न बसाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कठन = (जिसे वश करना) मुश्किल (है)। घट = हृदय। भीतरि = अंदर। जिह = जिस (क्रोध) ने। सुधि = सूझ, होश, अक्ल। सभ को = हरेक जीव का। हिरि लीना = चुरा लिया है। बसाई = वश, जोर, पेश। सिउ = साथ।1।
अर्थ: (हे संत जनो!) वश में ना आ सकने वाला क्रोध भी इसी हृदय में ही बसता है, जिस ने (मनुष्य को भली तरफ की) सारी होश भुला दी है। (क्रोध ने) हरेक मनुष्य का श्रेष्ठ ज्ञान चुरा लिया है, उसके साथ किसी की कोई पेश नहीं जाती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोगी जतन करत सभि हारे गुनी रहे गुन गाई ॥ जन नानक हरि भए दइआला तउ सभ बिधि बनि आई ॥२॥४॥
मूलम्
जोगी जतन करत सभि हारे गुनी रहे गुन गाई ॥ जन नानक हरि भए दइआला तउ सभ बिधि बनि आई ॥२॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। गुनी = गुणवान, विद्वान मनुष्य। रहे = थक गए। सभ बिधि = हरेक ढंग। सभ बिधि बनि आई = हरेक तरीका सफल हुआ।2।
अर्थ: सारे जोगी (इस मन को काबू करने के) यत्न करते करते थक गए हैं, विद्वान मनुष्य अपनी विद्या की तारीफें करते थक गए (ना योग साधन, ना विद्या- मन को कोई भी वश में लाने के समर्थ नहीं)।
हे दास नानक! जब प्रभु जी दयावान होते हैं (इस मन को काबू में रखने के) सारे ही ढंग तरीके सफल हो जाते हैं।2।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ९ ॥ साधो गोबिंद के गुन गावउ ॥ मानस जनमु अमोलकु पाइओ बिरथा काहि गवावउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ९ ॥ साधो गोबिंद के गुन गावउ ॥ मानस जनमु अमोलकु पाइओ बिरथा काहि गवावउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावउ = गावहु।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सारे गुरु ग्रंथ साहिब में मिलते व्याकरणिक नियमों के अनुसार शब्द ‘गावउ’ का अर्थ है: ‘मैं गाता हूँ’; ‘गावहु’ का अर्थ है: ‘तुम गाओ’।
दर्पण-भाषार्थ
पाइओ = पाया, मिला। काहि = क्यूँ? गवावउ = गवावहु, गवाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! (सदा) गोबिंद के गुण गाते रहा करो। ये बड़ा कीमती मानव जन्म मिला है, इसे व्यर्थ क्यूँ गवाते हो?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित पुनीत दीन बंध हरि सरनि ताहि तुम आवउ ॥ गज को त्रासु मिटिओ जिह सिमरत तुम काहे बिसरावउ ॥१॥
मूलम्
पतित पुनीत दीन बंध हरि सरनि ताहि तुम आवउ ॥ गज को त्रासु मिटिओ जिह सिमरत तुम काहे बिसरावउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। दीन = गरीब। बंधु = संबंधी। ताहि = उस की। गज = हाथी। त्रास = डर। बिसराउ = बिसरावहु, भुला रहे हो।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: भागवत की कथा है कि एक गंधर्व किसी श्राप के कारण हाथी बन गया। नदी से पानी पीने गए को पानी में से एक तंदुए ने पकड़ लिया। उसने राम नाम को याद किया और उसकी खलासी हो गई।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे संत जनो!) परमात्मा उन लोगों को भी पवित्र करने वाला है जो विकारों में गिरे हुए होते हैं, वह हरि गरीबों का सहयोगी है। तुम भी उसी की शरण पड़ो। जिसका स्मरण करके हाथी का डर मिट गया था, तुम उसे क्यूँ भुला रहे हो?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजि अभिमान मोह माइआ फुनि भजन राम चितु लावउ ॥ नानक कहत मुकति पंथ इहु गुरमुखि होइ तुम पावउ ॥२॥५॥
मूलम्
तजि अभिमान मोह माइआ फुनि भजन राम चितु लावउ ॥ नानक कहत मुकति पंथ इहु गुरमुखि होइ तुम पावउ ॥२॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = त्याग के। फुनि = पुनः , दुबारा, और। लावहु = जोड़ो। मुकति = विकारों से खलासी। पंथु = रास्ता। गुरमुखि होइ = गुरमुखि हो के, गुरु की शरण पड़ कर। पावउ = ढूँढ लो।2।
अर्थ: (हे संत जनो!) अहंकार दूर करके और माया का मोह दूर करके अपना चित्त परमात्मा के भजन में जोड़े रखो। नानक कहता है: विकारों से निजात पाने का यही रास्ता है, पर गुरु की शरण पड़ कर ही तुम ये रास्ता ढूँढ सकोगे।2।5।