विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ हसत पुनीत होहि ततकाल ॥ बिनसि जाहि माइआ जंजाल ॥ रसना रमहु राम गुण नीत ॥ सुखु पावहु मेरे भाई मीत ॥१॥
मूलम्
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ हसत पुनीत होहि ततकाल ॥ बिनसि जाहि माइआ जंजाल ॥ रसना रमहु राम गुण नीत ॥ सुखु पावहु मेरे भाई मीत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हसत = हस्त, हाथ। पुनीत = पवित्र। होहि = हो जाते हैं (‘होइ’ = हो जाता है)। ततकाल = तुरंत। जंजाल = फांसी। रसना = जीभ (से)। रमहु = स्मरण करो, जपो। नीत = नित्य, सदा। भाई = हे भाई! मीत = हे मित्र! 1।
अर्थ: हे मेरे भाई! हे मेरे मित्र! अपनी जीभ से सदा परमात्मा की महिमा के गुण गाता रह, तू आत्मिक आनंद पाएगा। उस वक्त तेरे हाथ पवित्र हो जाएंगे, तेरे (माया के मोह के) बंधन दूर हो जाएंगे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लिखु लेखणि कागदि मसवाणी ॥ राम नाम हरि अम्रित बाणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
लिखु लेखणि कागदि मसवाणी ॥ राम नाम हरि अम्रित बाणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लेखणि = कलम (भाव, तवज्जो)। कागदि = कागज पर। (‘करणी’ के कागज पर)। मसवाणी = दावत (‘मन’ की दवात ले के)। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली।1। रहाउ।
अर्थ: (हे मेरे भाई! अपनी ‘तवज्जो’ की) कलम (ले के अपनी ‘करणी’ के) कागज़ पर (‘मन’ की) दवात से परमात्मा का नाम लिख। आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी लिख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह कारजि तेरे जाहि बिकार ॥ सिमरत राम नाही जम मार ॥ धरम राइ के दूत न जोहै ॥ माइआ मगन न कछूऐ मोहै ॥२॥
मूलम्
इह कारजि तेरे जाहि बिकार ॥ सिमरत राम नाही जम मार ॥ धरम राइ के दूत न जोहै ॥ माइआ मगन न कछूऐ मोहै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इह कारजि = इस काम से। जम मार = यमों की मार, आत्मिक मौत। जोहै = ताकना, देखना। धरम राइ के दूत = (भाव, कामादिक विकार जो जीव को अपने पँजे में फंसा के धर्मराज के वश में करते हैं)। मगन = मस्त। कछूऐ = कुछ भी, कोई भी चीज।2।
अर्थ: (हे मेरे वीर! हे मेरे मित्र!) इस काम को करने से तेरे (अंदर से) विकार भाग जाएंगे। परमात्मा का नाम स्मरण करने से (तेरे वास्ते) आत्मिक मौत नहीं रहेगी। (कामादिक) दूत जो धर्मराज के वश में डालते हैं तेरी तरफ देख भी नहीं सकेंगे। तू माया (के मोह) में नहीं डूबेगा, कोई भी चीज तुझे मोह नहीं सकेगी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उधरहि आपि तरै संसारु ॥ राम नाम जपि एकंकारु ॥ आपि कमाउ अवरा उपदेस ॥ राम नाम हिरदै परवेस ॥३॥
मूलम्
उधरहि आपि तरै संसारु ॥ राम नाम जपि एकंकारु ॥ आपि कमाउ अवरा उपदेस ॥ राम नाम हिरदै परवेस ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उधरहि = तू बच जाएगा। कमाउ = नाम जपने की कमाई कर। हिरदै = हृदय में।3।
अर्थ: (हे मेरे वीर! हे मेरे मित्र!) परमात्मा का नाम जप। इक ओअंकार को स्मरण करता रह। तू खुद (विकारों से) बच जाएगा, (तेरी संगति में) जगत भी (विकारों के समुंदर से) पार लांघ जाएगा। (हे मेरे वीर!) तू स्वयं नाम जपने की कमाई कर, और लोगों को भी उपदेश कर। परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै माथै एहु निधानु ॥ सोई पुरखु जपै भगवानु ॥ आठ पहर हरि हरि गुण गाउ ॥ कहु नानक हउ तिसु बलि जाउ ॥४॥२८॥९७॥
मूलम्
जा कै माथै एहु निधानु ॥ सोई पुरखु जपै भगवानु ॥ आठ पहर हरि हरि गुण गाउ ॥ कहु नानक हउ तिसु बलि जाउ ॥४॥२८॥९७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै माथै = जिस के माथे पर। निधानु = खजाना। बलि = सदके।4।
अर्थ: (पर हे मेरे वीर!) वही मनुष्य भगवान को याद करता है जिसके माथे पे (भगवान की कृपा से) ये खजाना (प्राप्त करने का लेख लिखा हुआ) है।
हे नानक कह: मैं उस मनुष्य से कुर्बान जाता हूँ, जो आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाता रहता है।4।28।97।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी गुआरेरी महला ५ चउपदे दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी गुआरेरी महला ५ चउपदे दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो पराइओ सोई अपना ॥ जो तजि छोडन तिसु सिउ मनु रचना ॥१॥
मूलम्
जो पराइओ सोई अपना ॥ जो तजि छोडन तिसु सिउ मनु रचना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = त्याग के। सिउ = साथ।1।
अर्थ: (माल धन आदिक) जो (अंत में) बेगाना हो जाना है, उसे हम अपना माने बैठे हैं, हमारा मन उस (माल धन) से मस्त रहता है, जिसे (आखिर) छोड़ जाना है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहहु गुसाई मिलीऐ केह ॥ जो बिबरजत तिस सिउ नेह ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कहहु गुसाई मिलीऐ केह ॥ जो बिबरजत तिस सिउ नेह ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहहु = बताओ। केहु = किस तरह? बिबरजत = विवर्जित, मनाही। नेह = प्यार।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) बताओ, हम प्रभु-पति से कैसे मिल सकते हैं, अगर हमारा (सदा) उस माया से प्यार है, जिससे हमें मना किया हुआ है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
झूठु बात सा सचु करि जाती ॥ सति होवनु मनि लगै न राती ॥२॥
मूलम्
झूठु बात सा सचु करि जाती ॥ सति होवनु मनि लगै न राती ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाती = जानी है। सति = सत्य। मनि = मन में। राती = रत्ती भी।2।
अर्थ: (ये ख्याल झूठा है कि हमने यहाँ सदा बैठे रहना है, पर यह) जो झूठी बात है इसे हमने ठीक समझा हुआ है। (मौत) जो अवश्यंभावी है, हमारे मन को रत्ती भर नहीं जचती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बावै मारगु टेढा चलना ॥ सीधा छोडि अपूठा बुनना ॥३॥
मूलम्
बावै मारगु टेढा चलना ॥ सीधा छोडि अपूठा बुनना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बावै = बाएं, उल्टी तरफ। मारगु = रास्ता। छोडि = छोड़ के। अपूठा = उल्टा।3।
अर्थ: (बुरी तरफ प्यार डालने के कारण) हमने बुरी तरफ जीवन का रास्ता पकड़ा हुआ है, हम जीवन की टेढ़ी चाल चल रहे हैं। जीवन का सीधा राह छोड़ के हम जीवन डोर की उल्टी बुनाई कर रहे हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुहा सिरिआ का खसमु प्रभु सोई ॥ जिसु मेले नानक सो मुकता होई ॥४॥२९॥९८॥
मूलम्
दुहा सिरिआ का खसमु प्रभु सोई ॥ जिसु मेले नानक सो मुकता होई ॥४॥२९॥९८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुहा सिरिआ का = दोनों तरफ का (उल्टे मार्ग का और सीधे मार्ग का)। मुकता = विकारों से मुक्त।4।
अर्थ: (पर) हे नानक! (जीवों के भी क्या वश?) (जीवन के अच्छे और बुरे) दोनों तरफ का मालिक परमात्मा स्वयं ही है। जिस मनुष्य को परमात्मा (अपने चरणों में) जोड़ता है, वे बुरे राह से बच जाते हैं।4।29।98।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ कलिजुग महि मिलि आए संजोग ॥ जिचरु आगिआ तिचरु भोगहि भोग ॥१॥
मूलम्
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ कलिजुग महि मिलि आए संजोग ॥ जिचरु आगिआ तिचरु भोगहि भोग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलिजुग महि = जगत में, कष्ट भरी दुनिया में। मिलि = मिल के। संजोग = (पिछले) संबंधों के कारण। आए = आ एकत्र होते हैं। जिचरु = जितना समय। भोगहि = भोगते हैं।1।
अर्थ: इस कष्टों भरी दुनिया में (स्त्री और पति) पिछले सम्बंधों के कारण मिल के आ इकट्ठे होते हैं। जितना वक्त (परमात्मा से) हुक्म मिलता है उतना समय (दोनों मिल के जगत के) पदार्थ भोगते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलै न पाईऐ राम सनेही ॥ किरति संजोगि सती उठि होई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जलै न पाईऐ राम सनेही ॥ किरति संजोगि सती उठि होई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (अपने मरे पति के साथ दुबारा) किए जा सकने वाले मिलाप की खातिर (स्त्री) उठ के सती हो जाती है, (पति की चिता में जल मरती है, पर आग में) जलने से प्यार करने वाला पति नहीं मिल सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखा देखी मनहठि जलि जाईऐ ॥ प्रिअ संगु न पावै बहु जोनि भवाईऐ ॥२॥
मूलम्
देखा देखी मनहठि जलि जाईऐ ॥ प्रिअ संगु न पावै बहु जोनि भवाईऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलै = आग में जलने से। सनेही = प्यारा, प्यार करने वाला। किरति = (कृत्य) करने योग्य, जिसके करने का तमन्ना है। संजोग = मिलाप की खातिर। हठि = हठ से। जलि जाईऐ = जल जाते हैं। प्रिअ संगु = प्यारे (पति) के साथ।2।
अर्थ: एक दूसरी को देख के मन के हठ के साथ (ही) जल जाते हैं (पर मरे पति की चिता में जल के स्त्री अपने) प्यारे का साथ नहीं प्राप्त कर सकती। (इस तरह बल्कि) कई जूनियों में भटकते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सील संजमि प्रिअ आगिआ मानै ॥ तिसु नारी कउ दुखु न जमानै ॥३॥
मूलम्
सील संजमि प्रिअ आगिआ मानै ॥ तिसु नारी कउ दुखु न जमानै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सील = मीठा स्वभाव। संजमि = संयम में, मर्यादा में, जुगति में। प्रिअ = प्यारे की। जमानै दुखु = जमों का दुख, मौत का डर, आत्मिक मौत का खतरा।3।
अर्थ: जो स्त्री मीठे स्वभाव की जुगति में रह के (अपने) प्यारे (पति) का हुक्म मानती है, उस स्त्री को यमों का दुख नहीं छू सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जिनि प्रिउ परमेसरु करि जानिआ ॥ धंनु सती दरगह परवानिआ ॥४॥३०॥९९॥
मूलम्
कहु नानक जिनि प्रिउ परमेसरु करि जानिआ ॥ धंनु सती दरगह परवानिआ ॥४॥३०॥९९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन = जिस (स्त्री) ने। प्रिउ = पति। करि = करके। धंनु = धन्यता के योग्य, सराहनीय।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस (स्त्री) ने अपने पति को ही एक पति कर के समझा है (भाव, सिर्फ अपने पति में ही पति-भावना रखी है) जैसे भक्त का पति एक परमात्मा है। वह स्त्री असली सती है, वह भाग्यशाली है, वह परमात्मा की हजूरी में स्वीकार है।4।30।99।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ हम धनवंत भागठ सच नाइ ॥ हरि गुण गावह सहजि सुभाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ हम धनवंत भागठ सच नाइ ॥ हरि गुण गावह सहजि सुभाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनवंत = धन वाले, धनाढ, धनवान। भागठ = भाग्यशाली। नाइ = नाम के द्वारा। सच नाइ = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम की इनायत से। गावह = हम गाते हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = श्रेष्ठ प्रेम में।1। रहाउ।
अर्थ: (ज्यों ज्यों) हम परमात्मा के गुण (मिल के) गाते हैं, सदा स्थिर प्रभु के नाम की इनायत से हम (परमात्मा के नाम धन के) धनी बनते जा रहे हैं। भाग्यशाली बनते जा रहे हैं, आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, प्रेम में मगन रहते हैं।1। रहाउ।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
पीऊ दादे का खोलि डिठा खजाना ॥ ता मेरै मनि भइआ निधाना ॥१॥
मूलम्
पीऊ दादे का खोलि डिठा खजाना ॥ ता मेरै मनि भइआ निधाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खोलि = खेल के। ता = तब। मनि = मन मे। निधाना = खजाना।1।
अर्थ: जब मैंने गुरु नानक देव से लेकर सारे गुरु साहिबान की वाणी का खजाना खोल के देखा, तब मेरे मन में आत्मिक आनंद का भण्डार भर गया।1।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: पाठक ध्यान से पढ़ें: खोल के ‘देखा’, ना कि ‘इकट्ठा किया’। गुरु अरजन साहिब ने सारे गुरु साहिबान की वाणी स्वयं एकत्र नहीं की, आपको सारी की सारी एकत्र की हुई वाणी गुरु राम दास जी से मिल गई)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रतन लाल जा का कछू न मोलु ॥ भरे भंडार अखूट अतोल ॥२॥
मूलम्
रतन लाल जा का कछू न मोलु ॥ भरे भंडार अखूट अतोल ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा का = जिस का। अखूट = ना खत्म होने वाला।2।
अर्थ: इस खजाने में परमात्मा की महिमा के अमोलक रत्नों-लालों के भण्डार भरे हुए (मैंने देखे), जो कभी खत्म नहीं हो सकते, जो तौले नहीं जा सकते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खावहि खरचहि रलि मिलि भाई ॥ तोटि न आवै वधदो जाई ॥३॥
मूलम्
खावहि खरचहि रलि मिलि भाई ॥ तोटि न आवै वधदो जाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रलि मिलि = इकट्ठे हो के।3।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (सत्संग में) इकट्ठे हो के इन भण्डारों को खुद इस्तेमाल करते हैं व और लोगों को भी बाँटते हैं, उनके पास इस खजाने की कमी नहीं होती, बल्कि और-और बढ़होत्तरी होती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जिसु मसतकि लेखु लिखाइ ॥ सु एतु खजानै लइआ रलाइ ॥४॥३१॥१००॥
मूलम्
कहु नानक जिसु मसतकि लेखु लिखाइ ॥ सु एतु खजानै लइआ रलाइ ॥४॥३१॥१००॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। एतु = इस में। एतु खजाने = इस खजाने में।4।
अर्थ: (पर) हे नानक! कह: जिस मनुष्य के माथे पे परमात्मा की बख्शिश का लेख लिखा होता है, वही इस (महिमा के) खजाने में भागीदार बनाया जाता है (भाव, वही साधु-संगत में आ के महिमा की वाणी का आनंद पाता है)।4।31।100।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ डरि डरि मरते जब जानीऐ दूरि ॥ डरु चूका देखिआ भरपूरि ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ डरि डरि मरते जब जानीऐ दूरि ॥ डरु चूका देखिआ भरपूरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डरि = डर के, सहम के। मरते = आत्मिक मौत मरते। चूका = समाप्त हो गया। भरपूरि = हर जगह व्यापक।1।
अर्थ: जब तक हम ये समझते हैं कि परमात्मा कहीं दूर बसता है, तब तक (दुनिया के दुख रोग फिक्रों से) सहम सहम के आत्मिक मौत मरते रहते हैं। जब उसे (सारे संसार में कण कण में) व्यापक देख लिया, (उस वक्त दुनिया के दुख आदिक का) भय खत्म हो गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर अपने कउ बलिहारै ॥ छोडि न जाई सरपर तारै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सतिगुर अपने कउ बलिहारै ॥ छोडि न जाई सरपर तारै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलिहारै = कुर्बान। सरपर = जरूर। तारै = पार लंघाता है।1। रहाउ।
अर्थ: मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, वह (दुख-रोग-सोग आदिक के समुंदर में हम डूबतों को) छोड़ के नहीं जाता, वह (इस समुंदर में से) जरूर पार लंघाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूखु रोगु सोगु बिसरै जब नामु ॥ सदा अनंदु जा हरि गुण गामु ॥२॥
मूलम्
दूखु रोगु सोगु बिसरै जब नामु ॥ सदा अनंदु जा हरि गुण गामु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोगु = फिक्र। गामु = गाना।2।
अर्थ: (हे भाई! दुनिया का) दुख रोग फिक्र (तभी व्यापता) है जब परमात्मा का नाम भूल जाता है। जब परमात्मा के महिमा के गीत गाते हैं तो (मन में) सदा आनंद बना रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुरा भला कोई न कहीजै ॥ छोडि मानु हरि चरन गहीजै ॥३॥
मूलम्
बुरा भला कोई न कहीजै ॥ छोडि मानु हरि चरन गहीजै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न कहीजै = नहीं कहना चाहिए। गहीजै = पकड़ने चाहिए।3।
अर्थ: (हे भाई!) ना किसी की निंदा करनी चाहिए, ना किसी की खुशामद। (दुनिया का) मान त्याग के परमात्मा के चरण (हृदय में) टिका लेने चाहिए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक गुर मंत्रु चितारि ॥ सुखु पावहि साचै दरबारि ॥४॥३२॥१०१॥
मूलम्
कहु नानक गुर मंत्रु चितारि ॥ सुखु पावहि साचै दरबारि ॥४॥३२॥१०१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंतु = उपदेश। चितारि = याद रख, चेते रख। दरबारि = दरबार में।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) गुरु का उपदेश अपने चित्त में परोए रख, सदा कायम रहने वाले परमात्मा की दरगाह में आनंद पाऐगा।4।32।101।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जा का मीतु साजनु है समीआ ॥ तिसु जन कउ कहु का की कमीआ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जा का मीतु साजनु है समीआ ॥ तिसु जन कउ कहु का की कमीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समीआ = समान, व्यापक। कहु = बताओ। का की = किस चीज की? कमीआ = कमी।1।
अर्थ: जिस मनुष्य को (ये यकीन बन जाए कि उसका) सज्जन प्रभु, मित्र प्रभु हर जगह व्यापक है, (हे भाई!) बता, उस मनुष्य को (फिर) किस चीज की कमी रह जाती है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा की प्रीति गोबिंद सिउ लागी ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जा की प्रीति गोबिंद सिउ लागी ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य का प्यार परमात्मा के साथ बन जाता है उसके हरेक दुख, हरेक दर्द, हरेक भ्रम-वहिम दूर हो जाते हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ रसु हरि रसु है आइओ ॥ सो अन रस नाही लपटाइओ ॥२॥
मूलम्
जा कउ रसु हरि रसु है आइओ ॥ सो अन रस नाही लपटाइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। अन = अन्य। लपटायो = चिपका हुआ।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का आनंद आ जाता है, वह (दुनिया के) अन्य (पदार्थों के) स्वादों से नहीं चिपकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा का कहिआ दरगह चलै ॥ सो किस कउ नदरि लै आवै तलै ॥३॥
मूलम्
जा का कहिआ दरगह चलै ॥ सो किस कउ नदरि लै आवै तलै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किस कउ = किस को। तलै = नीचे।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘किस कउ’ में से शब्द ‘किसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जिस मनुष्य के बोले हुए बोल परमात्मा की हजूरी में माने जाते हैं, उसे किसी और की अधीनता नहीं रह जाती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा का सभु किछु ता का होइ ॥ नानक ता कउ सदा सुखु होइ ॥४॥३३॥१०२॥
मूलम्
जा का सभु किछु ता का होइ ॥ नानक ता कउ सदा सुखु होइ ॥४॥३३॥१०२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा का = जिस (परमात्मा) का। ता का = उस (परमात्मा) का।4।
अर्थ: हे नानक! जिस परमातमा का रचा हुआ ये संसार है उस परमात्मा का सेवक जो मनुष्य बन जाता है उसे सदा आनंद प्राप्त रहता है।4।33।102।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जा कै दुखु सुखु सम करि जापै ॥ ता कउ काड़ा कहा बिआपै ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जा कै दुखु सुखु सम करि जापै ॥ ता कउ काड़ा कहा बिआपै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै = जिस के (हृदय में), जिस मनुष्य के दिल में। सम = बराबर, एक जैसा। जापै = प्रतीत होता है। काड़ा = झोरा, चिन्ता। बिआपै = प्रभाव डालता है।1।
अर्थ: (प्रभु की रजा में चलने के कारण) जिस मनुष्य के हृदय में हरेक दुख सुख एक जैसा ही प्रतीत होता है, उसे कोई चिन्ता-फिक्र कभी दबा नहीं सकती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज अनंद हरि साधू माहि ॥ आगिआकारी हरि हरि राइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सहज अनंद हरि साधू माहि ॥ आगिआकारी हरि हरि राइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। हरि साधू = परमात्मा का भक्त।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के भक्त के हृदय में (सदा) आत्मिक अडोलता बनी रहती है, (सदा) आत्मिक आनंद बना रहता है। (हरि का भक्त) हरि-प्रभु की आज्ञा में ही चलता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै अचिंतु वसै मनि आइ ॥ ता कउ चिंता कतहूं नाहि ॥२॥
मूलम्
जा कै अचिंतु वसै मनि आइ ॥ ता कउ चिंता कतहूं नाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचिंतु = चिन्ता रहित प्रभु। मनि = मन में। कतहूँ = कभी भी।2।
अर्थ: (हे भाई!) चिन्ता-रहित परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में आ बसता है, उसे कभी कोई चिन्ता नहीं सताती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै बिनसिओ मन ते भरमा ॥ ता कै कछू नाही डरु जमा ॥३॥
मूलम्
जा कै बिनसिओ मन ते भरमा ॥ ता कै कछू नाही डरु जमा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन ते = मन से। भरमा = भटकना। ता कै = उस के हृदय।3।
अर्थ: जिस मनुष्य के मन से भटकना खत्म हो जाती है, उसके मन में मौत का डर नहीं रह जाता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै हिरदै दीओ गुरि नामा ॥ कहु नानक ता कै सगल निधाना ॥४॥३४॥१०३॥
मूलम्
जा कै हिरदै दीओ गुरि नामा ॥ कहु नानक ता कै सगल निधाना ॥४॥३४॥१०३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। सगल = सारे। निधान = खजाने।4।
अर्थ: हे नानक! कह: गुरु ने जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम टिका दिया है उसके अंदर, जैसे, सारे खजाने आ जाते हैं।4।34।103।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ अगम रूप का मन महि थाना ॥ गुर प्रसादि किनै विरलै जाना ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ अगम रूप का मन महि थाना ॥ गुर प्रसादि किनै विरलै जाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। प्रसादि = कृपा से।1।
अर्थ: (जिस मन में महिमा के चश्मे जारी हो जाते हैं) उस मन में अगम्य (पहुँच से परे) स्वरूप वाले परमात्मा का निवास हो जाता है। (पर) किसी विरले मनुष्य ने गुरु की कृपा से (ये भेद) समझा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज कथा के अम्रित कुंटा ॥ जिसहि परापति तिसु लै भुंचा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सहज कथा के अम्रित कुंटा ॥ जिसहि परापति तिसु लै भुंचा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। कथा = महिमा। कुंट = चश्मे। भुंचा = रस लिया, खाया, आस्वादन लिया।1। रहाउ।
अर्थ: जिस मनुष्य के भाग्यों में प्राप्ति का लेख होता है वह (गुरु की कृपा से) आत्मिक अडोलता और महिमा के अमृत के चश्मों का आनंद पाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनहत बाणी थानु निराला ॥ ता की धुनि मोहे गोपाला ॥२॥
मूलम्
अनहत बाणी थानु निराला ॥ ता की धुनि मोहे गोपाला ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनहत = एक रस। धुनि = सुर, आवाज।2।
अर्थ: (जहाँ महिमा और आत्मिक अडोलता के चश्मे चल पड़ते हैं) उसका हृदय-स्थल एक-रस महिमा की वाणी की इनायत से अनोखा (सुंदर) हो जाता है। उसकी जुड़ी तवज्जो पर परमात्मा (भी) मोहित हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तह सहज अखारे अनेक अनंता ॥ पारब्रहम के संगी संता ॥३॥
मूलम्
तह सहज अखारे अनेक अनंता ॥ पारब्रहम के संगी संता ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अखारे = एकत्र।3।
अर्थ: (जहाँ महिमा के चश्मे जारी होते हैं) वहाँ (उस आत्मिक अवस्था में टिके हुए) संत जन परमात्मा के चरणों में जुड़ के आत्मिक अडोलता के अनेक और बेअंत अखाड़े रच के रखते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरख अनंत सोग नही बीआ ॥ सो घरु गुरि नानक कउ दीआ ॥४॥३५॥१०४॥
मूलम्
हरख अनंत सोग नही बीआ ॥ सो घरु गुरि नानक कउ दीआ ॥४॥३५॥१०४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरख = हर्ष, खुशी। बीआ = अन्य, दूसरा। गुरि = गुरु ने।4।
अर्थ: (उस अवस्था में) बेअंत खुशी ही खुशी बनी रहती है, किसी तरह की अन्य कोई चिन्ता फिक्र नहीं। (हे भाई!) गुरु ने वह आत्मिक ठिकाना (मुझे) नानक को (भी) बख्शा है।4।35।104।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी मः ५ ॥ कवन रूपु तेरा आराधउ ॥ कवन जोग काइआ ले साधउ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी मः ५ ॥ कवन रूपु तेरा आराधउ ॥ कवन जोग काइआ ले साधउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कवन रूपु = कौन सी शक्ल? जोग = योग के साधन। काइआ = काया,शरीर। साधउ = साधूँ, मैं वश में करूँ।1।
अर्थ: (हे प्रभु! जगत के सारे जीव तेरा ही रूप हैं और तेरा कोई खास रूप नहीं। मैं नहीं जानता कि) तेरा वह कौन सा रूप है जिसका मैं ध्यान धरूँ। (हे प्रभु! मुझे समझ नहीं कि) जोग का वह कौन सा साधन है जिससे मैं अपने शरीर को वश में ले आऊँ (और तुझे प्रसन्न करूँ)। योग साधना के साथ तुझे खुश नहीं किया जा सकता।1।
[[0187]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन गुनु जो तुझु लै गावउ ॥ कवन बोल पारब्रहम रीझावउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कवन गुनु जो तुझु लै गावउ ॥ कवन बोल पारब्रहम रीझावउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुझु = तुझे। तुझु गावउ = मैं तेरी महिमा करूँ। पारब्रहम = हे पारब्रह्म! रीझावउ = मैं (तुझे) प्रसन्न करूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे पारब्रह्म प्रभु! (तेरे बेअंत गुण हैं, मुझे समझ नहीं आती कि) मैं तेरा कौन सा गुण ले के तेरी महिमा करूँ, और कौन से बोल बोल के तुझे प्रसन्न करूँ? रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन सु पूजा तेरी करउ ॥ कवन सु बिधि जितु भवजल तरउ ॥२॥
मूलम्
कवन सु पूजा तेरी करउ ॥ कवन सु बिधि जितु भवजल तरउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिधि = तरीका। जितु = जिससे। तरउ = तैरूँ, मैं पार होऊँ।2।
अर्थ: हे पारब्रह्म! मैं तेरी कौन सी पूजा करूँ (जिससे तू प्रसन्न हो सके)? हे प्रभु! वह कौन सा तरीका है जिससे मैं संसार समुंदर पार लांघ जाऊँ?।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन तपु जितु तपीआ होइ ॥ कवनु सु नामु हउमै मलु खोइ ॥३॥
मूलम्
कवन तपु जितु तपीआ होइ ॥ कवनु सु नामु हउमै मलु खोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मलु = मैल। खोइ = दूर करे।3।
अर्थ: वह कौन सी तप साधना है जिससे मनुष्य (कामयाब) तपस्वी कहलवा सकता है (और तुझे खुश कर सकता है)? वह कौन सा नाम है (जिसका जाप करके) (मनुष्य अपने अंदर से) अहंकार की मैल दूर कर सकता है?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण पूजा गिआन धिआन नानक सगल घाल ॥ जिसु करि किरपा सतिगुरु मिलै दइआल ॥४॥
मूलम्
गुण पूजा गिआन धिआन नानक सगल घाल ॥ जिसु करि किरपा सतिगुरु मिलै दइआल ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घाल = मेहनत। जिसु = जिस (मनुष्य) को। करि = कर के।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिस ही’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ही’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (मनुष्य सिर्फ अपने प्रयासों के आसरे प्रभु को प्रसन्न नहीं कर सकता। उसी मनुष्य के गाए हुए) गुण (की हुई) पूजा, ज्ञान और (जुड़ी हुई) तवज्जो आदिक की सारी मेहनत (सफल होती है) जिस पर दयाल हो के कृपा करके गुरु मिलता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिस ही गुनु तिन ही प्रभु जाता ॥ जिस की मानि लेइ सुखदाता ॥१॥ रहाउ दूजा ॥३६॥१०५॥
मूलम्
तिस ही गुनु तिन ही प्रभु जाता ॥ जिस की मानि लेइ सुखदाता ॥१॥ रहाउ दूजा ॥३६॥१०५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिन ही = तिनि ही, वे ही, उसने ही।1। रहाउ दूजा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की आखिरी ‘ि’ मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: उसी की ही की हुई महिमा (स्वीकार है), उसी ने ही प्रभु के साथ जान पहिचान डाली है (जिसे गुरु मिला है और) जिसकी अरदास सारे सुख देने वाला परमात्मा मान लेता है।1। रहाउ दूजा।36।105।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ आपन तनु नही जा को गरबा ॥ राज मिलख नही आपन दरबा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ आपन तनु नही जा को गरबा ॥ राज मिलख नही आपन दरबा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तनु = शरीर। जा के = जिस का। गरबा = अहंकार। मिलख = जमीन। दरबा = द्रव्य, धन।1।
अर्थ: (हे भाई!) ये शरीर, जिसका (तू) गर्व करता है (सदा वास्ते) अपना नहीं है। राज, भूमि, धन (ये भी सदा के लिए) अपने नहीं हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपन नही का कउ लपटाइओ ॥ आपन नामु सतिगुर ते पाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
आपन नही का कउ लपटाइओ ॥ आपन नामु सतिगुर ते पाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: का कउ = किसे? लपटाइओ = चिपका हुआ, मोह कर रहा। ते = से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! तू) किस किस से मोह कर रहा है? (इनमें से कोई भी सदा के लिए) तेरा अपना नहीं है। (सदा के लिए) अपना (बने रहने वाला परमात्मा का) नाम (ही) है (जो) गुरु से प्राप्त होता है।1। रहाउ।?
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुत बनिता आपन नही भाई ॥ इसट मीत आप बापु न माई ॥२॥
मूलम्
सुत बनिता आपन नही भाई ॥ इसट मीत आप बापु न माई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। इसट = प्यारे। आप = अपना। माई = माँ।2।
अर्थ: पुत्र, स्त्री, भाई, प्यारे मित्र, पिता, माता (इनमें से कोई भी सदा के लिए) अपना नहीं है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुइना रूपा फुनि नही दाम ॥ हैवर गैवर आपन नही काम ॥३॥
मूलम्
सुइना रूपा फुनि नही दाम ॥ हैवर गैवर आपन नही काम ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रूपा = चाँदी। फुनि = भी। दाम = दौलत। हैवर = हय+वर, बढ़िया घोड़े। गैवर = गज+वर, बढ़िया हाथी।3।
अर्थ: (हे भाई!) सोना, चाँदी व दौलत भी (सदा के लिए) अपने नहीं हैं। बढ़िया घोड़े, बढ़िया हाथी (ये भी सदा के लिए) अपने काम नहीं आ सकते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जो गुरि बखसि मिलाइआ ॥ तिस का सभु किछु जिस का हरि राइआ ॥४॥३७॥१०६॥
मूलम्
कहु नानक जो गुरि बखसि मिलाइआ ॥ तिस का सभु किछु जिस का हरि राइआ ॥४॥३७॥१०६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जे = जिसे। गुरि = गुरु ने। बखसि = बख्शिश करके।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस का/तिस का’ में से शब्द ‘तिसु’ ‘जिसु’ में ‘ु’ संबंधक कारक के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य को बख्शिश करके गुरु ने (प्रभु के साथ) मिला दिया है, जिस मनुष्य का (सदा का साथी) परमात्मा बन गया है, सब कुछ उसका अपना है (भाव, उसे सारा जगत अपना दिखाई देता है, उसे दुनिया के साक-सम्बंधियों का, दुनिया के धन-पदार्थों का बिछोड़ा दुखी नहीं कर सकता)।4।37।106।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ गुर के चरण ऊपरि मेरे माथे ॥ ता ते दुख मेरे सगले लाथे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ गुर के चरण ऊपरि मेरे माथे ॥ ता ते दुख मेरे सगले लाथे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता ते = उन (चरणों की) इनायत से। सगले = सारे।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के चरण मेरे माथे पर टिके हुए हैं, उनकी इनायत से मेरे सारे दुख दूर हो गए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर अपुने कउ कुरबानी ॥ आतम चीनि परम रंग मानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सतिगुर अपुने कउ कुरबानी ॥ आतम चीनि परम रंग मानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किउ = को, से। कुरबानी = सदके। आतमु = अपने आप को, आत्मिक जीवन को। चीनि = परख के। परम = सबसे ऊँचा। मानी = मैं मानता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: मैं अपने गुरु से सदके जाता हूँ (गुरु की कृपा से) मैं अपने आत्मिक जीवन की पड़ताल कर कर के (आत्म-मंथन कर करके) सबसे श्रेष्ठ आनंद ले रहा हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण रेणु गुर की मुखि लागी ॥ अह्मबुधि तिनि सगल तिआगी ॥२॥
मूलम्
चरण रेणु गुर की मुखि लागी ॥ अह्मबुधि तिनि सगल तिआगी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रेणु = धूल। मुखि = मुंह पर, माथे पर। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। जिनि = उस (मनुष्य) ने।2।
अर्थ: जिस मनुष्य के माथे पर गुरु के चरणों की धूल लग गई, उसने अपनी सारी अहम् (पैदा करने वाली) बुद्धि त्याग दी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का सबदु लगो मनि मीठा ॥ पारब्रहमु ता ते मोहि डीठा ॥३॥
मूलम्
गुर का सबदु लगो मनि मीठा ॥ पारब्रहमु ता ते मोहि डीठा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। ता ते = उसकी इनायत से। मोहि = मैं।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु का शब्द मेरे मन को प्यारा लग रहा है, उसकी इनायत से मैं परमात्मा के दर्शन कर रहा हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु सुखदाता गुरु करतारु ॥ जीअ प्राण नानक गुरु आधारु ॥४॥३८॥१०७॥
मूलम्
गुरु सुखदाता गुरु करतारु ॥ जीअ प्राण नानक गुरु आधारु ॥४॥३८॥१०७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ आधारु = जीवात्मा का आसरा। प्राण आधारु = प्राणों का आसरा।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: मेरे वास्ते) गुरु (ही सारे) सुखों को देने वाला है, गुरु कर्तार (का रूप) है। गुरु मेरी जीवात्मा का सहारा है, गुरु मेरे प्राणों का सहारा है।4।38।107।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ रे मन मेरे तूं ता कउ आहि ॥ जा कै ऊणा कछहू नाहि ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ रे मन मेरे तूं ता कउ आहि ॥ जा कै ऊणा कछहू नाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे! कउ = को। आहि = तमन्ना कर। जा कै = जिसके घर में। ऊणा = कमी।1।
अर्थ: हे मेरे मन! तू उस परमात्मा को मिलने की चाहत रख, जिसके घर में किसी चीज की भी कमी नहीं है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि सा प्रीतमु करि मन मीत ॥ प्रान अधारु राखहु सद चीत ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि सा प्रीतमु करि मन मीत ॥ प्रान अधारु राखहु सद चीत ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा = जैसा। करि = बना। सद = सदा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मित्र मन! परमात्मा जैसा प्रीतम बना, उस (प्रीतम को) प्राणों के आसरे (प्रीतम) को सदा अपने चित्त में परोए रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे मन मेरे तूं ता कउ सेवि ॥ आदि पुरख अपर्मपर देव ॥२॥
मूलम्
रे मन मेरे तूं ता कउ सेवि ॥ आदि पुरख अपर्मपर देव ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवि = स्मरण कर। सेवा = भक्ति। आदि = सब की शुरूवात। पुरख = सर्व व्यापक। अपरंपर = परे से परे।2।
अर्थ: हे मेरे मन! तू उस परमात्मा की सेवा-भक्ति कर, जो (सारे जगत का) मूल है, जो सब में व्यापक है, जो परे से परे है (बेअंत है) और जो प्रकाश-रूप है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु ऊपरि मन करि तूं आसा ॥ आदि जुगादि जा का भरवासा ॥३॥
मूलम्
तिसु ऊपरि मन करि तूं आसा ॥ आदि जुगादि जा का भरवासा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! आदि = शुरू से ही। जुगादि = युगों के आरम्भ से ही। जा का = जिसका।3।
अर्थ: हे (मेरे) मन! तू उस परमात्मा पर (अपनी सारी जरूरतें पूरी होने की) आस रख जिस (की सहायता) का भरोसा सदा से ही (सब जीवों को है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा की प्रीति सदा सुखु होइ ॥ नानकु गावै गुर मिलि सोइ ॥४॥३९॥१०८॥
मूलम्
जा की प्रीति सदा सुखु होइ ॥ नानकु गावै गुर मिलि सोइ ॥४॥३९॥१०८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक गावै = नानक गाता है। सोई = उस प्रभु को ही।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘नानक’ करता कारक, एकवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा से प्रीति करने की इनायत से सदा आत्मिक आनंद मिलता है, नानक (अपने) गुरु को मिल के उसके गुण गाता है।4।39।108।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ मीतु करै सोई हम माना ॥ मीत के करतब कुसल समाना ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ मीतु करै सोई हम माना ॥ मीत के करतब कुसल समाना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = (भाव,) मैं। माना = मानता हूँ, स्वीकार करता हूँ। कुसल = सुख। कुसल समाना = सुख जैसे, सुख रूप।1।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा मित्र प्रभु जो कुछ करता है, उसे मैं (सिर-माथे) स्वीकार करता हूँ। मित्र-प्रभु के किए काम मुझे सुखदायक (प्रतीत होते) हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एका टेक मेरै मनि चीत ॥ जिसु किछु करणा सु हमरा मीत ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
एका टेक मेरै मनि चीत ॥ जिसु किछु करणा सु हमरा मीत ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टेक = आसरा। मनि चिति = मन चित्त में। जिसु = जिस (परमात्मा) का। किछु करणा = ये सब कुछ बनाया हुआ, ये सारी रचना।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मेरे मन-चित्त में सिर्फ ये सहारा है कि जिस परमात्मा की ये सारी रचना है वह मेरा मित्र है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीतु हमारा वेपरवाहा ॥ गुर किरपा ते मोहि असनाहा ॥२॥
मूलम्
मीतु हमारा वेपरवाहा ॥ गुर किरपा ते मोहि असनाहा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेपरवाहा = बे मुहथाज। ते = से, साथ। मोहि = मेरा। असनाहा = स्नेह, प्यार।2।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा मित्र प्रभु बे-मोहताज है (उसे किसी की कोई गर्ज नहीं, किसी से भय नहीं), गुरु की कृपा से उसके साथ मेरा प्यार बन गया है (भाव, मेरे साथ उसकी सांझ इस वास्ते नहीं बनी कि उसे कोई गरज थी। ये तो सत्गुरू की मेहर हुई है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीतु हमारा अंतरजामी ॥ समरथ पुरखु पारब्रहमु सुआमी ॥३॥
मूलम्
मीतु हमारा अंतरजामी ॥ समरथ पुरखु पारब्रहमु सुआमी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरजामी = दिल की जानने वाला। समरथ = सब ताकतों का मालिक।3।
अर्थ: मेरा मित्र-प्रभु (हरेक जीव के) दिल की जानने वाला है। सब ताकतों का मालिक है, सब में व्यापक है, बेअंत है, सब का मालिक है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम दासे तुम ठाकुर मेरे ॥ मानु महतु नानक प्रभु तेरे ॥४॥४०॥१०९॥
मूलम्
हम दासे तुम ठाकुर मेरे ॥ मानु महतु नानक प्रभु तेरे ॥४॥४०॥१०९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दासे = सेवक। ठाकुर = मालिक। महतु = महत्व, महत्वता, बड़ाई। तेरे = तेरे (सेवक बनने से)।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! तू मेरा मालिक है, मैं तेरा सेवक हूँ। तेरा सेवक बनने से ही (लोक-परलोक में) आदर मिलता है बड़ाई मिलती है।4।40।109।
[[0188]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जा कउ तुम भए समरथ अंगा ॥ ता कउ कछु नाही कालंगा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जा कउ तुम भए समरथ अंगा ॥ ता कउ कछु नाही कालंगा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिसे, जिस पे। समरथ = हे समर्थ प्रभु! अंगा = पक्ष। कालंगा = कलंक, दाग़।1।
अर्थ: हे सब ताकतों के मालिक प्रभु! जिस मनुष्य का तू सहायक बनता है, उसे कोई (विकार आदि का) दाग नहीं छू सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माधउ जा कउ है आस तुमारी ॥ ता कउ कछु नाही संसारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
माधउ जा कउ है आस तुमारी ॥ ता कउ कछु नाही संसारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माधउ = (माया धव) माया का पति, हे प्रभु! संसारी = दुनियावी (आस)।1। रहाउ।
अर्थ: हे माया के पति-प्रभु! जिस मनुष्य को (सिर्फ) तेरी (सहायता की) उम्मीद है, उसे दुनिया (के लोगों की सहायता) की उम्मीद (करने की जरूरत) नहीं (रहती)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै हिरदै ठाकुरु होइ ॥ ता कउ सहसा नाही कोइ ॥२॥
मूलम्
जा कै हिरदै ठाकुरु होइ ॥ ता कउ सहसा नाही कोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहसा = सहम।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में मालिक प्रभु की याद रहती है, उसे (दुनिया का) कोई सहम-फिक्र छू नहीं सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ तुम दीनी प्रभ धीर ॥ ता कै निकटि न आवै पीर ॥३॥
मूलम्
जा कउ तुम दीनी प्रभ धीर ॥ ता कै निकटि न आवै पीर ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! धीर = धीरज, सहारा। निकटि = नजदीक। पीर = पीड़ा, दुख-कष्ट।3।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तूने धैर्य दिया है, कोई दुख-कष्ट उसके नजदीक नहीं फटक सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक मै सो गुरु पाइआ ॥ पारब्रहम पूरन देखाइआ ॥४॥४१॥११०॥
मूलम्
कहु नानक मै सो गुरु पाइआ ॥ पारब्रहम पूरन देखाइआ ॥४॥४१॥११०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सो = वह। कहु = कह। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! कह: मैंने वह गुरु ढूँढ लिया है, जिसने मुझे (ऐसी ताकतों का मालिक) सर्व-व्यापक बेअंत प्रभु दिखा दिया है।4।41।110।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ दुलभ देह पाई वडभागी ॥ नामु न जपहि ते आतम घाती ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ दुलभ देह पाई वडभागी ॥ नामु न जपहि ते आतम घाती ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देह = (मानव-) शरीर। दुलभ = दुर्लभ, मुश्किल से मिलने वाली। ते = वह लोग। आतम घाती = अपनी आत्मा का नाश करने वाले।1।
अर्थ: ये दुर्लभ मानव शरीर बड़े भाग्यों से मिलता है। (पर) जो मनुष्य (ये शरीर प्राप्त करके) परमात्मा का नाम नहीं जपते, वे आत्मिक मौत ले लेते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरि न जाही जिना बिसरत राम ॥ नाम बिहून जीवन कउन काम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मरि न जाही जिना बिसरत राम ॥ नाम बिहून जीवन कउन काम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरि न जाही = क्या वो मर नहीं जाते? वो जरूर आत्मिक मौत मर जाते हैं। बिहून = विहीन।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों को परमात्मा (का नाम) भूल जाता है, वे जरूर आत्मिक मौत मर जाते हैं। (क्योंकि) परमात्मा के नाम से वंचित रहे व्यक्ति का जीवन किसी भी काम का नहीं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खात पीत खेलत हसत बिसथार ॥ कवन अरथ मिरतक सीगार ॥२॥
मूलम्
खात पीत खेलत हसत बिसथार ॥ कवन अरथ मिरतक सीगार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हसत = हँसते। बिसथार = विस्तार, फैलाव। मिरतक = मृतक, मुर्दा।2।
अर्थ: (परमात्मा के नाम से वंचित मनुष्य) खाने-पीने-हसने-खेलने के पसारा पसारते हैं (पर ये ऐसे ही है जैसे किसी मुर्दे को श्रृंगारना, और) मुर्दे को श्रृंगार का कोई लाभ नहीं होता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो न सुनहि जसु परमानंदा ॥ पसु पंखी त्रिगद जोनि ते मंदा ॥३॥
मूलम्
जो न सुनहि जसु परमानंदा ॥ पसु पंखी त्रिगद जोनि ते मंदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = यश, महिमा। परमानंदा = सब से श्रेष्ठ आनंद का मालिक प्रभु। पंखी = पक्षी। त्रिगद जोनि = टेढ़ी जूनियों वाले, टेढे हो के चलने वाली जूनें। ते = से।3।
अर्थ: जो मनुष्य सबसे श्रेष्ठ आनंद के मालिक प्रभु की महिमा नहीं सुनते, वो पशु-पक्षी व टेढ़े हो के चलने वाले (रेंगने वाले) जीवों की जूनियों से भी बुरे हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक गुरि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥ केवल नामु रिद माहि समाइआ ॥४॥४२॥१११॥
मूलम्
कहु नानक गुरि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥ केवल नामु रिद माहि समाइआ ॥४॥४२॥१११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। मंत्र = उपदेश। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का किया। रिद माहि = हृदय में।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के हृदय में गुरु ने अपना उपदेश पक्का कर दिया है, उसके हृदय में सिर्फ परमात्मा का नाम ही सदा टिका रहता है।4।42।111।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ का की माई का को बाप ॥ नाम धारीक झूठे सभि साक ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ का की माई का को बाप ॥ नाम धारीक झूठे सभि साक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: का की = किस की? का को = किस का? नाम धरीक = नाम-मात्र ही, सिर्फ कहने मात्र ही। सभि = सारे।1।
अर्थ: (असल में सदा के लिए) ना कोई किसी की माँ है, ना कोई किसी का पिता है। (माता-पिता-पुत्र-सत्री आदि ये) सारे साक सदा कायम रहने वाले नहीं हैं, कहने मात्र के ही हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहे कउ मूरख भखलाइआ ॥ मिलि संजोगि हुकमि तूं आइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काहे कउ मूरख भखलाइआ ॥ मिलि संजोगि हुकमि तूं आइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहे कउ = क्यूँ? मूरख = हे मूर्ख! भखलाइआ = बड़ बड़ाना, सपने के असर तहत बोल रहा है। मिलि = मिल के। संजोगि = पिछले किए कर्मों के संजोग अनुसार। हुकमि = (प्रभु के) आदेश से।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख! तू क्यूँ (बिलक रहा है, जैसे) सपने के असर में बोल रहा है? (तुझे ये सूझ नहीं कि) तू परमात्मा के हुक्म में (पिछले) संयोगों के अनुसार (इन माता-पिता आदि संबंधियों से) मिल के (जगत में) आया है (जब तक ये संयोग कायम है तब तक इन संबंधियों से तेरा मेल रह सकता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एका माटी एका जोति ॥ एको पवनु कहा कउनु रोति ॥२॥
मूलम्
एका माटी एका जोति ॥ एको पवनु कहा कउनु रोति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एका = (सब जीवों की) एक ही। कहा = कहाँ? क्यों? रोति = रोता।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘एका’ स्त्रीलिंग है व ‘एको’ पुलिंग।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: सब जीवों की एक ही मिट्टी है, सब में (कर्तार की) एक ही ज्योति मौजूद है, सब में एक ही प्राण हैं (जितना समय संजोग कायम है उतना समय ये तत्व इकट्ठे हैं। संजोगों की समाप्ति पर तत्व अलग-अलग हो जाते हैं। किसी को किसी के वास्ते) रोने की जरूरत नहीं पड़ती (रोने का लाभ भी नहीं होता)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा मेरा करि बिललाही ॥ मरणहारु इहु जीअरा नाही ॥३॥
मूलम्
मेरा मेरा करि बिललाही ॥ मरणहारु इहु जीअरा नाही ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के, कह के। बिललाही = (लोग) बिलकते हैं। जीअरा = जीवात्मा।3।
अर्थ: (किसी संबन्धी के विछुड़ने पर लोग) ‘मेरा मेरा’ कह के बिलखते हैं, (पर ये नहीं समझते कि सदा के लिए कोई किसी का ‘मेरा’ नहीं और) ये जीवात्मा मरने वाली नहीं है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक गुरि खोले कपाट ॥ मुकतु भए बिनसे भ्रम थाट ॥४॥४३॥११२॥
मूलम्
कहु नानक गुरि खोले कपाट ॥ मुकतु भए बिनसे भ्रम थाट ॥४॥४३॥११२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। कपाट = किवाड़, भ्रम के पर्दे। भ्रम = भटकना। थाट = पसारे, बनावटें।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्यों के (माया के मोह से जकड़े हुए) किवाड़ गुरु ने खोल दिए, वे मोह के बंधनों से स्वतंत्र हो गए, उनकी मोह के भटकनों के सारे पसारे समाप्त हो गए।4।43।112।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ वडे वडे जो दीसहि लोग ॥ तिन कउ बिआपै चिंता रोग ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ वडे वडे जो दीसहि लोग ॥ तिन कउ बिआपै चिंता रोग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीसहि = दिखते हैं। तिन कउ = उन्हें। बिआपै = दबाए रखता है।1।
अर्थ: (हे भाई! दुनिया में धन प्रभुता आदि से) जो लोग बड़े-बड़े दिखाई देते हैं, उन्हें (सदा ही) चिन्ता का रोग दबाए रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कउन वडा माइआ वडिआई ॥ सो वडा जिनि राम लिव लाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कउन वडा माइआ वडिआई ॥ सो वडा जिनि राम लिव लाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोउ = कोई भी। माया वडिआई = माया के कारण मिले आदर से। जिनि = जिस ने।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) माया के कारण (जगत में) मिले आदर से कोई भी मनुष्य (असल में) बड़ा नहीं है। वही मनुष्य बड़ा है, जिसने परमात्मा के साथ लगन लगाई हुई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमीआ भूमि ऊपरि नित लुझै ॥ छोडि चलै त्रिसना नही बुझै ॥२॥
मूलम्
भूमीआ भूमि ऊपरि नित लुझै ॥ छोडि चलै त्रिसना नही बुझै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूमीआ = जमीन का मालिक। भूमि ऊपरि = जमीन की खातिर। लूझै = लड़ता झगड़ता है।2।
अर्थ: जमीन का मालिक मनुष्य जमीन की (मल्कियत की) खातिर (औरों से) सदा लड़ता-झगड़ता रहता है (ये जमीन यहीं ही) छोड़ के (आखिर यहाँ से) चल पड़ता है। (पर सारी उम्र उसकी मल्कियत की) तृष्णा नहीं खत्म होती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक इहु ततु बीचारा ॥ बिनु हरि भजन नाही छुटकारा ॥३॥४४॥११३॥
मूलम्
कहु नानक इहु ततु बीचारा ॥ बिनु हरि भजन नाही छुटकारा ॥३॥४४॥११३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ततु = तत्व, सार, निचोड़, असल काम की बात। छुटकारा = माया के मोह से खलासी।3।
अर्थ: हे नानक! कह: हमने विचार करके ये काम की बात ढूँढी है कि परमात्मा के भजन के बिना माया के मोह से निजात नहीं मिलती (और जब तक माया का मोह कायम है तब तक मनुष्य का दायरा छोटा ही रहता है।3।44।113।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ पूरा मारगु पूरा इसनानु ॥ सभु किछु पूरा हिरदै नामु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ पूरा मारगु पूरा इसनानु ॥ सभु किछु पूरा हिरदै नामु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरा = जिसमें कोई कमी नही। मारगु = (जिंदगी का) रास्ता। सभु किछु = हरेक उद्यम।1।
अर्थ: (गुरु की मेहर से) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बसता है, उसका हरेक उद्यम कमी-रहित होता है (क्योंकि) परमात्मा का नाम ही (जीवन का) सही रास्ता है, नाम ही असल (तीर्थ) स्नान है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरी रही जा पूरै राखी ॥ पारब्रहम की सरणि जन ताकी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पूरी रही जा पूरै राखी ॥ पारब्रहम की सरणि जन ताकी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरी रही = सदा इज्जत बनी रही। जा = जब। पूरै = अचूक (गुरु) ने। ताकी = देखूँ। जन = (उन) लोगों ने।1। रहाउ।
अर्थ: (पूरे गुरु की मेहर से) जिस मनुष्यों ने (अपने सब कार्य-व्यवहारों में) परमात्मा का आसरा लिए रखा, उनकी इज्जत सदा बनी रही क्योंकि अचूक गुरु ने उनकी इज्जत रखी।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरा सुखु पूरा संतोखु ॥ पूरा तपु पूरन राजु जोगु ॥२॥
मूलम्
पूरा सुखु पूरा संतोखु ॥ पूरा तपु पूरन राजु जोगु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राजु जोगु = दुनिया के राज-भाग भी और परमात्मा से मेल भी।2।
अर्थ: (गुरु की मेहर से जो मनुष्य परमात्मा की शरण में रहता है वह) सदा के लिए आत्मिक आनंद पाता है और संतोष वाला जीवन व्यातीत करता है। (परमात्मा की शरण ही उसके वास्ते) अचूक तप है, वह पूर्ण राज भी भोगता है और परमात्मा के चरणों से भी जुड़ा रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि कै मारगि पतित पुनीत ॥ पूरी सोभा पूरा लोकीक ॥३॥
मूलम्
हरि कै मारगि पतित पुनीत ॥ पूरी सोभा पूरा लोकीक ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारगि = रास्ते पर। पतित = (विकारों में) गिरे हुए। लोकीक = लोकाचारी, लोगों के साथ व्यवहार।3।
अर्थ: (गुरु की मेहर से जो मनुष्य) परमात्मा के राह पर चलते हैं वह (पहले) विकारों में गिरे हुए भी (अब) पवित्र हो जाते हैं। (उन्हें लोक-परलोक में) सदा के लिए शोभा मिलती है। लोगों के साथ उनका मेल जोल-व्यवहार भी ठीक रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करणहारु सद वसै हदूरा ॥ कहु नानक मेरा सतिगुरु पूरा ॥४॥४५॥११४॥
मूलम्
करणहारु सद वसै हदूरा ॥ कहु नानक मेरा सतिगुरु पूरा ॥४॥४५॥११४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हदूरा = अंग-संग।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य को मेरा अचूक गुरु मिल पड़ता है, कर्तार विधाता सदा उस मनुष्य के अंग-संग बसता है।4।45।114।
[[0189]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ संत की धूरि मिटे अघ कोट ॥ संत प्रसादि जनम मरण ते छोट ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ संत की धूरि मिटे अघ कोट ॥ संत प्रसादि जनम मरण ते छोट ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = पैरों की खाक। अघ = पाप। कोटि = करोड़ों।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘काटि’ = करोड़; ‘कोटु’ = किला; ‘कोट’ = किले)।
दर्पण-भाषार्थ
प्रसादि = कृपा से। छोट = खलासी।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु संत के चरणों की धूल (माथे पे लगाने) से (मनुष्य के) करोड़ों पाप दूर हो जाते हैं। गुरु संत की कृपा से (मनुष्य को) जनम मरण के चक्र से निजात मिल जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत का दरसु पूरन इसनानु ॥ संत क्रिपा ते जपीऐ नामु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
संत का दरसु पूरन इसनानु ॥ संत क्रिपा ते जपीऐ नामु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपीऐ = जपते हैं। ते = से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु संत का दर्शन (ही) मुकम्मल (तीर्थ) स्नान है। गुरु संत की कृपा से परमात्मा का नाम जपा जा सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत कै संगि मिटिआ अहंकारु ॥ द्रिसटि आवै सभु एकंकारु ॥२॥
मूलम्
संत कै संगि मिटिआ अहंकारु ॥ द्रिसटि आवै सभु एकंकारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = संगति में। द्रिसटि आवै = दिखता है। सभु = हर जगह।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु संत की संगत में (रहने से) अहंकार दूर हो जाता है (गुरु की संगति में रहने वाले मनुष्य को) हर जगह एक परमात्मा ही नजर आता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत सुप्रसंन आए वसि पंचा ॥ अम्रितु नामु रिदै लै संचा ॥३॥
मूलम्
संत सुप्रसंन आए वसि पंचा ॥ अम्रितु नामु रिदै लै संचा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वसि = वश में। पंचा = (कामादिक) पाँचो। रिदै = हृदय में। संचा = संचित कियाए एकत्र किया।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पर गुरु-संत मेहरवान हो जाए, (कामादिक) पाँचों दूत उसके वश में आ जाते हैं, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम अपने हृदय में इकट्ठा कर लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जा का पूरा करम ॥ तिसु भेटे साधू के चरन ॥४॥४६॥११५॥
मूलम्
कहु नानक जा का पूरा करम ॥ तिसु भेटे साधू के चरन ॥४॥४६॥११५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। करम = भाग्य। तिसु = उसे। साधू = गुरु।4।
अर्थ: (पर) हे नानक! कह: उस मनुष्य को (ही) गुरु के चरण (परसने को) मिलते हैं, जिसकी बड़ी (बढ़िया) किस्मत हो।4।46।115।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हरि गुण जपत कमलु परगासै ॥ हरि सिमरत त्रास सभ नासै ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हरि गुण जपत कमलु परगासै ॥ हरि सिमरत त्रास सभ नासै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। कमलु = हिरदा (कौल फुल = कमल का फूल)। परगासै = खिल जाता है। त्रास = डर। नासै = दूर हो जाता है, नाश हो जाता है।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के गुण गाने से (हृदय) कमल के फूल जैसा खिल उठता है। परमात्मा का नाम स्मरण करने से हरेक तरह के डर दूर हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा मति पूरी जितु हरि गुण गावै ॥ वडै भागि साधू संगु पावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सा मति पूरी जितु हरि गुण गावै ॥ वडै भागि साधू संगु पावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा = वही। मति = अक्ल। पूरी = त्रुटि हीन। जितु = जिस (अक्ल) से। साधू संगु = गुरु का संग।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) वही अक्ल किसी गलती करने से बची समझो, जिस अक्ल की इनायत से मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है (पर ये बुद्धि उस मनुष्य के अंदर पैदा होती है जो) सौभाग्य से गुरु की संगति प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि पाईऐ निधि नामा ॥ साधसंगि पूरन सभि कामा ॥२॥
मूलम्
साधसंगि पाईऐ निधि नामा ॥ साधसंगि पूरन सभि कामा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में। निधि = खजाने। सभि = सारे।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की सँगत में रहने से परमात्मा का नाम खज़ाना मिल जाता है, और गुरु की सँगत में रहने से सभी काम सफल हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि की भगति जनमु परवाणु ॥ गुर किरपा ते नामु वखाणु ॥३॥
मूलम्
हरि की भगति जनमु परवाणु ॥ गुर किरपा ते नामु वखाणु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परवाणु = स्वीकार। ते = से, साथ। वखाणु = उचारना।3।
अर्थ: परमात्मा की भक्ति करने से मानव जनम सफल हो जाता है (परमात्मा की भक्ति) परमात्मा का नाम उचारना, गुरु की कृपा से ही मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक सो जनु परवानु ॥ जा कै रिदै वसै भगवानु ॥४॥४७॥११६॥
मूलम्
कहु नानक सो जनु परवानु ॥ जा कै रिदै वसै भगवानु ॥४॥४७॥११६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै रिदै = जिसके हृदय में।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (सिर्फ) वह मनुष्य (परमात्मा की दरगाह में) स्वीकार होता है, जिसके हृदय में सदा परमात्मा (का नाम) बसता है।4।47।116।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ एकसु सिउ जा का मनु राता ॥ विसरी तिसै पराई ताता ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ एकसु सिउ जा का मनु राता ॥ विसरी तिसै पराई ताता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एकसु सिउ = एक (परमात्मा) के साथ ही। जा का = जिसका। तिसै = उसी का। तात = ईरखा, जलन।1।
अर्थ: (गुरु की कृपा से) जिस मनुष्य का मन एक परमात्मा के साथ ही रंगा रहता है, उसे औरों के साथ ईष्या करनी भूल जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु गोबिंद न दीसै कोई ॥ करन करावन करता सोई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बिनु गोबिंद न दीसै कोई ॥ करन करावन करता सोई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करन करावन = (सब कुछ) करने की ताकत रखने वाला और सब जीवों से कराने की ताकत रखने वाला। सोई = वह (परमात्मा) ही।1। रहाउ।
अर्थ: (जिस मनुष्य पे गुरु की कृपा होती है, उसे कहीं भी) गोबिंद के बिना और कोई (दूसरा) नहीं दिखता। (उसे हर जगह) वही कर्तार दिखता है जो सब कुछ करने की स्मर्था वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनहि कमावै मुखि हरि हरि बोलै ॥ सो जनु इत उत कतहि न डोलै ॥२॥
मूलम्
मनहि कमावै मुखि हरि हरि बोलै ॥ सो जनु इत उत कतहि न डोलै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनहि = मन में, मन लगा के। मुखि = मुंह से। इत = इस लोक में। उत = उस लोक में, परलोक में। कतहि = कहीं भी।2।
अर्थ: (गुरु की कृपा से जो मनुष्य) मन लगा के नाम जपने की कमाई करता है और मुंह से सदा परमात्मा का नाम उचारता है, वह मनुष्य (स्वच्छ आत्मिक जीवन के स्तर से) कभी भी नहीं डोलता- ना इस लोक में ना ही परलोक में।2
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै हरि धनु सो सच साहु ॥ गुरि पूरै करि दीनो विसाहु ॥३॥
मूलम्
जा कै हरि धनु सो सच साहु ॥ गुरि पूरै करि दीनो विसाहु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै = जिस के (हृदय) में। साहु = शाहु, शाहुकार। सचु = सदा कायम रहने वाला। गुरि = गुरु ने। विसाहु = एतबार, साख।3।
अर्थ: (गुरु की कृपा से) जिस मनुष्य के पास परमात्मा का नाम-धन है, वह ऐसा शाहूकार है, जो सदा ही शाहूकार टिका रहता है। पूरे गुरु ने (परमात्मा की हजूरी में उसकी) साख बना दी है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवन पुरखु मिलिआ हरि राइआ ॥ कहु नानक परम पदु पाइआ ॥४॥४८॥११७॥
मूलम्
जीवन पुरखु मिलिआ हरि राइआ ॥ कहु नानक परम पदु पाइआ ॥४॥४८॥११७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुरखु = सर्व व्यापक। जीवन = (सब जीवों की) जिंदगी (का आसरा)। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (गुरु की कृपा से) जिस मनुष्य को सर्व-व्यापक प्रभु, सब जीवों की जिंदगी का सहारा प्रभु मिल पड़ा है उसने सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया है।4।48।117।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ नामु भगत कै प्रान अधारु ॥ नामो धनु नामो बिउहारु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ नामु भगत कै प्रान अधारु ॥ नामो धनु नामो बिउहारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगत कै = भक्त के हृदय में। प्रान अधारु = प्राणों का आसरा। नामो = नाम ही।1।
अर्थ: भक्ति करने वाले मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम उसकी जिंदगी का सहारा है। नाम ही उसके वास्ते धन है, और नाम ही उसके वास्ते (असली) वणज-व्यापार है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम वडाई जनु सोभा पाए ॥ करि किरपा जिसु आपि दिवाए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नाम वडाई जनु सोभा पाए ॥ करि किरपा जिसु आपि दिवाए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = करके।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का) नाम है, वह मनुष्य (लोक परलोक में) आदर हासिल करता है, शोभा पाता है। (पर, ये हरि-नाम उसी मनुष्य को मिलता है) जिसे मेहर करके परमात्मा खुद (गुरु से) दिलवाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु भगत कै सुख असथानु ॥ नाम रतु सो भगतु परवानु ॥२॥
मूलम्
नामु भगत कै सुख असथानु ॥ नाम रतु सो भगतु परवानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुख असथानु = आत्मिक आनंद (देने) का श्रोत। रतु = रंगा हुआ।2।
अर्थ: परमात्मा का नाम भक्त के हृदय में आत्मिक आनंद देने का श्रोत है। जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगा हुआ है, वही भक्त है। वही परमात्मा की हजूरी में स्वीकार है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु जन कउ धारै ॥ सासि सासि जनु नामु समारै ॥३॥
मूलम्
हरि का नामु जन कउ धारै ॥ सासि सासि जनु नामु समारै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन कउ = सेवक को। धारै = धरण करता है, धरवास देता है, सहारा देता है। सासि सासि = हरेक साँस के साथ। समारै = सम्भालता है।3।
अर्थ: परमात्मा का नाम (परमात्मा के) सेवक को सहारा देता है, सेवक अपनी एक-एक साँस के साथ परमात्मा का नाम (अपने हृदय में) सम्भाल के रखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जिसु पूरा भागु ॥ नाम संगि ता का मनु लागु ॥४॥४९॥११८॥
मूलम्
कहु नानक जिसु पूरा भागु ॥ नाम संगि ता का मनु लागु ॥४॥४९॥११८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = साथ। ता का = उस (मनुष्य) का।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के बड़े भाग्य होते हैं, उसका (ही) मन परमात्मा के नाम के साथ प्रसन्न होता है।4।49।118।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ संत प्रसादि हरि नामु धिआइआ ॥ तब ते धावतु मनु त्रिपताइआ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ संत प्रसादि हरि नामु धिआइआ ॥ तब ते धावतु मनु त्रिपताइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु संत की कृपा से। तब ते = तब से। धावतु = भटकता। त्रिपताइआ = तृप्त हो गया।1।
अर्थ: (हे भाई! जब से) गुरु संत की कृपा से मैं परमात्मा का नाम स्मरण कर रहा हूँ, तब से (माया की खातिर) दौड़ने वाला मेरा मन तृप्त हो गया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुख बिस्रामु पाइआ गुण गाइ ॥ स्रमु मिटिआ मेरी हती बलाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुख बिस्रामु पाइआ गुण गाइ ॥ स्रमु मिटिआ मेरी हती बलाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुख बिस्रामु = आत्मिक आनंद देने का श्रोत प्रभु। गाइ = गा के। श्रमु = श्रम, थकावट। हती = मारी गई।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से परमात्मा के) गुण गा के मैंने (वह) आत्मिक आनंद का दाता (परमात्मा) ढूँढ लिया है। (अब माया की खातिर मेरी) दौड़-भाग मिट गई है, (मेरी माया की तृष्णा की) बला मर चुकी है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल अराधि भगवंता ॥ हरि सिमरन ते मिटी मेरी चिंता ॥२॥
मूलम्
चरन कमल अराधि भगवंता ॥ हरि सिमरन ते मिटी मेरी चिंता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अराधि = ध्यान धर के। ते = से, साथ।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से) भगवान के सुंदर चरणों का ध्यान धर के परमात्मा का नाम स्मरण करने से मेरी (हरेक किस्म की) चिन्ता मिट गई है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ तजि अनाथु एक सरणि आइओ ॥ ऊच असथानु तब सहजे पाइओ ॥३॥
मूलम्
सभ तजि अनाथु एक सरणि आइओ ॥ ऊच असथानु तब सहजे पाइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = छोड़ के। एक सरणि = एक परमात्मा की शरण। सहजे = आत्मिक अडोलता में।3।
अर्थ: (हे भाई! जब) मैं अनाथ, और सारे आसरे छोड़ के एक परमात्मा की शरण आ गया, तब आत्मिक अडोलता में टिक के मैंने उन सब (ठिकानों से) ऊँचा ठिकाना प्राप्त कर लिया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूखु दरदु भरमु भउ नसिआ ॥ करणहारु नानक मनि बसिआ ॥४॥५०॥११९॥
मूलम्
दूखु दरदु भरमु भउ नसिआ ॥ करणहारु नानक मनि बसिआ ॥४॥५०॥११९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमु = भटकना। मनि = मन में।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: गुरु की कृपा से) विधाता परमात्मा मेरे मन में आ बसा है (और अब मेरा हरेक किस्म का) दुख-दर्द, भटकना व डर दूर हो गया है।4।50।119।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ कर करि टहल रसना गुण गावउ ॥ चरन ठाकुर कै मारगि धावउ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ कर करि टहल रसना गुण गावउ ॥ चरन ठाकुर कै मारगि धावउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कर = हाथों से। करि = कर के। रसना = जीभ से। गावउ = मैं गाता हूँ। चरन = पैरों से। मारगि = रास्ते पर। धावउ = मैं दौड़ता हूँ।1।
अर्थ: (हे भाई! अपने गुरु की मेहर सदका) मैं अपने हाथों से (गुरमुखों की) सेवा करता हूँ और जीभ से (परमात्मा के) गुण गाता हूँ, और पैरों से मैं परमात्मा के रास्ते पे चल रहा हूँ।1।
[[0190]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
भलो समो सिमरन की बरीआ ॥ सिमरत नामु भै पारि उतरीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
भलो समो सिमरन की बरीआ ॥ सिमरत नामु भै पारि उतरीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भलो = भला, सुहावना, ठीक। समो = समय, बेला। बरीआ = वारी, अवसर।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे मेरे मन! मानव जनम का ये) सुंदर समय (तुझे मिला है। ये मानव जनम ही परमात्मा के) नाम जपने की बेला है। (इस मनुष्य जन्म में ही) परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए (संसार के अनेक) डरों से पार लांघ सकते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेत्र संतन का दरसनु पेखु ॥ प्रभ अविनासी मन महि लेखु ॥२॥
मूलम्
नेत्र संतन का दरसनु पेखु ॥ प्रभ अविनासी मन महि लेखु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेत्र = आँखों से। पेखु = देख। लेखु = लिख।2।
अर्थ: (हे भाई! तू भी) अपनी आँखों से गुरमुखों के दर्शन कर, (गुरमुखों की संगति में रह के) अपने मन में अविनाशी परमात्मा के स्मरण का लेख लिखता रह।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि कीरतनु साध पहि जाइ ॥ जनम मरण की त्रास मिटाइ ॥३॥
मूलम्
सुणि कीरतनु साध पहि जाइ ॥ जनम मरण की त्रास मिटाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध पाहि = गुरु के पास। जाइ = जा के। त्रास = डर। मिटाइ = दूर कर।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की संगति में जा के तू परमात्मा के महिमा के गीत सुना कर और इस तरह जनम मरण में पड़ने वाली आत्मिक मौत का डर (अपने अंदर से) दूर कर ले।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण कमल ठाकुर उरि धारि ॥ दुलभ देह नानक निसतारि ॥४॥५१॥१२०॥
मूलम्
चरण कमल ठाकुर उरि धारि ॥ दुलभ देह नानक निसतारि ॥४॥५१॥१२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उरि = हृदय में। धारि = रख। देह = शरीर। निसतारि = पार करा।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरण अपने हृदय में टिकाए रख। ये मानव शरीर बड़ी मुश्किल से मिला है, इसे (नाम जपने की इनायत से संसार समुंदर के विकारों से) पार लंघा ले।4।51।120।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जा कउ अपनी किरपा धारै ॥ सो जनु रसना नामु उचारै ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जा कउ अपनी किरपा धारै ॥ सो जनु रसना नामु उचारै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। रसना = जीभ से।1।
अर्थ: (पर नाम स्मरणा भी जीवों के अपने वश की बात नहीं) जिस मनुष्य पे परमात्मा अपनी मेहर करता है वह मनुष्य (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम उचारता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिसरत सहसा दुखु बिआपै ॥ सिमरत नामु भरमु भउ भागै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि बिसरत सहसा दुखु बिआपै ॥ सिमरत नामु भरमु भउ भागै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहसा = सहम। बिआपै = जोर डाले रखता है। भरमु = भटकना।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा को भुलाने से (दुनिया का) सहम-दुख (अपना) जोर डाल लेता है, (पर प्रभु का) नाम स्मरण करने से हरेक भटकना दूर हो जाती है, हरेक किस्म का डर भाग जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि कीरतनु सुणै हरि कीरतनु गावै ॥ तिसु जन दूखु निकटि नही आवै ॥२॥
मूलम्
हरि कीरतनु सुणै हरि कीरतनु गावै ॥ तिसु जन दूखु निकटि नही आवै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकटि = नजदीक।2।
अर्थ: (प्रभु की कृपा से जो मनुष्य) प्रभु की महिमा सुनता है, प्रभु की महिमा गाता है, कोई दुख उस मनुष्य के समीप नहीं फटकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि की टहल करत जनु सोहै ॥ ता कउ माइआ अगनि न पोहै ॥३॥
मूलम्
हरि की टहल करत जनु सोहै ॥ ता कउ माइआ अगनि न पोहै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोहै = सुंदर लगता है, सुंदर जीवन वाला बन जाता है। ता कउ = उसे।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हुए मनुष्य सुंदर जीवन वाला बन जाता है, (क्योंकि) उस मनुष्य को माया (की तृष्णा की) आग सता नहीं सकती (उसके आत्मिक जीवन को जला नहीं सकती)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि तनि मुखि हरि नामु दइआल ॥ नानक तजीअले अवरि जंजाल ॥४॥५२॥१२१॥
मूलम्
मनि तनि मुखि हरि नामु दइआल ॥ नानक तजीअले अवरि जंजाल ॥४॥५२॥१२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। नामु दइआल = दयाल का नाम। तजीअले = (उस मनुष्य ने) छोड़ दिए हैं। अवरि = और।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! दया के घर परमात्मा का नाम जिस मनुष्य के मन में दिल में व मुंह में बस जाता है, उस मनुष्य ने (अपने मन में से माया के मोह के) और सारे जंजाल उतार दिए होते हैं।4।42।121।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ छाडि सिआनप बहु चतुराई ॥ गुर पूरे की टेक टिकाई ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ छाडि सिआनप बहु चतुराई ॥ गुर पूरे की टेक टिकाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टेक = आसरा। टिकाई = टिका के। टेक टिकाई = आसरा ले के।1।
अर्थ: (हे भाई! तू भी) पूरे गुरु का आसरा ले। ये ख्याल छोड़ दे कि तू बहुत अक्लमंद और चतुर है (और जीवन-मार्ग को खुद ही समझ सकता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुख बिनसे सुख हरि गुण गाइ ॥ गुरु पूरा भेटिआ लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दुख बिनसे सुख हरि गुण गाइ ॥ गुरु पूरा भेटिआ लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनसे = नाश हो जाते हैं। गाइ = गा के। भेटिआ = मिला। लिव = लगन।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को) पूरा गुरु मिल जाता है (और गुरु की मेहर से जो प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़ता है, परमात्मा के गुण गा के उसे सुख (ही सुख) मिलते हैं और उसके सारे (के सारे) दुख दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु दीओ गुरि मंत्रु ॥ मिटे विसूरे उतरी चिंत ॥२॥
मूलम्
हरि का नामु दीओ गुरि मंत्रु ॥ मिटे विसूरे उतरी चिंत ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। विसूरे = झोरे। चिंत = चिन्ता।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने (जिस मनुष्य को) परमात्मा का नाम मंत्र दिया है (उस मंत्र की इनायत से उसके सारे) झोरे (चिन्ता-फिक्र) मिट गए हैं उसकी (हरेक किस्म की) चिन्ता उतर गई है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनद भए गुर मिलत क्रिपाल ॥ करि किरपा काटे जम जाल ॥३॥
मूलम्
अनद भए गुर मिलत क्रिपाल ॥ करि किरपा काटे जम जाल ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनद = आत्मिक खुशियां। गुर मिलत = गुरु को मिल के। जम जाल = जम के जाल, आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के जाल।3।
अर्थ: (हे भाई!) दया के श्रोत गुरु को मिल के आत्मिक शांति पैदा हो जाती है। गुरु कृपा करके (मनुष्य के अंदर से) आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के फंदे कट जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक गुरु पूरा पाइआ ॥ ता ते बहुरि न बिआपै माइआ ॥४॥५३॥१२२॥
मूलम्
कहु नानक गुरु पूरा पाइआ ॥ ता ते बहुरि न बिआपै माइआ ॥४॥५३॥१२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता ते = उस से, उस (गुरु की) इनायत से। न बिआपै = जोर नहीं डालती।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (जिस मनुष्य को) पूरा गुरु मिल जाता है, उस गुरु की इनायत से (उस मनुष्य पर) माया (अपना) जोर नहीं डाल सकती।4।53।122।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ राखि लीआ गुरि पूरै आपि ॥ मनमुख कउ लागो संतापु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ राखि लीआ गुरि पूरै आपि ॥ मनमुख कउ लागो संतापु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। मनमुख कउ = मनमुख को, उस मनुष्य को जिसका मुंह अपनी तरफ है। संतापु = दुख, कष्ट। लागो = लगता है, चिपकता है।1।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु के अनुसार रहता है) पूरे गुरु ने खुद उसे (सदैव कामादिक वैरियों से) बचा लिया है। पर, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को (इनका) सेक लगता ही रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरू गुरू जपि मीत हमारे ॥ मुख ऊजल होवहि दरबारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरू गुरू जपि मीत हमारे ॥ मुख ऊजल होवहि दरबारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीत हमारे = हे मेरे मित्रो! ऊजल = रौशन। होवहि = होंगे।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मित्रो! सदा (अपने) गुरु को याद रखो। (गुरु का उपदेश याद रखने से) तुम्हारे मुंह परमात्मा की दरगाह में रौशन होंगे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर के चरण हिरदै वसाइ ॥ दुख दुसमन तेरी हतै बलाइ ॥२॥
मूलम्
गुर के चरण हिरदै वसाइ ॥ दुख दुसमन तेरी हतै बलाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वसाइ = टिका रख। हतै = मार देता है, मार देगा। बलाइ = चुड़ैल।2।
अर्थ: (हे भाई! तू अपने) हृदय में गुरु के चरण बसाए रख (गुरु तेरे सारे) दुख-कष्ट नाश करेगा। (कामादिक तेरे सारे) वैरियों को खत्म कर देगा (तेरे पर दबाव डालने वाली माया-) चुड़ैल को मार देगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर का सबदु तेरै संगि सहाई ॥ दइआल भए सगले जीअ भाई ॥३॥
मूलम्
गुर का सबदु तेरै संगि सहाई ॥ दइआल भए सगले जीअ भाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहाई = साथी। सगले = सारे।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! गुरु का शब्द ही तेरे साथ (सदैव साथ निभाने वाला) साथी है, (गुरु का शब्द हृदय में परोए रखने से) सारे लोग दयावान हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि पूरै जब किरपा करी ॥ भनति नानक मेरी पूरी परी ॥४॥५४॥१२३॥
मूलम्
गुरि पूरै जब किरपा करी ॥ भनति नानक मेरी पूरी परी ॥४॥५४॥१२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भनति = कहता है। परी = पड़ी। पूरी परी = (मेहनत) पूरी हो गई।4।
अर्थ: नानक कहता है: जब पूरे गुरु ने (मेरे पर) मेहर की तो मेरे जीवन की मेहनत सफल हो गई (कामादिक वैरी मेरे पर हमला करने से हट गए)।4।54।123।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ अनिक रसा खाए जैसे ढोर ॥ मोह की जेवरी बाधिओ चोर ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ अनिक रसा खाए जैसे ढोर ॥ मोह की जेवरी बाधिओ चोर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसा = रस, स्वादिष्ट पदार्थ। ढोर = पशु। जेवरी = जंजीर, रस्सी से।1।
अर्थ: जैसे पशु (चारे से पेट भर लेते हैं, वैसे ही साधु-संगत से वंचित रह के आत्मिक मौत मरा हुआ मनुष्य) अनेक स्वादिष्ट पदार्थ खाता रहता है और (रंगे हाथ पकड़े हुए) चोर की तरह (माया) के मोह की रस्सियों में लगातार (कसता) जकड़ता चला जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिरतक देह साधसंग बिहूना ॥ आवत जात जोनी दुख खीना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मिरतक देह साधसंग बिहूना ॥ आवत जात जोनी दुख खीना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिरतक = मृतक, मुर्दा। देह = शरीर। मिरतक देह = आत्मिक मौत मरे हुए शरीर। बिहूना = विहीन। खीना = क्षीण, कमजोर।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य साधु-संगत से वंचित रहता है, उसका शरीर मुर्दा है (क्योंकि उसके अंदर आत्मिक मौत मरी हुई जीवात्मा है), वह मनुष्य जनम मरण के चक्र में पड़ा रहता है, जूनियों के दुखों के कारण उसका आत्मिक जीवन लगातार कमजोर होता चला जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक बसत्र सुंदर पहिराइआ ॥ जिउ डरना खेत माहि डराइआ ॥२॥
मूलम्
अनिक बसत्र सुंदर पहिराइआ ॥ जिउ डरना खेत माहि डराइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बसत्र = वस्त्र, कपड़े। डरना = जानवरों को डराने के लिए खेतों में खड़ा किया गया बनावटी रखवाला।2।
अर्थ: (आत्मिक मौत मरा मनुष्य) अनेक सुंदर-सुंदर कपड़े पहनता है (गरीब मैले कपडों वाले लोग उससे डरते थोड़ा परे परे रहते हैं। इस तरह गरीबों के लिए वह ऐसे होता है) जैसे खेतों में (जानवरों को) डराने के लिए बनावटी रखवाला खड़ा किया होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल सरीर आवत सभ काम ॥ निहफल मानुखु जपै नही नाम ॥३॥
मूलम्
सगल सरीर आवत सभ काम ॥ निहफल मानुखु जपै नही नाम ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहफल = निष्फल, व्यर्थ।3।
अर्थ: (अन्य पशु आदि के) सारे शरीर कोई ना कोई काम आ जाते हैं। अगर मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं जपता, तो इसका जगत में आना व्यर्थ ही जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जा कउ भए दइआला ॥ साधसंगि मिलि भजहि गुोपाला ॥४॥५५॥१२४॥
मूलम्
कहु नानक जा कउ भए दइआला ॥ साधसंगि मिलि भजहि गुोपाला ॥४॥५५॥१२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जो मनुष्यों पे। साध संगि = साधु-संगत में।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गुोपाला’ शब्द में ‘ग’ के साथ दो मात्राएं हैं ‘ु’ तथा ‘ो’। असल शब्द ‘गोपाल है, यहाँ ‘गुपाल’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्यों पर परमात्मा दयावान होता है, वह साधु-संगत में (सत्संगियों के साथ) मिल के जगत के पालणहार प्रभु का भजन करते हैं।4।55।124।
[[0191]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ कलि कलेस गुर सबदि निवारे ॥ आवण जाण रहे सुख सारे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ कलि कलेस गुर सबदि निवारे ॥ आवण जाण रहे सुख सारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलि = दुख, मानसिक झगड़े। गुर सबदि = गुरु के शब्द ने। रहे = समाप्त हो गए।1।
अर्थ: (साधु-संगत में पहुँचे हुए जिस मनुष्यों के) मानसिक झगड़े और कष्ट गुरु के शब्द ने दूर कर दिए, उनके जनम मरण के चक्कर खत्म हो गए, उन्हें सारे सुख प्राप्त हो गए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भै बिनसे निरभउ हरि धिआइआ ॥ साधसंगि हरि के गुण गाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
भै बिनसे निरभउ हरि धिआइआ ॥ साधसंगि हरि के गुण गाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनसे = दूर हो गए।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों ने) साधु-संगत में (जा के) परमात्मा की महिमा के गीत गाए हैं, जिन्होंने निर्भय हरि का ध्यान (अपने हृदय में) धारण किया है, उनके (दुनिया के सारे) डर दूर हो गए हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कवल रिद अंतरि धारे ॥ अगनि सागर गुरि पारि उतारे ॥२॥
मूलम्
चरन कवल रिद अंतरि धारे ॥ अगनि सागर गुरि पारि उतारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरन कवल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। धारे = टिकाए। गुरि = गुरु ने।2।
अर्थ: (साधु-संगत की इनायत से जिस मनुष्यों ने) परमात्मा के सुंदर चरण अपने दिल में बसा लिए, गुरु ने उन्हें तृष्णा की आग के समुंदर में से पार लंघा दिया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बूडत जात पूरै गुरि काढे ॥ जनम जनम के टूटे गाढे ॥३॥
मूलम्
बूडत जात पूरै गुरि काढे ॥ जनम जनम के टूटे गाढे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बूडत जात = डूबते जाते। गाढे = जोड़ दिए, गाँठ लगा दी।3।
अर्थ: (विकारों के समुंदर में) डूब रहे मनुष्य को पूरे गुरु ने (बाँह से पकड़ के बाहर) निकाल लिया (और जब वे साधु-संगत में पहुँच गए), उनको (परमात्मा से) अनेक जन्मों से बिछुड़ों हुओं को (गुरु ने दुबारा परमात्मा के साथ) मिला दिया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक तिसु गुर बलिहारी ॥ जिसु भेटत गति भई हमारी ॥४॥५६॥१२५॥
मूलम्
कहु नानक तिसु गुर बलिहारी ॥ जिसु भेटत गति भई हमारी ॥४॥५६॥१२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटत = मिल के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।4।
अर्थ: हे नानक! कह: मैं उस गुरु से सदके जाता हूँ, जिसको मिल के हमारी (जीवों की) उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है।4।56।125।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ साधसंगि ता की सरनी परहु ॥ मनु तनु अपना आगै धरहु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ साधसंगि ता की सरनी परहु ॥ मनु तनु अपना आगै धरहु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में, गुरु की संगति में। ता की = उस (परमात्मा) की।1।
अर्थ: (हे मेरे भाई!) साधु-संगत में जा के उस परमात्मा का आसरा ले। अपना मन अपना तन (अर्थात अपने हरेक ज्ञानेंद्रियों को) उस परमात्मा के हवाले कर दे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित नामु पीवहु मेरे भाई ॥ सिमरि सिमरि सभ तपति बुझाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अम्रित नामु पीवहु मेरे भाई ॥ सिमरि सिमरि सभ तपति बुझाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाई = हे वीर! तपति = जलन।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे वीर! परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी (श्वास-श्वास परमात्मा का नाम स्मरण कर। जिसने नाम स्मरण किया है) उसने स्मरण कर-कर के (अपने अंदर से विकारों की) सारी सड़न बुझा ली है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजि अभिमानु जनम मरणु निवारहु ॥ हरि के दास के चरण नमसकारहु ॥२॥
मूलम्
तजि अभिमानु जनम मरणु निवारहु ॥ हरि के दास के चरण नमसकारहु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = छोड़ के। नमसकारहु = नमस्कार करो, अपना सिर झुकाओ।2।
अर्थ: (हे मेरे वीर!) परमात्मा के सेवक के चरणों पे अपना सिर रख दे (इस तरह अपने अंदर से) अहंकार दूर करके जनम मरण के चक्कर समाप्त कर दे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सासि सासि प्रभु मनहि समाले ॥ सो धनु संचहु जो चालै नाले ॥३॥
मूलम्
सासि सासि प्रभु मनहि समाले ॥ सो धनु संचहु जो चालै नाले ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक श्वास से। मनहि = मन में। समाले = सम्भाल के रख। संचहु = इकट्ठा करो।3।
अर्थ: (हे मेरे भाई!) हरेक श्वास के साथ परमात्मा को अपने मन में संभाल के रख। वह (नाम-) धन इकट्ठा कर, जो तेरे साथ निभे।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसहि परापति जिसु मसतकि भागु ॥ कहु नानक ता की चरणी लागु ॥४॥५७॥१२६॥
मूलम्
तिसहि परापति जिसु मसतकि भागु ॥ कहु नानक ता की चरणी लागु ॥४॥५७॥१२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसहि = उस (मनुष्य) को। मसतकि = माथे पर।4।
अर्थ: (पर ये नाम-धन इकट्ठा करना जीवों के वश की बात नहीं। ये नाम-धन) उस मनुष्य को ही मिलता है, जिसके माथे पे भाग्य जागे। हे नानक! कह: (हे मेरे भाई!) तू उस मनुष्य के चरणों में लग (जिसे नाम धन मिला हुआ है)।4।57।126।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ सूके हरे कीए खिन माहे ॥ अम्रित द्रिसटि संचि जीवाए ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ सूके हरे कीए खिन माहे ॥ अम्रित द्रिसटि संचि जीवाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूके = सूखे हुए, जिनके अंदर आत्मिक जीवन वाला रस नहीं रहा। माहे = माहि, में। खिन माहि = छिन में। द्रिसटि = निगाह, नजर। संचि = सींच के। जीवाए = आत्मिक जीवात्मा डाल दी।1।
अर्थ: आत्मिक जीवन देने वाली निगाह करके गुरु नाम-जल से सींच के जिन्हें आत्मिक जीवन देता है, उन आत्मिक जीवन के रस से वंचित हो चुके मनुष्यों को गुरु एक छिन में हरे (भाव, आत्मिक जीवन वाले) बना देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काटे कसट पूरे गुरदेव ॥ सेवक कउ दीनी अपुनी सेव ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
काटे कसट पूरे गुरदेव ॥ सेवक कउ दीनी अपुनी सेव ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। दीनी = दी।1। रहाउ।
अर्थ: जिस सेवक को (परमात्मा ने) अपनी सेवा-भक्ति (की दाति) दी। पूरे गुरु ने उसके सारे कष्ट काट दिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिटि गई चिंत पुनी मन आसा ॥ करी दइआ सतिगुरि गुणतासा ॥२॥
मूलम्
मिटि गई चिंत पुनी मन आसा ॥ करी दइआ सतिगुरि गुणतासा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुनी = पूरी हो गई। सतिगुरि गुणतासा = गुणों के खजाने सतिगुरु ने।2।
अर्थ: गुणों के खजाने सतिगुरु ने जिस मनुष्य पर मेहर की, उसकी (हरेक किस्म की) चिन्ता मिट गई, उसके मन की (हरेक) आस पूरी हो गई।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुख नाठे सुख आइ समाए ॥ ढील न परी जा गुरि फुरमाए ॥३॥
मूलम्
दुख नाठे सुख आइ समाए ॥ ढील न परी जा गुरि फुरमाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आइ = आ के। समाइ = रच गए। गुरि = गुरु ने।3।
अर्थ: जब गुरु ने जिस मनुष्य पर बख्शिश होने का हुक्म किया, थोड़ी सी भी ढील ना हुई, उसके सारे दुख दूर हो गए, उसके अंदर (सारे) सुख आ के टिक गए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इछ पुनी पूरे गुर मिले ॥ नानक ते जन सुफल फले ॥४॥५८॥१२७॥
मूलम्
इछ पुनी पूरे गुर मिले ॥ नानक ते जन सुफल फले ॥४॥५८॥१२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर मिले = (जो) गुरु को मिले। ते जन = वह लोग। सुफल = अच्छे फलों वाले।4।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य पूरे गुरु से मिल गए, उनकी (हरेक किस्म की) इच्छा पूरी हो गई, उन्हें उच्च आत्मिक गुणों के सुंदर फल लग गए।4।58।127।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: याद रहे कि असल संख्या 128 होनी चाहिए।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ ताप गए पाई प्रभि सांति ॥ सीतल भए कीनी प्रभ दाति ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ ताप गए पाई प्रभि सांति ॥ सीतल भए कीनी प्रभ दाति ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। सांति = ठंड, आत्मिक अडोलता। सीतल = ठंडे।1।
अर्थ: जिन्हें परमात्मा अपने नाम की दाति देता है वे ठंडे जिगरे वाले बन जाते हैं। परमात्मा ने उनके अंदर ऐसी ठण्ड समा दी होती है कि उनके सारे ताप-कष्ट दूर हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ किरपा ते भए सुहेले ॥ जनम जनम के बिछुरे मेले ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
प्रभ किरपा ते भए सुहेले ॥ जनम जनम के बिछुरे मेले ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से साथ। सुहेले = आसान।1। रहाउ।
अर्थ: (जिस मनुष्यों को परमात्मा अपने नाम की दाति देता है वह मनुष्य) परमात्मा की कृपा से आसान (जीवन वाले) हो जाते हैं, उनको अनेक जन्मों के विछुड़ों को परमात्मा (अपने साथ) मिला लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरत सिमरत प्रभ का नाउ ॥ सगल रोग का बिनसिआ थाउ ॥२॥
मूलम्
सिमरत सिमरत प्रभ का नाउ ॥ सगल रोग का बिनसिआ थाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारे। थाउ = जगह, निशाना।2।
अर्थ: (जिन्हें परमात्मा अपने नाम की दाति देता है) परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के (उनके अंदर से) सारे रोगों के निशान ही मिट जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजि सुभाइ बोलै हरि बाणी ॥ आठ पहर प्रभ सिमरहु प्राणी ॥३॥
मूलम्
सहजि सुभाइ बोलै हरि बाणी ॥ आठ पहर प्रभ सिमरहु प्राणी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम-प्यार में। प्राणी = हे प्राणी!।3।
अर्थ: (जिस मनुष्य को परमात्मा नाम की दाति देता है वह) आत्मिक अडोलता में टिक के प्रेम-प्यार में लीन हो के परमात्मा की महिमा की वाणी उचारता रहता है। हे प्राणी! (तू भी उसके दर से नाम की दाति माँग, और) आठों पहर प्रभु का नाम स्मरण करता रह।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूखु दरदु जमु नेड़ि न आवै ॥ कहु नानक जो हरि गुन गावै ॥४॥५९॥१२८॥
मूलम्
दूखु दरदु जमु नेड़ि न आवै ॥ कहु नानक जो हरि गुन गावै ॥४॥५९॥१२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहु = कह। नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (परमात्मा की मेहर से) जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है। कोई दुख दर्द उसके नजदीक नहीं आता, उसे मौत का डर नहीं छूता (आत्मिक मौत का उसे खतरा नहीं रह जाता)।4।59।128।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ भले दिनस भले संजोग ॥ जितु भेटे पारब्रहम निरजोग ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ भले दिनस भले संजोग ॥ जितु भेटे पारब्रहम निरजोग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिनस = दिन में। संजोग = मिलाप के अवसर। जितु = जिसके द्वारा। भेटे = मिले। निरजोग = निर्लिप।1।
अर्थ: (हे भाई!) वे दिन सुहावने होते हैं, वे मिलाप के अवसर सुखदायक होते हैं जब (माया से) निर्लिप प्रभु जी मिल जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओह बेला कउ हउ बलि जाउ ॥ जितु मेरा मनु जपै हरि नाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ओह बेला कउ हउ बलि जाउ ॥ जितु मेरा मनु जपै हरि नाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को, से। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं उस समय से कुर्बान जाता हूँ जिस समय मेरा मन परमात्मा का नाम जपता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफल मूरतु सफल ओह घरी ॥ जितु रसना उचरै हरि हरी ॥२॥
मूलम्
सफल मूरतु सफल ओह घरी ॥ जितु रसना उचरै हरि हरी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूरतु = महूरत, दो घड़ी जितना समय (शब्द ‘मूरति’ और ‘मूरतु’ में फर्क स्मरणीय है)। रसना = जीभ।2।
अर्थ: (हे भाई!) मनुष्य के लिए वह महूरत भाग्यशाली होता है, वह घड़ी अनमोल होती है जब उसकी जीभ परमात्मा का नाम उचारती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफलु ओहु माथा संत नमसकारसि ॥ चरण पुनीत चलहि हरि मारगि ॥३॥
मूलम्
सफलु ओहु माथा संत नमसकारसि ॥ चरण पुनीत चलहि हरि मारगि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुनीत = पवित्र। मारगि = रास्ते पर।3।
अर्थ: (हे भाई!) वह माथा भी भाग्यशाली है, जो गुरु-संत के चरणों में झुकता है। वह पैर पवित्र हो जाते हैं जो परमात्मा (के मिलाप) के रास्ते पर चलते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक भला मेरा करम ॥ जितु भेटे साधू के चरन ॥४॥६०॥१२९॥
मूलम्
कहु नानक भला मेरा करम ॥ जितु भेटे साधू के चरन ॥४॥६०॥१२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = भाग्य, किस्मत। जितु = जिसकी बरकत से।4।
अर्थ: हे नानक! कह: मेरे बड़े भाग्य (जाग पड़ते हैं) जब मैं गुरु के चरण परसता हूँ।4।60।128।
[[0192]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ गुर का सबदु राखु मन माहि ॥ नामु सिमरि चिंता सभ जाहि ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ गुर का सबदु राखु मन माहि ॥ नामु सिमरि चिंता सभ जाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! अगर उस भगवान का आसरा मन में दृढ़ करना है, तो) गुरु का शब्द (अपने) मन में टिकाए रख। (गुरु-शब्द की सहायता से भगवान का) नाम स्मरण कर, तेरे सारे चिन्ता-फिक्र दूर हो जाएंगे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु भगवंत नाही अन कोइ ॥ मारै राखै एको सोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बिनु भगवंत नाही अन कोइ ॥ मारै राखै एको सोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगवंत = भगवान, परमात्मा। अन = अन्य, और। साइ = वही।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) भगवान के बिना (जीवों का) और कोई आसरा नहीं है। वह भगवान ही (जीवों को) मारता है। वह भगवान ही (जीवों को) पालता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर के चरण रिदै उरि धारि ॥ अगनि सागरु जपि उतरहि पारि ॥२॥
मूलम्
गुर के चरण रिदै उरि धारि ॥ अगनि सागरु जपि उतरहि पारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उरि = उर में, दिल में। धारि = रख के। जपि = जप के।2।
अर्थ: (हे भाई! अगर भगवान का आसरा लेना है तो) अपने हृदय में दिल में गुरु के चरण बसा (भाव, निम्रता से गुरु की शरण पड़)। (गुरु के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा का नाम) जप के तू (तृष्णा की) आग के समुंदर से पार लांघ जाएगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर मूरति सिउ लाइ धिआनु ॥ ईहा ऊहा पावहि मानु ॥३॥
मूलम्
गुर मूरति सिउ लाइ धिआनु ॥ ईहा ऊहा पावहि मानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुर मूरति = गुरु का रूप, गुरु का शब्द (‘गुर मूरति गुर सबदु है’ – भाई गुरदास जी)। सिउ = से। ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: मनुष्य मनुष्य के नैन-नक्श में तो प्रत्यक्ष फर्क दिखता है, पर पैरों में फर्क करना बहुत कठिन है। अगर गुरु-व्यक्तियों की तसवीर का ध्यान धरने की हिदायत समझी जाए, तो गुरु ग्रंथ साहिब में अनेक बार गुरु के चरणों का ही जिक्र है। शब्द ‘गुर मूरति’ तो एक-दो बार ही आया है। परमात्मा के चरणों का ध्यान धरना भी कई बार लिखा मिलता है। इसका भाव ये है कि हृदय में से अहंकार निकाल के हरि-नाम में तवज्जो जोड़नी है, या, गुरु के शब्द में जुड़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! गुरु का शब्द ही गुरु की मूरत है, गुरु का स्वरूप है) गुरु के शब्द से अपनी तवज्जो जोड़, तू इस लोक में और परलोक में आदर हासिल करेगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल तिआगि गुर सरणी आइआ ॥ मिटे अंदेसे नानक सुखु पाइआ ॥४॥६१॥१३०॥
मूलम्
सगल तिआगि गुर सरणी आइआ ॥ मिटे अंदेसे नानक सुखु पाइआ ॥४॥६१॥१३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सगल = सारे (आसरे)। अंदेसे = फिक्र।4।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य अन्य सारे आसरे छोड़ के गुरु की शरण आता है, उसके सारे चिन्ता-फिक्र समाप्त हो जाते हैं, वह आत्मिक आनंद भोगता है।4।61।130।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जिसु सिमरत दूखु सभु जाइ ॥ नामु रतनु वसै मनि आइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जिसु सिमरत दूखु सभु जाइ ॥ नामु रतनु वसै मनि आइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में।1।
अर्थ: (हे भाई! उस गोबिंद की वाणी जप) जिसका स्मरण करने से हरेक किस्म के दुख दूर हो जाते हैं (और, वाणी की इनायत से) परमात्मा का अमोलक नाम मन में आ बसता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपि मन मेरे गोविंद की बाणी ॥ साधू जन रामु रसन वखाणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जपि मन मेरे गोविंद की बाणी ॥ साधू जन रामु रसन वखाणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! साधू जन = गुरमुखों ने। रसन = जीभ से।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा की महिमा की वाणी का उच्चारण कर। (इस वाणी से ही) संत जन अपनी जीभ से परमात्मा के गुण गाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकसु बिनु नाही दूजा कोइ ॥ जा की द्रिसटि सदा सुखु होइ ॥२॥
मूलम्
इकसु बिनु नाही दूजा कोइ ॥ जा की द्रिसटि सदा सुखु होइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिसटि = दृष्टि, निगाह।2।
अर्थ: (हे भाई! उस गोबिंद की महिमा करता रह) जिसकी मेहर की निगाह से सदा आत्मिक आनंद मिलता है, और, जिसके बराबर का कोई नहीं है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साजनु मीतु सखा करि एकु ॥ हरि हरि अखर मन महि लेखु ॥३॥
मूलम्
साजनु मीतु सखा करि एकु ॥ हरि हरि अखर मन महि लेखु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखा = मित्र। करि = बना। लेखु = लिख, उकर ले।3।
अर्थ: (हे भाई! उस) एक गोबिंद को अपना सज्जन-मित्र साथी बना, और उस हरि की महिमा के अक्षर (संस्कार) अपने मन में उकर ले (लिख)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रवि रहिआ सरबत सुआमी ॥ गुण गावै नानकु अंतरजामी ॥४॥६२॥१३१॥
मूलम्
रवि रहिआ सरबत सुआमी ॥ गुण गावै नानकु अंतरजामी ॥४॥६२॥१३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवि रहिआ = व्यापक है। सरबत = सर्वत्र, हर जगह। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।4।
अर्थ: (हे भाई! सारे जगत का वह) मालिक हर जगह व्यापक है और हरेक के दिल की जानता है, नानक (भी) उस अंतरजामी स्वामी के गुण गाता है।4।62।131।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ भै महि रचिओ सभु संसारा ॥ तिसु भउ नाही जिसु नामु अधारा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ भै महि रचिओ सभु संसारा ॥ तिसु भउ नाही जिसु नामु अधारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै महि = डर में (शब्द ‘भउ’ किसी संबंधक के साथ ‘भै’ बन जाता है)। रचिओ = रचा हुआ है। तिसु = उस (मनुष्य) को। अधारा = आसरा।1।
अर्थ: (हे भाई!) सारा संसार (किसी न किसी) डर-सहम के नीचे दबा रहता है, सिर्फ उस मनुष्य पर (कोई) डर अपना जोर नहीं डाल सकता जिसे (परमात्मा का) नाम (जीवन के वास्ते) सहारा मिला हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भउ न विआपै तेरी सरणा ॥ जो तुधु भावै सोई करणा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
भउ न विआपै तेरी सरणा ॥ जो तुधु भावै सोई करणा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न विआपै = जोर नहीं डालता।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी शरण पड़ने से (तेरा पल्ला पकड़ने से) कोई डर अपना जोर नहीं डाल सकता (क्योंकि, फिर ये निष्चय बन जाता है कि) वही काम किया जा सकता है जो (हे प्रभु!) तुझे ठीक लगता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोग हरख महि आवण जाणा ॥ तिनि सुखु पाइआ जो प्रभ भाणा ॥२॥
मूलम्
सोग हरख महि आवण जाणा ॥ तिनि सुखु पाइआ जो प्रभ भाणा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सोग = ग़म, दुख। हरख = खुशी। आवण जाणा = (भय का) आना-जाना। प्रभ भाणा = प्रभु को भाता है। तिनि = उस (मनुष्य) को।2।
अर्थ: दुख मानने में या खुशी मनाने में (संसारी जीव के वास्ते डर-सहम का) आना-जाना बना रहता है। सिर्फ उस मनुष्य ने (स्थाई) आत्मिक आनंद प्राप्त किया है जो प्रभु को प्यारा लगता है (जो प्रभु की रजा में चलता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगनि सागरु महा विआपै माइआ ॥ से सीतल जिन सतिगुरु पाइआ ॥३॥
मूलम्
अगनि सागरु महा विआपै माइआ ॥ से सीतल जिन सतिगुरु पाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगनि सागरु = आग का समुंदर। से = वह लोग।3।
अर्थ: (हे भाई! ये संसार तृष्णा की) आग का समुंदर है (इस में जीवों पे) माया अपना जोर डाले रखती है। जिस (भाग्यशालियों) को सत्गुरू मिल जाता है, वह (इस अग्नि सागर में विचरते हुए भी उनकी अंतरात्मा) शीतलता से (ठहराव) सहज में टिकी रहती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखि लेइ प्रभु राखनहारा ॥ कहु नानक किआ जंत विचारा ॥४॥६३॥१३२॥
मूलम्
राखि लेइ प्रभु राखनहारा ॥ कहु नानक किआ जंत विचारा ॥४॥६३॥१३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राखि लेइ = रख लेता है।4।
अर्थ: (पर) हे नानक! (डर सहम से बचने के लिए, अग्नि सागर के विकारों के सेक से बचने के लिए) जीवों बिचारों की क्या बिसात है? बचाने की ताकत रखने वाला परमात्मा स्वयं ही बचाता है (इस वास्ते हे नानक! उस परमात्मा का पल्ला पकड़े रख)।4।63।132।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ तुमरी क्रिपा ते जपीऐ नाउ ॥ तुमरी क्रिपा ते दरगह थाउ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ तुमरी क्रिपा ते जपीऐ नाउ ॥ तुमरी क्रिपा ते दरगह थाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से, साथ। जपीऐ = जपा जा सकता है। दरगह = (तेरी) हजूरी में। थाउ = जगह, इज्जत।1।
अर्थ: (हे पारब्रह्म प्रभु!) तेरी मेहर से ही (तेरा) नाम जपा जा सकता है। तेरी कृपा से ही तेरी दरगाह में (जीव को) आदर मिल सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुझ बिनु पारब्रहम नही कोइ ॥ तुमरी क्रिपा ते सदा सुखु होइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तुझ बिनु पारब्रहम नही कोइ ॥ तुमरी क्रिपा ते सदा सुखु होइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारब्रहम = हे पारब्रह्म प्रभु! सुखु = आत्मिक आनंद।1। रहाउ।
अर्थ: हे पारब्रह्म प्रभु! तरे बगैर (जीवों का और) कोई (आसरा) नहीं है। तेरी कृपा से ही (जीव को) सदा के लिए आत्मिक आनंद मिल सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम मनि वसे तउ दूखु न लागै ॥ तुमरी क्रिपा ते भ्रमु भउ भागै ॥२॥
मूलम्
तुम मनि वसे तउ दूखु न लागै ॥ तुमरी क्रिपा ते भ्रमु भउ भागै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। तउ = तो। न लागै = छू नहीं सकता। भ्रम = भटकना।2।
अर्थ: (हे पारब्रह्म प्रभु!) अगर तू (जीव के) मन में आ बसे तो (जीवों को कोई) दुख छू नहीं सकता। तेरी मेहर से जीव की भटकना दूर हो जाती है, जीव का डर सहम भाग जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम अपर्मपर सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥३॥
मूलम्
पारब्रहम अपर्मपर सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपरंपर = हे बेअंत! घट = घड़ा,शरीर। अंतरजामी = हे दिल की जानने वाले!।3।
अर्थ: हे पारब्रह्म प्रभु! हे बेअंत प्रभु! हे जगत के मालिक प्रभु! हे सारे जीवों के दिल की जानने वाले प्रभु!।3।;
विश्वास-प्रस्तुतिः
करउ अरदासि अपने सतिगुर पासि ॥ नानक नामु मिलै सचु रासि ॥४॥६४॥१३३॥
मूलम्
करउ अरदासि अपने सतिगुर पासि ॥ नानक नामु मिलै सचु रासि ॥४॥६४॥१३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। नानक मिलै = नानक को मिले। सचु = सदा कायम रहने वाला। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत।4।
अर्थ: (अगर तेरी मेहर हो तो ही) मैं अपने गुरु के आगे (ये) अरदास कर सकता हूँ कि मुझे नानक को प्रभु का नाम मिले (नानक वास्ते नाम ही) सदा कायम रहने वाली संपत्ति है।4।64।133।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ कण बिना जैसे थोथर तुखा ॥ नाम बिहून सूने से मुखा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ कण बिना जैसे थोथर तुखा ॥ नाम बिहून सूने से मुखा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कण = दाने। थोथर = खाली। तुखा = तोह, बल्ली। बिहून = बगैर। सूने = सूना।1।
अर्थ: (हे भाई!) जैसे दानों के बगैर खाली तोह (किसी काम नहीं आते, इसी तरह) वो मुँह सूने हैं जो परमात्मा का नाम जपने के बिना हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु जपहु नित प्राणी ॥ नाम बिहून ध्रिगु देह बिगानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि हरि नामु जपहु नित प्राणी ॥ नाम बिहून ध्रिगु देह बिगानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्राणी = हे प्राणी! ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। देह = शरीर। बिगानी = पराई।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्राणी! सदा परमात्मा का नाम स्मरण करते रहो। परमात्मा के नाम के बिना ये शरीर जो आखिर पराया हो जाता है (जो मौत आने पर छोड़ना पड़ता है) धिक्कार-योग (कहा जाता) है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम बिना नाही मुखि भागु ॥ भरत बिहून कहा सोहागु ॥२॥
मूलम्
नाम बिना नाही मुखि भागु ॥ भरत बिहून कहा सोहागु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि = माथे पर। भागु = अच्छी किस्मत। भरत = पति, भरता। सोहागु = सौभाग्य, सुहाग।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम जपे बिना किसी के माथे के भाग्य नहीं खुलते। पति के बिना (स्त्री का) सुहाग नहीं हो सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु बिसारि लगै अन सुआइ ॥ ता की आस न पूजै काइ ॥३॥
मूलम्
नामु बिसारि लगै अन सुआइ ॥ ता की आस न पूजै काइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसारि = भुला के। अन = अन्य, और। सुआइ = स्वाद में। काइ = कोई भी। न पूजै = सिरे नहीं चढ़ती।3।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा का नाम भुला के और ही स्वादों में उलझा रहता है, उसकी कोई उम्मीद सिरे नहीं चढ़ती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा प्रभ अपनी दाति ॥ नानक नामु जपै दिन राति ॥४॥६५॥१३४॥
मूलम्
करि किरपा प्रभ अपनी दाति ॥ नानक नामु जपै दिन राति ॥४॥६५॥१३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! मेहर करके तू जिस मनुष्य को अपने नाम की दाति बख्शता है वही दिन रात तेरा नाम जपता है।4।65।134।
[[0193]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ तूं समरथु तूंहै मेरा सुआमी ॥ सभु किछु तुम ते तूं अंतरजामी ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ तूं समरथु तूंहै मेरा सुआमी ॥ सभु किछु तुम ते तूं अंतरजामी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथु = समर्थ, सारी ताकतों का मालिक, सब कुछ करने योग्य। सुआमी = मालिक। तुम ते = तुझ से, तेरी मर्जी से। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।1।
अर्थ: (हे पारब्रह्म!) तू सब ताकतों का मालिक है, तू ही मेरा मालिक है (मुझे तेरा ही आसरा है)। तू सबके दिल की जानने वाला है। जो कुछ जगत में हो रहा है तेरी प्रेरणा से ही हो रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम पूरन जन ओट ॥ तेरी सरणि उधरहि जन कोटि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पारब्रहम पूरन जन ओट ॥ तेरी सरणि उधरहि जन कोटि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारब्रहम = हे पारब्रह्म प्रभु! पूरन = हे सर्व व्यापक प्रभु! जन = सेवक। उधरहि = (संसार समुंदर से) बच जाते हैं। कोटि = करोड़ों।1। रहाउ।
अर्थ: हे सर्व-व्यापक पारब्रह्म प्रभु! तेरे सेवकों को तेरा ही आसरा होता है। करोड़ों ही मनुष्य तेरी शरण पड़ कर (संसार समुंदर से) बच जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेते जीअ तेते सभि तेरे ॥ तुमरी क्रिपा ते सूख घनेरे ॥२॥
मूलम्
जेते जीअ तेते सभि तेरे ॥ तुमरी क्रिपा ते सूख घनेरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेते तेते = जितने भी हैं वे सारे। तेते = उतने, तितने। सभि = सारे। घनेरे = अनेक।2।
अर्थ: (हे पारब्रह्म! जगत में) जितने भी जीव हैं, सारे तेरे ही पैदा किए हुए हैं। तेरी मेहर से ही (जीवों को) अनेक सुख मिल रहे हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु वरतै सभ तेरा भाणा ॥ हुकमु बूझै सो सचि समाणा ॥३॥
मूलम्
जो किछु वरतै सभ तेरा भाणा ॥ हुकमु बूझै सो सचि समाणा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तेरा भाणा = तेरी रजा, जो कुछ तुझे पसंद आता है। सचि = सदा स्थिर नाम में।3।
अर्थ: (हे पारब्रहम्! संसार में) जो कुछ घटित हो रहा है, वही घटित होता है जो तुझे अच्छा लगता है। जो मनुष्य तेरी रजा को समझ लेता है, वह तेरे सदा स्थिर रहने वाले नाम में लीन रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा दीजै प्रभ दानु ॥ नानक सिमरै नामु निधानु ॥४॥६६॥१३५॥
मूलम्
करि किरपा दीजै प्रभ दानु ॥ नानक सिमरै नामु निधानु ॥४॥६६॥१३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! नानक = हे नानक! निधानु = खजाना।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! मेहर कर के अपने नाम की दाति बख्श, ता कि तेरा दास नानक तेरा नाम स्मरण करता रहे (तेरा नाम ही तेरे दास के वास्ते सब सुखों का) खजाना है।4।66।135।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ ता का दरसु पाईऐ वडभागी ॥ जा की राम नामि लिव लागी ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ ता का दरसु पाईऐ वडभागी ॥ जा की राम नामि लिव लागी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम नामि = राम के नाम में। लिव = लगन।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य की लगन परमात्मा के नाम में लगी रहती है, उसका दर्शन बड़े भाग्यों से मिलता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै हरि वसिआ मन माही ॥ ता कउ दुखु सुपनै भी नाही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जा कै हरि वसिआ मन माही ॥ ता कउ दुखु सुपनै भी नाही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माही = में, माहि। ता कउ = उस (मनुष्य) को।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में (सदा) परमात्मा (का नाम) बसा रहता है, उस मनुष्य को कभी सपने में भी (कोई) दुख छू नहीं सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब निधान राखे जन माहि ॥ ता कै संगि किलविख दुख जाहि ॥२॥
मूलम्
सरब निधान राखे जन माहि ॥ ता कै संगि किलविख दुख जाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधान = खजाने। किलविख = पाप।2।
अर्थ: (हे भाई! नाम की लगन वाले) सेवक (के हृदय में) (परमात्मा) सारे (आत्मिक गुणों के) खजाने डाल के रखता है। ऐसे सेवक की संगति में रहने से पाप और दुख दूर हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन की महिमा कथी न जाइ ॥ पारब्रहमु जनु रहिआ समाइ ॥३॥
मूलम्
जन की महिमा कथी न जाइ ॥ पारब्रहमु जनु रहिआ समाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई, बड़प्पन, आत्मिक उच्चता। जनु = सेवक।3।
अर्थ: (हे भाई! ऐसे) सेवक की आत्मिक उच्चता बयान नहीं की जा सकती। वह सेवक उस पारब्रहम् का रूप बन जाता है जो सब जीवों में व्यापक है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा प्रभ बिनउ सुनीजै ॥ दास की धूरि नानक कउ दीजै ॥४॥६७॥१३६॥
मूलम्
करि किरपा प्रभ बिनउ सुनीजै ॥ दास की धूरि नानक कउ दीजै ॥४॥६७॥१३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! बिनउ = विनती। सुनीऐ = सुनो। कउ = को।4।
अर्थ: (हे नानक! कह:) हे प्रभु! मेरी विनती सुन। मेहर करके मुझ नानक को अपने ऐसे सेवक के चरणों की धूल दे।4।67।136।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हरि सिमरत तेरी जाइ बलाइ ॥ सरब कलिआण वसै मनि आइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हरि सिमरत तेरी जाइ बलाइ ॥ सरब कलिआण वसै मनि आइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाइ = चली जाएगी। बलाइ = वैरन। कलिआण = सुख। सरब कलिआण = सारे ही सुख।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का स्मरण करते हुए तेरी वैरन (माया डायन) तुझसे परे हट जाएगी। (अगर परमात्मा का नाम तेरे) मन में आ बसे तो (तेरे अंदर) सारे सुख (आ बसेंगे)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजु मन मेरे एको नाम ॥ जीअ तेरे कै आवै काम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
भजु मन मेरे एको नाम ॥ जीअ तेरे कै आवै काम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन मेरे = हे मेरे मन! जीअ कै कामि = जीवात्मा के काम।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! एक परमात्मा का ही नाम स्मरण करता रह। ये नाम ही तेरी जीवात्मा के काम आएगा (जिंद के साथ निभेगा)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रैणि दिनसु गुण गाउ अनंता ॥ गुर पूरे का निरमल मंता ॥२॥
मूलम्
रैणि दिनसु गुण गाउ अनंता ॥ गुर पूरे का निरमल मंता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैणि = रात। गुण अनंता = बेअंत प्रभु के गुण। निरमल = पवित्र। मंता = उपदेश।2।
अर्थ: (हे भाई!) पूरे गुरु का पवित्र उपदेश ले, और दिन रात बेअंत परमात्मा के गुण गाया कर।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
छोडि उपाव एक टेक राखु ॥ महा पदारथु अम्रित रसु चाखु ॥३॥
मूलम्
छोडि उपाव एक टेक राखु ॥ महा पदारथु अम्रित रसु चाखु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाव = उपाय। टेक = आसरा। महा पदारथु = सब से श्रेष्ठ पदार्थ।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! संसार समुंदर से पार लांघने के लिए) और सारे तरीके छोड़, और एक परमात्मा (के नाम) का आसरा रख। आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस चख - यही है सब पदार्थों से श्रेष्ठ पदार्थ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखम सागरु तेई जन तरे ॥ नानक जा कउ नदरि करे ॥४॥६८॥१३७॥
मूलम्
बिखम सागरु तेई जन तरे ॥ नानक जा कउ नदरि करे ॥४॥६८॥१३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखम = विषम, मुश्किल। तेई जन = वही लोग। नदरि = निगाह।4।
अर्थ: हे नानक! वही मनुष्य मुश्किल (संसार) समुंदर से (आत्मिक पूंजी समेत) पार लांघते हैं, जिस पे (परमात्मा खुद मेहर की) नजर करता है।4।68।137।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हिरदै चरन कमल प्रभ धारे ॥ पूरे सतिगुर मिलि निसतारे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हिरदै चरन कमल प्रभ धारे ॥ पूरे सतिगुर मिलि निसतारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चरन कमल प्रभ = प्रभु के कमल फूलों जैसे सुंदर चरण। सतिगुर मिलि = गुरु को मिल के। निसतारे = (संसार समुंदर से) पार लांघ गए।1।
अर्थ: (हे मेरे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के चरण अपने हृदय में टिकाते हैं, पूरे सतगुरू को मिल के वह (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोविंद गुण गावहु मेरे भाई ॥ मिलि साधू हरि नामु धिआई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गोविंद गुण गावहु मेरे भाई ॥ मिलि साधू हरि नामु धिआई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाई = हे भाई! साधू = गुरु। धिआई = ध्यान लगा के, स्मरण कर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाई! गोबिंद की महिमा के गीत गाते रहो। गुरु को मिल के परमात्मा का नाम स्मरण करो।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुलभ देह होई परवानु ॥ सतिगुर ते पाइआ नाम नीसानु ॥२॥
मूलम्
दुलभ देह होई परवानु ॥ सतिगुर ते पाइआ नाम नीसानु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देह = शरीर, मानव शरीर। दुलभ = जो बड़ी मुश्किल से मिलता है। ते = से। नीसानु = परवाना, राहदारी।2।
अर्थ: (हे मेरे भाई! जिस मनुष्यों ने इस जीवन सफर में) सत्गुरू से परमात्मा के नाम की राहदारी हासिल कर ली है, उनका मानव शरीर- बड़ी कठनाई से मिली हुई मनुष्य देह- (परमात्मा की नजरों में) स्वीकार हो जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि सिमरत पूरन पदु पाइआ ॥ साधसंगि भै भरम मिटाइआ ॥३॥
मूलम्
हरि सिमरत पूरन पदु पाइआ ॥ साधसंगि भै भरम मिटाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरन पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ किसी कमी की गुँजाइश नहीं रहती। संगि = संगति में।3।
अर्थ: (हे मेरे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए वह मनुष्य वह आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है, जहाँ किसी कमी की संभावना नहीं रह जाती। साधु-संगत में रह के मनुष्य सारे डर सारी ही भटकनें मिटा लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जत कत देखउ तत रहिआ समाइ ॥ नानक दास हरि की सरणाइ ॥४॥६९॥१३८॥
मूलम्
जत कत देखउ तत रहिआ समाइ ॥ नानक दास हरि की सरणाइ ॥४॥६९॥१३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जत कत = जिधर किधर। देखउ = मैं देखता हूँ। तत = तत्र, उधर (ही)।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे मेरे भाई! गुरु की शरण की इनायत से) मैं जिधर भी देखता हूँ, उधर ही परमात्मा व्यापक दिखता है। (हे भाई! प्रभु के) सेवक प्रभु की शरण में ही टिके रहते हैं।4।69।138।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ गुर जी के दरसन कउ बलि जाउ ॥ जपि जपि जीवा सतिगुर नाउ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ गुर जी के दरसन कउ बलि जाउ ॥ जपि जपि जीवा सतिगुर नाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ। जीवा = जीऊूं, मैं जी पड़ता हूँ, मेरे अंदर उच्च आत्मिक अवस्था पैदा होती है।1।
अर्थ: (हे भाई!) मैं सत्गुरू जी के दर्शन से सदके जाता हूँ। सतिगुरु जी का नाम याद करके मेरे अंदर उच्च आत्मिक जीवन पैदा होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम पूरन गुरदेव ॥ करि किरपा लागउ तेरी सेव ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पारब्रहम पूरन गुरदेव ॥ करि किरपा लागउ तेरी सेव ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारब्रहम = हे पारब्रह्म! लगउ = मैं लगा रहूँ।1। रहाउ।
अर्थ: हे पूरन पारब्रहम्! हे गुरदेव! कृपा कर, मैं तेरी सेवा भक्ति में लगा रहूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल हिरदै उर धारी ॥ मन तन धन गुर प्रान अधारी ॥२॥
मूलम्
चरन कमल हिरदै उर धारी ॥ मन तन धन गुर प्रान अधारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उर = उरस्, हृदय। गुर = गुर (चरण), गुरु के चरण। अधारी = आसरा।2।
अर्थ: (इस वास्ते, हे भाई! गुरु के) सुंदर चरण मैं अपने मन में हृदय में टिकाता हूँ। गुरु के चरण मेरे मन का, मेरे तन का, मेरे धन का, मेरी जीवात्मा का आसरा हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफल जनमु होवै परवाणु ॥ गुरु पारब्रहमु निकटि करि जाणु ॥३॥
मूलम्
सफल जनमु होवै परवाणु ॥ गुरु पारब्रहमु निकटि करि जाणु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परवाणु = मंजूर, स्वीकार। निकटि = नजदीक।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु को पारब्रहम् प्रभु को (सदा अपने) नजदीक बसता समझ। (इस तरह तेरा मानव) जनम कामयाब हो जाएगा। तू (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार हो जाएगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत धूरि पाईऐ वडभागी ॥ नानक गुर भेटत हरि सिउ लिव लागी ॥४॥७०॥१३९॥
मूलम्
संत धूरि पाईऐ वडभागी ॥ नानक गुर भेटत हरि सिउ लिव लागी ॥४॥७०॥१३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत धूरि = गुरु संत के चरणों की धूल। गुर भेटत = गुरु को मिल के।4।
अर्थ: हे नानक! गुरु संत के चरणों की धूल बड़े भाग्यों से मिलती है। गुरु को मिलने से परमात्मा (के चरणों) के साथ लगन लग जाती है।4।70।139।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ करै दुहकरम दिखावै होरु ॥ राम की दरगह बाधा चोरु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ करै दुहकरम दिखावै होरु ॥ राम की दरगह बाधा चोरु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुहकरम = दुष्कर्म, बुरे काम। होर = (अपने जीवन का) दूसरा पक्ष।1।
अर्थ: (पर, जो स्मरण-हीन मनुष्य राम को सर्व-व्यापक नहीं प्रतीत करता, वह अंदर छुप के) बुरे कर्म कमाता है (बाहर जगत को अपने जीवन का) दूसरा पक्ष दिखाता है (जैसे चोर सेंध में रंगे हाथों पकड़ा जाता है, और फंस जाता है, वैसे ही) वह परमातमा की दरगाह में चोर की भांति बांधा जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामु रमै सोई रामाणा ॥ जलि थलि महीअलि एकु समाणा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामु रमै सोई रामाणा ॥ जलि थलि महीअलि एकु समाणा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रमै = स्मरण करता है। रामाणा = राम का (सेवक)। जलि = जल में। थलि = धरती। महीअलि = मही+तल, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) वही मनुष्य राम का (सेवक माना जाता है) जो राम को स्मरण करता है। (उस मनुष्य को निश्चय हो जाता है कि) राम, जल में, धरती में, आकाश में हर जगह व्यापक है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि बिखु मुखि अम्रितु सुणावै ॥ जम पुरि बाधा चोटा खावै ॥२॥
मूलम्
अंतरि बिखु मुखि अम्रितु सुणावै ॥ जम पुरि बाधा चोटा खावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = जहर। मुखि = मुंह से। जमपुरि = यम की पुरी में। पुरि = पुर में, शहर में।2।
अर्थ: (स्मरण-हीन रह के) परमात्मा को हर जगह ना बसता जानने वाला मनुष्य अपने मुंह से (लोगों को) आत्मिक जीवन देने वाला उपदेश सुनाता है (पर उसके) अंदर (विकारों की) जहर है। (जिसने उसके अपने आत्मिक जीवन को मार दिया है, ऐसा मनुष्य) यम की पुरी में बाँधा हुआ चोटें खाता है (आत्मिक मौत के वश में पड़ा अनेको विकारों की चोटें सहता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक पड़दे महि कमावै विकार ॥ खिन महि प्रगट होहि संसार ॥३॥
मूलम्
अनिक पड़दे महि कमावै विकार ॥ खिन महि प्रगट होहि संसार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संसारि = संसार में। होहि = हो जाते हैं।3।
अर्थ: (स्मरण-हीन मनुष्य परमात्मा को अंग-संग ना जानता हुआ) अनेक पदार्थों पीछे (लोगों से छुपा के) विकार कर्म कमाता है, पर (उसके कुकर्म) जगत के अंदर एक छिन में ही प्रगट हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि साचि नामि रसि राता ॥ नानक तिसु किरपालु बिधाता ॥४॥७१॥१४०॥
मूलम्
अंतरि साचि नामि रसि राता ॥ नानक तिसु किरपालु बिधाता ॥४॥७१॥१४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचि नामि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु नाम में। रसि = रस में। बिधाता = विधाता प्रभु!।4।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य अपने अंदर सदा स्थिर हरि नाम में जुड़ा रहता है, परमात्मा के प्रेम-रस में भीगा रहता है, विधाता प्रभु उस पर दयावान होता है।4।71।140।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ राम रंगु कदे उतरि न जाइ ॥ गुरु पूरा जिसु देइ बुझाइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ राम रंगु कदे उतरि न जाइ ॥ गुरु पूरा जिसु देइ बुझाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम रंगु = परमात्मा (के प्यार) का रंग। देइ बुझाइ = समझा दे, सूझ डाल दे।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के प्यार का रंग (अगर किसी भाग्यशाली के मन पर चढ़ जाए तो फिर) कभी (उस मन से) उतरता नहीं, दूर नहीं होता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि रंगि राता सो मनु साचा ॥ लाल रंग पूरन पुरखु बिधाता ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि रंगि राता सो मनु साचा ॥ लाल रंग पूरन पुरखु बिधाता ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। साचा = सदा कायम रहने वाला, पक्के रंग वाला, जिस पर कोई और रंग अपना असर ना कर सके। बिधाता = विधाता।1। रहाउ।
अर्थ: जो मन परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा जाता है, उस पर (माया का) कोई और रंग अपना असर नहीं डाल सकता, वह (मानो) गहरे लाल रंग वाला हो जाता है, वह सर्व-व्यापक विधाता का रूप हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतह संगि बैसि गुन गाइ ॥ ता का रंगु न उतरै जाइ ॥२॥
मूलम्
संतह संगि बैसि गुन गाइ ॥ ता का रंगु न उतरै जाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतह संगि = संतों की संगति में। बैसि = बैठ के।2।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) संत जनों की संगति में बैठ के परमात्मा के गुण गाता है (महिमा करता है, उसके मन को परमात्मा के प्यार का रंग चढ़ जाता है, और) उसका वह रंग कभी नहीं उतरता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु हरि सिमरन सुखु नही पाइआ ॥ आन रंग फीके सभ माइआ ॥३॥
मूलम्
बिनु हरि सिमरन सुखु नही पाइआ ॥ आन रंग फीके सभ माइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन = अन्य। फीके = कच्चे, बेस्वादे।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करे बिना (कभी किसी ने) आत्मिक आनंद नहीं पाया। (हे भाई!) माया (के स्वादों) के अन्य सभी रंग उतर जाते हैं (माया के स्वादों से मिलने वाले सुख होछे होते हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि रंगे से भए निहाल ॥ कहु नानक गुर भए है दइआल ॥४॥७२॥१४१॥
मूलम्
गुरि रंगे से भए निहाल ॥ कहु नानक गुर भए है दइआल ॥४॥७२॥१४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। से = वह लोग (बहुवचन)। निहाल = प्रसन्न, खिले हुए जीवन वाले।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस पे सतिगुरु जी दयावान होते हैं जिन्हें गुरु ने परमात्मा के प्रेम रंग में रंग दिया है, वह सदा खिले जीवन वाले रहते हैं।4।72।141।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पाठक याद रखें कि यहाँ पिछले सिलसिले के मुताबिक बड़ा अंक 142 चाहिए था। गिनती में एक की कमी चली आ रही है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ सिमरत सुआमी किलविख नासे ॥ सूख सहज आनंद निवासे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ सिमरत सुआमी किलविख नासे ॥ सूख सहज आनंद निवासे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। किलविख = पाप। सहज = आत्मिक अडोलता। निवासे = बस जाते हैं।1।
अर्थ: (हे भाई!) मालिक-प्रभु का नाम स्मरण करते हुए (परमात्मा के सेवकों के सारे) पाप नाश हो जाते है, (उनके अंदर) आत्मिक अडोलता के सुखों के आनंदों का निवास बना रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम जना कउ राम भरोसा ॥ नामु जपत सभु मिटिओ अंदेसा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम जना कउ राम भरोसा ॥ नामु जपत सभु मिटिओ अंदेसा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। जपत = जपते हुए। सभु अंदेसा = सारा फिक्र।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के सेवकों को (हर वक्त) परमात्मा (की सहायता) का भरोसा बना रहता है, (इस वास्ते) परमात्मा का नाम जपते हुए (उनके अंदर से) हरेक फिक्र मिटा रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि कछु भउ न भराती ॥ गुण गोपाल गाईअहि दिनु राती ॥२॥
मूलम्
साधसंगि कछु भउ न भराती ॥ गुण गोपाल गाईअहि दिनु राती ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में। भराती = भटकना। गाइअहि = गाए जाते हैं।2।
अर्थ: (हे भाई!) साधु-संगत में रहने के कारण (परमात्मा के सेवकों को) कोई डर नहीं छू सकता, कोई भटकना नहीं भटका सकती। (क्योंकि, परमात्मा के सेवकों के हृदय में) दिन रात गोपाल प्रभु के गुण गाए जाते हैं (उनके अंदर हर समय महिमा टिकी रहती है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा प्रभ बंधन छोट ॥ चरण कमल की दीनी ओट ॥३॥
मूलम्
करि किरपा प्रभ बंधन छोट ॥ चरण कमल की दीनी ओट ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ बंधन छोट = माया के बंधनों से खलासी देने वाले प्रभु जी ने। ओट = सहारा।3।
अर्थ: (हे भाई!) माया के बंधनों से खलासी देने वाले प्रभु जी ने मेहर करके (अपने सेवकों को अपने) सुंदर चरणों का सहारा (सदा) बख्शा होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक मनि भई परतीति ॥ निरमल जसु पीवहि जन नीति ॥४॥७३॥१४२॥
मूलम्
कहु नानक मनि भई परतीति ॥ निरमल जसु पीवहि जन नीति ॥४॥७३॥१४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। परतीति = श्रद्धा। जसु = महिमा (का जल)। नीति = सदा।4।
अर्थ: (इस वास्ते) हे नानक! कह: (परमात्मा के सेवकों के) मन में (परमात्मा की ओट आसरे का) निश्चय बना रहता है, और परमात्मा के सेवक सदा (जीवन को) पवित्र करने वाला महिमा का अमृत पीते रहते हैं।4।73।142।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हरि चरणी जा का मनु लागा ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हरि चरणी जा का मनु लागा ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। ता का = उस (मनुष्य) का।1।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा की मेहर से) जिस मनुष्य का मन परमात्मा के चरणों में लग जाता है उसका हरेक दुख दर्द दूर हो जाता है, उस की (माया आदि वाली) भटकना समाप्त हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि धन को वापारी पूरा ॥ जिसहि निवाजे सो जनु सूरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि धन को वापारी पूरा ॥ जिसहि निवाजे सो जनु सूरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। वापारी = वणज करने वाला। पूरा = अडोल चित्त, जिस पर कोई कमी अपना प्रभाव ना डाल सके। जिसहि = जिस (मनुष्य) को। निवाजे = इज्जत बख्शता है, मेहर करता है। सूरा = सूरमा, शूरवीर, विकारों का टकराव करने के समर्थ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम-धन का व्यापार करने वाला मनुष्य अडोल हृदय का मालिक बन जाता है (उस पर कोई विकार अपना प्रभाव नहीं डाल सकते, क्योंकि) जिस मनुष्य पर परमात्मा अपने नाम-धन की दाति की मेहर करता है वह मनुष्य (विकारों से टकराव करने वाला) शूरवीर बन जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ भए क्रिपाल गुसाई ॥ से जन लागे गुर की पाई ॥२॥
मूलम्
जा कउ भए क्रिपाल गुसाई ॥ से जन लागे गुर की पाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को (शब्द ‘को’ और ‘कउ’ का फर्क साद रखने के योग्य है)। गुसाई = धरती का मालिक, प्रभु। पाई = पांय, पैरों पर।2।
अर्थ: (पर, हे भाई! नाम-धन की दाति गुरु के द्वारा ही मिलती है और) जिस मनुष्यों पर धरती के मालिक प्रभु जी दयावान होते हैं, वह मनुष्य गुरु के चरणों में आ लगते हैं (गुरु की शरण पड़ते हैं)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूख सहज सांति आनंदा ॥ जपि जपि जीवे परमानंदा ॥३॥
मूलम्
सूख सहज सांति आनंदा ॥ जपि जपि जीवे परमानंदा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। जपि = जप के। जीवे = उच्च आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। परमानंद = सबसे उच्च आत्मिक आनंद का मालिक प्रभु।3।
अर्थ: (हे भाई!) सब से ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक-प्रभु को स्मरण कर-कर के मनुष्य आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं, फिर उनके अंदर सदा सुख शांति और आत्मिक अडोलता के आनंद बने रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम रासि साध संगि खाटी ॥ कहु नानक प्रभि अपदा काटी ॥४॥७४॥१४३॥
मूलम्
नाम रासि साध संगि खाटी ॥ कहु नानक प्रभि अपदा काटी ॥४॥७४॥१४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रासि = पूंजी, संपत्ति, धन। खाटी = कमा ली। प्रभि = प्रभु ने। अपदा = बिपता, मुसीबत।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने साधु-संगत में टिक के परमात्मा के नाम-धन की राशि कमा ली है, परमात्मा ने उसकी हरेक किस्म की बिपता दूर कर दी है।4।74।143।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हरि सिमरत सभि मिटहि कलेस ॥ चरण कमल मन महि परवेस ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हरि सिमरत सभि मिटहि कलेस ॥ चरण कमल मन महि परवेस ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। मिटहि = मिट जाते हैं। चरण कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। परवेस = टिकाए रख।1।
अर्थ: (हे भाई!) अपने मन में परमात्मा के सुंदर चरण बसाए रख। परमात्मा का नाम स्मरण करने से मन के सारे कष्ट मिट जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उचरहु राम नामु लख बारी ॥ अम्रित रसु पीवहु प्रभ पिआरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
उचरहु राम नामु लख बारी ॥ अम्रित रसु पीवहु प्रभ पिआरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लख बारी = लाखों बार। प्रभ दा = प्रभु का। पिआरी = हे प्यारी जीभ! 1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारी जीभ! (तू) लाखों बार परमात्मा का नाम उचारती रह और परमात्मा का आत्मिक जीवन वाला नाम-रस पीती रह।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूख सहज रस महा अनंदा ॥ जपि जपि जीवे परमानंदा ॥२॥
मूलम्
सूख सहज रस महा अनंदा ॥ जपि जपि जीवे परमानंदा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। जपि = जप के। जीवे = आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। परमानंदा = सबसे ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक प्रभु! 2।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य सबसे श्रेष्ठ आत्मिक आनंद के मालिक-प्रभु का नाम जपते हैं, वह आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं, उनके अंदर आत्मिक अडोलता के बड़े सुख आनंद बने रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध लोभ मद खोए ॥ साध कै संगि किलबिख सभ धोए ॥३॥
मूलम्
काम क्रोध लोभ मद खोए ॥ साध कै संगि किलबिख सभ धोए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मद = अहंकार। खोए = नाश कर लिए। संगि = संगति में। किलबिख = पाप।3।
अर्थ: (हे भाई! नाम-रस पीने वाले मनुष्य अपने अंदर से) काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार (आदि विकारों का) नाश कर लेते हैं। गुरु की संगति में रह के वह (अपने मन में से) सारे पाप धो लेते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ नानक दीजै साध रवाला ॥४॥७५॥१४४॥
मूलम्
करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ नानक दीजै साध रवाला ॥४॥७५॥१४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि किरपा = कृपा कर। प्रभ = हे प्रभु! रवाला = चरण धूल।4।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! मेहर कर और नानक को गुरु के चरणों की धूल बख्श।4।75।144।
[[0195]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जिस का दीआ पैनै खाइ ॥ तिसु सिउ आलसु किउ बनै माइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जिस का दीआ पैनै खाइ ॥ तिसु सिउ आलसु किउ बनै माइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पैनै = पहिनता है। खाइ = खाता है। किउ बनै = कैसे बने, कैसे फब सकता है? नहीं फबता। माइ = हे माँ!।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस का’ शब्द में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे माँ! जिस परमात्मा का दिया हुआ (अन्न) मनुष्य खाता है, (दिया हुआ कपड़ा मनुष्य) पहनता है उसकी याद में आलस करना किसी भी तरह शोभा नहीं देता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खसमु बिसारि आन कमि लागहि ॥ कउडी बदले रतनु तिआगहि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
खसमु बिसारि आन कमि लागहि ॥ कउडी बदले रतनु तिआगहि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिसारि = भुला के। आन = अन्य। कंमि = काम में। लागहि = लगते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) मालिक प्रभु (की याद) भुला के अन्य कामों में उलझे रहते हैं, वह नकारी माया के बदले में अपना कीमती मानव जनम गवा लेते हैं। (वे रत्न तो फेंक देते हैं, पर कउड़ी को सम्भालते हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभू तिआगि लागत अन लोभा ॥ दासि सलामु करत कत सोभा ॥२॥
मूलम्
प्रभू तिआगि लागत अन लोभा ॥ दासि सलामु करत कत सोभा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिआगि = त्याग के। दासि = दासी, माया। कत = कहाँ?।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा को छोड़ के और (पदार्थोँ के) लोभ वश हो के (परमात्मा की) दासी माया को सलाम करने से कहीं भी शोभा नहीं मिल सकती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित रसु खावहि खान पान ॥ जिनि दीए तिसहि न जानहि सुआन ॥३॥
मूलम्
अम्रित रसु खावहि खान पान ॥ जिनि दीए तिसहि न जानहि सुआन ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खावहि = खाते हैं। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तिसहि = उस (प्रभु) को। सुआन = (बहुवचन) कुत्ते।3।
अर्थ: (हे भाई!) कुत्ते (के स्वाभाव वाले मनुष्य) स्वादिष्ट भोजन खाते हैं, अच्छे-अच्छे खाने खाते हैं, पीने वाली चीजें पीते हैं, पर जिस परमात्मा ने (ये सारे पदार्थ) दिए हैं उसे जानते-पहिचानते भी नहीं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक हम लूण हरामी ॥ बखसि लेहु प्रभ अंतरजामी ॥४॥७६॥१४५॥
मूलम्
कहु नानक हम लूण हरामी ॥ बखसि लेहु प्रभ अंतरजामी ॥४॥७६॥१४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लूण हरामी = (खाए हुए) नमक को हराम करने वाले, ना-शुक्रगुजार। प्रभ = हे प्रभु! 4।
अर्थ: हे नानक! कह: हे प्रभु! हम जीव ना-शुक्रे हैं। हे जीवों के दिल की जानने वाले प्रभु! हमें बख्श ले।4।76।145।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ प्रभ के चरन मन माहि धिआनु ॥ सगल तीरथ मजन इसनानु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ प्रभ के चरन मन माहि धिआनु ॥ सगल तीरथ मजन इसनानु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माहि = में। मजन = स्नान, डुबकी।1।
अर्थ: (हे मेरे बंधु!) अपने मन में परमात्मा का ध्यान धर। (प्रभु-चरणों का ध्यान ही) सारे तीर्थों का स्नान है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि दिनु हरि सिमरनु मेरे भाई ॥ कोटि जनम की मलु लहि जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि दिनु हरि सिमरनु मेरे भाई ॥ कोटि जनम की मलु लहि जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दिनु = (सारा) दिन। हरि हरि सिमरनु = सदा हरि का स्मरण कर। भाई = हे भाई! कोटि = करोड़ों। मलु = (विकारों की) मैल।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘मलु’ शक्ल में पुलिंग की तरह है पर है ये स्त्रीलिंग है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे भाई! सारा दिन सदा परमात्मा का स्मरण किया कर। (जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करता है उसके) करोड़ों जन्मों के (विकारों की) मैल उतर जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि की कथा रिद माहि बसाई ॥ मन बांछत सगले फल पाई ॥२॥
मूलम्
हरि की कथा रिद माहि बसाई ॥ मन बांछत सगले फल पाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कथा = महिमा। मन बांछत = मन इच्छित,मन भाते।2।
अर्थ: (हे मेरे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा की महिमा अपने हृदय में बसाता है, वह सारे मन-इच्छित फल प्राप्त कर लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवन मरणु जनमु परवानु ॥ जा कै रिदै वसै भगवानु ॥३॥
मूलम्
जीवन मरणु जनमु परवानु ॥ जा कै रिदै वसै भगवानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवन मरणु जनमु = पैदा होने से मरने तक सारा जीवन। जा कै रिदै = जिसके हृदय में।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में भगवान आ बसता है, जनम से लेकर मौत तक उस मनुष्य का सारा जीवन (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक सेई जन पूरे ॥ जिना परापति साधू धूरे ॥४॥७७॥१४६॥
मूलम्
कहु नानक सेई जन पूरे ॥ जिना परापति साधू धूरे ॥४॥७७॥१४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरे = सारे गुणों वाले। साधू धूरे = गुरु के चरणों की धूल।4।
अर्थ: हे नानक! वही मनुष्य सही जीवन वाले बनते हैं जिन्हें गुरु के चरणों की धूल मिल जाती है।4।77।146।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ खादा पैनदा मूकरि पाइ ॥ तिस नो जोहहि दूत धरमराइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ खादा पैनदा मूकरि पाइ ॥ तिस नो जोहहि दूत धरमराइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकर पाइ = मुकर जाता है। जोहहि = निगाह में रखते हैं।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘मुकर पाइ’ के बारे में। संस्कृत क्रिया का पहला हिस्सा सदा एकारांत होता है, आखिरी अक्षर के साथ ‘ि’ की मात्रा लगी होती है। ये नियम सारी वाणी में ठीक उतरता है। पर ‘जपु’ वाणी में देखो “केते लै लै मुकरु पाहि”।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की बख्शी दातें) खाता रहता है पहनता रहता है और उस बात को नहीं मानता (मुकरा रहता है) कि ये सब परमात्मा का दिया है, उस मनुष्य को धर्मराज के दूत अपनी निगरानी में रखते हैं (भाव, वह मनुष्य सदा आत्मिक मौत मरा रहता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु सिउ बेमुखु जिनि जीउ पिंडु दीना ॥ कोटि जनम भरमहि बहु जूना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तिसु सिउ बेमुखु जिनि जीउ पिंडु दीना ॥ कोटि जनम भरमहि बहु जूना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। जीउ = जीवात्मा। पिंडु = शरीर। भरमहि = तू भटकेगा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! तू) उस परमात्मा (की याद) से मुंह मोड़े बैठा है, जिसने (तुझे) जीवात्मा दी, जिसने (तुझे) शरीर दिया। (याद रख, यहां से गवा के) करोड़ों जन्मों में अनेक जूनियों में भटकता फिरेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकत की ऐसी है रीति ॥ जो किछु करै सगल बिपरीति ॥२॥
मूलम्
साकत की ऐसी है रीति ॥ जो किछु करै सगल बिपरीति ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साकत = माया ग्रस्त जीव, प्रभु से टूटा हुआ। रीति = जीवन मर्यादा। बिपरीत = उलट।2।
अर्थ: (हे भाई!) माया ग्रसित मनुष्य की जीवन मर्यादा ही ऐसी है कि वह जो कुछ करता है सारा बे-मुख्ता का काम ही करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीउ प्राण जिनि मनु तनु धारिआ ॥ सोई ठाकुरु मनहु बिसारिआ ॥३॥
मूलम्
जीउ प्राण जिनि मनु तनु धारिआ ॥ सोई ठाकुरु मनहु बिसारिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। धारिआ = (अपनी ज्योति से) सहारा दिया हुआ है। मनहु = मन से।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा ने जीव की जीवात्मा को, मन को, शरीर को (अपनी ज्योति का) सहारा दिया हुआ है, उस पालणहार प्रभु को साकत मनुष्य अपने मन से भुलाए रखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बधे बिकार लिखे बहु कागर ॥ नानक उधरु क्रिपा सुख सागर ॥४॥
मूलम्
बधे बिकार लिखे बहु कागर ॥ नानक उधरु क्रिपा सुख सागर ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बधे = बढ़े हुए हैं। कागर = कागज, दफतर। उधरु = उद्धार ले, बचा ले। सुख सागर = हे सुखों के समुंदर प्रभु! 4।
अर्थ: (इस तरह हे बंधु! उस साकत के इतने) विकार बढ़ जाते हैं कि उनके (बुरे लेखों के) अनेक पृष्ठ ही लिखे जाते हैं।
हे नानक! (प्रभु दर पे अरदास कर और कह:) हे दया के समुंदर! (तू स्वयं हम जीवों को विकारों से) बचा के रख।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम तेरी सरणाइ ॥ बंधन काटि तरै हरि नाइ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥७८॥१४७॥
मूलम्
पारब्रहम तेरी सरणाइ ॥ बंधन काटि तरै हरि नाइ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥७८॥१४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारब्रहम = हे पारब्रह्म! नाइ = नाम के द्वारा।1। रहाउ दूजा।
अर्थ: हे पारब्रहम् प्रभु! जो मनुष्य (तेरी मेहर से) तेरी शरण आते हैं, वह तेरे हरि-नाम की इनायत से (अपने माया के) बंधन काट के (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।1। रहाउ दूजा।78।147।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ अपने लोभ कउ कीनो मीतु ॥ सगल मनोरथ मुकति पदु दीतु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ अपने लोभ कउ कीनो मीतु ॥ सगल मनोरथ मुकति पदु दीतु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोभ कउ = लोभ की खातिर। कीनो = किया, बनाया। मुकति पदु = वह आत्मिक अवस्था जहां कोई वासना छू नहीं सकती।1।
अर्थ: (हे भाई! देखो गोबिंद की उदारता!) चाहे कोई मनुष्य अपनी किसी लालच की खातिर उसे मित्र बनाता है (फिर भी वह उसके) सारे उद्देश्य पूरे कर देता है जहाँ कोई वासना फटक नहीं सकती।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा मीतु करहु सभु कोइ ॥ जा ते बिरथा कोइ न होइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा मीतु करहु सभु कोइ ॥ जा ते बिरथा कोइ न होइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभु कोइ = हरेक जीव। जा ते = जिस से। बिरथा = खाली, व्यर्थ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) हरेक मनुष्य ऐसे (प्रभु को) मित्र बनाए, जिस (के दर) से कोई खाली नहीं रहता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपुनै सुआइ रिदै लै धारिआ ॥ दूख दरद रोग सगल बिदारिआ ॥२॥
मूलम्
अपुनै सुआइ रिदै लै धारिआ ॥ दूख दरद रोग सगल बिदारिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआइ = स्वार्थ वास्ते। रिदै = हृदय में। बिदारिआ = नाश कर दिया।2।
अर्थ: जिस मनुष्य ने (उस गोबिंद को) अपनी गरज वास्ते भी अपने हृदय में ला टिकाया है, (गोबिंद ने उसके) सारे दुख-दर्द सारे रोग दूर कर दिए हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रसना गीधी बोलत राम ॥ पूरन होए सगले काम ॥३॥
मूलम्
रसना गीधी बोलत राम ॥ पूरन होए सगले काम ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ। गीधी = (गृध् = to covet, to desire) लालसा करती है।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य की जीभ गोबिंद का नाम उचारने की तमन्ना रखती है, उसके सारे उद्देश्य पूरे हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक बार नानक बलिहारा ॥ सफल दरसनु गोबिंदु हमारा ॥४॥७९॥१४८॥
मूलम्
अनिक बार नानक बलिहारा ॥ सफल दरसनु गोबिंदु हमारा ॥४॥७९॥१४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बलिहारा = कुर्बान। सफल दरसनु = जिसका दर्शन सारे फल देता है।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हम अपने गोबिंद से अनेक बार कुर्बान जाते हैं, हमारा गोबिंद ऐसा है कि उसके दर्शन सारे फल देते हैं।4।79।148।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ कोटि बिघन हिरे खिन माहि ॥ हरि हरि कथा साधसंगि सुनाहि ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ कोटि बिघन हिरे खिन माहि ॥ हरि हरि कथा साधसंगि सुनाहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। हिरे = नाश हो जाते हैं। कथा = महिमा। साध संगि = साधु-संगत में। सुनाहि = (जो मनुष्य) सुनते हैं।1।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य साधु-संगत में (टिक के) परमात्मा की महिमा सुनते हैं, उनकी जिंदगी की राह में आने वाली करोड़ों रुकावटें एक छिन में नाश हो जाती हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीवत राम रसु अम्रित गुण जासु ॥ जपि हरि चरण मिटी खुधि तासु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पीवत राम रसु अम्रित गुण जासु ॥ जपि हरि चरण मिटी खुधि तासु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पीवत = पीते हुए। राम रसु = राम के नाम का रस। अंम्रित गुण = आत्मिक जीवन देने वाले गुण। अंम्रित जासु = आत्मिक जीवन देने वाला यश। खुधितासु = भूख।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम रस पीते हुए, परमात्मा के आत्मिक जीवन देने वाले गुणों का जस गाते हुए, परमात्मा के चरण जप के (माया की) भूख मिट जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरब कलिआण सुख सहज निधान ॥ जा कै रिदै वसहि भगवान ॥२॥
मूलम्
सरब कलिआण सुख सहज निधान ॥ जा कै रिदै वसहि भगवान ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। निधान = खजाने। भगवान = हे भगवान!।2।
अर्थ: हे भगवान! जिस मनुष्य के हृदय में तू बस जाता है, उसे सारे सुखों के खजाने व आत्मिक अडोलता के आनंद प्राप्त हो जाते हैं।2।
[[0196]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अउखध मंत्र तंत सभि छारु ॥ करणैहारु रिदे महि धारु ॥३॥
मूलम्
अउखध मंत्र तंत सभि छारु ॥ करणैहारु रिदे महि धारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउखध = दवाईआं। तंत = तंत्र, टूणे। सभि = सारे। छारु = राख, तुच्छ। धारु = टिकाए रख।3।
अर्थ: (हे भाई!) विधाता प्रभु को अपने हृदय में टिकाए रख। (इसके मुकाबले के अन्य) सभी औषधियां, सारे मंत्र और तंत्र (टूणे) तुच्छ हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तजि सभि भरम भजिओ पारब्रहमु ॥ कहु नानक अटल इहु धरमु ॥४॥८०॥१४९॥
मूलम्
तजि सभि भरम भजिओ पारब्रहमु ॥ कहु नानक अटल इहु धरमु ॥४॥८०॥१४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजि = त्याग के। भजिओ = भजा है, उपासना की है, स्मरण किया है। अटल = (अ-टल), कभी ना टलने वाला।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने सारे भ्रम त्याग के पारब्रहम् प्रभु का भजन किया है, (उसने देख लिया है कि भजन-स्मरण वाला) धर्म ऐसा है जो कभी फल देने में कमी नहीं आने देता।4।80।149।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ करि किरपा भेटे गुर सोई ॥ तितु बलि रोगु न बिआपै कोई ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ करि किरपा भेटे गुर सोई ॥ तितु बलि रोगु न बिआपै कोई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = करे, करता है। भेटे = मिलता है। गुर = गुरु को। सोई = वही। तितु = उसके द्वारा। तितु बलि = उस (आत्मिक) बल के द्वारा। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता।1।
अर्थ: (पर हे भाई!) वही मनुष्य गुरु को मिलता है, जिस पर परमात्मा कृपा करता है। (गुरु के मिलाप की इनायत से मनुष्य के अंदर आत्मिक बल पैदा होता है) उस बल के कारण कोई रोग अपना जोर नहीं डाल सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम रमण तरण भै सागर ॥ सरणि सूर फारे जम कागर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम रमण तरण भै सागर ॥ सरणि सूर फारे जम कागर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रमण = स्मरण। तरण = पार लांघ जाना। भै सागर = संसार समुंदर। सूर = शूरवीर (गुरु)। फारे = फाड़े जाते हैं। जम कागर = जमों के कागज, आत्मिक मौत लाने वाले संस्कार।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का स्मरण करने से संसार समुंदर से पार लांघ जाते हैं। शूरवीर गुरु की शरण पड़ने से जमों के लेखे फाड़े जाते हैं, (आत्मिक मौत लाने वाले सारे संस्कार मिट जाते हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरि मंत्रु दीओ हरि नाम ॥ इह आसर पूरन भए काम ॥२॥
मूलम्
सतिगुरि मंत्रु दीओ हरि नाम ॥ इह आसर पूरन भए काम ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि = सतिगुरु ने। आसर = आसरा।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को) सत्गुरू ने परमात्मा का नाम मंत्र दे दिया, इस नाम-मंत्र के आसरे उसके सारे उद्देश्य पूरे हो गए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जप तप संजम पूरी वडिआई ॥ गुर किरपाल हरि भए सहाई ॥३॥
मूलम्
जप तप संजम पूरी वडिआई ॥ गुर किरपाल हरि भए सहाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संजम = इंद्रियों को विकारों से रोकने के यत्न। सहाई = मदद करने वाले।3।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर) सतिगुरु जी कृपाल हुए, जिसके मददगार सत्गुरू जी बन गए, उसको सारे जपों का, सारे तपों का, सारे संजमों का सम्मान प्राप्त हो गया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मान मोह खोए गुरि भरम ॥ पेखु नानक पसरे पारब्रहम ॥४॥८१॥१५०॥
मूलम्
मान मोह खोए गुरि भरम ॥ पेखु नानक पसरे पारब्रहम ॥४॥८१॥१५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। पेखु = देख। नानक = हे नानक! पसरे = व्यापक।4।
अर्थ: हे नानक! देख, गुरु ने जिस मनुष्य के अहंकार, मोह आदि भ्रम नाश कर दिए, उसे पारब्रहम् प्रभु जी हर जगह व्यापक दिख पड़े।4।81।150।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ बिखै राज ते अंधुला भारी ॥ दुखि लागै राम नामु चितारी ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ बिखै राज ते अंधुला भारी ॥ दुखि लागै राम नामु चितारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखै राज ते = विषौ-विकारों के प्रभाव से। अंधुला = (विकारों में) अंधा। दुखि = दुख में। लागै = लगता है, फसता है। चितारी = चितारता है।1।
अर्थ: (हे भाई!) विषियों के प्रभाव से (मनुष्य विकारों में) बहुत अंधा हो जाता है (तब उसे परमात्मा का नाम कभी नहीं सूझता, पर विकारों के कारण जब वह) दुख में फंसता है, तब परमात्मा का नाम याद करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरे दास कउ तुही वडिआई ॥ माइआ मगनु नरकि लै जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तेरे दास कउ तुही वडिआई ॥ माइआ मगनु नरकि लै जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को, वास्ते। तूही = तू ही, तेरा नाम ही। मगनु = मस्त। नरकि = नर्क में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे दास के वास्ते तेरा नाम ही (लोक-परलोक में) इज्जत है। (तेरा दास जानता है कि) माया में मस्त मनुष्य को (माया) नर्क में ले जाती है (और सदा दुखी रखती है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रोग गिरसत चितारे नाउ ॥ बिखु माते का ठउर न ठाउ ॥२॥
मूलम्
रोग गिरसत चितारे नाउ ॥ बिखु माते का ठउर न ठाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गिरसत = घिरा हुआ। बिखु = (विकारों का) जहर। माते का = मस्त हुए हुए का। ठउर ठाउ = जगह ठिकाना। नाम = निशान।2।
अर्थ: (हे भाई!) रोगों से घिरा हुआ मनुष्य परमात्मा का नाम याद करता है, पर विकारों के जहर में मस्त हुए मनुष्य के आत्मिक जीवन का कहीं नामो निशान नहीं मिलता (विकारों का जहर उसके आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल सिउ लागी प्रीति ॥ आन सुखा नही आवहि चीति ॥३॥
मूलम्
चरन कमल सिउ लागी प्रीति ॥ आन सुखा नही आवहि चीति ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = से। आन = अन्य। चीति = चिक्त में।3।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के) सुंदर चरणों से (जिस मनुष्य की) प्रीत बन जाती है, उसे दुनिया वाले और सुख याद नहीं आते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा सदा सिमरउ प्रभ सुआमी ॥ मिलु नानक हरि अंतरजामी ॥४॥८२॥१५१॥
मूलम्
सदा सदा सिमरउ प्रभ सुआमी ॥ मिलु नानक हरि अंतरजामी ॥४॥८२॥१५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरउ = मैं स्मरण करूँ। प्रभ = हे प्रभु! अंतरजामी = हे सब के दिल की जानने वाले!।4।
अर्थ: हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे प्रभु! हे स्वामी! हे अंतरजामी हरि! (मुझे) मिल, मैं सदा ही तुझे स्मरण करता रहूँ।4।82।151।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ आठ पहर संगी बटवारे ॥ करि किरपा प्रभि लए निवारे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ आठ पहर संगी बटवारे ॥ करि किरपा प्रभि लए निवारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगी = साथी। बटवारे = वाट+मारे, राहजन, डाकू। करि = कर के। प्रभि = प्रभु ने। लए निवारे = निवार लिए, दूर कर दिए।1।
अर्थ: (हे भाई! कामादिक पाँचों) डाकू आठों पहर (मनुष्य के साथ) साथी बने रहते हैं (और इसके आत्मिक जीवन पर डाका मारते रहते हैं। जिन्हें बचाया है) प्रभु ने स्वयं ही कृपा करके बचा लिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा हरि रसु रमहु सभु कोइ ॥ सरब कला पूरन प्रभु सोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा हरि रसु रमहु सभु कोइ ॥ सरब कला पूरन प्रभु सोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रमहु = माणो। सभ कोइ = हरेक जीव। कला = ताकत। सोइ = वह।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) वह परमात्मा सारी मुकम्मल ताकतों का मालिक है (जो मनुष्य उसका पल्ला पकड़ता है, वह किसी विकार को उसके नजदीक नहीं फटकने देता)। हरेक जीव ऐसी सामर्थ्य वाले प्रभु के नाम का रस ले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा तपति सागर संसार ॥ प्रभ खिन महि पारि उतारणहार ॥२॥
मूलम्
महा तपति सागर संसार ॥ प्रभ खिन महि पारि उतारणहार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तपति = तपश, जलन। सागर = समुंदर। उतारणहार = पार लंघाने की ताकत रखने वाला।2।
अर्थ: (हे भाई! कामादिक विकारों की) संसार समुंदर में बड़ी तपश पड़ रही है (इस तपश से बचने के लिए प्रभु का ही आसरा लो) प्रभु एक पल में इस जलन में से पार लंघाने की ताकत रखने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक बंधन तोरे नही जाहि ॥ सिमरत नाम मुकति फल पाहि ॥३॥
मूलम्
अनिक बंधन तोरे नही जाहि ॥ सिमरत नाम मुकति फल पाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरत = स्मरण करते हुए। मुकति = खलासी, मुक्ति। पाहि = प्राप्त कर लेते हैं।3।
अर्थ: (हे भाई! माया के मोह के ये विकार आदिक) अनेक बंधन हैं (मनुष्य के अपने प्रयत्नों से ये बंधन) तोड़े नहीं जा सकते। पर परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए इन बंधनों से निजात-रूपी फल हासिल कर लेते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उकति सिआनप इस ते कछु नाहि ॥ करि किरपा नानक गुण गाहि ॥४॥८३॥१५२॥
मूलम्
उकति सिआनप इस ते कछु नाहि ॥ करि किरपा नानक गुण गाहि ॥४॥८३॥१५२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उकति = युक्ति, दलील। इस ते = इस जीव से। करि किरपा = मेहर कर। गाहि = गा सकते हैं।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इस ते’ में से ‘इसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (प्रभु-दर पर अरदास कर और कह: हे प्रभु!) इस जीव की कोई ऐसी सियानप, कोई ऐसी दलील नहीं चल सकती (जिससे ये इन डाकूओं के पँजे से बच सके। हे प्रभु! तू स्वयं) कृपा कर, जीव तेरे गुण गाएं (और इनसे बच सकें)।4।83।152।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ थाती पाई हरि को नाम ॥ बिचरु संसार पूरन सभि काम ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ थाती पाई हरि को नाम ॥ बिचरु संसार पूरन सभि काम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थाती = धन की थैली। को = का। बिचरु = चल फिर। सभि = सारे।1।
अर्थ: (हे भाई! अगर तूने परमात्मा की कृपा से) परमात्मा के नाम धन की थैली हासिल कर ली है, तो तू संसार के कार्य-व्यवहारों में भी (निसंग हो कर) विचर। तेरे सारे काम सिरे चढ़ जाएंगे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडभागी हरि कीरतनु गाईऐ ॥ पारब्रहम तूं देहि त पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
वडभागी हरि कीरतनु गाईऐ ॥ पारब्रहम तूं देहि त पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वड भागी = बड़े भाग्यों से। पारब्रहम = हे पारब्रह्म! तू = तुम।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की महिमा का गीत बड़े भाग्यों से गाया जा सकता है। हे पारब्रहम् प्रभु! अगर तू स्वयं हम जीवों को अपनी महिमा की दाति दे तो ही हमें मिल सकती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के चरण हिरदै उरि धारि ॥ भव सागरु चड़ि उतरहि पारि ॥२॥
मूलम्
हरि के चरण हिरदै उरि धारि ॥ भव सागरु चड़ि उतरहि पारि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उरि = उरस्, हृदय में। भव सागरु = संसार समुंदर। चढ़ि = (प्रभु चरणों के जहाज पे) चढ़ के।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के चरण अपने हृदय में दिल में टिकाए रख। (प्रभु चरण-रूपी जहाज पर) चढ़ के तू संसार समुंदर से पार लांघ जाएगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधू संगु करहु सभु कोइ ॥ सदा कलिआण फिरि दूखु न होइ ॥३॥
मूलम्
साधू संगु करहु सभु कोइ ॥ सदा कलिआण फिरि दूखु न होइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू संगु = गुरु की संगति। सभु कोइ = हरेक मनुष्य। कलिआण = सुख।3।
अर्थ: (हे भाई!) हरेक प्राणी गुरु की संगति करो। (गुरु की संगति में रहने से) सदा सुख ही सुख होंगे, दुबारा कोई दुख व्याप नहीं सकेगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेम भगति भजु गुणी निधानु ॥ नानक दरगह पाईऐ मानु ॥४॥८४॥१५३॥
मूलम्
प्रेम भगति भजु गुणी निधानु ॥ नानक दरगह पाईऐ मानु ॥४॥८४॥१५३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुणी निधान = गुणों का खजाना प्रभु। मानु = आदर।4।
अर्थ: हे नानक! प्रेम-भरी भक्ति से सारे गुणों के खजाने परमात्मा का भजन कर, (इस तरह) परमात्मा की हजूरी में आदर-सत्कार मिलता है।4।84।153।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जलि थलि महीअलि पूरन हरि मीत ॥ भ्रम बिनसे गाए गुण नीत ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जलि थलि महीअलि पूरन हरि मीत ॥ भ्रम बिनसे गाए गुण नीत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही+तलि, धरती के तल पर, आकाश में। हरि मीत गुण = प्रभु मित्र के गुण। नीत = सदा। भ्रम = भटकना।1।
अर्थ: (हे भाई!) जो प्रभु-मित्र जल में, धरती में, आकाश में, हर जगह व्यापक है, उसके गुण सदा गाने से सब किस्म की भटकनें नाश हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊठत सोवत हरि संगि पहरूआ ॥ जा कै सिमरणि जम नही डरूआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऊठत सोवत हरि संगि पहरूआ ॥ जा कै सिमरणि जम नही डरूआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = (जीव के) नाल। पहरूआ = राख। जा कै सिमरणि = जिस के स्मरण से। जम डरूआ = मौत का डर।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा के नाम जपने की इनायत से मौत का डर नहीं रह जाता (आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटक सकती), वह परमात्मा हर समय जीव के साथ रखवाला है।1। रहाउ।
[[0197]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण कमल प्रभ रिदै निवासु ॥ सगल दूख का होइआ नासु ॥२॥
मूलम्
चरण कमल प्रभ रिदै निवासु ॥ सगल दूख का होइआ नासु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = हृदय में।2।
अर्थ: (हे भाई!) प्रभु के सुंदर चरणों का जिस मनुष्य के हृदय में निवास हो जाता है, उसके सारे दुखों का नाश हो जाता है; ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसा माणु ताणु धनु एक ॥ साचे साह की मन महि टेक ॥३॥
मूलम्
आसा माणु ताणु धनु एक ॥ साचे साह की मन महि टेक ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एक = एक परमात्मा की। टेक = सहारा।3।
अर्थ: एक परमात्मा का नाम ही उस मनुष्य की आस बन जाता है, प्रभु का नाम ही उस का मान-तान और धन हो जाता है। उस मनुष्य के मन में सदा कायम रहने वाले शाह परमात्मा का ही सहारा होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा गरीब जन साध अनाथ ॥ नानक प्रभि राखे दे हाथ ॥४॥८५॥१५४॥
मूलम्
महा गरीब जन साध अनाथ ॥ नानक प्रभि राखे दे हाथ ॥४॥८५॥१५४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जन साध = साधु जन, गुरमुखि, गुरु के सेवक। अनाथ = निआसरे। प्रभि = प्रभु ने।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जो) बड़े गरीब और अनाथ लोग (थे, जब वह) गुरु के सेवक (बन गए, गुरु की शरण आ पड़े) परमात्मा ने (उन्हें दुखों-कष्टों से) हाथ दे कर बचा लिया।4।85।154।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हरि हरि नामि मजनु करि सूचे ॥ कोटि ग्रहण पुंन फल मूचे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हरि हरि नामि मजनु करि सूचे ॥ कोटि ग्रहण पुंन फल मूचे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में, नाम (-तीर्थ) में। मजनु = स्नान। करि = कर के। सूचे = स्वच्छ, पवित्र। कोटि = करोड़ों। मूचे = बहुत, ज्यादा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम (तीर्थ) में स्नान करके स्वच्छ (जीवन वाले बन जाते हैं)। (नाम तीर्थ में स्नान करने से) करोड़ों ग्रहणों के समय किए (दान-) पुंन्न के फलों से भी ज्यादा फल मिलते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के चरण रिदे महि बसे ॥ जनम जनम के किलविख नसे ॥१॥
मूलम्
हरि के चरण रिदे महि बसे ॥ जनम जनम के किलविख नसे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किलविख = पाप।1।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के) हृदय में परमात्मा के चरन बस जाएं, उसके अनेक जन्मों के (किए) पाप नाश हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि कीरतन फलु पाइआ ॥ जम का मारगु द्रिसटि न आइआ ॥२॥
मूलम्
साधसंगि कीरतन फलु पाइआ ॥ जम का मारगु द्रिसटि न आइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि = संगति में। मारगु = रास्ता।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने) साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा का फल प्राप्त कर लिया। जमों का रास्ता उसे नजर भी नहीं पड़ता (आत्मिक मौत उसके कहीं नजदीक भी नहीं फटकी)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन बच क्रम गोविंद अधारु ॥ ता ते छुटिओ बिखु संसारु ॥३॥
मूलम्
मन बच क्रम गोविंद अधारु ॥ ता ते छुटिओ बिखु संसारु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बच = वचन। क्रम = कर्म, काम। अधारु = आसरा। ता ते = उससे। बिखु = जहर।3।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने) अपने मन का अपने बोलों का अपने कामों का आसरा परमात्मा (के नाम) को बना लिया, उस से संसार (का मोह) दूर हट गया, उससे (विकारों का वह) जहर परे रह गया (जो मनुष्य के आत्मिक जीवन को मार देता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा प्रभि कीनो अपना ॥ नानक जापु जपे हरि जपना ॥४॥८६॥१५५॥
मूलम्
करि किरपा प्रभि कीनो अपना ॥ नानक जापु जपे हरि जपना ॥४॥८६॥१५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। जपे = जपता है।4।
अर्थ: हे नानक! मेहर कर के प्रभु ने जिस मनुष्य को अपना बना लिया। वह मनुष्य सदा प्रभु का जाप जपता है प्रभु का भजन करता है।4।86।155।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ पउ सरणाई जिनि हरि जाते ॥ मनु तनु सीतलु चरण हरि राते ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ पउ सरणाई जिनि हरि जाते ॥ मनु तनु सीतलु चरण हरि राते ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। हरि जाते = हरि से गहरी सांझ डाली है। सीतलु = ठण्डा,शांत। राते = रते रहने से, प्यार डालने से।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा के साथ जान पहिचान बना ली है उसी की शरण पड़ा रह, (क्योंकि) प्रभु-चरणों में प्यार डाल के मन शांत हो जाता है, शरीर (भाव, हरेक इंद्रिय) शांत हो जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भै भंजन प्रभ मनि न बसाही ॥ डरपत डरपत जनम बहुतु जाही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
भै भंजन प्रभ मनि न बसाही ॥ डरपत डरपत जनम बहुतु जाही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै भंजन प्रभ = सारे डरों का नाश करने वाला प्रभु। मनि = मन में। न बसाही = जो मनुष्य नहीं बसाते, बसाहि। जाही = जाहि, लांघ जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) सारे डरों का नाश करने वाले प्रभु को अपने मन में नहीं बसाते, उनके अनेक जन्म इन डरों से काँपते हुए ही बीत जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै रिदै बसिओ हरि नाम ॥ सगल मनोरथ ता के पूरन काम ॥२॥
मूलम्
जा कै रिदै बसिओ हरि नाम ॥ सगल मनोरथ ता के पूरन काम ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। ता के = उस के।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बस जाता है, उसके सारे काम सारे उद्देश्य सफल हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनमु जरा मिरतु जिसु वासि ॥ सो समरथु सिमरि सासि गिरासि ॥३॥
मूलम्
जनमु जरा मिरतु जिसु वासि ॥ सो समरथु सिमरि सासि गिरासि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जनमु = जिंदगी। जरा = बढ़ापा। मिरतु = मौत। वासि = बस रहा। सासि = (हरेक) श्वास से। गिरासि = (हरेक) ग्रास के साथ।3।
अर्थ: (हे भाई!) हमारा जीना, हमारा बुढ़ापा और हमारी मौत जिस परमात्मा के वश में है, उस सब ताकतों के मालिक प्रभु को हरेक साँस के साथ और हरेक ग्रास के साथ स्मरण करता रह।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीतु साजनु सखा प्रभु एक ॥ नामु सुआमी का नानक टेक ॥४॥८७॥१५६॥
मूलम्
मीतु साजनु सखा प्रभु एक ॥ नामु सुआमी का नानक टेक ॥४॥८७॥१५६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखा = साथी। टेक = आसरा, सहारा।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) एक परमात्मा ही (हम जीवों का) मित्र है सज्जन है, साथी है। उस मालिक प्रभु का नाम ही (हमारी जिंदगी का) सहारा है।4।87।156।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ बाहरि राखिओ रिदै समालि ॥ घरि आए गोविंदु लै नालि ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ बाहरि राखिओ रिदै समालि ॥ घरि आए गोविंदु लै नालि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाहरि = जगत के साथ कार्य-व्यवहार करते हुए। रिदै = हृदय में। समालि = संभाल के। घरि = हृदय घर में। लै नालि = साथ ले कर।1।
अर्थ: (हे भाई!) जगत से कार्य-व्यवहार करते हुए संत जनों ने गोबिंद को अपने हृदय में संभाल के रखा होता है। गोबिंद को संत जन अपने हृदय घर में सदा अपने साथ रखते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु संतन कै संगि ॥ मनु तनु राता राम कै रंगि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि हरि नामु संतन कै संगि ॥ मनु तनु राता राम कै रंगि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतन कै संगि = संतों के साथ। राता = रंगा हुआ। रंगि = रंग में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सदा संत जनों के हृदय में बसता है। परमात्मा के (प्रेम) रंग में (संत जनों का) मन रंगा रहता है, तन (भाव, हरेक ज्ञानेंद्री) रंगी रहती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर परसादी सागरु तरिआ ॥ जनम जनम के किलविख सभि हिरिआ ॥२॥
मूलम्
गुर परसादी सागरु तरिआ ॥ जनम जनम के किलविख सभि हिरिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परसादी = प्रसादि, कृपा से। सागरु = (संसार) समुंदर। किलविख = पाप। सभि = सारे। हिरिआ = दूर कर लिए।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की कृपा से (परमात्मा का नाम हृदय में संभाल के संत जन) संसार समुंदर से पार लांघ जाते हैं, और अनेक जन्मों के (पहले किए हुये) सारे पाप दूर कर लेते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोभा सुरति नामि भगवंतु ॥ पूरे गुर का निरमल मंतु ॥३॥
मूलम्
सोभा सुरति नामि भगवंतु ॥ पूरे गुर का निरमल मंतु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। भगवंतु = भाग्यों वाले। मंतु = उपदेश।3।
अर्थ: (हे भाई! तू भी) पूरे गुरु का उपदेश (अपने हृदय में बसा। जो मनुष्य गुरु का उपदेश हृदय में बसाता है, वह) भाग्यशाली हो जाता है, वह (लोक परलोक में) बड़प्पन कमाता है, उसकी तवज्जो प्रभु के नाम में जुड़ती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण कमल हिरदे महि जापु ॥ नानकु पेखि जीवै परतापु ॥४॥८८॥१५७॥
मूलम्
चरण कमल हिरदे महि जापु ॥ नानकु पेखि जीवै परतापु ॥४॥८८॥१५७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जापु = जपता रह। नानकु जीवै = नानक आत्मिक जीवन हासिल करता है। पेखि = देख के।4।
अर्थ: (हे भाई! तू भी परमात्मा के) सुंदर चरण (अपने) हृदय में जपता रह। नानक (उस परमात्मा का) प्रताप देख के आत्मिक जीवन हासिल करता है।4।88।157।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ धंनु इहु थानु गोविंद गुण गाए ॥ कुसल खेम प्रभि आपि बसाए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ धंनु इहु थानु गोविंद गुण गाए ॥ कुसल खेम प्रभि आपि बसाए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धंनु = भाग्यशाली। इह थानु = ये हृदय स्थल। कुसल खेम = कुशल आनंद। प्रभि = प्रभु ने।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गोबिंद के गुण गाने से (मनुष्य का) ये हृदय-स्थल भाग्यशाली बन जाता है (क्योंकि, जिस हृदय में प्रभु की महिमा आ बसी, उस में) प्रभु ने खुद सारे सुख, सारे आनंद ला बसाए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिपति तहा जहा हरि सिमरनु नाही ॥ कोटि अनंद जह हरि गुन गाही ॥१॥
मूलम्
बिपति तहा जहा हरि सिमरनु नाही ॥ कोटि अनंद जह हरि गुन गाही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिपति = मुसीबत। कोटि = करोड़ों। गाही = गाए जाते हैं।1।
अर्थ: (हे भाई!) बिपता (सदा) उस हृदय में (बीतती रहती) है, जिस में परमात्मा (के नाम) का स्मरण नहीं है। जिस हृदय में परमात्मा के गुण गाए जाते हैं, वहाँ करोड़ों ही आनंद हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिसरिऐ दुख रोग घनेरे ॥ प्रभ सेवा जमु लगै न नेरे ॥२॥
मूलम्
हरि बिसरिऐ दुख रोग घनेरे ॥ प्रभ सेवा जमु लगै न नेरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि बिसरिऐ = अगर हरि बिसर जाए। घनेरे = बहुत। नेरे = नजदीक।2।
अर्थ: (हे भाई!) अगर मनुष्य को परमात्मा (का नाम) बिसर जाए, तो उसे अनेक दुख, अनेक रोग (आ घेरते हैं)। (पर) परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से जम (मौत का भय) नजदीक नहीं फटकता (आत्मिक मौत नहीं आती)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो वडभागी निहचल थानु ॥ जह जपीऐ प्रभ केवल नामु ॥३॥
मूलम्
सो वडभागी निहचल थानु ॥ जह जपीऐ प्रभ केवल नामु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थानु = स्थान, हृदय। जह = जहाँ।3।
अर्थ: (हे भाई!) वह हृदय-स्थल भाग्यशाली है, वह हृदय सदा अडोल रहता है, जिस में परमात्मा का ही नाम जपा जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह जाईऐ तह नालि मेरा सुआमी ॥ नानक कउ मिलिआ अंतरजामी ॥४॥८९॥१५८॥
मूलम्
जह जाईऐ तह नालि मेरा सुआमी ॥ नानक कउ मिलिआ अंतरजामी ॥४॥८९॥१५८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुआमी = स्वामी, मालिक प्रभु। कउ = को। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।4।
अर्थ: (हे भाई!) सबके दिल की जानने वाला प्रभु (अपनी कृपा से मुझ) नानक को मिल गया है, अब मैं जिधर जाता हूँ, उधर मेरा मालिक-प्रभु मुझे अपने साथ दिखाई देता है।4।89।158।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जो प्राणी गोविंदु धिआवै ॥ पड़िआ अणपड़िआ परम गति पावै ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जो प्राणी गोविंदु धिआवै ॥ पड़िआ अणपड़िआ परम गति पावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धिआवै = ध्यान धरता है, हृदय में याद रखता है। परम गति = सब से ऊँची अवस्था।1।
अर्थ: जो मनुष्य गोबिंद प्रभु को अपने हृदय में याद करता रहता है, वह चाहे विद्वान हो अथवा विद्या हीन, वह सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधू संगि सिमरि गोपाल ॥ बिनु नावै झूठा धनु मालु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
साधू संगि सिमरि गोपाल ॥ बिनु नावै झूठा धनु मालु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की संगति में (रह के) सृष्टि के पालणहार प्रभु (के नाम) का स्मरण किया कर। प्रभु के नाम के बिना और कोई धन और कोई चीज पक्का साथ निभाने वाली नहीं है।1। रहाउ।
[[0198]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपवंतु सो चतुरु सिआणा ॥ जिनि जनि मानिआ प्रभ का भाणा ॥२॥
मूलम्
रूपवंतु सो चतुरु सिआणा ॥ जिनि जनि मानिआ प्रभ का भाणा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रूपवंतु = रूप वाला। चतुरु = तीक्ष्ण बुद्धि वाला। जिनि = जिस ने। जिन जनि = जिस जन ने।2।
अर्थ: (हे भाई!) वही मनुष्य रूप वाला है, वही तीक्ष्ण बुद्धि वाला है, वही अक्लमंद है, जिस मनुष्य ने परमातमा की रजा को (सदा सिर माथे पर) माना है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जग महि आइआ सो परवाणु ॥ घटि घटि अपणा सुआमी जाणु ॥३॥
मूलम्
जग महि आइआ सो परवाणु ॥ घटि घटि अपणा सुआमी जाणु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परवाणु = स्वीकार। घटि घटि = हरेक शरीर में। जाणु = पहिचान।3।
अर्थ: (हे भाई!) अपने मालिक प्रभु को हरेक शरीर में बसता हुआ पहिचान। (जिस मनुष्य ने मालिक प्रभु को हरेक शरीर में बसता पहिचान लिया है) वही मनुष्य जगत में आया सफल है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जा के पूरन भाग ॥ हरि चरणी ता का मनु लाग ॥४॥९०॥१५९॥
मूलम्
कहु नानक जा के पूरन भाग ॥ हरि चरणी ता का मनु लाग ॥४॥९०॥१५९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा के = जिस मनुष्य के।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जाग पड़ते हैं, उसका मनपरमात्मा के चरणों में लगा रहता है।4।90।159।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हरि के दास सिउ साकत नही संगु ॥ ओहु बिखई ओसु राम को रंगु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हरि के दास सिउ साकत नही संगु ॥ ओहु बिखई ओसु राम को रंगु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। साकत संगु = साकत का साथ। साकत = माया ग्रसित मनुष्य, ईश्वर से टूटा हुआ। ओह = वह साकत। बिखई = विषयी, विषौ विकारों का प्यारा। ओसु = उस (दास) को। को = का।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के भक्त के साथ माया-ग्रसित मनुष्य का जोड़ नहीं बन सकता (क्योंकि) वह साकत विषियों का प्यारा होता है और उस भक्त को परमात्मा का प्रेम रंग चढ़ा होता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन असवार जैसे तुरी सीगारी ॥ जिउ कापुरखु पुचारै नारी ॥१॥
मूलम्
मन असवार जैसे तुरी सीगारी ॥ जिउ कापुरखु पुचारै नारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन असवार = (जैसे ‘मन-तारू’) जो सवारी करनी नहीं जानता। तुरी = घोड़ी। कापुरखु = हिजड़ा। पुचारै = प्यार करता है।1।
अर्थ: (हरि के दास और साकत का संग इस तरह है) जैसे किसी अनाड़ी सवार के वास्ते सजाई गई घोड़ी, जैसे कोई हिजड़ा किसी स्त्री को प्यार करे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैल कउ नेत्रा पाइ दुहावै ॥ गऊ चरि सिंघ पाछै पावै ॥२॥
मूलम्
बैल कउ नेत्रा पाइ दुहावै ॥ गऊ चरि सिंघ पाछै पावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेत्रा = नादान, रस्सी। दुहावै = दूध चूता है। चरि = चढ़ के। पावै = पड़ता है, दौड़ाता है।2।
अर्थ: (हे भाई! हरि के दास और साकत का मेल यूँ ही है) जैसे कोई मनुष्य बछड़ा दे के बैल का दूध चूने की कोशिश करने लगे, जैसे कोई मनुष्य गाय पर चढ़ कर उसे शेर के पीछे दौड़ाने लग पड़े।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाडर ले कामधेनु करि पूजी ॥ सउदे कउ धावै बिनु पूंजी ॥३॥
मूलम्
गाडर ले कामधेनु करि पूजी ॥ सउदे कउ धावै बिनु पूंजी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाडर = भेड़। कामधेनु = (धेनु = गाय। काम = वासना) हरेक वासना पूरी करने वाली गाय (जो स्वर्ग में रहने वाली मानी जाती है और जो समुंदर मंथन के समय चौदह रत्नों में से एक रत्न थी)। पूजी = पूजा की। पूंजी = संपत्ति, धन-दौलत।3।
अर्थ: (हे भाई! हरि के भक्त और साकत का मेल ऐसे है) जैसे कोई मनुष्य भेड़ लेकर उसे कामधेन समझ कर पूजने लग जाए, जैसे कोई मनुष्य बगैर पूंजी के सौदा खरीदने उठ दौड़े।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक राम नामु जपि चीत ॥ सिमरि सुआमी हरि सा मीत ॥४॥९१॥१६०॥
मूलम्
नानक राम नामु जपि चीत ॥ सिमरि सुआमी हरि सा मीत ॥४॥९१॥१६०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा = जैसा।4।
अर्थ: हे नानक! (हरि के दासों की संगति में टिक कर) परमात्मा का नाम अपने मन में स्मरण कर, परमात्मा जैसे मालिक व मित्र का स्मरण करा कर।4।91।160।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ सा मति निरमल कहीअत धीर ॥ राम रसाइणु पीवत बीर ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ सा मति निरमल कहीअत धीर ॥ राम रसाइणु पीवत बीर ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सा = वह (स्त्रीलिंग)। मति = बुद्धि। कहीअत = कही जाती है। धीर = धैर्य। रसाइण = रसों का घर, सब रसों से श्रेष्ठ। बीर = हे वीर!।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘सा’ शब्द स्त्रीलिंग है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे भाई! वह बुद्धि पवित्र कही जाती है, धैर्य वाली कही जाती है, (जिसका आसरा लेकर मनुष्य) सब रसों से उत्तम प्रभु नाम का रस पीता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि के चरण हिरदै करि ओट ॥ जनम मरण ते होवत छोट ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि के चरण हिरदै करि ओट ॥ जनम मरण ते होवत छोट ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओट = आसरा। छोट = खलासी।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) अपने हृदय में परमात्मा के चरणों का आसरा बना, (ऐसा करने से) जन्म मरण के चक्र से निजात मिल जाती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो तनु निरमलु जितु उपजै न पापु ॥ राम रंगि निरमल परतापु ॥२॥
मूलम्
सो तनु निरमलु जितु उपजै न पापु ॥ राम रंगि निरमल परतापु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमलु = पवित्र। जितु = जिस में, जिससे। रंगि = प्रेम में।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘निरमलु’ शब्द पुलिंग है। पहिली तुक वाला शब्द ‘निरमल’ स्त्रीलिंग है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) वह शरीर पवित्र है जिसमें कोई पाप नहीं पैदा होता। परमात्मा के प्रेम रंग की इनायत से पवित्र हुए मनुष्य का तेज-प्रताप (चमकता) है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि मिटि जात बिकार ॥ सभ ते ऊच एहो उपकार ॥३॥
मूलम्
साधसंगि मिटि जात बिकार ॥ सभ ते ऊच एहो उपकार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिटि जात = मिट जाते हैं। ते = से।3।
अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत किया कर) साधु-संगत में रहने से (अंदर से) सारे विकार दूर हो जाते हैं। (साधु-संगत का) सबसे उत्तम यही उपकार है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेम भगति राते गोपाल ॥ नानक जाचै साध रवाल ॥४॥९२॥१६१॥
मूलम्
प्रेम भगति राते गोपाल ॥ नानक जाचै साध रवाल ॥४॥९२॥१६१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राते = रंगे हुए। जाचै = मांगता है। रवाल = चरणों की धूल।4।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की प्रेम भक्ति में लगे रहते हैं, नानक उनके चरणों की धूल मांगता है।4।92।161।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ ऐसी प्रीति गोविंद सिउ लागी ॥ मेलि लए पूरन वडभागी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ ऐसी प्रीति गोविंद सिउ लागी ॥ मेलि लए पूरन वडभागी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = से। पूरन = सारे गुणों से भरपूर। वडभागी = भाग्यशाली।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा से जिस मनुष्यों को ऐसी प्रीति (जिसका जिक्र यहाँ किया जा रहा है) बनती है, वह मनुष्य भाग्यशाली हो जाते हैं, वे सारे गुणों से भरपूर हो जाते हैं, परमात्मा उन्हें अपने साथ मिला लेता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरता पेखि बिगसै जिउ नारी ॥ तिउ हरि जनु जीवै नामु चितारी ॥१॥
मूलम्
भरता पेखि बिगसै जिउ नारी ॥ तिउ हरि जनु जीवै नामु चितारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरता = पति। पेखि = देख के। बिगसै = खुश होती है, खिल पड़ती है। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। चितारी = चितारि, चितार के।1।
अर्थ: जैसे स्त्री अपने पति को देख के खुश होती है, वैसे ही हरि का दास हरि का नाम याद कर के अंतरात्मे विभोर (हिलोरे मारता है) में आता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूत पेखि जिउ जीवत माता ॥ ओति पोति जनु हरि सिउ राता ॥२॥
मूलम्
पूत पेखि जिउ जीवत माता ॥ ओति पोति जनु हरि सिउ राता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओति = बुना हुआ। प्रोति = परोया हुआ (ओत प्रोत = समाया हुआ)। राता = रंगा हुआ, मस्त।2।
अर्थ: जैसे माँ अपने पुत्रों को देख-देख के जीती है, वैसे ही परमात्मा का भक्त परमात्मा के साथ ओत-प्रोत रहता है (ताने-पेटे के सूत्र में बंधा)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोभी अनदु करै पेखि धना ॥ जन चरन कमल सिउ लागो मना ॥३॥
मूलम्
लोभी अनदु करै पेखि धना ॥ जन चरन कमल सिउ लागो मना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदु = खुशी। जन मना = सेवक का मन।3।
अर्थ: (जैसे, हे भाई!) लालची मनुष्य धन देख के आनंदित होता है, वैसे ही परमात्मा के भक्त का मन परमात्मा के सुंदर चरणों से लिपटा रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिसरु नही इकु तिलु दातार ॥ नानक के प्रभ प्रान अधार ॥४॥९३॥१६२॥
मूलम्
बिसरु नही इकु तिलु दातार ॥ नानक के प्रभ प्रान अधार ॥४॥९३॥१६२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दातार = हे दातार! अधार = हे आसरे!।4।
अर्थ: हे दातार! हे नानक के प्राणों के आसरे प्रभु! (मुझ नानक को) एक रत्ती जितना समय भी ना भूल।4।93।162।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ राम रसाइणि जो जन गीधे ॥ चरन कमल प्रेम भगती बीधे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ राम रसाइणि जो जन गीधे ॥ चरन कमल प्रेम भगती बीधे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसाइणि = रसों के घर हरि नाम में। गीधे = गिझे हुए, मस्त, रचे हुए। बीधे = भेदे हुए।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य सबसे श्रेष्ठ हरि-नाम-रस में मस्त रहते हैं वह मनुष्य परमात्मा के सुंदर चरणों की प्रेमा-भक्ति में लीन रहते हैं (जैसे भौरा कमल फूल में अभेद हो जाता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन रसा दीसहि सभि छारु ॥ नाम बिना निहफल संसार ॥१॥
मूलम्
आन रसा दीसहि सभि छारु ॥ नाम बिना निहफल संसार ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन = अन्य। दीसहि = दिखते हैं। सभि = सारे। छारु = राख। निहफल = व्यर्थ।1।
अर्थ: (हे भाई! उन मनुष्यों को दुनिया के) और सारे रस (प्रभु-नाम-रस के मुकाबले में) राख दिखते हैं। परमात्मा के नाम के बिना संसार के सारे पदार्थ उन्हें व्यर्थ प्रतीत होते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंध कूप ते काढे आपि ॥ गुण गोविंद अचरज परताप ॥२॥
मूलम्
अंध कूप ते काढे आपि ॥ गुण गोविंद अचरज परताप ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंध = अंधा। कूप = कूआँ। ते = से।2।
अर्थ: (हे भाई!) गोबिंद के गुण आश्चर्यजनक प्रताप वाले हैं (जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाते हैं उन्हें परमात्मा) खुद (माया के मोह के) अंधे कूएं में से निकाल लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वणि त्रिणि त्रिभवणि पूरन गोपाल ॥ ब्रहम पसारु जीअ संगि दइआल ॥३॥
मूलम्
वणि त्रिणि त्रिभवणि पूरन गोपाल ॥ ब्रहम पसारु जीअ संगि दइआल ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वणि = बन में। त्रिणि = तिनकों में। त्रिभवणि = तीनों भवनों वाले संसार में। पसारु = पसारा, खिलारा। जीअ संगि = सारे जीवों के साथ।3।
अर्थ: (हे भाई! हरि-नाम-रस में मस्त लोगों को) सृष्टि का पालणहार प्रभु, बन में, त्रिण में, तीन भवनीय संसार में व्यापक दिखता है। उन्हें ये सारा जगत परमात्मा का पसारा दिखता है, परमात्मा सब जीवों के अंग-संग प्रतीत होता है, और दया का घर दिखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक सा कथनी सारु ॥ मानि लेतु जिसु सिरजनहारु ॥४॥९४॥१६३॥
मूलम्
कहु नानक सा कथनी सारु ॥ मानि लेतु जिसु सिरजनहारु ॥४॥९४॥१६३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सारु = संभाल, हृदय में संभाल।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई! तू भी अपने हृदय में) वह महिमा संभाल, जिस (महिमा रूप कथनी) को विधाता प्रभु आदर-सत्कार देता है।4।94।163।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ नितप्रति नावणु राम सरि कीजै ॥ झोलि महा रसु हरि अम्रितु पीजै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ नितप्रति नावणु राम सरि कीजै ॥ झोलि महा रसु हरि अम्रितु पीजै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नित प्रति = नित्य, सदा ही। नावणु = स्नान। सरि = सरोवर में। राम सरि = राम (के नाम रूपी) सरोवर में। कीजै = करना चाहिए। झोलि = हिला के प्रेम से। पीजै = पीना चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम रूपी सरोवर में सदा ही स्नान करना चाहिए। (परमात्मा के नाम का रस) सबसे श्रेष्ठ रस है, आत्मिक जीवन देने वाले इस हरि नाम रस को बड़े प्रेम से पीना चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरमल उदकु गोविंद का नाम ॥ मजनु करत पूरन सभि काम ॥१॥
मूलम्
निरमल उदकु गोविंद का नाम ॥ मजनु करत पूरन सभि काम ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उदकु = पानी। मजनु = स्नान। सभि = सारे।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम पवित्र जल है, (इस जल में) स्नान करने से सारे उद्देश्य पूरे हो जाते हैं (सारी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं)।1।
[[0199]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतसंगि तह गोसटि होइ ॥ कोटि जनम के किलविख खोइ ॥२॥
मूलम्
संतसंगि तह गोसटि होइ ॥ कोटि जनम के किलविख खोइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत संगि = हरि संत से। तह = वहाँ (राम-सरोवर में डुबकी लगाने से, प्रभु चरणों में जुड़ने से)। गोसटि = मिलाप। किलविख = पाप। खोइ = (मनुष्य) खो देता है, नाश कर लेता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) वहाँ (उस हरि-नाम-जल में डुबकी लगाते हुए) प्रभु संत से मिलाप हो जाता है (और, मनुष्य अपने) करोड़ों जन्मों के (किए हुए) पाप दूर कर लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरहि साध करहि आनंदु ॥ मनि तनि रविआ परमानंदु ॥३॥
मूलम्
सिमरहि साध करहि आनंदु ॥ मनि तनि रविआ परमानंदु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध = गुरमुख लोग। मनि = मन में। तनि = तन में। रविआ = हर समय मौजूद। परमानंदु = सबसे श्रेष्ठ आनंद का मालिक प्रभु।3।
अर्थ: (हे भाई! जो) गुरमुख बंदे (हरि नाम) स्मरण करते हैं, वे आत्मिक आनंद लेते हैं। उन्हें अपने मन में अपने हृदय में सब से श्रेष्ठ आनंद का मालिक परमात्मा हर समय मौजूद दिखाई देता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसहि परापति हरि चरण निधान ॥ नानक दास तिसहि कुरबान ॥४॥९५॥१६४॥
मूलम्
जिसहि परापति हरि चरण निधान ॥ नानक दास तिसहि कुरबान ॥४॥९५॥१६४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसहि = जिस मनुष्य को। निधान = खजाने।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) परमात्मा के चरणों के खजाने जिस मनुष्य को प्राप्त हो जाते हैं, उस मनुष्य पर से प्रभु के भक्त सेवक कुर्बान हो जाते हैं।4।95।164।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ सो किछु करि जितु मैलु न लागै ॥ हरि कीरतन महि एहु मनु जागै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ सो किछु करि जितु मैलु न लागै ॥ हरि कीरतन महि एहु मनु जागै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु = जिस (के कारण) से। जागै = जागता रहे, विकारों से सुचेत रहे।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) वह (धार्मिक) उद्यम कर, जिस के करने से तेरे मन को विकारों की मैल ना लग सके, और तेरा ये मन परमात्मा की महिमा में टिक के (विकारों के हमलों से) सुचेत रहे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एको सिमरि न दूजा भाउ ॥ संतसंगि जपि केवल नाउ ॥१॥
मूलम्
एको सिमरि न दूजा भाउ ॥ संतसंगि जपि केवल नाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजा भाउ = परमात्मा के बिना किसी और से प्यार। संगि = संगति में।1।
अर्थ: (हे भाई!) सिर्फ एक परमात्मा का नाम जप। किसी और का प्यार (अपने मन में) बिलकुल ना ला। साधु-संगत में टिक के सिर्फ परमात्मा का नाम जपा कर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम धरम नेम ब्रत पूजा ॥ पारब्रहम बिनु जानु न दूजा ॥२॥
मूलम्
करम धरम नेम ब्रत पूजा ॥ पारब्रहम बिनु जानु न दूजा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जानु न = ना समझ।2।
अर्थ: (हे भाई! निहित) धार्मिक कर्म, व्रत पूजा आदिक (बनाए हुए) नेम- परमात्मा के स्मरण के बिना ऐसे किसी दूसरे कर्म को (उच्च आत्मिक जीवन के वास्ते सहायक) ना समझ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता की पूरन होई घाल ॥ जा की प्रीति अपुने प्रभ नालि ॥३॥
मूलम्
ता की पूरन होई घाल ॥ जा की प्रीति अपुने प्रभ नालि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घाल = मेहनत। जा की = जिस (मनुष्य) की।3।
अर्थ: (हे भाई! सिर्फ) उस मनुष्य की मेहनत सफल होती है, जिसकी प्रीति अपने परमात्मा के साथ बनी हुई है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो बैसनो है अपर अपारु ॥ कहु नानक जिनि तजे बिकार ॥४॥९६॥१६५॥
मूलम्
सो बैसनो है अपर अपारु ॥ कहु नानक जिनि तजे बिकार ॥४॥९६॥१६५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैसनो = विष्णु भक्त। अपर अपारु = परे से परे, बहुत श्रेष्ठ। जिनि = जिस ने।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (कर्म-धर्म-नेम-ब्रत-पूजा करने वाला मनुष्य असल वैष्णव नहीं है) वह वैष्णव परे से परे और श्रेष्ठ है, जिस ने (साधु-संगत में टिक के नाम जपने की इनायत से अपने अंदर से) सारे विकार दूर कर लिए हैं।4।96।165।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जीवत छाडि जाहि देवाने ॥ मुइआ उन ते को वरसांने ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जीवत छाडि जाहि देवाने ॥ मुइआ उन ते को वरसांने ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवत = जीते हुए। देवाने = हे दिवाने! हे पागल मनुष्य! उन ते = उनसे। को वरसांने = कौन लाभ उठा सकते हैं?।1।
अर्थ: हे दिवाने मनुष्य! जो माया के पदार्थ मनुष्य को जीवित ही छोड़ जाते हैं, मौत आने पर उनसे कोई क्या लाभ उठा सकता है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिमरि गोविंदु मनि तनि धुरि लिखिआ ॥ काहू काज न आवत बिखिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सिमरि गोविंदु मनि तनि धुरि लिखिआ ॥ काहू काज न आवत बिखिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण कर, (ये स्मरण-लेख ही धुर से रूहानी नियम अनुसार तेरे मन में तेरे हृदय में (सदा के लिए) उकरा रह सकता हैं, पर ये माया (जिसकी खातिर सारी उम्र दौड़ भाग करता है, आखिर) किसी काम नहीं आती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखै ठगउरी जिनि जिनि खाई ॥ ता की त्रिसना कबहूं न जाई ॥२॥
मूलम्
बिखै ठगउरी जिनि जिनि खाई ॥ ता की त्रिसना कबहूं न जाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठगउरी = ठग बूटी, वह बूटी जो खिला के ठग भोले लोगों को ठग लेते हैं। बिखै ठगउरी = विषौ विकारों वाली ठग-बूटी। जिनि जिनि = जिस जिस ने।2।
अर्थ: (हे भाई! याद रख) जिस जिस मनुष्य ने विषियों की ठगी बूटी खा ली है, (विकारों की) उसकी तृष्णा कभी भी नहीं मिटती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दारन दुख दुतर संसारु ॥ राम नाम बिनु कैसे उतरसि पारि ॥३॥
मूलम्
दारन दुख दुतर संसारु ॥ राम नाम बिनु कैसे उतरसि पारि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दारन = भयानक। दुतर = दुष्तर, जिससे पार लांघना कठिन है। उतरसि = तू पार होगा।3।
अर्थ: (हे भाई!) इस संसार (-समुंदर) से पार लांघना बहुत मुश्किल है। ये बड़े भयानक दुखों से भरपूर है। तू परमात्मा के नाम के बिना किस तरह इससे पार लांघ सकेगा?।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधसंगि मिलि दुइ कुल साधि ॥ राम नाम नानक आराधि ॥४॥९७॥१६६॥
मूलम्
साधसंगि मिलि दुइ कुल साधि ॥ राम नाम नानक आराधि ॥४॥९७॥१६६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुइ कुल = ये लोक और परलोक। साधि = साधु के, संवार के। आराधि = स्मरण कर।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) साधु-संगत में मिल के परमात्मा का नाम स्मरण कर, और ये लोक व परलोक दोनों ही सँवार ले।4।97।166।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ गरीबा उपरि जि खिंजै दाड़ी ॥ पारब्रहमि सा अगनि महि साड़ी ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ गरीबा उपरि जि खिंजै दाड़ी ॥ पारब्रहमि सा अगनि महि साड़ी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जि दाढ़ी = जो दाढ़ी। खिंजै = खिझती है। पारब्रहमि = पारब्रहम् ने। सा = वह दाढ़ी।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘सा’ स्त्रीलिंग है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! देख उसका न्याय!) जो दाढ़ी गरीबों पर खिझती रहती है पारब्रह्म प्रभु ने वह दाढ़ी आग में जला दी (होती) है (भाव, जो मनुष्य अहंकार में आ कर दूसरों को दुखी करता है, वह खुद भी क्रोध की अग्नि में जलता रहता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरा निआउ करे करतारु ॥ अपुने दास कउ राखनहारु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पूरा निआउ करे करतारु ॥ अपुने दास कउ राखनहारु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरा = सम्पूर्ण, जिसमें कोई कमी नहीं। राखनहारु = रक्षा करने की ताकत रखने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जीवों को पैदा करने वाला परमात्मा (सदा) न्याय करता है। (ऐसा न्याय) जिसमें कोई कमी नहीं होती। वह कर्तार अपने सेवकों की सहायता करने की स्मर्था वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि जुगादि प्रगटि परतापु ॥ निंदकु मुआ उपजि वड तापु ॥२॥
मूलम्
आदि जुगादि प्रगटि परतापु ॥ निंदकु मुआ उपजि वड तापु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = शुरू से। जुगादि = युगों के आरम्भ से। प्रगटि = प्रकट होता है। मुआ = आत्मिक मौत मरता है। उपजि = उत्पन्न हो के, उपज के। तापु = दुख-कष्ट।2।
अर्थ: (हे भाई! जगत के) आरम्भ से, युगों की शुरुवात से ही परमात्मा का तेज प्रताप प्रगट होता आया है (कि दूसरों की) निंदा करने वाला मनुष्य (स्वयं) आत्मिक मौत मरा रहता है, (उसके अपने अंदर निंदा के कारण) बड़ा दुख-कष्ट बना रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिनि मारिआ जि रखै न कोइ ॥ आगै पाछै मंदी सोइ ॥३॥
मूलम्
तिनि मारिआ जि रखै न कोइ ॥ आगै पाछै मंदी सोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = उस (परमात्मा) ने। जि = जिस के मारे को। आगै = परलोक में। पाछै = इस लोक में। मंदी सोइ = बदनामी।3।
अर्थ: (हे भाई! गरीबों पर अत्याचार करने वाले मनुष्य को) वह परमात्मा (खुद) आत्मिक मौत मार देता होता है जिससे (परमात्मा के बिनां) और कोई बचा नहीं सकता, (ऐसे मनुष्य की) इस लोक में भी और परलोक में भी बदनामी ही होती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपुने दास राखै कंठि लाइ ॥ सरणि नानक हरि नामु धिआइ ॥४॥९८॥१६७॥
मूलम्
अपुने दास राखै कंठि लाइ ॥ सरणि नानक हरि नामु धिआइ ॥४॥९८॥१६७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंठि = गले से। लाइ = लगा के। नानक = हे नानक! 4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) परमात्मा अपने सेवकों को अपने गले से लगा के रखता है (भाव, उनके उच्च आत्मिक जीवन का पूरा ध्यान रखता है)। (हे भाई!) उस परमात्मा की शरण पड़, और उस परमात्मा का नाम (सदा) स्मरण कर।4।98।167।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ महजरु झूठा कीतोनु आपि ॥ पापी कउ लागा संतापु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ महजरु झूठा कीतोनु आपि ॥ पापी कउ लागा संतापु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महजरु = (अरबी लफ्ज़ ‘महजर’) मेजरनामा, किसी के विरुद्ध की गई शिकायत जिस पर बहुतों के दस्तख़त हों। कीतोनु = कीता उन, उस (परमात्मा) ने कर दिया। संतापु = कष्ट।1।
अर्थ: (हे भाई! देखो, हमारे विरुद्ध तैयार किया हुआ) मेजरनामा कर्तार ने खुद झूठा (साबित) कर दिया, (और झूठ अनर्थ थोपने वाले) पापियों को (आत्मिक तौर पर) बहुत दुख-कष्ट हुआ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसहि सहाई गोबिदु मेरा ॥ तिसु कउ जमु नही आवै नेरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जिसहि सहाई गोबिदु मेरा ॥ तिसु कउ जमु नही आवै नेरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसहि सहाई = जिसकी सहायता करने वाला। जमु = मौत का डर। नेरा = नजदीक।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा गोबिंद जिस मनुष्य का सहायक बनता है, उसे मौत का डर नहीं छू सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साची दरगह बोलै कूड़ु ॥ सिरु हाथ पछोड़ै अंधा मूड़ु ॥२॥
मूलम्
साची दरगह बोलै कूड़ु ॥ सिरु हाथ पछोड़ै अंधा मूड़ु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूड़ु = झूठ। हाथ पछोड़ै = हाथों से पटकता है। मूढ़ु = मूर्ख।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य (किसी को हानि पहुँचाने के लिए) झूठ बोलता है वह अंधा मूर्ख सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की दरगाह में अपना सिर अपने हाथों से पीटता है (भाव, वह पश्चाताप करता है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रोग बिआपे करदे पाप ॥ अदली होइ बैठा प्रभु आपि ॥३॥
मूलम्
रोग बिआपे करदे पाप ॥ अदली होइ बैठा प्रभु आपि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिआपे = घिरे हुए, दबाए हुए। अदली = अदल करने वाला, न्याय करने वाला।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा स्वयं न्याय करने वाला बन के (कचहरी लगाए) बैठा हुआ है (उससे कोई ठगी नहीं हो सकती)। जो मनुष्य बुरे कर्म करते हैं (उसके न्याय के अनुसार) वे अनेक रोगों में ग्रसे रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपन कमाइऐ आपे बाधे ॥ दरबु गइआ सभु जीअ कै साथै ॥४॥
मूलम्
अपन कमाइऐ आपे बाधे ॥ दरबु गइआ सभु जीअ कै साथै ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपन कमाईऐ = अपने किए कर्मों के अनुसार। आपे = स्वयं ही। बाधे = बंधे हुए। दरबु = धन। सभु = सारा। जीअ कै साथै = जीवात्मा के साथ ही।4।
अर्थ: (हे भाई! धन आदि की खातिर जीव पाप कर्म करते हैं, पर) सारा ही धन जीवात्मा के साथ ही (जीव के हाथों) चला जाता है, और अपने किए कर्मों के अनुसार जीव खुद ही (मोह के बंधनों में) बंधे रहते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक सरनि परे दरबारि ॥ राखी पैज मेरै करतारि ॥५॥९९॥१६८॥
मूलम्
नानक सरनि परे दरबारि ॥ राखी पैज मेरै करतारि ॥५॥९९॥१६८॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह:) जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ते हैं परमात्मा के दर पर गिरते हैं, उनकी इज्जत मेरे कर्तार ने सदा ही रख ली है।5।99।168।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जन की धूरि मन मीठ खटानी ॥ पूरबि करमि लिखिआ धुरि प्रानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जन की धूरि मन मीठ खटानी ॥ पूरबि करमि लिखिआ धुरि प्रानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीठ खटानी = मीठी लगी है। पूरबि करमि = पूर्व जन्म के किए कर्मों के अनुसार। धरि = धुर से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) पूर्व जन्म के किए कर्मों के अनुसार जिस प्राणी के माथे पर धुर दरगाह से लेख लिखा होता है, उसके मन को परमात्मा के सेवक की चरण-धूल मीठी लगती है।1। रहाउ।
[[0200]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अह्मबुधि मन पूरि थिधाई ॥ साध धूरि करि सुध मंजाई ॥१॥
मूलम्
अह्मबुधि मन पूरि थिधाई ॥ साध धूरि करि सुध मंजाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंकार ग्रसित बुद्धि। मन थिधाई = मन की चिकनाहट। मंजाई = मांज दी।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: चिकने बरतन को मिट्टी या राख से मांजा जाता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अहंकार वाली बुद्धि के कारण (मनुष्य के) मन को (अहम् की) चिकनाई लगी रहती है (उस चिकनाई के कारण मन पर किसी उपदेश का असर नहीं होता, जैसे चिकने बरतन पर पानी नहीं ठहरता। जिस मनुष्य को ‘जन की धूरि’ मीठी लगती है) साधु की चरण-धूल से उसकी बुद्धि मांजी जाती है और शुद्ध हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक जला जे धोवै देही ॥ मैलु न उतरै सुधु न तेही ॥२॥
मूलम्
अनिक जला जे धोवै देही ॥ मैलु न उतरै सुधु न तेही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देही = शरीर। तेही = उस तरीके से। सुधु = पवित्र।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘सुधु’ पुलिंग, व ‘सुध’ स्त्रीलिंग।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अगर मनुष्य अनेक (तीर्थों के) पानियों से अपने शरीर को धोता रहे, तो भी उसके मन की मैल नहीं उतरती, उस तरह (भाव, तीर्थ-स्नानों से भी) वह मनुष्य पवित्र नहीं हो सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु भेटिओ सदा क्रिपाल ॥ हरि सिमरि सिमरि काटिआ भउ काल ॥३॥
मूलम्
सतिगुरु भेटिओ सदा क्रिपाल ॥ हरि सिमरि सिमरि काटिआ भउ काल ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटिओ = मिला। भउ काल = काल का भउ।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को सत्गुरू मिल जाता है, जिस पे गुरु सदा दयावान रहता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के (अपने अंदर से) मौत का डर (आत्मिक मौत का खतरा) दूर कर लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुकति भुगति जुगति हरि नाउ ॥ प्रेम भगति नानक गुण गाउ ॥४॥१००॥१६९॥
मूलम्
मुकति भुगति जुगति हरि नाउ ॥ प्रेम भगति नानक गुण गाउ ॥४॥१००॥१६९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकति = मोक्ष। भुगति = भोग। जुगति = जोग।4।
अर्थ: हे नानक! प्रेम-भरी भक्ति से परमात्मा के गुण गाता रह। परमात्मा का नाम ही विकारों से निजात दिलवाता है। नाम ही आत्मिक जीवन की खुराक है, नाम जपना ही जीवन की सही जुगति है।4।100।169।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जीवन पदवी हरि के दास ॥ जिन मिलिआ आतम परगासु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जीवन पदवी हरि के दास ॥ जिन मिलिआ आतम परगासु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पदवी = दर्जा। जीवन पदवी = ऊँचा आत्मिक दर्जा। जिन = जिस (हरि के दासों को)। परगासु = प्रकाश।1।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वे हरि के दास हैं) हरि के दासों को उच्च आत्मिक दर्जा प्राप्त है। उन (हरि के दासों) को मिलके आत्मा को (ज्ञान का) प्रकाश मिल जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का सिमरनु सुनि मन कानी ॥ सुखु पावहि हरि दुआर परानी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि का सिमरनु सुनि मन कानी ॥ सुखु पावहि हरि दुआर परानी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! कानी सुनि = कानों से सुन, ध्यान से सुन। हरि दुआरि = हरि के दर पर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! ध्यान से परमात्मा का नाम सुना कर। हे प्राणी! (नाम जपने की इनायत से) तू हरि के दर पर सुख प्राप्त करेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आठ पहर धिआईऐ गोपालु ॥ नानक दरसनु देखि निहालु ॥२॥१०१॥१७०॥
मूलम्
आठ पहर धिआईऐ गोपालु ॥ नानक दरसनु देखि निहालु ॥२॥१०१॥१७०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धिआईऐ = ध्याना चाहिए। देखि = देख के। निहालु = प्रसन्न।2।
अर्थ: हे नानक! (हरि के दासों की संगति में रह के) आठों पहर सृष्टि के पालनहार प्रभु को स्मरणा चाहिए। (नाम जपने की इनायत से हर जगह परमात्मा का) दर्शन करके (मन) खिला रहता है।2।101।170।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ सांति भई गुर गोबिदि पाई ॥ ताप पाप बिनसे मेरे भाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ सांति भई गुर गोबिदि पाई ॥ ताप पाप बिनसे मेरे भाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोबिदि = गोबिंद ने। गुर गोबिदि = गोबिंद के रूप गुरु ने। पाई = दी, बख्शी। सांति = ठंढ। ताप = दुख-कष्ट। भाई = हे भाई! 1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाई! गोबिंद के रूप गुरु ने (जिस मनुष्य को नाम की दाति) बख्श दी, उसके अंदर ठंढ पड़ गई, उसके सारे दुख-कष्ट और पाप नाश हो गए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम नामु नित रसन बखान ॥ बिनसे रोग भए कलिआन ॥१॥
मूलम्
राम नामु नित रसन बखान ॥ बिनसे रोग भए कलिआन ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसन = जीभ से। कलिआन = खुशियां।1।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य अपनी जीभ से सदा परमात्मा का नाम उच्चारण करता है, उसके सारे रोग दूर हो जाते हैं, उसके अंदर आनंद ही आनंद बने रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारब्रहम गुण अगम बीचार ॥ साधू संगमि है निसतार ॥२॥
मूलम्
पारब्रहम गुण अगम बीचार ॥ साधू संगमि है निसतार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। साधू संगमि = गुरु की संगति में। निसतार = पार उतारा।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य अगम्य (पहुँच से परे) पारब्रहम् प्रभु के गुणों का विचार करता रहता है, गुरु की संगति में रह के उस का (संसार-समुंदर से) पार उतारा हो जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरमल गुण गावहु नित नीत ॥ गई बिआधि उबरे जन मीत ॥३॥
मूलम्
निरमल गुण गावहु नित नीत ॥ गई बिआधि उबरे जन मीत ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नित नीत = सदा ही। बिआधि = रोग। उबरे = बच गए। मीत = हे मित्र!।3।
अर्थ: हे (मेरे) मित्र! सदा परमात्मा के गुण गाते रहो। (जो मनुष्य गुण गाते हैं, उनका हरेक) रोग दूर हो जाता है, वह मनुष्य (रोगों-विकारों से) बचे रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन बच क्रम प्रभु अपना धिआई ॥ नानक दास तेरी सरणाई ॥४॥१०२॥१७१॥
मूलम्
मन बच क्रम प्रभु अपना धिआई ॥ नानक दास तेरी सरणाई ॥४॥१०२॥१७१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बच = वचन। क्रम = कर्म। धिआई = मैं ध्याऊँ।4।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु-चरणों में प्रार्थना करके कह: हे प्रभु!) मैं तेरा दास तेरी शरण आया हूँ। (मेहर कर) मैं अपने मन से वचन से और कर्मों से सदा अपने मालिक प्रभु को स्मरण करता रहूँ।4।102।171।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ नेत्र प्रगासु कीआ गुरदेव ॥ भरम गए पूरन भई सेव ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ नेत्र प्रगासु कीआ गुरदेव ॥ भरम गए पूरन भई सेव ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रगासु = रौशनी। गुरदेव = हे गुरदेव! 1। रहाउ।
अर्थ: हे गुरदेव! जिस मनुष्य की (आत्मिक) आँखों को तूने (ज्ञान का) प्रकाश बख्शा, उसके सारे वहम (जगह-जगह की भटकना) दूर हो गई। तेरे दर पर टिक के की हुई उसकी सेवा सफल हो गई।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतला ते रखिआ बिहारी ॥ पारब्रहम प्रभ किरपा धारी ॥१॥
मूलम्
सीतला ते रखिआ बिहारी ॥ पारब्रहम प्रभ किरपा धारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीतला = माता का रोग, चेचक। ते = से। रखिआ = बचाया। बिहारी = (विहारिन्) हे सुंदर प्रभु! किरपा धारी = कृा धार के।1।
अर्थ: हे सुंदर स्वरूप! हे पारब्रहम्! हे प्रभु! तूने ही कृपा करके शीतला से बचाया है (और कोई देवी आदि तेरे बराबर की नहीं है)।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सन् 1594 से 1599 तक माझे (बृहक्तर पंजाब का इलाका) में सख्त अकाल पड़ा रहा। चेचक आदि बीमारियों की महामारी भी फैल गई। (छेवें गुरु) गुरु हरि गोबिंद साहिब का जन्म 1595 में हुआ था। (पाँचवें गुरु) गुरु अरजन साहिब जी भूखों, रोग पीड़ितों की सहायता के लिए पाँच साल माझे के गाँवों में, फिर लाहौर शहर में भी विचरते रहे। बालक गुरु हरि गोबिंद को भी अपने साथ ही रखने की आवश्यक्ता बनी रही, क्योंकि बाबा पृथ्वी चंद जी (गुरु अरजन देव जी के बड़े भ्राता) उनको जान से मार देना चाहते थे। चेचक के इलाके में घूमने की वजह से अमृतसर वापिस आने पर गुरु हरि गोबिंद साहिब को माता निकल आई। वहमी-भरमी स्त्रीयां आ आ के सीतला देवी की पूजा के वास्ते प्रेरित करती रहीं। इस वहिम-भ्रम से सदा के लिए बचाने के लिए गुरु अरजन साहिब जी ने इस शब्द के द्वारा उपदेश किया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक नामु जपै सो जीवै ॥ साधसंगि हरि अम्रितु पीवै ॥२॥१०३॥१७२॥
मूलम्
नानक नामु जपै सो जीवै ॥ साधसंगि हरि अम्रितु पीवै ॥२॥१०३॥१७२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। साध संगि = साधु-संगत में।2।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जो मनुष्य (और सारे आसरे छोड़ के) परमात्मा का नाम जपता है, वह आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है (क्योंकि) वह साधु-संगत में रह के आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-रस पीता रहता है।2।103।172।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ धनु ओहु मसतकु धनु तेरे नेत ॥ धनु ओइ भगत जिन तुम संगि हेत ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ धनु ओहु मसतकु धनु तेरे नेत ॥ धनु ओइ भगत जिन तुम संगि हेत ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनु = भाग्यशाली। मसतकु = माथा। धनु नेत = भाग्यशाली हैं वह नेत्र। नेत = आँखें। तेरे = (जो) तेरे (दीदार में मस्त हैं)। तुम संगि = तेरे साथ। हेत = हित, प्यार।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे प्रभु!) भाग्यशाली है वह माथा (जो तेरे दर पर झुकता है), भाग्यशाली हैं वे आँखें (जो) तेरे (दीदार में मस्त रहती हैं)। भाग्यशाली हें वे भक्तजन जिनका तेरे नाम से प्रेम बना रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम बिना कैसे सुखु लहीऐ ॥ रसना राम नाम जसु कहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नाम बिना कैसे सुखु लहीऐ ॥ रसना राम नाम जसु कहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कैसे लहीऐ = कैसे मिल सकता है? कभी नहीं मिल सकता। रसना = जीभ (से)। जसु = यश, महिमा। कहीऐ = कहना चाहिए।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करे बिना कभी सुख नहीं मिल सकता। (इस वास्ते सदैव) जीभ से परमात्मा का नाम जपना चाहिए, परमात्मा की महिमा करनी चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन ऊपरि जाईऐ कुरबाणु ॥ नानक जिनि जपिआ निरबाणु ॥२॥१०४॥१७३॥
मूलम्
तिन ऊपरि जाईऐ कुरबाणु ॥ नानक जिनि जपिआ निरबाणु ॥२॥१०४॥१७३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाईऐ = जाना चाहिए। जिनि = जिस ने। निरबाणु = वासना रहित, जिसे कोई वासना छू ना सके।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘जिन’ बहुवचन है, जबकि ‘जिनि’ एकवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस जिस ने वासना रहित प्रभु का नाम जपा है, उनपे से (सदा) सदके जाना चाहिए।2।104।173।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ तूंहै मसलति तूंहै नालि ॥ तूहै राखहि सारि समालि ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ तूंहै मसलति तूंहै नालि ॥ तूहै राखहि सारि समालि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसलति = सलाह (देने वाला)। राखहि = रखता है, रक्षा करता है। सारि = संभाल के, सार ले के। समालि = संभाल कर के।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू (हर जगह मेरा) सलाहकार है, तू ही (हर जगह) मेरे साथ बसता है। तू ही (जीवों की) सार ले के संभाल करके रक्षा करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा रामु दीन दुनी सहाई ॥ दास की पैज रखै मेरे भाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा रामु दीन दुनी सहाई ॥ दास की पैज रखै मेरे भाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन दुनी सहाई = दीन का साथी और दुनिया का साथी, लोक परलोक का साथी। पैज = इज्जत, लज्जा। भाई = हे भाई! 1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे वीर! परमात्मा इस लोक में और परलोक में ऐसा साथी है कि वह अपने सेवक की इज्जत (हर जगह) रखता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगै आपि इहु थानु वसि जा कै ॥ आठ पहर मनु हरि कउ जापै ॥२॥
मूलम्
आगै आपि इहु थानु वसि जा कै ॥ आठ पहर मनु हरि कउ जापै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आगै = परलोक में। इहु थानु = ये लोक। वसि जा कै = जिसके वश में। मनु = (मेरा) मन। जापै = जपता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा के वश में हमारा ये लोक है, वही खुद परलोक में भी (हमारा रक्षक) है। (हे भाई!) मेरा मन तो आठों पहर उस परमात्मा का नाम जपता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पति परवाणु सचु नीसाणु ॥ जा कउ आपि करहि फुरमानु ॥३॥
मूलम्
पति परवाणु सचु नीसाणु ॥ जा कउ आपि करहि फुरमानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पति = इज्जत। परवाणु = स्वीकार। सचु = सदा सिथर प्रभु का नाम। नीसाणु = परवाना, जिंदगी के सफर में राहदारी। फुरमान = हुक्म।3।
अर्थ: हे प्रभु! जिस (सेवक) के वास्ते तू खुद हुक्म करता है, उसे (तेरे दरबार में) आदर-सत्कार मिलता है, वह (तेरे दर पर) स्वीकार होता है, उसको (जीवन-यात्रा में) तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम, (बतौर) राहदारी मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे दाता आपि प्रतिपालि ॥ नित नित नानक राम नामु समालि ॥४॥१०५॥१७४॥
मूलम्
आपे दाता आपि प्रतिपालि ॥ नित नित नानक राम नामु समालि ॥४॥१०५॥१७४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रतिपाल = पालना करता है। समालि = सम्भाल।4।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा खुद ही (सब जीवों को) दातें देने वाला है, स्वयं ही (सबकी) पालना करने वाला है। तू सदा ही उस परमात्मा का नाम (अपने हृदय में) संभाल के रख।4।105।174।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पाठक ये याद रखें कि यहाँ कुल जोड़ में एक की कमी चली आ रही है। यहाँ कुल जोड़ 175 चाहिए थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ सतिगुरु पूरा भइआ क्रिपालु ॥ हिरदै वसिआ सदा गुपालु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ सतिगुरु पूरा भइआ क्रिपालु ॥ हिरदै वसिआ सदा गुपालु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: क्रिपालु = कृपा+आलय, कृपा का घर, दयावान। हिरदै = दिल में।1।
अर्थ: (हे भाई!) अचूक गुरु जिस मनुष्य पर दयावान होता है, सृष्टि के रक्षक परमात्मा (का नाम) सदा उसके हृदय में बसा रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामु रवत सद ही सुखु पाइआ ॥ मइआ करी पूरन हरि राइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रामु रवत सद ही सुखु पाइआ ॥ मइआ करी पूरन हरि राइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रवत = स्मरण करते हुए। सद ही = सदा ही। मइआ = कृपा। पूरन = सर्व व्यापक। हरि राइआ = प्रभु पातशाह।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पर सर्व व्यापक प्रभु पातशाह ने मेहर की है, परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए उसने सदा ही आत्मिक आनंद पाया है।1। रहाउ।
[[0201]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जा के पूरे भाग ॥ हरि हरि नामु असथिरु सोहागु ॥२॥१०६॥
मूलम्
कहु नानक जा के पूरे भाग ॥ हरि हरि नामु असथिरु सोहागु ॥२॥१०६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा के = जिस (मनुष्य) के। असथिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। सोहागु = सौभाग्य,खसम, पति।2।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के (माथे पर) पूरे भाग्य जाग पड़ते हैं, वह सदा परमात्मा का नाम जपता है। (उस के सिर पर) परमात्मा सदा कायम रहने वाला पति (अपना हाथ रखता है)।2।106।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ तक गुरु अरजन देव जी के 106 शब्द हैं। पिछला जोड़ 70 था। कुल जोड़ 176 बनता है, पर अब तक कुल जोड़ में एक की कमी चली आ रही थी, जो यहाँ आ के स्पष्ट हो गई है। पिछले सारे अंक तोड़ने पड़ने थे। इसकी जगह आगे वाला अंक लिखना बंद कर दिया गया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ धोती खोलि विछाए हेठि ॥ गरधप वांगू लाहे पेटि ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ धोती खोलि विछाए हेठि ॥ गरधप वांगू लाहे पेटि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धोती खोलि = धोती के ऊपर का आधा हिस्सा उतार के। हेठि = नाचे, जमीन पर। गरधप = गधा। पेटि = पेट में। लाहे = डाले जाता है (खीर वगैरा)।1।
अर्थ: (पर, हे भाई! ब्राहमण अपने जजमानों को यही बताता है कि ब्राहमण को दिया दान ही मोक्ष पदवी मिलने का रास्ता है। वह ब्राहमण श्राद्ध आदि के समय जजमान के घर जा के चौके में बैठ के) अपनी धोती का ऊपर का हिस्सा उतार के नीचे रख लेता है और गधे की तरह (दबादब खीर आदि) अपने पेट में डाले जाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु करतूती मुकति न पाईऐ ॥ मुकति पदारथु नामु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बिनु करतूती मुकति न पाईऐ ॥ मुकति पदारथु नामु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करतूती = करतूत, नाम स्मरण का उद्यम। मुकति = मुक्ति, विकारों से खलासी, मोक्ष पदवी।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए। ये ऐसा पदार्थ है जो विकारों से खलासी देता है। (हे भाई!) नाम जपने की कमाई किए बिना मोक्ष पदवी नहीं मिलती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजा तिलक करत इसनानां ॥ छुरी काढि लेवै हथि दाना ॥२॥
मूलम्
पूजा तिलक करत इसनानां ॥ छुरी काढि लेवै हथि दाना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छुरी काढि = छुरी निकाल के, निर्दयता से, (स्वर्ग आदि का) धोखा दे के। लेवै हथि = हाथ में लेता है, हासिल करता है।2।
अर्थ: (ब्राहमण) स्नान करके, तिलक लगा के पूजा करता है, और छुरी निकाल के, हाथ में दान लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेदु पड़ै मुखि मीठी बाणी ॥ जीआं कुहत न संगै पराणी ॥३॥
मूलम्
बेदु पड़ै मुखि मीठी बाणी ॥ जीआं कुहत न संगै पराणी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि = मुंह से। मीठी बाणी = मीठे सुर से। कुहत = मारते हुए। जीआं कुहत = जीवों को मारते हुए, अपने जजमानों के साथ धोखा करते हुए। न संगै = नहीं शर्माता, नहीं हिचकिचाता।3।
अर्थ: (ब्राहमण) मुंह से मीठी सुर का वेद (मंत्र) पढ़ता है, पर अपने जजमानों के साथ धोखा करते हुए रक्ती भर नहीं झिझकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक जिसु किरपा धारै ॥ हिरदा सुधु ब्रहमु बीचारै ॥४॥१०७॥
मूलम्
कहु नानक जिसु किरपा धारै ॥ हिरदा सुधु ब्रहमु बीचारै ॥४॥१०७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुधु = पवित्र। ब्रहमु = परमात्मा।4।
अर्थ: (पर) हे नानक! कह: (ब्राहमण के भी क्या वश?) जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है वही परमातमा के गुण अपने हृदय में बसाता है। (जिसकी इनायत से) उसका हृदय पवित्र हो जाता है (और वह किसी के साथ ठगी-फरेब नहीं करता)।4।107।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ थिरु घरि बैसहु हरि जन पिआरे ॥ सतिगुरि तुमरे काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ थिरु घरि बैसहु हरि जन पिआरे ॥ सतिगुरि तुमरे काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थिरु = अडोल चिक्त, श्रद्धा से। घरि = हृदय घर में। हरि जन = हे हरि के सेवको! स्तिगुरि = सतिगुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्यारे भक्त जनों! अपने हृदय में ये पूरी श्रद्धा बनाओ, कि सतिगुरु ने हमारे कारज सवार दिए हैं (कि सत्गुरू शरण पड़ने वालों के कार्य सवार देता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुसट दूत परमेसरि मारे ॥ जन की पैज रखी करतारे ॥१॥
मूलम्
दुसट दूत परमेसरि मारे ॥ जन की पैज रखी करतारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। जन की पैज = सेवक की लज्जा। करतारे = कर्तार ने।1।
अर्थ: (हे संत जनों! ये निश्चय धारो कि जो मनुष्य और आसरे छोड़ के परमेश्वर का आसरा देखता है), परमेश्वर ने उसके कष्ट देने वाले-वैरी सब समाप्त कर दिए हैं, कर्तार ने अपने सेवक की इज्जत जरूर रखी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बादिसाह साह सभ वसि करि दीने ॥ अम्रित नाम महा रस पीने ॥२॥
मूलम्
बादिसाह साह सभ वसि करि दीने ॥ अम्रित नाम महा रस पीने ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वसि = वश में। पीने = पीते हैं।2।
अर्थ: (हे संत जनों परमेश्वर ने अपने सेवकों को) दुनिया के शाहों-बादशाहों से बे-मुहताज (आजाद) कर दिया है। परमेश्वर के सेवक आत्मिक जीवन देने वाला परमेश्वर का सब रसों से मीठा नाम-रस पीते रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरभउ होइ भजहु भगवान ॥ साधसंगति मिलि कीनो दानु ॥३॥
मूलम्
निरभउ होइ भजहु भगवान ॥ साधसंगति मिलि कीनो दानु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। कीनो = किया है।3।
अर्थ: (हे प्यारे भक्त जनों! परमेश्वर ने तुम्हारे ऊपर) नाम की बख्शिश की है, तुम साधु-संगत में मिल के निडर हो के भगवान का नाम स्मरण करते रहो।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरणि परे प्रभ अंतरजामी ॥ नानक ओट पकरी प्रभ सुआमी ॥४॥१०८॥
मूलम्
सरणि परे प्रभ अंतरजामी ॥ नानक ओट पकरी प्रभ सुआमी ॥४॥१०८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! अंतरजामी = हे हरेक के दिल की जानने वाले! ओट = आसरा।4।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु दर पर अरदास कर और कह:) हे अंतरजामी प्रभु! हे स्वामी प्रभु! मैं तेरी शरण पड़ा हूँ, मैंने तेरा आसरा लिया है (मुझे अपने नाम की दाति बख्श)।4।108।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हरि संगि राते भाहि न जलै ॥ हरि संगि राते माइआ नही छलै ॥ हरि संगि राते नही डूबै जला ॥ हरि संगि राते सुफल फला ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हरि संगि राते भाहि न जलै ॥ हरि संगि राते माइआ नही छलै ॥ हरि संगि राते नही डूबै जला ॥ हरि संगि राते सुफल फला ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाहि = (तृष्णा की) आग (में)। संगि = साथ। राते = रंगे जाने से। जला = संसार समुंदर में।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के साथ रंगे रहने से (मनुष्य तृष्णा की) आग में नहीं जलता। परमात्मा के चरणों में जुड़े रहने से (मनुष्य को) माया ठग नहीं सकती। परमात्मा की याद में मस्त रहने से मनुष्य संसार समुंदं के विकारों के पानियों में ग़र्क नहीं होता, मानव जन्म का खूबसूरत उद्देश्य प्राप्त कर लेता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ भै मिटहि तुमारै नाइ ॥ भेटत संगि हरि हरि गुन गाइ ॥ रहाउ॥
मूलम्
सभ भै मिटहि तुमारै नाइ ॥ भेटत संगि हरि हरि गुन गाइ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाइ = काम के द्वारा। भेटत = मिलने से। गाइ = गाता है।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे नाम में जुड़ने से (मनुष्य के सारे) डर दूर हो जाते हैं। (हे भाई!) प्रभु की संगति में रहने से (चरणों में जुड़ने से) मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि संगि राते मिटै सभ चिंता ॥ हरि सिउ सो रचै जिसु साध का मंता ॥ हरि संगि राते जम की नही त्रास ॥ हरि संगि राते पूरन आस ॥२॥
मूलम्
हरि संगि राते मिटै सभ चिंता ॥ हरि सिउ सो रचै जिसु साध का मंता ॥ हरि संगि राते जम की नही त्रास ॥ हरि संगि राते पूरन आस ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साध = गुरु। मंता = उपदेश। त्रास = डर।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की याद में जुड़े रहने से (मनुष्य की) हरेक किस्म की चिन्ता मिट जाती है। (पर) परमात्मा के साथ वही मनुष्य जुड़ता है जिसे गुरु का उपदेश प्राप्त होता है। परमात्मा के साथ रंगे रहने से मौत का सहम नहीं रहता, और मनुष्य की सारी आशाएं पूरी हो जाती हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि संगि राते दूखु न लागै ॥ हरि संगि राता अनदिनु जागै ॥ हरि संगि राता सहज घरि वसै ॥ हरि संगि राते भ्रमु भउ नसै ॥३॥
मूलम्
हरि संगि राते दूखु न लागै ॥ हरि संगि राता अनदिनु जागै ॥ हरि संगि राता सहज घरि वसै ॥ हरि संगि राते भ्रमु भउ नसै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न लागै = छू नहीं सकता। राता = रंगा हुआ। अनदिनु = हर रोज। जागै = (विकारों की ओर से) सुचेत रहता है। सहज घरि = आत्मिक अडोलता के घर में।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के चरणों में जुड़े रहने से कोई दुख छू नहीं सकता। जो मनुष्य परमात्मा की याद में मस्त रहता है, वह हर वक्त (विकारों के हमलों से) सुचेत रहता है। वह मनुष्य आत्मिक अडोलता की अवस्था में टिका रहता है। परमात्मा की याद में जुड़े रहने से मनुष्य की हरेक किस्म की भटकना मिट जाती है, हरेक सहम दूर हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि संगि राते मति ऊतम होइ ॥ हरि संगि राते निरमल सोइ ॥ कहु नानक तिन कउ बलि जाई ॥ जिन कउ प्रभु मेरा बिसरत नाही ॥४॥१०९॥
मूलम्
हरि संगि राते मति ऊतम होइ ॥ हरि संगि राते निरमल सोइ ॥ कहु नानक तिन कउ बलि जाई ॥ जिन कउ प्रभु मेरा बिसरत नाही ॥४॥१०९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरमल = पवित्र, बेदाग। सोइ = शोभा। बलि जाई = मैं कर्बान जाता हूँ।4।
अर्थ: हे नानक! कह: मैं उन लोगों से सदके जाता हूँ, जिन्हें मेरा परमात्मा कभी नहीं भूलता।4।109।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ उदमु करत सीतल मन भए ॥ मारगि चलत सगल दुख गए ॥ नामु जपत मनि भए अनंद ॥ रसि गाए गुन परमानंद ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ उदमु करत सीतल मन भए ॥ मारगि चलत सगल दुख गए ॥ नामु जपत मनि भए अनंद ॥ रसि गाए गुन परमानंद ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीतल मन = ठंडे मन वाले, शांत चित्त। मारगि = रास्ते में। सगल = सारे। मनि = मन में। रसि = प्रेम से। गुन परमानंद = परमानंद के गुण। परमानंद = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभु।1।
अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत में जाने का) उद्यम करते हुए (मनुष्य) शांत-चित्त हो जाते हैं। (साधु-संगत के) रास्ते पर चलते हुए सारे दुख दूर हो जाते हैं (छू नहीं सकते)। (हे भाई!) सबसे उच्च आनंद का मालिक प्रभु के गुण प्रेम से गाने से, प्रभु का नाम जपने से मन में आनंद ही आनंद पैदा हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खेम भइआ कुसल घरि आए ॥ भेटत साधसंगि गई बलाए ॥ रहाउ॥
मूलम्
खेम भइआ कुसल घरि आए ॥ भेटत साधसंगि गई बलाए ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खेम = सुख। कुसल घरि = सुख के घर में, सुख की अवस्था में। भेटत = मिलने से। बलाए = माया चुड़ैल।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) साधु-संगत में मिलने से (माया-) चुड़ेल (की चिपकन) देर हो जाती है। (जो लोग साधु-संगत में जुड़ते हैं उन्हें) सुख ही सुख प्राप्त होता है, वे आनंद की अवस्था में टिक जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेत्र पुनीत पेखत ही दरस ॥ धनि मसतक चरन कमल ही परस ॥ गोबिंद की टहल सफल इह कांइआ ॥ संत प्रसादि परम पदु पाइआ ॥२॥
मूलम्
नेत्र पुनीत पेखत ही दरस ॥ धनि मसतक चरन कमल ही परस ॥ गोबिंद की टहल सफल इह कांइआ ॥ संत प्रसादि परम पदु पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नेत्र = आँखें। पुनीत = पवित्र, पराया रूप देखने का बाण से रहित। पेखत = देखते हुए। धनि = धन्य, भाग्यशाली। मसतक = माथा। परस = छूह। कांइआ = शरीर। संत प्रसादि = गुरु संत की कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।2।
अर्थ: (हे भाई!) गोबिंद के दर्शन करते ही आँखें पवित्र हो जाती हैं (विकार-वासना से रहित हो जाती हैं)। (हे भाई!) भाग्यशाली हैं वह माथे जिन्हें गोबिंद के सुंदर चरणों की छोह मिलती है। परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से ये शरीर सफल हो जाता है। गुरु संत की कृपा से सबसे ऊंची आत्मिक अवस्था मिल जाती है।2।
[[0202]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन की कीनी आपि सहाइ ॥ सुखु पाइआ लगि दासह पाइ ॥ आपु गइआ ता आपहि भए ॥ क्रिपा निधान की सरनी पए ॥३॥
मूलम्
जन की कीनी आपि सहाइ ॥ सुखु पाइआ लगि दासह पाइ ॥ आपु गइआ ता आपहि भए ॥ क्रिपा निधान की सरनी पए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहाइ = सहायता। लगि = लग के। दासह पाइ = दासों के पैरों पर। आपु = स्वैभाव। आपहि = खुद ही, प्रभु स्वयं ही, परमात्मा का रूप ही। ता = कब। क्रिपा निधान = क्रिपा का खजाना।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘आपि’ और ‘आपु’ का फर्क याद रखने योग्य है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा ने खुद जिस मनुष्य की सहायता की, उसने परमात्मा के भक्तों के चरणों में लग के आत्मिक आनंद पाया। जो मनुष्य दया के खजाने परमात्मा की शरण आ पड़े, उनके अंदर (जब) स्वैभाव दूर हो गया तब वे परमात्मा का रूप हो गए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो चाहत सोई जब पाइआ ॥ तब ढूंढन कहा को जाइआ ॥ असथिर भए बसे सुख आसन ॥ गुर प्रसादि नानक सुख बासन ॥४॥११०॥
मूलम्
जो चाहत सोई जब पाइआ ॥ तब ढूंढन कहा को जाइआ ॥ असथिर भए बसे सुख आसन ॥ गुर प्रसादि नानक सुख बासन ॥४॥११०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो चाहत = जिसे मिलना चाहता है। सोई = वही (परमात्मा)। कहा = कहाँ? को = कोई। असथिर = स्थिर, अडोल अवस्था। सुख आसन = आनंद के आसन पर। सुख बासन = सुखों में बसने वाले।4।
अर्थ: (हे भाई!) जब किसी मनुष्य को (गुरु की कृपा से) वह परमात्मा ही मिल पड़ता है जिसे वह मिलना चाहता है, तब वह (बाहर जंगल पहाड़ों आदि में उसे) ढूँढने नहीं जाता।
हे नानक! (परमात्मा को अपने ही अंदर ढूँढ लेने वाले मनुष्य) अडोल-चित्त हो जाते हैं, वे सदा आनंद अवस्था में टिके रहते हैं, गुरु की कृपा से वे सदा सुख में बसने वाले हो जाते हैं।4।110।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ कोटि मजन कीनो इसनान ॥ लाख अरब खरब दीनो दानु ॥ जा मनि वसिओ हरि को नामु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ कोटि मजन कीनो इसनान ॥ लाख अरब खरब दीनो दानु ॥ जा मनि वसिओ हरि को नामु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मजन = स्नान, डुबकी। अरब खरब = सौ लाख का एक करोड़, सौ करोड़ का एक अरब, सौ अरब का एक खरब। मनि = मन में। जा मनि = जिस (मनुष्य) के मन में।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, उसने मानों करोड़ों तीर्थों में डुबकियां लगा ली हों, करोड़ों तीर्थों के स्नान कर लिए, उसने (मानो) लाखों रुपए अरबों रुपए खरबों रुपए दान कर दिए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल पवित गुन गाइ गुपाल ॥ पाप मिटहि साधू सरनि दइआल ॥ रहाउ॥
मूलम्
सगल पवित गुन गाइ गुपाल ॥ पाप मिटहि साधू सरनि दइआल ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गाइ = गा के। मिटहि = मिट जाते हैं। साधू = गुरु। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) सृष्टि के पालनहार प्रभु के गुण गा के सारे मनुष्य पवित्र हो सकते हैं। दया के श्रोत गुरु की शरण पड़ने से (सारे) पाप मिट जाते हैं। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुतु उरध तप साधन साधे ॥ अनिक लाभ मनोरथ लाधे ॥ हरि हरि नाम रसन आराधे ॥२॥
मूलम्
बहुतु उरध तप साधन साधे ॥ अनिक लाभ मनोरथ लाधे ॥ हरि हरि नाम रसन आराधे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उरध = उर्ध, ऊँचा, ऊँचा उल्टा लटक के। रसन = जीभ (से)।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा का नाम जपता है, उसने (मानो) उल्टा लटक के अनेक तपों की साधनाएं साधु लीं। उसने (मानो, रिद्धियों-सिद्धियों के) अनकों लाभ प्राप्त कर लिए।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिम्रिति सासत बेद बखाने ॥ जोग गिआन सिध सुख जाने ॥ नामु जपत प्रभ सिउ मन माने ॥३॥
मूलम्
सिम्रिति सासत बेद बखाने ॥ जोग गिआन सिध सुख जाने ॥ नामु जपत प्रभ सिउ मन माने ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बखाने = उचारे, पढ़ लिए। माने = पतीज गए।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करते स्मरण करते जिस मनुष्य का मन परमात्मा में लीन हो जाता है, उसने (मानो) स्मृतियों-शास्त्रों-वेदों के उच्चारण कर लिए। उसने (जैसे) योग (की पेचीदिकियों) की सूझ हासिल कर ली है। उसने (मानो) सिद्धों को मिले सुखों से सांझ पा ली।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगाधि बोधि हरि अगम अपारे ॥ नामु जपत नामु रिदे बीचारे ॥ नानक कउ प्रभ किरपा धारे ॥४॥१११॥
मूलम्
अगाधि बोधि हरि अगम अपारे ॥ नामु जपत नामु रिदे बीचारे ॥ नानक कउ प्रभ किरपा धारे ॥४॥१११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगाधि = अथाह। अगाधि बोधि = अथाह बोध वाला, जिसके पूर्ण स्वरूप का सही बयान नहीं हो सकता।4।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभु कृपा करता है, वह मनुष्य) उस अथाह हस्ती वाले अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत परमात्मा का नाम जपता है, उसका नाम अपने हृदय में टिकाता है।
(हे नानक! तू भी अरदास कर और कह:) हे प्रभु! मुझ नानक पर कृपा कर (ता कि मैं तेरा नाम जप सकूँ)।4।111।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी मः ५ ॥ सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइआ ॥ चरन कमल गुर रिदै बसाइआ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी मः ५ ॥ सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइआ ॥ चरन कमल गुर रिदै बसाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। सुखु = आत्मिक आनंद। चरन कमल गुर = गुरु के सुंदर चरण (कमल फूल जैसे)। रिदै = हृदय में।1।
अर्थ: (पर, हे भाई! गोबिंद की आराधना गुरु के द्वारा ही मिलती है। जिस मनुष्य ने) गुरु के सुंदर चरण अपने हृदय में बसाए हैं, उसने गोबिंद का नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक आनंद पाया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर गोबिंदु पारब्रहमु पूरा ॥ तिसहि अराधि मेरा मनु धीरा ॥ रहाउ॥
मूलम्
गुर गोबिंदु पारब्रहमु पूरा ॥ तिसहि अराधि मेरा मनु धीरा ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरा = अचूक, सारे गुणों वाला। तिसहि = उस (गोबिंद) को। धीरा = धैर्य वाला। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गोबिंद पारब्रहम् (सब हस्तियों से) बड़ा है। सारे गुणों का मालिक है (उसमें कोई किसी किस्म की कमी नहीं है)। उस गोबिंद को आराध के मेरा मन हौसले वाला बन जाता है (और अनेक किलविखों का मुकाबला करने के काबिल हो जाता है)। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदिनु जपउ गुरू गुर नाम ॥ ता ते सिधि भए सगल कांम ॥२॥
मूलम्
अनदिनु जपउ गुरू गुर नाम ॥ ता ते सिधि भए सगल कांम ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जपउ = जपूँ, मैं जपता हूँ। ता ते = उस (जपने) की इनायत से। सिधि = सिद्धि, सफलता। सिधि सगल काम = सारे कामों की सफलता।2।
अर्थ: (हे भाई!) मैं हर समय गुरु का नाम याद रखता हूँ (गुरु की मेहर से ही गोबिंद का स्मरण प्राप्त होता है और) उस नाम जपने की इनायत से सारे कामों में सफलता हासिल होती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरसन देखि सीतल मन भए ॥ जनम जनम के किलबिख गए ॥३॥
मूलम्
दरसन देखि सीतल मन भए ॥ जनम जनम के किलबिख गए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देखि = देख के। सीतल मन = ठण्डे मन वाले। किलविख = पाप।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के द्वारा हर जगह परमात्मा का) दर्शन करके (दर्शन करने वाले) ठण्डे-ठार मन वाले हो जाते हैं, और उनके अनेक (पहले) जन्मों के किए हुए पाप नाश हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक कहा भै भाई ॥ अपने सेवक की आपि पैज रखाई ॥४॥११२॥
मूलम्
कहु नानक कहा भै भाई ॥ अपने सेवक की आपि पैज रखाई ॥४॥११२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानक = हे नानक! भाई = हे भाई! भै = डर, खतरे। पैज = इज्जत।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! कह: हे भाई! (गुरु की शरण पड़ के गोबिंद का नाम स्मरण करने से संसार के) सारे डर-खतरे मन से उतर जाते हैं (क्योंकि) नाम जपने की इनायत से ये यकीन बन जाता है कि (गोबिंद) अपने सेवक की स्वयं लज्जा रखता है।4।112।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ अपने सेवक कउ आपि सहाई ॥ नित प्रतिपारै बाप जैसे माई ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ अपने सेवक कउ आपि सहाई ॥ नित प्रतिपारै बाप जैसे माई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = वास्ते। सहाई = मददगार। नित = सदा। प्रतिपारै = पालना करता है, संभाल करता है।1।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा अपने सेवक के लिए (सदा) मददगार बना रहता है, सदा (अपने सेवक की) संभाल करता है जैसे माता और पिता (अपने बच्चे की संभाल करते हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ की सरनि उबरै सभ कोइ ॥ करन करावन पूरन सचु सोइ ॥ रहाउ॥
मूलम्
प्रभ की सरनि उबरै सभ कोइ ॥ करन करावन पूरन सचु सोइ ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उबरै = (डर, खतरों, किलविखों से) बच जाता है। सभ कोइ = हरेक जीव। सचु = सदा कायम रहने वाला। सोइ = वह परमात्मा। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) हरेक मनुष्य (जो) परमात्मा की शरण में (आता है, सारे विकारों, डरों, सहिमों से) बच जाता है। उसे निश्चय बन जाता है कि वह सर्व व्यापक सदा कायम रहने वाला परमात्मा सब कुछ करने की स्मर्था रखता है और जीवों से सब कुछ करवाने वाला है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब मनि बसिआ करनैहारा ॥ भै बिनसे आतम सुख सारा ॥२॥
मूलम्
अब मनि बसिआ करनैहारा ॥ भै बिनसे आतम सुख सारा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अब = अब। मनि = मन में। करनैहारा = पैदा करने वाला प्रभु। सारा = संभाला है।2।
अर्थ: (हे भाई!) सब कुछ करने की स्मर्था रखने वाला परमात्मा (मेरे) मन में आ बसा है, अब मेरे सारे डर खतरे नाश हो गए हैं और मैं आत्मिक आनंद पा रहा हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा अपने जन राखे ॥ जनम जनम के किलबिख लाथे ॥३॥
मूलम्
करि किरपा अपने जन राखे ॥ जनम जनम के किलबिख लाथे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = करके। किलविख = पाप।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा कृपा करके अपने सेवकों की स्वयं रक्षा करता है, उनके (पहले के) अनेक जन्मों के (किए) पापों के संस्कार (उनके मन से) उतर जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहनु न जाइ प्रभ की वडिआई ॥ नानक दास सदा सरनाई ॥४॥११३॥
मूलम्
कहनु न जाइ प्रभ की वडिआई ॥ नानक दास सदा सरनाई ॥४॥११३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहनु न जाइ = बताई नहीं जा सकती।4।
अर्थ: परमात्मा कितनी बड़ी स्मर्था वाला है, ये बात बयान नहीं की जा सकती। हे नानक! परमात्मा के सेवक सदा परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं।4।113।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी चेती महला ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी चेती महला ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम को बलु पूरन भाई ॥ ता ते ब्रिथा न बिआपै काई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम को बलु पूरन भाई ॥ ता ते ब्रिथा न बिआपै काई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। पूरनु = हर जगह मौजूद। भाई = हे भाई! ता ते = उस बल की इनायत से। बिरथा = पीड़ा, दुख-कष्ट। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकती।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा की ताकत हर जगह (अपना प्रभाव डाल रही है) (इस वास्ते जिस सेवक के सिर पर परमात्मा अपना मेहर का हाथ रखता है) उस ताकत की इनायत से (उस सेवक पे) कोई दुख-कष्ट अपना जोर नहीं डाल सकते।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जो चितवै दासु हरि माई ॥ सो सो करता आपि कराई ॥१॥
मूलम्
जो जो चितवै दासु हरि माई ॥ सो सो करता आपि कराई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दासु हरि = हरि का दास। माई = हे माँ। करता = कर्तार।1।
अर्थ: हे (मेरी) माँ! परमात्मा का सेवक जो जो मांग अपने मन में चितवता है, कर्तार स्वयं उसकी वह मांग पूरी कर देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निंदक की प्रभि पति गवाई ॥ नानक हरि गुण निरभउ गाई ॥२॥११४॥
मूलम्
निंदक की प्रभि पति गवाई ॥ नानक हरि गुण निरभउ गाई ॥२॥११४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। पति = इज्जत। नानक = हे नानक!।2।
अर्थ: हे नानक! (परमात्मा का सेवक) परमात्मा के गुण गाता रहता है (और दुनिया के डरों से) निडर हो जाता है। (पर सेवक के) दुखदाई-निंदक की इज्जत प्रभु ने लोक-परलोक में खुद गवा दी होती है।2।114।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: गउड़ी गुआरेरी के शब्द समाप्त हो चुके हैं, अब यहाँ से गउड़ी चेती के शब्द शुरू होते हैं।
[[0203]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ भुज बल बीर ब्रहम सुख सागर गरत परत गहि लेहु अंगुरीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ भुज बल बीर ब्रहम सुख सागर गरत परत गहि लेहु अंगुरीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भुज = बाँह। बल = ताकत। भुज बल = जिसकी बाँहों में ताकत है, हे बलवान बाँहों वाले! सुख सागर = हे सुखों के समुंदर। गरत = टोआ, गड्ढा। परत = पड़ता, गिरता। गहि लेहु = पकड़ लो। अंगुरीआ = उंगली।1। रहाउ।
अर्थ: हे बली बाहों वाले शूरवीर प्रभु! हे सुखों के समुंदर पारब्रहम्! (संसार समुंदर के विकारों के) गड्ढे में गिरते हुए की (मेरी) उंगली पकड़ ले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रवनि न सुरति नैन सुंदर नही आरत दुआरि रटत पिंगुरीआ ॥१॥
मूलम्
स्रवनि न सुरति नैन सुंदर नही आरत दुआरि रटत पिंगुरीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रवनि = श्रवण में, कान में। सुरति = सुनने की स्मर्था। आरत = दुखीया। दुआरि = (तेरे) दर पर। रटत = पुकारता। पिंगुरीआ = पिंगुला, पैर विहीन।1।
अर्थ: (हे प्रभु! मेरे) कानों में (तेरी महिमा) सुनने (की सूझ) नहीं, मेरी आँखें (इतनी) सुंदर नहीं (कि हर जगह तेरा दीदार कर सकें), मैं तेरी साधु-संगत में जाने के लायक भी नहीं हूँ, मैं पिंगला हो चुका हूँ और दुखी हो के तेरे दर पर पुकार करता हूँ (मुझे विकारों के गड्ढे में से बचा ले)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीना नाथ अनाथ करुणा मै साजन मीत पिता महतरीआ ॥ चरन कवल हिरदै गहि नानक भै सागर संत पारि उतरीआ ॥२॥२॥११५॥
मूलम्
दीना नाथ अनाथ करुणा मै साजन मीत पिता महतरीआ ॥ चरन कवल हिरदै गहि नानक भै सागर संत पारि उतरीआ ॥२॥२॥११५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीना नाथ = हे गरीबों के पति!। करुणा मै = (करुणा+मय) तरस रूप, तरस भरपूर। महतरीआ = माँ। चरन कवल = कमल फूलों जैसे चरण। गहि = पकड़ के।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे गरीबों के पति! हे यतीमों पर तरस करने वाले! हे सज्जन! हे मित्र प्रभु! हे मेरे पिता! हे मेरी माँ प्रभु! तेरे संत तेरे सुंदर चरण अपने हृदय में रख कर संसार समुंदर से पार लांघते हैं, (मेहर कर, मुझे भी अपने चरणों का प्यार बख्श और मुझे भी पार लंधा ले)।2।2।115।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पहिला अंक 2 शब्द के बंदों की गिनती बताता है। दूसरा अंक 2 बताता है कि ‘गउड़ी चेती’ का ये दूसरा शब्द है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी बैरागणि महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी बैरागणि महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दय गुसाई मीतुला तूं संगि हमारै बासु जीउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
दय गुसाई मीतुला तूं संगि हमारै बासु जीउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दय = हे तर करने वाले! (दय = to feel pity)। मीतुला = प्यारा मित्र। बासु = वश।1। रहाउ।
अर्थ: हे तरस करने वाले! हे सृष्टि के पति! तू मेरा प्यारा मित्र है, सदा मेरे साथ बसता रह।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुझ बिनु घरी न जीवना ध्रिगु रहणा संसारि ॥ जीअ प्राण सुखदातिआ निमख निमख बलिहारि जी ॥१॥
मूलम्
तुझ बिनु घरी न जीवना ध्रिगु रहणा संसारि ॥ जीअ प्राण सुखदातिआ निमख निमख बलिहारि जी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संसारि = संसार में। जीअ दातिआ = हे जिंद के देने वाले! निमख = आँख झपकने जितना समय (निर्मष)। बलिहार = मैं सदके जाता हूँ।1।
अर्थ: हे जिंद देने वाले! हे प्राण देने वाले! हे सुख देने वाले प्रभु! मैं तुझसे निमख निमख कुर्बान जाता हूँ। तेरे बिना एक घड़ी भर भी आत्मिक जीवन नहीं हो सकता और (आत्मिक जीवन के बिना) संसार में रहना धिक्कार-योग्य है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हसत अल्मबनु देहु प्रभ गरतहु उधरु गोपाल ॥ मोहि निरगुन मति थोरीआ तूं सद ही दीन दइआल ॥२॥
मूलम्
हसत अल्मबनु देहु प्रभ गरतहु उधरु गोपाल ॥ मोहि निरगुन मति थोरीआ तूं सद ही दीन दइआल ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलंबनु = आसरा। हसत अलंबनु = हाथ का सहारा। प्रभ = हे प्रभु! गरतहु = गड्ढे से। उधरु = निकाल ले। मोहि = मेरी। सद ही = सदा ही।2।
अर्थ: हे प्रभु! मुझे अपने हाथ का सहारा दे। हे गोपाल! मुझे (विकारों के) गड्ढों में से निकाल ले। मैं गुण हीन हूँ, मेरी मति होछी है। तू सदा ही गरीबों पर दया करने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ सुख तेरे समला कवन बिधी बीचार ॥ सरणि समाई दास हित ऊचे अगम अपार ॥३॥
मूलम्
किआ सुख तेरे समला कवन बिधी बीचार ॥ सरणि समाई दास हित ऊचे अगम अपार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संमला = संमलां, मैं याद करूँ। कवन बिधी = किस किस तरीके से? सरणि समाई = हे शरण आए की समाई करने वाले! दास हित = हे दासों के हितैषी! 3।
अर्थ: हे ऊँचे! हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे बेअंत प्रभु! हे शरण आए की सहायता करने वाले प्रभु! हे अपने सेवकों के हितैषी प्रभु! मैं तेरे (दिए हुए) कौन कौन से सुख याद करूँ? मैं किस किस तरीकों से (तेरे बख्शे हुए सुखों की) विचार करूँ? (मैं तेरे दिए हुए बेअंत सुख गिन नहीं सकता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल पदारथ असट सिधि नाम महा रस माहि ॥ सुप्रसंन भए केसवा से जन हरि गुण गाहि ॥४॥
मूलम्
सगल पदारथ असट सिधि नाम महा रस माहि ॥ सुप्रसंन भए केसवा से जन हरि गुण गाहि ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असटि सिधि = आठ सिद्धियां। केसवा = (केशा: प्रशस्या: सन्ति अस्य) लंबे केशों वाला प्रभु! गाहि = गाते हैं।4।
अर्थ: हे भाई! दुनिया के सारे पदार्थ (योगियों की) आठों सिद्धियां सब से श्रेष्ठ राम-नाम-रस में मौजूद है। (हे भाई!) जिनपे सुंदर लंबे बालों वाला प्रभु प्रसन्न होता है, वे लोग प्रभु के गुण गाते रहते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मात पिता सुत बंधपो तूं मेरे प्राण अधार ॥ साधसंगि नानकु भजै बिखु तरिआ संसारु ॥५॥१॥११६॥
मूलम्
मात पिता सुत बंधपो तूं मेरे प्राण अधार ॥ साधसंगि नानकु भजै बिखु तरिआ संसारु ॥५॥१॥११६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंधपो = बंधप, रिश्तेदार। अधार = आसरा। नानक भजै = नानक स्मरण करता है। बिखु = जहिर।5।1।116।
अर्थ: (हे दय! हे गुसांई!) हे मेरे प्राणों के आसरे प्रभु! माता, पिता, पुत्र, रिश्तेदार (सब कुछ मेरा) तू ही है। (तेरा दास) नानक (तेरी) साधु-संगत में (तेरी मेहर से) तेरा भजन करता है। (जो मनुष्य तेरा भजन करता है वह विकारों के) जहिर भरे संसार से (सही सलामत आत्मिक जीवन ले के) पार लांघ जाता है।5।1।116।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गउड़ी बैरागणि’ का ये पहला शब्द है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि रहोए के छंत के घरि मः ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि रहोए के छंत के घरि मः ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
है कोई राम पिआरो गावै ॥ सरब कलिआण सूख सचु पावै ॥ रहाउ॥
मूलम्
है कोई राम पिआरो गावै ॥ सरब कलिआण सूख सचु पावै ॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रहोआ = एक किस्म की धरणा का पंजाबी गीत जो लंबी तान ले के गाया जाता है। इसे विशेष तौर पर औरतें व्याह के समय गाती है। लंबी तान के इलावा टेक वाली पंक्ति भी बार-बार गाई जाती है। घरि = घर मे। रहोए के छंत के घरि = (इस शब्द को उस ‘घर’ में गाना है) जिस घर में लंबी तान वाला बिआह का गीत गाया जाता है। सरब = सारे। कलिआण = सुख। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु!। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) कोई विरला भाग्यशाली मनुष्य प्यारे के गुण गाता है, वह सारे सुख प्राप्त कर लेता है, सच्चे आनंद लेता है, सदा स्थिर परमात्मा को मिल पड़ता है। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बनु बनु खोजत फिरत बैरागी ॥ बिरले काहू एक लिव लागी ॥ जिनि हरि पाइआ से वडभागी ॥१॥
मूलम्
बनु बनु खोजत फिरत बैरागी ॥ बिरले काहू एक लिव लागी ॥ जिनि हरि पाइआ से वडभागी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बनु बनु = जंगल जंगल। बैरागी = विरक्त। एक लिव = एक प्रभु की लगन। जिनि = जिस ने।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘जिनि’ एकवचन है। इसके साथ बरता गया ‘से’ बहुवचन है। सो, इसका अर्थ करना है: जिस ने जिस ने, जिस जिस ने।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा को मिलने के लिए जो) कोई मनुष्य गृहस्थ से उपराम हो के जंगल-जंगल ढूँढता फिरता है (तो इस तरह परमात्मा नहीं मिलता)। किसी विरले मनुष्य की एक परमात्मा के साथ लगन लगती है। जिस जिस मनुष्य ने प्रभु को ढूँढ लिया है, वे सभी बड़े भाग्यशाली हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रहमादिक सनकादिक चाहै ॥ जोगी जती सिध हरि आहै ॥ जिसहि परापति सो हरि गुण गाहै ॥२॥
मूलम्
ब्रहमादिक सनकादिक चाहै ॥ जोगी जती सिध हरि आहै ॥ जिसहि परापति सो हरि गुण गाहै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ब्रहमादिक = ब्रहमा आदि, ब्रहमा व अन्या देवते। सनकादिक = सनक आदि, सनक व उसके अन्य भाई सनंदन, सनातन, सनत कुमार। आहै = तमन्ना रखता है। गाहै = गाहता है, डुबकी लगाता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) ब्रहमा व अन्य बड़े-बड़े देवतागण, सनक व उसके भाई सनंदन, सनातन, सनत कुमार - इनमें से हरेक प्रभु मिलाप चाहता है। जोगी-जती-सिध - हरेक परमात्मा को मिलने की चाहत रखता है। (पर जिसको धुर से) ये दाति मिली है, वही प्रभु के गुण गाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता की सरणि जिन बिसरत नाही ॥ वडभागी हरि संत मिलाही ॥ जनम मरण तिह मूले नाही ॥३॥
मूलम्
ता की सरणि जिन बिसरत नाही ॥ वडभागी हरि संत मिलाही ॥ जनम मरण तिह मूले नाही ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन = जिन्हें। ता की = उनकी। मिलाही = मिलते हैं। तिह = उन्हें। मूले = बिल्कुल।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिनि’ एकवचन है और ‘जिन’ बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) उनकी शरण पड़ें, जिन्हें परमात्मा कभी नहीं भूलता। परमात्मा के संतों को कोई बड़े भाग्यशाली ही मिल सकते हैं। उन संतों को जनम नरण के चक्कर नहीं व्यापते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा मिलु प्रीतम पिआरे ॥ बिनउ सुनहु प्रभ ऊच अपारे ॥ नानकु मांगतु नामु अधारे ॥४॥१॥११७॥
मूलम्
करि किरपा मिलु प्रीतम पिआरे ॥ बिनउ सुनहु प्रभ ऊच अपारे ॥ नानकु मांगतु नामु अधारे ॥४॥१॥११७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रीतम = हे प्रीतम! बिनउ = विनती (विनय)। मांगतु = मांगता है।4।
अर्थ: हे प्यारे प्रीतम प्रभु! (मेरे पर) कृपा कर तथा (मुझे) मिल। हे सबसे ऊँचे और बेअंत प्रभु! (मेरी ये) विनती सुन। (तेरा दास) नानक (तुझसे तेरा) नाम (ही जिंदगी का) आसरा मांगता है।4।1।117।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गउड़ी बैरागणि’ का ये पहला शब्द है। अंक1 यही दर्शाता है। इससे आगे ‘गउड़ी पूरबी’ के शब्द आरम्भ होते हैं।
[[0204]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी पूरबी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी पूरबी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवन गुन प्रानपति मिलउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कवन गुन प्रानपति मिलउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रानपति = जीवात्मा का मालिक प्रभु। मिलउ = मैं मिलूँ। माई = हे माँ!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी माँ! मैं कौन से गुणों के बल पर अपनी जीवात्मा के मालिक प्रभु को मिल सकूँ? (मेरे में तो कोई भी गुण नहीं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूप हीन बुधि बल हीनी मोहि परदेसनि दूर ते आई ॥१॥
मूलम्
रूप हीन बुधि बल हीनी मोहि परदेसनि दूर ते आई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हीन = खाली। बुधि हीनी = अक्ल से खाली। मोहि = मैं। दूर ते = दूर से, अनेक जूनियों के सफर को पार करके।1।
अर्थ: (हे मेरी माँ!) मैं आत्मिक रूप से खाली हूँ, बुद्धि हीन हूँ, (मेरे अंदर आत्मिक) शक्ति भी नहीं है (फिर) मैं परदेसन हूँ (मैंने प्रभु चरणों को कभी भी अपनी घर नहीं बनाया) अनेको जूनियों की यात्रा पार कर के (इस मानव जन्म में) आई हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहिन दरबु न जोबन माती मोहि अनाथ की करहु समाई ॥२॥
मूलम्
नाहिन दरबु न जोबन माती मोहि अनाथ की करहु समाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाहिन = नहीं। दरबु = धन। जोबन = जवानी। माती = मस्त। समाई = लीनता। करहु समाई = लीन करो, अपने चरणों में जोड़ लो।2।
अर्थ: (हे मेरे प्राणपति!) मेरे पास तेरा नाम-धन नहीं है, मेरे अंदर आत्मिक गुणों का जोबन भी नहीं जिसका मुझे हुलारा आ सके (और मैं गर्व कर सकूँ)। मुझ अनाथ को अपने चरणों में जोड़ ले।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खोजत खोजत भई बैरागनि प्रभ दरसन कउ हउ फिरत तिसाई ॥३॥
मूलम्
खोजत खोजत भई बैरागनि प्रभ दरसन कउ हउ फिरत तिसाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बैरागनि = वैरागमयी। कउ = को, वास्ते। तिसाई = तिहाई, प्यासी।3।
अर्थ: (हे मेरी माँ!) अपने प्राणपति प्रभु के दर्शनों के लिए मैं प्यासी फिर रही हूँ, उसे ढूँढती-ढूँढती मैं कमली हुई पड़ी हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआल क्रिपाल प्रभ नानक साधसंगि मेरी जलनि बुझाई ॥४॥१॥११८॥
मूलम्
दीन दइआल क्रिपाल प्रभ नानक साधसंगि मेरी जलनि बुझाई ॥४॥१॥११८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जलनि = जलन, विछुड़ने की जलन। साध संगि = साधु-संगत ने। संगि = संग ने।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे दीनों पर दया करने वाले! हे कृपा के घर! हे प्रभु! (तेरी मेहर से) साधु-संगत ने मेरी ये विछोड़े की जलन बुझा दी है।4।1।118।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ प्रभ मिलबे कउ प्रीति मनि लागी ॥ पाइ लगउ मोहि करउ बेनती कोऊ संतु मिलै बडभागी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ प्रभ मिलबे कउ प्रीति मनि लागी ॥ पाइ लगउ मोहि करउ बेनती कोऊ संतु मिलै बडभागी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलबे कउ = मिलने के वास्ते। मनि = मन में। पाइ = पैरों में। लगउ = मैं लगूँ। करउ = मैं करूँ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे बहिन!) परमात्मा को मिलने के लिए मेरे मन में प्रीति पैदा हो गई है। (परमात्मा के साथ मिला सकने वाला अगर) बड़े भाग्यों वाला (गुरु-) संत मुझे मिल जाए तो मैं उसके पैर लगूँ। मैं उसके समक्ष बिनती करूँ (कि मुझे परमात्मा से मिला दे)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनु अरपउ धनु राखउ आगै मन की मति मोहि सगल तिआगी ॥ जो प्रभ की हरि कथा सुनावै अनदिनु फिरउ तिसु पिछै विरागी ॥१॥
मूलम्
मनु अरपउ धनु राखउ आगै मन की मति मोहि सगल तिआगी ॥ जो प्रभ की हरि कथा सुनावै अनदिनु फिरउ तिसु पिछै विरागी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अरपउ = मैं हवाले कर दूँ। मति = अक्ल, चतुराई। मोहि = मैं। अनदिनु = हर रोज। विरागी = बउरी, प्यार में पागल हुई।1।
अर्थ: (हे बहिन!) जो (बड़े भाग्य वाला संत मुझे) परमात्मा के महिमा की बातें मुझे सुनाता रहे, मैं हर वक्त उसके पीछे-पीछे प्रेम में कमली हुई फिरती रहूँ। मैं अपना मन उसके हवाले कर दूँ, मैं अपना धन उसके आगे रख दूँ। (हे बहिन!) मैंने अपने मन की सारी चतुराई छोड़ दी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरब करम अंकुर जब प्रगटे भेटिओ पुरखु रसिक बैरागी ॥ मिटिओ अंधेरु मिलत हरि नानक जनम जनम की सोई जागी ॥२॥२॥११९॥
मूलम्
पूरब करम अंकुर जब प्रगटे भेटिओ पुरखु रसिक बैरागी ॥ मिटिओ अंधेरु मिलत हरि नानक जनम जनम की सोई जागी ॥२॥२॥११९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पूरब करम अंकुर = पहिले जन्म में किए हुए कर्मों के संस्कारों के अंगूर। प्रगटे = प्रगट हो गए। रसिक = (सब जीवों में व्यापक हो के) रस का आनंद लेने वाला। बैरागी = विरक्त, निर्लिप। अंधेरु = अंधेरा। मिलत = मिलने से। सोई = सोई हुई।2।
अर्थ: हे नानक! (कह:) पहले जन्मों में किए भले कर्मों के संस्कारों के अंगूर जिस जीव-स्त्री के प्रकट हो गए, उसको वह सर्व-व्यापक प्रभु मिल पड़ा है। जो सभी जीवों में बैठा सभी रस भोगने वाला है ओर जो रसों से निर्लिप भी है। परमात्मा को मिलते ही उस जीव-स्त्री के अंदर से मोह का अंधकार दूर हो जाता है। वह अनेक जन्मों से माया के मोह में सोई हुई जाग पड़ती है।2।2।119।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ निकसु रे पंखी सिमरि हरि पांख ॥ मिलि साधू सरणि गहु पूरन राम रतनु हीअरे संगि राखु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ निकसु रे पंखी सिमरि हरि पांख ॥ मिलि साधू सरणि गहु पूरन राम रतनु हीअरे संगि राखु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निकसु = (बाहर) निकल। हे = हे! पंखी = पक्षी। पांख = पंख। साधू = गुरूं। मिलि = मिल के। गहु = पकड़। हीअरे संगि = हृदय के साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे जीव-पक्षी! (माया के मोह के घोंसले से बाहर) निकल। परमात्मा का स्मरण कर। (प्रभु का स्मरण) पंख हैं (इन पंखों की मदद से ही तू मोह के घोसले से उड़ के बाहर जा सकेगा)। (हे भाई!) गुरु को मिल के पूरन प्रभु का आसरा ले, परमात्मा नाम-रत्न अपने हृदय में (संभाल के) रख।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रम की कूई त्रिसना रस पंकज अति तीख्यण मोह की फास ॥ काटनहार जगत गुर गोबिद चरन कमल ता के करहु निवास ॥१॥
मूलम्
भ्रम की कूई त्रिसना रस पंकज अति तीख्यण मोह की फास ॥ काटनहार जगत गुर गोबिद चरन कमल ता के करहु निवास ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रम = माया की खातिर भटकना। कूई = कूप, कूआँ। पंकज = कीचड़। तीख्ण = तीक्ष्ण, तीखी, तेज। फास = फांसी। ता के चरन कमल = उसके सुंदर चरणों में।1।
अर्थ: (हे भाई! माया की खातिर) भटकना का कूआँ है, माया की तृष्णा और विकारों के चस्के (उस कूएं में) कीचड़ हैं, (जीवों के गले में पड़ी हुई) मोह की फाँसी बड़ी पक्की (तीखी) है। इस फांसी के काटने के काबिल जगत का गुरु गोबिंद ही है। (हे भाई!) उस गोबिंद के चरण-कमलों में निवास किए रह।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा गोबिंद प्रभ प्रीतम दीना नाथ सुनहु अरदासि ॥ करु गहि लेहु नानक के सुआमी जीउ पिंडु सभु तुमरी रासि ॥२॥३॥१२०॥
मूलम्
करि किरपा गोबिंद प्रभ प्रीतम दीना नाथ सुनहु अरदासि ॥ करु गहि लेहु नानक के सुआमी जीउ पिंडु सभु तुमरी रासि ॥२॥३॥१२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि किरपा = कृपा कर। करु = हाथ। गहि लेहु = पकड़ लो। जीउ = जीवात्मा, जिंद। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत।2।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘करि’ क्रिया है, जबकि ‘करु’ संज्ञा है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे गोबिंद! हे प्रीतम प्रभु! हे गरीबों के मालिक! हे नानक के स्वामी! मेहर कर, मेरी बिनती सुन, मेरा हाथ पकड़ ले (और मुझे इस कूएं में से निकाल ले) मेरी ये जीवात्मा तेरी दी हुई राशि है, मेरा ये शरीर तेरी बख्शी हुई पूंजी है (इस राशि-पूंजी को मोह के हाथों उजड़ने से तू स्वयं ही बचा ले)।2।3।120।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हरि पेखन कउ सिमरत मनु मेरा ॥ आस पिआसी चितवउ दिनु रैनी है कोई संतु मिलावै नेरा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हरि पेखन कउ सिमरत मनु मेरा ॥ आस पिआसी चितवउ दिनु रैनी है कोई संतु मिलावै नेरा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेखन कउ = देखने के लिए। आस पिआसी = (दर्शन की) आस से व्याकुल। चितवउ = मैं याद करती हूँ। रैनी = रात। नेरा = नजदीक।1। रहाउ।
अर्थ: (हे बहिन!) प्रभु पति का दर्शन करने के लिए मेरा मन उसका स्मरण कर रहा है। उसके दर्शन की आस से व्याकुल हुई मैं दिन रात उसका नाम याद करती रहती हूँ। (हे बहिन! मुझे) कोई ऐसा संत (मिल जाए, जो मुझे उस प्रभु-पति से) नजदीक ही मिला दे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवा करउ दास दासन की अनिक भांति तिसु करउ निहोरा ॥ तुला धारि तोले सुख सगले बिनु हरि दरस सभो ही थोरा ॥१॥
मूलम्
सेवा करउ दास दासन की अनिक भांति तिसु करउ निहोरा ॥ तुला धारि तोले सुख सगले बिनु हरि दरस सभो ही थोरा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = मैं करूँ। निहोरा = मिन्नतें। तुला = तराजू। धारि = रख के। सगले = सारे। सभो ही = सुखों का ये सारा इकट्ठ। थोरा = कम, हलका।1।
अर्थ: (हे बहिन! अगर वह गुरु संत मिल जाए तो) मैं उसके दासों की सेवा करूँ, मैं अनकों तरीकों से उसके आगे मिन्नतें करूँ। (हे बहिन!) तराजू पे रख के मैंने (दुनिया के) सारे सुख तोले हैं, प्रभु-पति के दर्शनों के बिना ये सारे ही सुख (तेरे दर्शन के सुख से) हल्के हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि गाए गुन सागर जनम जनम को जात बहोरा ॥ आनद सूख भेटत हरि नानक जनमु क्रितारथु सफलु सवेरा ॥२॥४॥१२१॥
मूलम्
संत प्रसादि गाए गुन सागर जनम जनम को जात बहोरा ॥ आनद सूख भेटत हरि नानक जनमु क्रितारथु सफलु सवेरा ॥२॥४॥१२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु संत की कृपा से। सागर = समुंदर। जनम जनम को जात = अनेक जन्मों का भटकता फिरता। बहोरा = मोड़ लाए। भेटत हरि = हरि को मिलने से। क्रितारथु = कृत+अर्थ, जिसकी जरूरत सफल हो गई। सवेरा = समय सिर।2।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य गुरु की कृपा से गुणों के समुंदर परमात्मा के गुण गाता है (गुरु परमेश्वर उसे) अनेक जन्मों के भटकते को (जनम-जनम के चक्करों में से) वापस ले आता है। हे नानक! परमात्मा को मिलने से बेअंत सुख आनंद प्राप्त हो जाते हैं, मानव जनम का उद्देश्य पूरा हो जाता है। जनम समय रहते (इसी जन्म में) सफल हो जाता है।2।4।121।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये ऊपर के 4 शब्द ‘गउड़ी पूरबी’ के हैं। पर इन्हें किसी खास ‘घर’ में गाने की हिदायत नहीं दी गई। आगे भी ‘गउड़ी पूरबी’ के ही शब्द हैं। पर वह अलग संग्रह में रखे गए हैं। उनके वास्ते ‘घर’ १, २ आदि नियत किया गया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी पूरबी१ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी पूरबी१ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किन बिधि मिलै गुसाई मेरे राम राइ ॥ कोई ऐसा संतु सहज सुखदाता मोहि मारगु देइ बताई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
किन बिधि मिलै गुसाई मेरे राम राइ ॥ कोई ऐसा संतु सहज सुखदाता मोहि मारगु देइ बताई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किन बिधि = किन तरीकों से? गुसाई = सृष्टि के मालिक। राम राइ = हे प्रभु पातशाह! सहज = आत्मिक अडोलता। मोहि = मुझे। मारगु = रास्ता।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रभु बादशाह! मुझे धरती का पति प्रभु किन तरीकों से मिल सकता है? आत्मिक अडोलता का आनंद देने वाला कोई ऐसा संत मुझे मिल जाए, जो मुझे रास्ता बता दे।1। रहाउ।
[[0205]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरि अलखु न जाई लखिआ विचि पड़दा हउमै पाई ॥ माइआ मोहि सभो जगु सोइआ इहु भरमु कहहु किउ जाई ॥१॥
मूलम्
अंतरि अलखु न जाई लखिआ विचि पड़दा हउमै पाई ॥ माइआ मोहि सभो जगु सोइआ इहु भरमु कहहु किउ जाई ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरि = (जीव) के अंदर। अलखु = अदृश्य प्रभु! पाई = पाया हुआ है। मोहि = मोह में।1।
अर्थ: (हरेक जीव के) अंदर अदृश्य प्रभु बसता है। पर (जीव को) ये समझ नहीं आ सकती, क्योंकि (जीव के अंदर) अहंकार का पर्दा पड़ा हुआ है। सारा जगत ही माया के मोह में सोया पड़ा है। (हे भाई!) बता, (जीव की) ये भटकना कैसे दूर हो?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एका संगति इकतु ग्रिहि बसते मिलि बात न करते भाई ॥ एक बसतु बिनु पंच दुहेले ओह बसतु अगोचर ठाई ॥२॥
मूलम्
एका संगति इकतु ग्रिहि बसते मिलि बात न करते भाई ॥ एक बसतु बिनु पंच दुहेले ओह बसतु अगोचर ठाई ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इकतु ग्रिहि = एक ही घर में। भाई = हे भाई! पंच = पाँचों ज्ञानेंद्रियां। दुहेले = दुखी। अगोचर = अ+गो+चर, ज्ञानेंद्रियों की पहुँच से परे। ठाइ = जगह में।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओह’ शब्द स्त्रीलिंग है, शब्द ‘बसतु’ का विशेषण।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई! आत्मा और परमात्मा की) एक ही संगति है, दोनों एक ही (हृदय-) घर में बसते हैं, पर (आपस में) मिल के (कभी) बात नहीं करते। एक (नाम) पदार्थ के बिना (जीव के) पाँचों ज्ञानेंद्रियां दुखी रहती हैं। वह (नाम) पदार्थ ऐसी जगह में है, जहाँ ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस का ग्रिहु तिनि दीआ ताला कुंजी गुर सउपाई ॥ अनिक उपाव करे नही पावै बिनु सतिगुर सरणाई ॥३॥
मूलम्
जिस का ग्रिहु तिनि दीआ ताला कुंजी गुर सउपाई ॥ अनिक उपाव करे नही पावै बिनु सतिगुर सरणाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ताला = ताला। गुर सउपाई = गुरु को सौंपी हुई है।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस हरि का ये बनाया हुआ (शरीर) घर है, उसने ही (मोह का) ताला मारा हुआ है, और चाबी गुरु को सौंप दी है। गुरु की शरण पड़े बिना जीव और-और अनेक उपाय करता है, (पर उन कोशिशों से परमात्मा को) नहीं ढूँढ सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन के बंधन काटे सतिगुर तिन साधसंगति लिव लाई ॥ पंच जना मिलि मंगलु गाइआ हरि नानक भेदु न भाई ॥४॥
मूलम्
जिन के बंधन काटे सतिगुर तिन साधसंगति लिव लाई ॥ पंच जना मिलि मंगलु गाइआ हरि नानक भेदु न भाई ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुर = हे सतिगुरु! लिव = लगन, प्रीति। पंच जना = पाँचों ज्ञानेंद्रियों ने। मंगलु = खुशी के गीत। भेदु = फर्क। भाई = हे भाई!।4।
अर्थ: हे सतिगुरु! जिस के (माया के) बंधन तूने काट दिए, उन्होंने साधु-संगत में टिक के (प्रभु से) प्रीति बनाई। हे नानक! (कह:) उनके पाँचों ज्ञानेंद्रियों ने मिल के महिमा का गीत गाया। हे भाई! उनमें और हरि में कोई फर्क ना रहा।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे राम राइ इन बिधि मिलै गुसाई ॥ सहजु भइआ भ्रमु खिन महि नाठा मिलि जोती जोति समाई ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥१२२॥
मूलम्
मेरे राम राइ इन बिधि मिलै गुसाई ॥ सहजु भइआ भ्रमु खिन महि नाठा मिलि जोती जोति समाई ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥१२२॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे पातशाह! इन तरीकों से धरती का पति परमात्मा मिलता है। जिस मनुष्य को आत्मिक अडोलता प्राप्त हो गई है, उसकी (माया की खातिर) भटकना एक पल में दूर हो गई। उसकी ज्योति प्रभु में मिल के प्रभु में ही लीन हो गई।1। रहाउ दूसरा।1।122।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘गउड़ी पूरबी घर१ का ये पहला शब्द है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ ऐसो परचउ पाइओ ॥ करी क्रिपा दइआल बीठुलै सतिगुर मुझहि बताइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ ऐसो परचउ पाइओ ॥ करी क्रिपा दइआल बीठुलै सतिगुर मुझहि बताइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परचउ = परिचय, सांझ, मित्रता। बीठुलै = बीठुल ने। बीठल = (विष्ठल, वि+स्थल = परे+टिका हुआ) अर्थात माया के प्रभाव से परे टिका हुआ। सतिगुर = गुरु का (पता)।1। रहाउ।
अर्थ: (परमात्मा के साथ मेरी) ऐसी सांझ बन गई कि उस माया के प्रभाव से परे टिके हुए दयाल प्रभु ने मेरे ऊपर कृपा की और मुझे गुरु का पता बता दिया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जत कत देखउ तत तत तुम ही मोहि इहु बिसुआसु होइ आइओ ॥ कै पहि करउ अरदासि बेनती जउ सुनतो है रघुराइओ ॥१॥
मूलम्
जत कत देखउ तत तत तुम ही मोहि इहु बिसुआसु होइ आइओ ॥ कै पहि करउ अरदासि बेनती जउ सुनतो है रघुराइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जत कत = जिधर किधर। देखउ = मैं देखता हूँ। मोहि = मुझे। बिसुआसु = विश्वास, यकीन, निश्चय। कै पहि = किस के पास? करउ = करूँ। जउ = जब।1।
अर्थ: (गुरु की सहायता से अब) मुझे ये विश्वास हो गया है कि मैं जिधर भी देखता हूँ, हे प्रभु! मुझे तू ही तू दिखाई देता है। (हे भाई! मुझे यकीन हो गया है कि) जब परमात्मा स्वयं (जीवों की अरदास विनती) सुनता है तो मैं (उसके बिना और) किस के पास आरजू करूँ, विनती करूँ?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लहिओ सहसा बंधन गुरि तोरे तां सदा सहज सुखु पाइओ ॥ होणा सा सोई फुनि होसी सुखु दुखु कहा दिखाइओ ॥२॥
मूलम्
लहिओ सहसा बंधन गुरि तोरे तां सदा सहज सुखु पाइओ ॥ होणा सा सोई फुनि होसी सुखु दुखु कहा दिखाइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लहिओ = उतर गया। सहसा = संशय, फिक्र। गुरि = गुरु ने। तोरे = तोड़ दिए। सहज = आत्मिक अडोलता। सा = था। होसी = होगा।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने (जिस मनुष्य के माया के) बंधन तोड़ दिए, उसका सारा सहम-फिक्र दूर हो गया, तब उसने सदा के लिए आत्मिक अडोलता का आनंद प्राप्त कर लिया। (उसे यकीन बन गया कि प्रभु की रजा के अनुसार) जो कुछ होना था, वही होगा (उसके हुक्म के बिना) कोई सुख या कोई दुख कहीं भी दिखाई नहीं दे सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खंड ब्रहमंड का एको ठाणा गुरि परदा खोलि दिखाइओ ॥ नउ निधि नामु निधानु इक ठाई तउ बाहरि कैठै जाइओ ॥३॥
मूलम्
खंड ब्रहमंड का एको ठाणा गुरि परदा खोलि दिखाइओ ॥ नउ निधि नामु निधानु इक ठाई तउ बाहरि कैठै जाइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाणा = ठिकाना, स्थान। गुरि = गुरु ने। खोलि = खोल के। निधि = खजाना। निधानु = खजाना। इक ठाई = एक ही जगह में, इकट्ठे। कैठै = किस स्थान पर? कहाँ? 3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने (जिस मनुष्य के अंदर से अहंकार के) पर्दे खोल के परमात्मा के दर्शन करा दिए, उसे परमात्मा के सारे खण्डों-ब्रहमण्डों का एक ही ठिकाना दिखाई देता है।
जिस मनुष्य के हृदय में ही (गुरु की कृपा से) जगत के नौ ही खजानों का रूप प्रभु-नाम-खजाना आ बसे, उसे बाहर भटकने की जरूरत नहीं रहती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकै कनिक अनिक भाति साजी बहु परकार रचाइओ ॥ कहु नानक भरमु गुरि खोई है इव ततै ततु मिलाइओ ॥४॥२॥१२३॥
मूलम्
एकै कनिक अनिक भाति साजी बहु परकार रचाइओ ॥ कहु नानक भरमु गुरि खोई है इव ततै ततु मिलाइओ ॥४॥२॥१२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कनिक = सोना। साजी = बनाई, रची। गुरि = गुरु ने। इव = इस तरह। ततै = मूलतत्तव में।4।
अर्थ: (हे भाई! जैसे) एक सोने से सुनियारे ने गहनों की अनेक किस्मों के बनतर (रूप) बना दिए, वैसे ही परमात्मा ने कई किस्म की ये जगत रचना रच दी है।
हे नानक! कह: गुरु ने जिस मनुष्य का भ्रम-भुलेखा दूर कर दिया, उसको उसी तरह का हरेक तत्व (मूल-) तत्व (प्रभु) में मिलता दिखता है (जैसे अनेक रूपों के गहने फिर सोने में ही मिल जाते हैं)।4।2।123।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी२ महला ५ ॥ अउध घटै दिनसु रैनारे ॥ मन गुर मिलि काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी२ महला ५ ॥ अउध घटै दिनसु रैनारे ॥ मन गुर मिलि काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउध = उम्र। रैना = रात। रे = हे भाई! मन = हे मन! मिलि = मिल के। सवारे = सवार।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (तेरी) उम्र (एक-एक) दिन (एक-एक) रात करके घटती जा रही है। हे मन! (जिस काम के लिए तू जगत में आया है, अपने उस) काम को गुरु को मिल के पूरा कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करउ बेनंती सुनहु मेरे मीता संत टहल की बेला ॥ ईहा खाटि चलहु हरि लाहा आगै बसनु सुहेला ॥१॥
मूलम्
करउ बेनंती सुनहु मेरे मीता संत टहल की बेला ॥ ईहा खाटि चलहु हरि लाहा आगै बसनु सुहेला ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। मीता = हे मित्र! बेला = वेला, समय। ईहा = यहाँ, इस लोक में। लाहा = लाभ। आगै = परलोक में। सुहेला = आसान। बसनु = बसेरा, वास।1।
अर्थ: हे मेरे मित्र! सुन, मैं (तेरे आगे) विनती करता हूँ (ये मानव जन्म) संतों की टहल करने का समय है। यहाँ से हरि नाम का लाभ कमा के चल, परलोक में सुखदायी बसेरा प्राप्त होगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु संसारु बिकारु सहसे महि तरिओ ब्रहम गिआनी ॥ जिसहि जगाइ पीआए हरि रसु अकथ कथा तिनि जानी ॥२॥
मूलम्
इहु संसारु बिकारु सहसे महि तरिओ ब्रहम गिआनी ॥ जिसहि जगाइ पीआए हरि रसु अकथ कथा तिनि जानी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहसे महि = चिन्ता-फिक्र में। ब्रहम गिआनी = परमात्मा के साथ गहरी सांझ पाने वाला। जिसहि = जिस मनुष्य को। पीआए = पिलाता। अकथ कथा = उस परमात्मा की महिमा जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। तिनि = उस (मनुष्य) ने।2।
अर्थ: (हे भाई!) ये जगत विकार-रूप बना हुआ है (विकारों से भरपूर है, विकारों में फंस के जीव) चिन्ता-फिक्रों में (डूबे रहते हैं)। जिस मनुष्य ने परमात्मा के साथ गहरी सांझ बना ली है, वह (इस संसार समुंदर में से) पार लांघ जाते हैं। जिस मनुष्य को (परमात्मा विकारों की नींद में से) सुचेत करता है, उसे अपना हरि-नाम-रस पिलाता है। उस मनुष्य ने फिर उस परमात्मा की महिमा के साथ गहरी सांझ डाल ली है जिसका मुकम्मल स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ आए सोई विहाझहु हरि गुर ते मनहि बसेरा ॥ निज घरि महलु पावहु सुख सहजे बहुरि न होइगो फेरा ॥३॥
मूलम्
जा कउ आए सोई विहाझहु हरि गुर ते मनहि बसेरा ॥ निज घरि महलु पावहु सुख सहजे बहुरि न होइगो फेरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिसकी खातिर। विहाझहु = खरीदो। ते = से। गुर ते = गुरु की सहायता से। मनहि = मन में। हरि बसेरा = हरि का निवास। निज घरि = अपने हृदय घर में। महलु = परमात्मा का ठिकाना।3।
अर्थ: हे भाई! जिस (नाम पदार्थ के खरीदने) के लिए (जगत में) आए हो, वह सौदा खरीदो। गुरु की कृपा से ही परमात्मा का वास मन में हो सकता है। हे भाई! (गुरु की शरण पड़ कर) आत्मिक अडोकलता के आनंद में टिक के अपने हृदय घर में परमात्मा का ठिकाना ढूँढो। इस तरह दुबारा जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ेगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरजामी पुरख बिधाते सरधा मन की पूरे ॥ नानकु दासु इही सुखु मागै मो कउ करि संतन की धूरे ॥४॥३॥१२४॥
मूलम्
अंतरजामी पुरख बिधाते सरधा मन की पूरे ॥ नानकु दासु इही सुखु मागै मो कउ करि संतन की धूरे ॥४॥३॥१२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिधाते = हे कर्तार! पूरे = पूरी कर। मो कउ = मुझे। धूरे = धूरि, चरण धूल।4।
अर्थ: हे अंतरजामी सर्व-व्यापक कर्तार! मेरे मन की श्रद्धा पूरी कर। तेरा दास नानक तुझसे यही सुख मांगता है कि मुझे संत जनों के चरणों की धूल बना दे।4।3।124।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ राखु पिता प्रभ मेरे ॥ मोहि निरगुनु सभ गुन तेरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ राखु पिता प्रभ मेरे ॥ मोहि निरगुनु सभ गुन तेरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मुझे। निरगुनु = गुण हीन।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मित्र प्रभु! मुझ गुण-हीन को बचा ले। सारे गुण तेरे (वश में हैं, जिस पे मेहर करे, उसी को मिलते हैं। मुझे भी अपने गुण बख्श और अवगुणों से बचा ले)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच बिखादी एकु गरीबा राखहु राखनहारे ॥ खेदु करहि अरु बहुतु संतावहि आइओ सरनि तुहारे ॥१॥
मूलम्
पंच बिखादी एकु गरीबा राखहु राखनहारे ॥ खेदु करहि अरु बहुतु संतावहि आइओ सरनि तुहारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखादी = (विषादिन्) झगड़ालू, दिल को तोड़ने वाले। खेदु = दुख-कष्ट। अरु = और।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘अरु’ और ‘अरि’ में फर्क याद रखना (अरि = वैरी; अरु = और)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे सहायता करने के समर्थ प्रभु! मैं गरीब अकेला हूँ और मेरे वैरी कामादिक पाँच हैं। मेरी सहायता कर, मैं तेरी शरण आया हूँ। ये पाँचों मुझे दुख देते हैं और बहुत सताते हैं।1।
[[0206]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि करि हारिओ अनिक बहु भाती छोडहि कतहूं नाही ॥ एक बात सुनि ताकी ओटा साधसंगि मिटि जाही ॥२॥
मूलम्
करि करि हारिओ अनिक बहु भाती छोडहि कतहूं नाही ॥ एक बात सुनि ताकी ओटा साधसंगि मिटि जाही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कतहूं = कहीं भी। सुनि = सुन के। ताकी = देखूँ, उसकी। ओटा = आसरा। संगि = संगति में।2।
अर्थ: (हे पिता प्रभु! इन पाँचों बिखादियों से बचने के लिए) मैं अनेक और कई किस्मों के प्रयत्न कर कर के थक गया हूँ। ये किसी तरह भी मेरा छुटकारा नहीं करते। एक ये बात सुन के कि साधु-संगत में रहने से ये खत्म हो जाते हैं, मैंने तेरी साधु-संगत का आसरा लिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा संत मिले मोहि तिन ते धीरजु पाइआ ॥ संती मंतु दीओ मोहि निरभउ गुर का सबदु कमाइआ ॥३॥
मूलम्
करि किरपा संत मिले मोहि तिन ते धीरजु पाइआ ॥ संती मंतु दीओ मोहि निरभउ गुर का सबदु कमाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मुझे। तिन ते = उन (संतों) से। संती = संतों ने। मंतु = उपदेश।3।
अर्थ: (साधु-संगत में) कृपा करके मुझे तेरे संत जन मिल गए, उनसे मुझे हौसला मिला है। संतों ने मुझे (इन पाँच बिखादियों से) निडर करने वाला उपदेश दिया है और मैंने गुरु का शब्द अपने जीवन में धारण किया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीति लए ओइ महा बिखादी सहज सुहेली बाणी ॥ कहु नानक मनि भइआ परगासा पाइआ पदु निरबाणी ॥४॥४॥१२५॥
मूलम्
जीति लए ओइ महा बिखादी सहज सुहेली बाणी ॥ कहु नानक मनि भइआ परगासा पाइआ पदु निरबाणी ॥४॥४॥१२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओइ = वह। सहज = आत्मिक अडोलता। सुहेली = सुखदाई। मनि = मन में। परगासा = रौशनी। पदु = दर्जा। निरबाणी = निर्वाण, वासना रहित।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: गुरु की आत्मिक अडोलता देने वाली, और सुख देने वाली वाणी की इनायत से मैंने उन पाँचों बड़े झगड़ालुओं पर जीत हासिल कर ली है। हे नानक! (अब) कह: मेरे मन में आत्मिक प्रकाश हो गया है, मैंने वह आत्मिक दर्जा प्राप्त कर लिया है, जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती।4।4।125।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ ओहु अबिनासी राइआ ॥ निरभउ संगि तुमारै बसते इहु डरनु कहा ते आइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ ओहु अबिनासी राइआ ॥ निरभउ संगि तुमारै बसते इहु डरनु कहा ते आइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राइआ = राजा। संगि तुमारै = तेरे साथ। कहा ते = कहाँ से?।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु! तू एक) वह राजा है जो कभी नाश होने वाला नहीं। जो जीव तेरे चरणों में टिके रहते हैं, वे निडर हो जाते हैं, उन्हें किसी भी तरह का कहीं से भी कोई डर-खौफ नहीं रहता। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक महलि तूं होहि अफारो एक महलि निमानो ॥ एक महलि तूं आपे आपे एक महलि गरीबानो ॥१॥
मूलम्
एक महलि तूं होहि अफारो एक महलि निमानो ॥ एक महलि तूं आपे आपे एक महलि गरीबानो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महलि = शरीर में। अफारो = अहंकारी। निमानो = मान रहित। आपे आपे = स्वयं ही स्वयं, पूरा मालिक, सर्व-श्क्तिमान।1।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरे चरणों में टिके रहने वालों को यकीन है कि) एक (मनुष्य के) शरीर में तू (खुद ही) अहंकारी बना है और एक (दूसरे) शरीर में तू विनम्र स्वभाव का है। एक शरीर में तू स्वयं ही सब इख्तियार वाला है और एक (दूसरे) शरीर में तू गरीब कंगाल है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक महलि तूं पंडितु बकता एक महलि खलु होता ॥ एक महलि तूं सभु किछु ग्राहजु एक महलि कछू न लेता ॥२॥
मूलम्
एक महलि तूं पंडितु बकता एक महलि खलु होता ॥ एक महलि तूं सभु किछु ग्राहजु एक महलि कछू न लेता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बकता = वक्ता, अच्छा बोलने वाला। खलु = मूर्ख। ग्राहजु = ले लेने वाला।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) एक (मनुष्य के) शरीर में तू बढ़िया वक्ता विद्वान है और एक शरीर में तू मूर्ख बना हुआ है। एक शरीर में (बैठ के तू गरीबों, कमजोरों से) सब कुछ (छीन के अपने पास) इकट्ठा करने वाला है, और एक शरीर में तू (विरक्त बन के) कोई चीज भी अंगीकार नहीं करता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काठ की पुतरी कहा करै बपुरी खिलावनहारो जानै ॥ जैसा भेखु करावै बाजीगरु ओहु तैसो ही साजु आनै ॥३॥
मूलम्
काठ की पुतरी कहा करै बपुरी खिलावनहारो जानै ॥ जैसा भेखु करावै बाजीगरु ओहु तैसो ही साजु आनै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पुतरी = पुतली। कहा करै = क्या कर सकती है? भेख = स्वांग। साजु = बनावट। आनै = लाता है।3।
अर्थ: (पर हे भाई!) ये जीव बिचारा काठ की पुतली है, इसे खिलाने वाला प्रभु ही जानता है कि इसे कैसे नचा रहा है। (बाजी खिलाने वाला प्रभु) बाजीगर जैसा स्वांग रचाता है, वह जीव वैसा ही स्वांग रचता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक कोठरी बहुतु भाति करीआ आपि होआ रखवारा ॥ जैसे महलि राखै तैसै रहना किआ इहु करै बिचारा ॥४॥
मूलम्
अनिक कोठरी बहुतु भाति करीआ आपि होआ रखवारा ॥ जैसे महलि राखै तैसै रहना किआ इहु करै बिचारा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करीआ = बनाई। तैसै = वैसे (महल) में। इहु = ये जीव।4।
अर्थ: प्रभु ने (जगत में बेअंत जूनियों के जीवों की) अनेक (शरीर-) कोठड़ियां कई किस्म की बना दी हैं और प्रभु स्वयं ही (सब का) रक्षक बना हुआ है। ये बिचारा जीव (अपने आप) कुछ भी करने के लायक नहीं है। जैसे शरीर में परमात्मा इसे रखता है, वैसे शरीर में इसको रहना पड़ता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि किछु कीआ सोई जानै जिनि इह सभ बिधि साजी ॥ कहु नानक अपर्मपर सुआमी कीमति अपुने काजी ॥५॥५॥१२६॥
मूलम्
जिनि किछु कीआ सोई जानै जिनि इह सभ बिधि साजी ॥ कहु नानक अपर्मपर सुआमी कीमति अपुने काजी ॥५॥५॥१२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। सभ बिधि = सारी रचना। साजी = रची। कीमत अपुनै काजी = अपने कामों की कीमत।5।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस परमात्मा ने ये जगत रचा है, जिस परमात्मा ने ये सारी खेल बनाई है, वही (इसके भेद को) जानता है। वह परमात्मा परे से परे है, (सारी रचना का) मालिक है, और वह अपने कामों की कद्र खुद ही जानता है।5।5।126।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी३ महला ५ ॥ छोडि छोडि रे बिखिआ के रसूआ ॥ उरझि रहिओ रे बावर गावर जिउ किरखै हरिआइओ पसूआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी३ महला ५ ॥ छोडि छोडि रे बिखिआ के रसूआ ॥ उरझि रहिओ रे बावर गावर जिउ किरखै हरिआइओ पसूआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! बिखिआ = माया। रसूआ = चसके। उरझि रहिओ = तू फसा पड़ा है। रे बावर गावर = हे पागल गवार! किरखै हरिआइओ = हरे खेत में।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! माया के चस्के छोड़ दे, छोड़ दे। हे पागल गवार! तू (इन चस्कों में ऐसे) मस्त हुआ पड़ा है, जैसे कोई पशु हरे-भरे खेत में मस्त (होता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जानहि तूं अपुने काजै सो संगि न चालै तेरै तसूआ ॥ नागो आइओ नाग सिधासी फेरि फिरिओ अरु कालि गरसूआ ॥१॥
मूलम्
जो जानहि तूं अपुने काजै सो संगि न चालै तेरै तसूआ ॥ नागो आइओ नाग सिधासी फेरि फिरिओ अरु कालि गरसूआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपुने काजै = अपने काम में आने वाला। तसूआ = तसू भर, रक्ती भी (तसू = एक इंच की दसवां हिस्सा)। सिधासी = तू चला जाएगा। फेरि = जोनियों के चक्कर में। कालि = काल ने, आत्मिक मौत ने।1।
अर्थ: (हे पागल!) जिस चीज को तू अपने काम आने वाली समझता है, वह रक्ती भर भी (अंत समय) तेरे साथ नहीं जाती। तू (जगत में) नंगा आया था (यहां से) नंगा ही चला जाएगा। तू (व्यर्थ ही योनियों के) चक्कर में फिर रहा है और तुझे आत्मिक मौत ने ग्रसा हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेखि पेखि रे कसु्मभ की लीला राचि माचि तिनहूं लउ हसूआ ॥ छीजत डोरि दिनसु अरु रैनी जीअ को काजु न कीनो कछूआ ॥२॥
मूलम्
पेखि पेखि रे कसु्मभ की लीला राचि माचि तिनहूं लउ हसूआ ॥ छीजत डोरि दिनसु अरु रैनी जीअ को काजु न कीनो कछूआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कसुंभ = कसुंभ का फूल, जिसका चटकीला रंग होता है, पर दो तीन दिनों में ही सड़ जाता है। पेखि = देख के। लीला = खेल। राचि माचि = रच मिच के, मस्त हो के। डोरि = डोरी (श्वासों की)। छीजत = कमजोर होती चली जी रही। रैनी = रात। जीअ को = जिंद का, जीवात्मा के काम आने वाला।2।
अर्थ: (हे पागल!) (ये माया की खेल) कसुंभ पुष्प की खेल (है, इसे) देख-देख के तू इसमें मस्त हो रहा है, और इन पदार्थों से खुश हो रहा है। दिन रात तेरी उर्म की डोरी कमजोर होती जा रही है। तूने अपनी जीवात्मा के काम आने वाला कोई भी काम नहीं किया।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करत करत इव ही बिरधानो हारिओ उकते तनु खीनसूआ ॥ जिउ मोहिओ उनि मोहनी बाला उस ते घटै नाही रुच चसूआ ॥३॥
मूलम्
करत करत इव ही बिरधानो हारिओ उकते तनु खीनसूआ ॥ जिउ मोहिओ उनि मोहनी बाला उस ते घटै नाही रुच चसूआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इव ही = ऐसे ही। बिरधानो = बूढ़ा हो रहा है। उकते = उक्ति, दलील, अकल। खीनसूआ = क्षीण हो रहा है। उनि = उस ने। मोहनी बाला = मोहने वाली माया स्त्री ने। ते = से। रचु = प्रेम। चसूआ = रक्ती भर भी।3।
अर्थ: (माया के धंधे) कर-कर के ऐसे ही मनुष्य बुड्ढा हो जाता है, अक्ल काम करने से रह जाती है, और शरीर क्षीण हो जाता है। जैसे (जवानी में) उस मोहनी माया ने इसे अपने मोह में फंसाया था, उसमें से इस की प्रीति रक्ती मात्र भी नहीं कम होती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगु ऐसा मोहि गुरहि दिखाइओ तउ सरणि परिओ तजि गरबसूआ ॥ मारगु प्रभ को संति बताइओ द्रिड़ी नानक दास भगति हरि जसूआ ॥४॥६॥१२७॥
मूलम्
जगु ऐसा मोहि गुरहि दिखाइओ तउ सरणि परिओ तजि गरबसूआ ॥ मारगु प्रभ को संति बताइओ द्रिड़ी नानक दास भगति हरि जसूआ ॥४॥६॥१२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मुझे। गुरहि = गुरु ने। तजि = त्याग के। गरबसूआ = गर्व, मान। मारगु = रास्ता। को = का। संति = संत ने। जसूआ = यश, महिमा।4।
अर्थ: हे दास नानक! कह: मुझे गुरु ने दिखा दिया है कि जगत (का मोह) ऐसा है। तब मैं (जगत का) मान त्याग के (गुरु की) शरण पड़ा हूँ। गुरु-संत ने मुझे परमात्मा के मिलने का राह बता दिया है और मैंने परमात्मा की भक्ति परमात्मा की महिमा अपने हृदय में पक्की कर ली है।4।6।127।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ तुझ बिनु कवनु हमारा ॥ मेरे प्रीतम प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ तुझ बिनु कवनु हमारा ॥ मेरे प्रीतम प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान अधारा = हे मेरे प्राणों के आसरे।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! हे मेरे प्राणों के आसरे प्रभु! तेरे बिना हमारा और कौन (सहारा) है?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतर की बिधि तुम ही जानी तुम ही सजन सुहेले ॥ सरब सुखा मै तुझ ते पाए मेरे ठाकुर अगह अतोले ॥१॥
मूलम्
अंतर की बिधि तुम ही जानी तुम ही सजन सुहेले ॥ सरब सुखा मै तुझ ते पाए मेरे ठाकुर अगह अतोले ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतर की बिधि = मेरे दिल की हालत। सुहेले = सुख देने वाले। ते = से। अगह = हे अगाह! हे अथाह प्रभु!।1।
अर्थ: हे मेरे अथाह और अडोल ठाकुर! मेरे दिल की हालत तू ही जानता है, तू ही मेरा सज्जन है; तू ही मुझे सुख देने वाला है। सारे सुख मैंने तुझसे ही पाए हैं।1।
[[0207]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरनि न साकउ तुमरे रंगा गुण निधान सुखदाते ॥ अगम अगोचर प्रभ अबिनासी पूरे गुर ते जाते ॥२॥
मूलम्
बरनि न साकउ तुमरे रंगा गुण निधान सुखदाते ॥ अगम अगोचर प्रभ अबिनासी पूरे गुर ते जाते ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगा = चोज, रंग। गुण निधान = हे गुणों के खजाने! गुर ते = गुरु से। जाते = पहचाना।2।
अर्थ: हे गुणों के खजाने प्रभु! हे सुख देने वाले प्रभु! हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे इन्द्रियों की पहुँच से परे प्रभु! हे अविनाशी प्रभु! पूरे गुरु के द्वारा ही तेरे साथ गहरी सांझ डल सकती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रमु भउ काटि कीए निहकेवल जब ते हउमै मारी ॥ जनम मरण को चूको सहसा साधसंगति दरसारी ॥३॥
मूलम्
भ्रमु भउ काटि कीए निहकेवल जब ते हउमै मारी ॥ जनम मरण को चूको सहसा साधसंगति दरसारी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रम = भटकना। निहकेवल = निष्कैवल्य, पवित्र, शुद्ध। जब ते = जब से। को = का। चूको = खत्म हो गया। दरसारी = दर्शनों से।3।
अर्थ: (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं वे गुरु की शरण पड़ कर) जब से (अपने अंदर से अहंकार दूर करते हैं), गुरु उनकी भटकना व डर दूर करके उन्हें पवित्र जीवन वाला बना देता है। साधु-संगत में (गुरु के) दर्शन की इनायत से उनके जनम मरण के चक्कर का सहम खत्म हो जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण पखारि करउ गुर सेवा बारि जाउ लख बरीआ ॥ जिह प्रसादि इहु भउजलु तरिआ जन नानक प्रिअ संगि मिरीआ ॥४॥७॥१२८॥
मूलम्
चरण पखारि करउ गुर सेवा बारि जाउ लख बरीआ ॥ जिह प्रसादि इहु भउजलु तरिआ जन नानक प्रिअ संगि मिरीआ ॥४॥७॥१२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पखारि = धो के। करउ = मैं करूँ। बारि जाउ = मैं कुर्बान जाऊँ। बरीआ = बारी। जिह प्रसादि = जिस (गुरु) की कृपा से। भउजलु = संसार समुंदर। मिरीआ = मिला।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) मैं (गुरु के) चरण धो के गुरु की सेवा करता हूँ। मैं (गुरु से) लाखों बार कुर्बान जाता हूँ, क्योंकि उस (गुरु) की कृपा से ही इस संसार समुंदर से पार लांघ सकते हैं और प्रीतम प्रभु (के चरणों) में जुड़ सकते हैं।4।7।128।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी४ महला ५ ॥ तुझ बिनु कवनु रीझावै तोही ॥ तेरो रूपु सगल देखि मोही ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी४ महला ५ ॥ तुझ बिनु कवनु रीझावै तोही ॥ तेरो रूपु सगल देखि मोही ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुझ बिनु = तेरे बिना, तेरी कृपा के बिना। रीझावै = प्रसन्न करे। तोही = तुझे। सगल = सारा संसार। मोही = मस्त हो जाती है।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा (सुंदर सर्व-व्यापक) रूप देख के सारी सृष्टि मस्त हो जाती है। तेरी मेहर के बिना तुझे कोई जीव प्रसन्न नहीं कर सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरग पइआल मिरत भूअ मंडल सरब समानो एकै ओही ॥ सिव सिव करत सगल कर जोरहि सरब मइआ ठाकुर तेरी दोही ॥१॥
मूलम्
सुरग पइआल मिरत भूअ मंडल सरब समानो एकै ओही ॥ सिव सिव करत सगल कर जोरहि सरब मइआ ठाकुर तेरी दोही ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पइआल = पाताल। मिरत = मातृ लोक। भूअ मंडल = भूमि के मण्डल, धरतियों के चक्कर, सारे ब्रहमण्ड। एकै ओही = एक वह परमात्मा ही। सिव = शिव, कल्याण स्वरूप। कर = दोनों हाथ। सरब मइआ = हे सब पर दया करने वाले! दोही = दुहाई, सहायता वास्ते पुकार। मइआ = दया।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘करु’ है एकवचन और ‘कर’ बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) स्वर्गलोक, पाताल लोक, मातृ लोक, सारा ब्रहमण्ड, सब में एक वह परमात्मा ही समाया हुआ है। हे सब पर दया करने वाले सबके ठाकुर सारे जीव तुझे ‘सुखों का दाता’ कह कह के (तेरे आगे) दोनों हाथ जोड़ते हैं, और तेरे दर पर ही सहायता के लिए पुकार करते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतित पावन ठाकुर नामु तुमरा सुखदाई निरमल सीतलोही ॥ गिआन धिआन नानक वडिआई संत तेरे सिउ गाल गलोही ॥२॥८॥१२९॥
मूलम्
पतित पावन ठाकुर नामु तुमरा सुखदाई निरमल सीतलोही ॥ गिआन धिआन नानक वडिआई संत तेरे सिउ गाल गलोही ॥२॥८॥१२९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित पावनु = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। सीतलोही = शांति स्वरूप। सिउ = से। गाल गलोही = बातचीत, बातें।2।
अर्थ: हे ठाकुर! तेरा नाम है ‘विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला’। तू सबको सुख देने वाला है, तू पवित्र हस्ती वाला है, तू शांति-स्वरूप है।
हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरे संत जनों से तेरी महिमा की बातें ही (तेरे सेवकों के वास्ते) ज्ञान-चर्चा है, समाधियां हैं, (लोक-परलोक की) इज्ज़त है।2।8।129।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ मिलहु पिआरे जीआ ॥ प्रभ कीआ तुमारा थीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ मिलहु पिआरे जीआ ॥ प्रभ कीआ तुमारा थीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पिआरे जीआ = हे सब जीवों के साथ प्यार करने वाले! प्रभ = हे प्रभु! थीआ = हो रहा है।1। रहाउ।
अर्थ: हे सब जीवों से प्यार करने वाले प्रभु! मुझे मिल। हे प्रभु! (जगत में) तेरा किया ही हो रहा है (वही होता है जो तू करता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक जनम बहु जोनी भ्रमिआ बहुरि बहुरि दुखु पाइआ ॥ तुमरी क्रिपा ते मानुख देह पाई है देहु दरसु हरि राइआ ॥१॥
मूलम्
अनिक जनम बहु जोनी भ्रमिआ बहुरि बहुरि दुखु पाइआ ॥ तुमरी क्रिपा ते मानुख देह पाई है देहु दरसु हरि राइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमिआ = भटकता फिरा। बहुरि बहुरि = मुड़ मुड़, बारंबार। ते = से, साथ। देह = शरीर।1।
अर्थ: हे प्रभु पातशाह! (माया से ग्रसा हुआ जीव) अनेक जन्मों में बहुत जूनियों में भटकता चला आता है, (जनम मरन का) दुख मुड़ मुड़ के सहता है। तेरी मेहर से (इसने अब) मानव शरीर प्राप्त किया है (इसे अपना) दर्शन दे (और इसकी विकारों से रक्षा कर)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोई होआ जो तिसु भाणा अवरु न किन ही कीता ॥ तुमरै भाणै भरमि मोहि मोहिआ जागतु नाही सूता ॥२॥
मूलम्
सोई होआ जो तिसु भाणा अवरु न किन ही कीता ॥ तुमरै भाणै भरमि मोहि मोहिआ जागतु नाही सूता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिसु = उस (प्रभु) ने। भाणा = पसंद आया। किन ही = किसी ने ही। भरमि = भ्रम में। मोहि = मोह में।2।
अर्थ: हे भाई! जगत में वही कुछ बीतता है, जो कुछ परमात्मा को पसंद आता है। कोई और जीव (उसकी रजा के उलट कुछ) नहीं कर सकता।
हे प्रभु! जीव तेरी रजा के अनुसार ही माया की भटकना में माया के मोह में फंसा रहता है, सदा मोह में सोया रहता है और इस नींद में से सुचेत नहीं होता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनउ सुनहु तुम प्रानपति पिआरे किरपा निधि दइआला ॥ राखि लेहु पिता प्रभ मेरे अनाथह करि प्रतिपाला ॥३॥
मूलम्
बिनउ सुनहु तुम प्रानपति पिआरे किरपा निधि दइआला ॥ राखि लेहु पिता प्रभ मेरे अनाथह करि प्रतिपाला ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिनउ = विनती। प्रानपति = हे मेरी जिंद के मालिक! किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! 3।
अर्थ: हे मेरी जीवात्मा के पति! हे प्यारे प्रभु! हे कृपा के खजाने प्रभु! हे दयालु प्रभु! तू (मेरी) विनती सुन। हे मेरे पिता प्रभु! अनाथ जीवों की पालना कर (इन्हे विकारों के हमलों से) बचा ले।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो तुमहि दिखाइओ दरसनु साधसंगति कै पाछै ॥ करि किरपा धूरि देहु संतन की सुखु नानकु इहु बाछै ॥४॥९॥१३०॥
मूलम्
जिस नो तुमहि दिखाइओ दरसनु साधसंगति कै पाछै ॥ करि किरपा धूरि देहु संतन की सुखु नानकु इहु बाछै ॥४॥९॥१३०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नो = को। तुमहि = तुम ही। कै पाछै = के आसरे। धूरि = चरण धूल। बाछै = मांगता है, अभिलाषा रखता है।4।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तूने अपना दर्शन दिया है, साधु-संगत के आसरे रख के दिया है। (हे प्रभु! तेरा दास) नानक (तेरे दर से) ये सुख मांगता है कि मुझे नानक को भी अपने संत जनों के चरणों की धूल बख्श।4।9।130।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हउ ता कै बलिहारी ॥ जा कै केवल नामु अधारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हउ ता कै बलिहारी ॥ जा कै केवल नामु अधारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। ता कै = उस से। जा कै = जिसके हृदय में। अधारी = आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं उन (संत जनों) से सदके जाता हूँ जिनके हृदय में सिर्फ परमात्मा का नाम (ही जिंदगी का) आसरा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महिमा ता की केतक गनीऐ जन पारब्रहम रंगि राते ॥ सूख सहज आनंद तिना संगि उन समसरि अवर न दाते ॥१॥
मूलम्
महिमा ता की केतक गनीऐ जन पारब्रहम रंगि राते ॥ सूख सहज आनंद तिना संगि उन समसरि अवर न दाते ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महिमा = आत्मिक बड़प्पन। ता की = उन की। रंगि = प्रेम में। सहज = आत्मिक अडोलता। उन समसरि = उनके बराबर।1।
अर्थ: (हे भाई!) संत जन परमात्मा के प्यार-रंग में रंगे रहते हैं, उनके आत्मिक बड़प्पन का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। उनकी संगति में रहने से आत्मिक अडोलता के सुख आनंद प्राप्त होते हैं, उनके बराबर का और कोई दानी नहीं हो सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगत उधारण सेई आए जो जन दरस पिआसा ॥ उन की सरणि परै सो तरिआ संतसंगि पूरन आसा ॥२॥
मूलम्
जगत उधारण सेई आए जो जन दरस पिआसा ॥ उन की सरणि परै सो तरिआ संतसंगि पूरन आसा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेई = वही लोग। जगत उधारण = जगत को विकारों से बचाने के लिए। संगि = संगति में।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस (संत) जनों को स्वयं परमात्मा की चाहत लगी रहे, वही जगत के जीवों को विकारों से बचाने आए समझो। उनकी शरण जो मनुष्य आ जाता है, वह संसार समुंदर से पार लांघ जाता है। (हे भाई!) संत जनों की संगति में रहने से सब आशाएं पूरी हो जाती हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता कै चरणि परउ ता जीवा जन कै संगि निहाला ॥ भगतन की रेणु होइ मनु मेरा होहु प्रभू किरपाला ॥३॥
मूलम्
ता कै चरणि परउ ता जीवा जन कै संगि निहाला ॥ भगतन की रेणु होइ मनु मेरा होहु प्रभू किरपाला ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता कै चरणि = उनके चरणों में। परउ = मैं पड़ूं। जीवा = जीऊँ, मैं जी पड़ता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है। निहाल = प्रसन्न चिक्त। रेणु = चरण धूल।3।
अर्थ: (हे भाई!) संत जनों की संगति में रहने से मन खिल उठता है। मैं तो जब संत जनों के चरणों में आ गिरता हूँ, मुझे आत्मिक जीवन मिल जाता है।
हे प्रभु! मेरे पर कृपालु हुआ रह (ता कि तेरी कृपा से) मेरा मन तेरे संत जनों के चरणों की धूल बना रहे।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजु जोबनु अवध जो दीसै सभु किछु जुग महि घाटिआ ॥ नामु निधानु सद नवतनु निरमलु इहु नानक हरि धनु खाटिआ ॥४॥१०॥१३१॥
मूलम्
राजु जोबनु अवध जो दीसै सभु किछु जुग महि घाटिआ ॥ नामु निधानु सद नवतनु निरमलु इहु नानक हरि धनु खाटिआ ॥४॥१०॥१३१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवध = उम्र। जुग महि = जगत में, मानव जन्म में (शब्द ‘जुग’ का अर्थ यहां सत्यिुग कलियुग आदि नहीं है)। घाटिआ = घटता जाता है। नवतनु = नया। सद = सदा। निधान = खजाना।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) हकूमत, जवानी, उम्र, जो कुछ भी जगत में (संभालने लायक) दिखाई देता है ये घटता ही जाता है। परमात्मा का नाम (ही एक ऐसा) खजाना (है जो) सदा नया रहता है, और है भी पवित्र (भाव, इस खजाने से मन बिगड़ने की बजाय पवित्र होता जाता है)। (संत जन) ये नाम-धन ही सदा कमाते रहते हैं।4।10।131
[[0208]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जोग जुगति सुनि आइओ गुर ते ॥ मो कउ सतिगुर सबदि बुझाइओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जोग जुगति सुनि आइओ गुर ते ॥ मो कउ सतिगुर सबदि बुझाइओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोग जुगति = (असल) योग का तरीका, योग की युक्ति, परमात्मा के साथ मिलाप का ढंग। ते = से। मो कउ = मुझे। सतिगुर सबदि = गुरु के शब्द ने।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मुझे सतिगुरु के शब्द ने (परमात्मा से मिलाप की युक्ति) समझा दी है। मैं गुरु से असल योग का तरीका सुन के आया हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नउ खंड प्रिथमी इसु तन महि रविआ निमख निमख नमसकारा ॥ दीखिआ गुर की मुंद्रा कानी द्रिड़िओ एकु निरंकारा ॥१॥
मूलम्
नउ खंड प्रिथमी इसु तन महि रविआ निमख निमख नमसकारा ॥ दीखिआ गुर की मुंद्रा कानी द्रिड़िओ एकु निरंकारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नउ खंड = नौ खण्डों वाली धरती, सारी धरती (पर फिरते रहना)। रविआ = मौजूद, व्यापक। निमख = आँख झपकने जितना समय। दीखिआ = दीक्षा, शिक्षा। कानी = कानों में। द्रिढ़िओ = हृदय में पक्की तरह टिका लिया है।1।
अर्थ: (हे भाई!) मैं पल पल उस परमात्मा को नमस्कार करता रहता हूँ, जो इस मानव शरीर में ही मौजूद है (यही है मेरे वास्ते जोगियों वाला) सारी धरती (का रटन)। मैंने अपने गुरु का उपदेश अपने हृदय में दृढ़ कर लिया है (यही मेरे वास्ते) कानों की मुंद्रा (जो जोगी लोग पहनते हैं) मैं एक निरंकार को सदा अपने हृदय में बसाता हे1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच चेले मिलि भए इकत्रा एकसु कै वसि कीए ॥ दस बैरागनि आगिआकारी तब निरमल जोगी थीए ॥२॥
मूलम्
पंच चेले मिलि भए इकत्रा एकसु कै वसि कीए ॥ दस बैरागनि आगिआकारी तब निरमल जोगी थीए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच चेले = पाँचों ज्ञानेंद्रियां। एकसु कै वसि = एक ऊँची अक़्ल के वश में। बैरागनि = विकारों से उपराम हुई इंद्रिय।2।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के उपदेश की इनायत से) मेरी पाँचों ज्ञानेंद्रियां (दुनिया के पदार्थों की तरफ भटकने की जगह) मिल के इकट्ठी हो गई हैं। (भटकने से हट गए हैं), ये सारे एक ऊँची अक़्ल के अधीन हो गए हैं। (गुरु के उपदेश से जब से) विकारों से विरक्त हो के मेरी इंद्रियां (ऊूंची मति की) आज्ञा में चलने लग पड़ी हैं, तब से मैं पवित्र जीवन वाला जोगी बन गया हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरमु जराइ चराई बिभूता पंथु एकु करि पेखिआ ॥ सहज सूख सो कीनी भुगता जो ठाकुरि मसतकि लेखिआ ॥३॥
मूलम्
भरमु जराइ चराई बिभूता पंथु एकु करि पेखिआ ॥ सहज सूख सो कीनी भुगता जो ठाकुरि मसतकि लेखिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जराइ = जला के। चराई = चढ़ाई, कब्जा की। बिभूता = राख। पंथु = योग मार्ग। पेखिआ = देखा। सहज सुख = आत्मिक अडोलता का सुख। भुगता = जोगयों वाला चूरमा। ठाकुरि = ठाकुर ने। मसतकि = माथे पर।3।
अर्थ: (हे भाई! मन की) भटकन को जला के (ये) राख मैंने (अपने शरीर पर) लगा ली है, मैं एक परमात्मा को ही सारे संसार में व्यापक देखता हूँ - ये है मेरा जोग पंथ। (हे भाई!) मैंने उस आत्मिक अडोलता के आनंद को (अपनी आत्मिक खुराक वास्ते जोगियों के भण्डारे वाला) चूरमा बनाया है, जिसकी प्राप्ति ठाकुर प्रभु ने मेरे माथे पर लिख दी।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जह भउ नाही तहा आसनु बाधिओ सिंगी अनहत बानी ॥ ततु बीचारु डंडा करि राखिओ जुगति नामु मनि भानी ॥४॥
मूलम्
जह भउ नाही तहा आसनु बाधिओ सिंगी अनहत बानी ॥ ततु बीचारु डंडा करि राखिओ जुगति नामु मनि भानी ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जह = जिस आत्मिक अवस्था में। सिंगी = सींग की शक्ल की छोटी सी तुरी जो जोगी बजाते हैं। अनहत = एक रस। बानी = परमात्मा के महिमा की वाणी। ततु = जगत का मूल प्रभु। मनि = मन में। भानी = भाई, अच्छा लगना।4।
अर्थ: (हे भाई!) मैं परमात्मा के महिमा की एक रस सिंगी बजा रहा हूँ। (इसकी इनायत से) मैंने उस आत्मिक अवस्था में अपना आसन जमाया हुआ है जहाँ (दुनिया वाला) कोई डर मुझे छू नहीं सकता। (हे भाई!) जगत के मूल-प्रभु (के गुणों) को विचारते रहना- इसे (जोगियों वाला) डण्डा बना के मैंने अपने पास रखा हुआ है। (परमात्मा के) नाम (को स्मरण करते रहना बस! यही जोगी की) जुगति मेरे मन को भा रही है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा जोगी वडभागी भेटै माइआ के बंधन काटै ॥ सेवा पूज करउ तिसु मूरति की नानकु तिसु पग चाटै ॥५॥११॥१३२॥
मूलम्
ऐसा जोगी वडभागी भेटै माइआ के बंधन काटै ॥ सेवा पूज करउ तिसु मूरति की नानकु तिसु पग चाटै ॥५॥११॥१३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटै = मिलता है। करउ = मैं करूँ। तिसु मूरति की = उस (प्रभु) स्वरूप की। पग = पैर। चाटै = चाटता है, परसता है, छूता है।5।
अर्थ: (हे भाई!) ऐसी (जुगति निभाने वाला) जोगी (जिस मनुष्य को) बड़े भाग्यों से मिल जाता है, वह उसके माया के (मोह के) सारे बंधन काट देता है। मैं भी परमात्मा-के-रूप ऐसे जोगी की सेवा करता हूँ, पूजा करता हूँ। नानक ऐसे जोगी के पैर परसता है।5।11।132।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ अनूप पदारथु नामु सुनहु सगल धिआइले मीता ॥ हरि अउखधु जा कउ गुरि दीआ ता के निरमल चीता ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ अनूप पदारथु नामु सुनहु सगल धिआइले मीता ॥ हरि अउखधु जा कउ गुरि दीआ ता के निरमल चीता ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनूप = अन+ऊप, जिस जैसा और कोई नहीं, बेमिसाल। धिआइले = स्मरण करो। मीता = हे मित्रो! अउखधु = दवाई। जा कउ = जिन्हें। गुरि = गुरु ने। ता के = उनके।1। रहाउ।
अर्थ: हे मित्रो! सुनो, परमात्मा का नाम एक ऐसा पदार्थ है जिस जैसा और कोई नहीं। (इस वास्ते हे मित्रो!) सारे (इस नाम को) स्मरण करो। जिन्हें गुरु ने नाम दारू दिया उनके चित्त (हरेक किस्म के विकारों की) मैल से साफ हो गए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंधकारु मिटिओ तिह तन ते गुरि सबदि दीपकु परगासा ॥ भ्रम की जाली ता की काटी जा कउ साधसंगति बिस्वासा ॥१॥
मूलम्
अंधकारु मिटिओ तिह तन ते गुरि सबदि दीपकु परगासा ॥ भ्रम की जाली ता की काटी जा कउ साधसंगति बिस्वासा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधकारु = माया के मोह का अंधकार। तिह तन ते = उस मनुष्य के शरीर से। सबदि = शब्द के द्वारा। दीपकु = दीपक। भ्रम = भटकना। बिस्वासा = विश्वास, श्रद्धा, निश्चय।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु ने (जिस मनुष्य के अंदर अपने) शब्द के द्वारा (आत्मिक ज्ञान का) दीपक जला दिया, उसके हृदय में से (माया के मोह का) अंधकार दूर हो गया। (हे भाई!) साधु-संगत में जिस मनुष्य की श्रद्धा बन गई, (गुरु ने) उस (के मन) का (माया की खातिर) भटकन का जाल काट दिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तारीले भवजलु तारू बिखड़ा बोहिथ साधू संगा ॥ पूरन होई मन की आसा गुरु भेटिओ हरि रंगा ॥२॥
मूलम्
तारीले भवजलु तारू बिखड़ा बोहिथ साधू संगा ॥ पूरन होई मन की आसा गुरु भेटिओ हरि रंगा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तारीले = तैरा लिया। भवजलु = संसार समुंदर। तारू = गहरा, अथाह। बिखड़ा = कठिन। बोहिथ = जहाज। हरि रंगा = हरि के साथ प्यार करने वाला।2।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने) गुरु की संगति रूपी जहाज का आसरा लिया, वह इस अथाह और मुश्किल संसार समुंदर से पार लांघ गया। (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा से प्यार करने वाला गुरु मिल गया, उसके मन की (हरेक) कामना पूरी हो गयी।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम खजाना भगती पाइआ मन तन त्रिपति अघाए ॥ नानक हरि जीउ ता कउ देवै जा कउ हुकमु मनाए ॥३॥१२॥१३३॥
मूलम्
नाम खजाना भगती पाइआ मन तन त्रिपति अघाए ॥ नानक हरि जीउ ता कउ देवै जा कउ हुकमु मनाए ॥३॥१२॥१३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भगती = भक्ती से, भक्तों ने। अघाए = तृप्त हो गए। हुकम मनाए = हुक्म मानने के लिए प्रेरित करता है।3।
अर्थ: (हे भाई! जिस) भक्त जनों ने परमात्मा के नाम का खजाना ढूँढ लिया, उनके मन माया की तरफ से तृप्त हो गए, उनके तन (हृदय माया की तरफ से) संतुष्ट हो गए। हे नानक! (कह: ये नाम-खजाना) परमात्मा उनको ही देता है, जिन्हें प्रभु अपना हुक्म मानने के लिए प्रेरणा देता है।3।12।133।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी५ महला ५ ॥ दइआ मइआ करि प्रानपति मोरे मोहि अनाथ सरणि प्रभ तोरी ॥ अंध कूप महि हाथ दे राखहु कछू सिआनप उकति न मोरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी५ महला ५ ॥ दइआ मइआ करि प्रानपति मोरे मोहि अनाथ सरणि प्रभ तोरी ॥ अंध कूप महि हाथ दे राखहु कछू सिआनप उकति न मोरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मइआ = कृपा। प्रानपति मोरे = हे मेरी जिंद के मालिक! मोहि = मैं। प्रभ = हे प्रभु! कूप = कूआँ। अंध = अंधा, अंधेरा। दे = देकर। उकति = दलील। मोरी = मेरी।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी जीवात्मा के मालिक! (मेरे पर) दया कर मेहर कर। हे प्रभु! मैं अनाथ तेरी शरण आया हूँ। (मैं माया के मोह के अंधेरे कूएं में गिरा पड़ा हूँ, अपना) हाथ दे के मुझे (इस अंधेरे कूएं में से) बचा ले। मेरी कोई सियानप, कोई दलील (यहां) नहीं चल सकती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करन करावन सभ किछु तुम ही तुम समरथ नाही अन होरी ॥ तुमरी गति मिति तुम ही जानी से सेवक जिन भाग मथोरी ॥१॥
मूलम्
करन करावन सभ किछु तुम ही तुम समरथ नाही अन होरी ॥ तुमरी गति मिति तुम ही जानी से सेवक जिन भाग मथोरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समरथ = समर्थ, हरेक किस्म की ताकत रखने वाला। अन = अन्य, कोई दूसरा। गति = हालत। मिति = अंदाजा, माप। जिन मथोरी = जिनके माथे पे।1।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! (सब जीवों में व्यापक हो के) तू खुद ही सब कुछ कर रहा है, तू स्वयं ही सब कुछ कर रहा है, तू हरेक ताकत का मालिक है, तेरे बराबर का कोई और दूसरा नहीं है। (हे प्रभु!) तू कैसा है, तू कितना बड़ा है - ये भेद तू खुद ही जानता है। जिस लोगों के माथे पर (तेरी बख्शिश के) भाग्य जागते हैं, वे तेरे सेवक बन जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपुने सेवक संगि तुम प्रभ राते ओति पोति भगतन संगि जोरी ॥ प्रिउ प्रिउ नामु तेरा दरसनु चाहै जैसे द्रिसटि ओह चंद चकोरी ॥२॥
मूलम्
अपुने सेवक संगि तुम प्रभ राते ओति पोति भगतन संगि जोरी ॥ प्रिउ प्रिउ नामु तेरा दरसनु चाहै जैसे द्रिसटि ओह चंद चकोरी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! राते = रंगे हुए, प्यार करते। ओति = उने हुए में। पोति = परोए हुए में। जोरी = जोड़ी हुई है। प्रिउ प्रिउ = ‘प्यारा प्रभु-प्यारा प्रभु’ (कह कह के)। द्रिसटि = निगाह। ओह द्रिसटि = वही नजर।2।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! तू अपने सेवकों से हमेशा प्यार करता है। अपने भक्तों की तूने अपनी प्रीति ऐसे जोड़ी हुई है जैसे ताणे-पेटे में धागे ओत-प्रोत मिले होते हैं, जैसे चकोर की निगाह चाँद की ओर ही रहती है, वही निगाह तेरे भक्त की होती है। तेरा भक्त तुझे ‘प्यारा प्यारा’ कह कह के तेरा नाम जपता है, और तेरे दीदार की चाहत रखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम संत महि भेदु किछु नाही एकु जनु कई महि लाख करोरी ॥ जा कै हीऐ प्रगटु प्रभु होआ अनदिनु कीरतनु रसन रमोरी ॥३॥
मूलम्
राम संत महि भेदु किछु नाही एकु जनु कई महि लाख करोरी ॥ जा कै हीऐ प्रगटु प्रभु होआ अनदिनु कीरतनु रसन रमोरी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेदु = फर्क। जा कै हीऐ = जिस मनुष्य के हृदय में। अनदिनु = हर रोज। रसन = जीभ (से)। रमोरी = रमता है, स्मरण करता है।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा और परमात्मा के संत में कोई फर्क नहीं होता, पर ऐसा मनुष्य कई लाखों करोड़ों में कोई एक ही होता है। (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु अपना प्रकाश करता है, वह मनुष्य हर वक्त अपनी जीभ से प्रभु की महिमा उचारता रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम समरथ अपार अति ऊचे सुखदाते प्रभ प्रान अधोरी ॥ नानक कउ प्रभ कीजै किरपा उन संतन कै संगि संगोरी ॥४॥१३॥१३४॥
मूलम्
तुम समरथ अपार अति ऊचे सुखदाते प्रभ प्रान अधोरी ॥ नानक कउ प्रभ कीजै किरपा उन संतन कै संगि संगोरी ॥४॥१३॥१३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रान अधोरी = प्राणों का आधार। कउ = को, पर। संगि = मेल में।4।
अर्थ: हे मेरे प्रभु! हे मेरी जिंद के आसरे! हे बेअंत ऊँचे! हे सबको सुख देने वाले! तू सब ताकतों का मालिक है। हे प्रभु! मुझ नानक पर कृपा कर, मुझे उन संत जनों की संगति में स्थान दिए रख।4।13।134।
[[0209]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ तुम हरि सेती राते संतहु ॥ निबाहि लेहु मो कउ पुरख बिधाते ओड़ि पहुचावहु दाते ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ तुम हरि सेती राते संतहु ॥ निबाहि लेहु मो कउ पुरख बिधाते ओड़ि पहुचावहु दाते ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनों! मो कउ = मुझे। पुरख बिधाते = हे सर्व व्यापक कर्तार! ओड़ि = सिरे तक। दाते = हे दातार!।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! (तुम भाग्यशाली हो कि) तुम परमात्मा के साथ रंगे हुए हो। हे सर्व-व्यापक कर्तार! हे दातार! मुझे भी (अपने प्यार में) निबाह ले, मुझे भी सिरे तक (प्रीति के दर्जे तक) पहुँचा ले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमरा मरमु तुमा ही जानिआ तुम पूरन पुरख बिधाते ॥ राखहु सरणि अनाथ दीन कउ करहु हमारी गाते ॥१॥
मूलम्
तुमरा मरमु तुमा ही जानिआ तुम पूरन पुरख बिधाते ॥ राखहु सरणि अनाथ दीन कउ करहु हमारी गाते ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरमु = भेद, दिल की बात। तुमा ही = तुम ही, तू ही। दीन = गरीब। गाते = गति, उच्च आत्मिक अवस्था।1।
अर्थ: हे सर्व-व्यापक कर्तार! अपने दिल की बात तू स्वयं ही जानता है, मुझ अनाथ को गरीब को अपनी शरण में रख, मेरी आत्मिक अवस्था ऊँची बना दे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरण सागर बोहिथ चरण तुमारे तुम जानहु अपुनी भाते ॥ करि किरपा जिसु राखहु संगे ते ते पारि पराते ॥२॥
मूलम्
तरण सागर बोहिथ चरण तुमारे तुम जानहु अपुनी भाते ॥ करि किरपा जिसु राखहु संगे ते ते पारि पराते ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बोहिथ = जहाज। भाते = भांति, किस्म, ढंग। ते ते = वे वे सारे। पराते = पड़ गए, गुजर गए।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) संसार समुंदर से पार हो गुजरने के लिए तेरे चरण (मेरे लिए) जहाज हैं। किस तरीके से तू पार लंघाता है? - ये तू खुद ही जानता है। हे प्रभु! मेहर करके जिस जिस मनुष्य को तू अपने साथ रखता है, वे सारे (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईत ऊत प्रभ तुम समरथा सभु किछु तुमरै हाथे ॥ ऐसा निधानु देहु मो कउ हरि जन चलै हमारै साथे ॥३॥
मूलम्
ईत ऊत प्रभ तुम समरथा सभु किछु तुमरै हाथे ॥ ऐसा निधानु देहु मो कउ हरि जन चलै हमारै साथे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईत ऊत = इस लोक में व परलोक में। समरथा = सब ताकतों का मालिक। निधान = खजाना। हरि जन = हे हरि के जन!।3।
अर्थ: हे प्रभु! (हम जीवों के लिए) इस लोक में और परलोक में तू ही सब ताकतों का मालिक है (हमारा हरेक सुख दुख) तेरे ही हाथ में है।
हे प्रभु के संत जनो! मुझे ऐसा नाम-खजाना दो, जो (यहाँ से जाते समय) मेरे साथ जाए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरगुनीआरे कउ गुनु कीजै हरि नामु मेरा मनु जापे ॥ संत प्रसादि नानक हरि भेटे मन तन सीतल ध्रापे ॥४॥१४॥१३५॥
मूलम्
निरगुनीआरे कउ गुनु कीजै हरि नामु मेरा मनु जापे ॥ संत प्रसादि नानक हरि भेटे मन तन सीतल ध्रापे ॥४॥१४॥१३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। जापे = जपता रहे। संत प्रसादि = गुरु संत की कृपा से। ध्रापे = तृप्त हो गए।4।
अर्थ: (हे संत जनो!) मुझ गुणहीन को (परमात्मा की महिमा का) गुण बख्शो। (मेहर करो) मेरा मन परमात्मा का नाम सदा जपता रहे।
हे नानक! गुरु संत की किरपा से जिस लोगों को परमात्मा मिल जाता है, उनके मन (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाते हैं, उनके तन ठण्डे ठार हो जाते हैं (विकारों की तपस से बच जाते हैं)।4।14।135।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ सहजि समाइओ देव ॥ मो कउ सतिगुर भए दइआल देव ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ सहजि समाइओ देव ॥ मो कउ सतिगुर भए दइआल देव ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। देव = हे प्रकाश रूप प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रकाश रूप प्रभु! (तेरी मेहर से) मेरे पर सतिगुरु जी दयावान हो गए, और मैं अब आत्मिक अडोलता में लीन रहता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काटि जेवरी कीओ दासरो संतन टहलाइओ ॥ एक नाम को थीओ पूजारी मो कउ अचरजु गुरहि दिखाइओ ॥१॥
मूलम्
काटि जेवरी कीओ दासरो संतन टहलाइओ ॥ एक नाम को थीओ पूजारी मो कउ अचरजु गुरहि दिखाइओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काटि = काट के। जेवरी = माया की जंजीर। को = का। थीओ = हो गया हूँ। गुरहि = गुरु ने।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) गुरु ने मुझे तेरा (हर जगह व्यापक) आश्चर्यजनक रूप दिखा दिया है, उसने मेरी (माया के मोह की) जंजीर काट के मुझे तेरा दास बना दिया है, मुझे संत जनों की सेवा में लगा दिया है, अब मैं सिर्फ तेरे ही नाम का पुजारी बन गया हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइओ प्रगासु सरब उजीआरा गुर गिआनु मनहि प्रगटाइओ ॥ अम्रितु नामु पीओ मनु त्रिपतिआ अनभै ठहराइओ ॥२॥
मूलम्
भइओ प्रगासु सरब उजीआरा गुर गिआनु मनहि प्रगटाइओ ॥ अम्रितु नामु पीओ मनु त्रिपतिआ अनभै ठहराइओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनहि = मन में। त्रिपतिआ = तृप्त हो गया। अनभै = अनुभव में, उस प्रभु में जिसे कोई डर छू नहीं सकता। (अनभउ = अन भउ, बिना भय के)।2।
अर्थ: (हे भाई!) जब से गुरु का बख्शा हुआ ज्ञान मेरे मन में प्रगट हो गया, तो मेरे अंदर परमात्मा के अस्तित्व का प्रकाश हो गया, मुझे हर जगह उसी की रौशनी नजर आने लगी। गुरु की कृपा से मैंने आत्मिक जीवन देने वाला परमात्मा का नाम-रस पीया है, और मेरा मन (माया की तृष्णा से) भर चुका है। मैं उस परमात्मा में टिक गया हूँ जिसे कोई डर छू नहीं सकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानि आगिआ सरब सुख पाए दूखह ठाउ गवाइओ ॥ जउ सुप्रसंन भए प्रभ ठाकुर सभु आनद रूपु दिखाइओ ॥३॥
मूलम्
मानि आगिआ सरब सुख पाए दूखह ठाउ गवाइओ ॥ जउ सुप्रसंन भए प्रभ ठाकुर सभु आनद रूपु दिखाइओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानि = मान के। दूखहु ठाउ = दुखों की जगह, दुखों का नाम निशान। सभु = हर जगह।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु का हुक्म मान के मैंने सारे सुख-आनंद प्राप्त कर लिए हैं, मैंने अपने अंदर से दुखों का डेरा ही उठा दिया है। जब से (गुरु की कृपा से) ठाकुर प्रभु जी मेरे पर मेहरवान हुए हैं, मुझे हर जगह वह आनंद स्वरूप परमात्मा ही दिख रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना किछु आवत ना किछु जावत सभु खेलु कीओ हरि राइओ ॥ कहु नानक अगम अगम है ठाकुर भगत टेक हरि नाइओ ॥४॥१५॥१३६॥
मूलम्
ना किछु आवत ना किछु जावत सभु खेलु कीओ हरि राइओ ॥ कहु नानक अगम अगम है ठाकुर भगत टेक हरि नाइओ ॥४॥१५॥१३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जावत = मरता। सभु = सारा। खेलु = तमाशा। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। हरि नाइओ = हरि के नाम की।4।
अर्थ: (हे भाई! जब से सतिगुरु जी मेरे पर दयावान हुए हैं, मुझे विश्वास हो गया है कि) ना कुछ पैदा होता है ना कुछ मरता है, ये सारा तो प्रभु पातशाह ने एक खेल रचाया हुआ है।
हे नानक! कह: सर्व-पालक परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है, सब जीवों की पहुँच से परे है। उसके भक्तों को उस हरि के नाम का ही सहारा है।4।15।136।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी६ महला ५ ॥ पारब्रहम पूरन परमेसुर मन ता की ओट गहीजै रे ॥ जिनि धारे ब्रहमंड खंड हरि ता को नामु जपीजै रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी६ महला ५ ॥ पारब्रहम पूरन परमेसुर मन ता की ओट गहीजै रे ॥ जिनि धारे ब्रहमंड खंड हरि ता को नामु जपीजै रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पारब्रहम = परे से परे ब्रहम्। पूरन = व्यापक। परमेसुर = सबसे बड़ा मालिक। मन = हे मन! ता की = उस की। गहीजै = पकड़नी चाहिए। जिनि = जिस प्रभु ने। धारे = टिकाए हुए हैं। ता को = उस का।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! उस परमात्मा का आसरा लेना चाहिए, जो बेअंत है, सर्व-व्यापक है, और सबसे बड़ा मालिक है। हे मन! उस परमात्मा का नाम जपना चाहिए, जिसने सारे धरती मण्डलों को, सारे जगत को (पैदा करके) सहारा दिया हुआ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन की मति तिआगहु हरि जन हुकमु बूझि सुखु पाईऐ रे ॥ जो प्रभु करै सोई भल मानहु सुखि दुखि ओही धिआईऐ रे ॥१॥
मूलम्
मन की मति तिआगहु हरि जन हुकमु बूझि सुखु पाईऐ रे ॥ जो प्रभु करै सोई भल मानहु सुखि दुखि ओही धिआईऐ रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जन = हे हरि जनो! बूझि = समझ के। भल = भला। मानहु = मानो। सुखि = सुख में। दुखि = दुख में।1।
अर्थ: हे हरि के सेवको! अपने मन की चतुराई छोड़ दो। परमात्मा की रजा को समझ के ही सुख पा सकते हैं। हे संत जनो! सुख में (भी), और दुख में (भी) उस परमात्मा को ही याद करना चाहिए। हे संत जनो! जो कुछ परमात्मा करता है, उसे भला करके मानो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि पतित उधारे खिन महि करते बार न लागै रे ॥ दीन दरद दुख भंजन सुआमी जिसु भावै तिसहि निवाजै रे ॥२॥
मूलम्
कोटि पतित उधारे खिन महि करते बार न लागै रे ॥ दीन दरद दुख भंजन सुआमी जिसु भावै तिसहि निवाजै रे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। पतित = विकारों में गिरे हुए। उधारे = बचा लेता है। करते = कर्तार को। बार = समय। भंजन = नाश करने वाला। तिसहि = उसे ही। निवाजै = बख्शता है।2।
अर्थ: (हे हरि जनो!) विकारों में गिरे हुए करोड़ों लोगों को (अगर चाहे तो) कर्तार एक पल में (विकारों से) बचा लेता है (और ये काम करते) कर्तार को छिन मात्र भी समय नहीं लगता। वह मालिक प्रभु गरीबों के दर्द-दुख नाश करने वाला है। जिस पर वह प्रसन्न होता है, उस पर बख्शिशें करता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ को मात पिता प्रतिपालक जीअ प्रान सुख सागरु रे ॥ देंदे तोटि नाही तिसु करते पूरि रहिओ रतनागरु रे ॥३॥
मूलम्
सभ को मात पिता प्रतिपालक जीअ प्रान सुख सागरु रे ॥ देंदे तोटि नाही तिसु करते पूरि रहिओ रतनागरु रे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ को = सबका। जीअ प्रान सुख सागरु = जीवात्मा का, प्राणों का, सुखों का समुंदर। तोटि = कमी। रतनागरु = (रत्न+आकुर। आकुर = खान) रत्नों की खान।3।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा सब की जिंद व प्राणों के वास्ते सुखों का समुंदर है, सभी का माँ-बाप है, सबकी पालना करता है। (जीवों को दातें) देते हुए उस कर्तार के खजाने में कमी नहीं होती। वह रत्नों की खान है और रत्नों से नाको-नाक भरा हुआ है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाचिकु जाचै नामु तेरा सुआमी घट घट अंतरि सोई रे ॥ नानकु दासु ता की सरणाई जा ते ब्रिथा न कोई रे ॥४॥१६॥१३७॥
मूलम्
जाचिकु जाचै नामु तेरा सुआमी घट घट अंतरि सोई रे ॥ नानकु दासु ता की सरणाई जा ते ब्रिथा न कोई रे ॥४॥१६॥१३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाचिक = भिखारी। जाचै = मांगता है। सोई = वही। घट घट अंतरि = हरेक घट के अंदर। घट = शरीर। ता की = उस प्रभु की। जा ते = जिस (के दर) से। ब्रिथा = बेकार, खाली, निराश।4।
अर्थ: हे मेरे मालिक! (तेरे दर का) भिखारी (नानक) तेरा नाम (दात की तरह) मांगता है। (हे भाई!) दास नानक उस परमात्मा की ही शरण पड़ा है, जिसके दर से कोई निराश नहीं जाता।4।16।137।
[[0210]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी१ पूरबी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी१ पूरबी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि कबहू न मनहु बिसारे ॥ ईहा ऊहा सरब सुखदाता सगल घटा प्रतिपारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि हरि कबहू न मनहु बिसारे ॥ ईहा ऊहा सरब सुखदाता सगल घटा प्रतिपारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनहु = मन से। विसारे = बिसारे, भुला दे। ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। प्रतिपारे = पालना करता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) कभी भी परमात्मा को अपने मन से ना विसार। वह परमात्मा इस लोक में और परलोक में, सब जीवों को सुख देने वाला है, और सारे शरीरों की पालना करने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा कसट काटै खिन भीतरि रसना नामु चितारे ॥ सीतल सांति सूख हरि सरणी जलती अगनि निवारे ॥१॥
मूलम्
महा कसट काटै खिन भीतरि रसना नामु चितारे ॥ सीतल सांति सूख हरि सरणी जलती अगनि निवारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महा कसट = बड़े बड़े कष्ट। रसन = जीभ (से)। सीतल = ठंडा। जलती = जल रही। निवारे = दूर करता है, बुझा देता है।1।
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य अपनी) जीभ से उस परमात्मा का नाम याद करता है, उस मनुष्य के वह (प्रभु) बड़े बड़े कष्ट एक छिन में दूर कर देता है। जो मनुष्य उस हरि की शरण पड़ते हैं, उनके अंदर से वह हरि (तृष्णा की) जल रही अग्नि को बुझा देता है, वे (विकारों की आग की तपश से बच के) ठण्डक पाते हैं, उनके अंदर शांति और आनंद ही आनंद बन जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरभ कुंड नरक ते राखै भवजलु पारि उतारे ॥ चरन कमल आराधत मन महि जम की त्रास बिदारे ॥२॥
मूलम्
गरभ कुंड नरक ते राखै भवजलु पारि उतारे ॥ चरन कमल आराधत मन महि जम की त्रास बिदारे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरभ = माँ का पेट। ते = से। राखै = रक्षा करता है। आराधत = आराधना करते हुए, स्मरण करते हुए। त्रास = डर। बिदारे = दूर करता है, फाड़ देता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरण मन में आराधने से परमात्मा माँ के पेट के नर्क-कुण्ड से बचा लेता है और मौत का सहम दूर कर देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरन पारब्रहम परमेसुर ऊचा अगम अपारे ॥ गुण गावत धिआवत सुख सागर जूए जनमु न हारे ॥३॥
मूलम्
पूरन पारब्रहम परमेसुर ऊचा अगम अपारे ॥ गुण गावत धिआवत सुख सागर जूए जनमु न हारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत। सुख सागर = सुखों का समुंदर। जूए ना हारे = जूए में नहीं हारता, व्यर्थ नहीं गवाता।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा सर्व-व्यापक है, सब से ऊँचा मालिक है, अगम्य (पहुँच से परे) है, बेअंत है, उस सुखों के समुंदर प्रभु के गुण गाने और नाम आराधने से मनुष्य अपना मानव जन्म व्यर्थ नही गवा के जाता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामि क्रोधि लोभि मोहि मनु लीनो निरगुण के दातारे ॥ करि किरपा अपुनो नामु दीजै नानक सद बलिहारे ॥४॥१॥१३८॥
मूलम्
कामि क्रोधि लोभि मोहि मनु लीनो निरगुण के दातारे ॥ करि किरपा अपुनो नामु दीजै नानक सद बलिहारे ॥४॥१॥१३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामि = काम में। मोहि = मोह में। लीनो = लीन, गर्क। निरगुण = गुण हीन। दातारे = हे दाते! सद = सदा। बलिहारे = कुर्बान।4।
अर्थ: हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे (मैं) गुण हीन के दातार! मेरा मन काम में, क्रोध में, लोभ में, मोह में फंसा पड़ा है। मेहर कर, मुझे अपना नाम बख्श। मैं तुझसे सदा कुर्बान जाता हूँ।4।1।138।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी चेती१ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी चेती१ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखु नाही रे हरि भगति बिना ॥ जीति जनमु इहु रतनु अमोलकु साधसंगति जपि इक खिना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुखु नाही रे हरि भगति बिना ॥ जीति जनमु इहु रतनु अमोलकु साधसंगति जपि इक खिना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! जीति = जीत ले। अमोलक = जिसका मूल्य ना पाया जा सके।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की भक्ति के बिना (और किसी तरीके से) सुख नहीं मिल सकता। (इस वास्ते) साधु-संगत में मिल के परमात्मा का नाम जप और इस मानव जन्म की बाजी जीत ले। ये (मानव जन्म) ऐसा रत्न है जिसकी कीमत नहीं पाई जा सकती (जो किसी मूल्य से नहीं मिल सकती)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुत स्मपति बनिता बिनोद ॥ छोडि गए बहु लोग भोग ॥१॥
मूलम्
सुत स्मपति बनिता बिनोद ॥ छोडि गए बहु लोग भोग ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुत = पुत्र। संपति = धन-पदार्थ। बिनोद = लाड प्यार। बनिता = स्त्री।1।
अर्थ: (हे भाई!) पुत्र, धन, पदार्थ, स्त्री के लाड-प्यार - अनेक लोग ऐसे मौज मेले छोड़ के यहां से चले गए (और चले जाएंगे)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हैवर गैवर राज रंग ॥ तिआगि चलिओ है मूड़ नंग ॥२॥
मूलम्
हैवर गैवर राज रंग ॥ तिआगि चलिओ है मूड़ नंग ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हैवर = (हय+वर) बढ़िया घोड़े। गैवर = (गज+वर) बढ़िया हाथी। मूढ़ = मूर्ख।2।
अर्थ: (हे भाई!) बढ़िया घोड़े, बढ़िया हाथी और हकूमत की मौजें- मूर्ख मनुष्य इनको छोड़ के (आखिर) नंगा ही (यहां से) चल पड़ता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चोआ चंदन देह फूलिआ ॥ सो तनु धर संगि रूलिआ ॥३॥
मूलम्
चोआ चंदन देह फूलिआ ॥ सो तनु धर संगि रूलिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चोआ = इत्र। देह = शरीर। फूलिया = अहंकारी हुआ। धर संगि = धरती के साथ।3।
अर्थ: (हे भाई! मनुष्य अपने) शरीर को इत्र और चंदन (आदि लगा के) मान करता है (पर ये नहीं समझता कि) वह शरीर (आखिर) मिट्टी में मिल जाना है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहि मोहिआ जानै दूरि है ॥ कहु नानक सदा हदूरि है ॥४॥१॥१३९॥
मूलम्
मोहि मोहिआ जानै दूरि है ॥ कहु नानक सदा हदूरि है ॥४॥१॥१३९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मोह में। हदूरि = हाजिर नाजिर, अंग संग।4।
अर्थ: (हे भाई! माया के) मोह में फंसा मनुष्य समझता है (कि परमात्मा कहीं) दूर बसता है। (पर) हे नानक! कह: परमात्मा सदा (हरेक जीव के) अंग-संग बसता है।4।1।139।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ मन धर तरबे हरि नाम नो ॥ सागर लहरि संसा संसारु गुरु बोहिथु पार गरामनो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ मन धर तरबे हरि नाम नो ॥ सागर लहरि संसा संसारु गुरु बोहिथु पार गरामनो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! धर = आसरा। तरबे = तैरने के लिए। नामनो = (नमन) नाम। सागर = समुंदर। संसा = सहम, फिक्र। पार गरामनो = पार लांघने के लिए।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम (संसार समुंदर से) पार लंघाने के लिए आसरा है। ये संसार सहिम फिक्रों की लहरों से भरा हुआ समुंदर है। गुरु जहाज है जो इसमें से पार लंघाने के समर्थ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलि कालख अंधिआरीआ ॥ गुर गिआन दीपक उजिआरीआ ॥१॥
मूलम्
कलि कालख अंधिआरीआ ॥ गुर गिआन दीपक उजिआरीआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कलि = (कलह) (माया की खातिर) झगड़ा बखेड़ा। अंधिआरीआ = अंधकार पैदा करने वाली। दीपक = दीया। उजिआरीआ = प्रकाश पैदा करने वाला।1।
अर्थ: (हे भाई! दुनिया की खातिर) झगड़े-बखेड़े (एक ऐसी) कालिख है (जो मनुष्य के मन में मोह का) अंधकार पैदा करती है। गुरु का ज्ञान दीपक है जो (मन में उच्च आत्मिक जीवन का) प्रकाश पैदा करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखु बिखिआ पसरी अति घनी ॥ उबरे जपि जपि हरि गुनी ॥२॥
मूलम्
बिखु बिखिआ पसरी अति घनी ॥ उबरे जपि जपि हरि गुनी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = जहर। बिखिआ = माया। पसरी = बिखरी हुई। घनी = संघनी। उबरे = बच गए। हरि गुनी = हरि के गुणों को।2।
अर्थ: (हे भाई!) माया (के मोह) का जहर (जगत में) बहुत गहरा बिखरा हुआ है। परमात्मा के गुणों को याद कर करके ही (मनुष्य इस जहर की मार से) बच सकते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मतवारो माइआ सोइआ ॥ गुर भेटत भ्रमु भउ खोइआ ॥३॥
मूलम्
मतवारो माइआ सोइआ ॥ गुर भेटत भ्रमु भउ खोइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मतवारो = मस्त, मतवाला। भेटत = मिल के ही। भ्रम = भटकना। खोइआ = दूर कर लिया।3।
अर्थ: (हे भाई!) माया में मस्त हुआ मनुष्य (मोह की नींद में) सोया रहता है, पर गुरु को मिलने से (मनुष्य की माया की खातिर) भटकना और (दुनिया का) सहम-डर दूर कर लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहु नानक एकु धिआइआ ॥ घटि घटि नदरी आइआ ॥४॥२॥१४०॥
मूलम्
कहु नानक एकु धिआइआ ॥ घटि घटि नदरी आइआ ॥४॥२॥१४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक घट में।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने एक परमात्मा का ध्यान धरा है, उसे परमात्मा हरेक शरीर में बसता दिखाई देने लगा है।4।2।140।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ दीबानु हमारो तुही एक ॥ सेवा थारी गुरहि टेक ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ दीबानु हमारो तुही एक ॥ सेवा थारी गुरहि टेक ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीबानु = हाकम, आसरा। थारी = तेरी। गुरहि = गुरु की। टेक = ओट।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! सिर्फ तू ही मेरा आसरा है। गुरु की ओट ले कर मैं तेरी ही सेवा भक्ति करता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक जुगति नही पाइआ ॥ गुरि चाकर लै लाइआ ॥१॥
मूलम्
अनिक जुगति नही पाइआ ॥ गुरि चाकर लै लाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुगति = युक्ति, ढंग, तरीके। गुरि = गुरु ने। चाकर = नौकर, सेवक।1।
अर्थ: हे प्रभु! (विभिन्न) अनेक ढंगों से मैं तूझे नहीं ढूँढ सका। (अब) गुरु ने (मेहर करके मुझे) तेरा चाकर बना के (तेरे चरणों में) लगा दिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारे पंच बिखादीआ ॥ गुर किरपा ते दलु साधिआ ॥२॥
मूलम्
मारे पंच बिखादीआ ॥ गुर किरपा ते दलु साधिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखादी = झगड़ालू। दलु = फौज। साधिआ = काबू कर लिया।2।
अर्थ: (हे प्रभु! अब मैंने कामादिक) पाँचों झगड़ालू वैरी मार डाले हैं, गुरु की मेहर से मैंने (इन पाँचों की) फौज काबू कर ली है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बखसीस वजहु मिलि एकु नाम ॥ सूख सहज आनंद बिस्राम ॥३॥
मूलम्
बखसीस वजहु मिलि एकु नाम ॥ सूख सहज आनंद बिस्राम ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बखसीस = दान। वजहु = के तौर पर। मिलि = मिल जाए। सहज = आत्मिक अडोलता।3।
अर्थ: (हे प्रभु! जिस मनुष्य को) सिर्फ तेरा नाम बख्शिश के तौर पर मिल जाता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता के सुख आनंद बस पड़ते हैं।3।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभ के चाकर से भले ॥ नानक तिन मुख ऊजले ॥४॥३॥१४१॥
मूलम्
प्रभ के चाकर से भले ॥ नानक तिन मुख ऊजले ॥४॥३॥१४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: से = (बहुवचन) वह लोग। ऊजले = रौशन, चमकते।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: जो मनुष्य) परमात्मा के सेवक बनते हैं, वे भाग्यशाली हो जाते हैं (परमात्मा के दरबार में) उनके मुंह रौशन रहते हैं।4।3।141।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ जीअरे ओल्हा नाम का ॥ अवरु जि करन करावनो तिन महि भउ है जाम का ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ जीअरे ओल्हा नाम का ॥ अवरु जि करन करावनो तिन महि भउ है जाम का ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ रे = हे जीव! हे जिंदे! ओला = आसरा। अवरु = अन्य। जि = जो। करन करावनो = दौड़ भाग।, करने कराने वाला। जाम का भउ = यम का डर, आत्मिक मौत का खतरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी जिंदे! परमात्मा के नाम का ही आसरा (लोक परलोक में सहायता करता है)। (नाम के बिना माया की खातिर) और जितना भी उद्यम-यत्न है उन सारे कामों में आत्मिक मौत का खतरा (बनता जाता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवर जतनि नही पाईऐ ॥ वडै भागि हरि धिआईऐ ॥१॥
मूलम्
अवर जतनि नही पाईऐ ॥ वडै भागि हरि धिआईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जतनि = यत्न से। भागि = किस्मत से। धिआईऐ = स्मरण किया जा सकता है।1।
अर्थ: (पर,) बड़ी किस्मत से ही परमात्मा का स्मरण किया जा सकता है (और स्मरण के बिना किसी भी) और यत्न से परमात्मा नहीं मिलता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाख हिकमती जानीऐ ॥ आगै तिलु नही मानीऐ ॥२॥
मूलम्
लाख हिकमती जानीऐ ॥ आगै तिलु नही मानीऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिकमती = हिकमतों के कारण। जानीऐ = (जगत में) प्रसिद्ध हो जाएं। आगै = परलोक में। मानीऐ = आदर मिलता है।2।
अर्थ: (अगर जगत में) लाखों चतुराईयों कर करके इज्ज़त कमा लें, परलोक में (इन हिकमतों के कारण) थोड़ा सा भी आदर नहीं मिलता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अह्मबुधि करम कमावने ॥ ग्रिह बालू नीरि बहावने ॥३॥
मूलम्
अह्मबुधि करम कमावने ॥ ग्रिह बालू नीरि बहावने ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंकार पैदा करने वाली अक्ल। बालू = रेत। नीरि = नीर ने, पानी ने। बहावने = बहा दिए।3।
अर्थ: (हे जिंदे! अगर अपनी तरफ से धार्मिक) कर्म (भी) किए जाएं (पर वह) अहंकार वाली अक्ल बढ़ाने वाले ही हों, तो वह ऐसे कर्म रेत के बने घरों की तरह ही हैं जिन्हें (बाढ़ का) पानी बहा ले गया।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु क्रिपालु किरपा करै ॥ नामु नानक साधू संगि मिलै ॥४॥४॥१४२॥
मूलम्
प्रभु क्रिपालु किरपा करै ॥ नामु नानक साधू संगि मिलै ॥४॥४॥१४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) दया का श्रोत परमात्मा जिस मनुष्य पर किरपा करता है, उसे गुरु की संगति में परमात्मा का नाम मिलता है।4।4।142।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ बारनै बलिहारनै लख बरीआ ॥ नामो हो नामु साहिब को प्रान अधरीआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ बारनै बलिहारनै लख बरीआ ॥ नामो हो नामु साहिब को प्रान अधरीआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बारनै = वारने, सदके। बरीआ = वारी। हे = हे भाई! नामो = नाम ही। को = का। प्रान अधरीआ = जिंद का आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! मैं (परमात्मा के नाम से) लाखों बार सदके जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ। मालिक प्रभु का नाम ही नाम जीवों की जिंदों का आसरा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करन करावन तुही एक ॥ जीअ जंत की तुही टेक ॥१॥
मूलम्
करन करावन तुही एक ॥ जीअ जंत की तुही टेक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तूही = हे प्रभु! तू ही। जीअ टेक = जीवों का आसरा।1।
अर्थ: हे प्रभु! सिर्फ तू ही सब कुछ करने की ताकत रखता है, जीवों से करवाने की स्मर्था रखता है, तू ही सारे जीव-जंतुओं का सहारा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज जोबन प्रभ तूं धनी ॥ तूं निरगुन तूं सरगुनी ॥२॥
मूलम्
राज जोबन प्रभ तूं धनी ॥ तूं निरगुन तूं सरगुनी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धनी = मालिक। निरगुनी = माया के गुणों से रहित।, अदृष्ट रूप। सरगुनी = ये सारा जगत जिसका स्वरूप है।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही हकूमत का मालिक है, तू ही जवानी का मालिक है (तुझसे ही जीव दुनिया में हकूमत करने की ताकत लेते हैं, तेरे से ही जवानी प्राप्त करते हैं)। (जब जगत नहीं था बना) माया के तीनों गुणों से रहित (निर्गुण) भी तू ही है, (अब तूने जगत रच दिया है) ये दिखाई दे रहा आकार (सर्गुण) माया के तीनों गुणों वाला- ये भी तू स्वयं ही है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईहा ऊहा तुम रखे ॥ गुर किरपा ते को लखे ॥३॥
मूलम्
ईहा ऊहा तुम रखे ॥ गुर किरपा ते को लखे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईहा = इस लोक में। ऊहा = उस लोक में, परलोक में। ते = से, साथ। को = कोई विरला। लखे = समझता है।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) इस लोक में और परलोक में तु ही सबकी रक्षा करता है। (पर) कोई विरला मनुष्य ही गुरु की किरपा से (ये भेद) समझता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरजामी प्रभ सुजानु ॥ नानक तकीआ तुही ताणु ॥४॥५॥१४३॥
मूलम्
अंतरजामी प्रभ सुजानु ॥ नानक तकीआ तुही ताणु ॥४॥५॥१४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! सुजानु = समझदार। तकीआ = सहारा। ताणु = बल, ताकत।4।
अर्थ: हे प्रभु! तू सबके दिलों की जानने वाला है, तू ही समझदार है। नानक का सहारा तू ही है, नानक का बल भी तू ही है।4।5।143।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ हरि हरि हरि आराधीऐ ॥ संतसंगि हरि मनि वसै भरमु मोहु भउ साधीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ हरि हरि हरि आराधीऐ ॥ संतसंगि हरि मनि वसै भरमु मोहु भउ साधीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आराधीऐ = स्मरणा चाहिए। संगि संगि = संतों की संगति में। मनि = मन में। साधीऐ = साधा जा सकता है, काबू किया जा सकता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) सदा परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए। संतों की संगति में (ही) परमात्मा (मनुष्य के) मन में बस सकता है। भटकनों को, मोह को और डर-सहम को काबू किया जा सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद पुराण सिम्रिति भने ॥ सभ ऊच बिराजित जन सुने ॥१॥
मूलम्
बेद पुराण सिम्रिति भने ॥ सभ ऊच बिराजित जन सुने ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भने = कहते हैं। सभ ऊच = सबसे ऊँचे। बिराजित = टिके हुए। सुने = सुने जाते हैं।1।
अर्थ: (हे भाई! पण्डित लोग चाहे) वेद-पुराण-स्मृतियां (आदि धार्मिक पुस्तकों को) पढ़ते हैं पर संत जन अन्य सभी लोगों से ऊँचे आत्मिक ठिकाने पे टिके हुए सुने जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगल असथान भै भीत चीन ॥ राम सेवक भै रहत कीन ॥२॥
मूलम्
सगल असथान भै भीत चीन ॥ राम सेवक भै रहत कीन ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असथान = स्थान, हृदय स्थल। भै भीत = डरों से सहमे हुए। चीन = देखे जाते हैं।2।
अर्थ: (हे भाई!) और सारे हृदय-स्थल डरों से सहमे हुए देखे जा सकते हैं, (परमात्मा के स्मरण ने) परमात्मा के भक्तों को डरों से रहित कर दिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लख चउरासीह जोनि फिरहि ॥ गोबिंद लोक नही जनमि मरहि ॥३॥
मूलम्
लख चउरासीह जोनि फिरहि ॥ गोबिंद लोक नही जनमि मरहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फिरहि = भटकते फिरते हैं। जनमि = जनम के। मरहि = मरते हैं।3।
अर्थ: (हे भाई! जीव) चौरासी लाख जूनियों में भटकते फिरते हैं, पर परमात्मा के भक्त जनम मरन के चक्कर में नहीं पड़ते।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बल बुधि सिआनप हउमै रही ॥ हरि साध सरणि नानक गही ॥४॥६॥१४४॥
मूलम्
बल बुधि सिआनप हउमै रही ॥ हरि साध सरणि नानक गही ॥४॥६॥१४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रही = खत्म हो जाती है। गही = पकड़ी।4।
अर्थ: (हे नानक! जिस मनुष्यों ने) परमात्मा का, गुरु का आसरा ले लिया, उनके अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। वह अपनी ताकत का, अपनी अक्ल का, अपनी समझदारी का आसरा नहीं लेते।4।6।144।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ मन राम नाम गुन गाईऐ ॥ नीत नीत हरि सेवीऐ सासि सासि हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ मन राम नाम गुन गाईऐ ॥ नीत नीत हरि सेवीऐ सासि सासि हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! गुन = गुण। सेवीऐ = सेवा भक्ति करनी चाहिए। सासि सासि = हरेक श्वास के साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरे) मन! (आ) परमात्मा का नाम स्मरण करें, परमात्मा के गुण गायन करें। (हे मन!) सदा ही परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संतसंगि हरि मनि वसै ॥ दुखु दरदु अनेरा भ्रमु नसै ॥१॥
मूलम्
संतसंगि हरि मनि वसै ॥ दुखु दरदु अनेरा भ्रमु नसै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में (शब्द ‘मन’ और ‘मनि’ में फर्क याद रखें)। भ्रम = भटकना।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु संत की संगति में (रहने से) परमात्मा (मनुष्य के) मन में आ बसता है। (जिस के मन में बस जाता है उसके अंदर से) हरेक किस्म के दुख दर्द दूर हो जाते हैं, मोह का अंधकार दूर हो जाता है (माया की खातिर) भटकना समाप्त हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत प्रसादि हरि जापीऐ ॥ सो जनु दूखि न विआपीऐ ॥२॥
मूलम्
संत प्रसादि हरि जापीऐ ॥ सो जनु दूखि न विआपीऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रसादि = किरपा से। जापीऐ = जपा जा सकता है। दूखि = दुख में। विआपीऐ = दब जाता है, काबू में आता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की किरपा से (ही) परमात्मा का नाम जपा जा सकता है। (जो मनुष्य जपता है) वह मनुष्य किसी किस्म के दुख में नहीं घिरता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ गुरु हरि मंत्रु दे ॥ सो उबरिआ माइआ अगनि ते ॥३॥
मूलम्
जा कउ गुरु हरि मंत्रु दे ॥ सो उबरिआ माइआ अगनि ते ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। मंत्र = उपदेश। दे = देता है। ते = से।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम मंत्र देता है, वह मनुष्य माया की (तृष्णा) आग (में जलने) से बच जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक कउ प्रभ मइआ करि ॥ मेरै मनि तनि वासै नामु हरि ॥४॥७॥१४५॥
मूलम्
नानक कउ प्रभ मइआ करि ॥ मेरै मनि तनि वासै नामु हरि ॥४॥७॥१४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मइआ = दया। तनि = हृदय में। वसै = बस पड़े।4।
अर्थ: (हे प्रभु! मुझ) नानक पर किरपा कर, (ताकि) मेरे मन में हृदय में, हे हरि! तेरा नाम बस जाए।4।7।145।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ रसना जपीऐ एकु नाम ॥ ईहा सुखु आनंदु घना आगै जीअ कै संगि काम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ रसना जपीऐ एकु नाम ॥ ईहा सुखु आनंदु घना आगै जीअ कै संगि काम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ से। एकु नामु = सिर्फ हरि नाम। ईहा = इस लोक में। घना = बहुत। आगै = पर लोक में। जीअ कै संगि = जिंद के साथ। जीअ कै काम = जिंद के काम।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिहवा से हरि नाम जपते रहना चाहिए। (अगर हरि नाम जपते रहें तो) इस लोक में (इस जीवन में) बहुत सुख आनंद मिलता है और परलोक में (ये हरि नाम) जीवात्मा (जिंद) के काम आता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कटीऐ तेरा अहं रोगु ॥ तूं गुर प्रसादि करि राज जोगु ॥१॥
मूलम्
कटीऐ तेरा अहं रोगु ॥ तूं गुर प्रसादि करि राज जोगु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कटीऐ = काटे जा सकते हैं। अहं = अहम्, मैं मैं, अहंकार। प्रसादि = कृपा से। जोगु = (प्रभु से) मिलाप। राज जोगु = गृहस्थी भी और फकीरी भी।1।
अर्थ: (हे भाई! हरि नाम की इनायत से) तेरा अहंकार का रोग काटा जा सकता है। (नाम जप जप के) गुरु की किरपा से तू गृहस्थ का सुख भी ले सकता है, और प्रभु से मिलाप भी प्राप्त कर सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि रसु जिनि जनि चाखिआ ॥ ता की त्रिसना लाथीआ ॥२॥
मूलम्
हरि रसु जिनि जनि चाखिआ ॥ ता की त्रिसना लाथीआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिसने। जनि = जन ने। जिनि जनि = जिस मनुष्य ने।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम रस चख लिया, उसकी (माया की) तृष्णा उतर जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि बिस्राम निधि पाइआ ॥ सो बहुरि न कत ही धाइआ ॥३॥
मूलम्
हरि बिस्राम निधि पाइआ ॥ सो बहुरि न कत ही धाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिस्राम = शांति, टिकाव। निधि = खजाना। बिस्राम निधि = शांति का खजाना। बहुरि = मुड़, दुबारा। कत ही = किसी और तरफ। धाइआ = भटकता, भागता फिरता।3।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने हरि-नाम-रस चख लिया) उसे शांति का खजाना परमात्मा मिल गया। वह मनुष्य दुबारा किसी भी ओर भटकता नहीं फिरता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु जा कउ गुरि दीआ ॥ नानक ता का भउ गइआ ॥४॥८॥१४६॥
मूलम्
हरि हरि नामु जा कउ गुरि दीआ ॥ नानक ता का भउ गइआ ॥४॥८॥१४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। जा कउ = जिसे। गुरि = गुरु ने। का = की। (शब्द ‘का’ और ‘कउ’ में फर्क याद रखें)।4।
अर्थ: (हे नानक!) जिस मनुष्य को गुरु ने परमात्मा का नाम बख्श दिया, उसका हरेक किस्म का डर दूर हो गया।4।8।146।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी२ महला ५ ॥ जा कउ बिसरै राम नाम ताहू कउ पीर ॥ साधसंगति मिलि हरि रवहि से गुणी गहीर ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी२ महला ५ ॥ जा कउ बिसरै राम नाम ताहू कउ पीर ॥ साधसंगति मिलि हरि रवहि से गुणी गहीर ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस मनुष्य को। ताहू कउ = उसी को। पीर = पीड़ा, दुख। रवहि = (जो) स्मरण करते हैं। गुणी = गुणों के मालिक। गहीर = गहरे जिगरे वाले।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम भूल जाता है उसे ही दुख आ घेरता है। जो मनुष्य साधु-संगत में बैठ के परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वह गुणों के मालिक बन जाते हैं, वह गहरे जिगरे वाले बन जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ गुरमुखि रिदै बुधि ॥ ता कै कर तल नव निधि सिधि ॥१॥
मूलम्
जा कउ गुरमुखि रिदै बुधि ॥ ता कै कर तल नव निधि सिधि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। रिदै = हृदय में। बुधि = (स्मरण की) अक्ल। कर = हाथ। तल = तली। ता कै कर तल = उसके हाथ की तलियों पर। नव निधि = नौ खजाने। सिधि = सिद्धियां।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य के हृदय में (स्मरण की) सूझ पैदा हो जाती है, उस मनुष्य के हाथों की तलियों पर नौ खजाने और सारी सिद्धियां (आ टिकती हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जानहि हरि प्रभ धनी ॥ किछु नाही ता कै कमी ॥२॥
मूलम्
जो जानहि हरि प्रभ धनी ॥ किछु नाही ता कै कमी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जानहि = जानते हैं, गहरी सांझ डालते हैं। धनी = मालिक। ता कै = उनके घर में। कमी = घाट।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य (सब खजानों के) मालिक हरि प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल लेते हैं, उनके घर में किसी चीज की कोई कमी नहीं रहती।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करणैहारु पछानिआ ॥ सरब सूख रंग माणिआ ॥३॥
मूलम्
करणैहारु पछानिआ ॥ सरब सूख रंग माणिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करणैहारु = विधाता कर्तार।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने विधाता कर्तार के साथ मेल-जोल बना लिया, वह आत्मिक सुख और आनंद भोगता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि धनु जा कै ग्रिहि वसै ॥ कहु नानक तिन संगि दुखु नसै ॥४॥९॥१४७॥
मूलम्
हरि धनु जा कै ग्रिहि वसै ॥ कहु नानक तिन संगि दुखु नसै ॥४॥९॥१४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै ग्रिहि = जिनके हृदय घर में। तिन संगि = उनकी संगति में रहने से।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्यों के हृदय-घर में परमात्मा का नाम धन आ बसता है, उनकी संगति में रहने से हर किस्म के दुख दूर हो जाते हैं।4।9।147।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ गरबु बडो मूलु इतनो ॥ रहनु नही गहु कितनो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ गरबु बडो मूलु इतनो ॥ रहनु नही गहु कितनो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गरबु = गर्व, अहंकार। मूलु = पाया, विक्त। इतनो = थोड़ा सी ही। गहु = पकड़, माया की ओर खींच। कितनो = (भाव) बहुत।1।
अर्थ: हे जीव! तुझे (अपने आप का) अहंकार तो बहुत है, पर (इस अहंकार का) मूल (मेरा अपना विक्त) थोड़ा सा ही है। (इस संसार में तेरा सदा के लिए) ठिकाना नहीं है, पर तेरी माया के वास्ते कशिश बहुत ज्यादा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेबरजत बेद संतना उआहू सिउ रे हितनो ॥ हार जूआर जूआ बिधे इंद्री वसि लै जितनो ॥१॥
मूलम्
बेबरजत बेद संतना उआहू सिउ रे हितनो ॥ हार जूआर जूआ बिधे इंद्री वसि लै जितनो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेबरजत = विवर्जित, रोकते। उआ हू सिउ = उसी से। रे = हे भाई! बिधे = तरह। वसि लै = वश में कर के। जितनो = जीत लिया है।1।
अर्थ: हे जीव! (जिस माया के मोह से) वेद आदिक धार्मिक पुस्तकें विवर्जित (रोकती) करती हैं, उससे तेरा प्यार बना रहता है। तू जीवन बाजी हार रहा है जैसे जूए में जुआरी हारता है। इंद्रियों (काम-वासना आदि) ने अपने वश में ले कर तुझे जीता हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरन भरन स्मपूरना चरन कमल रंगि रितनो ॥ नानक उधरे साधसंगि किरपा निधि मै दितनो ॥२॥१०॥१४८॥
मूलम्
हरन भरन स्मपूरना चरन कमल रंगि रितनो ॥ नानक उधरे साधसंगि किरपा निधि मै दितनो ॥२॥१०॥१४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरन भरन संपूरना = सब जीवों के नाश करने वाला व पालने वाला। रंगि = रंग में, प्रेम में। रितनो = खाली। उधरे = बच गए। किरपा निधि = किरपा का खजाना प्रभु।2।
अर्थ: हे जीव! सब जीवों के नाश करने वाले और पालने वाले परमात्मा के सुंदर चरणों के प्रेम में (टिकने) से तू वंचित है।
हे नानक! (कह: जो मनुष्य) साधु-संगत में (जुड़ते हैं वह माया के मोह से) बच जाते हैं। कृपा के खजाने परमात्मा ने (अपनी कृपा करके) मुझे (नानक को अपने चरणों के प्यार की दाति) दी है।2।10।148।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी३ महला ५ ॥ मोहि दासरो ठाकुर को ॥ धानु प्रभ का खाना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी३ महला ५ ॥ मोहि दासरो ठाकुर को ॥ धानु प्रभ का खाना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मोहि = मैं। दासरो = गरीब सा दास। को = का। धानु = बतौर दान दिया हुआ अंन्न।1। रहाउ।
अर्थ: पालनहार प्रभु का मैं एक निमाणा सा सेवक हूँ, मैं उसी प्रभु का दिया हुआ अन्न ही खाता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसो है रे खसमु हमारा ॥ खिन महि साजि सवारणहारा ॥१॥
मूलम्
ऐसो है रे खसमु हमारा ॥ खिन महि साजि सवारणहारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! एसो = एसा। खिन महि = थोड़े जितने समय में ही। साजि = सजा के। सवारणहारा = सुंदर बना देने की स्मर्था वाला।1।
अर्थ: हे भाई! मेरा पति प्रभु ऐसा है कि एक छिन में रचना रच के उसे सुंदर बनाने की स्मर्था रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु करी जे ठाकुर भावा ॥ गीत चरित प्रभ के गुन गावा ॥२॥
मूलम्
कामु करी जे ठाकुर भावा ॥ गीत चरित प्रभ के गुन गावा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करी = मैं करूँ। ठाकुर भावा = ठाकुर को अच्छा लगूँ। चरित = महिमा की बातें।2।
अर्थ: (हे भाई! मैं ठाकुर प्रभु का दिया हुआ खाता हूँ) अगर उस ठाकुर प्रभु की किरपा मुझ पर हो, तो मैं (उस का ही) काम करूँ, उसके गुण गाता रहूँ, उसी के महिमा के गीत गुनगुनाता रहूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरणि परिओ ठाकुर वजीरा ॥ तिना देखि मेरा मनु धीरा ॥३॥
मूलम्
सरणि परिओ ठाकुर वजीरा ॥ तिना देखि मेरा मनु धीरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर वजीरा = ठाकुर के वजीर, संत जन। देखि = देख के। धीरा = धीरज वाला।3।
अर्थ: (हे भाई!) मैं उस ठाकुर प्रभु के वजीरों (संत जनों) की शरण आ पड़ा हूँ, उनका दर्शन करके मेरे मन को भी हौसला बन रहा है (कि मैं उस मालिक की महिमा कर सकूँगा)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक टेक एको आधारा ॥ जन नानक हरि की लागा कारा ॥४॥११॥१४९॥
मूलम्
एक टेक एको आधारा ॥ जन नानक हरि की लागा कारा ॥४॥११॥१४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: टेक = आसरा। आधारा = आसरा। लागा = लग पड़ा हूँ। कारा = काम में।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: ठाकुर के वजीरों की शरण पड़ कर) मैंने एक परमात्मा को ही (अपने जीवन का) ओट-आसरा बनाया है, और परमातमा (की महिमा) के काम में लगा हुआ हूँ।4।11।149।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ है कोई ऐसा हउमै तोरै ॥ इसु मीठी ते इहु मनु होरै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ है कोई ऐसा हउमै तोरै ॥ इसु मीठी ते इहु मनु होरै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: है कोई ऐसा = क्या कोई ऐसा है? तोरै = तोड़ दे। ते = से। होरै = रोक दे।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) कहीं कोई ऐसा मनुष्य भी मिल जाएगा जो (मेरे) इस मन को इस मीठी (लगने वाली माया के मोह) को रोक सके?।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगिआनी मानुखु भइआ जो नाही सो लोरै ॥ रैणि अंधारी कारीआ कवन जुगति जितु भोरै ॥१॥
मूलम्
अगिआनी मानुखु भइआ जो नाही सो लोरै ॥ रैणि अंधारी कारीआ कवन जुगति जितु भोरै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगिआनी = बेसमझ। जो नाही = जो (सदा साथ निभने वाली) नहीं। लोरै = लोड़ता है, ढूँढता है। रैणि = रात। अंधारी = अंधेरी। कारीआ = काली। जुगति = तरीका। जितु = जिस (तरीके) से। भोरै = दिन (चढ़े)।1।
अर्थ: (हे भाई! इस मिठाई के असर में) मनुष्य अपनी अक्ल गवा बैठा है (क्योंकि) जो (सदा साथ निभने वाली) नहीं है उसी को तलाशता फिरता है। (मनुष्य के मन में माया के मोह की) काली अंधियारी रात बनी हुई है। (हे भाई!) वह कौन सा तरीका हो सकता है जिससे (इसके अंदर ज्ञान का) दिन चढ़ जाए?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रमतो भ्रमतो हारिआ अनिक बिधी करि टोरै ॥ कहु नानक किरपा भई साधसंगति निधि मोरै ॥२॥१२॥१५०॥
मूलम्
भ्रमतो भ्रमतो हारिआ अनिक बिधी करि टोरै ॥ कहु नानक किरपा भई साधसंगति निधि मोरै ॥२॥१२॥१५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भ्रमतो भ्रमतो = भटकता भटकता। हारिआ = थक गया। टोरै = टोलना, तलाश। निधि = खजाना। मोरै = मेरे वास्ते।2।
अर्थ: हे नानक! कह: (मीठी माया के मोह से मन को रोक सकने वाले की) अनेक ढंग-तरीकों से तलाश करता-करता और भटकता-भटकता मैं थक गया। (तब प्रभु की मुझ पर) मेहर हुई (अब) साधु-संगत ही मेरे वास्ते (उनके सारे गुणों का) खजाना है (जिनकी इनायत से मीठी माया के मोह से मन रुक सकता है)।2।12।150।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ चिंतामणि करुणा मए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ चिंतामणि करुणा मए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चिंतामणि = (चिंता+मणि) हरेक चितवनी पूरी करने वाली मणि/रत्न, परमात्मा जो जीव की हरेक चितवनी पूरी करने वाला है। करुणा = तरस, दया। करुणा मै = करुणामय, तरसरूप, तरस भरपूर। करुणामये = हे तरस रूप प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: हे तरस-रूप प्रभु! तू ही ऐसा रत्न है जो सब जीवों की चितवी हुई कामनाएं पूरी करने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआला पारब्रहम ॥ जा कै सिमरणि सुख भए ॥१॥
मूलम्
दीन दइआला पारब्रहम ॥ जा कै सिमरणि सुख भए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कै सिमरणि = जिसके स्मरण से।1।
अर्थ: हे पारब्रहम प्रभु! तू गरीबों पर दया करने वाला है (तू ऐसा है) जिसके नाम जपने की इनायत से सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकाल पुरख अगाधि बोध ॥ सुनत जसो कोटि अघ खए ॥२॥
मूलम्
अकाल पुरख अगाधि बोध ॥ सुनत जसो कोटि अघ खए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगाधि = अथाह। बोध = ज्ञान, समझ। अगाधि बोध = वह प्रभु जिसके स्वरूप की समझ जीवों के लिए अथाह है। जसो = यश, महिमा। कोट = करोड़ों। अघ = पाप। खए = नाश हो गए।2।
अर्थ: हे अकाल-पुरख! तेरे स्वरूप की समझ जीवों की अक्ल से परे है, तेरी महिमा सुनने से करोड़ों पाप नाश हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किरपा निधि प्रभ मइआ धारि ॥ नानक हरि हरि नाम लए ॥३॥१३॥१५१॥
मूलम्
किरपा निधि प्रभ मइआ धारि ॥ नानक हरि हरि नाम लए ॥३॥१३॥१५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधि = खजाना। प्रभ = हे प्रभु! मइआ = दया। धारि = धारी, धारण की।3।
अर्थ: हे नानक! (अरदास कर और कह:) हे किरपा के खजाने प्रभु! जिस मनुष्य पर तू तरस करता है, वह तेरा हरि नाम स्मरण करता है।3।13।151
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी४ महला ५ ॥ मेरे मन सरणि प्रभू सुख पाए ॥ जा दिनि बिसरै प्रान सुखदाता सो दिनु जात अजाए ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी४ महला ५ ॥ मेरे मन सरणि प्रभू सुख पाए ॥ जा दिनि बिसरै प्रान सुखदाता सो दिनु जात अजाए ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! पाए = पाता है। दिनि = दिन में। जा दिन = जिस दिन में। अजाए = व्यर्थ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! जो मनुष्य प्रभु की शरण पड़ता है, वह आत्मिक आनंद पाता है। जिस दिन जिंद का दाता सुखों का देने वाला (प्रभु) जीव को बिसर जाता है, (उसका) वह दिन व्यर्थ चला जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक रैण के पाहुन तुम आए बहु जुग आस बधाए ॥ ग्रिह मंदर स्मपै जो दीसै जिउ तरवर की छाए ॥१॥
मूलम्
एक रैण के पाहुन तुम आए बहु जुग आस बधाए ॥ ग्रिह मंदर स्मपै जो दीसै जिउ तरवर की छाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैण = रात। पाहुन = मेहमान। बधाए = बाँधते हो। ग्रिह = घर। मंदर = सुंदर मकान। संपै = धन। तरवर = वृक्ष। छाए = छाया।1।
अर्थ: (हे भाई!) तुम एक रात (कहीं सफर में) गुजारने वाले मेहमान की तरह (जगत में) आए हो पर यहां कई युग जीते रहने की उम्मीदें बाँध रहे हो। (हे भाई!) ये घर-महल, धन-पदार्थ - जो कुछ दिख रहा है, ये सभ वृक्ष की छाया की तरह है (सदा साथ नहीं निभाता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तनु मेरा स्मपै सभ मेरी बाग मिलख सभ जाए ॥ देवनहारा बिसरिओ ठाकुरु खिन महि होत पराए ॥२॥
मूलम्
तनु मेरा स्मपै सभ मेरी बाग मिलख सभ जाए ॥ देवनहारा बिसरिओ ठाकुरु खिन महि होत पराए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलख = जमीन। जाए = जगहें। ठाकुरु = पालनहार प्रभु। पराए = बाहरी।2।
अर्थ: ये शरीर मेरा है, ये धन-पदार्थ सारा मेरा है, ये बाग मेरे हैं, ये जमीनें मेरी हैं, ये सारे स्थान मेरे हैं; (हे भाई! इस ममता में फंस के मनुष्य को ये सब कुछ) देने वाला परमात्मा ठाकुर भूल जाता है (और, ये सारे ही पदार्थ) एक छिन में पराए हो जाते हैं (इस तरह आखिर खाली हाथ चल पड़ता है)।2।
[[0213]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
पहिरै बागा करि इसनाना चोआ चंदन लाए ॥ निरभउ निरंकार नही चीनिआ जिउ हसती नावाए ॥३॥
मूलम्
पहिरै बागा करि इसनाना चोआ चंदन लाए ॥ निरभउ निरंकार नही चीनिआ जिउ हसती नावाए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पहिरै = पहनता है। बागा = सफेद कपड़े। करि = कर के। चोआ = इत्र। चीनिआ = पहचाना। हस्ती = हाथी। नावाए = नहलाते हैं।3।
अर्थ: मनुष्य नहा-धो के सफेद साफ कपड़े पहनता है, इत्र और चंदन आदि (शरीर को कपड़ों को) लगाता है, पर यदि मनुष्य निरभउ, निरंकार के साथ जान-पहिचान नहीं डालता तो ये सब उद्यम यूँ ही हैं जैसे कोई मनुष्य हाथी को नहलाता है (और नहाने के बाद हाथी अपने ऊपर धूल डाल लेता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ होइ क्रिपाल त सतिगुरु मेलै सभि सुख हरि के नाए ॥ मुकतु भइआ बंधन गुरि खोले जन नानक हरि गुण गाए ॥४॥१४॥१५२॥
मूलम्
जउ होइ क्रिपाल त सतिगुरु मेलै सभि सुख हरि के नाए ॥ मुकतु भइआ बंधन गुरि खोले जन नानक हरि गुण गाए ॥४॥१४॥१५२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ = जब। त = तो। सभि = सारे। नाए = नाम में। मुकतु = (मोह से) स्वतंत्र। गुरि = गुरु ने।4।
अर्थ: (पर) हे नानक! (जीवों के भी क्या वश?) जब परमात्मा (किसी पर) दयावान होता है, तब उसे गुरु मिलाता है (गुरु उसे नाम की दाति देता है जिस) हरि-नाम में सारे ही सुख हैं। जिस मनुष्य के (माया के मोह के) बंधन गुरु ने खोल दिए, वह मनुष्य (ही) परमात्मा के गुण गाता है।4।14।152।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ५ ॥ मेरे मन गुरु गुरु गुरु सद करीऐ ॥ रतन जनमु सफलु गुरि कीआ दरसन कउ बलिहरीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ५ ॥ मेरे मन गुरु गुरु गुरु सद करीऐ ॥ रतन जनमु सफलु गुरि कीआ दरसन कउ बलिहरीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! सद = सदा। रतन जनमु = कीमती मानव जन्म। गुरि = गुरु ने। कउ = को। बलिहारीऐ = बलिहार, कुर्बान।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा सदा ही गुरु को याद रखना चाहिए। गुरु के दर्शनों से सदके जाना चाहिए। गुरु ने (ही जीवों के) कीमती मानव जनम को फल लगाया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेते सास ग्रास मनु लेता तेते ही गुन गाईऐ ॥ जउ होइ दैआलु सतिगुरु अपुना ता इह मति बुधि पाईऐ ॥१॥
मूलम्
जेते सास ग्रास मनु लेता तेते ही गुन गाईऐ ॥ जउ होइ दैआलु सतिगुरु अपुना ता इह मति बुधि पाईऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेते = जितने। सास = स्वास। ग्रास = ग्रास, कौर। मन = (भाव) जीव (शब्द ‘मन’ और ‘मनु’ में फर्क याद रहे)। जउ = जब।1।
अर्थ: (हे भाई!) जीव जितने भी श्वास लेता है, जितने भी ग्रास खाता है (हरेक स्वास व ग्रास के साथ-साथ) उतने ही परमात्मा के गुण गाता रहे। (पर) ये अक्ल ये मति तभी जीव को मिलती है जब प्यारा सतिगुरु दयावान हो।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन नामि लए जम बंध ते छूटहि सरब सुखा सुख पाईऐ ॥ सेवि सुआमी सतिगुरु दाता मन बंछत फल आईऐ ॥२॥
मूलम्
मेरे मन नामि लए जम बंध ते छूटहि सरब सुखा सुख पाईऐ ॥ सेवि सुआमी सतिगुरु दाता मन बंछत फल आईऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि लए = अगर नाम लिया जाए। ते = से। छूटहि = तू बच जाएगा। सेवि = सेवा भक्ति करके। मन बंछत = मन इच्छित। आईऐ = हाथ आ जाता है।2।
अर्थ: हे मेरे मन! अगर तू परमात्मा का नाम स्मरण करता रहे तो यम के बंधनों से निजात पा लेगा (उन मायावी बंधनों से छूट जाएगा जो जम के वश में डालते हैं जो आत्मिक मौत ला देते हैं), और नाम स्मरण करने से सारे सुखों से श्रेष्ठ आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाता है। (हे भाई!) मालिक प्रभु के नाम की दाति देने वाले सतिगुरु की सेवा करके मन-इच्छित फल हाथ आ जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु इसटु मीत सुत करता मन संगि तुहारै चालै ॥ करि सेवा सतिगुर अपुने की गुर ते पाईऐ पालै ॥३॥
मूलम्
नामु इसटु मीत सुत करता मन संगि तुहारै चालै ॥ करि सेवा सतिगुर अपुने की गुर ते पाईऐ पालै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इसटु = प्यारा। सुत = पुत्र। करता नामु = कर्तार का नाम। मन = हे मन! पालै = पल्ले।3।
अर्थ: हे मेरे मन! कर्तार का नाम ही तेरा असल प्यारा है, मित्र है, पुत्र है। हे मन! ये नाम ही हर समय तेरे साथ साथ रहता है। हे मन! अपने सतिगुरु की शरण पड़, कर्तार का नाम सतिगुरु से ही मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि किरपालि क्रिपा प्रभि धारी बिनसे सरब अंदेसा ॥ नानक सुखु पाइआ हरि कीरतनि मिटिओ सगल कलेसा ॥४॥१५॥१५३॥
मूलम्
गुरि किरपालि क्रिपा प्रभि धारी बिनसे सरब अंदेसा ॥ नानक सुखु पाइआ हरि कीरतनि मिटिओ सगल कलेसा ॥४॥१५॥१५३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। प्रभि = प्रभु ने। अंदेसा = फिक्र। कीरतनि = कीर्तन द्वारा।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य पर कृपालु सतिगुरु ने परमात्मा ने मेहर की उसके सारे चिन्ता-फिक्र समाप्त हो गए। जिस मनुष्य ने परमात्मा के कीर्तन में आनंद उठाया, उसके सारे दुख-कष्ट दूर हो गऐ।4।15।153।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिसना बिरले ही की बुझी हे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
त्रिसना बिरले ही की बुझी हे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिसना = लालच, माया की प्यास।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) किसी विरले मनुष्य के अंदर से तृष्णा (की आग) बुझती है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोटि जोरे लाख क्रोरे मनु न होरे ॥ परै परै ही कउ लुझी हे ॥१॥
मूलम्
कोटि जोरे लाख क्रोरे मनु न होरे ॥ परै परै ही कउ लुझी हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। जोरे = जोड़ता है। होरे = रोकता। परै कउ = ज्यादा धन वास्ते। लुझी हे = झगड़ता है।1।
अर्थ: (साधारण हालात ये बने हुए हैं कि मनुष्य) करोड़ों रुपए कमाता है, लाखों करोड़ों रुपए एकत्र करता है (फिर भी माया के लालच से अपने) मन को रोकता नहीं (बल्कि) और ज्यादा और ज्यादा धन इकट्ठा करने के लिए (तृष्णा की आग में) जलता रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुंदर नारी अनिक परकारी पर ग्रिह बिकारी ॥ बुरा भला नही सुझी हे ॥२॥
मूलम्
सुंदर नारी अनिक परकारी पर ग्रिह बिकारी ॥ बुरा भला नही सुझी हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पर ग्रिह = पराए घर, पराई स्त्री। बिकार = बुरे काम। बिकारी = बुरे कर्म करने वाला।2।
अर्थ: मनुष्य अपनी सुंदर स्त्री के साथ अनेक किस्मों के लाड-प्यार करता है, फिर भी पर-स्त्री संग का कु-कर्म करता है (काम-वासना में अंधे हुए हुए को) ये नहीं सूझता कि बुरा कर्म कौन सा है और अच्छा कर्म कौन सा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक बंधन माइआ भरमतु भरमाइआ गुण निधि नही गाइआ ॥ मन बिखै ही महि लुझी हे ॥३॥
मूलम्
अनिक बंधन माइआ भरमतु भरमाइआ गुण निधि नही गाइआ ॥ मन बिखै ही महि लुझी हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण निधि = गुणों का खजाना परमात्मा। मन = हे मन! बिखै महि = विषौ विकारों में।3।
अर्थ: (हे भाई! माया के मोह के) अनेक बंधनों में बंधा हुआ मनुष्य (माया की खातिर) भटकता फिरता है। माया इसे खुआर करती है, (माया के प्रभाव तले) मनुष्य गुणों के खजाने परमात्मा की महिमा नहीं करता। मनुष्यों के मन विषौ-विकारों की आग में जलते रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ रे किरपा करै जीवत सोई मरै साधसंगि माइआ तरै ॥ नानक सो जनु दरि हरि सिझी हे ॥४॥१॥१५४॥
मूलम्
जा कउ रे किरपा करै जीवत सोई मरै साधसंगि माइआ तरै ॥ नानक सो जनु दरि हरि सिझी हे ॥४॥१॥१५४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रे = हे भाई! सोई = वही मनुष्य। साध संगि = गुरु की संगति में। दरि हरि = हरि के दर पर। सिझी है = कामयाब होता है।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वही मनुष्य दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी माया के मोह से अछूता रहता है, और साधु-संगत में रह के माया (के बवंडर से) पार लांघ जाता है। वह मनुष्य परमात्मा के दर पर कामयाब गिना जाता है।4।1।154।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ सभहू को रसु हरि हो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ सभहू को रसु हरि हो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: को = का। सभहू को = सारे ही जीवों का। रसु = श्रेष्ठ आनंद। हो = हे भाई! हरि = हरि नाम।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही सब जीवों का श्रेष्ठ आनंद है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहू जोग काहू भोग काहू गिआन काहू धिआन ॥ काहू हो डंड धरि हो ॥१॥
मूलम्
काहू जोग काहू भोग काहू गिआन काहू धिआन ॥ काहू हो डंड धरि हो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहू जोग = किसी को योग कमाने का रस है। भोग = दुनिया के पदार्थ भोगने। ध्यान = समाधि लगानी। डंड धारि = डण्डाधारी जोगी।1।
अर्थ: (पर) हे भाई! (प्रभु के नाम से विछुड़ के) किसी मनुष्य को जोग कमाने का शौक पड़ गया है, किसी को दुनियावी पदार्थ भोगने का चस्का है। किसी को ज्ञान-चर्चा अच्छी लगती है, किसी को समाधियां पसंद हैं और किसी को डण्डाधारी जोगी बनना अच्छा लगता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहू जाप काहू ताप काहू पूजा होम नेम ॥ काहू हो गउनु करि हो ॥२॥
मूलम्
काहू जाप काहू ताप काहू पूजा होम नेम ॥ काहू हो गउनु करि हो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ताप = धूणियां तपानी। होम = हवन। नेम = नित्य का काम। गउन = (धरती पर) रमते साधू बन के फिरते रहना।2।
अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का नाम छोड़ के) किसी को (देवी-देवताओं के वश करने के) जाप पसंद आ रहे हैं, किसी को धूणियां तपानी अच्छी लगती हैं, किसी को देव पूजा, किसी को हवन आदि के नित्य के नियम पसंद हैं और किसी को (रमता साधु बन के) धरती पर चलते जाना अच्छा लगता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहू तीर काहू नीर काहू बेद बीचार ॥ नानका भगति प्रिअ हो ॥३॥२॥१५५॥
मूलम्
काहू तीर काहू नीर काहू बेद बीचार ॥ नानका भगति प्रिअ हो ॥३॥२॥१५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तीर = काँटा, नदी का किनारा। नीर = पानी, तीर्थ स्नान। प्रिय = प्यारा।3।
अर्थ: हे भाई! किसी को किसी नदी के किनारे बैठना, किसी को तीर्थ-स्नान, और किसी को वेदों की विचार पसंद है। पर, हे नानक! परमात्मा भक्ति को प्यार करने वाला है।3।2।155।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ गुन कीरति निधि मोरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ गुन कीरति निधि मोरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुन कीरति = गुणों की कीर्ति, गुणों की उपमा। निधि = खजाना। मोरी = मेरी, मेरे लिए।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे गुणों की उपमा करनी ही मेरे लिए (दुनिया के सारे पदार्थों का) खजाना है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूंही रस तूंही जस तूंही रूप तूही रंग ॥ आस ओट प्रभ तोरी ॥१॥
मूलम्
तूंही रस तूंही जस तूंही रूप तूही रंग ॥ आस ओट प्रभ तोरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रस = दुनिया के पदार्थों का स्वाद। जस = दुनिया के यश, वडिआईयां। रंग = जगत के खेल तमाशे। प्रभ = हे प्रभु! तोरी = तेरी।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू ही (मेरे वास्ते दुनिया के पदार्थों के) स्वाद है। तू ही (मेरे लिए दुनिया के) मान-सम्मान है, तू ही (मेरे लिए) जगत के सुंदर रूप और रंग तमाशे है। हे प्रभु! मुझे तेरी ओट है तेरी ही आस है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूही मान तूंही धान तूही पति तूही प्रान ॥ गुरि तूटी लै जोरी ॥२॥
मूलम्
तूही मान तूंही धान तूही पति तूही प्रान ॥ गुरि तूटी लै जोरी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मान = आदर। धान = धन। पति = इज्जत। प्रान = जिंद (का सहारा)। गुरि = गुरु ने। जोरी = जोड़ दी है।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू ही मेरा आदर-मान है, तू ही मेरा धन है, तू ही मेरी इज्जत है, तू ही मेरी जिंद (का सहारा) है। मेरी टूटी हुई (तवज्जो) को गुरु ने (तेरे साथ) जोड़ दिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूही ग्रिहि तूही बनि तूही गाउ तूही सुनि ॥ है नानक नेर नेरी ॥३॥३॥१५६॥
मूलम्
तूही ग्रिहि तूही बनि तूही गाउ तूही सुनि ॥ है नानक नेर नेरी ॥३॥३॥१५६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ग्रिहि = घर में। बनि = जंगल में। गाउ = गाँव, आबादी। सुनि = सूने। नेर नेरी = नजदीक से नजदीक, बहुत नजदीक।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू ही (मुझे) घर में दिखाई दे रहा है, तू ही (मुझे) जंगल में (दिख रहा) है, तू ही (मुझे) आबादी में (दिखाई दे रहा) है, तू ही (मुझे) उजाड़ में (दिख रहा) है। हे नानक! प्रभु (हरेक जीव के) अत्यंत नजदीक बसता है।3।3।156।
[[0214]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ ॥ मातो हरि रंगि मातो ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ ॥ मातो हरि रंगि मातो ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मातो = मस्त। रंगि = प्रेम में। हरि रंगि = हरि के प्रेम के नशे में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे जोगी! मैं भी) मतवाला हूँ (पर मैं तो) परमात्मा के प्रेम-शराब का मतवाला हो रहा हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओुही पीओ ओुही खीओ गुरहि दीओ दानु कीओ ॥ उआहू सिउ मनु रातो ॥१॥
मूलम्
ओुही पीओ ओुही खीओ गुरहि दीओ दानु कीओ ॥ उआहू सिउ मनु रातो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओुही = वह नाम रस ही, वह प्रेम मद ही। पीओ = पीता है। खीओ = खीवा, मस्त। गुरि = गुरु ने। उआ ही सिउ = उसी नाम नशे से ही। रातो = रंगा हुआ है।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओुही’ में से अक्षर ‘अ’ के साथ दो मात्राएं हैं ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द ‘ओही’ है। यहां पढ़ना है ‘उही’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे जोगी!) मैंने वह नाम-मद ही पीया है, वह नाम का नशा पी के ही मैं मस्त हो रहा हूँ। गुरु ने मुझे ये नाम मद दिया है, मुझे ये दाति दी है। अब उसी नाम-मद से ही मेरा मन रंगा हुआ है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओुही भाठी ओुही पोचा उही पिआरो उही रूचा ॥ मनि ओहो सुखु जातो ॥२॥
मूलम्
ओुही भाठी ओुही पोचा उही पिआरो उही रूचा ॥ मनि ओहो सुखु जातो ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाठी = शराब निकालने वाली भट्ठी। पोचा = अर्क निकालने वाली पाईप (नालिका) पर ठण्ड पहुँचाने के लिए किया गया लेपन। पिआरो = प्याला। रूचा = रुचि, उमंग। मनि = मन में।2।
अर्थ: (हे जोगी!) परमात्मा का नाम ही (शराब निकालने वाली) भट्ठी है, वह नाम ही (शराब निकलने वाली नालिका पर ठण्डक पहुँचाने वाला) पोचा है, प्रभु का नाम ही (मेरे वास्ते) प्याला है, और नाम-मद ही मेरी लगन है। (हे जोगी!) मैं अपने मन में उसी (नाम-मदिरा का) आनंद ले रहा हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज केल अनद खेल रहे फेर भए मेल ॥ नानक गुर सबदि परातो ॥३॥४॥१५७॥
मूलम्
सहज केल अनद खेल रहे फेर भए मेल ॥ नानक गुर सबदि परातो ॥३॥४॥१५७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। केल = आनंद, चमत्कार। रहे = रह गए, समाप्त हो गए। फेर = चक्कर (जनम मरण के)। सबदि = शब्द में। परातो = परोया गया।3
अर्थ: हे नानक! (कह: हे जोगी! जिस मनुष्य का मन) गुरु के शब्द में परोया जाता है। वह आत्मिक अडोलता के चोज आनंद पाता है, उसका (प्रभु-चरणों से) मिलाप हो जाता है, और उसके जनम मरण के चक्कर खत्म हो जाते हैं।3।4।147।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गौड़ी मालवा महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गौड़ी मालवा महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि नामु लेहु मीता लेहु आगै बिखम पंथु भैआन ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि नामु लेहु मीता लेहु आगै बिखम पंथु भैआन ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मीता = हे मित्र! आगै = तेरे आगे, तेरे सामने, जिस रास्ते पर तू चल रहा है, जीवन सफर का रास्ता। बिखम = मुश्किल। पंथु = रास्ता। भैआन = भयानक, डरावना।1। रहाउ।
अर्थ: हे मित्र! परमात्मा का नाम स्मरण कर, नाम स्मरण कर। जिस जीवन पंथ पर तू चल रहा है वह रास्ता (विकारों के हमलों के कारण) मुश्किल है और डरावना है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवत सेवत सदा सेवि तेरै संगि बसतु है कालु ॥ करि सेवा तूं साध की हो काटीऐ जम जालु ॥१॥
मूलम्
सेवत सेवत सदा सेवि तेरै संगि बसतु है कालु ॥ करि सेवा तूं साध की हो काटीऐ जम जालु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेवत = स्मरण करते हुए। सेवि = स्मरण कर। कालु = मौत। साध = गुरु। जम कालु = मोह का वह जाल जो जम के हवाले करता है जो अत्मिक मौत में फंसा देता है।1।
अर्थ: (हे मित्र!) परमात्मा का नाम स्मरण करते-स्मरण करते सदा स्मरण करते रहो, मौत हर वक्त तेरे साथ बसती है। हे भाई! गुरु की सेवा कर (गुरु की शरण पड़। गुरु की शरण पड़ने से) वह (मोह-) जाल काटा जाता है जो आत्मिक मौत में फंसा देता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होम जग तीरथ कीए बिचि हउमै बधे बिकार ॥ नरकु सुरगु दुइ भुंचना होइ बहुरि बहुरि अवतार ॥२॥
मूलम्
होम जग तीरथ कीए बिचि हउमै बधे बिकार ॥ नरकु सुरगु दुइ भुंचना होइ बहुरि बहुरि अवतार ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: होम = हवन। बिचि = बीच में, इन कर्मों में। बधे = बढ़ गए। भुंचना = भोगने पड़े। बहुरि बहुरि = बारंबार। अवतार = जनम।3।
अर्थ: (हे मित्र! परमात्मा के नाम का स्मरण छोड़ के जिस मनुष्यों ने निरे) हवन किए, यज्ञ किए, तीर्थ स्नान किए, वह (इन किए कर्मों के) अहम् में फंसते चले गए उनके अंदर विकार बढ़ते गए। इस तरह नर्क और स्वर्ग दोनों भोगने पड़ते हैं, और मुड़ मुड़ जन्मों का चक्कर चलता रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिव पुरी ब्रहम इंद्र पुरी निहचलु को थाउ नाहि ॥ बिनु हरि सेवा सुखु नही हो साकत आवहि जाहि ॥३॥
मूलम्
सिव पुरी ब्रहम इंद्र पुरी निहचलु को थाउ नाहि ॥ बिनु हरि सेवा सुखु नही हो साकत आवहि जाहि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निहचलु = सदा कायम रहने वाला, अटल। को = कोई। हो = हे भाई! साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य, माया ग्रसित जीव।3।
अर्थ: (हे मित्र! हवन, यज्ञ, तीर्थ आदि कर्म करके लोग शिव पुरी, ब्रहम्पुरी, इन्द्रपुरी आदि की प्राप्ति की आशा बनाते हैं, पर) शिव पुरी, ब्रहम्पुरी, इन्द्रपुरी- इनमें से कोई भी जगह सदा टिके रहने वाली नहीं है। परमात्मा के स्मरण के बिना कहीं आत्मिक आनंद भी नहीं मिलता। हे भाई! परमात्मा से विछुड़े मनुष्य जनम मरन के चक्कर में पड़े रहते हैं (पैदा होते हैं मरते हैं, पैदा होते हैं मरते हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसो गुरि उपदेसिआ मै तैसो कहिआ पुकारि ॥ नानकु कहै सुनि रे मना करि कीरतनु होइ उधारु ॥४॥१॥१५८॥
मूलम्
जैसो गुरि उपदेसिआ मै तैसो कहिआ पुकारि ॥ नानकु कहै सुनि रे मना करि कीरतनु होइ उधारु ॥४॥१॥१५८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। तैसो = उस जैसा। पुकारि = ऊँचा बोल के। उधारु = बचाव।4।
अर्थ: (हे भाई!) जिस प्रकार गुरु ने (मुझे) उपदेश दिया है, मैंने उसी तरह ऊँचा बोल के बता दिया है। नानक कहता है: हे (मेरे) मन! सुन। परमात्मा का कीर्तन करता रह (कीर्तन की इनायत से विकारों से जनम मरण के चक्कर से) बचाव हो जाता है।4।1।158।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये एक शब्द “गौड़ी मालवा” का है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी माला१ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी माला१ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाइओ बाल बुधि सुखु रे ॥ हरख सोग हानि मिरतु दूख सुख चिति समसरि गुर मिले ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
पाइओ बाल बुधि सुखु रे ॥ हरख सोग हानि मिरतु दूख सुख चिति समसरि गुर मिले ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाल बुधि = बालकों वाली बुद्धि से। रे = हे भाई! हरख = हर्ष, खुशी। हानि = घाटा। मिरतु = मृत्यु, मौत। चिति = चित्त में। समसरि = बराबर, एक जैसे। गुर मिले = गुरु को मिल के।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जिस ने भी सुख आनंद पाया) बालकों वाली बुद्धि से सुख-आनंद पाया। गुरु को मिलने से (बाल-बुद्धि प्राप्त हो जाती है, और) खुशी, गमी, घाटा, मौत, दुख-सुख (ये सारे) चित्त में एक जैसे ही (प्रतीत होने लगते हैं)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ लउ हउ किछु सोचउ चितवउ तउ लउ दुखनु भरे ॥ जउ क्रिपालु गुरु पूरा भेटिआ तउ आनद सहजे ॥१॥
मूलम्
जउ लउ हउ किछु सोचउ चितवउ तउ लउ दुखनु भरे ॥ जउ क्रिपालु गुरु पूरा भेटिआ तउ आनद सहजे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जउ लउ = जब तक। सोचउ = मैं सोचता हूँ। चितवउ = चितवता हूँ। जउ = जब। भेटिआ = मिला। सहजे = आत्मिक अडोलता में।1।
अर्थ: (हे भाई!) जब तक मैं (अपनी चतुराई की) कुछ (सोचें) सोचता रहा हूँ, चितवता रहा हूँ, तब तक मैं दुखों से भरा रहा। जब (अब मुझे) पूरा गुरु मिल पड़ा है, तब से मैं आत्मिक अडोलतमा में आनंद ले रहा हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेती सिआनप करम हउ कीए तेते बंध परे ॥ जउ साधू करु मसतकि धरिओ तब हम मुकत भए ॥२॥
मूलम्
जेती सिआनप करम हउ कीए तेते बंध परे ॥ जउ साधू करु मसतकि धरिओ तब हम मुकत भए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेती = जितनी। तेते = उतने। बंध = बंधन। साधू = गुरु (ने)। करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। मुकत = (माया के बंधनों से) स्वतंत्र, मुक्त।2।
अर्थ: (हे भाई!) मैं जितने भी चतुराई के काम करता रहा, उतने ही मुझे (माया के मोह के) बंधन पड़ते गए। जब (अब) गुरु ने (मेरे) माथे पर (अपना) राथ रखा है, तब मैं (माया के मोह के बंधनों से) आजाद हो गया हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ लउ मेरो मेरो करतो तउ लउ बिखु घेरे ॥ मनु तनु बुधि अरपी ठाकुर कउ तब हम सहजि सोए ॥३॥
मूलम्
जउ लउ मेरो मेरो करतो तउ लउ बिखु घेरे ॥ मनु तनु बुधि अरपी ठाकुर कउ तब हम सहजि सोए ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = जहर। बुधि = अकल। अरपी = भेटा कर दी, अर्पित कर दी। कउ = को।3।
अर्थ: (हे भाई!) जब तक मैं ये करता रहा कि (ये घर) मेरा है, (ये धन) मेरा है, (ये पुत्र) मेरे हैं, तब तक मुझे (माया के मोह के) जहर ने घेरे रखा (और उसने मेरे आत्मिक जीवन को मार दिया)। (अब गुरु की कृपा से) मैंने अपनी चतुराई, अपना मन, अपना शरीर (हरेक ज्ञानेंद्रियों को) परमात्मा के हवाले कर दिया है, तब से मैं आत्मिक अडोलता में मस्त रहता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जउ लउ पोट उठाई चलिअउ तउ लउ डान भरे ॥ पोट डारि गुरु पूरा मिलिआ तउ नानक निरभए ॥४॥१॥१५९॥
मूलम्
जउ लउ पोट उठाई चलिअउ तउ लउ डान भरे ॥ पोट डारि गुरु पूरा मिलिआ तउ नानक निरभए ॥४॥१॥१५९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पोट = (माया के मोह की) पोटली। डान = दण्ड, सजा। डारि = फेंक के। निरभए = निडर हो गया।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जब तक मैं (माया के मोह की) पोटली (सिर पर) उठाए घूमता रहा, तब तक मैं (दुनिया के डरों-सहमों का) दण्ड भरता रहा। अब मुझे पूरा गुरु मिल गया है, (उसकी किरपा से माया के मोह की) पोटली फेंक के मैं निडर हो गया हूँ।4।1।159।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माला महला ५ ॥ भावनु तिआगिओ री तिआगिओ ॥ तिआगिओ मै गुर मिलि तिआगिओ ॥ सरब सुख आनंद मंगल रस मानि गोबिंदै आगिओ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी माला महला ५ ॥ भावनु तिआगिओ री तिआगिओ ॥ तिआगिओ मै गुर मिलि तिआगिओ ॥ सरब सुख आनंद मंगल रस मानि गोबिंदै आगिओ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भावनु = (सुख के ग्रहण करने व दुख के त्याग का) संकल्प। री = हे बहिन! गुर मिलि = गुरु को मिल के। मानि = मान के। आगिओ = आज्ञा, रजा।1। रहाउ।
अर्थ: हे बहिन! गुरु को मिल के मैंने (सुखों के ग्रहण करने व दुखों से डरने का) संकल्प छोड़ दिया है, सदा के लिए त्याग दिया है। (अब गुरु की कृपा से) परमात्मा की रजा (मीठी) मान के मुझे सारे सुख-आनंद ही हैं, खुशियां मंगल ही हैं।1। रहाउ।
[[0215]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानु अभिमानु दोऊ समाने मसतकु डारि गुर पागिओ ॥ स्मपत हरखु न आपत दूखा रंगु ठाकुरै लागिओ ॥१॥
मूलम्
मानु अभिमानु दोऊ समाने मसतकु डारि गुर पागिओ ॥ स्मपत हरखु न आपत दूखा रंगु ठाकुरै लागिओ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मानु = आदर। अहंकार = घमण्ड, अकड़न। समाने = ऐक जैसे। मसतकु = माथा। पागिओ = पैरों पर। संपत हरखु = संपक्ति का हर्ष, (आए) धन की खुशी। आपत दूखा = दुखों की आपदा, (आई) विपदा का दुख। रंगु = प्रेम।1।
अर्थ: हे बहिन! कोई मेरा आदर करे, कोई मेरे साथ घमण्डियों वाला सलूक करे, मुझे दोनों एक ही जैसे प्रतीत होते हैं। (क्यूँकि) मैंने अपना माथा (सिर) गुरु के चरणों में रख दिया है। (गुरु की किरपा से मेरे मन में) परमात्मा का प्यार बन चुका है। अब मुझे आए धन की खुशी नहीं होती, और आई बिपता से दुख प्रतीत नहीं होता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बास बासरी एकै सुआमी उदिआन द्रिसटागिओ ॥ निरभउ भए संत भ्रमु डारिओ पूरन सरबागिओ ॥२॥
मूलम्
बास बासरी एकै सुआमी उदिआन द्रिसटागिओ ॥ निरभउ भए संत भ्रमु डारिओ पूरन सरबागिओ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बास बास = बसेरे बसेरे में, सब घरों में। री = हे सखी! उदिआन = उद्यानों में, जंगलों में। भ्रमु = भटकना। पूरन = व्यापक। सरबागिओ = सर्वज्ञ, सबके दिलों की जानने वाला।2।
अर्थ: हे बहिन! अब मुझे सब घरों में एक मालिक प्रभु ही दिखता है, जंगलों में भी मुझे वही नजर आ रहा है। गुरु संत (की किरपा से) मैंने भटकना समाप्त कर ली है, अब सबके दिल की जानने वाला प्रभु ही मुझे सर्व-व्यापक दिखता है और मैं निडर हो गया हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु करतै कारणु कीनो मनि बुरो न लागिओ ॥ साधसंगति परसादि संतन कै सोइओ मनु जागिओ ॥३॥
मूलम्
जो किछु करतै कारणु कीनो मनि बुरो न लागिओ ॥ साधसंगति परसादि संतन कै सोइओ मनु जागिओ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करतै = कर्तार ने। कारणु = सबब्। मनि = मन में। बुरो = बुरा। प्रसादि = किरपा से। सोइओ = सोया हुआ।3।
अर्थ: (हे बहिन! जब भी) जो भी सबब ईश्वर ने बनाया (अब मुझे अपने) मन में (वह) बुरा नहीं लगता। साधु-संगत में आ के संत जनों की किरपा से (माया के मोह में) सोया हुआ (मेरा) मन जाग उठा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन नानक ओड़ि तुहारी परिओ आइओ सरणागिओ ॥ नाम रंग सहज रस माणे फिरि दूखु न लागिओ ॥४॥२॥१६०॥
मूलम्
जन नानक ओड़ि तुहारी परिओ आइओ सरणागिओ ॥ नाम रंग सहज रस माणे फिरि दूखु न लागिओ ॥४॥२॥१६०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ओड़ि = शरण में। रंग = आनंद। सहज = आत्मिक अडोलता।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे प्रभु! गुरु की कृपा से) मैं तेरी ओट में आ पड़ा हूँ, मैं तेरी शरण में आ गिरा हूँ। अब मुझे कोई दुख नहीं सताता। मैं तेरे नाम का आनंद ले रहा हूँ मैं आत्मिक अडोलता के सुख माण रहा हूँ।4।2।160।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माला२ महला ५ ॥ पाइआ लालु रतनु मनि पाइआ ॥ तनु सीतलु मनु सीतलु थीआ सतगुर सबदि समाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी माला२ महला ५ ॥ पाइआ लालु रतनु मनि पाइआ ॥ तनु सीतलु मनु सीतलु थीआ सतगुर सबदि समाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाइआ = ढूँढ लिया है। मनि = मन में। थीआ = हो गया है। सतिगुर सबदि = गुरु के शब्द में। समाइआ = लीन हो गया हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! मैंने अपने) मन में एक लाल ढूँढ लिया है। मैं गुरु के शब्द में लीन हो गया हूँ। मेरा शरीर (हरेक ज्ञानेंद्रियां) शांत हो गई हैं, मेरा मन ठंडा हो गया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाथी भूख त्रिसन सभ लाथी चिंता सगल बिसारी ॥ करु मसतकि गुरि पूरै धरिओ मनु जीतो जगु सारी ॥१॥
मूलम्
लाथी भूख त्रिसन सभ लाथी चिंता सगल बिसारी ॥ करु मसतकि गुरि पूरै धरिओ मनु जीतो जगु सारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रिसन = प्यास। सगल = सारी। करु = हाथ। मसतकि = माथे पर। गुरि = गुरु ने। सारी = सारा।1।
अर्थ: (हे भाई!) पूरे गुरु ने (मेरे) माथे पर (अपना) हाथ रखा है (उसकी इनायत से मैंने अपना) मन काबू में कर लिया है। (मानो) मैंने सारा जगत जीत लिया है (क्योंकि मेरी माया की) भूख उतर गई है। मेरी माया की सारी प्यास खत्म हो गई है, मैंने सारे चिन्ता-फिक्र भुला दिए हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिपति अघाइ रहे रिद अंतरि डोलन ते अब चूके ॥ अखुटु खजाना सतिगुरि दीआ तोटि नही रे मूके ॥२॥
मूलम्
त्रिपति अघाइ रहे रिद अंतरि डोलन ते अब चूके ॥ अखुटु खजाना सतिगुरि दीआ तोटि नही रे मूके ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अघाइ रहे = तृप्त हो गए। रिद = हृदय। ते = से। चूके = हट गए। सतिगुरि = सत्गुरू ने। रे = हे भाई! मूके = समाप्त होता।2।
अर्थ: (हे भाई! माया की तरफ से मेरे अंदर की भूख) तृप्त हो गई है, मैं (माया की ओर से अपने) दिल में अघा चुका हूँ। (अब माया की खातिर) डोलने से मैं हट गया हूँ। हे भाई! सतिगुरु ने मुझे (प्रभु नाम का एक ऐसा) खजाना दिया है जो कभी खत्म होने वाला नहीं। ना ही उसमें कमी आ सकती है, ना ही वह खत्म होने वाला है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचरजु एकु सुनहु रे भाई गुरि ऐसी बूझ बुझाई ॥ लाहि परदा ठाकुरु जउ भेटिओ तउ बिसरी ताति पराई ॥३॥
मूलम्
अचरजु एकु सुनहु रे भाई गुरि ऐसी बूझ बुझाई ॥ लाहि परदा ठाकुरु जउ भेटिओ तउ बिसरी ताति पराई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। बूझ = समझ। बुझाई = समझा दी। लाहि = उतार के। भेटिओ = मिला। ताति = ईष्या, जलन।3।
अर्थ: हे भाई! एक और अनोखी बात सुनो। गुरु ने मुझे ऐसी समझ बख्श दी है (जिसकी इनायत से) जब से (मेरे अंदर से अहंकार का) परदा उतार के मुझे ठाकुर प्रभु मिला है, तब से (मेरे दिल में से) पराई ईष्या बिसर गई है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहिओ न जाई एहु अच्मभउ सो जानै जिनि चाखिआ ॥ कहु नानक सच भए बिगासा गुरि निधानु रिदै लै राखिआ ॥४॥३॥१६१॥
मूलम्
कहिओ न जाई एहु अच्मभउ सो जानै जिनि चाखिआ ॥ कहु नानक सच भए बिगासा गुरि निधानु रिदै लै राखिआ ॥४॥३॥१६१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अचंभउ = अचम्भा, आश्चर्यजनक चमत्कार। जिनि = जिस ने। नानक = हे नानक! सच बिगासा = सत्य का प्रकाश, सदा स्थिर प्रभु का प्रकाश। रिदै = हृदय में।4।
अर्थ: हे भाई! ये एक ऐसा आश्चर्यजनक आनंद है जो बयान नहीं किया जा सकता। इस रस को वही जानता है जिसने ये चखा है।
हे नानक! कह: गुरु ने (मेरे अंदर परमात्मा के नाम का खजाना ला के रख दिया है, और मेरे अंदर उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा (के ज्ञान) का प्रकाश हो गया है।4।3।161।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माला महला ५ ॥ उबरत राजा राम की सरणी ॥ सरब लोक माइआ के मंडल गिरि गिरि परते धरणी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी माला महला ५ ॥ उबरत राजा राम की सरणी ॥ सरब लोक माइआ के मंडल गिरि गिरि परते धरणी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उबरत = उबरता है। राजा राम = प्रभु पातशाह। सरब लोक = मात लोक, पाताल लोक और आकाशलोक मिला के। मंडल = चक्र। गिरि = गिर के। धरणी = धरती पर (निम्न आत्मिक दशा में)।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) प्रभु-पातशाह के शरन पड़ के ही मनुष्य (माया के प्रभाव से) बच सकता है। मात लोक, पाताल लोक और आकाश लोक -इन सब लोकों के जीव माया के चक्कर में फंसे पड़े हैं, (माया के प्रभाव के कारण जीव उच्च आत्मिक मण्डल से) गिर गिर के निम्न आत्मिक दशा में आ पड़ते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सासत सिम्रिति बेद बीचारे महा पुरखन इउ कहिआ ॥ बिनु हरि भजन नाही निसतारा सूखु न किनहूं लहिआ ॥१॥
मूलम्
सासत सिम्रिति बेद बीचारे महा पुरखन इउ कहिआ ॥ बिनु हरि भजन नाही निसतारा सूखु न किनहूं लहिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किन हूं न = किसी ने भी नहीं।1।
अर्थ: (पण्डित लोग तो) शास्त्रों-स्मृतियों-वेद (आदि सारे धर्म पुस्तकों को) विचारते आ रहे हैं। पर महापुरुषों ने तो यही कहा है कि परमात्मा के भजन के बिना (माया के समुंदर से) पार नहीं हुआ जा सकता, (स्मरण के बिना) किसी मनुष्य ने भी सुख नहीं पाया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीनि भवन की लखमी जोरी बूझत नाही लहरे ॥ बिनु हरि भगति कहा थिति पावै फिरतो पहरे पहरे ॥२॥
मूलम्
तीनि भवन की लखमी जोरी बूझत नाही लहरे ॥ बिनु हरि भगति कहा थिति पावै फिरतो पहरे पहरे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तीनि भवन = मातृ, पाताल व आकाश। लखमी = माया। जोरी = इकट्ठी की। लहरे = लोभ की लहरें। बूझत नाही = बुझती नहीं, मिटती नहीं। कहा = किधर? थिति = (ष्) टिकाव। पहरे पहरे = हरेक पहर, हर समय। फिरतो = भटकता फिरता है।2।
अर्थ: (हे भाई!) अगर मनुष्य सारी सृष्टि की ही माया एकत्र कर ले, तो भी लोभ की लहरें मिटती नहीं हैं। (इतनी माया जोड़ जोड़ के भी) परमात्मा की भक्ति के बिना मनुष्य कहीं भी मन का टिकाव नहीं ढूँढ सकता, हर समय ही (माया की खातिर) भटकता फिरता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिक बिलास करत मन मोहन पूरन होत न कामा ॥ जलतो जलतो कबहू न बूझत सगल ब्रिथे बिनु नामा ॥३॥
मूलम्
अनिक बिलास करत मन मोहन पूरन होत न कामा ॥ जलतो जलतो कबहू न बूझत सगल ब्रिथे बिनु नामा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिलास = मौजें। मन मोहन = मन को मोहने वाली। कामा = कामना, वासना। जलतो = जलता। न बूझत = (आग) बुझती नहीं। ब्रिथे = व्यर्थ।3।
अर्थ: (हे भाई!) मनुष्य मन को मोहने वाली अनेक मौजें भी करता रहे, (पर, मन की विकारों वाली) वासना पूरी नहीं होती। मनुष्य तृष्णा की आग में जलता फिरता है, तृष्णा की आग कभी बुझती नहीं। परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य के अन्य सभी उद्यम व्यर्थ चले जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि का नामु जपहु मेरे मीता इहै सार सुखु पूरा ॥ साधसंगति जनम मरणु निवारै नानक जन की धूरा ॥४॥४॥१६२॥
मूलम्
हरि का नामु जपहु मेरे मीता इहै सार सुखु पूरा ॥ साधसंगति जनम मरणु निवारै नानक जन की धूरा ॥४॥४॥१६२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सार = श्रेष्ठ। धूरा = चरण धूल।4।
अर्थ: हे मेरे मित्र! परमात्मा का नाम जपा कर, यही सब से श्रेष्ठ सुख है, और इस सुख में कोई कमी नहीं रह जाती। जो मनुष्य साधु-संगत में आ के अपना जनम मरण (का चक्र) खत्म कर लेता है, नानक उस मनुष्य के चरणों की धूल (मांगता) है।4।4।162।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माला महला ५ ॥ मो कउ इह बिधि को समझावै ॥ करता होइ जनावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी माला महला ५ ॥ मो कउ इह बिधि को समझावै ॥ करता होइ जनावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। को = कौन? करता होइ = कर्तार का रूप हो के। जनावै = समझा सकता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) और कौन मुझे इस तरह समझ सकता है? (वही गुरमुख) समझ सकता है (जो) कर्तार का रूप हो जाए।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनजानत किछु इनहि कमानो जप तप कछू न साधा ॥ दह दिसि लै इहु मनु दउराइओ कवन करम करि बाधा ॥१॥
मूलम्
अनजानत किछु इनहि कमानो जप तप कछू न साधा ॥ दह दिसि लै इहु मनु दउराइओ कवन करम करि बाधा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इनहि = इस जीव ने। जप तप = परमात्मा का स्मरण और विकारों की तरफ से रोक के प्रयास। दह दिसि = दसों दिशाओं। दउराइओ = दौड़ाया। करि = कर के। बाध = बंधा हुआ है।1।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के बिना और कोई नहीं समझ सकता कि) अज्ञानता में फंस के इस जीव ने स्मरण नहीं किया और विकारों को रोकने का प्रयास नहीं किया, कुछ अन्य ही (बुरे, बेमतलब काम) किए हैं। ये जीव अपने इस मन को दसों दिशाओं में भगा रहा है। ये कौन से कर्मों के कारण (माया के मोह में) बंधा हुआ है?।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
मन तन धन भूमि का ठाकुरु हउ इस का इहु मेरा ॥ भरम मोह कछु सूझसि नाही इह पैखर पए पैरा ॥२॥
मूलम्
मन तन धन भूमि का ठाकुरु हउ इस का इहु मेरा ॥ भरम मोह कछु सूझसि नाही इह पैखर पए पैरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूमि = धरती। ठाकुरु = मालिक। हउ = मैं। इहु = ये धन। पैखर = ढंगे।2।
अर्थ: (हे भाई! माया की खातिर) भटकना के कारण (माया के) मोह के कारण (जीव को) कोई अच्छी बात नहीं सूझती। इसके पैरों में माया के मोह की बाधाएं, जंजीरें पड़ी हुई हैं (जैसे गधे आदि को बढ़िया ढंगा, बाधा डाली जाती है) (मोह में फंस के जीव हर समय यही कहता है:) मैं अपनी जीवात्मा का, शरीर का, धन का, धरती का मालिक हूँ, मैं इस (धन आदि) का मालिक हूँ, ये धन आदिक मेरा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब इहु कहा कमावन परिआ जब इहु कछू न होता ॥ जब एक निरंजन निरंकार प्रभ सभु किछु आपहि करता ॥३॥
मूलम्
तब इहु कहा कमावन परिआ जब इहु कछू न होता ॥ जब एक निरंजन निरंकार प्रभ सभु किछु आपहि करता ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा = कहाँ? कमावन परिआ = कमाने काबिल था। आपहि = स्वयं ही।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के बिना और कौन बताए? कि) जब (जगत-रचना से पहले) इस जीव की कोई हस्ती नहीं थी, जब केवल एक निरंजन आकार-रहित प्रभु खुद ही खुद था, जब प्रभु स्वयं ही सब कुछ करने वाला था, तब ये जीव क्या कमाने के काबिल था? (और, अब ये गुमान करता है कि मैं धन का मालिक हूँ, मैं धरती का मालिक हूँ)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपने करतब आपे जानै जिनि इहु रचनु रचाइआ ॥ कहु नानक करणहारु है आपे सतिगुरि भरमु चुकाइआ ॥४॥५॥१६३॥
मूलम्
अपने करतब आपे जानै जिनि इहु रचनु रचाइआ ॥ कहु नानक करणहारु है आपे सतिगुरि भरमु चुकाइआ ॥४॥५॥१६३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सतिगुरि = गुरु ने।4।
अर्थ: हे नानक! कह: गुरु ने ही (ये तन, धन, धरती आदि की मल्कियतों का) भुलेखा दूर किया है और समझाया है कि जिस परमात्मा ने ये जगत रचना रची है वही स्वयं अपने किए कामों को जानता है और वही सब कुछ करने की स्मर्था रखता है (अज्ञानी जीव व्यर्थ ही मल्कियतों का अहंकार करता है और भटकता फिरता है)।4।4।163।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माला महला ५ ॥ हरि बिनु अवर क्रिआ बिरथे ॥ जप तप संजम करम कमाणे इहि ओरै मूसे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी माला महला ५ ॥ हरि बिनु अवर क्रिआ बिरथे ॥ जप तप संजम करम कमाणे इहि ओरै मूसे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवर = और। क्रिया = कर्म। संजम = मन को विकारों से रोकने का यत्न। ओरै = पास पास ही। मूसे = ठगे जाते हैं, लूटे जाते हैं।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के स्मरण के बिना और सारे (निहित धार्मिक) काम व्यार्थ हैं। (देवताओं को प्रसन्न करने वाले) जप करने, तप साधने, इन्द्रियों को विकारों से रोकने के लिए हठ योग के साधन करने- ये सारे (प्रभु की दरगाह से) पहले ही छीन लिए जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरत नेम संजम महि रहता तिन का आढु न पाइआ ॥ आगै चलणु अउरु है भाई ऊंहा कामि न आइआ ॥१॥
मूलम्
बरत नेम संजम महि रहता तिन का आढु न पाइआ ॥ आगै चलणु अउरु है भाई ऊंहा कामि न आइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आढु = आधी कौड़ी। आगै = आगे परलोक में। चलणु = साथ जाने वाला पदार्थ। कामि = काम में। ऊहा = परलोक में, प्रभु की दरगाह में।1।
अर्थ: मनुष्य वर्तों संजमों के नियमों में ही व्यस्त रहता है, पर उन उद्यमों का मूल्य उसे एक कौड़ी भी नहीं मिलता। हे भाई! जीव के साथ परलोक में साथ निभाने वाला पदार्थ और है (व्रत नेम संजम आदिक में से कोई भी) परलोक में काम नहीं आता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथि नाइ अरु धरनी भ्रमता आगै ठउर न पावै ॥ ऊहा कामि न आवै इह बिधि ओहु लोगन ही पतीआवै ॥२॥
मूलम्
तीरथि नाइ अरु धरनी भ्रमता आगै ठउर न पावै ॥ ऊहा कामि न आवै इह बिधि ओहु लोगन ही पतीआवै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। नाइ = नहाता है। अरु = तथा (‘अरु’ और ‘अरि’ में फर्क याद रखें)। धरनी = धरती। ठउर = जगह। बिधि = तरीका। लोगन ही = लोगों को ही। पतीआवै = तसल्ली देता है, निश्चय कराता है।2।
अर्थ: जो मनुष्य तीर्थों पर स्नान करता है और (त्यागी बन के) धरती पर रटन करता फिरता है (वह भी) प्रभु की दरगाह में जगह नहीं ढूँढ सकता। ऐसा कोई तरीका प्रभु की हजूरी में काम नहीं आता। वह (त्यागी इन तरीकों से) सिर्फ लोगों को ही (अपने धर्मी होने का) निश्चय दिलाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर बेद मुख बचनी उचरै आगै महलु न पाईऐ ॥ बूझै नाही एकु सुधाखरु ओहु सगली झाख झखाईऐ ॥३॥
मूलम्
चतुर बेद मुख बचनी उचरै आगै महलु न पाईऐ ॥ बूझै नाही एकु सुधाखरु ओहु सगली झाख झखाईऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चतुर = चार। मुख बचनी = मुंह के वचनों से, जबानी। महलु = ठिकाना। सुधाखरु = शुद्ध अक्षर, पवित्र शब्द, परमात्मा क नाम। ओहु = वह मनुष्य। झाख झखाईऐ = खुआरी ही सहता है।3।
अर्थ: (हे भाई! अगर पण्डित) चारों वेद जुबानी उचार सकता है (तो इस तरह भी) प्रभु की हजूरी में ठिकाना नहीं मिलता। जो मनुष्य परमात्मा का पवित्र नाम (स्मरणा) नहीं समझता वह (और-और उद्यमों के साथ) निरी ख्वारी ही बर्दाश्त करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानकु कहतो इहु बीचारा जि कमावै सु पार गरामी ॥ गुरु सेवहु अरु नामु धिआवहु तिआगहु मनहु गुमानी ॥४॥६॥१६४॥
मूलम्
नानकु कहतो इहु बीचारा जि कमावै सु पार गरामी ॥ गुरु सेवहु अरु नामु धिआवहु तिआगहु मनहु गुमानी ॥४॥६॥१६४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नानकु कहतो = नानक कहता है (शब्द ‘नानक’ व ‘नानकु’ का फर्क)। जि = जो मनुष्य। पार गरामी = तैराक, पार लांघने लायक। मनहु = मन से। गुमानी = गुमान, अहंकार।4।
अर्थ: (हे भाई!) नानक ये एक विचार की बात कहता है, जो मनुष्य इसे इस्तेमाल में ले आता है वह संसार समुंदर से पार लांघने के लायक हो जाता है (वह विचार ये है - हे भाई!) गुरु की शरण पड़। अपने मन में से अहंकार दूर कर, और परमात्मा का नाम स्मरण कर।4।6।164।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माला ५ ॥ माधउ हरि हरि हरि मुखि कहीऐ ॥ हम ते कछू न होवै सुआमी जिउ राखहु तिउ रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी माला ५ ॥ माधउ हरि हरि हरि मुखि कहीऐ ॥ हम ते कछू न होवै सुआमी जिउ राखहु तिउ रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माधउ = (मा = धव। मा = माया। धव = पति) हे माया के पति परमात्मा। मुखि = मुंह से। कहीऐ = कह सकें। हम ते = हमसे। सुआमी = हे स्वामी!।1। रहाउ।
अर्थ: (हे स्वामी प्रभु!) हम जीवों से कुछ नहीं हो सकता। जिस तरह तू हमें रखता है, उसी तरह हम रहते हैं। हे माया के पति प्रभु! हे हरि! (मेहर कर, ताकि हम) तेरा नाम मुंह से उचार सकें।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ किछु करै कि करणैहारा किआ इसु हाथि बिचारे ॥ जितु तुम लावहु तित ही लागा पूरन खसम हमारे ॥१॥
मूलम्
किआ किछु करै कि करणैहारा किआ इसु हाथि बिचारे ॥ जितु तुम लावहु तित ही लागा पूरन खसम हमारे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कि = क्या? इसु हाथि = इस (जीव) के हाथि में। जितु = जिस तरफ। तित ही = उस तरफ ही। खसम = हे पति!।1।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: शब्द ‘जितु’ की तरह ‘तितु’ के आखिर में भी ‘ु’ मात्रा थी, जो क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे सर्व-व्यापक खसम प्रभु! ये जीव क्या करें? ये हैं क्या करने के काबिल? इन बिचारों के हाथ में है क्या? (ये जीव अपने आप कुछ नहीं करता, कुछ नहीं कर सकता, इसके हाथ में कोई ताकत नहीं)। जिस तरफ तू इसे लगाता है, उसी तरफ ये लगा फिरता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करहु क्रिपा सरब के दाते एक रूप लिव लावहु ॥ नानक की बेनंती हरि पहि अपुना नामु जपावहु ॥२॥७॥१६५॥
मूलम्
करहु क्रिपा सरब के दाते एक रूप लिव लावहु ॥ नानक की बेनंती हरि पहि अपुना नामु जपावहु ॥२॥७॥१६५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दाते = हे दातार! एक रूप लिव = अपने एक स्वरूप की लगन। लावहु = पैदा करो। पहि = पास।2।
अर्थ: हे सारे जीवों को दातें देने वाले प्रभु! मेहर कर, मुझे सिर्फ अपने ही स्वरूप की लगन बख्श। मैं नानक की परमात्मा के पास (यही) विनती है (-हे प्रभु!) मुझसे अपना नाम जपा।2।7।165।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी माझ१ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी माझ१ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीन दइआल दमोदर राइआ जीउ ॥ कोटि जना करि सेव लगाइआ जीउ ॥ भगत वछलु तेरा बिरदु रखाइआ जीउ ॥ पूरन सभनी जाई जीउ ॥१॥
मूलम्
दीन दइआल दमोदर राइआ जीउ ॥ कोटि जना करि सेव लगाइआ जीउ ॥ भगत वछलु तेरा बिरदु रखाइआ जीउ ॥ पूरन सभनी जाई जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दीन दइआल = हे गरीबों पे तरस करने वाले! दामोदर = (दामन् = रस्सी, तड़ागी। उदर = पेट, कमर। दामोदर = जिसके कमर पे तगाड़ी है, कृष्ण) हे प्रभु! राइआ = हे पातशाह! जन = सेवक। वछलु = वत्सल, प्यारा। बिरद = गरीब निवाज वाला मूल स्वभाव। जाई = जगहों में।1।
अर्थ: हे गरीबों पर तरस करने वाले प्रभु पातशाह जी! तूने करोड़ों लोगों को अपने सेवक बना के अपनी सेवा-भक्ति में लगाया हुआ है। भगतों का प्यारा होना- ये तेरा मूल स्वभाव बना आ रहा है। हे प्रभु! तू सब जगहों पर मौजूद है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किउ पेखा प्रीतमु कवण सुकरणी जीउ ॥ संता दासी सेवा चरणी जीउ ॥ इहु जीउ वताई बलि बलि जाई जीउ ॥ तिसु निवि निवि लागउ पाई जीउ ॥२॥
मूलम्
किउ पेखा प्रीतमु कवण सुकरणी जीउ ॥ संता दासी सेवा चरणी जीउ ॥ इहु जीउ वताई बलि बलि जाई जीउ ॥ तिसु निवि निवि लागउ पाई जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किउ = कैसे? पेखा = मैं देखूँ। सुकरणी = श्रेष्ठ करनी। चरणी = चरणों की। जीउ = जीवात्मा। वताई = मैं सदके करूँ। बलि जाई = बलिहार जाऊँ, कुर्बान जाऊँ। निवि निवि = झुक झुक के। लागउ = मैं लगूँ। पाई = पैरों में।2।
अर्थ: (हे भाई!) मैं कैसे उस प्रभु प्रीतम का दर्शन करूँ? वह कौन सी श्रेष्ठ करनी है (जिससे मैं उसे देखूँ)? (जहां भी पूछूँ यही उक्तर मिलता है कि) मैं संत जनों की दासी बनूँ ओर उनके चरणों की सेवा करूँ। मैं अपनी ये जिंद उस प्रभु पातशाह पर से सदके करूँ, और, उस पर से कुर्बान हो जाऊँ। झुक झुक के मैं सदा उसके पैर लगती रहूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पोथी पंडित बेद खोजंता जीउ ॥ होइ बैरागी तीरथि नावंता जीउ ॥ गीत नाद कीरतनु गावंता जीउ ॥ हरि निरभउ नामु धिआई जीउ ॥३॥
मूलम्
पोथी पंडित बेद खोजंता जीउ ॥ होइ बैरागी तीरथि नावंता जीउ ॥ गीत नाद कीरतनु गावंता जीउ ॥ हरि निरभउ नामु धिआई जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पर। धिआई = मैं ध्याता हूँ।3।
अर्थ: (हे भाई!) कोई पण्डित (बन के) वेद आदिक धर्म-पुस्तकें खोजता रहता है, कोई (दुनिया से) वैरागवान हो के (हरेक) तीर्थ पर स्नान करता फिरता है, कोई गीत गाता है, नाद बजाता है, कीर्तन करता है, पर मैं परमात्मा का वह नाम जपता रहता हूँ जो (मेरे अंदर) निर्भयता पैदा करता है।3।
[[0217]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
भए क्रिपाल सुआमी मेरे जीउ ॥ पतित पवित लगि गुर के पैरे जीउ ॥ भ्रमु भउ काटि कीए निरवैरे जीउ ॥ गुर मन की आस पूराई जीउ ॥४॥
मूलम्
भए क्रिपाल सुआमी मेरे जीउ ॥ पतित पवित लगि गुर के पैरे जीउ ॥ भ्रमु भउ काटि कीए निरवैरे जीउ ॥ गुर मन की आस पूराई जीउ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए। लगि = लग के। भ्रमु = भटकना। काटि = काट के। कीए = कर दिए, बना दिए। गुर = हे गुरु! पूराई = पूरी की है।4।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों पे मेरे स्वामी प्रभु जी दयावान होते हैं, वे मनुष्य गुरु के चरणों में लग के (पहले विकारों में) गिरे हुए (होने के बावजूद भी) स्वच्छ आचरण वाले बन जाते हैं। गुरु (उनके अंदर से माया की) भटकना दूर करके (हरेक किस्म का मलीन) डर दूर कर के उन मनुष्यों को निर्वेर बना देता है।
हे गुरु! तूने ही मेरे मन की भी (स्मरण की) आस पूरी की है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि नाउ पाइआ सो धनवंता जीउ ॥ जिनि प्रभु धिआइआ सु सोभावंता जीउ ॥ जिसु साधू संगति तिसु सभ सुकरणी जीउ ॥ जन नानक सहजि समाई जीउ ॥५॥१॥१६६॥
मूलम्
जिनि नाउ पाइआ सो धनवंता जीउ ॥ जिनि प्रभु धिआइआ सु सोभावंता जीउ ॥ जिसु साधू संगति तिसु सभ सुकरणी जीउ ॥ जन नानक सहजि समाई जीउ ॥५॥१॥१६६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। जिसु = जिस को। तिसु = उस की। सभ = सारी। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाई = लीनता।5।
अर्थ: हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम धन ढूँढ लिया, वह धनाढ बन गया। जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम स्मरण किया वह (लोक परलोक में) शोभा वाला हो गया। जिस मनुष्य को गुरु की संगति मिल गई, उसकी सारी करनी श्रेष्ठ बन गई। उस मनुष्य को आत्मिक अडोलता में लीनता प्राप्त हो गई।5।1।166।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ माझ ॥ आउ हमारै राम पिआरे जीउ ॥ रैणि दिनसु सासि सासि चितारे जीउ ॥ संत देउ संदेसा पै चरणारे जीउ ॥ तुधु बिनु कितु बिधि तरीऐ जीउ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ माझ ॥ आउ हमारै राम पिआरे जीउ ॥ रैणि दिनसु सासि सासि चितारे जीउ ॥ संत देउ संदेसा पै चरणारे जीउ ॥ तुधु बिनु कितु बिधि तरीऐ जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हमारै = मेरे हृदय घर में। रैणि = रात। सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। चितारे = मैं तुझे याद करता हूँ। संत देउ = मैं संतों को देता हूँ। संदेसा = संदेश। पै = पड़ कर।1।
अर्थ: हे मेरे प्यारे राम जी! मेरे हृदय घर में आ बस। मैं रात दिन हरेक सांस के साथ तुझे याद करता हूँ। (तेरे) संत जनों के चरणों में पड़ कर मैं (तेरे को) संदेश भेजता हूँ (कि, हे मेरे प्यारे राम जी!) मैं तेरे बगैर किसी तरह भी (इस संसार समुंदर को) पार नहीं लांघ सकता।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संगि तुमारै मै करे अनंदा जीउ ॥ वणि तिणि त्रिभवणि सुख परमानंदा जीउ ॥ सेज सुहावी इहु मनु बिगसंदा जीउ ॥ पेखि दरसनु इहु सुखु लहीऐ जीउ ॥२॥
मूलम्
संगि तुमारै मै करे अनंदा जीउ ॥ वणि तिणि त्रिभवणि सुख परमानंदा जीउ ॥ सेज सुहावी इहु मनु बिगसंदा जीउ ॥ पेखि दरसनु इहु सुखु लहीऐ जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संगि तुमारै = तेरी संगति में। वणि = वन में। त्रिणि = तृण में। वणि त्रिणि = सारी बनस्पति में। त्रिभवहण = तीनों भवनों वाले संसार में। सेज = हृदय सेज। बिगसंदा = खिला हुआ। लहीऐ = मिलता है।2।
अर्थ: (हे मेरे प्यारे राम जी!) तेरी संगति में रह के मैं आनंद लेता हूँ। सारी बनस्पति में और तीन भवनों वाले संसार में (तुझे देख के) मैं परम सुख परम आनंद (अनुभव करता हूँ)। मेरे हृदय की सेज सुंदर बन गई है, मेरा ये मन खिल गया है। (हे मेरे प्यारे राम जी!) तेरा दर्शन करके ये (आत्मिक) सुख मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरण पखारि करी नित सेवा जीउ ॥ पूजा अरचा बंदन देवा जीउ ॥ दासनि दासु नामु जपि लेवा जीउ ॥ बिनउ ठाकुर पहि कहीऐ जीउ ॥३॥
मूलम्
चरण पखारि करी नित सेवा जीउ ॥ पूजा अरचा बंदन देवा जीउ ॥ दासनि दासु नामु जपि लेवा जीउ ॥ बिनउ ठाकुर पहि कहीऐ जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पखारि = धो के। करी = करूँ। अरचा = अर्चना, फूलों की भेट। बिनउ = विनती। कहीऐ = (हे संत जनो!) कह देनी।3।
अर्थ: (हे मेरे प्यारे राम जी! तेरे संत जनों के पास मैं विनती करता हूँ कि) मालिक प्रभु के पास मेरी ये विनती कहना- (हे मेरे राम जी! मेहर कर, मैं तेरे संत जनों के) चरण धो के उनकी सदा सेवा करता रहूँ- यही मेरे वास्ते देव-पूजा है, यही मेरे लिए देवताओं के लिए फूल भेट है और यही देवताओं के आगे नमस्कार है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इछ पुंनी मेरी मनु तनु हरिआ जीउ ॥ दरसन पेखत सभ दुख परहरिआ जीउ ॥ हरि हरि नामु जपे जपि तरिआ जीउ ॥ इहु अजरु नानक सुखु सहीऐ जीउ ॥४॥२॥१६७॥
मूलम्
इछ पुंनी मेरी मनु तनु हरिआ जीउ ॥ दरसन पेखत सभ दुख परहरिआ जीउ ॥ हरि हरि नामु जपे जपि तरिआ जीउ ॥ इहु अजरु नानक सुखु सहीऐ जीउ ॥४॥२॥१६७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इछ = चाह। पुंनी = पूरी हो गई है। परहरिआ = दूर हो गया है। जपै जपि = जप जप के। अजरु = जरा रहित, जिसे बुढ़ापा नहीं आ सकता, कम ना होने वाला।4।
अर्थ: (हे भाई! प्यारे राम की किरपा से) मेरी (उससे मिलाप की) अभिलाषा पूरी हो गई है, मेरा मन आत्मिक जीवन वाला हो गया है, मेरा शरीर (भाव, हरेक ज्ञानेंद्रिय) हरा हो गया है, (प्यारे राम का) दर्शन करके मेरा सारा दुख दूर हो गया है, प्यारे राम जी का नाम जप जप के मैंने (संसार-समुंदर को) पार कर लिया है।
हे नानक! (उस प्यारे राम जी का दर्शन करने से) ये एक ऐसा सुख पा लेते हैं जो कभी कम होने वाला नहीं है।4।2।167।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माझ महला ५ ॥ सुणि सुणि साजन मन मित पिआरे जीउ ॥ मनु तनु तेरा इहु जीउ भि वारे जीउ ॥ विसरु नाही प्रभ प्राण अधारे जीउ ॥ सदा तेरी सरणाई जीउ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी माझ महला ५ ॥ सुणि सुणि साजन मन मित पिआरे जीउ ॥ मनु तनु तेरा इहु जीउ भि वारे जीउ ॥ विसरु नाही प्रभ प्राण अधारे जीउ ॥ सदा तेरी सरणाई जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साजन = हे सज्जन हरि! मन मित = हे मेरे मन के मित्र हरि! जीउ भि = जिंद भी। वारे = सदके। प्राण अधारे = हे मेरी जिंद के आसरे!।1।
अर्थ: हे मेरे प्यारे सज्जन प्रभु! हे मेरे मन के मित्र प्रभु! हे मेरी जिंद के आसरे प्रभु! (मेरी विनती) ध्यान से सुन। (मेरा ये) मन तेरा दिया हुआ है, मेरी ये जीवात्मा भी तेरी ही दी हुई है। मैं (ये सब कुछ तुझ पर से) कुर्बान करता हूँ। मुझे भूलना नहीं, मैं सदा तेरी शरण पड़ा रहूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु मिलिऐ मनु जीवै भाई जीउ ॥ गुर परसादी सो हरि हरि पाई जीउ ॥ सभ किछु प्रभ का प्रभ कीआ जाई जीउ ॥ प्रभ कउ सद बलि जाई जीउ ॥२॥
मूलम्
जिसु मिलिऐ मनु जीवै भाई जीउ ॥ गुर परसादी सो हरि हरि पाई जीउ ॥ सभ किछु प्रभ का प्रभ कीआ जाई जीउ ॥ प्रभ कउ सद बलि जाई जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनु जीवै = मन जीअ पड़ता है, आत्मिक जीवन मिल जाता है। भाई = हे भाई! परसादी = कृपा से। पाई = पैरों में, मैं पड़ता हूँ, मैं प्राप्त करता हूँ। कीआ = की। जाई = सारी जगहें। कउ = को से। बलि जाई = मैं कुर्बान जाता हूँ।2।
अर्थ: हे भाई! जिस हरि प्रभु को मिलने से आत्मिक जीवन प्राप्त हो जाता है, वह हरि प्रभु गुरु की किरपा से ही मिल सकता है। (हे भाई! मेरा मन तन) सब कुछ प्रभु का ही दिया हुआ है, (जगत की) सभी जगहें प्रभु की ही हैं। मैं सदा उस प्रभु से ही सदके जाता हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहु निधानु जपै वडभागी जीउ ॥ नाम निरंजन एक लिव लागी जीउ ॥ गुरु पूरा पाइआ सभु दुखु मिटाइआ जीउ ॥ आठ पहर गुण गाइआ जीउ ॥३॥
मूलम्
एहु निधानु जपै वडभागी जीउ ॥ नाम निरंजन एक लिव लागी जीउ ॥ गुरु पूरा पाइआ सभु दुखु मिटाइआ जीउ ॥ आठ पहर गुण गाइआ जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निधानु = खजाना। लिव = लगन।3।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का) ये (नाम सारे पदार्थों का) खजाना (है, कोई) भाग्यशाली मनुष्य ही ये नाम जपता है। पवित्र स्वरूप प्रभु के नाम से (उस भाग्यशाली मनुष्य की लगन लग जाती है, जिस भाग्यशाली मनुष्य को) पूरा गुरु मिल जाता है, वह हरेक किस्म का दुख दूर कर लेता है, वह आठों पहर परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रतन पदारथ हरि नामु तुमारा जीउ ॥ तूं सचा साहु भगतु वणजारा जीउ ॥ हरि धनु रासि सचु वापारा जीउ ॥ जन नानक सद बलिहारा जीउ ॥४॥३॥१६८॥
मूलम्
रतन पदारथ हरि नामु तुमारा जीउ ॥ तूं सचा साहु भगतु वणजारा जीउ ॥ हरि धनु रासि सचु वापारा जीउ ॥ जन नानक सद बलिहारा जीउ ॥४॥३॥१६८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला। साहु = शाहूकार। वणजारा = व्यापारी। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। सचु = सदा टिके रहने वाला।4।
अर्थ: (हे मेरे प्यारे सज्जन प्रभु! हे हरि! तेरा नाम कीमती पदार्थों का श्रोत) है। हे हरि! तू सदा कायम रहने वाला (उन रत्न पदार्थों का) शाहूकार है, तेरा भक्त उन रत्न पदार्थों का व्यापार करने वाला है। हे हरि! तेरा नाम-धन (तेरे भक्तों की) संपत्ति है, तेरा भक्त यही सदा स्थिर रहने वाला वणज करता है। हे दास नानक! (कह: हे हरि!) मैं (तुझसे और तेरे भक्त से) सदा कुर्बान जाता हूँ।4।3।168।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी माझ२ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
रागु गउड़ी माझ२ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं मेरा बहु माणु करते तूं मेरा बहु माणु ॥ जोरि तुमारै सुखि वसा सचु सबदु नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तूं मेरा बहु माणु करते तूं मेरा बहु माणु ॥ जोरि तुमारै सुखि वसा सचु सबदु नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करते = हे कर्तार! माणु = फखर, गर्व। जोरि तुमारै = तेरी ताकत के आसरे। सुखि = सुख से। वसा = बसूँ, मैं बसता हूँ। नीसाणु = परवाना, राहदारी।1। रहाउ।
अर्थ: हे कर्तार! तू मेरे वास्ते गर्व वाली जगह है, तू मेरा मान है। हे कर्तार! तेरे बल पर मैं सुखी बसता हूँ, तेरी सदा स्थिर महिमा की वाणी (मेरे जीवन सफर में मेरे वास्ते) राहदारी है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभे गला जातीआ सुणि कै चुप कीआ ॥ कद ही सुरति न लधीआ माइआ मोहड़िआ ॥१॥
मूलम्
सभे गला जातीआ सुणि कै चुप कीआ ॥ कद ही सुरति न लधीआ माइआ मोहड़िआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभे = सारी। जातीआ = मैंने समझीं। चुप कीआ = लापरवाह हुआ रहा। सुरति = सूझ।1।
अर्थ: हे कर्तार! माया में मोहित जीव पदार्थों की सारी बातें सुन के समझता भी है, फिर भी परवाह नहीं करता, और कभी भी (परमार्थ की तरफ) ध्यान नहीं देता।1।
[[0218]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
देइ बुझारत सारता से अखी डिठड़िआ ॥ कोई जि मूरखु लोभीआ मूलि न सुणी कहिआ ॥२॥
मूलम्
देइ बुझारत सारता से अखी डिठड़िआ ॥ कोई जि मूरखु लोभीआ मूलि न सुणी कहिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देइ = देता है। सारता = इशारा। अखी = आँखों से। मूलि न = बिल्कुल नहीं। कहिआ = कहा हुआ।2।
अर्थ: अगर कोई गुरमुखि कोई इशारा अथवा संकेत देता भी है (कि यहां सदा स्थिर नहीं रहना, फिर) ये बातें आँखों से भी देख लेते हैं (कि सब चले जा रहे हैं) पर जीव ऐसा कोई मूर्ख लोभी है कि (ऐसी) कही हुई बात बिल्कुल नहीं सुनता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इकसु दुहु चहु किआ गणी सभ इकतु सादि मुठी ॥ इकु अधु नाइ रसीअड़ा का विरली जाइ वुठी ॥३॥
मूलम्
इकसु दुहु चहु किआ गणी सभ इकतु सादि मुठी ॥ इकु अधु नाइ रसीअड़ा का विरली जाइ वुठी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ गणी = मैं क्या गिनूँ? मैं क्या बताऊूं। इकतु = एक में। सादि = स्वाद में। इकतु सादि = एक ही स्वाद में। मुठी = ठगी जा रही है। इकु अधु = कोई एक-आध, कोई विरला। नाइ = नाम में। रसीअड़ा = रस लेने वाला। जाइ = जगह। वुठी = कृपा करके दी हुई।3।
अर्थ: (हे भाई!) मैं किसी एक की, दो या चार की क्या बात बताऊँ? सारी ही सृष्टि एक ही स्वाद में ठगी जा रही है। कोई विरला मनुष्य परमातमा के नाम में रस लेने वाला है, कोई एक-आध हृदय-स्थल ही कृपा पात्र मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगत सचे दरि सोहदे अनद करहि दिन राति ॥ रंगि रते परमेसरै जन नानक तिन बलि जात ॥४॥१॥१६९॥
मूलम्
भगत सचे दरि सोहदे अनद करहि दिन राति ॥ रंगि रते परमेसरै जन नानक तिन बलि जात ॥४॥१॥१६९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचे दरि = सदा स्थिर प्रभु के दर पर। रंगि = रंग में, प्रेम रंग में। तिन = उनसे।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की भक्ति करने वाले लोग सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर शोभा पाते हैं, और दिन रात आत्मिक आनंद का लुत्फ लेते हैं। हे दास नानक! (कह: जो मनुष्य) परमेश्वर के प्रेम रंग में रंगे रहते हैं, मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ।4।1।169।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला ५ मांझ ॥ दुख भंजनु तेरा नामु जी दुख भंजनु तेरा नामु ॥ आठ पहर आराधीऐ पूरन सतिगुर गिआनु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी महला ५ मांझ ॥ दुख भंजनु तेरा नामु जी दुख भंजनु तेरा नामु ॥ आठ पहर आराधीऐ पूरन सतिगुर गिआनु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुख भंजनु = दुखों का नाश करने वाला। जी = हे जी! गिआनु = प्रभु से सांझ पाने वाला उपदेश।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम दुखों का नाश करने वाला है, तेरा नाम दुखों का नाश करने वाला है। (हे भाई!) ये नाम आठों पहर स्मरणा चाहिए- पूरे सतिगुरु का यही उपदेश है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितु घटि वसै पारब्रहमु सोई सुहावा थाउ ॥ जम कंकरु नेड़ि न आवई रसना हरि गुण गाउ ॥१॥
मूलम्
जितु घटि वसै पारब्रहमु सोई सुहावा थाउ ॥ जम कंकरु नेड़ि न आवई रसना हरि गुण गाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जितु = जिस में। घटि = हृदय में। जितु घटि = जिस हृदय में (जिसु घटि = जिस मनुष्य के दिल में)। जम कंकरु = जम का दास, जम दूत। नेड़ि = नजदीक। रसना = जीभ (से)।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस हृदय में परमात्मा आ बसता है, वही हृदय-स्थल सुंदर बन जाता है। जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा के गुण गाता है, जमदूत उसके पास नहीं फटकता (उसे मौत का डर नहीं छू सकता)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवा सुरति न जाणीआ ना जापै आराधि ॥ ओट तेरी जगजीवना मेरे ठाकुर अगम अगाधि ॥२॥
मूलम्
सेवा सुरति न जाणीआ ना जापै आराधि ॥ ओट तेरी जगजीवना मेरे ठाकुर अगम अगाधि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरति = सूझ। ना जापै आराधि = मुझे तेरी अराधना नहीं सूझती। जग जीवना = हे जगत की जिंदगी के (आसरे)! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अगाधि = हे अथाह!।2।
अर्थ: हे जगत की जिंदगी के आसरे! हे मेरे पालनहार मालिक! हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे अथाह प्रभु! मैंने (अब तक) तेरी सेवा-भक्ति की सूझ की कद्र ना जानी, मुझे तेरे नाम की आराधना करनी नहीं सूझी, (पर अब) मैंने तेरा आसरा लिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भए क्रिपाल गुसाईआ नठे सोग संताप ॥ तती वाउ न लगई सतिगुरि रखे आपि ॥३॥
मूलम्
भए क्रिपाल गुसाईआ नठे सोग संताप ॥ तती वाउ न लगई सतिगुरि रखे आपि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुसाईआ = सृष्टि के मालिक। सतिगुरि = सत्गुरू ने।3।
अर्थ: (हे भाई!) सृष्टि के मालिक प्रभु जिस मनुष्य पर मेहरवान होते हैं, उसके सारे फिक्र और कष्ट मिट जाते हैं। जिस मनुष्य की गुरु ने स्वयं रक्षा की, उसे (सोग-संताप आदि का) सेक नहीं लगता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु नाराइणु दयु गुरु गुरु सचा सिरजणहारु ॥ गुरि तुठै सभ किछु पाइआ जन नानक सद बलिहार ॥४॥२॥१७०॥
मूलम्
गुरु नाराइणु दयु गुरु गुरु सचा सिरजणहारु ॥ गुरि तुठै सभ किछु पाइआ जन नानक सद बलिहार ॥४॥२॥१७०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दयु = प्यार करने वाला प्रभु। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। गुरि तुठै = अगर गुरु मेहरबान हो जाए। गुरि = गुरु के द्वारा। तूठै = मेहरबान हो के।4।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु नारायण का रूप है, गुरु सब पर दया करने वाले प्रभु का स्वरूप है। गुरु उस कर्तार का रूप है जो सदा कायम रहने वाला है। अगर गुरु प्रसन्न हो जाए तो सब कुछ प्राप्त हो जाता है।
हे दास नानक! (कह:) मैं गुरु से सदके हूँ।4।2।170।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माझ महला ५ ॥ हरि राम राम राम रामा ॥ जपि पूरन होए कामा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी माझ महला ५ ॥ हरि राम राम राम रामा ॥ जपि पूरन होए कामा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपि = जप के। कामा = सारे काम।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) सदा परमात्मा का नाम जप के सारे काम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम गोबिंद जपेदिआ होआ मुखु पवित्रु ॥ हरि जसु सुणीऐ जिस ते सोई भाई मित्रु ॥१॥
मूलम्
राम गोबिंद जपेदिआ होआ मुखु पवित्रु ॥ हरि जसु सुणीऐ जिस ते सोई भाई मित्रु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि जसु = हरि की महिमा। जिस ते = जिस तरफ से।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिस ते’ में शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हट गई है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे भाई!) राम राम गोबिंद गोबिंद जपते हुए मुंह पवित्र हो जाता है। (दुनिया में) वही मनुष्य (असल) भाई है, (असल) मित्र है, जिससे परमात्मा की महिमा सुनी जाए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभि पदारथ सभि फला सरब गुणा जिसु माहि ॥ किउ गोबिंदु मनहु विसारीऐ जिसु सिमरत दुख जाहि ॥२॥
मूलम्
सभि पदारथ सभि फला सरब गुणा जिसु माहि ॥ किउ गोबिंदु मनहु विसारीऐ जिसु सिमरत दुख जाहि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। जिसु माहि = जिस (परमात्मा के वश) में। मनहु = मन से।2।
अर्थ: (हे भाई!) उस गोबिंद को अपने मन से कभी भुलाना नहीं चाहिए, जिसका स्मरण करने से सारे दुख दूर हो जाते हैं, और जिसके वश में (दुनिया के) सारे पदार्थ, सारे फल और सारे आत्मिक गुण हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु लड़ि लगिऐ जीवीऐ भवजलु पईऐ पारि ॥ मिलि साधू संगि उधारु होइ मुख ऊजल दरबारि ॥३॥
मूलम्
जिसु लड़ि लगिऐ जीवीऐ भवजलु पईऐ पारि ॥ मिलि साधू संगि उधारु होइ मुख ऊजल दरबारि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु लड़ि = जिस (प्रभु) के पल्ले में। लगिऐ = लगने से। जीवीऐ = जी जाते हैं, आत्मिक जीवन मिल जाता है। भवजलु = संसार समुंदर। साधू संगि = गुरु की संगति में। उधारु = (विकारों से) बचाव। दरबारि = (प्रभु के) दरबार में।3।
अर्थ: (हे भाई! उस गोबिंद को अपने मन से कभी भी भुलाना नहीं चाहिए) जिसका आसरा लेने से आत्मिक जीवन मिल जाता है, संसार समुंदर से पार लांघ जाते हैं। गुरु की संगति में मिल के (जिसका स्मरण करने से विकारों से) बचाव हो जाता है और प्रभु की हजूरी में सही स्वीकार हो जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवन रूप गोपाल जसु संत जना की रासि ॥ नानक उबरे नामु जपि दरि सचै साबासि ॥४॥३॥१७१॥
मूलम्
जीवन रूप गोपाल जसु संत जना की रासि ॥ नानक उबरे नामु जपि दरि सचै साबासि ॥४॥३॥१७१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जसु = महिमा। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। दरि सचै = सदा सिथर प्रभु के दर पे।4।
अर्थ: हे नानक! गोपाल प्रभु की महिमा आत्मिक जीवन देने वाली है, प्रभु की महिमा संत जनों के वास्ते राशि (संपत्ति, धन-दौलत) है। प्रभु का नाम जप के (संत जन विकारों से) बच निकलते हैं, और सदा स्थिर प्रभु के दर पर से शाबाश हासिल करते हैं।4।3।171।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माझ महला ५ ॥ मीठे हरि गुण गाउ जिंदू तूं मीठे हरि गुण गाउ ॥ सचे सेती रतिआ मिलिआ निथावे थाउ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गउड़ी माझ महला ५ ॥ मीठे हरि गुण गाउ जिंदू तूं मीठे हरि गुण गाउ ॥ सचे सेती रतिआ मिलिआ निथावे थाउ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिंदू = हे जिंदे! सेती = साथ।1। रहाउ।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जिंदू’ मैन शब्द ‘जिंदु’ उकरांत है व स्त्रीलिंग है। संबोधन में या संबंधक के साथ इसकी ‘ु’ की मात्रा दीर्घ हो जाती है और ‘ू’ लग जाती है। इसी तरह शब्द ‘खाकु’ से ‘खाकू’।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरी जिंदे! तू हरि के प्यारे लगने वाले गुण गाती रहा कर। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ रंगे रहने से उस मनुष्य को भी (हर जगह) आदर मिल जाता है, जिसे पहले कोई जगह नहीं मिलती।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होरि साद सभि फिकिआ तनु मनु फिका होइ ॥ विणु परमेसर जो करे फिटु सु जीवणु सोइ ॥१॥
मूलम्
होरि साद सभि फिकिआ तनु मनु फिका होइ ॥ विणु परमेसर जो करे फिटु सु जीवणु सोइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साद = स्वाद। सभि = सारे। फिटु = फिटकार के लायक।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे मेरी जिंदे! हरि के मीठे गुणों के मुकाबले दुनिया के) सारे स्वाद फीके हैं। (इन स्वादों में पड़ने से) शरीर (हरेक ज्ञानेंद्रिय) फीकी (रूखी) हो जाती है, मन खुश्क हो जाता है। परमेश्वर का नाम जपने से वंचित होकर मनुष्य जो कुछ भी करता है, उससे जिंदगी धिक्कारयोग्य हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंचलु गहि कै साध का तरणा इहु संसारु ॥ पारब्रहमु आराधीऐ उधरै सभ परवारु ॥२॥
मूलम्
अंचलु गहि कै साध का तरणा इहु संसारु ॥ पारब्रहमु आराधीऐ उधरै सभ परवारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंचलु = पल्ला। गहि कै = पकड़ के। साध = गुरु। उधरै = बच जाता है।2।
अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) गुरु का पल्ला पकड़ के इस संसार (-समुंदर) से पार लांघ सकते हैं। (हे जिंदे!) परमात्मा की आराधना करनी चाहिए। (जो मनुष्य आराधना करता है, उसका) सारा परिवार (संसार समुंदर के विकारों की लहरों में से) बच निकलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साजनु बंधु सुमित्रु सो हरि नामु हिरदै देइ ॥ अउगण सभि मिटाइ कै परउपकारु करेइ ॥३॥
मूलम्
साजनु बंधु सुमित्रु सो हरि नामु हिरदै देइ ॥ अउगण सभि मिटाइ कै परउपकारु करेइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हिरदै = दिल में (बसाने के लिए)। देइ = देता है।3।
अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) जो गुरमुख परमात्मा का नाम हृदय में (बसाने के लिए) देता है, वही असल सज्जन है, वही असल संबंधी है, वही असली मित्र है, (क्योंकि वह हमारे अंदर से) सारे अवगुण दूर करके (हमारी) भलाई करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मालु खजाना थेहु घरु हरि के चरण निधान ॥ नानकु जाचकु दरि तेरै प्रभ तुधनो मंगै दानु ॥४॥४॥१७२॥
मूलम्
मालु खजाना थेहु घरु हरि के चरण निधान ॥ नानकु जाचकु दरि तेरै प्रभ तुधनो मंगै दानु ॥४॥४॥१७२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थेहु = गाँव, आबादी। निधान = खजाने। जाचकु = भिखारी। दरि = दर पे। प्रभ = हे प्रभु! तुध नो = तुझे, तेरे नाम को।4।
अर्थ: (हे मेरी जिंदे!) परमात्मा के चरण ही (सारे पदार्थों के) खजाने हैं (जीव के साथ निभने वाला) माल है, खजाना है (जीव के वास्ते असली) बसेरा व घर है।
हे प्रभु! (तेरे दर का) भिखारी नानक तेरे दर पर तेरे नाम-दान के तौर पर मांगता है।4।4।172।