०४ गुरु अर्जन-देव

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी माझ महला ४ ॥ मेरा बिरही नामु मिलै ता जीवा जीउ ॥ मन अंदरि अम्रितु गुरमति हरि लीवा जीउ ॥ मनु हरि रंगि रतड़ा हरि रसु सदा पीवा जीउ ॥ हरि पाइअड़ा मनि जीवा जीउ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी माझ महला ४ ॥ मेरा बिरही नामु मिलै ता जीवा जीउ ॥ मन अंदरि अम्रितु गुरमति हरि लीवा जीउ ॥ मनु हरि रंगि रतड़ा हरि रसु सदा पीवा जीउ ॥ हरि पाइअड़ा मनि जीवा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरही = विछुड़ा हुआ प्यारा (नाम)। ता = तब। जीवा = मैं जी पड़ता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। लीवा = लूँ, लेता हूँ। रंगि = रंग में। मनि = मन में।1।
अर्थ: मैं तब ही आत्मिक जीवन प्राप्त कर सकता हूँ जब मुझे (मुझसे) विछुड़ा हुआ मेरा हरि नाम (मित्र) मिल जाए। आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल (मेरे) मन में ही (बसता है, पर) वह हरि-नाम-अमृत गुरु की मति के द्वारा ही मैं ले सकता हूँ। (अगर मेरा) मन (गुरु की मेहर से) परमात्मा के (प्रेम-) रंग में रंगा जाए, तो मैं सदा हरि नाम का रस पीता रहूँ। जब (गुरु की कृपा से मुझे) हरि मिल जाए तो मैं अपने मन में जीअ पड़ता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरै मनि तनि प्रेमु लगा हरि बाणु जीउ ॥ मेरा प्रीतमु मित्रु हरि पुरखु सुजाणु जीउ ॥ गुरु मेले संत हरि सुघड़ु सुजाणु जीउ ॥ हउ नाम विटहु कुरबाणु जीउ ॥२॥

मूलम्

मेरै मनि तनि प्रेमु लगा हरि बाणु जीउ ॥ मेरा प्रीतमु मित्रु हरि पुरखु सुजाणु जीउ ॥ गुरु मेले संत हरि सुघड़ु सुजाणु जीउ ॥ हउ नाम विटहु कुरबाणु जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाणु = तीर। सुजाणु = सियाना। मेले संत हरि = (गुरु) संत हरि को मिला देता है। विटहु = से।2।
अर्थ: (हे भाई!) मेरे मन में, मेरे हृदय में परमात्मा का प्रेम-तीर भेदा हुआ है (मुझे यकीन बन गया है कि) सुजान हरि पुरख ही मेरा प्रीतम है, मेरा मित्र है। गुरु ही वह संत सुजान सुघड़ हरि के साथ मिलाता है, और तब मैं हरि नाम के सदके जाता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ हरि हरि सजणु हरि मीतु दसाई जीउ ॥ हरि दसहु संतहु जी हरि खोजु पवाई जीउ ॥ सतिगुरु तुठड़ा दसे हरि पाई जीउ ॥ हरि नामे नामि समाई जीउ ॥३॥

मूलम्

हउ हरि हरि सजणु हरि मीतु दसाई जीउ ॥ हरि दसहु संतहु जी हरि खोजु पवाई जीउ ॥ सतिगुरु तुठड़ा दसे हरि पाई जीउ ॥ हरि नामे नामि समाई जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। दसाई = मैं पूछता हूँ। खोजु = तलाश। पवाई = मैं डलवाता हूँ। तुठड़ा = प्रसन्न हुआ हुआ। पाई = मैं ढूँढ लेता हूँ। नामे नामि = नाम में ही नाम में ही।3।
अर्थ: हे संत जनो! मैं (तुमसे) हरि-सज्जन हरि-मित्र (का पता) पूछता हूँ। हे संत जनो! (मुझे उसका पता) बताओ, मैं उस हरि-सज्जन की तलाश करता फिरता हूँ।
हे संत जनों! मैं तभी हरि-मित्र को मिल सकता हूँ जब प्रसन्न हुआ सत्गुरू उसका पता बताए। तभी, मैं सदा उस हरि नाम में लीन हो सकता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै वेदन प्रेमु हरि बिरहु लगाई जीउ ॥ गुर सरधा पूरि अम्रितु मुखि पाई जीउ ॥ हरि होहु दइआलु हरि नामु धिआई जीउ ॥ जन नानक हरि रसु पाई जीउ ॥४॥६॥२०॥१८॥३२॥७०॥

मूलम्

मै वेदन प्रेमु हरि बिरहु लगाई जीउ ॥ गुर सरधा पूरि अम्रितु मुखि पाई जीउ ॥ हरि होहु दइआलु हरि नामु धिआई जीउ ॥ जन नानक हरि रसु पाई जीउ ॥४॥६॥२०॥१८॥३२॥७०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वेदन = (विछोड़े का) दर्द, वेदना। बिरहु = मिलने की तलब। गुरू = हे गुरु! पूरि = पूरी कर। मुखि = मुंह में। पाई = मैं पाऊँ। हरि = हे हरि!।4।
अर्थ: हे सत्गुरू! मेरे अंदर प्रभु से विछोड़े की पीड़ उठ रही है। मेरे अंदर प्रभु का प्रेम जाग उठा है। मेरे अंदर हरि के मिलन की आग पैदा हो रही है। हे गुरु! मेरी श्रद्धा पूरी कर (ता कि) मैं उसका नाम-अंमृत (अपने) मुंह में डालूं। हे दास नानक! (कह:) हे हरि! मेरे पर दयाल हो। मैं तेरा हरि नाम ध्याऊँ, और मैं तेरा हरि-नाम-रस प्राप्त करूँ।4।6।20।18।32।70।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ५ रागु गउड़ी गुआरेरी चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

महला ५ रागु गउड़ी गुआरेरी चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किन बिधि कुसलु होत मेरे भाई ॥ किउ पाईऐ हरि राम सहाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

किन बिधि कुसलु होत मेरे भाई ॥ किउ पाईऐ हरि राम सहाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किन = किन्होंने? बिधि = तरीका। किन बिधि = किन तरीकों से? कुसलु = आत्मिक आनंद। किउ = कैसे? सहाई = सहायक।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिन, तिन, इन, किन’ शब्द बहुवचन हैं। इनके एकवचन जिनि, तिनि, इनि व किनि हुए।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे वीर! (मनुष्य के अंदर) आत्मिक आनंद किन तरीको से (पैदा) हो सकता है? (असल) मित्र हरि-परमात्मा कैसे मिल सकता है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुसलु न ग्रिहि मेरी सभ माइआ ॥ ऊचे मंदर सुंदर छाइआ ॥ झूठे लालचि जनमु गवाइआ ॥१॥

मूलम्

कुसलु न ग्रिहि मेरी सभ माइआ ॥ ऊचे मंदर सुंदर छाइआ ॥ झूठे लालचि जनमु गवाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ग्रिहि = गृह में, घर (के मोह) में। सुंदर (बागों की) छाया। लालचि = लालच में।1।
अर्थ: घर (के मोह) में आत्मिक सुख नहीं है, ये समझने में भी आत्मिक सुख नहीं हैकि ये सारी माया मेरी है। ऊँचे महल-माढ़ियों और सुंदर बागों की छाया भोगने में भी आनंद नहीं। (जिस मनुष्य ने उनमें आत्मिक सुख समझा है उसने) झूठे लालच में (अपना मानव) जनम गवा लिया है।1।

[[0176]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हसती घोड़े देखि विगासा ॥ लसकर जोड़े नेब खवासा ॥ गलि जेवड़ी हउमै के फासा ॥२॥

मूलम्

हसती घोड़े देखि विगासा ॥ लसकर जोड़े नेब खवासा ॥ गलि जेवड़ी हउमै के फासा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हसती = हाथी। देखि = देख के। विगासा = खुशी। जोड़े = एकत्र किए। नेब = नायब, सलाहकार। खवासा = शाही नौकर। गलि = गले में। फासा = फाहे।2।
अर्थ: मनुष्य हाथी, घोड़े देख के खुशी (महिसूस करता है), फौजें एकत्र करता है, मंत्री और शाही नौकर रखता है, पर उसके गले में अहंकार की रस्सी, अहम् के फाहे ही पड़ते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजु कमावै दह दिस सारी ॥ माणै रंग भोग बहु नारी ॥ जिउ नरपति सुपनै भेखारी ॥३॥

मूलम्

राजु कमावै दह दिस सारी ॥ माणै रंग भोग बहु नारी ॥ जिउ नरपति सुपनै भेखारी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दह दिस = दसों दिशाओं में। सारी = सारी (सृष्टि) का। नरपति = राजा। भेखारी = भिखारी।3।
अर्थ: (राजा बन के मनुष्य) दसों दिशाओं में धरती का राज कमाता है, मौजें करता है, स्त्रीयां भोगता है (पर ये सब कुछ ऐसे ही है) जैसे कोई राजा भिखारी बन जाता है (और दुखी होता है, आत्मिक सुख की जगह राज में व भोगों में भी दुख ही दुख है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु कुसलु मो कउ सतिगुरू बताइआ ॥ हरि जो किछु करे सु हरि किआ भगता भाइआ ॥ जन नानक हउमै मारि समाइआ ॥४॥

मूलम्

एकु कुसलु मो कउ सतिगुरू बताइआ ॥ हरि जो किछु करे सु हरि किआ भगता भाइआ ॥ जन नानक हउमै मारि समाइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। भाइआ = अच्छा लगता है। मारि = मार के।4।
अर्थ: सत्गुरू ने मुझे असल आत्मिक सुख (का मूल्य) बताया है (वह है परमात्मा की रजा में राजी रहना)। जो कुछ परमात्मा करता है उसके भक्तों को वह मीठा लगता है (और वे इस तरह आत्मिक सुख प्राप्त करते हैं)। हे दास नानक! अहंकार मार के (भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा में ही) लीन रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इनि बिधि कुसल होत मेरे भाई ॥ इउ पाईऐ हरि राम सहाई ॥१॥ रहाउ दूजा ॥

मूलम्

इनि बिधि कुसल होत मेरे भाई ॥ इउ पाईऐ हरि राम सहाई ॥१॥ रहाउ दूजा ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इनि बिधि = इस तरीके से। इउ = इस तरह। रहाउ दूजा।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘रहाउ दूजा’ के आखिर और इससे पहले के शब्द का अंक १ दिया गया है। पर 70 शबदों को इसके साथ मिला के जोड़ 71 नहीं दिया गया।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे वीर! इस तरीके से (भाव, रजा में रहने से) आत्मिक आनंद पैदा होता है, इस तरह (ही) असल मित्र हरि-परमात्मा मिलता है।1। रहाउ दूजा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ किउ भ्रमीऐ भ्रमु किस का होई ॥ जा जलि थलि महीअलि रविआ सोई ॥ गुरमुखि उबरे मनमुख पति खोई ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ किउ भ्रमीऐ भ्रमु किस का होई ॥ जा जलि थलि महीअलि रविआ सोई ॥ गुरमुखि उबरे मनमुख पति खोई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भ्रमु = भटकना। भ्रमीऐ = भटकते फिरें। किउ भ्रमीऐ = भटकना समाप्त हो जाती है। जा = जब। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती की सतह पर, आकाश में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। उबरे = (तृष्णा से) बचाता है। मनमुख = अपने मन की ओर चलने वाला। पति = इज्जत।1।
अर्थ: जब (ये यकीन बन जाए कि) वह प्रभु ही जल में धरती में आकाश में व्यापक है तब मन भटकने से हट जाता है क्योंकि किसी मायावी पदार्थ के लिए भटकना रहती ही नहीं। (पर तृष्णा के प्रभाव से) गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (ही) बचते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (तृष्णा में फंस के अपनी) इज्जत गवा लेते हैं (क्योंकि वे आत्मिक जीवन के स्तर से नीचे हो जाते हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु राखै आपि रामु दइआरा ॥ तिसु नही दूजा को पहुचनहारा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जिसु राखै आपि रामु दइआरा ॥ तिसु नही दूजा को पहुचनहारा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राखै = तृष्णा से बचाता है। दइआरा = दयाल, दया का घर। पहुचनहारा = बराबरी कर सकने वाला।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को दयाल प्रभु खुद (तृष्णा से) बचाता है (उसका जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि) कोई और मनुष्य उसकी बराबरी नहीं कर सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ महि वरतै एकु अनंता ॥ ता तूं सुखि सोउ होइ अचिंता ॥ ओहु सभु किछु जाणै जो वरतंता ॥२॥

मूलम्

सभ महि वरतै एकु अनंता ॥ ता तूं सुखि सोउ होइ अचिंता ॥ ओहु सभु किछु जाणै जो वरतंता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वरतै = मौजूद है। ता = तब। सुखि = आत्मिक आनंद में। सोउ = सो जाओ, लीन रहो। अचिंता = चिन्ता रहित हो के। ओहु = वह परमात्मा। वरतंता = पसरा हुआ है।2।
अर्थ: (हे भाई!) तू तभी चिन्ता-रहित हो के आत्मिक आनंद में लीन रह सकता है (जब तुझे ये निश्चय हो जाए कि) एक बेअंत प्रभु ही सब में व्यापक है, और, जो कुछ जगत में घटित हो रहा है वह परमात्मा सब कुछ जानता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख मुए जिन दूजी पिआसा ॥ बहु जोनी भवहि धुरि किरति लिखिआसा ॥ जैसा बीजहि तैसा खासा ॥३॥

मूलम्

मनमुख मुए जिन दूजी पिआसा ॥ बहु जोनी भवहि धुरि किरति लिखिआसा ॥ जैसा बीजहि तैसा खासा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुए = आत्मिक मौत मर गए। दूजी पिआसा = प्रभु के बिना और तमन्ना। भवहि = घूमते रहते हैं। धुरि = धुर से। किरति = किए कर्मों के संस्कार के अनुसार।3।
अर्थ: जिस मनुष्यों को माया की तृष्णा चिपकी रहती है, वे अपने मन के मुरीद मनुष्य आत्मिक मौत से मरे रहते हैं क्योंकि वे जैसा (कर्म बीज) बीजते हैं वैसा ही (फल) खाते हैं। उनके किए कर्मों के अनुसार धुर से ही उनके माथे पर ऐसे लेख लिखे होते हैं कि वे अनेक योनियों में भटकते फिरते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखि दरसु मनि भइआ विगासा ॥ सभु नदरी आइआ ब्रहमु परगासा ॥ जन नानक की हरि पूरन आसा ॥४॥२॥७१॥

मूलम्

देखि दरसु मनि भइआ विगासा ॥ सभु नदरी आइआ ब्रहमु परगासा ॥ जन नानक की हरि पूरन आसा ॥४॥२॥७१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखि = देख के। मनि = मन में। विगासा = खिड़ाव। नदरी आइआ = दिखा।4।
अर्थ: (हर जगह) परमात्मा का दर्शन करके जिस मनुष्य के मन में खिड़ाव (प्रसन्नता) पैदा होता है, उसे हर जगह परमात्मा का ही प्रकाश नजर आता है, हे नानक! उस दास की परमात्मा (हरेक) आशा पूरी करता है।4।2।71।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: गुरु अर्जुन देव जी का गउड़ी राग में ये दूसरा शब्द है। पहले सारे शबदों का जोड़ 70 है। यहाँ बड़ा जोड़ 72 चाहिए था। गुरु अरजन साहिब के शब्द नंबर 105 तक यही एक की कमी चली जाती है। शब्द नं: 106 से बड़ा अंक दर्ज करना ही बंद कर दिया गया है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ कई जनम भए कीट पतंगा ॥ कई जनम गज मीन कुरंगा ॥ कई जनम पंखी सरप होइओ ॥ कई जनम हैवर ब्रिख जोइओ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ कई जनम भए कीट पतंगा ॥ कई जनम गज मीन कुरंगा ॥ कई जनम पंखी सरप होइओ ॥ कई जनम हैवर ब्रिख जोइओ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीट = कीड़े। गज = हाथी। मीन = मछली। कुरंग = हिरन। पंखी = पक्षी। सरप = सर्प, साँप। हैवर = (हय+वर) बढ़िया घोड़े। ब्रिख = (वृष) बैल। जाइओ = जोता गया।1।
अर्थ: (हे भाई!) तू कई जन्मों में कीड़े-पतंगे बना रहा, कई जन्मों में हाथी मछ हिरन बनता रहा। कई जन्मों में तू पंछी और साँप बना, कई जन्मों में तू घोड़े बैल बनके हाँका गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलु जगदीस मिलन की बरीआ ॥ चिरंकाल इह देह संजरीआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मिलु जगदीस मिलन की बरीआ ॥ चिरंकाल इह देह संजरीआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जगदीस = जगत के मालिक प्रभु को। बरीआ = बारी, समय। देह = शरीर। संजरीआ = मिली है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) चिरंकाल के बाद तुझे ये (मानुस) शरीर मिला है, जगत के मालिक प्रभु को (अब) मिल, (यही मानुष जनम प्रभु को) मिलने का समय है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कई जनम सैल गिरि करिआ ॥ कई जनम गरभ हिरि खरिआ ॥ कई जनम साख करि उपाइआ ॥ लख चउरासीह जोनि भ्रमाइआ ॥२॥

मूलम्

कई जनम सैल गिरि करिआ ॥ कई जनम गरभ हिरि खरिआ ॥ कई जनम साख करि उपाइआ ॥ लख चउरासीह जोनि भ्रमाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सैल = पत्थर। गिरि = पहाड़। हिरि खरिआ = छन गए, गिर गए। साख = शाखा, बनस्पति। करि = बना के।2।
अर्थ: (हे भाई!) कई जन्मों में तुझे पत्थर की चट्टान बनाया गया, कई जन्मों में (तेरी माँ का) गर्भ ही छनता रहा। कई जन्मों में तुझे (विभिन्न प्रकार के) वृक्ष बना के पैदा किया गया, और इस तरह (चौरासी लाख) जूनियों में तुझे घुमाया गया।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधसंगि भइओ जनमु परापति ॥ करि सेवा भजु हरि हरि गुरमति ॥ तिआगि मानु झूठु अभिमानु ॥ जीवत मरहि दरगह परवानु ॥३॥

मूलम्

साधसंगि भइओ जनमु परापति ॥ करि सेवा भजु हरि हरि गुरमति ॥ तिआगि मानु झूठु अभिमानु ॥ जीवत मरहि दरगह परवानु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संगि = संगति में (आ)। भजु = भजन कर। मरहि = अगर तू (स्वैभाव से) मरे।3।
अर्थ: (हे भाई! अब तुझे) मानव जन्म मिला है, साधु-संगत में आ, गुरु की मति ले के (लोगों की) सेवा कर और परमात्मा का भजन कर। अभिमान, झूठ व अहंकार त्याग दे। तू (परमात्मा की) दरगाह में (तब ही) स्वीकार होगा अगर तू जीवन जीते हुए ही स्वैभाव को मार लेगा।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो किछु होआ सु तुझ ते होगु ॥ अवरु न दूजा करणै जोगु ॥ ता मिलीऐ जा लैहि मिलाइ ॥ कहु नानक हरि हरि गुण गाइ ॥४॥३॥७२॥

मूलम्

जो किछु होआ सु तुझ ते होगु ॥ अवरु न दूजा करणै जोगु ॥ ता मिलीऐ जा लैहि मिलाइ ॥ कहु नानक हरि हरि गुण गाइ ॥४॥३॥७२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुझ ते = तुझसे (हे प्रभु!)। होगु = होगा। करणै जोगु = करने की स्मर्था वाला।4।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु के आगे अरदास कर और) कह: (हे प्रभु तेरा स्मरण करने की जीव की क्या स्मर्था हो सकती है?) जो कुछ (जगत में) होता है वह तेरे (हुक्म) से ही होता है। (तेरे बिना) अन्य कोई भी कुछ करने की स्मर्था वाला नहीं है। हे प्रभु! तुझे तभी मिला जा सकता है अगर तू खुद जीव को (अपने चरणों में) मिला ले, तभी जीव हरि गुण गा सकता है।4।3।72

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ गिनती का असल नंबर 73 चाहिए।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ करम भूमि महि बोअहु नामु ॥ पूरन होइ तुमारा कामु ॥ फल पावहि मिटै जम त्रास ॥ नित गावहि हरि हरि गुण जास ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ करम भूमि महि बोअहु नामु ॥ पूरन होइ तुमारा कामु ॥ फल पावहि मिटै जम त्रास ॥ नित गावहि हरि हरि गुण जास ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूमि = धरती। करम भूमि = वह धरती जिस में कर्म बीजे जा सकते हैं, मानव शरीर। बोअहु = बीजो। कामु = काम, जीवन उद्देश्य। त्रास = डर। जम त्रास = मौत का डर, आत्मिक मौत का खतरा। जास = यश।1।
अर्थ: (हे भाई!) कर्म बीजने वाली धरती में (मानव शरीर में) परमात्मा का नाम बीज इस तरह तेरा (मानव जीवन का) उद्देश्य सिरे चढ़ जाएगा। (हे भाई!) अगर तू नित्य परमात्मा के गुण गाए, तो इसका इसका फल ये होगा कि तेरी आत्मिक मौत का खतरा मिट जाएगा।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु अंतरि उरि धारि ॥ सीघर कारजु लेहु सवारि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि नामु अंतरि उरि धारि ॥ सीघर कारजु लेहु सवारि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = अंदर से। उरि = दिल से। धारि = रख के। सीघर = शीघ्र, जल्दी। कारजु = जीवन उद्देश्य।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) अपने अंदर अपने हृदय में परमात्मा का नाम संभाल के रख और (इस तरह) अपना मानव जीवन का उद्देश्य संभाल ले।1। रहाउ।

[[0177]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपने प्रभ सिउ होहु सावधानु ॥ ता तूं दरगह पावहि मानु ॥ उकति सिआणप सगली तिआगु ॥ संत जना की चरणी लागु ॥२॥

मूलम्

अपने प्रभ सिउ होहु सावधानु ॥ ता तूं दरगह पावहि मानु ॥ उकति सिआणप सगली तिआगु ॥ संत जना की चरणी लागु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = से। सावधानु = (स = अवधान) सुचेत। स = सहित, समेत। अवधान = ध्यान (attention)। मानु = आदर। उकति = बयान करने की शक्ति, दलील। सगली = सारी।2।
अर्थ: (हे भाई!) अपनी दलीलें अपनी समझदारिआं सारी छोड़ दे, गुरमुखों की शरण पड़ (संत जनों की इनायत के सदका) अपने परमात्मा के साथ (परमात्मा की याद में) सुचेत रह (जब तू ये उद्यम करेगा) तब तू परमात्मा की हजूरी में आदर-मान प्राप्त करेगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब जीअ हहि जा कै हाथि ॥ कदे न विछुड़ै सभ कै साथि ॥ उपाव छोडि गहु तिस की ओट ॥ निमख माहि होवै तेरी छोटि ॥३॥

मूलम्

सरब जीअ हहि जा कै हाथि ॥ कदे न विछुड़ै सभ कै साथि ॥ उपाव छोडि गहु तिस की ओट ॥ निमख माहि होवै तेरी छोटि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ = जीव। हाथि = हाथ में। जा कै हाथि = जिस के हाथ में। साथि = साथ। उपाव = ढंग, यत्न। गहु = पकड़ना। ओट = आसरा। निमख = आँख झपकने जितना समय। छोटि = खलासी।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) सारे जीव-जंतु जिस परमात्मा के वश में (हाथ में) है, जो प्रभु कभी भी (जीवों से) अलग नहीं होता, (सदा) सब जीवों के साथ रहता है, अपने प्रयत्नों-कोशिशों को छोड़ के उस परमात्मा का आसरा-परना पकड़। आँख की एक झपक में (माया के मोह के बंधनों से) तेरी मुक्ति हो जाएगी।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा निकटि करि तिस नो जाणु ॥ प्रभ की आगिआ सति करि मानु ॥ गुर कै बचनि मिटावहु आपु ॥ हरि हरि नामु नानक जपि जापु ॥४॥४॥७३॥

मूलम्

सदा निकटि करि तिस नो जाणु ॥ प्रभ की आगिआ सति करि मानु ॥ गुर कै बचनि मिटावहु आपु ॥ हरि हरि नामु नानक जपि जापु ॥४॥४॥७३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। तिस नो = उस को। जाणु = समझ। सति = (सत्) अटल, चत्य। बचनि = वचन के द्वारा। आपु = स्वैभाव। जपि जापु = जाप जप।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस नो’ में ‘तिसु’ का ‘ु’, संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! उस परमात्मा को सदा अपने नजदीक बसता समझ। ये दृढ़ करके मान कि परमात्मा की रजा अटल है। गुरु के वचन में (जुड़ के अपने अंदर से) स्वैभाव दूर कर, सदा परमात्मा का नाम जप, सदा प्रभु (के गुणों) का जाप जप।4।4।73।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ गुर का बचनु सदा अबिनासी ॥ गुर कै बचनि कटी जम फासी ॥ गुर का बचनु जीअ कै संगि ॥ गुर कै बचनि रचै राम कै रंगि ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ गुर का बचनु सदा अबिनासी ॥ गुर कै बचनि कटी जम फासी ॥ गुर का बचनु जीअ कै संगि ॥ गुर कै बचनि रचै राम कै रंगि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अबिनासी = ना नाश होने वाला, सदा आत्मिक जीवन के काम आने वाला। बचनि = वचन के द्वारा। जम फासी = मौत की फांसी, आत्मिक मौत लाने वाली जमों की फांसी। जीअ कै संगि = जिंद के साथ। रचै = रचता है, जुड़ा रहता है। रंगि = रंग में, प्रेम में।1।
अर्थ: गुरु का वचन (उपदेश) हमेशा आत्मिक जीवन के काम आने वाला है सदा अविनाशी है। गुरु के वचन से आत्मिक मौत लाने वाला मोह रूपी फंदा कट जाता है। गुरु का वचन हमेशा जीव के संग है। गुरु के उपदेश से आदमी परमात्मा के प्रेम-रंग में जुड़ा रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो गुरि दीआ सु मन कै कामि ॥ संत का कीआ सति करि मानि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जो गुरि दीआ सु मन कै कामि ॥ संत का कीआ सति करि मानि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। कामि = काम में। मन कै कामि = मन के काम में। संत = गुरु। सति = अटल, सदा काम आने वाला। मानि = मंन, जाण।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जो (उपदेश) गुरु ने दिया है, वह (हरेक मनुष्य के) मन के काम आता है। (इस वास्ते हे भाई!) गुरु के किए हुए इस उपकार को सदा साथ निभने वाला समझ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर का बचनु अटल अछेद ॥ गुर कै बचनि कटे भ्रम भेद ॥ गुर का बचनु कतहु न जाइ ॥ गुर कै बचनि हरि के गुण गाइ ॥२॥

मूलम्

गुर का बचनु अटल अछेद ॥ गुर कै बचनि कटे भ्रम भेद ॥ गुर का बचनु कतहु न जाइ ॥ गुर कै बचनि हरि के गुण गाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अटल = कभी ना टलने वाला। अछेद = कभी ना नाश होने वाला। भ्रम = भटकना। भेद = भेदभाव। कतहु = कहीं भी। जाइ = जाता है। गाइ = गाता है।2।
अर्थ: गुरु का उपदेश सदा मनुष्य के आत्मिक जीवन के काम आने वाला है, ये उपदेश कभी कम होने वाला (पुराना होने वाला) नहीं। गुरु के उपदेश के द्वारा मनुष्य की भटकना मनुष्य के भेदभाव कट जाते हैं। गुरु का उपदेश कभी व्यर्थ नहीं जाता। गुरु के उपदेश (की इनायत) से मनुष्य परमात्मा के गुण गाता (रहता) है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर का बचनु जीअ कै साथ ॥ गुर का बचनु अनाथ को नाथ ॥ गुर कै बचनि नरकि न पवै ॥ गुर कै बचनि रसना अम्रितु रवै ॥३॥

मूलम्

गुर का बचनु जीअ कै साथ ॥ गुर का बचनु अनाथ को नाथ ॥ गुर कै बचनि नरकि न पवै ॥ गुर कै बचनि रसना अम्रितु रवै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साथि = साथ। नाथु = नाथ, पति, आसरा। नरकि = नर्क में। रसना = जीभ (से)। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। रवै = माणता है, भोगता है।3।
अर्थ: गुरु का उपदेश जीवात्मा के साथ निभता है। गुरु का उपदेश निआसरी जीवात्माओं का सहारा बनता है। गुरु के उपदेश की इनायत से मनुष्य नर्क में नहीं जाता, और, गुरु के उपदेश की इनायत से मनुष्य अपनी जीभ से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पीता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर का बचनु परगटु संसारि ॥ गुर कै बचनि न आवै हारि ॥ जिसु जन होए आपि क्रिपाल ॥ नानक सतिगुर सदा दइआल ॥४॥५॥७४॥

मूलम्

गुर का बचनु परगटु संसारि ॥ गुर कै बचनि न आवै हारि ॥ जिसु जन होए आपि क्रिपाल ॥ नानक सतिगुर सदा दइआल ॥४॥५॥७४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसारि = संसार में। हारि = हार के, (जीवन बाजी) हार के।4।
अर्थ: गुरु का उपदेश मनुष्य को संसार में प्रसिद्ध कर देता है। गुरु के उपदेश की इनायत से मनुष्य जीवन-बाजी हार के नहीं आता। हे नानक! जिस मनुष्य पर परमात्मा खुद मेहरबान होता है उस पर सतिगुरु सदैव दया-दृष्टि करता रहता है।4।5।74।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जिनि कीता माटी ते रतनु ॥ गरभ महि राखिआ जिनि करि जतनु ॥ जिनि दीनी सोभा वडिआई ॥ तिसु प्रभ कउ आठ पहर धिआई ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जिनि कीता माटी ते रतनु ॥ गरभ महि राखिआ जिनि करि जतनु ॥ जिनि दीनी सोभा वडिआई ॥ तिसु प्रभ कउ आठ पहर धिआई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (कर्तार) ने। रतनु = अमुल्य मानव शरीर। गरभ = गर्भ, माँ का पेट। करि = कर के। धिआई = मैं ध्याता हूँ।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस (प्रभु) ने मिट्टी से (मेरा) अमुल्य मानव शरीर बना दिया है। जिसने प्रयत्न करके माँ के पेट में मेरी रक्षा की है, जिसने मुझे शोभा दी है, आदर बख्शी है, उस प्रभु को मैं (उसकी मेहर से) आठों पहर स्मरण करता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमईआ रेनु साध जन पावउ ॥ गुर मिलि अपुना खसमु धिआवउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

रमईआ रेनु साध जन पावउ ॥ गुर मिलि अपुना खसमु धिआवउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रमईआ = हे राम!। रेनु = चरण धूल। पावउं = मैं पा लूँ। मिलि = मिल के।1। रहाउ।
अर्थ: हे सुंदर राम! (कृपा कर) मैं गुरमुखों के चरणों की धूल प्राप्त कर लूँ, और गुरु को मिल के (तुझे) अपने पति को स्मरण करता रहूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि कीता मूड़ ते बकता ॥ जिनि कीता बेसुरत ते सुरता ॥ जिसु परसादि नवै निधि पाई ॥ सो प्रभु मन ते बिसरत नाही ॥२॥

मूलम्

जिनि कीता मूड़ ते बकता ॥ जिनि कीता बेसुरत ते सुरता ॥ जिसु परसादि नवै निधि पाई ॥ सो प्रभु मन ते बिसरत नाही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूढ़ = मूर्ख। ते = से। बकता = वक्ता, अच्छा बोलने वाला। बेसुरत = बेसमझ। सुरता = समझ वाला। परसादि = कृपा से। नवै निधि = नौ ही खजाने। पाई = में पाता हूँ।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस (कर्तार) ने (मुझ) मूर्ख-अंजान को सुंदर बोल बोलने वाला बना दिया है, जिसने (मुझे) बेसमझ से समझदार बना दिया है, जिस (प्रभु) की कृपा से मैं (धरती के सारे) नौ ही खजाने हासिल कर रहा हूँ, वह प्रभु मेरे मन से भूलता नहीं है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि दीआ निथावे कउ थानु ॥ जिनि दीआ निमाने कउ मानु ॥ जिनि कीनी सभ पूरन आसा ॥ सिमरउ दिनु रैनि सास गिरासा ॥३॥

मूलम्

जिनि दीआ निथावे कउ थानु ॥ जिनि दीआ निमाने कउ मानु ॥ जिनि कीनी सभ पूरन आसा ॥ सिमरउ दिनु रैनि सास गिरासा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीनी = की। सिमरउ = मैं स्मरण करता हूँ। रैनि = रात। गिरासा = ग्रास।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस (प्रभु) ने (मुझ) निआसरे को आसरा दिया है, जिसने (मुझ) निमाणे को मान-आदर दिया है, जिस (कर्तार) ने मेरी हरेक आस (अब तक) पूरी की है, उसे मैं दिन रात हरेक श्वास-ग्रास स्मरण करता रहता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु प्रसादि माइआ सिलक काटी ॥ गुर प्रसादि अम्रितु बिखु खाटी ॥ कहु नानक इस ते किछु नाही ॥ राखनहारे कउ सालाही ॥४॥६॥७५॥

मूलम्

जिसु प्रसादि माइआ सिलक काटी ॥ गुर प्रसादि अम्रितु बिखु खाटी ॥ कहु नानक इस ते किछु नाही ॥ राखनहारे कउ सालाही ॥४॥६॥७५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिलक = फांसी। बिखु = जहर। खाटी = (कटु) कड़वी। इस ते = इस जीव से। सालाही = मैं सलाहता हूँ।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इस ते’ में से शब्द ‘इसु’ से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘ु’ मात्रा नहीं लगी है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे नानक! कह: (हे भाई!) जिस (प्रभु) की कृपा से (मेरे गले से) माया (के मोह) की फांसी कट गयी है, (जिसके कारण) गुरु की कृपा से (मुझे) अमृत (जैसी मीठी लगने वाली माया अब) कड़वी जहर प्रतीत हो रही है, मैं उस प्रतिपालक प्रभु की महिमा करता हूँ (नहीं तो) इस जीव के वश कुछ नहीं कि (अपने प्रयासों से प्रभु की महिमा कर सके)।4।6।75।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ तिस की सरणि नाही भउ सोगु ॥ उस ते बाहरि कछू न होगु ॥ तजी सिआणप बल बुधि बिकार ॥ दास अपने की राखनहार ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ तिस की सरणि नाही भउ सोगु ॥ उस ते बाहरि कछू न होगु ॥ तजी सिआणप बल बुधि बिकार ॥ दास अपने की राखनहार ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिस की = उस (राम) की। सोगु = गम, चिन्ता। ते = से। बाहरि = (बस के) बाहर, आकी। होगु = होगा। तजी = त्याग दी, मैंने छोड़ दी। बल = आसरा, तान। बुधि = बुद्धि। बिकार = बुराई।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में से शब्द ‘तिसु’ में संबंधक ‘की’ के कारण ‘ु’ मात्रा नहीं लगी है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) उस राम की शरण पड़ने से कोई भय छू नहीं सकता। कोई चिन्ता नहीं व्याप सकती। (क्योंकि कोई डर कोई चिन्ता) कुछ भी उस राम से आकी नहीं हो सकते। (इस वास्ते हे भाई!) मैंने अपनी अक्ल का आसरा रखने की बुराई त्याग दी है (और उस राम का दास बन गया हूँ, वह राम) अपने दास की इज्जत रखने के समर्थ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपि मन मेरे राम राम रंगि ॥ घरि बाहरि तेरै सद संगि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जपि मन मेरे राम राम रंगि ॥ घरि बाहरि तेरै सद संगि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! रंगि = प्रेम से। संगि = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! प्रेम से राम का नाम जप। वह नाम तेरे घर में (हृदय में) और बाहर हर जगह सदा तेरे साथ रहता है।1। रहाउ।

[[0178]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिस की टेक मनै महि राखु ॥ गुर का सबदु अम्रित रसु चाखु ॥ अवरि जतन कहहु कउन काज ॥ करि किरपा राखै आपि लाज ॥२॥

मूलम्

तिस की टेक मनै महि राखु ॥ गुर का सबदु अम्रित रसु चाखु ॥ अवरि जतन कहहु कउन काज ॥ करि किरपा राखै आपि लाज ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टेक = आसरा, सहारा। मनै माहि = मन में। चाखु = चख ले। अवरि = और, अन्य। कहहु = बताओ।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) अपने मन में उस परमात्मा का आसरा रख। (हे भाई!) गुरु के शब्द का आनंद ले। (गुरु का शब्द) आत्मिक जीवन देने वाला रस है। (हे भाई!) बता (परमात्मा को भुला के) अन्य किए गए उद्यम प्रयास किस काम आ सकते हैं? (इसलिए, प्रभु की शरण पड़, वह प्रभु) मिहर करके (जीव की) इज्जत स्वयं रखता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ मानुख कहहु किआ जोरु ॥ झूठा माइआ का सभु सोरु ॥ करण करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥३॥

मूलम्

किआ मानुख कहहु किआ जोरु ॥ झूठा माइआ का सभु सोरु ॥ करण करावनहार सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोरु = शोर, हल्ला, फूँ-फां। करणहार = करने के समर्थ। करावनहार = जीवों से कराने की ताकत रखने वाला। सगल = सारे। अंतरजामी = (अंतर+यामी। या = जाना, पहुँचना), अंदर तक पहुँच सकने वाला, दिल की जानने वाला।3।
अर्थ: (हे भाई!) माया की सारी फूँ-फां झूठी है (चार दिनों की है)। बताओ, ये लोग क्या करने के लायक हैं? इनके गुरूर (का) कितना (आधार) है? मालिक प्रभु (सब जीवों में व्यापक हो के खुद ही) सब कुछ करने के समर्थ है। खुद ही जीवों से सब कुछ कराता है। वह प्रभु सब जीवों के दिलों की जानता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब सुखा सुखु साचा एहु ॥ गुर उपदेसु मनै महि लेहु ॥ जा कउ राम नाम लिव लागी ॥ कहु नानक सो धंनु वडभागी ॥४॥७॥७६॥

मूलम्

सरब सुखा सुखु साचा एहु ॥ गुर उपदेसु मनै महि लेहु ॥ जा कउ राम नाम लिव लागी ॥ कहु नानक सो धंनु वडभागी ॥४॥७॥७६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरब = सारे। साचा = सदा कायम रहने वाला। जा कउ = जिस मनुष्य को।4।
अर्थ: (हे भाई!) सत्गुरू का उपदेश अपने मन में टिका के रख, यही है सारे सुखों से श्रेष्ठ सुख, और, सदा कायम रहने वाला सुख। हे नानक! कह: जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम की लगन लग जाती है, वह धन्य है वह भाग्यशाली है।4।7।76।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ सुणि हरि कथा उतारी मैलु ॥ महा पुनीत भए सुख सैलु ॥ वडै भागि पाइआ साधसंगु ॥ पारब्रहम सिउ लागो रंगु ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ सुणि हरि कथा उतारी मैलु ॥ महा पुनीत भए सुख सैलु ॥ वडै भागि पाइआ साधसंगु ॥ पारब्रहम सिउ लागो रंगु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। पुनीत = पवित्र। सैलु = पहाड़। सुख सैलु = सुखों का पहाड़, अनेक ही सुख। भागि = किस्मत से। सिउ = साथ। रंगु = प्रेम।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘मैलु’ शब्द स्त्रीलिंग है, पर प्रतीत होता है पुलिंग।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मनुष्यों ने (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा की महिमा सुन के (अपने मन से विकारों की) मैल उतार ली वे बड़े ही पवित्र (जीवन वाले) हो गए। उन्होंने अनेक ही सुख प्राप्त कर लिए। उन्होंने बड़ी किस्मत से गुरु का मिलाप हासिल कर लिया। उनका परमात्मा से प्रेम बन गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु जपत जनु तारिओ ॥ अगनि सागरु गुरि पारि उतारिओ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि नामु जपत जनु तारिओ ॥ अगनि सागरु गुरि पारि उतारिओ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनु = सेवक। अगनि = आग। सागरु = समुंदर। गुरि = गुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: हरि नाम स्मरण करते सेवक को (गुरु ने संसार समुंदर से) पार लंघा लिया है। गुरु ने (सेवक को) तृष्णा की आग के समुंदर से पार लंघा लिया है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि कीरतनु मन सीतल भए ॥ जनम जनम के किलविख गए ॥ सरब निधान पेखे मन माहि ॥ अब ढूढन काहे कउ जाहि ॥२॥

मूलम्

करि कीरतनु मन सीतल भए ॥ जनम जनम के किलविख गए ॥ सरब निधान पेखे मन माहि ॥ अब ढूढन काहे कउ जाहि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करि = करके। सीतल = ठण्डे। किलविख = पाप। निधान = खजाने। पेखे = देख लिए। काहे कउ = किस लिए? क्यूँ। जाहि = वह जाते हैं, वह जाएं।2।
अर्थ: परमातमा की महिमा करके जिनके मन शीतल हो गए (उनके अंदर से) जन्मों जन्मांतरों के पाप दूर हो गए। उन्होंने सारे खजाने अपने मन में ही देख लिए, (इस वास्ते सुख) तलाशने के लिए अब वह (कहीं और) क्यूँ जाएं? (भाव, सुख की तलाश बाहर जगत के पदार्थों में से करने की उन्हें जरूरत नहीं रहती)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ अपुने जब भए दइआल ॥ पूरन होई सेवक घाल ॥ बंधन काटि कीए अपने दास ॥ सिमरि सिमरि सिमरि गुणतास ॥३॥

मूलम्

प्रभ अपुने जब भए दइआल ॥ पूरन होई सेवक घाल ॥ बंधन काटि कीए अपने दास ॥ सिमरि सिमरि सिमरि गुणतास ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवक घाल = सेवक की मेहनत। काटि = काट के। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभु।3।
अर्थ: जब प्रभु जी अपने दासों पर दयाल होते हैं, तब दासों की (की हुई सेवा-स्मरण की) मिहनत सफल हो जाती है। (सेवकों के माया के मोह के) बंधन काट के उनको अपना दास बना लेता है। गुणों के खजाने परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के (सेवक परमात्मा में लीन हो जाते हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको मनि एको सभ ठाइ ॥ पूरन पूरि रहिओ सभ जाइ ॥ गुरि पूरै सभु भरमु चुकाइआ ॥ हरि सिमरत नानक सुखु पाइआ ॥४॥८॥७७॥

मूलम्

एको मनि एको सभ ठाइ ॥ पूरन पूरि रहिओ सभ जाइ ॥ गुरि पूरै सभु भरमु चुकाइआ ॥ हरि सिमरत नानक सुखु पाइआ ॥४॥८॥७७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एको = एक (प्रभु) ही। मनि = मन में, हृदय में। ठाइ = जगह में। जाइ = जगह। गुरि = गुरु ने।4।
अर्थ: पूरे गुरु ने जिस मनुष्य के मन की सारी भटकन दूर कर दी, उसे हर जगह परमात्मा ही परमात्मा व्यापक भरपूर दिखता है। एक परमात्मा ही हरेक जगह पर दिखाई देता है। हे नानक! परमात्मा का स्मरण करके उस मनुष्य ने आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया हैं4।8।77।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ अगले मुए सि पाछै परे ॥ जो उबरे से बंधि लकु खरे ॥ जिह धंधे महि ओइ लपटाए ॥ उन ते दुगुण दिड़ी उन माए ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ अगले मुए सि पाछै परे ॥ जो उबरे से बंधि लकु खरे ॥ जिह धंधे महि ओइ लपटाए ॥ उन ते दुगुण दिड़ी उन माए ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगले = अपने से पहले, अपने पूर्वज। सि = वे पूर्वज। पाछै परे = भूल गए। उबरे = बचे हुए हैं, जीवित हैं। से = वह लोग। बंधि = बंध के। खरे = खड़े हुए हैं। महि = में। ओइ = वे मर चुके पूर्वज। लपटाए = फसे हुए थे। ते = से। दुगुण = दोगुनी। दिढ़ी = पक्की करके बांधी हुई है। उन = उन्होंने जो अब जीवित हैं। माए = माया।1।
अर्थ: अपने बड़े पूर्वज जो मर चुके हैं वह भूल जाते हैं (भाव, ये बात भूल जाती है कि जोड़ी हुई माया वे यहीं छोड़ गए), जो अब जीवित हैं वह (माया जोड़ने के लिए) कमर कस के खड़े हो जाते हैं। जिस धंधे में वह (मर चुके बड़े पूर्वज) फसे हुए थे, उनसे दुगनी माया की पकड़ वह जीवित मनुष्य अपने मन में बना लेते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओह बेला कछु चीति न आवै ॥ बिनसि जाइ ताहू लपटावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ओह बेला कछु चीति न आवै ॥ बिनसि जाइ ताहू लपटावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेला = समय। चीति = चित्त में। बिनसि जाइ = मर जाता है। ताहू = उस माया के साथ ही।1। रहाउ।
अर्थ: (मूर्ख मनुष्य को) वह समय रत्ती भर भी याद नहीं आता (जब बड़े पूर्वजों की तरह सब कुछ यहीं छोड़ जाना है)। मनुष्य (बार बार) उसी (माया) के साथ चिपकता है जिस ने नाश हो जाना है (जिसने साथ नहीं निभना)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा बंधी मूरख देह ॥ काम क्रोध लपटिओ असनेह ॥ सिर ऊपरि ठाढो धरम राइ ॥ मीठी करि करि बिखिआ खाइ ॥२॥

मूलम्

आसा बंधी मूरख देह ॥ काम क्रोध लपटिओ असनेह ॥ सिर ऊपरि ठाढो धरम राइ ॥ मीठी करि करि बिखिआ खाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बंधी = बंधी हुई। मूरख देह = मूर्ख का शरीर। असनेह = मोह (स्नेह)। ठाढो = खड़ा हुआ है। बिखिआ = माया।2।
अर्थ: मूर्ख मनुष्य का शरीर (भाव, हरेक ज्ञानेंद्रियां माया की) आशाओं से जकड़ी रहती हैं, मूर्ख मनुष्य काम-क्रोध-मोह के बंधनों में फसा रहता है। सिर पर धर्मराज खड़ा हुआ है (भाव, मौत का समय नजदीक आ रहा है, पर) मूर्ख मनुष्य (आत्मिक मौत लाने वाली) माया (-जहर) मीठी जानबूझ कर खाता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ बंधउ हउ साधउ बैरु ॥ हमरी भूमि कउणु घालै पैरु ॥ हउ पंडितु हउ चतुरु सिआणा ॥ करणैहारु न बुझै बिगाना ॥३॥

मूलम्

हउ बंधउ हउ साधउ बैरु ॥ हमरी भूमि कउणु घालै पैरु ॥ हउ पंडितु हउ चतुरु सिआणा ॥ करणैहारु न बुझै बिगाना ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। बंधउ = मैं बांध लेता हूँ, मैं बाँध लूँगा। साधउ बैरु = मैं वैर लूँगा। भूमि = जमीन (पर)। घालै पैरु = पैर रख सकता है। बिगाना = बे-ज्ञाना, मूर्ख, अज्ञानी।3।
अर्थ: (माया में मद्होश मूर्ख मनुष्य ऐसी अहंकार भरी बातें करता है:) मैं (उसको) बांध लूँगा, मैं (उससे अपने) वैर (का बदला) लूँगा, मेरी जमीन पर कौन पैर रखता है? मैं विद्वान हूँ, मैं चतुर हूँ, मैं सुजान हूँ। (अपने अहंकार में) मूर्ख मनुष्य अपने पैदा करने वाले परमात्मा को को भी नहीं समझता (याद रखता)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपुनी गति मिति आपे जानै ॥ किआ को कहै किआ आखि वखानै ॥ जितु जितु लावहि तितु तितु लगना ॥ अपना भला सभ काहू मंगना ॥४॥

मूलम्

अपुनी गति मिति आपे जानै ॥ किआ को कहै किआ आखि वखानै ॥ जितु जितु लावहि तितु तितु लगना ॥ अपना भला सभ काहू मंगना ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गति = अवस्था, हालत। मिति = मर्यादा, माप। आखि = कह के। को = कोई मनुष्य। जितु = जिस तरफ। सभ काहू = हर किसी ने।4।
अर्थ: (पर, जीव के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही जानता है कि वह कैसा है और कितना बड़ा है। जीव (उस परमात्मा की गति मिति बारे, स्वाभाव बारे) कुछ भी नहीं कह सकता, कुछ भी कह के बयान नहीं कर सकता। हे प्रभु! तू जीव को जिस जिस तरफ लगाता है, उधर उधर ही ये लग सकता है। हरेक जीव ने तेरे से ही अपने भले की माँग माँगनी है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ किछु तेरा तूं करणैहारु ॥ अंतु नाही किछु पारावारु ॥ दास अपने कउ दीजै दानु ॥ कबहू न विसरै नानक नामु ॥५॥९॥७८॥

मूलम्

सभ किछु तेरा तूं करणैहारु ॥ अंतु नाही किछु पारावारु ॥ दास अपने कउ दीजै दानु ॥ कबहू न विसरै नानक नामु ॥५॥९॥७८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारावारु = इस पार व उस पार का छोर।5।
अर्थ: हे प्रभु! ये सब कुछ तेरा ही पैदा किया हुआ है, तू ही सारे जगत को बनाने वाला है। तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। तेरे स्वरूप का उरला-परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता।
हे प्रभु! अपने दास नानक को ये दाति बख्श कि मुझे कभी भी तेरा नाम ना भूले।5।9।78।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ अनिक जतन नही होत छुटारा ॥ बहुतु सिआणप आगल भारा ॥ हरि की सेवा निरमल हेत ॥ प्रभ की दरगह सोभा सेत ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ अनिक जतन नही होत छुटारा ॥ बहुतु सिआणप आगल भारा ॥ हरि की सेवा निरमल हेत ॥ प्रभ की दरगह सोभा सेत ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छुटारा = छुटकारा। आगल = बहुत। हेत = हित, प्यार। सेत = साथ।1।
अर्थ: (हे मन!) अनेक प्रयत्नों से भी (माया के मोह के कारण पैदा हुए दुख-कष्टों से) छुटकारा नहीं हो सकता, (बल्कि, माया के कारण की हुई) ज्यादा चतुराई (अन्य दुखों का) ज्यादा भार (सिर पर डाल देती है)। अगर पवित्र प्यार से हरि की सेवा-भक्ति करें, तो हरि की दरगाह में आदर-सत्कार के साथ पहुँचते हैं।1।

[[0179]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे गहु हरि नाम का ओला ॥ तुझै न लागै ताता झोला ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन मेरे गहु हरि नाम का ओला ॥ तुझै न लागै ताता झोला ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गहु = पकड़। ओला = आसरा। ताता = गरम। झोला = (हवा का) झोंका।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के नाम का आसरा ले, तुझे (दुनिया के दुख-कष्टों की) गर्म हवा का झोका छू नहीं सकेगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ बोहिथु भै सागर माहि ॥ अंधकार दीपक दीपाहि ॥ अगनि सीत का लाहसि दूख ॥ नामु जपत मनि होवत सूख ॥२॥

मूलम्

जिउ बोहिथु भै सागर माहि ॥ अंधकार दीपक दीपाहि ॥ अगनि सीत का लाहसि दूख ॥ नामु जपत मनि होवत सूख ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोहिथ = जहाज। भै सागर = डरावना समुंदर। दीपक = दीया। दीपाहि = जलते हैं। सीत = ठंड। लाहसि = उतार देती है। मनि = मन में।2।
अर्थ: (हे भाई!) जैसे डरावने समुंदर में जहाज (मनुष्य को डूबने से बचाता है, जैसे अंधेरे में दीपक प्रकाश करता है और ठोकर खाने से बचाता है), जैसे, आग ठंड-पाले का दुख दूर कर देती है, ऐसे ही परमात्मा का नाम स्मरण करने से मन में आनंद पैदा होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उतरि जाइ तेरे मन की पिआस ॥ पूरन होवै सगली आस ॥ डोलै नाही तुमरा चीतु ॥ अम्रित नामु जपि गुरमुखि मीत ॥३॥

मूलम्

उतरि जाइ तेरे मन की पिआस ॥ पूरन होवै सगली आस ॥ डोलै नाही तुमरा चीतु ॥ अम्रित नामु जपि गुरमुखि मीत ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगली = सारी। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला, अमृत। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। मीत = हे मित्र!।3।
अर्थ: हे मित्र! गुरु की शरण पड़ कर आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम जप (इस जप की इनायत से) तेरे मन की (माया की) तृष्णा उतर जाएगी। तेरी ही आस पूरी हो जाएगी (दुनियावी आशाएं सताने से हट जाएंगी), और तेरा मन (माया की लालसा में) डोलेगा नहीं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु अउखधु सोई जनु पावै ॥ करि किरपा जिसु आपि दिवावै ॥ हरि हरि नामु जा कै हिरदै वसै ॥ दूखु दरदु तिह नानक नसै ॥४॥१०॥७९॥

मूलम्

नामु अउखधु सोई जनु पावै ॥ करि किरपा जिसु आपि दिवावै ॥ हरि हरि नामु जा कै हिरदै वसै ॥ दूखु दरदु तिह नानक नसै ॥४॥१०॥७९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउखधु = दवा। करि = कर के। तिह = उस (मनुष्य) का।4।
अर्थ: (पर यह) हरि-नाम की दवा वही मनुष्य हासिल करता है जिसको प्रभु मेहर करके खुद (गुरु से) दिलवाता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बस जाता है, उसका सारा दुख-दर्द दूर हो जाता है।4।10।79।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बहुतु दरबु करि मनु न अघाना ॥ अनिक रूप देखि नह पतीआना ॥ पुत्र कलत्र उरझिओ जानि मेरी ॥ ओह बिनसै ओइ भसमै ढेरी ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बहुतु दरबु करि मनु न अघाना ॥ अनिक रूप देखि नह पतीआना ॥ पुत्र कलत्र उरझिओ जानि मेरी ॥ ओह बिनसै ओइ भसमै ढेरी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दरबु = (द्रव्य) धन। करि = (एकत्र) कर के। अघाना = (आघ्राण), तृप्त हुआ। देखि = देख के। पतीआना = पतीजता। कलत्र = स्त्री। जानि = समझ के। ओह = वह सुंदरता। ओइ = वह (स्त्री पुत्र)।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: बहुत धन जोड़ के भी मन भरता नहीं, अनेक (सुंदर स्त्रीयों के) रूप देख के भी मन की तसल्ली नहीं होती। मनुष्य, ये समझ के कि ये मेरी स्त्री है ये मेरा पुत्र है, माया के मोह में फंसा रहता है। (स्त्रीयों का) सौंदर्य नाश हो जाता है, (वह अपने निहित) स्त्री-पुत्र राख की ढेरी हो जाते हैं (किसी के साथ भी साथ नहीं निभता)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु हरि भजन देखउ बिललाते ॥ ध्रिगु तनु ध्रिगु धनु माइआ संगि राते ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिनु हरि भजन देखउ बिललाते ॥ ध्रिगु तनु ध्रिगु धनु माइआ संगि राते ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देखउ = मैं देखता हूँ। बिललाते = बिलकते। ध्रिग = धिक्कार योग्य। संगि = साथ।1। रहाउ।
अर्थ: मैं देखता हूँ कि परमात्मा के भजन के बिना जीव बिलखते हैं। जो मनुष्य माया के मोह में व्यस्त रहते हैं उनका शरीर धिक्कारयोग्य है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ बिगारी कै सिरि दीजहि दाम ॥ ओइ खसमै कै ग्रिहि उन दूख सहाम ॥ जिउ सुपनै होइ बैसत राजा ॥ नेत्र पसारै ता निरारथ काजा ॥२॥

मूलम्

जिउ बिगारी कै सिरि दीजहि दाम ॥ ओइ खसमै कै ग्रिहि उन दूख सहाम ॥ जिउ सुपनै होइ बैसत राजा ॥ नेत्र पसारै ता निरारथ काजा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। दीजहि = धरे हुए हों। दाम = पैसे रुपए। ग्रिहि = घर में। उनि = उस विगारी ने। पसारै = खोलता है। निरारथ = व्यर्थ।2।
अर्थ: जैसे किसी बगार करने वाले (भार उठाने वाले) के सिर पर पैसे-रुपए रखे जाएं, वह पैसे-रुपए मालिक के घर में जा पहुँचते हैं, उस बिगारी ने (भार उठाने का) दुख ही सहा होता है। जैसे कोई मनुष्य सपने में राजा बन बैठता है (पर नींद खत्म होने पर जब) आँखें खोलता है तो (सुपनें में मिले राज की सारी सच्चाई) ध्वस्त हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ राखा खेत ऊपरि पराए ॥ खेतु खसम का राखा उठि जाए ॥ उसु खेत कारणि राखा कड़ै ॥ तिस कै पालै कछू न पड़ै ॥३॥

मूलम्

जिउ राखा खेत ऊपरि पराए ॥ खेतु खसम का राखा उठि जाए ॥ उसु खेत कारणि राखा कड़ै ॥ तिस कै पालै कछू न पड़ै ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उठि = उठ के। कारणि = वास्ते। कड़ै = दुखी होता है। पालै = पल्ले।3।
अर्थ: जैसे कोई रक्षक किसी और के खेत की (रखवाली करता है), (फसल पकने पर) फसल मालिक की मल्कियत हो जाती है और रखवाले का काम खत्म हो जाता है। रखवाला उस (पराए) खेत की (रखवाली की) खातिर दुखी होता रहता है, पर उसे (आखिर) कुछ भी नहीं मिलता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस का राजु तिसै का सुपना ॥ जिनि माइआ दीनी तिनि लाई त्रिसना ॥ आपि बिनाहे आपि करे रासि ॥ नानक प्रभ आगै अरदासि ॥४॥११॥८०॥

मूलम्

जिस का राजु तिसै का सुपना ॥ जिनि माइआ दीनी तिनि लाई त्रिसना ॥ आपि बिनाहे आपि करे रासि ॥ नानक प्रभ आगै अरदासि ॥४॥११॥८०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिस का = जिस (परमात्मा) की। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तिनि = उसने। बिनाहे = नाश करता है, आत्मिक मौत देता है। करे रासि = (जीवन उद्देश्य) सफल करता है।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर जीव के भी क्या वश? सुपने में) जिस प्रभु का (दिया हुआ) राज मिलता है, उसी का दिया हुआ सपना भी होता है। जिस प्रभु ने मनुष्य को माया दी है, उसी ने माया की तृष्णा भी चिपकाई हुई है।
हे नानक! प्रभु खुद ही (तृष्णा चिपका के) आत्मिक मौत देता है, खुद ही (अपने नाम की दाति दे के) मानव जीवन का उद्देश्य सफल करता है। प्रभु के दर पर ही (सदा नाम की दाति के वास्ते) अरदास करनी चाहिए।4।11।80।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बहु रंग माइआ बहु बिधि पेखी ॥ कलम कागद सिआनप लेखी ॥ महर मलूक होइ देखिआ खान ॥ ता ते नाही मनु त्रिपतान ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बहु रंग माइआ बहु बिधि पेखी ॥ कलम कागद सिआनप लेखी ॥ महर मलूक होइ देखिआ खान ॥ ता ते नाही मनु त्रिपतान ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिधि = तरीका। पेखी = देखी। लेखी = लिखी। महर = चौधरी। मलूक = बादशाह। होइ = बन के। ता ते = उससे।1।
अर्थ: मैंने बहु-रंगी माया कई ढंग-तरीकों से मोहती देखी है। कागज कलम (ले कर कईयों ने) अनेक विद्वता वाले लेख लिखे हैं (माया उन्हें विद्वता के रूप में मोह रही है)। (कईयों ने) चौधरी खान-सुल्तान बन के देख लिया है। इनसे (किसी का) मन तृप्त नहीं हो सका।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सुखु मो कउ संत बतावहु ॥ त्रिसना बूझै मनु त्रिपतावहु ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सो सुखु मो कउ संत बतावहु ॥ त्रिसना बूझै मनु त्रिपतावहु ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। संत = हे संत! त्रिपतावहु = तृप्त करो, संतोखी बनाओ।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनों! मुझे वह आत्मिक आनंद बताओ (जिससे मेरी माया की) तृष्णा मिट जाए। हे संत जनों! मेरे मन को संतोखी बना दो।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

असु पवन हसति असवारी ॥ चोआ चंदनु सेज सुंदरि नारी ॥ नट नाटिक आखारे गाइआ ॥ ता महि मनि संतोखु न पाइआ ॥२॥

मूलम्

असु पवन हसति असवारी ॥ चोआ चंदनु सेज सुंदरि नारी ॥ नट नाटिक आखारे गाइआ ॥ ता महि मनि संतोखु न पाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असु = (अश्व) घोड़े। असु पवन = हवा जैसे तेज घोड़े।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘असु’ में ‘ु’ की मात्रा संस्कृत के शब्द ‘अश्व’ के ‘व’ का रूपांतर है। सो, पंजाबी में ‘असु’ एकवचन है और बहुवचन भी।

दर्पण-भाषार्थ

हसति = हस्तिन्, हाथी। चोआ = इत्र। सुंदरि = सुंदरी, खूबसूरत। नट = तमाशा करने वाले। आखारे = रंग भूमि। मनि = मन ने।2।
अर्थ: हाथियों की और हवा जैसे तेज घोड़ों की सवारी (कईयों ने कर के देखी है), इत्र और चंदन (इस्तेमाल करके देखा है), सुंदर स्त्री की सेज (ले के देखी) है, मैंने रंग भूमि में नटों के नाटक देखे हैं, और उनके गीत गाए हुए सुने हैं। इनमें व्यस्त हो के भी (किसी के) मन ने शांति प्राप्त नहीं की।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तखतु सभा मंडन दोलीचे ॥ सगल मेवे सुंदर बागीचे ॥ आखेड़ बिरति राजन की लीला ॥ मनु न सुहेला परपंचु हीला ॥३॥

मूलम्

तखतु सभा मंडन दोलीचे ॥ सगल मेवे सुंदर बागीचे ॥ आखेड़ बिरति राजन की लीला ॥ मनु न सुहेला परपंचु हीला ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंडन = सजावट। सगल = सारे। आखेड़ = आखेट, शिकार। बिरति = रुचि। लीला = खेल। सुहेला = आसान। परपंचु = छल। हीला = यत्न, उद्यम।3।
अर्थ: राज-दरबार की सजावटें, तख्त (ऊपर बैठना), दुलीचे, सब किस्म के फल, सुंदर फुलवाड़ियां, शिकार खेलने वाली रुची, राजाओं की खेलें (इन सब से भी) मन सुखी नहीं होता। ये सारा यत्न छल ही साबत होता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा संतन सचु कहिआ ॥ सरब सूख इहु आनंदु लहिआ ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ कहु नानक वडभागी पाईऐ ॥४॥

मूलम्

करि किरपा संतन सचु कहिआ ॥ सरब सूख इहु आनंदु लहिआ ॥ साधसंगि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ कहु नानक वडभागी पाईऐ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै = जिसके हृदय में।4।
अर्थ: (दुनिआ के रंग तमाशों में से सुख तलाशते को) संतों ने मेहर करके सच बताया कि साधु-संगत में परमात्मा की महिमा के गीत गाने चाहिए। (सिर्फ इसी उद्यम से ही) सारे सुखों का मूल ये आत्मिक आनंद मिलता है। पर, हे नानक! कह: महिमा की ये दाति बड़े भाग्यों से मिलती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै हरि धनु सोई सुहेला ॥ प्रभ किरपा ते साधसंगि मेला ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१२॥८१॥

मूलम्

जा कै हरि धनु सोई सुहेला ॥ प्रभ किरपा ते साधसंगि मेला ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१२॥८१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पहले ‘रहाउ’ में प्रश्न किया है, और दूसरे में उत्तर है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम धन मौजूद है वही आसान है। साधु-संगत में मिल बैठना परमात्मा की कृपा से ही नसीब होता है।1। रहाउ दूजा।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ प्राणी जाणै इहु तनु मेरा ॥ बहुरि बहुरि उआहू लपटेरा ॥ पुत्र कलत्र गिरसत का फासा ॥ होनु न पाईऐ राम के दासा ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ प्राणी जाणै इहु तनु मेरा ॥ बहुरि बहुरि उआहू लपटेरा ॥ पुत्र कलत्र गिरसत का फासा ॥ होनु न पाईऐ राम के दासा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहुरि बहुरि = मुड़ मुड़। उआ हू = उस (तन) से ही। कलत्र = स्त्री। गिरसत = गृहस्थ।1।
अर्थ: (माया के मोह में फंसा) मनुष्य समझता है कि ये शरीर (सदा) मेरा (अपना ही रहना) है, मुड़ मुड़ इस शरीर के साथ ही चिपकता है। जब तक पुत्र-स्त्री गृहस्थ के (मोह का) फंदा (गले में पड़ा रहता) है, परमात्मा के सेवक बन नहीं सकते।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवन सु बिधि जितु राम गुण गाइ ॥ कवन सु मति जितु तरै इह माइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कवन सु बिधि जितु राम गुण गाइ ॥ कवन सु मति जितु तरै इह माइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिधि = तरीका। जितु = जिसके द्वारा। मति = बुद्धि। माइ = माया।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) वह कौन सा तरीका है जिससे मनुष्य परमात्मा के गुण गा सकता है? वह कौन सा शिक्षा मति है जिससे मनुष्य इस माया (के प्रभाव) से पार लांघ सकता है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो भलाई सो बुरा जानै ॥ साचु कहै सो बिखै समानै ॥ जाणै नाही जीत अरु हार ॥ इहु वलेवा साकत संसार ॥२॥

मूलम्

जो भलाई सो बुरा जानै ॥ साचु कहै सो बिखै समानै ॥ जाणै नाही जीत अरु हार ॥ इहु वलेवा साकत संसार ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिखै = जहर। समानै = बराबर। वलेवा = व्यवहार। साकत = ईश्वर से टूटे हुए की।2।
अर्थ: माया के आँगन में संसार का ये बरतण व्यवहार है कि जो काम इसकी भलाई (का) है उसे बुरा समझता है। जो कोई इसे सच कहे, वह इसे जहर जैसा लगता है। ये नहीं समझता कि कौन सा काम जीवन-बाजी की जीत के लिए है और कौन सा हार के वास्ते।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो हलाहल सो पीवै बउरा ॥ अम्रितु नामु जानै करि कउरा ॥ साधसंग कै नाही नेरि ॥ लख चउरासीह भ्रमता फेरि ॥३॥

मूलम्

जो हलाहल सो पीवै बउरा ॥ अम्रितु नामु जानै करि कउरा ॥ साधसंग कै नाही नेरि ॥ लख चउरासीह भ्रमता फेरि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हलाहल = महुरा, जहर। बउरा = पागल। करि = करके। नेरि = नजदीक। फेरि = चक्र में।3।
अर्थ: जो जहर है उसे माया ग्रसित मनुष्य (खुशी से) पीता है। परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, इसे मनुष्य कड़वा जानता है। (माया ग्रसित मनुष्य) साधु-संगत के नजदीक नहीं फटकता, (इस तरह) चौरासी लाख जोनियों के चक्कर में भटकता फिरता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकै जालि फहाए पंखी ॥ रसि रसि भोग करहि बहु रंगी ॥ कहु नानक जिसु भए क्रिपाल ॥ गुरि पूरै ता के काटे जाल ॥४॥१३॥८२॥

मूलम्

एकै जालि फहाए पंखी ॥ रसि रसि भोग करहि बहु रंगी ॥ कहु नानक जिसु भए क्रिपाल ॥ गुरि पूरै ता के काटे जाल ॥४॥१३॥८२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एकै जालि = एक (माया) के ही जाल में। पंखी = जीव पंछी। रसि रसि = स्वाद लगा लगा के। बहुरंगी = अनेक रंगों के। गुरि = गुरु ने। ता के = उस के।4।
अर्थ: जीव-पंछी इस माया के जाल में ही (परमात्मा ने) बसाए हुए हैं। स्वाद लगा लगा के ये अनेक रंगों के भोग भोगते रहते हैं। हे नानक! कह: जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपालु होता है, पूरे गुरु ने उस मनुष्य के (माया के मोह के) बंधन काट दिए हैं।4।13।82।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ तउ किरपा ते मारगु पाईऐ ॥ प्रभ किरपा ते नामु धिआईऐ ॥ प्रभ किरपा ते बंधन छुटै ॥ तउ किरपा ते हउमै तुटै ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ तउ किरपा ते मारगु पाईऐ ॥ प्रभ किरपा ते नामु धिआईऐ ॥ प्रभ किरपा ते बंधन छुटै ॥ तउ किरपा ते हउमै तुटै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। तउ किरपा ते = तेरी कृपा से। मारगु = (जीवन का सही) रास्ता। प्रभू किरपा ते = प्रभु की कृपा से।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरी कृपा से (जीवन का सही) रास्ता मिलता है। (हे भाई!) प्रभु की कृपा से (प्रभु का) नाम स्मरण किया जा सकता है। (इस तरह) प्रभु की कृपा से माया के बंधनों का जाल टूट जाता है। हे प्रभु! तेरी कृपा से (हम जीवों का) अहंकार दूर हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम लावहु तउ लागह सेव ॥ हम ते कछू न होवै देव ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तुम लावहु तउ लागह सेव ॥ हम ते कछू न होवै देव ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लागह = हम लगते हैं। हम ते = हम से। देव = हे देव! हे प्रकाश रूप!।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रकाश-रूप प्रभु! हमसे (जीवों से हमारे अपने प्रयासों से तेरी सेवा भक्ति) कुछ भी नहीं हो सकती। तूं (खुद ही हमें) सेवा भक्ति में लगाए तो हम लग सकते हैं। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुधु भावै ता गावा बाणी ॥ तुधु भावै ता सचु वखाणी ॥ तुधु भावै ता सतिगुर मइआ ॥ सरब सुखा प्रभ तेरी दइआ ॥२॥

मूलम्

तुधु भावै ता गावा बाणी ॥ तुधु भावै ता सचु वखाणी ॥ तुधु भावै ता सतिगुर मइआ ॥ सरब सुखा प्रभ तेरी दइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भावै = ठीक लगे। गावा = मैं गा सकता हूँ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला नाम। वखाणी = मैं उचारता हूँ। मइआ = दया। प्रभू = हे प्रभु!।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) अगर तुझे ठीक लगे तो मैं तेरी महिमा की वाणी गा सकता हूँ। तुझे पसंद आए तो मैं तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम उच्चार सकता हूँ। (हे प्रभु!) अगर तुझे ठीक लगे तो (जीवों पर) गुरु की कृपा होती है। हे प्रभु! सारे सुख तेरी मेहर में ही हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तुधु भावै सो निरमल करमा ॥ जो तुधु भावै सो सचु धरमा ॥ सरब निधान गुण तुम ही पासि ॥ तूं साहिबु सेवक अरदासि ॥३॥

मूलम्

जो तुधु भावै सो निरमल करमा ॥ जो तुधु भावै सो सचु धरमा ॥ सरब निधान गुण तुम ही पासि ॥ तूं साहिबु सेवक अरदासि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमल = पवित्र। सचु = अटल। निधान = खजाने।3।
अर्थ: हे प्रभु! जो काम तुझे ठीक लग जाएं वही पवित्र हैं। जो जीवन मर्यादा तुझे पसंद आ जाए वही अटल मर्यादा है। हे प्रभु! सारे गुण सारे खजाने तेरे ही वश में हैं। तू ही मेरा मालिक है, मुझ सेवक की (तेरे आगे ही) प्रार्थना है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु तनु निरमलु होइ हरि रंगि ॥ सरब सुखा पावउ सतसंगि ॥ नामि तेरै रहै मनु राता ॥ इहु कलिआणु नानक करि जाता ॥४॥१४॥८३॥

मूलम्

मनु तनु निरमलु होइ हरि रंगि ॥ सरब सुखा पावउ सतसंगि ॥ नामि तेरै रहै मनु राता ॥ इहु कलिआणु नानक करि जाता ॥४॥१४॥८३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगि = प्रेम में। पावउ = मैं प्राप्त करता हूँ। सतसंगि = सत्संग में। नामि = नाम में। कलिआणु = खुशी, आनंद।4।
अर्थ: (हे प्रभु!) परमात्मा के प्यार में (टिके रहने से) मन पवित्र हो जाता है, शरीर पवित्र हो जाता है। साधु-संगत में टिके रहने से (मुझे ऐसे प्रतीत होता है कि) मैं सारे सुख तलाश लेता हूँ। हे नानक! (कह: हे प्रभु! जिस मनुष्य का) मन तेरे नाम में रंगा जाता है वह इसी को ही श्रेष्ठ आनंद करके समझता है।4।14।83।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ आन रसा जेते तै चाखे ॥ निमख न त्रिसना तेरी लाथे ॥ हरि रस का तूं चाखहि सादु ॥ चाखत होइ रहहि बिसमादु ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ आन रसा जेते तै चाखे ॥ निमख न त्रिसना तेरी लाथे ॥ हरि रस का तूं चाखहि सादु ॥ चाखत होइ रहहि बिसमादु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आन = और, अन्य। जेते = जितने (भी)। तै = तू (हे मेरी जीभ!)। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। सादु = स्वाद। बिसमादु = आश्चर्य, मस्त।1।
अर्थ: (हे मेरी जीभ! परमात्मा के नाम-रस के बिना) और जितने भी रस तू चखती रहती है (उनसे) तेरी तृष्णा एक निमख मात्र भी दूर नहीं होती। अगर तू परमात्मा के नाम-रस का स्वाद चखे, चखते ही तू मस्त हो जाएगी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रितु रसना पीउ पिआरी ॥ इह रस राती होइ त्रिपतारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अम्रितु रसना पीउ पिआरी ॥ इह रस राती होइ त्रिपतारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = हे जीभ! त्रिपतारी = तृप्त, संतुष्ट।1। रहाउ।
अर्थ: हे (मेरी) प्यारी जीभ! तू आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पी। जो जीभ इस नाम रस में मस्त हो जाती है, वह (अन्य रसों की तरफ से) संतुष्ट हो जाती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे जिहवे तूं राम गुण गाउ ॥ निमख निमख हरि हरि हरि धिआउ ॥ आन न सुनीऐ कतहूं जाईऐ ॥ साधसंगति वडभागी पाईऐ ॥२॥

मूलम्

हे जिहवे तूं राम गुण गाउ ॥ निमख निमख हरि हरि हरि धिआउ ॥ आन न सुनीऐ कतहूं जाईऐ ॥ साधसंगति वडभागी पाईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हे जिहवे = हे जीभ! आन = अन्य। कत हूँ = कहीं भी।2।
अर्थ: हे (मेरी) जीभ! तू परमात्मा के गुण गा। पल पल हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरण कर। (अगर दुनिया के रसों की तरफ से संतुष्ट होना है, तो परमातमा की महिमा के बिना) अन्य (फीके बोल) नहीं सुनने चाहिए, (साधु-संगत के बिना) और कहीं (विकार पैदा करने वाली जगहों पे) नहीं जाना चाहिए। (पर) साधु-संगत बड़े भाग्यों से ही मिलती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आठ पहर जिहवे आराधि ॥ पारब्रहम ठाकुर आगाधि ॥ ईहा ऊहा सदा सुहेली ॥ हरि गुण गावत रसन अमोली ॥३॥

मूलम्

आठ पहर जिहवे आराधि ॥ पारब्रहम ठाकुर आगाधि ॥ ईहा ऊहा सदा सुहेली ॥ हरि गुण गावत रसन अमोली ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आराधि = स्मरण कर। आगाधि = अथाह। ईहा = इस लोक में। ऊहा = पर लोक में। सुहेली = सुखी। रसन = जीभ।3।
अर्थ: हे (मेरी) जीभ! आठों पहर अथाह (गुणों वाले) ठाकुर परमात्मा का स्मरण कर। परमात्मा के गुण गाते हुए जीभ बड़ी कीमती बन जाती है, (स्मरण करने वाली की जिंदगी) इस लोक में व परलोक में सदा सुखी हो जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बनसपति मउली फल फुल पेडे ॥ इह रस राती बहुरि न छोडे ॥ आन न रस कस लवै न लाई ॥ कहु नानक गुर भए है सहाई ॥४॥१५॥८४॥

मूलम्

बनसपति मउली फल फुल पेडे ॥ इह रस राती बहुरि न छोडे ॥ आन न रस कस लवै न लाई ॥ कहु नानक गुर भए है सहाई ॥४॥१५॥८४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मउली = खिली हुई। पेड = डाल। बहुरि = पुनः। राती = रंगी हुई, मस्त। रस कस = किस्म किस्म के स्वाद। लवै न लाई = बराबरी नहीं कर सकते।4।
अर्थ: (ये ठीक है कि परमात्मा की कुदरति में सारी) बनस्पति खिली रहती है, वृक्ष-पौधों को फूल-फल लगे होते हैं, पर जिस मनुष्य की जीभ नाम-रस में मस्त है वह (बाहर दिखाई देती सुंदरता को देख के नाम-रस को) कभी नहीं छोड़ता।
हे नानक! कह: जिस मनुष्य का सहायक सत्गुरू बनता है, (उसकी नजरों में दुनिया के) अन्य किस्म किस्म के रस (परमात्मा के नाम-रस की) बराबरी नहीं कर सकते।4।15।84।

[[0181]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ मनु मंदरु तनु साजी बारि ॥ इस ही मधे बसतु अपार ॥ इस ही भीतरि सुनीअत साहु ॥ कवनु बापारी जा का ऊहा विसाहु ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ मनु मंदरु तनु साजी बारि ॥ इस ही मधे बसतु अपार ॥ इस ही भीतरि सुनीअत साहु ॥ कवनु बापारी जा का ऊहा विसाहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंदरु = सुंदर घर। साजी = बनाई है। थारि = वाड़। इस ही मधे = इस (मन) में ही। बसतु = वस्तु, नाम राशि। साहु = प्रभु शाहूकार। बापारी = नाम पूंजी का वणज करने वाला। विसाहु = विश्वास, ऐतबार।1।
अर्थ: (परमात्मा शाहूकार ने अपने रहने के लिए मनुष्य के) मन को सुंदर घर बनाया हुआ है और मनुष्य के शरीर को (भाव, ज्ञानेंद्रियों को, उस घर की रक्षा के लिए) वाड़ बनाया है। इस मन-मंदिर के अंदर ही बेअंत प्रभु की नाम-पूंजी है। इस मन-मंदिर में ही वह प्रभु शाहूकार बसता सुना जाता है। कोई विरला नाम-वणजारा है, जिसका उस शाह की हजूरी में विश्वास बना हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम रतन को को बिउहारी ॥ अम्रित भोजनु करे आहारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

नाम रतन को को बिउहारी ॥ अम्रित भोजनु करे आहारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: का = दा। को = जो कोई। बिउहारी = व्यापारी। आहारी = खुराक, जीवन का आसरा।1। रहाउ।
अर्थ: जो कोई परमात्मा के नाम-रत्न का (असल) व्यापारी है, वह आत्मिक जीवन देने वाले नाम-भोजन को अपनी जिंदगी का आहार बनाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु तनु अरपी सेव करीजै ॥ कवन सु जुगति जितु करि भीजै ॥ पाइ लगउ तजि मेरा तेरै ॥ कवनु सु जनु जो सउदा जोरै ॥२॥

मूलम्

मनु तनु अरपी सेव करीजै ॥ कवन सु जुगति जितु करि भीजै ॥ पाइ लगउ तजि मेरा तेरै ॥ कवनु सु जनु जो सउदा जोरै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अरपी = मैं अर्पित करता हूँ। जुगति = तरीका। जितु = जिसके द्वारा। भीजै = प्रसन्न होता है। पाइ लगउ = मै पैरों पे लगता हूँ। तजि = त्याग के। जोरे = जोड़ दे, करा दे।2।
अर्थ: वह कौन सा (विरला प्रभु का) सेवक है जो (मुझे भी) नाम का सौदा करा दे? मैं अपना मन तन उसे भेट करता हूँ। उसकी सेवा करने को तैयार हूँ। मेर-तेर छोड़ के मैं उसके पाँव लगता हूं। (मैं उस हरि-जन से पूछना चाहता हूँ कि) वह कौन सा तरीका है जिससे प्रभु प्रसन्न हो जाए? 2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महलु साह का किन बिधि पावै ॥ कवन सु बिधि जितु भीतरि बुलावै ॥ तूं वड साहु जा के कोटि वणजारे ॥ कवनु सु दाता ले संचारे ॥३॥

मूलम्

महलु साह का किन बिधि पावै ॥ कवन सु बिधि जितु भीतरि बुलावै ॥ तूं वड साहु जा के कोटि वणजारे ॥ कवनु सु दाता ले संचारे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महलु = ठिकाना। किन बिधि = किस तरीके से? भीतरि = अंदर, अपनी हजूरी में। जा के = जिस के। कोटि = करोड़ों। संचारे = अपड़ावे।3।
अर्थ: (मैं उस नाम-रतन व्यापारी से पूछता हूँ कि) नाम-रस के शाह का महल मनुष्य किस ढंग से ढूँढ सकता है? वह कौन सा तरीका है जिस करके वह शाह वणजारे को अपनी हजूरी में बुलाता है? हे प्रभु! तू सबसे बड़ा है, करोड़ों जीव तेरे वणजारे हैं। नाम की दाति करने वाला वह कौन है जो मुझे पकड़ के तेरे चरणों तक पहुँचा दे?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खोजत खोजत निज घरु पाइआ ॥ अमोल रतनु साचु दिखलाइआ ॥ करि किरपा जब मेले साहि ॥ कहु नानक गुर कै वेसाहि ॥४॥१६॥८५॥

मूलम्

खोजत खोजत निज घरु पाइआ ॥ अमोल रतनु साचु दिखलाइआ ॥ करि किरपा जब मेले साहि ॥ कहु नानक गुर कै वेसाहि ॥४॥१६॥८५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निज घर = अपना असली घर। साचु = सदा कायम रहने वाला। साहि = शाह ने। वेसाहि = ऐतबार ने, हामी से।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जब भी शाह प्रभु ने कृपा करके (किसी जीव वणजारे को अपने चरणों में) मिलाया है। (गुरु ने ही उस भाग्यशाली वणजारे को) सदा कायम रहने वाला (अमोलक नाम-रत्न) दिखा दिया है। (गुरु की कृपा से ही उस वणजारे ने) तलाश करते करते अपना (वह असली) घर ढूँढ लिया (जहां प्रभु शाह बसता है)।4।16।85।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ५ गुआरेरी ॥ रैणि दिनसु रहै इक रंगा ॥ प्रभ कउ जाणै सद ही संगा ॥ ठाकुर नामु कीओ उनि वरतनि ॥ त्रिपति अघावनु हरि कै दरसनि ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला ५ गुआरेरी ॥ रैणि दिनसु रहै इक रंगा ॥ प्रभ कउ जाणै सद ही संगा ॥ ठाकुर नामु कीओ उनि वरतनि ॥ त्रिपति अघावनु हरि कै दरसनि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रैणि = रात। इक रंगा = एक प्रभु के प्रेम में। कउ = को। सद = सदा। उनि = उस (मनुष्य) ने। वरतनि = हर वक्त बरतने वाली चीज। अघावनु = संतोख, संतुष्टता। दरसनि = दर्शन से।1।
अर्थ: (पूरे गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य) दिन रात एक परमात्मा के प्रेम में (मस्त) रहता है। वह मनुष्य परमात्मा को सदा ही अपने अंग-संग (बसता) समझता है। परमात्मा के दर्शन से वह (सदा) तृप्त रहता है, संतुष्ट रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि संगि राते मन तन हरे ॥ गुर पूरे की सरनी परे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि संगि राते मन तन हरे ॥ गुर पूरे की सरनी परे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राते = रंगे हुए, मस्त। हरे = प्रफुल्लित।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य पूरे गुरु की शरण पड़ते हैं, वे परमात्मा के साथ रंगे रहते हैं (प्रभु की याद में मस्त रहते हैं) उनके मन खिले रहते हैं, उनके तन खिले रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरण कमल आतम आधार ॥ एकु निहारहि आगिआकार ॥ एको बनजु एको बिउहारी ॥ अवरु न जानहि बिनु निरंकारी ॥२॥

मूलम्

चरण कमल आतम आधार ॥ एकु निहारहि आगिआकार ॥ एको बनजु एको बिउहारी ॥ अवरु न जानहि बिनु निरंकारी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चरण कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। आधर = आसरा। निहारहि = देखते हैं। आगिआकार = आज्ञा में चलने वाले। बिउहारी = व्यापारी।2।
अर्थ: (पूरे गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य) परमात्मा के सुंदर चरणों को अपनी जीवात्मा का आसरा बनाए रखते हैं, वह (हर जगह) एक परमात्मा को ही (बसा हुआ) देखते हैं, परमात्मा के हुक्म में ही वे सदा चलते हैं। परमात्मा का नाम ही उनका वणज है। परमात्मा के नाम के ही वे सदा व्यापारी बने रहते हैं। परमात्मा के बिना वे किसी और के साथ गहरी सांझ नहीं डालते।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरख सोग दुहहूं ते मुकते ॥ सदा अलिपतु जोग अरु जुगते ॥ दीसहि सभ महि सभ ते रहते ॥ पारब्रहम का ओइ धिआनु धरते ॥३॥

मूलम्

हरख सोग दुहहूं ते मुकते ॥ सदा अलिपतु जोग अरु जुगते ॥ दीसहि सभ महि सभ ते रहते ॥ पारब्रहम का ओइ धिआनु धरते ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरख = खुशी। सोग = चिन्ता। ते = से। मुकते = आजाद। अलिपतु = निर्लिप। जोग = प्रभु के साथ जुड़े हुए। जुगते = अच्छी जीवन जुगति वाले। दीसहि = दिखते हैं। रहते = अलग। ओइ = वह।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पूरे गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य) खुशी ग़मी दोनों से ही स्वतंत्र रहते हैं, वे सदा (माया से) निर्लिप है। परमात्मा (की याद) में जुड़े रहते हैं और अच्छी जीवन-जुगति वाले होते हैं। वे मनुष्य सबसे प्रेम करते भी दिखते हैं और सबसे अलग (निर्मोह) भी दिखाई देते हैं। वे मनुष्य सदा परमात्मा की याद में तवज्जो जोड़े रखते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन की महिमा कवन वखानउ ॥ अगाधि बोधि किछु मिति नही जानउ ॥ पारब्रहम मोहि किरपा कीजै ॥ धूरि संतन की नानक दीजै ॥४॥१७॥८६॥

मूलम्

संतन की महिमा कवन वखानउ ॥ अगाधि बोधि किछु मिति नही जानउ ॥ पारब्रहम मोहि किरपा कीजै ॥ धूरि संतन की नानक दीजै ॥४॥१७॥८६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वखानउ = बखान करूँ। अगाधि = अथाह। बोधि = समझ से। मिति = अंदाजा। मोहि = मुझे।4।
अर्थ: (पूरे गुरु की शरण पड़ने वाले उन) संत जनों का मैं कौन सा बड़प्पन बयान करूँ? उनकी आत्मिक उच्चता मानवी सोच-समझ से परे है, मैं कोई अंदाजा नहीं लगा सकता। हे अकाल पुरख! मेरे पर कृपा कर, और मुझ नानक को उन संत जनों के चरणों की धूल बख्श।4।17।86।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ तूं मेरा सखा तूंही मेरा मीतु ॥ तूं मेरा प्रीतमु तुम संगि हीतु ॥ तूं मेरी पति तूहै मेरा गहणा ॥ तुझ बिनु निमखु न जाई रहणा ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ तूं मेरा सखा तूंही मेरा मीतु ॥ तूं मेरा प्रीतमु तुम संगि हीतु ॥ तूं मेरी पति तूहै मेरा गहणा ॥ तुझ बिनु निमखु न जाई रहणा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखा = साथी। हीतु = हितु, प्यार। पति = इज्जत। गहणा = जेवर, आत्मिक सुंदरता बढ़ाने का तरीका। निमखु = आँख झपकने जितना समय। न जाई रहणा = रहा नहीं जा सकता।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू ही मेरा साथी है, तू ही मेरा मित्र है, तू ही मेरा प्रीतम है, मेरा तेरे साथ ही प्यार है। (हे प्रभु!) तू ही मेरी इज्जत है, तू ही मेरा गहना है। तेरे बगैर मैं पलक झपकने जितना समय भी नहीं रह सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं मेरे लालन तूं मेरे प्रान ॥ तूं मेरे साहिब तूं मेरे खान ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तूं मेरे लालन तूं मेरे प्रान ॥ तूं मेरे साहिब तूं मेरे खान ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लालन = लाडला। प्रान = जिंद (का सहारा)। साहिब = मालिक।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू मेरा सुंदर लाल है, तू मेरी जीवात्मा (का सहारा) है। तू मेरा साहिब है, तू मेरा ख़ान है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ तुम राखहु तिव ही रहना ॥ जो तुम कहहु सोई मोहि करना ॥ जह पेखउ तहा तुम बसना ॥ निरभउ नामु जपउ तेरा रसना ॥२॥

मूलम्

जिउ तुम राखहु तिव ही रहना ॥ जो तुम कहहु सोई मोहि करना ॥ जह पेखउ तहा तुम बसना ॥ निरभउ नामु जपउ तेरा रसना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि करना = मुझे करना पड़ता है। जह = जहाँ। पेखउ = मैं देखता हूँ। रसना = जीभ (से)।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) जैसे तू मुझे रखता है वैसे ही मैं रहता हूँ। मैं वही करता हूँ जो तू मुझे हुक्म करता है। मैं जिधर देखता हूँ उधर ही मुझे तू ही बसता दिखाई देता है। मैं अपनी जीभ से तेरा नाम जपता रहता हूँ, जो दुनिया के डरों से बचा के रखने वाला है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं मेरी नव निधि तूं भंडारु ॥ रंग रसा तूं मनहि अधारु ॥ तूं मेरी सोभा तुम संगि रचीआ ॥ तूं मेरी ओट तूं है मेरा तकीआ ॥३॥

मूलम्

तूं मेरी नव निधि तूं भंडारु ॥ रंग रसा तूं मनहि अधारु ॥ तूं मेरी सोभा तुम संगि रचीआ ॥ तूं मेरी ओट तूं है मेरा तकीआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नव निधि = (धरती के सारे ही) नौ खजाने। भंडारु = खजाने। मनहि = मन का। आधारु = आसरा। संगि = साथ। रचीआ = तवज्जो जुड़ी हुई है। तकीआ = सहारा।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू ही मेरे वास्ते दुनिया के नौ खजाने है, तू ही मेरा खजाना है। तू ही मेरे वास्ते दुनिया के रंग और रस है, तू ही मेरे मन का सहारा है। हे प्रभु! तू ही मेरे वास्ते शोभा-बड़प्पन है, मेरी तवज्जो तेरे (चरणों) में ही जुड़ी हुई है। तू ही मेरी ओट है तू ही मेरा आसरा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन तन अंतरि तुही धिआइआ ॥ मरमु तुमारा गुर ते पाइआ ॥ सतिगुर ते द्रिड़िआ इकु एकै ॥ नानक दास हरि हरि हरि टेकै ॥४॥१८॥८७॥

मूलम्

मन तन अंतरि तुही धिआइआ ॥ मरमु तुमारा गुर ते पाइआ ॥ सतिगुर ते द्रिड़िआ इकु एकै ॥ नानक दास हरि हरि हरि टेकै ॥४॥१८॥८७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुही = तुझे ही। मरमु = भेद। ते = से, तरफ से। टेक = आसरा।4।
अर्थ: (हे प्रभु!) मैं अपने मन में अपने हृदय में तूझे ही स्मरण करता रहता हूँ। तेरा भेद मैंने गुरु से पा लिया है। हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु की ओर सेएक परमात्मा का नाम ही हृदय में पक्का करने के लिए प्राप्त किया है, उस सेवक को सदा हरि नाम का ही सहारा हो जाता है।4।18।87।

[[0182]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बिआपत हरख सोग बिसथार ॥ बिआपत सुरग नरक अवतार ॥ बिआपत धन निरधन पेखि सोभा ॥ मूलु बिआधी बिआपसि लोभा ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बिआपत हरख सोग बिसथार ॥ बिआपत सुरग नरक अवतार ॥ बिआपत धन निरधन पेखि सोभा ॥ मूलु बिआधी बिआपसि लोभा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिआपत = व्याप्त, प्रभाव डाले रखती है (to pervade)। अवतार = जनम। निरधन = गरीब। बिआधी = विकार।1।
अर्थ: कहीं खुशी कहीं गमीं का पसारा है, कहीं जीव नरकों में पड़ते हैं, कहीं स्वर्गों में पहुँचते हैं, कहीं कोई धन वाले हैं, कहीं कंगाल हैं, कहीं कोई अपनी शोभा देख के (खुश हैं) - इन अनेको तरीकों से माया जीवों पे प्रभाव डाल रही है। कहीं सारे रोगों का मूल लोभ बन के माया अपना जोर डाल रही है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ बिआपत बहु परकारी ॥ संत जीवहि प्रभ ओट तुमारी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

माइआ बिआपत बहु परकारी ॥ संत जीवहि प्रभ ओट तुमारी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहु परकारी = कई तरीकों से।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! (तेरी रची) माया अनेक तरीकों से (जीवों पर) प्रभाव डाले रखती है (और जीवों को आत्मिक मौत मार देती है), तेरे संत तेरे आसरे आत्मिक जीवन भोगते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिआपत अह्मबुधि का माता ॥ बिआपत पुत्र कलत्र संगि राता ॥ बिआपत हसति घोड़े अरु बसता ॥ बिआपत रूप जोबन मद मसता ॥२॥

मूलम्

बिआपत अह्मबुधि का माता ॥ बिआपत पुत्र कलत्र संगि राता ॥ बिआपत हसति घोड़े अरु बसता ॥ बिआपत रूप जोबन मद मसता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अहंबुधि = अहंकार। माता = मस्त हुआ। कलत्र = स्त्री। हसति = हाथी। बसता = वस्त्र, कपड़े। मद = नशा।2।
अर्थ: कहीं कोई ‘हउ हउ, मैं मैं’ की अक्ल में मस्त है। कहीं कोई पुत्र-स्त्री के मोह में रंगा पड़ा है। कहीं हाथी घोड़ों (सुंदर) कपड़ों (की लगन है)। कहीं कोई रूप और जवानी के नशे में मस्त है -इन अनेक तरीकों से माया अपना प्रभान डाल रही है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिआपत भूमि रंक अरु रंगा ॥ बिआपत गीत नाद सुणि संगा ॥ बिआपत सेज महल सीगार ॥ पंच दूत बिआपत अंधिआर ॥३॥

मूलम्

बिआपत भूमि रंक अरु रंगा ॥ बिआपत गीत नाद सुणि संगा ॥ बिआपत सेज महल सीगार ॥ पंच दूत बिआपत अंधिआर ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूमि = धरती। रंक = कंगाल। रंग = अमीर। संगा = टोला, मण्डली।3।
अर्थ: कहीं जमीन की मल्कियत है, कहीं कंगाली है। कहीं अमीर हैं, कहीं मंडलियों के गीत नाद सुन के (खुश हो रहे हैं), कही (सुंदर) सेज, हार-श्रृंगार और महल माढ़ीयों (की लालसा है)। इन अनेक तरीकों से माया अपना प्रभाव डाल रही है। कहीं मोह के अंधकार में कामादिक पाँचों विकार दूत बन के माया जोर डाल रही है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिआपत करम करै हउ फासा ॥ बिआपति गिरसत बिआपत उदासा ॥ आचार बिउहार बिआपत इह जाति ॥ सभ किछु बिआपत बिनु हरि रंग रात ॥४॥

मूलम्

बिआपत करम करै हउ फासा ॥ बिआपति गिरसत बिआपत उदासा ॥ आचार बिउहार बिआपत इह जाति ॥ सभ किछु बिआपत बिनु हरि रंग रात ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आचार बिउहार = कर्मकांड। जाति = जाति (अभिमान)।4।
अर्थ: कहीं कोई अहंकार में फंसा हुआ (अपनी ओर से धार्मिक) काम कर रहा है। कोई गृहस्थ में प्रवृत्त है, कोई उदासी रूप में है। कहीं कोई धार्मिक रस्मों में प्रवृत्ति है, कोई (ऊँची) जाति के अभिमान में है - परमात्मा के प्रेम में मगन होने से वंचित रह के यह सब कुछ माया का प्रभाव ही है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन के बंधन काटे हरि राइ ॥ ता कउ कहा बिआपै माइ ॥ कहु नानक जिनि धूरि संत पाई ॥ ता कै निकटि न आवै माई ॥५॥१९॥८८॥

मूलम्

संतन के बंधन काटे हरि राइ ॥ ता कउ कहा बिआपै माइ ॥ कहु नानक जिनि धूरि संत पाई ॥ ता कै निकटि न आवै माई ॥५॥१९॥८८॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: परमात्मा खुद ही संत जनों के माया के बंधन काट देता है। उन पर माया अपना जोर नहीं डाल सकती। हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने संत जनों के चरणों की धूल प्राप्त कर ली है, माया उस मनुष्य के नजदीक नहीं फटक सकती।5।19।88।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ नैनहु नीद पर द्रिसटि विकार ॥ स्रवण सोए सुणि निंद वीचार ॥ रसना सोई लोभि मीठै सादि ॥ मनु सोइआ माइआ बिसमादि ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ नैनहु नीद पर द्रिसटि विकार ॥ स्रवण सोए सुणि निंद वीचार ॥ रसना सोई लोभि मीठै सादि ॥ मनु सोइआ माइआ बिसमादि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नैनहु = आँखों में। द्रिशट = नजर, निगाह। श्रवण = कान। सुणि = सुन के। रसना = जीभ। लोभि = लोभ में। सादि = स्वाद में। बिसमादि = आश्चर्य तमाशे में।1।
अर्थ: पराए रूप को विकार भरी निगाह से देखना - ये आँखों में नींद आ रही है। औरों की निंदा के विचार सुन-सुन के कान सो रहे हैं। जीभ खाने के लोभ में पदार्थों के मीठे स्वाद में सो रही है। मन माया के आश्चर्य तमाशों में सोया रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु ग्रिह महि कोई जागतु रहै ॥ साबतु वसतु ओहु अपनी लहै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

इसु ग्रिह महि कोई जागतु रहै ॥ साबतु वसतु ओहु अपनी लहै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ग्रिह महि = शरीर रूपी घर में। कोई = कोई विरला। साबतु = सारी की सारी। वसतु = वस्तु, आत्मिक जीवन की पूंजी। लहै = ढूँढ लेता है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) इस शरीर रूपी घर में कोई विरला मनुष्य ही सुचेत रहता है (जो सुचेत रहता है) वह अपनी आत्मिक जीवन की सारी की सारी राशि-पूंजी सम्भाल लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल सहेली अपनै रस माती ॥ ग्रिह अपुने की खबरि न जाती ॥ मुसनहार पंच बटवारे ॥ सूने नगरि परे ठगहारे ॥२॥

मूलम्

सगल सहेली अपनै रस माती ॥ ग्रिह अपुने की खबरि न जाती ॥ मुसनहार पंच बटवारे ॥ सूने नगरि परे ठगहारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहेली = ज्ञानेंद्रियां। माती = मस्त। जाती = जानी, समझी। मुसनहार = ठगने वाले। बटवारे = डाकू। सूने नगरि = सूने शहर में। परे = हल्ला कर के आ गए।2।
अर्थ: सारी ही ज्ञानेंद्रियां अपने-अपने चस्के में मस्त रहती हैं, अपने शरीर घर की ये सूझ नहीं रखते। ठगने वाले पाँचों डाकू सूने (शरीर-) घर में आ के हमला बोल देते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उन ते राखै बापु न माई ॥ उन ते राखै मीतु न भाई ॥ दरबि सिआणप ना ओइ रहते ॥ साधसंगि ओइ दुसट वसि होते ॥३॥

मूलम्

उन ते राखै बापु न माई ॥ उन ते राखै मीतु न भाई ॥ दरबि सिआणप ना ओइ रहते ॥ साधसंगि ओइ दुसट वसि होते ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। राखै = बचा सकता। दरबि = धन से। ओइ = वह। वसि = काबू में।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: उन (पाँचों डाकुओं से) ना पिता बचा सकता है, ना माँ बचा सकती है। उनसे ना कोई मित्र बचा सकता है, ना ही कोई भाई। वो पाँचों डाकू ना धन से हटाए जा सकते हैं, ना चतुराई से। वे पाँचों दुष्ट सिर्फ साधु-संगत में रह के ही काबू में आते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा मोहि सारिंगपाणि ॥ संतन धूरि सरब निधान ॥ साबतु पूंजी सतिगुर संगि ॥ नानकु जागै पारब्रहम कै रंगि ॥४॥

मूलम्

करि किरपा मोहि सारिंगपाणि ॥ संतन धूरि सरब निधान ॥ साबतु पूंजी सतिगुर संगि ॥ नानकु जागै पारब्रहम कै रंगि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मुझे, मेरे पर। सारंगि = धनुष। पाणि = हाथ। सारंगपाणि = हे धर्नुधारी प्रभु! निधान = खजाना। पूंजी = आत्मिक जीवन की राशि। रंगि = प्रेम में।4।
अर्थ: हे धर्नुधारी प्रभु! मेरे पर कृपा कर। मुझे संतों की चरण धूल दे, यही मेरे वास्ते सारे खजाने हैं। गुरु की संगति में रहने से आत्मिक जीवन की संपत्ति सारी का सारी बचा सकता है। (परमात्मा का सेवक) नानक परमात्मा के प्रेम-रंग में रह के ही सुचेत रह सकता है (और पाँचों के आक्रमण से बच सकता है)।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो जागै जिसु प्रभु किरपालु ॥ इह पूंजी साबतु धनु मालु ॥१॥ रहाउ दूजा ॥२०॥८९॥

मूलम्

सो जागै जिसु प्रभु किरपालु ॥ इह पूंजी साबतु धनु मालु ॥१॥ रहाउ दूजा ॥२०॥८९॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! कामादिक पाँचों डाकुओं के आक्रमण से) वही व्यक्ति सुचेत रहता है, जिस पर परमात्मा खुद दयावान होता है। उसकी आत्मिक जीवन की ये राशि-पूंजी सारी की सारी बची रहती है, उसके पास प्रभु का नाम-धन संपत्ति बचा रहता है।1। रहाउ दूजा।20।89।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जा कै वसि खान सुलतान ॥ जा कै वसि है सगल जहान ॥ जा का कीआ सभु किछु होइ ॥ तिस ते बाहरि नाही कोइ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जा कै वसि खान सुलतान ॥ जा कै वसि है सगल जहान ॥ जा का कीआ सभु किछु होइ ॥ तिस ते बाहरि नाही कोइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै वसि = जिस (परमात्मा) के वश में। सगल = सारा। तिस ते = उस (परमात्मा) से। बाहरि = आकी।1।
अर्थ: (हे भाई! दुनिया के) खान और सुल्तान भी जिस परमात्मा के अधीन हैं, सारा जगत ही जिसके हुक्म में है, जिस परमात्मा का किया हुआ ही (जगत में) सब कुछ होता है, उस परमात्मा से कोई भी जीव आकी नहीं हो सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु बेनंती अपुने सतिगुर पाहि ॥ काज तुमारे देइ निबाहि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

कहु बेनंती अपुने सतिगुर पाहि ॥ काज तुमारे देइ निबाहि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाहि = पास। देइ = देता है, देगा। देहि निबाहि = सिरे चढ़ा देगा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) अपने गुरु के पास विनती कर। गुरु तेरे कार्य (जनम उद्देश्य) पूरे कर देगा, भाव (तुझे प्रभु के नाम की दाति बख्शेगा)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ ते ऊच जा का दरबारु ॥ सगल भगत जा का नामु अधारु ॥ सरब बिआपित पूरन धनी ॥ जा की सोभा घटि घटि बनी ॥२॥

मूलम्

सभ ते ऊच जा का दरबारु ॥ सगल भगत जा का नामु अधारु ॥ सरब बिआपित पूरन धनी ॥ जा की सोभा घटि घटि बनी ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अधारु = आसरा। बिआपति = व्यापक। धनी = मालिक-प्रभु। घटि घटि = हरेक घट में।2।
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का दरबार (दुनिया के) सारे शाहों-बादशाहों के दरबारों से ऊँचा (शानदार) है। सारे भक्तों की (जिंदगी) के वास्ते जिस परमात्मा का नाम आसरा है, जो मालिक प्रभु सब जीवों पे अपना प्रभाव रखता है और सब में व्यापक है, जिस परमात्मा की सुंदरता हरेक शरीर में अपनी दमक दिखा रही है (उसका नाम सदा स्मरण कर)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु सिमरत दुख डेरा ढहै ॥ जिसु सिमरत जमु किछू न कहै ॥ जिसु सिमरत होत सूके हरे ॥ जिसु सिमरत डूबत पाहन तरे ॥३॥

मूलम्

जिसु सिमरत दुख डेरा ढहै ॥ जिसु सिमरत जमु किछू न कहै ॥ जिसु सिमरत होत सूके हरे ॥ जिसु सिमरत डूबत पाहन तरे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुख डेरा = दुखों का डेरा, सारे दुख। जमु = मौत, मौत का डर। सूके = र्निदयी, खुश्क दिल। हरे = नर्म दिल। पाहन = पत्थर।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का स्मरण करने से सारे ही दुख दूर हो जाते हैं। जिसका नाम स्मरण करने से मौत का डर छू नहीं सकता। जिस परमात्मा का स्मरण करने से निर्दयी मनुष्य भी नर्म-दिल हो जाते हैं। जिसका नाम स्मरण करने से पत्थर दिल व्याक्ति (कठोरता के समुंदर में) डूबने से बच जाते हैं, (तू भी गुरु की शरण पड़ कर उसका नाम स्मरण कर)।3।

[[0183]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत सभा कउ सदा जैकारु ॥ हरि हरि नामु जन प्रान अधारु ॥ कहु नानक मेरी सुणी अरदासि ॥ संत प्रसादि मो कउ नाम निवासि ॥४॥२१॥९०॥

मूलम्

संत सभा कउ सदा जैकारु ॥ हरि हरि नामु जन प्रान अधारु ॥ कहु नानक मेरी सुणी अरदासि ॥ संत प्रसादि मो कउ नाम निवासि ॥४॥२१॥९०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जैकारु = नमस्कार। संत सभा = साधु-संगत। निवासि = निवास में, घर में।4।
अर्थ: (हे भाई!) साधु-संगत के आगे हमेशा सिर झुकाओ, क्योंकि परमात्मा का नाम साधु जनों (गुरमुखों) की जिंदगी का आसरा होता है, (उनकी संगति में तुझे भी नाम की प्राप्ति होगी)।
हे नानक! कह: (कर्तार ने) मेरी विनती सुन ली और उसने गुरु की कृपा से मुझे अपने नाम के घर में (टिका दिया) है।4।21।90।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ सतिगुर दरसनि अगनि निवारी ॥ सतिगुर भेटत हउमै मारी ॥ सतिगुर संगि नाही मनु डोलै ॥ अम्रित बाणी गुरमुखि बोलै ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ सतिगुर दरसनि अगनि निवारी ॥ सतिगुर भेटत हउमै मारी ॥ सतिगुर संगि नाही मनु डोलै ॥ अम्रित बाणी गुरमुखि बोलै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर दरसनि = गुरु के दर्शन की इनायत से। अगनि = तृष्णा आग। निवारी = दूर कर ली। भेटत = मिलने से। संगि = संगति में। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली वाणी। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के दीदार की इनायत से (मनुष्य अपने अंदर से तृष्णा की आग) बुझा लेता है। गुरु को मिल के (अपने मन में से) अहम् को मार लेता है। गुरु की संगति में रह के (मनुष्य का) मन (विकारों की तरफ) डोलता नहीं (क्योंकि) गुरु की शरण पड़ कर मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी उचारता रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु जगु साचा जा सच महि राते ॥ सीतल साति गुर ते प्रभ जाते ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सभु जगु साचा जा सच महि राते ॥ सीतल साति गुर ते प्रभ जाते ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर (प्रभु का रूप)। जा = जब। सच महि = सदा सिथर प्रभु में। सीतल = ठंडे। साति = शांति, ठंड। ते = से, के द्वारा। जाते = जान पहिचान डाली।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जब गुरु के द्वारा प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल लेते हैं, जब सदा सिथर प्रभु के प्रेम रंग में रंगे जाते हैं, तब हृदय ठंडा-ठार हो जाता है, तब (मन में) शांति पैदा हो जाती है, तब सारा जगत सदा स्थिर परमात्मा का रूप दिखता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत प्रसादि जपै हरि नाउ ॥ संत प्रसादि हरि कीरतनु गाउ ॥ संत प्रसादि सगल दुख मिटे ॥ संत प्रसादि बंधन ते छुटे ॥२॥

मूलम्

संत प्रसादि जपै हरि नाउ ॥ संत प्रसादि हरि कीरतनु गाउ ॥ संत प्रसादि सगल दुख मिटे ॥ संत प्रसादि बंधन ते छुटे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। बंधन ते = बंधनों से।2।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की कृपा से मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है, गुरु की कृपा से हरि कीर्तन गायन करता है। (इसका परिणाम ये निकलता है कि) सतिगुरु की कृपा से मनुष्य के सारे दुख-कष्ट मिट जाते हैं (क्योंकि) गुरु की मेहर से मनुष्य (माया के मोह के) बंधनों से निजात पा लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संत क्रिपा ते मिटे मोह भरम ॥ साध रेण मजन सभि धरम ॥ साध क्रिपाल दइआल गोविंदु ॥ साधा महि इह हमरी जिंदु ॥३॥

मूलम्

संत क्रिपा ते मिटे मोह भरम ॥ साध रेण मजन सभि धरम ॥ साध क्रिपाल दइआल गोविंदु ॥ साधा महि इह हमरी जिंदु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से, साथ। साध रेण = गुरु के चरणों की धूल। मजन = स्नान। सभ = सारे।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की कृपा से माया का मोह और माया खातिर भटकना दूर हो जाती है। गुरु के चरणों की धूड़ी का स्नान ही सारे धर्मों का (सार) है। (जिस मनुष्य पर गुरु के सन्मुख रहने वाले) गुरमुख दयावान होते हैं, उस पर परमात्मा भी दयावान हो जाता है। (हे भाई!) मेरी जीवात्मा भी गुरमुखों के चरणों पे वारी जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरपा निधि किरपाल धिआवउ ॥ साधसंगि ता बैठणु पावउ ॥ मोहि निरगुण कउ प्रभि कीनी दइआ ॥ साधसंगि नानक नामु लइआ ॥४॥२२॥९१॥

मूलम्

किरपा निधि किरपाल धिआवउ ॥ साधसंगि ता बैठणु पावउ ॥ मोहि निरगुण कउ प्रभि कीनी दइआ ॥ साधसंगि नानक नामु लइआ ॥४॥२२॥९१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरपा निधि = कृपा का खजाना प्रभु। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ। ता = तब। बैठण पावउ = मैं बैठना प्राप्त करता हूँ, मेरा जीअ लगता है। मोहि = मुझे। प्रभि = प्रभु ने।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) मुझ गुणहीन पर प्रभु ने दया की, साधु-संगत में मैं प्रभु का नाम जपने लग पड़ा। गुरु की मेहर से जब मैं कृपा के खजाने, कृपा के घर का नाम स्मरण करता हूँ, साधु-संगत में मेरा जीअ लगता है।4।22।91।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ साधसंगि जपिओ भगवंतु ॥ केवल नामु दीओ गुरि मंतु ॥ तजि अभिमान भए निरवैर ॥ आठ पहर पूजहु गुर पैर ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ साधसंगि जपिओ भगवंतु ॥ केवल नामु दीओ गुरि मंतु ॥ तजि अभिमान भए निरवैर ॥ आठ पहर पूजहु गुर पैर ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में। गुरि = गुरु ने। केवल = सिर्फ। मंतु = मंत्र। तजि = छोड़ के।1।
अर्थ: (हे भाई!) आठों पहर (हर वक्त) गुरु के पैर पूजो। (गुरु की कृपा से जिस मनुष्यों ने) साधु-संगत में भगवान का स्मरण किया है, जिन्हें गुरु ने परमात्मा के नाम का मंत्र दिया है (उस मंत्र की इनायत से) वे अहंकार त्याग के निर्वैर हो गए हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब मति बिनसी दुसट बिगानी ॥ जब ते सुणिआ हरि जसु कानी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

अब मति बिनसी दुसट बिगानी ॥ जब ते सुणिआ हरि जसु कानी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुसट = बुरी। बिगानी = बेज्ञानी, बेसमझी वाली। जब ते = जब से। कानी = कानों से।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जब से परमात्मा की महिमा मैंने कानों से सुनी है, तब से मेरी बुरी व बेसमझी वाली मति दूर हो गई है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज सूख आनंद निधान ॥ राखनहार रखि लेइ निदान ॥ दूख दरद बिनसे भै भरम ॥ आवण जाण रखे करि करम ॥२॥

मूलम्

सहज सूख आनंद निधान ॥ राखनहार रखि लेइ निदान ॥ दूख दरद बिनसे भै भरम ॥ आवण जाण रखे करि करम ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। निधान = खजाने। रखि लेइ = बचा लेता है। रखे = रोक लेता है। करम = बख्शिश। करि = कर के।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों ने हरि-जस कानों से सुना है) आत्मिक अडोलता, सुख, आनंद के खजाने रखने वाले परमात्मा ने आखिर उनकी सदा रक्षा की है। उनके दुख-दर्द-डर-वहिम सारे नाश हो जाते हैं। परमात्मा मेहर करके उनके जनम मरण के चक्र भी खत्म कर देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेखै बोलै सुणै सभु आपि ॥ सदा संगि ता कउ मन जापि ॥ संत प्रसादि भइओ परगासु ॥ पूरि रहे एकै गुणतासु ॥३॥

मूलम्

पेखै बोलै सुणै सभु आपि ॥ सदा संगि ता कउ मन जापि ॥ संत प्रसादि भइओ परगासु ॥ पूरि रहे एकै गुणतासु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु = हर जगह। ता कउ = उस प्रभु को। परगास = प्रकाश, रौशनी। गुणतासु = गुणों का खजाना प्रभु।3।
अर्थ: हे (मेरे) मन! जो परमात्मा हर जगह (सब जीवों में व्यापक हो के) स्वयं देखता है, खुद ही बोलता है, खुद ही सुनता है, जो हर वक्त तेरे अंग संग है, उसका भजन कर। गुरु की कृपा से जिस मनुष्य के अंदर आत्मिक जीवन वाला प्रकाश पैदा होता है, उसे गुणों का खजाना एक परमात्मा ही हर जगह व्यापक दिखाई देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत पवित्र सुणत पुनीत ॥ गुण गोविंद गावहि नित नीत ॥ कहु नानक जा कउ होहु क्रिपाल ॥ तिसु जन की सभ पूरन घाल ॥४॥२३॥९२॥

मूलम्

कहत पवित्र सुणत पुनीत ॥ गुण गोविंद गावहि नित नीत ॥ कहु नानक जा कउ होहु क्रिपाल ॥ तिसु जन की सभ पूरन घाल ॥४॥२३॥९२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुनीत = पवित्र। होहु = तुम होते हो। घाल = मेहनत। पूरन = सफल।4।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य सदा ही गोबिंद के गुण गाते हैं वे महिमा करने वाले और महिमा सुनने वाले सभी पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं।
हे नानक! कह: (हे प्रभु!) जिस मनुष्य पे तू दयावान होता है (वह तेरी महिमा करता है) उसकी सारी ये मेहनत सफल हो जाती है।4।23।92।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बंधन तोड़ि बोलावै रामु ॥ मन महि लागै साचु धिआनु ॥ मिटहि कलेस सुखी होइ रहीऐ ॥ ऐसा दाता सतिगुरु कहीऐ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ बंधन तोड़ि बोलावै रामु ॥ मन महि लागै साचु धिआनु ॥ मिटहि कलेस सुखी होइ रहीऐ ॥ ऐसा दाता सतिगुरु कहीऐ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बोलावै रामु = राम नाम मुंह से निकलवाता है, परमात्मा का स्मरण कराता है। साचु = अटल। मिटहि = मिट जाते हैं। रहीऐ = जीते हैं। कहीऐ = कहते हैं।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु (मनुष्य के माया के मोह के) बंधन तोड़ के (उससे) परमात्मा का स्मरण करवाता है। (जिस मनुष्य पर गुरु मेहर करता है उसके) मन में (प्रभु चरणों की) अटल तवज्जो बंध जाती है। (हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से मन के सारे) कष्ट मिट जाते हैं, सुखी जीवन वाले हो जाते हैं। सो, गुरु ऐसी ऊँची दाति बख्शने वाला कहा जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सुखदाता जि नामु जपावै ॥ करि किरपा तिसु संगि मिलावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सो सुखदाता जि नामु जपावै ॥ करि किरपा तिसु संगि मिलावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखदाता = आत्मिक आनंद देने वाला। जि = जो (गुरु), क्योंकि वह (गुरु)। तिसु संगि = उस (परमात्मा) के साथ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) वह सत्गुरू आत्मिक आनंद की दाति बख्शने वाला है क्योंकि वह परमात्मा का नाम जपाता है, और मेहर करके उस परमात्मा के साथ जोड़ता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु होइ दइआलु तिसु आपि मिलावै ॥ सरब निधान गुरू ते पावै ॥ आपु तिआगि मिटै आवण जाणा ॥ साध कै संगि पारब्रहमु पछाणा ॥२॥

मूलम्

जिसु होइ दइआलु तिसु आपि मिलावै ॥ सरब निधान गुरू ते पावै ॥ आपु तिआगि मिटै आवण जाणा ॥ साध कै संगि पारब्रहमु पछाणा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधान = खजाने। ते = से। आपु = स्वैभाव। साध कै संगि = गुरु की संगति में।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘आपि’ और ‘आपु’ में फर्क पर ध्यान दें।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर) परमात्मा जिस मनुष्य पर दयावान हो उसे खुद (ही) गुरु मिलाता है, वह मनुष्य (फिर) गुरु से (आत्मिक जीवन के) सारे खजाने हासिल कर लेता है। वह (गुरु की शरण पड़ कर) स्वैभाव त्याग देता है, और उसके जनम मरण का चक्र समाप्त हो जाता है। गुरु की संगति में (रह के) वह मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है।2।

[[0184]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन ऊपरि प्रभ भए दइआल ॥ जन की टेक एक गोपाल ॥ एका लिव एको मनि भाउ ॥ सरब निधान जन कै हरि नाउ ॥३॥

मूलम्

जन ऊपरि प्रभ भए दइआल ॥ जन की टेक एक गोपाल ॥ एका लिव एको मनि भाउ ॥ सरब निधान जन कै हरि नाउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: टेक = आसरा। गोपाल = धरती का रक्षक प्रभु। लिव = लगन। मनि = मन में। भाउ = प्यार। जन कै = सेवक के वास्ते, सेवक के हृदय में।3।
अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण की इनायत से) प्रभु जी सेवक पर दयावान हो जाते हैं, एक गोपाल प्रभु ही सेवक की जिंदगी का आसरा बन जाता है। (गुरु की शरण आए मनुष्य को) एक परमात्मा की ही लगन लग जाती है, उसके मन में एक परमात्मा का ही प्यार (टिक जाता है)। सेवक के दिल में परमात्मा का नाम ही (दुनिया के) सारे खजाने बन जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहम सिउ लागी प्रीति ॥ निरमल करणी साची रीति ॥ गुरि पूरै मेटिआ अंधिआरा ॥ नानक का प्रभु अपर अपारा ॥४॥२४॥९३॥

मूलम्

पारब्रहम सिउ लागी प्रीति ॥ निरमल करणी साची रीति ॥ गुरि पूरै मेटिआ अंधिआरा ॥ नानक का प्रभु अपर अपारा ॥४॥२४॥९३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिउ = से, साथ। करणी = आचरण। रीति = जीवन मर्यादा। साची = अटल, अडोल, कभी ना डोलने वाली। गुरि = गुरु ने। अपर = (नास्ति परो यस्मात्) जिससे परे और कोई नहीं। अपार = जिसका उस पार नहीं ढूँढा जा सकता, बेअंत।4।
अर्थ: (परमात्मा की मेहर से) पूरे गुरु ने (जिस मनुष्य के अंदर से माया के मोह का) अंधेरा दूर कर दिया, उसकी प्रीति परमात्मा के साथ पक्की बन जाती है, उसका जीवन पवित्र हो जाता है, उसकी जीवन मर्यादा (विकारों के आक्रमण से) अडोल हो जाती है। (हे भाई! ये सारी मेहर परमात्मा की ही है) नानक का प्रभु परे से परे है और बेअंत है।4।24।93।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जिसु मनि वसै तरै जनु सोइ ॥ जा कै करमि परापति होइ ॥ दूखु रोगु कछु भउ न बिआपै ॥ अम्रित नामु रिदै हरि जापै ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जिसु मनि वसै तरै जनु सोइ ॥ जा कै करमि परापति होइ ॥ दूखु रोगु कछु भउ न बिआपै ॥ अम्रित नामु रिदै हरि जापै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। जा कै करमि = जिस (प्रभु) की बख्शिश से। बिआपै = ’जोर डाल लेता है। रिदै = हृदय में।1।
अर्थ: जिस (परमात्मा) की कृपा से (उसके नाम की) प्राप्ति होती है, वह परमात्मा जिस मनुष्य के मन में बस जाता है वह (वह दुखों रोगों विकारों के समुंदर में से) पार लांघ जाता है। (संसार का) कोई दुख, कोई रागे, कोई डर उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता (क्योंकि) वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम अपने दिल में जपता रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारब्रहमु परमेसुरु धिआईऐ ॥ गुर पूरे ते इह मति पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पारब्रहमु परमेसुरु धिआईऐ ॥ गुर पूरे ते इह मति पाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। मति = अक्ल, सूझ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) अकाल पुरख परमेश्वर का स्मरण करना चाहिए। (स्मरण की) ये सूझ गुरु के पास से मिलती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करण करावनहार दइआल ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपाल ॥ अगम अगोचर सदा बेअंता ॥ सिमरि मना पूरे गुर मंता ॥२॥

मूलम्

करण करावनहार दइआल ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपाल ॥ अगम अगोचर सदा बेअंता ॥ सिमरि मना पूरे गुर मंता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगले = सारे। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = इंद्रियों की पहुँच से परे। मंता = उपदेश।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे (मेरे) मन! पूरे गुरु के उपदेश पर चल के उस (परमात्मा) को स्मरण कर, जो सब कुछ करने की स्मर्था रखता है, जो जीवों से सब कुछ करवाने की ताकत रखता है। जो दया का घर है, जो सारे जीव-जंतुओं की पालना करता है, जो अगम्य (पहुँच से परे) है, जिस तक मनुष्य की ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, जिसके गुणों का कभी अंत नहीं पाया जा सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा की सेवा सरब निधानु ॥ प्रभ की पूजा पाईऐ मानु ॥ जा की टहल न बिरथी जाइ ॥ सदा सदा हरि के गुण गाइ ॥३॥

मूलम्

जा की सेवा सरब निधानु ॥ प्रभ की पूजा पाईऐ मानु ॥ जा की टहल न बिरथी जाइ ॥ सदा सदा हरि के गुण गाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधान = खजाने। बिरथी = व्यर्थ, निश्फल।3।
अर्थ: (हे भाई!) सदा ही सदा उस हरि के गुण गाता रह, जिसकी सेवा-भक्ति में ही (जगत के) सारे खजाने हैं। जिस हरि की पूजा करने से (हर जगह) आदर सत्कार मिलता है, और जिसकी की हुई सेवा निष्फल नहीं जाती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा प्रभ अंतरजामी ॥ सुख निधान हरि अलख सुआमी ॥ जीअ जंत तेरी सरणाई ॥ नानक नामु मिलै वडिआई ॥४॥२५॥९४॥

मूलम्

करि किरपा प्रभ अंतरजामी ॥ सुख निधान हरि अलख सुआमी ॥ जीअ जंत तेरी सरणाई ॥ नानक नामु मिलै वडिआई ॥४॥२५॥९४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! सुख निधान = हे सुखों के खजाने प्रभु! अलख = हे अदृष्ट।4।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु दर पर प्रार्थना कर और कह:) हे अंतरजामी प्रभु! हे सुखों के खजाने प्रभु! हे अदृष्ट स्वामी! सारे जीव-जंतु तेरी शरण हैं (तेरे ही आसरे हैं, मैं भी तेरी शरण आया हूँ) मेहर कर, मुझे तेरा नाम मिल जाए (तेरा नाम ही मेरे वास्ते) बड़प्पन है।4।24।94।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जीअ जुगति जा कै है हाथ ॥ सो सिमरहु अनाथ को नाथु ॥ प्रभ चिति आए सभु दुखु जाइ ॥ भै सभ बिनसहि हरि कै नाइ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ जीअ जुगति जा कै है हाथ ॥ सो सिमरहु अनाथ को नाथु ॥ प्रभ चिति आए सभु दुखु जाइ ॥ भै सभ बिनसहि हरि कै नाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ जुगति = सारे जीवों की जीवन मर्यादा। नाथु = खसम। चिति = चित्त में। नाइ = नाम के द्वारा।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भै’ शब्द ‘भउ’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) उस अनाथों के नाथ परमात्मा का स्मरण कर, जिसके हाथों में सब जीवों की जीवन मर्यादा है। (हे भाई!) यदि परमात्मा (मनुष्य के) मन में बस जाए तो (उसका) हरेक दुख दूर हो जाता है। परमात्मा के नाम की इनायत के साथ सारे डर नाश हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु हरि भउ काहे का मानहि ॥ हरि बिसरत काहे सुखु जानहि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बिनु हरि भउ काहे का मानहि ॥ हरि बिसरत काहे सुखु जानहि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काहे का = किस का? मानहि = तू मानता है। काहे = कौन सा?।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) तू परमात्मा के बिना और किसी का डर क्यूँ मानता है? परमात्मा को भुला के और कौन सा सुख समझता है?।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि धारे बहु धरणि अगास ॥ जा की जोति जीअ परगास ॥ जा की बखस न मेटै कोइ ॥ सिमरि सिमरि प्रभु निरभउ होइ ॥२॥

मूलम्

जिनि धारे बहु धरणि अगास ॥ जा की जोति जीअ परगास ॥ जा की बखस न मेटै कोइ ॥ सिमरि सिमरि प्रभु निरभउ होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। धरणि = धरती। अगास = आकाश। जीअ = सब जीवों में। परगास = प्रकाश। बखस = बख्शश।2।
अर्थ: (हे भाई!) उस प्रभु को सदा स्मरण कर, जिसने अनेक धरतियों, आकाशों को सहारा दिया हुआ है। जिसकी ज्योति सारे जीवों में प्रकाश कर रही है, और जिस की (की हुई कृपा को कोई मिटा नहीं सकता) (कोई रोक नहीं सकता)। (जो मनुष्य उस प्रभु को स्मरण करता है वह दुनिया के डरों से) निडर हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आठ पहर सिमरहु प्रभ नामु ॥ अनिक तीरथ मजनु इसनानु ॥ पारब्रहम की सरणी पाहि ॥ कोटि कलंक खिन महि मिटि जाहि ॥३॥

मूलम्

आठ पहर सिमरहु प्रभ नामु ॥ अनिक तीरथ मजनु इसनानु ॥ पारब्रहम की सरणी पाहि ॥ कोटि कलंक खिन महि मिटि जाहि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मजनु = (मज्जन = dip) डुबकी, स्नान। पाहि = अगर तू लेट जाए। कलंक = बदनामी।3।
अर्थ: (हे भाई!) आठों पहर (हर वक्त) प्रभु का नाम स्मरण करता रह। (ये स्मरण ही) अनेक तीर्थों का स्नान है। यदि तू परमात्मा की शरण पड़ जाए तो तेरे करोड़ों पाप एक पल में नाश हो जाएं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बेमुहताजु पूरा पातिसाहु ॥ प्रभ सेवक साचा वेसाहु ॥ गुरि पूरै राखे दे हाथ ॥ नानक पारब्रहम समराथ ॥४॥२६॥९५॥

मूलम्

बेमुहताजु पूरा पातिसाहु ॥ प्रभ सेवक साचा वेसाहु ॥ गुरि पूरै राखे दे हाथ ॥ नानक पारब्रहम समराथ ॥४॥२६॥९५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। वेसाहु = भरोसा। गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा। समराथ = सब ताकतों का मालिक।4।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा को किसी की अधीनता नहीं, किसी के आसरे नहीं। वह सब गुणों का मालिक है, वह सब गुणों का बादशाह है। प्रभु के सेवकों को प्रभु का अटल भरोसा रहता है। (हे भाई!) परमात्मा पूरे गुरु के द्वारा (अपने सेवकों को सब कलंकों से) हाथ दे कर बचाता है। परमात्मा सब ताकतों का मालिक है।4।26।95।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ बड़ा जोड़ 96 बनता है। पीछे देख चुके हैं कि जोड़ में एक की गिनती कम चली आ रही है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ गुर परसादि नामि मनु लागा ॥ जनम जनम का सोइआ जागा ॥ अम्रित गुण उचरै प्रभ बाणी ॥ पूरे गुर की सुमति पराणी ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ गुर परसादि नामि मनु लागा ॥ जनम जनम का सोइआ जागा ॥ अम्रित गुण उचरै प्रभ बाणी ॥ पूरे गुर की सुमति पराणी ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसादि = कृपा से। नामि = नाम से। सोइआ = (माया के मोह की नींद में) सोया हुआ। उचरै = उचारता है। सुमति = श्रेष्ठ मति। पराणी = प्राणी, (जिस) मनुष्य (को)।1।
अर्थ: जिस मनुष्य का मन गुरु की कृपा से परमात्मा के नाम में जुड़ता है, वह जन्मों जन्मांतरों का (माया के मोह की नींद में) सोया हुआ (भी) जाग पड़ता है। जिस प्राणी को पूरे गुरु की श्रेष्ठ मति प्राप्त होती है, वह प्रभु के आत्मिक जीवन देने वाले गुण उचारता है, प्रभु की (महिमा की) वाणी उचारता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ सिमरत कुसल सभि पाए ॥ घरि बाहरि सुख सहज सबाए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

प्रभ सिमरत कुसल सभि पाए ॥ घरि बाहरि सुख सहज सबाए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कुसल = सुख। सभि = सारे। घरि = घर में, हृदय में। बाहरि = जगत में घटित होतीं। सहज = आत्मिक अडोलता। सबाए = सारे।1। रहाउ।
अर्थ: (जो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करता है) प्रभु का स्मरण करते हुए उसने सारे सुख प्राप्त कर लिए, उसके हृदय में (भी) आत्मिक अडोलता के सारे आनंद, जगत से बरतते हुए भी उसे आत्मिक अडोलता के सारे आनंद प्राप्त होते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई पछाता जिनहि उपाइआ ॥ करि किरपा प्रभि आपि मिलाइआ ॥ बाह पकरि लीनो करि अपना ॥ हरि हरि कथा सदा जपु जपना ॥२॥

मूलम्

सोई पछाता जिनहि उपाइआ ॥ करि किरपा प्रभि आपि मिलाइआ ॥ बाह पकरि लीनो करि अपना ॥ हरि हरि कथा सदा जपु जपना ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनहि = जिस (परमात्मा) ने। उपाइआ = पैदा किया। प्रभि = प्रभु ने। पकरि = पकड़ के। करि = कर के, बना के।2।
अर्थ: प्रभु ने मेहर करके जिस मनुष्य को स्वयं (अपने चरणों में) जोड़ लिया, उस मनुष्य ने उसी प्रभु से गहरी सांझ डाल ली, जिस प्रभु ने उसे पैदा किया है। जिस मनुष्य को प्रभु ने बाँह पकड़ कर अपना बना लिया, वह मनुष्य सदैव प्रभु की महिमा की बातें करता है। प्रभु के नाम का जाप जपता है।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

मंत्रु तंत्रु अउखधु पुनहचारु ॥ हरि हरि नामु जीअ प्रान अधारु ॥ साचा धनु पाइओ हरि रंगि ॥ दुतरु तरे साध कै संगि ॥३॥

मूलम्

मंत्रु तंत्रु अउखधु पुनहचारु ॥ हरि हरि नामु जीअ प्रान अधारु ॥ साचा धनु पाइओ हरि रंगि ॥ दुतरु तरे साध कै संगि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तंत्रु = टूणा, जादू। अउखधु = दवाई। पुनह = दुबारा, पीछे से। पुनहचारु = पाप की निर्विति के लिए पाप करने के बाद किया हुआ धार्मिक कर्म, प्रायश्चित। जीअ अधारु = जीवात्मा का आसरा। साचा = सदा कायम रहने वाला। रंगि = प्रेम में। दुतरु = (दुस्तर) जिसे तैरना कठिन है।3।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की संगति में रहता है, वह इस मुश्किल से तैरे जाने वाले संसार समुंदर से पार लांघ जाता है। वह मनुष्य हरि के प्रेम रंग में (मस्त हो के) सदा साथ निभने वाला नाम-धन हासिल कर लेता है। हरि का नाम ही उस मनुष्य की जिंदगी के प्राणों का आसरा बन जाता है। (मोह की नींद दूर करने के लिए परमात्मा का नाम ही उसके वास्ते) मंत्र है। नाम ही जादू है, नाम ही दवाई है और नाम ही प्रायश्चित कर्म है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखि बैसहु संत सजन परवारु ॥ हरि धनु खटिओ जा का नाहि सुमारु ॥ जिसहि परापति तिसु गुरु देइ ॥ नानक बिरथा कोइ न हेइ ॥४॥२७॥९६॥

मूलम्

सुखि बैसहु संत सजन परवारु ॥ हरि धनु खटिओ जा का नाहि सुमारु ॥ जिसहि परापति तिसु गुरु देइ ॥ नानक बिरथा कोइ न हेइ ॥४॥२७॥९६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखि = सुख में। संत सजन = हे संत सज्जन! खटिओ = कमाया, कमा लिया। जा का = जिस (धन) का। सुमारु = अंदाजा, नाप। परापति = भाग्यों में लिखा हुआ। बिरथा = खाली, व्यर्थ। हेइ = है।4।
अर्थ: हे संत जनो! प्रिवार बन के (मेर-तेर दूर करके, पूर्ण प्रेम से) आत्मिक आनंद में मिल बैठो। (जो मनुष्य गुरमुखों की संगति में बैठता है उसने) वह हरि-नाम धन कमा लिया जिसका अंदाजा नहीं लग सकता।
हे नानक! (प्रभु की मेहर से) जिसके भाग्यों में (नाम धन) लिखा हुआ है, उसे गुरु (नाम-धन) देता है, (गुरु के दर पर आ के) कोई मनुष्य खाली नहीं रह जाता।4।27।96।