विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ सतिगुर ते गिआनु पाइआ हरि ततु बीचारा ॥ मति मलीण परगटु भई जपि नामु मुरारा ॥ सिवि सकति मिटाईआ चूका अंधिआरा ॥ धुरि मसतकि जिन कउ लिखिआ तिन हरि नामु पिआरा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ सतिगुर ते गिआनु पाइआ हरि ततु बीचारा ॥ मति मलीण परगटु भई जपि नामु मुरारा ॥ सिवि सकति मिटाईआ चूका अंधिआरा ॥ धुरि मसतकि जिन कउ लिखिआ तिन हरि नामु पिआरा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से। गिआनु = परमात्मा की जान पहिचान, गहरी सांझ। ततु = असलियत। बीचारा = विचारु। परगटु भई = प्रगट हुई। मुरारा = मुरारि (मुर+अरि, मुर दैंत का वैरी) परमात्मा। सिवि = शिव ने, कल्याण स्वरूप प्रभु ने। सकति = शक्ति, माया। धुरि = धुर से।1।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने गुरु से (परमात्मा के साथ) गहरी सांझ (डालनी) सीख ली, (जगत के) मूल परमात्मा (के गुणों) को विचारना (सीख लिया)। परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के उनकी मति (जो पहले विकारों के कारण) मैली (हुई पड़ी थी) निखर उठी। कल्याण-स्वरूप परमात्मा ने (उनके अंदर से) माया का (प्रभाव) मिटा दिया, (उनके अंदर से माया के मोह का) अंधेरा दूर हो गया। (पर) परमात्मा का नाम उन्हें ही प्यारा लगता है जिनके माथे पे धुर से ही (खुद परमात्मा ने अपने नाम की दाति का लेख) लिख दिया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि कितु बिधि पाईऐ संत जनहु जिसु देखि हउ जीवा ॥ हरि बिनु चसा न जीवती गुर मेलिहु हरि रसु पीवा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि कितु बिधि पाईऐ संत जनहु जिसु देखि हउ जीवा ॥ हरि बिनु चसा न जीवती गुर मेलिहु हरि रसु पीवा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कितु = किस के द्वारा? कितु बिधि = किस तरीके से? देखि = देख के। हउ = मैं। जीवा = जी पड़ता है, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। चसा = पल का तीसवां हिस्सा, समय, रत्ती भर भी। गुर मेलहु = गुरु (से) मिला दो।1। रहाउ।
अर्थ: हे संत जनो! जिस परमात्मा का दर्शन करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है (बताओ) उसे किस तरीके से मिला जा सकता है? उस प्रभु से बिछुड़ के मैं रत्ती भर समय के लिए भी (आत्मिक जीवन) जी नहीं सकती। (हे संत जनों!) मुझे गुरु (से) मिलाओ (ता कि गुरु की कृपा से) मैं परमात्मा के नाम का रस पी सकूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ हरि गुण गावा नित हरि सुणी हरि हरि गति कीनी ॥ हरि रसु गुर ते पाइआ मेरा मनु तनु लीनी ॥ धनु धनु गुरु सत पुरखु है जिनि भगति हरि दीनी ॥ जिसु गुर ते हरि पाइआ सो गुरु हम कीनी ॥२॥
मूलम्
हउ हरि गुण गावा नित हरि सुणी हरि हरि गति कीनी ॥ हरि रसु गुर ते पाइआ मेरा मनु तनु लीनी ॥ धनु धनु गुरु सत पुरखु है जिनि भगति हरि दीनी ॥ जिसु गुर ते हरि पाइआ सो गुरु हम कीनी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावा = मैं गाऊँ। सुणी = मैं सुनूँ। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। ते = से। लीनी = लीन हो गया। धनु धनु = सलाहने योग (ष्)। जिनि = जिसने।2।
अर्थ: (हे संत जनों! प्यारे गुरु की मेहर से) मैं नित्य परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ। मैं नित्य परमात्मा का नाम सुनता रहता हूँ। उस परमात्मा ने मुझे ऊँची आत्मिक अवस्था बख्श दी है। गुरु के द्वारा मैंने परमात्मा के नाम का स्वाद हासिल किया है, (अब) मेरा मन मेरा तन (उस स्वाद में) मगन रहता है। (हे संत जनो!) जिस गुरु ने (मुझे) परमात्मा की भक्ति (की दाति) दी है (मेरे वास्ते तो वह) सत्पुरख गुरु (सदा ही) सलाहने योग्य है। जिस गुरु के द्वारा मैंने परमात्मा का नाम प्राप्त किया है उस गुरु को मैंने अपना बना लिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणदाता हरि राइ है हम अवगणिआरे ॥ पापी पाथर डूबदे गुरमति हरि तारे ॥ तूं गुणदाता निरमला हम अवगणिआरे ॥ हरि सरणागति राखि लेहु मूड़ मुगध निसतारे ॥३॥
मूलम्
गुणदाता हरि राइ है हम अवगणिआरे ॥ पापी पाथर डूबदे गुरमति हरि तारे ॥ तूं गुणदाता निरमला हम अवगणिआरे ॥ हरि सरणागति राखि लेहु मूड़ मुगध निसतारे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूढ़ मुगध = मूर्ख, महा मूर्ख। निसतारे = निस्तारा, पार लंघाना।3।
अर्थ: (हे भाई! सारे जगत का) शहनशाह परमात्मा (सब जीवों को सब) गुणों की दाति देने वाला है। हम (जीव) उवगुणों से भरे रहते हैं। (जैसे) पत्थर (पानी में डूब जाते हैं, वैसे ही हम) पापी (जीव विकारों के समुंदर में) डूबे रहते हैं। परमात्मा (हमें) गुरु की मति दे कर (उस समुंदर से) पार लंघाता है।
हे प्रभु! तू पवित्र स्वरूप है। तू गुण बख्शने वाला है। हम जीव अवगुणों से भरे पड़े हैं। हे हरि! हम तेरी शरण आए हैं, (हमें अवगुणों से) बचा ले। (हम) मूर्खों को महामूर्खों को (विकारों के समुंदर में से) पार लंघा ले।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजु अनंदु सदा गुरमती हरि हरि मनि धिआइआ ॥ सजणु हरि प्रभु पाइआ घरि सोहिला गाइआ ॥ हरि दइआ धारि प्रभ बेनती हरि हरि चेताइआ ॥ जन नानकु मंगै धूड़ि तिन जिन सतिगुरु पाइआ ॥४॥४॥१८॥३८॥
मूलम्
सहजु अनंदु सदा गुरमती हरि हरि मनि धिआइआ ॥ सजणु हरि प्रभु पाइआ घरि सोहिला गाइआ ॥ हरि दइआ धारि प्रभ बेनती हरि हरि चेताइआ ॥ जन नानकु मंगै धूड़ि तिन जिन सतिगुरु पाइआ ॥४॥४॥१८॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजु = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। घरि = घर में, हृदय घर में। सोहिला = महिमा के गीत, खुशी के गीत। प्रभु = हे प्रभु! नानक मंगै = नानक मांगता है (नानक = हे नानक!)। जिन = जिन्होंने।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘जिन’ बहुवचन है, ‘जिनि’ एकवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जिस मनुष्यों ने परमात्मा को (अपने) मन में (सदा) स्मरण किया है, वे गुरु की मति पर चल कर सदैव आत्मिक अडोलता में रहते हैं, (आत्मिक) आनंद लेते हैं। जिन्हें हरि प्रभु सज्जन मिल जाता है, वह अपने हृदय घर मेंपरमात्मा के महिमा के गीत गाते रहते हैं।
हे हरि! हे प्रभु! मिहर कर, (मेरी) विनती (सुन)। (मुझे) अपने नाम का स्मरण दे। (हे प्रभु! तेरा) दास नानक (तेरे दर से) उन मनुष्यों के चरणों की धूल मांगता है जिन्हें (तेरी मेहर से) गुरु मिल गया है।4।4।18।38।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी गुआरेरी महला ४ चउथा चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
गउड़ी गुआरेरी महला ४ चउथा चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंडितु सासत सिम्रिति पड़िआ ॥ जोगी गोरखु गोरखु करिआ ॥ मै मूरख हरि हरि जपु पड़िआ ॥१॥
मूलम्
पंडितु सासत सिम्रिति पड़िआ ॥ जोगी गोरखु गोरखु करिआ ॥ मै मूरख हरि हरि जपु पड़िआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोरखु = जोगी मति के गुरु। जपु पढ़िआ = जप करना ही सीखा है।1।
अर्थ: पण्डित शास्त्र-स्मृतियां (आदि धर्म पुस्तकें) पढ़ता है (और इस विद्ववता का गुमान करता है। जोगी (अपने गुरु) गोरख (के नाम का जाप) करता है (और उसकी बताई समाधियों को आत्मिक जीवन की टेक बनाए बैठा है), पर, मुझ मूर्ख ने (पंडितों और जोगियों के हिसाब से मूर्ख ने) परमात्मा के नाम का जप करना ही (अपने गुरु से) सीखा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना जाना किआ गति राम हमारी ॥ हरि भजु मन मेरे तरु भउजलु तू तारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ना जाना किआ गति राम हमारी ॥ हरि भजु मन मेरे तरु भउजलु तू तारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ना जाना = मैं नहीं जानता। गति = हालत। राम = हे राम! हमारी = मेरी। मन = हे मन! तरु = पार हो। भउजलु = संसार समुंदर। तारी = बेड़ी, जहाज (तारि)।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! (किसी को धर्म-विद्या का गुरूर, किसी को समाधियों का सहारा, पर) मुझे समझ नहीं आती (कि अगर मैं तेरा नाम भुला दूँ तो) मेरी कैसी आत्मिक दशा हो जाएगी। (हे राम! मैं तो अपने मन को यही समझाता हूँ) हे मेरे मन! परमात्मा का नाम स्मरण कर (और) संसार समुंदर से पार लांघ जा, (परमात्मा का नाम ही संसार समुंदर से पार लांघने के लिए) बेड़ी है।1। रहाउ।
[[0164]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
संनिआसी बिभूत लाइ देह सवारी ॥ पर त्रिअ तिआगु करी ब्रहमचारी ॥ मै मूरख हरि आस तुमारी ॥२॥
मूलम्
संनिआसी बिभूत लाइ देह सवारी ॥ पर त्रिअ तिआगु करी ब्रहमचारी ॥ मै मूरख हरि आस तुमारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिभूत = राख। देह = शरीर। पर त्रिय त्यागु = पराई स्त्री का त्याग। हरि = हे हरि!।2।
अर्थ: सन्यासी ने राख मल के अपने शरीर को सवारा हुआ है। उसने पराईस्त्री का त्याग करके ब्रह्मचर्य धारण किया हुआ है। (उसने निरे ब्रह्मचर्य को ही अपने आत्मिक जीवन का सहारा बनाया हुआ है, उसकी निगाहों में मेरे जैसा गृहस्थी मूर्ख है, पर) हे हरि! मैं मूर्ख को तो तेरे नाम का ही आसरा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खत्री करम करे सूरतणु पावै ॥ सूदु वैसु पर किरति कमावै ॥ मै मूरख हरि नामु छडावै ॥३॥
मूलम्
खत्री करम करे सूरतणु पावै ॥ सूदु वैसु पर किरति कमावै ॥ मै मूरख हरि नामु छडावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = (शूरवीरों वाले) काम। सूरतणु = शूरवीरों (वाली मशहूरी)। पर किरति = दूसरों की सेवा।3।
अर्थ: (स्मृतियों के धर्म अनुसार) क्षत्रीय (वीरता भरे) काम करता है और शूरवीरता की प्रसिद्धि कमाता है। (वह इसी को जीवन निशाना समझता है), शूद्र दूसरों की सेवा करता है, वैश्य भी (व्यापार आदि) कर्म करता है (शूद्र भी और वैश्य भी अपनी अपनी कृत में मग्न है। पर मैं निरे कर्म को जीवन उद्देश्य नहीं मानता, इनकी नजरों में) मैं मूर्ख हूँ (पर मुझे यकीन है कि) परमात्मा का नाम (ही संसार समुंदर के विकारों से) बचाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ तेरी स्रिसटि तूं आपि रहिआ समाई ॥ गुरमुखि नानक दे वडिआई ॥ मै अंधुले हरि टेक टिकाई ॥४॥१॥३९॥
मूलम्
सभ तेरी स्रिसटि तूं आपि रहिआ समाई ॥ गुरमुखि नानक दे वडिआई ॥ मै अंधुले हरि टेक टिकाई ॥४॥१॥३९॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक ४ को चौथा पढ़ना है। इस तरह ‘महला १’ को ‘महला पहिला’, २ को दूजा, ३ को तीजा, ५ को पाँचवा।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभ = सारी। दे = देता है। टेक = आसरा।4।
अर्थ: (पर, हे प्रभु!) ये सारी सृष्टि तेरी रची हुई है। (सब जीवों में) तू स्वयं ही व्यापक है (जो कुछ तू सुझाता है उन्हें वही सूझता है)। हे नानक! (जिस किसी पर प्रभु मेहर करता है उसे) गुरु की शरण में डाल के (अपने नाम का) आदर बख्शता है। (इन लोगों के लिए मैं अंधा हूँ, पर) पर, मैं अंधे ने परमात्मा के नाम का आसरा लिया हुआ है।4।1।39।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ निरगुण कथा कथा है हरि की ॥ भजु मिलि साधू संगति जन की ॥ तरु भउजलु अकथ कथा सुनि हरि की ॥१॥
मूलम्
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ निरगुण कथा कथा है हरि की ॥ भजु मिलि साधू संगति जन की ॥ तरु भउजलु अकथ कथा सुनि हरि की ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरगुण = माया के तीन गुणों से ऊपर। भजु = स्मरण कर। तरु = पार हो। अकथ कथा = उस परमात्मा की महिमा जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते।1।
अर्थ: परमात्मा की महिमा की बातें तीनों गुणों से ऊपर हैं (दुनिया के लोगों की प्रशंसा की कहानियों से बहुत ऊँची हैं)।
(हे भाई!) साधु जनों की संगति में मिल के (उस परमात्मा का) भजन करा कर। उस परमात्मा की महिमा सुना कर, जिसके गुण बताए नहीं जा सकते (और, महिमा की इनायत से) संसार समुंदर से पार गुजर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोबिंद सतसंगति मेलाइ ॥ हरि रसु रसना राम गुन गाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गोबिंद सतसंगति मेलाइ ॥ हरि रसु रसना राम गुन गाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गोबिंद = हे गोबिंद! रसु = स्वाद। रसना = जीभ। गाइ = गाए।1। रहाउ।
अर्थ: हे गोबिंद! (मुझे) साधु-संगत का मिलाप बख्श (ताकि मेरी) जीभ हरि नाम का स्वाद ले के हरि गुण गाती रहे।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो जन धिआवहि हरि हरि नामा ॥ तिन दासनि दास करहु हम रामा ॥ जन की सेवा ऊतम कामा ॥२॥
मूलम्
जो जन धिआवहि हरि हरि नामा ॥ तिन दासनि दास करहु हम रामा ॥ जन की सेवा ऊतम कामा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जो जन = जो लोग। दासनि दास = सेवकों के सेवक। रामा = हे राम! कामा = काम।2।
अर्थ: हे हरि! हे राम! जो मनुष्य तेरा नाम स्मरण करते हैं, मुझे उनके दासों का दास बना। (तेरे) दासों की सेवा (मनुष्य जीवन में सबसे) श्रेष्ठ कर्म है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो हरि की हरि कथा सुणावै ॥ सो जनु हमरै मनि चिति भावै ॥ जन पग रेणु वडभागी पावै ॥३॥
मूलम्
जो हरि की हरि कथा सुणावै ॥ सो जनु हमरै मनि चिति भावै ॥ जन पग रेणु वडभागी पावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हमरै मनि चिति = मेरे मन में, मेरे चित्त में। भावै = अच्छा लगता है। पग = पैर। रेणु = धूल। पग रेणु = पैरों की खाक।3।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य (मुझे) परमात्मा (की महिमा) की बातें सुनाता है, वह (मुझे) मेरे मन में मेरे चित्त में प्यारा लगता है। (परमात्मा के) भक्त के पैरों की ख़ाक कोई भाग्यशाली मनुष्य ही हासिल करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत जना सिउ प्रीति बनि आई ॥ जिन कउ लिखतु लिखिआ धुरि पाई ॥ ते जन नानक नामि समाई ॥४॥२॥४०॥
मूलम्
संत जना सिउ प्रीति बनि आई ॥ जिन कउ लिखतु लिखिआ धुरि पाई ॥ ते जन नानक नामि समाई ॥४॥२॥४०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिउ = साथ। लिखतु = लेख। धुरि = धुर से। ते जन = वे लोग। समाई = लीनता।4।
अर्थ: हे नानक! (प्रभु के) संत जनों से (उन मनुष्यों की) प्रीति निभती है, जिस के माथे पे परमात्मा ने धुर से ही (अपनी दरगाह से अपनी बख्शिश का) लेख लिख दिया हो, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में (सदा के लिए) लीनता हासिल कर लेते हैं।4।2।40।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ माता प्रीति करे पुतु खाइ ॥ मीने प्रीति भई जलि नाइ ॥ सतिगुर प्रीति गुरसिख मुखि पाइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ माता प्रीति करे पुतु खाइ ॥ मीने प्रीति भई जलि नाइ ॥ सतिगुर प्रीति गुरसिख मुखि पाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रीति = खुशी (प्रीति = pleasure, प्री = to take delight)। प्रीति करे = खुशी मनाती है। मीने = मछली। जलि = पानी में। नाइ = नहा के। मुखि = मुंह में।1।
अर्थ: (हरेक) माँ खुशी मनाती है जब उसका पुत्र (कोई अच्छी चीज) खाता है। पानी में नहा के मछली को प्रसन्नता होती है। गुरु को खुशी मिलती है, जब कोई मनुष्य किसी गुरसिख के मुंह में (भोजन) डालता है (जब कोई किसी गुरसिख की सेवा करता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते हरि जन हरि मेलहु हम पिआरे ॥ जिन मिलिआ दुख जाहि हमारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ते हरि जन हरि मेलहु हम पिआरे ॥ जिन मिलिआ दुख जाहि हमारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि = हे हरि! हम = मुझे।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! मुझे अपने वह सेवक मिला, जिनके मिलने से मेरे सारे दुख दूर हो जाएं (और मेरे अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो जाए)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिउ मिलि बछरे गऊ प्रीति लगावै ॥ कामनि प्रीति जा पिरु घरि आवै ॥ हरि जन प्रीति जा हरि जसु गावै ॥२॥
मूलम्
जिउ मिलि बछरे गऊ प्रीति लगावै ॥ कामनि प्रीति जा पिरु घरि आवै ॥ हरि जन प्रीति जा हरि जसु गावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = मिल के। बछरे = बछरे को। कामनि = स्त्री। पिरु = पति। घरि = घर में।2।
अर्थ: जैसे (अपने) बछड़े को मिल के गाय खुश होती है, जैसे स्त्री को खुशी होती है जब उसका पति घर आता है। (वैसे ही) परमात्मा के सेवक को तभी खुशी मिलती है जब वह परमात्मा की महिमा गाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारिंग प्रीति बसै जल धारा ॥ नरपति प्रीति माइआ देखि पसारा ॥ हरि जन प्रीति जपै निरंकारा ॥३॥
मूलम्
सारिंग प्रीति बसै जल धारा ॥ नरपति प्रीति माइआ देखि पसारा ॥ हरि जन प्रीति जपै निरंकारा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सारिंग = पपीहे को। जल धारा = पानी की धार, बरखा। नरपति = राजा। देखि = देख के।3।
अर्थ: पपीहे को खुशी होती है जब (स्वाति नछत्र में) मूसले धार वर्षा होती है, माया का फैलाव देख के (किसी) राजे-पातशाह को खुशी मिलती है। (वैसे ही) प्रभु के दास को खुशी होती है जब वह प्रभु का नाम जपता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नर प्राणी प्रीति माइआ धनु खाटे ॥ गुरसिख प्रीति गुरु मिलै गलाटे ॥ जन नानक प्रीति साध पग चाटे ॥४॥३॥४१॥
मूलम्
नर प्राणी प्रीति माइआ धनु खाटे ॥ गुरसिख प्रीति गुरु मिलै गलाटे ॥ जन नानक प्रीति साध पग चाटे ॥४॥३॥४१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नर प्राणी = हरेक मनुष्य को। गुरसिख = गुरु के सिख को। गलाटे = गले लगा के। चाटे = चूमने से।4।
अर्थ: हरेक मनुष्य को खुशी होती है जबवह माया अर्जित करता है धन कमाता है। गुरु के सिख को खुशी (महिसूस) होती है जब उसे उसका गुरु गले लगा के मिलता है। हे नानक! परमात्मा के सेवक को खुशी होती है जबवह किसी गुरमुखि के पैर चूमता है।4।3।41।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ भीखक प्रीति भीख प्रभ पाइ ॥ भूखे प्रीति होवै अंनु खाइ ॥ गुरसिख प्रीति गुर मिलि आघाइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ भीखक प्रीति भीख प्रभ पाइ ॥ भूखे प्रीति होवै अंनु खाइ ॥ गुरसिख प्रीति गुर मिलि आघाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भीखक = भिखारी को। प्रीति = खुशी। भीख प्रभ = किसी गृहस्थी के घर से भिक्षा। पाइ = पा के, ले के। प्रभ = किसी घर के मालिक। खाइ = खा के। गुर मिलि = गुरु को मिल के। आघाए = तृप्त होता है, तृष्णा की ओर से तृप्त होता है।1।
अर्थ: भिखारी को (तब) खुशी होती है (जब उसको किसी घर के) मालिक से भिक्षा मिलती है। भूखे मनुष्य को (तब) खुशी मिलती है (जब वह) अन्न खाता है। (इसी तरह) गुरु के सिख को खुशी होती है जब गुरु को मिल के वह माया की तृष्णा से संतुष्ट होता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि दरसनु देहु हरि आस तुमारी ॥ करि किरपा लोच पूरि हमारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हरि दरसनु देहु हरि आस तुमारी ॥ करि किरपा लोच पूरि हमारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि = हे हरि!। लोच = चाहत, तमन्ना।1। रहाउ।
अर्थ: हे हरि! कृपा कर। मेरी तमन्ना पूरी कर, और मुझे दर्शन दे (जीवन के कठिन राह में मुझे) तेरी ही (सहायता की) उम्मीद है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चकवी प्रीति सूरजु मुखि लागै ॥ मिलै पिआरे सभ दुख तिआगै ॥ गुरसिख प्रीति गुरू मुखि लागै ॥२॥
मूलम्
चकवी प्रीति सूरजु मुखि लागै ॥ मिलै पिआरे सभ दुख तिआगै ॥ गुरसिख प्रीति गुरू मुखि लागै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि लागै = मूंह लगता है, दिखाई देता है।2।
अर्थ: चकवी को खुशी होती है जब उसे सूरज दिखता है (क्योंकि सूरज के चढ़ने पर वह अपने) प्यारे (चकवे) को मिलती है (और विछोड़े के) सारे दुख भुलाती है। गुरसिख को खुशी होती है जब उसे गुरु दिखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बछरे प्रीति खीरु मुखि खाइ ॥ हिरदै बिगसै देखै माइ ॥ गुरसिख प्रीति गुरू मुखि लाइ ॥३॥
मूलम्
बछरे प्रीति खीरु मुखि खाइ ॥ हिरदै बिगसै देखै माइ ॥ गुरसिख प्रीति गुरू मुखि लाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खीरु = दूध। मुखि = मुंह से। बिगसै = खुश होता है, खिलता है। माइ = माँ। मुखि लाइ = देख के।3।
अर्थ: बछड़े को (अपनी माँ का) दूध मुंह से पी के खुशी होती है, वह (अपनी) माँ को देखता है और दिल में प्रसन्न होता है। (इसी तरह) गुरसिख को गुरु का दर्शन करके खुशी होती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होरु सभ प्रीति माइआ मोहु काचा ॥ बिनसि जाइ कूरा कचु पाचा ॥ जन नानक प्रीति त्रिपति गुरु साचा ॥४॥४॥४२॥
मूलम्
होरु सभ प्रीति माइआ मोहु काचा ॥ बिनसि जाइ कूरा कचु पाचा ॥ जन नानक प्रीति त्रिपति गुरु साचा ॥४॥४॥४२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काचा = कच्चा, जल्दी नाश होने वाला। कूरा = कूड़ा, कचरा, झूठा। कचुपाचा = काँच की तरह दिखावा ही। त्रिपति = संतोष, तृप्ति।4।
अर्थ: (गुरु परमात्मा के बिना) और मोह कच्चा है माया की प्रीति सारी नाशवान है। और मोह नाश हो जाते हैं, झूठे हैं, निरे काँच से कच्चे हैं। हे दास नानक! जिसे सच्चा गुरु मिलता है उसे (असल) खुशी होती है (क्योंकि उसे गुरु के मिलने से) संतोष प्राप्त होता है।4।4।42।
[[0165]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ सतिगुर सेवा सफल है बणी ॥ जितु मिलि हरि नामु धिआइआ हरि धणी ॥ जिन हरि जपिआ तिन पीछै छूटी घणी ॥१॥
मूलम्
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ सतिगुर सेवा सफल है बणी ॥ जितु मिलि हरि नामु धिआइआ हरि धणी ॥ जिन हरि जपिआ तिन पीछै छूटी घणी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सफल = फल देने वाली। जितु = जिस के द्वारा। धणी = मालिक। छूटी = विकारों से बच गई। घणी = बहुत (दुनिया)।1।
अर्थ: सतिगुरु की शरण (मनुष्य के आत्मिक जीवन के वास्ते) लाभदायक बन जाती है, क्योंकि इस (गुरु शरण) के द्वारा (साधु-संगत में) मिल के मालिक प्रभु का नाम स्मरण किया जा सकता है। जिस मनुष्यों ने (गुरु की शरण पड़ के) परमात्मा का नाम जपा है उनके रास्ते पर चल के बहुत सी दुनिया विकारों से बच जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरसिख हरि बोलहु मेरे भाई ॥ हरि बोलत सभ पाप लहि जाई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरसिख हरि बोलहु मेरे भाई ॥ हरि बोलत सभ पाप लहि जाई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बोतल = सिमरियां।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाई! गुरु के सिख बन के (गुरु के बताए राह पर चल के) परमात्मा का स्मरण करो। (तभी) प्रभु का नाम स्मरण करने से हरेक किस्म के पाप (मन से) दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब गुरु मिलिआ तब मनु वसि आइआ ॥ धावत पंच रहे हरि धिआइआ ॥ अनदिनु नगरी हरि गुण गाइआ ॥२॥
मूलम्
जब गुरु मिलिआ तब मनु वसि आइआ ॥ धावत पंच रहे हरि धिआइआ ॥ अनदिनु नगरी हरि गुण गाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वसि = वश में। धावत = दौड़ते, भटकते। पंच = पाँचों ज्ञानेंद्रियां। रहे = रह गए, हट गए। अनदिनु = हर रोज। नगरी = नगर के मालिक जीव ने।2।
अर्थ: जब (मनुष्य को) गुरु मिल जाता है तब (इस का) मन वश में आ जाता है (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा का स्मरण करते हुए (मनुष्य ने) पाँचों (ज्ञानेंद्रियां विकारों की तरफ) दौड़ने से हट जाती हैं, और शरीर की मालिक जीवात्मा हर रोज परमात्मा के गुण गाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुर पग धूरि जिना मुखि लाई ॥ तिन कूड़ तिआगे हरि लिव लाई ॥ ते हरि दरगह मुख ऊजल भाई ॥३॥
मूलम्
सतिगुर पग धूरि जिना मुखि लाई ॥ तिन कूड़ तिआगे हरि लिव लाई ॥ ते हरि दरगह मुख ऊजल भाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पग धूरि = पैरों की खाक, चरण धूल। मुखि = मुंह पर, माथे पर। कूड़ = झूठे मोह। मुख ऊजल = उज्जवल मुंह वाले, सही रास्ते वाले। भाई = हे भाई!।3।
अर्थ: जिस (भाग्यशालियों) ने गुरु के चरणों की धूल अपने माथे पर लगा ली, उन्होंने झूठे मोह छोड़ दिए और परमात्मा के चरणों में अपनी तवज्जो जोड़ ली। परमात्मा की हजूरी में वह मनुष्य सही स्वीकार होते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर सेवा आपि हरि भावै ॥ क्रिसनु बलभद्रु गुर पग लगि धिआवै ॥ नानक गुरमुखि हरि आपि तरावै ॥४॥५॥४३॥
मूलम्
गुर सेवा आपि हरि भावै ॥ क्रिसनु बलभद्रु गुर पग लगि धिआवै ॥ नानक गुरमुखि हरि आपि तरावै ॥४॥५॥४३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भावै = पसंद आती है। लगि = लग के। धिआवै = ध्याता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। तरावै = पार लंघाता है।4।
अर्थ: गुरु की शरण (पड़ना) परमात्मा को भी अच्छा लगता है। कृष्ण (भी) गुरु के चरण लग के परमात्मा को स्मरण करता रहा। बलभद्र भी गुरु के चरण लग के हरि-नाम ध्याता रहा। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है उसे परमात्मा खुद (विकारों के संसार समुंदर से) पार लंघा लेता है।4।5।43।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ हरि आपे जोगी डंडाधारी ॥ हरि आपे रवि रहिआ बनवारी ॥ हरि आपे तपु तापै लाइ तारी ॥१॥
मूलम्
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ हरि आपे जोगी डंडाधारी ॥ हरि आपे रवि रहिआ बनवारी ॥ हरि आपे तपु तापै लाइ तारी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। डंडाधारी = हाथ में डण्डा रखने वाला। बनवारी = (वनमाली = जंगल के फूलों की माला पहनने वाला, कृष्ण), परमात्मा। तारी = ताड़ी, समाधि।1।
अर्थ: हाथ में डण्डा रखने वाला जोगी भी परमात्मा खुद ही है क्योंकि वह हरि परमात्मा स्वयं ही (हर जगह) व्यापक है (तपियों में व्यापक हो के) हरि खुद ही ताड़ी लगा के तप-साधना कर रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसा मेरा रामु रहिआ भरपूरि ॥ निकटि वसै नाही हरि दूरि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ऐसा मेरा रामु रहिआ भरपूरि ॥ निकटि वसै नाही हरि दूरि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरपूरि = व्यापक, हर जगह मौजूद। निकटि = नजदीक।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा राम ऐसा है कि वह हर जगह मौजूद है। वह (हरेक जीव के) नजदीक बसता है (किसी भी जगह से) वह हरि दूर नहीं है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि आपे सबदु सुरति धुनि आपे ॥ हरि आपे वेखै विगसै आपे ॥ हरि आपि जपाइ आपे हरि जापे ॥२॥
मूलम्
हरि आपे सबदु सुरति धुनि आपे ॥ हरि आपे वेखै विगसै आपे ॥ हरि आपि जपाइ आपे हरि जापे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुनि = लगन। विगसै = खिलता है, खुश होता है। जापे = जपता है।2।
अर्थ: परमात्मा खुद ही शब्द है खुद ही ध्यान है और खुद ही लगन है। परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों में बैठ के जगत-तमाशा) देख रहा है (और, स्वयं ही ये तमाशा देख के) खुश हो रहा है। परमात्मा स्वयं ही (सब में बैठ के अपना नाम) जप रहा है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि आपे सारिंग अम्रितधारा ॥ हरि अम्रितु आपि पीआवणहारा ॥ हरि आपि करे आपे निसतारा ॥३॥
मूलम्
हरि आपे सारिंग अम्रितधारा ॥ हरि अम्रितु आपि पीआवणहारा ॥ हरि आपि करे आपे निसतारा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सारंगि = पपीहा। करे = (जीवों को पैदा) करता है। निस्तारा = पार उतारा।3।
अर्थ: परमात्मा खुद ही पपीहा है (और खुद ही उस पपीहे के लिए) बरखा की धार है। परमात्मा स्वयं ही आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस है, और स्वयं ही वह (जीवों को अमृत) पिलाने वाला है। प्रभु स्वयं ही (जगत के जीवों को) पैदा करता है और स्वयं ही (जीवों को संसार समुंदर से) पार लंघाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि आपे बेड़ी तुलहा तारा ॥ हरि आपे गुरमती निसतारा ॥ हरि आपे नानक पावै पारा ॥४॥६॥४४॥
मूलम्
हरि आपे बेड़ी तुलहा तारा ॥ हरि आपे गुरमती निसतारा ॥ हरि आपे नानक पावै पारा ॥४॥६॥४४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुलहा = नदी पार लांघने के लिए लकड़ी का बंधा हुआ गट्ठा। तारा = तैराने वाला, पार लंघाने वाला। पावै पारा = पार लंघाता है।4।
अर्थ: परमात्मा स्वयं (जीवों के संसार समुंदर से पार लंघने के लिए) बेड़ी है तुलहा है (पतवार है) और स्वयं ही पार लंघाने वाला है। प्रभु खुद ही गुरु की मति पर चला के विकारों से बचाता है। हे नानक! परमात्मा स्वयं ही संसार समुंदर से पार लंघाता है।4।6।44।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ साहु हमारा तूं धणी जैसी तूं रासि देहि तैसी हम लेहि ॥ हरि नामु वणंजह रंग सिउ जे आपि दइआलु होइ देहि ॥१॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ साहु हमारा तूं धणी जैसी तूं रासि देहि तैसी हम लेहि ॥ हरि नामु वणंजह रंग सिउ जे आपि दइआलु होइ देहि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धणी = मालिक। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। तूं देहि = तू देता है। लेहि = लेते हैं। वणंजह = हम जीव व्यापार करते हैं। रंग सिउ = प्रेम से।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू हमारा शाह है तू हमारा मालिक है। तू हमें जैसी राशि देता है वैसी संपत्ति हम ले लेते हैं। अगर तू स्वयं मेहरवान हो के (हमें अपने नाम की संपत्ति) दे तो हम प्यार से तेरे नाम का व्यापार करने लग जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम वणजारे राम के ॥ हरि वणजु करावै दे रासि रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हम वणजारे राम के ॥ हरि वणजु करावै दे रासि रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वणजारे = वणज करने वाले, व्यापारी। रे = हे भाई!।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! हम जीव परमात्मा (शाहूकार) के (भेजे हुए) व्यापारी हैं। वह शाह (अपने नाम की) राशि (संपत्ति, धन-दौलत) दे के (हम जीवों से) व्यापार करवाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाहा हरि भगति धनु खटिआ हरि सचे साह मनि भाइआ ॥ हरि जपि हरि वखरु लदिआ जमु जागाती नेड़ि न आइआ ॥२॥
मूलम्
लाहा हरि भगति धनु खटिआ हरि सचे साह मनि भाइआ ॥ हरि जपि हरि वखरु लदिआ जमु जागाती नेड़ि न आइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाहा = लाभ, नफा। मनि = मन में। भाइआ = प्यारा लगा। जागाती = मसूलीआ।2।
अर्थ: (जिस जीव वणजारे ने) परमात्मा की भक्ति की कमाई कमायी है परमात्मा का नाम-धन कमाया है, वह उस सदा कायम रहने वाले शाह प्रभु का प्यारा लगता है। (जिस जीव व्यापारी ने) परमात्मा का नाम जप के परमात्मा के नाम का सौदा फैलाया है, जम- मसूलिया उसके नजदीक भी नहीं फटकता।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
होरु वणजु करहि वापारीए अनंत तरंगी दुखु माइआ ॥ ओइ जेहै वणजि हरि लाइआ फलु तेहा तिन पाइआ ॥३॥
मूलम्
होरु वणजु करहि वापारीए अनंत तरंगी दुखु माइआ ॥ ओइ जेहै वणजि हरि लाइआ फलु तेहा तिन पाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनंत तरंगी = अनेक लहरों में फंस के। जेहै वणजि = जिस तरह के व्यापार में।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओहि’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: पर जो जीव वणजारे (प्रभु नाम के बिना) और ही वणज करते हैं, वे माया के मोह की बेअंत लहरों में फंस के दुख सहते हैं। (उनके भी क्या वश?) जिस तरह के व्यापार में परमात्मा ने उन्हें लगा दिया है, वैसा ही फल उन्होंने पा लिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि वणजु सो जनु करे जिसु क्रिपालु होइ प्रभु देई ॥ जन नानक साहु हरि सेविआ फिरि लेखा मूलि न लेई ॥४॥१॥७॥४५॥
मूलम्
हरि हरि वणजु सो जनु करे जिसु क्रिपालु होइ प्रभु देई ॥ जन नानक साहु हरि सेविआ फिरि लेखा मूलि न लेई ॥४॥१॥७॥४५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देई = देता है।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘देहि’ और ‘देइ’ का अंतर ध्यान रखने योग्य है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: परमात्मा के नाम का व्यापार वही मनुष्य करता है जिसे परमात्मा स्वयं मेहरवान हो के देता है। हे दास नानक! जिस मनुष्य ने (सबके) शाह परमात्मा की सेवा-भक्ति की है, उससे वह शाह-प्रभु कभी भी (उसके वणज-व्यापार का) लेखा नहीं मांगता।4।1।7।45।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ जिउ जननी गरभु पालती सुत की करि आसा ॥ वडा होइ धनु खाटि देइ करि भोग बिलासा ॥ तिउ हरि जन प्रीति हरि राखदा दे आपि हथासा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ जिउ जननी गरभु पालती सुत की करि आसा ॥ वडा होइ धनु खाटि देइ करि भोग बिलासा ॥ तिउ हरि जन प्रीति हरि राखदा दे आपि हथासा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जननी = पैदा करने वाली, माँ। गरभु = कोख। पालती = पालती है, संभाल के रखती है। सुत = पुत्र। होइ = हो के। खाटि = कमाई करके। देइ = देता है, देगा। करि भोग बिलासा = सुख आनंद लेने के लिए। हरिजन प्रीति = भक्त की प्रीति। राखदा = कायम रखता है। हथासा = हाथ, हाथ का आसरा।1।
अर्थ: जैसे कोई माँ पुत्र (पैदा करने) की आशारख के (नौ महीने अपनी) कोख में पालती है (वह उम्मीद करती है कि मेरा पुत्र) बड़ा हो के धन कमा के हमारे सुख-आनंद के लिए हमें (ला के) देगा। इसी तरह परमात्मा अपने सेवकों की प्रीति को स्वयं अपना हाथ दे कर कायम रखता है।1।
[[0166]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे राम मै मूरख हरि राखु मेरे गुसईआ ॥ जन की उपमा तुझहि वडईआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे राम मै मूरख हरि राखु मेरे गुसईआ ॥ जन की उपमा तुझहि वडईआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै मूरख = मुझ मूर्ख को। गुसईआ = हे गुसाई! हे मालिक! उपमा = बड़ाई, इज्जत।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! हे मेरे मालिक! हे हरि! मुझ मूर्ख को (अपनी शरण में) रख। तेरे सेवक का आदर तेरा ही आदर है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंदरि घरि आनंदु हरि हरि जसु मनि भावै ॥ सभ रस मीठे मुखि लगहि जा हरि गुण गावै ॥ हरि जनु परवारु सधारु है इकीह कुली सभु जगतु छडावै ॥२॥
मूलम्
मंदरि घरि आनंदु हरि हरि जसु मनि भावै ॥ सभ रस मीठे मुखि लगहि जा हरि गुण गावै ॥ हरि जनु परवारु सधारु है इकीह कुली सभु जगतु छडावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंदरि = मंदिर में। घरि = घर में। मनि = मन मे। मुखि = मुंह में। जा = जब। सधारु = (संधु = to support) सहारा। परवारु = (परि वार = a scabbard a sheath) रक्षक।2।
अर्थ: जिस मनुष्य को अपने मन में परमात्मा की महिमा अच्छी लगती है, उसके हृदय मंदिर में, हृदय घर में सदा आनंद बना रहता है। जब वह हरि के गुण गाता है (उसे ऐसे प्रतीत होता है जैसे) सारे स्वादिष्ट मीठे रस उसके मुंह में पड़ रहे हैं। परमात्मा का सेवक-भक्त अपने 21 कुलों का रक्षक है आसरा है। परमात्मा का सेवक सारे जगत को ही (विकारों से) बचा लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो किछु कीआ सो हरि कीआ हरि की वडिआई ॥ हरि जीअ तेरे तूं वरतदा हरि पूज कराई ॥ हरि भगति भंडार लहाइदा आपे वरताई ॥३॥
मूलम्
जो किछु कीआ सो हरि कीआ हरि की वडिआई ॥ हरि जीअ तेरे तूं वरतदा हरि पूज कराई ॥ हरि भगति भंडार लहाइदा आपे वरताई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = सारे जीव। भंडार = खजाने। लहाइदा = दिलाता, मिलाता। वरताई = बाँटता।3।
अर्थ: ये सारा जगत जो दिखाई देता है ये सारा परमात्मा ने ही पैदा किया है, ये सारा उसी का ही महान काम है। हे हरि! (सारे जगत के जीव) तेरे ही पैदा किए हुये हैं। (सब जीवों में) एक तू ही मौजूद है। (हे भाई! सब जीवों से) परमात्मा (स्वयं ही अपनी पूजा-भक्ति) करवा रहा है। परमात्मा स्वयं ही अपनी भक्ति के खजाने (सब जीवों को) दिलवाता है, स्वयं ही बाँटता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लाला हाटि विहाझिआ किआ तिसु चतुराई ॥ जे राजि बहाले ता हरि गुलामु घासी कउ हरि नामु कढाई ॥ जनु नानकु हरि का दासु है हरि की वडिआई ॥४॥२॥८॥४६॥
मूलम्
लाला हाटि विहाझिआ किआ तिसु चतुराई ॥ जे राजि बहाले ता हरि गुलामु घासी कउ हरि नामु कढाई ॥ जनु नानकु हरि का दासु है हरि की वडिआई ॥४॥२॥८॥४६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाला = गुलाम। हाटि = दुकान से, मंडी से। विहाझिआ = खरीका हुआ। राजि = राज पर, तख्त पर। घासी = घसियारा। कढाई = मुंह से निकलवाता है, जपाता है।4।
अर्थ: अगर कोई गुलाम मंडी में से खरीदा गया हो, उस (गुलाम) की (अपने मालिक के सामने) कोई चालाकी नहीं चल सकती (परमात्मा का सेवक-भक्त सत्संग की दुकान में से परमात्मा का अपना बनाया हुआ होता है, उस सेवक को) अगर परमात्मा राज-तख्त पर बैठा दे, तो भी वह परमात्मा का गुलाम ही रहता है। (अपने बनाए हुये सेवक) घसियारे के मुंह से भी परमात्मा हरि-नाम ही जपाता है।
(हे भाई!) दास नानक परमात्मा का (खरीदा हुआ) गुलाम है। ये परमात्मा की मेहर है (कि उसने नानक को अपना गुलाम बनाया हुआ है)।4।2।8।46।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ किरसाणी किरसाणु करे लोचै जीउ लाइ ॥ हलु जोतै उदमु करे मेरा पुतु धी खाइ ॥ तिउ हरि जनु हरि हरि जपु करे हरि अंति छडाइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी गुआरेरी महला ४ ॥ किरसाणी किरसाणु करे लोचै जीउ लाइ ॥ हलु जोतै उदमु करे मेरा पुतु धी खाइ ॥ तिउ हरि जनु हरि हरि जपु करे हरि अंति छडाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरसाणी = खेती का काम। लोचै = उम्मीद करता है। जीउ लाइ = जी लगा के, मेहनत से। जोतै = जोतता है। अंति = अंत में।1।
अर्थ: किसान खेती का काम जी लगा के (पूरी मेहनत से) करता है। हल चलाता है, उद्यम करता है और चाह रखता है (कि फसल अच्छी हो, ता कि) मेरा पुत्र मेरी बेटी खाए। इसी तरह परमात्मा का दास परमात्मा के नाम का जाप करता है (जिसका नतीजा ये निकलता है कि) अंत समय (जब और कोई साथी नहीं रह जाता) परमात्मा उसे (मोह आदि के पंजे से) छुड़ाता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै मूरख की गति कीजै मेरे राम ॥ गुर सतिगुर सेवा हरि लाइ हम काम ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मै मूरख की गति कीजै मेरे राम ॥ गुर सतिगुर सेवा हरि लाइ हम काम ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गति = मुक्ति, ऊँची आत्मिक अवस्था।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! मुझ मूर्ख को ऊँची आत्मिक अवस्था बख्श। मुझे गुरु की सेवा के काम में जोड़।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लै तुरे सउदागरी सउदागरु धावै ॥ धनु खटै आसा करै माइआ मोहु वधावै ॥ तिउ हरि जनु हरि हरि बोलता हरि बोलि सुखु पावै ॥२॥
मूलम्
लै तुरे सउदागरी सउदागरु धावै ॥ धनु खटै आसा करै माइआ मोहु वधावै ॥ तिउ हरि जनु हरि हरि बोलता हरि बोलि सुखु पावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुरे = घोड़े। धावै = दौड़ता है, जाता है। बोलि = बोल के।2।
अर्थ: सौदागर सौदागरी करने के लिए चल पड़ता है (सौदागरी में वह) धन कमाता है (और धन की) उम्मीद करता है (ज्यों ज्यों कमाई करता है त्यों त्यों) माया का मोह बढ़ता जाता है। इसी तरह परमात्मा का दास परमात्मा का नाम स्मरण करता है। नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक आनंद लेता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिखु संचै हटवाणीआ बहि हाटि कमाइ ॥ मोह झूठु पसारा झूठ का झूठे लपटाइ ॥ तिउ हरि जनि हरि धनु संचिआ हरि खरचु लै जाइ ॥३॥
मूलम्
बिखु संचै हटवाणीआ बहि हाटि कमाइ ॥ मोह झूठु पसारा झूठ का झूठे लपटाइ ॥ तिउ हरि जनि हरि धनु संचिआ हरि खरचु लै जाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिखु = (माया) जहर। संचै = संचित करता है, इकट्ठा करता है। हाटि = दुकान में। हरि जनि = हरि के जन ने।3।
अर्थ: दुकानदार दुकान में बैठ के दुकान का काम करता है और (माया) एकत्र करता है (जो उसके आत्मिक जीवन के वास्ते) जहर (का काम करती जाती) है (क्योंकि ये तो निरा) मोह का झूठा फैलाव है, झूठ का पसारा है (ज्यों ज्यों इसमें ज्यादा खचित होता जाता है त्यों त्यों) इस नाशवान के मोह में फंसता जाता है। इसी तरह परमात्मा के दास ने (भी) धन एकत्र किया होता है पर वह हरि-नाम का धन है। ये नाम धन वह अपनी जिंदगी के सफर वास्ते खर्च (के तौर पर) ले जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु माइआ मोह कुट्मबु है भाइ दूजै फास ॥ गुरमती सो जनु तरै जो दासनि दास ॥ जनि नानकि नामु धिआइआ गुरमुखि परगास ॥४॥३॥९॥४७॥
मूलम्
इहु माइआ मोह कुट्मबु है भाइ दूजै फास ॥ गुरमती सो जनु तरै जो दासनि दास ॥ जनि नानकि नामु धिआइआ गुरमुखि परगास ॥४॥३॥९॥४७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुटंबु = परिवार, खिलारा। भाइ दूजै = माया के मोह में, और-और प्यार में। फास = फांसी। जनि नानकि = दास नानक ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। परगास = आत्मिक प्रकाश।4।
अर्थ: माया के मोह का ये फैलाव (तो) माया के मोह में फसाने वाली फांसी है। इस में से वही मनुष्य पार लांघता है, जो गुरु की मति ले के परमात्मा के दासों का दास बनता है। दास नानक ने (भी) गुरु की शरण पड़ के (आत्मिक जीवन के वास्ते) प्रकाश हासिल करके परमात्मा का नाम स्मरण किया है।4।3।9।47।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ नित दिनसु राति लालचु करे भरमै भरमाइआ ॥ वेगारि फिरै वेगारीआ सिरि भारु उठाइआ ॥ जो गुर की जनु सेवा करे सो घर कै कमि हरि लाइआ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ नित दिनसु राति लालचु करे भरमै भरमाइआ ॥ वेगारि फिरै वेगारीआ सिरि भारु उठाइआ ॥ जो गुर की जनु सेवा करे सो घर कै कमि हरि लाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमै = भटकता है। सिरि = सिर पर। घर कै कंमि = घर के काम में, अपने असली काम में।1।
अर्थ: जो मनुष्य सदा दिन रात (माया का) लालच करता रहता है। माया के प्रभाव में आ के माया की खातिर भटकता फिरता है, वह उस वैरागी की तरह है जो अपने सिर पर (बेगाना) भार उठा के बेमतलब में व्यस्त है। पर जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है (गुरु की बताई हुई सेवा करता है) उसे परमात्मा ने (नाम स्मरण के) उस काम में लगा दिया है जो उसका असलियत में अपना काम है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे राम तोड़ि बंधन माइआ घर कै कमि लाइ ॥ नित हरि गुण गावह हरि नामि समाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे राम तोड़ि बंधन माइआ घर कै कमि लाइ ॥ नित हरि गुण गावह हरि नामि समाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गावह = हम गाएं। नामि = नाम में। समाइ = लीन हो के।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! (हम जीवों के) माया के बंधन तोड़ और हमें हमारे असली काम में जोड़। हम हरि-नाम में लीन हो के सदा हरि गुण गाते रहें।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरु प्राणी चाकरी करे नरपति राजे अरथि सभ माइआ ॥ कै बंधै कै डानि लेइ कै नरपति मरि जाइआ ॥ धंनु धनु सेवा सफल सतिगुरू की जितु हरि हरि नामु जपि हरि सुखु पाइआ ॥२॥
मूलम्
नरु प्राणी चाकरी करे नरपति राजे अरथि सभ माइआ ॥ कै बंधै कै डानि लेइ कै नरपति मरि जाइआ ॥ धंनु धनु सेवा सफल सतिगुरू की जितु हरि हरि नामु जपि हरि सुखु पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नरपति = राजा। अरथि = अर्थ, खातर, वास्ते। कै = या। बंधै = बांध लेता है। डानि = दण्ड, जुर्माना। लेइ = लेता है। जितु = जिस (सेवा) से।2।
अर्थ: सिर्फ माया की खातिर कोई मनुष्य किसी राजे-बादशाह की नौकरी करता है। राजा कई बार (किसी खुनामी के कारण उसे) कैद कर देता है या (कोई जुर्माना आदि) सजा देता है, या, राजा (खुद ही) मर जाता है (तो उस मनुष्य की नौकरी ही खत्म हो जाती है)। पर सत्गुरू की सेवा सदा फल देने वाली है सदा सलाहने योग्य है, क्योंकि इस सेवा से मनुष्य परमात्मा का नाम जप के आत्मिक आनंद पाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित सउदा सूदु कीचै बहु भाति करि माइआ कै ताई ॥ जा लाहा देइ ता सुखु मने तोटै मरि जाई ॥ जो गुण साझी गुर सिउ करे नित नित सुखु पाई ॥३॥
मूलम्
नित सउदा सूदु कीचै बहु भाति करि माइआ कै ताई ॥ जा लाहा देइ ता सुखु मने तोटै मरि जाई ॥ जो गुण साझी गुर सिउ करे नित नित सुखु पाई ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीचै = करते हैं। भाति = भांति, किस्म। कै ताई = की खातिर, वास्ते। जा = जब। मने = मन में।3।
अर्थ: माया कमाने की खातिर कई तरह का सदा वणज-व्यवहार भी करते हैं। जब (वणज-व्यापार) नफा देता है तो मन में खुशी होती है, पर घाटा पड़ने पर मनुष्य (सदमे से) मर जाता है। पर, जो मनुष्य अपने गुरु के साथ परमात्मा की महिमा के सौदे की सांझ डालता है, वह सदा ही आत्मिक आनंद लेता है।3।
[[0167]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितनी भूख अन रस साद है तितनी भूख फिरि लागै ॥ जिसु हरि आपि क्रिपा करे सो वेचे सिरु गुर आगै ॥ जन नानक हरि रसि त्रिपतिआ फिरि भूख न लागै ॥४॥४॥१०॥४८॥
मूलम्
जितनी भूख अन रस साद है तितनी भूख फिरि लागै ॥ जिसु हरि आपि क्रिपा करे सो वेचे सिरु गुर आगै ॥ जन नानक हरि रसि त्रिपतिआ फिरि भूख न लागै ॥४॥४॥१०॥४८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भूख अन रस साद = और रसों के स्वादों की भूख। रसि = रस से।4।
अर्थ: और-और रसों की और-और स्वादों की जितनी भी तृष्णा (मनुष्य को लगती) है, (ज्यों ज्यों रसों के स्वाद लेते जाते हैं) उतनी ही तृष्णा बारंबार लगती जाती है। (माया के रसों से मनुष्य कभी भी तृप्त नहीं होता)। जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं कृपा करता है, वह मनुष्य गुरु के आगे (अपना) सिर बेच देता है (वह अपना आप गुरु के हवाले करता है)। हे दास नानक! वह मनुष्य परमात्मा के नाम-रस से तृप्त हो जाता है, उसे माया की तृष्णा नहीं व्यापती।4।4।10।48।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ हमरै मनि चिति हरि आस नित किउ देखा हरि दरसु तुमारा ॥ जिनि प्रीति लाई सो जाणता हमरै मनि चिति हरि बहुतु पिआरा ॥ हउ कुरबानी गुर आपणे जिनि विछुड़िआ मेलिआ मेरा सिरजनहारा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ हमरै मनि चिति हरि आस नित किउ देखा हरि दरसु तुमारा ॥ जिनि प्रीति लाई सो जाणता हमरै मनि चिति हरि बहुतु पिआरा ॥ हउ कुरबानी गुर आपणे जिनि विछुड़िआ मेलिआ मेरा सिरजनहारा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। चिति = चित्त में। हरि = हे हरि! देखा = मैं देखूँ।1।
अर्थ: हे हरि! मेरे मन में चित्त में सदा ये उम्मीद रहती है कि मैं किसी तरह तेरा दर्शन कर सकूँ। (हे भाई!) जिस हरि ने मेरे अंदर अपना प्यार पैदा किया है वही जानता है। मुझे अपने मन में अपने चित्त में हरि बहुत अच्छा लग रहा है। मैं अपने गुरु से सदके जाता हूँ, जिसने मुझे मेरा विछुड़ा हुआ विधाता हरि मिला दिया है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे राम हम पापी सरणि परे हरि दुआरि ॥ मतु निरगुण हम मेलै कबहूं अपुनी किरपा धारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे राम हम पापी सरणि परे हरि दुआरि ॥ मतु निरगुण हम मेलै कबहूं अपुनी किरपा धारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुआरि = दर पर। मतु = शायद।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! मैं पापी तेरी शरण आया हूँ, तेरे दर पर आ गिरा हूँ कि शायद (इस तरह) तू अपनी मेहर करके मुझ गुणहीन को अपने चरणों में जोड़ ले।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरे अवगुण बहुतु बहुतु है बहु बार बार हरि गणत न आवै ॥ तूं गुणवंता हरि हरि दइआलु हरि आपे बखसि लैहि हरि भावै ॥ हम अपराधी राखे गुर संगती उपदेसु दीओ हरि नामु छडावै ॥२॥
मूलम्
हमरे अवगुण बहुतु बहुतु है बहु बार बार हरि गणत न आवै ॥ तूं गुणवंता हरि हरि दइआलु हरि आपे बखसि लैहि हरि भावै ॥ हम अपराधी राखे गुर संगती उपदेसु दीओ हरि नामु छडावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गणत न आवै = गिनती की नहीं जा सकती।2।
अर्थ: हे हरि! मेरे अंदर बेअंत अवगुण हैं, गिने नहीं जा सकते। मैं मुड़ मुड़ के अवगुण करता हूँ। तू गुणों का मालिक है, दया का घर है। जब तेरी रजा होती है तू खुद बख्श लेता है। (हे भाई!) हम जैसे पापियों को हरि गुरु की संगति में रखता है, उपदेश देता है, और उसका नाम विकारों से खलासी कर देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुमरे गुण किआ कहा मेरे सतिगुरा जब गुरु बोलह तब बिसमु होइ जाइ ॥ हम जैसे अपराधी अवरु कोई राखै जैसे हम सतिगुरि राखि लीए छडाइ ॥ तूं गुरु पिता तूंहै गुरु माता तूं गुरु बंधपु मेरा सखा सखाइ ॥३॥
मूलम्
तुमरे गुण किआ कहा मेरे सतिगुरा जब गुरु बोलह तब बिसमु होइ जाइ ॥ हम जैसे अपराधी अवरु कोई राखै जैसे हम सतिगुरि राखि लीए छडाइ ॥ तूं गुरु पिता तूंहै गुरु माता तूं गुरु बंधपु मेरा सखा सखाइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहा = कहूँ। गुरु बोलह = हम ‘गुरु गुरु’ बोलते हैं। बिसमु = आश्चर्यजनक आत्मिक हालत। सतिगुरि = सत्गुरू ने। बंधपु = रिश्तेदार। सखा = मित्र।3।
अर्थ: हे मेरे सत्गुरू! मैं तेरे कौन कौन से गुण बयान करूँ? जब मैं ‘गुरु गुरु’ जपता हूँ, मेरी हालत आश्चर्यजनक अवस्था वाली बन जाती है। हम जैसे पापियों को जैसे सत्गुरू ने रख लिया है (बचा लिया है) (विकारों के पँजे से) छुड़ा लिया है। और कौन (इस तरह) बचा सकता है? हे हरि! तू ही मेरा गुरु है, मेरा पिता है, मेरा रिश्तेदार है, मेरा मित्र है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो हमरी बिधि होती मेरे सतिगुरा सा बिधि तुम हरि जाणहु आपे ॥ हम रुलते फिरते कोई बात न पूछता गुर सतिगुर संगि कीरे हम थापे ॥ धंनु धंनु गुरू नानक जन केरा जितु मिलिऐ चूके सभि सोग संतापे ॥४॥५॥११॥४९॥
मूलम्
जो हमरी बिधि होती मेरे सतिगुरा सा बिधि तुम हरि जाणहु आपे ॥ हम रुलते फिरते कोई बात न पूछता गुर सतिगुर संगि कीरे हम थापे ॥ धंनु धंनु गुरू नानक जन केरा जितु मिलिऐ चूके सभि सोग संतापे ॥४॥५॥११॥४९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिधि = हालत। सा बिधि = वह हालत। कीरे = कीड़े। थापे = स्थापित किया, मनोनीत किया, आदर दिया। केरा = का। सभि = सारे।4।
अर्थ: हे मेरे सत्गुरू! हे मेरे हरि! जो मेरी हालत होती थी, उस हालत को तू खुद ही जानता है। मै यहाँ-वहाँ भटकता फिरता था, मेरी कोई बात नहीं था पूछता, तूने मुझ कीड़े को गुरु सत्गुरू के चरणों में ला के आदर बख्शा। (हे भाई!) दास नानक का गुरु धन्य है। धन्य है जिस (गुरु) को मिल के मेरे सारे शोक समाप्त हो गए मेरे सारे कष्ट दूर हो गए।4।5।11।49।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ कंचन नारी महि जीउ लुभतु है मोहु मीठा माइआ ॥ घर मंदर घोड़े खुसी मनु अन रसि लाइआ ॥ हरि प्रभु चिति न आवई किउ छूटा मेरे हरि राइआ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ कंचन नारी महि जीउ लुभतु है मोहु मीठा माइआ ॥ घर मंदर घोड़े खुसी मनु अन रसि लाइआ ॥ हरि प्रभु चिति न आवई किउ छूटा मेरे हरि राइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कंचन = सोना। जीउ = जिंद, मन। अन रसि = और-और (पदार्थों के) रस में। चिति = चित्त में। छूटा = छूटू, मैं (इस मोह में से) निकलूँ।1।
अर्थ: मेरी जीवात्मा सोने (के मोह) में, स्त्री (के मोह) में फसी हुई है। माया का मोह मुझे मीठा लग रहा है। घर, पक्के महल घोड़े (देख-देख के) मुझे चाव चढ़ता है, मेरा मन और-और पदार्थों के रस में लगा हुआ है। हे मेरे हरि! हे मेरे राजन! (तू) परमात्मा कभी मेरे चित्त में नहीं आता। मैं (इस मोह में से) कैसे निकलूँ?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे राम इह नीच करम हरि मेरे ॥ गुणवंता हरि हरि दइआलु करि किरपा बखसि अवगण सभि मेरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे राम इह नीच करम हरि मेरे ॥ गुणवंता हरि हरि दइआलु करि किरपा बखसि अवगण सभि मेरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = काम। सभि = सारे।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! मेरे हरि! मेरे ये नीच कर्म हैं। पर तू गुणों का मालिक है। तू दया का घर है। मेहर कर और मेरे सारे अवगुण बख्श।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किछु रूपु नही किछु जाति नाही किछु ढंगु न मेरा ॥ किआ मुहु लै बोलह गुण बिहून नामु जपिआ न तेरा ॥ हम पापी संगि गुर उबरे पुंनु सतिगुर केरा ॥२॥
मूलम्
किछु रूपु नही किछु जाति नाही किछु ढंगु न मेरा ॥ किआ मुहु लै बोलह गुण बिहून नामु जपिआ न तेरा ॥ हम पापी संगि गुर उबरे पुंनु सतिगुर केरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ढंगु = तरीका, सलीका। बोलह = हम बोलें। बिहून = बगैर। संगि = संगति में। पुंनु = नेकी। केरा = का।2।
अर्थ: ना मेरा (सुंदर) रूप है, ना मेरी ऊँची जाति है, ना मेरे में कोई निपुणता है। हे प्रभु! मैं गुणों से विहीन हूँ। मैंने तेरा नाम नहीं जपा। मैं कौन सा मुंह ले कर (तेरे सामने) बात करने के लायक हूँ? ये सत्गुरू की मेहर हुई है कि मैं पापी, गुरु की संगति में रह के (पापों से) बच गया हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभु जीउ पिंडु मुखु नकु दीआ वरतण कउ पाणी ॥ अंनु खाणा कपड़ु पैनणु दीआ रस अनि भोगाणी ॥ जिनि दीए सु चिति न आवई पसू हउ करि जाणी ॥३॥
मूलम्
सभु जीउ पिंडु मुखु नकु दीआ वरतण कउ पाणी ॥ अंनु खाणा कपड़ु पैनणु दीआ रस अनि भोगाणी ॥ जिनि दीए सु चिति न आवई पसू हउ करि जाणी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। कउ = वास्ते। अनि = अनेक। जिनि = जिस ने। हउ = मैं।3।
अर्थ: ये जीवात्मा, ये शरीर, ये मुंह ये नाक आदि अंग ये सब कुछ परमात्मा ने मुझे दिया है। पानी (हवा, अग्नि आदि) मुझे उसने बरतने के लिए दिए हैं। उसने मुझे अन्न खाने को दिया है, कपड़ा पहनने को दिया है, और अनेक स्वादिष्ट पदार्थ भोगने को दिए हैं। पर, जिस परमात्मा ने ये सारे पदार्थ दिए हैं, वह मुझे कभी याद भी नहीं आता। मैं (मूर्ख) पशु अपने आप को बड़ा समझता हूँ।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभु कीता तेरा वरतदा तूं अंतरजामी ॥ हम जंत विचारे किआ करह सभु खेलु तुम सुआमी ॥ जन नानकु हाटि विहाझिआ हरि गुलम गुलामी ॥४॥६॥१२॥५०॥
मूलम्
सभु कीता तेरा वरतदा तूं अंतरजामी ॥ हम जंत विचारे किआ करह सभु खेलु तुम सुआमी ॥ जन नानकु हाटि विहाझिआ हरि गुलम गुलामी ॥४॥६॥१२॥५०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करह = करें। तुम = तुम्हारा, तेरा। हाटि = दुकान में से, मण्डी में। गुलम गुलामी = गुलामों का गुलाम।4।
अर्थ: (हे प्रभु! हम जीवों के वश में भी क्या है? जगत में जो कुछ हो रहा है) सब तेरा ही किया हो रहा है, तू हरेक दिल की जानता है। हम तुच्छ जीव (तुझसे बागी हो के) क्या कर सकते हैं? हे स्वामी! ये सारा तेरा ही खेल हो रहा है। (जैसे कोई गुलाम मण्डी से खरीदा जाता है तैसे ही) ये तेरा दास नानक (तेरी साधु-संगत की दुकान में) (तेरे सुंदर नाम से) बिका हुआ है। तेरे गुलामों का गुलाम है।4।6।12।50।
[[0168]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ जिउ जननी सुतु जणि पालती राखै नदरि मझारि ॥ अंतरि बाहरि मुखि दे गिरासु खिनु खिनु पोचारि ॥ तिउ सतिगुरु गुरसिख राखता हरि प्रीति पिआरि ॥१॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ जिउ जननी सुतु जणि पालती राखै नदरि मझारि ॥ अंतरि बाहरि मुखि दे गिरासु खिनु खिनु पोचारि ॥ तिउ सतिगुरु गुरसिख राखता हरि प्रीति पिआरि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जननी = माँ। जणि = जनम दे के। नदरि मझारि = नजर में, निगाह में। मुखि = मुंह में। दे = देती है। गिरासु = ग्रास। पोचारि = पुचकार के, प्यार करके। सिख राखता = सिख को रखता है। पिआरि = प्यार से।1।
अर्थ: जैसे माँ, पुत्र को जनम दे के (उसको) अपनी निगाह के नीचे रखती है और पालती है। (घर में) अंदर बाहर (काम करते हुए भी) छिन छिन प्यार करके (उस पुत्र को) मुंह में ग्रास देती रहती है। इसी तरह गुरु सत्गुरू सिखों को परमात्मा की प्रीति (की आत्मिक खुराक) दे के प्यार से संभालता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे राम हम बारिक हरि प्रभ के है इआणे ॥ धंनु धंनु गुरू गुरु सतिगुरु पाधा जिनि हरि उपदेसु दे कीए सिआणे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे राम हम बारिक हरि प्रभ के है इआणे ॥ धंनु धंनु गुरू गुरु सतिगुरु पाधा जिनि हरि उपदेसु दे कीए सिआणे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राम = हे राम! पाधा = पढ़ाने वाला। जिनि = जिस ने। दे = देकर।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! हे हरि! हे प्रभु! हम तेरे अंजान बच्चे हैं। साबाश है उपदेश दाते गुरु सत्गुरू को, जिसने हरि नाम का उपदेश दे के हमें सुजान बना दिया है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसी गगनि फिरंती ऊडती कपरे बागे वाली ॥ ओह राखै चीतु पीछै बिचि बचरे नित हिरदै सारि समाली ॥ तिउ सतिगुर सिख प्रीति हरि हरि की गुरु सिख रखै जीअ नाली ॥२॥
मूलम्
जैसी गगनि फिरंती ऊडती कपरे बागे वाली ॥ ओह राखै चीतु पीछै बिचि बचरे नित हिरदै सारि समाली ॥ तिउ सतिगुर सिख प्रीति हरि हरि की गुरु सिख रखै जीअ नाली ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गगनि = आकाश में। बागे = गोरे, सफेद। कपरे वाली = कपड़ों वाली, पंखों वाली। बिचि = बीच में। बचरे = छोटे छोटे बच्चे। सारि = संभाल के। जीअ नाली = जीवात्मा के साथ।2।
अर्थ: जैसे सफेद पंखों वाली (कुँज) आसमान में उड़ती फिरती है, पर वह पीछे (रहे हुए अपने) छोटे छोटे बच्चों में अपना चित्त रखती है। सदा उन्हें अपने हृदय में संभालती है। इसी तरह गुरु और सिख की प्रीति है, गुरु अपने सिखों को हरि की प्रीति दे के उन्हें अपनी जिंद के साथ रखता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जैसे काती तीस बतीस है विचि राखै रसना मास रतु केरी ॥ कोई जाणहु मास काती कै किछु हाथि है सभ वसगति है हरि केरी ॥ तिउ संत जना की नर निंदा करहि हरि राखै पैज जन केरी ॥३॥
मूलम्
जैसे काती तीस बतीस है विचि राखै रसना मास रतु केरी ॥ कोई जाणहु मास काती कै किछु हाथि है सभ वसगति है हरि केरी ॥ तिउ संत जना की नर निंदा करहि हरि राखै पैज जन केरी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काती तीस बतीस = तीस बत्तीस दाँतों वाली कैंची। रसना = जीभ। रतु = रक्त, लहू। केरी = की। वसगति = वश में, इख्तियार में। पैज = इज्जत।3।
अर्थ: जैसे तीस-बत्तीस दांतों वाली कैंची है। (उस कैंची) में (परमात्मा) मास और लहू की बनी हुई जीभ को (बचा के) रखता है। कोई मनुष्य समझता रहे कि (बच के रहना या बचा के रखना) मास की जीभ के हाथ में है अथवा (दांतों की) कैंची के वश में है, ये तो परमात्मा के वश में ही है। इस तरह लोग तो संत जनों की निंदा करते है।, पर परमात्मा अपने सेवकों की लज्जा (ही) रखता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भाई मत कोई जाणहु किसी कै किछु हाथि है सभ करे कराइआ ॥ जरा मरा तापु सिरति सापु सभु हरि कै वसि है कोई लागि न सकै बिनु हरि का लाइआ ॥ ऐसा हरि नामु मनि चिति निति धिआवहु जन नानक जो अंती अउसरि लए छडाइआ ॥४॥७॥१३॥५१॥
मूलम्
भाई मत कोई जाणहु किसी कै किछु हाथि है सभ करे कराइआ ॥ जरा मरा तापु सिरति सापु सभु हरि कै वसि है कोई लागि न सकै बिनु हरि का लाइआ ॥ ऐसा हरि नामु मनि चिति निति धिआवहु जन नानक जो अंती अउसरि लए छडाइआ ॥४॥७॥१३॥५१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हाथि = हाथ में। जरा = बुढ़ापा। मरा = मौत। तापु सापु = ताप श्राप, बुखार वगैरा। सिरति = सिर दर्द। मनि = मन में। चिति = चित्त में। अंती अउसरि = आखिरी समय।4।
अर्थ: (हे भाई!) बिलकुल ना कोई समझो कि किसी मनुष्य के वश में कुछ है। ये तो सब कुछ परमात्मा खुद ही करता है, खुद ही कराता है। बुढ़ापा, मौत, सिर दर्द, ताप आदि हरेक (दुख-कष्ट) परमात्मा के वश में है। परमात्मा के लगाए बगैर कोई रोग (किसी जीव को) लग नहीं सकता।
हे दास नानक! जो हरि-नाम आखिरी समय (यम आदि से) छुड़ा लेता है उसे अपने मन में चित्त में सदा स्मरण करते रहो।4।7।13।51।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ जिसु मिलिऐ मनि होइ अनंदु सो सतिगुरु कहीऐ ॥ मन की दुबिधा बिनसि जाइ हरि परम पदु लहीऐ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि महला ४ ॥ जिसु मिलिऐ मनि होइ अनंदु सो सतिगुरु कहीऐ ॥ मन की दुबिधा बिनसि जाइ हरि परम पदु लहीऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। दुबिधा = दुचित्तापन, डावांडोल दशा। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।1।
अर्थ: जिससे मिल के मन में आनंद पैदा हो जाए, मन की डावांडोल हालत खत्म हो जाए, परमात्मा के मिलाप की सबसे श्रेष्ठ आत्मिक अवस्था पैदा हो जाए, उसे ही गुरु कहा जा सकता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरा सतिगुरु पिआरा कितु बिधि मिलै ॥ हउ खिनु खिनु करी नमसकारु मेरा गुरु पूरा किउ मिलै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरा सतिगुरु पिआरा कितु बिधि मिलै ॥ हउ खिनु खिनु करी नमसकारु मेरा गुरु पूरा किउ मिलै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कितु बिधि = किस तरीके से? करी = मैं करता हूँ। किउ = कैसे?।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! बता) मेरा प्यारा गुरु (मुझे) किस तरीके से मिल सकता है? (जो मनुष्य मुझे ये बताए कि) मेरा गुरु मुझे कैसे मिल सकता है (उसके आगे) मैं हर पल नत्मस्तक होता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि किरपा हरि मेलिआ मेरा सतिगुरु पूरा ॥ इछ पुंनी जन केरीआ ले सतिगुर धूरा ॥२॥
मूलम्
करि किरपा हरि मेलिआ मेरा सतिगुरु पूरा ॥ इछ पुंनी जन केरीआ ले सतिगुर धूरा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = करके। पुंनी = पूरी हो गई। केरीआ = की। ले = ले कर।2।
अर्थ: परमात्मा ने कृपा करके जिस मनुष्य को मेरा पूरा गुरु मिला दिया, गुरु के चरणों की धूल हासिल करके उस मनुष्य की (हरेक किस्म की) इच्छा पूरी हो जाती है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि भगति द्रिड़ावै हरि भगति सुणै तिसु सतिगुर मिलीऐ ॥ तोटा मूलि न आवई हरि लाभु निति द्रिड़ीऐ ॥३॥
मूलम्
हरि भगति द्रिड़ावै हरि भगति सुणै तिसु सतिगुर मिलीऐ ॥ तोटा मूलि न आवई हरि लाभु निति द्रिड़ीऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: द्रिड़ावै = दृढ़ाए, (हृदय में) पक्की कर देता है। तोटा = घाटा। मूलि न = बिल्कुल नहीं। आवई = आए, आता।3।
अर्थ: (हे भाई!) उस गुरु को मिलना चाहिए जो (मनुष्य के हृदय में) परमात्मा की भक्ति पक्की तरह बैठा देता है (जिसे मिल के मनुष्य) परमात्मा की महिमा (शौक से) सुनता है। (जिसे मिल के मनुष्य) परमात्मा के नाम धन की कमाई सदा कमाता है (और इस कमाई में) कभी घाटा नहीं पड़ता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस कउ रिदै विगासु है भाउ दूजा नाही ॥ नानक तिसु गुर मिलि उधरै हरि गुण गावाही ॥४॥८॥१४॥५२॥
मूलम्
जिस कउ रिदै विगासु है भाउ दूजा नाही ॥ नानक तिसु गुर मिलि उधरै हरि गुण गावाही ॥४॥८॥१४॥५२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = हृदय का। विगासु = खिड़ाव, पुल्कित होना। भाउ दूजा = प्रभु के बिना किसी और का मोह। गुर मिलि = गुरु को मिल के। उधरै = (विकारों) बच जाता है, उबर जाता है। गावाही = गाते हैं।4।
अर्थ: हे नानक! जिस गुरु को (धुर से ही प्रभु द्वारा) हृदय की प्रसन्नता (पुल्कित हृदय) मिला हुआ है, (जिसके अंदर) परमात्मा के बिना कोई और मोह नहीं, उस गुरु को मिल के मनुष्य (विकारों से) बच निकलता है। (उस गुरु को मिल के मनुष्य) ईश्वर के गुण गाते हैं।4।8।14।52।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महला ४ गउड़ी पूरबी ॥ हरि दइआलि दइआ प्रभि कीनी मेरै मनि तनि मुखि हरि बोली ॥ गुरमुखि रंगु भइआ अति गूड़ा हरि रंगि भीनी मेरी चोली ॥१॥
मूलम्
महला ४ गउड़ी पूरबी ॥ हरि दइआलि दइआ प्रभि कीनी मेरै मनि तनि मुखि हरि बोली ॥ गुरमुखि रंगु भइआ अति गूड़ा हरि रंगि भीनी मेरी चोली ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआलि = दइआल ने। प्रभि = प्रभु ने। मनि = मन में। तनि = तन में। मुखि = मुख में। हरि बोली = हरि की उपमा की वाणी। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। रंगि = रंग में। भीनी = भीग गई।1।
अर्थ: दयाल हरि प्रभु ने मेरे ऊपर मेहर की और उसने मेरे मन में मेरे तन में मेरे मुंह में अपनी महिमा की वाणी रख दी। मेरे हृदय की चोली (भाव, मेरा हृदय) प्रभु-नाम रंग में भीग गई। गुरु की शरण पड़ कर वह रंग बहुत गाढ़ा हो गया।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपुने हरि प्रभ की हउ गोली ॥ जब हम हरि सेती मनु मानिआ करि दीनो जगतु सभु गोल अमोली ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अपुने हरि प्रभ की हउ गोली ॥ जब हम हरि सेती मनु मानिआ करि दीनो जगतु सभु गोल अमोली ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। गोली = दासी। सेती = नाल। गोल = गोला, सेवक। अमोली = बगैर मूल्य चुकाए।1। रहाउ।
अर्थ: मैं अपने हरि प्रभु की दासी (बन गई) हूँ। जब मेरा मन परमात्मा (की याद में) भीग गया। परमात्मा ने सारे जगत को मेरा बे-मूल्य दास बना दिया।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करहु बिबेकु संत जन भाई खोजि हिरदै देखि ढंढोली ॥ हरि हरि रूपु सभ जोति सबाई हरि निकटि वसै हरि कोली ॥२॥
मूलम्
करहु बिबेकु संत जन भाई खोजि हिरदै देखि ढंढोली ॥ हरि हरि रूपु सभ जोति सबाई हरि निकटि वसै हरि कोली ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिबेकु = परख। खोजि = खोज के। देखि = देख के। ढंढोली = ढूंढ के। सबाई = सारी सृष्टि में। निकटि = नजदीक। कोली = पास, नजदीक।2।
अर्थ: हे संत जन भाईयो! तुम अपने हृदय नें खोज के देख के विचार करो (तूम्हें ये बात स्पष्ट दिखाई देगी कि ये सारा जगत) परमात्मा का ही रूप है। सारी सृष्टि में ईश्वर की ही ज्योति बस रही है। परमात्मा हरेक जीव के नजदीक बसता है, पास बसता है।2।
[[0169]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि निकटि वसै सभ जग कै अपर्मपर पुरखु अतोली ॥ हरि हरि प्रगटु कीओ गुरि पूरै सिरु वेचिओ गुर पहि मोली ॥३॥
मूलम्
हरि हरि निकटि वसै सभ जग कै अपर्मपर पुरखु अतोली ॥ हरि हरि प्रगटु कीओ गुरि पूरै सिरु वेचिओ गुर पहि मोली ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अपरंपर = परे से परे। गुरि = गुरु ने। मोली = मुल्य से।3।
अर्थ: वह परमात्मा जो परे से परे है जो सर्व व्यापक है। जिसके गुणों का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, सारे जगत के नजदीक बस रहा है। उस परमात्मा को पूरे गुरु ने मेरे अंदर प्रगट किया है, (इस वास्ते) मैंने अपना सिर गुरु के पास मोल में बेच दिया है (भाव, अपना कोई हक दावा नहीं रखा जैसे मूल्य लेकर बेची किसी चीज पर कोई हक नहीं रह जाता)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जी अंतरि बाहरि तुम सरणागति तुम वड पुरख वडोली ॥ जनु नानकु अनदिनु हरि गुण गावै मिलि सतिगुर गुर वेचोली ॥४॥१॥१५॥५३॥
मूलम्
हरि जी अंतरि बाहरि तुम सरणागति तुम वड पुरख वडोली ॥ जनु नानकु अनदिनु हरि गुण गावै मिलि सतिगुर गुर वेचोली ॥४॥१॥१५॥५३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुम सरणागति = तेरी शरण आया हूँ। वडोली = बड़ा। अनदिनु = हर रोज। वैचोली = वकील, बिचोला।4।
अर्थ: हे हरि! (सारे जगत में सब जीवों के) अंदर-बाहर तू बस रहा है। मैं तेरी शरण आया हूँ। मेरे वास्ते तू ही सबसे बड़ा मालिक है। दास नानक, गुरु विचोले को मिल के हर रोज हरि के गुण गाता है।4।1।15।531
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ जगजीवन अपर्मपर सुआमी जगदीसुर पुरख बिधाते ॥ जितु मारगि तुम प्रेरहु सुआमी तितु मारगि हम जाते ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ जगजीवन अपर्मपर सुआमी जगदीसुर पुरख बिधाते ॥ जितु मारगि तुम प्रेरहु सुआमी तितु मारगि हम जाते ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगजीवन = हे जगत के जीवन। अपरंपर = परे से परे। जगदीसुर = (जगत्+ईश्वर) हे जगत के ईश्वर। बिधाते = हे सृजणहार! जितु = जिस में। मारगि = रास्ते में। जितु मारगि = जिस राह पर।1।
अर्थ: हे जगत के जीवन प्रभु! हे बेअंत प्रभु! हे सवामी! हे जगत के ईश्वर! हे सर्व-व्यापक! हे सुजनहार! हम जीवों को तू जिस रास्ते पर (चलने के लिए) प्रेरित करता है, हम उसी रास्ते पर ही चलते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम मेरा मनु हरि सेती राते ॥ सतसंगति मिलि राम रसु पाइआ हरि रामै नामि समाते ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम मेरा मनु हरि सेती राते ॥ सतसंगति मिलि राम रसु पाइआ हरि रामै नामि समाते ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेती = साथ। राते = रंगे हुए। मिलि = मिल के। नामि = नाम में।1। रहाउ।
अर्थ: हे राम (मेहर कर) मेरा मन तेरे (नाम) में रंगा रहे। (हे भाई! जिस लोगों ने ईश्वर की कृपा से) साधु-संगत में मिल के राम-रस प्राप्त कर लिया, वे परमात्मा के नाम में ही मस्त रहते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि हरि नामु हरि हरि जगि अवखधु हरि हरि नामु हरि साते ॥ तिन के पाप दोख सभि बिनसे जो गुरमति राम रसु खाते ॥२॥
मूलम्
हरि हरि नामु हरि हरि जगि अवखधु हरि हरि नामु हरि साते ॥ तिन के पाप दोख सभि बिनसे जो गुरमति राम रसु खाते ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगि = जगत में। अवखधु = दवाई। साति = शांति (देने वाला)। दोख = ऐब, अवगुण।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम जगत में (सब रोगों की) दवाई है। परमात्मा का नाम (आत्मिक) शांति देने वाला है जो मनुष्य गुरु की मति ले के परमातमा का नाम-रस चखते हैं, उनके सारे पाप, सारे ऐब नाश हो जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ लिखतु लिखे धुरि मसतकि ते गुर संतोख सरि नाते ॥ दुरमति मैलु गई सभ तिन की जो राम नाम रंगि राते ॥३॥
मूलम्
जिन कउ लिखतु लिखे धुरि मसतकि ते गुर संतोख सरि नाते ॥ दुरमति मैलु गई सभ तिन की जो राम नाम रंगि राते ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। सरि = सर में। संतोख सरि = संतोष के सरोवर में।3।
अर्थ: जिस मनुष्यों के माथे पर धुर दरगाह से (भक्ति का) लेख लिखा जाता है, वह मनुष्य गुरु रूप संतोखसर में स्नान करते हैं (भाव, वे मनुष्य गुरु में अपना आप लीन कर देते हैं और वे संतोष वाला जीवन जीते हैं)। जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाते हैं, उनकी बुरी मति वाली सारी मैल दूर हो जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम तुम आपे आपि आपि प्रभु ठाकुर तुम जेवड अवरु न दाते ॥ जनु नानकु नामु लए तां जीवै हरि जपीऐ हरि किरपा ते ॥४॥२॥१६॥५४॥
मूलम्
राम तुम आपे आपि आपि प्रभु ठाकुर तुम जेवड अवरु न दाते ॥ जनु नानकु नामु लए तां जीवै हरि जपीऐ हरि किरपा ते ॥४॥२॥१६॥५४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! जीवे = आत्मिक जीव प्राप्त करता है। ते = से, साथ।4।
अर्थ: हे राम! हे ठाकुर! तू स्वयं ही तू खुद ही तू आप ही (सब जीवों का) मालिक है। तेरे जितना बड़ा और कोई दाता नहीं है। दास नानक जब परमात्मा का नाम जपता है, तो आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है। (पर) परमात्मा का नाम परमातमा की मेहर से ही जपा जा सकता है।4।2।16।54।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ करहु क्रिपा जगजीवन दाते मेरा मनु हरि सेती राचे ॥ सतिगुरि बचनु दीओ अति निरमलु जपि हरि हरि हरि मनु माचे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ करहु क्रिपा जगजीवन दाते मेरा मनु हरि सेती राचे ॥ सतिगुरि बचनु दीओ अति निरमलु जपि हरि हरि हरि मनु माचे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राचे = रचा रहे, मस्त रहे। सतिगुरि = गुरु ने। बचनु = उपदेश। माचे = मचलता है, खुश होता है।1।
अर्थ: हे जगत के जीवन! हे दातार! कृपा कर, मेरा मन तेरी याद में मस्त रहे। (तेरी कृपा से) सत्गुरू ने मुझे बहुत पवित्र उपदेश दिया है, अब मेरा मन हरि नाम जप जप के खुश हो रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम मेरा मनु तनु बेधि लीओ हरि साचे ॥ जिह काल कै मुखि जगतु सभु ग्रसिआ गुर सतिगुर कै बचनि हरि हम बाचे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम मेरा मनु तनु बेधि लीओ हरि साचे ॥ जिह काल कै मुखि जगतु सभु ग्रसिआ गुर सतिगुर कै बचनि हरि हम बाचे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बेधि लीओ = बेध लिया। साचे = सदा कायम रहने वाले ने। काल = आत्मिक मौत। मुखि = मुंह में। ग्रसिया = निगला हुआ। बाचे = बच गए हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे राम! हे सदा कायम रहने वाले हरि! तूने (मेहर कर के) मेरे मन को मेरे तन को (अपने चरणों में) बेध लिया है। जिस आत्मिक मौत के मुंह में सारा संसार निगला हुआ है, (उस आत्मिक मौत से) मैं सतिगरू के उपदेश (की इनायत से) बच गया हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ प्रीति नाही हरि सेती ते साकत मूड़ नर काचे ॥ तिन कउ जनमु मरणु अति भारी विचि विसटा मरि मरि पाचे ॥२॥
मूलम्
जिन कउ प्रीति नाही हरि सेती ते साकत मूड़ नर काचे ॥ तिन कउ जनमु मरणु अति भारी विचि विसटा मरि मरि पाचे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेती = साथ। साकत = रब से टूटे हुए, माया के आँगन में। काचे = कमजोर जीवन वाले। विसटा = विकारों का गंद। मरि = आत्मिक मौत ले के। पाचै = पचते हैं, दुखी होते हैं2।
अर्थ: जिस मनुष्यों को परमातमा (के चरणों) के साथ प्रीति प्राप्त नहीं हुई, वे माया के आँगन में मूर्ख मनुष्य कमजोर जीवन वाले रहते हैं। उनके वास्ते जनम मरण का दुखदायक चक्र बना रहता है। वे (विकारों की) गंदगी में आत्मिक मौत ले ले कर दुखी होते रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम दइआल सरणि प्रतिपालक मो कउ दीजै दानु हरि हम जाचे ॥ हरि के दास दास हम कीजै मनु निरति करे करि नाचे ॥३॥
मूलम्
तुम दइआल सरणि प्रतिपालक मो कउ दीजै दानु हरि हम जाचे ॥ हरि के दास दास हम कीजै मनु निरति करे करि नाचे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरणि प्रतिपालक = शरण आए की रक्षा करने वाला। कउ = को। मो कउ = मुझे। जाचे = याचना करता है, मांगता है। निरति = नृत्य, नाच।3।
अर्थ: हे दयाल प्रभु! हे शरण आए की रक्षा करने वाले प्रभु! मैं तेरे दर से तेरा नाम मांगता हूँ, मुझे ये दाति बख्श। मुझे अपने दासों का दास बनाए रख। ता कि मेरा मन (तेरे नाम में जुड़ के) सदा नृत्य करता रहे (सदैव आत्मिक आनंद में लीन रहे)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे साह वडे प्रभ सुआमी हम वणजारे हहि ता चे ॥ मेरा मनु तनु जीउ रासि सभ तेरी जन नानक के साह प्रभ साचे ॥४॥३॥१७॥५५॥
मूलम्
आपे साह वडे प्रभ सुआमी हम वणजारे हहि ता चे ॥ मेरा मनु तनु जीउ रासि सभ तेरी जन नानक के साह प्रभ साचे ॥४॥३॥१७॥५५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता चे = उस के। रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत।4।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही (नाम रस की पूंजी देने वाले सब जीवों के) बड़ा शाह है, मालिक है। हम सभी जीव उस (शाह) के (भेजे हुए) वणजारे हैं (व्यापारी हैं)।
हे दास नानक के सदा स्थिर शाह व प्रभु! मेरा मन, मेरा तन, मेरा जीवात्मा- ये सब कुछ तेरी बख्शी हुई राशि-पूंजी है (मुझे अपने नाम की दाति भी बख्श)।4।3।17।55।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ तुम दइआल सरब दुख भंजन इक बिनउ सुनहु दे काने ॥ जिस ते तुम हरि जाने सुआमी सो सतिगुरु मेलि मेरा प्राने ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ तुम दइआल सरब दुख भंजन इक बिनउ सुनहु दे काने ॥ जिस ते तुम हरि जाने सुआमी सो सतिगुरु मेलि मेरा प्राने ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दइआल = (दया+आलय) दया का घर। सरब = सारे। भंजन = नाश करने वाला। बिनउ = विनय। दे काने = कान दे के, ध्यान से। जिस ते = जिस (गुरु) से। जानै = जान पहिचान होती है। प्राने = प्राण, जीवात्मा।1।
अर्थ: हे (जीवों के) सारे दुख नाश करने वाले स्वामी! तू दया का घर है। मेरी एक आरजू ध्यान से सुन। मुझे वह सत्गुरू मिला जो मेरी जीवात्मा (का सहारा) है, जिसकी कृपा से तेरे साथ गहरी सांझ पड़ती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम हम सतिगुर पारब्रहम करि माने ॥ हम मूड़ मुगध असुध मति होते गुर सतिगुर कै बचनि हरि हम जाने ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम हम सतिगुर पारब्रहम करि माने ॥ हम मूड़ मुगध असुध मति होते गुर सतिगुर कै बचनि हरि हम जाने ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = करके, (बराबर का) करके। माने = माना है। असुध = अशुद्धि, मैली। मुगध = मूर्ख।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैंने सत्गुरू को (आत्मिक जीवन में) राम पारब्रह्म के बराबर का माना है। मैं मूर्ख था, महा मूर्ख था, मलीन मति वाला था, गुरु सत्गुरू के उपदेश (की इनायत से) मैंने परमात्मा के साथ जान-पहिचान डाल ली है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितने रस अन रस हम देखे सभ तितने फीक फीकाने ॥ हरि का नामु अम्रित रसु चाखिआ मिलि सतिगुर मीठ रस गाने ॥२॥
मूलम्
जितने रस अन रस हम देखे सभ तितने फीक फीकाने ॥ हरि का नामु अम्रित रसु चाखिआ मिलि सतिगुर मीठ रस गाने ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अन = अन्य, और-और। मिलि = मिल के। गाने = गन्ना।2।
अर्थ: जगत के जितने भी अन्य रस हैं, मैंने देख लिए हैं, वे सारे ही फीके हैं, बेस्वाद हैं। गुरु को मिल के मैंने आत्मिक जीवन देने वाला परमात्मा का नाम-रस चखा है। वह रस मीठा है जैसे गन्ने का रस मीठा होता है।2।
[[0170]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ गुरु सतिगुरु नही भेटिआ ते साकत मूड़ दिवाने ॥ तिन के करमहीन धुरि पाए देखि दीपकु मोहि पचाने ॥३॥
मूलम्
जिन कउ गुरु सतिगुरु नही भेटिआ ते साकत मूड़ दिवाने ॥ तिन के करमहीन धुरि पाए देखि दीपकु मोहि पचाने ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भेटिआ = मिला। दिवाने = कमले, झल्ले। हीन = नीच। धुरि = धुर से। मोहि = मोह में। पचाने = पचते हैं, जलते हैं।3।
अर्थ: जिस मनुष्यों को गुरु नहीं मिलता, वे मूर्ख, ईश्वर से टूटे हुए रहते हैं। वे माया के पीछे झल्ले हुए फिरते हैं। (पर, उनके भी क्या बस?) धुर से ही (परमात्मा ने) उनके भाग्यों में (ये) नीच कर्म ही डाले हुए हैं, वे माया के मोह में ऐसे जलते रहते हैं जैसे दीपक को देख के (पतंगे)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ तुम दइआ करि मेलहु ते हरि हरि सेव लगाने ॥ जन नानक हरि हरि हरि जपि प्रगटे मति गुरमति नामि समाने ॥४॥४॥१८॥५६॥
मूलम्
जिन कउ तुम दइआ करि मेलहु ते हरि हरि सेव लगाने ॥ जन नानक हरि हरि हरि जपि प्रगटे मति गुरमति नामि समाने ॥४॥४॥१८॥५६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रगटे = प्रगट हुए, चमक गए। नामि = नाम में।4।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्यों को तू मेहर करके (गुरु चरणों में) मिलाता है, वे, हे हरि! तेरी सेवा-भक्ति में लगे रहते हैं। हे दास नानक! वे परमात्मा का नाम जप ज पके चमक पड़ते हैं। गुरु की मति पर चल के वे प्रभु के नाम में लीन रहते हैं।4।4।18।56।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ मेरे मन सो प्रभु सदा नालि है सुआमी कहु किथै हरि पहु नसीऐ ॥ हरि आपे बखसि लए प्रभु साचा हरि आपि छडाए छुटीऐ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ मेरे मन सो प्रभु सदा नालि है सुआमी कहु किथै हरि पहु नसीऐ ॥ हरि आपे बखसि लए प्रभु साचा हरि आपि छडाए छुटीऐ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहु = बताओ। पहु = से। साचा = सदा स्थिर रहने वाला।1।
अर्थ: हे मेरे मन! वह स्वामी हर वक्त (जीवों के) साथ (बसता) है। बताओ वह कौन सी जगह है जहां उस प्रभु से हम भाग सकते हैं? वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा स्वयं ही (हमारे अवगुण) बख्श लेता है। वह हरि खुद ही (विकारों के पँजों से) छुड़ा लेता है (उसी की सहायता से विकारों से) बच सकते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन जपि हरि हरि हरि मनि जपीऐ ॥ सतिगुर की सरणाई भजि पउ मेरे मना गुर सतिगुर पीछै छुटीऐ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे मन जपि हरि हरि हरि मनि जपीऐ ॥ सतिगुर की सरणाई भजि पउ मेरे मना गुर सतिगुर पीछै छुटीऐ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन = हे मन! मनि = मन में। भजि = दौड़ के। पउ = लेट जाओ (लेटना)। पीछै = पीछे चलने से।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! सदा हरि-नाम जप। (हे भाई!) हरि-नाम सदा मन में जपना चाहिए। हे मेरे मन! सत्गुरू की शरण पड़। गुरु का आसरा लेने से (माया के बंधनों से) बच जाते हैं।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन सेवहु सो प्रभ स्रब सुखदाता जितु सेविऐ निज घरि वसीऐ ॥ गुरमुखि जाइ लहहु घरु अपना घसि चंदनु हरि जसु घसीऐ ॥२॥
मूलम्
मेरे मन सेवहु सो प्रभ स्रब सुखदाता जितु सेविऐ निज घरि वसीऐ ॥ गुरमुखि जाइ लहहु घरु अपना घसि चंदनु हरि जसु घसीऐ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्रब = सरब, सारे। जितु सेविऐ = जिसकी सेवा करने से। घरि = घर में। लहहु = ढूँढ लो। घसि = घिसा के।2।
अर्थ: हे मेरे मन! सारे सुख देने वाले उस परमात्मा का स्मरण कर, जिसकी शरण पड़ने से अपने घर में बस सकते हैं (माया की भटकना से बच के अंतरात्मे टिक सकते हैं)। (हे मन!) गुरु की शरण पड़ कर अपना (असल) घर जा के ढूँढ ले (प्रभु के चरणों में टिक)। (जैसे) चंदन (सिल्ली पे) घिसने से (सुगंधि देता है, वैसे ही) परमात्मा की महिमा (उपमा, प्रशंसा) को (अपने मन के साथ) घसाना चाहिए (आत्मिक जीवन में सुगंधि पैदा होगी)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन हरि हरि हरि हरि हरि जसु ऊतमु लै लाहा हरि मनि हसीऐ ॥ हरि हरि आपि दइआ करि देवै ता अम्रितु हरि रसु चखीऐ ॥३॥
मूलम्
मेरे मन हरि हरि हरि हरि हरि जसु ऊतमु लै लाहा हरि मनि हसीऐ ॥ हरि हरि आपि दइआ करि देवै ता अम्रितु हरि रसु चखीऐ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाहा = लाभ। मनि = मन में। हसीऐ = आनंद ले सकते हैं।3।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा की महिमा सब से श्रेष्ठ पदार्थ है। (हे भाई!) हरि नाम की कमाई कमा के मन में आत्मिक आनंद ले सकते हैं। जब परमात्मा खुद मेहर करके अपने नाम की दाति देता है, तब आत्मिक जीवन देने वाला उसका नाम-रस चख सकते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन नाम बिना जो दूजै लागे ते साकत नर जमि घुटीऐ ॥ ते साकत चोर जिना नामु विसारिआ मन तिन कै निकटि न भिटीऐ ॥४॥
मूलम्
मेरे मन नाम बिना जो दूजै लागे ते साकत नर जमि घुटीऐ ॥ ते साकत चोर जिना नामु विसारिआ मन तिन कै निकटि न भिटीऐ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जमि = जम ने। साकत = ईश्वर से टूटे हुए, माया के आँगन में। निकटि = नजदीक। भिटीऐ = छूना चाहिए।4।
अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम भुला के जो मनुष्य और तरफ व्यस्त रहते हैं, वे परमात्मा से टूट जाते हैं। यम ने उन्हें जकड़ लिया होता है (आत्मिक मौत उनका दायरा कम कर देती है)। जिस मनुष्यों ने परमात्मा का नाम बिसार दिया, वे माया के मोह में जकड़े गए, वे ईश्वर के चोर बन गए। हे मेरे मन! उनके नजदीक नहीं होना चाहिए।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे मन सेवहु अलख निरंजन नरहरि जितु सेविऐ लेखा छुटीऐ ॥ जन नानक हरि प्रभि पूरे कीए खिनु मासा तोलु न घटीऐ ॥५॥५॥१९॥५७॥
मूलम्
मेरे मन सेवहु अलख निरंजन नरहरि जितु सेविऐ लेखा छुटीऐ ॥ जन नानक हरि प्रभि पूरे कीए खिनु मासा तोलु न घटीऐ ॥५॥५॥१९॥५७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अलख = अदृश्य। नरहरि = परमात्मा। प्रभि = प्रभु ने। पूरे = मुकम्मल, सम्पूर्ण।5।
अर्थ: हे मेरे मन! उस परमातमा की सेवा भक्ति करजो अदृश्य है जो माया के प्रभाव से परे है। उसकी सेवा भक्ति करने से (किए कर्मों का) लेखा समाप्त हो जाता है (माया की तरफ प्रेरित करने वाले संस्कार मनुष्य के अंदर से समाप्त हो जाते हैं)।
हे दास नानक! जिस मनुष्यों को हरि प्रभु ने पूर्णत: शुद्ध जीवन वाला बना दिया है, उनके आत्मिक जीवन में एक तौला भर, मासा भर, रत्ती भर भी कमजोरी नहीं आती।5।5।19।57।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ हमरे प्रान वसगति प्रभ तुमरै मेरा जीउ पिंडु सभ तेरी ॥ दइआ करहु हरि दरसु दिखावहु मेरै मनि तनि लोच घणेरी ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ हमरे प्रान वसगति प्रभ तुमरै मेरा जीउ पिंडु सभ तेरी ॥ दइआ करहु हरि दरसु दिखावहु मेरै मनि तनि लोच घणेरी ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुमरै वसगति = तेरे बस में। प्रभू = हे प्रभु! जीउ = जीवात्मा, जिंद। पिंडु = शरीर। तेरी = तेरा (काव्य छंदाबंदी तुकांत ठीक करने के लिए ‘तेरा’ की जगह ‘तेरी’)। लोच = तमन्ना। घणेरी = बहुत।1।
अर्थ: हे प्रभु! मेरे प्राण तेरे वश में ही हैं। मेरी जीवात्मा और मेरा शरीर ये सब तेरे ही दिए हुए हैं। हे प्रभु! (मेरे ऊपर) मेहर कर, मुझे अपना दर्शन दे, (तेरे दर्शन की) मेरे मन में मेरे दिल में बड़ी तमन्ना है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम मेरै मनि तनि लोच मिलण हरि केरी ॥ गुर क्रिपालि क्रिपा किंचत गुरि कीनी हरि मिलिआ आइ प्रभु मेरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम मेरै मनि तनि लोच मिलण हरि केरी ॥ गुर क्रिपालि क्रिपा किंचत गुरि कीनी हरि मिलिआ आइ प्रभु मेरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केरी = की। मनि = मन में। तनि = तन में। क्रिपालि = कृपालु ने। किंचतु = थोड़ी सी। गुरि = गुरु ने।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे राम! हे मेरे हरि! मेरे मन में मेरे दिल में तुझे मिलने की (बहुत) चाह है। (हे भाई!) कृपालु गुरु ने जब थोड़ी सी कृपा की, तो मेरा हरि प्रभु मुझे आ मिला।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो हमरै मन चिति है सुआमी सा बिधि तुम हरि जानहु मेरी ॥ अनदिनु नामु जपी सुखु पाई नित जीवा आस हरि तेरी ॥२॥
मूलम्
जो हमरै मन चिति है सुआमी सा बिधि तुम हरि जानहु मेरी ॥ अनदिनु नामु जपी सुखु पाई नित जीवा आस हरि तेरी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मन चिति = मन में चित्त में। बिधि = हालत। अनदिनु = हर रोज। जपी = मैं जपूँ। पाई = मैं पाऊँ। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करूँ।2।
अर्थ: हे हरि! हे मेरे स्वामी! हम जीवों के मन में, चित्त में जो कुछ घटित होता है, वह हालत तू खुद ही जानता है। हे हरि! मुझे (सदा) तेरी (मेहर की) आशा रहती है (कि तू कृपा करे तो) मैं हर रोज तेरा नाम जपता रहूँ, आत्मिक आनंद लेता रहूं, और सदा आत्मिक जीवन जीता रहूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि सतिगुरि दातै पंथु बताइआ हरि मिलिआ आइ प्रभु मेरी ॥ अनदिनु अनदु भइआ वडभागी सभ आस पुजी जन केरी ॥३॥
मूलम्
गुरि सतिगुरि दातै पंथु बताइआ हरि मिलिआ आइ प्रभु मेरी ॥ अनदिनु अनदु भइआ वडभागी सभ आस पुजी जन केरी ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दातै = दाते ने। पंधु = रास्ता। केरी = की।3।
अर्थ: (नाम की) दात देने वाले गुरु ने सत्गुरू ने मुझे (परमात्मा से मिलने का) राह बताया और मेरा हरि-प्रभु मुझे आ मिला। बड़े भाग्यों से (मेरे हृदय में) हर रोज (हर वक्त) आत्मिक आनंद बना रहता है। मुझ दास की आशा पूरी हो गई है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगंनाथ जगदीसुर करते सभ वसगति है हरि केरी ॥ जन नानक सरणागति आए हरि राखहु पैज जन केरी ॥४॥६॥२०॥५८॥
मूलम्
जगंनाथ जगदीसुर करते सभ वसगति है हरि केरी ॥ जन नानक सरणागति आए हरि राखहु पैज जन केरी ॥४॥६॥२०॥५८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जगंनाथ = हे जगत के नाथ! जगदीसुर = हे जगत के ईश्वर! पैज = लज्जा।4।
अर्थ: हे जगत के नाथ! हे जगत के ईश्वर! हे कर्तार! ये सारी सृष्टि (जगत खेल) तेरे वश में है। हे दास नानक! (अरदास कर और कह:) हे हरि! मैं तेरी शरण आया हूँ, मुझ दास की लज्जा (इज्जत) रख।4।6।20।58।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ इहु मनूआ खिनु न टिकै बहु रंगी दह दह दिसि चलि चलि हाढे ॥ गुरु पूरा पाइआ वडभागी हरि मंत्रु दीआ मनु ठाढे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ इहु मनूआ खिनु न टिकै बहु रंगी दह दह दिसि चलि चलि हाढे ॥ गुरु पूरा पाइआ वडभागी हरि मंत्रु दीआ मनु ठाढे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनूआ = अंजान मन। खिनु = रत्ती भर भी। बहु रंगी = बहुत रंग तमाशों में (फस के)। दह = दस। दिसि = दिशाओं में, की ओर। चलि = चल के, दौड़ के। हाढे = भटकता है। ठाढे = खड़ा हो गया।1।
अर्थ: (मेरा) ये अंजान मन बहुत रंग-तमाशों में (फंस के) छिन भर भी टिकता नहीं, दसों दिशाओं में दौड़ दौड़ के भटकता है। (पर अब) बड़े भाग्यों से (मुझे) पूरा गुरु मिल पड़ा है। उसने प्रभु (-नाम स्मरण का) उपदेश दिया है (जिस की इनायत से) मन शांत हो गया है।1।
[[0171]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम हम सतिगुर लाले कांढे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम हम सतिगुर लाले कांढे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लाले = गुलाम। कांढे = बहलाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे राम! मैं गुरु का गुलाम कहलाता हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरै मसतकि दागु दगाना हम करज गुरू बहु साढे ॥ परउपकारु पुंनु बहु कीआ भउ दुतरु तारि पराढे ॥२॥
मूलम्
हमरै मसतकि दागु दगाना हम करज गुरू बहु साढे ॥ परउपकारु पुंनु बहु कीआ भउ दुतरु तारि पराढे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। दागु = निशान। दगाना = दागा गया। साढे = सांढे, इकट्ठा कर लिया है। पुंनु = भलाई, नेकी। भउ = भव सागर। दुतरु = (दुस्तर) जिससे तैरना मुश्किल हो। पराढे = पार कर दिया है।2।
अर्थ: (पूरे गुरु ने मेरे पर) बहुत परोपकार किए हैं, भलाई की है, मुझे उस संसार समुंदर से पार लंघा दिया है, जिससे पार होना बहुत मुश्किल था। (गुरु के उपकार का ये) बहुत करजा (मेरे सिर पर) इकट्ठा हो गया है। (ये कर्जा उतर नहीं सकता, उसके बदले गुरु का गुलाम बन गया हूँ, और) मेरे माथे पे (गुलामी का) निशान दागा गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ प्रीति रिदै हरि नाही तिन कूरे गाढन गाढे ॥ जिउ पाणी कागदु बिनसि जात है तिउ मनमुख गरभि गलाढे ॥३॥
मूलम्
जिन कउ प्रीति रिदै हरि नाही तिन कूरे गाढन गाढे ॥ जिउ पाणी कागदु बिनसि जात है तिउ मनमुख गरभि गलाढे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। कूरे = झूठे। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। गरभि = गर्भ में, योनियों के चक्र में। गलाढे = गलते हैं।3।
अर्थ: जिस मनुष्योंकेहृदय में परमात्मा का प्यार नहीं होता (अगर वे बाहर लोकाचार वश प्यार का कोई दिखावा करते हैं, तो) वे झूठी उधेड़-बुन ही करते हैं। जैसे पानी में (पड़ा) कागज गल जाता है वैसे ही अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (प्रभु प्रीति से वंचित होने के कारण) योनियों के चक्र में (अपने आत्मिक जीवन की तरफ से) गल जाते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम जानिआ कछू न जानह आगै जिउ हरि राखै तिउ ठाढे ॥ हम भूल चूक गुर किरपा धारहु जन नानक कुतरे काढे ॥४॥७॥२१॥५९॥
मूलम्
हम जानिआ कछू न जानह आगै जिउ हरि राखै तिउ ठाढे ॥ हम भूल चूक गुर किरपा धारहु जन नानक कुतरे काढे ॥४॥७॥२१॥५९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: न जानह = हम नहीं जानते। आगै = आने वाले समय में। ठाढे = खड़े हैं। कुतरे = कुत्ते, कूकर। काढे = कहलाते हैं।4।
अर्थ: (पर हम जीवों की कोई चतुराई समझदारी काम नहीं कर सकती) ना (अब तक) हम जीव कोई चतुराई-अक्लमंदी कर सके हैं। ना ही भविष्य में समर्थ होंगे। जैसे परमात्मा हमें रखता है उसी हालात में हम टिकते हैं।
हे दास नानक! (उसके दर पर अरदास, प्रार्थना ही फबती है। अरदास करो और कहो-) हे गुरु! हमारी भूलें चूकें (अनदेखा कर के हमारे ऊपर) मेहर करो। हम (तुम्हारे दर पर) कुत्ते कहलवाते हैं।4।7।21।59।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ कामि करोधि नगरु बहु भरिआ मिलि साधू खंडल खंडा हे ॥ पूरबि लिखत लिखे गुरु पाइआ मनि हरि लिव मंडल मंडा हे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ कामि करोधि नगरु बहु भरिआ मिलि साधू खंडल खंडा हे ॥ पूरबि लिखत लिखे गुरु पाइआ मनि हरि लिव मंडल मंडा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामि = काम से। करोधि = क्रोध से। नगरु = शरीर नगर। साधू = गुरु। खंडल = टोटे, अंश (खण्ड = a piece)। खंडा = नाश कर देता। पूरबि = पूर्बले जनम में। मनि = मन में। मंडल = रौशनी के चक्र (जैसे सूर्य व चंद्रमा के चारों तरफ चक्र)। मंडा = सजाया।1।
अर्थ: (हे भाई!) ये शरीर रूपी नगर काम-क्रोध से बहुत भरा रहता है (गंदा हुआ रहता है), गुरु को मिल के (काम-क्रोध आदि के) सारे अंश नाश कर लिए जाते हैं। पूर्व जनम में (किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार जिस मनुष्य के माथे पर) लेख लिखे जाते हैं, उसे गुरु मिल जाता है, और उसके मन में, हरि चरणों में ध्यान जोड़ने की इनायत से आत्मिक रौशनी की सजावट हो जाती है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि साधू अंजुली पुंनु वडा हे ॥ करि डंडउत पुनु वडा हे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
करि साधू अंजुली पुंनु वडा हे ॥ करि डंडउत पुनु वडा हे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंजुली = (अंजुलि, अंजलि = कृ = दानों हाथ जोड़ कर नमस्कार करने के लिए सिर तक पहुँचाने) हाथ जोड़ के अरदास। पुंनु = भलाई, भला काम। डंडउत = दण्डवत्, डण्डे की तरह सीधे लेट के प्रणाम।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के आगे हाथ जोड़ के नमस्कार कर, ये बड़ा नेक काम है। गुरु के आगे डण्डवत की, ये बड़ा भला काम है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकत हरि रस सादु न जानिआ तिन अंतरि हउमै कंडा हे ॥ जिउ जिउ चलहि चुभै दुखु पावहि जमकालु सहहि सिरि डंडा हे ॥२॥
मूलम्
साकत हरि रस सादु न जानिआ तिन अंतरि हउमै कंडा हे ॥ जिउ जिउ चलहि चुभै दुखु पावहि जमकालु सहहि सिरि डंडा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साकत = रब से टूटे हुए, माया में ग्रसे जीव। चलहि = चलते हैं। जम कालु = मौत, आत्मिक मौत। सिरि = सिर पर।2।
अर्थ: माया के आँगन में ग्रसे मनुष्य परमात्मा के नाम के रस का स्वाद नहीं जानते, उनके अंदर अहंकार का काँटा (टिका रहता) है। वह मनुष्य ज्यों ज्यों (जीवन मार्ग में) चलते हैं त्यों त्यों (वह अहंकार का काँटा उनको) चुभता है, वे दुख पाते हैं, वे अपने सिर पर आत्मिक मौत रूपी डंडा (डण्डे की चोट) बर्दाश्त करते रहते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जन हरि हरि नामि समाणे दुखु जनम मरण भव खंडा हे ॥ अबिनासी पुरखु पाइआ परमेसरु बहु सोभ खंड ब्रहमंडा हे ॥३॥
मूलम्
हरि जन हरि हरि नामि समाणे दुखु जनम मरण भव खंडा हे ॥ अबिनासी पुरखु पाइआ परमेसरु बहु सोभ खंड ब्रहमंडा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। भव = संसार, संसार समुंदर। सोभ = शोभा। खंड = खण्ड, हिस्सा।3।
अर्थ: परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं। उनके जनम मरण (के चक्र) का दुख संसार समुंदर (के विकारों) का दुख नाश हो जाता है। उन्हें नाश-रहित सर्व-व्यापक परमेश्वर मिल जाता है, और ब्रह्मण्ड के सारे खण्डों में उनकी बहुत शोभा होती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम गरीब मसकीन प्रभ तेरे हरि राखु राखु वड वडा हे ॥ जन नानक नामु अधारु टेक है हरि नामे ही सुखु मंडा हे ॥४॥८॥२२॥६०॥
मूलम्
हम गरीब मसकीन प्रभ तेरे हरि राखु राखु वड वडा हे ॥ जन नानक नामु अधारु टेक है हरि नामे ही सुखु मंडा हे ॥४॥८॥२२॥६०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसकीन = आजिज। आधारु = आसरा। मंडा = मिलता।4।
अर्थ: हे प्रभु! हे हरि! हम जीव गरीब हैं, आजीज हैं, तेरे हैं, तू ही हमारा सब से बड़ा आसरा है। हमारी रक्षा कर। हे दास नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम को (जिंदगी का) आसरा-सहारा बनाया है, वह परमात्मा के नाम में ही सदैव आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।4।8।22।60।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ इसु गड़ महि हरि राम राइ है किछु सादु न पावै धीठा ॥ हरि दीन दइआलि अनुग्रहु कीआ हरि गुर सबदी चखि डीठा ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ इसु गड़ महि हरि राम राइ है किछु सादु न पावै धीठा ॥ हरि दीन दइआलि अनुग्रहु कीआ हरि गुर सबदी चखि डीठा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गढ़ = किला (शरीर)। राइ = राजा, प्रकाश रूप। सादु = स्वाद, आनंद। धीठा = ढीठ (बार बार विकारों की तरफ परतने की जिद करने वाला)। दइआलि = दयालु ने। अनुग्रहु = कृपा।1।
अर्थ: इस (शरीर-) किले में (जगत का) राजा हरि परमात्मा बसता है, (पर, विकारोंके स्वादों में) ढीठ बने मनुष्य को (अंदर बसते परमात्मा के मिलाप का कोई) आनंद नहीं आता। जिस मनुष्य पर दीनों पर दया करने वाले परमात्मा ने कृपा की, उसने गुरु के शब्द द्वारा (हरि नाम रस) चख के देख लिया है (कि ये सचमुच ही मीठा है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम हरि कीरतनु गुर लिव मीठा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम हरि कीरतनु गुर लिव मीठा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लिव = लगन।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु (के चरणों में) लगन (लगा के) परमात्मा की महिमा करो। (दुनिया के सब रसों से ये रस) मीठा है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि अगमु अगोचरु पारब्रहमु है मिलि सतिगुर लागि बसीठा ॥ जिन गुर बचन सुखाने हीअरै तिन आगै आणि परीठा ॥२॥
मूलम्
हरि अगमु अगोचरु पारब्रहमु है मिलि सतिगुर लागि बसीठा ॥ जिन गुर बचन सुखाने हीअरै तिन आगै आणि परीठा ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगमु = अगम्य (पहुँच से परे), अगोचरु = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच ना हो सके। मिलि = मिल के। लागि = लग के। बसीठा = बिचौला, वकील। सुखाने = प्यारे लगे। हीअरै = हृदय में। आणि = ला के। परीठा = परोस धरा।2।
अर्थ: जो हरि पारब्रह्म अगम्य (पहुँच से परे) है जिस तक मनुष्य के ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। वह हरि प्रभु गुरु को मिल के गुरु वकील के चरणों में लग के (ही मिलता है)। जिस मनुष्यों को गुरु के वचन हृदय में प्यारे लगते हैं, गुरु उनके आगे (परमात्मा का नाम अमृत) ला के परोस देता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुख हीअरा अति कठोरु है तिन अंतरि कार करीठा ॥ बिसीअर कउ बहु दूधु पीआईऐ बिखु निकसै फोलि फुलीठा ॥३॥
मूलम्
मनमुख हीअरा अति कठोरु है तिन अंतरि कार करीठा ॥ बिसीअर कउ बहु दूधु पीआईऐ बिखु निकसै फोलि फुलीठा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हीअरा = हृदय। कठोर = कड़ा, निर्दयी। कार करीठा = कालख ही कालख। बिसीअर = साँप। कउ = को। फोलि = फरोल के।3।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का हृदय बहुत कठोर होता है। उनके अंदर (विकारों की) कालिख ही कालिख होती है। साँप को कितना ही दूध पिलाए जाएं पर उसके अंदर से जहर ही निकलता है (यही हालत मनमुख की होती है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि प्रभ आनि मिलावहु गुरु साधू घसि गरुड़ु सबदु मुखि लीठा ॥ जन नानक गुर के लाले गोले लगि संगति करूआ मीठा ॥४॥९॥२३॥६१॥
मूलम्
हरि प्रभ आनि मिलावहु गुरु साधू घसि गरुड़ु सबदु मुखि लीठा ॥ जन नानक गुर के लाले गोले लगि संगति करूआ मीठा ॥४॥९॥२३॥६१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! आनि = ला के। घसि = घिसा के। गरुड़ = साँप का जहर दूर करने वाली दवाई। मुखि = मुंह में। लीठा = चूस ली। लाले गोले = गुलाम सेवक। करूआ = कड़वा।4।
अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! (मेहर कर) मुझे साधु गुरु ला के मिला। मैं गुरु का शब्द अपने मुंह में बसाऊँ, और मेरे अंदर से विकारों का जहर दूर हो। जैसे साँप का जहर दूर करने वाली बूटी घिसा के मुंह में चूसने से साँप का जहर उतरता है। हे दास नानक! (कह: हम) गुरु के गुलाम हैं, सेवक हैं, गुरु की संगति में बैठने से कड़वा (स्वाभाव) मीठा हो जाता है4।9।23।61।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ हरि हरि अरथि सरीरु हम बेचिआ पूरे गुर कै आगे ॥ सतिगुर दातै नामु दिड़ाइआ मुखि मसतकि भाग सभागे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ हरि हरि अरथि सरीरु हम बेचिआ पूरे गुर कै आगे ॥ सतिगुर दातै नामु दिड़ाइआ मुखि मसतकि भाग सभागे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हरि अरथि = हरि (के मिलाप) की खातिर। हम = मैं। दातै = दाते ने। द्रिढ़ाइआ = (हृदय में) पक्का कर दिया। मुखि = मुंह पर। मसतकि = माथे पर। सभाग = भाग्य वाले।1।
अर्थ: (हे भाई!) हरि के मिलाप की खातिर मैंने अपना शरीर पूरे गुरु के आगे बेच दिया है। दाते सत्गुरू ने (मेरे दिल में) हरि का नाम पक्का कर दिया है। मेरे मुंह पर मेरे माथे पर भाग्य जाग पड़े हैं। मैं भाग्यशाली हो गया हूँ।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम गुरमति हरि लिव लागे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम गुरमति हरि लिव लागे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लिव = लगन। लागै = लगती है।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की मति पर चलने से ही राम-हरि के (चरणों में) लगन लगती है।1। रहाउ।
[[0172]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटि घटि रमईआ रमत राम राइ गुर सबदि गुरू लिव लागे ॥ हउ मनु तनु देवउ काटि गुरू कउ मेरा भ्रमु भउ गुर बचनी भागे ॥२॥
मूलम्
घटि घटि रमईआ रमत राम राइ गुर सबदि गुरू लिव लागे ॥ हउ मनु तनु देवउ काटि गुरू कउ मेरा भ्रमु भउ गुर बचनी भागे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक घट में। रमईआ = सोहना राम। रमत = व्यापक। सबदि = शब्द के द्वारा। हउ = मैं। देवउ = मैं देता हूँ। कउ = को। काटि = काट के।2।
अर्थ: (हलांकि वह) सुंदर राम हरेक शरीर में व्यापक है (फिर भी) गुरु के शब्द के द्वारा (ही उससे) लगन लगती है। मैं गुरु को अपना मन अपना तन देने को तैयार हूँ (अपना सिर) काट के देने को तैयार हूँ। गुरु के वचन से ही मेरी भटकना, मेरा डर दूर हो सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंधिआरै दीपक आनि जलाए गुर गिआनि गुरू लिव लागे ॥ अगिआनु अंधेरा बिनसि बिनासिओ घरि वसतु लही मन जागे ॥३॥
मूलम्
अंधिआरै दीपक आनि जलाए गुर गिआनि गुरू लिव लागे ॥ अगिआनु अंधेरा बिनसि बिनासिओ घरि वसतु लही मन जागे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंधिआरै = (माया के मोह के) अंधकार में। दीपक = (ज्ञान का) दिया। आनि = ला के। गिआनि = ज्ञान के द्वारा, प्रभु के साथ गहरी सांझ के द्वारा। घरि = घर में। लही = ढूँढ ली।3।
अर्थ: (माया के मोह के) अंधेरे में (फंसे हुए जीव के अंदर गुरु ही ज्ञान का) दीपक ला के प्रज्जवलित करता है। गुरु के दिए ज्ञान के द्वारा ही (प्रभु चरणों में लगन लगती है)। अज्ञानता का अंधकार पूरे तौर पर नाश हो जाता है, हृदय घर में प्रभु का नाम पदार्थ मिल जाता है। मन (मोह की नींद में से) जाग पड़ता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकत बधिक माइआधारी तिन जम जोहनि लागे ॥ उन सतिगुर आगै सीसु न बेचिआ ओइ आवहि जाहि अभागे ॥४॥
मूलम्
साकत बधिक माइआधारी तिन जम जोहनि लागे ॥ उन सतिगुर आगै सीसु न बेचिआ ओइ आवहि जाहि अभागे ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साकत = ईश्वर से टूटे हुए लोग। बधिक = शिकारी, हैंसियारे, निर्दयी। जम = मौत, आत्मिक मौत। जोहनि लागे = ताक में रखती है। उन = उन (साकतों) ने।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘ओइ’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: माया को अपनी जिंदगी का आसरा बनाने वाले मनुष्य ईश्वर से टूट जाते हैं, निर्दयी हो जाते हैं। आत्मिक मौत उनको अपने घेरे में रखती है। वे मनुष्य सतिगुरु के आगे अपना सिर नहीं बेचते (वे अपने अंदर से अहंकार नहीं गवाते) वे बद्किस्मत जनम मरण के चक्र में पड़े रहते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरा बिनउ सुनहु प्रभ ठाकुर हम सरणि प्रभू हरि मागे ॥ जन नानक की लज पाति गुरू है सिरु बेचिओ सतिगुर आगे ॥५॥१०॥२४॥६२॥
मूलम्
हमरा बिनउ सुनहु प्रभ ठाकुर हम सरणि प्रभू हरि मागे ॥ जन नानक की लज पाति गुरू है सिरु बेचिओ सतिगुर आगे ॥५॥१०॥२४॥६२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हमरा बिनउ = मेरी बिनती। प्रभ = हे प्रभु! मागे = मांगता हूं। लज = लज्जा। पाति = पति, इज्जत।5।
अर्थ: हे प्रभु! हे ठाकुर! मेरी बिनती सुनो, मैं तेरी शरण आया हूँ। मैं तुझसे तेरा नाम माँगता हूँ। दास नानक की लज्जा इज्जत (रखने वाला) गुरु ही है। मैंने सत्गुरू के आगे अपना सिर बेच दिया है (मैंने नाम के बदले में अपना आप गुरु के हवाले कर दिया है)।5।10।24।62।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ हम अहंकारी अहंकार अगिआन मति गुरि मिलिऐ आपु गवाइआ ॥ हउमै रोगु गइआ सुखु पाइआ धनु धंनु गुरू हरि राइआ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ हम अहंकारी अहंकार अगिआन मति गुरि मिलिऐ आपु गवाइआ ॥ हउमै रोगु गइआ सुखु पाइआ धनु धंनु गुरू हरि राइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हम = हम जीव। गुरि मिलिऐ = जब गुरु मिल जाए। आपु = स्वै भाव। सुखु = आत्मिक आनंद। धनु धंनु = सलाहने योग्य।1।
अर्थ: (गुरु के बगैर) हम जीव अहंकारी हुए रहते हैं। हमारी मति अहंकार व अज्ञानता वाली बनी रहती है। जब गुरु मिल जाए, तो स्वैभाव दूर हो जाता है। (गुरु की मेहर से जब) अहंकार का रोग दूर होता है, तो आत्मिक आनंद मिलता है। ये सारी मेहर गुरु की ही है, गुरु की ही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम गुर कै बचनि हरि पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम गुर कै बचनि हरि पाइआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बचनि = वचन के द्वारा, उपदेश की इनायत से।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के उपदेश की इनायत से ही राम से हरि से मिलाप होता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरै हीअरै प्रीति राम राइ की गुरि मारगु पंथु बताइआ ॥ मेरा जीउ पिंडु सभु सतिगुर आगै जिनि विछुड़िआ हरि गलि लाइआ ॥२॥
मूलम्
मेरै हीअरै प्रीति राम राइ की गुरि मारगु पंथु बताइआ ॥ मेरा जीउ पिंडु सभु सतिगुर आगै जिनि विछुड़िआ हरि गलि लाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हीअरै = हृदय में। राइ = प्रकाश रूप। गुरि = गुरु ने। मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। जिउ = जिंद, जीवात्मा। पिंडु = शरीर। जिनि = जिस ने, क्योंकि उसने। गलि = गले से।2।
अर्थ: (गुरु की कृपा से ही) मेरे हृदय में परमात्मा (के चरणों) की प्रीति पैदा हुई है। गुरु ने (ही परमात्मा के मिलाप का) रास्ता बताया है। मैंने अपनी जीवात्मा, अपना शरीर सब कुछ गुरु के आगे रख दिया है क्योंकि गुरु ने ही मुझ बिछुड़े हुए को परमात्मा के गले से लगा दिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरै अंतरि प्रीति लगी देखन कउ गुरि हिरदे नालि दिखाइआ ॥ सहज अनंदु भइआ मनि मोरै गुर आगै आपु वेचाइआ ॥३॥
मूलम्
मेरै अंतरि प्रीति लगी देखन कउ गुरि हिरदे नालि दिखाइआ ॥ सहज अनंदु भइआ मनि मोरै गुर आगै आपु वेचाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। सहज अनंदु = आत्मिक अडोलता का सुख। मनि मोरै = मेरे मन में।3।
अर्थ: (गुरु की कृपा से ही) मेरे अंदर परमात्मा का दर्शन करने की चाहत पैदा हुई, गुरु ने (ही) मुझे मेरे दिल में बसता मेरे साथ बसता परमात्मा दिखा दिया। मेरे मन में (अब) आत्मिक अडोलता का सुख पैदा हो गया है, (उसके बदले में) मैंने अपना आप गुरु के आगे बेच दिया है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम अपराध पाप बहु कीने करि दुसटी चोर चुराइआ ॥ अब नानक सरणागति आए हरि राखहु लाज हरि भाइआ ॥४॥११॥२५॥६३॥
मूलम्
हम अपराध पाप बहु कीने करि दुसटी चोर चुराइआ ॥ अब नानक सरणागति आए हरि राखहु लाज हरि भाइआ ॥४॥११॥२५॥६३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीने = किए, करते रहे। दुसटी = दुष्टता, विकार। चोर चुराइआ = चोरों की तरह चोरी की। हरि भाइआ = अगर, हे हरि! तुझे ठीक लगे, यदि तेरी मेहर हो।4।
अर्थ: मैं बहत सारे पाप अपराध करता रहा, कई बुरे कर्म करता रहा और छुपाता रहा जैसे चोर अपनी चोरी छुपाते हैं। पर अब, हे नानक! (कह:) हे हरि! मैं तेरी शरण आया हूँ, अगर तेरी मेहर हो तो मेरी इज्जत रख (मुझे विकारों से बचाए रख)।4।11।25।63।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ गुरमति बाजै सबदु अनाहदु गुरमति मनूआ गावै ॥ वडभागी गुर दरसनु पाइआ धनु धंनु गुरू लिव लावै ॥१॥
मूलम्
गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ गुरमति बाजै सबदु अनाहदु गुरमति मनूआ गावै ॥ वडभागी गुर दरसनु पाइआ धनु धंनु गुरू लिव लावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाजै = बजता है, पूरा प्रभाव डाल लेता है (जैसे ढोल बाजों में कोई छोटी-मोटी आवाज सुनी नहीं जा सकती। अनाहदु = (अनाहत् = बिना बजाए) एक रस। धनु धंनु = शाबाश योग्य। लिव = लगन।1।
अर्थ: गुरु की मति पर चलने से ही गुरु का शब्द मनुष्य के हृदय में एक-रस प्रभाव डाले रखता है (और अन्य कोई माया का रस अपना जोर नहीं डाल सकता), गुरु के उपदेश की इनायत से ही मनुष्य का मन परमात्मा की महिमा के गीत गाता है। कोई बड़े भाग्यों वाला मनुष्य गुरु का दर्शन प्राप्त करता है। सदके गुरु से, सदके गुरु पे। गुरु (मनुष्य के अंदर परमात्मा के मिलाप की) लगन पैदा करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि हरि लिव लावै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
गुरमुखि हरि लिव लावै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रह के ही मनुष्य (अपने अंदर) हरि के मिलाप की लगन पैदा कर सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमरा ठाकुरु सतिगुरु पूरा मनु गुर की कार कमावै ॥ हम मलि मलि धोवह पाव गुरू के जो हरि हरि कथा सुनावै ॥२॥
मूलम्
हमरा ठाकुरु सतिगुरु पूरा मनु गुर की कार कमावै ॥ हम मलि मलि धोवह पाव गुरू के जो हरि हरि कथा सुनावै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हमरा = हमारा, मेरा। मलि मलि = मल मल के, बड़े प्रेम से। धोवह = हम धोते हैं, मैं धोता हूँ।2।
अर्थ: (हे भाई!) पूरा गुरु ही मेरा ठाकुर है, मेरा मन गुरु की बताई हुई कार ही करता है। मैं अपने गुरु के पैर मल मल के धोता हूँ। क्योंकि, गुरु मुझे परमात्मा के महिमा की बातें सुनाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरदै गुरमति राम रसाइणु जिहवा हरि गुण गावै ॥ मन रसकि रसकि हरि रसि आघाने फिरि बहुरि न भूख लगावै ॥३॥
मूलम्
हिरदै गुरमति राम रसाइणु जिहवा हरि गुण गावै ॥ मन रसकि रसकि हरि रसि आघाने फिरि बहुरि न भूख लगावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसाइणु = (रस+आयन) रसों का घर, सब से श्रेष्ठ रस। जिहवा = जीभ। रसिक रसिक = मुड़ मुड़ रस ले के, बड़े आनंद से। रसि = रस में। आघाने = तृप्त हुए। भूख = तृष्णा, माया की भूख।3।
अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों के) हृदय में गुरु के उपदेश की इनायत से सब रसों का घर प्रभु का नाम बस जाता है, (जिस की) जीभ परमात्मा के गुण गाती है, उनके मन सदैव आनंद से परमात्मा के नाम रस में तृप्त रहते हैं। उन्हें फिर कभी माया की भूख नहीं सताती।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोई करै उपाव अनेक बहुतेरे बिनु किरपा नामु न पावै ॥ जन नानक कउ हरि किरपा धारी मति गुरमति नामु द्रिड़ावै ॥४॥१२॥२६॥६४॥
मूलम्
कोई करै उपाव अनेक बहुतेरे बिनु किरपा नामु न पावै ॥ जन नानक कउ हरि किरपा धारी मति गुरमति नामु द्रिड़ावै ॥४॥१२॥२६॥६४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कउ = को। द्रिढ़ावै = पक्का कर देता है।4।
अर्थ: पर कोई भी मनुष्य परमात्मा का नाम (परमात्मा की) कृपा के बिना हासिल नहीं कर सकता, बेशक कोई बहुत सारे अनेक उपाय करता फिरे। हे नानक! जिस दास पे परमात्मा मेहर करता है, गुरु के उपदेश की इनायत से उसकी मति में परमात्मा अपना नाम पक्का कर देता है।4।12।26।64।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी माझ महला ४ ॥ गुरमुखि जिंदू जपि नामु करमा ॥ मति माता मति जीउ नामु मुखि रामा ॥ संतोखु पिता करि गुरु पुरखु अजनमा ॥ वडभागी मिलु रामा ॥१॥
मूलम्
रागु गउड़ी माझ महला ४ ॥ गुरमुखि जिंदू जपि नामु करमा ॥ मति माता मति जीउ नामु मुखि रामा ॥ संतोखु पिता करि गुरु पुरखु अजनमा ॥ वडभागी मिलु रामा ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। जिंदू = हे जिंदे! हे जीवात्मा! करंमा = भाग्य (जाग पड़े हैं)। मति = (गुरु की दी हुई) अक्ल। जीउ = जीवन (का आसरा)। मुखि = मुंह से। अजनमा = जन्म रहित।1।
अर्थ: हे (मेरी) जीवात्मा! गुरु की शरण पड़ के (परमात्मा का) नाम जपो। (तेरे) भाग्य (जाग गए हैं)। (हे जीवात्मा! गुरु की दी हुई) मति को (अपनी) माँ बना, और मति को ही जीवन (का आसरा बना)। राम का नाम मुंह से जप। (हे जीवात्मा!) संतोख को पिता बना। अजोनी अकाल पुरख के रूप गुरु की शरण पड़। हे जिंदे! मिल राम को, तेरे भाग्य अच्छे हो गए हैं।1।
[[0173]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु जोगी पुरखु मिलिआ रंगु माणी जीउ ॥ गुरु हरि रंगि रतड़ा सदा निरबाणी जीउ ॥ वडभागी मिलु सुघड़ सुजाणी जीउ ॥ मेरा मनु तनु हरि रंगि भिंना ॥२॥
मूलम्
गुरु जोगी पुरखु मिलिआ रंगु माणी जीउ ॥ गुरु हरि रंगि रतड़ा सदा निरबाणी जीउ ॥ वडभागी मिलु सुघड़ सुजाणी जीउ ॥ मेरा मनु तनु हरि रंगि भिंना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोगी = (प्रभु चरणों में) जुड़ा हुआ। रंगु = आत्मिक आनंद। माणी = मैं माणता हूँ। रंगि = आनंद में। निरबाणी = वासना रहित। सुघड़ = (जीवन की) सोहणी घाड़त वाला। सुजाणी = सियानी।2।
अर्थ: (हे भाई!) प्रभु का रूप जोगी-रूप गुरु मुझे मिल गया है (उसकी कृपा से) मैं आत्मिक आनंद माणता हूँ। गुरु सदा परमात्मा के नाम-रंग में रंगा रहता है, और गुरु सदा वासना-रहित है। हे बड़े भाग्यों वाले! डस सुंदर जीवन वाले सुजान गुरु को मिल। (गुरु की कृपा से ही) मेरा मन, मेरा तन, परमात्मा के प्रेम रंग में भीग गया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवहु संतहु मिलि नामु जपाहा ॥ विचि संगति नामु सदा लै लाहा जीउ ॥ करि सेवा संता अम्रितु मुखि पाहा जीउ ॥ मिलु पूरबि लिखिअड़े धुरि करमा ॥३॥
मूलम्
आवहु संतहु मिलि नामु जपाहा ॥ विचि संगति नामु सदा लै लाहा जीउ ॥ करि सेवा संता अम्रितु मुखि पाहा जीउ ॥ मिलु पूरबि लिखिअड़े धुरि करमा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जपाहा = हम जपें। मिलि = मिल के। लाहा = लाभ, फायदा। पाहा = हम पाएं। धुरि = धुर से, प्रभु की हजूरी से। करमा = बख्शिश (का लेख)।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘मिलु’ और ‘मिलि’ के अर्थ में फर्क याद रखने योग्य है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे संत जनों! आओ, हम मिल के परमात्मा का नाम जपें। (हे भाई!) साधु-संगत में मिल के सदा हरि-नाम की कमाई कर। (हे भाई! आओ, साधु-संगत में) गुरमुखों की सेवा करके अपने मुंह में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-भोजन करें। (हे जिंदे!) मिल प्रभु को, प्रभु की दरगाह से उस की बख्शिश के पूर्बले समय के लेख जाग पड़े हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सावणि वरसु अम्रिति जगु छाइआ जीउ ॥ मनु मोरु कुहुकिअड़ा सबदु मुखि पाइआ ॥ हरि अम्रितु वुठड़ा मिलिआ हरि राइआ जीउ ॥ जन नानक प्रेमि रतंना ॥४॥१॥२७॥६५॥
मूलम्
सावणि वरसु अम्रिति जगु छाइआ जीउ ॥ मनु मोरु कुहुकिअड़ा सबदु मुखि पाइआ ॥ हरि अम्रितु वुठड़ा मिलिआ हरि राइआ जीउ ॥ जन नानक प्रेमि रतंना ॥४॥१॥२७॥६५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सावणि = सावन में। वरसु = बादल। अंम्रिति = अमृत से, जल से। कुहुकिअड़ा = ‘कुह कुह’ करता है, अपनी मीठी बोली बोलता है। मुखि = मुंह में। वुठड़ा = आ बसा। प्रेमि = प्रेम में। रतंना = रंगा हंआ।4।
अर्थ: (जैसे) सावन (के महीने) में बादल (बरसता है और) जगत को (धरती को) जल से भरपूर कर देता है (उस बादल को देख देख के) मोर अपनी मीठी बोली बोलता है, (वैसे गुरु) नाम-अमृत से जगत को प्रभावित करता है। (जिस भाग्यशाली पर मेहर होती है उसका) मन उछाले मारता है (वह मनुष्य गुरु के) शब्द को अपने मुंह में डालता है। हे दास नानक! (जिस मनुष्य के हृदय में) नाम अमृत आ बसता है (जिसे) परमात्मा मिल जाता है वह प्रभु प्रेम में रंगा जाता है।4।1।27।65।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माझ महला ४ ॥ आउ सखी गुण कामण करीहा जीउ ॥ मिलि संत जना रंगु माणिह रलीआ जीउ ॥ गुर दीपकु गिआनु सदा मनि बलीआ जीउ ॥ हरि तुठै ढुलि ढुलि मिलीआ जीउ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी माझ महला ४ ॥ आउ सखी गुण कामण करीहा जीउ ॥ मिलि संत जना रंगु माणिह रलीआ जीउ ॥ गुर दीपकु गिआनु सदा मनि बलीआ जीउ ॥ हरि तुठै ढुलि ढुलि मिलीआ जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सखी = हे सहेली! हे सत्संगी गुरमुख! कामण = टूणे। करीहा = हम बनाएं। मिलि = मिल के। माणहि = हम मनाएं। रलीआ = आत्मिक आनंद। दीपकु = दीया। गुर गिआनु = गुरु का दिया ज्ञान। मनि = मन में। बलीआ = हम जलाएं। ढुलि = ढुल के, शुक्र में आ के, धन्यवादी अवस्था।1।
अर्थ: हे (सत्संगी जीव-स्त्री) सहेली! आ, हम प्रभु के गुणों के टूणे-जादू तैयार करें (और प्रभु-पति को वश करें), संत-जनों को मिल के प्रभु के मिलाप का आनंद लें। (हे सखिए! आ, हम अपने) मन में गुरु का दिया ज्ञान-दीपक जलाएं, (इस तरह) अगर प्रभु प्रसन्न हो जाए तो शुक्रगुजार हो के (उसके चरणों में) मिल जाएं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरै मनि तनि प्रेमु लगा हरि ढोले जीउ ॥ मै मेले मित्रु सतिगुरु वेचोले जीउ ॥ मनु देवां संता मेरा प्रभु मेले जीउ ॥ हरि विटड़िअहु सदा घोले जीउ ॥२॥
मूलम्
मेरै मनि तनि प्रेमु लगा हरि ढोले जीउ ॥ मै मेले मित्रु सतिगुरु वेचोले जीउ ॥ मनु देवां संता मेरा प्रभु मेले जीउ ॥ हरि विटड़िअहु सदा घोले जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तनि = तन में। ढोला = मित्र। मै = मुझे। मेलो = मिलाए। वेचोले = वकील। विटड़िअहु = से।2।
अर्थ: (हे सखिए!) मेरे मन में मेरे दिल में हरि मित्र के लिए प्यार पैदा हो चुका है (मेरे अंदर चाह है कि) कि विचोला गुरु मुझे वह मित्र-प्रभु मिला दे। (हे सखिए!) मैं अपना मन उन गुरमुखों के हवाले कर दूँ, जो मुझे मेरा प्रभु मिला दें। मैं हरि-प्रभु से सदा कुर्बान सदा कुर्बान जाती हूँ।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसु मेरे पिआरिआ वसु मेरे गोविदा हरि करि किरपा मनि वसु जीउ ॥ मनि चिंदिअड़ा फलु पाइआ मेरे गोविंदा गुरु पूरा वेखि विगसु जीउ ॥ हरि नामु मिलिआ सोहागणी मेरे गोविंदा मनि अनदिनु अनदु रहसु जीउ ॥ हरि पाइअड़ा वडभागीई मेरे गोविंदा नित लै लाहा मनि हसु जीउ ॥३॥
मूलम्
वसु मेरे पिआरिआ वसु मेरे गोविदा हरि करि किरपा मनि वसु जीउ ॥ मनि चिंदिअड़ा फलु पाइआ मेरे गोविंदा गुरु पूरा वेखि विगसु जीउ ॥ हरि नामु मिलिआ सोहागणी मेरे गोविंदा मनि अनदिनु अनदु रहसु जीउ ॥ हरि पाइअड़ा वडभागीई मेरे गोविंदा नित लै लाहा मनि हसु जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करि = कर के। मनि चिंदिअड़ा = मन में चितवा हुआ। वेखि = देख के। विगसु = विगास, खुशी। वडभागीई = बड़े भाग्य वालियों ने। हसु = आनंद।3।
अर्थ: हे मेरे प्यारे गोबिंद! मेहर कर के मेरे मन में आ बस। हे मेरे गोबिंद! पूरे गुरु का दर्शन करके जिस सोहागन के हृदय में उल्लास पैदा होता है वह अपने मन में चितवे हुए (प्रभु मिलाप के) फल को पा लेती है। हे मेरे गोबिंद! जिस सोहागन जीव-स्त्री को हरि-नाम मिल जाता है, उसके मन में हर वक्त आनंद बना रहता है चाव बना रहता है। हे मेरे गोबिंद! जिस भाग्यशाली जीव स्त्रीयों ने हरि का मिलाप हासिल कर लिया है, वे हरि नाम की कमाई कर के मन में नित्य आत्मिक आनंद लेते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि आपि उपाए हरि आपे वेखै हरि आपे कारै लाइआ जीउ ॥ इकि खावहि बखस तोटि न आवै इकना फका पाइआ जीउ ॥ इकि राजे तखति बहहि नित सुखीए इकना भिख मंगाइआ जीउ ॥ सभु इको सबदु वरतदा मेरे गोविदा जन नानक नामु धिआइआ जीउ ॥४॥२॥२८॥६६॥
मूलम्
हरि आपि उपाए हरि आपे वेखै हरि आपे कारै लाइआ जीउ ॥ इकि खावहि बखस तोटि न आवै इकना फका पाइआ जीउ ॥ इकि राजे तखति बहहि नित सुखीए इकना भिख मंगाइआ जीउ ॥ सभु इको सबदु वरतदा मेरे गोविदा जन नानक नामु धिआइआ जीउ ॥४॥२॥२८॥६६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेखै = संभाल करता है। कारै = काम में। बख्श = बख्शिश। फका = फक्का, थोड़ा सा ही। तखति = तख्त पर। भिख = भिक्षा। सभु = हर जगह। सबदु = हुक्म।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे सखिए! प्रभु खुद ही जीवों को पैदा करता है। खुद ही (सबकी) संभाल करता है और स्वयं ही (सब को) काम में लगाता है। अनेक जीव ऐसे हैं जो उसके बख्शे हुए पदार्थ बरतते रहते हैं और वह पदार्थ कभी खत्म नहीं होते। अनेक जीव ऐसे हैं जिन्हें वह देता ही थोड़ा सा है। अनेक ऐसे हैं जो (उसकी मेहर से) राजे (बन के) तख्त पर बैठते हैं और सदा सुखी रहते हैं। अनेक ऐसे हैं जिनसे वह (दर-दर की) भीख मंगाता है। हे दास नानक! (कह:) हे मेरे गोबिंद! हर जगह एक तेरा ही हुक्म बर्त रहा है, (जिस पर तेरी मेहर होती है वह) तेरा नाम स्मरण करता है।4।2।28।66।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माझ महला ४ ॥ मन माही मन माही मेरे गोविंदा हरि रंगि रता मन माही जीउ ॥ हरि रंगु नालि न लखीऐ मेरे गोविदा गुरु पूरा अलखु लखाही जीउ ॥ हरि हरि नामु परगासिआ मेरे गोविंदा सभ दालद दुख लहि जाही जीउ ॥ हरि पदु ऊतमु पाइआ मेरे गोविंदा वडभागी नामि समाही जीउ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी माझ महला ४ ॥ मन माही मन माही मेरे गोविंदा हरि रंगि रता मन माही जीउ ॥ हरि रंगु नालि न लखीऐ मेरे गोविदा गुरु पूरा अलखु लखाही जीउ ॥ हरि हरि नामु परगासिआ मेरे गोविंदा सभ दालद दुख लहि जाही जीउ ॥ हरि पदु ऊतमु पाइआ मेरे गोविंदा वडभागी नामि समाही जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: माही = माहि, बीच। हरि रंगि = हरि के नाम रंग में। हरी रंगु = हरि के नाम रंग। नालि = (शब्द ‘नालि’ का संबंध ‘रंग’ के साथ नहीं है) (हरेक जीव के) साथ (है)। न लखीऐ = समझाया नहीं जा सकता। अलखु = अदृष्ट प्रभु। लखाही = लखते हैं, देखते हैं। दालद = दरिद्रता, गरीबी। जाही = जाते हैं। हरि पदु = हरि के मिलाप की अवस्था। नामि = नाम में।1।
अर्थ: हे मेरे गोबिंद! (जिस पर तेरी मेहर होती है, वह मनुष्य अपने) मन में ही, मन में ही, मन में ही, हरि नाम के रंग में रंगा रहता हैं। हे मेरे गोबिंद! हरि नाम का आनंद हरेक जीव के साथ (उसके अंदर मौजूद) है, पर ये आनंद (हरेक जीव) नहीं ले सकता। जिस मनुष्यों को पूरा गुरु मिल जाता है वे उस अदृश्य परमात्मा को ढूँढ लेते हैं। हे मेरे गोबिंद! जिनके अंदर तू हरि-नाम का प्रकाश करता है, उनके सारे दुख-दरिद्र दूर हो जाते हैं। हे मेरे गोबिंद! जिस मनुष्यों को हरि-मिलाप की उच्च अवस्था प्राप्त हो जाती है, वह भाग्यशाली मनुष्य हरि-नाम में लीन रहते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैणी मेरे पिआरिआ नैणी मेरे गोविदा किनै हरि प्रभु डिठड़ा नैणी जीउ ॥ मेरा मनु तनु बहुतु बैरागिआ मेरे गोविंदा हरि बाझहु धन कुमलैणी जीउ ॥ संत जना मिलि पाइआ मेरे गोविदा मेरा हरि प्रभु सजणु सैणी जीउ ॥ हरि आइ मिलिआ जगजीवनु मेरे गोविंदा मै सुखि विहाणी रैणी जीउ ॥२॥
मूलम्
नैणी मेरे पिआरिआ नैणी मेरे गोविदा किनै हरि प्रभु डिठड़ा नैणी जीउ ॥ मेरा मनु तनु बहुतु बैरागिआ मेरे गोविंदा हरि बाझहु धन कुमलैणी जीउ ॥ संत जना मिलि पाइआ मेरे गोविदा मेरा हरि प्रभु सजणु सैणी जीउ ॥ हरि आइ मिलिआ जगजीवनु मेरे गोविंदा मै सुखि विहाणी रैणी जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नैणी = आँखों से। किनै = किसी विरले ने। बैरागिआ = वैरागवान है। धन = जीव-स्त्री। कुमलैणी = कुम्हलाई हुई, मुरझाई हुई। मिलि = मिल के। सैणी = सैण, मित्र। जगजीवन = जगत का जीवन, जगत के जीवन का आसरा। सुखि = सुख में। रैणी = (जिंदगी की) रात।2।
अर्थ: हे मेरे प्यारे गोबिंद! तुझ हरि-प्रभु को किसी विरले (भाग्यशाली ने अपनी) आँखों से देखा है। हे मेरे गोबिंद! (तेरे विछोड़े में) मेरा मन, मेरा हृदय बहुत वैरागवान हो रहा है। हे हरि! तेरे बिना मैं जीव-स्त्री कुम्हलायी हुई हूँ।
हे मेरे गोबिंद! मेरा हरि प्रभु मेरा (असली) सज्जन-मित्र (जिन्होंने भी ढूँढा है) संत जनों को मिल के ही ढूँढा है। हे मेरे गोबिंद! (संत जनों की मेहर से ही) मुझे (भी) वह हरि आ मिला है जो सारे जगत के जीवन का आसरा है। अब मेरी (जिंदगी रूप) रात आनंद में व्यतीत हो रही है।2।
[[0174]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
मै मेलहु संत मेरा हरि प्रभु सजणु मै मनि तनि भुख लगाईआ जीउ ॥ हउ रहि न सकउ बिनु देखे मेरे प्रीतम मै अंतरि बिरहु हरि लाईआ जीउ ॥ हरि राइआ मेरा सजणु पिआरा गुरु मेले मेरा मनु जीवाईआ जीउ ॥ मेरै मनि तनि आसा पूरीआ मेरे गोविंदा हरि मिलिआ मनि वाधाईआ जीउ ॥३॥
मूलम्
मै मेलहु संत मेरा हरि प्रभु सजणु मै मनि तनि भुख लगाईआ जीउ ॥ हउ रहि न सकउ बिनु देखे मेरे प्रीतम मै अंतरि बिरहु हरि लाईआ जीउ ॥ हरि राइआ मेरा सजणु पिआरा गुरु मेले मेरा मनु जीवाईआ जीउ ॥ मेरै मनि तनि आसा पूरीआ मेरे गोविंदा हरि मिलिआ मनि वाधाईआ जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै = मुझे। संत = हे संत जनो! मै मनि तनि = मेरे मन में, मेरे हृदय में। भुख = (मिलने की) चाह। हउ = मैं। बिरहु = विछोड़े का दर्द। मनु जीवाइआ = मन आत्मिक जीवन तलाश लेता है। वाधाईआ = चढ़दी कला।3।
अर्थ: हे संत जनों! मुझे मेरा सज्जन हरि-प्रभु मिला दो। मेरे मन में मेरे हृदय में उससे मिलने की तमन्ना पैदा हो रही है। मैं अपने प्रीतम को देखे बिना धैर्य नहीं पा सकता, मेरे अंदर उसके विछोड़े का दर्द उठ रहा है। परमात्मा ही मेरा राजा है मेरा प्यारा सज्जन है। जब (उससे) गुरु (मुझे) मिला देता है तो मेरा मन जी उठता है। हे मेरे गोबिंद! जब तू हरि मुझे मिल जाता है, मेरे मन में मेरे दिल में (चिरंकाल से टिकी हुई) आस पूरी हो जाती है, और मेरे मन में चढ़दी कला (उत्साह, उमंग) पैदा हो जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वारी मेरे गोविंदा वारी मेरे पिआरिआ हउ तुधु विटड़िअहु सद वारी जीउ ॥ मेरै मनि तनि प्रेमु पिरम का मेरे गोविदा हरि पूंजी राखु हमारी जीउ ॥ सतिगुरु विसटु मेलि मेरे गोविंदा हरि मेले करि रैबारी जीउ ॥ हरि नामु दइआ करि पाइआ मेरे गोविंदा जन नानकु सरणि तुमारी जीउ ॥४॥३॥२९॥६७॥
मूलम्
वारी मेरे गोविंदा वारी मेरे पिआरिआ हउ तुधु विटड़िअहु सद वारी जीउ ॥ मेरै मनि तनि प्रेमु पिरम का मेरे गोविदा हरि पूंजी राखु हमारी जीउ ॥ सतिगुरु विसटु मेलि मेरे गोविंदा हरि मेले करि रैबारी जीउ ॥ हरि नामु दइआ करि पाइआ मेरे गोविंदा जन नानकु सरणि तुमारी जीउ ॥४॥३॥२९॥६७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वारी = सदके, कुर्बान। हउ = मैं। विटड़िअहु = से। सद = सदा। पिरंम का = प्यारे का। पूंजी = संपत्ति, धन-दौलत, आत्मिक गुणों की राशि पूंजी। विसटु = विचोलिया। मेलि = मिला। करि = कर के। रैबारी = रेहबरी, अगुवाई। दइआ करि = दया की इनायत से।4।
अर्थ: हे मेरे गोबिंद! हे मेरे प्यारे! मैं सदके, मैं तुझसे सदा सदके। हे मेरे गोबिंद! मेरे मन में मेरे हृदय में तूझ प्यारे का प्रेम जाग उठा है (मैं तेरी शरण आया हूँ)। मेरी इस (प्रेम की) राशि की तू रक्षा कर। हे मेरे गोबिंद! मुझे विचोला गुरु मिला, जो मेरे (जीवन की) अगुवाई करके मुझे तुझ हरि से मिला दे। हे मेरे गोबिंद! मैं दास नानक तेरी शरण आया हूँ। तेरी दया के सदके ही मुझे तेरा हरि-नाम प्राप्त हुआ है।4।3।29।67।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माझ महला ४ ॥ चोजी मेरे गोविंदा चोजी मेरे पिआरिआ हरि प्रभु मेरा चोजी जीउ ॥ हरि आपे कान्हु उपाइदा मेरे गोविदा हरि आपे गोपी खोजी जीउ ॥ हरि आपे सभ घट भोगदा मेरे गोविंदा आपे रसीआ भोगी जीउ ॥ हरि सुजाणु न भुलई मेरे गोविंदा आपे सतिगुरु जोगी जीउ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी माझ महला ४ ॥ चोजी मेरे गोविंदा चोजी मेरे पिआरिआ हरि प्रभु मेरा चोजी जीउ ॥ हरि आपे कान्हु उपाइदा मेरे गोविदा हरि आपे गोपी खोजी जीउ ॥ हरि आपे सभ घट भोगदा मेरे गोविंदा आपे रसीआ भोगी जीउ ॥ हरि सुजाणु न भुलई मेरे गोविंदा आपे सतिगुरु जोगी जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चोजी = मौजी, अपनी मर्जी से काम करने वाला। कानु = कान्हा, कृष्ण। गोपी = ग्वालनि। खोजी = (कृष्ण को) ढूँढने वाली। सभघट = सारे शरीर। रसीआ = मायावी पदार्थों के रस लेने वाला। भोगी = पदार्थों को भोगने वाला। सुजाणु = बहुत सियाना। जोगी = भोगों से विरक्त।1।
अर्थ: हे मेरे प्यारे! हे मेरे गोबिंद! तू अपनी मर्जी के काम करने वाला मेरा हरि-प्रभु है। हरि स्वयं ही कृष्ण को पैदा करने वाला है। हरि स्वयं ही (कृष्ण को) तलाशने वाली ग्वालनि है। सब शरीरों में व्यापक हो के हरि खुद ही सब पदार्थों को भोगता है। हरि खुद ही सारे मायावी पदार्थों का रस लेने वाला है, स्वयं ही भोगने वाला है। (पर) हरि बहुत समझदार है (सब पदार्थों को भोगनेवाला होते हुए भी वह) भूलता नहीं, वह हरि खुद ही भोगों से निर्लिप सत्गुरू है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे जगतु उपाइदा मेरे गोविदा हरि आपि खेलै बहु रंगी जीउ ॥ इकना भोग भोगाइदा मेरे गोविंदा इकि नगन फिरहि नंग नंगी जीउ ॥ आपे जगतु उपाइदा मेरे गोविदा हरि दानु देवै सभ मंगी जीउ ॥ भगता नामु आधारु है मेरे गोविंदा हरि कथा मंगहि हरि चंगी जीउ ॥२॥
मूलम्
आपे जगतु उपाइदा मेरे गोविदा हरि आपि खेलै बहु रंगी जीउ ॥ इकना भोग भोगाइदा मेरे गोविंदा इकि नगन फिरहि नंग नंगी जीउ ॥ आपे जगतु उपाइदा मेरे गोविदा हरि दानु देवै सभ मंगी जीउ ॥ भगता नामु आधारु है मेरे गोविंदा हरि कथा मंगहि हरि चंगी जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बहु रंगी = अनेक रंग में। फिरहि = फिरते हैं। सभ मंगी = सारा संसार मांगता है। आधारु = आसरा। मंगहि = मांगते हैं।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हरि प्रभु खुद ही जगत पैदा करता है। हरि स्वयं ही अनेक रंगों में (जगत का खेल) खेल रहा है। हरि स्वयं ही अनेक जीवों से मायावी पदार्थों के भोग भोगाता है (भाव, अनेक को पेट भर के पदार्थ बख्शता है, पर) अनेक जीव ऐसे हैं जो नंगे घूमते हैं (जिनके तन पर कपड़ा भी नहीं)। हरि खुद ही सारे जगत को पैदा करता है। सारी दुनिया उससे मांगती रहती है। वह सभी को दातें देता है। उसकी भक्ति करने वाले लोगों को उसके नाम का ही आसरा है, वे हरि से उसकी श्रेष्ठ महिमा ही मांगते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि आपे भगति कराइदा मेरे गोविंदा हरि भगता लोच मनि पूरी जीउ ॥ आपे जलि थलि वरतदा मेरे गोविदा रवि रहिआ नही दूरी जीउ ॥ हरि अंतरि बाहरि आपि है मेरे गोविदा हरि आपि रहिआ भरपूरी जीउ ॥ हरि आतम रामु पसारिआ मेरे गोविंदा हरि वेखै आपि हदूरी जीउ ॥३॥
मूलम्
हरि आपे भगति कराइदा मेरे गोविंदा हरि भगता लोच मनि पूरी जीउ ॥ आपे जलि थलि वरतदा मेरे गोविदा रवि रहिआ नही दूरी जीउ ॥ हरि अंतरि बाहरि आपि है मेरे गोविदा हरि आपि रहिआ भरपूरी जीउ ॥ हरि आतम रामु पसारिआ मेरे गोविंदा हरि वेखै आपि हदूरी जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: लोच = तमन्ना। मनि = मन में। जलि = जल में। थलि = थल में। रवि रहिआ = रमा हुआ, व्यापक। आतम रामु = सर्व व्यापक आत्मा। हदूरी = हाजिर नाजिर हो के।3।
अर्थ: हरि खुद ही (अपने भक्तों से) अपनी भक्ति करवाता है, भक्तों के मन में (पैदा हुई भक्ति की) तमन्ना खुद ही पूरी करता है। जल में, धरती में, (सब जगह) हरि खुद ही बस रहा है, (सब जीवों में) व्यापक है (किसी जीव से वह हरि) दूर नहीं है। सब जीवों के अंदर व बाहर सारे जगत में हरि खुद ही बसता है, हर जगह हरि स्वयं ही भरपूर है। सर्व-व्यापक राम खुद ही इस जगत-पसारे को पसार रहा है, हरेक के अंग-संग रह के हरि खुद ही सब की संभाल करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि अंतरि वाजा पउणु है मेरे गोविंदा हरि आपि वजाए तिउ वाजै जीउ ॥ हरि अंतरि नामु निधानु है मेरे गोविंदा गुर सबदी हरि प्रभु गाजै जीउ ॥ आपे सरणि पवाइदा मेरे गोविंदा हरि भगत जना राखु लाजै जीउ ॥ वडभागी मिलु संगती मेरे गोविंदा जन नानक नाम सिधि काजै जीउ ॥४॥४॥३०॥६८॥
मूलम्
हरि अंतरि वाजा पउणु है मेरे गोविंदा हरि आपि वजाए तिउ वाजै जीउ ॥ हरि अंतरि नामु निधानु है मेरे गोविंदा गुर सबदी हरि प्रभु गाजै जीउ ॥ आपे सरणि पवाइदा मेरे गोविंदा हरि भगत जना राखु लाजै जीउ ॥ वडभागी मिलु संगती मेरे गोविंदा जन नानक नाम सिधि काजै जीउ ॥४॥४॥३०॥६८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउणु = हवा, प्राण। वाजे = (जीव) बजता है। निधानु = खजाना। गाजै = प्रगट होता है। राखु = रक्षक। राखु लाजै = लज्जा का रक्षक। नामि = नाम से। सिधि = सिद्धि, सफलता। सिधि काजै = कार्य की सिद्धि, मानव जनम के उद्देश्य की कामयाबी।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘भगति’ और ‘भगत’ में फर्क है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: सब जीवों के अंदर प्राण-रूप हो के हरि स्वयं ही बाजा (बजा रहा) है। (हरेक जीव का, मानो, बाजा है) जैसे वह हरेक जीव-बाजे को बजाता है तैसे हरेक जीव बाजा बजता है। हरेक जीव के अंदर हरि का नाम खजाना मौजूद है, पर गुरु के शब्द के द्वारा ही हरि-प्रभु (जीव के अंदर) प्रगट होता है। हरि स्वयं ही जीव को प्रेरित करके अपनी शरण में लाता है, हरि खुद ही भगतों की इज्जत का रखवाला बनता है (भाव, भक्तों को विकारों में गिरने से बचाता है)।
हे दास नानक! तू भी संगति में मिल (हरि प्रभु का नाम जप, और) भाग्यशाली बन। नाम की इनायत से ही जीवन उद्देश्य सफल होता है।4।4।30।68।
[[0175]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी माझ महला ४ ॥ मै हरि नामै हरि बिरहु लगाई जीउ ॥ मेरा हरि प्रभु मितु मिलै सुखु पाई जीउ ॥ हरि प्रभु देखि जीवा मेरी माई जीउ ॥ मेरा नामु सखा हरि भाई जीउ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी माझ महला ४ ॥ मै हरि नामै हरि बिरहु लगाई जीउ ॥ मेरा हरि प्रभु मितु मिलै सुखु पाई जीउ ॥ हरि प्रभु देखि जीवा मेरी माई जीउ ॥ मेरा नामु सखा हरि भाई जीउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै = मुझे। हरि नामै बिरहु = हरि नाम का विरहा। मितु = मित्र। पाई = मैं पाता हूँ। देखि = देख के। जीवा = जीऊँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है, मैं जी पड़ता हूँ। माई = हे माँ। सखा = मित्र।1।
अर्थ: (हे संत जनो!) हरि ने मुझे (मेरे अंदर) हरि नाम की बिरह लगा दी है, मैं (अब तब ही) आनंद का अनुभव कर सकता हूँ जब मुझे मेरा मित्र हरि-प्रभु मिल जाए। हे माँ! हरि-प्रभु को देख के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है (मुझे दृढ़ हो गया है कि) हरि-नाम (ही) मेरा मित्र है मेरा वीर है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुण गावहु संत जीउ मेरे हरि प्रभ केरे जीउ ॥ जपि गुरमुखि नामु जीउ भाग वडेरे जीउ ॥ हरि हरि नामु जीउ प्रान हरि मेरे जीउ ॥ फिरि बहुड़ि न भवजल फेरे जीउ ॥२॥
मूलम्
गुण गावहु संत जीउ मेरे हरि प्रभ केरे जीउ ॥ जपि गुरमुखि नामु जीउ भाग वडेरे जीउ ॥ हरि हरि नामु जीउ प्रान हरि मेरे जीउ ॥ फिरि बहुड़ि न भवजल फेरे जीउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: संत जीउ = हे संत जी! केरे = के। जपि = जप के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। जीउ = हे जी! बहुड़ि = पुनः , दुबारा। भवजल फेरे = संसार समुंदर के चक्र।2।
अर्थ: हे संत जनो! तुम मेरे हरि-प्रभु के गुण गाओ। गुरु की शरण पड़ कर हरि नाम जपने से भाग्य जाग जाते हैं। (हे संत जनो!) हरि का नाम (अब) मेरी जिंदगी का आसरा है। (जो मनुष्य हरि नाम जपता है उसे) दुबारा संसार समुंदर के (जनम मरण के) चक्र नहीं पड़ते।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किउ हरि प्रभ वेखा मेरै मनि तनि चाउ जीउ ॥ हरि मेलहु संत जीउ मनि लगा भाउ जीउ ॥ गुर सबदी पाईऐ हरि प्रीतम राउ जीउ ॥ वडभागी जपि नाउ जीउ ॥३॥
मूलम्
किउ हरि प्रभ वेखा मेरै मनि तनि चाउ जीउ ॥ हरि मेलहु संत जीउ मनि लगा भाउ जीउ ॥ गुर सबदी पाईऐ हरि प्रीतम राउ जीउ ॥ वडभागी जपि नाउ जीउ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। भाउ = प्रेम। वडभागी = बड़े भाग्यों से।3।
अर्थ: हे संत जनो! मेरे मन में, मेरे हृदय में चाव बना रहता है कि कैसे हरि प्रभु का दर्शन कर सकूँ। हे संत जनो! मेरे मन में (हरि प्रभु के दर्शन की) चाहत बन गई है, मुझे हरि प्रभु मिला दो। (हे संत जनों!) गुरु के शब्द के द्वारा बड़े भाग्यों से हरि नाम जप के ही हरि प्रीतम को मिल सकते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरै मनि तनि वडड़ी गोविंद प्रभ आसा जीउ ॥ हरि मेलहु संत जीउ गोविद प्रभ पासा जीउ ॥ सतिगुर मति नामु सदा परगासा जीउ ॥ जन नानक पूरिअड़ी मनि आसा जीउ ॥४॥५॥३१॥६९॥
मूलम्
मेरै मनि तनि वडड़ी गोविंद प्रभ आसा जीउ ॥ हरि मेलहु संत जीउ गोविद प्रभ पासा जीउ ॥ सतिगुर मति नामु सदा परगासा जीउ ॥ जन नानक पूरिअड़ी मनि आसा जीउ ॥४॥५॥३१॥६९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पासा = जो मेरे पास ही है। पूरिअड़ी = पूरी हो जाती है।4।
अर्थ: हे संत जनो! मेरे मन में, मेरे हृदय में गोविंद प्रभु (के मिलाप) की बड़ी आस लगी हुई है। हे संत जनो! मुझे वह गोबिंद प्रभु मिला दो जो मेरे अंदर बसता है।
हे दास नानक! गुरु की मति पे चलने से ही सदा (जीव के अंदर) हरि के नाम का प्रकाश होता है (जिस को गुरु की मति प्राप्त होती है उसके) मन में (पैदा हुई प्रभु मिलाप की) आशा पूरी हो जाती है।4।5।31।69।