०२ गुरु अमर-दास

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी बैरागणि महला १ ॥ हरणी होवा बनि बसा कंद मूल चुणि खाउ ॥ गुर परसादी मेरा सहु मिलै वारि वारि हउ जाउ जीउ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी बैरागणि महला १ ॥ हरणी होवा बनि बसा कंद मूल चुणि खाउ ॥ गुर परसादी मेरा सहु मिलै वारि वारि हउ जाउ जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बनि = वन में, जंगल में। बसा = मैं बसूँ। कंद मूल = घास बूटे (फल फूल)। चुणि = चुन के। खाउ = मैं खाऊँ। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। वारि वारि = सदके सदके। हउ = मैं। जाउ = जाऊँ।1।
अर्थ: (हिरनी जंगल में घास-तृण खाती है और मौज में फुदकती फिरती है) हे प्रभु! तेरा नाम मेरी जीवात्मा के लिए खुराक बने, जैसे हिरनी के लिए कंद-मूल है। मैं तेरे नाम रस को प्रीति से खाऊँ। मैं संसार-वन में बेफिक्र हो के विचरूँ, जैसे जंगल में हिरनी।
अगर गुरु की कृपा से मेरा पति प्रभु मुझे मिल जाए, तो मैं बारंबार उससे सदके जाऊँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै बनजारनि राम की ॥ तेरा नामु वखरु वापारु जी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मै बनजारनि राम की ॥ तेरा नामु वखरु वापारु जी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बनजारनि = वणज करने वाली। वखरु = सौदा।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु! अगर तेरी मेहर हो तो) मैं तेरे नाम की वंजारन बन जाऊूं। तेरा नाम मेरा सौदा बने, तेरे नाम को ही फैलाऊँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोकिल होवा अ्मबि बसा सहजि सबद बीचारु ॥ सहजि सुभाइ मेरा सहु मिलै दरसनि रूपि अपारु ॥२॥

मूलम्

कोकिल होवा अ्मबि बसा सहजि सबद बीचारु ॥ सहजि सुभाइ मेरा सहु मिलै दरसनि रूपि अपारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंबि = आम (के पौधे) पर। सहजि = अडोल अवस्था में (टिक के), मस्त हो के। सबद बीचारु = शब्द का विचार। दरसनि = दर्शनीय, सोहना, सुंदर। रूपि = रूप वाला। अपारु = बेअंत प्रभु।2।
अर्थ: (कोयल की आम से प्रीति प्रसिद्ध है। आम के वृक्ष पर बैठ के कोयल मीठी मस्त सुर में कू-कूह करती है। अगर मेरी प्रीति प्रभु से वैसी हो जाए जैसी कोयल की आम के साथ है तो) मैं कोयल बनूँ, आम पे बैठूँ (भाव, प्रभु नाम को अपनी जिंदगी का सहारा बना लूँ) और मस्त अडोल हालत में टिक के प्रभु की महिमा के शब्द की विचार करूँ (शब्द में चित्त जोड़ दूँ)। मस्त अडोल अवस्था में टिकने से, प्रेम में जुड़ने से ही प्यारा दर्शनीय, सोहना बेअंत प्रभु पति मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मछुली होवा जलि बसा जीअ जंत सभि सारि ॥ उरवारि पारि मेरा सहु वसै हउ मिलउगी बाह पसारि ॥३॥

मूलम्

मछुली होवा जलि बसा जीअ जंत सभि सारि ॥ उरवारि पारि मेरा सहु वसै हउ मिलउगी बाह पसारि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलि = जल में। सभि = सारे। सारि = सार लेता है, संभालता है। उरवारि = इस पार। पारि = उस पार। पसारि = पसार के, बिखेर के।3।
अर्थ: (मछली पानी के बिना नहीं जी सकती। प्रभु के साथ अगर मेरी प्रीति भी ऐसी ही बन जाए तो) मैं मछली बन जाऊँ। सदैव उस जल-प्रभु में टिकी रहूँ जो सारे जीव-जंतुओं की संभाल करता है। प्यारा प्रभु पति (इस संसार समुंदर के अथाह जल के) इस पार और उस पार (हर जगह) बसता है (जैसे मछली अपने बाजू पसार के पानी में तैरती है) मैं भी अपनी बाँहें पसार के (भाव निसंग हो के) उसे मिलूँगी।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागनि होवा धर वसा सबदु वसै भउ जाइ ॥ नानक सदा सोहागणी जिन जोती जोति समाइ ॥४॥२॥१९॥

मूलम्

नागनि होवा धर वसा सबदु वसै भउ जाइ ॥ नानक सदा सोहागणी जिन जोती जोति समाइ ॥४॥२॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नागनि = नागिन। धर = धरती में। जिन = जिस की। जोती = ज्योति स्वरूप प्रभु में।4।
अर्थ: (नागिन बीन पर मस्त होती है। प्रभु से अगर मेरी प्रीति भी ऐसी ही बन जाए, तो) मैं नागिन बनूँ। धरती पे बसूँ (भाव, सबकी चरणधूड़ बनूँ, मेरे अंदर प्रभु की महिमा वाला) गुरु शब्द बसे (जैसे बीन में मस्त हो के सपनी को वैरी की सुध-बुधि भूल जाती है) मेरा भी (दुनिया वाला सारा) डर-भय दूर हो जाए।
हे नानक! जिस जीव-स्त्रीयों की ज्योति (तवज्जो) सदा ज्योति रूप प्रभु में टिकी रहती है, वह बड़ी भाग्यशाली हैं।4।2।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी पूरबी दीपकी महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

गउड़ी पूरबी दीपकी महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के आखिरी अंक पढ़ें: अंक 4 शब्द के बंदों की गिनती है। अंक 20बताता है कि ‘गउड़ी’ में गुरु नानक देव जी का 20वां शब्द है। पिछले शब्द के आखिरी अंक।4।2।19 बताता है कि ‘गउड़ी बैरागणि’ में गुरु नानक देव जी के 2 शब्द हैं। अब रागिनी फिर बदल गई है, और इस रागिनी गउड़ी पूरबी दीपकी’ में गुरु नानक देव जी का1 (एक) शब्द है।
इस शब्द के शुरू में लिखा मूल मंत्र भी यही संकेत करता है कि रागिनी बदल गई है।
नोट: इस शब्द और सोहिले में आए इस शब्द में थोड़ा सा फर्क है। पाठक ध्यान से देख लें।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जै घरि कीरति आखीऐ करते का होइ बीचारो ॥ तितु घरि गावहु सोहिला सिवरहु सिरजणहारो ॥१॥

मूलम्

जै घरि कीरति आखीऐ करते का होइ बीचारो ॥ तितु घरि गावहु सोहिला सिवरहु सिरजणहारो ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जै घरि = जिस घर में, जिस सत्संग घर में। कीरति = कीर्ति, शोभा, महिमा। तितु घरि = उस सत्संग घर में। सोहिला = सुहाग का गीत, यश, महिमा, प्रभु पति से मिलने की चाहत के शब्द।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: लड़की के विवाह पे जो गीत रात को औरतें मिल के गाती हैं, उन्हें सोहिला या सुहाग कहते हैं। इन गीतों में कुछ तो विछोड़े का जज्बा होता है जो लड़की के बिहाए जाने पे माता-पिता व सहेलियों से पड़ना होता है और कुछ आसीसें आदि होती हैं कि पति के घर जा के सुखी बसे।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस (साधु-संगत) घर में (परमात्मा की) महिमा होती है और कर्तार के गुणों की विचार होती है (हे जीवात्मा कन्या!) उस सत्संग घर में (जा के तू भी) परमातमा के महिमा के गीत (सुहाग मिलाप की चाहत के शब्द) गा। और अपने पैदा करने वाले प्रभु को याद कर।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम गावहु मेरे निरभउ का सोहिला ॥ हउ वारी जाउ जितु सोहिलै सदा सुखु होइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

तुम गावहु मेरे निरभउ का सोहिला ॥ हउ वारी जाउ जितु सोहिलै सदा सुखु होइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी = कुर्बान। जितु सोहिले = जिस सोहिले से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे जीवात्मा!) तू (सतसंगियों के साथ मिल के) प्यारे निरभउ (पति) की कीर्ति के गीत गा। (और कह:) मैं सदके हूँ उस कीर्ति के गीत से जिसकी इनायत से सदा का सुख मिलता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित नित जीअड़े समालीअनि देखैगा देवणहारु ॥ तेरे दानै कीमति ना पवै तिसु दाते कवणु सुमारु ॥२॥

मूलम्

नित नित जीअड़े समालीअनि देखैगा देवणहारु ॥ तेरे दानै कीमति ना पवै तिसु दाते कवणु सुमारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समालीअनि = संभालते हैं। देखैगा = संभाल करेगा। तेरे = तेरी ओर से (हे जीवात्मा!)। दानै कीमति = दान का मूल्य। सुमारु = अंदाजा, अंत।2।
अर्थ: (हे जीवात्मा! जिस पति की हजूरी में) सदा ही जीव की संभाल हो रही है। जो दातें देने वाला मालिक (हरेक जीव की) संभाल करता है। (जिस दातार की) दातों का मूल्य (हे जीवात्मा!) तेरे पास नहीं पड़ सकता, उस दातार का क्या अंदाजा (तू लगा सकती है)? (भाव, वह दातार प्रभु बहुत बेअंत है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्मबति साहा लिखिआ मिलि करि पावहु तेलु ॥ देहु सजण आसीसड़ीआ जिउ होवै साहिब सिउ मेलु ॥३॥

मूलम्

स्मबति साहा लिखिआ मिलि करि पावहु तेलु ॥ देहु सजण आसीसड़ीआ जिउ होवै साहिब सिउ मेलु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संबति = साल। साहा = ब्याहे जाने वाला दिन। लिखिया = निश्चित हुआ। मिलि करि = मिल के। पावहु तेल = तेल डालो।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शादी के कुछ दिन पहले शादी वाली कन्या को माईएं डालते हैं। जिसमें चाचियां, ताईयां, भाभियां, सहेलियां मिलके उसके सिर पर तेल डालती हैं और आर्शीवाद भरे गीत गाती हैं कि पति के घर जा के सुखी बसे।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (सत्संग में जा के हे जीवात्मा! अरजोई किया कर) वह साल, वह दिन (जो पहले ही) निश्चित है (जब पति के देश जाने के लिए मेरे वास्ते मौत पाहोचा आना है। हे सत्संगी सहेलियो!) मिल के मुझे माईएं डालो! और हे सज्जन (सहेलियो!) मुझे शुभाशीशें भी दो (भाव, मेरे लिए प्रार्थना भी करो) जिससे पति प्रभु से मेरा मेल हो जाए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घरि घरि एहो पाहुचा सदड़े नित पवंनि ॥ सदणहारा सिमरीऐ नानक से दिह आवंनि ॥४॥१॥२०॥

मूलम्

घरि घरि एहो पाहुचा सदड़े नित पवंनि ॥ सदणहारा सिमरीऐ नानक से दिह आवंनि ॥४॥१॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घरि घरि = हरेक घर में। पाहुचा = आमंत्रण। पवंनि = पड़ते हैं। दिह = दिन। आवंनि = आते हैं।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: विवाह का साहा और लगन निश्चित होने पे लड़के वालों का नाई बारात की गिनती तथा और जरूरी संदेश लेकर लड़की वालों के घर जाता है। उसे पहोचे वाला नाई कहते हैं।
नोट: विवाह के समय माईएं की रस्म की जाती है। चाचियां, ताईयां, भाभियां, सहेलियां मिल के विवाह वाली लड़की के सिर पर तेल डालती हैं, उसे स्नान कराती हैं, और साथ-साथ सुहाग के गीत गाती हैं। पति के घर जा के सुखी बसने की आसीसें देती हैं। उन्हीं दिनों में रात को गाने बैठी औरतें भी सोहिलड़े व सुहाग के गीत गाती हैं। इनमें आर्शीवाद के गीत भी होते हैं और वैराग के भी। क्योंकि, एक तरफ लड़की ने ब्याह के बाद अपने पति के घर जाना है। दूसरी तरफ, उस लड़की का माँ बाप, बहिन भाईयों, सहेलियों, चाचियों ताईयों, भाभियों आदि से विछोड़ा भी होना होता है। इन गीतों में ये दोनों मिलवें भाव होते हैं। जैसे विवाह के लिए समय महूरत निश्चित किया जाता है और उस निहित समय में ही विवाह परिणय आदि को सम्पन्न करने की पूरी कोशिश की जाती है। इस तरह हरेक जीव कन्या का वह समय भी पहले ही निश्चित किया जा चुका है जब मौत पहोचा आता है, और इसने साक-संबंधियों से विछुड़ के इस जगत-पिता के घर को छोड़ के परलोक में जाना है।
इस शब्द में जीवात्मा लड़की को समझाया है कि सत्संग में सुहाग के गीत गा और सुन। सत्संग, जैसे, माईएं पड़ने का स्थान है। सत्संगी सहेलियां यहां एक दूसरी सहेली को आशीशें देती हैं। प्रार्थना करती हैंकि परलोक जाने वाली सहेली को पति प्रभु का मेल हो।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (परलोक में जाने के लिए मौत रूप) ये पहोचा हरेक घर में आ रहा है। ये आमंत्रण नित्य आ रहे हैं। (हे सत्संगियो!) उस निमंत्रण भेजने वाले पति प्रभु को याद करना चाहिए। (क्योंकि) हे नानक! (हमारे भी) वह दिन (नजदीक) आ रहे हैं।4।1।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गउड़ी गुआरेरी ॥ महला ३ चउपदे ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु गउड़ी गुआरेरी ॥ महला ३ चउपदे ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि मिलिऐ हरि मेला होई ॥ आपे मेलि मिलावै सोई ॥ मेरा प्रभु सभ बिधि आपे जाणै ॥ हुकमे मेले सबदि पछाणै ॥१॥

मूलम्

गुरि मिलिऐ हरि मेला होई ॥ आपे मेलि मिलावै सोई ॥ मेरा प्रभु सभ बिधि आपे जाणै ॥ हुकमे मेले सबदि पछाणै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चउपदे = चउ+पदे, चार बंदों वाले शब्द। गुरि मिलिऐ = यदि गुरु मिल जाए। मेला = मिलाप। आपे = (प्रभु) खुद ही। बिधि = (मिलने का) ढंग। सबदि = शब्द के द्वारा।1।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो परमात्मा से मिलाप हो जाता है। वह परमात्मा स्वयं ही (जीव को गुरु से) मिला के (अपने चरणों में) मिला लेता है। प्यारा प्रभु स्वयं ही (जीवों को अपने चरणों में मिलाने के) सारे तरीके जानता है। (जिस मनुष्य को परमात्मा अपने) हुक्म अनुसार (गुरु के साथ) मिलाता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा से सांझ पा लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर कै भइ भ्रमु भउ जाइ ॥ भै राचै सच रंगि समाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सतिगुर कै भइ भ्रमु भउ जाइ ॥ भै राचै सच रंगि समाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भइ = भय में, डर अदब में। भ्रम = भटकना। जाइ = दूर हो जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: गुरु के डर अदब में रहने से (दुनियावी) भटकना दूर हो जाती है। जो मनुष्य (गुरु के) डर अदब में मगन रहता है वह सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के (प्रेम) रंग में समाया रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि मिलिऐ हरि मनि वसै सुभाइ ॥ मेरा प्रभु भारा कीमति नही पाइ ॥ सबदि सालाहै अंतु न पारावारु ॥ मेरा प्रभु बखसे बखसणहारु ॥२॥

मूलम्

गुरि मिलिऐ हरि मनि वसै सुभाइ ॥ मेरा प्रभु भारा कीमति नही पाइ ॥ सबदि सालाहै अंतु न पारावारु ॥ मेरा प्रभु बखसे बखसणहारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुभाइ = (स्वभावेन) अपनी प्यार-रुची के कारण। भारा = बहुत गुणों का मालिक।2।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो परमात्मा (भी अपनी) प्यार रुची के कारण (मनुष्य के) मन में आ बसता है। प्यारा प्रभु बेअंत गुणों का मालिक है। कोई जीव उसका मूल्य नहीं पा सकता (अर्थात, ये नहीं बता सकता कि दुनिया के किसी पदार्थ के बदले परमात्मा मिल सकता है)। जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के उस परमात्मा की महिमा करता है जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता जिसकी हस्ती का इस पार व उस पार का छोर नहीं ढूँढा जा सकता। बख्शनहार प्रभु (उसके सारे गुनाह) बख्श लेता है।2।

[[0158]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि मिलिऐ सभ मति बुधि होइ ॥ मनि निरमलि वसै सचु सोइ ॥ साचि वसिऐ साची सभ कार ॥ ऊतम करणी सबद बीचार ॥३॥

मूलम्

गुरि मिलिऐ सभ मति बुधि होइ ॥ मनि निरमलि वसै सचु सोइ ॥ साचि वसिऐ साची सभ कार ॥ ऊतम करणी सबद बीचार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। निरमलि = निर्मल में। मनि निरमलि = निर्मल मन में। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। साचि वसिऐ = (‘गुरु मिलिऐ’ की तरह) अगर सदा स्थिर प्रभु हृदय में बस जाए। साची कार = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की कार में। करणी = आचरण।3।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए (तो मनुष्य के अंदर) ऊँची बुद्धि पैदा हो जाती है। (मनुष्य के) पवित्र (हुए) मन में वह सदा स्थिर प्रभु प्रगट हो जाता है। अगर सदा स्थिर प्रभु (जीव के मन में) आ बसे, तो सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की महिमा उसकी नित्य की कृत हो जाती है। उसकी करणी श्रेष्ठ हो जाती है। गुरु के शब्द की विचार उसके मन में टिकी रहती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर ते साची सेवा होइ ॥ गुरमुखि नामु पछाणै कोइ ॥ जीवै दाता देवणहारु ॥ नानक हरि नामे लगै पिआरु ॥४॥१॥२१॥

मूलम्

गुर ते साची सेवा होइ ॥ गुरमुखि नामु पछाणै कोइ ॥ जीवै दाता देवणहारु ॥ नानक हरि नामे लगै पिआरु ॥४॥१॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। साची सेवा = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की सेवा-भक्ति। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।4।
अर्थ: सदा स्थिर प्रभु की सेवा-भक्ति गुरु से ही मिलती है। गुरु के सन्मुख रहके ही कोई मनुष्य प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल सकता है। हे नानक! जिस मनुष्य का प्यार हरि के नाम में बन जाता है (उसे निश्चय हो जाता है कि सब दातें) देने के समर्थ दातार प्रभु (सदा उसके सिर पर) जीता जागता कायम है।4।1।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ गुर ते गिआनु पाए जनु कोइ ॥ गुर ते बूझै सीझै सोइ ॥ गुर ते सहजु साचु बीचारु ॥ गुर ते पाए मुकति दुआरु ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ गुर ते गिआनु पाए जनु कोइ ॥ गुर ते बूझै सीझै सोइ ॥ गुर ते सहजु साचु बीचारु ॥ गुर ते पाए मुकति दुआरु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। गिआनु = गहरी सांझ। सीझै = कामयाब हो जाता है। सहजु = आत्मिक अडोलता।1।
अर्थ: कोई (भाग्यशाली) मनुष्य गुरु के द्वारा परमात्मा से गहरी सांझ हासिल करता है। जो मनुष्य गुरु से ये राज समझ लेता है वह (जीवन के खेल में) कामयाब हो जाता है। वह मनुष्य गुरु से स्थायित्व वाली आत्मिक अडोलता प्राप्त कर लेता है। सदा स्थिर (के गुणों) की विचार हासिल कर लेता है वह मनुष्य गुरु की सहायता से (विकारों से) मुक्ति (हासिल करने) का दरवाजा ढूँढ लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरै भागि मिलै गुरु आइ ॥ साचै सहजि साचि समाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

पूरै भागि मिलै गुरु आइ ॥ साचै सहजि साचि समाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भागि = किस्मत से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। साचि = सदा स्थिर प्रभु में।1। रहाउ।
अर्थ: जिस मनुष्य को पूरी किस्मत से गुरु आ के मिल जाता है, वह सदा स्थिर प्रभु में लीन हो जाता है। वह सदा स्थिर रहने वाली आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरि मिलिऐ त्रिसना अगनि बुझाए ॥ गुर ते सांति वसै मनि आए ॥ गुर ते पवित पावन सुचि होइ ॥ गुर ते सबदि मिलावा होइ ॥२॥

मूलम्

गुरि मिलिऐ त्रिसना अगनि बुझाए ॥ गुर ते सांति वसै मनि आए ॥ गुर ते पवित पावन सुचि होइ ॥ गुर ते सबदि मिलावा होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आए = आ के। सुचि = पवित्रता।2।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो (मनुष्य अपने अंदर से) तृष्णा की आग बुझा लेता है। गुरु के द्वारा ही (मनुष्य के) मन में शांति आ बसती है। गुरु के द्वारा ही आत्मिक पवित्रता व आत्मिक स्वच्छता मिलती है। गुरु के द्वारा ही गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा से मिलाप होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाझु गुरू सभ भरमि भुलाई ॥ बिनु नावै बहुता दुखु पाई ॥ गुरमुखि होवै सु नामु धिआई ॥ दरसनि सचै सची पति होई ॥३॥

मूलम्

बाझु गुरू सभ भरमि भुलाई ॥ बिनु नावै बहुता दुखु पाई ॥ गुरमुखि होवै सु नामु धिआई ॥ दरसनि सचै सची पति होई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमि = भटकना में। भुलाई = गलत रास्ते पर पड़ी हुई। पति = पत, इज्जत।3।
अर्थ: गुरु के बिना सारी लुकाई भटकी हुई कुमार्ग पर पड़ी रहती है (और प्रभु के नाम से वंचित रहती है), प्रभु के नाम के बिना (संसार) बहुत दुख नपाता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह परमात्मा का नाम स्मरण करता है। परमात्मा के दर्शन में लीन होने से सदा स्थिर प्रभु में टिकने से उसे सदा स्थिर रहने वाला मान सम्मान प्राप्त हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किस नो कहीऐ दाता इकु सोई ॥ किरपा करे सबदि मिलावा होई ॥ मिलि प्रीतम साचे गुण गावा ॥ नानक साचे साचि समावा ॥४॥२॥२२॥

मूलम्

किस नो कहीऐ दाता इकु सोई ॥ किरपा करे सबदि मिलावा होई ॥ मिलि प्रीतम साचे गुण गावा ॥ नानक साचे साचि समावा ॥४॥२॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ने = को। इकु सोई = सिर्फ वह प्रभु ही। मिलि = मिल के। गावां = मैं गाऊूं।4।
अर्थ: (पर, हे भाई! प्रभु नाम की इस दाति के वास्ते प्रभु के बिना और) किससे बिनती की जाए? सिर्फ परमात्मा ही ये दाति देने के समर्थ है। जिस मनुष्य पे वह मेहर करता है गुरु के शब्द के द्वारा उसका प्रभु के साथ मिलाप हो जाता है।
नानक (की भी यही प्रार्थना है कि) प्रीतम गुरु को मिल के मैं (भी) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुण गाता रहूँ, और सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहूँ।4।2।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ सु थाउ सचु मनु निरमलु होइ ॥ सचि निवासु करे सचु सोइ ॥ सची बाणी जुग चारे जापै ॥ सभु किछु साचा आपे आपै ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ सु थाउ सचु मनु निरमलु होइ ॥ सचि निवासु करे सचु सोइ ॥ सची बाणी जुग चारे जापै ॥ सभु किछु साचा आपे आपै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सु = वह। सचु = सदा स्थिर। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। जापै = प्रगट होती है। आपै = अपने आप से।1।
अर्थ: वह (सत्संग) स्थान, सच्चा स्थान है, (वहां बैठने से मनुष्य का) मन पवित्र हो जाता है। सदा स्थिर प्रभु में (मनुष्य का मन) निवास करता है (सत्संग की इनायत से मनुष्य) सदा स्थिर प्रभु का रूप हो जाता है। (सत्संग में रहके) सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी की इनायत से मनुष्य चारों युगों में प्रसिद्ध हो जाता है। (उसे यकीन हो जाता है कि) ये सारा आकार सदा स्थिर प्रभु खुद ही अपने आप से बनाने वाला है (स्वयंभू या सैभं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करमु होवै सतसंगि मिलाए ॥ हरि गुण गावै बैसि सु थाए ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

करमु होवै सतसंगि मिलाए ॥ हरि गुण गावै बैसि सु थाए ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करमु = मेहर। सतसंगि = सत्संग में। बैसि = बैठ के। थाए = जगह में।1। रहाउ।
अर्थ: (जिस मनुष्य पर परमात्मा की) कृपा हो (उसे वह) सत्संग में मिलाता है, उस जगह पर वह मनुष्य बैठ के परमात्मा के गुण गाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलउ इह जिहवा दूजै भाइ ॥ हरि रसु न चाखै फीका आलाइ ॥ बिनु बूझे तनु मनु फीका होइ ॥ बिनु नावै दुखीआ चलिआ रोइ ॥२॥

मूलम्

जलउ इह जिहवा दूजै भाइ ॥ हरि रसु न चाखै फीका आलाइ ॥ बिनु बूझे तनु मनु फीका होइ ॥ बिनु नावै दुखीआ चलिआ रोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलउ = जल जाए। दूजै भाइ = माया के प्यार में, और-और स्वाद में। अलाइ = बोलती है। बिनु बूझै = (हरि रस का स्वाद) समझे बिना। रोइ = रो के, दुखी हो के।2।
अर्थ: जल जाए ये जीभ अगर ये और-और स्वादों में ही रहती है। अगर ये प्रभु के नाम का स्वाद तो चखती नहीं, उल्टा (निंदा आदि के) फीके बोल ही बोलती है। परमातमा के नाम का स्वाद समझे बिना मनुष्य का मन फीका (प्रेम से विहीन) हो जाता है। शरीर भी फीका हो जाता है (भाव, ज्ञानेंद्रियां भी दुनिया के होछे पदार्थों की तरफ दौड़ने के आदी हो जाते हैं)। नाम से विहीन मनुष्य दुखी जीवन व्यतीत करता है, दुखी हो के ही आखिर यहां से चला जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसना हरि रसु चाखिआ सहजि सुभाइ ॥ गुर किरपा ते सचि समाइ ॥ साचे राती गुर सबदु वीचार ॥ अम्रितु पीवै निरमल धार ॥३॥

मूलम्

रसना हरि रसु चाखिआ सहजि सुभाइ ॥ गुर किरपा ते सचि समाइ ॥ साचे राती गुर सबदु वीचार ॥ अम्रितु पीवै निरमल धार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में।3।
अर्थ: (जिस मनुष्य की) जीभ ने हरि नाम का स्वाद चखा है, वह आत्मिक अडोलता में, प्रभु प्रेम में मगन रहता है। गुरु की मेहर से वह सदा स्थिर प्रभु (महिमा) में रंगी रहती है। गुरु का शब्द ही उसकी विचार बना रहता है। वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस पीता है, नाम जल की पवित्र धार पीता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामि समावै जो भाडा होइ ॥ ऊंधै भांडै टिकै न कोइ ॥ गुर सबदी मनि नामि निवासु ॥ नानक सचु भांडा जिसु सबद पिआस ॥४॥३॥२३॥

मूलम्

नामि समावै जो भाडा होइ ॥ ऊंधै भांडै टिकै न कोइ ॥ गुर सबदी मनि नामि निवासु ॥ नानक सचु भांडा जिसु सबद पिआस ॥४॥३॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भांडा = योग पात्र, शुद्ध हृदय। ऊँधे भांडै = हृदय में, उस हृदय में जो उस प्रभु की ओर से उलटा हुआ है। नामि निवासु = नाम का निवास।4।
अर्थ: (गुरु की कृपा से) जो हृदय शुद्ध हो जाता है, वह प्रभु के नाम में ही लीन रहता है। परमात्मा की ओर से पलटे हुए हृदय में कोई गुण नहीं टिकता। गुरु के शब्द की इनायत से मनुष्य के मन में परमात्मा के नाम का निवास हो जाता है। हे नानक! उस मनुष्य का हृदस असल हृदय है जिसे परमात्मा की महिमा की वाणी की चाहत लगी रहती है।4।3।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ इकि गावत रहे मनि सादु न पाइ ॥ हउमै विचि गावहि बिरथा जाइ ॥ गावणि गावहि जिन नाम पिआरु ॥ साची बाणी सबद बीचारु ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ इकि गावत रहे मनि सादु न पाइ ॥ हउमै विचि गावहि बिरथा जाइ ॥ गावणि गावहि जिन नाम पिआरु ॥ साची बाणी सबद बीचारु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकि = कई। मनि = मन में। सादु = आनंद, स्वाद। जाइ = जाता है।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कई मनुष्य ऐसे हैं जो (भक्ति के गीत) गाते (तो) रहते हैं (पर उनके) मन में कोई आनंद पैदा नहीं होता (क्योंकि वे अपने भक्त होने के) अहंकार में (भक्ति के गीत) गाते हैं (उनका ये उद्यम) व्यर्थ चला जाता है। (महिमा के गीत) असल में वह मनुष्य गाते हैं, जिनका परमात्मा के नाम से प्यार है, जो सदा प्रभु की महिमा की वाणी का, शब्द का विचार (अपने हृदय में टिकाते हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावत रहै जे सतिगुर भावै ॥ मनु तनु राता नामि सुहावै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गावत रहै जे सतिगुर भावै ॥ मनु तनु राता नामि सुहावै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर भावै = गुरु को ठीक लगे। नामि = नाम में। सुहावै = सोहने जीवन वाला बन जाता है।1। रहाउ।
अर्थ: अगर गुरु को ठीक लगे (अगर गुरु मेहर करे तो उसकी मेहर सदका उसकी शरण आया मनुष्य) परमात्मा के गुण गाता रहता है। उसका मन उसका तन प्रभु के नाम में रंगा जाता है और उसका जीवन सुंदर बन जाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकि गावहि इकि भगति करेहि ॥ नामु न पावहि बिनु असनेह ॥ सची भगति गुर सबद पिआरि ॥ अपना पिरु राखिआ सदा उरि धारि ॥२॥

मूलम्

इकि गावहि इकि भगति करेहि ॥ नामु न पावहि बिनु असनेह ॥ सची भगति गुर सबद पिआरि ॥ अपना पिरु राखिआ सदा उरि धारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगति करेहि = रास डालते हैं। असनेह = (स्नेह) प्यार। पिआरि = प्यार में। उरि = हृदय में।2।
अर्थ: कई मनुष्य ऐसे हैं जो (भक्ति के गीत) गाते हैं और रास करते हैं, पर प्रभु के चरणों में प्यार के बिना उन्हें परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं होता। उनकी ही भक्ति स्वीकार होती है, जो गुरु के शब्द के प्यार में जुड़े रहते हैं, जिन्होंने अपने प्रभु पति को सदा अपने हृदय में टिका के रखा हुआ है।2।

[[0159]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति करहि मूरख आपु जणावहि ॥ नचि नचि टपहि बहुतु दुखु पावहि ॥ नचिऐ टपिऐ भगति न होइ ॥ सबदि मरै भगति पाए जनु सोइ ॥३॥

मूलम्

भगति करहि मूरख आपु जणावहि ॥ नचि नचि टपहि बहुतु दुखु पावहि ॥ नचिऐ टपिऐ भगति न होइ ॥ सबदि मरै भगति पाए जनु सोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। आपु जणावहि = अपने आप को भक्त जाहर करते हैं। मरै = स्वै भाव की ओर से मरता है। सोइ = वह ही।3।
अर्थ: मूर्ख लोग रास डालते हैं और अपने आप को भक्त जतलाते हैं, (वे मूर्ख रास डालने के वक्त) नाच नाच के कूदते हैं (पर अंतरात्मे अहंकार के कारण आत्मिक आनंद की जगह) दुख ही दुख पाते हैं। नाचने-कूदने से भक्ति नहीं होती। परमात्मा की भक्ति वही मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो गुरु के शब्द में जुड़ के (स्वैभाव, अहम् से) स्वयं को मार लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति वछलु भगति कराए सोइ ॥ सची भगति विचहु आपु खोइ ॥ मेरा प्रभु साचा सभ बिधि जाणै ॥ नानक बखसे नामु पछाणै ॥४॥४॥२४॥

मूलम्

भगति वछलु भगति कराए सोइ ॥ सची भगति विचहु आपु खोइ ॥ मेरा प्रभु साचा सभ बिधि जाणै ॥ नानक बखसे नामु पछाणै ॥४॥४॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वछलु = (वात्सल्य) प्यार करने वाला। सची = सदा स्थिर रहने वाली, स्वीकार। सभ बिधि = हरेक ढंग।4।
अर्थ: (पर जीवों के भी क्या बस?) भक्ति से प्यार करने वाला वह परमात्मा सब जीवों के ढंग जानता है (कि ये भक्ति करते हैं या पाखण्ड)। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु कृपा करता है वह मनुष्य उसके नाम को पहचानता है (नाम के साथ) गहरी सांझ डाल लेता है।4।4।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ मनु मारे धातु मरि जाइ ॥ बिनु मूए कैसे हरि पाइ ॥ मनु मरै दारू जाणै कोइ ॥ मनु सबदि मरै बूझै जनु सोइ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ मनु मारे धातु मरि जाइ ॥ बिनु मूए कैसे हरि पाइ ॥ मनु मरै दारू जाणै कोइ ॥ मनु सबदि मरै बूझै जनु सोइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारे = बस में कर लेता है। धातु = भटकना (संस्कृत: धा)।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से शब्द ‘जिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबोधक ‘नो’ के कारण अलोप हो गई है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (गुरु की शरण पड़ के जो मनुष्य अपने) मन को काबू कर लेता है, उस मनुष्य की (माया वाली) भटकन समाप्त हो जाती है। मन वश में आए बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। उसी मनुष्य का मन बस में आता है, जो इसे वश में लाने की दवा जानता है। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है) वही समझता है कि मन गुरु के शब्द में जुड़ने से ही वश में आ सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस नो बखसे दे वडिआई ॥ गुर परसादि हरि वसै मनि आई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जिस नो बखसे दे वडिआई ॥ गुर परसादि हरि वसै मनि आई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परसादि = कृपा से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पे परमात्मा मेहर करता है उसे (ये) आदर देता है (कि) गुरु की कृपा से वह प्रभु उसके मन में आ बसता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि करणी कार कमावै ॥ ता इसु मन की सोझी पावै ॥ मनु मै मतु मैगल मिकदारा ॥ गुरु अंकसु मारि जीवालणहारा ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि करणी कार कमावै ॥ ता इसु मन की सोझी पावै ॥ मनु मै मतु मैगल मिकदारा ॥ गुरु अंकसु मारि जीवालणहारा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करणी = (करणीय) करतब, आचरण। मै मतु = मय मस्त, शराब से मस्त। मै = मय,शराब। मिकदारा = की तरह। अंकसु = अंकुश, कुंडा (जिससे हाथी को चलाया जाता है)।2।
अर्थ: जब मनुष्य गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों वाला आचरण बनाने की कार करता है, तब उसको इस मन (के स्वभाव) की समझ आ जाती है, (तब वह समझ लेता है कि) मन अहम् में मस्त रहता है जैसे कोई हाथी शराब में मस्त हो। गुरु ही (आत्मिक मौत मरे हुए इस मन को अपने शब्द का) अंकुश मार के (पुनः) आत्मिक जीवन देने के समर्थ है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु असाधु साधै जनु कोइ ॥ अचरु चरै ता निरमलु होइ ॥ गुरमुखि इहु मनु लइआ सवारि ॥ हउमै विचहु तजे विकार ॥३॥

मूलम्

मनु असाधु साधै जनु कोइ ॥ अचरु चरै ता निरमलु होइ ॥ गुरमुखि इहु मनु लइआ सवारि ॥ हउमै विचहु तजे विकार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोइ = कोई, विरला। अचरु = (अचर = immovable) अमोड़पन। चरै = (चर = to consume) खत्म कर लेता है।3।
अर्थ: (ये) मन (आसानी से) वश में नहीं आ सकता। कोई विरला मनुष्य (गुरु की शरण पड़ के इसे) वश में लाता है। जग मनुष्य (गुरु की सहायता से अपने मन के) अमोड़ पने को खत्म कर लेता है,तब मन पवित्र हो जाता है। गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य इस मन को सुंदर बना लेता है। वह (अपने अंदर से) अहंकार त्याग के विकारों को छोड़ देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो धुरि राखिअनु मेलि मिलाइ ॥ कदे न विछुड़हि सबदि समाइ ॥ आपणी कला आपे ही जाणै ॥ नानक गुरमुखि नामु पछाणै ॥४॥५॥२५॥

मूलम्

जो धुरि राखिअनु मेलि मिलाइ ॥ कदे न विछुड़हि सबदि समाइ ॥ आपणी कला आपे ही जाणै ॥ नानक गुरमुखि नामु पछाणै ॥४॥५॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राखिअनु = राखे उनि, उस (प्रभु) ने रख लिए। कला = ताकत,शक्ति।4।
अर्थ: जिस मनुष्यों को परमात्मा ने अपनी धुर दरगाह से ही गुरु के चरणों में जोड़ के (विकारों से) बचा लिया है, वह गुरु के शब्द में लीन रह के कभी उस परमात्मा से विछड़ते नहीं। हे नानक! परमात्मा अपनी ये असीम ताकत खुद ही जानता है। (ये बात प्रत्यक्ष है कि) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह परमात्मा के नाम को पहचान लेता है (नाम के साथ गहरी सांझ बना लेता है)।4।5।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ हउमै विचि सभु जगु बउराना ॥ दूजै भाइ भरमि भुलाना ॥ बहु चिंता चितवै आपु न पछाना ॥ धंधा करतिआ अनदिनु विहाना ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ हउमै विचि सभु जगु बउराना ॥ दूजै भाइ भरमि भुलाना ॥ बहु चिंता चितवै आपु न पछाना ॥ धंधा करतिआ अनदिनु विहाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बउराना = बउरा, पागल हो रहा है। भाइ = भाउ के कारण। दूजै भाइ = माया के प्यार के कारण। भरमि = भटकन में (पड़ कर)। भुलाना = कुमार्ग पर पड़ गया है। चिन्ता चितवै = सोचें सोचता है। आपु = अपने आत्मिक जीवन को। अनदिनु = हरेक दिन।1।
अर्थ: (हे भाई! प्रभु नाम से वंचित हो के) अहंकार में (फंस के) सारा जगत झल्ला (बउरा) हो रहा है, माया के मोह के कारण भटकना में पड़ के गलत रास्ते पे जा रहा है। और ही कई प्रकार की सोचें सोचता रहता है पर अपने आत्मिक जीवन को नहीं पड़तालता। (इस तरह) माया की खातिर दौड़-भाग करते हुए (मायाधारी जीव का) हरेक दिन बीत रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरदै रामु रमहु मेरे भाई ॥ गुरमुखि रसना हरि रसन रसाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हिरदै रामु रमहु मेरे भाई ॥ गुरमुखि रसना हरि रसन रसाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रमहु = स्मरण करो। भाई = हे भाई! रसना = जीभ। रसाई = रसीली बना।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाई! अपने हृदय में परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। गुरु की शरण पड़ के अपनी जीभ को परमात्मा के नाम रस से रसीली बना।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि हिरदै जिनि रामु पछाता ॥ जगजीवनु सेवि जुग चारे जाता ॥ हउमै मारि गुर सबदि पछाता ॥ क्रिपा करे प्रभ करम बिधाता ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि हिरदै जिनि रामु पछाता ॥ जगजीवनु सेवि जुग चारे जाता ॥ हउमै मारि गुर सबदि पछाता ॥ क्रिपा करे प्रभ करम बिधाता ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। जगजीवनु = जगत का जीवन परमात्मा। जाता = प्रगट हो गया। करम बिधाता = (जीवों के किए) कर्मों अनुसार पैदा करने वाला।2।
अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर अपने हृदय में परमात्मा के साथ जान पहिचान बना ली, वह मनुष्य जगत की जिंदगी के आसरे परमात्मा की सेवा भक्ति करके सदा के लिए प्रगट हो जाता है। (जीवों के किए) कर्मों अनुसार (जीवों को) पैदा करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पर कृपा करता है वह मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके गुरु के शब्द के द्वारा (परमात्मा के साथ) सांझ डाल लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

से जन सचे जो गुर सबदि मिलाए ॥ धावत वरजे ठाकि रहाए ॥ नामु नव निधि गुर ते पाए ॥ हरि किरपा ते हरि वसै मनि आए ॥३॥

मूलम्

से जन सचे जो गुर सबदि मिलाए ॥ धावत वरजे ठाकि रहाए ॥ नामु नव निधि गुर ते पाए ॥ हरि किरपा ते हरि वसै मनि आए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचे = सदा स्थिर प्रभु का रूप। वरजे = रोक ले। ठाकि = रोक के। नव निधि = नौ खजाने।3।
अर्थ: जिस मनुष्यों को परमात्मा गुरु के शब्द से जोड़ता है, जिनको माया के पीछै दौड़ने से वर्जता है और रोक के रखता है, वे मनुष्य परमातमा का रूप हो जाते हैं। वे मनुष्य गुरु से परमात्मा का नाम हासिल कर लेते हैं जो उनके वास्ते (जैसे, धरती के) नौ ही खजाने हैं। अपनी मेहर से परमात्मा उनके मन में आ बसता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम करतिआ सुखु सांति सरीर ॥ अंतरि वसै न लागै जम पीर ॥ आपे साहिबु आपि वजीर ॥ नानक सेवि सदा हरि गुणी गहीर ॥४॥६॥२६॥

मूलम्

राम राम करतिआ सुखु सांति सरीर ॥ अंतरि वसै न लागै जम पीर ॥ आपे साहिबु आपि वजीर ॥ नानक सेवि सदा हरि गुणी गहीर ॥४॥६॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखु = आत्मिक आनंद। न लागै = नहीं छू सकता। जम पीर = यम का दुख। गुणी = गुणों का मालिक। गहीर = गहरा, जिगरे वाला।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करने से शरीर को आनंद मिलता है शांति मिलती है। जिस मनुष्य के अंदर (हरि-नाम) आ बसता है, उसे जम का दुख छू नहीं सकता। हे नानक! जो परमात्मा खुद जगत का मालिक है और खुद ही (जगत की पालना आदि करने में) सलाह देने वाला है। जो सारे गुणों का मालिक है जो बड़े जिगरे वाला है, तू सदा उसकी सेवा-भक्ति कर।4।6।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ सो किउ विसरै जिस के जीअ पराना ॥ सो किउ विसरै सभ माहि समाना ॥ जितु सेविऐ दरगह पति परवाना ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ सो किउ विसरै जिस के जीअ पराना ॥ सो किउ विसरै सभ माहि समाना ॥ जितु सेविऐ दरगह पति परवाना ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सो = वह (परमात्मा)। जीअ पराना = जिंद प्राण। माहि = में। जितु = जिसके द्वारा। जितु सेविऐ = जिसकी सेवा भक्ति करने से। पति = इज्जत। परवाना = स्वीकार।1।
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा के दिए हुए ये जिंद-प्राण हैं जो परमात्मा सब जीवों में व्यापक है, जिसकी सेवा-भक्ति करने से उसकी दरगाह में आदर मिलता है, दरगाह में स्वीकार हो जाते हैं, उसे कभी भी (मन से) भुलाना नहीं चाहिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि के नाम विटहु बलि जाउ ॥ तूं विसरहि तदि ही मरि जाउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि के नाम विटहु बलि जाउ ॥ तूं विसरहि तदि ही मरि जाउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विटहु = से। बलि जाउ = मैं कुर्बान जाता हूँ। मरि जाउ = मैं मर जाता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: मैं परमात्मा के नाम से (सदा) सदके जाता हूँ। (हे प्रभु!) जब तू मुझे बिसर जाता है, उस वक्त मेरी आत्मिक मौत हो जाती है।1। रहाउ।

[[0160]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन तूं विसरहि जि तुधु आपि भुलाए ॥ तिन तूं विसरहि जि दूजै भाए ॥ मनमुख अगिआनी जोनी पाए ॥२॥

मूलम्

तिन तूं विसरहि जि तुधु आपि भुलाए ॥ तिन तूं विसरहि जि दूजै भाए ॥ मनमुख अगिआनी जोनी पाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जि = जो लोग। तुधु = तू। दूजै भाए = माया के मोह में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) जिस लोगों को तूने खुद ही गलत रास्ते पर डाल दिया है, जो (सदा) माया के मोह में ही (फसे रहते हैं) उनके मन से तू बिसर जाता है। उन अपने मन के पीछे चलने वाले ज्ञानहीन लोगों को तू जूनों में डाल देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन इक मनि तुठा से सतिगुर सेवा लाए ॥ जिन इक मनि तुठा तिन हरि मंनि वसाए ॥ गुरमती हरि नामि समाए ॥३॥

मूलम्

जिन इक मनि तुठा से सतिगुर सेवा लाए ॥ जिन इक मनि तुठा तिन हरि मंनि वसाए ॥ गुरमती हरि नामि समाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इक मनि = खास ज्ञान से। तुठा = प्रसंन्न हुआ। तिन मंनि = उनके मन में। नामि = नाम में।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों पर परमात्मा खास ध्यान से प्रसंन्न होता है, उन्हें वह गुरु की सेवा में जोड़ता है। उनके मन में परमात्मा (अपना आप) बसा देता है। वह मनुष्य गुरु की मति पर चल कर परमात्मा के नाम में (सदा) लीन रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिना पोतै पुंनु से गिआन बीचारी ॥ जिना पोतै पुंनु तिन हउमै मारी ॥ नानक जो नामि रते तिन कउ बलिहारी ॥४॥७॥२७॥

मूलम्

जिना पोतै पुंनु से गिआन बीचारी ॥ जिना पोतै पुंनु तिन हउमै मारी ॥ नानक जो नामि रते तिन कउ बलिहारी ॥४॥७॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पोतै = पल्ले, खजाने में। पुंन = भलाई, अच्छे भाग्य।4।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्यों के सौभाग्य होते हैं, वही मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालते है। वही श्रेष्ठ विचार के मालिक बनते हैं। वह (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर लेते हैं।
हे नानक! (कह:) मैं उन मनुष्यों से सदा सदके हूँ, जो परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगे रहते हैं।4।7।27

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ तूं अकथु किउ कथिआ जाहि ॥ गुर सबदु मारणु मन माहि समाहि ॥ तेरे गुण अनेक कीमति नह पाहि ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ तूं अकथु किउ कथिआ जाहि ॥ गुर सबदु मारणु मन माहि समाहि ॥ तेरे गुण अनेक कीमति नह पाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथु = जिसके गुण बयान ना किए जा सकें। मारणु = मसाला।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू कथन से परे है। तेरा स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। जिस मनुष्य के पास गुरु का शब्द रूपी मसाला है (उसने अपने मन को मार लिया है, उसके) मन में तू आ बसता है। हे प्रभु! तेरे अनेक ही गुण हैं, जीव तेरे गुणों का मूल्य नहीं पा सकते।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस की बाणी तिसु माहि समाणी ॥ तेरी अकथ कथा गुर सबदि वखाणी ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

जिस की बाणी तिसु माहि समाणी ॥ तेरी अकथ कथा गुर सबदि वखाणी ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिस की = जिस (परमात्मा) की। बाणी = महिमा की वाणी; महिमा। तिसु माहि = उस (परमात्मा) में। गुर सबदि = गुरु के शब्द ने।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: संबंधक‘की’ के कारण ‘जिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा लोप हो गई है, पर संबंध ‘माहि’, ‘तिसु’ पर ऐसा असर नहीं डाल सका। देखें: गुरबाणी व्याकरण)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: ये महिमा जिस (परमात्मा) की है उस (परमात्मा) में (ही) लीन रहती है। (भाव, जैसे परमात्मा बेअंत है वैसे ही उसकी महिमा भी बेअंत है, वैसे ही परमात्मा के गुण भी बेअंत हैं)। हे प्रभु! तेरे गुणों की कहानी बयान नहीं हो सकती। गुरु के शब्द ने यही बात बताई है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह सतिगुरु तह सतसंगति बणाई ॥ जह सतिगुरु सहजे हरि गुण गाई ॥ जह सतिगुरु तहा हउमै सबदि जलाई ॥२॥

मूलम्

जह सतिगुरु तह सतसंगति बणाई ॥ जह सतिगुरु सहजे हरि गुण गाई ॥ जह सतिगुरु तहा हउमै सबदि जलाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह = जहां, जिस हृदय में। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में।2।
अर्थ: जिस हृदय में सतिगुरु बसता है वहां सत्संगति बन जाती है (क्यूँकि) जिस मनुष्य के हृदय में गुरु बसता है वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के हरि के गुण गाता है। जिस दिल में गुरु बसता है, उसमें से गुरु के शब्द ने अहंकार जला दिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि सेवा महली थाउ पाए ॥ गुरमुखि अंतरि हरि नामु वसाए ॥ गुरमुखि भगति हरि नामि समाए ॥३॥

मूलम्

गुरमुखि सेवा महली थाउ पाए ॥ गुरमुखि अंतरि हरि नामु वसाए ॥ गुरमुखि भगति हरि नामि समाए ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। महली = प्रभु की हजूरी में। नामि = नाम में।3।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा की सेवा-भक्ति करके परमात्मा की हजूरी में स्थान प्राप्त कर लेता है। गुरु के सन्मुख रहके मनुष्य अपने अंदर परमात्मा का नाम बसा लेता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभु-भक्ति की बरकत से प्रभु के नाम में (सदा) लीन रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे दाति करे दातारु ॥ पूरे सतिगुर सिउ लगै पिआरु ॥ नानक नामि रते तिन कउ जैकारु ॥४॥८॥२८॥

मूलम्

आपे दाति करे दातारु ॥ पूरे सतिगुर सिउ लगै पिआरु ॥ नानक नामि रते तिन कउ जैकारु ॥४॥८॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दातारु = दातें देने वाला प्रभु। सिउ = साथ। जैकारु = बड़ाई।4।
अर्थ: दातें देने वाला समर्थ परमात्मा खुद ही (जिस मनुष्य को महिमा की) दाति देता है उसका प्यार पूरे गुरु से बन जाता है।
हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगे रहते हैं, उनको (लोक-परलोक में) बड़ाई मिलती है (आदर मिलता है)।4।8।28।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ एकसु ते सभि रूप हहि रंगा ॥ पउणु पाणी बैसंतरु सभि सहलंगा ॥ भिंन भिंन वेखै हरि प्रभु रंगा ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ एकसु ते सभि रूप हहि रंगा ॥ पउणु पाणी बैसंतरु सभि सहलंगा ॥ भिंन भिंन वेखै हरि प्रभु रंगा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। एकसु ते = एक (परमात्मा) से ही। सभि = सारे। बैसंतरु = आग। सहलंगा = सह+लग्न, मिले हुए, जुड़े हुए। भिंन = भिन्न, अलग।1।
अर्थ: (संसार में दिखते ये) सारे (विभिन्न) रूप और रंग उस परमात्मा से ही बने हैं। उस एक से ही हवा पैदा हुई है पानी बना है आग पैदा हुई है और ये सारे (तत्व अलग अलग रूप रंग वाले सब जीवों में) मिले हुए हैं। वह परमातमा (स्वयं ही) विभिन्न रंगों (वाले जीवों) की संभाल करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु अचरजु एको है सोई ॥ गुरमुखि वीचारे विरला कोई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

एकु अचरजु एको है सोई ॥ गुरमुखि वीचारे विरला कोई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोई = वह (परमात्मा) ही। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।1। रहाउ।
अर्थ: ये एक आश्चर्यजनक चमत्कार है कि परमात्मा स्वयं ही (इस बहुरंगी संसार में हर जगह) मौजूद है। कोई विरला मनुष्य ही गुरु की शरण पड़ के (इस आश्चर्यजनक चमत्कार को) विचारता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहजि भवै प्रभु सभनी थाई ॥ कहा गुपतु प्रगटु प्रभि बणत बणाई ॥ आपे सुतिआ देइ जगाई ॥२॥

मूलम्

सहजि भवै प्रभु सभनी थाई ॥ कहा गुपतु प्रगटु प्रभि बणत बणाई ॥ आपे सुतिआ देइ जगाई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। कहा = कहां। प्रभि = प्रभु ने। देइ = देता है।2।
अर्थ: (अपनी) आत्मिक अडोलता में (टिका हुआ ही वह) परमात्मा सभी जगहों व्यापक हो रहा है। कहीं वह गुप्त है कहीं प्रत्यक्ष है। ये सारा जगत खेल प्रभु ने खुद ही बनाया है। (माया के मोह की नींद में) सोए हुए जीव को वह परमात्मा खुद ही जगा देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिस की कीमति किनै न होई ॥ कहि कहि कथनु कहै सभु कोई ॥ गुर सबदि समावै बूझै हरि सोई ॥३॥

मूलम्

तिस की कीमति किनै न होई ॥ कहि कहि कथनु कहै सभु कोई ॥ गुर सबदि समावै बूझै हरि सोई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किनै = किस (जीव) से। कहि कहि = कह कह के। सभु कोई = हरेक जीव।3।
अर्थ: हरेक जीव (अपनी ओर से परमात्मा के गुण) कह कह के (उन गुणों का) वर्णन करता है, पर किसी जीव द्वारा उसका मोल नहीं पड़ सकता। हां, जो मनुष्य सत्गुरू के शब्द में जुड़ता है, वह परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि सुणि वेखै सबदि मिलाए ॥ वडी वडिआई गुर सेवा ते पाए ॥ नानक नामि रते हरि नामि समाए ॥४॥९॥२९॥

मूलम्

सुणि सुणि वेखै सबदि मिलाए ॥ वडी वडिआई गुर सेवा ते पाए ॥ नानक नामि रते हरि नामि समाए ॥४॥९॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। वेखै = संभाल करता है। ते = से। नामि = नाम में।4।
अर्थ: (इस बहुरंगी संसार का मालिक परमात्मा हरेक जीव की आरजू) सुन सुन के (हरेक की) संभाल करता है। (और अरदास सुन के ही जीव को) गुरु के शब्द में जोड़ता है। (गुरु-शब्द में जुड़ा मनुष्य) गुरु की बताई हुई सेवा से (लोक परलोक में) बहुत आदर मान प्राप्त करता है।
हे नानक! (गुरु के शब्द की इनायत से ही अनेक जीव) परमात्मा के नाम (रंग) में रंगे जाते हैं, परमात्मा के नाम में लीन हो जाते हैं।4।9।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ मनमुखि सूता माइआ मोहि पिआरि ॥ गुरमुखि जागे गुण गिआन बीचारि ॥ से जन जागे जिन नाम पिआरि ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ मनमुखि सूता माइआ मोहि पिआरि ॥ गुरमुखि जागे गुण गिआन बीचारि ॥ से जन जागे जिन नाम पिआरि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मोहि = मोह में। पिआरि = प्यार में। बीचारि = विचार में। नामि = नाम में।1।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के मोह में माया के प्यार में (आत्मिक जीवन की ओर से) गाफिल हुआ रहता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के गुणों के साथ जान पहिचान की विचार में (टिक के माया की तरफ से) सुचेत रहता है। जिस मनुष्य का परमात्मा के नाम में प्यार पड़ जाता है, वह मनुष्य (माया के मोह से) सुचेत रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहजे जागै सवै न कोइ ॥ पूरे गुर ते बूझै जनु कोइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सहजे जागै सवै न कोइ ॥ पूरे गुर ते बूझै जनु कोइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजे = आत्मिक अडोलता में। कोइ = कोई विरला।1। रहाउ।
अर्थ: जो कोई (भाग्यशाली मनुष्य) पूरे गुरु से आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त करता है, वह आत्मिक अडोलता में टिक के (माया के हमलों की ओर से) सुचेत रहता है। वह माया के मोह की नींद में नहीं फंसता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंतु अनाड़ी कदे न बूझै ॥ कथनी करे तै माइआ नालि लूझै ॥ अंधु अगिआनी कदे न सीझै ॥२॥

मूलम्

असंतु अनाड़ी कदे न बूझै ॥ कथनी करे तै माइआ नालि लूझै ॥ अंधु अगिआनी कदे न सीझै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असंतु = विकारी मनुष्य। अनाड़ी = अमोड़, विकारों से ना पलटने वाला, बेसमझ। तै = और। लूझै = झगड़ता है, खचित होता है। सीझै = कामयाब होता है।2।
अर्थ: विकारी मनुष्य, विकारों की ओर अड़ी करने वाले बेसमझ मनुष्य कभी आत्मिक जीवन की समझ प्राप्त नहीं कर सकते। वह ज्ञान की बातें (भी) करते रहते हैं, माया में भी खचित रहते हैं। (ऐसे माया के मोह में) अंधे व ज्ञान हीन मनुष्य (जिंदगी की बाजी में) कभी कामयाब नहीं होते।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु जुग महि राम नामि निसतारा ॥ विरला को पाए गुर सबदि वीचारा ॥ आपि तरै सगले कुल उधारा ॥३॥

मूलम्

इसु जुग महि राम नामि निसतारा ॥ विरला को पाए गुर सबदि वीचारा ॥ आपि तरै सगले कुल उधारा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इसु जुग महि = इस मनुष्य जनम में। नामि = नाम से।3।
अर्थ: इस मनुष्य जनम में आ के परमात्मा के नाम के द्वारा ही (संसार समुंदर से) पार उतारा हो सकता है। कोई विरला मनुष्य ही गुरु के शब्द में जुड़ के ये विचारता है। ऐसा मनुष्य खुद (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है, अपने सारे कुलों को भी पार लंघा लेता है।3।

[[0161]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु कलिजुग महि करम धरमु न कोई ॥ कली का जनमु चंडाल कै घरि होई ॥ नानक नाम बिना को मुकति न होई ॥४॥१०॥३०॥

मूलम्

इसु कलिजुग महि करम धरमु न कोई ॥ कली का जनमु चंडाल कै घरि होई ॥ नानक नाम बिना को मुकति न होई ॥४॥१०॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चण्डाल = कुकर्मी मनुष्य। घरि = हृदय में।4।
अर्थ: कुकर्मी मनुष्य के हृदय में (जैसे) कलियुग आ जाता है। इस कलियुग (भाव, कुकर्म दशा) के पंजे में फंसने से कोई कर्म-धर्म छुड़ा नहीं सकता। हे नानक! परमात्मा के नाम के बिना कोई मनुष्य (कलियुग से) मुक्ति नहीं पा सकता।4।10।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी महला ३ गुआरेरी ॥ सचा अमरु सचा पातिसाहु ॥ मनि साचै राते हरि वेपरवाहु ॥ सचै महलि सचि नामि समाहु ॥१॥

मूलम्

गउड़ी महला ३ गुआरेरी ॥ सचा अमरु सचा पातिसाहु ॥ मनि साचै राते हरि वेपरवाहु ॥ सचै महलि सचि नामि समाहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर कायम रहने वाला, अटल। अमरु = हुक्म। मनि = मन से। सचै = सदा स्थिर प्रभु में। महलि = महल में। समाहु = समाई, लीनता।1।
अर्थ: परमात्मा (जगत का) सदा स्थिर रहने वाला पातशाह है, उसका हुक्म अटल है। जो मनुष्य (अपने) मन से सदा स्थिर परमात्मा (के नाम रंग) में रंगे जाते हैं, वे उस वेपरवाह हरि का रूप हो जाते हैं। वह उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा की हजूरी में रहते हैं। उसके सदा स्थिर नाम में लीनता प्राप्त कर लेते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि मन मेरे सबदु वीचारि ॥ राम जपहु भवजलु उतरहु पारि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सुणि मन मेरे सबदु वीचारि ॥ राम जपहु भवजलु उतरहु पारि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = रे मन! वीचारि = सोच मंडल में टिकाए रख।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (गुरु की शिक्षा) सुन। गुरु के शब्द को (अपने) सोच मण्डल में बसा के रख। अगर तू परमात्मा का नाम सिमरेगा, तो संसार समुंदर से पार लांघ जाएगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरमे आवै भरमे जाइ ॥ इहु जगु जनमिआ दूजै भाइ ॥ मनमुखि न चेतै आवै जाइ ॥२॥

मूलम्

भरमे आवै भरमे जाइ ॥ इहु जगु जनमिआ दूजै भाइ ॥ मनमुखि न चेतै आवै जाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमे = भटकना में ही। आवै = पैदा होता है। जाइ = मरताहै। दूजै भाइ = और-और प्यार में।2।
अर्थ: पर ये जगत (अपने मन के पीछे चल के) माया के मोह में फंस के जनम-मरण के चक्र में पड़ा रहताहै। माया की भटकना में ही पैदा होता है और माया की भटकना में ही मरता है। अपने मन के पीछे चलने वाला जगत परमात्मा को याद नहीं करता और पैदा होता, मरता रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि भुला कि प्रभि आपि भुलाइआ ॥ इहु जीउ विडाणी चाकरी लाइआ ॥ महा दुखु खटे बिरथा जनमु गवाइआ ॥३॥

मूलम्

आपि भुला कि प्रभि आपि भुलाइआ ॥ इहु जीउ विडाणी चाकरी लाइआ ॥ महा दुखु खटे बिरथा जनमु गवाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कि = या, चाहे। प्रभि = प्रभु ने। विडाणी = बेगानी।3।
अर्थ: ये जीव खुद ही गलत रास्ते पर पड़ा है या परमात्मा ने खुद इसे गलत रास्ते पर डाला हुआ है (ये बात स्पष्ट है कि ये अपनी असलियत भुलाए बैठा है और माया के मोह में फंस के) ये जीव बेगानी नौकरी हीकर रहा है (जिससे) ये बहुत दुख ही कमाता है और मानव जन्म व्यर्थ गवा रहा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरपा करि सतिगुरू मिलाए ॥ एको नामु चेते विचहु भरमु चुकाए ॥ नानक नामु जपे नाउ नउ निधि पाए ॥४॥११॥३१॥

मूलम्

किरपा करि सतिगुरू मिलाए ॥ एको नामु चेते विचहु भरमु चुकाए ॥ नानक नामु जपे नाउ नउ निधि पाए ॥४॥११॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नउनिधि = नौ खजाने।4।
अर्थ: परमात्मा अपनी मेहर करके जिस मनुष्य को गुरु मिलाता है, वह मनुष्य (माया का मोह छोड़ के) केवल परमात्मा का नाम स्मरण करता है, तथा, अपने अंदर से माया वाली भटकना दूर कर लेता है। हे नानक! वह मनुष्य सदा हरि नाम स्मरण करता है और हरि-नाम-खजाना प्राप्त करता है जो (उसके वास्ते, जैसे, जगत के सारे) नौ खजाने हैं।4।11।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ जिना गुरमुखि धिआइआ तिन पूछउ जाइ ॥ गुर सेवा ते मनु पतीआइ ॥ से धनवंत हरि नामु कमाइ ॥ पूरे गुर ते सोझी पाइ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ जिना गुरमुखि धिआइआ तिन पूछउ जाइ ॥ गुर सेवा ते मनु पतीआइ ॥ से धनवंत हरि नामु कमाइ ॥ पूरे गुर ते सोझी पाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। पूछउ = मैं पूछता हूँ। जाइ = जा के। पतीआइ = पतीजता है। ते = से।1।
अर्थ: जिस मनुष्यों ने गुरु के राह पर चल कर परमात्मा का नाम स्मरण किया है (जब) मैं उनसे (नाम जपने की विधि) पूछता हूँ (तो वह बताते हैं कि) गुरु की बताई हुई सेवा से (ही) मनुष्य का मन (प्रभु स्मरण में) पतीजता है। (गुरु की शरण पड़ने वाले) वे मनुष्य परमात्मा का नाम-धन कमा के धनाढ हो जाते हैं। ये सद्बुद्धि पूरे गुरे से ही मिलती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु जपहु मेरे भाई ॥ गुरमुखि सेवा हरि घाल थाइ पाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि हरि नामु जपहु मेरे भाई ॥ गुरमुखि सेवा हरि घाल थाइ पाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घाल = मेहनत। थाइ पाई = स्वीकार करता है।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे भाई! (गुरु की शरण पड़ के) सदा परमात्मा का नाम स्मरण करते रहो। गुरु के द्वारा की हुई सेवा भक्ति की मेहनत परमात्मा स्वीकार कर लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपु पछाणै मनु निरमलु होइ ॥ जीवन मुकति हरि पावै सोइ ॥ हरि गुण गावै मति ऊतम होइ ॥ सहजे सहजि समावै सोइ ॥२॥

मूलम्

आपु पछाणै मनु निरमलु होइ ॥ जीवन मुकति हरि पावै सोइ ॥ हरि गुण गावै मति ऊतम होइ ॥ सहजे सहजि समावै सोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपने आत्मिक जीवन को। पछाणै = पड़तालता है। सहजे = आत्मिक अडोलता में।2।
अर्थ: (गुरु के द्वारा जो मनुष्य) अपने आत्मिक जीवन की पड़ताल करता है, उसका मन पवित्र हो जाता है। वह इस जनम में ही माया के बंधनों से मुक्ति हासिल कर लेता है और परमात्मा को मिल जाता है। जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ के) परमात्मा के गुण गाता है, उसक बुद्धि श्रेष्ठ हो जाती है। वह सदैव आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूजै भाइ न सेविआ जाइ ॥ हउमै माइआ महा बिखु खाइ ॥ पुति कुट्मबि ग्रिहि मोहिआ माइ ॥ मनमुखि अंधा आवै जाइ ॥३॥

मूलम्

दूजै भाइ न सेविआ जाइ ॥ हउमै माइआ महा बिखु खाइ ॥ पुति कुट्मबि ग्रिहि मोहिआ माइ ॥ मनमुखि अंधा आवै जाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूजै भाइ = माया के प्यार में। महा बिखु = बड़ा जहर। खाइ = खा जाता है। पुति = पुत्र (के मोह) से। कुटंबि = परिवार (के मोह) से। ग्रिहि = घर (के मोह) से। माइ = माया।3।
अर्थ: (हे मेरे भाई!) माया के मोह में फंसे रहने से ईश्वर की सेवा-भक्ति नहीं हो सकती। अहंकार एक बड़ा जहर है। माया का मोह बड़ा जहर है (ये जहर मनुष्य के आत्मिक जीवन को) समाप्त कर देता है। माया (मनुष्य को) पुत्र (के मोह) के द्वारा, परिवार (के मोह) के द्वारा, घर (के मोह) के द्वारा ठगती रहती है। (माया के मोह में) अंधा हुआ मनुष्य अपने मन के पीछे चल के जनम मरण के चक्र में पड़ा रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु देवै जनु सोइ ॥ अनदिनु भगति गुर सबदी होइ ॥ गुरमति विरला बूझै कोइ ॥ नानक नामि समावै सोइ ॥४॥१२॥३२॥

मूलम्

हरि हरि नामु देवै जनु सोइ ॥ अनदिनु भगति गुर सबदी होइ ॥ गुरमति विरला बूझै कोइ ॥ नानक नामि समावै सोइ ॥४॥१२॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनु = सेवक। अनदिनु = हर रोज।4।
अर्थ: परमात्मा (गुरु के द्वारा जिस मनुष्य को) अपने नाम की दाति देता है, वह मनुष्य (उसका) सेवक बन जाता है। गुरु के शब्द द्वारा ही हर रोज परमात्मा की भक्ति हो सकती है। गुरु की मति लेकर ही कोई विरला मनुष्य (जीवन उद्देश्य को) समझता है। और, हे नानक! वह मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहता है।4।12।32।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ गुर सेवा जुग चारे होई ॥ पूरा जनु कार कमावै कोई ॥ अखुटु नाम धनु हरि तोटि न होई ॥ ऐथै सदा सुखु दरि सोभा होई ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ गुर सेवा जुग चारे होई ॥ पूरा जनु कार कमावै कोई ॥ अखुटु नाम धनु हरि तोटि न होई ॥ ऐथै सदा सुखु दरि सोभा होई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर सेवा = गुरु की बताई सेवा भक्ति। ऐथै = इस लोक मे। दरि = प्रभु की हजूरी में।1।
अर्थ: गुरु की बताई सेवा करने का नियम सदा से ही चला आ रहा है (चारों युगों में ही स्वीकार है)। कोई पूर्ण मनुष्य ही गुरु की बताई सेवा (पूरी श्रद्धा से) करता है। (जो मनुष्य गुरु की बताई कार पूरी श्रद्धा से करता है वह) कभी ना खत्म होने वाला हरि नाम धन (एकत्र कर लेता है, उस धन में कभी) घाटा नहीं पड़ता। (ये नाम धन एकत्र करने वाला मनुष्य) इस लोक में सदा आत्मिक आनंद पाता है, प्रभु की हजूरी में भी उसे शोभा मिलती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ए मन मेरे भरमु न कीजै ॥ गुरमुखि सेवा अम्रित रसु पीजै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ए मन मेरे भरमु न कीजै ॥ गुरमुखि सेवा अम्रित रसु पीजै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमु = शक। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (गुरु की बताई शिक्षा पर) शक नहीं करना चाहिए। गुरु की बताई सेवा-भक्ति करके आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम रस पीना चाहिए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवहि से महापुरख संसारे ॥ आपि उधरे कुल सगल निसतारे ॥ हरि का नामु रखहि उर धारे ॥ नामि रते भउजल उतरहि पारे ॥२॥

मूलम्

सतिगुरु सेवहि से महापुरख संसारे ॥ आपि उधरे कुल सगल निसतारे ॥ हरि का नामु रखहि उर धारे ॥ नामि रते भउजल उतरहि पारे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसारे = संसार में। उर = हृदय (उरस्)। भउजल = संसार समुंदर।2।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वे संसार में महापुरुष माने जाते हैं। अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेते हैं। वे परमात्मा का नाम सदा अपने दिल में संभाल के रखते हैं। प्रभु-नाम (के रंग) में रंगे हुए वो मनुष्य संसार समुंदर से पार लांघ जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवहि सदा मनि दासा ॥ हउमै मारि कमलु परगासा ॥ अनहदु वाजै निज घरि वासा ॥ नामि रते घर माहि उदासा ॥३॥

मूलम्

सतिगुरु सेवहि सदा मनि दासा ॥ हउमै मारि कमलु परगासा ॥ अनहदु वाजै निज घरि वासा ॥ नामि रते घर माहि उदासा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। कमलु = हृदय कमल। अनहदु = एक रस (अनाहत् = बिना बजाए)।3।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं, वो अपने मन में सदा (सभी के) दास बन के रहते हैं, वे अपने अंदर से अहंकार दूर कर लेते हैं और उनका कमल रूपी हृदय खिला रहता है। उनके अंदर (महिमा का, जैसे, बाजा) एक रस बजता रहता है। उनकी तवज्जो प्रभु चरणों में टिकी रहती है। प्रभु नाम में रंगे हुए वे मनुष्य गृहस्थ में रहते हुए भी माया के मोह से निर्लिप रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवहि तिन की सची बाणी ॥ जुगु जुगु भगती आखि वखाणी ॥ अनदिनु जपहि हरि सारंगपाणी ॥ नानक नामि रते निहकेवल निरबाणी ॥४॥१३॥३३॥

मूलम्

सतिगुरु सेवहि तिन की सची बाणी ॥ जुगु जुगु भगती आखि वखाणी ॥ अनदिनु जपहि हरि सारंगपाणी ॥ नानक नामि रते निहकेवल निरबाणी ॥४॥१३॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सची = सदा स्थिर। भगती = भक्तों ने। आखि = कह के, उचार के। सारंगपाणी = परमात्मा (सारंग = धनुष; पाणि = हाथ; जिसके हाथ में धनुष है, धर्नुधारी)। निरबाणी = निर्वाण, वासना रहित। निहकेवल = (निष्कैवल्य) शुद्ध।4।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं (परमात्मा की महिमा में उचारी हुई) उनकी वाणी सदा ही अटल हो जाती है। हरेक युग में (सदा ही) भक्तजन वह वाणी उचार के (और लोगों को भी) सुनाते हैं। वह मनुष्य हर रोज सारंग पाणी प्रभु का नाम जपते हैं। हे नानक! जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ कर) प्रभु के नाम में रंगे जाते हैं, उनका जीवन पवित्र हो जाता है, वे वासना रहित हो जाते हैं।4।13।33।

[[0162]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ सतिगुरु मिलै वडभागि संजोग ॥ हिरदै नामु नित हरि रस भोग ॥१॥

मूलम्

गउड़ी गुआरेरी महला ३ ॥ सतिगुरु मिलै वडभागि संजोग ॥ हिरदै नामु नित हरि रस भोग ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडभागि = बड़ी किस्मत से।1।
अर्थ: जिस मनुष्य को बड़ी किस्मत से भले संजोगों से गुरु मिल जाता है, उसके दिल में परमात्मा का नाम बस जाता है। वह सदा परमात्मा के नाम रस का आनंद लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि प्राणी नामु हरि धिआइ ॥ जनमु जीति लाहा नामु पाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

गुरमुखि प्राणी नामु हरि धिआइ ॥ जनमु जीति लाहा नामु पाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। जीति = जीत के। लाहा = लाभ, कमाई।1। रहाउ।
अर्थ: जो प्राणी गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है, वह मानव जनम की बाजी जीत के (जाता है, और) परमात्मा के नाम-धन की कमाई कमा लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिआनु धिआनु गुर सबदु है मीठा ॥ गुर किरपा ते किनै विरलै चखि डीठा ॥२॥

मूलम्

गिआनु धिआनु गुर सबदु है मीठा ॥ गुर किरपा ते किनै विरलै चखि डीठा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनु = धर्म चर्चा। धिआनु = समाधि। चखि = चख के।2।
अर्थ: जिस मनुष्य को सत्गुरू का शब्द मीठा लगता है, गुरु का शब्द ही (उसके वास्ते) धर्म-चर्चा है (गुरु शब्द ही उस वास्ते) समाधि है। पर किसी विरले भाग्यशाली मनुष्य ने गुरु की कृपा से (गुरु के मीठे शब्द का रस) चख के देखा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करम कांड बहु करहि अचार ॥ बिनु नावै ध्रिगु ध्रिगु अहंकार ॥३॥

मूलम्

करम कांड बहु करहि अचार ॥ बिनु नावै ध्रिगु ध्रिगु अहंकार ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करम कांड = वह कर्म जो शास्त्रों अनुसार जनम समय विवाह के समय, मरने के समय और जनेऊ आदि और समय में करने जरूरी समझे जाते हैं। आचार = धार्मिक रस्में। ध्रिगु = धृग, धिक्कारयोग्य।3।
अर्थ: जो लोग (जनम, जनेऊ, विवाह, किरिया आदिक समय शास्त्रों के अनुसार माने हुए) धार्मिक कर्म करते हैं व अन्य अनेको धार्मिक रस्में करते हैं, पर परमात्मा के नाम से वंचित रहते हैं (ये कर्मकांड उनके अंदर) अहंकार (पैदा करता है और उनका जीवन) धिक्कारयोग्य ही (रहता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बंधनि बाधिओ माइआ फास ॥ जन नानक छूटै गुर परगास ॥४॥१४॥३४॥

मूलम्

बंधनि बाधिओ माइआ फास ॥ जन नानक छूटै गुर परगास ॥४॥१४॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बंधनि = बंधन में। फास = फांसी। परगास = रोशनी।4।
अर्थ: हे दास नानक! (परमात्मा से विछुड़ा मनुष्य) माया की फांसी में, माया के बंधन में बंधा रहता है (ये तभी इस बंधन से) आजाद होता है जब गुरु (के शब्द) का प्रकाश (उसे प्राप्त होता) है।4।14।34।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ३ गउड़ी बैरागणि ॥ जैसी धरती ऊपरिमेघुला बरसतु है किआ धरती मधे पाणी नाही ॥ जैसे धरती मधे पाणी परगासिआ बिनु पगा वरसत फिराही ॥१॥

मूलम्

महला ३ गउड़ी बैरागणि ॥ जैसी धरती ऊपरिमेघुला बरसतु है किआ धरती मधे पाणी नाही ॥ जैसे धरती मधे पाणी परगासिआ बिनु पगा वरसत फिराही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊपर मेघुला = ऊपर का बादल। मधे = मध्य में, बीच में। बिनु पगा = पैरों के बगैर, बादल। फिराही = फिरते हैं।1।
अर्थ: (धरती और बादल का दृष्टांत ले के देख) जैसी धरती है वैसा ही ऊपर का बादल है, जो बरखा करता है। धरती में भी (वैसा ही) पानी है (जैसा बादलों में है)। (कूआँ खोदने से) जैसे धरती में से पानी निकल आता है वैसे ही बादल भी (पानी की) बरखा करते फिरते हैं। (जीवात्मा व परमात्मा में भी ऐसा ही फर्क समझो जैसे धरती के पानी और बादलों के पानी का है। पानी एक ही वही पानी है। जीव चाहे माया में फंसा हुआ है चाहे ऊँची उड़ाने भर रहा है, है एक ही परमात्मा का अंश)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाबा तूं ऐसे भरमु चुकाही ॥ जो किछु करतु है सोई कोई है रे तैसे जाइ समाही ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

बाबा तूं ऐसे भरमु चुकाही ॥ जो किछु करतु है सोई कोई है रे तैसे जाइ समाही ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! ऐसे = इस तरह, ये श्रद्धा बना के। चुकाही = दूर करके। सोई = वह ही, वैसा ही। तैसे = उसी तरफ। जाइ = जा के। समाही = समा के, व्यस्त रहते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (आम भुलेखा ये है कि जीव, प्रभु से अलग अपनी हस्ती मान के अपने आप को कर्मों के करने वाले समझते हैं पर) तू अपना (ये) भुलेखा ये श्रद्धा बना के दूर कर कि प्रभु जैसा भी जिस जीव को बनाता है वैसा वह जीव बन जाता है, और उसी तरफ जीव व्यस्त रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसतरी पुरख होइ कै किआ ओइ करम कमाही ॥ नाना रूप सदा हहि तेरे तुझ ही माहि समाही ॥२॥

मूलम्

इसतरी पुरख होइ कै किआ ओइ करम कमाही ॥ नाना रूप सदा हहि तेरे तुझ ही माहि समाही ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाना = अनेक।2।
अर्थ: क्या स्त्री, क्या मर्द - तुझसे आकी हो के कोई कुछ नहीं कर सकते। (ये सब स्त्रीयां और मर्द) सदा तेरे ही अलग अलग रूप हैं, और आखिर में तेरे में ही समां जाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतने जनम भूलि परे से जा पाइआ ता भूले नाही ॥ जा का कारजु सोई परु जाणै जे गुर कै सबदि समाही ॥३॥

मूलम्

इतने जनम भूलि परे से जा पाइआ ता भूले नाही ॥ जा का कारजु सोई परु जाणै जे गुर कै सबदि समाही ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूलि परे से = भूले पड़े थे। जा = जब। ता = तब। जा का = जिस (प्रभु) का। कारजु = जगत रचना। परु जाणै = अच्छी तरह जानता है। सबदि = शब्द में।3।
अर्थ: (परमात्मा की याद से) भूल के जीव अनेक जन्मों में पड़े रहते हैं। जब परमात्मा का ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब गलत रास्ते से हट जाते हैं। यदि जीव गुरु के शब्द में टिके रहें तो ये समझ आ जाती है कि जिस परमात्मा का ये जगत बनाया हुआ है, वही इसे अच्छी तरह समझता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरा सबदु तूंहै हहि आपे भरमु कहाही ॥ नानक ततु तत सिउ मिलिआ पुनरपि जनमि न आही ॥४॥१॥१५॥३५॥

मूलम्

तेरा सबदु तूंहै हहि आपे भरमु कहाही ॥ नानक ततु तत सिउ मिलिआ पुनरपि जनमि न आही ॥४॥१॥१५॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदु = हुक्म। कहा ही = कहां? (भाव, कहीं नहीं रह जाता)। सिउ = साथ। पुनरपि = मुड़ मुड़ के। न आही = नहीं आते।4।
अर्थ: (हे प्रभु! हर जगह) तेरा (ही) हुक्म (बरत रहा) है। (हर जगह) तू खुद ही (मौजूद) है - (जिस मनुष्य के अंदर ये निश्चय बन जाए, उसे) भुलेखा कहां रह जाता है? हे नानक! (जिस मनुष्यों के अंदर से अनेकता का भुलेखा दूर हो जाता है, उनकी तवज्जो परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है जैसे, हवा, पानी आदि हरेक) तत्व (अपने) तत्व से मिल जाता है। ऐसे मनुष्य मुड़-मुड़ के जन्मों में नहीं आते।4।1।15।35।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ सभु जगु कालै वसि है बाधा दूजै भाइ ॥ हउमै करम कमावदे मनमुखि मिलै सजाइ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ सभु जगु कालै वसि है बाधा दूजै भाइ ॥ हउमै करम कमावदे मनमुखि मिलै सजाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कालै वसि = मौत के वश में, आत्मिक मौत के वश में। बाधा = बंधा हुआ। दूजै भाइ = माया के मोह में। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य।1।
अर्थ: (जब तक) ये जगत माया के मोह में बंधा रहता है (तब तक ये) सारा जगत आत्मिक मौत के काबू में आया रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (सारे) काम अहंकार के आसरे करते हैं और उन्हें (आत्मिक मौत की ही) सजा मिलती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मन गुर चरणी चितु लाइ ॥ गुरमुखि नामु निधानु लै दरगह लए छडाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मन गुर चरणी चितु लाइ ॥ गुरमुखि नामु निधानु लै दरगह लए छडाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। निधानु = खजाना।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! गुरु के चरणों में तवज्जो जोड़। गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का नाम खजाना इकट्ठा कर ले। (ये तूझे) परमात्मा की हजूरी में (तेरे किए कर्मों का लेखा करने के समय) सही स्वीकार करेगा।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लख चउरासीह भरमदे मनहठि आवै जाइ ॥ गुर का सबदु न चीनिओ फिरि फिरि जोनी पाइ ॥२॥

मूलम्

लख चउरासीह भरमदे मनहठि आवै जाइ ॥ गुर का सबदु न चीनिओ फिरि फिरि जोनी पाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हठि = हठ से। मन हठि = मन के हठ के कारण। चीनिओ = पहचाना।2।
अर्थ: (माया के मोह में बंधे हुए जीव) चौरासी लाख जोनियों में फिरते रहते हैं। अपने मन के हठ के कारण (माया के मोह में फंसा जीव) जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द (की कद्र) को नहीं समझता वह मुड़ मुड़ जोनियों में पड़ता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि आपु पछाणिआ हरि नामु वसिआ मनि आइ ॥ अनदिनु भगती रतिआ हरि नामे सुखि समाइ ॥३॥

मूलम्

गुरमुखि आपु पछाणिआ हरि नामु वसिआ मनि आइ ॥ अनदिनु भगती रतिआ हरि नामे सुखि समाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपने आत्मिक जीवन को। पछाणिआ = परखा। मनि = मन में। अनदिनु = हर रोज। सुखि = आत्मिक आनंद में।3।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहके आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है, उसके मन में परमात्मा का नाम आ बसता है। हर रोज परमात्मा की भक्ति (के रंग में) रंगा रहने के कारण वह परमात्मा के नाम में लीन रहता है वह आत्मिक आनंद में टिका रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु सबदि मरै परतीति होइ हउमै तजे विकार ॥ जन नानक करमी पाईअनि हरि नामा भगति भंडार ॥४॥२॥१६॥३६॥

मूलम्

मनु सबदि मरै परतीति होइ हउमै तजे विकार ॥ जन नानक करमी पाईअनि हरि नामा भगति भंडार ॥४॥२॥१६॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = शब्द में। मरै = अहंकार से मरता है, अहंकार दूर करता है। परतीति = प्रतीति, श्रद्धा। करमी = (परमात्मा की) मेहर से ही (करम = बख्शिश)। पाईअनि = पाए जाते हैं, मिलते हैं। भण्डार = खजाने।4।
अर्थ: जिस मनुष्य का मन गुरु के शब्द में जुड़ने के कारण स्वै-भाव की ओर से मर जाता है, उसकी (गुरु के शब्द में) श्रद्धा बन जाती है और वह अपने अंदर से अहंकार (आदि) विकार त्यागता है। हे दास नानक! परमात्मा के नाम के खजाने, परमात्मा की भक्ति के खजाने, परमात्मा की मेहर से ही मिलते हैं।4।2।16।36।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ पेईअड़ै दिन चारि है हरि हरि लिखि पाइआ ॥ सोभावंती नारि है गुरमुखि गुण गाइआ ॥ पेवकड़ै गुण समलै साहुरै वासु पाइआ ॥ गुरमुखि सहजि समाणीआ हरि हरि मनि भाइआ ॥१॥

मूलम्

गउड़ी बैरागणि महला ३ ॥ पेईअड़ै दिन चारि है हरि हरि लिखि पाइआ ॥ सोभावंती नारि है गुरमुखि गुण गाइआ ॥ पेवकड़ै गुण समलै साहुरै वासु पाइआ ॥ गुरमुखि सहजि समाणीआ हरि हरि मनि भाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेइअड़ै = पिता के घर में, इस लोक में। दिन चारि है = चार दिन (रहने के वास्ते) मिले हैं, थोड़े दिन। लिखि = लिख के। पाइआ = (हरेक जीव के माथे पे) रख दिया है। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। पेवकड़ै = पिता के घर में, इस लोक में। संमलै = संभालती है। वासु = जगह। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मनि = मन में।1।
अर्थ: परमात्मा ने (हरेक जीव के माथे पे यही लेख) लिख के रख दिए हैं कि हरेक को इस लोक में रहने के वास्ते थोड़े ही दिन मिले हुए हैं (फिर भी सब जीव माया के मोह में फंसे रहते हैं)। वह जीव-स्त्री (लोक परलोक में) शोभा कमाती है, जो गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के गुण गाती है। जो जीव-स्त्री इस पिता के घर में रहने के समय परमात्मा के गुण अपने दिल में संभालती है उसे परलोक में (प्रभु की हजूरी में) आदर मिल जाता है। गुरु के सन्मुख रहके वह जीवस्त्री (सदा) आत्मिक अडोलता में लीन रहती है। परमात्मा (का नाम) उसे अपने मन में प्यारा लगता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ससुरै पेईऐ पिरु वसै कहु कितु बिधि पाईऐ ॥ आपि निरंजनु अलखु है आपे मेलाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

ससुरै पेईऐ पिरु वसै कहु कितु बिधि पाईऐ ॥ आपि निरंजनु अलखु है आपे मेलाईऐ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ससुरे = ससुराल घर में, परलोक में। पेईऐ = इस लोक में। कहु = बताओ। कितु बिधि = किस तरीके से? निरंजनु = माया के प्रभाव से रहित। अलखु = अदृष्ट। आपे = खुद ही।1। रहाउ।
अर्थ: (हे सत्संगी! हे बहिन!) बता, वह पति प्रभु किस ढंग से मिल सकता है जो इस लोक में और परलोक में (हर जगह) बसता है? (हे जिज्ञासु जीव-स्त्री!) वह प्रभु पति (हर जगह पर मौजूद होते हुए भी) माया के प्रभाव से परे है, और अदृश्य भी है। वह स्वयं ही अपना मेल कराता है।1। रहाउ।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे ही प्रभु देहि मति हरि नामु धिआईऐ ॥ वडभागी सतिगुरु मिलै मुखि अम्रितु पाईऐ ॥ हउमै दुबिधा बिनसि जाइ सहजे सुखि समाईऐ ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे नाइ लाईऐ ॥२॥

मूलम्

आपे ही प्रभु देहि मति हरि नामु धिआईऐ ॥ वडभागी सतिगुरु मिलै मुखि अम्रितु पाईऐ ॥ हउमै दुबिधा बिनसि जाइ सहजे सुखि समाईऐ ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे नाइ लाईऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देहि = तू देता है (देइ = देय, देता है)। मुखि = मुंह में। दुबिधा = दुचित्तापन, डाँवाडोल मानसिक अवस्था। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। सुखि = आत्मिक आनंद में। नाइ = नाम में।2।
अर्थ: (हे परमात्मा!) तू स्वयं ही (सब जीवों का) मालिक है। जिस जीव को तू स्वयं ही मति देता है, उसीसे हरि नाम स्मरण किया जा सकता है। जिस मनुष्य को बड़े भाग्यों से गुरु मिल जाता है, उसके मुँह में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पड़ता है। उस मनुष्य के अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। उसकी मानसिक डाँवाडोल दशा समाप्त हो जाती है। वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। वह आत्मिक आनंद में मगन रहता है। (हे भाई!) हर जगह प्रभु स्वयं ही स्वयं मौजूद है। वह स्वयं ही जीवों कोअपने नाम में जोड़ता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि गरबि न पाइओ अगिआन इआणे ॥ सतिगुर सेवा ना करहि फिरि फिरि पछुताणे ॥ गरभ जोनी वासु पाइदे गरभे गलि जाणे ॥ मेरे करते एवै भावदा मनमुख भरमाणे ॥३॥

मूलम्

मनमुखि गरबि न पाइओ अगिआन इआणे ॥ सतिगुर सेवा ना करहि फिरि फिरि पछुताणे ॥ गरभ जोनी वासु पाइदे गरभे गलि जाणे ॥ मेरे करते एवै भावदा मनमुख भरमाणे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरबि = अहंकार के कारण। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। गरभे = गर्भ में। एवै = इस तरह।3।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ज्ञान से हीन होते हैं (जीवन जुगति से) अंजान होते हैं। वे अहंकार में रहते हैं उन्हें परमात्मा का मेल नहीं होता। वे (अपने गुमान में रह के) सतिगुरु की शरण नहीं पड़ते (गलत रास्ते पर पड़ के) बार बार पछताते रहते हैं। वे मनुष्य जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। इस चक्कर में उनका आत्मिक जीवन गल जाता है। मेरे कर्तार को यही अच्छा लगता है कि अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य जनम-मरण के चक्कर में भटकते रहें।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरै हरि प्रभि लेखु लिखाइआ धुरि मसतकि पूरा ॥ हरि हरि नामु धिआइआ भेटिआ गुरु सूरा ॥ मेरा पिता माता हरि नामु है हरि बंधपु बीरा ॥ हरि हरि बखसि मिलाइ प्रभ जनु नानकु कीरा ॥४॥३॥१७॥३७॥

मूलम्

मेरै हरि प्रभि लेखु लिखाइआ धुरि मसतकि पूरा ॥ हरि हरि नामु धिआइआ भेटिआ गुरु सूरा ॥ मेरा पिता माता हरि नामु है हरि बंधपु बीरा ॥ हरि हरि बखसि मिलाइ प्रभ जनु नानकु कीरा ॥४॥३॥१७॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। धुरि = धुर से, अपनी हजूरी से। मसतकि = माथे पे। सूरा = सूरमा। बंधपु = रिश्तेदार। बीरा = वीर, भाई। प्रभ = हे प्रभु! कीरा = कीड़ा, नाचीज, विनम्र भाव में।4।
अर्थ: (जिस भाग्यशाली मनुष्य के) माथे पे मेरे हरि प्रभु ने अपनी धुर दरगाह से (बख्शिश का) अटल लेख लिख दिया, उसे (सब विकारों से हाथ दे के बचाने वाला) शूरवीर गुरु मिल जाता है, (गुरु की कृपा से) वह सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है।
(हे भाई!) परमात्मा का नाम ही मेरा पिता है नाम ही मेरी माँ है। परमात्मा (का नाम) ही मेरा संबंधी है मेरा भाई है। (मैं सदा परमात्मा के दर पर ही आरजू करता हूँ कि) हे प्रभु! हे हरि! ये नानक तेरा निमाणा दास है, इस पे बख्शिश कर और इसे (अपने चरणों में) जोड़े रख! 4।13।17।37।