[[0151]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी गुआरेरी महला १ चउपदे दुपदे
मूलम्
रागु गउड़ी गुआरेरी महला १ चउपदे दुपदे
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भउ मुचु भारा वडा तोलु ॥ मन मति हउली बोले बोलु ॥ सिरि धरि चलीऐ सहीऐ भारु ॥ नदरी करमी गुर बीचारु ॥१॥
मूलम्
भउ मुचु भारा वडा तोलु ॥ मन मति हउली बोले बोलु ॥ सिरि धरि चलीऐ सहीऐ भारु ॥ नदरी करमी गुर बीचारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भउ = प्रभु का डर, ये यकीन कि प्रभु मेरे अंदर बसता व सबमें बसता है। मुचु = बहुत। मन मति = मन के पीछे चलने वाली मति। हउली = हल्की, होछी। बोलु = होछा बोल। सिरि = सिर पे। धरि = धर के। चलीऐ = जीवन गुजारें। भारु = प्रभु के डर का भार। नदरी = प्रभु की (मेहर की) नजर से। करमी = प्रभु की बख्शिश से।1।
अर्थ: प्रभु का डर बहुत भारी है इसका तौल बड़ा है (भाव, जिस मनुष्य के अंदर प्रभु का डर अदब बसता है उसका जीवन ठोस व गंभीर बन जाता है)। जिसकी मति उसके मन के पीछे चलती है वह होछी रहती है। वह होछा ही वचन बोलता है। अगर प्रभु का डर सिर पर धर के (भाव, स्वीकार करके) जीवन गुजारें और उसके डर का भार सह सकें (भाव, प्रभु का डर अदब सुखदायी लगने लग पड़े) तो प्रभु के मेहर की नजर से प्रभु की बख्शिश से (मानवता बारे) गुरु की (बताई हुई) विचार (जीवन का हिस्सा बन जाती है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भै बिनु कोइ न लंघसि पारि ॥ भै भउ राखिआ भाइ सवारि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
भै बिनु कोइ न लंघसि पारि ॥ भै भउ राखिआ भाइ सवारि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भै बिनु = प्रभु का डर (हृदय में रखने) के बिना। भै = प्रभु के डर में (रह के)। भाइ = प्रेम से। सवारि = सवार के, सजा के, सोहना बना के।1। रहाउ।
अर्थ: (संसार विकारों भरा एक ऐसा समुंदर है जिसमें परमातमा का) डर हृदय में बसाए बिना कोई पार नहीं गुजर सकता। (सिर्फ वही पार गुजरता है जिसने) प्रभु के डर में रह के और (प्रभु) प्यार के द्वारा (अपना जीवन) सवार के प्रभु का डर अदब (अपने हृदय में) टिका के रखा हुआ है (भाव, जिसने ये श्रद्धा बना ली है कि प्रभु मेरे अंदर और सबमें बसता है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भै तनि अगनि भखै भै नालि ॥ भै भउ घड़ीऐ सबदि सवारि ॥ भै बिनु घाड़त कचु निकच ॥ अंधा सचा अंधी सट ॥२॥
मूलम्
भै तनि अगनि भखै भै नालि ॥ भै भउ घड़ीऐ सबदि सवारि ॥ भै बिनु घाड़त कचु निकच ॥ अंधा सचा अंधी सट ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तनि = तन में, शरीर में। अगनि = प्रभु को मिलने की आग, तमन्ना। भखै = भखती है, और तेज होती है। भै नालि = प्रभु का डर रखने से, ज्यों ज्यों इस यकीन में जीएं कि वह हमारे अंदर और सबके अंदर बसता है। भउ घढ़ीऐ = भउ रूप घाढ़त घढ़ी जाती है, प्रभु के डर में रहने का स्वभाव बनता जाता है। सवारि = सवार के। घाढ़त = जीवन की घाढ़त। कच = होछी, बेरसी। निकच = बिल्कुल होछी। सचा = सांचा, कलबूत जिसमें कोई नई चीज ढाली जाती है। सट = चोट, उद्यम। अंधा = अंधा, ज्ञानहीन, होछापन पैदा करने वाला।2।
अर्थ: प्रभु के डर-अदब में रहने से मनुष्य के अंदर प्रभु को मिलने की चाह टिकी रहती है। गुरु के शब्द के द्वारा (आत्मिक जीवन को) सुंदर बना के ज्यों ज्यों इस यकीन में जीएं कि प्रभु हमारे अंदर है और सबके अंदर मौजूद है, ये चाहत और तेज होती जाती है। प्रभु का डर अदब रखे बिना (हमारे जीवन का विकास) हमारे मन की घाढ़त होछी हो जाती है, बिल्कुल होछी बनती जाती है, (क्योंकि) जिस साँचे में जीवन ढलता है वह होछापन पैदा करने वाला होता है, हमारे यत्न भी अज्ञानता वाले ही होते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुधी बाजी उपजै चाउ ॥ सहस सिआणप पवै न ताउ ॥ नानक मनमुखि बोलणु वाउ ॥ अंधा अखरु वाउ दुआउ ॥३॥१॥
मूलम्
बुधी बाजी उपजै चाउ ॥ सहस सिआणप पवै न ताउ ॥ नानक मनमुखि बोलणु वाउ ॥ अंधा अखरु वाउ दुआउ ॥३॥१॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अगर दो मनुष्यों के जीवन को तौलें; एक के अंदर प्रभु का डर और दूसरे के अंदर अपने मन की मति हो। पहले का जीवन गउरा गंभीर होगा, दूसरे का हल्के मेल का।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाजी = संसार खेल। चाउ = सांसारिक चाव। सहस = हजारों। पवै न ताउ = सेक नहीं पड़ता, असर नहीं होता, मन ढलता नहीं। वाउ = हवा जैसा। वाउ दुआउ = व्यर्थ फजूल।3।
अर्थ: हे नानक! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की बुद्धि जगत-खेल में लगी रहती है। (जगत तमाशों का ही) चाव उसके अंदर पैदा होता रहता है। मनमुख चाहे हजारों अच्छाईआं भी करे, उसका जीवन ठीक साँचे में नहीं ढलता। मनमुख के बेअर्थ बोल होते हैं, वह अंधा ऊल-जलूल बातें ही करता है।3।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला १ ॥ डरि घरु घरि डरु डरि डरु जाइ ॥ सो डरु केहा जितु डरि डरु पाइ ॥ तुधु बिनु दूजी नाही जाइ ॥ जो किछु वरतै सभ तेरी रजाइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला १ ॥ डरि घरु घरि डरु डरि डरु जाइ ॥ सो डरु केहा जितु डरि डरु पाइ ॥ तुधु बिनु दूजी नाही जाइ ॥ जो किछु वरतै सभ तेरी रजाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डरि = डर से, प्रभु के डर-अदब में रहने से। घरु = प्रभु का घर, वह आत्मिक अवस्था जहां मन प्रभु चरणों में जुड़ा रहता है। घरि = घर में, हृदय में। डरु = प्रभु का डर, ये यकीन कि प्रभु मेरे अंदर बसता है और सबमें बसता है। डरु जाइ = (दुनिया का हरेक किस्म का) सहम दूर हो जाता है। सो डरु केहा = प्रभु का डर ऐसा नहीं होता कि। जितु डरि = कि उस डर में रहने से। डरु पाइ = दुनिया वाला सहम टिका रहे। जाइ = जगह। रजाइ = हुक्म, मर्जी।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे डर-अदब में रहने से वह आत्मिक अवस्था मिल जाती है जहां मन तेरे चरणों में जुड़ा रहता है। हृदय में ये यकीन बन जाता है कि तू मेरे अंदर बसता है और सभमें बसता है। तेरे डर में रहने से (दुनिया के हरेक किस्म का) डर सहम दूर हो जाता है। तेरा डर ऐसा नहीं होता कि उस डर में रहने से कोई और सहम टिका रहे।
(हे प्रभु!) तेरे बिना जीव का कोई और ठिकाना-आसरा नहीं है। जगत में जो कुछ हो रहा है सब तेरी मर्जी से हो रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
डरीऐ जे डरु होवै होरु ॥ डरि डरि डरणा मन का सोरु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
डरीऐ जे डरु होवै होरु ॥ डरि डरि डरणा मन का सोरु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: डरीऐ = सहमे रहें। होरु = कोई और, किसी और (stranger) का। डरि डरि डरणा = सदा डरते रहना। सोरु = शोर, घबराहट, डोलने की निशानी।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरा डर-अदब टिकने की जगह) अगर जीव के हृदय में कोई और डर टिका रहे, तो जीव सदा सहमा रहता है। मन की घबराहट मन का सहम हर वक्त बना रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना जीउ मरै न डूबै तरै ॥ जिनि किछु कीआ सो किछु करै ॥ हुकमे आवै हुकमे जाइ ॥ आगै पाछै हुकमि समाइ ॥२॥
मूलम्
ना जीउ मरै न डूबै तरै ॥ जिनि किछु कीआ सो किछु करै ॥ हुकमे आवै हुकमे जाइ ॥ आगै पाछै हुकमि समाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीउ = जीवात्मा। जिनि = जिस प्रभु ने। किछु = ये जगत रचना। सो = वही प्रभु। किछु = सब कुछ। आवै = पैदा होता है। जाइ = मरता है। आगै पाछै = लोक परलोक में। समाइ = टिका रहता है, टिका रहना पड़ता है।2।
अर्थ: (प्रभु के डर-अदब में रहने से ही ये यकीन बन सकता है कि) जीव ना मरता है। ना कहीं डूब सकता है ना ही कहीं से तैरता है (भाव, जो कभी डूबता ही नही, उसके तैरने का सवाल ही पैदा नहीं होता)। (ये यकीन बना रहता है कि) जिस परमात्मा ने ये जगत बनाया है, वही सब कुछ कर रहा है। उसके हुक्म में ही जीव पैदा होता है और हुक्म में ही मरता है। लोक परलोक में जीव को उसके हुक्म में टिके रहना पड़ता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हंसु हेतु आसा असमानु ॥ तिसु विचि भूख बहुतु नै सानु ॥ भउ खाणा पीणा आधारु ॥ विणु खाधे मरि होहि गवार ॥३॥
मूलम्
हंसु हेतु आसा असमानु ॥ तिसु विचि भूख बहुतु नै सानु ॥ भउ खाणा पीणा आधारु ॥ विणु खाधे मरि होहि गवार ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हंसु = हिंसा, निर्दयता। हेतु = मोह। असमानु = स्वैमान (जैसे स्वरूप से असरूप) अहंकार। भूख = तृष्णा। नै = नदी। सानु = की तरह। आधारु = (आत्मिक जीवन का) आसरा। मरि = मर के, डर में खप के, डर डर के। गवारि होहि = गवार हुए जा रहे हैं।3।
अर्थ: (जिस हृदय में प्रभु का डर-अदब नहीं है और मोह है, अहंकार है) उस हृदय में तृष्णा की कांग नदी की तरह (ठाठा मार रही) है। प्रभु का डर अदब ही आत्मिक जीवन की खुराक है, आत्मा का आसरा है। जो ये खुराक नहीं खाते वह (दुनिया के) सहम में रहके कमले हुए रहते हैं।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस का कोइ कोई कोइ कोइ ॥ सभु को तेरा तूं सभना का सोइ ॥ जा के जीअ जंत धनु मालु ॥ नानक आखणु बिखमु बीचारु ॥४॥२॥
मूलम्
जिस का कोइ कोई कोइ कोइ ॥ सभु को तेरा तूं सभना का सोइ ॥ जा के जीअ जंत धनु मालु ॥ नानक आखणु बिखमु बीचारु ॥४॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिस का = जिस किसी का। जिस का कोइ = जिस किसी का कोई (सहारा) बनता है। कोई कोइ कोइ = कोई विरला ही बनता है। सभ को = हरेक जीव। सोइ = सार लेने वाला।4।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरे डर-अदब में रहने से ही ये यकीन बनता है कि) जिस किसी का कोई सहयोगी बनता है कोई विरला ही बनता है (भाव, किसी का कोई सदा के लिए साथी सहायक नहीं बन सकता)। पर, हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ) है, तू सब की सार रखने वाला है।
हे नानक! जिस परमात्मा के ये सारे जीव-जन्तु पैदा किए हुए हैं (जीवों के वास्ते) उसी का ये धन माल (बनाया हुआ) है। (इससे ज्यादा ये) विचारना और कहना (कि वह प्रभु अपने पैदा किए जीवों की कैसे संभाल करता है) कठिन काम है।4।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला १ ॥ माता मति पिता संतोखु ॥ सतु भाई करि एहु विसेखु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला १ ॥ माता मति पिता संतोखु ॥ सतु भाई करि एहु विसेखु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मति = ऊँची मति। सतु = दान, खलकत की सेवा। विसेखु = विशेष तौर पर। एहु सतु विसेखु भाई = इस दान को विशेष तौर पर भाई। करि = करे, बनाए।1।
अर्थ: अगर कोई जीव-स्त्री श्रेष्ठ मति को अपनी माँ बना ले (श्रेष्ठ मति की गोद में पले), संतोष का अपना पिता बनाए (संतोष रूपी पिता की निगरानी में रहे), खलकत की सेवा को विशेष भाई बनाए (लोगों की सेवा रूपी भाई का जीवन पर विशेष असर पड़े)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहणा है किछु कहणु न जाइ ॥ तउ कुदरति कीमति नही पाइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कहणा है किछु कहणु न जाइ ॥ तउ कुदरति कीमति नही पाइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहणा है = (रक्ती मात्र) बयान है। तउ = तेरी।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे साथ मिलाप की अवस्था बयान नहीं हो सकती। रक्ती मात्र बताई है, (क्योंकि) तेरी कुदरत का पूरा मूल्य नहीं पड़ सकता (भाव, कुदरति कैसी है, ये बताया नहीं जा सकता)।1। रहाउ।
[[0152]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरम सुरति दुइ ससुर भए ॥ करणी कामणि करि मन लए ॥२॥
मूलम्
सरम सुरति दुइ ससुर भए ॥ करणी कामणि करि मन लए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरम = श्रम, मेहनत, उद्यम। दुइ = दोनों (उद्यम और ऊँची अक़्ल)। ससुर = ससुर और सास। करणी = उत्तम जिंदगी। कामणि = स्त्री। मन = हे मन! करि लए = (जीव) बना लिए।2।
अर्थ: उद्यम और ऊँची अक़्ल, ये दोनों उस जीव-स्त्री के सास-ससुर बनें। और हे मन! अगर जीव उत्तम जिंदगी को स्त्री बना ले।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहा संजोगु वीआहु विजोगु ॥ सचु संतति कहु नानक जोगु ॥३॥३॥
मूलम्
साहा संजोगु वीआहु विजोगु ॥ सचु संतति कहु नानक जोगु ॥३॥३॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द में जीव-स्त्री तथा प्रभु पति के योग (मिलाप) का जिक्र है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहा = विवाह के लिए शोधित महूरत। संजोगु = मिलाप, सत्संग। विजोगु = दुनिया से विछोड़ा, निर्मोहता। संतति = संतान। जोगु = मिलाप, प्रभु मिलाप।3।
अर्थ: अगर सत्संग (में जाना) प्रभु के साथ विवाह का साहा निहित हो (जैसे विवाह के लिए निहित हुआ साहा टाला नहीं जा सकता, वैसे सत्संग से कभी ना टूटे)। अगर (सत्संग में रह के दुनिया से) निर्मोह रूप (प्रभु से) विवाह हो जाए; तो (इस विवाह में से) सत्य (भाव, प्रभु का सदा हृदय में टिके रहना, उस जीव-स्त्री की) संतान है।
हे नानक! कह: ये है (सच्चा) प्रभु मिलाप।3।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला १ ॥ पउणै पाणी अगनी का मेलु ॥ चंचल चपल बुधि का खेलु ॥ नउ दरवाजे दसवा दुआरु ॥ बुझु रे गिआनी एहु बीचारु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला १ ॥ पउणै पाणी अगनी का मेलु ॥ चंचल चपल बुधि का खेलु ॥ नउ दरवाजे दसवा दुआरु ॥ बुझु रे गिआनी एहु बीचारु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पउणै का = हवा का। मेलु = एकत्र। चपल = किसी एक जगह ना टिकने वाली। खेलु = खेल, दौड़ भाग। नउ दरवाजे = आँख, कान, नाक, मुंह आदि नौ रास्ते। दुआरु = द्वार, दरवाजा। दसवां दुआरु = दसवां दरवाजा (जिस द्वारा बाहरले जगत से मनुष्य के अंदर की जान पहिचान बनी रहती है), दिमाग़। रे गिआनी = हे ज्ञानवान! हे आत्मिक ज्ञान की समझ वाले! बुझु = समझ ले।1।
अर्थ: हे आत्मिक जीवन की सूझ वाले मनुष्य! (गुरु की शरण पड़ के) ये बात समझ लो (कि जब) हवा, पानी और आग (आदि तत्वो का) मिलाप होता है (तब ये शरीर बनता है, और इसमें) चंचल और चपल बुद्धि की दौड़-भाग (शुरू हो जाती है)। (शरीर के) नौ द्वार (इस दौड़ भाग में शामिल रहते हैं, सिर्फ) दिमाग़ (ही है जिससे आत्मिक जीवन की सूझ पड़ सकती है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथता बकता सुनता सोई ॥ आपु बीचारे सु गिआनी होई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कथता बकता सुनता सोई ॥ आपु बीचारे सु गिआनी होई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
कथता बकता = (हरेक जीव में व्यापक हो के) बोलने वाला। सुनता = सुनने वाला।सोई = वह (परमात्मा) ही। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को, अपने असल को। बीचारे = विचारता है, याद रखता है, पड़तालता है। सु = वह मनुष्य। गिआनी = ज्ञानवान, आत्मिक जीवन की सूझ वाला।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ के) अपने आत्मिक जीवन का विष्लेशण करता रहता है वह मनुष्य आत्मिक जीवन की सूझ वाला हो जाता है। (उसे ये समझ आ जाती है कि) वह परमात्मा ही (हरेक जीव में व्यापक हो के) बोलने वाला, सुनने वाला है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देही माटी बोलै पउणु ॥ बुझु रे गिआनी मूआ है कउणु ॥ मूई सुरति बादु अहंकारु ॥ ओहु न मूआ जो देखणहारु ॥२॥
मूलम्
देही माटी बोलै पउणु ॥ बुझु रे गिआनी मूआ है कउणु ॥ मूई सुरति बादु अहंकारु ॥ ओहु न मूआ जो देखणहारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देही माटी = मिट्टी आदि तत्वों से बना शरीर। बोलै पउणु = श्वास चल रहा है। मूआ कउणु = (गुरु को मिल के) कौन मरता है? सुरति = माया की ओर खींच। बादु = (माया की खातिर) विवाद, झगड़ा। ओहु = वह (जीवात्मा)।2।
अर्थ: हे ज्ञानवान मनुष्य! इस बात को समझ (कि जब मनुष्य को गुरु मिल जाता है तो मनुष्य के अंदर सिर्फ स्वैभाव की मौत होती है, वैसे) और कुछ नहीं मरता। मिट्टी आदि तत्वों से बने इस शरीर में श्वास चलता ही रहता है। (हां, गुरु को मिलने से मनुष्य के अंदर से माया के प्रति) आकर्षण खत्म हो जाता है। (माया की खातिर मन का) झगड़ा समाप्त हो जाता है। (मनुष्य के अंदर से माया का) अहंकार मर जाता है। पर, वह (आत्मा) नहीं मरती जो सबकी संभाल करने वाले परमात्मा का अंश है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जै कारणि तटि तीरथ जाही ॥ रतन पदारथ घट ही माही ॥ पड़ि पड़ि पंडितु बादु वखाणै ॥ भीतरि होदी वसतु न जाणै ॥३॥
मूलम्
जै कारणि तटि तीरथ जाही ॥ रतन पदारथ घट ही माही ॥ पड़ि पड़ि पंडितु बादु वखाणै ॥ भीतरि होदी वसतु न जाणै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जै कारणि = जिस (रत्न पदार्थ) के खातिर। तटि = किनारे पर। तटि तीरथ = तीर्थों के तट पर। जाही = जाते हैं। घट ही माही = हृदय में ही। पढ़ि = पढ़ के। बादु = विवाद, चरचा। वखाणै = उच्चरता है। भीतरि = हृदय में ही, अंदर ही।3।
अर्थ: हे भाई! जिस (नाम-रत्न) की खातिर लोग तीर्थों के तट पर जाते हैं, वह कीमती रत्न (मनुष्य के) हृदय में ही बसता है। (वेद आदि पुस्तकों का विद्वान) पण्डित (वेद आदि धर्म-पुस्तकों को) पढ़ पढ़ के (भी) चर्चा करता रहता है। वह पण्डित (अपने) अंदर बसे हुए नाम-पदार्थ से सांझ नहीं पाता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ न मूआ मेरी मुई बलाइ ॥ ओहु न मूआ जो रहिआ समाइ ॥ कहु नानक गुरि ब्रहमु दिखाइआ ॥ मरता जाता नदरि न आइआ ॥४॥४॥
मूलम्
हउ न मूआ मेरी मुई बलाइ ॥ ओहु न मूआ जो रहिआ समाइ ॥ कहु नानक गुरि ब्रहमु दिखाइआ ॥ मरता जाता नदरि न आइआ ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं, जीवात्मा। बलाइ = बला, ममता रूपी चुड़ैल। गुरि = गुरु ने। जाता = पैदा होताहै।4।
अर्थ: हे नानक! कह: (जिस मनुष्य को) गुरु ने परमात्मा के दर्शन करा दिए, उसे दिखाई देने लगता है कि प्रभु पैदा होता मरता नहीं। (उसे) ये दिखाई देने लगता है कि जीवात्मा मरती नहीं। (मनुष्य के अंदर से) माया की ममता रूपी चुड़ैल ही मरती है। सब जीवों में व्यापक परमात्मा कभी नहीं मरता।4।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला १ दखणी ॥ सुणि सुणि बूझै मानै नाउ ॥ ता कै सद बलिहारै जाउ ॥ आपि भुलाए ठउर न ठाउ ॥ तूं समझावहि मेलि मिलाउ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला १ दखणी ॥ सुणि सुणि बूझै मानै नाउ ॥ ता कै सद बलिहारै जाउ ॥ आपि भुलाए ठउर न ठाउ ॥ तूं समझावहि मेलि मिलाउ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणि सुणि = (“साचे गुर की साची सीख”) सुन सुन के। बूझै = (जो मनुष्य उस “सीख” को) समझता है। मानै = मान लेता है, यकीन कर लेता है (कि ‘नाम’ ही सच्चा व्यापार है)। मेलि = (“साचे गुर की साची सीख” में) जोड़ के। मिलाउ = मिलाप।1।
अर्थ: जो मनुष्य (“साचे गुर की साची सीख”) सुन सुन के उसको विचारता समझता है और ये यकीन बना लेता है कि परमात्मा का नाम ही असल वणज-व्यापार है, मैं उससे सदा सदके जाता हूँ। जिस मनुष्य को प्रभु (इस ओर से) तोड़ देता है, उसे कोई और (आत्मिक) सहारा नहीं मिल सकता।
हे प्रभु! जिसे तू स्वयं बख्शे, उसे तू (गुरु की शिक्षा में) मेल के (अपने चरणों का) मिलाप (बख्शता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु मिलै चलै मै नालि ॥ बिनु नावै बाधी सभ कालि ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नामु मिलै चलै मै नालि ॥ बिनु नावै बाधी सभ कालि ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मै नालि = (जगत से चलने के समय) मेरे साथ (जब, और सब कुछ यहीं रह जाएगा)। कालि = काल में, मौत के डर में। बाधी = बंधी हुई, जकड़ी हुई।1। रहाउ।
अर्थ: हे प्रभु! मेरी यही अरदास है (कि मुझे तेरा) नाम मिल जाए, (तेरा नाम ही जगत से जाते समय) मेरे साथ जा सकता है। तेरा नाम स्मरण के बिना सारी लुकाई मौत के सहम में जकड़ी हुई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खेती वणजु नावै की ओट ॥ पापु पुंनु बीज की पोट ॥ कामु क्रोधु जीअ महि चोट ॥ नामु विसारि चले मनि खोट ॥२॥
मूलम्
खेती वणजु नावै की ओट ॥ पापु पुंनु बीज की पोट ॥ कामु क्रोधु जीअ महि चोट ॥ नामु विसारि चले मनि खोट ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बीज का पोट = बीज की पोटली
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: जो भी अच्छा बुरा कर्म मनुष्य करता है, उसका संस्कार मन में टिक जाता है। वह संस्कार भविष्य में वैसे ही और कर्म करने को प्रेरित करता है। सो, वह किया हुआ अच्छा-बुरा कर्म बीज का काम देता है। जैसा बीज बीजें, वैसा फल तैयार हो जाता है)।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ महि = (जो मनुष्यों के) हृदय में। चले = (जगत में से) चले जाते हैं। मनि = मन में (खोट विकार)।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम का आसरा (इस तरह लो जैसे) खेती को, व्यापार को अपने शारीरिक निर्वाह का सहारा बनाते हो। (कोई भी किया हुआ) पाप या पुन्न कर्म (हरेक जीव के लिए भविष्य के लिए) बीज की पोटली बन जाता है। (वह अच्छा-बुरा किया कर्म मन के अंदर संस्कार रूप में टिक के वैसे कर्म करने के लिए प्रेरणा करता रहता है)। जिस लोगों के हृदय में (प्रभु के नाम की जगह) काम-क्रोध (आदि विकार) चोट मारते रहते हैं (प्रेरित करते रहते हैं) वे लोग प्रभु का नाम विसार के (यहां) मन में (विकारों की) खोट लेकर ही चले जाते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचे गुर की साची सीख ॥ तनु मनु सीतलु साचु परीख ॥ जल पुराइनि रस कमल परीख ॥ सबदि रते मीठे रस ईख ॥३॥
मूलम्
साचे गुर की साची सीख ॥ तनु मनु सीतलु साचु परीख ॥ जल पुराइनि रस कमल परीख ॥ सबदि रते मीठे रस ईख ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: परीख = परख, पहिचान। पुराइनि = चौपक्ती। रस कमल = जल का कमल फूल। रस ईख = गन्ने का रस।3।
अर्थ: जिस लोगों को सच्चे सतिगुरु की सच्ची शिक्षा प्राप्त होती है, उनका मन शांत रहता है (भाव, उनकी ज्ञाने्रद्रियां विकारों से बची रहती हैं)। वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा को पहिचान लेते हैं (सांझ पा लेते हैं)। जैसे पानी की चौपक्ति, पानी का कमल फूल (पानी के बिना जीवित नहीं रह सकते, वैसे ही उनकी जिंद प्रभु नाम का विछोड़ा बर्दाश्त नहीं कर सकती)। वे गुरु के शब्द में रंगे रहते हैं, वे मीठे स्वाभाव वाले होते हैं, जैसे गन्ने का रस मीठा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमि संजोगी गड़ि दस दुआर ॥ पंच वसहि मिलि जोति अपार ॥ आपि तुलै आपे वणजार ॥ नानक नामि सवारणहार ॥४॥५॥
मूलम्
हुकमि संजोगी गड़ि दस दुआर ॥ पंच वसहि मिलि जोति अपार ॥ आपि तुलै आपे वणजार ॥ नानक नामि सवारणहार ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हुकमि = प्रभु के हुक्म में। संजोगी = संजोगों अनुसार, पूर्वले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार। गढ़ि = गढ़ में, शरीर रूपी किले में। दस दुआरि गढ़ि = दसों द्वारों वाले शरीर रूपी गढ़ में। पंच = संत जन। मिलि = मिल के। तुलै = तुलता है। आपे = स्वयं ही। वणजार = व्यापारी। नामि = नाम में (जोड़ के)।4।
अर्थ: प्रभु के हुक्म में पूर्बले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार संत जन अपार प्रभु की ज्योति से मिल के इस दस-द्वारी शरीर-किले में बसते हैं (काम क्रोध आदि कोई विकार इस किले में उनपे चोट नहीं करता। उनके अंदर) प्रभु खुद (नाम-वस्तु) बन के वणजित हो रहा है, और, हे नानक! (उन संत जनों को) अपने नाम में जोड़ के (खुद ही) उनका जीवन उत्तम बनाता है।4।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द के शीर्षक को ध्यान से पढ़ने की जरूरत है। शब्द ‘दखणी’ को ‘गउड़ी’ के साथ इस्तेमाल करना है। रागनी ‘गउड़ी’ की ‘दखणी’ किस्म है। इसी तरह पन्ना 929 पर शीर्षक है “रामकली महला १ दखणी ओअंकारु”। यहां भी शब्द ‘दखणी’ को शब्द ‘रामकली’ के साथ प्रयोग करना है। वाणी का नाम है “ओअंकारु”। “दखणी ओअंकारु” कहना गलत है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला १ ॥ जातो जाइ कहा ते आवै ॥ कह उपजै कह जाइ समावै ॥ किउ बाधिओ किउ मुकती पावै ॥ किउ अबिनासी सहजि समावै ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला १ ॥ जातो जाइ कहा ते आवै ॥ कह उपजै कह जाइ समावै ॥ किउ बाधिओ किउ मुकती पावै ॥ किउ अबिनासी सहजि समावै ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जातो जाइ = (कैसे) जाना जाए, कैसे समझा जाए? (“तेरा कीता जातो नाही”)। कह उपजै = कहां से पैदा होती है (कामना)? किउ बाधियो = कैसे (कामना में) बंध जाता है? मुकती = खलासी, आजादी। अबिनासी सहजि = अटल सहज में, सदा स्थिर रहने वाली अडोल अवस्था में।1।
अर्थ: (पर) ये कैसे समझ आए कि (यह वासना) कहां से आती है, (वासना) कहां से पैदा होती है, कहां जा के समाप्त हो जाती है? मनुष्य कैसे इस वासना में बंध जाता है? कैसे इससे मुक्ति हासिल करता है? (मुक्ति पा के) कैसे अटल अडोल अवस्था में टिक जाता है?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु रिदै अम्रितु मुखि नामु ॥ नरहर नामु नरहर निहकामु ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नामु रिदै अम्रितु मुखि नामु ॥ नरहर नामु नरहर निहकामु ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। नरहर नामु = परमातमा का नाम। निहकामु = कामना रहित, वासना रहित।1। रहाउ।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम-अमृत बसता है, जो मनुष्य मुंह से प्रभु का नाम उचारता है, वह प्रभु का नाम ले के प्रभु की तरह कामना रहित (वासना रहित) हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहजे आवै सहजे जाइ ॥ मन ते उपजै मन माहि समाइ ॥ गुरमुखि मुकतो बंधु न पाइ ॥ सबदु बीचारि छुटै हरि नाइ ॥२॥
मूलम्
सहजे आवै सहजे जाइ ॥ मन ते उपजै मन माहि समाइ ॥ गुरमुखि मुकतो बंधु न पाइ ॥ सबदु बीचारि छुटै हरि नाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहजे = कुदरती नियम अनुसार। आवै = (वासना) पैदा होती है। मन ते = मन से। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है। मुकतो = वासना से मुक्त। बंधु = वासना की कैद। बीचारि = विचार के। नाइ = नाम के द्वारा।2।
अर्थ: (गुरु के सन्मुख होने से ये समझ आती है कि) वासना कुदरती नियम अनुसार पैदा हो जाती है। कुदरती नियम अनुसार ही समाप्त हो जाती है। (मनमुखता की हालत में) मन से पैदा होती है (गुरु के सन्मुख होने से) मन में ही खत्म हो जाती है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, वह वासना से बचा रहता है। वासना (उसके राह में) रुकावट नहीं डाल सकती। गुरु के शब्द को विचार के वह मनुष्य प्रभु के नाम के द्वारा वासना (के जाल) में से बच जाता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरवर पंखी बहु निसि बासु ॥ सुख दुखीआ मनि मोह विणासु ॥ साझ बिहाग तकहि आगासु ॥ दह दिसि धावहि करमि लिखिआसु ॥३॥
मूलम्
तरवर पंखी बहु निसि बासु ॥ सुख दुखीआ मनि मोह विणासु ॥ साझ बिहाग तकहि आगासु ॥ दह दिसि धावहि करमि लिखिआसु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरवर पंखी बहु = वृक्षों पे अनेक पंछी। निसि = रात के समय। विणासु = आत्मिक मौत। साझ = शाम। बिहाग = सवेर। तकहि = देखते हैं। दहदिसि = दसों ओर। करमि = किए कर्मों के अनुसार। करमि लिखिआसु = किए कर्मों के अनुसार जो संस्कार मन में उकरे हुए होते हैं।3।
अर्थ: (जैसे) रात को अनेक पक्षी पेड़ों पर बसेरा कर लेते हैं (वैसे ही जीव जगत में रैन-बसेरे के लिए आते हैं), कोई सुखी है कोई दुखी है। कईयों के मन में माया का मोह बन जाता है और वे आत्मिक मौत गले लगा लेते हैं। पक्षी शाम को पेड़ों पर आ टिकते हैं, सवेरे आकाश को देखते हैं (उजाला देख के) दसों दिशाओं में उड़ जाते हैं, वैसे ही जीव किए कर्मों के सेंस्कारों के अनुसार दसों दिशाओं में भटकते फिरते हैं।3।
[[0153]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम संजोगी गोइलि थाटु ॥ काम क्रोध फूटै बिखु माटु ॥ बिनु वखर सूनो घरु हाटु ॥ गुर मिलि खोले बजर कपाट ॥४॥
मूलम्
नाम संजोगी गोइलि थाटु ॥ काम क्रोध फूटै बिखु माटु ॥ बिनु वखर सूनो घरु हाटु ॥ गुर मिलि खोले बजर कपाट ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाम संजोगी = नाम की सांझ बनाने वाले। गोइलि = गोइल में। थाटू = स्थान। गोइल = नदी के किनारे का वह हरियाली जगह, जहां सूखे के समय लोग अपने मवेशियों को हरा घास चराने के लिए लाते थे। ये प्रबंध आरजी होता था, क्योंकि जब बरसात वगैरा होती थी तो लोग अपने-अपने घरों को वापस चले जाते थे। बिखु माटु = विषौला मटका। फूटै = फूट जाता है। सूनो = सूना, सन्नाटा। हाटु = हाट, हृदय। गुर मिलि = गुरु को मिल के। बजर = करड़े। कपाट = किवाड़, भित्त।4।
अर्थ: जैसे मुश्किल आने पे (सूखे की हालत में) लोग दरियाओं के किनारे हरियाली वाली जगहें में कुछ दिनों का ठिकाना बना लेते हैं, वैसे ही प्रभु के नाम के साथ सांझ पाने वाले लोग जगत में चंद-रोजा ठिकाने की हकीकत को समझते हैं। उनके अंदर से काम-क्रोध के विषौला मटका टूट जाता है (भाव, उनके अंदर कामादिक विकार जोर नहीं डालते)। जो मनुष्य नाम-वस्तु से वंचित रहते हैं उनकी हृदय रूपी हाट (दुकान) खाली रहती है (उनके खाली हृदय-घर को जैसे ताले लगे रहते हैं)। गुरु को मिल के वह करड़े किवाड़ खुल जाते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु मिलै पूरब संजोग ॥ सचि रहसे पूरे हरि लोग ॥ मनु तनु दे लै सहजि सुभाइ ॥ नानक तिन कै लागउ पाइ ॥५॥६॥
मूलम्
साधु मिलै पूरब संजोग ॥ सचि रहसे पूरे हरि लोग ॥ मनु तनु दे लै सहजि सुभाइ ॥ नानक तिन कै लागउ पाइ ॥५॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साधु = गुरु। पूरब संजोग = पूर्वले किए कर्मों के संस्कार उघड़ने से। सचि = सत्य में, सदा स्थिर प्रभु में। रहसे = खिड़े हुए, प्रसन्न। दे = दे कर, अर्पण करके। लै = (जो) लेते हैं (नाम)। सहजि = सहज में, अडोलता में (टिक के)। सुभाइ = प्रेम में (टिक के)। लागउ = मैं लगता हूं। पाइ = पैरों पे।5।
अर्थ: जिस मनुष्यों को पूर्बले किए कर्मों के संस्कार अंकुरित होने से गुरु मिलता है, वे पूरे पुरुष सदा स्थिर प्रभु में जुड़ के खिले रहते हैं।
हे नानक! (कह:) जो मनुष्य, मन गुरु के हवाले करके, शरीर गुरु के हवाले करके, अडोलता में टिक के, प्रेम में जुड़ के (नाम की दाति गुरु से) लेते हैं, मैं उनके चरणों में नत्मस्तक होता हूँ।5।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला १ ॥ कामु क्रोधु माइआ महि चीतु ॥ झूठ विकारि जागै हित चीतु ॥ पूंजी पाप लोभ की कीतु ॥ तरु तारी मनि नामु सुचीतु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला १ ॥ कामु क्रोधु माइआ महि चीतु ॥ झूठ विकारि जागै हित चीतु ॥ पूंजी पाप लोभ की कीतु ॥ तरु तारी मनि नामु सुचीतु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: झूठ विकारि = झूठ बोलने का विकार। जागै = तत्पर हो जाता है। हित = मोह, आकर्षण। जागै हित = प्रेरणा होती है, खीच पड़ती है। तरु = तुलहा। तारी = बेड़ी, नाव। सुचीतु = चिक्त को पवित्र करने वाला।1।
अर्थ: (मेरे अंदर) काम (प्रबल) है, क्रोध (प्रबल) है। मेरा चिक्त माया में (मगन रहता) है। झूठ बोलने की बुराई में मेरा हित जागता है मेरा चिक्त तत्पर होता है। मैंने पाप व लोभ की राशि पूंजी एकत्र की हुई है। (तेरी मेहर से अगर मेरे) मन में तेरा पवित्र करने वाला नाम (बस जाए तो यही मेरे लिए) तुलहा है, बेड़ी है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाहु वाहु साचे मै तेरी टेक ॥ हउ पापी तूं निरमलु एक ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
वाहु वाहु साचे मै तेरी टेक ॥ हउ पापी तूं निरमलु एक ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाहु = आश्चर्य। निरमलु = पवित्र। तूं एक = सिर्फ तू ही।1। रहाउ।
अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले प्रभु! तू आश्चर्य है तू आश्चर्य है। (तेरे जैसा और कोई नहीं); (कामादिक विकारों से बचने के लिए) मुझे सिर्फ तेरा ही आसरा है। मैं पापी हूँ, सिर्फ तू ही पवित्र करने के समर्थ है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगनि पाणी बोलै भड़वाउ ॥ जिहवा इंद्री एकु सुआउ ॥ दिसटि विकारी नाही भउ भाउ ॥ आपु मारे ता पाए नाउ ॥२॥
मूलम्
अगनि पाणी बोलै भड़वाउ ॥ जिहवा इंद्री एकु सुआउ ॥ दिसटि विकारी नाही भउ भाउ ॥ आपु मारे ता पाए नाउ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भड़वाउ = भैड़ा वाक्य, बुरे बोल। एक सुआउ = एक-एक चस्का। दिसटि = दृष्टि, नजर, रूची। विकारी = विकार भरी रूची वाला। आपु = स्वैभाव।2
अर्थ: (जीव के अंदर कभी) आग (का जोर पड़) जाता है (कभी) पानी (प्रबल हो जाता) है (इस वास्ते ये) गर्म-सर्द बोल बोलता रहता है। जीभ आदि हरेक इंद्रिय को अपना अपना चस्का (लगा हुआ) है। निगाहें विकारों में रहती हैं। (मन में) ना डर है ना प्रेम है (ऐसी हालत में प्रभु का नाम कैसे मिले?)। जीव अहम्भाव को कम करे, तो ही परमात्मा का नाम प्राप्त कर सकता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदि मरै फिरि मरणु न होइ ॥ बिनु मूए किउ पूरा होइ ॥ परपंचि विआपि रहिआ मनु दोइ ॥ थिरु नाराइणु करे सु होइ ॥३॥
मूलम्
सबदि मरै फिरि मरणु न होइ ॥ बिनु मूए किउ पूरा होइ ॥ परपंचि विआपि रहिआ मनु दोइ ॥ थिरु नाराइणु करे सु होइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरै = स्वैभाव को मार ले, विनम्र। मरणु = आत्मिक मौत। पूरा = पूर्ण, मुकम्मल, त्रुटि रहित। परपंच = परपंच में, जगत खेल में। दोइ = द्वैत में, मेर तेर में। थिरु = स्थिर, अडोल चिक्त। सु = वह मनुष्य।3।
अर्थ: जब मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के अहम् भाव को खत्म करता है, तो उसे आत्मिक मौत नहीं होती। स्वैभाव के खत्म हुए बिना मनुष्य पूर्ण नहीं हो सकता। (कमियों से बच नहीं सकता, बल्कि) मन माया के छल के द्वैत में फंसा रहता है। (जीव के भी क्या वश?) जिसको परमात्मा खुद अडोल चिक्त करता है वही होता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोहिथि चड़उ जा आवै वारु ॥ ठाके बोहिथ दरगह मार ॥ सचु सालाही धंनु गुरदुआरु ॥ नानक दरि घरि एकंकारु ॥४॥७॥
मूलम्
बोहिथि चड़उ जा आवै वारु ॥ ठाके बोहिथ दरगह मार ॥ सचु सालाही धंनु गुरदुआरु ॥ नानक दरि घरि एकंकारु ॥४॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बोहिथ = जहाज में, नाम जहाज में। वार = वारी, अवसर। ठाके = रोके हुए। सालाही = मैं सलाह सकता हूँ, स्तुति। धंनु = (excellent) श्रेष्ठ। दरि = (गुरु के) दर पे (गिरने से)। घरि = हृदय में।4।
अर्थ: मैं (प्रभु के नाम) जहाज में (तभी) चढ़ सकता हूँ, जब (उसकी मेहर से) मुझे बारी मिले। जिस लोगों को नाम जहाज पर चढ़ना नहीं नसीब होता, उन्हें प्रभु की दरगाह में खुआरी मिलती है (धक्के पड़ते है, प्रभु का दीदार नसीब नहीं होता)। (असल बात ये है कि) गुरु का दर सबसे श्रेष्ठ है। (गुरु के दर पर रह के ही) मैं परमात्मा की महिमा कर सकता हूँ। हे नानक! (गुरु के) दर पे रहने से हृदय में परमात्मा के दर्शन होते हैं।4।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला १ ॥ उलटिओ कमलु ब्रहमु बीचारि ॥ अम्रित धार गगनि दस दुआरि ॥ त्रिभवणु बेधिआ आपि मुरारि ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला १ ॥ उलटिओ कमलु ब्रहमु बीचारि ॥ अम्रित धार गगनि दस दुआरि ॥ त्रिभवणु बेधिआ आपि मुरारि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उलटिओ = वापस आया है, माया के मोह से पलटा है। कमलु = हृदय कमल। ब्रहमु बीचारि = ब्रहम को विचार के, परमात्मा के महिमा में चिक्त जोड़ने से। अंम्रित धार = अमृत की धारा, नाम अमृत की वर्षा। गगनि = गगन में, आकाश में, चिक्त रूपी आकाश में, चिदाकाश में। दस दुआरि = दसवें द्वार में, दिमाग में। अम्रितधार दस दुआरि = दिमाग़ में नाम की वर्षा होती है, दिमाग़ में ठंड पड़ती है (भाव, दिमाग़ में पहले दुनिया के झमेलों की उलझन थी, महिमा की इनायत से शांत हो गई)। त्रिभवणु = तीन भवन, सारा संसार। बेधिआ = बेध दिया, व्यापक। मुरारि = (मुर का अरी) परमात्मा।1।
अर्थ: परमात्मा की महिमा में चिक्त जोड़ने से हृदय कमल माया के मोह की तरफ से हट जाता है। दिमाग़ में भी (महिमा की इनायत से) नाम अमृत की वर्षा होती है (और माया वाले झमेलों की अशांति मिट के ठण्ड पड़ जाती है)। (फिर दिल को भी और दिमाग को भी ये यकीन हो जाता है कि) प्रभु खुद सारे जगत (के जर्रे-जर्रे) में मौजूद है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे मन मेरे भरमु न कीजै ॥ मनि मानिऐ अम्रित रसु पीजै ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
रे मन मेरे भरमु न कीजै ॥ मनि मानिऐ अम्रित रसु पीजै ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरमु = भटकना, माया की दौड़ भाग। मनि मानीऐ = अगर मन मान जाए, अगर मन नाम रस में टिक जाए। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। पीजै = पी लेते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मन! (माया की खातिर) भटकना छोड़ दे (और प्रभु की महिमा में जुड़)। (हे भाई!) जब मन को परमात्मा की महिमा अच्छी लगने लग पड़ती है, तब ये महिमा का स्वाद लेने लग पड़ता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनमु जीति मरणि मनु मानिआ ॥ आपि मूआ मनु मन ते जानिआ ॥ नजरि भई घरु घर ते जानिआ ॥२॥
मूलम्
जनमु जीति मरणि मनु मानिआ ॥ आपि मूआ मनु मन ते जानिआ ॥ नजरि भई घरु घर ते जानिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीति = जीत के। जनमु जीति = जनम जीत के, मानव जनम का उद्देश्य हासिल करके। मरणि = मरने में, स्वार्थ की मौत में। मनु मानिआ = मन पतीज जाता है। मरणि मनु मानिआ = अहम् की मौत में मन पतीज जाता है, मन को ये बात पसंद आ जाती है कि स्वार्थ ना रहे। आपि = स्वै भाव की ओर से। मन ते = मन से, अंदर से ही। जानिआ = समझ आ जाती है। नजरि = प्रभु के मेहर की नजर। घरु = परमात्मा का ठिकाना, प्रभु चरणों में टिकाव। घर ते = घर से, हृदय में ही।2।
अर्थ: (महिमा में जुड़ने से) जनम उद्देश्य प्राप्त करके मन को स्वार्थ का समाप्त हो जाना पसंद आ जाता है। इस बात की सूझ मन के अंदर ही पड़ जाती है कि स्वैभाव समाप्त हो गया है। जब प्रभु की मेहर की नजर होती है तो हृदय में ही ये अनुभव हो जाता है कि तवज्जो प्रभु चरणों में जुड़ी हुई है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जतु सतु तीरथु मजनु नामि ॥ अधिक बिथारु करउ किसु कामि ॥ नर नाराइण अंतरजामि ॥३॥
मूलम्
जतु सतु तीरथु मजनु नामि ॥ अधिक बिथारु करउ किसु कामि ॥ नर नाराइण अंतरजामि ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जतु = इंद्रियों को रोकना। सतु = पवित्र आचरण। मजनु = चुभ्भी, स्नान। नामि = नाम में। अधिक = बहुत। कराउ = कराऊँ, मैं करूँ। किसु कामि = किस काम के लिए? किस लिए? नर नाराइणु = परमात्मा। अंतरजामि = दिलों की जानने वाला।3।
अर्थ: परमात्मा के नाम में जुड़ना ही जत, सत व तीर्थ स्नान (का उद्यम) है। मैं (जत-सत आदि वाला) बहुत फैलाव भी क्यूँ फैलाऊँ? (ये सारे उद्यम तो लोक-दिखावे के ही हैं), और परमात्मा हरेक के दिल की जानता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आन मनउ तउ पर घर जाउ ॥ किसु जाचउ नाही को थाउ ॥ नानक गुरमति सहजि समाउ ॥४॥८॥
मूलम्
आन मनउ तउ पर घर जाउ ॥ किसु जाचउ नाही को थाउ ॥ नानक गुरमति सहजि समाउ ॥४॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आन = कोई और (आसरा)। मनउ = अगर मैं मानूँ। पर घरि = दूसरे घर में, किसी और जगह। जाउ = जाऊँ, मैं जाऊँ। जाचउ = मैं मांगू। सहजि = सहज में, अडोलता में। समाउ = मैं लीन होता हूँ।4।
अर्थ: (माया वाली भटकना मिटाने के लिए प्रभु दर के बिना और कोई जगह नहीं, सो) मैं तभी किसी और जगह जाऊँ अगर मैं (प्रभु के बिना) कोई और जगह मान ही लूँ। कोई और जगह है ही नहीं, मैं किससे ये मांग मांगू (कि मेरा मन भटकने से हट जाए)? हे नानक! (मुझे यकीन है कि गुरु का उपदेश हृदय में बसा के) उस आत्मिक अवस्था में लीन रह सकते हैं (जहां माया वाली भटकना का अस्तित्व नहीं है) जहां अडोलता है।4।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला १ ॥ सतिगुरु मिलै सु मरणु दिखाए ॥ मरण रहण रसु अंतरि भाए ॥ गरबु निवारि गगन पुरु पाए ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला १ ॥ सतिगुरु मिलै सु मरणु दिखाए ॥ मरण रहण रसु अंतरि भाए ॥ गरबु निवारि गगन पुरु पाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सु मरणु = वह मौत, (विकारों की ओर से) वह मौत। मरणु दिखाए = विकारों की ओर से मौत दिखा देता है, विकारों की ओर से मौत जिंदगी के तजरबे में ला देता है। मरणु रसु = (जिस) मौत का आनंद, विकारों की ओर से जिस मौत का आनंद। अंतरि = हृदय में। भाए = प्यारा लगता है। गरबु = अहंकार, (धरती के पदार्थों का) अहंकार। गगन पुर = आकाश का शहर, वह शहर जहाँ तवज्जो आकाश में चढ़ी रहे, वह आत्मिक अवस्था जहाँ तवज्जो ऊँची आत्मिक उड़ान लगाती रहे।1।
अर्थ: जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है उसे वह मौत दिखा देता है (उसकी जीवनशैली में विकारों की मौत हो जाती है) जिस मौत का आनंद (और उससे पैदा हुए) चिरंकाल का आत्मिक जीवन आनंद उस मनुष्य को अपने हृदय में प्यारा लगने लगता है। वह मनुष्य (शरीर आदि का) अहंकार दूर करके वह आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है जहाँ तवज्जो ऊँची उड़ाने लगाती रहे।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरणु लिखाइ आए नही रहणा ॥ हरि जपि जापि रहणु हरि सरणा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मरणु लिखाइ आए नही रहणा ॥ हरि जपि जापि रहणु हरि सरणा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरणु = मौत, शरीर की मौत। नही रहणा = शारीरिक तौर पर सदा टिके नहीं रहना। जपि = जप के स्मरण करके। जापि = जाप करके। रहणु = रिहाइश, सदीवी आत्मिक जीवन, सदा की रहाइश।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई! सारे जीव शारीरिक) मौत रूपी हुक्म (प्रभु की हजूरी में से) लिखा के पैदा होते हैं। (भाव, यही ईश्वरीय नियम है कि जो पैदा होता है उसने मरना भी जरूर है)। सो, यहां शारीरिक तौर पर किसी ने सदा नहीं टिके रहना। (हां) प्रभु की महिमा करके, प्रभु की शरण में रह के सदीवी आत्मिक जीवन मिल जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु मिलै त दुबिधा भागै ॥ कमलु बिगासि मनु हरि प्रभ लागै ॥ जीवतु मरै महा रसु आगै ॥२॥
मूलम्
सतिगुरु मिलै त दुबिधा भागै ॥ कमलु बिगासि मनु हरि प्रभ लागै ॥ जीवतु मरै महा रसु आगै ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दुबिधा = दुचिक्तापन, मेर तेर। कमलु = हृदय का कमल फूल। बिगासि = खिल के। जीवतु = जीवित ही, दुनिया के कार व्यवहार करते हुए ही। मरै = माया के मोह की ओर से मरे (निर्मोही)। आगै = सामने, प्रत्यक्ष।2।
अर्थ: अगर सतिगुरु मिल जाए, तो मनुष्य की दुबिधा दूर हो जाती है। हृदय का कमल फूल खिल के उसका मन प्रभु के चरणों में जुड़ा रहता है। मनुष्य दुनिया की किर्त-कार करता हुआ भी माया के मोह से ऊँचा रहता है। उसे प्रत्यक्ष तौर पर परमात्मा के स्मरण का महा आनंद अनुभव होता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरि मिलिऐ सच संजमि सूचा ॥ गुर की पउड़ी ऊचो ऊचा ॥ करमि मिलै जम का भउ मूचा ॥३॥
मूलम्
सतिगुरि मिलिऐ सच संजमि सूचा ॥ गुर की पउड़ी ऊचो ऊचा ॥ करमि मिलै जम का भउ मूचा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतिगुरि मिलिऐ = अगर सतिगुरु मिल जाए। सच संजमि = सत्य के संयम में (रह के)। सूचा = पवित्र। पउड़ी = स्मरण रूपी सीढ़ी। ऊचो ऊची = ऊँचा ही ऊँचा। करमि = प्रभु की मेहर से। मूचा = समाप्त हो जाता है।3।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए, तो मनुष्य नाम जपने की जुगति में रह कर पवित्र आत्मा बन जाता है। गुरु की बताई हुई सीढ़ी के सहारे (आत्मिक जीवन में) ऊँचा ही ऊँचा होता जाता है। (पर, ये स्मरण प्रभु की) मेहर से मिलता है, (जिसे मिलता है उसका) मौत का डर उतर जाता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरि मिलिऐ मिलि अंकि समाइआ ॥ करि किरपा घरु महलु दिखाइआ ॥ नानक हउमै मारि मिलाइआ ॥४॥९॥
मूलम्
गुरि मिलिऐ मिलि अंकि समाइआ ॥ करि किरपा घरु महलु दिखाइआ ॥ नानक हउमै मारि मिलाइआ ॥४॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मिलि = (प्रभु की याद में) मिल के, जुड़ के। अंकि = प्रभु के अंक में, प्रभु के चरणों में। महलु = प्रभु का निवास स्थान, वह अवस्था जहां प्रभु का मिलाप हो जाए। मारि = मार के।4।
अर्थ: अगर गुरु मिल जाए तो मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ के प्रभु के चरणों में लीन हुआ रहता है। गुरु मेहर करके उसे वह आत्मिक अवस्था दिखा देता है जहां प्रभु का मिलाप हुआ रहे। हे नानक! उस मनुष्य के अहम् को दूर करके गुरु उसको प्रभु से एक-मेक कर देता है।4।9।
[[0154]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला १ ॥ किरतु पइआ नह मेटै कोइ ॥ किआ जाणा किआ आगै होइ ॥ जो तिसु भाणा सोई हूआ ॥ अवरु न करणै वाला दूआ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला १ ॥ किरतु पइआ नह मेटै कोइ ॥ किआ जाणा किआ आगै होइ ॥ जो तिसु भाणा सोई हूआ ॥ अवरु न करणै वाला दूआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किरतु = किया हुआ काम, जन्म-जन्मांतरों के किए कामों के संस्कारों के समूह। पइआ = जो मन में इकट्ठा हुआ पड़ा है। किआ जाणा = मैं क्या समझ सकता हूँ? (कोई नहीं समझ सकता)। आगै = आने वाले जीवन काल में। किआ होइ = क्या होगा? 1।
अर्थ: जन्मों-जन्मांतरों के किए संस्कारों के समूह जो मन में इकट्ठे हुए पड़े हैं (कर्मों के द्वारा) कोई मनुष्य मिटा नहीं सकता। (इसी तरह आगे के लिए भी कर्म-धर्म के अच्छे नतीजों की आस व्यर्थ है) कोई समझ नहीं सकता कि आने वाले जीवनकाल में क्या घटित होगा। (कर्मों का आसरा छोड़ो, प्रभु की रजा में चलना सीखो) जगत में जो कुछ हो रहा है परमात्मा की रजा में हो रहा है। प्रभु के बिना और कोई कुछ करने वाला नहीं है (उसी की भक्ति करो)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना जाणा करम केवड तेरी दाति ॥ करमु धरमु तेरे नाम की जाति ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
ना जाणा करम केवड तेरी दाति ॥ करमु धरमु तेरे नाम की जाति ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ना जाणा करम = मैं अपने (पिछले किए) कर्म नहीं समझ सकता (कर्मों की सही कीमत नही पा सकता, मैं किए कर्मों को ज्यादा महत्वता दे रहा हूँ)। ना जाणा केवड तेरी दाति = हे प्रभु! तेरी कितनी ही बेअंत दातें मुझे मिल रही हैं, उनको मैं नहीं समझ सकता।1। रहाउ।
अर्थ: मैं अपने किए कर्मों की ठीक कीमत नहीं जानता (मैं इन्हें बहुत महत्व देता हूँ), (दूसरी तरफ, हे प्रभु!) तेरी बेअंत दातें मुझे मिल रहीं हैं, उन्हें भी मैं नहीं समझ सकता (ये ख्याल मेरी भारी भूल है कि मेरे किए कर्मों के अनुसार मुझे मिल रहा है, ये तो पूरी तरह से तेरी मेहर है मेहर)। तेरा नाम ही मेरी जात है, तेरा नाम ही मेरा कर्म-धर्म है (मुझे तेरे नाम की ही ओट है। ना मान है किसी किए कर्म-धर्म का, ना किसी ऊँची जाति का)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू एवडु दाता देवणहारु ॥ तोटि नाही तुधु भगति भंडार ॥ कीआ गरबु न आवै रासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरै पासि ॥२॥
मूलम्
तू एवडु दाता देवणहारु ॥ तोटि नाही तुधु भगति भंडार ॥ कीआ गरबु न आवै रासि ॥ जीउ पिंडु सभु तेरै पासि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एवडु = इतना बड़ा। भंडार = खजाने। न आवै रासि = रास नहीं आता, फबता नहीं, कुछ सवार नहीं सकता। पिंडु = शरीर। तेरै पासि = तेरे हवाले, तेरे आसरे।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू दातें देने वाला इतना बड़ा दाता है (भक्ति की दात भी तू स्वयं ही देता है) तेरे खजानों में भक्ति (की दात) की कोई कमी नहीं है, (अपने किसी अच्छे आचरण के बारे में मनुष्य का) किया हुआ अहंकार कुछ सवार नहीं सकता। मनुष्य की जीवात्मा और शरीर सब कुछ तेरे आसरे ही है। (जैसे तू शरीर की परवरिश के लिए रोजी देता है, वैसे ही जीवात्मा को भी भक्ति की खुराक देने वाला तू ही है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू मारि जीवालहि बखसि मिलाइ ॥ जिउ भावी तिउ नामु जपाइ ॥ तूं दाना बीना साचा सिरि मेरै ॥ गुरमति देइ भरोसै तेरै ॥३॥
मूलम्
तू मारि जीवालहि बखसि मिलाइ ॥ जिउ भावी तिउ नामु जपाइ ॥ तूं दाना बीना साचा सिरि मेरै ॥ गुरमति देइ भरोसै तेरै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मरि = मेरा स्वैभाव मार के। जीवालहि = तू आत्मिक जीवन देता है। बखशि = बख्श के, मेहर करके। मिलाइ = (अपने चरणों में) जोड़ के। जिउ भावी = जैसे तूझे ठीक लगता है। जपाइ = जपा के। दाना = (मेरे दिल की) जानने वाला। बीना = (मेरे कामों को) देखने वाला। सियति = सिर पर। देइ = दे के।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू खुद ही मुझे गुरु की मति दे के, मेरे पर मेहर करके मुझे अपने चरणों में जोड़ के, मेरा स्वैभाव मार के, और जैसे तूझे ठीक लगता है मुझे अपना नाम जपा के मुझे आत्मिक जीवन देता है। तू मेरे दिल की जानता है, तू (मेरी हालत) देखता है, तू मेरे सिर पर (रक्षक) है। मैं सदा तेरे ही आसरे हूँ (मुझे अपने किसी कर्म का आसरा नहीं है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन महि मैलु नाही मनु राता ॥ गुर बचनी सचु सबदि पछाता ॥ तेरा ताणु नाम की वडिआई ॥ नानक रहणा भगति सरणाई ॥४॥१०॥
मूलम्
तन महि मैलु नाही मनु राता ॥ गुर बचनी सचु सबदि पछाता ॥ तेरा ताणु नाम की वडिआई ॥ नानक रहणा भगति सरणाई ॥४॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: श्राता = रंगा हुआ। सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ के)। ताणु = ताकत, आसरा।4।
अर्थ: (हे प्रभु!) जिनका मन (तेरे प्यार में) रंगा हुआ है, उनके शरीर में विकारों की मैल नहीं। गुरु के वचन पर चल के गुरु के शब्द में जुड़ के उन्होंने तूझे सदा कायम रहने वाले को पहचान लिया है (तेरे साथ सांझ डाल ली है), (कर्मों का आसरा लेने की जगह) उन्हें तेरे नाम का ही आसरा है, वे सदा तेरे नाम की ही उपमा करते हैं।
हे नानक! (कह:) वे मनुष्य प्रभु की भक्ति में रते रहते हैं, वे प्रभु की शरण में रहते हैं।4।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला १ ॥ जिनि अकथु कहाइआ अपिओ पीआइआ ॥ अन भै विसरे नामि समाइआ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला १ ॥ जिनि अकथु कहाइआ अपिओ पीआइआ ॥ अन भै विसरे नामि समाइआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (जीव) ने। अकथु = (वह प्रभु) जिसके सारे गुण बयान ना हो सकें। कहाइआ = कहा और कहाया, खुद स्मरण किया व और लोगों को स्मरण करने की प्रेरणा की। अपिओ = अमृत नाम। पाआइआ = पीया और पिलाया, खुद पीया व और लोगों को पिलाया। अन भै = (दुनिया वाले) और-और डर।1।
अर्थ: (गुरु के शब्द में जुड़ के) जिस मनुष्य ने अकथ प्रभु को (खुद स्मरण किया है और) और लोगों को स्मरण के लिए प्रेरित किया है। उसने खुद नाम-अमृत पीया है तथा और लोगों को भी पिलाया है। उसे (दुनिया वाले) और सारे सहम भूल जाते हैं क्योंकि वह (सदैव प्रभु के) नाम में लीन रहता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किआ डरीऐ डरु डरहि समाना ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
किआ डरीऐ डरु डरहि समाना ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किआ डरीऐ = डरने की जरूरत नहीं रहती, नहीं डरता। डरु = (दुनिया वाला) डर। डरहि = डर में, परमात्मा के उर अदब में। पछाना = जिसने पहचान लिया, जिसने प्रभु के साथ जान-पहिचान डाल ली।1। रहाउ।
अर्थ: जिस मनुष्य ने पूरे गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा के साथ जान पहिचान बना ली, वह (दुनिया के झमेलों में) सहमता नहीं। उसका (दुनिया वाला) सहम (परमात्मा वास्ते उसके हृदय में टिके हुए) डर अदब में समाप्त हो जाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिसु नर रामु रिदै हरि रासि ॥ सहजि सुभाइ मिले साबासि ॥२॥
मूलम्
जिसु नर रामु रिदै हरि रासि ॥ सहजि सुभाइ मिले साबासि ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिसु नर रिदै = जिस मनुष्य के हृदय में। सहजि = सहज में (टिके रह के), अडोल अवस्था में (टिके रहने के कारण)। सुभाइ = प्रभु के प्रेम में (जुड़े रहने करके)।2।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में हरि परमात्मा की नाम-रस पूंजी है, वह (माया की खातिर नहीं डोलता, वह) अडोल अवस्था में टिका रहता है। वह प्रभु के प्यार में जुड़ा रहता है। उसे (प्रभु के दर से) आदर मिलता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाहि सवारै साझ बिआल ॥ इत उत मनमुख बाधे काल ॥३॥
मूलम्
जाहि सवारै साझ बिआल ॥ इत उत मनमुख बाधे काल ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाहि = जो लोगों को। सवारै = सुलाए, माया की नींद में सुलाए रखता है। साझ = सांझ, शाम। बिआल = सवेरे। साझ बिआल = सवेरे शाम, हर वक्त। इत = यहां, इस लोक में। उते = वहां, परलोक में। बाधे काले = मौत (के सहम) के बंधे हुए।3।
अर्थ: (पर) जिस मनुष्यों को प्रभु हर वक्त (सवेरे शाम) माया की नींद में ही सुलाए रखता है, वे सदा अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य लोक परलोक में ही मौत के सहम के साथ बंधे रहते हैं (जितना समय वे यहां हैं मौत का सहम उनके सिर पे सवार रहता है। इसके बाद भी जनम मरण के चक्र में धक्के खाते हैं)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिनिसि रामु रिदै से पूरे ॥ नानक राम मिले भ्रम दूरे ॥४॥११॥
मूलम्
अहिनिसि रामु रिदै से पूरे ॥ नानक राम मिले भ्रम दूरे ॥४॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। रिदै = हृदय में। पूरे = पूर्ण। भ्रम = भटकना।4।
अर्थ: हे नानक! जिनके हृदय में दिन रात (हर वक्त) परमात्मा बसता है, वह पूर्ण मनुष्य हैं (वे डावाँडोल नहीं होते)। जिन्हें परमात्मा मिल गया उनकी सब भटकनें खत्म हो जाती हैं।4।11।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी महला १ ॥ जनमि मरै त्रै गुण हितकारु ॥ चारे बेद कथहि आकारु ॥ तीनि अवसथा कहहि वखिआनु ॥ तुरीआवसथा सतिगुर ते हरि जानु ॥१॥
मूलम्
गउड़ी महला १ ॥ जनमि मरै त्रै गुण हितकारु ॥ चारे बेद कथहि आकारु ॥ तीनि अवसथा कहहि वखिआनु ॥ तुरीआवसथा सतिगुर ते हरि जानु ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: त्रै गुण हितकारु = त्रैगुणी संसार के साथ हित करने वाला। जनमि मरै = पैदा हो के मरता है, पैदा होता मरता रहता है। कथहि = जिक्र करते हैं। आकारु = त्रैगुणी दिखाई देता संसार। कहहि वखिआनु = व्याख्यान कहते हैं, जिक्र करते हैं। तीनि अवसथा = (मन के) तीन हालात। तुरीआवसथा = तुरीय अवस्था, वह हालत जब जीवात्मा और परमात्मा एक रूप हो जाते हैं, जब जीवात्मा प्रभु में लीन हो जाती है। ते = से। सतिगुरु ते = गुरु से, गुरु की शरण पड़ कर। जानु = पहचान, गहरी सांझ बना लो।1।
अर्थ: चारों वेद जिस त्रैगुणी संसार का जिक्र करते हैं (जो मनुष्य प्रभु भक्ति से वंचित है और) उसी त्रैगुणी संसार के साथ ही हित करता है वह पैदा होता मरता रहता है। (वह जनम मरण के चक्रव्यूह में पड़ा रहता है)। (ऐसे मनुष्य) जो भी व्याख्या करते हैं मन की तीन अवस्थाओं का ही जिक्र करते हैं (जिस अवस्था में जीवात्मा परमात्मा के साथ एक रूप हो जाती है वह बयान नहीं की जा सकती)। गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के साथ गहरी जान पहिचान बना लो- यह है तुरीया अवस्था।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम भगति गुर सेवा तरणा ॥ बाहुड़ि जनमु न होइ है मरणा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
राम भगति गुर सेवा तरणा ॥ बाहुड़ि जनमु न होइ है मरणा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तरणा = तैर सकते हैं (जनम मरन के चक्र रूप समुंदर में से)।1। रहाउ।
अर्थ: (जनम मरन का चक्र, जैसे एक चक्रव्यूह है, इस में से) परमात्मा की भक्ति और गुरु की बताई हुई कार करके पार लांघ जाते हैं (जो पार लांघ जाता है उसे) फिर ना जनम होता है ना मौत। (उस अवस्था को तुरीया अवस्था कह लो)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारि पदारथ कहै सभु कोई ॥ सिम्रिति सासत पंडित मुखि सोई ॥ बिनु गुर अरथु बीचारु न पाइआ ॥ मुकति पदारथु भगति हरि पाइआ ॥२॥
मूलम्
चारि पदारथ कहै सभु कोई ॥ सिम्रिति सासत पंडित मुखि सोई ॥ बिनु गुर अरथु बीचारु न पाइआ ॥ मुकति पदारथु भगति हरि पाइआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। सभ कोई = हरेक (विचारवान) मनुष्य। मुखि = मुंह में। अरथु बीचारु = अनुभवी ज्ञान, (मुक्ति पदार्थ का) अर्थ व विचार। मुकति = मुक्ति, खलासी, मन के तीनों ही हालातों से आजादी।2।
अर्थ: हरेक जीव धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष (मुक्ति) इन चार पदार्थों का जिक्र तो करता है, सिम्रितियों-शास्त्रों के पण्डितों के मुंह से भी यही सुनते हैं। पर, मुक्ति पदार्थ क्या है (वह अवस्था कैसी है जहाँ जीव तीन गुणों के प्रभाव से निर्लिप हो जाता है) गुरु की शरण पड़े बिना इसका अनुभव नहीं हो सकता। ये पदार्थ परमात्मा की भक्ति करने से मिलते हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कै हिरदै वसिआ हरि सोई ॥ गुरमुखि भगति परापति होई ॥ हरि की भगति मुकति आनंदु ॥ गुरमति पाए परमानंदु ॥३॥
मूलम्
जा कै हिरदै वसिआ हरि सोई ॥ गुरमुखि भगति परापति होई ॥ हरि की भगति मुकति आनंदु ॥ गुरमति पाए परमानंदु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकति आनंदु = आत्मिक स्वतंत्र अवस्था का आनन्द।3।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा आ बसता है उसे भक्ति की प्राप्ति हो गई। और ये भक्ति गुरु के द्वारा ही मिलती है। परमात्मा की भक्ति के द्वारा मुक्ति पदार्थ का आनंद लेते हैं। ये सर्वोच्च आनन्द गुरु की शिक्षा पर चलने से ही मिलता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि पाइआ गुरि देखि दिखाइआ ॥ आसा माहि निरासु बुझाइआ ॥ दीना नाथु सरब सुखदाता ॥ नानक हरि चरणी मनु राता ॥४॥१२॥
मूलम्
जिनि पाइआ गुरि देखि दिखाइआ ॥ आसा माहि निरासु बुझाइआ ॥ दीना नाथु सरब सुखदाता ॥ नानक हरि चरणी मनु राता ॥४॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। गुरि दिखाइआ = जिसे गुरु ने दिखा दिया। निरासु = आशा से स्वतंत्र रहना।4।
अर्थ: जिस मनुष्य ने मुक्ति का आनंद हासिल कर लिया, गुरु ने सर्व सुखदाता दीनानाथ प्रभु खुद देख के जिस मनुष्य को दिखा दिया, उसे दुनिया की आशाओं के अंदर रहते हुए भी आसों उम्मीदों से उपराम रहने की विधि गुरु सिखा देता है। हे नानक! उस मनुष्य का मन प्रभु चरणों (के प्यार) में रंगा रहता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी चेती महला १ ॥ अम्रित काइआ रहै सुखाली बाजी इहु संसारो ॥ लबु लोभु मुचु कूड़ु कमावहि बहुतु उठावहि भारो ॥ तूं काइआ मै रुलदी देखी जिउ धर उपरि छारो ॥१॥
मूलम्
गउड़ी चेती महला १ ॥ अम्रित काइआ रहै सुखाली बाजी इहु संसारो ॥ लबु लोभु मुचु कूड़ु कमावहि बहुतु उठावहि भारो ॥ तूं काइआ मै रुलदी देखी जिउ धर उपरि छारो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित = (अपने आप को) अमर समझने वाली। काइआ = काया, देह। सुखाली = सुख+आलय, सुख का घर, सुख भोगने वाली। बाजी = खेल। मुचु = बहुत। कमावहि = (हे काया!) तू कमाती है। तूं = तूझे। काइआ = हे काया! धर = धरती। छारो = छार, राख।1।
अर्थ: ये शरीर अपने आप को अमर जान के सुख भोगने में ही लगा रहता है (ये नहीं समझता कि) ये जगत (एक) खेल (ही) है। हे मेरे शरीर! तू लब-लोभ कर रहा है। तू बहुत झूठ कमा रहा है (व्यर्थ की दौड़-भाग ही कर रहा है), तू (अपने ऊपर लब-लोभ-झूठ आदि के असर में गलत कामों का) भार उठाता जा रहा है। हे मेरे शरीर! मैंने तेरे जैसे ऐसे भटकते देखें हैं जैसे धरती पर राख।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि सुणि सिख हमारी ॥ सुक्रितु कीता रहसी मेरे जीअड़े बहुड़ि न आवै वारी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुणि सुणि सिख हमारी ॥ सुक्रितु कीता रहसी मेरे जीअड़े बहुड़ि न आवै वारी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिख = शिक्षा। सुक्रितु = सु+कृत, नेक कमाई। रहसी = साथ निभेगी। बहुड़ि = पुनः , मुड़ के।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी जीवात्मा! मेरी शिक्षा ध्यान से सुन। की हुई नेक कमाई ही तेरे साथ निभेगी। (अगर ये मानव जनम गवा लिया), तो दुबारा (जल्दी) वारी नहीं मिलेगी।1। रहाउ।
[[0155]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ तुधु आखा मेरी काइआ तूं सुणि सिख हमारी ॥ निंदा चिंदा करहि पराई झूठी लाइतबारी ॥ वेलि पराई जोहहि जीअड़े करहि चोरी बुरिआरी ॥ हंसु चलिआ तूं पिछै रहीएहि छुटड़ि होईअहि नारी ॥२॥
मूलम्
हउ तुधु आखा मेरी काइआ तूं सुणि सिख हमारी ॥ निंदा चिंदा करहि पराई झूठी लाइतबारी ॥ वेलि पराई जोहहि जीअड़े करहि चोरी बुरिआरी ॥ हंसु चलिआ तूं पिछै रहीएहि छुटड़ि होईअहि नारी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। निंदा चिंदा = निंदा का चिंतन। लाइतबारी = ऐतबार हटाने वाला कर्म, चुगली। वेलि = स्त्री। जोहहि = तू देखता है। बुरिआई = बुराई। हंसु = जीवात्मा।2।
अर्थ: हे मेरे शरीर! मैं तुझे समझाता हूँ, मेरी नसीहत सुन। तु पराई निंदा का ध्यान रखता है, तू (औरों की) झूठी निंदा करता रहता है। हे जीव! तू पराई स्त्री को (बुरी निगाह से) देखता है, तू चोरियां करता है, और बुराईआं करता है। अर्थ: हे मेरी काया! जब जीवात्मा चली जाएगी, तू यहां ही रह जाएगा, तू तब त्यागी हुई स्त्री की तरह हो जाएगा।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं काइआ रहीअहि सुपनंतरि तुधु किआ करम कमाइआ ॥ करि चोरी मै जा किछु लीआ ता मनि भला भाइआ ॥ हलति न सोभा पलति न ढोई अहिला जनमु गवाइआ ॥३॥
मूलम्
तूं काइआ रहीअहि सुपनंतरि तुधु किआ करम कमाइआ ॥ करि चोरी मै जा किछु लीआ ता मनि भला भाइआ ॥ हलति न सोभा पलति न ढोई अहिला जनमु गवाइआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुपनंतरि = स्वप्न+अंतरि, सुपने में, नींद में, सोई हुई। मनि = मन में। भला भाइआ = अच्छा लगा। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। अहिला = उत्तम।3।
अर्थ: हे मेरे शरीर! तू (माया की) नींद में ही सोया रहा (तुझे समझ ही नहीं आई कि) तू क्या करतूतें करता रहा। चोरी आदि करके जो धन माल मैं लाता रहा, तुझे वह मन में पसंद आता रहा। (इस तरह) ना इस लोक में शोभा कमायी, ना परलोक में आसरा (मिलने का प्रबंध) मिला। कीमती मानव जनम व्यर्थ गवा डाला।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ खरी दुहेली होई बाबा नानक मेरी बात न पुछै कोई ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ खरी दुहेली होई बाबा नानक मेरी बात न पुछै कोई ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खरी दुहेली = बहुत दुखी। बाबा = हे बाबा! बात = बातचीत।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (जीवात्मा के चले जाने पर अब) मैं काया बहुत दुखी हुई हूँ। हे नानक! मेरी अब कोई बात नहीं पूछता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताजी तुरकी सुइना रुपा कपड़ केरे भारा ॥ किस ही नालि न चले नानक झड़ि झड़ि पए गवारा ॥ कूजा मेवा मै सभ किछु चाखिआ इकु अम्रितु नामु तुमारा ॥४॥
मूलम्
ताजी तुरकी सुइना रुपा कपड़ केरे भारा ॥ किस ही नालि न चले नानक झड़ि झड़ि पए गवारा ॥ कूजा मेवा मै सभ किछु चाखिआ इकु अम्रितु नामु तुमारा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तजी = घोड़े। केरे = के। गवारा = हे गवार! हे मूर्ख! कूजा = मिश्री।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) हे मूर्ख! बढ़िया घोड़े, सोने-चांदी, कपड़ों के ढेर- कोई भी चीज (मौत के समय) किसी के साथ नहीं जाती। सब यहीं ही रह जाता है। मिश्री, मेवे आदि भी मैंने सब कुछ चख के देख लिया है। (इनमें भी इतना स्वाद नहीं जितना हे प्रभु!) तेरा नाम मीठा है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
दे दे नीव दिवाल उसारी भसमंदर की ढेरी ॥ संचे संचि न देई किस ही अंधु जाणै सभ मेरी ॥ सोइन लंका सोइन माड़ी स्मपै किसै न केरी ॥५॥
मूलम्
दे दे नीव दिवाल उसारी भसमंदर की ढेरी ॥ संचे संचि न देई किस ही अंधु जाणै सभ मेरी ॥ सोइन लंका सोइन माड़ी स्मपै किसै न केरी ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नीव = नींव। दिवाल = दिवार। भस = राख। संचे = खजाने। माढ़ी = महल। संपै = धन। केरी = की।5।
अर्थ: नींव रख-रख के मकानों की दीवारें खड़ी कीं, पर (मौत आने पर) ये राख की ढेरी की तरह हो गए। इकट्ठे किए हुए (माया के) खजाने किसी को हाथ से नहीं देता, मूर्ख समझता है कि ये सब कुछ मेरा है (पर ये नहीं जानता कि) सोने की लंका सोने का महल (रावण के भी ना रहे, तू क्या बेचारा है) ये धन किसी का नहीं बना रहता।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणि मूरख मंन अजाणा ॥ होगु तिसै का भाणा ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
सुणि मूरख मंन अजाणा ॥ होगु तिसै का भाणा ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हागु = होएगा। भाणा = रजा।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख अन्जान मन! सुन। उस परमात्मा की रजा ही चलेगी (लब-लोभ आदि को त्याग के उसकी रजा में चलना सीख)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहु हमारा ठाकुरु भारा हम तिस के वणजारे ॥ जीउ पिंडु सभ रासि तिसै की मारि आपे जीवाले ॥६॥१॥१३॥
मूलम्
साहु हमारा ठाकुरु भारा हम तिस के वणजारे ॥ जीउ पिंडु सभ रासि तिसै की मारि आपे जीवाले ॥६॥१॥१३॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द के आखिरी अंक देखो! अंक 6 बताता है कि शब्द के 6 बंद हैं। अंक 13 बताता है कि गउड़ी राग में गुरु नानक देव जी का ये 13वां शब्द है। अंक 1 नया आया है। ये संकेत है कि कोई नई तब्दीली आई है। अब तक शब्द ‘गउड़ी’ के थे। पर शब्द नंबर 13 ‘गउड़ी चेती’ का है। ‘गउड़ी चेती’ का ये पहला ही शब्द है। 12 शब्द ‘गउड़ी’ के 1 शब्द ‘गउड़ी चेती’ का, कुल 13 शब्द। ‘गउड़ी चेती’ के कुल 5 शब्द हैं। वहां आखिरी जोड़ है।5।17। भाव, 12 शब्द ‘गउड़ी’ के 5 शब्द ‘गउड़ी चेती’ का, जोड़ 17।
इस शब्द में कभी काया को संबोधन किया गया है तो कभी जीवात्मा को।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वणजारे = व्यापार करने वाले। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। मारि = मार के।6।
अर्थ: हमारा मालिक प्रभु बड़ा शाहूकार है। हम सारे जीव उसके भेजे हुए वणजारे व्यापारी है (यहां नाम का व्यापार करने आए हुए हैं)। ये जीवात्मा ये शरीर उसी शाह की दी हुई राशि-पूंजी है। वह स्वयं ही मारता और स्वयं ही जीवन देता है।6।1।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी चेती महला १ ॥ अवरि पंच हम एक जना किउ राखउ घर बारु मना ॥ मारहि लूटहि नीत नीत किसु आगै करी पुकार जना ॥१॥
मूलम्
गउड़ी चेती महला १ ॥ अवरि पंच हम एक जना किउ राखउ घर बारु मना ॥ मारहि लूटहि नीत नीत किसु आगै करी पुकार जना ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अवरि = और, विरोधी, दुश्मन। पंच = पाँच। हम = मैं। एक जना = अकेला। किउ राखउ = मैं कैसे बचाऊँ? घर बारु = घर घाट, सारा घर। मना = हे मेरे मन! नीत नीत = सदा ही। करी = मैं करूँ। जना = हे भाई!।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे मन! मेरे वैरी (कामादिक) पाँच हैं। मैं अकेला हूँ। मैं (इनसे) सारा घर कैसे बचाऊँ? हे भाई! ये पाँचों मुझे नित्य मारते लूटते रहते हैं, मैं किस के पास शिकायत करूँ?।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्री राम नामा उचरु मना ॥ आगै जम दलु बिखमु घना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
स्री राम नामा उचरु मना ॥ आगै जम दलु बिखमु घना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उचरु = उचार, बोल। आगै = सामने। जम दलु = यम का दल, यमराज की फौज। बिखमु = मुश्किल (करने वाला)। घना = बहुत।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम स्मरण कर, सामने यमराज की तगड़ी फौज दिख रही है (भाव, मौत आने वाली है)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
उसारि मड़ोली राखै दुआरा भीतरि बैठी सा धना ॥ अम्रित केल करे नित कामणि अवरि लुटेनि सु पंच जना ॥२॥
मूलम्
उसारि मड़ोली राखै दुआरा भीतरि बैठी सा धना ॥ अम्रित केल करे नित कामणि अवरि लुटेनि सु पंच जना ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मड़ोली = शरीर-मठ। उसारि = सृजना करके। दुआरा = दरवाजे (कान नाक आदि)। भीतरि = में। सा धन = वह जीव-स्त्री। अंम्रित = अपने आप को अमर जानने वाली। केल = चोज तमाशे, रंग रलियां। कामणि = जीव-स्त्री। लुटेनि = लूटते रहते हैं। सु = वह। पंच जना = कामादिक पाँचों जन।2।
अर्थ: परमात्मा ने ये शरीर बना के (इसके नाक-कान आदि) दस दरवाजे बना दिए। (उसके हुक्म अनुसार) इस शरीर में जीव-स्त्री आ टिकी। पर ये जीव-स्त्री अपने आप को अमर जान के सदा (दुनिया वाले) रंग तमाशे करती रहती है, और वह वैरी कामादिक पाँचो जने (अंदर से भले गुण) लुटते जा रहे हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ढाहि मड़ोली लूटिआ देहुरा सा धन पकड़ी एक जना ॥ जम डंडा गलि संगलु पड़िआ भागि गए से पंच जना ॥३॥
मूलम्
ढाहि मड़ोली लूटिआ देहुरा सा धन पकड़ी एक जना ॥ जम डंडा गलि संगलु पड़िआ भागि गए से पंच जना ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देहुरा = मंदिर। एक जना = अकेली। जम डंडा = यम का डण्डा। गलि = गले में।3।
अर्थ: (यम की फौज ने आखिर) शरीर मठ गिरा के मंदिर लूट लिया, जीव-स्त्री अकेली ही पकड़ी गई। जम का डण्डा सिर पर बजा, जम का संगल गले में पड़ा, वह (लूटने वाले) पाँचों जने भाग लिए (साथ छोड़ गए)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामणि लोड़ै सुइना रुपा मित्र लुड़ेनि सु खाधाता ॥ नानक पाप करे तिन कारणि जासी जमपुरि बाधाता ॥४॥२॥१४॥
मूलम्
कामणि लोड़ै सुइना रुपा मित्र लुड़ेनि सु खाधाता ॥ नानक पाप करे तिन कारणि जासी जमपुरि बाधाता ॥४॥२॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामणि = पत्नी। रुपा = चाँदी। लुड़ेनि = तलाशते हैं, मांगते हैं। खाधाता = खाने के पदार्थ। तिन कारणि = इन स्त्री मित्रों के खातिर। जासी = जाएगा। जमपुरि = यम की नगरी में। बाधाता = बंधा हुआ।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक “4।2।14” में अंक 2 का भाव है कि ‘गउड़ी चेती’ का यह दूसरा शब्द है। ‘गउड़ी’ के अब तक कुल 14 शब्द हो गए हैं।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (सारी उम्र जब तक जीव जीवित रहा) पत्नी सोना-चाँदी (के गहने) मांगती रहती है। संबंधी मित्र, खान-पीने के पदार्थ मांगते रहते हैं। हे नानक! इनकी ही खातिर जीव पाप करता रहता है, आखिर (पापों के कारण) बंधा हुआ यम की नगरी में धकेला जाता है।4।2।14।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी चेती महला १ ॥ मुंद्रा ते घट भीतरि मुंद्रा कांइआ कीजै खिंथाता ॥ पंच चेले वसि कीजहि रावल इहु मनु कीजै डंडाता ॥१॥
मूलम्
गउड़ी चेती महला १ ॥ मुंद्रा ते घट भीतरि मुंद्रा कांइआ कीजै खिंथाता ॥ पंच चेले वसि कीजहि रावल इहु मनु कीजै डंडाता ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घट भीतरि = हृदय में। मुंद्रा = (बुरी वासनाओं को रोकें = ये) मुंद्रा। कांइआ = शरीर को (नाशवान जानना)। खिंथाता = खिंथा, गठड़ी। ते = वही। पंच चेले = पाँच ज्ञानेंद्रिय रूप चेले। कीजहि = करने चाहिए। रावल = हे रावल! हे जोगी!।1।
अर्थ: हे रावल! अपने शरीर के अंदर ही बुरी भावनाओं को रोक - ये है असल मुंद्रां। शरीर को नाशवान समझ-इस यकीन को गुदड़ी बना। हे रावल! (तुम और लोगों को चेले बनाते फिरते हो) अपने पाँचों, ज्ञानेंद्रियों को वश में करो- चेले बनाओ। अपने मन को डण्डा बनाओ (और हाथ में पकड़ो। भाव, काबू करो)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोग जुगति इव पावसिता ॥ एकु सबदु दूजा होरु नासति कंद मूलि मनु लावसिता ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जोग जुगति इव पावसिता ॥ एकु सबदु दूजा होरु नासति कंद मूलि मनु लावसिता ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोग जुगति = योग साधना का जुगती। इव = इस तरह। पावसिता = पावसि, तू पा लेगा। नासति = नास्ति, नहीं है। लावसिता = लावसि, अगर तू लगा ले।1। रहाउ।
अर्थ: (हे रावल!) तू गाजर मूली आदि खाने में मन जोड़ता फिरता है। पर, अगर तू उस गुरु शब्द में मन जोड़े (जिस के बिना) कोई और (जीवन-राह दिखाने में समर्थ) नहीं है। तो तू इस तरह जोग (प्रभु चरणों में जुड़ने) का तरीका ढूँढ लेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूंडि मुंडाइऐ जे गुरु पाईऐ हम गुरु कीनी गंगाता ॥ त्रिभवण तारणहारु सुआमी एकु न चेतसि अंधाता ॥२॥
मूलम्
मूंडि मुंडाइऐ जे गुरु पाईऐ हम गुरु कीनी गंगाता ॥ त्रिभवण तारणहारु सुआमी एकु न चेतसि अंधाता ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूंडि मुंडाइऐ = सिर मुंडाने से। मूंडि = सिर।2।
अर्थ: अगर (गंगा के किनारे) सिर मुण्डन से गुरु मिलता है (भाव, तुम तो गंगा के तट पर सिर मुंडवा के गुरु धारण करते हो) तो हमने तो गुरु को ही गंगा बना लिया है, (हमारे लिए गुरु ही महा पवित्र तीर्थ है)। अंधा (रावल) उस एक मालिक को नहीं स्मरण करता जो तीनों भवनों (के जीवों) को उबारने के समर्थ है।2।
[[0156]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि पट्मबु गली मनु लावसि संसा मूलि न जावसिता ॥ एकसु चरणी जे चितु लावहि लबि लोभि की धावसिता ॥३॥
मूलम्
करि पट्मबु गली मनु लावसि संसा मूलि न जावसिता ॥ एकसु चरणी जे चितु लावहि लबि लोभि की धावसिता ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पटंबु = ठगी, दिखावा। गली = बातों से। मनु = लोगों का मन। लावसि = तू लगाता है। मूलि न = बिल्कुल नहीं। की धावसिता = क्यूँ दौड़ेगा? नहीं भटकेगा।3।
अर्थ: हे जोगी! तू (योग का) दिखावा करके निरी बातों से ही लोगों का मनोरंजन करता है, पर तेरी अपनी संशय रक्ती मात्र भी दूर नहीं होता। अगर तू एक परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े, तो लब और लोभ के कारण बनी हुई तेरी भटकना दूर हो जाए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जपसि निरंजनु रचसि मना ॥ काहे बोलहि जोगी कपटु घना ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
जपसि निरंजनु रचसि मना ॥ काहे बोलहि जोगी कपटु घना ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रचसि मना = मन रचा के, मन जोड़ के। कपटु = ठगी, झूठ फरेब।1। रहाउ।
अर्थ: हे जोगी! ज्यादा ठगी-फरेब के बोल क्यूँ बोलता है? अपना मन जोड़ के माया-रहित प्रभु का नाम स्मरण कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
काइआ कमली हंसु इआणा मेरी मेरी करत बिहाणीता ॥ प्रणवति नानकु नागी दाझै फिरि पाछै पछुताणीता ॥४॥३॥१५॥
मूलम्
काइआ कमली हंसु इआणा मेरी मेरी करत बिहाणीता ॥ प्रणवति नानकु नागी दाझै फिरि पाछै पछुताणीता ॥४॥३॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कमली = पगली। हंसु = जीवात्मा। बिहाणीता = (उम्र) गुजर रही है। नागी = नंगी काया। दाझै = जलती है। पाछै = समय बीत जाने के बाद में।4।
अर्थ: जिस मनुष्य का शरीर पागल हुआ हुआ हो (जिसकी ज्ञानेंद्रियां विकारों में पागल हुई पड़ी हों) जिसकी जीवात्मा अंजान हो (जिंदगी का सही रास्ता ना समझता हो) उसकी सारी उम्र माया की ममता में बीत जाती है। (तथा) नानक बिनती करता है कि जब (ममता के सारे पदार्थ जगत में ही छोड़ के) शरीर अकेला ही (शमशान में) जलता है। समय व्यर्थ में गवा के जीव पछताता है।4।3।15।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी चेती महला १ ॥ अउखध मंत्र मूलु मन एकै जे करि द्रिड़ु चितु कीजै रे ॥ जनम जनम के पाप करम के काटनहारा लीजै रे ॥१॥
मूलम्
गउड़ी चेती महला १ ॥ अउखध मंत्र मूलु मन एकै जे करि द्रिड़ु चितु कीजै रे ॥ जनम जनम के पाप करम के काटनहारा लीजै रे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउखध = दवा। अउखध मूलु = दवाओं का मूल, सबसे बढ़िया दवाई। मंत्र मूलु = सबसे बढ़िया मंत्र। एकै = एक ही, परमात्मा का नाम ही। द्रिढ़ु = पक्का। हे = हे भाई! पाप करम = बुरे कर्म, विकार।1।
अर्थ: हे भाई! अगर तू जनमों जन्मांतजरों के किये बुरे कर्मों के संस्कारों को काटने वाले परमात्मा का नाम लेता रहे, अगर तू (उसके नाम के स्मरण में) अपने चिक्त को पक्का कर ले, तो (तुझे यकीन आ जाएगा कि) मन के रोग दूर करने वाली सबसे बढ़िया दवा प्रभु का नाम ही है। मन को वश में करने वाला सबसे बढ़िया मंत्र परमात्मा का नाम ही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन एको साहिबु भाई रे ॥ तेरे तीनि गुणा संसारि समावहि अलखु न लखणा जाई रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मन एको साहिबु भाई रे ॥ तेरे तीनि गुणा संसारि समावहि अलखु न लखणा जाई रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भाई रे = हे भाई! मन साहिबु = मन का मालिक, मन को विकारों से बचा के रखने वाला मालिक। तीनि गुणा = तीनों गुण, तीनों गुणों में प्रवृत शारीरिक इंद्रियां। संसारि समावहि = संसार में उलझे हुए हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! (विकारों से बचा सकने वाला) मन का रक्षक एक प्रभु का नाम ही है (उसके गुण पहिचान), पर जितने समय तक तेरी त्रिगुणी इंद्रियां संसार (के मोह) में खचित हैं, उस अलख परमात्मा को समझा नहीं जा सकता।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकर खंडु माइआ तनि मीठी हम तउ पंड उचाई रे ॥ राति अनेरी सूझसि नाही लजु टूकसि मूसा भाई रे ॥२॥
मूलम्
सकर खंडु माइआ तनि मीठी हम तउ पंड उचाई रे ॥ राति अनेरी सूझसि नाही लजु टूकसि मूसा भाई रे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तनि = तन में। पंड = माया की गठड़ी। उचाई = उठाई हुई है। लजु = उम्र की लज्जा। मूसा = चूहा, यम, बीत रहा समय।2।
अर्थ: हे भाई! हम जीवों ने ता माया की गठड़ी (हर वक्त सिर पर) उठाई हुई है। हमें तो माया, अपने अंदर शक्कर जैसी मीठी लग रही है, (हमारे लिए तो माया के मोह की) अंधेरी रात पड़ी हुई है (जिसमें हमें कुछ दिखता ही नहीं) और (उधर से) यम रूपी चूहा हमारी उम्र की लज्जा कतरता जा रहा है (उम्र घटती जा रही है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखि करहि तेता दुखु लागै गुरमुखि मिलै वडाई रे ॥ जो तिनि कीआ सोई होआ किरतु न मेटिआ जाई रे ॥३॥
मूलम्
मनमुखि करहि तेता दुखु लागै गुरमुखि मिलै वडाई रे ॥ जो तिनि कीआ सोई होआ किरतु न मेटिआ जाई रे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखि = जिन्हों का मुख अपने मन की ओर है, जो अपने मन के पीछे चलते हैं। तेता = उतना ही। तिनि = उस (परमात्मा) ने। किरतु = जनम जन्मांतरों के किए हुए कर्मों के संस्कारों का समूह।3।
अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चल के मनुष्य जितने भी उद्यम करते हैं, उतने ही दुख घटित होते हैं। (लोक परलोक में) शोभा उन्हीं को मिलती है जो गुरु के सन्मुख रहते हैं। जो (नियम) उस परमात्मा ने बना दिया है वही घटित होता है। (उस नियम के अनुसार) जनमों जन्मांतरों के किए कर्मों के संस्कारों के समूह को (जो हमारे मन में टिका हुआ है, अपने मन के पीछे चल के) मिटाया नहीं जा सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुभर भरे न होवहि ऊणे जो राते रंगु लाई रे ॥ तिन की पंक होवै जे नानकु तउ मूड़ा किछु पाई रे ॥४॥४॥१६॥
मूलम्
सुभर भरे न होवहि ऊणे जो राते रंगु लाई रे ॥ तिन की पंक होवै जे नानकु तउ मूड़ा किछु पाई रे ॥४॥४॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुभर = नाकोनाक। पंक = चरण धूल। मूढ़ा = मूर्ख।4।
अर्थ: नानक (कहता है) जो मनुष्य प्रभु के चरणों में प्रीत जोड़ के उसके प्रेम में रंगे रहते हैं, उनके मन प्रेम रस के साथ लबा-लब भरे रहते हैं। वह (प्रेम से) खाली नहीं होते। अगर (हमारा) मूर्ख (मन) उनके चरणों की धूल बने, तो इसे भी कुछ प्राप्ति हो जाए।4।4।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी चेती महला १ ॥ कत की माई बापु कत केरा किदू थावहु हम आए ॥ अगनि बि्मब जल भीतरि निपजे काहे कमि उपाए ॥१॥
मूलम्
गउड़ी चेती महला १ ॥ कत की माई बापु कत केरा किदू थावहु हम आए ॥ अगनि बि्मब जल भीतरि निपजे काहे कमि उपाए ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कत की = कब की? केरा = का। कत केरा = कब का? किदू = किससे? किदू थावहु = किस जगह से? बिंब = मण्डल (बिम्ब = a jar) अगनि बिंब = माँ के पेट की आग, जठराग्नि। जल = पिता का वीर्य। निपजे = माँ के पेट में टिकाए गए। काहे कंमि = किस वास्ते? 1।
अर्थ: (हे मेरे साहिब! अनगिनत अवगुणों के कारण ही हमें अनेको योनियों में भटकना पड़ता है, हम क्या बताएं कि) कब की हमारी (कोई) माँ है। कब का (भाव, किस जून का) हमारा कोई बाप है किस किस जगह से (जूनियों में से हो के) हम (अब इस मनुष्य जनम में) आए हैं? (इन अवगुणों के कारण ही हमें ये भी नहीं सूझता कि) हम किस उद्देश्य उद्देश्य के लिए पिता के वीर्य से माँ के पेट की आग में तपे, और किस वास्ते पैदा हुए।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरे साहिबा कउणु जाणै गुण तेरे ॥ कहे न जानी अउगण मेरे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
मेरे साहिबा कउणु जाणै गुण तेरे ॥ कहे न जानी अउगण मेरे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जाणै = गहरी सांझ डाल सकता है। कहे न जानी = गिने नहीं जाते।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभु! मेरे अंदर इतने अवगुण है कि वे गिने नहीं जा सकते। (और, जिस जीव के अंदर अनगिनत अवगुण हों, वह ऐसा) कोई भी नहीं होता जो तेरे गुणों के साथ गहरी सांझ डाल सके (जो तेरी महिमा में जुड़ सके)।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केते रुख बिरख हम चीने केते पसू उपाए ॥ केते नाग कुली महि आए केते पंख उडाए ॥२॥
मूलम्
केते रुख बिरख हम चीने केते पसू उपाए ॥ केते नाग कुली महि आए केते पंख उडाए ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चीने = देखे। नाग = सांप। पंख = पक्षी।2।
अर्थ: (अनगिनत अवगुणों के कारण) हमने अनेक रुखों, वृक्षों की जूनियां देखीं। अनेक बार पशू जून में हम जन्मे। अनेक बार साँपों की कुलों में पैदा हुए, और अनेक बार पंछी बन बन के उड़ते रहे।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हट पटण बिज मंदर भंनै करि चोरी घरि आवै ॥ अगहु देखै पिछहु देखै तुझ ते कहा छपावै ॥३॥
मूलम्
हट पटण बिज मंदर भंनै करि चोरी घरि आवै ॥ अगहु देखै पिछहु देखै तुझ ते कहा छपावै ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पटण = शहर। बिज = पक्के। मंदर = घर।3।
अर्थ: (जनमों जन्मांतरों में किये कुकर्मों के असर में ही) मनुष्य शहरों की दुकानें तोड़ता है, पक्के घर तोड़ता है (सेंध लगाता है), चोरी करके (माल ले के) अपने घर आता है, (चोरी का माल लाता) आगे-पीछे देखता है (कि कोई देख ना ले, पर मूर्ख ये नहीं समझता कि हे प्रभु!) तेरे से कहीं छुपा नहीं रह सकता।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तट तीरथ हम नव खंड देखे हट पटण बाजारा ॥ लै कै तकड़ी तोलणि लागा घट ही महि वणजारा ॥४॥
मूलम्
तट तीरथ हम नव खंड देखे हट पटण बाजारा ॥ लै कै तकड़ी तोलणि लागा घट ही महि वणजारा ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नवखंड = नौ खण्डों वाली सारी धरती। घट ही महि‘अपने अंदर ही।4।
अर्थ: (इन किए कुकर्मों को धोने के लिए हम जीव) सारी धरती के सारे तीर्थों के दर्शन करते फिरते हैं। सारे शहरों, बाजारों की दुकान-दुकान देखते हैं (भाव, भीख मांगते फिरते हैं, पर ये कुकर्म फिर भी नहीं मिटते)। (जब कोई भाग्यशाली जीव-) वणजारा (तेरी मेहर के सदका) अच्छी तरह परख विचार करता है (तो उसे समझ आती है कि तू तो) हमारे हृदय में ही बसता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेता समुंदु सागरु नीरि भरिआ तेते अउगण हमारे ॥ दइआ करहु किछु मिहर उपावहु डुबदे पथर तारे ॥५॥
मूलम्
जेता समुंदु सागरु नीरि भरिआ तेते अउगण हमारे ॥ दइआ करहु किछु मिहर उपावहु डुबदे पथर तारे ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। नीरि = नीर से, पानी से। तेते = उतने, बेअंत।5।
अर्थ: (हे मेरे साहिब!) जैसे (अनमापे, अथाह) पानी के साथ समुंदर भरा हुआ है, वैसे ही हम जीवों के अनगिनत ही अवगुण हैं। (हम इन्हें धो सकने में अस्मर्थ हैं), तू खुद ही दया करके मेहर कर। तू तो डूबते पत्थरों को भी उबार सकता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअड़ा अगनि बराबरि तपै भीतरि वगै काती ॥ प्रणवति नानकु हुकमु पछाणै सुखु होवै दिनु राती ॥६॥५॥१७॥
मूलम्
जीअड़ा अगनि बराबरि तपै भीतरि वगै काती ॥ प्रणवति नानकु हुकमु पछाणै सुखु होवै दिनु राती ॥६॥५॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वगै = चल रही है। काती = छुरी, तृष्णा की छुरी।6।
अर्थ: (हे मेरे साहिब!) मेरी जीवात्मा आग की तरह तप रही है। मेरे अंदर तृष्णा की छुरी चल रही है। नानक विनती करता है: जो मनुष्य परमात्मा की रज़ा को समझ लेता है, उसके अंदर दिन रात (हर वक्त ही) आत्मिक आनंद बना रहता है।6।5।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गउड़ी बैरागणि महला १ ॥ रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥ हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥१॥
मूलम्
गउड़ी बैरागणि महला १ ॥ रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥ हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रैणि = रात। दिवसु = दिन। खाइ = खा के। बदले = बदले में, एव्ज में।1।
अर्थ: (हे मूर्ख!) तू रात सो के गुजारता जा रहा है और दिन खा खा के व्यर्थ बिताता जाता है। तेरा ये मानव जन्म हीरे जैसा कीमती है, पर (स्मरण हीन होने के कारण) कउड़ी के मोल जा रहा है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु न जानिआ राम का ॥ मूड़े फिरि पाछै पछुताहि रे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
नामु न जानिआ राम का ॥ मूड़े फिरि पाछै पछुताहि रे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामु न जानिआ = नाम की कद्र ना पाई, नाम के साथ गहरी सांझ नही डाली। रे मूढ़े = हे मूर्ख!।1। रहाउ।
अर्थ: हे मूर्ख! तूने परमात्मा के नाम के साथ गहरी सांझ नहीं डाली। (ये मानव जीवन ही स्मरण के लिए समय है, जब ये उम्र स्मरण के बगैर गुजर गई तो) फिर समय बीत जाने पे अफसोस करेगा।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनता धनु धरणी धरे अनत न चाहिआ जाइ ॥ अनत कउ चाहन जो गए से आए अनत गवाइ ॥२॥
मूलम्
अनता धनु धरणी धरे अनत न चाहिआ जाइ ॥ अनत कउ चाहन जो गए से आए अनत गवाइ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनता धनु = अनंत धन। धरणी धरे = धरती में रखता है, एकत्र करता है। अनत = अनंत प्रभु। अनत न चाहिआ जाइ = अनंत प्रभु के नाम जपने की चाहत नहीं उपजती। अनत कउ = बेअंत धन को। अनत गवाइ = परमात्मा की याद गवा के।2।
अर्थ: जो मनुष्य (सिर्फ) बेअंत धन ही इकट्ठा करता रहता है, उसके अंदर बेअंत प्रभु को स्मरण करने की तमन्ना पैदा नहीं हो सकती। जो जो भी बेअंत दौलत की लालच में दौड़े फिरते हैं, वे बेअंत प्रभु के नाम धन को गवा लेते हैं।2।
[[0157]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपण लीआ जे मिलै ता सभु को भागठु होइ ॥ करमा उपरि निबड़ै जे लोचै सभु कोइ ॥३॥
मूलम्
आपण लीआ जे मिलै ता सभु को भागठु होइ ॥ करमा उपरि निबड़ै जे लोचै सभु कोइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आपण लीआ = निरी लोचना से, सिर्फ इच्छा करने से। जे मिलै = अगर (नाम धन) मिल सके। सभु को = हरेक जीव। भागठु = धनाढ, नाम खजाने का मालिक। करम = अमल, आचरण। निबड़ै = फैसला होता है। जे = चाहे जैसे भी। लोचे = चाह करे।3।
अर्थ: (पर) अगर सिर्फ इच्छा करने से ही नाम धन मिल सकता हो, तो हरेक जीव नाम-धन खजानों का मालिक बन जाए। हलांकि, यद्यपि हरेक मनुष्य (सिर्फ जबानी जबानी) नाम धन की लालसा करे, पर ये हरेक जीव के अमलों पर फैसला होता है (कि किस को प्राप्ति होगी। सो, निरा दुनिया की खातर ना भटको)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक करणा जिनि कीआ सोई सार करेइ ॥ हुकमु न जापी खसम का किसै वडाई देइ ॥४॥१॥१८॥
मूलम्
नानक करणा जिनि कीआ सोई सार करेइ ॥ हुकमु न जापी खसम का किसै वडाई देइ ॥४॥१॥१८॥
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस शब्द के आखिरी अंकों को देखिए। अंक 4 बताता है कि शब्द के 4 बंद हैं। अंक18 बताता है कि राग गउड़ी में श्री गुरु नानक देव जी का यह 18वां शब्द है। इससे पहले ‘गउड़ी चेती’ में 5 शब्द आ चुके हैं। अब ये “गउड़ी बैरागणि” का पहला शब्द है, जिसके लिए अंक 1 लिखा गया है।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करणा = जगत। जिनि = जिस (परमातमा) ने। सार = संभाल। करेइ = करता है। न जापी = समझ में नहीं आ सकता। देइ = देता है।4।
अर्थ: हे नानक! (उद्यम करते हुए भी हक नहीं जतलाया जा सकता। ये नहीं कहा जा सकता कि किस को मिलेगा। उद्यम का गर्व ही सारे उद्यम को व्यर्थ कर देता है)। जिस परमातमा ने ये जगत रचा है, वह हरेक जीव की संभाल करता है। (उद्यम के फल के बारे में) उस प्रभु पति का हुक्म समझा नहीं जा सकता। (ये पता नही लग सकता कि) किस मनुष्य को वह (नाम जपने की) बड़ाई देता है (हम जीव किसी मनुष्य के दिखाई देते कर्मों पर गलती खा सकते हैं। इसलिए उद्यम करते हुए भी प्रभु से मेहर की दाति मांगते रहें)।4।1।18।