०९ गुरु नानक

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥ सलोकु मः १ ॥

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु गुर प्रसादि ॥ सलोकु मः १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु दाता गुरु हिवै घरु गुरु दीपकु तिह लोइ ॥ अमर पदारथु नानका मनि मानिऐ सुखु होइ ॥१॥

मूलम्

गुरु दाता गुरु हिवै घरु गुरु दीपकु तिह लोइ ॥ अमर पदारथु नानका मनि मानिऐ सुखु होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिवै घरु = बर्फ का घर, ठण्उ का श्रोत। दीपकु = दिया। तिहु लोइ = त्रिलोकी में। अमर = ना मरने वाला, ना खत्म होने वाला। मनि मानीऐ = अगर मन मान जाए, यदि मन पतीज जाए।1।
अर्थ: सतिगुरु (नाम की दाति) देने वाला है। गुरु ठण्ड का श्रोत है। गुरु (ही) त्रिलोकी में प्रकाश करने वाला है। हे नानक! कभी ना समाप्त होने वाला (नाम रूपी) पदार्थ (गुरु से मिलता है)। जिसका मन गुरु में पतीज जाए, वह सुखी हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ पहिलै पिआरि लगा थण दुधि ॥ दूजै माइ बाप की सुधि ॥ तीजै भया भाभी बेब ॥ चउथै पिआरि उपंनी खेड ॥ पंजवै खाण पीअण की धातु ॥ छिवै कामु न पुछै जाति ॥ सतवै संजि कीआ घर वासु ॥ अठवै क्रोधु होआ तन नासु ॥ नावै धउले उभे साह ॥ दसवै दधा होआ सुआह ॥ गए सिगीत पुकारी धाह ॥ उडिआ हंसु दसाए राह ॥ आइआ गइआ मुइआ नाउ ॥ पिछै पतलि सदिहु काव ॥ नानक मनमुखि अंधु पिआरु ॥ बाझु गुरू डुबा संसारु ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ पहिलै पिआरि लगा थण दुधि ॥ दूजै माइ बाप की सुधि ॥ तीजै भया भाभी बेब ॥ चउथै पिआरि उपंनी खेड ॥ पंजवै खाण पीअण की धातु ॥ छिवै कामु न पुछै जाति ॥ सतवै संजि कीआ घर वासु ॥ अठवै क्रोधु होआ तन नासु ॥ नावै धउले उभे साह ॥ दसवै दधा होआ सुआह ॥ गए सिगीत पुकारी धाह ॥ उडिआ हंसु दसाए राह ॥ आइआ गइआ मुइआ नाउ ॥ पिछै पतलि सदिहु काव ॥ नानक मनमुखि अंधु पिआरु ॥ बाझु गुरू डुबा संसारु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पहिलै = पहली अवस्था में। पिआरि = प्यार से। थण दुध = थनों के दूध में। सुधि = सूझ। भया = भाई। भाभी = भौजाई। बेब = बहिन। धातु = धौड़, कामना। संजि = (पदार्थ) इकट्ठे करके। सिगीत = संगी, साथी। दसाए = पूछता है। मुइआ = खत्म हो गया, भूल गया। अंधु = अंधा, अज्ञानता वाला।2।
अर्थ: (अगर मनुष्य की सारी उम्र को दस हिस्सों में बाँट दें, तो इसकी सारी उम्र के किए उद्यमों की तसवीर कुछ इस तरह बनती है:) पहली अवस्था में (जीव) प्यार से (माँ के) थनों के दूध से व्यस्त होता है; दूसरी अवस्था में (भाव, जब थोड़ा सा बड़ा होता है) (इसे) माँ और पिता की समझ हो जाती है। तीसरी अवस्था में (पहुँचे हुए जीव को) भाई व बहिन की पहचान हो जाती है। चौथी अवस्था में खेलों में प्यार के कारण (जीवों में खेल खेलने की रुची) उपतजी है। पाँचवीं अवस्था में खाने पीने की लालसा बनती है। छेवीं अवस्था में (पहुँच के जीव के अंदर) काम (जागता है जो) जाति कुजाति नहीं देखता। सातवीं अवस्था में (जीव पदार्थ) इकट्ठे करके (अपना) घर का बसेरा बनाता है। आठवीं अवस्था में (जीव के अंदर) गुस्सा (पैदा होता है जो) शरीर का नाश करता है। (उम्र के) नौवें हिस्से में केस सफेद हो जाते हैं और साँस खींच के आते हैं (भाव, दम चढ़ने लग जाता है); दसवें दर्जे पे जा के जल के राख हो जाता है।
जो साथी (शमशान तक साथ) जाते हैं, वे ढाहें मार के रोते हैं। जीवात्मा (शरीर में से) निकल के (आगे के) राह पूछता है। जीव जगत में आया और चला गया। (जगत में उसका) नाम भी भूल गया। (उसके मरने के) बाद पत्तलों पे (पिण्ड भरा के) कौओं को ही बुलाते हैं (उस जीव को कुछ नहीं पहुँचता)।
हे नानक! मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का (जगत से) प्यार अंधों वाला प्यार है। गुरु (की शरण आए) बगैर जगत (इस ‘अंधे प्यार’ में) डूब रहा है।2।

[[0138]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ दस बालतणि बीस रवणि तीसा का सुंदरु कहावै ॥ चालीसी पुरु होइ पचासी पगु खिसै सठी के बोढेपा आवै ॥ सतरि का मतिहीणु असीहां का विउहारु न पावै ॥ नवै का सिहजासणी मूलि न जाणै अप बलु ॥ ढंढोलिमु ढूढिमु डिठु मै नानक जगु धूए का धवलहरु ॥३॥

मूलम्

मः १ ॥ दस बालतणि बीस रवणि तीसा का सुंदरु कहावै ॥ चालीसी पुरु होइ पचासी पगु खिसै सठी के बोढेपा आवै ॥ सतरि का मतिहीणु असीहां का विउहारु न पावै ॥ नवै का सिहजासणी मूलि न जाणै अप बलु ॥ ढंढोलिमु ढूढिमु डिठु मै नानक जगु धूए का धवलहरु ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बालतणि = बालपन में। रवण = काम चेष्टा वाली उम्र। रवणि = काम चेष्टा वाली अवस्था में। पुरु = भरी जवानी, पूर्ण यौवन। पगु = पैर। खिसै = फिसलता है, नीचे को खिसकता है। सिहजासणी = सेज+आसनी, मंजे पे आसन रखने वाला। अप बलु = अपना बल, अपना आप। धवलहरु = धवल घर, मंदिर, सफेद पलस्तर वाला मकान।3।
अर्थ: दस सालों का (जीव) बालपन में (होता है)। बीस वर्षों का हो के काम चेष्टा वाली अवस्था में पहुँचता है, तीस सालों का हो के खूबसूरत कहलाता है। चालिस सालों की उम्र तक भर जवान होता है। पचास पे पहुँच के पैर (जवानी से नीचे) खिसकने लग पड़ता है। साठ सालों पे बुढ़ापा आ जाता है, सक्तर सालों का जीव अक्ल से हीन होने लग पड़ता है, और अस्सी सालों का काम काज के लायक नहीं रहता। नब्बे साल का चारपाई से ही नहीं हिल सकता, अपने आप को भी संभाल नहीं सकता।
हे नानक! मैंने ढूँढा है, तलाशा है। ये जगत सफेद पलस्तरी मंदिर है (अर्थात, देखने को सुंदर है) पर है धूएं का (भाव सदा कायम रहने वाला नहीं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तूं करता पुरखु अगमु है आपि स्रिसटि उपाती ॥ रंग परंग उपारजना बहु बहु बिधि भाती ॥ तूं जाणहि जिनि उपाईऐ सभु खेलु तुमाती ॥ इकि आवहि इकि जाहि उठि बिनु नावै मरि जाती ॥ गुरमुखि रंगि चलूलिआ रंगि हरि रंगि राती ॥ सो सेवहु सति निरंजनो हरि पुरखु बिधाती ॥ तूं आपे आपि सुजाणु है वड पुरखु वडाती ॥ जो मनि चिति तुधु धिआइदे मेरे सचिआ बलि बलि हउ तिन जाती ॥१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तूं करता पुरखु अगमु है आपि स्रिसटि उपाती ॥ रंग परंग उपारजना बहु बहु बिधि भाती ॥ तूं जाणहि जिनि उपाईऐ सभु खेलु तुमाती ॥ इकि आवहि इकि जाहि उठि बिनु नावै मरि जाती ॥ गुरमुखि रंगि चलूलिआ रंगि हरि रंगि राती ॥ सो सेवहु सति निरंजनो हरि पुरखु बिधाती ॥ तूं आपे आपि सुजाणु है वड पुरखु वडाती ॥ जो मनि चिति तुधु धिआइदे मेरे सचिआ बलि बलि हउ तिन जाती ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगंमु = जिस तक पहुँच ना हो सके। रंग परंग = कई रंगों की। उपारजना = पैदा की। तुमारी = तेरा ही। इकि = कई जीव। चलूलिआ = (फारसी में चूँ+लालह) लालह फूल जैसा लाल, गाढ़े लाल रंग वाले। सो निरंजनो = उस माया रहित प्रभु को। बिधाती = विधाता, निर्माता। सुजाणु = सुजान, माहिर।1।
अर्थ: हे (प्रभु!) तू विधाता है। सब में मौजूद है। (फिर भी) तेरे तक किसी की पहुँच नहीं है। तूने स्वयं (सारी) सृष्टि पैदा की है। ये रचना तूने कई रंगों कई किस्मों, कई तरीकों से बनाई है। (जगत का ये) सारा तमाशा तेरा ही (बनाया हुआ) है। (इस तमाशे के भेद को) तू स्वयं ही जानता है, जिसने (खेल बनाया हुआ) है। (इस तमाशे में) कई जीव आ रहे हैं, कई (तमाशा देख के) चलते जा रहे हैं। (पर जो) ‘नाम’ से वंचित हैं, वह मर के (भाव दुखी हो के) जाते हैं। पर वे मनुष्य जो गुरु के सन्मुख हैं वे (प्रभु के) प्यार में गहरे रंगे हुए हैं, वे निर्मल हरि के प्यार में रंगे हुए हैं।
(हे भाई!) जो प्रभु सब में व्यापक (पुरुष) है, जगत का रचनहार है, सदा स्थिर रहने वाला है और माया से रहित है, उसे स्मरण करो।
हे प्रभु! तू सबसे बड़ी हस्ती वाला है, तू स्वयं ही सब कुछ जानने वाला है। हे मेरे सच्चे (साहिब!) जो तुझे मन लगा के चिक्त लगा के स्मरण करते हैं, मैं उनसे सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः १ ॥ जीउ पाइ तनु साजिआ रखिआ बणत बणाइ ॥ अखी देखै जिहवा बोलै कंनी सुरति समाइ ॥ पैरी चलै हथी करणा दिता पैनै खाइ ॥ जिनि रचि रचिआ तिसहि न जाणै अंधा अंधु कमाइ ॥ जा भजै ता ठीकरु होवै घाड़त घड़ी न जाइ ॥ नानक गुर बिनु नाहि पति पति विणु पारि न पाइ ॥१॥

मूलम्

सलोक मः १ ॥ जीउ पाइ तनु साजिआ रखिआ बणत बणाइ ॥ अखी देखै जिहवा बोलै कंनी सुरति समाइ ॥ पैरी चलै हथी करणा दिता पैनै खाइ ॥ जिनि रचि रचिआ तिसहि न जाणै अंधा अंधु कमाइ ॥ जा भजै ता ठीकरु होवै घाड़त घड़ी न जाइ ॥ नानक गुर बिनु नाहि पति पति विणु पारि न पाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जिंद, तनु = शरीर। बणत = घाड़त। अखी = आँखों से। कंनी = कानों में। सुरति = सुनने की क्षमता। समाइ = टिकी हुई है, मौजूद है। अंधु = अंधों वाला काम। पारि ना पाइ = पार नहीं लांघता। पति = इज्जत, प्रभु की मेहर।1।
अर्थ: (प्रभु ने) जिंद डाल के (मनुष्य का) शरीर बनाया है, (क्या सोहणी) घाढ़त घढ़ के रखी है। आँखों से यह देखता है, जीभ से बोलता है। (इस के) कानों में सुनने की शक्ति मौजूद है। पैरों से चलता है, हाथों से (काम) करता है, और (प्रभु का) दिया खाता पहनता है। पर, जिस (प्रभु) ने (इसके शरीर को) बनाया सवारा है, उसे ये पहचानता (भी नहीं)। अंधा मनुष्य (अर्थात आत्मिक जीवन से बे-समझ) अंधों वाला काम करता है।
जब (ये शरीर रूपी बरतन) टूट जाता है, तो (ये तो) ठीकरा हो जाता है (भाव, किसी काम का नहीं रहता) और मुड़ के ये (शारीरिक) बनतर बन भी नहीं सकती। हे नानक! (अंधा मनुष्य) गुरु (की शरण) के बिना बख्शिश से वंचित रह जाता है, और प्रभु की मेहर के बिना (इस मुश्किल में से) पार नहीं लांघ सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः २ ॥ देंदे थावहु दिता चंगा मनमुखि ऐसा जाणीऐ ॥ सुरति मति चतुराई ता की किआ करि आखि वखाणीऐ ॥ अंतरि बहि कै करम कमावै सो चहु कुंडी जाणीऐ ॥ जो धरमु कमावै तिसु धरम नाउ होवै पापि कमाणै पापी जाणीऐ ॥ तूं आपे खेल करहि सभि करते किआ दूजा आखि वखाणीऐ ॥ जिचरु तेरी जोति तिचरु जोती विचि तूं बोलहि विणु जोती कोई किछु करिहु दिखा सिआणीऐ ॥ नानक गुरमुखि नदरी आइआ हरि इको सुघड़ु सुजाणीऐ ॥२॥

मूलम्

मः २ ॥ देंदे थावहु दिता चंगा मनमुखि ऐसा जाणीऐ ॥ सुरति मति चतुराई ता की किआ करि आखि वखाणीऐ ॥ अंतरि बहि कै करम कमावै सो चहु कुंडी जाणीऐ ॥ जो धरमु कमावै तिसु धरम नाउ होवै पापि कमाणै पापी जाणीऐ ॥ तूं आपे खेल करहि सभि करते किआ दूजा आखि वखाणीऐ ॥ जिचरु तेरी जोति तिचरु जोती विचि तूं बोलहि विणु जोती कोई किछु करिहु दिखा सिआणीऐ ॥ नानक गुरमुखि नदरी आइआ हरि इको सुघड़ु सुजाणीऐ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देंदे थावहु = देने वाले की अपेक्षा। सुरति = सूझ। मति = अक्ल। किआ करि आखि = क्या कह कर? क्या कह के? किन शब्दों में। अंतरि बहि कै = अंदर बैठ के, (भाव) छुप के। पापि कमाणै = अगर बुरे काम करें। चहु कुंडी = चहूँ कूटों में, हर तरफ। दिखा = देखूँ।2।
अर्थ: मन के पीछे चलने वाला मनुष्य को ऐसा समझ लो (कि उसको) देने वाले (परमात्मा) की अपेक्षा (उसका) दिया हुआ (पदार्थ) अच्छा लगता है। उस मनुष्य की सूझ, अक्ल और सियानप (इतनी नीची है कि) शब्दों में बयान नहीं की जा सकती। (वह अपनी ओर से) छुप के (बुरे) काम करता है, (पर जो कुछ वह करता है) वह हर जगह दिखाई दे जाता है (कुदरत का नियम ही ऐसा है कि) जो मनुष्य भला काम करता है, उसका नाम ‘धर्मी’ पड़ जाता है। बुरे काम करने वाला मनुष्य बुरा ही समझा जाता है।
(पर बुरा किसे कहें?) (हे प्रभु!) सारे चमत्कार तू खुद ही कर रहा है। तुझसे अलग और किसे कहें? (जीव के अंदर) जब तक तेरी ज्योति मौजूद है, तब तक उस ज्योति में तू (स्वयं ही) बोलता है। जब तेरी ज्योति निकल जाए, तब कोई भला कुछ करे तो सही, हम भी परख के देखें (भाव, तेरी ज्योति के बिना कोई कुछ नहीं कर सकता; मनमुख में भी तेरी ज्योति है)। हे नानक! गुरु की शरण आए मनुष्य को (हर जगह) एक ही सियाना और सुजान प्रभु ही दिखाई देता है।

[[0139]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै तुधु आपे धंधै लाइआ ॥ मोह ठगउली पाइ कै तुधु आपहु जगतु खुआइआ ॥ तिसना अंदरि अगनि है नह तिपतै भुखा तिहाइआ ॥ सहसा इहु संसारु है मरि जमै आइआ जाइआ ॥ बिनु सतिगुर मोहु न तुटई सभि थके करम कमाइआ ॥ गुरमती नामु धिआईऐ सुखि रजा जा तुधु भाइआ ॥ कुलु उधारे आपणा धंनु जणेदी माइआ ॥ सोभा सुरति सुहावणी जिनि हरि सेती चितु लाइआ ॥२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै तुधु आपे धंधै लाइआ ॥ मोह ठगउली पाइ कै तुधु आपहु जगतु खुआइआ ॥ तिसना अंदरि अगनि है नह तिपतै भुखा तिहाइआ ॥ सहसा इहु संसारु है मरि जमै आइआ जाइआ ॥ बिनु सतिगुर मोहु न तुटई सभि थके करम कमाइआ ॥ गुरमती नामु धिआईऐ सुखि रजा जा तुधु भाइआ ॥ कुलु उधारे आपणा धंनु जणेदी माइआ ॥ सोभा सुरति सुहावणी जिनि हरि सेती चितु लाइआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठगउली = ठग बूटी। आपहु = अपने आप से। खुआइआ = गवा लिया। नह तिपतै = नहीं तृप्ति होती। सहसा = संशय, तौखला। सुखि = सुख में। रजा = तृप्त हो गया। माइआ = माँ। जणेदी = पैदा करने वाली।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू खुद ही जगत पैदा करके खुद ही (इसे) जंजाल में डाल देता है। (माया के) मोह की ठग बूटी खिला के तू जगत को अपने आप से (भाव, अपनी याद से) वंचित कर देता है। (जगत के) अंदर तृष्णा की आग (जल रही) है। (इस वास्ते ये माया की) प्यास व भूख का मारा हुआ तृप्त नहीं होता। ये जगत है ही तौखला (रूप), (इस तौखले में पड़ा जीव) पैदा होता मरता व जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है। (माया का यह) मोह गुरु (की शरण) के बिना टूटता नहीं, (ज्यादातर जीव) और-और (धार्मिक) कर्म करके हार चुके हैं।
प्रभु का नाम गुरु की शिक्षा के द्वारा ही स्मरण किया जा सकता है। (हे प्रभु!) जब तुझे भाए (तो जीव तेरे नाम के) सुख में (टिक के) तृप्त होते हैं। धन्य है (उस जीव को) पैदा करने वाली माँ, (नाम की इनायत से वह) अपना खानदान (ही विकारों से) बचा लेती है। जिस मनुष्य ने प्रभु के साथ चिक्त जोड़ा है, (जगत में उसकी) शोभा होती है और उसकी सुंदर सूझ हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः २ ॥ अखी बाझहु वेखणा विणु कंना सुनणा ॥ पैरा बाझहु चलणा विणु हथा करणा ॥ जीभै बाझहु बोलणा इउ जीवत मरणा ॥ नानक हुकमु पछाणि कै तउ खसमै मिलणा ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः २ ॥ अखी बाझहु वेखणा विणु कंना सुनणा ॥ पैरा बाझहु चलणा विणु हथा करणा ॥ जीभै बाझहु बोलणा इउ जीवत मरणा ॥ नानक हुकमु पछाणि कै तउ खसमै मिलणा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर आँखों के बिना देखें (अर्थात, अगर पराया रूप देखने वाली आदत से हट के जगत को देखें), कानों से बिना सुनें (भाव, अगर निंदा सुनने की वृक्ति से हटा के बरतें), अगर बिना पैरों के चलें (भाव, यदि गलत मार्ग पर चलने से पैरों को रोके रखें), यदि हाथों के बिना काम करें (भाव, अगर पराया नुकसान करने से रोक के हाथों का बरतें), यदि जीभ के बिना बोलें (अर्थात, पराई निंदा रस से बचा के जीभ से काम लें); इस तरह जीते हुए मरना है। हे नानक! पति प्रभु का हुक्म पहचाने तो ही उससे मिल सकते हैं (भाव, यदि ये समझ लें कि पति प्रभु द्वारा आँख आदि इंद्रियों को कैसे इस्तेमाल करने का हुक्म है, तो उस प्रभु से मिल सकते हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः २ ॥ दिसै सुणीऐ जाणीऐ साउ न पाइआ जाइ ॥ रुहला टुंडा अंधुला किउ गलि लगै धाइ ॥ भै के चरण कर भाव के लोइण सुरति करेइ ॥ नानकु कहै सिआणीए इव कंत मिलावा होइ ॥२॥

मूलम्

मः २ ॥ दिसै सुणीऐ जाणीऐ साउ न पाइआ जाइ ॥ रुहला टुंडा अंधुला किउ गलि लगै धाइ ॥ भै के चरण कर भाव के लोइण सुरति करेइ ॥ नानकु कहै सिआणीए इव कंत मिलावा होइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साउ = स्वाद, आनंद। रुहला = लूला, पैर के बगैर। टुंडा = हाथ के बगैर। धाइ = दौड़ के, भाग के। भै के = (प्रभु के) डर से। कर = हाथ। भाव = प्यार। लोइण = आँखें। सुरति = ध्यान। इव = इस तरह।2।
अर्थ: (परमात्मा, कुदरति में बसता) दिखाई दे रहा है। (उसकी जीवन तुकांत सारी रचना) में सुनी जा रही है। (उसके कामों से) प्रतीत हो रहा है (कि वह कुदरति में मौजूद है, फिर भी उसके मिलाप का) स्वाद (जीव को) हासिल नहीं होता। (ऐसा क्यों?) इसलिए कि प्रभु को मिलने के लिए (जीव के पास) ना पैर हैं, ना हाथ हैं और ना ही आँखें हैं। (फिर ये) भाग के कैसे (प्रभु के) गले जा लगे?
यदि (जीव प्रभु के) डर (में चलने) को (अपने) पैर बनाए, प्यार के हाथ बनाए और (प्रभु की) याद (में जुड़ने) को आँखें बनाए, तो नानक कहता है, हे सुजान जीवस्त्री! इस तरह पति प्रभु से मेल होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सदा सदा तूं एकु है तुधु दूजा खेलु रचाइआ ॥ हउमै गरबु उपाइ कै लोभु अंतरि जंता पाइआ ॥ जिउ भावै तिउ रखु तू सभ करे तेरा कराइआ ॥ इकना बखसहि मेलि लैहि गुरमती तुधै लाइआ ॥ इकि खड़े करहि तेरी चाकरी विणु नावै होरु न भाइआ ॥ होरु कार वेकार है इकि सची कारै लाइआ ॥ पुतु कलतु कुट्मबु है इकि अलिपतु रहे जो तुधु भाइआ ॥ ओहि अंदरहु बाहरहु निरमले सचै नाइ समाइआ ॥३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सदा सदा तूं एकु है तुधु दूजा खेलु रचाइआ ॥ हउमै गरबु उपाइ कै लोभु अंतरि जंता पाइआ ॥ जिउ भावै तिउ रखु तू सभ करे तेरा कराइआ ॥ इकना बखसहि मेलि लैहि गुरमती तुधै लाइआ ॥ इकि खड़े करहि तेरी चाकरी विणु नावै होरु न भाइआ ॥ होरु कार वेकार है इकि सची कारै लाइआ ॥ पुतु कलतु कुट्मबु है इकि अलिपतु रहे जो तुधु भाइआ ॥ ओहि अंदरहु बाहरहु निरमले सचै नाइ समाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरबु = अहंकार। खड़े = खड़े हो के, सचेत हो के। इकि = कई जीव। कलत्र = स्त्री। अलिप्त = निर्लिप, निर्मोह। ओहि = वह जीव। नाइ = नाम में।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओहि’ है ‘ओहु’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे प्रभु!) तू सदा ही एक (स्वयं ही स्वयं) है। ये (तुझसे अलग दिखता तमाशा) तूने खुद ही रचा है। (तूने ही जीवों के अंदर) अहंकार पैदा करके, जीवों के अंदर लोभ (भी) डाल दिया है। (इसलिए) सारे ही जीव तेरी ही परोई हुई कार कर रहे है। जैसे तुझे भाए वैसे इनकी रक्षा कर।
कई जीवों को तू बख्शता है (और अपने चरणों में) जोड लेता है। गुरु की शिक्षा में तूने स्वयं ही उनको लगाया है। (ऐसे) कई जीव सुचेत हो के तेरी बंदगी कर रहे हैं। तेरे नाम (की याद) के बिना कोई और काम उन्हें नहीं भाता (भाव, किसी और काम की खातिर तेरा नाम भुलाने को वे तैयार नहीं)। जिस ऐसे लोगों को तूने इस सच्ची कार में लगाया है, उन्हें (तेरा नाम विसार के) कोई और काम करना बुरा लगता है।
ये जो पुत्र, स्त्री व परिवार है, (हे प्रभु!) जो लोग तुझे प्यारे लगते हैं, वे इनसे निर्मोही रहते हैं। तेरे सदा कायम रहने वाले नाम में जुड़े हुए वह लोग अंदर बाहर से निर्मल रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ सुइने कै परबति गुफा करी कै पाणी पइआलि ॥ कै विचि धरती कै आकासी उरधि रहा सिरि भारि ॥ पुरु करि काइआ कपड़ु पहिरा धोवा सदा कारि ॥ बगा रता पीअला काला बेदा करी पुकार ॥ होइ कुचीलु रहा मलु धारी दुरमति मति विकार ॥ ना हउ ना मै ना हउ होवा नानक सबदु वीचारि ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ सुइने कै परबति गुफा करी कै पाणी पइआलि ॥ कै विचि धरती कै आकासी उरधि रहा सिरि भारि ॥ पुरु करि काइआ कपड़ु पहिरा धोवा सदा कारि ॥ बगा रता पीअला काला बेदा करी पुकार ॥ होइ कुचीलु रहा मलु धारी दुरमति मति विकार ॥ ना हउ ना मै ना हउ होवा नानक सबदु वीचारि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुइने कै परबति = सोने के सुमेर पर्वत पर। करी = मैं बना लूँ। कै = या, यद्यपि,चाहे। पइआलि = पाताल में। पाणी पइआलि = नीचे पानी में। उरधि = उल्टा, ऊँचा। सिरि भारि = सिर के भार। पुरु = पूरे तौर पे। सदाकारि = सदा ही। कुचीलु = गंदा। मलुधारी = मैला।1।
अर्थ: मैं (चाहे) सोने के (सुमेर) पर्वत पर गुफा बनां लूँ, चाहे नीचे पानी में (जा के रहूँ); चाहे धरती में रहूँ, चाहे आकाश में उल्टा सिर भार खड़ा रहूं। चाहे शरीर को पूरी तरह से कपड़ों से ढक लूँ, चाहे शरीर को सदा ही धोता रहूँ। चाहे मैं सफेद, लाल, पीले या काले कपड़े पहन के (चार) वेदों का उच्चारण करूँ, या फिर (सरेवड़ियों की तरह) गंदा व मैला रहूँ - ये सारे बुरी मति के बुरे काम (विकार) ही हैं। हे नानक! (मैं तो ये चाहता हूँ कि सतिगुरु के) शब्द को विचार के (मेरा) अहंकार ना रहे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ वसत्र पखालि पखाले काइआ आपे संजमि होवै ॥ अंतरि मैलु लगी नही जाणै बाहरहु मलि मलि धोवै ॥ अंधा भूलि पइआ जम जाले ॥ वसतु पराई अपुनी करि जानै हउमै विचि दुखु घाले ॥ नानक गुरमुखि हउमै तुटै ता हरि हरि नामु धिआवै ॥ नामु जपे नामो आराधे नामे सुखि समावै ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ वसत्र पखालि पखाले काइआ आपे संजमि होवै ॥ अंतरि मैलु लगी नही जाणै बाहरहु मलि मलि धोवै ॥ अंधा भूलि पइआ जम जाले ॥ वसतु पराई अपुनी करि जानै हउमै विचि दुखु घाले ॥ नानक गुरमुखि हउमै तुटै ता हरि हरि नामु धिआवै ॥ नामु जपे नामो आराधे नामे सुखि समावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वसत्र = कपड़े। पखालि = धो के। आपे = स्वयं ही, अपनी ओर से। संजमि = संजमी, जिसने काम आदिक विकारों को वस में कर लिया है, ऋषि, तपस्वी। अंतरि = मन में। भूलि = भूल के, टूट के। जम जाले = मौत के जाल में, उस धंधे रूपी जाल में जहां सदा मौत का डर बना रहे। दुखु घाले = दुख सहता है। नामे = नाम के द्वारा ही। सुखी = सुख में।2।
अर्थ: (जो मनुष्य नित्य) कपड़े धो के शरीर धोता है (और सिर्फ कपड़े और शरीर स्वच्छ रखने से ही) अपनी ओर से तपस्वी बन बैठता है। (पर) मन में लगी हुई मैल की उसको खबर नहीं, (सदा शरीर को) बाहर से मल मल के धोता है। (वह) अंधा मनुष्य (सीधे राह से) भटक के मौत का डर पैदा करने वाले जाल में फंसा हुआ है, अहंकार में दुख सहता है। क्योंकि, पराई वस्तु (शरीर व अन्य पदार्थों आदिक) को अपनी समझ बैठता है।
हे नानक! (जब) गुरु के सन्मुख हो के (मनुष्य का) अहम् दूर होता है, तबवह प्रभु का नाम स्मरण करता है, नाम जपता है। नाम ही याद करता है व नाम ही की इनायत से सुख में टिका रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवड़ी ॥ काइआ हंसि संजोगु मेलि मिलाइआ ॥ तिन ही कीआ विजोगु जिनि उपाइआ ॥ मूरखु भोगे भोगु दुख सबाइआ ॥ सुखहु उठे रोग पाप कमाइआ ॥ हरखहु सोगु विजोगु उपाइ खपाइआ ॥ मूरख गणत गणाइ झगड़ा पाइआ ॥ सतिगुर हथि निबेड़ु झगड़ु चुकाइआ ॥ करता करे सु होगु न चलै चलाइआ ॥४॥

मूलम्

पवड़ी ॥ काइआ हंसि संजोगु मेलि मिलाइआ ॥ तिन ही कीआ विजोगु जिनि उपाइआ ॥ मूरखु भोगे भोगु दुख सबाइआ ॥ सुखहु उठे रोग पाप कमाइआ ॥ हरखहु सोगु विजोगु उपाइ खपाइआ ॥ मूरख गणत गणाइ झगड़ा पाइआ ॥ सतिगुर हथि निबेड़ु झगड़ु चुकाइआ ॥ करता करे सु होगु न चलै चलाइआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हंसि = जीव। संजोगु मेलि = संजोग मेल के, जोड़ मिथ के। तिन ही = उन ही, उन्हीं। जिनि = जिस (प्रभु) ने। तिन ही = उसी (प्रभु) ने ही। तिन ही = उसने ही। सबाइआ = सारे। हरखहु = खुशी से। गणत गणाए = लेखा लिख के। मूरख गणत गाणाइ = मूर्खों वाले काम कर करके। झगड़ा = जनम मरन का लंबा झमेला। सु होगु = वही होगा।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिन ही’ है जिनि का विलोम तिनि। यहां ‘तिनि’ के ‘न’ की ‘ि’ मात्रा हट गई है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’ ‘वाक्य रचना’ में अंक ‘ही’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: शरीर व जीव (आत्मा) का संयोग निर्धारित करके (परमात्मा ने इनको मानव जन्म में) इकट्ठा कर दिया है। जिस (प्रभु) ने (शरीर व जीव को) पैदा किया है उसने ही (इनके लिए) विछोड़ा (भी) बना रखा है। (पर इस विछोड़े को भुला के) मूर्ख (जीव) भोग भोगता रहता है, जो सारे दुखों का (मूल बनता) है।
पाप कमाने के कारण (भोगों के) सुख से रोग पैदा होते हैं (भोगों की) खुशी से चिन्ता (और अंत को) विछोड़ा पैदा करके जनम मरण का लंबा झमेला अपने सिर ले लेता है।
जनम मरन के चक्र को खत्म करने की ताकत सतिगुरु के हाथ में है, (जिस को गुरु मिलता है उसका ये) झमेला खत्म हो जाता है। (जीवों की कोई) अपनी चलाई सियानप चल नहीं सकती। जो कर्तार करता है वही होता है।4।

[[0140]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ कूड़ु बोलि मुरदारु खाइ ॥ अवरी नो समझावणि जाइ ॥ मुठा आपि मुहाए साथै ॥ नानक ऐसा आगू जापै ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ कूड़ु बोलि मुरदारु खाइ ॥ अवरी नो समझावणि जाइ ॥ मुठा आपि मुहाए साथै ॥ नानक ऐसा आगू जापै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुरदारु = हराम, पराया हक। मुठा = ठगा। मुहाए = लुटाता है, ठगाता है। साथै = साथ को। जापै = प्रतीत होता है, पाज खुलता है, सच्चाई सामने आती है।1।
अर्थ: (जो मनुष्य) झूठ बोल के (खुद तो) दूसरों का हक खाता है और-और लोगों को शिक्षा देने जाता है (कि झूठ ना बोलो)। हे नानक! ऐसा नेता की (अंत में जब) सच्चाई सामने आती है (तब पता चलता है) कि खुद तो ठगा जा ही रहा है, अपने साथ को भी लुटाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ४ ॥ जिस दै अंदरि सचु है सो सचा नामु मुखि सचु अलाए ॥ ओहु हरि मारगि आपि चलदा होरना नो हरि मारगि पाए ॥ जे अगै तीरथु होइ ता मलु लहै छपड़ि नातै सगवी मलु लाए ॥ तीरथु पूरा सतिगुरू जो अनदिनु हरि हरि नामु धिआए ॥ ओहु आपि छुटा कुट्मब सिउ दे हरि हरि नामु सभ स्रिसटि छडाए ॥ जन नानक तिसु बलिहारणै जो आपि जपै अवरा नामु जपाए ॥२॥

मूलम्

महला ४ ॥ जिस दै अंदरि सचु है सो सचा नामु मुखि सचु अलाए ॥ ओहु हरि मारगि आपि चलदा होरना नो हरि मारगि पाए ॥ जे अगै तीरथु होइ ता मलु लहै छपड़ि नातै सगवी मलु लाए ॥ तीरथु पूरा सतिगुरू जो अनदिनु हरि हरि नामु धिआए ॥ ओहु आपि छुटा कुट्मब सिउ दे हरि हरि नामु सभ स्रिसटि छडाए ॥ जन नानक तिसु बलिहारणै जो आपि जपै अवरा नामु जपाए ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुखि = मुंह से। अलाए = बोलता है। मारगि = रास्ते पर। तीरथु = खुले साफ पानी का श्रोत, दरिया का साफ खुला पानी। छपड़ि = छोटे तालाब में। सगवी = बल्कि और। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त।2।
अर्थ: जिस मनुष्य का हृदय में सदा कायम रहने वाला प्रभु बसता है, जो मुंह से (भी) सदा स्थिर रहने वाला सच्चा नाम ही बोलता है, वह स्वयं परमात्मा के राह पे चलता है और-और लोगों को भी प्रभु के राह पर चलाता है।
(जहां नहाने जाएं) अगर वह खुले साफ पानी का श्रोत हो तो (नहाने वाले की) मैल उतर जाती है। पर कुण्ड में नहाने से वल्कि और मैल चढ़ जाएगी। (यही नियम समझो मन की मैल धोने के लिए), पूरा गुरु जो हर समय परमात्मा का नाम स्मरण करता है (मानो) खुले साफ पानी का श्रोत है। वह खुद अपने परिवार समेत विकारों से बचा हुआ है, परमात्मा का नाम दे के वह सारी सृष्टि को भी बचाता है।
हे दास नानक! (कह: मैं) उससे सदके हूँ, जो खुद (प्रभु का) नाम जपता है और-और लोगों को भी जपाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ इकि कंद मूलु चुणि खाहि वण खंडि वासा ॥ इकि भगवा वेसु करि फिरहि जोगी संनिआसा ॥ अंदरि त्रिसना बहुतु छादन भोजन की आसा ॥ बिरथा जनमु गवाइ न गिरही न उदासा ॥ जमकालु सिरहु न उतरै त्रिबिधि मनसा ॥ गुरमती कालु न आवै नेड़ै जा होवै दासनि दासा ॥ सचा सबदु सचु मनि घर ही माहि उदासा ॥ नानक सतिगुरु सेवनि आपणा से आसा ते निरासा ॥५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ इकि कंद मूलु चुणि खाहि वण खंडि वासा ॥ इकि भगवा वेसु करि फिरहि जोगी संनिआसा ॥ अंदरि त्रिसना बहुतु छादन भोजन की आसा ॥ बिरथा जनमु गवाइ न गिरही न उदासा ॥ जमकालु सिरहु न उतरै त्रिबिधि मनसा ॥ गुरमती कालु न आवै नेड़ै जा होवै दासनि दासा ॥ सचा सबदु सचु मनि घर ही माहि उदासा ॥ नानक सतिगुरु सेवनि आपणा से आसा ते निरासा ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंद = गाजर मूली आदि सब्जियां जो जमीन के अंदर पैदा होती हैं। कंद मूलु = मूली। वण = जंगल। वणखंडि = जंगल के इलाके में। छादन = कपड़ा। आसा = लालसा। गिरही = गृहस्थी। त्रिबिधि = त्रिगुणी, तीन किस्म की। मनसा = वासना।5।
अर्थ: कई लोग कंद मूल खाते हैं (मूली आदि खा के गुजारा करते हैं) और जंगल के आगोश में जा के रहते हैं। कई लोग भगवे कपड़े पहन के जोगी और संन्यासी बन के घूमते हैं। (पर, उनके मन में) बहुत लालच होता है। कपड़े और भोजन की लालसा बनी रहती है। (इस तरह) मानव जनम व्यर्थ में गवां के ना वो गृहस्थी रहते हैं ना ही फ़कीर। (उनके अंदर) त्रिगुणी (माया की) लालसा होने के कारण आत्मिक मौत उनके सिर पे से टलती नहीं है। जब मनुष्य प्रभु के सेवकों का सेवक बन जाता है, तो सतिगुरु की शिक्षा पे चल के आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं आती। गुरु का सच्चा शब्द और प्रभु (उसके) मन में होने के कारण वह गृहस्थ में रहता हुआ भी त्यागी है।
हे नानक! जो मनुष्य अपने गुरु के हुक्म में चलते हैं, वे (दुनिया की) लालसा से उपराम हो जाते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ जे रतु लगै कपड़ै जामा होइ पलीतु ॥ जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ निरमलु चीतु ॥ नानक नाउ खुदाइ का दिलि हछै मुखि लेहु ॥ अवरि दिवाजे दुनी के झूठे अमल करेहु ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ जे रतु लगै कपड़ै जामा होइ पलीतु ॥ जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ निरमलु चीतु ॥ नानक नाउ खुदाइ का दिलि हछै मुखि लेहु ॥ अवरि दिवाजे दुनी के झूठे अमल करेहु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जामा = कपड़ा। रतु = लहू। माणसा = मनुष्यों का। दिलि हछै = साफ दिल से। मुखि = मुंह से। दिवाजे = दिखावे।1।
अर्थ: अगर कपड़े को लहू लग जाए, तो कपड़ा (चोला) पलीत (गंदा) हो जाता है (और नमाज़ नहीं हो सकती), (पर) जो लोग मनुष्यों का लहू पीते हैं (भाव, जोर-जबरदस्ती करके हराम की कमाई खाते हैं) उनका मन कैसे पाक (साफ) रह सकता है (तो पलीत मन से पढ़ी नमाज़ कैसे स्वीकार है)?
हे नानक! रब का नाम मुंह से साफ़ दिल से ले। (इसके बगैर) और काम दुनिया वाले दिखावे हैं। ये तो तुम कूड़े काम ही करते हो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ जा हउ नाही ता किआ आखा किहु नाही किआ होवा ॥ कीता करणा कहिआ कथना भरिआ भरि भरि धोवां ॥ आपि न बुझा लोक बुझाई ऐसा आगू होवां ॥ नानक अंधा होइ कै दसे राहै सभसु मुहाए साथै ॥ अगै गइआ मुहे मुहि पाहि सु ऐसा आगू जापै ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ जा हउ नाही ता किआ आखा किहु नाही किआ होवा ॥ कीता करणा कहिआ कथना भरिआ भरि भरि धोवां ॥ आपि न बुझा लोक बुझाई ऐसा आगू होवां ॥ नानक अंधा होइ कै दसे राहै सभसु मुहाए साथै ॥ अगै गइआ मुहे मुहि पाहि सु ऐसा आगू जापै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। किआ होवा = कितना कुछ बन बन दिखाऊँ।? कीता करणा = (मेरा) काम काज। कहिआ कथना = (मेरा) बोल चाल। मुहाए = ठगाता है। मुहे मुहि = मुंह पर। पाहि = पड़ती हैं। किह = कुछ, कोई आत्मिक गुण। भरि भरि = भर के, गंदा हो के। ऐसा = (भाव) हास्यस्पद्।2।
अर्थ: जब मैं हूँ ही कुछ नहीं (अर्थात, मेरी आत्मिक हसती ही कुछ नहीं बनी), तो मैं (और लोगों को) उपदेश क्यूँ करूं? (अंदर) कोई आत्मिक गुण ना होते हुए भी कितना कुछ बन बन के दिखाऊँ? मेरा काम कार, मेरी बोलचाल- इनसे (बुरे संस्कारों से) भरा हुआ कभी बुरी तरफ गिरता हूँ और (फिर कभी मन को) धोने का यत्न करता हूँ। जब मुझे खुद को ही समझ नहीं आई और लोगों को राह बताता फिरता हूँ (इस हालत में मैं) हास्यास्पद् नेता ही बनता हूँ।
हे नानक! जो मनुष्य खुद अंधा है, पर और लोगों को राह बताता है, वह सारे साथ को लुटा देता है। आगे चल के मुंह पर उसे (जूतियां) पड़ती हैं तब ऐसे नायक की (अस्लियत) सामने उघड़ के आती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ माहा रुती सभ तूं घड़ी मूरत वीचारा ॥ तूं गणतै किनै न पाइओ सचे अलख अपारा ॥ पड़िआ मूरखु आखीऐ जिसु लबु लोभु अहंकारा ॥ नाउ पड़ीऐ नाउ बुझीऐ गुरमती वीचारा ॥ गुरमती नामु धनु खटिआ भगती भरे भंडारा ॥ निरमलु नामु मंनिआ दरि सचै सचिआरा ॥ जिस दा जीउ पराणु है अंतरि जोति अपारा ॥ सचा साहु इकु तूं होरु जगतु वणजारा ॥६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ माहा रुती सभ तूं घड़ी मूरत वीचारा ॥ तूं गणतै किनै न पाइओ सचे अलख अपारा ॥ पड़िआ मूरखु आखीऐ जिसु लबु लोभु अहंकारा ॥ नाउ पड़ीऐ नाउ बुझीऐ गुरमती वीचारा ॥ गुरमती नामु धनु खटिआ भगती भरे भंडारा ॥ निरमलु नामु मंनिआ दरि सचै सचिआरा ॥ जिस दा जीउ पराणु है अंतरि जोति अपारा ॥ सचा साहु इकु तूं होरु जगतु वणजारा ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माहा = महीने। मूरत = महूरत। वीचारा = विचार किया जा सकता है, ध्यान धरा जा सकता है। तूं = तुझे। गणतै = (तिथियों की) गणना करने से। अलख = अदृष्टि। सचिआरा = सही रास्ते वाला, उज्जवल मुख। सचा = सदा टिके रहने वाला। वणजारा = फेरी लगा के सौदा बेचने वाला।6।
अर्थ: (हे प्रभु!) सभी महीनों, ऋतुओं, घड़ियों व महूरतों में तुझे स्मरण किया जा सकता है (अर्थात तेरे स्मरण के लिए किसी खास ऋतु या तिथि की जरूरत नहीं है)। हे अदृष्ट और बेअंत प्रभु! तिथियों की गणना करके किसी ने भी तुझे नहीं पाया। ऐसी (तिथि विद्या) पढ़े हुए को मूर्ख कहना चाहिए क्योंकि उसके अंदर लोभ व अहंकार है।
(किसी तिथि महूर्त की जरूरत नही, सिर्फ) सतिगुरु की दी मति को विचार के परमात्मा का नाम जपना चाहिए और (उस में) सुरति जोड़नी चाहिए। जिन्होंने गुरु की शिक्षा पे चल के नाम रूपी धन कमाया है, उनके खजाने भक्ति से भर गए हैं। जिन्होंने प्रभु का पवित्र नाम स्वीकार किया है, वे प्रभु के दर पे सही स्वीकार होते हैं। हे प्रभु! तू सदा कायम रहने वाला शाह है, और सारा जगत बंजारा है (भाव, अन्य सभी जीव यहां, मानों, फेरी लगा के सौदा करने आए हैं)। तेरे द्वारा दिए गये जिंद प्राण हरेक जीव को मिले हैं, तेरी ही अपार ज्योति हरेक जीव के अंदर है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ मिहर मसीति सिदकु मुसला हकु हलालु कुराणु ॥ सरम सुंनति सीलु रोजा होहु मुसलमाणु ॥ करणी काबा सचु पीरु कलमा करम निवाज ॥ तसबी सा तिसु भावसी नानक रखै लाज ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ मिहर मसीति सिदकु मुसला हकु हलालु कुराणु ॥ सरम सुंनति सीलु रोजा होहु मुसलमाणु ॥ करणी काबा सचु पीरु कलमा करम निवाज ॥ तसबी सा तिसु भावसी नानक रखै लाज ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिदकु = निश्चय, श्रद्धा। मुसला = वह सफ जिस पर बैठ के नमाज पढ़ी जाती है। हकु हलालु = जायज हक, हक की कमाई। सरम = शर्म, हया, विकारों से लज्जा। सीलु = अच्छा स्वभाव। करम = अच्छे कर्म, नेक अमल। काबा = मक्के में वह मंदिर जिसका दर्शन करने मुसलमान जाते हैं।1।
अर्थ: (लोगों पे) तरस की मस्जिद (बनाओ), श्रद्धा को मुसल्ला और हक की कमाई को कुरान (बनाओ)। विकारों से शर्म- ये सुन्नत हो और अच्छा स्वभाव रोजा बने। इस तरह (का हे भाई!) मुसलमान बन। ऊँचा आचरण काबा हो, अंदर बाहर एक जैसा ही रहना-पीर हो, नेक अमलों की निमाज और कलमा बने। जो बात उस रब को अच्छी लगे वही (सिर माथे पे माननी, ये) तसबी हो। हे नानक! (ऐसे मुसलमान की रब लज्जा रखता है)।1।

[[0141]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ हकु पराइआ नानका उसु सूअर उसु गाइ ॥ गुरु पीरु हामा ता भरे जा मुरदारु न खाइ ॥ गली भिसति न जाईऐ छुटै सचु कमाइ ॥ मारण पाहि हराम महि होइ हलालु न जाइ ॥ नानक गली कूड़ीई कूड़ो पलै पाइ ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ हकु पराइआ नानका उसु सूअर उसु गाइ ॥ गुरु पीरु हामा ता भरे जा मुरदारु न खाइ ॥ गली भिसति न जाईऐ छुटै सचु कमाइ ॥ मारण पाहि हराम महि होइ हलालु न जाइ ॥ नानक गली कूड़ीई कूड़ो पलै पाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हामा भरे = सिफारिश करता है (किसी मुसलमान के साथ विचार होने के कारण उनके ही अकीदे का जिक्र किया है)। मुरदारु = मसाले पराया हक। भिसति = बहिश्त में। छुटै = निजात मिलती है, मुक्ति हासिल होती है। कमाइ = कमा के, अमली जीवन में बरतने से। मारण = मसाले (बहस आदि चतुराई की बातें)। कूड़ीई गली = (बहिस आदि की) झूठी बातों से। पलै पाइ = मिलता है।2।
अर्थ: हे नानक! पराया हक मुसलमान के लिए सूअर है और हिन्दू के लिए गाय है। गुरु पैग़ंबर तभी सिफारिश करते हैं अगर मनुष्य पराया हक ना मारे। निरी बातों से बहिश्त नही जाया जा सकता। सच को (भाव, जिसे सच्चा रास्ता कहते हो, उसे) अमली जीवन में लाने से ही निजात मिलती है। (बहस आदि बातों के) मसाले हराम माल में डालने से वह हक का माल नहीं बन जाते। हे नानक! झूठी बातें करने से झूठ ही मिलता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ पंजि निवाजा वखत पंजि पंजा पंजे नाउ ॥ पहिला सचु हलाल दुइ तीजा खैर खुदाइ ॥ चउथी नीअति रासि मनु पंजवी सिफति सनाइ ॥ करणी कलमा आखि कै ता मुसलमाणु सदाइ ॥ नानक जेते कूड़िआर कूड़ै कूड़ी पाइ ॥३॥

मूलम्

मः १ ॥ पंजि निवाजा वखत पंजि पंजा पंजे नाउ ॥ पहिला सचु हलाल दुइ तीजा खैर खुदाइ ॥ चउथी नीअति रासि मनु पंजवी सिफति सनाइ ॥ करणी कलमा आखि कै ता मुसलमाणु सदाइ ॥ नानक जेते कूड़िआर कूड़ै कूड़ी पाइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वखत = वक्त, समय। दुइ = दूसरी। खैर खुदाइ = रब से सबका भला मांगना। रासि = रासत, साफ। सनाइ = बड़ाई, बड़प्पन। पाइ = डालने से, इज्जत।3।
अर्थ: (मुसलमानों की) पाँच नमाजें हैं, (उनके) पाँच वक्त हैं और पाँचों ही निमाजों के (अलग अलग) पाँच नाम हैं। (पर, हमारे मत में असल निमाजें यूँ हैं:) सच बोलना नमाज का पहला नाम है (भाव, सुबह की पहली नमाज है), हक की कमाई दूसरी नमाज है, रब से सबका भला माँगना नमाज का तीसरा नाम है। नीयति को साफ करना मन को साफ रखना ये चौथी नमाज है और परमात्मा की महिमा व स्तुति करनी ये पाँचवीं नमाज है। (इन पाँचों नमाजों के साथ साथ) उच्च आचरण बनाने जैसी कलमा पढ़ें तो (अपने आप को) मुसलमान कहलवाएं (भाव, तो ही सच्चा मुसलमान कहलवा सकता है)।
हे नानक! (इन नमाजों व कलमें से टूटे हुए) जितने भी हैं वे झूठ के व्यापारी हैं और झूठे की इज्जत भी झूठी ही होती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ इकि रतन पदारथ वणजदे इकि कचै दे वापारा ॥ सतिगुरि तुठै पाईअनि अंदरि रतन भंडारा ॥ विणु गुर किनै न लधिआ अंधे भउकि मुए कूड़िआरा ॥ मनमुख दूजै पचि मुए ना बूझहि वीचारा ॥ इकसु बाझहु दूजा को नही किसु अगै करहि पुकारा ॥ इकि निरधन सदा भउकदे इकना भरे तुजारा ॥ विणु नावै होरु धनु नाही होरु बिखिआ सभु छारा ॥ नानक आपि कराए करे आपि हुकमि सवारणहारा ॥७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ इकि रतन पदारथ वणजदे इकि कचै दे वापारा ॥ सतिगुरि तुठै पाईअनि अंदरि रतन भंडारा ॥ विणु गुर किनै न लधिआ अंधे भउकि मुए कूड़िआरा ॥ मनमुख दूजै पचि मुए ना बूझहि वीचारा ॥ इकसु बाझहु दूजा को नही किसु अगै करहि पुकारा ॥ इकि निरधन सदा भउकदे इकना भरे तुजारा ॥ विणु नावै होरु धनु नाही होरु बिखिआ सभु छारा ॥ नानक आपि कराए करे आपि हुकमि सवारणहारा ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकि = कई लोग। पाइअनि = मिलते हैं। तुजारा = खजाने। बिखिआ = माया। छार = स्वाह, तुछ, निकम्मा।7।
अर्थ: कई मनुष्य (परमात्मा की महिमा रूपी) कीमती सौदा कमाते हैं, और कई (दुनिया रूपी) कच्चे के व्यापारी हैं। (प्रभु के गुण-रूप ये) रत्नों के खजाने (मनुष्य के) अंदर ही हैं, पर सतिगुरु के प्रसन्न होने से ही मिलते हैं। गुरु (की शरण आए) बगैर किसी को ये खजाना नहीं मिला। झूठ के व्यापारी अंधे लोग (माया की खातिर ही दर-दर पे) तरले करते मर जाते हैं। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलते हैं, वे माया में खचित होते हैं। उन्हें असल राह नहीं सूझता। (इस दुखी हालत की) पुकार भी वह लोग किस के सामने करें? एक प्रभु के बगैर और कोई (सहायता करने वाला ही) नहीं है।
(नाम रूपी खजाने के बगैर) कई कंगाल सदा (दर-दर पे) तरले लेते फिरते हैं, इनके (हृदय रूपी) खजाने (बंदगी रूपी धन से) भरे पड़े हैं। (परमात्मा के) नाम के बिना और कोई (साथ निभने वाला) धन नहीं है, तथा माया का धन राख के (समान) है।
(पर) हे नानक! सब (जीवों में बैठा प्रभु) स्वयं ही (काँच का व रत्नों का व्यापार) कर रहा है। (जिनको सुधारता है उनको अपने) हुक्म में ही सीधे राह पे डाल लेता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ मुसलमाणु कहावणु मुसकलु जा होइ ता मुसलमाणु कहावै ॥ अवलि अउलि दीनु करि मिठा मसकल माना मालु मुसावै ॥ होइ मुसलिमु दीन मुहाणै मरण जीवण का भरमु चुकावै ॥ रब की रजाइ मंने सिर उपरि करता मंने आपु गवावै ॥ तउ नानक सरब जीआ मिहरमति होइ त मुसलमाणु कहावै ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ मुसलमाणु कहावणु मुसकलु जा होइ ता मुसलमाणु कहावै ॥ अवलि अउलि दीनु करि मिठा मसकल माना मालु मुसावै ॥ होइ मुसलिमु दीन मुहाणै मरण जीवण का भरमु चुकावै ॥ रब की रजाइ मंने सिर उपरि करता मंने आपु गवावै ॥ तउ नानक सरब जीआ मिहरमति होइ त मुसलमाणु कहावै ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवलि अउलि = पहले पहल, सबसे पहले।

दर्पण-टिप्पनी

(अक्षर ‘उ’ तथा ‘व’ आपस में बदल जाते हैं क्योंकि दोनों का उच्चारण ‘स्थान’ एक ही है। इसी ‘वार’ में शब्द ‘पउड़ी’ व ‘पवड़ी’ बरते जा रहे हैं; देखें नं: ९,१०,११)।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मसकल = मिसकला, लोहे का जंग उतारने वाला हथियार। माना = मानिंद, तरह। मुसावै = ठगाए, लुटाए, बाँटे। दीन मुहाणै = दीन की अगवाई में, दीन के सन्मुख, धर्म के अनुसार। मरण जीवण = सारी उम्र। आपु = स्वैभाव, अहम्, खुदी। मिहरंमति = मिहर, तरस।1।
अर्थ: (असल) मुसलमान कहलवाना बड़ा ही मुश्किल है। अगर (वैसा) बने तो मनुष्य अपने आप को मुसलमान कहलवाए। (असली मुसलमान बनने के लिए) सबसे पहले (ये जरूरी है कि) मजहब प्यारा लगे। (फिर) जैसे मिसकले से जंग उतारते हैं वैसे ही (अपनी कमाई का) धन (जरूरतमंदों में) बाँट के बरते (और इस तरह दौलत का अहंकार दूर करे)। मजहब की अगुवाई में चल के मुसलमान बने, और सारी उम्र की भटकना मिटा डाले (अर्थात, सारी उम्र कभी मजहब के राह से अलग ना जाए)। रब के किए को स्वीकार करे, कादर को ही (सब कुछ करने वाला) माने और खुदी मिटा दे। इस तरह, हे नानक! (रब के पैदा किए) सारे लोगों से प्यार करे। ऐसा बने, तो मुसलमान कहलवाए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला ४ ॥ परहरि काम क्रोधु झूठु निंदा तजि माइआ अहंकारु चुकावै ॥ तजि कामु कामिनी मोहु तजै ता अंजन माहि निरंजनु पावै ॥ तजि मानु अभिमानु प्रीति सुत दारा तजि पिआस आस राम लिव लावै ॥ नानक साचा मनि वसै साच सबदि हरि नामि समावै ॥२॥

मूलम्

महला ४ ॥ परहरि काम क्रोधु झूठु निंदा तजि माइआ अहंकारु चुकावै ॥ तजि कामु कामिनी मोहु तजै ता अंजन माहि निरंजनु पावै ॥ तजि मानु अभिमानु प्रीति सुत दारा तजि पिआस आस राम लिव लावै ॥ नानक साचा मनि वसै साच सबदि हरि नामि समावै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परहरि = त्याग के, छोड़ के। तजि = छोड़ के। कामिनी = स्त्री। अंजन = कालख, माया का अंधेरा। निरंजनु = वह प्रभु जिस पे माया का अंधकार असर नहीं कर सकता। सुत = पुत्र। दारा = स्त्री, पत्नी। पिआस = तृष्णा।2।
अर्थ: (अगर मनुष्य) काम, गुस्सा, झूठ व निंदा छोड़ दे, अगर माया का लालच छोड़ के अहंकार (भी) दूर कर ले। अगर विषयों की वासना छोड़ के, स्त्री का मोह त्याग दे तो मनुष्य माया की कालिख में रहता हुआ ही माया-रहित प्रभु को पा लेता है। (यदि मनुष्य) अहंकार दूर करके पुत्र व पत्नी का मोह त्याग दे, अगर (दुनिया के पदार्थों की) आशा और तृष्णा छोड़ के परमात्मा के साथ तवज्जो जोड़ ले, तो, हे नानक! सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा उसके मन में बस जाता है। गुरु के शब्द के द्वारा परमात्मा के नाम में वह लीन हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ राजे रयति सिकदार कोइ न रहसीओ ॥ हट पटण बाजार हुकमी ढहसीओ ॥ पके बंक दुआर मूरखु जाणै आपणे ॥ दरबि भरे भंडार रीते इकि खणे ॥ ताजी रथ तुखार हाथी पाखरे ॥ बाग मिलख घर बार किथै सि आपणे ॥ त्मबू पलंघ निवार सराइचे लालती ॥ नानक सच दातारु सिनाखतु कुदरती ॥८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ राजे रयति सिकदार कोइ न रहसीओ ॥ हट पटण बाजार हुकमी ढहसीओ ॥ पके बंक दुआर मूरखु जाणै आपणे ॥ दरबि भरे भंडार रीते इकि खणे ॥ ताजी रथ तुखार हाथी पाखरे ॥ बाग मिलख घर बार किथै सि आपणे ॥ त्मबू पलंघ निवार सराइचे लालती ॥ नानक सच दातारु सिनाखतु कुदरती ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिकदार = चौधरी। पटण = शहर। बंक = सोहने,बाँके। दरबि = धन ने। रीते = वंचित। इकि = एक में। इकि खणे = एक छिन में। ताजी = अरबी नस्ल के घोड़े। तुखार = ऊँठ। पाखर = हउदे, पलाणे। सि = वह। सराइचे = कनातें। लालती = अतलसी। सिनाखतु = पहचान। सचु = सदा कायम रहने वाला।8।
अर्थ: राजे, प्रजा, चौधरी, कोई भी सदा नहीं रहेगा। हाट, शहर, बाजार प्रभु के हुक्म में (अंत को) ढहि जाएंगे। सुंदर पक्के (घरों के) दरवाजों को मूर्ख मनुष्य अपने समझता है, (पर ये नहीं जानता कि) धन से भरे हुए खजाने एक पलक में खाली हो जाते हैं। बढ़िया घोड़े, ऊठ,हाथी, हउदे, बाग-जमीनें, घर-घाट, तंबू, निवारी पलंघ और अतलसी कनातें जिन्हें मनुष्य अपने समझता है, कहाँ चले जाते हैं पता नहीं चलता।
हे नानक! सदा रहने वाला सिर्फ वही है, जो इन पदार्थों के देने वाला है, उसकी पहचान उसकी रची हुई कुदरति में से होती है।8।

[[0142]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ नदीआ होवहि धेणवा सुम होवहि दुधु घीउ ॥ सगली धरती सकर होवै खुसी करे नित जीउ ॥ परबतु सुइना रुपा होवै हीरे लाल जड़ाउ ॥ भी तूंहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ नदीआ होवहि धेणवा सुम होवहि दुधु घीउ ॥ सगली धरती सकर होवै खुसी करे नित जीउ ॥ परबतु सुइना रुपा होवै हीरे लाल जड़ाउ ॥ भी तूंहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धेवणा = गाएं। सुंम = श्रोत, चश्मे। जीउ = जिंद, जीव। रुपा = चाँदी। आखण चाउ = तेरी स्तुति करने का चाव। तूं है = तूझे ही।1।
अर्थ: अगर सारी नदियां (मेरे वास्ते) गाएं बन जाएं, (पानी के) चश्में दूध और घी बन जाए, सारी जमीन शक्कर बन जाए, (इन पदार्थों को देख के) मेरी जिंद निक्त प्रसन्न हो। अगर हीरे व लालों से जड़े हुए सोने व चाँदी के पहाड़ बन जाएं, तो भी (हे प्रभु! मैं इन पदार्थों में ना फंसूँ और) तेरी ही महिमा करूँ। तेरी स्तुति करने का मेरा चाव खत्म ना हो जाए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ भार अठारह मेवा होवै गरुड़ा होइ सुआउ ॥ चंदु सूरजु दुइ फिरदे रखीअहि निहचलु होवै थाउ ॥ भी तूंहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ भार अठारह मेवा होवै गरुड़ा होइ सुआउ ॥ चंदु सूरजु दुइ फिरदे रखीअहि निहचलु होवै थाउ ॥ भी तूंहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भार अठारह = 18 भार, सारी बनस्पति (प्राचीन ख्याल चला आ रहा है कि यदि हरेक किस्म के पैड़-पौधे के एक-एक पक्ता ले के तोले जाएं तो सारा तोल ‘18 भार’ बनता है। एक भार का वनज है 5 मन कच्चे)। गरुड़ा = मुंह में घुल जाने वाला, रसीला। सुआउ = स्वाद।2।
अर्थ: अगर सारी बनस्पति मेवा बन जाए, जिसका स्वाद बहुत रसीला हो। अगर मेरी रहने की जगह अटल हो जाए तो चाँद और सूरज दोनों (मेरी रहाइश की सेवा करने के लिए) सेवा के लिए लगाए जांए, (तो भी हे प्रभु! मैं इनमें ना फसूँ और) तेरी ही महिमा करूँ। तेरी स्तुति करने का मेरा चाव खत्म ना हो जाए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ जे देहै दुखु लाईऐ पाप गरह दुइ राहु ॥ रतु पीणे राजे सिरै उपरि रखीअहि एवै जापै भाउ ॥ भी तूंहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥३॥

मूलम्

मः १ ॥ जे देहै दुखु लाईऐ पाप गरह दुइ राहु ॥ रतु पीणे राजे सिरै उपरि रखीअहि एवै जापै भाउ ॥ भी तूंहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देहै = शरीर को। राहु = राहू। दूइ = दोनों राहू व केतू। पाप गरह = पापों के ग्रह, मनहूस तारे। रतु पीणे = ज़ालम। एवै = ऐसी। भाउ = प्यार। जापै = प्रगट हो। एवै = इस तरह।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पुराणों में कथा है कि मोहनी अवतार की अगुवाई में देवताओं ने समुंदर मंथन करके 14 रत्न निकाले। उनमें एक था अमृत। जब देवते मिल के अमृत पीने लगे, तो राहू दैंत भी भेस बदल कर बीच में आ बैठा और अमृत पी गया। चंद्रमा और सूर्य ने पहिचान लिया, उन्होंने मोहनी अवतार को बताया जिसने सुदर्शन चक्र से इसका सिर काट दिया। ‘अमृत’ पीने के कारण ये मर ना सका और अब तक वैर लेने के लिए कभी-कभी चंद्रमा व सूरज को आ ग्रसता है, तब ग्रहण लगता है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: यदि (मेरे) शरीर को दुख लग जाए, दोनों मनहूस तारे राहू और केतू (मुझ पे लागू हो जाएं), जालिम राजे मेरे सिर पे हों, अगर तेरा प्यार इस तरह (भाव, इन दुखों की शकल में ही मेरे ऊपर) प्रगट हो, तो भी (हे प्रभु! मैं इससे घबरा के तुझे विसार ना दूँ) तेरी ही महिमा करूँ। तेरी स्तुति करने का मेरा चाव खत्म ना हो जाए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ अगी पाला कपड़ु होवै खाणा होवै वाउ ॥ सुरगै दीआ मोहणीआ इसतरीआ होवनि नानक सभो जाउ ॥ भी तूहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥४॥

मूलम्

मः १ ॥ अगी पाला कपड़ु होवै खाणा होवै वाउ ॥ सुरगै दीआ मोहणीआ इसतरीआ होवनि नानक सभो जाउ ॥ भी तूहै सालाहणा आखण लहै न चाउ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगी = आग, गरमियों में सूरज की तपती धूप व सेक। पाला = सर्दियों की ठण्ड। वाउ = हवा। मोहणीआ = मन को मोह लेने वालियां। जाउ = नाशवान।4।
अर्थ: (अगर गरमियों की) धूप और (सर्दियों का) पाला मेरे (पहनने के) कपड़े हों (अर्थात, यदि मैं नंगा रह के धूप और पाला भी सहूँ), अगर सिर्फ हवा मेरी खुराक हो (भाव, अगर मैं पवनाहारी हो जाऊँ, तो भी, हे प्रभु! तेरी महिमा के सामने ये तुच्छ हैं)। यदि स्वर्ग की अप्सराएं भी मेरे घर में हों, तो भी, हे नानक! ये तो नाशवान हैं (इनके मोह में फंस के मैं तुझे ना विसारूँ) तेरी ही महिमा करूँ। तेरी स्तुति करने का मेरा चाव खत्म ना हो जाए।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवड़ी ॥ बदफैली गैबाना खसमु न जाणई ॥ सो कहीऐ देवाना आपु न पछाणई ॥ कलहि बुरी संसारि वादे खपीऐ ॥ विणु नावै वेकारि भरमे पचीऐ ॥ राह दोवै इकु जाणै सोई सिझसी ॥ कुफर गोअ कुफराणै पइआ दझसी ॥ सभ दुनीआ सुबहानु सचि समाईऐ ॥ सिझै दरि दीवानि आपु गवाईऐ ॥९॥

मूलम्

पवड़ी ॥ बदफैली गैबाना खसमु न जाणई ॥ सो कहीऐ देवाना आपु न पछाणई ॥ कलहि बुरी संसारि वादे खपीऐ ॥ विणु नावै वेकारि भरमे पचीऐ ॥ राह दोवै इकु जाणै सोई सिझसी ॥ कुफर गोअ कुफराणै पइआ दझसी ॥ सभ दुनीआ सुबहानु सचि समाईऐ ॥ सिझै दरि दीवानि आपु गवाईऐ ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बदफैली = बुरी करतूत। गैबाना = छुप के। कलहि = (जो शांति का नाश करे) बिखांध, झगड़ा। वादे = झगड़े में ही। कुफर = झूठ। कुफरगोअ = झूठ बोलने वाला। दझसी = जलेगा। सुबहानु = सुंदर। दोवै राह = (देखो पउड़ी नं: 8में) धन और नाम।9।
अर्थ: (जो मनुष्य) छुप के पाप कमाता है और मालिक को (हर जगह हाजिर नाजर नहीं) समझता, उसे पागल समझना चाहिए, वह अपनी अस्लियत को नहीं पहचानता। जगत में (विकारों की) बिखांद (इतनी) बुरी है कि (विकारों में फंसा मनुष्य विकारों के) झमेलों में ही खपता रहता है। प्रभु का नाम छोड़ के बुरे कर्मों व भटकना में खुआर होता है। (मनुष्य जीवन के) दो रास्ते हैं (माया का या नाम का), इस (जीवन में) वही कामयाब होता है जो (दोनों रास्तों में से) एक परमात्मा को याद रखता है, (नहीं तो) झूठ में गलतान हुआ हुआ ही जलता है।
जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले प्रभु में जुड़ा हुआ है, उसके लिए सारा जगत ही सुंदर है। वह खुदी मिटा के प्रभु के दर पर प्रभु की दरगाह में सही स्वीकार होता है।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ सलोकु ॥ सो जीविआ जिसु मनि वसिआ सोइ ॥ नानक अवरु न जीवै कोइ ॥ जे जीवै पति लथी जाइ ॥ सभु हरामु जेता किछु खाइ ॥ राजि रंगु मालि रंगु ॥ रंगि रता नचै नंगु ॥ नानक ठगिआ मुठा जाइ ॥ विणु नावै पति गइआ गवाइ ॥१॥

मूलम्

मः १ सलोकु ॥ सो जीविआ जिसु मनि वसिआ सोइ ॥ नानक अवरु न जीवै कोइ ॥ जे जीवै पति लथी जाइ ॥ सभु हरामु जेता किछु खाइ ॥ राजि रंगु मालि रंगु ॥ रंगि रता नचै नंगु ॥ नानक ठगिआ मुठा जाइ ॥ विणु नावै पति गइआ गवाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राजि = राज में। रंगु = प्यार। नंगु = बेशर्म, निलज्ज। मुठा = लूटा।1।
अर्थ: (असल में) वह मनुष्य जीवित है जिसके मन में परमात्मा बस रहा है। हे नानक! (बंदगी वाले के बिना) कोई और जीवित नहीं है। अगर नाम-विहीन (देखने को) जीवित (भी) है तो इज्जत गवा के (यहां से) जाता है। जो कुछ (यहां) खाता-पीता है, हराम ही खाता है। जिस मनुष्य को राज में प्यार है, माल में मोह है, वह इस मोह में मस्त हुआ बे-शर्म हो के नाचता है (भाव, जलता है, अकड़ता है)। हे नानक! प्रभु के नाम से विहीन मनुष्य ठगा जा रहा है, लूटा जा रहा है, इज्जत गवा के (यहाँ से) जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ किआ खाधै किआ पैधै होइ ॥ जा मनि नाही सचा सोइ ॥ किआ मेवा किआ घिउ गुड़ु मिठा किआ मैदा किआ मासु ॥ किआ कपड़ु किआ सेज सुखाली कीजहि भोग बिलास ॥ किआ लसकर किआ नेब खवासी आवै महली वासु ॥ नानक सचे नाम विणु सभे टोल विणासु ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ किआ खाधै किआ पैधै होइ ॥ जा मनि नाही सचा सोइ ॥ किआ मेवा किआ घिउ गुड़ु मिठा किआ मैदा किआ मासु ॥ किआ कपड़ु किआ सेज सुखाली कीजहि भोग बिलास ॥ किआ लसकर किआ नेब खवासी आवै महली वासु ॥ नानक सचे नाम विणु सभे टोल विणासु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीजहि = किए जाएं। भोग बिलास = रंग रलियां। नेब = चोबदार। खवासी = चौरी बरदार। टोल = पदार्थ।2।
अर्थ: (जिस प्रभु ने सारे सुंदर पदार्थ दिए हैं) अगर वह सच्चा प्रभु दिल में नहीं बसता, तो (स्वादिष्ट भोजन) खाने तथा (सुंदर कपड़े) पहनने का क्या स्वाद? क्या हुआ यदि मेवे, घी, मीठा गुड़, मैदा और मास आदि पदार्थ इस्तेमाल किए? क्या हुआ यदि (सुंदर) कपड़े और आरामदायक सेज मिल गई और अगर मौजें कर लीं? तो क्या बन गया अगर फौज, चौबदार, चौरी बरदार मिल गए और महलों में बसना नसीब हो गया?
हे नानक! परमात्मा के नाम के बिना सारे पदार्थ नाशवान हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवड़ी ॥ जाती दै किआ हथि सचु परखीऐ ॥ महुरा होवै हथि मरीऐ चखीऐ ॥ सचे की सिरकार जुगु जुगु जाणीऐ ॥ हुकमु मंने सिरदारु दरि दीबाणीऐ ॥ फुरमानी है कार खसमि पठाइआ ॥ तबलबाज बीचार सबदि सुणाइआ ॥ इकि होए असवार इकना साखती ॥ इकनी बधे भार इकना ताखती ॥१०॥

मूलम्

पवड़ी ॥ जाती दै किआ हथि सचु परखीऐ ॥ महुरा होवै हथि मरीऐ चखीऐ ॥ सचे की सिरकार जुगु जुगु जाणीऐ ॥ हुकमु मंने सिरदारु दरि दीबाणीऐ ॥ फुरमानी है कार खसमि पठाइआ ॥ तबलबाज बीचार सबदि सुणाइआ ॥ इकि होए असवार इकना साखती ॥ इकनी बधे भार इकना ताखती ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महुरा = एक प्रकार का जहर। सिरकार = राज, हकूमत। जुग जुग = हरेक युग में, सदा ही। दीबाणीऐ = दीवान में, दरगाह में। फुरमानी = हुक्म मानना। खसमि = पति ने। पठाइआ = भेजा। तबलबाज = नगारची (गुरु)। साखती = दुमची (दुमचियां पहन लीं = तैयार हो गए)। ताखती = दौड़, (भाव) दौड़ पड़ी।10।
अर्थ: (प्रभु के दर पे तो) सच्चा नाम (रूपी सौदा) परखा जाता है, जाति के हाथ में कुछ नहीं है (भाव, किसी की जाति वर्ण का कोई लिहाज नहीं होता।) (जाति का अहंकार जहर के समान है) अगर किसी के पास जहर हो (चाहे वह किसी भी जाति का हो) अगर जहर खाएगा तो मरेगा। अकाल-पुरख का यह न्याय हरेक युग में घटित होता है (भाव किसी भी युग में जाति का लिहाज नहीं हुआ)।
प्रभु के दर पे, प्रभु की दरगाह में वही इज्जत वाला है जो प्रभु का हुक्म मानता है। पति (प्रभु) ने (जीव को) हुक्म मानने की कार दे के (जगत में) भेजा है। नगारची गुरु ने शब्द के द्वारा यही बात सुनाई है (अर्थात गुरु ने शब्द के द्वारा यही ढंढोरा दे दिया है)। (ये ढंढोरा सुन के) कई (गुरमुख) तो सवार हो गए हैं (भाव, इस राह पर चल पड़े हैं), कई लोग तैयार हो गए हैं, कईयों ने असबाब लाद लिए हैं, और कई जल्दी दौड़ पड़े है।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ जा पका ता कटिआ रही सु पलरि वाड़ि ॥ सणु कीसारा चिथिआ कणु लइआ तनु झाड़ि ॥ दुइ पुड़ चकी जोड़ि कै पीसण आइ बहिठु ॥ जो दरि रहे सु उबरे नानक अजबु डिठु ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ जा पका ता कटिआ रही सु पलरि वाड़ि ॥ सणु कीसारा चिथिआ कणु लइआ तनु झाड़ि ॥ दुइ पुड़ चकी जोड़ि कै पीसण आइ बहिठु ॥ जो दरि रहे सु उबरे नानक अजबु डिठु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पलरि = नाड़, पौधे की नाली जिस पर सिट्टा उगा होता है। सणु = समेत। कीसारा = गुद्दे के तेज काँटे। कणु = दाने। तनु झाड़ि = (पौधों का) तन झाड़ के। बहिठु = बैठे। अजबु = आश्चर्यजनक तमाशा।1।
अर्थ: जब (गेहूँ आदिक फसल का पौधा) पक जाता है तो (ऊपर ऊपर से) काट लेते हैं। (गेहूँ की) नाड़ और (खेत की) बाड़ पीछे रह जाती है। इसे सिट्टों समेत मसल लेते हैं और हवा में उड़ा के दाने अलग कर लेते है।
फिरचक्की के दोनों हिस्से रख के (इन दानों को) पीसने के लिए (प्राणी) आ बैठता है। (पर,) हे नानक! एक आश्चर्यजनक तमाशा देखा है, जो दाने (चक्की के) दर पर (भाव, केंद्र में किल्ली के नजदीक) रहते हैं, वे पिसने से बच जाते हैं (इसी तरह, जो मनुष्य प्रभु के दर पर रहते हैं उन्हें जगत के विकार छूह नहीं सकते)।1।

[[0143]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ वेखु जि मिठा कटिआ कटि कुटि बधा पाइ ॥ खुंढा अंदरि रखि कै देनि सु मल सजाइ ॥ रसु कसु टटरि पाईऐ तपै तै विललाइ ॥ भी सो फोगु समालीऐ दिचै अगि जालाइ ॥ नानक मिठै पतरीऐ वेखहु लोका आइ ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ वेखु जि मिठा कटिआ कटि कुटि बधा पाइ ॥ खुंढा अंदरि रखि कै देनि सु मल सजाइ ॥ रसु कसु टटरि पाईऐ तपै तै विललाइ ॥ भी सो फोगु समालीऐ दिचै अगि जालाइ ॥ नानक मिठै पतरीऐ वेखहु लोका आइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिठा = गन्ना। कटि कुटि = काट कूट के, काटने के बाद बाकी की तैयारी करके, छील छील के। पाइ = डाल के, रस्सियां डाल के। खुंढा = वेलने की लाठियां, डंडा। मल = मल्ल, पहलवान। रसु कसु = कस का रस, निकाला हुआ रस। टटरि = कड़ाहे में। समालीऐ = इकट्ठा कर लेते हैं। मिठै = मीठे के कारण। पतरीऐ = खुआर होते हैं ।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: संस्कृत: प्र+त्री, इस धातु से ‘प्रेरणार्थक क्रिया’ का रूप है ‘प्रतारीय’ जिससे पंजाबी शब्द है ‘पतारना’; हिंदी: ‘प्रताड़ित करना’ और अर्थ हैं खुआर करना, बदनाम करना, धोखा देना। शब्द ‘पतारिये’ क्रिया है। ‘मिठे पतरीऐ’ का अर्थ ‘मीठे पत्रों वाले को’ करना गलत है। गन्ने के पत्रों में मिठास नहीं, मिठास तो गन्ने में है। पत्र (छिलका) तो उतार के फेंक दिए जाते हैं। देखें ‘कउनु कउनु नहीं पतरिआ’ —- बिलावल महला ५।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) देख, कि गन्ना काटा जाता है, छील छील के, रस्सी से बाँध लेते हैं (भाव बंडल बना लेते हैं)। फिर वेलने की लाठियों में रख के पहलवान (भाव, जिमीदार) इसे (मानो) सजा देते हैं (पीढ़ते हैं)। सारा रस कड़ाहे में डाल लेते हैं। (आग के सेक के साथ ये रस) कढ़ता है और (मानो) विलकता है। (गन्ने का) वह फोग (फोक, चूरा) भी संभाल लेते हैं और (सुखा के कड़ाहे के नीचे) आग में जला दिया जाता है। हे नानक! (कह) हे लोगो! आ के (गन्ने का हाल) देखो, मीठे के कारण (माया की मिठास के मोह के कारण गन्ने की तरह यूं ही) प्रताड़ित होते हैं, दुख झेलते हैं।2।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: यहां भाव ये नहीं कि अच्छों को दुख बर्दाश्त करने पड़ते हैं। शलोक का भाव ‘मिठै पतरीअै’ में आ गया है, यही ख्याल इस पौड़ी में है;)

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवड़ी ॥ इकना मरणु न चिति आस घणेरिआ ॥ मरि मरि जमहि नित किसै न केरिआ ॥ आपनड़ै मनि चिति कहनि चंगेरिआ ॥ जमराजै नित नित मनमुख हेरिआ ॥ मनमुख लूण हाराम किआ न जाणिआ ॥ बधे करनि सलाम खसम न भाणिआ ॥ सचु मिलै मुखि नामु साहिब भावसी ॥ करसनि तखति सलामु लिखिआ पावसी ॥११॥

मूलम्

पवड़ी ॥ इकना मरणु न चिति आस घणेरिआ ॥ मरि मरि जमहि नित किसै न केरिआ ॥ आपनड़ै मनि चिति कहनि चंगेरिआ ॥ जमराजै नित नित मनमुख हेरिआ ॥ मनमुख लूण हाराम किआ न जाणिआ ॥ बधे करनि सलाम खसम न भाणिआ ॥ सचु मिलै मुखि नामु साहिब भावसी ॥ करसनि तखति सलामु लिखिआ पावसी ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कई लोग (दुनिया की) बड़ी बड़ी आशाएं (मन में बनाए रहते हैं, मौत का ख्याल उनके) चित्त में भी नहीं आता। वे रोज पैदा होते मरते हैं (भाव, हर वक्त संशयों में दुखी होते हैं; कभी एक आध घड़ी भर के लिए सुख तो फिर दुखी के दुखी)। किसी के भी (कभी यार) नहीं बनते। वे लोग अपने मन में चित्त में (अपने आपको) ठीक कहते हैं। (पर) उन मनमुखों को सदा ही जमराज देखता रहता है (भाव, समझते तो अपने आप को नेक हैं पर करतूतें ऐसी हैं जिस करके जमों के वस पड़ते हैं)। अपने मन के पीछे चलने वाले लूण हरामी लोग परमात्मा के किए उपकार (की सार) नहीं जानते। फसे हुए ही (उसे) सलामें करते हैं, (इस तरह) वे पति को प्यारे नहीं लग सकते।
(जिस मनुष्य को) ईश्वर मिल गया है, जिसके मुंह में ईश्वर का नाम है, वह पति (प्रभु) को प्यारा लगता है। उसे तख्त पे बैठे को सारे लोग सलाम करते हैं, (धुर से ही रब द्वारा) लिखे इस लेख (के फल को) प्राप्त करता है।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ सलोकु ॥ मछी तारू किआ करे पंखी किआ आकासु ॥ पथर पाला किआ करे खुसरे किआ घर वासु ॥ कुते चंदनु लाईऐ भी सो कुती धातु ॥ बोला जे समझाईऐ पड़ीअहि सिम्रिति पाठ ॥ अंधा चानणि रखीऐ दीवे बलहि पचास ॥ चउणे सुइना पाईऐ चुणि चुणि खावै घासु ॥ लोहा मारणि पाईऐ ढहै न होइ कपास ॥ नानक मूरख एहि गुण बोले सदा विणासु ॥१॥

मूलम्

मः १ सलोकु ॥ मछी तारू किआ करे पंखी किआ आकासु ॥ पथर पाला किआ करे खुसरे किआ घर वासु ॥ कुते चंदनु लाईऐ भी सो कुती धातु ॥ बोला जे समझाईऐ पड़ीअहि सिम्रिति पाठ ॥ अंधा चानणि रखीऐ दीवे बलहि पचास ॥ चउणे सुइना पाईऐ चुणि चुणि खावै घासु ॥ लोहा मारणि पाईऐ ढहै न होइ कपास ॥ नानक मूरख एहि गुण बोले सदा विणासु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तारू = तैरने योग्य पानी, बहुत गहरा पानी जिसमें से तैर के ही पार लांघा जा सके। धातु = असला, खमीर। पढ़िअहि = पढ़े जाएं। चउणा = गायों का झुण्ड जो घास चरने के लिए गांव से बाहर छोड़ा जाता है। मारणि = मारने के लिए, कुष्ता करने के लिए। ढहै = ढल के। गुण = ख़ोआं, कमियां, वादियां। विणासु = नुकसान।1।
अर्थ: तैरने योग्य पानी मछली का क्या कर सकता है? (चाहे कितना ही गहरा क्यों ना हो मछली को कोई परवाह नहीं)। आकाश पंछी का क्या कर सकता है? (आकाश कितना ही खुला हो जाए पंछी को कोई परवाह नहीं) (पानी अपनी गहराई और आकाश अपने खुले होने की सीमा का असर नहीं डाल सकते)। पाला (कक्कर) पत्थर पर असर नहीं कर सकता। घर के बसने का असर हिजड़े पर नहीं पड़ता। अगर कुत्ते को चंदन भी लगा दें, तो भी उसका असला कुत्तों वाला ही रहता है। बहरे मनुष्य को समझाएं और स्मृतियों के पाठ उसके पास करें (वह तो सुन ही नहीं सकता)। अंधे मनुष्य को प्रकाश में रखा जाए, (उसके पास चाहे) पचास दीए भले जलें (उसे कुछ नहीं दिखना)। चरने गए पशुओं के झुण्ड के आगे अगर सोना बिखेर दें, तो भी वह घास चुग चुग के ही खाएंगे (सोने की कद्र नहीं पड़ सकती)। लोहे का कुष्ता कर दें, तो भी ढल के वह कपास (जैसा नर्म) नहीं बन सकता।
हे नानक! यहीबातें मूर्ख की हैं, (कितनी भी मति दो, वह जब भी) बोलता है सदा (वही बोलता है जिससे किसी का) नुकसान ही हो।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ कैहा कंचनु तुटै सारु ॥ अगनी गंढु पाए लोहारु ॥ गोरी सेती तुटै भतारु ॥ पुतीं गंढु पवै संसारि ॥ राजा मंगै दितै गंढु पाइ ॥ भुखिआ गंढु पवै जा खाइ ॥ काला गंढु नदीआ मीह झोल ॥ गंढु परीती मिठे बोल ॥ बेदा गंढु बोले सचु कोइ ॥ मुइआ गंढु नेकी सतु होइ ॥ एतु गंढि वरतै संसारु ॥ मूरख गंढु पवै मुहि मार ॥ नानकु आखै एहु बीचारु ॥ सिफती गंढु पवै दरबारि ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ कैहा कंचनु तुटै सारु ॥ अगनी गंढु पाए लोहारु ॥ गोरी सेती तुटै भतारु ॥ पुतीं गंढु पवै संसारि ॥ राजा मंगै दितै गंढु पाइ ॥ भुखिआ गंढु पवै जा खाइ ॥ काला गंढु नदीआ मीह झोल ॥ गंढु परीती मिठे बोल ॥ बेदा गंढु बोले सचु कोइ ॥ मुइआ गंढु नेकी सतु होइ ॥ एतु गंढि वरतै संसारु ॥ मूरख गंढु पवै मुहि मार ॥ नानकु आखै एहु बीचारु ॥ सिफती गंढु पवै दरबारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कंचन = सोना। सारु = लोहा। गंढु = गांढा, जोड़। गोरी = स्त्री, पत्नी। काला गंढु = सूखे की समाप्ति। झोल = बहुत बरसात। मुइआ गंढु = मरे हुए मनुष्यों का दुनिया के साथ संबंध। सतु = दान। एतु गंढि = इस जोड़ से, इस संबंध से। मुहि = मुंह पे।2।
अर्थ: अगर कांसा, सोना या लोहा टूट जाए, आग से लोहार (आदि) जोड़ लगा देता है। अगर पत्नी से पति नाराज हो जाए, तो जगत में (इनका) जोड़ पुत्रों द्वारा बनता है। राजा (प्रजा से मामला, कर) मांगता है (ना दिया जाए तो राजा-प्रजा की बिगड़ती है, मामला) देने से (राजा-प्रजा का) मेल बनता है। भूख से आतुर हुए आदमी का (अपने शरीर से तभी) संबंध बना रहता है अगर वह (खाना) खाए। काल थमता है (भाव, सूखा समाप्त होता है) अगर खूब बरसात हो और नदियां चलें। मीठे वचनों से प्यार का जोड़ जुड़ता है (भाव, प्यार पक्का होता है)। वेद (आदि धार्मिक पुस्तकों) से (मनुष्य का तभी) जोड़ जुड़ता है अगर मनुष्य सच बोले। मरे हुए लोगों का (जगत से) संबंध बना रहता है (अर्थात, लोग उसे ही याद रखते हैं) अगर मनुष्य भलाई और दान करता रहे। (सो) इस तरह के संबंध से जगत (का व्यवहार) चलता है। मुंह पे मार पड़ने से मूर्ख (के मूर्खपन) को रोक लगती है।
नानक ये विचार (की बात) बताता है, कि (परमात्मा की) महिमा के द्वारा (प्रभु के) दरबार में (आदर-प्यार का) जोड़ जुड़ता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ आपे कुदरति साजि कै आपे करे बीचारु ॥ इकि खोटे इकि खरे आपे परखणहारु ॥ खरे खजानै पाईअहि खोटे सटीअहि बाहर वारि ॥ खोटे सची दरगह सुटीअहि किसु आगै करहि पुकार ॥ सतिगुर पिछै भजि पवहि एहा करणी सारु ॥ सतिगुरु खोटिअहु खरे करे सबदि सवारणहारु ॥ सची दरगह मंनीअनि गुर कै प्रेम पिआरि ॥ गणत तिना दी को किआ करे जो आपि बखसे करतारि ॥१२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ आपे कुदरति साजि कै आपे करे बीचारु ॥ इकि खोटे इकि खरे आपे परखणहारु ॥ खरे खजानै पाईअहि खोटे सटीअहि बाहर वारि ॥ खोटे सची दरगह सुटीअहि किसु आगै करहि पुकार ॥ सतिगुर पिछै भजि पवहि एहा करणी सारु ॥ सतिगुरु खोटिअहु खरे करे सबदि सवारणहारु ॥ सची दरगह मंनीअनि गुर कै प्रेम पिआरि ॥ गणत तिना दी को किआ करे जो आपि बखसे करतारि ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाहरवारि = बाहर का पासा। सारु = श्रेष्ठ। मंनिअनि = माने जाते हैं, (अर्थात) आदर पाते हैं। गणत = दंत कथा, निंदा।12।
अर्थ: परमात्मा स्वयं ही दुनिया पैदा करके स्वयं ही इसका ध्यान रखता है। (पर यहां) कई जीव खोटे हैं (भाव, मनुष्यता के पैमाने पर हल्के हैं) और कई (शाही सिक्के की तरह) खरे हैं, (इन सब की) परख करने वाला भी वह स्वयं ही है। (रुपए आदि की तरह) खरे लोग (प्रभु के) खजाने में पाए जाते हैं (भाव, उनका जीवन स्वीकार होता है, और) खोटे बाहर की ओर फेंक दिए जाते हैं (अर्थात, ये जीव भले लोगों में मिल नहीं सकते), सच्ची दरगाह में इनको धक्का मिलता है। कोई अन्य जगह ऐसी नहीं जहाँ ये (सहायता के लिए) फरयाद कर सकें।
(इन हल्के जीवन वाले जीवों के लिए) करने वाली सबसे अच्छी बात यही है कि सतिगुरु की शरण पड़ें। गुरु खोटे से खरे बना देता है (क्योंकि गुरु अपने) शब्द द्वारा खरे बनाने के समर्थ है। (फिर वह) सतिगुर के बख्शे प्रेम प्यार के कारण परमात्मा की दरगाह में आदर पाते हैं और जिन्हें कर्तार ने स्वयं बख्श लिया उनके गुनाहों का किसी ने क्या करना?।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ हम जेर जिमी दुनीआ पीरा मसाइका राइआ ॥ मे रवदि बादिसाहा अफजू खुदाइ ॥ एक तूही एक तुही ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ हम जेर जिमी दुनीआ पीरा मसाइका राइआ ॥ मे रवदि बादिसाहा अफजू खुदाइ ॥ एक तूही एक तुही ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हम = हमह (फ़ारसी) सारी। जेर = ज़ेर, नीचे। जिमी = जमीन, धरती। मेरवदि = जाता है, (भाव,) नाशवान है। अफजू = बाकी रहने वाला।1।
अर्थ: पीर, शेख, राय (आदि) सारी दुनिया धरती के नीचे (अंत को समा जाते हैं) (इस धरती पे हुक्म करने वाले) बादशाह भी नाश हो जाते हैं। सदा टिके रहने वाला, हे खुदाय! एक तू ही है! एक तू ही है!!।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ न देव दानवा नरा ॥ न सिध साधिका धरा ॥ असति एक दिगरि कुई ॥ एक तुई एक तुई ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ न देव दानवा नरा ॥ न सिध साधिका धरा ॥ असति एक दिगरि कुई ॥ एक तुई एक तुई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दानव = दैंत। सिध = योग साधना में माहिर जोगी। धरा = धरती। असति = अस्ति, है, कायम है। दिगरि = दीगरे, दूसरा। कुई = कौन?।2।
अर्थ: ना देवते, ना दैंत, ना मनुष्य, ना योग साधना में माहिर योगी, ना योग साधना करने वाले, कोई भी धरती पे नहीं रहा। सदा स्थिर रहने वाला और दूसरा कौन है? सदा कायम रहने वाला, हे प्रभु! एक तू ही है, एक तू ही है।2।

[[0144]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ न दादे दिहंद आदमी ॥ न सपत जेर जिमी ॥ असति एक दिगरि कुई ॥ एक तुई एक तुई ॥३॥

मूलम्

मः १ ॥ न दादे दिहंद आदमी ॥ न सपत जेर जिमी ॥ असति एक दिगरि कुई ॥ एक तुई एक तुई ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाद = इंसाफ। दिहंद = देने वाले। दादे दिहंद = इंसाफ करने वाले। सपत = सप्त, सात।3।
अर्थ: ना ही इंसाफ करने वाले (भाव, दूसरों के झगड़े निपटाने वाले) आदमी सदा टिके रहने वाले हैं, ना ही धरती के नीचे (पाताल में) ही सदा रह सकते हैं। सदा स्थिर रहने वाला और दूसरा कौन है? सदा कायम रहने वाला, हे प्रभु! एक तू ही है, एक तू ही है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ न सूर ससि मंडलो ॥ न सपत दीप नह जलो ॥ अंन पउण थिरु न कुई ॥ एकु तुई एकु तुई ॥४॥

मूलम्

मः १ ॥ न सूर ससि मंडलो ॥ न सपत दीप नह जलो ॥ अंन पउण थिरु न कुई ॥ एकु तुई एकु तुई ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूर = सूरज। ससि = चंद्रमा। मंडल = दिखाई देता आकाश। दीप = द्वीप, पुरातन काल से इस धरती के सात हिस्से निहित किये गए हैं, हरेक को द्वीप कहा गया है। केंद्रिय द्वीप का नाम ‘जंबू द्वीप’ कहा है जिस में हिंदुस्तान देश है। पउण = हवा।4।
अर्थ: ना सूरज ना चंद्रमा, ना यह दिखता आकाश, ना धरती के सप्त द्वीप। ना पानी, ना अन्न, ना हवा- कोई भी स्थिर रहने वाला नहीं। सदा कायम रहने वाला, हे प्रभु! एक तू ही है, एक तू ही है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ न रिजकु दसत आ कसे ॥ हमा रा एकु आस वसे ॥ असति एकु दिगर कुई ॥ एक तुई एकु तुई ॥५॥

मूलम्

मः १ ॥ न रिजकु दसत आ कसे ॥ हमा रा एकु आस वसे ॥ असति एकु दिगर कुई ॥ एक तुई एकु तुई ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दसत = हाथ। दसत आ कसे = किसी और सख्श के हाथ में। हमा = (हमह) सब। रा = (फारसी) को। वसे = बस, काफी।5।
अर्थ: (जीवों का) रिजक (परमात्मा के बिना) किसी और के हाथ में नहीं है। सब जीवों को बस एक प्रभु की आस है (क्योंकि, सदा स्थिर) और है ही कोई नहीं। सदा रहने वाला, हे प्रभु! एक तू ही है, एक तू ही है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ परंदए न गिराह जर ॥ दरखत आब आस कर ॥ दिहंद सुई ॥ एक तुई एक तुई ॥६॥

मूलम्

मः १ ॥ परंदए न गिराह जर ॥ दरखत आब आस कर ॥ दिहंद सुई ॥ एक तुई एक तुई ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परंदए गिराह = परिंदों के पल्ले। ज़र = धन। आब = पानी। दिहंद = देने वाला।6।
अर्थ: परिंदों के पल्ले धन नही है। वे (प्रभु के बनाए हुए) रुखों व पानी का आसरा ही लेते हैं। उनको रोजी देने वाला वही प्रभु है।
(हे प्रभु! इनका रिजक दाता) एक तू ही है, एक तू ही है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ नानक लिलारि लिखिआ सोइ ॥ मेटि न साकै कोइ ॥ कला धरै हिरै सुई ॥ एकु तुई एकु तुई ॥७॥

मूलम्

मः १ ॥ नानक लिलारि लिखिआ सोइ ॥ मेटि न साकै कोइ ॥ कला धरै हिरै सुई ॥ एकु तुई एकु तुई ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लिलारि = लिलाट, माथे पर। कला = क्षमता। हिरै = चुरा लेता है, ले जाता है।7।
अर्थ: हे नानक! (जीव के) माथे पर (जो कुछ कर्तार द्वारा) लिखा गया है, उसे कोई मिटा नहीं सकता। (जीव के अंदर) वही क्षमता डालता है, और वही छीन लेता है। (हे प्रभु! जीवों को क्षमता देने वाला और छीनने वाला) एक तू ही है, एक तू ही है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सचा तेरा हुकमु गुरमुखि जाणिआ ॥ गुरमती आपु गवाइ सचु पछाणिआ ॥ सचु तेरा दरबारु सबदु नीसाणिआ ॥ सचा सबदु वीचारि सचि समाणिआ ॥ मनमुख सदा कूड़िआर भरमि भुलाणिआ ॥ विसटा अंदरि वासु सादु न जाणिआ ॥ विणु नावै दुखु पाइ आवण जाणिआ ॥ नानक पारखु आपि जिनि खोटा खरा पछाणिआ ॥१३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सचा तेरा हुकमु गुरमुखि जाणिआ ॥ गुरमती आपु गवाइ सचु पछाणिआ ॥ सचु तेरा दरबारु सबदु नीसाणिआ ॥ सचा सबदु वीचारि सचि समाणिआ ॥ मनमुख सदा कूड़िआर भरमि भुलाणिआ ॥ विसटा अंदरि वासु सादु न जाणिआ ॥ विणु नावै दुखु पाइ आवण जाणिआ ॥ नानक पारखु आपि जिनि खोटा खरा पछाणिआ ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। आपि = खुद ही (शब्द ‘आपु’ और ‘आपि’ का फर्क समझनेयोग्य है)। नीसाणिआ = नीसाण, राहदारी, परवाना। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी (जैसे सोनार, लोहार)।13।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरा हुक्म सदा स्थिर रहने वाला है। गुरु के सन्मुख होने से इसकी समझ पड़ती है। जिसने गुरु की मति ले के स्वैभाव दूर कर लिया है, उसने तुझे सदा कायम रहने वाले को पहिचान लिया है। हे प्रभु! तेरा दरबार सदा स्थिर है (इस तक पहुँचने के लिए गुरु का) शब्द राहदारी है। जिन्होंने सच्चे शब्द को विचारा है वे सच में लीन हो जाते हैं।
(पर) मन के पीछे चलने वाले झूठ (ही) फैलाते हैं, भटकना में भटके रहते हैं। उनका वासा गंदगी में ही रहता है। (शब्द का) आनंद वह नहीं समझसके; परमात्मा के नाम के बिना दुख पा के जनम मरण (के चक्र में पड़े रहते हैं)।
हे नानक! परखने वाला प्रभु खुद ही है, जिस ने खोटे खरे को पहिचाना है (भाव, प्रभु स्वयं ही जानता है कि खोटा कौन है और खरा कौन है)।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ सीहा बाजा चरगा कुहीआ एना खवाले घाह ॥ घाहु खानि तिना मासु खवाले एहि चलाए राह ॥ नदीआ विचि टिबे देखाले थली करे असगाह ॥ कीड़ा थापि देइ पातिसाही लसकर करे सुआह ॥ जेते जीअ जीवहि लै साहा जीवाले ता कि असाह ॥ नानक जिउ जिउ सचे भावै तिउ तिउ देइ गिराह ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ सीहा बाजा चरगा कुहीआ एना खवाले घाह ॥ घाहु खानि तिना मासु खवाले एहि चलाए राह ॥ नदीआ विचि टिबे देखाले थली करे असगाह ॥ कीड़ा थापि देइ पातिसाही लसकर करे सुआह ॥ जेते जीअ जीवहि लै साहा जीवाले ता कि असाह ॥ नानक जिउ जिउ सचे भावै तिउ तिउ देइ गिराह ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असगाह = गहरे पानी। गिराह = ग्राह, रोटी। किअ साह = क्या सांस? श्वास की क्या जरूरत? शब्द ‘किआ’ की जगह ‘कि’ बरता गया है। इस ‘वार’ में शब्द ‘किआ’ बहुत बार आया है; जैसे ‘किआ मैदा…’, ‘मछी तारू किआ करे’, इस शब्द ‘कि’ और ‘किआ’ का भाव मिलता है। पर शब्द ‘कि’ को तथा ‘असाह’ को अलग करके ‘कि’ का अर्थ ‘क्या आश्चर्य’, ‘क्या बड़ी बात’ करना अशुद्ध है। ‘गुरबाणी’ में और जगह भी ऐसा प्रमाण मिलना चाहिए। सो, पद छेद ‘किअ+साह’ चाहिए।1।
अर्थ: इन शेरों, बाजों, चरगों, कुहियों (आदि मासाहारियों को अगर चाहे तो) घास खिला देता है (अर्थात उनके माँस खाने की बृति तबदील कर देता है)। जो घास खाते हैं उन्हे मास खिला देता है, सो प्रभु ऐसे राह चला देता है। (प्रभु) बहती नदियों में टिब्वे दिखा देता है, रेतीली जगहों में गहरे पानी बना देता है। कीड़े को बादशाही (तख्त) के ऊपर स्थापित कर देता है (बैठा देता है), (और बादशाहों के) लश्करों को राख कर देता है। जितने भी जीव (जगत में) जीवित हैं, साँस ले के जीवत है (अर्थात तब तक जीवित हैं जब तक साँस लेते हैं, पर अगर प्रभु) जीवित रखना चाहे, तो ‘श्वासों’ की भी क्या मुथाजगी?
हे नानक! जैसे जैसे प्रभु की रजा है, वैसे वैसे (जीवों) को रोजी देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ इकि मासहारी इकि त्रिणु खाहि ॥ इकना छतीह अम्रित पाहि ॥ इकि मिटीआ महि मिटीआ खाहि ॥ इकि पउण सुमारी पउण सुमारि ॥ इकि निरंकारी नाम आधारि ॥ जीवै दाता मरै न कोइ ॥ नानक मुठे जाहि नाही मनि सोइ ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ इकि मासहारी इकि त्रिणु खाहि ॥ इकना छतीह अम्रित पाहि ॥ इकि मिटीआ महि मिटीआ खाहि ॥ इकि पउण सुमारी पउण सुमारि ॥ इकि निरंकारी नाम आधारि ॥ जीवै दाता मरै न कोइ ॥ नानक मुठे जाहि नाही मनि सोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पाहि = मिलते हैं। पउण = हवा, श्वास। पउण सुमारी = श्वासों को गिनने वाले, प्राणयाम करने वाले। पउण सुमारि = साँसों के गिनने में, प्राणयाम में। आधारि = आसरे में। जीवै = जीता है (भाव, रखवाला, रक्षक)। मुठे जाहि = ठगे जाते हैं। कोइ = जो कोई, जो मनुष्य।2।
अर्थ: कई जीव माँस खाने वाले हैं, कई घास खाने वाले है। कई प्राणियों को कई किस्मों के स्वादिष्ट भोजन मिलते हैं, और कई मिट्टी में (रह कर) मिट्टी खाते हैं।
कई प्रणायाम के अभ्यासी प्रणायाम में लगे रहते हैं। कई निरंकार के उपासक (उसके) नाम के आसरे जीते हैं।
जो मनुष्य (ये मानता है कि) सिर पे दाता रक्षक है वह (प्रभु को विसार के आत्मिक मौत) नहीं मरता। हे नानक! वे जीव ठगे जाते हैं, जिनके मन में वह प्रभु नहीं है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ पूरे गुर की कार करमि कमाईऐ ॥ गुरमती आपु गवाइ नामु धिआईऐ ॥ दूजी कारै लगि जनमु गवाईऐ ॥ विणु नावै सभ विसु पैझै खाईऐ ॥ सचा सबदु सालाहि सचि समाईऐ ॥ विणु सतिगुरु सेवे नाही सुखि निवासु फिरि फिरि आईऐ ॥ दुनीआ खोटी रासि कूड़ु कमाईऐ ॥ नानक सचु खरा सालाहि पति सिउ जाईऐ ॥१४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ पूरे गुर की कार करमि कमाईऐ ॥ गुरमती आपु गवाइ नामु धिआईऐ ॥ दूजी कारै लगि जनमु गवाईऐ ॥ विणु नावै सभ विसु पैझै खाईऐ ॥ सचा सबदु सालाहि सचि समाईऐ ॥ विणु सतिगुरु सेवे नाही सुखि निवासु फिरि फिरि आईऐ ॥ दुनीआ खोटी रासि कूड़ु कमाईऐ ॥ नानक सचु खरा सालाहि पति सिउ जाईऐ ॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करमि = मेहर से। विसु = जहर। पैझै खाईऐ = जो कुछ पहनते और खाते हैं। सुखि = सुख में। रासि = राशि, पूंजी।14।
अर्थ: पूरे सतिगुरु की बताए हुए कर्म भी (प्रभु की) मेहर से ही किए जा सकते हैं। गुरु की मति से स्वै भाव गवा के प्रभु का नाम स्मरण किया जा सकता है। (प्रभु की बंदगी बिसार के) और कामों में व्यस्त रहने से मानव जनम व्यर्थ जाता है, (क्यूँकि) नाम को बिसार के जो कुछ भी पहनते खाते हैं, वह (आत्मिक जीवन के वास्ते) ज़हर (समान) हो जाता है।
सतिगुरु का सच्चा शब्द गाने से सच्चे प्रभु में जुड़ते हैं। गुरु की बताई कार करे बिना सुख में (मन का) टिकाव नहीं हो सकता, मुड़ मुड़ जनम (मरण) में आते जाते हैं। दुनिया (का प्यार) खोटी पूंजी है, ये कमायी झूठ (का व्यापार है)।
हे नानक! सिर्फ सदा स्थिर प्रभु की महिमा करके (यहां से) आदर से जाते हैं।14।

[[0145]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ तुधु भावै ता वावहि गावहि तुधु भावै जलि नावहि ॥ जा तुधु भावहि ता करहि बिभूता सिंङी नादु वजावहि ॥ जा तुधु भावै ता पड़हि कतेबा मुला सेख कहावहि ॥ जा तुधु भावै ता होवहि राजे रस कस बहुतु कमावहि ॥ जा तुधु भावै तेग वगावहि सिर मुंडी कटि जावहि ॥ जा तुधु भावै जाहि दिसंतरि सुणि गला घरि आवहि ॥ जा तुधु भावै नाइ रचावहि तुधु भाणे तूं भावहि ॥ नानकु एक कहै बेनंती होरि सगले कूड़ु कमावहि ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ तुधु भावै ता वावहि गावहि तुधु भावै जलि नावहि ॥ जा तुधु भावहि ता करहि बिभूता सिंङी नादु वजावहि ॥ जा तुधु भावै ता पड़हि कतेबा मुला सेख कहावहि ॥ जा तुधु भावै ता होवहि राजे रस कस बहुतु कमावहि ॥ जा तुधु भावै तेग वगावहि सिर मुंडी कटि जावहि ॥ जा तुधु भावै जाहि दिसंतरि सुणि गला घरि आवहि ॥ जा तुधु भावै नाइ रचावहि तुधु भाणे तूं भावहि ॥ नानकु एक कहै बेनंती होरि सगले कूड़ु कमावहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुधु भावै = अगर तेरी रजा हो। वावहि = (साज) बजाते हैं। जलि = पानी में। बिभूता = राख। रस कस = कई किस्म के स्वादिष्ट भोजन। मुंडी = गर्दन। दिसंतरि = अन्य देशों में। सुणि = सुन के। नाइ = नाम में। तुधु भाणे = जो तेरी रजा मतें है। तूं = तूझे। भावहि = प्यारे लगते हैं।1।
अर्थ: जब तेरी रजा होती है (भाव, ये तेरी रजा है कि कई जीव साज) बजाते हैं और गाते हैं। (तीर्थों के) जल में स्नन करते हैं। कई (शरीर पर) राख मलते हैं और कई सिंञी का नाद बजाते हैं। कई जीव कुरान आदि धार्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं और अपने आप को मुल्ला व शेख कहलवाते हैं। कोई राजे बन जाते हैं तो कई स्वादिष्ट भोजन बाँटते हैं। कोई तलवार चलाते हैं और गर्दन से सिर अलग हो जाते हैं। कोई परदेस जाते हैं (वहाँ की) बातें सुन के (मुड़ अपने) घर आते हैं। (हे प्रभु! ये भी तेरी रजा ही है कि कई जीव) तेरे नाम में जुड़ते हैं। जो तेरी रजा में चलते हैं वे तुझे प्यारे लगते हैं। नानक एक अर्ज करता है (कि रजा में चले बिना) और सारे (जिनका ऊपर जिक्र किया है) झूठ कमा रहे हैं (अर्थात वह सौदा करते हैं जो व्यर्थ जाता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ जा तूं वडा सभि वडिआंईआ चंगै चंगा होई ॥ जा तूं सचा ता सभु को सचा कूड़ा कोइ न कोई ॥ आखणु वेखणु बोलणु चलणु जीवणु मरणा धातु ॥ हुकमु साजि हुकमै विचि रखै नानक सचा आपि ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ जा तूं वडा सभि वडिआंईआ चंगै चंगा होई ॥ जा तूं सचा ता सभु को सचा कूड़ा कोइ न कोई ॥ आखणु वेखणु बोलणु चलणु जीवणु मरणा धातु ॥ हुकमु साजि हुकमै विचि रखै नानक सचा आपि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धातु = माया। जा = जब।2।
अर्थ: जब (ये बात ठीक है कि) तू बड़ा (प्रभु जगत का कर्तार है, तो जगत में जो कुछ हो रहा है) सब तेरा ही बडप्पन है। (क्योंकि) अच्छे से अच्छाईआं ही उत्पन्न होतीं हैं। (जब ये यकीन बन जाए कि) तू ही सच्चा प्रभु विधाता है (तो) हरेक जीव सच्चा (दिखता है क्योंकि हरेक जीव में तू स्वयं मौजूद है तो फिर इस जगत में) कोई झूठा नहीं हो सकता।
(जो कुछ बाहर दिखावे मात्र दिखाई दे रहा है ये) कहना देखना, ये बोल-चाल, ये जीना व मरना (ये सब कुछ) माया-रूप है। (असलियत नहीं है, असलियत तो प्रभु स्वयं ही है)। हे नानक! वह सदा कायम रहने वाला प्रभु (अपनी) हुक्म (रूपी सत्ता) रच के सब जीवों को उस हुक्म में चला रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सतिगुरु सेवि निसंगु भरमु चुकाईऐ ॥ सतिगुरु आखै कार सु कार कमाईऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु त नामु धिआईऐ ॥ लाहा भगति सु सारु गुरमुखि पाईऐ ॥ मनमुखि कूड़ु गुबारु कूड़ु कमाईऐ ॥ सचे दै दरि जाइ सचु चवांईऐ ॥ सचै अंदरि महलि सचि बुलाईऐ ॥ नानक सचु सदा सचिआरु सचि समाईऐ ॥१५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सतिगुरु सेवि निसंगु भरमु चुकाईऐ ॥ सतिगुरु आखै कार सु कार कमाईऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु त नामु धिआईऐ ॥ लाहा भगति सु सारु गुरमुखि पाईऐ ॥ मनमुखि कूड़ु गुबारु कूड़ु कमाईऐ ॥ सचे दै दरि जाइ सचु चवांईऐ ॥ सचै अंदरि महलि सचि बुलाईऐ ॥ नानक सचु सदा सचिआरु सचि समाईऐ ॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निसंगु = शर्म उतार के, सच्चे दिल से। सारु = श्रेष्ठ। लाहा = लाभ, नफा। चवांईऐ = बोलें। सचि = सच्चे के द्वारा। सचिआरु = सच के व्यापारी।15।
अर्थ: अगर सच्चे दिल से गुरु का हुक्म मानें, तो भटकना दूर हो जाती है। वही काम करना चाहिए, जो गुरु करने के लिए कहे। अगर सतिगुरु मेहर करे, तो प्रभु का नाम स्मरण किया जा सकता है। गुरु के सन्मुख होने से प्रभु का बंदगी-रूप सबसे बढ़िया लाभ मिलता है। पर मन के पीछे चलने वाला मनुष्य निरा झूठ निरा अंधकार ही कमाता है।
अगर सच्चे प्रभु के चरणों में जुड़ के सच्चे का नाम जपें, तो इस सच्चे नाम के द्वारा सच्चे प्रभु की हजूरी में जगह मिलती है। हे नानक! (जिसके पल्ले) सदा सत्य है वह सच का व्यापारी है वह सच में लीन रहता है।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ कलि काती राजे कासाई धरमु पंख करि उडरिआ ॥ कूड़ु अमावस सचु चंद्रमा दीसै नाही कह चड़िआ ॥ हउ भालि विकुंनी होई ॥ आधेरै राहु न कोई ॥ विचि हउमै करि दुखु रोई ॥ कहु नानक किनि बिधि गति होई ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ कलि काती राजे कासाई धरमु पंख करि उडरिआ ॥ कूड़ु अमावस सचु चंद्रमा दीसै नाही कह चड़िआ ॥ हउ भालि विकुंनी होई ॥ आधेरै राहु न कोई ॥ विचि हउमै करि दुखु रोई ॥ कहु नानक किनि बिधि गति होई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि = विवाद वाला स्वभाव। काती = छुरी। कासाई = कसाई, जालिम। पंख = पर। अमावस = अंधेरी रात। कह = कहां? हउ = मैं। विकुंनी = व्याकुल। दुखु रोई = दुख रो रही है। किनि बिधि = किस तरह? गति = मुक्ति, खलासी।1।
अर्थ: ये घोर विवाद वाला स्वाभाव (मानों) छुरी है (जिसके कारण) राजे जालिम हो रहे हैं (इस वास्ते) धर्म पंख लगा के उड़ गया है। झूठ (मानो) अमावस की रात है, (इसमें) सत्य रूपी चंद्रमा कहीं भी चढ़ा दिखाई नहीं देता। मैं इस चंद्रमा को ढूँढ-ढूँढ के व्याकुल हो गई हूँ, अंधेरे में कोई रास्ता दिखता नहीं।
(इस अंधेरे) में (सृष्टि) अहंकार के कारण दुखी हो रही है। हे नानक! कैसे इससे मुक्ति हो?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ कलि कीरति परगटु चानणु संसारि ॥ गुरमुखि कोई उतरै पारि ॥ जिस नो नदरि करे तिसु देवै ॥ नानक गुरमुखि रतनु सो लेवै ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ कलि कीरति परगटु चानणु संसारि ॥ गुरमुखि कोई उतरै पारि ॥ जिस नो नदरि करे तिसु देवै ॥ नानक गुरमुखि रतनु सो लेवै ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संसारि = संसार में। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है।2।
अर्थ: इस कलयुगी स्वभाव (-रूपी अंधकार को दूर करने) के लिए (प्रभु की) महिमा (समर्थ) है। (ये महिमा) जगत में प्रचण्ड प्रकाश है, (पर) कोई (विरला) जो गुरु के सन्मुख होता है (इस प्रकाश का आसरा ले कर इस अंधेरे में से) पार लांघ जाता है।
हे नानक! प्रभु जिस पर मेहर की नजर करता है, उसको (ये कीर्ति रूप प्रकाश) देता है। वह मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के (नाम-रूप) रत्न ढूँढ लेता है।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पहला श्लोक गुरु नानक देव जी का है। जिस में उन्होंने सिर्फ सवाल उठाया है कि इस विवाद वाला स्वभाव में से जीव की मुक्ति कैसे हो। दूसरे श्लोक में गुरु अमरदास जी ने उक्तर दिया है कि प्रभु की स्तुति, महिमा ही इससे बचाती है। सो, ये श्लोक उचारने वाले गुरु अमरदास जी के पास गुरु नानक देव जी का उपरोक्त श्लोक मौजूद था। ये बात अनहोनी सी है, कि अकेला यही श्लोक गुरु अमरदास जी को कहीं से बा-सबब् मिल गया होगा। दरअसल बात ये है कि गुरु नानक देव जी ने अपनी सारी वाणी अपने हाथों लिखी और संभाली हुई गुरु अंगद देव जी को दी। और उन्होंने गुरु अमरदास जी को। (देखें मेरी पुस्तक ‘गुरबाणी और इतिहास बारे’)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ भगता तै सैसारीआ जोड़ु कदे न आइआ ॥ करता आपि अभुलु है न भुलै किसै दा भुलाइआ ॥ भगत आपे मेलिअनु जिनी सचो सचु कमाइआ ॥ सैसारी आपि खुआइअनु जिनी कूड़ु बोलि बोलि बिखु खाइआ ॥ चलण सार न जाणनी कामु करोधु विसु वधाइआ ॥ भगत करनि हरि चाकरी जिनी अनदिनु नामु धिआइआ ॥ दासनि दास होइ कै जिनी विचहु आपु गवाइआ ॥ ओना खसमै कै दरि मुख उजले सचै सबदि सुहाइआ ॥१६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ भगता तै सैसारीआ जोड़ु कदे न आइआ ॥ करता आपि अभुलु है न भुलै किसै दा भुलाइआ ॥ भगत आपे मेलिअनु जिनी सचो सचु कमाइआ ॥ सैसारी आपि खुआइअनु जिनी कूड़ु बोलि बोलि बिखु खाइआ ॥ चलण सार न जाणनी कामु करोधु विसु वधाइआ ॥ भगत करनि हरि चाकरी जिनी अनदिनु नामु धिआइआ ॥ दासनि दास होइ कै जिनी विचहु आपु गवाइआ ॥ ओना खसमै कै दरि मुख उजले सचै सबदि सुहाइआ ॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेलिअनु = मेले हैं उस (प्रभु) ने। खुआइअनु = गवाए हैं उसने। बिखु = जहर। सार = समझ। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। दासनिदास = दासों के दास। सुहाइआ = सुंदर लगते हैं।16।
अर्थ: (जगत में ये रोज देख रहे हैं कि) भगतों और दुनियादारों का जोड़ नहीं बनता। (पर, जगत-रचना में प्रभु की तरफ से ये कोई कमी नहीं है)। कर्तार खुद तो कमी छोड़ने वाला नहीं है, और किसी के भुलेखा डालने पर (भी) भुलेखा खाता नहीं (ये उसकी रजा है कि) उसने खुद ही भक्तों को (अपने चरणों से) जोड़ा हुआ है। वे पूर्णतया बंदगी रूपी कार्र-व्यवहार करते हैं। दुनियादारों को भी उसने खुद ही तोड़ा हुआ है। वह झूठ बोल बोल के (आत्मिक मौत का मूल) विष खा रहे हैं। उनको ये समझ ही नहीं आई कि यहां से चले भी जाना है। सो, वह काम-क्रोध रूपी जहर (जगत में) बढ़ा रहे हैं। (उसकी अपनी रजा में) भक्त उस प्रभु की बंदगी कर रहे हैं, वह हर वक्त नाम स्मरण कर रहे हैं।
जिस मनुष्यों ने प्रभु के सेवकों का सेवक बन के अपने अंदर से अहंकार को दूर किया है, प्रभु के दर पे उनके मुंह उजले होते हैं। सच्चे शब्द के कारण वे प्रभु दर पर शोभा पाते हैं।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ सबाही सालाह जिनी धिआइआ इक मनि ॥ सेई पूरे साह वखतै उपरि लड़ि मुए ॥ दूजै बहुते राह मन कीआ मती खिंडीआ ॥ बहुतु पए असगाह गोते खाहि न निकलहि ॥ तीजै मुही गिराह भुख तिखा दुइ भउकीआ ॥ खाधा होइ सुआह भी खाणे सिउ दोसती ॥ चउथै आई ऊंघ अखी मीटि पवारि गइआ ॥ भी उठि रचिओनु वादु सै वर्हिआ की पिड़ बधी ॥ सभे वेला वखत सभि जे अठी भउ होइ ॥ नानक साहिबु मनि वसै सचा नावणु होइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ सबाही सालाह जिनी धिआइआ इक मनि ॥ सेई पूरे साह वखतै उपरि लड़ि मुए ॥ दूजै बहुते राह मन कीआ मती खिंडीआ ॥ बहुतु पए असगाह गोते खाहि न निकलहि ॥ तीजै मुही गिराह भुख तिखा दुइ भउकीआ ॥ खाधा होइ सुआह भी खाणे सिउ दोसती ॥ चउथै आई ऊंघ अखी मीटि पवारि गइआ ॥ भी उठि रचिओनु वादु सै वर्हिआ की पिड़ बधी ॥ सभे वेला वखत सभि जे अठी भउ होइ ॥ नानक साहिबु मनि वसै सचा नावणु होइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबाही = सुबह के समय, अंमृत बेला। इक मनि = एक मन हो के। दूजै = दूसरे पहर (दिन चढ़े)। असगाह = जगत के झमेले (-रूपी) अथाह समुंदर। तीजे = तीसरे पहर। मुहि = मुंह में। गिराह = ग्रास, रोटी। भउकीआ = चमकियां। ऊँघ = ऊँघना, नींद। पवारि = परलोक में (भाव,) गहरी नींद में। (ये आम प्रचलित है कि कई बार किसी मनुष्य के प्राण यम भुलेखे से ले जाते हैं और फिर मोड़ जाते हैं। इतना समय उस मनुष्य को ‘पवारि गिआ’ कहा जाता है)। वादु = झगड़ा। पिड़ = अखाड़ा।1।
अर्थ: जो मनुष्य सुबह ही प्रभु की महिमा करते हैं, एक मन हो के प्रभु को स्मरण करते हैं। समय सिर (भाव, अमृत बेला में) मन से युद्ध करते हैं (भाव, आलस में से निकल के बंदगी का उद्यम करते हैं), वही पूरे शाह हैं।
दिन चढ़े मन की वासनाएं बिखर जाती हैं। मन कई रास्तों से दौड़ता है। मनुष्य दुनिया के धंधों के गहरे समुंदर में पड़ जाता है। यहां ही इतने गोते खाता है (भाव, फंसता है) कि निकल नहीं सकता।
तीसरे पहर भूख और प्यास दोनों चमक पड़ती हैं। रोटी खाने में (जीव) लग जाते हैं। (जब) जो कुछ खया होता है भस्म हो जाता है, तो और खाने की तमन्ना पैदा होती है।
चौथे पहर नींद आ दबोचती है। आँखें बंद करके गहरी नींद के आगोश में सो जाता है। नींद से उठता है फिर वही जगत का झमेला। जैसे, मनुष्य ने (यहां) सैकड़ों साल जीने का कुश्ती मैदान बनाया हुआ है।
(सो, अमृत बेला ही स्मरण करने के लिए जरूरी है, पर) जब (अमृत बेला के अभ्यास से) आठों पहर परमात्मा का डर-अदब (मन में) टिक जाए तो सारे बेला-वक्तों में (मन प्रभु चरणों में जुड़ सकता है)। (इस तरह) हे नानक! (अगर आठों पहर) मालिक मन में बसा रहे, तो सदा टिके रहने वाला (आत्मिक) स्नान प्राप्त होता है।1।

[[0146]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः २ ॥ सेई पूरे साह जिनी पूरा पाइआ ॥ अठी वेपरवाह रहनि इकतै रंगि ॥ दरसनि रूपि अथाह विरले पाईअहि ॥ करमि पूरै पूरा गुरू पूरा जा का बोलु ॥ नानक पूरा जे करे घटै नाही तोलु ॥२॥

मूलम्

मः २ ॥ सेई पूरे साह जिनी पूरा पाइआ ॥ अठी वेपरवाह रहनि इकतै रंगि ॥ दरसनि रूपि अथाह विरले पाईअहि ॥ करमि पूरै पूरा गुरू पूरा जा का बोलु ॥ नानक पूरा जे करे घटै नाही तोलु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अठी = आठों पहर। पाईअहि = मिलते हैं। अथाह दरसनि रूपि = अति गहरे प्रभु के दर्शन व स्वरूप में (जुड़े हुए)। करमि = बख्शिश से।2।
अर्थ: जिस मनुष्यों को पूरा प्रभु मिल जाता है वही पूरे शाह हैं। वे एक परमात्मा के रंग (प्यार) में आठों पहर (दुनिया की ओर से) बे-परवाह रहते हैं (भाव, किसी के मुथाज नहीं होते)। (पर ऐसे लोग) बहुत कम मिलते हैं, जो अथाह प्रभु के दीदार व स्वरूप में (हर वक्त जुड़े रहें)।
पूरे बोल वाला पूर्ण गुरु पूरे भाग्य से, हे नानक! जिस मनुष्य को पूर्ण बना देता है, उसका तोल घटता नहीं (अर्थात, ईश्वर के साथ उसका आठों पहर का संबंध कम नहीं होता)।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस श्लोक के शब्दों को ध्यान से पहले श्लोक के शब्दों में मिला के देखें। स्पष्ट दिखाई देता है कि इस श्लोक के उच्चारण के समय गुरु अंगद साहिब के सामने गुरु नानक देव जी का श्लोक मौजूद था। और यही अकेला श्लोक क्यूँ होगा? गुरु नानक साहिब की सारी ही वाणी उनके पास होगी। सो, गुरु अरजन साहिब जी से पहले ही हरेक गुरु के पास अपने से पहले के गुरु-व्यक्तियों की सारी वाणी गुरियाई के विरसे में चली आ रही थी (देखें पुस्तक ‘गुरबाणी और इतिहास बारे’)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जा तूं ता किआ होरि मै सचु सुणाईऐ ॥ मुठी धंधै चोरि महलु न पाईऐ ॥ एनै चिति कठोरि सेव गवाईऐ ॥ जितु घटि सचु न पाइ सु भंनि घड़ाईऐ ॥ किउ करि पूरै वटि तोलि तुलाईऐ ॥ कोइ न आखै घटि हउमै जाईऐ ॥ लईअनि खरे परखि दरि बीनाईऐ ॥ सउदा इकतु हटि पूरै गुरि पाईऐ ॥१७॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जा तूं ता किआ होरि मै सचु सुणाईऐ ॥ मुठी धंधै चोरि महलु न पाईऐ ॥ एनै चिति कठोरि सेव गवाईऐ ॥ जितु घटि सचु न पाइ सु भंनि घड़ाईऐ ॥ किउ करि पूरै वटि तोलि तुलाईऐ ॥ कोइ न आखै घटि हउमै जाईऐ ॥ लईअनि खरे परखि दरि बीनाईऐ ॥ सउदा इकतु हटि पूरै गुरि पाईऐ ॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किआ होरि = और जीव क्या हैं? मुझे किसी और की अधीनगी नहीं। धंधै चोरि = धंधे रूपी चोर ने। एनै = इस ने। चिति कठोरि = कठोर चित्त के कारण। जितु घटि = जिस शरीर में। भंनि घढ़ाईऐ = टूटता बनता (घढ़ता) रहता है। पूरै वटि = पूरे तोल से। तुलाईऐ = तुल सके, पूरा उतर सके। जाईऐ = अगर चली जाए। लईअनि परखि = परख लिए जाते हैं। दरि बीनाईऐ = बीनाई वाले दर पे, सयाने प्रभु के दर पे।17।
अर्थ: (हे प्रभु!) मैं सत्य कहता हूँ कि जब तू (मेरा रक्षक) है तो मुझे किसी और की अधीनगी नहीं। पर जिस (जीव-स्त्री) को जगत के धंधे रूपी चोर ने मोह लिया है, उससे तेरा दर (महल) नहीं ढूँढा जाता। उसके कठोर चित्त के कारण (अपनी सारी) मेहनत व्यर्थ गवा ली है।
जिस हृदय में सच नहीं बसा, वह हृदय सदैव टूटता बनता रहता है (अर्थात, उसके जनम मरण का चक्र बना रहता है), (जब उसके किए कर्मों का लेखा हो) वह पूरे बाँट के तोल में कैसे पूरा उतरे? हाँ, अगर जीव का अहम् दूर हो जाए, तो कोई इसे (तोले) कम नहीं ठहरा सकता।
खरे जीव सयाने प्रभु के दर पे परख लिए जाते हैं, (ये) सौदा (जिससे प्रभु के दर पे स्वीकार हो सकते हैं) एक ही दुकान से पूरे गुरु से ही प्राप्त होता है।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः २ ॥ अठी पहरी अठ खंड नावा खंडु सरीरु ॥ तिसु विचि नउ निधि नामु एकु भालहि गुणी गहीरु ॥ करमवंती सालाहिआ नानक करि गुरु पीरु ॥ चउथै पहरि सबाह कै सुरतिआ उपजै चाउ ॥ तिना दरीआवा सिउ दोसती मनि मुखि सचा नाउ ॥ ओथै अम्रितु वंडीऐ करमी होइ पसाउ ॥ कंचन काइआ कसीऐ वंनी चड़ै चड़ाउ ॥ जे होवै नदरि सराफ की बहुड़ि न पाई ताउ ॥ सती पहरी सतु भला बहीऐ पड़िआ पासि ॥ ओथै पापु पुंनु बीचारीऐ कूड़ै घटै रासि ॥ ओथै खोटे सटीअहि खरे कीचहि साबासि ॥ बोलणु फादलु नानका दुखु सुखु खसमै पासि ॥१॥

मूलम्

सलोक मः २ ॥ अठी पहरी अठ खंड नावा खंडु सरीरु ॥ तिसु विचि नउ निधि नामु एकु भालहि गुणी गहीरु ॥ करमवंती सालाहिआ नानक करि गुरु पीरु ॥ चउथै पहरि सबाह कै सुरतिआ उपजै चाउ ॥ तिना दरीआवा सिउ दोसती मनि मुखि सचा नाउ ॥ ओथै अम्रितु वंडीऐ करमी होइ पसाउ ॥ कंचन काइआ कसीऐ वंनी चड़ै चड़ाउ ॥ जे होवै नदरि सराफ की बहुड़ि न पाई ताउ ॥ सती पहरी सतु भला बहीऐ पड़िआ पासि ॥ ओथै पापु पुंनु बीचारीऐ कूड़ै घटै रासि ॥ ओथै खोटे सटीअहि खरे कीचहि साबासि ॥ बोलणु फादलु नानका दुखु सुखु खसमै पासि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अठी पहरी = दिन के आठों पहरों में। अठ खण्ड = धरती के आठ हिस्सों के पदार्थों में (भाव, अगर धरती को 9 खण्डों में बाँटने की जगह 1 खंड मानव शरीर को ही समझ लिया जाए, तो बाकी के 8 खंड धरती के सारे पदार्थों में)। गुणी गहीर = गुणों के कारण गहीर प्रभु को, अथाह गुणों वाले प्रभु को। करमवंती = भाग्यशालियों ने। करि = कर के, धार के। सुरतिआ = ध्यान वालों को। मनि = मन में। दरिआवा सिउ = दरियाओं से, उन गुरमुखां से जिनके अंदर नाम का प्रवाह चल रहा है। पसाउ = बख्शिश। कंचन = सोना। कसीऐ = रगड़ लगाई जाती है, परख की जाती है। वंनी चढ़ाउ चढ़ै = बढ़िया रंग चढ़ता है। सतु = ऊँचा आचरण। फादलु = फजूल।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अरबी में अक्षर ‘ज़’ का उच्चारण ‘द’ भी हो सकता है = जैसे, ‘मग़ज़ूब’ और ‘मग़दूब’। सतिगुरु ने भी इस ‘ज़’ को कई जगह ‘द’ करके उचारा है, जैसे ‘काग़ज़’ और ‘काग़द’, ‘काज़ीआ’ और ‘कादीआं’ और इसी तरह ‘फज़ूल’ व ‘फादल’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर (धरती के 9 खण्डों में से) 9वां खण्ड मानव शरीर को मान लिया जाए, तो आठों पहर (मनुष्य के मन धरती के) सारे आठ खण्डी पदार्थों में लगा रहता है। हे नानक! (कोई विरले) भाग्यशाली लोग गुरु पीर धारण करके इस (इस 9वें खण्ड शरीर) में नौ-निधि नाम ढूँढते हैं। अथाह गुणों वाले प्रभु को तलाशते हैं।
सुबह के चौथे पहर (भाव अमृत बेला) ऊँची अक़्ल वाले लोगों के मन में (इस नौ-निधि नाम के लिए) चाव पैदा होता है। (उस वक्त) उनकी सांझ उन गुरमुखों के साथ बनती है (जिनके अंदर नाम का प्रवाह चल रहा है) और उनके मन तथा मुंह में सच्चा नाम बसता है। वहां (सत्संग में) नाम-अमृत बाँटा जाता है। प्रभु की मेहर से उन्हें नाम की दाति मिलती है। (जैसे ताउ, गरमी दे दे के) सोने (को कस लगाई जाती है, वैसे ही अमृत बेला की मेहनत की उनके) शरीर को रगड़ लगाई जाती है तो (भक्ति) का बढ़िया रंग चढ़ता है। जब सर्राफ़ (प्रभु) के मेहर की नज़र होती है, तो फिर तपने (अर्थात, और मेहनत, मुशक्कतों) की जरूरत नहीं रहती।
(आठवां पहर अमृत वेला प्रभु के चरणों में लगा के बाकी के) सात पहर भी भले आचरण (बनाने की आवश्यक्ता है) गुरमुखों के पास बैठना चाहिए। उनकी संगति में (बैठने से) अच्छे-बुरे कामों की विचार होती है। झूठ की पूंजी घटती है। क्योंकि उस संगति में खोटे कामों को फेंक दिया जाता है और खरे कामों की उपमा की जाती है। और, हे नानक! वहां ये भी समझ आ जाती है कि किसी घटित दुख का गिला करना कितना व्यर्थ है, दुख-सुख वह पति परमेश्वर स्वयं ही देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः २ ॥ पउणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु ॥ दिनसु राति दुइ दाई दाइआ खेलै सगल जगतु ॥ चंगिआईआ बुरिआईआ वाचे धरमु हदूरि ॥ करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि ॥ जिनी नामु धिआइआ गए मसकति घालि ॥ नानक ते मुख उजले होर केती छुटी नालि ॥२॥

मूलम्

मः २ ॥ पउणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु ॥ दिनसु राति दुइ दाई दाइआ खेलै सगल जगतु ॥ चंगिआईआ बुरिआईआ वाचे धरमु हदूरि ॥ करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि ॥ जिनी नामु धिआइआ गए मसकति घालि ॥ नानक ते मुख उजले होर केती छुटी नालि ॥२॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये श्लोक ‘जपु जी’ के आखिर में आ चुका है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हदूरि = अपने सामने (भाव, बड़े ध्यान से)।2।
अर्थ: हवा (जीवों का, जैसे) गुरु है (भाव, हवा शरीर के लिए ऐसे है, जैसे गुरु जीवों की आत्मा के लिए है), पानी (सब जीवों का) पिता है, और धरती (सबकी) बड़ी माँ है। दिन और रात खेल खिलाने वाले दाई और दाया है, (इनके साथ) सारा जगत खेल रहा है (भाव, संसार के सारे जीव रात को सोने में और दिन के कार-व्यवहार में खचित हैं)।
धर्मराज बड़े ध्यान से (इनके) किए हुए अच्छे-बुरे काम (नित्य) विचारता है। और, अपने-अपने (इन किये हुए) कर्मों के अनुसार कई जीव अकाल पुरख के नजदीक होते जा रहे हैं, और कई उससे दूर।
हे नानक! जिस मनुष्यों ने अकाल-पुरख का नाम स्मरण किया है, वे अपनी मेहनत सफल कर गए हैं। (प्रभु के दर पे) वे सही स्वीकार हैं। और बहुत सारी दुनिया भी उनकी संगति में रह कर मुक्त हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सचा भोजनु भाउ सतिगुरि दसिआ ॥ सचे ही पतीआइ सचि विगसिआ ॥ सचै कोटि गिरांइ निज घरि वसिआ ॥ सतिगुरि तुठै नाउ प्रेमि रहसिआ ॥ सचै दै दीबाणि कूड़ि न जाईऐ ॥ झूठो झूठु वखाणि सु महलु खुआईऐ ॥ सचै सबदि नीसाणि ठाक न पाईऐ ॥ सचु सुणि बुझि वखाणि महलि बुलाईऐ ॥१८॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सचा भोजनु भाउ सतिगुरि दसिआ ॥ सचे ही पतीआइ सचि विगसिआ ॥ सचै कोटि गिरांइ निज घरि वसिआ ॥ सतिगुरि तुठै नाउ प्रेमि रहसिआ ॥ सचै दै दीबाणि कूड़ि न जाईऐ ॥ झूठो झूठु वखाणि सु महलु खुआईऐ ॥ सचै सबदि नीसाणि ठाक न पाईऐ ॥ सचु सुणि बुझि वखाणि महलि बुलाईऐ ॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि = सत्गुरू ने। पतिआइ = पतीज के, परच के। विगसिआ = खिला हुआ, प्रसन्न हुआ। कोटि = कोट में, किले में। गिरांइ = गाँव में। रहसिआ = खिल पड़ा, खुश हुआ। दीबाणि = दरबार में। कूड़ि = झूठ के द्वारा। खुआईऐ = गवा लेते हैं। ठाक = रोक। भाउ = प्रेम।18।
अर्थ: (जिस भाग्यशाली को) सत्गुरू ने (आत्मा के लिए) प्रभु प्रेम रूपी सच्चा भोजन बताया है, वह मनुष्य सच्चे प्रभु में पतीज जाता है। सच्चे प्रभु में टिक के प्रसन्न रहता है। वह (प्रभु के चरण रूपी) स्वै स्वरूप में बसता है (मानो,) सदा स्थिर रहने वाले किले में गाँव में बसता है। गुरु के खुश होने पर ही प्रभु का नाम मिलता है, और प्रभु के प्रेम में रह के प्रसन्न चिक्त खिले रह सकते हैं।
सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दरबार में झूठ के (सौदे) से नहीं पहुँच सकते, झूठ बोल बोल के प्रभु का निवास-स्थान गवा बैठते हैं।
सच्चे शब्द-रूपी राहदारी से (प्रभु से मिलने की राह में) कोई रोक-टोक नहीं पड़ती। प्रभु का नाम सुन के, समझ के तथा स्मरण करके प्रभु के महल से बुलावा आता है।18।

[[0147]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ पहिरा अगनि हिवै घरु बाधा भोजनु सारु कराई ॥ सगले दूख पाणी करि पीवा धरती हाक चलाई ॥ धरि ताराजी अ्मबरु तोली पिछै टंकु चड़ाई ॥ एवडु वधा मावा नाही सभसै नथि चलाई ॥ एता ताणु होवै मन अंदरि करी भि आखि कराई ॥ जेवडु साहिबु तेवड दाती दे दे करे रजाई ॥ नानक नदरि करे जिसु उपरि सचि नामि वडिआई ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ पहिरा अगनि हिवै घरु बाधा भोजनु सारु कराई ॥ सगले दूख पाणी करि पीवा धरती हाक चलाई ॥ धरि ताराजी अ्मबरु तोली पिछै टंकु चड़ाई ॥ एवडु वधा मावा नाही सभसै नथि चलाई ॥ एता ताणु होवै मन अंदरि करी भि आखि कराई ॥ जेवडु साहिबु तेवड दाती दे दे करे रजाई ॥ नानक नदरि करे जिसु उपरि सचि नामि वडिआई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हिवै = हिम, बर्फ में। बाधा = बाँधू, बाँध लूं, बना लूँ। सारु = लोहा। पाणी = करि = पानी करके, पानी की तरह, (भाव) बड़े आसान ढंग से। हाक = आवाज (भाव, हुक्म)। (शब्द ‘हाक’ का अर्थ ‘हिक के’ करना गलत है, इसके लिए शब्द ‘हाकि’ होना चाहिए, जैसे,‘करि’ का अर्थ हुआ ‘कर के’, ‘नथि’ बना नाथ के’ तथा ‘आखि’ हुआ ‘कह के’)। ताराजी = तराजू। अंबरु = आकाश। टंकु = चार मासे का तोल। मावा = समा सकूँ। रजाई = रजा का मालिक प्रभु। दे दे करे = दातें दे दे के और दातें दे।1।
अर्थ: अगर मैं आग (भी) पहन लूँ, (या) बर्फ में घर बनां लूँ (अर्थात, अगर मेरे मन में इतनी ताकत आ जाए कि मैं आग में और बरफ में बैठ सकूँ) लोहे को भोजन बना लूँ (लोहा खा सकूँ)। अगर मैं सारे ही दुख बड़ी ही आसानी से उठा सकूँ, सारी धरती को अपने हुक्म में चला सकूँ। अगर मैं सारे आसमान को तराजू पे रखके और दूसरे छाबे में चार मासे का बाँट रख के तोल सकूँ। अगर मैं अपने शरीर को इतना बढ़ा सकूँ कि कहीं समा ही न सकूँ। सारे जीवों को नाथ डाल के चलाऊँ (भाव अपने हुक्म में चलाऊँ)। अगर मेरे मन में इतना बल आ जाए कि जो चाहे करूँ व कह के औरों से करवाऊँ (तो भी ये सब कुछ तुच्छ है)। पति प्रभु जितना बड़ा खुद है उतनी ही बड़ी उसकी बख्शिशें हैं। अगर रजा का मालिक सांई और भी बेअंत (ताकतों की) दातें मुझे दे दे, (ता भी ये तुच्छ हैं)।
(असल बात) हे नानक! (ये है कि वह) जिस बंदे पर मेहर की नजर करता है, उसे (अपने) उच्चे नाम के द्वारा मान सम्मान बख्शता है (भाव, इन मानसिक ताकतों से बढ़ करनाम की इनायत है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः २ ॥ आखणु आखि न रजिआ सुनणि न रजे कंन ॥ अखी देखि न रजीआ गुण गाहक इक वंन ॥ भुखिआ भुख न उतरै गली भुख न जाइ ॥ नानक भुखा ता रजै जा गुण कहि गुणी समाइ ॥२॥

मूलम्

मः २ ॥ आखणु आखि न रजिआ सुनणि न रजे कंन ॥ अखी देखि न रजीआ गुण गाहक इक वंन ॥ भुखिआ भुख न उतरै गली भुख न जाइ ॥ नानक भुखा ता रजै जा गुण कहि गुणी समाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आखणु = मुंह। इक वंन = एक रंग के, एक-एक किस्म के। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु में। भुखिआ = भूख की हालत में। गली = बाते करने से (भाव) समझाने से।2।
अर्थ: मुंह बोल बोल के तृप्त नहीं होता (भाव, बातें करने का चस्का खत्म नहीं होता)। कान (बातें) सुनने से नहीं तृप्त होते। आँखें (रंग-रूप) देख-देख के तृप्त नहीं होती। (ये सारी इंद्रयां) एक-एक किस्म के गुणों के गाहक हैं (अपने-अपने रसों की गाहकी में तृप्त नहीं होते। रसों के अधीन हुई इन इंद्रियों का चस्का नहीं हटता)। समझाने से भी भूख मिट नहीं सकती।
हे नानक! तृष्णा का मारा हुआ मनुष्य तभी तृप्त हो सकता है, अगर गुणों के मालिक परमात्मा के गुण उचार के उस में लीन हो जाए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ विणु सचे सभु कूड़ु कूड़ु कमाईऐ ॥ विणु सचे कूड़िआरु बंनि चलाईऐ ॥ विणु सचे तनु छारु छारु रलाईऐ ॥ विणु सचे सभ भुख जि पैझै खाईऐ ॥ विणु सचे दरबारु कूड़ि न पाईऐ ॥ कूड़ै लालचि लगि महलु खुआईऐ ॥ सभु जगु ठगिओ ठगि आईऐ जाईऐ ॥ तन महि त्रिसना अगि सबदि बुझाईऐ ॥१९॥

मूलम्

पउड़ी ॥ विणु सचे सभु कूड़ु कूड़ु कमाईऐ ॥ विणु सचे कूड़िआरु बंनि चलाईऐ ॥ विणु सचे तनु छारु छारु रलाईऐ ॥ विणु सचे सभ भुख जि पैझै खाईऐ ॥ विणु सचे दरबारु कूड़ि न पाईऐ ॥ कूड़ै लालचि लगि महलु खुआईऐ ॥ सभु जगु ठगिओ ठगि आईऐ जाईऐ ॥ तन महि त्रिसना अगि सबदि बुझाईऐ ॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: विणु सचे = सदा स्थिर रहने वाले के बिना, अगर प्रभु को विसार दें, प्रभु को बिसारने से। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी। बंनि = बाँध के, जकड़ के। छारु = मिट्टी, राख। छारु = मिट्टी, राख। छारु रलाईऐ = मिट्टी में मिल जाता है। महलु = प्रभु के रहने की जगह। खुआईऐ = गवा लेता है। ठगि = ठग ने, झूठ रूपी ठग ने। अगि = आग ने।19।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘अगि’ का जोड़ सदा ‘ि’ से खत्म होता है।
नोट: पंजाबी में शब्द ‘छारु’ में सदा ‘ु’ लगती है। अधिकरण आदि कारकों में भी यही रूप रहता है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अगर प्रभु का नाम बिसार दें, तो बाकी सब कुछ झूठ ही कमाते हैं। (इस झूठ में मन इतना खचित हो जाता है कि) नाम से टूटे हुए झूठ के व्यापारी को माया के बंधन जकड़ के भटकाते फिरते हैं। (इसका) यह नकारा शरीर मिट्टी में ही मिल जाता है (भाव, ऐसे ही व्यर्थ चला जाता है), जो कुछ खाता पहनता है वह बल्कि और तृष्णा को बढ़ाता है।
प्रभु का नाम बिसार के झूठ में लगने से प्रभु का दरबार प्राप्त नहीं होता। झूठे लालच में फंस के प्रभु का दर गवा लेते हैं (और इस करके ये जगत) जनम मरण के चक्कर में पड़ा हुआ है। (मनुष्य के) शरीर में ये (जो) तृष्णा की आग है, ये केवल गुरु के शब्द द्वारा ही बुझ सकती है।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोक मः १ ॥ नानक गुरु संतोखु रुखु धरमु फुलु फल गिआनु ॥ रसि रसिआ हरिआ सदा पकै करमि धिआनि ॥ पति के साद खादा लहै दाना कै सिरि दानु ॥१॥

मूलम्

सलोक मः १ ॥ नानक गुरु संतोखु रुखु धरमु फुलु फल गिआनु ॥ रसि रसिआ हरिआ सदा पकै करमि धिआनि ॥ पति के साद खादा लहै दाना कै सिरि दानु ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरु संतोख = संतोष स्वरूप गुरु। रसि = (प्रेम रूप) रस से। रसिआ = पूरन तौर पे भरा हुआ। पकै = पकता है, (ज्ञान फल) पकता है। करमि = (प्रभु की) बख्शिश से। धिआनि = ध्यान से, ध्यान जोड़ने से। खादा = खाने वाला, ज्ञान फल खाने वाला। पति के साद लहै = (प्रभु) पति के (मेल का) आनंद लेते हैं। लहै = लेता है। दाना कै सिरि = दान सब से श्रेष्ठ बख्शिश।1।
अर्थ: हे नानक! (पूर्ण) संतोष (-स्वरूप) गुरु (मानो एक) वृक्ष है (जिसे) धर्म (रूपी) फल (लगता) है और ज्ञान (रूपी) फल लगता है। प्रेम जल से रसा हुआ (ये वृक्ष) सदैव हरा रहता है। (परमात्मा की) बख्शिश से (प्रभु चरणों में) ध्यान जोड़ने से यह (ज्ञान फल) पकता है (भाव, जो मनुष्य प्रभु की मेहर से प्रभु चरणों में मन जोड़ता है उसे पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है)। (इस ज्ञान फल को) खाने वाला मनुष्य प्रभु-मिलन का आनंद पाता है, (मनुष्य के लिए प्रभु दर से) ये सबसे बड़ी बख्शिश है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ सुइने का बिरखु पत परवाला फुल जवेहर लाल ॥ तितु फल रतन लगहि मुखि भाखित हिरदै रिदै निहालु ॥ नानक करमु होवै मुखि मसतकि लिखिआ होवै लेखु ॥ अठिसठि तीरथ गुर की चरणी पूजै सदा विसेखु ॥ हंसु हेतु लोभु कोपु चारे नदीआ अगि ॥ पवहि दझहि नानका तरीऐ करमी लगि ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ सुइने का बिरखु पत परवाला फुल जवेहर लाल ॥ तितु फल रतन लगहि मुखि भाखित हिरदै रिदै निहालु ॥ नानक करमु होवै मुखि मसतकि लिखिआ होवै लेखु ॥ अठिसठि तीरथ गुर की चरणी पूजै सदा विसेखु ॥ हंसु हेतु लोभु कोपु चारे नदीआ अगि ॥ पवहि दझहि नानका तरीऐ करमी लगि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिरखु = वृक्ष। पत = पत्र, पत्ते। परवाला = मूंगा (गुरु के वचन)। तितु = उस (गुरु रूपी) वृक्ष को। मुखि भाखित = मुंह से उचारे हुए वचन। निहालु = प्रसन्न। करमु = बख्शिश। मुखि = मुंह पे। अठसठि = अढ़सठ। विसेख = विशेष, बढ़िया। हंसु = र्निदयता। हेतु = मोह। कोप = गुस्सा। दझहि = जलते हैं। करमी = बख्शिश द्वारा। लगि = (चरणों से) लग के।2।
अर्थ: (गुरु मानो) सोने का वृक्ष है, मोंगा (श्रेष्ठ वचन) उसके पत्ते हैं। उस (गुरु) वृक्ष को, मुंह से उचारे हुए (श्रेष्ठ वचन रूपी) फल लगते हैं। (गुरु) अपने हृदय में सदा खिला रहता है। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु की मेहर हो, जिसके मुंह माथे पे भाग्य हों, वह गुरु के चरणों में लग के (गुरु के चरणों को) अढ़सठ तीर्थों से भी विशेष जान के (गुरु चरणों को) पूजता है। र्निदयता, मोह, लोभ और क्रोध - ये चारों आग की नदियां (जगत में चल रही) हैं। जो जो मनुष्य इन नदियों में घुसते हैं जल जाते हैं। हे नानक! प्रभु की मेहर से (गुरु के चरण) लग के (इन नदियों से) पार लांघना होता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ जीवदिआ मरु मारि न पछोताईऐ ॥ झूठा इहु संसारु किनि समझाईऐ ॥ सचि न धरे पिआरु धंधै धाईऐ ॥ कालु बुरा खै कालु सिरि दुनीआईऐ ॥ हुकमी सिरि जंदारु मारे दाईऐ ॥ आपे देइ पिआरु मंनि वसाईऐ ॥ मुहतु न चसा विलमु भरीऐ पाईऐ ॥ गुर परसादी बुझि सचि समाईऐ ॥२०॥

मूलम्

पउड़ी ॥ जीवदिआ मरु मारि न पछोताईऐ ॥ झूठा इहु संसारु किनि समझाईऐ ॥ सचि न धरे पिआरु धंधै धाईऐ ॥ कालु बुरा खै कालु सिरि दुनीआईऐ ॥ हुकमी सिरि जंदारु मारे दाईऐ ॥ आपे देइ पिआरु मंनि वसाईऐ ॥ मुहतु न चसा विलमु भरीऐ पाईऐ ॥ गुर परसादी बुझि सचि समाईऐ ॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मारि = मार के, (तृष्णा को) मार के।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: इसी तृष्णा का जिक्र पउड़ी नं: 18 और 19 में है)।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किनि = किस ने? किसी विरले ने। धाईऐ = भागता है, भटकता है। बुरा = खराब। खै = क्षै, नाश करने वाला। जंदारु = (फारसी: जंदाल, गवार, अवैड़ा। ये शब्द आम तौर पर शब्द ‘जम’ के साथ बरता जाने करके अकेला भी ‘जम’ के अर्थों में इस्तेमाल होता है) जम, यम। दाईऐ = दांव लगा के। मंनि = मन में। मुहतु = महूरत, पल मात्र। चसा = निमख मात्र। विलंमु = ढील। भरीऐ पाईऐ = जब पाई भर जाती है। पाई = चार टोपे का नाप, (भाव) जीव को मिले हुए सारे श्वासों का अंदाजा।20।
अर्थ: (हे बंदे) (इस तृष्णा को) मार के जीवित ही मर (ता कि अंत को) पछताना ना पड़े। किसी बिरले को समझ आई है, कि ये संसार झूठा है, (आम तौर पर जीव तृष्णा के अधीन हो के) जगत के धंघे में भटकता फिरता है और सत्य के साथ प्यार नहीं डालता, (ये बात याद नहीं रखता कि) बुरा काल, नाश करने वाला काल दुनिया के सिर पे (हर वक्त खड़ा) है। ये जम प्रभु के हुक्म में (हरेक के) सिर पे (मौजूद) है और दाव लगा के मारता है।
(जीव के भी क्या बस?) प्रभु खुद ही अपना प्यार बख्शता है (और जीव के) मन में (अपना आप) बसाता है। जब श्वास पूरे हो जाते हैं, पलक मात्र भी यहां ढील नहीं दी जा सकती। (ये बात) सत्गुरू की मेहर से (कोई विरला ही) समझ के सत्य से जुड़ता है।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ तुमी तुमा विसु अकु धतूरा निमु फलु ॥ मनि मुखि वसहि तिसु जिसु तूं चिति न आवही ॥ नानक कहीऐ किसु हंढनि करमा बाहरे ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ तुमी तुमा विसु अकु धतूरा निमु फलु ॥ मनि मुखि वसहि तिसु जिसु तूं चिति न आवही ॥ नानक कहीऐ किसु हंढनि करमा बाहरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसु = उस मनुष्य के। चिति = चिक्त। हंडनि = भटकते हैं। करमा बाहरे = कर्मों से हीन।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) जिस मनुष्य के चिक्त में तू नहीं बसता, उसके मन में और मुंह में तुमी तुंमा, जहिर, आक, धतूरा तथा नीम रूप फल बस रहे हैं (भाव, उसके मन में भी कड़वाहट है और मुंह से भी कड़वे वचन बोलता है)।
हे नानक! ऐसे बदनसीब लोग भटकते फिरते हैं, (प्रभु के बिना और) किस के आगे (इनकी व्यथा) बताएं? (भाव, प्रभु खुद ही इनका यह रोग दूर करने वाला है)।1।

[[0148]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ मति पंखेरू किरतु साथि कब उतम कब नीच ॥ कब चंदनि कब अकि डालि कब उची परीति ॥ नानक हुकमि चलाईऐ साहिब लगी रीति ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ मति पंखेरू किरतु साथि कब उतम कब नीच ॥ कब चंदनि कब अकि डालि कब उची परीति ॥ नानक हुकमि चलाईऐ साहिब लगी रीति ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पंखेरू = पंछी। किरतु = किया हुआ काम (भाव, किए हुए कामों के संस्कारों का एकत्र, पिछले किए कामों के कारण बना स्वभाव)।2।
अर्थ: (मनुष्य की) मति (मानो एक) पंछी है। उसके पिछले किए कामों के कारण बना हुआ स्वभावउसके साथ (साथी) है। (इस स्वभाव के संग करक ‘मति’) कभी ठीक है कभी गलत। कभी (ये मति रूपी पंछी) चंदन (के पौधे) पे (बैठता है) कभी धतूरे की डाली पे। कभी (इसके अंदर) ऊँची (प्रभु चरणों की) प्रीति है।
(पर किसी के बस की बात नहीं) मालिक की (धुर से) रीत चली आ रही है, कि वह (सब जीवों को अपने) हुक्म में चला रहा है (भाव, उसके हुक्म अनुसार ही कोई अच्छी तो बुरी मति वाला है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ केते कहहि वखाण कहि कहि जावणा ॥ वेद कहहि वखिआण अंतु न पावणा ॥ पड़िऐ नाही भेदु बुझिऐ पावणा ॥ खटु दरसन कै भेखि किसै सचि समावणा ॥ सचा पुरखु अलखु सबदि सुहावणा ॥ मंने नाउ बिसंख दरगह पावणा ॥ खालक कउ आदेसु ढाढी गावणा ॥ नानक जुगु जुगु एकु मंनि वसावणा ॥२१॥

मूलम्

पउड़ी ॥ केते कहहि वखाण कहि कहि जावणा ॥ वेद कहहि वखिआण अंतु न पावणा ॥ पड़िऐ नाही भेदु बुझिऐ पावणा ॥ खटु दरसन कै भेखि किसै सचि समावणा ॥ सचा पुरखु अलखु सबदि सुहावणा ॥ मंने नाउ बिसंख दरगह पावणा ॥ खालक कउ आदेसु ढाढी गावणा ॥ नानक जुगु जुगु एकु मंनि वसावणा ॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केते = बेअंत जीव। वखाण कहहि = बयान करते हैं। पढ़िऐ = पढ़ने से। बुझिऐ = मति ऊँची होने से। खटु दरसन = छह भेख (जोगी, जंगम, सन्यासी, बोधी, सरेवड़े, बैरागी)। भेखि = बाहर के धार्मिक लिबास से। किसै = किस ने? (भाव, किसी ने नहीं)। अलखु = (संस्कृत: अलख्य), अदृश्य, जिस के कोई खास निशान ना दिखें। बिखंम = असंख का, बेअंत हरि का। आदेसु = नमस्कार। जुगु जुगु = हरेक युग में मौजूद।21।
अर्थ: बेअंत जीव (परमात्मा के गुणों का) बयान करते आए हैं और बयान करके (जगत से) चले गए हैं। वेद (आदि धर्म पुस्तकें भी उसके गुण) बताते आए हैं, (पर) किसी ने भी उसके गुणों का अंत नहीं पाया। (पुस्तकें) पढ़ने से (भी) उसका भेद नहीं पता चलता। मति ऊँची होने से ही ये राज समझ में आता है (कि वह बेअंत है)। छह भेस वाले साधुओं के बाहरी लिबास से भी कोई सत्य के साथ नहीं जुड़ सका।
वह सदा स्थिर रहने वाला अकाल-पुरख है तो अदृश्य, (पर गुरु) शब्द के द्वारासुंदर लगता है। जो मनुष्य बेअंत प्रभु के ‘नाम’ को मानता है (भाव, जो नाम में जुड़ता है), वह उसकी हजूरी में पहुँचता है। वह अकाल पुरख को सिर झुकाता है। ढाढी बन के उसके गुण गाता है, और, हे नानक! हरेक युग में मौजूद रहने वाले एक प्रभु को अपने मन में बसाता है।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु महला २ ॥ मंत्री होइ अठूहिआ नागी लगै जाइ ॥ आपण हथी आपणै दे कूचा आपे लाइ ॥ हुकमु पइआ धुरि खसम का अती हू धका खाइ ॥ गुरमुख सिउ मनमुखु अड़ै डुबै हकि निआइ ॥ दुहा सिरिआ आपे खसमु वेखै करि विउपाइ ॥ नानक एवै जाणीऐ सभ किछु तिसहि रजाइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु महला २ ॥ मंत्री होइ अठूहिआ नागी लगै जाइ ॥ आपण हथी आपणै दे कूचा आपे लाइ ॥ हुकमु पइआ धुरि खसम का अती हू धका खाइ ॥ गुरमुख सिउ मनमुखु अड़ै डुबै हकि निआइ ॥ दुहा सिरिआ आपे खसमु वेखै करि विउपाइ ॥ नानक एवै जाणीऐ सभ किछु तिसहि रजाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंत्री = मांदरी (बिच्छू के डंक से इलाज करने वाला)। अठूहिआ = बिच्छुओं का। नागी = नागों से। कूचा = लांबू, आग की चिंगारी लगाना। धुरि = धुर से। अती हू = अति करने के कारण। अड़ै = अड़ता है। हकि निआइ = सच्चे न्याय के कारण। विउपाइ = निर्णय।1।
अर्थ: बिच्छुओं का मांदरी हो के (जो मनुष्य) सापों कोजा के हाथ डालता है, वह अपने आप को अपने ही हाथों से (जैसे) लांबू लगाता है। धुर से मालिक का हुक्म ही ऐसे होता है कि इस अति के कारण (भाव, अति के मूर्खपने के कारण) उसे धक्का लगता है। मनमुख मनुष्य गुरमुख से खहिबाजी करता है (कर्तार के) सच्चे न्याय अनुसार वह (संसार समुंदर में) डूबता है (भाव, विकारों की लहरों में उसकी जिंदगी के बेड़ी ग़रक हो जाती है)।
पर (किसी को दोष नहीं दिया जा सकता, क्या गुरमुख और क्या मनमुख) दोनों तरफ पति प्रभु खुद (सिर पे खड़ा हुआ) है, खुद ही निर्णय करके देख रहा है। हे नानक! (असल बात) ऐसे ही समझनी चाहिए कि हरेक काम उसकी रजा में हो रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला २ ॥ नानक परखे आप कउ ता पारखु जाणु ॥ रोगु दारू दोवै बुझै ता वैदु सुजाणु ॥ वाट न करई मामला जाणै मिहमाणु ॥ मूलु जाणि गला करे हाणि लाए हाणु ॥ लबि न चलई सचि रहै सो विसटु परवाणु ॥ सरु संधे आगास कउ किउ पहुचै बाणु ॥ अगै ओहु अगमु है वाहेदड़ु जाणु ॥२॥

मूलम्

महला २ ॥ नानक परखे आप कउ ता पारखु जाणु ॥ रोगु दारू दोवै बुझै ता वैदु सुजाणु ॥ वाट न करई मामला जाणै मिहमाणु ॥ मूलु जाणि गला करे हाणि लाए हाणु ॥ लबि न चलई सचि रहै सो विसटु परवाणु ॥ सरु संधे आगास कउ किउ पहुचै बाणु ॥ अगै ओहु अगमु है वाहेदड़ु जाणु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुजाणु = सियाना। मामला = झमेला। वाट = राह में। मूलु = असल। लबि = लालच से। विसटु = विचोला। परवाणु = जाना माना। सरु = तीर। संधै = चलाए। बाणु = तीर। अगंमु = जिस तक पहुँचा ना जा सके। वाहेदड़ु = तीर वाहने वाला। हाणु = उम्र, जिंदगी का समय। हाणि = हम उम्र, अपने स्वभाव वाले, सतसंगी।2।
अर्थ: हे नानक! (दूसरों की पड़ताल करने की जगह) अगर मनुष्य अपने आप को परखे, तो उसे (असल) पारखू समझो। (दूसरों के विकार रूपी रोग ढूँढने के बजाए) अगर मनुष्य अपना (आत्मिक) रोग और रोग का इलाज दोनों समझ ले तो उसे अकलमंद हकीम जान लो। (ऐसा ‘सुजान वैद्य’) (जिंदगी के) राह में (औरों के साथ) झगड़े नहीं डाल बैठता, वह (अपने आप को जगत में) मुसाफिर समझता है। (अपने) असल (प्रभु) के साथ गहरी सांझ डाल के, जो भी बात करता है अपना समय सत्संगियों के साथ (मिल के) गुजारता है। वह मनुष्य लालच के आसरे नही चलता, सच में टिका रहता है (ऐसा मनुष्य खुद तो तैरता ही है औरों के लिए भी) प्रमाणिक बिचोलिया बन जाता है।
(पर, अगर खुद हो मनमुख, और झगड़े गुरमुखों से, वह ऐसे ही है जैसे आकाश में तीर मारता है) जो मनुष्य आकाश की ओर तीर मारता है, (उसका) तीर कैसे (निशाने पे) पहुँचे? वह आकाश तो आगे से अगम्य (पहुँच से परे) है, सो, (यकीन) जानों कि तीर चलाने वाला ही (खुद ही भेदा जाता है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ नारी पुरख पिआरु प्रेमि सीगारीआ ॥ करनि भगति दिनु राति न रहनी वारीआ ॥ महला मंझि निवासु सबदि सवारीआ ॥ सचु कहनि अरदासि से वेचारीआ ॥ सोहनि खसमै पासि हुकमि सिधारीआ ॥ सखी कहनि अरदासि मनहु पिआरीआ ॥ बिनु नावै ध्रिगु वासु फिटु सु जीविआ ॥ सबदि सवारीआसु अम्रितु पीविआ ॥२२॥

मूलम्

पउड़ी ॥ नारी पुरख पिआरु प्रेमि सीगारीआ ॥ करनि भगति दिनु राति न रहनी वारीआ ॥ महला मंझि निवासु सबदि सवारीआ ॥ सचु कहनि अरदासि से वेचारीआ ॥ सोहनि खसमै पासि हुकमि सिधारीआ ॥ सखी कहनि अरदासि मनहु पिआरीआ ॥ बिनु नावै ध्रिगु वासु फिटु सु जीविआ ॥ सबदि सवारीआसु अम्रितु पीविआ ॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नारी = जीव-स्त्री। प्रेम = (प्रभु) प्यार (रूपी गहनों) से। सीगारीआ = सजी हुई। वारीआ = वरजी हुई, मना की हुई। सिधारीआ = पहुँची हुई। सखी = सहेलियां, सेविकाएं। मनहु = दिल से, सच्चे दिल से। ध्रिगु = धिक्कार, धिक्कारयोग्य। सवारीआसु = जो उसने सवारी है, जो उस ने सुधारी है।22।
अर्थ: जिस जीव स्त्रीयों को प्रभु पति से प्यार है, वह इस प्यार (रूपी गहने से) सजी हुई हैं। वह दिन रात (प्रभु पति की) भक्ति करती हैं। मना करने से (भी भक्ति से) हटती नहीं। सत्गुरू के शब्द की इनायत से सुधरी हुई वे (मानो) महलों में बसती हैं। वह विचारवान (हो जाने के कारण) सदा स्थिर रहने वाली अरदास करती हैं (भाव, दुनिया के नाशवान पदार्थ नहीं मांगती, सदा कायम रहने वाला ‘प्यार’ ही मांगती हैं), (पति प्रभु के) हुक्म मुताबिक (पति प्रभु तक) पहुँची हुई वे पति प्रभु के पास (बैठी) शोभती हैं। प्रभु को दिल से प्यार करती हैं और सखी भाव के साथ उसके आगे अरदास करती हैं।
(पर) वह जीना धिक्कारयोग्य है, उस बसेरे को लाहनत है जो नाम से विहीन है। जिस जीव-स्त्री को (अकाल पुरख) ने गुरु-शब्द के द्वारा सुधारा है उसने (नाम-) अमृत पिया है।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ मारू मीहि न त्रिपतिआ अगी लहै न भुख ॥ राजा राजि न त्रिपतिआ साइर भरे किसुक ॥ नानक सचे नाम की केती पुछा पुछ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ मारू मीहि न त्रिपतिआ अगी लहै न भुख ॥ राजा राजि न त्रिपतिआ साइर भरे किसुक ॥ नानक सचे नाम की केती पुछा पुछ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मीहि = बरसात से। मारू = मरुस्थल। राजि = राज से। साइर भरे = भरे हुए समुंदर को। कि = क्या? सुक = पानी का सूखना। केती पुछा पुछ = अंत पाया नही जा सकता, कितनी कि तमन्ना होती है, ये बात बताई नहीं जा सकती।1।

दर्पण-टिप्पनी

(नोट: मारुस्थल के सूखा रहने का स्वभाव बरसात से नहीं हटता। लकड़ियां आग के जलाने के स्वभाव को मिटा नहीं सकती। भरे समुंदर की अगाधता को सूखा खत्म नहीं कर सकता। इसी तरह नाम रस वालों की नाम की भूख का कभी खात्मा नहीं होता)।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मरुस्थलबरसात से (कभी) तृप्त नहीं होता। आग की (जलाने की) भूख (कभी ईधन से) नहीं मिटती। (कोई) राजा कभी राज (करने) से नहीं अघाया। भरे समुंदर को सूखा क्या कह सकता है? (भाव, कितनी ही तपष क्यूँ ना पड़े भरे समुंद्रों के गहरे पानियों को सूखा नहीं मिटा सकता)। (वैसे ही) हे नानक! (नाम जपने वालों के अंदर) सच्चे नाम की कितनी कि चाहत होती है, ये बात कही नहीं जा सकती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महला २ ॥ निहफलं तसि जनमसि जावतु ब्रहम न बिंदते ॥ सागरं संसारसि गुर परसादी तरहि के ॥ करण कारण समरथु है कहु नानक बीचारि ॥ कारणु करते वसि है जिनि कल रखी धारि ॥२॥

मूलम्

महला २ ॥ निहफलं तसि जनमसि जावतु ब्रहम न बिंदते ॥ सागरं संसारसि गुर परसादी तरहि के ॥ करण कारण समरथु है कहु नानक बीचारि ॥ कारणु करते वसि है जिनि कल रखी धारि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तसि = (संस्कृत: तस्य) उस (मनुष्य) का। जनमसि = (संस्कृत: जनम+अस्ति) जनम है। जावतु = (सं: यावत) जब तक। बिंदते = जानता है। संसारसि = (सं: संसारस्य) संसार का। तरहि = तैरते हैं। के = कई जीव। करण = जगत। कल = कला, सत्ता।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘के’ का अर्थ ‘कोई विरला’ करना गलत है। क्योंकि इसके साथ की क्रिया ‘तरहि’ बहुवचन है। ‘जपु जी’ के आखिर में ‘के नेड़े के दूरि’; यहां ‘के’ अर्थ है ‘कई’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जब तक (मनुष्य) अकाल-पुरख को नहीं पहचानता तब तक उसका जनम व्यर्थ है। पर, गुरु की कृपा से जो लोग (नाम में जुड़ते हैं वह) संसार के समुंदर से तैर जाते हैं।
हे नानक! जो प्रभु जगत का मूल सब कुछ करने योग्य है, जिस ईश्वर के वश में जगत का सृजन है, जिस ने (सारे जगत में) अपनी सत्ता टिकाई हुई है, उसका ध्यान धर।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ खसमै कै दरबारि ढाढी वसिआ ॥ सचा खसमु कलाणि कमलु विगसिआ ॥ खसमहु पूरा पाइ मनहु रहसिआ ॥ दुसमन कढे मारि सजण सरसिआ ॥ सचा सतिगुरु सेवनि सचा मारगु दसिआ ॥ सचा सबदु बीचारि कालु विधउसिआ ॥ ढाढी कथे अकथु सबदि सवारिआ ॥ नानक गुण गहि रासि हरि जीउ मिले पिआरिआ ॥२३॥

मूलम्

पउड़ी ॥ खसमै कै दरबारि ढाढी वसिआ ॥ सचा खसमु कलाणि कमलु विगसिआ ॥ खसमहु पूरा पाइ मनहु रहसिआ ॥ दुसमन कढे मारि सजण सरसिआ ॥ सचा सतिगुरु सेवनि सचा मारगु दसिआ ॥ सचा सबदु बीचारि कालु विधउसिआ ॥ ढाढी कथे अकथु सबदि सवारिआ ॥ नानक गुण गहि रासि हरि जीउ मिले पिआरिआ ॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ढाढी = कीर्ति करने वाला। कलाणि = महिमा करके। विगसिआ = खिल पड़ा। पूरा = पूरा दर्जा, पूर्ण गौरव। रहसिआ = खिल आया। दुसमन = कामादिक विकार, वैरी। सजण = नाम में लगी ज्ञान इंद्रियां। सेवनि = सेवा करते हैं, हुक्म में चलते हैं। मारगु = रास्ता। विधउसिआ = (विध्वंश) नाश किया। गुण रासि = गुणों की पूँजीं। गहि = ग्रहण करके, ले के।23।
अर्थ: जो मनुष्य प्रभु की महिमा करता है वह (सदा) मालिक की हजूरी में बसता है। सदा कायम रहने वाले पति की प्रशंसा करके उसका हृदय रूपी कमल खिला जाता है। मालिक से पूरा गौरव (भाव, पूर्ण अवस्था) हासिल करके वह अंदर से उल्लास में आता है (क्योंकि, कामादिक विकार) वैरियों को वह (अंदर से) मार के निकाल देता है (तो फिर नाम में लगे उसके ज्ञानेंद्रिय रूप) मित्र प्रसन्न हो जाते हैं। ये (ज्ञानेंद्रियां) गुरु की रजा में चलने लग जाती हैं। सत्गुरू इन्हें (अब जीवन का) सच्चा राह दिखता है।
महिमा करने वाला मनुष्य सच्चा गुरु शब्द विचार के (आत्मिक) मौत (का डर) दूर कर लेता है। गुरु शब्द की इनायत से सुधरा हुआ ढाढी अकथ प्रभु के गुण गाता है। (इस तरह) हे नानक! प्रभु के गुणों की पूंजी एकत्र करके प्यारे प्रभु के साथ मिल जाता है।23।

[[0149]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ खतिअहु जमे खते करनि त खतिआ विचि पाहि ॥ धोते मूलि न उतरहि जे सउ धोवण पाहि ॥ नानक बखसे बखसीअहि नाहि त पाही पाहि ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ खतिअहु जमे खते करनि त खतिआ विचि पाहि ॥ धोते मूलि न उतरहि जे सउ धोवण पाहि ॥ नानक बखसे बखसीअहि नाहि त पाही पाहि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खतिअहु = खता से, पाप से। करनि = (संधि विच्छेद ‘कर+नित्य’ गलत है) करते हैं। मूलि = बिल्कुल ही। पाही = (सं: उपानह्) जूतियां। खते = पाप।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘करनि’ क्रिया है, ‘वर्तमान, अंनपुरख, बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पापों के कारण (जो जीव) पैदा होते हैं, (यहां भी) पाप करते हैं और (आगे भी इनके किए पापों के संस्कारों करके) पापों में ही प्रवृर्ति होते हैं। ये पाप धोने से बिल्कुल नहीं उतरते, चाहे सौ धोने धोएं (चाहे सौ बार धोने का यत्न करें)। हे नानक! यदि प्रभु मेहर करे (तो ये पाप) बख्शे जाते हैं, नहीं तो जूतियां ही पड़ती हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ नानक बोलणु झखणा दुख छडि मंगीअहि सुख ॥ सुखु दुखु दुइ दरि कपड़े पहिरहि जाइ मनुख ॥ जिथै बोलणि हारीऐ तिथै चंगी चुप ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ नानक बोलणु झखणा दुख छडि मंगीअहि सुख ॥ सुखु दुखु दुइ दरि कपड़े पहिरहि जाइ मनुख ॥ जिथै बोलणि हारीऐ तिथै चंगी चुप ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झखणा = व्यर्थ का बोलना, सिर खपायी। मंगीअहि = मांगे जाते हैं। दरि = प्रभु के दर से। पहिरहि = पहनते हैं। जाइ = जन्म ले के। बोलणि = बोलने से, (दुखों से) गिला करने से। हारीऐ = हार ही माननी पड़ती है।2।
अर्थ: हे नानक! (ये जो) दुख छोड़ के सुख मांगते हैं, ऐसा बोलना सिर खपाई ही है। सुख और दुख दोनों प्रभु के दर से कपड़े मिले हुए हैं, जो मनुष्य जन्म ले कर यहाँ पहनते हैं (भाव, दुख और सुख के चक्र हरेक पर आते ही रहते हैं); सो जिसके सामने एतराज गिला करने से (अंत को) हार ही माननी पड़ती है वहाँ चुप रहना ही ठीक है (भाव रजा में चलना सबसे अच्छा है)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ चारे कुंडा देखि अंदरु भालिआ ॥ सचै पुरखि अलखि सिरजि निहालिआ ॥ उझड़ि भुले राह गुरि वेखालिआ ॥ सतिगुर सचे वाहु सचु समालिआ ॥ पाइआ रतनु घराहु दीवा बालिआ ॥ सचै सबदि सलाहि सुखीए सच वालिआ ॥ निडरिआ डरु लगि गरबि सि गालिआ ॥ नावहु भुला जगु फिरै बेतालिआ ॥२४॥

मूलम्

पउड़ी ॥ चारे कुंडा देखि अंदरु भालिआ ॥ सचै पुरखि अलखि सिरजि निहालिआ ॥ उझड़ि भुले राह गुरि वेखालिआ ॥ सतिगुर सचे वाहु सचु समालिआ ॥ पाइआ रतनु घराहु दीवा बालिआ ॥ सचै सबदि सलाहि सुखीए सच वालिआ ॥ निडरिआ डरु लगि गरबि सि गालिआ ॥ नावहु भुला जगु फिरै बेतालिआ ॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंदरु = अंदरला मन। अलखि = अलख ने, अदृश्य ने, प्रभु ने। सिरजि = (जगत) पैदा करके। उझड़ि = कुमार्ग में। गुरि = गुरु ने। वाहु = शाबाश। सतिगुर वाहु = गुरु को शाबाश। घराहु = घर से ही। गरबि = अहंकार में।24।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘अंदरु’ व्याकरण के अनुसार संज्ञा है, पर शब्द ‘अंदरि’ संबंधक है; जैसे खुंढा अंदरि रखि कै। दोनों शब्दों का जोड़ ध्यान देने योग्य है।
नोट: शब्द ‘भालिआ’, ‘निहालिआ’ आदि भूतकाल में है, इनका अर्थ ‘वर्तमान’ में करना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य चारों तरफ देख के (भाव, बाहर की चारों तरफ की भटकना छोड़ के) अपना अंदर का ढूँढता है (उसे दिख जाता है कि) सच्चे अलख अकाल पुरख ने (जगत) पैदा करके स्वयं ही उसकी संभाल की है (भाव, संभाल कर रहा है)।
गलत रास्ते पर भटक रहे मनुष्य को गुरु ने रास्ता दिखाया है (राह गुरु दिखाता है), सच्चे सत्गुरू को शाबाश है (जिसकी इनायत से) सच्चे प्रभु को स्मरण करते हैं। (जिस मनुष्य के अंदर सत्गुरू ने ज्ञान का) दीपक जगा दिया है उसे अपने अंदर से ही (नाम) रत्न मिल गया है। (गुरु की शरण आ के) सच्चे शब्द के द्वारा प्रभु की महिमा करके (मनुष्य) सुखी हो जाते हैं, खसम वाले हो जाते हैं।
(पर) जिन्होंने प्रभु का भय नहीं रखा, उन्हें (और) डर सताते हैं। वे अहंकार में गलते हैं। प्रभु के नाम से भूला हुआ जगत बेताला हुआ फिरता है।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः ३ ॥ भै विचि जमै भै मरै भी भउ मन महि होइ ॥ नानक भै विचि जे मरै सहिला आइआ सोइ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः ३ ॥ भै विचि जमै भै मरै भी भउ मन महि होइ ॥ नानक भै विचि जे मरै सहिला आइआ सोइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै विचि = सहम में। भउ = सहम। भै विचि = प्रभु के डर में। सहिला = सफला, सरल। मरै = अपनत्व गवाता है।1।
अर्थ: जगत सहम में पैदा होता है, सहम में मरता है। सदा ही सहम इसमें टिका रहता है। (पर) हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के डर में स्वैभाव मारता है उसका पैदा होना मुबारक है (जगत की ममता मनुष्य के अंदर सहम पैदा करती है। जब ये अपनत्व व ममता खत्म हो जाए तो किसी चीज के छीने जाने का डर सहम नहीं रहता)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः ३ ॥ भै विणु जीवै बहुतु बहुतु खुसीआ खुसी कमाइ ॥ नानक भै विणु जे मरै मुहि कालै उठि जाइ ॥२॥

मूलम्

मः ३ ॥ भै विणु जीवै बहुतु बहुतु खुसीआ खुसी कमाइ ॥ नानक भै विणु जे मरै मुहि कालै उठि जाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुहि कालै = काले मुंह से, (भाव,) बदनामी कमा के।2।
अर्थ: परमात्मा का डर हृदय में बसाए बिना मनुष्य लंबी उम्र भी जीता रहे और बड़ी मौजें करता रहे, तो भी, हे नानक! अगर प्रभु का डर हृदय में बसाए बिना ही मरता है, तो मुंह पे कालिख़ कमा के ही जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ सतिगुरु होइ दइआलु त सरधा पूरीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु न कबहूं झूरीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता दुखु न जाणीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता हरि रंगु माणीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता जम का डरु केहा ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता सद ही सुखु देहा ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता नव निधि पाईऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु त सचि समाईऐ ॥२५॥

मूलम्

पउड़ी ॥ सतिगुरु होइ दइआलु त सरधा पूरीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु न कबहूं झूरीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता दुखु न जाणीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता हरि रंगु माणीऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता जम का डरु केहा ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता सद ही सुखु देहा ॥ सतिगुरु होइ दइआलु ता नव निधि पाईऐ ॥ सतिगुरु होइ दइआलु त सचि समाईऐ ॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरधा = श्रद्धा, भरोसा, सिदक। दइआलु = मिहरवान, कृपालु। पूरीऐ = पूरा, पक्का।25।
अर्थ: जिस मनुष्य के ऊपर सत्गुरू कृपा करे (उसके अंदर परमात्मा पर) पक्का भरोसा बंध जाता है, वह (किसी दुख-कष्ट के आने पे) कभी गिला शिकवा नहीं करता (क्योंकि) वह (किसी आए दुख को) दुख नहीं समझता, सदा प्रभु के मेल का आनंद लेता है। (दुख-कष्ट तो कहीं रहा) उसे यम का डर भी नहीं रहता (इस तरह) उसके शरीर को सदा सुख रहता है। जिस पे गुरु दयावान हो जाए उसे (मानो) जगत में नौ खजाने मिल गए हैं। (क्योंकि) वह तो (खजानों के मालिक) सच्चे प्रभु में जुड़ा रहता है।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः १ ॥ सिरु खोहाइ पीअहि मलवाणी जूठा मंगि मंगि खाही ॥ फोलि फदीहति मुहि लैनि भड़ासा पाणी देखि सगाही ॥ भेडा वागी सिरु खोहाइनि भरीअनि हथ सुआही ॥ माऊ पीऊ किरतु गवाइनि टबर रोवनि धाही ॥ ओना पिंडु न पतलि किरिआ न दीवा मुए किथाऊ पाही ॥ अठसठि तीरथ देनि न ढोई ब्रहमण अंनु न खाही ॥ सदा कुचील रहहि दिनु राती मथै टिके नाही ॥ झुंडी पाइ बहनि निति मरणै दड़ि दीबाणि न जाही ॥ लकी कासे हथी फुमण अगो पिछी जाही ॥ ना ओइ जोगी ना ओइ जंगम ना ओइ काजी मुंला ॥ दयि विगोए फिरहि विगुते फिटा वतै गला ॥ जीआ मारि जीवाले सोई अवरु न कोई रखै ॥ दानहु तै इसनानहु वंजे भसु पई सिरि खुथै ॥ पाणी विचहु रतन उपंने मेरु कीआ माधाणी ॥ अठसठि तीरथ देवी थापे पुरबी लगै बाणी ॥ नाइ निवाजा नातै पूजा नावनि सदा सुजाणी ॥ मुइआ जीवदिआ गति होवै जां सिरि पाईऐ पाणी ॥ नानक सिरखुथे सैतानी एना गल न भाणी ॥ वुठै होइऐ होइ बिलावलु जीआ जुगति समाणी ॥ वुठै अंनु कमादु कपाहा सभसै पड़दा होवै ॥ वुठै घाहु चरहि निति सुरही सा धन दही विलोवै ॥ तितु घिइ होम जग सद पूजा पइऐ कारजु सोहै ॥ गुरू समुंदु नदी सभि सिखी नातै जितु वडिआई ॥ नानक जे सिरखुथे नावनि नाही ता सत चटे सिरि छाई ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः १ ॥ सिरु खोहाइ पीअहि मलवाणी जूठा मंगि मंगि खाही ॥ फोलि फदीहति मुहि लैनि भड़ासा पाणी देखि सगाही ॥ भेडा वागी सिरु खोहाइनि भरीअनि हथ सुआही ॥ माऊ पीऊ किरतु गवाइनि टबर रोवनि धाही ॥ ओना पिंडु न पतलि किरिआ न दीवा मुए किथाऊ पाही ॥ अठसठि तीरथ देनि न ढोई ब्रहमण अंनु न खाही ॥ सदा कुचील रहहि दिनु राती मथै टिके नाही ॥ झुंडी पाइ बहनि निति मरणै दड़ि दीबाणि न जाही ॥ लकी कासे हथी फुमण अगो पिछी जाही ॥ ना ओइ जोगी ना ओइ जंगम ना ओइ काजी मुंला ॥ दयि विगोए फिरहि विगुते फिटा वतै गला ॥ जीआ मारि जीवाले सोई अवरु न कोई रखै ॥ दानहु तै इसनानहु वंजे भसु पई सिरि खुथै ॥ पाणी विचहु रतन उपंने मेरु कीआ माधाणी ॥ अठसठि तीरथ देवी थापे पुरबी लगै बाणी ॥ नाइ निवाजा नातै पूजा नावनि सदा सुजाणी ॥ मुइआ जीवदिआ गति होवै जां सिरि पाईऐ पाणी ॥ नानक सिरखुथे सैतानी एना गल न भाणी ॥ वुठै होइऐ होइ बिलावलु जीआ जुगति समाणी ॥ वुठै अंनु कमादु कपाहा सभसै पड़दा होवै ॥ वुठै घाहु चरहि निति सुरही सा धन दही विलोवै ॥ तितु घिइ होम जग सद पूजा पइऐ कारजु सोहै ॥ गुरू समुंदु नदी सभि सिखी नातै जितु वडिआई ॥ नानक जे सिरखुथे नावनि नाही ता सत चटे सिरि छाई ॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जैनीओं के गुरु ‘सरेवड़े’ अहिंसा के पुजारी थे। ताजा साफ पानी नहीं पीते कि जीव हिंसा ना हो जाए, ताजी रोटी पकाते खाते नहीं। पाखाने को फोलते हैं कि जीव पैदा ना हो जाएं। स्नान नहीं करते; बात ये कि जीव हिंसा को उन्होंने इतना वहिम बना लिया है कि बड़े गंदे रहते हैं। हरेक के हाथ में एक चउरी होती है; नंगे पांव एक कतार में चलते हैं कि कही कोई कीड़ी पांव तले आ के मर ना जाए। सबसे अगला आदमी उस चउरी से राह में आए कीड़े को परे हटा देता है। अपने हाथों से कोई काम काज नहीं करते, मांग के खाते हैं। जहां बैठते सिर लुढ़का के बैठते हैं, निक्त उदास, अंदर कोई चाव व खुशी नहीं, ऐसे उदासी डाल के बैठे रहते हैं। सो, इन्होंने इस तरह दुनिया गवा दी। पर, दीन भी नहीं संवारते। बस एक जीव हिंसा का वहिम लगाए रहते हैं। ना कोई हिन्दू मत की मर्यादा, ना कोई मुसलमानी जीवन युक्ति। ना दान ना पुण्य। ना कोई पूजा ना पाठ ना बंदगी, ईश्वर की ओर से भी गए। ये शब्द इन ‘सरवड़ों’ के बारे में है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मलवाणी = मैला पानी। फदीहति = (अरबी में फज़ीहत के ‘ज़’ को ‘द’ भी पढ़ा जाता है। जैसे, फ़जमल को फादल, काज़ी को कादी) पखाना। सगाही = हिचकते हैं, शर्म करते हैं। भरिअनि = भरे जाते हैं। माऊ पीऊ किरतु = माँ बाप वाला कामकाज, रोजी कमाने का काम। धाही = धाहें मार के। किथाऊ = पता नहीं कहां? कुचील = गंदे। टिके = टिक्के, तिलक। झुंडी पाइ = औंधे हो के, गर्दन गिरा के। दड़ि दीबाणि = किसी सभा दीवान में। कासे = प्याले। अगो पिछी = आगे-पीछे, एक कतार में। जंगम = शिव उपासक जो घंटिआं बजा बजा के मांगते फिरते हैं। दयि = रब द्वारा (दयु = प्यार करने वाला परमात्मा)। विगोए = गवाए हुए। विगुते = खुआर, परेशान। फिटा = फिटकारा हुआ, धिक्कारित हुआ। गला = बातें, सारा ही टोला। वंजे = टूटे हुए। भसु = स्वाह, राख। मेरु = सुमेर पर्वत। देवी = देवताओं। पुरबी = धार्मिक मेले। बाणी = कथा वारता। नाइ = नहा के। सुजाणी = निपुण। मुइआ जीवदिया = मरन जीवन प्रयन्त, सारी उम्र, जनम से मरन तक। गति = स्वच्छ हालत। वुठे = बरसात होने से। सुरही = गाएं। बिलावलु = खुशी, चाव। साधन = स्त्री। विलोवै = बिलोती है। तितु घिइ = उस घी से। पईऐ = (घी) पड़ने से, घी के उपयोग से। नदी सभि = सारे दरिया। सिखी = (गुरु की) शिक्षा। जितु = जिस में। चटे = चाटे। छाई = सुआह।1।
अर्थ: (ये सरेवड़े जीव हिंसा के वहिम में) सिर (के बाल) उखड़वा के (कि कहीं जुआं ना पड़ जाएं) मैला पानी पीते हैंऔर झूठी रोटी मांग मांग के खाते हैं। (अपने) पाखाने को फोल के मुंह में (गंदी) हवाड़ लेते हैं ओर पानी देख के (इससे) झिझकते हैं (भाव, पानी का इस्तेमाल नहीं करते)। भेड़ों की तरह सिर (के बाल) उखड़वाते हैं, (बाल उखाड़ने वालों के) हाथ राख से भरे जाते हैं। माता-पिता के किए काम (भाव, मेहनत से कमाई करके परिवार पालने का काम) छोड़ बैठते हैं (इसलिए) इनका परिवार धाहें मार के रोता है।
(ये लोक तो ऐसे ही गवाया, आगे जा के इनके परलोक का हाल सुनिए) ना तो हिन्दू मत के अनुसार (मरणोपरांत) पिण्ड पक्तल क्रिया दीआ आदि की रस्म करते हैं। मरे हुए पता नहीं कहां जा पड़ते हैं (भाव परलोक सवारने की कोई कोशश नहीं है) (हिन्दुओं के) अढ़सठ तीर्थ इन्हें कोई सहारा नहीं देते (भाव, हिन्दुओं की तरह किसी तीर्थ पर भी नहीं जाते) ब्राहमण (इनका) अंन्न नहीं खाते (भाव, ब्राहमण की भी सेवा नहीं करते)। सदा दिन रात बड़े गंदे रहते हैं। माथे पे तिलक नहीं लगाते (भाव, नहा धो के शरीर को साफ सुथरा भी नहीं करते)। सदा गर्दन गिरा के बैठे रहते हैं जैसे किसी के मरने का सोग कर रहे हैं। (भाव, इनके अंदर कोई आत्मिक हुलारा भी नहीं है।) किसी सत्संग आदि में भी कभी नहीं जाते हैं। लोगों के साथ प्याले बांधे हुए हैं, हाथों में चउरियां पकड़ी हुई हैं, और (जीव हिंसा के डर से) एक कतार में चलते हैं। ना इनकी जोगियों वाली रहुरीति, ना जंगमों वाली, ना काज़ी मौलवियों वाली। रब की ओर से (भी) टूटे हुए भटकते हैं (भाव, परमात्मा की बंदगी में भी इनकी कोई श्रद्धा नहीं) ये सारा मामला ही गड़बड़ है।
(ये बेचारे नहीं समझते कि) जीवों को मारने जिवाने वाला प्रभु खुद ही है। प्रभु के बिना कोई और इनको (जीवित) रख नहीं सकता। (जीव हिंसा के वहिम में पड़ के, मेहनत कमाई छोड़ के) ये दान व स्नान से वंचित हुए हैं। राख पड़े ऐसे भ्रमित सिर पे। (ये लोग साफ पानी नहीं पीते और पानी में नहाते भी नहीं हैं। ये यह बात नहीं समझते कि जब देवताओं ने) सुमेर पर्वत को मथानी बना के (समुंदर को बिलोया) तब (पानी में से) ही रत्न निकले थे (भाव, इस बात को तो लोग पुराने समय से ही जानते हैं कि पानी में से बेअंत कीमती पदार्थ निकलते हैं, जो मनुष्य के काम आते हैं, आखिरवह पानी में घुसने से ही निकलेंगे)। (पानी की इनायत की वजह से ही) देवताओं के वास्ते अठारह तीर्थ बनाए गए जहां पर्व लगते हैं, कथा-वारता होती है नहा के नमाज़ पढ़ी जाती है, नहा के ही पूजा होती है। स्वच्छ लोग नित्य स्नान करते हैं। सारी उम्र ही मनुष्य की स्वच्छ हालत तभी रह सकती है, अगर स्नान करे। पर, हे नानक! ये सिर फिरे ऐसी उलटी राह पर पड़े हुए हैं (ऐसे शैतान हैं कि) इन्हें स्नान वाली बात ठीक नहीं लगी।
(पानी की और बरकतें देखो) बरसात होने से (सब जीवों के अंदर) खुशी पैदा होती है। जीवों की जीवन जुगति ही (पानी में) टिकी हुई है। वर्षा होने से अन्न पैदा होता है, चारा उगता है, कपास होती है, जो सबका पर्दा बनती है। बरसात होने से ही (उगा हुआ) घास गाऐ चुगती हैं (और दूध देती हैं, उस दूध से बना) दही घर की औरत बिलोती है (और घी बनाती है), उस घी से ही सदा हवन-यज्ञ पूजा आदि होते हैं। ये घी पड़ने से ही हरेक कार्य शोभता है।
(एक और स्नान भी है) सतिगुरु (मानो) समुंदर है उसकी शिक्षा (जैसे) सारी नदियां हैं। (इस गुरु शिक्षा) में नहाने से (भाव, ध्यान जोड़ने से) बड़ाई मिलती है। हे नानक! अगर ये सिरफिरे (इस ‘नाम’ जल में) स्नान नहीं करते, तो निरा मुंह की कालख ही कमाते हैं।1।

[[0150]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः २ ॥ अगी पाला कि करे सूरज केही राति ॥ चंद अनेरा कि करे पउण पाणी किआ जाति ॥ धरती चीजी कि करे जिसु विचि सभु किछु होइ ॥ नानक ता पति जाणीऐ जा पति रखै सोइ ॥२॥

मूलम्

मः २ ॥ अगी पाला कि करे सूरज केही राति ॥ चंद अनेरा कि करे पउण पाणी किआ जाति ॥ धरती चीजी कि करे जिसु विचि सभु किछु होइ ॥ नानक ता पति जाणीऐ जा पति रखै सोइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कि = क्या? कि करे = क्या बिगाड़ सकता है? सूरज = सूरज को (संप्रदान कारक है)। पउण = पवन को। चीजी = चीजें।2।
अर्थ: आग को पाला क्या कर सकता है? (पाला आग का कुछ नहीं बिगाड़ सकता) रात सूरज को नहीं बिगाड़ सकती। अंधकार चंद्रमा को कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकता। (कोई ऊंची-नीची जाति) हवा और पानी को बिगाड़ नहीं सकती (भाव, कोई नीची जाति इन तत्वों को भ्रष्ट नहीं कर सकती)। जिस धरती में हरेक जीव पैदा होते हैं ये चीजें उस धरती को बिगाड़ नहीं सकती (ये तो पैदा ही धरती में से हुई हैं)।
(इसी तरह) हे नानक! वही इज्जत (असली) समझो (भाव, सिर्फ उसी इज्जत को कोई बिगाड़ नहीं सकता) जो इज्जत प्रभु से मिली है (प्रभु दर से जो आदर मिले उसे कोई जीव बिगाड़ नहीं सकता, इस दरगाही आदर के लिए उद्यम करो)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ तुधु सचे सुबहानु सदा कलाणिआ ॥ तूं सचा दीबाणु होरि आवण जाणिआ ॥ सचु जि मंगहि दानु सि तुधै जेहिआ ॥ सचु तेरा फुरमानु सबदे सोहिआ ॥ मंनिऐ गिआनु धिआनु तुधै ते पाइआ ॥ करमि पवै नीसानु न चलै चलाइआ ॥ तूं सचा दातारु नित देवहि चड़हि सवाइआ ॥ नानकु मंगै दानु जो तुधु भाइआ ॥२६॥

मूलम्

पउड़ी ॥ तुधु सचे सुबहानु सदा कलाणिआ ॥ तूं सचा दीबाणु होरि आवण जाणिआ ॥ सचु जि मंगहि दानु सि तुधै जेहिआ ॥ सचु तेरा फुरमानु सबदे सोहिआ ॥ मंनिऐ गिआनु धिआनु तुधै ते पाइआ ॥ करमि पवै नीसानु न चलै चलाइआ ॥ तूं सचा दातारु नित देवहि चड़हि सवाइआ ॥ नानकु मंगै दानु जो तुधु भाइआ ॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुबहान = आश्चर्य रूप। कलाणिआ = मैंने तारीफ की है। दीबाणु = दीवान, हाकम। होरि = और सारे जीव। जि = जो जीव। सोहिआ = सुहाना लगा है। मंनिऐ = (तेरा फुरमान) मानने से। गिआनु = अस्लियत की समझ। धिआनु = ऊँची टिकी सोच, ध्यान। करमि = तेरी मेहर से। नीसानु = माथे के लेख।26।
अर्थ: हे सच्चे (प्रभु)! मैं तुझे सदा ‘सुबहान’ (कह कह के) सालाहता हूं। तू ही सदा कायम रहने वाला हाकिम है। और सारे जीव पैदा होते मरते रहते हैं। (हे प्रभु!) जो लोग तेरा सच्चा नाम रूपी दान तुझसे मांगते हैं वे तेरे जैसे हो जाते हैं। तेरा अटल हुक्म (गुर-) शब्द की इनायत से (उनको) मीठा लगता है। तेरा हुक्म मानने से असलियत की समझ व ऊूंची टिकी तवज्जो तुझसे उन्हें हासिल होती है। तेरी मेहर से (उनके माथे पे ये सुहाना) लेख लिखा जाता है जो किसी के मिटाए नहीं मिटता।
हे प्रभु! तू सदा बख्शिशें करने वाला है। तू नित्य बख्शिशें करता है और बढ़-बढ़ के बख्शिशें किए जाता है। नानक (तेरे दर से) वही दान मांगता है जो तुझे अच्छा लगता है (भाव, तेरी रजा में राजी रहने का दान मांगता है)।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोकु मः २ ॥ दीखिआ आखि बुझाइआ सिफती सचि समेउ ॥ तिन कउ किआ उपदेसीऐ जिन गुरु नानक देउ ॥१॥

मूलम्

सलोकु मः २ ॥ दीखिआ आखि बुझाइआ सिफती सचि समेउ ॥ तिन कउ किआ उपदेसीऐ जिन गुरु नानक देउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीखिआ = दिक्षा, शिक्षा। आखि = कह के, सुना के। बुझाइआ = ज्ञान दिया है, आत्मिक जीवन की सूझ दी है। सिफती = महिमा से। सचि = सत्य में। समेउ = समाई दी है, जोड़ा है। किआ = और क्या?।1।
अर्थ: हे नानक! जिनका गुरदेव है (भाव, जिनके सिर पे गुरदेव है), जिन्हें (गुरु ने) शिक्षा दे के ज्ञान दिया है और महिमा द्वारा सच से जोड़ा है, उन्हें किसी और उपदेश की जरूरत नहीं रहती (अर्थात, प्रभु नाम में जुड़ने की शिक्षा से ऊची कोई शिक्षा नहीं है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मः १ ॥ आपि बुझाए सोई बूझै ॥ जिसु आपि सुझाए तिसु सभु किछु सूझै ॥ कहि कहि कथना माइआ लूझै ॥ हुकमी सगल करे आकार ॥ आपे जाणै सरब वीचार ॥ अखर नानक अखिओ आपि ॥ लहै भराति होवै जिसु दाति ॥२॥

मूलम्

मः १ ॥ आपि बुझाए सोई बूझै ॥ जिसु आपि सुझाए तिसु सभु किछु सूझै ॥ कहि कहि कथना माइआ लूझै ॥ हुकमी सगल करे आकार ॥ आपे जाणै सरब वीचार ॥ अखर नानक अखिओ आपि ॥ लहै भराति होवै जिसु दाति ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लूझै = जलता है, दुखी रहता है। आकार = स्वरूप, जीव-जंतु। सरब वीचार = सब जीवों बारे विचारें। अक्षर = (सं: अक्षर) ना नाश होने वाला। अखिओ = आँखों से।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: जो फर्क (ु) ओर (ो) में है वही फर्क (उ) और (ओ) में है। (शब्द ‘लखिउ’ शब्द ‘अखयय’ की प्राकृत रूप है। ‘ख्यय’ व क्षय का अर्थ है नाश। पंजाबी रूप है ‘खउ’। अखिउ = का अर्थ है ‘जिसका क्षय ना हो सके’। शब्द ‘अखिओ’ का अर्थ ‘कहा’ करना गलत है। गुरबाणी किसी और जगह पर इसकी सहायता नहीं मिलती। ‘पाइआ’ से ‘पाइओ’ हो सकता है, पर ‘पइओ’ नहीं हो सकता। वैसे ही ‘आखिआ’ से ‘आखिओ’ हो सकता है ‘आखिओ’ नहीं।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लहै = उतर जाती है। भराति = मन की भटकना।2।
अर्थ: जिस मनुष्य को प्रभु खुद मति देता है, उसे ही मति आती है। जिस मनुष्य को खुद सूझ बख्शता है, उसे (जीवन सफर की) हरेक बात की सूझ आ जाती है। (अगर ये मति और सूझ नहीं तो इसकी प्राप्ति बारे) कहे जाना कहे जाना (कोई लाभ नहीं देता) (मनुष्य अमली जीवन में) माया में ही जलता रहता है।
सारे जीव-जन्तु प्रभु खुद ही अपने हुक्म मुताबिक पैदा करता है। सारे जीवों के बारे में विचारें (उन्हें क्या कुछ देना है) प्रभु खुद ही जानता है। हे नानक! जिस मनुष्य को उस अबिनाशी व अक्षय प्रभु से (सूझ-बूझ की) दाति मिलती है, उसके मन की भटकना दूर हो जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पउड़ी ॥ हउ ढाढी वेकारु कारै लाइआ ॥ राति दिहै कै वार धुरहु फुरमाइआ ॥ ढाढी सचै महलि खसमि बुलाइआ ॥ सची सिफति सालाह कपड़ा पाइआ ॥ सचा अम्रित नामु भोजनु आइआ ॥ गुरमती खाधा रजि तिनि सुखु पाइआ ॥ ढाढी करे पसाउ सबदु वजाइआ ॥ नानक सचु सालाहि पूरा पाइआ ॥२७॥ सुधु

मूलम्

पउड़ी ॥ हउ ढाढी वेकारु कारै लाइआ ॥ राति दिहै कै वार धुरहु फुरमाइआ ॥ ढाढी सचै महलि खसमि बुलाइआ ॥ सची सिफति सालाह कपड़ा पाइआ ॥ सचा अम्रित नामु भोजनु आइआ ॥ गुरमती खाधा रजि तिनि सुखु पाइआ ॥ ढाढी करे पसाउ सबदु वजाइआ ॥ नानक सचु सालाहि पूरा पाइआ ॥२७॥ सुधु

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वेकारु = बेकार, खाली (सिर्फ दुनिया वाले काम अंत को काम नहीं आते, सिर्फ इनमें खचित रहना जीवन सफर में बेकार रहने के तुल्य है)। ढाढी = ‘वार’ गाने वाले। कै = हलांकि। वार = यश की वाणी। कपड़ा = सिरोपाउ, अंगरखा। पसाउ = (सं: प्रसादु) खाने वाली वह चीज जो अपने ईष्ट के दर पर पहले भेट की जाए और फिर वहां दर पे गए लोगों को मिले, जैसे कड़ाह प्रसाद, गुरु दर से मिला प्रसाद,प्रभु दर से मिली दाति। पसाउ करे = प्रभु दर से मिला भोजन खाता है। वजाइआ = गाया।27।
अर्थ: मैं बेकार था। मुझे ढाढी बना के प्रभु ने (असल) काम में लगा दिया। प्रभु ने धुर से हुक्म दिया कि चाहे रात हो दिन, जस (यश, गुणगान) करते रहो।
मुझे ढाढी को (भाव, जब से मैं उसकी महिमा में लगा तो) पति ने अपने सच्चे महल में (अपनी हजूरी में) बुलाया। (उसने) सच्ची महिमा रूपी मुझे सिरोपाउ (आदर-सत्कार का प्रतीक रूपी कपड़ा) दिया। सदा कायम रहने वाला आत्मिक जीवन नाम (मेरे आत्मा के आधार के लिए मुझे) भोजन (उसकी ओर से) मिला। जिस जिस मनुष्य ने गुरु की शिक्षा पे चल के (ये ‘अमृत नामु भोजन’) पेट भर के खाया, उसने सुख पाया है। मैं ढाढी (भी ज्यों ज्यों) महिमा का गीत गाता हूँ, प्रभु दर से मिले इस नाम प्रसाद को खाता हूँ (भाव, नाम का आनंद लेता हूँ)।
हे नानक! सच्चे प्रभु की महिमा करके उस पूर्ण प्रभु की प्राप्ति होती है।27। सुधु।