०७ गुरु अर्जन-देव बारह माहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बारह माहा मांझ महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

बारह माहा मांझ महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किरति करम के वीछुड़े करि किरपा मेलहु राम ॥ चारि कुंट दह दिस भ्रमे थकि आए प्रभ की साम ॥ धेनु दुधै ते बाहरी कितै न आवै काम ॥ जल बिनु साख कुमलावती उपजहि नाही दाम ॥ हरि नाह न मिलीऐ साजनै कत पाईऐ बिसराम ॥ जितु घरि हरि कंतु न प्रगटई भठि नगर से ग्राम ॥ स्रब सीगार त्मबोल रस सणु देही सभ खाम ॥ प्रभ सुआमी कंत विहूणीआ मीत सजण सभि जाम ॥ नानक की बेनंतीआ करि किरपा दीजै नामु ॥ हरि मेलहु सुआमी संगि प्रभ जिस का निहचल धाम ॥१॥

मूलम्

किरति करम के वीछुड़े करि किरपा मेलहु राम ॥ चारि कुंट दह दिस भ्रमे थकि आए प्रभ की साम ॥ धेनु दुधै ते बाहरी कितै न आवै काम ॥ जल बिनु साख कुमलावती उपजहि नाही दाम ॥ हरि नाह न मिलीऐ साजनै कत पाईऐ बिसराम ॥ जितु घरि हरि कंतु न प्रगटई भठि नगर से ग्राम ॥ स्रब सीगार त्मबोल रस सणु देही सभ खाम ॥ प्रभ सुआमी कंत विहूणीआ मीत सजण सभि जाम ॥ नानक की बेनंतीआ करि किरपा दीजै नामु ॥ हरि मेलहु सुआमी संगि प्रभ जिस का निहचल धाम ॥१॥

दर्पण-टिप्पनी

(देखें बारा माहा महला १ तुखारी राग, भाग अठवां, पन्ना133)

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरति = कमाई, performance के अनुसार। राम = हे प्रभु। कुंट = कूट, पासा। दहदिस = दसों ओर (पूरब, पश्चिम, उक्तर, दक्षिण, चारों ओर, ऊपर, नीचे)। साम = सरन। धेनु = गाय। बाहरी = बिना। साख = खेती, फसल। दाम = पैसे, धन। नाह = पति, खसम। कत = कैसे? बिसराम = सुख। जितु = जिस में। जितु घरि = जिस (हृदय) घर में। भठि = तपती भट्ठी। से = जैसे। ग्राम = गांव। स्रब = सारे। तंबोल = पान के बीड़े। सणु = समेत। देही = शरीर। खाम = कच्चे, नाशवान, व्यर्थ। सभि = सारे। जाम = जम, जिंद के वैरी। संगि = (अपने) साथ। धाम = टिकाना।1।
अर्थ: हे प्रभु! हम अपने कर्मों की कमाई के अनुसार (तुझसे) विछुड़े हुए हैं (तुझे बिसारे बैठे हैं), मेहर करके हमें अपने साथ मिलाओ। (माया के मोह में फंस के) चुफेरे हर तरफ (सुखों की खातिर) भटकते रहे हैं। अब, हे प्रभु थक के तेरी शरण आए हैं।
(जैसे) दूध से विहीन गाय किसी काम नही आती, (जैसे) पानी के बिना खेती सूख जाती है (फसल नहीं पकती, और उस खेती में से) धन की कमाई नहीं हो सकती (वैसे ही प्रभु के नाम के बिना हमारा जीवन व्यर्थ चला जाता है)। सज्जन पति प्रभु को मिले बगैर किसी और जगह से सुख नहीं मिलता। (सुख मिले भी कैसे?) जिसके हृदय में पति प्रभु आ बसे, उसके लिए तो (बसते) गाँव और शहर तपती भट्ठी जैसे होते हैं। (स्त्री को पति के बिना) शरीर के सारे श्रृंगार, पानों के बीड़े व अन्य रस (अपने) शरीर समेत व्यर्थ ही प्रतीत होते हैं। (वैसे) मालिक प्रभु पति (की याद) के बिना सारे सज्जन मित्र जिंद के वैरी हो जाते हैं।
(तभी तो) नानक की बेनती है कि (हे प्रभु!) कृपा करके अपने नाम की दाति बख्श। हे हरि! अपने चरणों में (मुझे) जोड़े रख। (और सारे आसरे उम्मीदें नाशवान हैं) एक तेरा घर सदा अटल रहने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चेति गोविंदु अराधीऐ होवै अनंदु घणा ॥ संत जना मिलि पाईऐ रसना नामु भणा ॥ जिनि पाइआ प्रभु आपणा आए तिसहि गणा ॥ इकु खिनु तिसु बिनु जीवणा बिरथा जनमु जणा ॥ जलि थलि महीअलि पूरिआ रविआ विचि वणा ॥ सो प्रभु चिति न आवई कितड़ा दुखु गणा ॥ जिनी राविआ सो प्रभू तिंना भागु मणा ॥ हरि दरसन कंउ मनु लोचदा नानक पिआस मना ॥ चेति मिलाए सो प्रभू तिस कै पाइ लगा ॥२॥

मूलम्

चेति गोविंदु अराधीऐ होवै अनंदु घणा ॥ संत जना मिलि पाईऐ रसना नामु भणा ॥ जिनि पाइआ प्रभु आपणा आए तिसहि गणा ॥ इकु खिनु तिसु बिनु जीवणा बिरथा जनमु जणा ॥ जलि थलि महीअलि पूरिआ रविआ विचि वणा ॥ सो प्रभु चिति न आवई कितड़ा दुखु गणा ॥ जिनी राविआ सो प्रभू तिंना भागु मणा ॥ हरि दरसन कंउ मनु लोचदा नानक पिआस मना ॥ चेति मिलाए सो प्रभू तिस कै पाइ लगा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चेति = चेत के महीने में। घणा = बहुत। मिलि = मिल के। रसना = जीभ। भणा = उच्चारण। जिनि = जिस मनुष्य ने। तिसहि = उसे। आए गणा = आया समझो। जणा = जानो। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। मणा = मण भर वजन, बहुत। कउ = को। मना = मनि, मन में। तिस कै पाइ = उस मनुष्य के पैरों में। लगा = लगूँ, मैं लगता हूँ।2।
अर्थ: चेत में (बसंत ऋतु आती है, हर तरफ खिली फुलवाड़ी मन को आनंद देती है, अगर) परमात्मा को स्मरण करें (तो नाम जपने की इनायत से) बहुत आत्मिक आनंद हो सकता है। पर जीभ से प्रभु का नाम जपने की दाति संत जनों को मिल के ही प्राप्त होती है। उसी को जगत में पैदा हुआ जानो (उसी का जनम सफल समझो) जिस ने (नाम जपने की सहायता से) अपने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया (क्योंकि) परमात्मा की याद के बिना एक छिन मात्र समय गुजारा हुआ भी व्यर्थ बीता जानो।
जो प्रभु पानी में, धरती में आकाश में जंगलों में हर जगह व्यापक है। अगर ऐसा प्रभु किसी मनुष्य के हृदय में ना बसे, तो उस मनुष्य का (मानसिक) दुख बयान नहीं हो सकता। (पर) जिस लोगों ने उस (सर्व व्यापक) प्रभु का अपने हृदय में बसाया है, उनके बड़े भाग्य जाग पड़ते हैं।
नानक का मन (भी हरि के) दीदार की इच्छा रखता है, नानक के मन में हरि दर्शन की प्यास है। जो मनुष्य मुझे हरि का मिलाप करा दे मैं उसके चरणी लगूंगा।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैसाखि धीरनि किउ वाढीआ जिना प्रेम बिछोहु ॥ हरि साजनु पुरखु विसारि कै लगी माइआ धोहु ॥ पुत्र कलत्र न संगि धना हरि अविनासी ओहु ॥ पलचि पलचि सगली मुई झूठै धंधै मोहु ॥ इकसु हरि के नाम बिनु अगै लईअहि खोहि ॥ दयु विसारि विगुचणा प्रभ बिनु अवरु न कोइ ॥ प्रीतम चरणी जो लगे तिन की निरमल सोइ ॥ नानक की प्रभ बेनती प्रभ मिलहु परापति होइ ॥ वैसाखु सुहावा तां लगै जा संतु भेटै हरि सोइ ॥३॥

मूलम्

वैसाखि धीरनि किउ वाढीआ जिना प्रेम बिछोहु ॥ हरि साजनु पुरखु विसारि कै लगी माइआ धोहु ॥ पुत्र कलत्र न संगि धना हरि अविनासी ओहु ॥ पलचि पलचि सगली मुई झूठै धंधै मोहु ॥ इकसु हरि के नाम बिनु अगै लईअहि खोहि ॥ दयु विसारि विगुचणा प्रभ बिनु अवरु न कोइ ॥ प्रीतम चरणी जो लगे तिन की निरमल सोइ ॥ नानक की प्रभ बेनती प्रभ मिलहु परापति होइ ॥ वैसाखु सुहावा तां लगै जा संतु भेटै हरि सोइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वैसाखि = वैसाख में। किउ धीरनि = कैसे धीरज करें? वाढिआ = पति से बिछुड़ी हुई। बिछोहु = विछोड़ा। प्रेम बिछोहु = प्रेम का अस्तित्व ना होना। माइआ धोहु = धेह रूपी माया, मन मोहनी माया। कलत्र = स्त्री। पलचि = फस के, उलझ के। सगली = सारी (सृष्टि)। धंधै मोहु = धंधों का मोह। खोहि लईअहि = छीने जाते हैं। आगै = पहले ही। दयु = प्यारा प्रभु। विगुचणा = खुआर, दुखी होते हैं। सोइ = शोभा। परापति होइ = to one’s heart’s content, जिससे (मेरे) दिल की रीझ पूरी हो जाए। संतु हरि = हरि संत। भेटै = मिल जाए।3।
अर्थ: (वैसाख वाला दिन हरेक स्त्री मर्द के वास्ते रीझों वाला दिन होता है, पर) वैसाख में उन स्त्रीयों का दिल कैसे स्थिर हो जो पति से विछुड़ी हुई हैं। जिस के अंदर प्यार (का प्रगटावा) नहीं है। (इस तरह उस जीव को धैर्य कैसे आए जिसे) सज्जन प्रभु विसार के सम-मोहनी माया चिपकी हुई है?
ना पुत्र, ना स्त्री, ना धन, ना ही कोई मनुष्य साथ निभता है। एक अविनाशी परमात्मा ही असल साथी है। नाशवान धंधों का मोह (सारी लुकाई को ही) व्याप रहा है (माया के मोह में) बार बार फंस के सारा संसार ही (आत्मिक मौत) मर रहा है। एक परमात्मा के नाम के स्मरण के बिना और जितने भी कर्म यहाँ किए जाते हैं, वह सारे मरने से पहले ही छीन लिए जाते हैं (भाव, उच्च आत्मिक अवस्था का अंग नहीं बन सकते)।
प्यार स्वरूपी प्रभु को विसार के खुआरी ही होती है। परमात्मा के बिना जिंद का और कोई साथी नहीं होता। जो लोग प्रभु प्रीतम के चरणों में लगते हैं, उनकी (लोक परलोक में) भली शोभा होती है।
हे प्रभु! (तेरे दर पे) मेरी विनती है कि मुझे तेरा जी-भर के मिलाप नसीब हो। (ऋतु फिरने से चारों तरफ वनस्पति भले ही सुहावनी हो जाए, पर) जिंद को वैसाख का महीना तभी सुहावना लग सकता है जब हरि संत प्रभु मिल जाए।3।

[[0134]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जेठि जुड़ंदा लोड़ीऐ जिसु अगै सभि निवंनि ॥ हरि सजण दावणि लगिआ किसै न देई बंनि ॥ माणक मोती नामु प्रभ उन लगै नाही संनि ॥ रंग सभे नाराइणै जेते मनि भावंनि ॥ जो हरि लोड़े सो करे सोई जीअ करंनि ॥ जो प्रभि कीते आपणे सेई कहीअहि धंनि ॥ आपण लीआ जे मिलै विछुड़ि किउ रोवंनि ॥ साधू संगु परापते नानक रंग माणंनि ॥ हरि जेठु रंगीला तिसु धणी जिस कै भागु मथंनि ॥४॥

मूलम्

हरि जेठि जुड़ंदा लोड़ीऐ जिसु अगै सभि निवंनि ॥ हरि सजण दावणि लगिआ किसै न देई बंनि ॥ माणक मोती नामु प्रभ उन लगै नाही संनि ॥ रंग सभे नाराइणै जेते मनि भावंनि ॥ जो हरि लोड़े सो करे सोई जीअ करंनि ॥ जो प्रभि कीते आपणे सेई कहीअहि धंनि ॥ आपण लीआ जे मिलै विछुड़ि किउ रोवंनि ॥ साधू संगु परापते नानक रंग माणंनि ॥ हरि जेठु रंगीला तिसु धणी जिस कै भागु मथंनि ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेठि = जेठ में। हरि जुड़ंदा लोड़ीऐ = हरि चरणों में जुड़ना चाहिए। सभि = सारे जीव। निवंनि = निवते हैं, झुकते हैं। सजण दावणि = सज्जन के दामन में, पल्ले में। किसै न देई बंनि = किसी को बांधने नहीं देता, किसी यम आदि को आज्ञा नही देता कि उस जीव को बांध के आगे लगा ले। रंग जेते = जितने भी रंग हैं। नाराइणै = परमात्मा के। भावंनि = प्यारे लगते हैं। करंनि = करते हैं। प्रभि = प्रभु ने। कहीअहि = कहे जाते हैं। विछुड़ि = प्रभु से बिछुड़ के। साधू संगु = साधु के साथ। तिसु = उस (मनुष्य) को। जिस कै मथंनि = जिसके माथे पे।4।
अर्थ: जिसहरी के आगे सारे ही जीव सिर झुकाते हैं, जेठ के महीने में उस के चरणों में जुड़ना चाहिए। अगर हरि सज्जन से जुड़े रहें तो वह किसी (यम आदि) को आज्ञा नही देता कि बांध के आगे लगा ले (भाव, प्रभु से जुड़ने से जमों का डर नहीं रह जाता)। (लोग हीरे मोती आदि कीमती धन एकत्र करने के लिए दौड़भाग करते हैं, पर उस धन के चोरी हो जाने का भी डर बना रहता है) परमात्मा का नाम हीरे मोती आदि ऐसा कीमती धन है जो चुराया नहीं जा सकता। परमात्मा के जितने भी चमत्कार हो रहे हैं, (नाम धन की इनायत से) वह सारे मन को प्यारे लगते हैं। (ये भी समझ आ जाती है कि) प्रभु स्वयं, और उसके पैदा किए जीव वही कुछ करते हैं जो उस प्रभु को ठीक लगता है।
जिस लोगों को प्रभु ने (अपनी महिमा की दाति दे के) अपना बना लिया है, उनको ही (जगत में) वाह वाही मिलती है। (पर, परमात्मा जीवों को अपने उद्यम से नहीं मिल सकता) अगर जीवों के अपने उद्यम से मिल सकता होता, तो जीव उससे बिछुड़ के दुखी क्यूँ होते? हे नानक! (प्रभु के मिलाप का) आनंद (वही लोग) लेते हैं, जिन्हें गुरु मिल जाए। जिस मनुष्य के माथे पर भाग्य जागें, उसे जेठ महीना सुहावना लगता है। उसी को प्रभु मालिक मिलता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसाड़ु तपंदा तिसु लगै हरि नाहु न जिंना पासि ॥ जगजीवन पुरखु तिआगि कै माणस संदी आस ॥ दुयै भाइ विगुचीऐ गलि पईसु जम की फास ॥ जेहा बीजै सो लुणै मथै जो लिखिआसु ॥ रैणि विहाणी पछुताणी उठि चली गई निरास ॥ जिन कौ साधू भेटीऐ सो दरगह होइ खलासु ॥ करि किरपा प्रभ आपणी तेरे दरसन होइ पिआस ॥ प्रभ तुधु बिनु दूजा को नही नानक की अरदासि ॥ आसाड़ु सुहंदा तिसु लगै जिसु मनि हरि चरण निवास ॥५॥

मूलम्

आसाड़ु तपंदा तिसु लगै हरि नाहु न जिंना पासि ॥ जगजीवन पुरखु तिआगि कै माणस संदी आस ॥ दुयै भाइ विगुचीऐ गलि पईसु जम की फास ॥ जेहा बीजै सो लुणै मथै जो लिखिआसु ॥ रैणि विहाणी पछुताणी उठि चली गई निरास ॥ जिन कौ साधू भेटीऐ सो दरगह होइ खलासु ॥ करि किरपा प्रभ आपणी तेरे दरसन होइ पिआस ॥ प्रभ तुधु बिनु दूजा को नही नानक की अरदासि ॥ आसाड़ु सुहंदा तिसु लगै जिसु मनि हरि चरण निवास ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नाहु = खसम। जग जीवन पुरखु = जगत का सहारा प्रभु। संदी = दी। दुयै भाइ = (प्रभु के बिना किसी) दूसरे प्यार में। विगुचीऐ = खुआर होते हैं। गलि = गले में। लुणै = काटता है। मथै = माथे पर। रैणि = रात, उम्र। कौ = को। भेटीऐ = मिलता है। साधू = गुरु। खलासु = संतुलित, आदरणीय। प्रभ = हे प्रभु! होइ = बनी रहे। जिसु मनि = जिस के मन में। निरास = टूटे हुए दिल वाला।5।
अर्थ: आसाड़ का महीना उस जीव को तपता प्रतीत होता है (वे लोग आसाढ के महीने की तरह तपते कलपते रहते हैं) जिनके हृदय में प्रभु पति नहीं बसता। जो जगत के सहारे परमात्मा (का आसरा) छोड़ के लोगों से आस बनाए रखते हैं।
(प्रभु के बिना) किसी और के आसरे रहने से खुआर ही होते हैं (जो भी कोई और सहारे देखता है) उसके गले में जम की फाँसी पड़ती है (उसका जीवन सदा सहम में व्यतीत होता है)। (कुदरति का नियम ही ऐसा है कि) मनुष्य जैसा बीज बीजता है। (किए कर्मों अनुसार) जो लेख उसके माथे पर लिखा जाता है, वैसा ही फल वह प्राप्त करता है। (जगजीवन पुरख को विसारने वाली जीव-स्त्री की) सारी जिंदगी पछतावों में गुजरती है, वह जगत से टूटे हुए दिल के साथ ही चल पड़ती है।
जिस लोगों को गुरु मिल जाता है, वह परमात्मा की हजूरी में स्वीकार होते हैं (आदर मान पाते हैं)।
हे प्रभु! (तेरे आगे) नानक की विनती है: अपनी मेहर कर, (मेरे मन में) तेरे दर्शन की तमन्ना बनी रहे, (क्योंकि) हे प्रभु! तेरे बिना मेरा और कोई आसरा उम्मीद नहीं है।
जिस मनुष्य के मन में प्रभु के चरणों का निवास बना रहे, उसे (तपता) आसाढ का महीना (भी) सुहावना प्रतीत होता है (उसको दुनिया के दुख-कष्ट भी दुखी नहीं कर सकते)।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सावणि सरसी कामणी चरन कमल सिउ पिआरु ॥ मनु तनु रता सच रंगि इको नामु अधारु ॥ बिखिआ रंग कूड़ाविआ दिसनि सभे छारु ॥ हरि अम्रित बूंद सुहावणी मिलि साधू पीवणहारु ॥ वणु तिणु प्रभ संगि मउलिआ सम्रथ पुरख अपारु ॥ हरि मिलणै नो मनु लोचदा करमि मिलावणहारु ॥ जिनी सखीए प्रभु पाइआ हंउ तिन कै सद बलिहार ॥ नानक हरि जी मइआ करि सबदि सवारणहारु ॥ सावणु तिना सुहागणी जिन राम नामु उरि हारु ॥६॥

मूलम्

सावणि सरसी कामणी चरन कमल सिउ पिआरु ॥ मनु तनु रता सच रंगि इको नामु अधारु ॥ बिखिआ रंग कूड़ाविआ दिसनि सभे छारु ॥ हरि अम्रित बूंद सुहावणी मिलि साधू पीवणहारु ॥ वणु तिणु प्रभ संगि मउलिआ सम्रथ पुरख अपारु ॥ हरि मिलणै नो मनु लोचदा करमि मिलावणहारु ॥ जिनी सखीए प्रभु पाइआ हंउ तिन कै सद बलिहार ॥ नानक हरि जी मइआ करि सबदि सवारणहारु ॥ सावणु तिना सुहागणी जिन राम नामु उरि हारु ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सावणि = सावन में। सरसी = स+रसी, रस वाली। कामणी = जीव-स्त्री। सच रंगि = सच्चे प्यार में। आधारु = आसरा। बिखिआ रंग = माया के रंग। दिसनि = दिखाई देने लगते हैं। छारु = राख। साधू = गुरु। पीवणहार = पीने लायक। तिणु = घास। मउलिआ = हरा भरा। करमि = मिहर से। मइआ = दया। सबदि = शब्द द्वारा। उरि = हृदय में।6।
अर्थ: जैसे सावन में (वर्षा से बनस्पति हरियावली हो जाती है, वैसे ही वह) जीव-स्त्री हरियावली हो जाती है (भाव, उस जीव का हृदय खिल जाता है) जिसका प्यार प्रभु के सुहाने चरणों से बन जाता है। उसका मन उसका तन परमात्मा के प्यार में रंगा जाता है। परमात्मा का नाम ही (उसकी जिंदगी का) आसरा बन जाता है। माया के नाश्वंत चमत्कार उसको सारे राख (बेअर्थ) दिखाई देते हैं। (सावन में जैसे बरखा की बूँद सुंदर दिखती है, वैसे ही प्रभु चरणों में प्यार वाले बंदे को) हरि के नाम की आत्मिक जीवन देने वाली बूँद प्यारी लगती है। गुरु को मिल के वह मनुष्य उस बूँद को पीने के काबिल हो जाता है। (प्रभु की बड़ाई की छोटी छोटी बातें उसे मीठीं लगने लगती हैं, जिसे वह गुरु को मिल के बड़े शौक से सुनता है)।
जिस प्रभु के मेल से सारा जगत (वनस्पति आदि) हरा भरा हुआ है, जो सब कुछ करने योग्य है, व्यापक है और बेअंत है, उसे मिलने की मेरे मन में भी तमन्ना है। पर, वह प्रभु स्वयं ही अपनी मेहर से मिलाने में समर्थ है। मैं उन गुरमुख सहेलियों से सदके हूँ। सदा कुर्बान हूँ, जिन्होंने प्रभु का मिलाप हासिल कर लिया है।
हे नानक! (विनती कर और कह:) हे प्रभु! मेरे ऊपर मेहर कर, तू स्वयं ही गुरु के शब्द के द्वारा (मेरी जिंद को) सँवारने के योग्य है।
सावन का महीना उन भाग्यशाली (जीव स्त्रीयों) के लिए (खुशियां और ठण्डक लाने वाला) है जिन्होंने अपने हृदय (रूपी कण्ठ) में परमात्मा का नाम (रूपी) माला पहनी हुई है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भादुइ भरमि भुलाणीआ दूजै लगा हेतु ॥ लख सीगार बणाइआ कारजि नाही केतु ॥ जितु दिनि देह बिनससी तितु वेलै कहसनि प्रेतु ॥ पकड़ि चलाइनि दूत जम किसै न देनी भेतु ॥ छडि खड़ोते खिनै माहि जिन सिउ लगा हेतु ॥ हथ मरोड़ै तनु कपे सिआहहु होआ सेतु ॥ जेहा बीजै सो लुणै करमा संदड़ा खेतु ॥ नानक प्रभ सरणागती चरण बोहिथ प्रभ देतु ॥ से भादुइ नरकि न पाईअहि गुरु रखण वाला हेतु ॥७॥

मूलम्

भादुइ भरमि भुलाणीआ दूजै लगा हेतु ॥ लख सीगार बणाइआ कारजि नाही केतु ॥ जितु दिनि देह बिनससी तितु वेलै कहसनि प्रेतु ॥ पकड़ि चलाइनि दूत जम किसै न देनी भेतु ॥ छडि खड़ोते खिनै माहि जिन सिउ लगा हेतु ॥ हथ मरोड़ै तनु कपे सिआहहु होआ सेतु ॥ जेहा बीजै सो लुणै करमा संदड़ा खेतु ॥ नानक प्रभ सरणागती चरण बोहिथ प्रभ देतु ॥ से भादुइ नरकि न पाईअहि गुरु रखण वाला हेतु ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भादुइ = भादों के महीने में। भरमि = भटकन में। भुलाणीआ = गलत रास्ते पर पड़ जाती है। हेतु = हित, प्यार। केतु कारजि = किस काम में। जितु = जिस में। दिनि = दिन में। देह = शरीर। कहसनि = कहेंगे। बिनससी = बिनसेगी, विनाश होगी। प्रेतु = गुजर चुका, अपवित्र। पकड़ि = पकड़ के। न देनी = नहीं देते। सिआहहु = काले (रंग) से। सेतु = सफेद। कपे = काँपते हैं। लूणै = काटता है। खेतु = खेत। संदड़ा = का। बोहिथ = जहाज। ना पाईअहि = नहीं पाए जाते। हेतु = हितु, प्यार करने वाला।7।
अर्थ: (जैसे) भादों (के सीलन भरी तपश) में (मनुष्य बहुत घबराता है, वैसे ही) जिस जीव-स्त्री का प्यार प्रभु पति के बिना किसी और के साथ लगता है वह भटकन के कारण जीवन के सही रास्ते से टूट जाती है। वह चाहे लाखों हार श्रृंगार करे, (उसके) किसी काम नहीं आते।
जिस दिन मनुष्य का शरीर नाश होगा (जब मनुष्य मर जाएगा), उस वक्त (सारे साक संगी) कहेंगे कि ये गुजर गया है। (लाश अपवित्र पड़ी है, इसे जल्दी बाहर ले चलो)। जमदूत (जिंद को) पकड़ के आगे लगा लेते हैं। किसी को (ये) भेद नहीं बताते (कि कहां ले चले हैं)। (जिस) संबंधियों के साथ (सारी उम्र बड़ा) प्यार बना रहता है वह पल में साथ छोड़ बैठते हैं।
(मौत आई देख के मनुष्य) बड़ा पछताता है, उसका शरीर तंग होता है, वह काले से सफेद होता है। (घबराहट से एक रंग आता है एक जाता है)। ये शरीर मनुष्य के कर्मों का खेत है। जो कुछ मनुष्य इसमें बीजता है वही फसल काटता है (जैसे कर्म करता है वैसे ही फल पाता है)।
हे नानक! जिस का रक्षक व हितेशी गुरु बनता है, वह नर्क में नहीं डाले जाते। (क्योंकि गुरु की कृपा से) वे प्रभु की शरण में आ जाते हैं। गुरु उन्हें प्रभु के चरण रूपी जहाज (में चढ़ा) देता है।7।

[[0135]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुनि प्रेम उमाहड़ा किउ मिलीऐ हरि जाइ ॥ मनि तनि पिआस दरसन घणी कोई आणि मिलावै माइ ॥ संत सहाई प्रेम के हउ तिन कै लागा पाइ ॥ विणु प्रभ किउ सुखु पाईऐ दूजी नाही जाइ ॥ जिंन्ही चाखिआ प्रेम रसु से त्रिपति रहे आघाइ ॥ आपु तिआगि बिनती करहि लेहु प्रभू लड़ि लाइ ॥ जो हरि कंति मिलाईआ सि विछुड़ि कतहि न जाइ ॥ प्रभ विणु दूजा को नही नानक हरि सरणाइ ॥ असू सुखी वसंदीआ जिना मइआ हरि राइ ॥८॥

मूलम्

असुनि प्रेम उमाहड़ा किउ मिलीऐ हरि जाइ ॥ मनि तनि पिआस दरसन घणी कोई आणि मिलावै माइ ॥ संत सहाई प्रेम के हउ तिन कै लागा पाइ ॥ विणु प्रभ किउ सुखु पाईऐ दूजी नाही जाइ ॥ जिंन्ही चाखिआ प्रेम रसु से त्रिपति रहे आघाइ ॥ आपु तिआगि बिनती करहि लेहु प्रभू लड़ि लाइ ॥ जो हरि कंति मिलाईआ सि विछुड़ि कतहि न जाइ ॥ प्रभ विणु दूजा को नही नानक हरि सरणाइ ॥ असू सुखी वसंदीआ जिना मइआ हरि राइ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: असुनि = असू में। उमाहड़ा = उछाला। जाइ = जा के। किउं = कैसे? किसी न किसी तरह। मनि = मन में। तनि = तन में। घणी = बहुत। आणि = ला के। माइ = हे मां! हउ = मैं! तिन कै पाइ = उनके चरणों में। जाइ = जगह। रसु = स्वाद, आनंद। रहे आघाइ = तृप्त हो गए, तृष्णा छू नहीं सकती। आपु = स्वै भाव। लड़ि = पल्ले। कंति = कंत ने। कतहि = किसी और जगह। मइआ = मेहर।8।
अर्थ: हे मां! (भाद्रों की तपश भरी घुटन गुजरने के बाद) असू (की मीठी मीठी ऋतु) में (मेरे अंदर प्रभु पति के) प्यार का उछाला आ रहा है। (मन तड़फता है कि) किसी ना किसी तरह चल के प्रभु पति को मिलूँ। मेरे मन में मेरे तन में प्रभु के दर्शन की बड़ी प्यास लगी हुई है (चिक्त चाहता है कि) कोई (उस पति को) ला के मेल करा देवे। (ये सुन के कि) संत जन प्रेम बढ़ाने में सहायता किया करते हैं, मैं उनके चरणों में लगी हूँ। (हे माँ!) प्रभु के बगैर सुख आनंद नहीं मिल सकता (क्योंकि सुख आनंद की) और कोई जगह ही नहीं।
जिस (भाग्यशालियों) ने प्रभु प्यार का स्वाद (एक बार) चख लिया है (उन्हें माया के स्वाद भूल जाते हैं, माया की ओर से) वे तृप्त हो जाते हैं। स्वै भाव छोड़ के वे सदा अरदासें ही करते रहते हैं: हे प्रभु! हमें अपने साथ जोड़ के रखो।
जिस जीव-स्त्री को पति प्रभु ने अपने साथ मिला लिया है, वह (उस मिलाप में से) विछुड़ के अन्य किसी जगह नहीं जाती। (क्योंकि) हे नानक! (उसे निश्चय आ जाता है कि सदीवी सुख के वास्ते) प्रभु की शरण के बिना और कोई जगह नहीं है। वह सदा प्रभु की शरण पड़ी रहती है।
असू (की मीठी मीठी ऋतु) में वह जीव स्त्रीयां सुखी बसती हैं, जिनपे परमात्मा की कृपा होती है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कतिकि करम कमावणे दोसु न काहू जोगु ॥ परमेसर ते भुलिआं विआपनि सभे रोग ॥ वेमुख होए राम ते लगनि जनम विजोग ॥ खिन महि कउड़े होइ गए जितड़े माइआ भोग ॥ विचु न कोई करि सकै किस थै रोवहि रोज ॥ कीता किछू न होवई लिखिआ धुरि संजोग ॥ वडभागी मेरा प्रभु मिलै तां उतरहि सभि बिओग ॥ नानक कउ प्रभ राखि लेहि मेरे साहिब बंदी मोच ॥ कतिक होवै साधसंगु बिनसहि सभे सोच ॥९॥

मूलम्

कतिकि करम कमावणे दोसु न काहू जोगु ॥ परमेसर ते भुलिआं विआपनि सभे रोग ॥ वेमुख होए राम ते लगनि जनम विजोग ॥ खिन महि कउड़े होइ गए जितड़े माइआ भोग ॥ विचु न कोई करि सकै किस थै रोवहि रोज ॥ कीता किछू न होवई लिखिआ धुरि संजोग ॥ वडभागी मेरा प्रभु मिलै तां उतरहि सभि बिओग ॥ नानक कउ प्रभ राखि लेहि मेरे साहिब बंदी मोच ॥ कतिक होवै साधसंगु बिनसहि सभे सोच ॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कतकि = कार्तिक (की ठण्डी बहार) में। काहू जोगु = किसी के जिम्मे, किसी के माथे। विआपनि = जो डाल देते हैं। राम ते = रब से। लगनि = लग जाते हैं। जनम विजोग = जन्मों के विछोड़े, लम्बी जुदाई। माइआ भोग = माया की मौजें, दुनिया की ऐश। विचु = बिचौलापन। किस थै = (और) किस के पास? रोज = नित्य। कीता = अपना किया। धुरि = धुर से, प्रभु की हजूरी से। सभि = सारे। बियोग = बिछोड़े का दुख। कउ = को। प्रभू = हे प्रभु! बंदी मोच = हे कैद से छुड़ाने वाले! बिनसहि = नाश हो जाते हैं। सोच = फिक्र।9।
अर्थ: कार्तिक (की सुहावनी ऋतु) में (भी अगर प्रभु पति से विछोड़ा रहा तो ये अपने) किए कर्मों का नतीजा है, किसी और के माथे कोई दोश नहीं लगाया जा सकता। परमेश्वर की याद से टूटने से (दुनिया के) सारे दुख-कष्ट आ चिपकते हैं। जिन्होंने (इस जन्म में) परमात्मा की याद से मुंह मोड़े रखा, उन्हें (फिर) लम्बे विछोड़े पड़ जाते हैं। जिस माया की मौजों (की खातिर प्रभु को भुला दिया था, वह भी) एक पल में दुखदायी हो जाती हैं।
(उस दुखी हालत में) कहीं भी नित्य रोने रोने का लाभ नहीं होता, (क्योंकि दुख तो है विछोड़े के कारण, और विछोड़े को दूर) कोई बिचोलापन नही कर सकता। (दुखी जीव की अपनी) कोई पेश नही चलती। (पिछले कर्मों अनुसार) धुर से ही लिखे लेखों की बिधि आ बनती है। (हां!) अगर सौभाग्य से प्रभु (स्वयं) आ मिले, तो बिछोड़े से पैदा हुए सारे दुख मिट जाते हैं।
(नानक की तो यही बिनती है:) हे माया के बंधनों से छुड़ाने वाले मेरे मालिक! नानक को (माया के मोह से) बचा ले।
कार्तिक (की मजेदार ऋतु) में जिन्हें साधु-संगत मिल जाए, उनके (विछोड़े वाली) सारी चिंताएं फिक्रेंसमाप्त हो जाती हैं।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मंघिरि माहि सोहंदीआ हरि पिर संगि बैठड़ीआह ॥ तिन की सोभा किआ गणी जि साहिबि मेलड़ीआह ॥ तनु मनु मउलिआ राम सिउ संगि साध सहेलड़ीआह ॥ साध जना ते बाहरी से रहनि इकेलड़ीआह ॥ तिन दुखु न कबहू उतरै से जम कै वसि पड़ीआह ॥ जिनी राविआ प्रभु आपणा से दिसनि नित खड़ीआह ॥ रतन जवेहर लाल हरि कंठि तिना जड़ीआह ॥ नानक बांछै धूड़ि तिन प्रभ सरणी दरि पड़ीआह ॥ मंघिरि प्रभु आराधणा बहुड़ि न जनमड़ीआह ॥१०॥

मूलम्

मंघिरि माहि सोहंदीआ हरि पिर संगि बैठड़ीआह ॥ तिन की सोभा किआ गणी जि साहिबि मेलड़ीआह ॥ तनु मनु मउलिआ राम सिउ संगि साध सहेलड़ीआह ॥ साध जना ते बाहरी से रहनि इकेलड़ीआह ॥ तिन दुखु न कबहू उतरै से जम कै वसि पड़ीआह ॥ जिनी राविआ प्रभु आपणा से दिसनि नित खड़ीआह ॥ रतन जवेहर लाल हरि कंठि तिना जड़ीआह ॥ नानक बांछै धूड़ि तिन प्रभ सरणी दरि पड़ीआह ॥ मंघिरि प्रभु आराधणा बहुड़ि न जनमड़ीआह ॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंघरि = मंघर में। माहि = महीने मे। पिर संगि = पति के साथ। किआ गणी = मैं क्या बताऊँ? बयान नहीं हो सकती। जि = जिन्हें। साहिबि = साहिब ने। राम सिउ = परमात्मा से। साध सहेलड़ीआह संगि = सत्संगियों के साथ। बाहरी = बिना। ते = से। दिसहि = दिखती है। खड़ीआह = सावधान,सुचेत। कंठि = गले में (भाव हृदय में)। बांछै = मांगता है। दरि = दर पर। बहुड़ि = फिर, पुनः।10।
अर्थ: मंघर (के ठण्डे मीठे) महीने में वह जीव-स्त्रीयां सुंदर लगती हैं, जो हरि पति के साथ बैठी होती हैं। जिन्हें मालिक प्रभु ने अपने साथ मिला लिया, उनकी शोभा बयान नहीं हो सकती। सत्संगी सहेलियों की संगति में प्रभु के साथ (चिक्त जोड़ के) उनका शरीर उनका मन सदा खिला रहता है।
पर जो जीव स्त्रीयां सत्संगियों (की संगति) से वंचित रह जाती है, वह एकेली (त्यागी हुई) ही रहती हैं (जैसे सड़े हुए तिलों का पौधा खेत में बेआसरा ही रहता है। अकेली बगैर पति जिंद को देख के कामादिक कई वैरी आ के घेर लेते हैं, और) उनका (विकारों से उपजा) दुख कभी उतरता नहीं। वे जमों के वश पड़ी रहती हैं।
जिस जीव-स्त्रीयों ने पति प्रभु का साथ भोगा है, वह (विकारों के हमलों से) सदा सावधान दिखती हैं (विकार उन पर चोट नहीं कर सकते, क्योंकि) परमात्मा के गुणानुवाद उनके हृदय में परोए रहते हैं, जैसे हीरे जवाहरात व लालों का हार गले में डाला होता है।
नानक उन सत्संगियों के चरणों की धूल मांगता है जो प्रभु के दर पर पड़े रहते हैं, जो प्रभु की शरण में रहते हैं। मंघर में परमात्मा का स्मरण करने से दुबारा जनम मरण का चक्र नही पड़ता।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पोखि तुखारु न विआपई कंठि मिलिआ हरि नाहु ॥ मनु बेधिआ चरनारबिंद दरसनि लगड़ा साहु ॥ ओट गोविंद गोपाल राइ सेवा सुआमी लाहु ॥ बिखिआ पोहि न सकई मिलि साधू गुण गाहु ॥ जह ते उपजी तह मिली सची प्रीति समाहु ॥ करु गहि लीनी पारब्रहमि बहुड़ि न विछुड़ीआहु ॥ बारि जाउ लख बेरीआ हरि सजणु अगम अगाहु ॥ सरम पई नाराइणै नानक दरि पईआहु ॥ पोखु सुोहंदा सरब सुख जिसु बखसे वेपरवाहु ॥११॥

मूलम्

पोखि तुखारु न विआपई कंठि मिलिआ हरि नाहु ॥ मनु बेधिआ चरनारबिंद दरसनि लगड़ा साहु ॥ ओट गोविंद गोपाल राइ सेवा सुआमी लाहु ॥ बिखिआ पोहि न सकई मिलि साधू गुण गाहु ॥ जह ते उपजी तह मिली सची प्रीति समाहु ॥ करु गहि लीनी पारब्रहमि बहुड़ि न विछुड़ीआहु ॥ बारि जाउ लख बेरीआ हरि सजणु अगम अगाहु ॥ सरम पई नाराइणै नानक दरि पईआहु ॥ पोखु सुोहंदा सरब सुख जिसु बखसे वेपरवाहु ॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पोखि = पोह में। तुखारु = कक्कर, कोहरा। न विआपई = जोर नहीं डालता। कंठि = गले में, गले से (हृदय में)। नाहु = नाथ, पति। बेधिआ = बेधा जाता है। चरनारबिंद = चरण+अरविंद, चरण कमल। दरसनि = दीदार में। साहु = एक-एक स्वास। लाहु = लाभ। बिखिआ = माया। साधू = गुरु। गुण गाहु = गुणों की विचार, गुणों में चुभी। जह ते = जिस प्रभु से। समाहु = लिव। करु = हाथ। गहि = पकड़ के। पारब्रहमि = पारब्रह्म ने। बारि जाउ = मैं वारने जाती हूँ। बेरिया = वारी। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाहु = अगाध, गहरे जिगरे वाला। सरम = लज्जा। सरम पई = इज्जत रखनी पड़ी। दरि = दर पे। सुोहंदा = सुंदर लगता है।11।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सुोहंदा’ असल में ‘सोहंदा’ है, उच्चारण ‘सुहंदा’ करना है। अक्षर ‘स’ के साथ ‘ो’ और ‘ु’ दोनों मात्राएं इस्तेमाल हुई हैं।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: पोह के महीने जिस जीव-स्त्री के गले से (हृदय में) प्रभु पति लगा हुआ हो उसे कक्कर (मन की कठोरता, कोरापन) जोर नहीं डाल सकते। (क्योंकि) उसकी तवज्जो प्रभु के दीदार की चाहत में जुड़ी रहती है। उसका मन प्रभु के सोहने चरणों में बेधा रहता है।
जिस जीव-स्त्री ने गोबिंद गोपाल का आसरा लिया है, उसने प्रभु पति की सेवा का लाभ कमाया है। माया उसको छू नहीं सकती। गुरु को मिल के उसने प्रभु की महिमा में डुबकी लगाई है। जिस परमात्मा से उसने जन्म लिया है, उसी में वह जुड़ी रहती है। उसकी लगन प्रभु की प्रीति में लगी रहती है। पारब्रह्म ने (उसका) हाथ पकड़ कर (उसे अपने चरणों में) जोड़ा हुआ है, वह मुड़ (उसके चरणों से) बिछुड़ती नहीं। (पर) वह सज्जन प्रभु बड़ा अगम्य (पहुँच से परे) है, बड़ा गहरा है, मैं उससे लाखो बार कुर्बान हूँ। हे नानक! (वह बड़ा दयालु है) दर पर गिरने से उस प्रभु को इज्जत रखनी ही पड़ती है।
जिस प रवह बेपरवाह प्रभु मेहर करता है, उसे पोह का महीना सुहावना लगता है उसे सारे ही सुख मिल जाते हैं।11।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

माघि मजनु संगि साधूआ धूड़ी करि इसनानु ॥ हरि का नामु धिआइ सुणि सभना नो करि दानु ॥ जनम करम मलु उतरै मन ते जाइ गुमानु ॥ कामि करोधि न मोहीऐ बिनसै लोभु सुआनु ॥ सचै मारगि चलदिआ उसतति करे जहानु ॥ अठसठि तीरथ सगल पुंन जीअ दइआ परवानु ॥ जिस नो देवै दइआ करि सोई पुरखु सुजानु ॥ जिना मिलिआ प्रभु आपणा नानक तिन कुरबानु ॥ माघि सुचे से कांढीअहि जिन पूरा गुरु मिहरवानु ॥१२॥

मूलम्

माघि मजनु संगि साधूआ धूड़ी करि इसनानु ॥ हरि का नामु धिआइ सुणि सभना नो करि दानु ॥ जनम करम मलु उतरै मन ते जाइ गुमानु ॥ कामि करोधि न मोहीऐ बिनसै लोभु सुआनु ॥ सचै मारगि चलदिआ उसतति करे जहानु ॥ अठसठि तीरथ सगल पुंन जीअ दइआ परवानु ॥ जिस नो देवै दइआ करि सोई पुरखु सुजानु ॥ जिना मिलिआ प्रभु आपणा नानक तिन कुरबानु ॥ माघि सुचे से कांढीअहि जिन पूरा गुरु मिहरवानु ॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माघ = माघ नक्षत्र वाली पूरनमासी का महीना। माघि = माघ महीने में।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस महीने का पहला दिन हिन्दू शास्त्रों के अनुसार बड़ा पवित्र है। हिन्दू सज्जन माघी वाले दिन प्रयाग तीर्थ का स्नान करना बहुत पुण्य का कर्म समझते हैं।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मजनु = चुभ्भी, स्नान। दानु = नामु का दान। जनम करम मलु = कई जनमों के किए कर्मों से पैदा हुई विकारों की मैल। गुमान = अहंकार। कामि = काम में। करोधि = क्रोध में। मोहीऐ = ठगे जाते हैं। सुआन = कुत्ता। मारगि = रास्ते पर। उसतति = शोभा। अठसठि = अढ़सठ। परवानु = जाना माना (धार्मिक कर्म)। करि = कर के। सुजानु = सयाना। कांढीअहि = कहे जाते हैं।12।
अर्थ: माघ में (माघी वाले दिन लोग प्रयाग आदिक तीर्थों पे स्नान करना बड़ा पुण्य का काम समझते हैं, पर तू हे भाई!) गुरमुखों की संगति में (बैठ, यही है तीर्थों का) स्नान, उनकी चरण धूल में स्नान कर (निम्रता भाव से गुरमुखों की संगति कर, वहां) परमात्मा का नाम जप, परमात्मा की महिमा सुन। और सभी को इस नाम की दाति बाँट। (इस तरह) कई जन्मों के किए कर्मों से पैदा हुई विकारों की मैल (तेरे मन में से) उतर जाएगी। तेरे मन में से अहंकार दूर हो जाएगा।
(नाम जपने की इनायत से) काम-क्रोध में नहीं फसते। लोभ रूपी कुत्ता भी खत्म हो जाता है (लोभ, जिसके असर तले मनुष्य कुत्ते की तरह दर-दर भटकता है)। इस सच्चे रास्ते पर चलने से जगत भी शोभा (स्तुति) करता है। अढ़सठ तीर्थों का स्नान, सारे पुंन्य कर्म, जीवों पे दया करनी जो धार्मिक कर्म माने गए हैं (ये सब कुछ स्मरण में ही आ जाता है)।
परमात्मा कृपा करके जिस मनुष्य को (नाम जपने की दाति) देता है, वह मनुष्य (जिंदगी के सही रास्ते की पहचान वाला) बुद्धिमान हो जाता है।
हे नानक! (कह:) जिन्हें प्यारा प्रभु मिल गया है, मैं उनसे सदके जाता हूँ। माघ महीने में सिर्फ वही स्वच्छ लोग कहे जाते हैं, जिस पर पूरा सतिगुरु दयावान होता है, और जिनको नाम जपने की दाति देता है।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलगुणि अनंद उपारजना हरि सजण प्रगटे आइ ॥ संत सहाई राम के करि किरपा दीआ मिलाइ ॥ सेज सुहावी सरब सुख हुणि दुखा नाही जाइ ॥ इछ पुनी वडभागणी वरु पाइआ हरि राइ ॥ मिलि सहीआ मंगलु गावही गीत गोविंद अलाइ ॥ हरि जेहा अवरु न दिसई कोई दूजा लवै न लाइ ॥ हलतु पलतु सवारिओनु निहचल दितीअनु जाइ ॥ संसार सागर ते रखिअनु बहुड़ि न जनमै धाइ ॥ जिहवा एक अनेक गुण तरे नानक चरणी पाइ ॥ फलगुणि नित सलाहीऐ जिस नो तिलु न तमाइ ॥१३॥

मूलम्

फलगुणि अनंद उपारजना हरि सजण प्रगटे आइ ॥ संत सहाई राम के करि किरपा दीआ मिलाइ ॥ सेज सुहावी सरब सुख हुणि दुखा नाही जाइ ॥ इछ पुनी वडभागणी वरु पाइआ हरि राइ ॥ मिलि सहीआ मंगलु गावही गीत गोविंद अलाइ ॥ हरि जेहा अवरु न दिसई कोई दूजा लवै न लाइ ॥ हलतु पलतु सवारिओनु निहचल दितीअनु जाइ ॥ संसार सागर ते रखिअनु बहुड़ि न जनमै धाइ ॥ जिहवा एक अनेक गुण तरे नानक चरणी पाइ ॥ फलगुणि नित सलाहीऐ जिस नो तिलु न तमाइ ॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फलगुणि = फागुन (महीने) में। उपारजना = उपज, प्रकाश। राम के सहाई = परमात्मा के साथ मिलने में सहायता करने वाले। सेज = हृदय। जाइ = जगह। वरु = पति प्रभु। गावही = गाती हैं। मंगलु = खुशी का गीत, आत्मिक आनंद पैदा करने वाला गीत, महिमा की वाणी। अलाइ = उच्चार के, अलाप के। दिसई = दिखता। लवै = नजदीक। लवै न लाइ = पास नहीं लाते, नजदीक का नहीं, बराबरी के लायक नहीं। हलतु = (अत्र) ये लोक। पलतु = (परत्र) परलोक। सवारिओनु = उस (प्रभु) ने सवार दिया। दितीअनु = उस (प्रभु) ने दी। जाइ = जगह। ते = से। रखिअनु = उस (हरि) ने रख लिए। धाइ = भाग दौड़, भटकना। पाइ = पड़ कर। तिलु = रत्ती भी। तमाइ = तमा, लालच।13।
अर्थ: (सर्दी की ऋतु की कड़ाके की सर्दी के बाद बहार फिरने पे फागुन के महीने में लोग होली के रंग तमाशों के साथ खुशियां मनाते हैं, पर) फागुन में (उन जीव स्त्रीयों के अंदर) आत्मिक आनंद पैदा होता है, जिनके हृदय में सज्जन हरि प्रत्यक्ष आ बसता है। परमात्मा के साथ मिलने में सहायता करने वाले संत जन मेहर करके उन्हें प्रभु के साथ जोड़ देते हैं। उनकी हृदय सेज सुंदर बन जाती है। उन्हें सारे ही सुख प्राप्त हो जाते हैं। फिर दुखों के लिए (उनके हृदय में) कहीं रत्ती भर जगह भी नहीं रह जाती। उन भाग्यशाली जीव स्त्रीयों की मनोकामना पूरी हो जाती है। उन्हें हरि प्रभु पति मिल जाता है। वह सत्संगी सहेलियों के साथ मिल के गोबिंद की महिमा के गीत अलाप के आत्मिक आनंद पैदा करने वाली गुरबाणी गाती हैं। परमात्मा जैसा कोई और, उसकी बराबरी कर सकने वाला कोई दूसरा उन्हें कहीं दिखता ही नहीं।
उस परमात्मा ने (उन सत्संगियों का) लोक परलोक संवार दिया है, उन्हें (अपने चरणों में लगन लीनता वाली) ऐसी जगह बख्शी है, जो कभी डोलती नहीं। प्रभु ने संसार समुंदर से उन्हें (हाथ दे के) रख लिया है, जन्मों के चक्र में दुबारा उनकी दौड़ भाग नहीं होती।
हे नानक! (कह:) हमारी एक जीभ है, प्रभु के अनेक ही गुण हैं (हम उन्हें बयान करने के लायक नहीं हैं, पर) जो जीव उसकी चरणों में पड़ते हैं (उसका आसरा देखते हैं) वह (संसार समुंदर से) तैर जाते है।
फागुन के महीने में (होली आदि में से आनंद ढूँढने की बजाए) सदा उस परमात्मा की महिमा करनी चाहिए, जिसे (अपनी उपमा कराने का) रत्ती भर भी लालच नहीं है (इसमें हमारा ही भला है)।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि जिनि नामु धिआइआ तिन के काज सरे ॥ हरि गुरु पूरा आराधिआ दरगह सचि खरे ॥ सरब सुखा निधि चरण हरि भउजलु बिखमु तरे ॥ प्रेम भगति तिन पाईआ बिखिआ नाहि जरे ॥ कूड़ गए दुबिधा नसी पूरन सचि भरे ॥ पारब्रहमु प्रभु सेवदे मन अंदरि एकु धरे ॥ माह दिवस मूरत भले जिस कउ नदरि करे ॥ नानकु मंगै दरस दानु किरपा करहु हरे ॥१४॥१॥

मूलम्

जिनि जिनि नामु धिआइआ तिन के काज सरे ॥ हरि गुरु पूरा आराधिआ दरगह सचि खरे ॥ सरब सुखा निधि चरण हरि भउजलु बिखमु तरे ॥ प्रेम भगति तिन पाईआ बिखिआ नाहि जरे ॥ कूड़ गए दुबिधा नसी पूरन सचि भरे ॥ पारब्रहमु प्रभु सेवदे मन अंदरि एकु धरे ॥ माह दिवस मूरत भले जिस कउ नदरि करे ॥ नानकु मंगै दरस दानु किरपा करहु हरे ॥१४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। सरे = सिरे चढ़ जाता है। खरे = सही। दरगह सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की हजूरी में। निधि = खजाना। भउजलु = संसार समुंदर। बिखमु = मुश्किल। तिन = उन (लोगों) ने। बिखिआ = माया। जरे = जलते। कूड़ = व्यर्थ झूठे लालच। दुबिधा = दुचिक्तापन, मन की भटकना। सचि = सच्चे प्रभु में। भरे = टिके रहते हैं। धरे = धर के। माह = महीने। दिवस = दिहाड़े। मूरत = महूरत। जिन कउ = जिस पे। हरे = हे हरि!।14।
अर्थ: जिस जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम जपा है, उनके सारे कारज सफल हो जाते हैं। जिन्होंने प्रभु को पूरे गुरु को आराधा है, वह सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की हजूरी में सही रहते हैं। प्रभु के चरण ही सारे सुखों का खजाना है, (जो जीव चरणों में लगते हैं, वह) मुश्किल संसार समुंदर से (सही सलामत) पार हो जाते हैं। उन्हें प्रभु का प्यार, प्रभु की भक्ति प्राप्त होती है। माया की तृष्णा की आग में वे नहीं जलते। उनके व्यर्थ झूठे लालच खत्म हो जाते हैं। उनके मन से भटकना दूर हो जाती है। वे मुकम्मल तौर पर सदा स्थिर हरि में टिके रहते हैं। वे अपने मन में एक परम ज्योति परमात्मा को बसा के सदा उसको स्मरण करते है।
जिनपे प्रभु मेहर की नजर करता है (अपने नाम की दाति देता है) उनके वास्ते सारे महीने, सारे दिन, सारे महूरत बढ़िया हैं (संगरांद आदि की पवित्रता के भ्रम भुलेखे उन्हें नहीं पड़ते)। हे हरि! मिहर कर, मैं नानक (तेरे दर से तेरे) दीदार की दाति माँगता हूँ।14।