०६ गुरु अर्जन-देव असटपदीआ

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ घरु १ ॥ अंतरि अलखु न जाई लखिआ ॥ नामु रतनु लै गुझा रखिआ ॥ अगमु अगोचरु सभ ते ऊचा गुर कै सबदि लखावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ घरु १ ॥ अंतरि अलखु न जाई लखिआ ॥ नामु रतनु लै गुझा रखिआ ॥ अगमु अगोचरु सभ ते ऊचा गुर कै सबदि लखावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = (हरेक जीव के) अंदर। अलखु = अदृष्ट परमात्मा। गुझा = गुप्त, छुपा हुआ। ते = से। सबदि = शब्द से।1।
अर्थ: अदृष्ट परमातमा (हरेक जीव के) अंदर (बसता है, पर हरेक जीव अपने अंदर उसके अस्तित्व को) विधि नहीं सकता। (हरेक जीव के अंदर) परमात्मा का श्रेष्ठ अमोलक नाम मौजूद है (परमातमा ने हरेक के अंदर) छुपा के रख दिया है (हरेक जीव को उसकी कद्र नहीं)। (सब जीवों के अंदर बसा हुआ भी परमात्मा) जीवों की पहुँच से परे है। जीवों की ज्ञानेंद्रियों की पहुँच से परे है। सब जीवों की आत्मिक उड़ान से ऊँचा है। (हां) गुरु के शब्द में जुड़ने से (जीव को अपने अंदर उसके अस्तित्व की) समझ आ सकती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी कलि महि नामु सुणावणिआ ॥ संत पिआरे सचै धारे वडभागी दरसनु पावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी कलि महि नामु सुणावणिआ ॥ संत पिआरे सचै धारे वडभागी दरसनु पावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलि महि = जगत में, मनुष्य जीवन में।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहाँ किसी खास युग के बढ़िया घटिया होने का जिक्र नहीं चल रहा। जिस समय सतिगुरु जी शारीरिक तौर पर जगत में आए उस समय को कलियुग कहा जा रहा है। सो, साधारण तौर पर ही समय का जिक्र है।

दर्पण-भाषार्थ

सचे = सदा स्थिर प्रभु ने। धारे = आसरा दिया है।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उन मनुष्यों से सदके कुर्बान जाता हूं, जो मानव जनम में (आ के परमात्मा का नाम सुनते हैं तथा और लोगों को) नाम सुनाते हैं। सदा स्थिर परमात्मा ने जिन्हें (अपने नाम का) सहारा दिया है, वह संत बन गए। वे उसके प्यारे हो गए। उन भाग्यशालियों ने परमात्मा के दर्शन पा लिए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधिक सिध जिसै कउ फिरदे ॥ ब्रहमे इंद्र धिआइनि हिरदे ॥ कोटि तेतीसा खोजहि ता कउ गुर मिलि हिरदै गावणिआ ॥२॥

मूलम्

साधिक सिध जिसै कउ फिरदे ॥ ब्रहमे इंद्र धिआइनि हिरदे ॥ कोटि तेतीसा खोजहि ता कउ गुर मिलि हिरदै गावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधिक = योग साधना करने वाले योगी। सिध = योग साधना में माहिर योगी। कोटि = करोड़।2।
अर्थ: योग साधना करने वाले योगी, योग साधना में माहिर योगी, जिस परमात्मा (की प्राप्ति) की खातिर (जंगलों पहाड़ों में भटकते) फिरते हैं। ब्रह्मा इन्द्र (आदि देवते) जिसको अपने हृदय में स्मरण करते हैं। तैंतीस करोड़ देवते भी उसकी तलाश करते हैं (पर दीदार नहीं कर सकते। भाग्यशाली मनुष्य) गुरु को मिल के अपने हृदय में (उसके गुण) गाते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आठ पहर तुधु जापे पवना ॥ धरती सेवक पाइक चरना ॥ खाणी बाणी सरब निवासी सभना कै मनि भावणिआ ॥३॥

मूलम्

आठ पहर तुधु जापे पवना ॥ धरती सेवक पाइक चरना ॥ खाणी बाणी सरब निवासी सभना कै मनि भावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जापे = जपती है, हुक्म में चलती है। पवन = हवा। पाइक = टहिलण, सेविका, टहल करने वाली। मनि = मन में।3।
अर्थ: (हे प्रभु! तेरी बनायी हुई) हवा आठों पहर तेरे हुक्म में चलती है। (तेरी पैदा की हुई) धरती तेरे चरणों की टहिलन है सेविका है। चारों खाणियों में पैदा हुए और भांति भांति की बोलियां बोलने वाले सब जीवों के अंदर तू बस रहा है। तू सब जीवों के मन में प्यारा लगता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचा साहिबु गुरमुखि जापै ॥ पूरे गुर कै सबदि सिञापै ॥ जिन पीआ सेई त्रिपतासे सचे सचि अघावणिआ ॥४॥

मूलम्

साचा साहिबु गुरमुखि जापै ॥ पूरे गुर कै सबदि सिञापै ॥ जिन पीआ सेई त्रिपतासे सचे सचि अघावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। जापै = दिखता है, प्रतीत होता है, सूझता है। त्रिपतासे = तृप्त हो गए। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। अघावणिआ = तृप्त हो गए।4।
अर्थ: (हे भाई!) मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है। गुरु की शरण पड़ने से उसकी सूझ आती है। पूरे गुरु के शब्द में जुड़ने से ही उसके साथ जान पहिचान बनती है। जिस मनुष्यों ने उसका नाम अंमृत पिया है, वही (माया की तृष्णा की तरफ से) तृप्त हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसु घरि सहजा सोई सुहेला ॥ अनद बिनोद करे सद केला ॥ सो धनवंता सो वड साहा जो गुर चरणी मनु लावणिआ ॥५॥

मूलम्

तिसु घरि सहजा सोई सुहेला ॥ अनद बिनोद करे सद केला ॥ सो धनवंता सो वड साहा जो गुर चरणी मनु लावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घरि = हृदय घर में। सहजा = आत्मिक अडोलता। सुहेला = सुखी, आसान। अनद बिनोद केल = आत्मिक खुशियां आत्मिक आनंद। सद = सदा।5।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के चरणों में अपना मन जोड़ता है, उसके हृदय घर में आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है। वह मनुष्य सुखी (जीवन व्यतीत करता) है। वह सदा आत्मिक खुशियां आत्मिक आनंद हासिल करता है। वह मनुष्य (असल) धन का मालिक हो गया है। वह मनुष्य बड़ा व्यापारी बन गया है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पहिलो दे तैं रिजकु समाहा ॥ पिछो दे तैं जंतु उपाहा ॥ तुधु जेवडु दाता अवरु न सुआमी लवै न कोई लावणिआ ॥६॥

मूलम्

पहिलो दे तैं रिजकु समाहा ॥ पिछो दे तैं जंतु उपाहा ॥ तुधु जेवडु दाता अवरु न सुआमी लवै न कोई लावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तैं = तू। समाहा = संवाह्य to collect, प्रबंध किया। उपाहा = पैदा किया। लवै = बराबर। लवै न लावणिआ = बराबरी पे नहीं लाया जा सकता।6।
अर्थ: (हे प्रभु! जीव को पैदा करने से) पहले तू (माँ के थनों में उसके वास्ते दूध) रिजक का प्रबंध करता है। फिर तू जीव को पैदा करता है। हे स्वामी! तेरे जितना बड़ा और कोई दाता नहीं है, कोई तेरी बराबरी नहीं कर सकता।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु तूं तुठा सो तुधु धिआए ॥ साध जना का मंत्रु कमाए ॥ आपि तरै सगले कुल तारे तिसु दरगह ठाक न पावणिआ ॥७॥

मूलम्

जिसु तूं तुठा सो तुधु धिआए ॥ साध जना का मंत्रु कमाए ॥ आपि तरै सगले कुल तारे तिसु दरगह ठाक न पावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुठा = प्रसन्न हुआ। मंत्र = उपदेश। ठाक = रुकावट।7।
अर्थ: (हे प्रभु! जिस मनुष्य पे तू प्रसन्न होता है वह तेरा ध्यान धरता है। वह उन गुरमुखों का उपदेश कमाता है जिन्होंने अपने मन को साधा हुआ है। वह मनुष्य (संसार समुंदर में से) स्वयं पार लांघ जाता है, अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेता है। तेरी हजूरी में पहुँचने के राह में उसे कोई रोक नही सकता।7।

[[0131]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं वडा तूं ऊचो ऊचा ॥ तूं बेअंतु अति मूचो मूचा ॥ हउ कुरबाणी तेरै वंञा नानक दास दसावणिआ ॥८॥१॥३५॥

मूलम्

तूं वडा तूं ऊचो ऊचा ॥ तूं बेअंतु अति मूचो मूचा ॥ हउ कुरबाणी तेरै वंञा नानक दास दसावणिआ ॥८॥१॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूचा = बड़ा। वंञा = वंजां, जाता हूँ। दास दसावणिआ = दासों का दास।8।
अर्थ: (हे प्रभु! ताकत व स्मर्था में) तू (सब से) बड़ा है (आत्मिक उच्चता में) तू सबसे ऊँचा है। तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। तू बेअंत बड़ी हस्ती वाला है।
हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ, मैं तेरे दासों का दास हूँ।8।1।35।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अंक १ बताता है कि ये अष्टपदी महले पंजवें (श्री गुरु अरजुन देव जी) की है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ कउणु सु मुकता कउणु सु जुगता ॥ कउणु सु गिआनी कउणु सु बकता ॥ कउणु सु गिरही कउणु उदासी कउणु सु कीमति पाए जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ कउणु सु मुकता कउणु सु जुगता ॥ कउणु सु गिआनी कउणु सु बकता ॥ कउणु सु गिरही कउणु उदासी कउणु सु कीमति पाए जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सु = वह मनुष्य। मुकता = माया के बंधनों से आजाद। जुगता = प्रभु चरणों में जुड़ा हुआ। गिआनी = परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने वाला। बकता = वक्ता, प्रभु के गुण वर्णन करने वाला। गिरही = गृहस्थी।1।
अर्थ: वह कौन सा मनुष्य है जो माया के बंधनों से आजाद रहता है और प्रभु के चरणों में जुड़ा रहता है? वह कौन सा मनुष्य है जो परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनाए रखता है और उसकी महिमा करता है? (अच्छा) गृहस्थी कौन हो सकता है? माया से निर्लिप कौन है? वह कौन सा मनुष्य है जो (मनुष्य जन्म की) कद्र समझता है?।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किनि बिधि बाधा किनि बिधि छूटा ॥ किनि बिधि आवणु जावणु तूटा ॥ कउण करम कउण निहकरमा कउणु सु कहै कहाए जीउ ॥२॥

मूलम्

किनि बिधि बाधा किनि बिधि छूटा ॥ किनि बिधि आवणु जावणु तूटा ॥ कउण करम कउण निहकरमा कउणु सु कहै कहाए जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किनि बिधि = किस तरीके से? कउण करम = (अच्छे) कौन से कर्म? निहकरमा = मेहनत करते हुए भी वासना रहित।2।
अर्थ: मनुष्य (माया के मोह के बंधनों में) कैसे बंध जाता है और कैसे (उन बंधनों से) स्वतंत्र होता है? किस तरीके से जनम मरन का चक्र खत्म होता है? अच्छे काम कौन से है? वह कौन सा मनुष्य है जो दुनिया में बिचरता हुआ भी वासना रहित है? वह कौन सा मनुष्य है जो स्वयं महिमा करता है तथा (औरों से भी) करवाता है?।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कउणु सु सुखीआ कउणु सु दुखीआ ॥ कउणु सु सनमुखु कउणु वेमुखीआ ॥ किनि बिधि मिलीऐ किनि बिधि बिछुरै इह बिधि कउणु प्रगटाए जीउ ॥३॥

मूलम्

कउणु सु सुखीआ कउणु सु दुखीआ ॥ कउणु सु सनमुखु कउणु वेमुखीआ ॥ किनि बिधि मिलीऐ किनि बिधि बिछुरै इह बिधि कउणु प्रगटाए जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इह बिधि = ये ढंग।3।
अर्थ: सुखी जीवन देने वाला कौन है? कौन दुखों में घिरा हुआ है? सन्मुख किस को कहा जाता है? बेमुख किसे कहते हैं? प्रभु चरणों में किस तरह मिल सकते हैं? मनुष्य प्रभु से कैसे बिछुड़ जाता है? ये विधि कौन सिखाता है?।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कउणु सु अखरु जितु धावतु रहता ॥ कउणु उपदेसु जितु दुखु सुखु सम सहता ॥ कउणु सु चाल जितु पारब्रहमु धिआए किनि बिधि कीरतनु गाए जीउ ॥४॥

मूलम्

कउणु सु अखरु जितु धावतु रहता ॥ कउणु उपदेसु जितु दुखु सुखु सम सहता ॥ कउणु सु चाल जितु पारब्रहमु धिआए किनि बिधि कीरतनु गाए जीउ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अखरु = शब्द। धावतु = (विकारों की ओर) दौड़ता (मन)। सम = एक जैसा।4।
अर्थ: वह कौन सा शब्द है जिससे विकारों की तरफ दौड़ता मन टिक जाता है (ठहर जाता है)? वह कौन सा उपदेश है जिस पे चल के मनुष्य दुख सुख एक समान सह सकता है? वह कौन सा जीवन ढंग है जिससे मनुष्य परमात्मा को स्मरण कर सके? किस तरह परमात्मा की महिमा करता रहे?।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि मुकता गुरमुखि जुगता ॥ गुरमुखि गिआनी गुरमुखि बकता ॥ धंनु गिरही उदासी गुरमुखि गुरमुखि कीमति पाए जीउ ॥५॥

मूलम्

गुरमुखि मुकता गुरमुखि जुगता ॥ गुरमुखि गिआनी गुरमुखि बकता ॥ धंनु गिरही उदासी गुरमुखि गुरमुखि कीमति पाए जीउ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। धंनु = धन्य, भाग्यशाली।5।
अर्थ: गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलने वाला मनुष्य माया के बंधनों से आजाद रहता है और परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है। गुरु की शरण में रहने वाला मनुष्य ही परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है और प्रभु की महिमा करता है। गुरु के सनमुख रहने वाला मनुष्य ही भाग्यशाली गृहस्थी है। वह दुनिया की किर्त-कार करता हुआ भी निर्लिप रहता है। वही मनुष्य जन्म की कद्र समझता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै बाधा गुरमुखि छूटा ॥ गुरमुखि आवणु जावणु तूटा ॥ गुरमुखि करम गुरमुखि निहकरमा गुरमुखि करे सु सुभाए जीउ ॥६॥

मूलम्

हउमै बाधा गुरमुखि छूटा ॥ गुरमुखि आवणु जावणु तूटा ॥ गुरमुखि करम गुरमुखि निहकरमा गुरमुखि करे सु सुभाए जीउ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुभाए = प्रेम में टिक के।6।
अर्थ: (अपने मन के पीछे चल के मनुष्य अपने ही) अहंकार के कारण (माया के बंधनों में) बंध जाता है। गुरु की शरण पड़ के (इन बंधनों से) आजाद हो जाता है। गुरु के बताए राह पे चलने से मनुष्य के जनम मरन का चक्र समाप्त हो जाता है। गुरु के सन्मुख रह के अच्छे काम हो सकते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य दुनिया की किर्त कार करता हुआ भी वासना रहित रहता है। ऐसा मनुष्य जो कुछ भी करता है प्रभु के प्रेम में टिक के करता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि सुखीआ मनमुखि दुखीआ ॥ गुरमुखि सनमुखु मनमुखि वेमुखीआ ॥ गुरमुखि मिलीऐ मनमुखि विछुरै गुरमुखि बिधि प्रगटाए जीउ ॥७॥

मूलम्

गुरमुखि सुखीआ मनमुखि दुखीआ ॥ गुरमुखि सनमुखु मनमुखि वेमुखीआ ॥ गुरमुखि मिलीऐ मनमुखि विछुरै गुरमुखि बिधि प्रगटाए जीउ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सुखी जीवन वाला है। पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य नित्य दुखी रहता है। गुरु के बताए मार्ग पर चलने वाला मनुष्य परमात्मा की तरफ मुंह रखने वाला है। अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा रब से मुंह मोड़े रखता है। गुरु के सन्मुख रहने से परमात्मा को मिल सकते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा परमातमा से विछुड़ जाता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ही (सही जीवन की) विधि सिखाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि अखरु जितु धावतु रहता ॥ गुरमुखि उपदेसु दुखु सुखु सम सहता ॥ गुरमुखि चाल जितु पारब्रहमु धिआए गुरमुखि कीरतनु गाए जीउ ॥८॥

मूलम्

गुरमुखि अखरु जितु धावतु रहता ॥ गुरमुखि उपदेसु दुखु सुखु सम सहता ॥ गुरमुखि चाल जितु पारब्रहमु धिआए गुरमुखि कीरतनु गाए जीउ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु के मुंह से निकले शब्द ही वह बोल हैं जिसकी इनायत से विकारों की तरफ दौड़ता मन खड़ा हो जाता है। गुरु से मिला उपदेश ही (ये स्मर्था रखता है कि मनुष्य उस के आसरे) दुख सुख को एक समान करके सहता है। गुरु की राह पे चलना ही ऐसी जीवन चाल है कि इस के द्वारा मनुष्य परमातमा का ध्यान धर सकता है और परमात्मा की महिमा करता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगली बणत बणाई आपे ॥ आपे करे कराए थापे ॥ इकसु ते होइओ अनंता नानक एकसु माहि समाए जीउ ॥९॥२॥३६॥

मूलम्

सगली बणत बणाई आपे ॥ आपे करे कराए थापे ॥ इकसु ते होइओ अनंता नानक एकसु माहि समाए जीउ ॥९॥२॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर, गुरमुख और मनमुख–ये) सारी रचना परमात्मा ने स्वयं ही बनायी है, (सब जीवों में व्यापक हो के) वह स्वयं ही सब कुछ करता है और (जीवों से) करवाता है। वह स्वयं ही जगत की सारी खेल चला रहा है।
हे नानक! वह स्वयं ही अपने एक स्वरूप से बेअंत रूपों रंगों वाला बना हुआ है। (यह सारा बहुरंगी जगत) उस एक में ही लीन हो जाता है।9।2।36।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ प्रभु अबिनासी ता किआ काड़ा ॥ हरि भगवंता ता जनु खरा सुखाला ॥ जीअ प्रान मान सुखदाता तूं करहि सोई सुखु पावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ प्रभु अबिनासी ता किआ काड़ा ॥ हरि भगवंता ता जनु खरा सुखाला ॥ जीअ प्रान मान सुखदाता तूं करहि सोई सुखु पावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काड़ा = फिक्र, चिन्ता। भगवंता = सब सुखों का मालिक। खरा = बहुत। मान = मन का।1।
अर्थ: (जिस मनुष्य को ये यकीन हो कि मेरे सिर पर) अबिनाशी प्रभु (रक्षक है, उसे) कोई चिन्ता फिक्र नहीं होता। (जब मनुष्य को ये निश्चय हो कि) सब सुखों का मालिक हरि (मेरा रक्षक है) तो वह बहुत आसान जीवन व्यतीत करता है।
हे प्रभु जिसे ये निश्चय है कि तू जिंद का प्राणों का, मन का सुख दाता है, और जो कुछ तू करता है वही होता है, वह मनुष्य आत्मिक आनंद माणता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी गुरमुखि मनि तनि भावणिआ ॥ तूं मेरा परबतु तूं मेरा ओला तुम संगि लवै न लावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी गुरमुखि मनि तनि भावणिआ ॥ तूं मेरा परबतु तूं मेरा ओला तुम संगि लवै न लावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। ओला = आसरा। लवै = नजदीक। लवै न लावणिआ = बराबरी का नहीं।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) मैं तेरे से सदके हूँ कुर्बान हूं। गुरु की शरण पड़ने से तू मन में, दिल में प्यारा लगने लग जाता है। हे प्रभु! तू मेरे लिए पर्बत (के समान सहारा) है, तू मेरा आसरा है। मैं तेरे साथ किसी और को बराबरी का दर्जा नहीं दे सकता।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरा कीता जिसु लागै मीठा ॥ घटि घटि पारब्रहमु तिनि जनि डीठा ॥ थानि थनंतरि तूंहै तूंहै इको इकु वरतावणिआ ॥२॥

मूलम्

तेरा कीता जिसु लागै मीठा ॥ घटि घटि पारब्रहमु तिनि जनि डीठा ॥ थानि थनंतरि तूंहै तूंहै इको इकु वरतावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक शरीर में। तिनि = उस ने। जनि = जन में। तिनि जनि = उस जन ने। थानि थनंतरि = हरेक जगह में। अंतरि = में।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू पारब्रह्म (हरेक हृदय में बस रहा) है। जिस मनुष्य को तेरा भाणा मीठा लगने लग जाए, उस मनुष्य ने तूझे हरेक हृदय में बसा हुआ देख लिया है। हरेक जगह में तू ही तू ही, सिर्फ एक तू ही बस रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगल मनोरथ तूं देवणहारा ॥ भगती भाइ भरे भंडारा ॥ दइआ धारि राखे तुधु सेई पूरै करमि समावणिआ ॥३॥

मूलम्

सगल मनोरथ तूं देवणहारा ॥ भगती भाइ भरे भंडारा ॥ दइआ धारि राखे तुधु सेई पूरै करमि समावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाइ = प्रेम से। सेई = वही लोग। करमि = बख्शिश से।3।
अर्थ: हे प्रभु! सब जीवों की मन मांगी मुरादें तू ही पूरी करने वाला है। तेरे घर में भक्ति धन के, प्रेम धन के खजाने भरे पड़े हैं। जो लोग तेरी पूरी मेहर से तेरे में लीन रहते हैं, दया करके उनको तू (माया के हमलों से) बचा लेता है।3।

[[0132]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंध कूप ते कंढै चाड़े ॥ करि किरपा दास नदरि निहाले ॥ गुण गावहि पूरन अबिनासी कहि सुणि तोटि न आवणिआ ॥४॥

मूलम्

अंध कूप ते कंढै चाड़े ॥ करि किरपा दास नदरि निहाले ॥ गुण गावहि पूरन अबिनासी कहि सुणि तोटि न आवणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूप = कूआँ। अंध कूप ते = माया के मोह के अंधे कूएं से। नदरि = मेहर की निगाह से। निहाले = देखता है। करि = करके। सुणि = सुन के।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा अपने सेवकों पर मेहर करता है। उनको मेहर की नजर के साथ देखता है, उन्हें माया के मोह के अंधे कूएं में से निकाल के बाहर किनारे पर चढ़ा देता हैं वह सेवक अविनाशी प्रभु के गुण गाते रहते हैं।
(हे भाई! प्रभु के गुण बेअंत हैं) कहने से, सुनने से (उसके गुणों का) खात्मा नहीं हो सकता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐथै ओथै तूंहै रखवाला ॥ मात गरभ महि तुम ही पाला ॥ माइआ अगनि न पोहै तिन कउ रंगि रते गुण गावणिआ ॥५॥

मूलम्

ऐथै ओथै तूंहै रखवाला ॥ मात गरभ महि तुम ही पाला ॥ माइआ अगनि न पोहै तिन कउ रंगि रते गुण गावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गरभ महि = पेट में। रंग रते = प्रेम रंग में रंगे हुए।5।
अर्थ: हे प्रभु! इस लोक में परलोक में तू ही (सब जीवों का) रक्षक है। माँ के पेट में ही (जीवों की) पालना करता है। उन लोगों को माया (की तृष्णा) की आग छू नहीं सकती, जो तेरे प्रेम रंग में रंगे हुए तेरे गुण गाते रहते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किआ गुण तेरे आखि समाली ॥ मन तन अंतरि तुधु नदरि निहाली ॥ तूं मेरा मीतु साजनु मेरा सुआमी तुधु बिनु अवरु न जानणिआ ॥६॥

मूलम्

किआ गुण तेरे आखि समाली ॥ मन तन अंतरि तुधु नदरि निहाली ॥ तूं मेरा मीतु साजनु मेरा सुआमी तुधु बिनु अवरु न जानणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समाली = मैं संभालूं, मैं याद करूँ। तुधु = तुझे ही। नदरि निहाली = नजर से मैं देखता हूं।6।
अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे कौन कौन से गुण कह के याद करूँ? मैं अपने मन में तन में तूझे ही बसता देख रहा हूँ। हे प्रभु! तू ही मेरा मालिक है। तेरे बिना मैं किसी और को (तेरे जैसा मित्र) नहीं समझता।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस कउ तूं प्रभ भइआ सहाई ॥ तिसु तती वाउ न लगै काई ॥ तू साहिबु सरणि सुखदाता सतसंगति जपि प्रगटावणिआ ॥७॥

मूलम्

जिस कउ तूं प्रभ भइआ सहाई ॥ तिसु तती वाउ न लगै काई ॥ तू साहिबु सरणि सुखदाता सतसंगति जपि प्रगटावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहाई = मददगार। काई = कोई। सरणि = शरण्य, a protector, रक्षा करने के समर्थ। जपि = जप के।7।
अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य वास्ते तू रक्षक बन जाता है, उसे कोई दुख कलेष छू नहीं सकता। तू ही उसका मालिक है, तू ही उसका रक्षक है, तू ही उसे सुख देने वाला है। साधु-संगत में तेरा नाम जप के वह तुझे अपने हृदय में प्रत्यक्ष देखता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं ऊच अथाहु अपारु अमोला ॥ तूं साचा साहिबु दासु तेरा गोला ॥ तूं मीरा साची ठकुराई नानक बलि बलि जावणिआ ॥८॥३॥३७॥

मूलम्

तूं ऊच अथाहु अपारु अमोला ॥ तूं साचा साहिबु दासु तेरा गोला ॥ तूं मीरा साची ठकुराई नानक बलि बलि जावणिआ ॥८॥३॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचा = सदा स्थिर रहने वाला। गोला = गुलाम। मीरा = मालिक। साची = सदा कायम रहने वाली। ठकुराई = माल्कियत।8।
अर्थ: हे प्रभु! (आत्मिक जीवन में) तू (सब जीवों से) ऊँचा है, तू (मानो, गुणों का समुंदर) है, जिसकी गहराई नहीं मापी जा सकती। तेरी हस्ती का परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता। तेरा मुल्य नहीं पड़ सकता (किसी भी पदार्थ के बदले तेरी प्राप्ति नहीं हो सकती)। तू सदा कायम रहने वाला मालिक है। मैं तेरा दास हूँ, गुलाम हूँ। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तू (मेरा) मालिक है; तेरी मल्कियत सदा कायम रहने वाली है। मैं तुझसे सदा सदके हूँ, कुर्बान हूँ।8।3।37।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ घरु २ ॥ नित नित दयु समालीऐ ॥ मूलि न मनहु विसारीऐ ॥ रहाउ॥

मूलम्

माझ महला ५ घरु २ ॥ नित नित दयु समालीऐ ॥ मूलि न मनहु विसारीऐ ॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दयु = प्यार करने वाला परमात्मा। मूलि न = कभी नही। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) सदा ही उस परमात्मा को हृदय में बसाना चाहिए जो सब जीवों पे तरस करता है, उसे अपने मन से भुलाना नहीं चाहिए। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संता संगति पाईऐ ॥ जितु जम कै पंथि न जाईऐ ॥ तोसा हरि का नामु लै तेरे कुलहि न लागै गालि जीउ ॥१॥

मूलम्

संता संगति पाईऐ ॥ जितु जम कै पंथि न जाईऐ ॥ तोसा हरि का नामु लै तेरे कुलहि न लागै गालि जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिस (साधु-संगत) से। पंथि = रास्ते में। जम कै पंथि = जमों के राह पर, उस राह पे जहां यम से वास्ता पड़े, आत्मिक मौत की ओर ले जाने वाले रास्ते पर। तोसा = रास्ते का खर्च। कुलहि = कुल को। गालि = गाली, कलंक, बदनामी।1।
अर्थ: (हे भाई!) संत जनों की संगति में रहने से परमात्मा का नाम मिलता है। साधु-संगत की इनायत से आत्मिक मौत की ओर ले जाने वाले रास्ते पर नहीं पड़ते। (हे भाई! जीवन सफर वास्ते) परमात्मा का नाम खर्च (अपने पल्ले बांध) ले, (इस तरह) तेरी कुल को (भी) कोई बदनामी नहीं आएगी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो सिमरंदे सांईऐ ॥ नरकि न सेई पाईऐ ॥ तती वाउ न लगई जिन मनि वुठा आइ जीउ ॥२॥

मूलम्

जो सिमरंदे सांईऐ ॥ नरकि न सेई पाईऐ ॥ तती वाउ न लगई जिन मनि वुठा आइ जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सांइऐ = सांई को। नरकि = नर्क में। सेई = उन्हें। पाईऐ = पाया जाता। मनि = मन में। वुठा = बसा हुआ।2।
अर्थ: जो मनुष्य खसम परमात्मा का स्मरण करते हैं उन्हें नर्क में नहीं डाला जाता। (हे भाई!) जिनके मन में परमात्मा आ बसता है, उन्हें कोई दुख कलेष छू नहीं सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेई सुंदर सोहणे ॥ साधसंगि जिन बैहणे ॥ हरि धनु जिनी संजिआ सेई ग्मभीर अपार जीउ ॥३॥

मूलम्

सेई सुंदर सोहणे ॥ साधसंगि जिन बैहणे ॥ हरि धनु जिनी संजिआ सेई ग्मभीर अपार जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बैहणे = बैठना उठना, मिलना जुलना। संजिआ = सींचा, एकत्र किया। गंभीर = गहरे जिगरे वाले।3।
अर्थ: वही मनुष्य सोहने सुंदर (जीवन वाले) हैं, जिनका उठना बैठना साधसंगति में है। जिस लोगों ने परमात्मा का नाम धन इकट्ठा कर लिया, वे बेअंत गहरे जिगरे वाले बन जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि अमिउ रसाइणु पीवीऐ ॥ मुहि डिठै जन कै जीवीऐ ॥ कारज सभि सवारि लै नित पूजहु गुर के पाव जीउ ॥४॥

मूलम्

हरि अमिउ रसाइणु पीवीऐ ॥ मुहि डिठै जन कै जीवीऐ ॥ कारज सभि सवारि लै नित पूजहु गुर के पाव जीउ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमिउ = नाम अमृत। रसाइणु = (रस+आयन) रसों का घर। मुहि डिठै = अगर मुंह देख लिया जाए। जीवीऐ = आत्मिक जीवन मिले। सभि = सारे। पाव = (शब्द ‘पाउ’ का वचन) पैर।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम अमृत पीना चाहिए। (ये नाम अमृत) सारे रसों का श्रोत है। (हे भाई!) परमात्मा के सेवक का दर्शन करने से आत्मिक जीवन मिलता है, (इस वास्ते तू भी) सदा गुरु के पैर पूज (गुरु की शरण पड़ा रह, और इस तरह) अपने सारे काम सर कर ले।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो हरि कीता आपणा ॥ तिनहि गुसाई जापणा ॥ सो सूरा परधानु सो मसतकि जिस दै भागु जीउ ॥५॥

मूलम्

जो हरि कीता आपणा ॥ तिनहि गुसाई जापणा ॥ सो सूरा परधानु सो मसतकि जिस दै भागु जीउ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जो = जिसे। तिनहि = तिनि ही, उस ने ही। सूरा = सूरमा। मसतकि = माथे पे।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिनहि’ में ‘न’ की ‘ि’ हट गई है। देखें गुरबाणी व्याकरण।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मनुष्य को परमात्मा ने अपना (सेवक) बना लिया है, उसने ही पति प्रभु का स्मरण करते रहना है। जिस मनुष्य के माथे पे (प्रभु की इस दाति के) भाग्य जाग जाएं, वह (विकारों से टक्कर ले सकने के समर्थ) शूरवीर बन जाते हैं। वह (मनुष्यों में) श्रेष्ठ मनुष्य माने जाते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मंधे प्रभु अवगाहीआ ॥ एहि रस भोगण पातिसाहीआ ॥ मंदा मूलि न उपजिओ तरे सची कारै लागि जीउ ॥६॥

मूलम्

मन मंधे प्रभु अवगाहीआ ॥ एहि रस भोगण पातिसाहीआ ॥ मंदा मूलि न उपजिओ तरे सची कारै लागि जीउ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंधे = (मध्य) में। अवगाहीआ = (अवगाह = to bathe oneself into, to plunge) डुबकी लगानी चाहिए। एहि = इन।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘एहि’ है ‘इह/यह’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे भाई! अपने मन में ही डुबकी लगाओ और प्रभु के दर्शन करो-यही है दुनिया के सारे रसों का भोग। यही है दुनिया की बादशाहियां। (जिस मनुष्यों ने परमात्मा को अपने अंदर ही देख लिया, उनके मन में) कभी कोई विकार पैदा नहीं होता। वह नाम जपने की सच्ची कार में लग के (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करता मंनि वसाइआ ॥ जनमै का फलु पाइआ ॥ मनि भावंदा कंतु हरि तेरा थिरु होआ सोहागु जीउ ॥७॥

मूलम्

करता मंनि वसाइआ ॥ जनमै का फलु पाइआ ॥ मनि भावंदा कंतु हरि तेरा थिरु होआ सोहागु जीउ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में। भावंदा = पसंद। थिरु = कायम।7।
अर्थ: जिस मनुष्य ने कर्तार को अपने मन में बसा लिया, उसने मानव जनम का फल प्राप्त कर लिया।
(हे जीव-स्त्री!) अगर तुझे कंत हरि अपने मन में प्यारा लगने लग जाए, तो तेरा ये सुहाग सदा के लिए (तेरे सिर पर) कायम रहेगा।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अटल पदारथु पाइआ ॥ भै भंजन की सरणाइआ ॥ लाइ अंचलि नानक तारिअनु जिता जनमु अपार जीउ ॥८॥४॥३८॥

मूलम्

अटल पदारथु पाइआ ॥ भै भंजन की सरणाइआ ॥ लाइ अंचलि नानक तारिअनु जिता जनमु अपार जीउ ॥८॥४॥३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै भंजन = डर दूर करने वाला। अंचलि = आँचल से, पल्ले से। तारिअनु = तारि+उन, उस ने तारे।8।
अर्थ: (परमात्मा का नाम सदा कायम रहने वाला धन है, जिन्होंने) यह सदा कायम रहने वाला धन ढूँढ लिया, जो लोग सदा डर नाश करने वाले परमात्मा की शरण में आ गए, उन्हें, हे नानक! परमात्मा ने अपने साथ लगा के (संसार समुंदर से) पार लंघा लिया। उन्होंने मानव जन्म की बाजी जीत ली।8।4।38।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ माझ महला ५ घरु ३ ॥

मूलम्

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ माझ महला ५ घरु ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जपि जपे मनु धीरे ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हरि जपि जपे मनु धीरे ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपै = जप के। धीरे = धीरज पकड़ता है।1। रहाउ।
अर्थ: परमात्मा का नाम जप जप के (मनुष्य का) मन धैर्यवान हो जाता है (दुनियां के सुखों दुखों में डोलता नहीं)। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरि सिमरि गुरदेउ मिटि गए भै दूरे ॥१॥

मूलम्

सिमरि सिमरि गुरदेउ मिटि गए भै दूरे ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = सारे डर। सिमरि = स्मरण करके।1।
अर्थ: सबसे बड़े अकाल-पुरख को स्मरण कर-कर के सारे डर सहम मिट जाते हैं; दूर हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरनि आवै पारब्रहम की ता फिरि काहे झूरे ॥२॥

मूलम्

सरनि आवै पारब्रहम की ता फिरि काहे झूरे ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काहे झूरै = कोई चिन्ता फिक्र नहीं रह जाती, क्यूँ झुरेगा?।2।
अर्थ: जब मनुष्य परमात्मा का आसरा ले लेता है, उसे कोई चिन्ता, फिक्र छू नहीं सकती।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन सेव संत साध के सगल मनोरथ पूरे ॥३॥

मूलम्

चरन सेव संत साध के सगल मनोरथ पूरे ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संत साध के = गुरु के।3।
अर्थ: गुरु के चरणों की सेवा करने से (गुरु का दर पे आने से) मनुष्य के मन की सारी जरूरतें पूरी हो जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घटि घटि एकु वरतदा जलि थलि महीअलि पूरे ॥४॥

मूलम्

घटि घटि एकु वरतदा जलि थलि महीअलि पूरे ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक शरीर में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में।4।
अर्थ: (यह निश्चय बन जाता है कि) हरेक शरीर में परमात्मा ही बस रहा है; जल में धरती में आकाश में परमात्मा ही व्यापक है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाप बिनासनु सेविआ पवित्र संतन की धूरे ॥५॥

मूलम्

पाप बिनासनु सेविआ पवित्र संतन की धूरे ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धूरै = चरण धूल।5।
अर्थ: जो मनुष्य संत जनों की चरण धूल ले के सारे पापों का नाश करने वाले परमात्मा को स्मरण करते हैं, वह स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ छडाई खसमि आपि हरि जपि भई ठरूरे ॥६॥

मूलम्

सभ छडाई खसमि आपि हरि जपि भई ठरूरे ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खसमि = खसम ने। ठरूरे = शांत चित्त, सीतल।6।
अर्थ: परमात्मा का नाम जप के सारी सृष्टि शीतल-मन हो जाती है; सारी सृष्टि को पति प्रभु ने (विकारों की तपश से) बचा लिया।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करतै कीआ तपावसो दुसट मुए होइ मूरे ॥७॥

मूलम्

करतै कीआ तपावसो दुसट मुए होइ मूरे ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करतै = कर्तार ने। तपावसो = (अरबी शब्द ‘तफ़ाहुस’), निर्णय, न्याय। मूरा = गाय भैंस के बच्चे की खाल में भूसा भर के बनाया हुआ पुतला जो बछड़ा या कट्टा सा लगे। अर्थात देखने में जीवित पर असल में मुर्दा।7।
अर्थ: ईश्वर ने यह ठीक न्याय किया है कि विकारी मनुष्य देखने को जीवित दिखाई देते हैं पर असल में आत्मिक मौत मरे हुए होते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानक रता सचि नाइ हरि वेखै सदा हजूरे ॥८॥५॥३९॥१॥३२॥१॥५॥३९॥

मूलम्

नानक रता सचि नाइ हरि वेखै सदा हजूरे ॥८॥५॥३९॥१॥३२॥१॥५॥३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु में। नाइ = नाम में। हजूरे = अंग संग।8।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु के नाम में लीन होता है, वह उसे सदा अपने अंग संग बसता देखता है।8।5।39।