विश्वास-प्रस्तुतिः
माझ महला ३ ॥ माइआ मोहु जगतु सबाइआ ॥ त्रै गुण दीसहि मोहे माइआ ॥ गुर परसादी को विरला बूझै चउथै पदि लिव लावणिआ ॥१॥
मूलम्
माझ महला ३ ॥ माइआ मोहु जगतु सबाइआ ॥ त्रै गुण दीसहि मोहे माइआ ॥ गुर परसादी को विरला बूझै चउथै पदि लिव लावणिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबाइआ = सारा। त्रैगुण = त्रिगुणी जीव। दीसहि = दिखाई देते हैं। पदि = दर्जे में, अवस्था में। चउथे पदि = उस आत्मिक अवस्था में जो माया के तीन गुणों के प्रभाप से ऊपर है।1
अर्थ: माया का मोह सारे जगत को व्याप रहा है। सारे ही जीव तीन गुणों के प्रभाव तहत हैं। माया के मोह में हैं। गुरु की कृपा से कोई विरला (एक-आध) मनुष्य (इस बात को) समझता है। वह इन तीन गुणों की मार से ऊपर की आत्मिक अवस्था में टिक के परमात्मा के चरणों में तवज्जो जोड़े रखता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ वारी जीउ वारी माइआ मोहु सबदि जलावणिआ ॥ माइआ मोहु जलाए सो हरि सिउ चितु लाए हरि दरि महली सोभा पावणिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ वारी जीउ वारी माइआ मोहु सबदि जलावणिआ ॥ माइआ मोहु जलाए सो हरि सिउ चितु लाए हरि दरि महली सोभा पावणिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। दरि = दर से। महली = महल में।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उन मनुष्यों पे से सदा सदके व कुर्बान जाता हूँ, जो गुरु शब्द में जुड़ के (अपने अंदर से) माया का मोह जला देते हैं। जो मनुष्य माया का मोह जला लेता है, वह परमात्मा (के चरणों से) अपना चिक्त जोड़ लेता है। वह परमात्मा के दर पे परमात्मा की हजूरी में आदर पाता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवी देवा मूलु है माइआ ॥ सिम्रिति सासत जिंनि उपाइआ ॥ कामु क्रोधु पसरिआ संसारे आइ जाइ दुखु पावणिआ ॥२॥
मूलम्
देवी देवा मूलु है माइआ ॥ सिम्रिति सासत जिंनि उपाइआ ॥ कामु क्रोधु पसरिआ संसारे आइ जाइ दुखु पावणिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देवी देवा मूलु = देवी-देवताओं के रचे जाने का आरम्भ। माइआ = माया, सुखों की लालसा व दुखों का डर। जिंनि = जिनि, जिस (माया) ने। कामु = (सुखों की) कामना। क्रोधु = (दुखों के विरुद्ध) गुस्सा। संसारे = संसार में। आइ = आ के, पैदा हो के। आइ जाइ = जनम मरन के चक्र में।2।
अर्थ: ये माया ही (भाव, सुखों की कामना और दुखों से डर) देवी-देवताओं के रचे जाने का (मूल) कारण है। इस माया ने ही सृम्रितियां व शास्त्र पैदा कर दिए (भाव, सुखों की प्राप्ति व दुखों की निर्विति की खातिर सृम्रितियों व शास्त्रों के द्वारा कर्मकांड रचे गए)। सारे संसार में सुखों की लालसा व दुखों से डर की मानसिकता पसरी हुई है, जिसके कारण जनम मरन के चक्र में पड़ कर दुख पा रहे हैं।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिसु विचि गिआन रतनु इकु पाइआ ॥ गुर परसादी मंनि वसाइआ ॥ जतु सतु संजमु सचु कमावै गुरि पूरै नामु धिआवणिआ ॥३॥
मूलम्
तिसु विचि गिआन रतनु इकु पाइआ ॥ गुर परसादी मंनि वसाइआ ॥ जतु सतु संजमु सचु कमावै गुरि पूरै नामु धिआवणिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिस विचि = इस संसार में। मंनि = मनि, मन में। गुरि = गुरु के द्वारा।3।
अर्थ: इस जगत में (ही) एक रतन (भी है, वह है) परमात्मा के साथ गहरी सांझ का रत्न। (जिस मनुष्य ने वह रत्न) ढूँढ लिया है, जिसने ये रत्न गुरु की कृपा से अपने मन में बसा लिया है (पिरो लिया है), वह मनुष्य पूरे गुरु के द्वारा परमात्मा का नाम स्मरण करता है, वह मनुष्य मानो, सदा टिके रहने वाला जत कमा रहा है, सत कमा रहा है और संजम कमा रहा है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेईअड़ै धन भरमि भुलाणी ॥ दूजै लागी फिरि पछोताणी ॥ हलतु पलतु दोवै गवाए सुपनै सुखु न पावणिआ ॥४॥
मूलम्
पेईअड़ै धन भरमि भुलाणी ॥ दूजै लागी फिरि पछोताणी ॥ हलतु पलतु दोवै गवाए सुपनै सुखु न पावणिआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धन = जीव-स्त्री। पेईअड़ै = पेके घर में, इस लोक में। भरमि = भटकना में। भुलाणी = गलत रास्ते पर पड़ गई। दूजै = (प्रभु के बिना) और में। पछोताणी = पछतानी। हलतु = यह लोक। पलतु = परलोक।4।
अर्थ: जो जीव-स्त्री इस लोक में माया की भटकना में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ी रहती है, वह सदा माया के मोह में मगन रहती है और आखिर में पछताती है। वह जीव-स्त्री यह लोक और परलोक दोनों गवा लेती है। उसे स्वप्न में भी आत्मिक आनंद नसीब नहीं होता।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेईअड़ै धन कंतु समाले ॥ गुर परसादी वेखै नाले ॥ पिर कै सहजि रहै रंगि राती सबदि सिंगारु बणावणिआ ॥५॥
मूलम्
पेईअड़ै धन कंतु समाले ॥ गुर परसादी वेखै नाले ॥ पिर कै सहजि रहै रंगि राती सबदि सिंगारु बणावणिआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समाले = (हृदय में) सम्भालती है। सहजि = आत्मिक अडोलता मे। पिर कै रंगि = प्रभु पति के प्रेम रंग में। सबदि = शब्द से।5।
अर्थ: जो जीव-स्त्री इस लोक में पति प्रभु को (अपने हृदय में) संभाल रखती है, गुरु की कृपा से उसको अपने अंग-संग बसता देखती है। वह आत्मिक अडोलता में टिकी रहती है। वह प्रभु पति के प्रेम रंग में रंगी रहती है, वह गुरु के शब्द के द्वारा (प्रभु पति के प्रेम को अपने आत्मिक जीवन का) श्रृंगार बनाती है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सफलु जनमु जिना सतिगुरु पाइआ ॥ दूजा भाउ गुर सबदि जलाइआ ॥ एको रवि रहिआ घट अंतरि मिलि सतसंगति हरि गुण गावणिआ ॥६॥
मूलम्
सफलु जनमु जिना सतिगुरु पाइआ ॥ दूजा भाउ गुर सबदि जलाइआ ॥ एको रवि रहिआ घट अंतरि मिलि सतसंगति हरि गुण गावणिआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दूजा भाउ = (प्रभु के बिना) और प्यार, माया का मोह।6।
अर्थ: (जिस भाग्यशाली मनुष्यों) को सतिगुरु मिल गया, उनका मानव जनम कामयाब हो जाता है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह (अपने अंदर से) माया का प्यार जला लेते हैं। उनके हृदय में एक परमात्मा की (याद ही) हर समय मौजूद रहती है। साधु-संगत में मिल के वे परमात्मा के गुण गाते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सतिगुरु न सेवे सो काहे आइआ ॥ ध्रिगु जीवणु बिरथा जनमु गवाइआ ॥ मनमुखि नामु चिति न आवै बिनु नावै बहु दुखु पावणिआ ॥७॥
मूलम्
सतिगुरु न सेवे सो काहे आइआ ॥ ध्रिगु जीवणु बिरथा जनमु गवाइआ ॥ मनमुखि नामु चिति न आवै बिनु नावै बहु दुखु पावणिआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काहे आया = व्यर्थ जन्मा। ध्रिग = धृग, तिरस्कार योग्य। चिति = चिक्त में।7।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु का आसरा-परना नहीं लेता, वह दुनिया में जैसे आया जैसे ना आया। उसका सारा जीवन ही तिरस्कार-योग्य हो जाता है। वह अपना मानव जनम व्यर्थ गवा जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के चिक्त में (कभी) परमात्मा का नाम नहीं बसता। नाम से टूट के वह बहुत दुख सहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि सिसटि साजी सोई जाणै ॥ आपे मेलै सबदि पछाणै ॥ नानक नामु मिलिआ तिन जन कउ जिन धुरि मसतकि लेखु लिखावणिआ ॥८॥१॥३२॥३३॥
मूलम्
जिनि सिसटि साजी सोई जाणै ॥ आपे मेलै सबदि पछाणै ॥ नानक नामु मिलिआ तिन जन कउ जिन धुरि मसतकि लेखु लिखावणिआ ॥८॥१॥३२॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन = जिस (कर्तार) ने। सिसटि = सृष्टि, दुनिया। पछाणै = पहचान के। धुरि = धुर से, प्रभु की हजूरी से। मसतकि = माथे पर।8।
अर्थ: (पर, जीवों के भी क्या वश?) जिस परमात्मा ने यह जगत रचा है, वही (माया के प्रभाव के इस खेल को) जानता है। वह खुद ही (जीवों की जरूरतें) पहचान के गुरु के शब्द द्वारा उन्हें (अपने चरणों में) मिलाता है। हे नानक! उन लोगों को परमात्मा का नाम प्राप्त होता है जिनके माथे पे धुर से ही प्रभु के हुक्म अनुसार (नाम की प्राप्ति का) लेख लिखा जाता है।8।1।32।33।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक १ गुरु नानक देव जी की अष्टपदी को बताता है। गुरु अमरदास जी की 32 हैं। कुल जोड़ 33 है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
माझ महला ४ ॥ आदि पुरखु अपर्मपरु आपे ॥ आपे थापे थापि उथापे ॥ सभ महि वरतै एको सोई गुरमुखि सोभा पावणिआ ॥१॥
मूलम्
माझ महला ४ ॥ आदि पुरखु अपर्मपरु आपे ॥ आपे थापे थापि उथापे ॥ सभ महि वरतै एको सोई गुरमुखि सोभा पावणिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आदि = सब की शुरुआत। पुरखु = सर्व व्यापक। अपरंपरु = जिसका परला छोर नही मिल सकता। थापि = पैदा करके। उथापे = नाश करता है।1।
अर्थ: जो परमात्मा (सब का) आरम्भ है। जो सर्व व्यापक है। जिस (की हस्ती) का परला छोर नहीं ढूँढा जा सकता। (अपने जैसा) स्वयं ही है। वह स्वयं ही (जगत को) रचता है, रच के खुद ही इसका नाश करता है। वह परमात्मा सब जीवों में स्वयं ही स्वयं मौजूद है (फिर भी वही मनुष्य उसके दर पे) शोभा पाता है जो गुरु के सन्मुख रहता है।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ वारी जीउ वारी निरंकारी नामु धिआवणिआ ॥ तिसु रूपु न रेखिआ घटि घटि देखिआ गुरमुखि अलखु लखावणिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ वारी जीउ वारी निरंकारी नामु धिआवणिआ ॥ तिसु रूपु न रेखिआ घटि घटि देखिआ गुरमुखि अलखु लखावणिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरंकारी नामु = आकार रहित प्रभु का नाम। रेखिआ = चिन्ह चक्र। घटि घटि = हरेक घट में। अलखु = अदृष्ट।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उन लोगों से सदा सदके कुर्बान हूँ, जो निराकार परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं। उस परमात्मा का कोई खास रूप नहीं, कोई खास चक्र चिन्ह नहीं बयान किया जा सकता। (वैसे) वह हरेक शरीर में बसता दिखाई देता है। उस अदृष्ट प्रभु को गुरु की शरण पड़ के ही समझा जा सकता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तू दइआलु किरपालु प्रभु सोई ॥ तुधु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥ गुरु परसादु करे नामु देवै नामे नामि समावणिआ ॥२॥
मूलम्
तू दइआलु किरपालु प्रभु सोई ॥ तुधु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥ गुरु परसादु करे नामु देवै नामे नामि समावणिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: प्रभू = मालिक। परसादु = कृपा। नामे नामि = नाम में ही नाम में ही।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू दया का घर है, कृपा का श्रोत है। तू ही सब जीवों का मालिक है। तेरे बगैर तेरे बिना और कोई जीव नहीं है। (जिस मनुष्य पे) गुरु कृपा करता है उसे तेरा नाम बख्शता है। वह मनुष्य तेरे नाम में ही मस्त रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तूं आपे सचा सिरजणहारा ॥ भगती भरे तेरे भंडारा ॥ गुरमुखि नामु मिलै मनु भीजै सहजि समाधि लगावणिआ ॥३॥
मूलम्
तूं आपे सचा सिरजणहारा ॥ भगती भरे तेरे भंडारा ॥ गुरमुखि नामु मिलै मनु भीजै सहजि समाधि लगावणिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। भीजै = तरो तर हो जाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है, तू खुद ही सब को पैदा करने वाला है (तेरे पास) तेरी भक्ति के खजाने भरे पड़े हैं। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, उसे (गुरु की ओर से) तेरा नाम मिल जाता है। उसका मन (तेरे नाम की याद में) रसा रहता है। वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में समाधि लगाए रखता है (टिका रहता है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनदिनु गुण गावा प्रभ तेरे ॥ तुधु सालाही प्रीतम मेरे ॥ तुधु बिनु अवरु न कोई जाचा गुर परसादी तूं पावणिआ ॥४॥
मूलम्
अनदिनु गुण गावा प्रभ तेरे ॥ तुधु सालाही प्रीतम मेरे ॥ तुधु बिनु अवरु न कोई जाचा गुर परसादी तूं पावणिआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। गावा = मैं गाऊँ। प्रीतम = हे प्रीतम। जाचा = मैं मांगता हूँ। तूं = तूझे।4।
अर्थ: हे प्रभु! हे मेरे प्रीतम! (मेरे पर मेहर कर) मैं हर रोज (हर वक्त) तेरे गुण गाता रहूँ। मैं तेरी ही महिमा करता रहूँ। तेरे बिना मैं किसी और से कुछ ना मांगू। (हे मेरे प्रीतम!) गुरु की कृपा से ही तूझे मिला जा सकता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगमु अगोचरु मिति नही पाई ॥ अपणी क्रिपा करहि तूं लैहि मिलाई ॥ पूरे गुर कै सबदि धिआईऐ सबदु सेवि सुखु पावणिआ ॥५॥
मूलम्
अगमु अगोचरु मिति नही पाई ॥ अपणी क्रिपा करहि तूं लैहि मिलाई ॥ पूरे गुर कै सबदि धिआईऐ सबदु सेवि सुखु पावणिआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अगमु = अगम्य, अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं। मिति = माप, अंदाजा। सेवि = सेव के।5।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू अगम्य (पहुँच से परे) है। मनुष्य की ज्ञानेंद्रियां की तेरे तक पहुँच नहीं हो सकती। तू कितना बड़ा है, ये बात कोई जीव नही बता सकता। जिस मनुष्य पे (हे प्रभु!) तू मेहर करता है, उसे तू अपने (चरणों) में मिला लेता है। (हे भाई!) उस प्रभु को पूरे गुरु के शब्द के द्वारा ही स्मरण किया जा सकता है। मनुष्य सतिगुरु के शब्द को हृदय में धार के आत्मिक आनंद ले सकता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रसना गुणवंती गुण गावै ॥ नामु सलाहे सचे भावै ॥ गुरमुखि सदा रहै रंगि राती मिलि सचे सोभा पावणिआ ॥६॥
मूलम्
रसना गुणवंती गुण गावै ॥ नामु सलाहे सचे भावै ॥ गुरमुखि सदा रहै रंगि राती मिलि सचे सोभा पावणिआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रसना = जीभ। सलाहे = सालाहता है। रंगि = प्रेम रंग में।6।
अर्थ: वह जीभ भाग्यशाली है जो परमात्मा के गुण गाती है। वह मनुष्य सदा स्थिर परमात्मा को प्यारा लगता है, जो परमात्मा के नाम को सलाहते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य की जीभ सदा प्रभु के नाम रंग में रंगी रहती है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य सदा स्थिर प्रभु (के चरणों) में मिल के (लोक परलोक में) शोभा कमाता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखु करम करे अहंकारी ॥ जूऐ जनमु सभ बाजी हारी ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा फिरि फिरि आवण जावणिआ ॥७॥
मूलम्
मनमुखु करम करे अहंकारी ॥ जूऐ जनमु सभ बाजी हारी ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा फिरि फिरि आवण जावणिआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। जूऐ = जूए में। गुबारा = अंधेरा।7।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (चाहे अपने द्वारा निर्धारित धार्मिक) कर्म करता है। पर, अहंकार में ग्रस्त रहता है (कि मैं धर्मी हूँ), वह मनुष्य (जैसे) जूए में अपना जीवन हार देता है। वह मनुष्य जीवन की बाजी हार जाता है। उसके अंदर माया का लोभ (प्रबल रहता) है। उसके अंदर माया के मोह का घोर अंधकार बना रहता है। वह बारंबर जनम मरण के चक्र में पड़ा रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे करता दे वडिआई ॥ जिन कउ आपि लिखतु धुरि पाई ॥ नानक नामु मिलै भउ भंजनु गुर सबदी सुखु पावणिआ ॥८॥१॥३४॥
मूलम्
आपे करता दे वडिआई ॥ जिन कउ आपि लिखतु धुरि पाई ॥ नानक नामु मिलै भउ भंजनु गुर सबदी सुखु पावणिआ ॥८॥१॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दे = देता है। कउ = को। धुरि = धुर से। भउ भंजनु = भय का नाश करने वाला।8।
अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) जिस मनुष्यों के भाग्यों में परमात्मा ने खुद ही अपनी दरगाह से ही नाम जपने की दाति का लेख लिख दिया है, उन्हें वह कर्तार स्वयं ही (नाम स्मरण की) बड़ाई बख्शता है। हे नानक! उन (भाग्यशालियों) को (दुनिया के सारे) डर दूर करने वाला प्रभु का नाम मिल जाता है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह आत्मि्क आनंद लेते हैं।8।1।34।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक १ बताता है कि से अष्टपदी महले ४ की है। कुल जोड़ 34।