०४ गुरु अमर-दास असटपदीआ

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ मेरा प्रभु निरमलु अगम अपारा ॥ बिनु तकड़ी तोलै संसारा ॥ गुरमुखि होवै सोई बूझै गुण कहि गुणी समावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ मेरा प्रभु निरमलु अगम अपारा ॥ बिनु तकड़ी तोलै संसारा ॥ गुरमुखि होवै सोई बूझै गुण कहि गुणी समावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमलु = विकारों की मैल से रहित। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = जिसके गुणों का दूसरा छोर नहीं ढूँढा जा सकता, बेअंत। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। कहि = कह के। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु में।
अर्थ: प्यारा प्रभु स्वयं पवित्र स्वरूप है और बेअंत है। वह तराजू (बरते) बिना ही सारे संसार के जीवों के जीवन को परखता रहता है (हरेक जीव के अंदर व्यापक रह के)। (इस भेद को) वही मनुष्य समझता है जो गुरु के सन्मुख रहता है। वह (गुरु के द्वारा) परमात्मा के गुण उचार के गुणों के मालिक प्रभु में लीन हुआ रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी हरि का नामु मंनि वसावणिआ ॥ जो सचि लागे से अनदिनु जागे दरि सचै सोभा पावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी हरि का नामु मंनि वसावणिआ ॥ जो सचि लागे से अनदिनु जागे दरि सचै सोभा पावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। मंनि = मनि, मन में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। जागे = माया के हमलों से सुचेत। दरि = दर से।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदा उनके सदके जाता हूँ, जो परतमात्मा का नाम अपने मन में बसाते हैं। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु में लगन लगाए रखते हैं, वे हर समय माया के हमलों की ओर से सुचेत रहते हैं, और सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की हजूरी में शोभा पाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि सुणै तै आपे वेखै ॥ जिस नो नदरि करे सोई जनु लेखै ॥ आपे लाइ लए सो लागै गुरमुखि सचु कमावणिआ ॥२॥

मूलम्

आपि सुणै तै आपे वेखै ॥ जिस नो नदरि करे सोई जनु लेखै ॥ आपे लाइ लए सो लागै गुरमुखि सचु कमावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै = और।लेखै = लेखे में, स्वीकार। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिस’ के ‘स’ में लगी ‘ु’ की मात्रा, संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: परमात्मा खुद ही (सभ जीवों की अरदास) सुनता है और स्वयं ही (सबकी) संभाल करता है। जिस जीव पे प्रभु मेहर की नजर करता है, वही मनुष्य (उसके दर पे) स्वीकार होता है। जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं अपनी याद में जोड़ के रखता है, वही जुड़ा रहता है। वह गुरु के सन्मुख रह के सदा स्थिर नाम जपने की कमाई करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु आपि भुलाए सु किथै हथु पाए ॥ पूरबि लिखिआ सु मेटणा न जाए ॥ जिन सतिगुरु मिलिआ से वडभागी पूरै करमि मिलावणिआ ॥३॥

मूलम्

जिसु आपि भुलाए सु किथै हथु पाए ॥ पूरबि लिखिआ सु मेटणा न जाए ॥ जिन सतिगुरु मिलिआ से वडभागी पूरै करमि मिलावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भुलाए = गलत जीवन-राह पर डाल दे। किथै हथु पाए = किसका पल्ला पकड़े, कहां हाथ डाले? पूरबि = पहले जनम में (किए कर्मों अनुसार)। लिखिआ = संस्कार रूपी लेख। करमि = मेहर से।3।
अर्थ: (पर) जिस मनुष्य को प्रभु खुद गलत रास्ते पे लगा दे, वह (सही राह ढूँढने के लिए) किसी अन्य का आसरा नहीं ले सकता। पूर्बले जन्म में किए संस्कारों का लेख मिटाया नहीं जा सकता (और वह लेख गलत रास्ते पे डाले रखता है)। जिस मनुष्यों को पूरा गुरु मिल जाता है, वे बड़े भाग्यों वाले हैं। उन्हें पूरी मेहर से प्रभु अपने चरणों से मिलाए रखता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेईअड़ै धन अनदिनु सुती ॥ कंति विसारी अवगणि मुती ॥ अनदिनु सदा फिरै बिललादी बिनु पिर नीद न पावणिआ ॥४॥

मूलम्

पेईअड़ै धन अनदिनु सुती ॥ कंति विसारी अवगणि मुती ॥ अनदिनु सदा फिरै बिललादी बिनु पिर नीद न पावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेईअड़ै = पेके घर में, इस लोक में। धन = (जीव) स्त्री। सुती = माया के मोह की नींद में मस्त। कंति = कंत ने, पति ने। विसारी = भुला दी। अवगणि = औगुणों के कारण। मुती = छोड़ी हुई, त्यागी हुई। नीद = आत्मिक शांति।4।
अर्थ: जो जीव-स्त्री इस लोक में हर समय माया के मोह की नींद में मस्त रहती है, उसे खसम प्रभु ने भुला दिया है। वह अपनी भूल के कारण त्यागी हुई पड़ी है। वह जीव-स्त्री हर वक्त दुखी भटकती फिरती है, प्रभु पति के मिलाप के बिना उसे आत्मिक सुख नहीं मिलता।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेईअड़ै सुखदाता जाता ॥ हउमै मारि गुर सबदि पछाता ॥ सेज सुहावी सदा पिरु रावे सचु सीगारु बणावणिआ ॥५॥

मूलम्

पेईअड़ै सुखदाता जाता ॥ हउमै मारि गुर सबदि पछाता ॥ सेज सुहावी सदा पिरु रावे सचु सीगारु बणावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखदाता = सुख देने वाला प्रभु। जाता = पहचाना। सबदि = शब्द में जुड़ के। सेज = हृदय रूपी सेज। सुहावी = सुहानी। रावे = माणती है, भोगती है, आनंद लेती है। सचु = सदा कायम रहने वाला।5।
अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने पेके घर में सुख देने वाले प्रभु पति के साथ गहरी सांझ डाले रखी, जिसने (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु पति को पहिचान लिया, उसके हृदय की सेज सुंदर बन जाती है, वह सदा प्रभु पति के मिलाप का आनंद लेती है, सदा स्थिर प्रभु के नाम को वह अपने जीवन का श्रृंगार बना लेती है।5।

[[0111]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

लख चउरासीह जीअ उपाए ॥ जिस नो नदरि करे तिसु गुरू मिलाए ॥ किलबिख काटि सदा जन निरमल दरि सचै नामि सुहावणिआ ॥६॥

मूलम्

लख चउरासीह जीअ उपाए ॥ जिस नो नदरि करे तिसु गुरू मिलाए ॥ किलबिख काटि सदा जन निरमल दरि सचै नामि सुहावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किलबिख = पाप। काटि = काट के। नामि = नाम में (जुड़े रहने के कारण)।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीव’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: परमात्मा ने चौरासी लाख जूनियों में बेअंत जीव पैदा किए हुये हैं। जिस जीव पे वह मेहर की नजर करता है, उसे गुरु मिला देता है। (गुरु चरणों में जुड़े हुए) लोग अपने पाप दूर करके सदा पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, और सदा स्थिर प्रभु के दर पे प्रभु के नाम की इनायत से शोभा पाते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लेखा मागै ता किनि दीऐ ॥ सुखु नाही फुनि दूऐ तीऐ ॥ आपे बखसि लए प्रभु साचा आपे बखसि मिलावणिआ ॥७॥

मूलम्

लेखा मागै ता किनि दीऐ ॥ सुखु नाही फुनि दूऐ तीऐ ॥ आपे बखसि लए प्रभु साचा आपे बखसि मिलावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किनि = किस ने? किनि दीऐ = किस ने दिया है? कोई नहीं दे सकता। फुनि = दुबारा। दूऐ तीऐ = गिनती करने में, लेखा देने में। बखसि = बख्श के।7।
अर्थ: (हम जीव सदा ही भूल करने वाले हैं) यदि प्रभु (हमारे किए कर्मों का) हिसाब मांगने लगे, तो कोई जीव हिसाब नहीं दे सकता (अर्थात, लेखे में पूरा नही उतर सकता)। (अपने किए कर्मों का) लेखा गिनाने से (भाव, लेखे में सुर्ख-रू होने की आस से) किसी को आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता। प्रभु स्वयं ही मेहर करके (अपने चरणों में) मिला लेता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि करे तै आपि कराए ॥ पूरे गुर कै सबदि मिलाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई आपे मेलि मिलावणिआ ॥८॥२॥३॥

मूलम्

आपि करे तै आपि कराए ॥ पूरे गुर कै सबदि मिलाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई आपे मेलि मिलावणिआ ॥८॥२॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै = और। कै सबदि = के शब्द में। मेलि = मिलाप में, चरणों में।8।
अर्थ: (सब जीवों में व्यापक हो के) प्रभु स्वयं ही (सब कुछ) करता है और स्वयं ही (प्रेरना करके जीवों से) करवाता है। प्रभु स्वयं ही पूरे गुरु के शब्द में जोड़ के अपने चरणों में मिलाता है। हे नानक! जिस मनुष्य को (उसके दर से उसका) नाम मिलता है, उसे (उसकी हजूरी में) आदर मिलता है, प्रभु स्वयं हीउसको अपने चरणों में जोड़ लेता है।8।2।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ इको आपि फिरै परछंना ॥ गुरमुखि वेखा ता इहु मनु भिंना ॥ त्रिसना तजि सहज सुखु पाइआ एको मंनि वसावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ इको आपि फिरै परछंना ॥ गुरमुखि वेखा ता इहु मनु भिंना ॥ त्रिसना तजि सहज सुखु पाइआ एको मंनि वसावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परछंना = (परिछन्न = enveloped, clothed) ढका हुआ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। भिंना = भीग गया। तजि = छोड़ के। सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। मंनि = मनि, मन में।1।
अर्थ: (दृष्टमान जगतरूपी पर्दे में) ढका हुआ परमात्मा स्वयं ही स्वयं (सारे जगत में) विचर रहा है। जिस लोगों ने गुरु की शरण पड़ कर (उस गुप्त प्रभु को) जब देख लिया तब उनका मन (उसके प्रेम रस में) भीग गया। (माया की) तृष्णा त्याग के उन्होंने आत्मिक अडोलता का आनंद हासिल कर लिया। एक परमात्मा ही परमात्मा उनके मन में बस गया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी इकसु सिउ चितु लावणिआ ॥ गुरमती मनु इकतु घरि आइआ सचै रंगि रंगावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी इकसु सिउ चितु लावणिआ ॥ गुरमती मनु इकतु घरि आइआ सचै रंगि रंगावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। इकसु सिउ = सिर्फ एक के साथ। इकतु घरि = एक घर में।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उन मनुष्यों से सदा सदके हूँ कुर्बान हूँ, जो एक परमात्मा के साथ चिक्त जोड़ते हैं। गुरु की शिक्षा लेकर जिनका मन परमात्मा के चरणों में टिक गया है, वे सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के प्रेम रंग में (सदा के लिए) रंगे गए।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जगु भूला तैं आपि भुलाइआ ॥ इकु विसारि दूजै लोभाइआ ॥ अनदिनु सदा फिरै भ्रमि भूला बिनु नावै दुखु पावणिआ ॥२॥

मूलम्

इहु जगु भूला तैं आपि भुलाइआ ॥ इकु विसारि दूजै लोभाइआ ॥ अनदिनु सदा फिरै भ्रमि भूला बिनु नावै दुखु पावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिसारि = भुला के। दूजै = तेरे बिना किसी और में, माया के मोह में। अनदिनु = हर रोज। भ्रमि = भटकना में।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) ये जगत गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है (पर इसके क्या वश?) तूने खुद ही इसे गलत रास्ते पर डाला हुआ है। तुझे एक को भूल के माया के मोह में फंसा हुआ है। भटकन के कारण कुमार्ग पर पड़ा हुआ जगत सदा हर वक्त भटकता फिरता है, और तेरे नाम से टूट के दु: ख सह रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो रंगि राते करम बिधाते ॥ गुर सेवा ते जुग चारे जाते ॥ जिस नो आपि देइ वडिआई हरि कै नामि समावणिआ ॥३॥

मूलम्

जो रंगि राते करम बिधाते ॥ गुर सेवा ते जुग चारे जाते ॥ जिस नो आपि देइ वडिआई हरि कै नामि समावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगि = प्रेम में। बिधाता = जगत रचना करने वाला। करम बिधाता = जीवों के किए कर्मों अनुसार पैदा करने वाला। ते = से, साथ। जुग चारे = चारों युगों में, सदा के लिए। जाते = प्रसिद्ध हो जाते हैं। देइ = देता है। नामि = नाम में।3।
अर्थ: जीवों को किए कर्मों अनुसार पैदा करने वाले परमात्मा के प्रेम रंग में जो लोग मस्त रहते हैं, वे गुरु की बताई सेवा के कारण सदा के लिए प्रसिद्ध हो जाते हैं। (पर ये उसकी अपनी ही मेहर है) परमात्मा जिस मनुष्य को खुद ही इज्जत देता है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहि हरि चेतै नाही ॥ जमपुरि बधा दुख सहाही ॥ अंना बोला किछु नदरि न आवै मनमुख पापि पचावणिआ ॥४॥

मूलम्

माइआ मोहि हरि चेतै नाही ॥ जमपुरि बधा दुख सहाही ॥ अंना बोला किछु नदरि न आवै मनमुख पापि पचावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मोह में (फंस के)। जम पुरि = यम की नगरी में। सहाही = सहे, सहता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। पापि = पाप में। पचावणिआ = (प्लुष = जलना), जलते हैं, दुखी होते हैं।4।
अर्थ: जो मनुष्य माया के मोह में फंस के परमात्मा को याद नहीं रखता, वह (अपने किए कर्मों) के विकारों में बंधा हुआ यम की नगरी में (आत्मिक मौत के कब्जे में आया हुआ) दु: ख सहता है। माया के मोह में अंधा हुआ वह मनुष्य (परमात्मा की महिमा) सुनने से अस्मर्थ रहता है। (माया के बगैर) उसे और कुछ दिखता भी नहीं। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे पाप (वाले जीवन) में ही जलते रहते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकि रंगि राते जो तुधु आपि लिव लाए ॥ भाइ भगति तेरै मनि भाए ॥ सतिगुरु सेवनि सदा सुखदाता सभ इछा आपि पुजावणिआ ॥५॥

मूलम्

इकि रंगि राते जो तुधु आपि लिव लाए ॥ भाइ भगति तेरै मनि भाए ॥ सतिगुरु सेवनि सदा सुखदाता सभ इछा आपि पुजावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुधु = तूं। भाइ = प्रेम में। मनि = मन में। भाए = प्यारे लगे। सेवनि = सेवा करते हैं।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे प्रभु!) जिनमें तूने खुद, अपने नाम की लगन लगाई है, वे तेरे प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। (तेरे चरणों के साथ) प्रेम के कारण (तेरी) भक्ति के कारण वह तुझे तेरे मन में प्यारे लगते हैं। वह मनुष्य आत्मिक आनंद देने वाले गुरु की बताई हुई सेवा करते हैं हे प्रभु! तू स्वयं ही उनकी हरेक इच्छा पूरी करता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ तेरी सदा सरणाई ॥ आपे बखसिहि दे वडिआई ॥ जमकालु तिसु नेड़ि न आवै जो हरि हरि नामु धिआवणिआ ॥६॥

मूलम्

हरि जीउ तेरी सदा सरणाई ॥ आपे बखसिहि दे वडिआई ॥ जमकालु तिसु नेड़ि न आवै जो हरि हरि नामु धिआवणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभु जी! दे = दे के। जम कालु = मौत, आत्मिक मौत।6।
अर्थ: हे प्रभु जी! मैं सदा ही तेरा आसरा देखता हूँ। तू जीवों को बड़प्पन दे के खुद ही बख्शिश करता है।
(हे भाई!) जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है, आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटक सकती।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनदिनु राते जो हरि भाए ॥ मेरै प्रभि मेले मेलि मिलाए ॥ सदा सदा सचे तेरी सरणाई तूं आपे सचु बुझावणिआ ॥७॥

मूलम्

अनदिनु राते जो हरि भाए ॥ मेरै प्रभि मेले मेलि मिलाए ॥ सदा सदा सचे तेरी सरणाई तूं आपे सचु बुझावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। मेलि = मिलाप में। सचे = हे सदा स्थिर प्रभु! सचु = सदा स्थिर नाम।7।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा को प्यारे लगते हैं, वे हर समय (हर रोज) उसके प्रेम में मस्त रहते हैं। मेरे प्रभु ने उनको अपने साथ मिला लिया है, अपने चरणों में जोड़ लिया है। हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभु! वे मनुष्य सदा ही सदा ही तेरा पल्ला पकड़े रहते हैं, तू स्वयं ही उन्हें अपने नाम की सूझ प्रदान करता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन सचु जाता से सचि समाणे ॥ हरि गुण गावहि सचु वखाणे ॥ नानक नामि रते बैरागी निज घरि ताड़ी लावणिआ ॥८॥३॥४॥

मूलम्

जिन सचु जाता से सचि समाणे ॥ हरि गुण गावहि सचु वखाणे ॥ नानक नामि रते बैरागी निज घरि ताड़ी लावणिआ ॥८॥३॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाता = सांझ डाल ली, पहचान लिया। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। वखाणे = वखाण, उचार के। बैरागी = वैरागवान, माया से उपराम। निज घरि = अपने घर में। ताड़ी = समाधि।8।
अर्थ: जिस लोगों ने सदा स्थिर प्रभु के साथ गहरी सांझ डाली है, वह सदा स्थिर प्रभु का नाम उचार उचार के सदैव उसके गुण गाते हैं। हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम में रंगे रहते हैं, वो माया के मोह की ओर से विरक्त हो जाते हैं, वह (बाहर माया के पीछे भटकने की जगह) अपने हृदय धर में टिके रहते हैं।8।3।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ सबदि मरै सु मुआ जापै ॥ कालु न चापै दुखु न संतापै ॥ जोती विचि मिलि जोति समाणी सुणि मन सचि समावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ सबदि मरै सु मुआ जापै ॥ कालु न चापै दुखु न संतापै ॥ जोती विचि मिलि जोति समाणी सुणि मन सचि समावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरै = मरता है। मुआ = (अहम्, ममता की ओर से) मरा हुआ। जापै = प्रतीत हो जाता है। कालु = मौत, आत्मिक मौत। चापै = (चाप = धनुष) फाही ले सकता। मिलि = मिल के। मन = हे मन! स्चि = सदा स्थिर प्रभु में।1।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (स्वै भाव की ओर से) मरता है, वह (स्वै भाव की ओर से) मरा हुआ मनुष्य (जगत में) आदर मान पाता है। उसे आत्मिक मौत (अपने पंजे में) फंसा नहीं सकती, उसे कोई दुख-कष्ट दुखी नहीं कर सकता। प्रभु की ज्योति में मिल के उसकी तवज्जो प्रभु में ही लीन रहती है। और हे मन! वह मनुष्य (प्रभु की महिमा) सुन के सदा स्थिर परमात्मा में समाया रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी हरि कै नाइ सोभा पावणिआ ॥ सतिगुरु सेवि सचि चितु लाइआ गुरमती सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी हरि कै नाइ सोभा पावणिआ ॥ सतिगुरु सेवि सचि चितु लाइआ गुरमती सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै नाइ = के नाम में। सेवि = सेवा करके। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदा उन पे से सदके जाता हूँ, जो परमात्मा के नाम में जुड़ के (लोक परलोक में) शोभा कमाते हैं। जो गुरु की बताई हुई सेवा कर-कर के सदा स्थिर प्रभु में चिक्त जोड़ते हैं और गुरु की मति पर चल के आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइआ कची कचा चीरु हंढाए ॥ दूजै लागी महलु न पाए ॥ अनदिनु जलदी फिरै दिनु राती बिनु पिर बहु दुखु पावणिआ ॥२॥

मूलम्

काइआ कची कचा चीरु हंढाए ॥ दूजै लागी महलु न पाए ॥ अनदिनु जलदी फिरै दिनु राती बिनु पिर बहु दुखु पावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कची = नाशवान। चीरु = कपड़ा। दूजै = माया के मोह में। महलु = प्रभु चरणों में निवास। जलदी = जलती।2।
अर्थ: ये शरीर नाशवान है। जैसे कमजोर सा कपड़ा है (पर मनुष्य की जिंद इस) जरजर कपड़े को ही इस्तेमाल करती रहती है (भाव, जिंद शारीरिक भोगों में ही मगन रहती है)। (जिंद) माया के प्यार में लगी रहती है (इस वास्ते यह प्रभु चरणों में) ठिकाना हासिल नही कर सकती। (माया के मोह के कारण जिंद) हर समय दिन रात जलती व भटकती है। प्रभु पति (के मिलाप) के बगैर बहुत दु: ख झेलती है।2।

[[0112]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

देही जाति न आगै जाए ॥ जिथै लेखा मंगीऐ तिथै छुटै सचु कमाए ॥ सतिगुरु सेवनि से धनवंते ऐथै ओथै नामि समावणिआ ॥३॥

मूलम्

देही जाति न आगै जाए ॥ जिथै लेखा मंगीऐ तिथै छुटै सचु कमाए ॥ सतिगुरु सेवनि से धनवंते ऐथै ओथै नामि समावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देही = शरीर। जाति = (उच्च) जाति (का गुमान)। आगै = परलोक में। छुटै = आजाद होता है। कमाए = कमा के। सचु कमाए = सदा स्थिर का नाम जपने की कमाई करके। ऐथै ओथै = इस लोक में और परलोक में। नामि = नाम में।3।
अर्थ: प्रभु की हजूरी में (मनुष्य का) शरीर नहीं जा सकता, ऊँची जाति भी नहीं पहुँच सकती (जिसका मनुष्य इतना गुमान करता है)। जहाँ (परलोक में हरेक मनुष्य से उसके द्वारा किए कर्मों का) हिसाब मांगा जाता है। वहाँ तो सदा स्थिर प्रभु के नाम जपने की कमाई करके आजाद होते हैं। जो मनुष्य गुरु की बताई सेवा करते हैं, वे (प्रभु के नाम धन से) धनाढ बन जाते हैं। वे इस लोक में भी और परलोक में भी सदा प्रभु के नाम में ही लीन रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भै भाइ सीगारु बणाए ॥ गुर परसादी महलु घरु पाए ॥ अनदिनु सदा रवै दिनु राती मजीठै रंगु बणावणिआ ॥४॥

मूलम्

भै भाइ सीगारु बणाए ॥ गुर परसादी महलु घरु पाए ॥ अनदिनु सदा रवै दिनु राती मजीठै रंगु बणावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भै = (प्रभु के) डर अदब में (रह के)। भाइ = (प्रभु के) प्यार में (जुड़ के)। सीगारु = गहणा। रवै = स्मरण करता है। मजीठै रंगु = मजीठा वाला पक्का रंग।4।
अर्थ: जो मनुष्य प्रभु के डर अदब में रह के प्रभु के प्रेम में मगन हो के (प्रभु के नाम को अपने जीवन का) गहना बनाता है, वह गुरु की कृपा से प्रभु चरणों में ठिकाना बना लेता है। प्रभु चरणों में घर प्राप्त कर लेता है। वह हर रोज दिन रात परमात्मा का नाम स्मरण करता है (वह अपनी जिंद को) मजीठा जैसा (पक्का प्रभु का) नाम रंग चढ़ा लेता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभना पिरु वसै सदा नाले ॥ गुर परसादी को नदरि निहाले ॥ मेरा प्रभु अति ऊचो ऊचा करि किरपा आपि मिलावणिआ ॥५॥

मूलम्

सभना पिरु वसै सदा नाले ॥ गुर परसादी को नदरि निहाले ॥ मेरा प्रभु अति ऊचो ऊचा करि किरपा आपि मिलावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = कोई विरला। नदरि निहाले = आँखों से देखता है।5।
अर्थ: (हे भाई!) प्रभु पति सदा सभ जीवों के साथ (सब के अंदर) बसता है, पर कोई विरला जीव गुरु की कृपा से (उसे हर जगह) अपनी आँखों से देखता है। (हे भाई!) प्यारा प्रभु बहुत ही ऊँचा है (बेअंत ऊँचे आत्मिक जीवन का मालिक है, और हम जीव नीच-जीवन के है) वह स्वयं ही मेहर करके (जीवों को अपने चरणों में) मिलाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ मोहि इहु जगु सुता ॥ नामु विसारि अंति विगुता ॥ जिस ते सुता सो जागाए गुरमति सोझी पावणिआ ॥६॥

मूलम्

माइआ मोहि इहु जगु सुता ॥ नामु विसारि अंति विगुता ॥ जिस ते सुता सो जागाए गुरमति सोझी पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मोह में। अंत = आखिर। विगुता = ख्वार होती है। जिस ते = जिस से, जिस परमात्मा के हुक्म अनुसार।6।
अर्थ: ये जगत माया के मोह में फंस कर सोया हुआ है (आत्मिक जीवन की ओर से बेफिक्र हो रहा है)। परमात्मा का नाम भुला के आखिर खुआर ही होता है। (फिर भी ये इस नींद में से जागता नहीं। जागे भी कैसे? इसके बस की बात नहीं) जिसके हुक्म के अनुसार (जगत माया के मोह की नींद में) सो रहा है, वही इसे जगाता है (वह प्रभु स्वयं ही इसे) गुरु की मति पे चला के (आत्मिक जीवन की) समझ बख्शता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपिउ पीऐ सो भरमु गवाए ॥ गुर परसादि मुकति गति पाए ॥ भगती रता सदा बैरागी आपु मारि मिलावणिआ ॥७॥

मूलम्

अपिउ पीऐ सो भरमु गवाए ॥ गुर परसादि मुकति गति पाए ॥ भगती रता सदा बैरागी आपु मारि मिलावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अपिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भरमु = भटकना। मुकति = माया के मोह से खलासी। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। बैरागी = वैरागवान, माया के मोह से ऊपर। आपु = स्वै भाव।7।
अर्थ: जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पीता है। वह (माया के मोह वाली) भटकना दूर कर लेता है। गुरु की कृपा से वह माया के मोह से खलासी पा लेता है। वह उच्च अवस्था प्राप्त कर लेता है। वह मनुष्य परमात्मा की भक्ति (के रंग) में रंगा जाता है, (इस की इनायत से वही) माया के मोह से निर्लिप रहता है और सवै-भाव मार केवह अपने आप को प्रभु चरणों में मिला लेता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि उपाए धंधै लाए ॥ लख चउरासी रिजकु आपि अपड़ाए ॥ नानक नामु धिआइ सचि राते जो तिसु भावै सु कार करावणिआ ॥८॥४॥५॥

मूलम्

आपि उपाए धंधै लाए ॥ लख चउरासी रिजकु आपि अपड़ाए ॥ नानक नामु धिआइ सचि राते जो तिसु भावै सु कार करावणिआ ॥८॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धंधै = झमेले में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।8।
अर्थ: हे नानक! प्रभु खुद ही जीवों को पैदा करता है और खुद ही माया की दौड़ भाग में जोड़ देता है। चौरासी लाख जोनियों के जीवों को रिजक भी प्रभु स्वयं ही पहुँचाता है। पर जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करके उस सदा स्थिर प्रभु (के नाम रंग) में रंगे रहते हैं। वे वही कार करते हैं जो उस परमात्मा को स्वीकार होती है।8।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ अंदरि हीरा लालु बणाइआ ॥ गुर कै सबदि परखि परखाइआ ॥ जिन सचु पलै सचु वखाणहि सचु कसवटी लावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ अंदरि हीरा लालु बणाइआ ॥ गुर कै सबदि परखि परखाइआ ॥ जिन सचु पलै सचु वखाणहि सचु कसवटी लावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंदरि = मनुष्य के शरीर में। सबदि = शब्द से। परखि = परख के। परखाइआ = परख कराई। जिन पलै = जिस के पास। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। कसवटी = रगड़ लगाने वाली बट्टी (पथरी), कसौटी।1।
अर्थ: परमात्मा ने हरेक के शरीर के अंदर (अपना ज्योति-रूपी) हीरा लाल टिकाया हुआ है। (पर चुनिंदा भाग्यशालियों ने) गुरु के शब्द द्वारा (उस हीरे लाल की) परख करके (साधु-संगत में) परख कराई है। जिनके हृदय में सदा स्थिर प्रभु का नाम-हीरा बस गया है, वे सदा स्थिर नाम स्मरण करते हैं। वे (अपने आत्मिक जीवन की परख के वास्ते) सदा स्थिर नाम को ही कसौटी (के तौर पर) इस्तेमाल करते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी गुर की बाणी मंनि वसावणिआ ॥ अंजन माहि निरंजनु पाइआ जोती जोति मिलावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी गुर की बाणी मंनि वसावणिआ ॥ अंजन माहि निरंजनु पाइआ जोती जोति मिलावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। मंनि = मनि, मन में। अंजन = कालख, माया। निरंजन = माया के प्रभाव से रहित प्रभु!।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदा उनके सदके जाता हूँ, जो गुरु की वाणी को अपने मन में बसाते हैं। उन्होंने माया में विचरते हुए ही (इस वाणी की इनायत से) निरंजन प्रभु को ढूंढ लिया है, वे अपनी तवज्जो को प्रभु की ज्योति में मिलाए रखते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु काइआ अंदरि बहुतु पसारा ॥ नामु निरंजनु अति अगम अपारा ॥ गुरमुखि होवै सोई पाए आपे बखसि मिलावणिआ ॥२॥

मूलम्

इसु काइआ अंदरि बहुतु पसारा ॥ नामु निरंजनु अति अगम अपारा ॥ गुरमुखि होवै सोई पाए आपे बखसि मिलावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पसारा = माया का खिलारा। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला।2।
अर्थ: (एक तरफ) इस मानव शरीर में (माया का) बहुत खिलारा बिखरा हुआ है। (दूसरी तरफ) प्रभु माया के प्रभाव सेऊपर है, अगम्य (पहुँच से परे) है, बेअंत है। उसका नाम (मनुष्य को कैसे प्राप्त हो?)। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है, वही (निरंजन के नाम को) प्राप्त करता है। प्रभु स्वयं ही मेहर करके (उसे अपने चरणों में) मिला लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा ठाकुरु सचु द्रिड़ाए ॥ गुर परसादी सचि चितु लाए ॥ सचो सचु वरतै सभनी थाई सचे सचि समावणिआ ॥३॥

मूलम्

मेरा ठाकुरु सचु द्रिड़ाए ॥ गुर परसादी सचि चितु लाए ॥ सचो सचु वरतै सभनी थाई सचे सचि समावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: द्रिढ़ाए = दृढ़ कराता है, पक्का टिकाता है। गुर परसादी = गुरु की कृपा से। सचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम में। सचो सचु = सच ही सच, सदा स्थिर प्रभु ही। सचे सचि = सच ही सच, सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में ही।3।
अर्थ: पालणहारा प्यारा प्रभु (जिस मनुष्य के हृदय में अपना) सदा स्थिर नाम दृढ़ करता है। वह मनुष्य गुरु की कृपा से सदा स्थिर प्रभु में अपना मन जोड़ता है। (उसे यकीन बन जाता है कि) सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा ही सभी जगहों में मौजूद है, वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेपरवाहु सचु मेरा पिआरा ॥ किलविख अवगण काटणहारा ॥ प्रेम प्रीति सदा धिआईऐ भै भाइ भगति द्रिड़ावणिआ ॥४॥

मूलम्

वेपरवाहु सचु मेरा पिआरा ॥ किलविख अवगण काटणहारा ॥ प्रेम प्रीति सदा धिआईऐ भै भाइ भगति द्रिड़ावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किलविख = पाप, भै-डर अदब में रह कर। भाइ = प्रेम में।4।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा प्यारा प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसे किसी किस्म की अधीनता भी नहीं है। वह सब जीवों के पाप और औगुण दूर करने की ताकत रखता है। प्रेम प्यार से उसका ध्यान धरना चाहिए। उसके डर अदब में रह के प्यार से उसकी भक्ति (अपने हृदय में) पक्की करनी चाहिए।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी भगति सची जे सचे भावै ॥ आपे देइ न पछोतावै ॥ सभना जीआ का एको दाता सबदे मारि जीवावणिआ ॥५॥

मूलम्

तेरी भगति सची जे सचे भावै ॥ आपे देइ न पछोतावै ॥ सभना जीआ का एको दाता सबदे मारि जीवावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सची = सदा स्थिर रहने वाली। सचे = हे सदा स्थिर प्रभु! देइ = देता है। सबदे = शब्द में जोड़ के। मारि = (विकारों की ओर से) मार के।5।
अर्थ: हे सदा स्थिर प्रभु! तेरी भक्ति (की दाति जीव को तभी मिलती है यदि) तेरी रजा हो।
(हे भाई! भक्ति व अन्य सांसारिक पदार्थों की दाति) प्रभु स्वयं ही (जीवों को) देता है। (दे दे के वह) पछताता भी नहीं। (क्योंकि) सब जीवों को दातें देने वाला वह खुद ही खुद है। गुरु के शब्द से (जीव को विकारों की ओर से) मार के सवयं ही आत्मिक जीवन देने वाला है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि तुधु बाझहु मै कोई नाही ॥ हरि तुधै सेवी तै तुधु सालाही ॥ आपे मेलि लैहु प्रभ साचे पूरै करमि तूं पावणिआ ॥६॥

मूलम्

हरि तुधु बाझहु मै कोई नाही ॥ हरि तुधै सेवी तै तुधु सालाही ॥ आपे मेलि लैहु प्रभ साचे पूरै करमि तूं पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुधै = तूझे ही। सेवी = मैं सेवा करता हूँ। तै = और। सालाही = मैं सालाहता हूँ। प्रभु = हे प्रभु! पूरै करमि = तेरी पूरी बख्शिश से। तूं = तुझे।6।
अर्थ: हे हरि! तेरे बिना मुझे (अपना) कोई और (सहारा) नहीं दिखता। हे हरि! मैं तेरी ही सेवा भक्ति करता हूँ। मैं तेरी ही महिमा करता हूँ। हे सदा कायम रहने वाले प्रभु! तू स्वयं ही मुझे अपने चरणों से जोड़े रख। तेरी पूरी मेहर से ही तुझे मिल सकते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै होरु न कोई तुधै जेहा ॥ तेरी नदरी सीझसि देहा ॥ अनदिनु सारि समालि हरि राखहि गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥७॥

मूलम्

मै होरु न कोई तुधै जेहा ॥ तेरी नदरी सीझसि देहा ॥ अनदिनु सारि समालि हरि राखहि गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेहा = जैसा। नदरी = मिहर की निगाह से। सीझसि = सफल होती है। देहा = काया,शरीर। सारि = सार ले कर। समालि = संभाल के। हरि = हे हरि! सहजि = आत्मिक अडोलता में।7।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे जैसा मुझे और कोई नहीं दिखता। तेरी मेहर की निगाह से ही (अगर तेरी भक्ति की दाति मिले तो तेरा यह) शरीर सफल हो सकता है। हे हरि! तू स्वयं ही हर समय जीवों की संभाल करके (विकारों से) रक्षा करता है। (तेरी मेहर से) जो लोग गुरु की शरण पड़ते हैं, वे आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुधु जेवडु मै होरु न कोई ॥ तुधु आपे सिरजी आपे गोई ॥ तूं आपे ही घड़ि भंनि सवारहि नानक नामि सुहावणिआ ॥८॥५॥६॥

मूलम्

तुधु जेवडु मै होरु न कोई ॥ तुधु आपे सिरजी आपे गोई ॥ तूं आपे ही घड़ि भंनि सवारहि नानक नामि सुहावणिआ ॥८॥५॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिरजी = पैदा की। गोई = लीन कर ली। घड़ि = घड़ के, साज के। भंनि = तोड़ के, नाश करके। नामि = नाम में।8।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे बराबर का मुझे और कोई नही दिखाई देता। तूने खुद ही रचना रची हैख् तू स्वयं ही इसका नाश करता है।
हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तू स्वयं ही बना-तोड़ के सँवारता है, तूं स्वयं ही अपने नाम की बरकत से (जीवों के जीवन) सुंदर बनाता है।8।5।6।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ सभ घट आपे भोगणहारा ॥ अलखु वरतै अगम अपारा ॥ गुर कै सबदि मेरा हरि प्रभु धिआईऐ सहजे सचि समावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ सभ घट आपे भोगणहारा ॥ अलखु वरतै अगम अपारा ॥ गुर कै सबदि मेरा हरि प्रभु धिआईऐ सहजे सचि समावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ घट = सारे शरीर। आपे = प्रभु स्वयं ही। अलखु = (अलक्ष्य = invisible, unobserved) अदृष्टि। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। सबदि = शब्द में (जुड़ के)। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।1।
अर्थ: (हे भाई!) सारे शरीरों में (व्यापक हो के प्रभु) स्वयं ही (जगत के सारे पदार्थ) भोग रहा है। (फिर भी वह) अदृष्ट रूप में मौजूद है अगम्य (पहुँच से परे) है और बेअंत है। उस प्यारे हरि प्रभु को गुरु के शब्द में जोड़ के स्मरणा चाहिए। (जो मनुष्य स्मरण करते हैं वह) आत्मिक अडोलता में सदा स्थिर प्रभु में समाए रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी गुर सबदु मंनि वसावणिआ ॥ सबदु सूझै ता मन सिउ लूझै मनसा मारि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी गुर सबदु मंनि वसावणिआ ॥ सबदु सूझै ता मन सिउ लूझै मनसा मारि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंनि = मन में। सूझै = सूझ पड़ता है, अंतर आत्मे टिकाता है। सिउ = साथ। लूझै = लड़ता है, सामना करता है। मनसा = (मनीषा) कामना।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं सदा उस मनुष्य के सदके कुर्बान जाता हूँ जो सतिगुरु के शब्द को (अपने) मन में बसाता है। जब गुरु का शब्द मनुष्य के अंतर आत्मे टिकता है, तो वह अपने मन से टकराव करता है, और मन की कामना मार के (प्रभु चरणों में) लीन रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंच दूत मुहहि संसारा ॥ मनमुख अंधे सुधि न सारा ॥ गुरमुखि होवै सु अपणा घरु राखै पंच दूत सबदि पचावणिआ ॥२॥

मूलम्

पंच दूत मुहहि संसारा ॥ मनमुख अंधे सुधि न सारा ॥ गुरमुखि होवै सु अपणा घरु राखै पंच दूत सबदि पचावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुहहि = ठग रहे हैं। अंधे = माया में अंधे हुए जीव को। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले को। सुधि = (intelligence), अकल। सार = खबर। सबदि = शब्द के द्वारा। पचावणिआ = जला देता है, मार देता है।2।
अर्थ: (हे भाई! कामादिक) पाँच वैरी, जगत (के आत्मिक जीवन) को लूट रहे हैं। पर, अपने मन के पीछे चलने वाले और माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य को ना अकल है ना ही (इस लूट की) खबर है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, वह अपना घर बचा लेता है। वह गुरु के शब्द में टिक के इन पाँच वैरियों का नाश कर लेता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकि गुरमुखि सदा सचै रंगि राते ॥ सहजे प्रभु सेवहि अनदिनु माते ॥ मिलि प्रीतम सचे गुण गावहि हरि दरि सोभा पावणिआ ॥३॥

मूलम्

इकि गुरमुखि सदा सचै रंगि राते ॥ सहजे प्रभु सेवहि अनदिनु माते ॥ मिलि प्रीतम सचे गुण गावहि हरि दरि सोभा पावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगि = प्रेम में। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। अनदिनु = हर रोज। माते = मस्त। साचे = सदा स्थिर प्रभु के।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है शब्द ‘इक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होते हैं, वे सदैव सदा स्थिर प्रभु के प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। वे आत्मिक अडोलता में मस्त हर समय प्रभु का स्मरण करते हैं। वे प्रभु प्रीतम को मिल के उस सदा स्थिर प्रभु के गुण गाते हैं और प्रभु के दर से आदर हासिल करते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकम एकै आपु उपाइआ ॥ दुबिधा दूजा त्रिबिधि माइआ ॥ चउथी पउड़ी गुरमुखि ऊची सचो सचु कमावणिआ ॥४॥

मूलम्

एकम एकै आपु उपाइआ ॥ दुबिधा दूजा त्रिबिधि माइआ ॥ चउथी पउड़ी गुरमुखि ऊची सचो सचु कमावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एकम = पहले पहल। एकै = एक ने ही, एक निर्गुण रूप ने ही। आपु = अपने आप को। उपाइआ = प्रगट किया, पैदा किया। दुबिधा = दो किस्मा, निर्गुण और सर्गुण स्वरूपों वाला। दूजा = दूसरा (काम उसने ये किया)। त्रिबिधि = तीन गुणों वाली। पउड़ी = दर्जा, ठिकाना। चउथी = तीन गुणों से ऊपर की।4।
अर्थ: पहले प्रभु अकेला स्वयं (निर्गुण स्वरूप) था। उसने अपने आप को प्रगट किया। इस तरह फिर दो किस्मों वाला (निर्गुण और सर्गुण स्वरूप वाला) बन गया और उस के तीन गुणों वाली माया रच दी।
जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, उसका आत्मिक ठिकाना माया के तीन गुणों (के प्रभाव) से ऊपर ऊँचा रहता है। वह सदैव सदा स्थिर प्रभु का नाम जपने की कमाई करता रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु है सचा जे सचे भावै ॥ जिनि सचु जाता सो सहजि समावै ॥ गुरमुखि करणी सचे सेवहि साचे जाइ समावणिआ ॥५॥

मूलम्

सभु है सचा जे सचे भावै ॥ जिनि सचु जाता सो सहजि समावै ॥ गुरमुखि करणी सचे सेवहि साचे जाइ समावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ = हर जगह। सचे = सदा स्थिर प्रभु को। भावै = अच्छा लगे। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। जाता = गहरी सांझ डाल ली। करणी = करतब।5।
अर्थ: अगर सदा स्थिर प्रभु की रजा हो (तो जिस मनुष्य पर वह मेहर करता है, उसे यह निश्चय हो जाता है कि) सदा स्थिर परमात्मा हर जगह मौजूद है। (प्रभु की मेहर से) जिस मनुष्य ने सदा कायम रहने वाले प्रभु के साथ सांझ डाल ली, वह आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।
(हे भाई!) गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों का कर्तव्य ही ये है कि वे सदा स्थिर प्रभु का स्मरण करते रहते हैं और सदा स्थिर प्रभु में ही जा के लीन हो जाते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचे बाझहु को अवरु न दूआ ॥ दूजै लागि जगु खपि खपि मूआ ॥ गुरमुखि होवै सु एको जाणै एको सेवि सुखु पावणिआ ॥६॥

मूलम्

सचे बाझहु को अवरु न दूआ ॥ दूजै लागि जगु खपि खपि मूआ ॥ गुरमुखि होवै सु एको जाणै एको सेवि सुखु पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूआ = दूसरा, उस जैसा। दूजै = माया के मोह में। लागि = लग के। खपि खपि = दुखी हो हो के। मूआ = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।6।
अर्थ: सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के बिना कोई और दूसरा (आत्मिक आनंद देने वाला नहीं है) जगत (उसे विसार के और सुख की खातिर) माया के मोह में फंस के दुखी हो के आत्मिक मौत ले लेता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है, वह एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है। वह एक परमात्मा का ही स्मरण करके आत्मिक आनंद लेता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ जंत सभि सरणि तुमारी ॥ आपे धरि देखहि कची पकी सारी ॥ अनदिनु आपे कार कराए आपे मेलि मिलावणिआ ॥७॥

मूलम्

जीअ जंत सभि सरणि तुमारी ॥ आपे धरि देखहि कची पकी सारी ॥ अनदिनु आपे कार कराए आपे मेलि मिलावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। धरि = रख के। सारी = नरद।7।
अर्थ: (हे प्रभु! जगत के) सारे जीव तेरा ही आसरा देख सकते हैं (हे प्रभु! ये तेरा रचा हुआ जगत, मानो चौपड़ की खेल है), तू स्वयं ही (इस चौपड़ पे) कच्ची-पक्की नर्दें (भाव, ऊँचे और कच्चे जीवन वाले जीव) रच के इनकी संभाल करता है।
(हे भाई!) हर रोज (हर वक्त) प्रभु स्वयं ही (जीवों में व्यापक हो के जीवों से) कार करवाता है, और स्वयं ही अपने चरणों में मिलाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं आपे मेलहि वेखहि हदूरि ॥ सभ महि आपि रहिआ भरपूरि ॥ नानक आपे आपि वरतै गुरमुखि सोझी पावणिआ ॥८॥६॥७॥

मूलम्

तूं आपे मेलहि वेखहि हदूरि ॥ सभ महि आपि रहिआ भरपूरि ॥ नानक आपे आपि वरतै गुरमुखि सोझी पावणिआ ॥८॥६॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हदूरि = अंग संग रह के। वेखहि = संभाल करता है।8।
अर्थ: (हे भाई!) तू स्वयं ही जीवों के अंग संग हो के सबकी संभाल करता है और अपने चरणों में जोड़ता है।
(हे भाई!) सब जीवों में प्रभु स्वयं ही हाजिर नाजिर मौजूद है।
हे नानक! सब जगह प्रभु स्वयं ही बरत रहा है। गुरु के सन्मुख रहने वाले लोगों को ये समझ आ जाती है।8।6।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ अम्रित बाणी गुर की मीठी ॥ गुरमुखि विरलै किनै चखि डीठी ॥ अंतरि परगासु महा रसु पीवै दरि सचै सबदु वजावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ अम्रित बाणी गुर की मीठी ॥ गुरमुखि विरलै किनै चखि डीठी ॥ अंतरि परगासु महा रसु पीवै दरि सचै सबदु वजावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली, आत्मिक मौत से बचाने वाली। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। किनै = किस ने। अंतरि = अंदर, हृदय में। परगासु = सही जीवन की सूझ, रोशनी। दरि = दर पे।1।
अर्थ: सतिगुरु की वाणी आत्मिक जीवन देने वाली है और जीवन में मिठास भरने वाली है। पर, किसी विरले गुरमुखि ने इस वाणी का रस ले के ये तब्दीली देखी है। जो मनुष्य गुरु की वाणी का श्रेष्ठ रस लेता है, उसके अंदर सही जीवन की सूझ पैदा हो जाती है। वह सदैव सदा सिथर प्रभु के दर पर टिका रहता है। उसके अंदर गुरु का शब्द अपना पूरा प्रभाव डाले रखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी गुर चरणी चितु लावणिआ ॥ सतिगुरु है अम्रित सरु साचा मनु नावै मैलु चुकावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी गुर चरणी चितु लावणिआ ॥ सतिगुरु है अम्रित सरु साचा मनु नावै मैलु चुकावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितसरु = अमृत का कुण्ड। साचा = सदा कायम रहने वाला। नावै = स्नान करता है।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदा उस मनुष्य के सदके कुर्बान जाता हूँ, जो गुरु के चरणों में अपना चिक्त जोड़े रखते हैं। सतिगुरु आत्मिक जीवन देने वाले जल का कुण्ड है, वह कुण्ड सदा कायम रहने वाला भी है। (जिस मनुष्य का) मन (उस कुण्ड में) स्नान करता है, (वह अपने मन की विकारों की) मैल दूर कर लेता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरा सचे किनै अंतु न पाइआ ॥ गुर परसादि किनै विरलै चितु लाइआ ॥ तुधु सालाहि न रजा कबहूं सचे नावै की भुख लावणिआ ॥२॥

मूलम्

तेरा सचे किनै अंतु न पाइआ ॥ गुर परसादि किनै विरलै चितु लाइआ ॥ तुधु सालाहि न रजा कबहूं सचे नावै की भुख लावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचे = हे सदा स्थिर रहने वाले। परसादि = कृपा से। न रजा = नहीं रजता, पेट नहीं भरता, तृप्ति नहीं होती। सालाहि = महिमा करके। कब हूँ = कभी भी। नावै की = नाम की।2।
अर्थ: हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभु! किसी भी जीव को तेरे गुणों का अंत नहीं मिला। किसी विरले मनुष्य ने ही गुरु की कृपा से ही (तेरे चरणों में अपना) चिक्त जोड़ा है। (हे प्रभु! मेहर कर कि) मैं तेरी महिमा करते करते कभी भी ना तृप्त होऊँ। तेरे सदा स्थिर रहने वाले नाम की भूख मुझे हमेशा लगी रहे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको वेखा अवरु न बीआ ॥ गुर परसादी अम्रितु पीआ ॥ गुर कै सबदि तिखा निवारी सहजे सूखि समावणिआ ॥३॥

मूलम्

एको वेखा अवरु न बीआ ॥ गुर परसादी अम्रितु पीआ ॥ गुर कै सबदि तिखा निवारी सहजे सूखि समावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वेखा = मैं देखता हूं। बीआ = दूसरा। तिखा = (माया की) प्यास, त्रिष्णा। सहजे = सहिज, आतिमक अडोलता में।3।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की कृपा से मैंने आत्मिक जीवन देने वाले हरि नाम रस को पिया है। अब मैं हर जगह एक परमात्मा को ही देखता हूँ। (उसके बिना मुझे) कोई और नहीं (दिखता)। गुरु के शब्द में जुड़ के मैंने माया की तृष्णा दूर कर ली है, अब मैं आत्मिक अडोलता मैं आत्मिक आनंद में लीन रहता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रतनु पदारथु पलरि तिआगै ॥ मनमुखु अंधा दूजै भाइ लागै ॥ जो बीजै सोई फलु पाए सुपनै सुखु न पावणिआ ॥४॥

मूलम्

रतनु पदारथु पलरि तिआगै ॥ मनमुखु अंधा दूजै भाइ लागै ॥ जो बीजै सोई फलु पाए सुपनै सुखु न पावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पलरि = तोरीए की नाड़ियां। दजै भाइ = दूसरे के प्यार में, प्रभु के बिना और के प्रेम में।4।
अर्थ: माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (प्रभु को भुला के) माया के प्यार में फंसा रहता है, वह परमात्मा के नाम रतन को (दुनिया के सब पदार्थों से श्रेष्ठ) पदार्थ को तरोई की नाड़ियों के बदले में हाथों से गवाता रहता है। जो (दुखदायी बीज) वह मनमुख बीजता है, उसका वही (दुखदायी) फल वह हासिल करता है। वह सुपने में भी आत्मिक आनंद नही पाता।4।

[[0114]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपनी किरपा करे सोई जनु पाए ॥ गुर का सबदु मंनि वसाए ॥ अनदिनु सदा रहै भै अंदरि भै मारि भरमु चुकावणिआ ॥५॥

मूलम्

अपनी किरपा करे सोई जनु पाए ॥ गुर का सबदु मंनि वसाए ॥ अनदिनु सदा रहै भै अंदरि भै मारि भरमु चुकावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में। अनदिनु = हर रोज। भै अंदरि = (‘अंदरि’ संबंधक के कारण शब्द ‘भउ’, ‘भै’ में बदल गया। देखें गुरबाणी व्याकरण)। भै = भय से। मारि = (मन को) मार के।5।
अर्थ: जिस मनुष्य पर परमात्मा अपनी कृपा करता है वही मनुष्य (आत्मिक आनंद) प्राप्त करता है (क्योंकि वह) गुरु का शब्द अपने मन में बसाए रखता है। वह मनुष्य हर रोज हर समय परमात्मा के डर अदब में टिका रहता है, और उस डर अदब की इनायत से अपने मन को मार के (विकारों को मार के विकारों की तरफ की) दौड़-भाग दूर करे रखता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरमु चुकाइआ सदा सुखु पाइआ ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ ॥ अंतरु निरमलु निरमल बाणी हरि गुण सहजे गावणिआ ॥६॥

मूलम्

भरमु चुकाइआ सदा सुखु पाइआ ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ ॥ अंतरु निरमलु निरमल बाणी हरि गुण सहजे गावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भरमु = भटकना। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। अंतरु = अंदर का, मन (शब्द ‘अंतरि’ संबंधक है, जबकि ‘अंतरु’ संज्ञा है)।6।
अर्थ: जिस मनुष्य ने (अपने मन की विकारों की ओर की) दौड़-भाग खत्म कर ली, उसने सदा आत्मिक आनंद प्राप्त किया। गुरु की कृपा से उसने सब से ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली। जीवन को पवित्र करने वाली गुरबाणी की सहायता से उसका मन पवित्र हो गया। वह आत्मिक अडोलता में टिक के सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिम्रिति सासत बेद वखाणै ॥ भरमे भूला ततु न जाणै ॥ बिनु सतिगुर सेवे सुखु न पाए दुखो दुखु कमावणिआ ॥७॥

मूलम्

सिम्रिति सासत बेद वखाणै ॥ भरमे भूला ततु न जाणै ॥ बिनु सतिगुर सेवे सुखु न पाए दुखो दुखु कमावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वखाणै = उचारता है, और लोगों को सुनाता है। भरमे = भरमि ही, भटकन में ही। भला = कुमार्ग पर पड़ा रहता है। ततु = अस्लियत (तत्वं = The real nature of the human soul or the material world as being identical with the Supreme Being)।7।
अर्थ: (पंडित) वेद शास्त्र स्मृतियों (आदि धर्म पुस्तकें) और लोगों को पढ़ पढ़ के सुनाता रहता है, पर स्वयं माया की भटकना में पड़ के कुमार्ग पर चलता है। वह असलियत को नहीं समझता। गुरु की बताई सेवा किए बगैर वह आत्मिक आनंद नहीं प्राप्त कर सकता, दुख ही दुख (पैदा करने वाली) कमाई करता रहता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि करे किसु आखै कोई ॥ आखणि जाईऐ जे भूला होई ॥ नानक आपे करे कराए नामे नामि समावणिआ ॥८॥७॥८॥

मूलम्

आपि करे किसु आखै कोई ॥ आखणि जाईऐ जे भूला होई ॥ नानक आपे करे कराए नामे नामि समावणिआ ॥८॥७॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामे नामि = नाम ही नाम, नाम में ही नाम में ही।8।
अर्थ: (पर ये सारी खेल परमात्मा के अपने हाथ में है। सब जीवों में व्यापक हो के परमात्मा) स्वयं ही (सब कुछ) करता है। किसे कौन कह सकता है (कि तू कुमार्ग पर जा रहा है)? किसी को समझाने की जरूरत तभी पड़ सकती है, यदि वह (स्वयं) कुमार्ग पर पड़ा हुआ हो। हे नानक! परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों में व्यापक हो के सब कुछ) कर रहा है और (जीवों से) करा रहा है, वह स्वयं ही (सर्व-व्यापक हो के अपने) नाम में ही लीन हो सकता है।8।7।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ आपे रंगे सहजि सुभाए ॥ गुर कै सबदि हरि रंगु चड़ाए ॥ मनु तनु रता रसना रंगि चलूली भै भाइ रंगु चड़ावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ आपे रंगे सहजि सुभाए ॥ गुर कै सबदि हरि रंगु चड़ाए ॥ मनु तनु रता रसना रंगि चलूली भै भाइ रंगु चड़ावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) स्वयं ही। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = सुहाने प्रेम में। सबदि = शब्द से। रता = रंगा जाता है। रसना = जीभ। चलूली = गहरे रंग वाली। भै = (प्रभु के) डर अदब में। भाइ = (प्रभु के) प्रेम में।1।
अर्थ: प्रभु स्वयं ही (जिस मनुष्यों को) आत्मिक अडोलता के (रंग) में रंगता है, श्रेष्ठ प्यार (के रंग) में रंगता है, जिन्हें गुरु के शब्द में (जोड़ के यह) रंग चढ़ाता है, उनका मन रंग जाता है। उनका शरीर रंगा जाता है। उनकी जीभ (नाम-) रंग में गहरी लाल हो जाती है। गुरु उन्हें प्रभु के डर-अदब में रख के प्रभु के प्यार में जोड़ के नाम-रंग चढ़ाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी निरभउ मंनि वसावणिआ ॥ गुर किरपा ते हरि निरभउ धिआइआ बिखु भउजलु सबदि तरावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी निरभउ मंनि वसावणिआ ॥ गुर किरपा ते हरि निरभउ धिआइआ बिखु भउजलु सबदि तरावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंनि = मन में। ते = से, साथ। बिखु = जहर। भउजलु = संसार समुंदर।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदा उनसे सदके कुर्बान जाता हूँ जो उस परमात्मा को अपने मन में बसाते हैं, जिसे किसी का डर खतरा नहीं। जिन्होंने गुरु की कृपा से निरभउ परमात्मा का ध्यान धरा है। परमात्मा उन्हें गुरु-शब्द में जोड़ के जहर रूपी संसार समुंदर से पार लंघा लेता है (भाव, उस संसार समुंदर से पार लंघाता है जिस का मोह आत्मिक जीवन वास्ते जहर जैसा है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख मुगध करहि चतुराई ॥ नाता धोता थाइ न पाई ॥ जेहा आइआ तेहा जासी करि अवगण पछोतावणिआ ॥२॥

मूलम्

मनमुख मुगध करहि चतुराई ॥ नाता धोता थाइ न पाई ॥ जेहा आइआ तेहा जासी करि अवगण पछोतावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। मुगध = मूर्ख। थाइ = जगह में। थाइ न पाई = स्वीकार नही होता। जासी = जाएगा।2।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मूर्ख मनुष्य चतुराईयां करते हैं (और कहते हैं कि हम तीर्थ-स्नान आदि पुंन्य कर्म करते हैं)। (पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य) बाहर से कितना ही पवित्र कर्म करने वाला हो (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार नहीं होता। (वह जगत में आत्मिक जीवन से) जैसा (खाली आता है) वैसा ही (खाली) चला जाता है। (जगत में) अवगुण कर करके (आखिर) पछताता ही (चला जाता) है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख अंधे किछू न सूझै ॥ मरणु लिखाइ आए नही बूझै ॥ मनमुख करम करे नही पाए बिनु नावै जनमु गवावणिआ ॥३॥

मूलम्

मनमुख अंधे किछू न सूझै ॥ मरणु लिखाइ आए नही बूझै ॥ मनमुख करम करे नही पाए बिनु नावै जनमु गवावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किछू न सूझै = (सही जीवन युक्ति बारे), कुछ भी नहीं सूझता।3।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को, माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य को (सही जीवन युक्ति के बारे में) कुछ नही सूझता। (पिछले जन्मों में मनमुखता के अधीन किए कर्मों के अनुसार) आत्मिक मौत (के संस्कार अपने मन की तख्ती पर) लिखा के वह (जगत में) आता है (यहां भी उसे) समझ नहीं आती, अपने मन के पीछे चल के ही कर्म करता रहता है और (सही जीवन जुगति की सूझ) हासिल नहीं करता, और परमात्मा के नाम से वंचित रह के मानव जनम को व्यर्थ गवा जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु करणी सबदु है सारु ॥ पूरै गुरि पाईऐ मोख दुआरु ॥ अनदिनु बाणी सबदि सुणाए सचि राते रंगि रंगावणिआ ॥४॥

मूलम्

सचु करणी सबदु है सारु ॥ पूरै गुरि पाईऐ मोख दुआरु ॥ अनदिनु बाणी सबदि सुणाए सचि राते रंगि रंगावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। करणी = (करणीय) करने योग्य काम। सरु = श्रेष्ठ (काम)। गुरि = गुरु द्वारा। मोख दुआर = (विकारों से) खलासी का दरवाजा। अनदिनु = हर रोज। सबदि = शब्द द्वारा। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।4।
अर्थ: (हे भाई!) सदा स्थिर प्रभु का नाम जपना ही करने योग्य काम है। गुरु का शब्द (हृदय में बसाना ही) श्रेष्ठ (उद्यम) है। पूरे गुरु द्वारा ही विकारों से खलासी पाने का दरवाजा मिलता है। (गुरु जिनको) हर समय अपनी वाणी के द्वारा (परमात्मा की महिमा) सुनाता रहता है, वे सदा स्थिर प्रभु के नाम के रंग में रंगे जाते हैं। वे उसके प्रेम रंग में रंगे जाते है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसना हरि रसि राती रंगु लाए ॥ मनु तनु मोहिआ सहजि सुभाए ॥ सहजे प्रीतमु पिआरा पाइआ सहजे सहजि मिलावणिआ ॥५॥

मूलम्

रसना हरि रसि राती रंगु लाए ॥ मनु तनु मोहिआ सहजि सुभाए ॥ सहजे प्रीतमु पिआरा पाइआ सहजे सहजि मिलावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसि = रस में। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिक के)।5।
अर्थ: जिस मनुष्य की जीभ पूरी लगन लगा के परमात्मा के नाम रस में रंगी जाती है, उसका मन आत्मिक अडोलता में मस्त रहता है, उसका शरीर प्रेम रंग में मगन रहता है। आत्मिक अडोलता में टिक के वह प्यारे प्रीतम प्रभु को मिल लेता है, वह सदा ही आत्मक अडोलता में लीन रहता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु अंदरि रंगु सोई गुण गावै ॥ गुर कै सबदि सहजे सुखि समावै ॥ हउ बलिहारी सदा तिन विटहु गुर सेवा चितु लावणिआ ॥६॥

मूलम्

जिसु अंदरि रंगु सोई गुण गावै ॥ गुर कै सबदि सहजे सुखि समावै ॥ हउ बलिहारी सदा तिन विटहु गुर सेवा चितु लावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगु = लगन। सुखि = आत्मिक आनंद में। विटहु = में से।6।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में लगन है, वही सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाता है। वह गुरु के शब्द में जुड़ के आत्मिक अडोलता में आत्मिक आनंद में मगन हुआ रहता है। मैं सदा उन लोगों से सदके जाता हूँ, जिन्होंने गुरु द्वारा बताई कार में अपना चिक्त लगाया हुआ है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचा सचो सचि पतीजै ॥ गुर परसादी अंदरु भीजै ॥ बैसि सुथानि हरि गुण गावहि आपे करि सति मनावणिआ ॥७॥

मूलम्

सचा सचो सचि पतीजै ॥ गुर परसादी अंदरु भीजै ॥ बैसि सुथानि हरि गुण गावहि आपे करि सति मनावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पतीजै = पसीजना। अंदरु = हृदय (याद रहे कि ‘अंदरु’ संज्ञा है, ‘अंदरि’ संबंधक है।) बैसि = बैठ के, टिक के। सुथानि = श्रेष्ठ स्थान में। आपे = प्रभु स्वयं ही। सति = सत्य, ठीक।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस नो’ बारे में। देखें ‘जिसु अंदरि’ शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। दंखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु की कृपा से जिस मनुष्यों का हृदय (महिमा के रस से) भीगा रहता है, जिनका मन सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करके सदा स्थिर की याद में पसीजा रहता है वे श्रेष्ठ अंतरात्में में टिक के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं। प्रभु स्वयं ही उनको ये श्रद्धा बख्शता है कि महिमा की कार ही सही जीवन कार है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ गुर परसादी हउमै जाए ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि दरि सचै सोभा पावणिआ ॥८॥८॥९॥

मूलम्

जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ गुर परसादी हउमै जाए ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि दरि सचै सोभा पावणिआ ॥८॥८॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = में। दरि = दर पे।8।
अर्थ: पर, प्रभु का नाम स्मरण करने की सूझ वही मनुष्य हासिल करता है, जिस पर प्रभु मेहर की निगाह करता है। गुरु की कृपा से (नाम स्मरण करने से) उसका अहंकार दूर हो जाता है। हे नानक! उस मनुष्य के मन में प्रभु का नाम बस जाता है, सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पे उसको शोभा मिलती है।8।8।9।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ सतिगुरु सेविऐ वडी वडिआई ॥ हरि जी अचिंतु वसै मनि आई ॥ हरि जीउ सफलिओ बिरखु है अम्रितु जिनि पीता तिसु तिखा लहावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ सतिगुरु सेविऐ वडी वडिआई ॥ हरि जी अचिंतु वसै मनि आई ॥ हरि जीउ सफलिओ बिरखु है अम्रितु जिनि पीता तिसु तिखा लहावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेविऐ = यदि सेवा की जाए, यदि आसरा बनाया जाए (सेव् = to betaken oneself to)। अचिंतु = जिसे कोई चिन्ता ना सता सके। मनि = मन में। आई = आ के। सफलिओ = फलीभूत। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिसु तिखा = उसकी प्यास।1।
अर्थ: अगर (मनुष्य) गुरु को (अपनी जिंदगी का) आसरा परना (अंगोछा) बना ले, तो उसको ये भारी इज्जत मिलती है कि वह परमात्मा उसके मन में आ बसता है जिसे दुनिया की कोई भी चिन्ता छू नही सकती। (हे भाई!) परमात्मा (मानो) एक फलदार वृक्ष है जिस में से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस रिसता है। जिस मनुष्य ने (वह रस) पी लिया, नाम रस ने उसकी (माया की) प्यास दूर कर दी।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी सचु संगति मेलि मिलावणिआ ॥ हरि सतसंगति आपे मेलै गुर सबदी हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी सचु संगति मेलि मिलावणिआ ॥ हरि सतसंगति आपे मेलै गुर सबदी हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर प्रभु। मेलि = मिला के।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदके हूँ कुर्बान हूँ (परमात्मा से)। वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा साधु-संगत में मिला के (अपने चरणों में) जोड़ लेता है। परमात्मा खुद ही साधु-संगत का मेल करता है। (जो मनुष्य साधु-संगत में जुड़ता है वह) गुरु के शब्द से परमात्मा के गुण गाता है।1। रहाउ।

[[0115]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवी सबदि सुहाइआ ॥ जिनि हरि का नामु मंनि वसाइआ ॥ हरि निरमलु हउमै मैलु गवाए दरि सचै सोभा पावणिआ ॥२॥

मूलम्

सतिगुरु सेवी सबदि सुहाइआ ॥ जिनि हरि का नामु मंनि वसाइआ ॥ हरि निरमलु हउमै मैलु गवाए दरि सचै सोभा पावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवी = मैं सेवता हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। मंनि = मनि, मन में।2।
अर्थ: (हे भाई!) मैंने उस गुरु को अपना आसरा परना बनाया है, जिसने अपने शब्द से मेरा जीवन संवार दिया है, जिसने परमात्मा का नाम मेरे मन में बसा दिया है। (हे भाई!) परमात्मा का नाम पवित्र है, अहंकार की मैल दूर कर देता है। (जो मनुष्य प्रभु नाम को अपने मन में बसाता है वह) सदा स्थिर प्रभु के दर पे शोभा कमाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु गुर नामु न पाइआ जाइ ॥ सिध साधिक रहे बिललाइ ॥ बिनु गुर सेवे सुखु न होवी पूरै भागि गुरु पावणिआ ॥३॥

मूलम्

बिनु गुर नामु न पाइआ जाइ ॥ सिध साधिक रहे बिललाइ ॥ बिनु गुर सेवे सुखु न होवी पूरै भागि गुरु पावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिनु गुर = गुरु के बगैर। सिध = योग साधनों में लगे हुए योगी। साधिक = साधन करने वाले। पूरै भागि = पूरी किस्मत से।3।
अर्थ: पर योग साधना करने वाले और योग साधना में लगे हुए अनेक योगी तरले लेते रह गए, परमात्मा का नाम गुरु (की शरण) के बिना नहीं मिलता। गुरु की शरण में आए बिना आत्मिक आनंद नही बनता। बड़ी किस्मत से गुरु मिलता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मनु आरसी कोई गुरमुखि वेखै ॥ मोरचा न लागै जा हउमै सोखै ॥ अनहत बाणी निरमल सबदु वजाए गुर सबदी सचि समावणिआ ॥४॥

मूलम्

इहु मनु आरसी कोई गुरमुखि वेखै ॥ मोरचा न लागै जा हउमै सोखै ॥ अनहत बाणी निरमल सबदु वजाए गुर सबदी सचि समावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आरसी = मुँह देखने वाला शीशा। मोरचा = जंगाल। सोखै = सुखा दे। अनहत = एक रस, लगातार, अन+आहत। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।4।
अर्थ: मनुष्य का ये मन आरसी (दर्पण-Looking Glass) समान है (इसके द्वारा मनुष्य अपना आत्मिक जीवन देख सकता है, पर) सिर्फ वही मनुष्य देखता है जो गुरु की शरण पड़े। (गुरु का आसरा लिए बिना इस मन को अहंकार का जंग लगा रहता है)। (जब) गुरु के दर पे पड़ कर मनुष्य अपने अंदर से अहंकार खत्म कर देता है तो (फिर मन को अहम् का) जंग नहीं लगता। (और मनुष्य इस के द्वारा अपने जीवन को देख परख सकता है)। (गुरु की शरण में पड़ा मनुष्य) गुरु की पवित्र वाणी को गुरु के शब्द को एक रस (अपने अंदर) प्रबल करे रखता है और (इस तरह) गुरु के शब्द की इनायत से वह सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सतिगुर किहु न देखिआ जाइ ॥ गुरि किरपा करि आपु दिता दिखाइ ॥ आपे आपि आपि मिलि रहिआ सहजे सहजि समावणिआ ॥५॥

मूलम्

बिनु सतिगुर किहु न देखिआ जाइ ॥ गुरि किरपा करि आपु दिता दिखाइ ॥ आपे आपि आपि मिलि रहिआ सहजे सहजि समावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किहु = किस ओर से। गुरि = गुरु ने। आपु = अपना आत्मिक जीवन। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में।5।
अर्थ: गुरु की शरण पड़े बिना किसी अन्य पक्ष से भी (अपना आत्मिक जीवन) देखा परखा नहीं जा सकता। (जिसे दिखाया है) गुरु ने (ही) कृपा करके (उसका) अपना आत्मिक जीवन दिखाया है। (फिर वह भाग्यशाली को ये निश्चय बन जाता है कि) परमात्मा स्वयं ही स्वयं (सब जीवों में) व्यापक हो रहा है (अपने स्वै की देख परख करने वाला मनुष्य) सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि होवै सु इकसु सिउ लिव लाए ॥ दूजा भरमु गुर सबदि जलाए ॥ काइआ अंदरि वणजु करे वापारा नामु निधानु सचु पावणिआ ॥६॥

मूलम्

गुरमुखि होवै सु इकसु सिउ लिव लाए ॥ दूजा भरमु गुर सबदि जलाए ॥ काइआ अंदरि वणजु करे वापारा नामु निधानु सचु पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकसु सिउ = एक (परमात्मा) से ही। लिव = लगन, प्यार। सबदि = शब्द से। निधानु = खजाना।6।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होता है, वह सिर्फ परमात्मा से ही प्रेम डाले रखता है, वह गुरु के शब्द में जुड़ के (अपने अंदर से) माया वाली भटकना दूर कर लेता है। वह अपने शरीर में रह के ही (भाव, मन को बाहर भटकने से रोक के) प्रभु नाम का वणज-व्यापार करता है और प्रभु का सदा स्थिर रहने वाला नाम खजाना प्राप्त करता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि करणी हरि कीरति सारु ॥ गुरमुखि पाए मोख दुआरु ॥ अनदिनु रंगि रता गुण गावै अंदरि महलि बुलावणिआ ॥७॥

मूलम्

गुरमुखि करणी हरि कीरति सारु ॥ गुरमुखि पाए मोख दुआरु ॥ अनदिनु रंगि रता गुण गावै अंदरि महलि बुलावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किरति = महिमा। करणी = करने योग्य काम (करणीय)। सारु = श्रेष्ठ। मोख दुआरु = विकारों से खलासी का दरवाजा। अनदिनु = हर रोज। महलि = प्रभु के महल में।7।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा की महिमा को ही करने योग्य काम समझता है, सबसे श्रेष्ठ व उत्तम जानता है। गुरु के सन्मुख रह के वह (महिमा की इनायत से) विकारों से खलासी का दरवाजा ढूँढ लेता है। वह हर समय प्रभु के नाम रंग में रंगा रह के प्रभु के गुण गाता रहता है। प्रभु उसे अपने चरणों में अपनी हजूरी में बुलाए रखता है (जोड़े रखता है)।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु दाता मिलै मिलाइआ ॥ पूरै भागि मनि सबदु वसाइआ ॥ नानक नामु मिलै वडिआई हरि सचे के गुण गावणिआ ॥८॥९॥१०॥

मूलम्

सतिगुरु दाता मिलै मिलाइआ ॥ पूरै भागि मनि सबदु वसाइआ ॥ नानक नामु मिलै वडिआई हरि सचे के गुण गावणिआ ॥८॥९॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडिआई = आदर, इज्जत। सचे के = सदा स्थिर रहने वाले के।8।
अर्थ: गुरु ही (महिमा की, नाम की) दात देने वाला है। (पर, गुरु तब ही) मिलता है (जब परमात्मा स्वयं) मिलाए। (जिस मनुष्य को) पूरी किस्मत से (गुरु मिल जाता है वह अपने) मन में गुरु का शब्द बसाए रखता है। हे नानक! उस मनुष्य को सम्मान मिलता है कि वह प्रभु का नाम जपता रहता है वह सदा स्थिर हरि के गुण गाता रहता है।8।9।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ आपु वंञाए ता सभ किछु पाए ॥ गुर सबदी सची लिव लाए ॥ सचु वणंजहि सचु संघरहि सचु वापारु करावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ आपु वंञाए ता सभ किछु पाए ॥ गुर सबदी सची लिव लाए ॥ सचु वणंजहि सचु संघरहि सचु वापारु करावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = अपनत्व,स्वैभाव, अहम्। सभ किछु = उच्च आत्मिक जीवन वाले हरेक गुण। सची = सदा कायम रहने वाली। वणंजहि = वणज करते हैं, व्यापार करते हैं। संघरहि = संग्रहि, एकत्र करते हैं।1।
अर्थ: जो मनुष्य (अपने अंदर से) स्वै भाव (अहम्, ममता) दूर करता है, वह (उच्च आत्मिक जीवन वाले) हरेक गुण ग्रहिण कर लेता है। वह गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा के चरणों में सदा टिकी रहने वाली लगन बना लेता है। (स्वै भाव दूर करने वाले मनुष्य) सदा स्थिर प्रभु के नाम का सौदा करते हैं। नाम धन एकत्र करते है। और नाम ही का व्यापार करते हैं (भाव, सत्संगीयों में बैठ के भी महिमा करते रहते हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी हरि गुण अनदिनु गावणिआ ॥ हउ तेरा तूं ठाकुरु मेरा सबदि वडिआई देवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी हरि गुण अनदिनु गावणिआ ॥ हउ तेरा तूं ठाकुरु मेरा सबदि वडिआई देवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = शब्द में (जोड़ के)।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदा उनसे सदके कुर्बान जाता हूँ, जो हर रोज परमात्मा के गुण गाते हैं। हे प्रभु! तू मेरा मालिक है मैं तेरा सेवक हूँ। (तू स्वयं ही) गुरु के शब्द में जोड़ के (अपनी महिमा की) बड़ाई (बड़प्पन) बख्शता है (मुझे भी ये दाति दे)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेला वखत सभि सुहाइआ ॥ जितु सचा मेरे मनि भाइआ ॥ सचे सेविऐ सचु वडिआई गुर किरपा ते सचु पावणिआ ॥२॥

मूलम्

वेला वखत सभि सुहाइआ ॥ जितु सचा मेरे मनि भाइआ ॥ सचे सेविऐ सचु वडिआई गुर किरपा ते सचु पावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। सुहाइआ = सुहाने। जितु = जिस (समय) में। मनि = मन में। ते = से।2।
अर्थ: (हे भाई!) मुझे वो सारे पल अच्छे लगते हैं वह सारे वक्त सुहाने लगते हैं जिस वक्त सदा कायम रहने वाला प्रभु मेरे मन में प्यारा लगे। सदा स्थिर प्रभु का आसरा लेने से सदा स्थिर प्रभु का नाम हासिल हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाउ भोजनु सतिगुरि तुठै पाए ॥ अन रसु चूकै हरि रसु मंनि वसाए ॥ सचु संतोखु सहज सुखु बाणी पूरे गुर ते पावणिआ ॥३॥

मूलम्

भाउ भोजनु सतिगुरि तुठै पाए ॥ अन रसु चूकै हरि रसु मंनि वसाए ॥ सचु संतोखु सहज सुखु बाणी पूरे गुर ते पावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाउ = प्रेम। सतिगुरि तुठै = अगर गुरु प्रसन्न हो जाए। अन रसु = और पदार्थों का चस्का। मंनि = मनि, मन में। बाणी = (गुरु की) वाणी के द्वारा।3।
अर्थ: अगर गुरु प्रसन्न हो जाए, तो मनुष्य को परमात्मा का प्रेम (आत्मिक जीवन के लिए) खुराक मिल जाती है। जो मनुष्य परमात्मा के नाम का आनंद अपने मन में बसाता है, उसका दुनिया के पदार्थों से चस्का खत्म हो जाता है। वह सतिगुरु की वाणी में जुड़ के पूरे गुरु से परमात्मा का सदा स्थिर नाम प्राप्त करता है। संतोष और आत्मिक अडोलता का आनंद हासिल करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु न सेवहि मूरख अंध गवारा ॥ फिरि ओइ किथहु पाइनि मोख दुआरा ॥ मरि मरि जमहि फिरि फिरि आवहि जम दरि चोटा खावणिआ ॥४॥

मूलम्

सतिगुरु न सेवहि मूरख अंध गवारा ॥ फिरि ओइ किथहु पाइनि मोख दुआरा ॥ मरि मरि जमहि फिरि फिरि आवहि जम दरि चोटा खावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंध = माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य। ओइ = वे। पाइनि = प्राप्त होते हैं, पाते हैं, पा सकते हैं। मरि = आत्मिक मौत ले के। दरि = दर पे।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: माया के मोह में अंधे हुए मूर्ख गवार मनुष्य गुरु का आसरा परना नहीं लेते, वे फिर अन्य किसी भी जगह से विकारों की खलासी का रास्ता नहीं ढूँढ सकते। वे (इस तरह) आत्मिक मौत का शिकार हो के बार बार पैदा होते मरते रहते हैं, जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं, और यमराज के दर पर चोटें खाते रहते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदै सादु जाणहि ता आपु पछाणहि ॥ निरमल बाणी सबदि वखाणहि ॥ सचे सेवि सदा सुखु पाइनि नउ निधि नामु मंनि वसावणिआ ॥५॥

मूलम्

सबदै सादु जाणहि ता आपु पछाणहि ॥ निरमल बाणी सबदि वखाणहि ॥ सचे सेवि सदा सुखु पाइनि नउ निधि नामु मंनि वसावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदै सादु = शब्द का स्वाद। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। वखाणहि = नाम स्मरण करते हैं। सेवि = सेव करके, स्मरण करके। नउ निधि = नौ खजाने, दुनिया का सारा ही धन पदार्थ।5।
अर्थ: जब कोई (भाग्यशाली) गुरु के शब्द का स्वाद जान लेते हैं, तब वे अपने आत्मिक जीवन को पहचानते हैं (परखते पड़तालते रहते हैं) गुरु की पवित्र वाणी से गुरु के शब्द के द्वारा उस परमात्मा की महिमा उचारते रहते हैं। सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का स्मरण करके वे सदैव आत्मिक आनंद लेते हैं, और परमात्मा के नाम को वे अपने मन में (ऐसे) बसाते हैं (जैसे वह दुनिया के सारे) नौ खजाने (हैं)।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो थानु सुहाइआ जो हरि मनि भाइआ ॥ सतसंगति बहि हरि गुण गाइआ ॥ अनदिनु हरि सालाहहि साचा निरमल नादु वजावणिआ ॥६॥

मूलम्

सो थानु सुहाइआ जो हरि मनि भाइआ ॥ सतसंगति बहि हरि गुण गाइआ ॥ अनदिनु हरि सालाहहि साचा निरमल नादु वजावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थानु = स्थान, हृदय। मनि = मन में। बहि = बैठ के। नादु = बाजा।6।
अर्थ: (हे भाई!) वह हृदय स्थल सुहाना बन जाता है जो परमात्मा के मन को प्यारा लगता (और उसी मनुष्य का हृदय स्थल सुहाना बनता है जिसने) साधु-संगत में बैठ के परमात्मा की महिमा के गीत गाए हैं। ऐसे मनुष्य हर रोज सदा स्थिर प्रभु की महिमा करते हैं, महिमा का पवित्र बाजा बजाते हैं।6।

[[0116]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुख खोटी रासि खोटा पासारा ॥ कूड़ु कमावनि दुखु लागै भारा ॥ भरमे भूले फिरनि दिन राती मरि जनमहि जनमु गवावणिआ ॥७॥

मूलम्

मनमुख खोटी रासि खोटा पासारा ॥ कूड़ु कमावनि दुखु लागै भारा ॥ भरमे भूले फिरनि दिन राती मरि जनमहि जनमु गवावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। खोटी = जो सरकारी खजाने में दाखिल नही की जाए। पासारा = बिखराव, खिलारा। भरमे = भटकना में पड़ के। भूलै = कुमार्ग पर पड़े हुए। मरि जनमहि = मर के जन्मते हैं, जनम मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।7।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य वही पूंजी जोड़ते हैं, वही पसारा पसारते हैं, जो ईश्वरीय टकसाल में खोटा माना जाता है। वे निरी नाशवान कमाई ही करते हैं और बहुत आत्मिक दुख-कष्ट पाते हैं। वे माया की भटकना में पड़ के दिनरात कुमार्ग पर चलते हैं और मानव जनम व्यर्थ गवा जाते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचा साहिबु मै अति पिआरा ॥ पूरे गुर कै सबदि अधारा ॥ नानक नामि मिलै वडिआई दुखु सुखु सम करि जानणिआ ॥८॥१०॥११॥

मूलम्

सचा साहिबु मै अति पिआरा ॥ पूरे गुर कै सबदि अधारा ॥ नानक नामि मिलै वडिआई दुखु सुखु सम करि जानणिआ ॥८॥१०॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै = मुझे। कै सबदि = के शब्द से। अधारा = आसरा। नामि = नाम में (जुड़ने से)। सम = बराबर, एक सा।8।
अर्थ: (हे भाई!) सदा स्थिर रहने वाला मालिक मुझे (अब) बहुत प्यारा लगता है। पूरे गुरु के शब्द में जुड़ के मैंने उस मालिक को (अपनी जिंदगी का) आसरा बना लिया है।
हे नानक! प्रभु के नाम में जुड़ने से (लोक परलोक में) इज्जत मिलती है। प्रभु नाम में जुड़ने वाले लोग दुनिया के दुख सुख को एक समान ही जानते हैं।8।10।11।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ तेरीआ खाणी तेरीआ बाणी ॥ बिनु नावै सभ भरमि भुलाणी ॥ गुर सेवा ते हरि नामु पाइआ बिनु सतिगुर कोइ न पावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ तेरीआ खाणी तेरीआ बाणी ॥ बिनु नावै सभ भरमि भुलाणी ॥ गुर सेवा ते हरि नामु पाइआ बिनु सतिगुर कोइ न पावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खाणी = (खानि। अंडज, जेरज, उतभुज, सेतज। चौरासी लाख जोनियों के जीवों के पैदा होने के वसीले)। बाणी = बणतर। सभ = सारी सृष्टि। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाणी = कुमार्ग पर पड़ी हुई।1।
अर्थ: हे प्रभु! अंडज, जेरज, सेतज व उतभुज-चौरासी लाख जीवों की उत्पक्ति की ये) खाणियां तेरी ही बनाई हुई हैं। सब जीवों की बनतर (रचना) तेरी ही रची हुई है।
(पर हे भाई! उस रचनहार प्रभु के) नाम के बिना सारी सृष्टि गलत रास्ते पे जा रही है। परतात्मा का नाम गुरु की बताई हुई सेवा करने से मिलता है। गुरु (की शरण) के बिना कोई मनुष्य (परमात्मा की भक्ति) प्राप्त नहीं कर सकता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी हरि सेती चितु लावणिआ ॥ हरि सचा गुर भगती पाईऐ सहजे मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी हरि सेती चितु लावणिआ ॥ हरि सचा गुर भगती पाईऐ सहजे मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेती = साथ। सचा = सच्चा, सदा स्थिर। गुर भगती = गुरु में श्रद्धा रखने से। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। मंनि = मन में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं उन (भाग्यशाली लोगों से) सदके कुर्बान जाता हूँ, जो परमात्मा (के चरणों) के साथ अपना चिक्त जोड़ते हैं। (पर) सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा गुरु पर श्रद्धा रखने से ही मिलता है। (जो मनुष्य गुरु पर श्रद्धा बनाते हैं वे) आत्मिक अडोकलता में टिक के (परमात्मा के नाम को अपने) मन में बसाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवे ता सभ किछु पाए ॥ जेही मनसा करि लागै तेहा फलु पाए ॥ सतिगुरु दाता सभना वथू का पूरै भागि मिलावणिआ ॥२॥

मूलम्

सतिगुरु सेवे ता सभ किछु पाए ॥ जेही मनसा करि लागै तेहा फलु पाए ॥ सतिगुरु दाता सभना वथू का पूरै भागि मिलावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ किछु = हरेक चीज। मनसा = मनीषा, कामना। करि = कर के। वथू का = वस्तुओं का (संस्कृत के वसथु, वस्तु का प्राकृत रूप ‘वथु’ है)।2।
अर्थ: अगर मनुष्य गुरु का पल्ला पकड़े तो वह हरेक चीज प्राप्त कर लेता है। मनुष्य जिस तरह की कामना मन में धार के (गुरु की चरणी लगता है, वैसा ही फल पा लेता है)। गुरु सब पदार्थों को देने वाला है। (परमात्मा जीव को उसकी) पूरी किस्मत के सदका (गुरु के साथ) मिलाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मनु मैला इकु न धिआए ॥ अंतरि मैलु लागी बहु दूजै भाए ॥ तटि तीरथि दिसंतरि भवै अहंकारी होरु वधेरै हउमै मलु लावणिआ ॥३॥

मूलम्

इहु मनु मैला इकु न धिआए ॥ अंतरि मैलु लागी बहु दूजै भाए ॥ तटि तीरथि दिसंतरि भवै अहंकारी होरु वधेरै हउमै मलु लावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकु = परमात्मा को। बहु = बहुत। दूजै भाए = दूजै भाइ, माया में प्यार करने के कारण। तटि = (नदी के) तट पे। तीरथि = तीर्थ पर। दिसंतरि = देस अंतरि, (और-और) देश में, देश देशांतर। अहंकारी होरु = और (ज्यादा) अहंकारी (होता है)।3।
अर्थ: (जितना समय मनुष्य का) ये मन (विकारों की मैल से) मैला (रहता) है, (तब तक मनुष्य) एक परमात्मा को नहीं स्मरण करता। माया से प्यार पड़ने के कारण मनुष्य के अंदर (मन में विकारों की) बहुत मैल लगी रहती है। (ऐसे जीवन वाला मनुष्य किसी) नदी के किनारे पर जाता है, (किसी) तीर्थ पर (भी) जाता है। देश-देशांतरों में भ्रमण करता है (पर इस तरह वह तीर्थ यात्राओं आदि के गुमान से) और भी ज्यादा अहंकारी हो जाता है। वह अपने अंदर अधिक अहंकार की मैल एकत्र कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवे ता मलु जाए ॥ जीवतु मरै हरि सिउ चितु लाए ॥ हरि निरमलु सचु मैलु न लागै सचि लागै मैलु गवावणिआ ॥४॥

मूलम्

सतिगुरु सेवे ता मलु जाए ॥ जीवतु मरै हरि सिउ चितु लाए ॥ हरि निरमलु सचु मैलु न लागै सचि लागै मैलु गवावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवत मरै = जीवित मरता है, कार्य-व्यवहार करते हुए ही माया के मोह से विरक्त रहता है। सिउ = साथ। सचु = सच, सदा स्थिर रहने वाला। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।4।
अर्थ: जब मनुष्य गुरु की शरण में आता है, तब (उसके मन में से अहंकार) की मैल दूर हो जाती है। वह दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी स्वै भाव (घमण्ड) से मरा रहता है, और परमात्मा (के चरणों) से अपना चिक्त जोड़े रखता है। परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है, और पवित्र स्वरूप है, उसको (अहम् आदि विकारों की) मैल छू नही सकती। जो मनुष्य उस सदा स्थिर प्रभु (की याद) में लगता है, वह (अपने अंदर से विकारों की) मैल दूर कर लेता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाझु गुरू है अंध गुबारा ॥ अगिआनी अंधा अंधु अंधारा ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा कमावहि फिरि बिसटा माहि पचावणिआ ॥५॥

मूलम्

बाझु गुरू है अंध गुबारा ॥ अगिआनी अंधा अंधु अंधारा ॥ बिसटा के कीड़े बिसटा कमावहि फिरि बिसटा माहि पचावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंध गुबारा = घोर अंधकार। बिसटा = गंद, मैला। पचावणिआ = जलते हैं।5।
अर्थ: गुरु के बिना (जगत में माया के मोह का) घोर अंधकार छाया रहता है। गुरु के ज्ञान के बगैर मनुष्य (उस मोह में) अंधा हुआ रहता है। (मोह के अंधेरे में फंसे हुए की वही हालत होती है जैसे) गंदगी के कीड़े गंदगी (खाने की) कमाई ही करते हैं और फिर गंदगी में ही दुखी होते रहते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुकते सेवे मुकता होवै ॥ हउमै ममता सबदे खोवै ॥ अनदिनु हरि जीउ सचा सेवी पूरै भागि गुरु पावणिआ ॥६॥

मूलम्

मुकते सेवे मुकता होवै ॥ हउमै ममता सबदे खोवै ॥ अनदिनु हरि जीउ सचा सेवी पूरै भागि गुरु पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकता = माया के मोह से आजाद। ममता = अपनत्व। सबदे = शब्द से। सेवी = सेवा करके।6।
अर्थ: जो मनुष्य (माया के मोह से) मुक्त (गुरु) की शरण लेता है, वह भी माया के मोह से स्वतंत्र हो जाता है। वह गुरु-शब्द में जुड़ के (अपने अंदर से) अहंकार व ममता को दूर कर लेता है। (गुरु की शरण की इनायत से) वह हर रोज सदा स्थिर प्रभु का स्मरण करता है। पर, गुरु (भी) पूरी किस्मत से ही मिलता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे बखसे मेलि मिलाए ॥ पूरे गुर ते नामु निधि पाए ॥ सचै नामि सदा मनु सचा सचु सेवे दुखु गवावणिआ ॥७॥

मूलम्

आपे बखसे मेलि मिलाए ॥ पूरे गुर ते नामु निधि पाए ॥ सचै नामि सदा मनु सचा सचु सेवे दुखु गवावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेलि = मेल में, चरणों में। ते = से। निधि = खजाना। नामि = नाम में।7।
अर्थ: जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं ही बख्शिश करता है और गुरु चरणों में मिलाता है, वह मनुष्य पूरे गुरु से नाम खजाना हासिल कर लेता है। सदा स्थिर प्रभु के नाम में सदा टिके रहने के कारण उसका मन (विकारों की तरफ से) अडोल हो जाता है। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का स्मरण करके वह अपना (हरेक किस्म का) दुख मिटा लेता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा हजूरि दूरि न जाणहु ॥ गुर सबदी हरि अंतरि पछाणहु ॥ नानक नामि मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥११॥१२॥

मूलम्

सदा हजूरि दूरि न जाणहु ॥ गुर सबदी हरि अंतरि पछाणहु ॥ नानक नामि मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥११॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हजूरि = हाजिर नाजर, अंग संग। पछाणहु = जान पहिचान बनाओ।8।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा सदैव (सब जीवों के) अंग-संग (बसता) है। उसे अपने से दूर बसता ना समझो। गुरु के शब्द में जुड़ के उस परमात्मा के साथ अपने हृदय में जान-पहिचान बनाओ! हे नानक! प्रभु के नाम में जुड़ने से (लोक परलोक में) सत्कार मिलता है, (पर, प्रभु का नाम) पूरे गुरु से ही मिलता है।8।11।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ ऐथै साचे सु आगै साचे ॥ मनु सचा सचै सबदि राचे ॥ सचा सेवहि सचु कमावहि सचो सचु कमावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ ऐथै साचे सु आगै साचे ॥ मनु सचा सचै सबदि राचे ॥ सचा सेवहि सचु कमावहि सचो सचु कमावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐथै = इस लोक में, इस मानव जनम में। साचे = सदा स्थिर प्रभु के साथ एक मेक, अडोल चिक्त। सु = वह लोग। आगै = परलोक में। सचा = सदा स्थिर, अडोल।1।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य इस लोक में अडोल चिक्त रहते हैं, वे परलोक में भी प्रभु के साथ एकमेक हो के रहते हैं। जो लोग सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में रचे रहते हैं, उनका मन अडोल हो जाता है। वे सदा ही सदा स्थिर प्रभु का स्मरण करते हैं, नाम जपने की ही कमाई करते हैं, सदा स्थिर प्रभु को ही स्मरण करते रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी सचा नामु मंनि वसावणिआ ॥ सचे सेवहि सचि समावहि सचे के गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी सचा नामु मंनि वसावणिआ ॥ सचे सेवहि सचि समावहि सचे के गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उनसे सदके जाता हूँ, जो सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम अपने मन में बसाए रखते हैं। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु का स्मरण करते हैं, सदा स्थिर प्रभु के गुण गाते हैं, वे सदा स्थिर प्रभु में लीन रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पंडित पड़हि सादु न पावहि ॥ दूजै भाइ माइआ मनु भरमावहि ॥ माइआ मोहि सभ सुधि गवाई करि अवगण पछोतावणिआ ॥२॥

मूलम्

पंडित पड़हि सादु न पावहि ॥ दूजै भाइ माइआ मनु भरमावहि ॥ माइआ मोहि सभ सुधि गवाई करि अवगण पछोतावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सादु = स्वाद, आत्मिक आनंद। भाइ = प्यार में। दूजै भाइ = माया के मोह में। भरमावहि = भटकाते हैं, दौड़ाते हैं। मोहि = मोह में। सुधि = सूझ। करि = कर के।2।
अर्थ: पंडित लोग (वेद आदि पुस्तकें) पढ़ते (तो) हैं, पर, आत्मिक आनंद नही ले सकते। (क्योंकि) वे माया के मोह में फंस के माया की ओर ही अपने मन को दौड़ाते रहते हैं। माया के मोह के कारण उन्होंने (उच्च आत्मिक जीवन के बारे में) सारी सूझ गवा ली होती है, (और माया की खातिर) औगुण कर करके पछताते रहते हैं।2।

[[0117]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु मिलै ता ततु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ सबदि मरै मनु मारै अपुना मुकती का दरु पावणिआ ॥३॥

मूलम्

सतिगुरु मिलै ता ततु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ सबदि मरै मनु मारै अपुना मुकती का दरु पावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ता = तब। ततु = असलियत। मरै = मरता है, मोह की पकड़ से ऊपर उठ जाता है।3।
अर्थ: जब मनुष्य को गुरु मिल जाए तो वह असलियत समझ लेता है, वह परमात्मा का नाम (अपने) मन में बसा लेता है। वह गुरु के शब्द में जुड़ के माया के मोह की तरफ से अडोल हो जाता है। अपने मन को काबू कर लेता है, और मोह से छुटकारा पाने का दरवाजा ढूँढ लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किलविख काटै क्रोधु निवारे ॥ गुर का सबदु रखै उर धारे ॥ सचि रते सदा बैरागी हउमै मारि मिलावणिआ ॥४॥

मूलम्

किलविख काटै क्रोधु निवारे ॥ गुर का सबदु रखै उर धारे ॥ सचि रते सदा बैरागी हउमै मारि मिलावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किलविख = पाप। निवारे = निर्वित करता है, दूर करता है। उर = हृदय। धारे = धारण करके, संभाल के। बैरागी = माया के मोह से उपराम।4।
अर्थ: जब मनुष्य गुरु का शब्द अपने हृदय में टिका के रखता है, वह (अपने अंदर से) पाप काट लेता है, क्रोध दूर कर लेता है। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु (के प्रेम रंग) में रंगे रहते हैं, वे माया के मोह से सदैव उपराम रहते हैं। वे (अपने अंदर से) अहंकार मार के (प्रभु चरणों में) मिले रहते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि रतनु मिलै मिलाइआ ॥ त्रिबिधि मनसा त्रिबिधि माइआ ॥ पड़ि पड़ि पंडित मोनी थके चउथे पद की सार न पावणिआ ॥५॥

मूलम्

अंतरि रतनु मिलै मिलाइआ ॥ त्रिबिधि मनसा त्रिबिधि माइआ ॥ पड़ि पड़ि पंडित मोनी थके चउथे पद की सार न पावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = शरीर के अंदर। त्रिबिधि = तीन गुणों वाली। मोनी = मौनधारी ऋषि, समाधियां लगाने वाले। चौथा पद = वह आत्मिक अवस्था जो माया के तीन गुणों के असर से ऊपर रहती है। सार = सूझ।5।
अर्थ: (हे भाई! हरेक जीव) के अंदर (प्रभु की ज्योति) रत्न मौजूद है, पर ये रतन तभी मिलता है यदि (गुरु) मिला दे (मनुष्य अपनी कोशिशों, सियानप, बुद्धिमक्ता से हासिल नही कर सकता, क्योंकि) तीन गुणों वाली माया के प्रभाव में मनुष्य की मनोकामना तीन गुणों अनुसार (बंटी रहती) है। पण्डित व अन्य सयाने समाधियां लगाने वाले (वेद आदि धर्म पुस्तकें) पढ़ पढ़ के थक जाते हैं (पर, त्रिगुणी माया के प्रभाव के कारण) वे उस आत्मिक अवस्था की सूझ प्राप्त नही कर सकते जो माया के तीन गुणों के प्रभाव से ऊपर टिकी रहती है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे रंगे रंगु चड़ाए ॥ से जन राते गुर सबदि रंगाए ॥ हरि रंगु चड़िआ अति अपारा हरि रसि रसि गुण गावणिआ ॥६॥

मूलम्

आपे रंगे रंगु चड़ाए ॥ से जन राते गुर सबदि रंगाए ॥ हरि रंगु चड़िआ अति अपारा हरि रसि रसि गुण गावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से जन = वह लोग। सबदि = शब्द में। अपारा = बेअंत। रसि = रस में, आनंद से।6।
अर्थ: (हे भाई! इस त्रिगुणी माया के सामने जीवों की पेश नही जा सकती, जीवों को) प्रभु स्वयं ही (अपने नाम रंग में) रंगता है, स्वयं ही (अपना प्रेम-) रंग (जीवों के हृदयों पर) चढ़ाता है। जिस मनुष्यों को प्रभु गुरु के शब्द में रंगता है, वे मनुष्य उसके प्रेम में मस्त रहते हैं। उन्हें उस बेअंत हरि का बहुत प्रेम रंग चढ़ा रहता है। वे हरि के नाम में (भीग के) आत्मिक आनंद से परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि रिधि सिधि सचु संजमु सोई ॥ गुरमुखि गिआनु नामि मुकति होई ॥ गुरमुखि कार सचु कमावहि सचे सचि समावणिआ ॥७॥

मूलम्

गुरमुखि रिधि सिधि सचु संजमु सोई ॥ गुरमुखि गिआनु नामि मुकति होई ॥ गुरमुखि कार सचु कमावहि सचे सचि समावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु सोई = वह सदा स्थिर परमात्मा ही। नामि = नाम में।7।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहते हैं, उनके वास्ते सदा स्थिर प्रभु (का नाम) ही रिद्धियां सिद्धियां और संजम है। गुरु के सन्मुख रह के वे परमात्मा के साथ गहरी सांझ पाते हैं। परमात्मा के नाम में लीन होने के कारण उन्हें माया के मोह से मुक्ति मिली रहती है। गुरु के सन्मुख रहने वाले लोग सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण (की) कार (नित्य) करते है। (इस तरह) वे सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में सदा लीन रहते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि थापे थापि उथापे ॥ गुरमुखि जाति पति सभु आपे ॥ नानक गुरमुखि नामु धिआए नामे नामि समावणिआ ॥८॥१२॥१३॥

मूलम्

गुरमुखि थापे थापि उथापे ॥ गुरमुखि जाति पति सभु आपे ॥ नानक गुरमुखि नामु धिआए नामे नामि समावणिआ ॥८॥१२॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थापे = सृजन करता है। थापि = सृज के। उथापे = नाश करता है। आपे = प्रभु स्वयं ही।8।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ये निष्चय रखता है कि प्रभु स्वयं ही सृष्टि रचता है। रच के स्वयं ही नाश करता है। परमात्मा स्वयं ही गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के लिए (उच्च) जाति है और (लोक परलोक की) इज्जत है। हे नानक! गुरु के आसरे रहने वाला मनुष्य (सदा प्रभु का) नाम स्मरण करता है, और सदा प्रभु के नाम में ही लीन रहता है।8।12।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ उतपति परलउ सबदे होवै ॥ सबदे ही फिरि ओपति होवै ॥ गुरमुखि वरतै सभु आपे सचा गुरमुखि उपाइ समावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ उतपति परलउ सबदे होवै ॥ सबदे ही फिरि ओपति होवै ॥ गुरमुखि वरतै सभु आपे सचा गुरमुखि उपाइ समावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उतपति = पैदाइश। परलउ = प्रलय, जगतकानाश। सबदे = सबदि ही, परमात्मा के हुक्म में ही। ओपति = उत्पक्ति। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख होने से। सभु = हर जगह। उपाइ = पैदा करके।1।
अर्थ: परमात्मा के हुक्म में ही जगत की उत्पक्ति होती है, और जगत का नाश होता है। (नाश के उपरान्त) पुनः प्रभु के हुक्म में ही जगत की उत्पक्ति होती है। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को ये निश्चय हो जाता है कि हरेक जगह सदा स्थिर परमात्मा स्वयं मौजूद है। जगत पैदा करके उसमें लीन हो रहा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी गुरु पूरा मंनि वसावणिआ ॥ गुर ते साति भगति करे दिनु राती गुण कहि गुणी समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी गुरु पूरा मंनि वसावणिआ ॥ गुर ते साति भगति करे दिनु राती गुण कहि गुणी समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंनि = मन में। ते = से। साति = शांति, आत्मिक अडोलता। गुणी = गुणों का मालिक प्रभु।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उन लोगों से सदके और कुर्बान जाता हूँ जो पूरे गुरु को अपने मन में बसाते हैं। गुरु से आत्मिक अडोलता मिलती है, (गुरु की शरण पड़ कर) मनुष्य दिन रात प्रभु की भक्ति करता है। प्रभु के गुण उचार के गुणों के मालिक प्रभु में लीन रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि धरती गुरमुखि पाणी ॥ गुरमुखि पवणु बैसंतरु खेलै विडाणी ॥ सो निगुरा जो मरि मरि जमै निगुरे आवण जावणिआ ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि धरती गुरमुखि पाणी ॥ गुरमुखि पवणु बैसंतरु खेलै विडाणी ॥ सो निगुरा जो मरि मरि जमै निगुरे आवण जावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खेलै = (प्रभु) खेल रहा है। विडाणी = आश्चर्य। निगुरा = गुरु के बिना। मरि = आत्मिक मौत ले के।2।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य जानता है कि धरती, पानी, हवा, आग (-रूप हो के) परमात्मा (जगत रूप) आश्चर्य खेल रहा है। वह मनुष्य जो गुरु से बेमुख है आत्मिक मौत का शिकार हो के पैदा होता मरता है। निगुरे को जनम मरण का चक्कर पड़ा रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिनि करतै इकु खेलु रचाइआ ॥ काइआ सरीरै विचि सभु किछु पाइआ ॥ सबदि भेदि कोई महलु पाए महले महलि बुलावणिआ ॥३॥

मूलम्

तिनि करतै इकु खेलु रचाइआ ॥ काइआ सरीरै विचि सभु किछु पाइआ ॥ सबदि भेदि कोई महलु पाए महले महलि बुलावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिनि = उसने। तिनि करतै = उस कर्तार ने। सभ किछु = हरेक गुण। भेदि = छेद के, भेद के, स्वयं ही खोज करके। महलु = परमात्मा की हजूरी में।3।
अर्थ: (हे भाई!) उस कर्तार ने (ये जगत) एक तमाशा रचा हुआ है, उसने मानव शरीर में हरेक गुण भर दिया है। जो कोई मनुष्य गुरु के शब्द द्वारा (अपने स्वै की) खोज करके परमात्मा की हजूरी हासिल कर लेता है, परमात्मा उसको अपनी हजूरी में ही टिकाए रखता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचा साहु सचे वणजारे ॥ सचु वणंजहि गुर हेति अपारे ॥ सचु विहाझहि सचु कमावहि सचो सचु कमावणिआ ॥४॥

मूलम्

सचा साहु सचे वणजारे ॥ सचु वणंजहि गुर हेति अपारे ॥ सचु विहाझहि सचु कमावहि सचो सचु कमावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचा = सच्चा,सदा स्थिर प्रभु। सचे = सदा स्थिर प्रभु के। वणंजहि = व्यापार करते है। हेति = प्रेम में। अपारे = बेअंत।4।
अर्थ: परमात्मा सदा कायम रहने वाला एक शाहूकार है। (जगत के सारे जीव) उस सदा स्थिर शाह के (भेजे हुए) व्यापारी हैं। वही जीव वणजारे सदा स्थिर नाम का सौदा करते हैं, जो बेअंत प्रभु के रूप, गुरु के प्रेम में टिके रहते हैं। वे सदा स्थिर रहने वाले नाम का व्यापार करते हैं, नाम जपने की कमाई करते हैं, सदा टिके रहने वाला नाम ही नाम कमाते रहते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु रासी को वथु किउ पाए ॥ मनमुख भूले लोक सबाए ॥ बिनु रासी सभ खाली चले खाली जाइ दुखु पावणिआ ॥५॥

मूलम्

बिनु रासी को वथु किउ पाए ॥ मनमुख भूले लोक सबाए ॥ बिनु रासी सभ खाली चले खाली जाइ दुखु पावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रासी = संपत्ति, धन-दौलत, राशि, पूंजी। को = कोई मनुष्य। वथु = वस्तु। सबाए = सारे। जाइ = जा के।5।
अर्थ: पर, जिस मनुष्य के पल्ले आत्मिक गुणों की संपत्ति नही है, वह नाम-धन कैसे ले सकता है? अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सारे ही कुमार्ग पर पड़े रहते हैं। आत्मिक गुणों की पूंजी के बिना सब जीव (जगत से) खाली हाथ जाते हैं। खाली हाथ जा के दु: ख बर्दाश्त करते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकि सचु वणंजहि गुर सबदि पिआरे ॥ आपि तरहि सगले कुल तारे ॥ आए से परवाणु होए मिलि प्रीतम सुखु पावणिआ ॥६॥

मूलम्

इकि सचु वणंजहि गुर सबदि पिआरे ॥ आपि तरहि सगले कुल तारे ॥ आए से परवाणु होए मिलि प्रीतम सुखु पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पिआरे = पिआरि, प्यार में (टिक के)। तारे = तारि, तार के।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो मनुष्य गुरु-शब्द में जुड़ते हैं, गुरु के प्यार में टिके रहते हैं, वे सदैव सदा स्थिर प्रभु के नाम का व्यापार करते है। वे अपनी सारी कुलों को तैरा के स्वयं (भी) तैर जाते हैं, जगत में आए वे मनुष्य (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार हो जाते हैं, प्रीतम प्रभु को मिल के वो आत्मिक आनंद का रस लेते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि वसतु मूड़ा बाहरु भाले ॥ मनमुख अंधे फिरहि बेताले ॥ जिथै वथु होवै तिथहु कोइ न पावै मनमुख भरमि भुलावणिआ ॥७॥

मूलम्

अंतरि वसतु मूड़ा बाहरु भाले ॥ मनमुख अंधे फिरहि बेताले ॥ जिथै वथु होवै तिथहु कोइ न पावै मनमुख भरमि भुलावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाहरु = बाहरी पदार्थ। मूढ़ा = मूर्ख। बेताले = ताल के बगैर, बिना सही जीवन चाल के। भरमि = भटकन में पड़ के।7।
अर्थ: परमात्मा का नाम-पदार्थ हरेक के हृदय में है। पर, मूर्ख मनुष्य बाहरी पदार्थ ढूँढता फिरता है। अपने मन के पीछे चलने वाले (और बाहर के पदार्थों के मोह में) अंधे हुए मनुष्य सही जीवन चाल से भटके हुए फिरते हैं। जिस (गुरु) के पास ये नाम पदार्थ मौजूद है, कोई (मनमुख) वहाँ से प्राप्त नहीं करता। अपने मन के पीछे चलने वाले माया की भटकना में पड़ कर कुमार्ग पर चलते फिरते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे देवै सबदि बुलाए ॥ महली महलि सहज सुखु पाए ॥ नानक नामि मिलै वडिआई आपे सुणि सुणि धिआवणिआ ॥८॥१३॥१४॥

मूलम्

आपे देवै सबदि बुलाए ॥ महली महलि सहज सुखु पाए ॥ नानक नामि मिलै वडिआई आपे सुणि सुणि धिआवणिआ ॥८॥१३॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। बुलाए = बुलाता है (अपने नजदीक)। महली = महल का मालिक प्रभु। महली महलि = प्रभु की हजूरी में। सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। नामि = नाम में (जुड़ने से)।8।
अर्थ: (पर, जीवों के भी क्या वश?) परमात्मा स्वयं ही गुरु के शब्द में जोड़ के (ये नाम वस्तु) देता है और स्वयं ही (जीवों को अपने नजदीक) बुलाता है। (जिसे बुलाता है, वो) महल के मालिक प्रभु की हजूरी में (पहुँच के) आत्मिक अडोलता का आनंद लेता है। हे नानक! जो मनुष्य प्रभु नाम में जुड़ता है, उसे (प्रभु की दरगाह में) सत्कार मिलता है। (उसे यकीन बन जाता है कि प्रभु) स्वयं ही (जीवों की आरजोई) सुन-सुन के खुद ही उनका ध्यान रखता है।8।13।14।

[[0118]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ सतिगुर साची सिख सुणाई ॥ हरि चेतहु अंति होइ सखाई ॥ हरि अगमु अगोचरु अनाथु अजोनी सतिगुर कै भाइ पावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ सतिगुर साची सिख सुणाई ॥ हरि चेतहु अंति होइ सखाई ॥ हरि अगमु अगोचरु अनाथु अजोनी सतिगुर कै भाइ पावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुर सिख = गुरु की शिक्षा। साची = अटल, सच्ची। अंति = आखिर में (जब और सारे साथ रह जाएंगे)। सखाई = साथी। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच संभव नहीं। अनाथ = जिसके सिर पर कोई और मालिक नही। भाइ = प्रेम में, अनुसार हो के।1।
अर्थ: (हे भाई! मैंने तुझे) गुरु की सदा अटल रहने वाली शिक्षा सुनाई है (कि) परमातमा का चिंतन करता रह (जब और सारे साथ समाप्त हो जाते हैं तब) अंत समय में (प्रभु का नाम ही) साथी बनता है। वह परमात्मा (वैसे तो) अगम्य (पहुँच से परे) है। मनुष्य की ज्ञानेंद्रियों की उस तक पहुँच नही हो सकती। उस प्रभु के सिर पे और कोई मालिक नहीं। वह योनियों में नहीं पड़ता। गुरु के अनुसार हो के उससे मिला जा सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी आपु निवारणिआ ॥ आपु गवाए ता हरि पाए हरि सिउ सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी आपु निवारणिआ ॥ आपु गवाए ता हरि पाए हरि सिउ सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदके कुर्बान हूँउनसे, जो स्वैभाव दूर करते हैं। जब मनुष्य स्वै भाव दूर करता है, तो परमात्मा मिल पड़ता है, परमात्मा से मिल के आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरबि लिखिआ सु करमु कमाइआ ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ ॥ बिनु भागा गुरु पाईऐ नाही सबदै मेलि मिलावणिआ ॥२॥

मूलम्

पूरबि लिखिआ सु करमु कमाइआ ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ ॥ बिनु भागा गुरु पाईऐ नाही सबदै मेलि मिलावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पूरबि = पहले जनम में। सुकरमु = सुकर्म, श्रेष्ठ कार्य, स्वै भाव दूर करने का श्रेष्ठ कर्म। सेवि = सेवा करके, शरण पड़ के।2।
अर्थ: (पर ये स्वैभाव दूर करने का) श्रेष्ठ काम वह मनुष्य (ही) करता है, जिसके अंदर पूर्बले जन्म में किए कर्मों के अनुसार स्वै भाव दूर करने के संस्कार के लेख मौजूद हों। वह मनुष्य गुरु की शरण पड़ के सदैव आत्मिक आनंदका आनंद लेता है। गुरु भी पूरी किस्मत के बगैर नहीं मिलता। (जिसे गुरु मिल जाता है, उसे गुरु अपने) शब्द से परमात्मा के मिलाप में मिला देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि अलिपतु रहै संसारे ॥ गुर कै तकीऐ नामि अधारे ॥ गुरमुखि जोरु करे किआ तिस नो आपे खपि दुखु पावणिआ ॥३॥

मूलम्

गुरमुखि अलिपतु रहै संसारे ॥ गुर कै तकीऐ नामि अधारे ॥ गुरमुखि जोरु करे किआ तिस नो आपे खपि दुखु पावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलिपतु = निर्लिप, निर्मोह। तकीऐ = आसरे। नामि = नाम में। अधारे = आसरे। जोरु = धक्का।खपि = खप के।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस नो’ में से ‘तिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है, देखें गुरबाणी व्याकरण।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य गुरु का सहारा ले के गुरु का आसरा ले कर प्रभु के नाम द्वारा जगत में निर्मोह रहता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, उस पर कोई और मनुष्य दबाव नहीं डाल सकता, वह बल्कि खुद ही ख्वार हो के दुख सहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखि अंधे सुधि न काई ॥ आतम घाती है जगत कसाई ॥ निंदा करि करि बहु भारु उठावै बिनु मजूरी भारु पहुचावणिआ ॥४॥

मूलम्

मनमुखि अंधे सुधि न काई ॥ आतम घाती है जगत कसाई ॥ निंदा करि करि बहु भारु उठावै बिनु मजूरी भारु पहुचावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुधि = अक्ल, सूझ। आतमघाती = अपने आत्मिक जीवन का नाश करने वाला। जगत कसाई = जगत का वैरी।4।
अर्थ: जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, जो माया के मोह में अंधा हुआ रहता है, उसको (ये स्वै भाव निवारण की) कोई समझ नही रहती। (इस तरह वह) अपना आत्मिक जीवन (भी) तबाह कर लेता है और जगत का वैरी (भी बना रहता है)। वह औरों की निंदा कर कर के अपने सिर पे (विकारों का) बहुत भार उठाए जाता है (वह मनमुख को उस मजदूर की तरह समझो जो) भाड़ा लिए बगैर ही दूसरों का भार (उठा उठा के) पहुँचाता रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु जगु वाड़ी मेरा प्रभु माली ॥ सदा समाले को नाही खाली ॥ जेही वासना पाए तेही वरतै वासू वासु जणावणिआ ॥५॥

मूलम्

इहु जगु वाड़ी मेरा प्रभु माली ॥ सदा समाले को नाही खाली ॥ जेही वासना पाए तेही वरतै वासू वासु जणावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वाड़ी = फूलों की बगीची। समाले = संभाल करता है। वासना = सुगंध। वासू वासु = (फूलों की) सुगंध।5।
अर्थ: (पर, हे भाई! जीवों के भी क्या वश?) ये जगत फूलों की बगीची के (समान) है, प्रभु स्वयं (इस बगीची का) माली है। हरेक की सदा संभाल करता है। उसकी संभाल से कोई जीव अलग थलग नहीं रहता। (पर) जैसी सुगंधि (जीव-फूल के अंदर) माली प्रभु डालता है वैसी उसके अंदर काम करती है। (प्रभु माली द्वारा जीव फूल के अंदर डाली गई) सुगंधी से ही बाहर उसकी सुगंधि प्रगट होती है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखु रोगी है संसारा ॥ सुखदाता विसरिआ अगम अपारा ॥ दुखीए निति फिरहि बिललादे बिनु गुर सांति न पावणिआ ॥६॥

मूलम्

मनमुखु रोगी है संसारा ॥ सुखदाता विसरिआ अगम अपारा ॥ दुखीए निति फिरहि बिललादे बिनु गुर सांति न पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला।6।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला जगत (विकारों में पड़ के) रोगी हो रहा है (क्योंकि) इसे सुखों का दाता अगम्य (पहुँच से परे) व बेअंत प्रभु बिसर गया है। मनमुख जीवदुखी हो हो के तरले लेते फिरते हैं। गुरु की शरण के बगैर उन्हें आत्मिक अडोलता प्राप्त नहीं हो सकती।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि कीते सोई बिधि जाणै ॥ आपि करे ता हुकमि पछाणै ॥ जेहा अंदरि पाए तेहा वरतै आपे बाहरि पावणिआ ॥७॥

मूलम्

जिनि कीते सोई बिधि जाणै ॥ आपि करे ता हुकमि पछाणै ॥ जेहा अंदरि पाए तेहा वरतै आपे बाहरि पावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। कीते = पैदा किए। बिधि = तरीका। ता = तब। हुकमि = हुक्म में (चल के)। पछाणै = सांझ पा लेता है।7।
अर्थ: जिस परमात्मा ने जीव पैदा किए हैं वही इन्हें ठीक करने का ढंग जानता है। जब किसी को ठीक कर देता है तो वह प्रभु के हुक्म में रहके उसके साथ सांझ पाता है। जिस तरह का आत्मिक जीवन परमात्मा किसी जीव के अंदर टिकाता है, उसी तरह वह जीव कार-व्यवहार करता है। प्रभु स्वयं ही जीवों को दिखाई देते संसार की ओर प्रेरता रहता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसु बाझहु सचे मै होरु न कोई ॥ जिसु लाइ लए सो निरमलु होई ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि जिसु देवै सो पावणिआ ॥८॥१४॥१५॥

मूलम्

तिसु बाझहु सचे मै होरु न कोई ॥ जिसु लाइ लए सो निरमलु होई ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि जिसु देवै सो पावणिआ ॥८॥१४॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घट अंतरि = हृदय में।8।
अर्थ: (हे भाई!) मुझे उस सदा स्थिर प्रभु के बिना कोई और नहीं दिखता (जो जीव को बाहर भटकने से बचा सके)। जिस मनुष्य को वह अपने चरणों में जोड़ता है, वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है। हे नानक! (उसकी मेहर से ही) उसका नाम जीव के हृदय में बसता है। जिस मनुष्य को (अपने नाम की दाति) बख्शता है वह हासल कर लेता है।8।14।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ अम्रित नामु मंनि वसाए ॥ हउमै मेरा सभु दुखु गवाए ॥ अम्रित बाणी सदा सलाहे अम्रिति अम्रितु पावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ अम्रित नामु मंनि वसाए ॥ हउमै मेरा सभु दुखु गवाए ॥ अम्रित बाणी सदा सलाहे अम्रिति अम्रितु पावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला प्रभु का नाम। मंनि = मनि, मन में। मेरा = मेरा पन, ममता। अंम्रित = सदा अटल परमात्मा। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी से।1।
अर्थ: जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाले प्रभु का नाम अपने मन में बसाता है, वह (अपने अंदर से) अहंकार व ममता का दुख दूर कर लेता है। वह आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी के द्वारा सदा प्रभु की महिमा करता है और हर वक्त नाम अंम्रित (के घूट) ही पीता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी अम्रित बाणी मंनि वसावणिआ ॥ अम्रित बाणी मंनि वसाए अम्रितु नामु धिआवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी अम्रित बाणी मंनि वसावणिआ ॥ अम्रित बाणी मंनि वसाए अम्रितु नामु धिआवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वसावणिआ = बसाने वालों से।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उस मनुष्य से सदा कुबान जाता हूं, जो आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी के द्वारा (परमात्मा को) अपने मन में बसाता है। जो अमृत वाणी मन में बसाता है और आत्मिक जीवन देने वाला प्रभु-नाम सदा स्मरण करता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रितु बोलै सदा मुखि वैणी ॥ अम्रितु वेखै परखै सदा नैणी ॥ अम्रित कथा कहै सदा दिनु राती अवरा आखि सुनावणिआ ॥२॥

मूलम्

अम्रितु बोलै सदा मुखि वैणी ॥ अम्रितु वेखै परखै सदा नैणी ॥ अम्रित कथा कहै सदा दिनु राती अवरा आखि सुनावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुखि = मुंह से। वैणी = वचन से, महिमा के वचन से। अंम्रितु = सदा अटल प्रभु। नैणी = आँखों से। अंम्रित कथा = अमर प्रभु की महिमा। आखि = कह के।2।
अर्थ: जो मनुष्य मुंह के वचन से आत्मिक जीवन दाता प्रभु-नाम सदैव उचारता है, वह आँखों से भी सदा जीवन दाते परमात्मा को ही (हर जगह) देखता पहचानता है वह जीवन दाते प्रभु की महिमा सदा दिन रात करता है और-और लोगों को भी बोल के सुनाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित रंगि रता लिव लाए ॥ अम्रितु गुर परसादी पाए ॥ अम्रितु रसना बोलै दिनु राती मनि तनि अम्रितु पीआवणिआ ॥३॥

मूलम्

अम्रित रंगि रता लिव लाए ॥ अम्रितु गुर परसादी पाए ॥ अम्रितु रसना बोलै दिनु राती मनि तनि अम्रितु पीआवणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित रंगि = अमर प्रभु के प्रेम में। रसना = जीभ (से)। मनि = मन से। तनि = तन से,शरीर द्वारा (ज्ञानेंद्रियों द्वारा)।3।
अर्थ: जो मनुष्य जीवन दाते प्रभु के प्रेम रंग में रंगा हुआ प्रभु चरणों में तवज्जो जोड़ता है, वह गुरु की कृपा से उस जीवन दाते को मिल लेता है। वह अपनी जीभ से भी दिन रात आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम ही उचारता है। वह अपने मन के द्वारा और अपनी ज्ञानेंद्रियों द्वारा नाम-अमृत पीता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो किछु करै जु चिति न होई ॥ तिस दा हुकमु मेटि न सकै कोई ॥ हुकमे वरतै अम्रित बाणी हुकमे अम्रितु पीआवणिआ ॥४॥

मूलम्

सो किछु करै जु चिति न होई ॥ तिस दा हुकमु मेटि न सकै कोई ॥ हुकमे वरतै अम्रित बाणी हुकमे अम्रितु पीआवणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चिति = (जीवों के) चिक्त में। हुकमे = हुक्म ही, प्रभु के हुक्म अनुसार ही।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस दा’ में से शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘दा’ के कारण हट गई है, देखें गुरबाणी व्याकरण।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा वह कुछ कर देता है जो (जीवों को) चिक्त-चेते भी नहीं होता। कोई भी जीव उस कर्तार का हुक्म (भी) मोड़ नहीं सकता। उसके हुक्म अनुसार ही (किसी भाग्यशाली मनुष्य के हृदय में) उसकी जीवन दाती महिमा की वाणी बस जाती है। वह अपने हुक्म अनुसार ही (किसी भाग्यशाली को) अपना अमृतनाम पिलाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजब कम करते हरि केरे ॥ इहु मनु भूला जांदा फेरे ॥ अम्रित बाणी सिउ चितु लाए अम्रित सबदि वजावणिआ ॥५॥

मूलम्

अजब कम करते हरि केरे ॥ इहु मनु भूला जांदा फेरे ॥ अम्रित बाणी सिउ चितु लाए अम्रित सबदि वजावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करते केरे = करते के। भूला जांदा = भटकता फिरता। फेरे = मोड़ लाता है। सिउ = साथ। सबदि = शब्द द्वारा। वजावणिआ = प्रगट करता है।5।
अर्थ: (हे भाई!) उस हरि कर्तार के चमत्कार आश्चर्यजनक हैं, (जीवों के) कुमार्ग पर पडत्र के भटकते इस मन को (भी) वह कर्तार मोड़ ले आता है। उस मन को प्रभु अपनी आत्मिक जीवन दाती महिमा की वाणी से जोड़ देता है, और महिमा के शब्द के द्वारा अपना नाम (उसके अंदर) प्रगट कर देता है।5।

[[0119]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

खोटे खरे तुधु आपि उपाए ॥ तुधु आपे परखे लोक सबाए ॥ खरे परखि खजानै पाइहि खोटे भरमि भुलावणिआ ॥६॥

मूलम्

खोटे खरे तुधु आपि उपाए ॥ तुधु आपे परखे लोक सबाए ॥ खरे परखि खजानै पाइहि खोटे भरमि भुलावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपाए = पैदा किए हैं। आपे = स्वयं ही। सबाए = सारे। परखि = परख के। पाइहि = तू पाता है। भरमि = भटकना में पड़ के।6।
अर्थ: (हे प्रभु!) खोटे जीव और खरे जीव तेरे खुद के ही पैदा किए हुए हैं। तू स्वयं ही सारे जीवों (की करतूतों) को परखता रहता है। खरे जीवों को परख के तू अपने खजाने में डाल लेता है (अपने चरणों में जोड़ लेता है) और खोटे जीवों को भटकना में डाल के गलत रास्ते पर डाल देता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किउ करि वेखा किउ सालाही ॥ गुर परसादी सबदि सलाही ॥ तेरे भाणे विचि अम्रितु वसै तूं भाणै अम्रितु पीआवणिआ ॥७॥

मूलम्

किउ करि वेखा किउ सालाही ॥ गुर परसादी सबदि सलाही ॥ तेरे भाणे विचि अम्रितु वसै तूं भाणै अम्रितु पीआवणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किउ करि = किस तरह? वेखा = देखूं, मैं दर्शन करूं। किउ = कैसे? भाणै = रजा अनुसार।7।
अर्थ: (हे कर्तार!) मैं (तेरा दास) किस तरह तेरे दर्शन करूं? किस तरह तेरी महिमा करूं? (यदि तेरी अपनी ही मेहर हो, और तू मुझे गुरु मिला दे, तो) गुरु की कृपा से गुरु के शब्द में लग के तेरी महिमा कर सकता हूँ। (हे प्रभु!) तेरे हुकमि से ही तेरा अमृत नाम (जीव के हृदय में) बसता है। तू अपने हुक्म अनुसार ही अपना नाम-अंमृत (जीवों को) पिलाता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित सबदु अम्रित हरि बाणी ॥ सतिगुरि सेविऐ रिदै समाणी ॥ नानक अम्रित नामु सदा सुखदाता पी अम्रितु सभ भुख लहि जावणिआ ॥८॥१५॥१६॥

मूलम्

अम्रित सबदु अम्रित हरि बाणी ॥ सतिगुरि सेविऐ रिदै समाणी ॥ नानक अम्रित नामु सदा सुखदाता पी अम्रितु सभ भुख लहि जावणिआ ॥८॥१५॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतिगुरि सेविआ = अगर गुरु का आसरा लिया जाए। रिदै = हृदय में। पी = पी के।8।
अर्थ: (हे भाई!) अगर सतिगुरु का आसरा-परना लिया जाए, तब ही आत्मिक जीवन देने वाला गुरु-शब्द तब ही आत्मिक जीवन दाती महिमा की वाणी मनुष्य के हृदय में बस सकती है।
हे नानक! आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम सदा आत्मिक आनंद देने वाला है। ये नाम अंमृत पीने से (माया की) सारी भूख उतर जाती है।8।15।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ अम्रितु वरसै सहजि सुभाए ॥ गुरमुखि विरला कोई जनु पाए ॥ अम्रितु पी सदा त्रिपतासे करि किरपा त्रिसना बुझावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ अम्रितु वरसै सहजि सुभाए ॥ गुरमुखि विरला कोई जनु पाए ॥ अम्रितु पी सदा त्रिपतासे करि किरपा त्रिसना बुझावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = सु+भाय, ऊचें प्रेम में। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला। त्रिपतासे = तृप्त हो जाता है। त्रिसना = प्यास।1।
अर्थ: जब मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिकता है, प्रभु प्रेम में जुड़ता है, तब उसके अंदर आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल बरखा करता है। पर (ये दाति) कोई वह विरला मनुष्य हासिल करता है, जो गुरु के बताए हुए रास्ते पे चलता है। आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पी के मनुष्य सदा के लिए (माया की ओर से) तृप्त हो जाते हैं। (प्रभु) मेहर करके उनकी तृष्णा बुझा देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी गुरमुखि अम्रितु पीआवणिआ ॥ रसना रसु चाखि सदा रहै रंगि राती सहजे हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी गुरमुखि अम्रितु पीआवणिआ ॥ रसना रसु चाखि सदा रहै रंगि राती सहजे हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ। चाखि = चख के। रंगि = प्रेम रंग में। सहजे = आत्मिक अडोलता में।1 रहाउ।
अर्थ: मैं सदा उनके सदके हूँ कुर्बान हूँ, जो गुरु की शरण पड़ कर आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पीते हैं। जिनकी जीभ नाम रस चख के प्रभु के प्रेम रंग में सदा रंगी रहती है, वह आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुण गाते रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादी सहजु को पाए ॥ दुबिधा मारे इकसु सिउ लिव लाए ॥ नदरि करे ता हरि गुण गावै नदरी सचि समावणिआ ॥२॥

मूलम्

गुर परसादी सहजु को पाए ॥ दुबिधा मारे इकसु सिउ लिव लाए ॥ नदरि करे ता हरि गुण गावै नदरी सचि समावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = कोई विरला। सहजु = आत्मिक अडोलता। दुबिधा = दुचिक्ता पन। इकसु सिउ = सिर्फ एक से। लिव = लगन। नदरि = मिहर की नजर। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।2।
अर्थ: गुरु की कृपा से कोई विरला मनुष्य आत्मिक अडोलता हासिल करता है। (जिसकी इनायत से) वह मन का दुचिक्तापन मार के सिर्फ परमात्मा (के चरणों) के साथ लगन लगाए रखता है। जब परमात्मा (किसी जीव पर मिहर की) निगाह करता है तब वह परमात्माके गुण गाता है, और प्रभु की मेहर की नजर सेसदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभना उपरि नदरि प्रभ तेरी ॥ किसै थोड़ी किसै है घणेरी ॥ तुझ ते बाहरि किछु न होवै गुरमुखि सोझी पावणिआ ॥३॥

मूलम्

सभना उपरि नदरि प्रभ तेरी ॥ किसै थोड़ी किसै है घणेरी ॥ तुझ ते बाहरि किछु न होवै गुरमुखि सोझी पावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! घणेरी = बहुत। ते = से।3।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी मेहर की निगाह सब जीवों पर ही है। किसी पे थोड़ी किसी पे बहुत। तुझसे बाहर (तेरी मेहर की निगाह के बगैर) कुछ नहीं होता- ये समझ उस मनुष्य को होती है जो गुरु की शरण पड़ता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि ततु है बीचारा ॥ अम्रिति भरे तेरे भंडारा ॥ बिनु सतिगुर सेवे कोई न पावै गुर किरपा ते पावणिआ ॥४॥

मूलम्

गुरमुखि ततु है बीचारा ॥ अम्रिति भरे तेरे भंडारा ॥ बिनु सतिगुर सेवे कोई न पावै गुर किरपा ते पावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ततु = अस्लियत। अंम्रित = अमृत से। सेवे = शरण पड़ के।4।
अर्थ: हे प्रभु! आत्मिक जीवन देने वाले तेरे नाम जलसे तेरे खजाने भरे पड़े हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य ने इस अस्लियत को समझा है। (गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य जानता है कि) गुरु की शरण पड़े बिना कोई मनुष्य नाम-अंमृत नही ले सकता। गुरु की कृपा से ही हासिल कर सकता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु सेवै सो जनु सोहै ॥ अम्रित नामि अंतरु मनु मोहै ॥ अम्रिति मनु तनु बाणी रता अम्रितु सहजि सुणावणिआ ॥५॥

मूलम्

सतिगुरु सेवै सो जनु सोहै ॥ अम्रित नामि अंतरु मनु मोहै ॥ अम्रिति मनु तनु बाणी रता अम्रितु सहजि सुणावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोहै = शोभता है, सोहणे जीवन वाला बन जाता है। अंतरु मनु = अंदरूनी मन। मोहै = मस्त हो जाता है। रता = रंगा जाता है।5।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह मनुष्य सुहाने जीवन वाला बन जाता है। आत्मिक जीवन देने वाले नाम में उसका अंदरूनी मन मस्त रहता है। उस मनुष्य का मन उस का तन नाम अंमृत से महिमा की वाणी से रंगा जाता है। आत्मिक अडोलता में टिक के वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाली नाम धुनि को सुनता रहता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखु भूला दूजै भाइ खुआए ॥ नामु न लेवै मरै बिखु खाए ॥ अनदिनु सदा विसटा महि वासा बिनु सेवा जनमु गवावणिआ ॥६॥

मूलम्

मनमुखु भूला दूजै भाइ खुआए ॥ नामु न लेवै मरै बिखु खाए ॥ अनदिनु सदा विसटा महि वासा बिनु सेवा जनमु गवावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भूला = कुराहे पड़ा हुआ। दूजै भाइ = प्रभु के बिना किसी और के प्यार में। खुआए = सही जीवन-राह से वंचित रहता है। मरै = आत्मिक मौत मरता है। बिखु = जहर। खाए = खा के। अनदिनु = हर रोज। विसटा = गंद।6।
अर्थ: पर अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य गलत रास्ते पर पड़ जाता है। माया के प्यार में (खचित हो के) सही जीवन-राह से वंचित हो जाता है। वह परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता। वह (माया का मोह रूपी) जहर खा के आत्मिक मौत ले लेता है। (गंदगी के कीड़े की तरह) उस मनुष्य का निवास सदा हर वक्त (विकारों के) गंद में ही रहता है। परमातमा की सेवा भक्ति के बिना वह अपना मानव जनम बरबाद कर लेता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रितु पीवै जिस नो आपि पीआए ॥ गुर परसादी सहजि लिव लाए ॥ पूरन पूरि रहिआ सभ आपे गुरमति नदरी आवणिआ ॥७॥

मूलम्

अम्रितु पीवै जिस नो आपि पीआए ॥ गुर परसादी सहजि लिव लाए ॥ पूरन पूरि रहिआ सभ आपे गुरमति नदरी आवणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ने = को। परसादी = कृपा से। पूरन = व्यापक।7।
अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) वही मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पीता है, जिसे परमात्मा स्वयं मिलाता है। गुरु की कृपा से वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के (प्रभु चरणों में) तवज्जो जोड़े रखता है। सतिगुरु की मति ले कर फिर उसे ये प्रत्यक्ष दिखता है कि हर जगह स्वयं मौजूद है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे आपि निरंजनु सोई ॥ जिनि सिरजी तिनि आपे गोई ॥ नानक नामु समालि सदा तूं सहजे सचि समावणिआ ॥८॥१६॥१७॥

मूलम्

आपे आपि निरंजनु सोई ॥ जिनि सिरजी तिनि आपे गोई ॥ नानक नामु समालि सदा तूं सहजे सचि समावणिआ ॥८॥१६॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरंजनु = माया रहित प्रभु। जिनि = जिस (प्रभु) ने। सिरजी = पैदा की। तिनि = उस (प्रभु) ने। गोई = नाश की। समालि = याद रख। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।8।
अर्थ: (हे भाई!) माया के प्रभाव से ऊँचा रहने वाला परमात्मा हर जगह स्वयं ही मौजूद है। जिस परमात्मा ने ये सृष्टि पैदा की है वह स्वयं ही इसका नाश करता है।
हे नानक! तू उस परमात्मा का नाम सदा अपने हृदय में संभाल के रख। (नाम जपने की इनायत से) आत्मिक अडोलता में टिक के उस सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है।8।16।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ से सचि लागे जो तुधु भाए ॥ सदा सचु सेवहि सहज सुभाए ॥ सचै सबदि सचा सालाही सचै मेलि मिलावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ से सचि लागे जो तुधु भाए ॥ सदा सचु सेवहि सहज सुभाए ॥ सचै सबदि सचा सालाही सचै मेलि मिलावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचि = सदा स्थिर प्रभु में। तुधु = तूझे। भाए = अच्छे लगे। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज सुभाए = प्रेम से आत्मिक अडोलता के भाव में। सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से। सालाही = मैं महिमा करूं। सचै मेलि = सदा स्थिर प्रभु के मेल में, सदा स्थिर प्रभु के चरणों में।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) जो लोग तुझे अच्छे लगते हैं वह (तेरे) सदा-स्थिर नाम में जुड़े रहते हैं। वे आत्मिक अडोलता के भाव में (टिक के) सदा (तेरे) सदा स्थिर रहने वाले नाम को स्मरण करते हैं। (हे भाई! यदि प्रभु की मेहर हो तो) मैं भी सदा स्थिर प्रभु के महिमा के शब्द के द्वारा उस सदा स्थिर प्रभु की महिमा करता रहूँ। (जो महिमा करते हैं) वे सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के चरणों में जुड़े रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी सचु सालाहणिआ ॥ सचु धिआइनि से सचि राते सचे सचि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी सचु सालाहणिआ ॥ सचु धिआइनि से सचि राते सचे सचि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धिआइनि = ध्यान धरते हैं। राते = मस्त। सचे सचि = सदा स्थिर प्रभु में ही। रहाउ।
अर्थ: मैं उनसे सदके हूँ कुर्बान हूँ, जो सदा कायम रहने वाले परमात्मा की महिमा करते हैं। जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु का ध्यान धरते हैं, वे उस सदा स्थिर में रंगे रहते हैं वे सदा ही सदा स्थिर में लीन रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह देखा सचु सभनी थाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ तनु सचा रसना सचि राती सचु सुणि आखि वखानणिआ ॥२॥

मूलम्

जह देखा सचु सभनी थाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ तनु सचा रसना सचि राती सचु सुणि आखि वखानणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह = जहां। देखा = देखूँ, देखता हूँ। मंनि = मनि, मन में। वसाई = मैं बसाता हूँ। तनु सचा = अडोल शरीर, ज्ञानेंद्रियां विकारों में अडोल। रसना = जीभ।2।
अर्थ: (हे भाई!) मैं जिधर देखता हूँ, सदा स्थिर परमात्मा हर जगह बसता है। गुरु की कृपा से ही मैं अपने मन में बसा सकता हूँ। जो मनुष्य उस सदा स्थिर प्रभु का नाम सुन के, उच्चार के, उसके गुण कथन करते हैं, उनकी जीभ सदा स्थिर रहने वाले प्रभु (के नाम रंग) में ही रंगी जाती है, उनके ज्ञानेंद्रियां अडोल हो जाती हैं।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसा मारि सचि समाणी ॥ इनि मनि डीठी सभ आवण जाणी ॥ सतिगुरु सेवे सदा मनु निहचलु निज घरि वासा पावणिआ ॥३॥

मूलम्

मनसा मारि सचि समाणी ॥ इनि मनि डीठी सभ आवण जाणी ॥ सतिगुरु सेवे सदा मनु निहचलु निज घरि वासा पावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = मनीषा, कामना। मारि = (मन को) मार के। इनि = इस ने। मनि = मन ने। इनि मनि = इस मन ने। घरि = घर में।3।
अर्थ: (मन को) मार के जिस मनुष्य की वासना सदा स्थिर प्रभु में लीन हो गई है, उसने इस (टिके हुए) मन से इस सारे जनम मरन के चक्कर की खेल देख ली है (समझ ली है)। वह मनुष्य गुरु का आसरा लेता है, उसका मन सदा वास्ते (माया के हमलों से) अडोल हो जाता है। वह अपने असल घर में (प्रभु चरणों में) ठिकाना हासिल कर लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर कै सबदि रिदै दिखाइआ ॥ माइआ मोहु सबदि जलाइआ ॥ सचो सचा वेखि सालाही गुर सबदी सचु पावणिआ ॥४॥

मूलम्

गुर कै सबदि रिदै दिखाइआ ॥ माइआ मोहु सबदि जलाइआ ॥ सचो सचा वेखि सालाही गुर सबदी सचु पावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर कै सबदि = गुरु के शब्द ने। रिदै = हृदय में। सबदि = शब्द से। वेखि = देख के। सालाही = मैं सालाहता हूँ।4।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के शब्द ने (मुझे परमात्मा मेरे) हृदय में (बसता) दिखा दिया है। शब्द ने (मेरे अंदर से) माया का मोह जला दिया है। (अब) मैं (हर जगह) उस सदा स्थिर प्रभु को देख के (उसकी) महिमा करता हूँ। (हे भाई!) गुरु के शब्द में (जुड़ने वाले मनुष्य) सदा स्थिर प्रभु का मिलाप हासिल कर लेते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो सचि राते तिन सची लिव लागी ॥ हरि नामु समालहि से वडभागी ॥ सचै सबदि आपि मिलाए सतसंगति सचु गुण गावणिआ ॥५॥

मूलम्

जो सचि राते तिन सची लिव लागी ॥ हरि नामु समालहि से वडभागी ॥ सचै सबदि आपि मिलाए सतसंगति सचु गुण गावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लिव = लगन। समालहि = हृदय में संभालते हैं।5।
अर्थ: जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु (के नाम रंग) में रंगे जाते हैं, उनके अंदर (प्रभु चरणों के वास्ते) सदा कायम रहने वाली लगन पैदा हो जाती है। वे बहुत भाग्यशाली मनुष्य प्रभु के नाम को (अपने हृदय में) सम्भाल के रखते हैं। जिस मनुष्यों को प्रभु स्वयं ही महिमा की वाणी में जोड़ता है, वह साधु-संगत में रह के सदा स्थिर प्रभु को स्मरण करते है। असके गुण गाते हैं।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लेखा पड़ीऐ जे लेखे विचि होवै ॥ ओहु अगमु अगोचरु सबदि सुधि होवै ॥ अनदिनु सच सबदि सालाही होरु कोइ न कीमति पावणिआ ॥६॥

मूलम्

लेखा पड़ीऐ जे लेखे विचि होवै ॥ ओहु अगमु अगोचरु सबदि सुधि होवै ॥ अनदिनु सच सबदि सालाही होरु कोइ न कीमति पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लेखा = परमात्मा के गुणों की हस्ती का अंत ढूँढने वाला हिसाब। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = जिस तक ज्ञानेंद्रियां नहीं पहुँच सकती। सुधि = समझ। अनदिनु = हर रोज। सच सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द से।6।
अर्थ: (हे भाई!) उस परमात्मा की कुदरति का उसकी हस्ती का उसके गुणों का पूरा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना व्यर्थ है। उसका स्वरूप लेखों से बाहर हे। वह अगम्य (पहुँच से परे) है, मनुष्य के ज्ञानेंद्रियों तक उसकी पहुँच नही हो सकती। पर (परमात्मा की इस अगाधता की) समझ गुरु के शब्द द्वारा ही होती है।
मैं तो हर समय प्रभु की महिमा की वाणी के द्वारा उसकी महिमा करता हूँ। कोई भी और ऐसा नहीं जिस को परमात्मा के बराबर का कहा जा सके।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पड़ि पड़ि थाके सांति न आई ॥ त्रिसना जाले सुधि न काई ॥ बिखु बिहाझहि बिखु मोह पिआसे कूड़ु बोलि बिखु खावणिआ ॥७॥

मूलम्

पड़ि पड़ि थाके सांति न आई ॥ त्रिसना जाले सुधि न काई ॥ बिखु बिहाझहि बिखु मोह पिआसे कूड़ु बोलि बिखु खावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सांति = आत्मिक अडोलता। जाले = जलाए। बिखु = जहर। बिहाजहि = खरीदते हैं। बोलि = बोल के।7।
अर्थ: (परमात्मा का अंत पाने के लिए अनेक पुस्तकें) पढ़ पढ़ के (विद्वान लोग) थक गए, (प्रभु का स्वरूप भी ना समझ सके, और) आत्मिक अडोलता (भी) प्राप्त ना हुई। बल्कि (माया की) तृष्णा (की आग) में ही जलते रहे। आत्मिक मौत लाने वाली वो माया रूपी जहर ही एकत्र करते रहते हैं। इस माया-जहर के मोह की ही उन्हें प्यास लगी रहती है। झूठ बोल के वो इस जहर को ही अपनी (आत्मिक खुराक) बनाए रखते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादी एको जाणा ॥ दूजा मारि मनु सचि समाणा ॥ नानक एको नामु वरतै मन अंतरि गुर परसादी पावणिआ ॥८॥१७॥१८॥

मूलम्

गुर परसादी एको जाणा ॥ दूजा मारि मनु सचि समाणा ॥ नानक एको नामु वरतै मन अंतरि गुर परसादी पावणिआ ॥८॥१७॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: एको = एक परमात्मा को ही।8।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरु की कृपा से सिर्फ एक परमात्मा से ही गहरी सांझ डाली, प्रभु के बिना अन्य प्यार को मार के उसका मन सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में लीन हो गया।
जिस के मन में सिर्फ परमात्मा का नाम ही बसता है, वह गुरु की कृपा से (परमात्मा के चरणों में) मिलाप हासिल कर लेते हैं।8।17।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ वरन रूप वरतहि सभ तेरे ॥ मरि मरि जमहि फेर पवहि घणेरे ॥ तूं एको निहचलु अगम अपारा गुरमती बूझ बुझावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ वरन रूप वरतहि सभ तेरे ॥ मरि मरि जमहि फेर पवहि घणेरे ॥ तूं एको निहचलु अगम अपारा गुरमती बूझ बुझावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वरन = वर्ण, रंग। वरतहि = मौजूद है। फेर = चक्कर। घणेरे = बहुत। निहचलु = अटल।1।
अर्थ: (हे प्रभु! जगत में बेअंत जीव हैं, इन) सब में तेरे ही अलग अलग रूप दिखाई दे रहे हैं। (ये बेअंत जीव) बार बार पैदा होते मरते हैं, इन्हें जनम मरण के कई चक्कर पड़े रहते हैं। (हे प्रभु!) सिर्फ तू ही अटल है अगम्य (पहुँच से परे) है, बेअंत है, ये समझ तू ही गुरु की मति पर चला के जीवों को देता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी राम नामु मंनि वसावणिआ ॥ तिसु रूपु न रेखिआ वरनु न कोई गुरमती आपि बुझावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी राम नामु मंनि वसावणिआ ॥ तिसु रूपु न रेखिआ वरनु न कोई गुरमती आपि बुझावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी = कुर्बान। मंनि = मनि, मन में। तिसु = उस (परमात्मा) का। रेखिआ = चिन्ह चक्र। वरनु = रंग।1। रहाउ।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘वरन’ बहुवचन और ‘वरनु’ एकवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: मैं उन मनुष्यों पर से सदा कुर्बान जाता हूँ, जो परमात्मा का नाम अपने मन में बसाते हैं। उस परमात्मा का कोई खास रूप नहीं, कोई खास चिन्ह-चक्र नहीं, कोई खास रंग नहीं। वह स्वयं ही जीवों को गुरु की मति के द्वारा अपनी सूझ देता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ एका जोति जाणै जे कोई ॥ सतिगुरु सेविऐ परगटु होई ॥ गुपतु परगटु वरतै सभ थाई जोती जोति मिलावणिआ ॥२॥

मूलम्

सभ एका जोति जाणै जे कोई ॥ सतिगुरु सेविऐ परगटु होई ॥ गुपतु परगटु वरतै सभ थाई जोती जोति मिलावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेविऐ = यदि सेवा की जाए, अगर आसरा लिया जाए।2।
अर्थ: सारी सृष्टि में एक परमात्मा की ही ज्योति मौजूद है। पर ये समझ किसी विरले मनुष्य को पड़ती है। गुरु की शरण पड़ने से ही (सभ जीवों में व्यापक ज्योति) प्रत्यक्ष दिखने लगती है। हर जगह परमात्मा की ज्योति गुप्त भी मौजूद है और प्रत्यक्ष भी। प्रभु की ज्योति हरेक जीव की ज्योति में मिली हुई है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसना अगनि जलै संसारा ॥ लोभु अभिमानु बहुतु अहंकारा ॥ मरि मरि जनमै पति गवाए अपणी बिरथा जनमु गवावणिआ ॥३॥

मूलम्

तिसना अगनि जलै संसारा ॥ लोभु अभिमानु बहुतु अहंकारा ॥ मरि मरि जनमै पति गवाए अपणी बिरथा जनमु गवावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरि = मर के, आत्मिक मौत सहेड़ के। पति = इज्जत। बिरथा = व्यार्थ।3।
अर्थ: (हे भाई!) जगत (माया की) तृष्णा की अग्नि में जल रहा है, (इस पर लोभ अभिमान अहंकार अपना अपना) जोर डाल रहे हैं। (तृष्णा की आग के कारण) जगत आत्मिक मौत झेल के जनम मरण के चक्कर में पड़ा हुआ है। अपनी इज्जत गवा रहा है और अपना मानव जनम व्यर्थ गवा रहा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर का सबदु को विरला बूझै ॥ आपु मारे ता त्रिभवणु सूझै ॥ फिरि ओहु मरै न मरणा होवै सहजे सचि समावणिआ ॥४॥

मूलम्

गुर का सबदु को विरला बूझै ॥ आपु मारे ता त्रिभवणु सूझै ॥ फिरि ओहु मरै न मरणा होवै सहजे सचि समावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपु = स्वै भाव। त्रिभवणु = सारा जगत। मरै = आत्मिक मौत सहेड़ता है। मरणा = आत्मिक मौत। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।4।
अर्थ: कोई एक-आध (भाग्यशाली मनुष्य) गुरु के शब्द को समझता है, (जो समझता है, वह जब अपने अंदर से) स्वै भाव दूर करता है, तब वह परमात्मा को तीनों भवनों में व्यापक जान लेता है। (इस अवस्था पे पहुँच के) पुनः वह आत्मिक मौत नहीं झेलता। आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती। वह आत्मिक अडोलता में टिक के सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माइआ महि फिरि चितु न लाए ॥ गुर कै सबदि सद रहै समाए ॥ सचु सलाहे सभ घट अंतरि सचो सचु सुहावणिआ ॥५॥

मूलम्

माइआ महि फिरि चितु न लाए ॥ गुर कै सबदि सद रहै समाए ॥ सचु सलाहे सभ घट अंतरि सचो सचु सुहावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सद = सदा। सुहावणिआ = शोभा दे रहा है।5।
अर्थ: (ऐसी आत्मिक अवस्था पर पहुँचा हुआ मनुष्य) दुबारा कभी माया (के मोह) में अपना मन नहीं जोड़ता। वह गुरु के शब्द की इनायत से सदा परमात्मा की याद में टिका रहता है। वह सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की ही महिमा करता है। उसे यही दिखता है कि सारे शरीरों में वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही शोभा दे रहा है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु सालाही सदा हजूरे ॥ गुर कै सबदि रहिआ भरपूरे ॥ गुर परसादी सचु नदरी आवै सचे ही सुखु पावणिआ ॥६॥

मूलम्

सचु सालाही सदा हजूरे ॥ गुर कै सबदि रहिआ भरपूरे ॥ गुर परसादी सचु नदरी आवै सचे ही सुखु पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हजूरे = अंग संग, हाजिर नाजर। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सचे = सदा स्थिर प्रभु में।6।
अर्थ: (हे भाई!) मैं तो उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा करता हूं, जो सदा (सब जीवों के) अंग संग बसता है। गुरु के शब्द में जुड़ने से वह हर जगह ही बसा हुआ दिखने लग पड़ता है। जिस मनुष्य को गुरु की कृपा से सदा कायम रहने वाला परमात्मा (हर जगह बसा हुआ) दिखाई देने लग पड़ता है। वह उस सदा स्थिर में ही लीन रह के आत्मिक आनंद लेता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु मन अंदरि रहिआ समाइ ॥ सदा सचु निहचलु आवै न जाइ ॥ सचे लागै सो मनु निरमलु गुरमती सचि समावणिआ ॥७॥

मूलम्

सचु मन अंदरि रहिआ समाइ ॥ सदा सचु निहचलु आवै न जाइ ॥ सचे लागै सो मनु निरमलु गुरमती सचि समावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आवै न जाइ = जो ना पैदा होता हैना मरता है।7।
अर्थ: सदा कायम रहने वाला परमात्मा हरेक मनुष्य के मन में मौजूद रहता है। वह स्वयं सदा अटल रहता है। ना कभी पैदा होता है, ना मरता है। जो मन उस सदा स्थिर प्रभु में प्यार पा लेता है, वह पवित्र हो जाता है। गुरु की मति पर चल करवह उस सदा स्थिर रहने वाले (की याद) में जुड़ा रहता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु सालाही अवरु न कोई ॥ जितु सेविऐ सदा सुखु होई ॥ नानक नामि रते वीचारी सचो सचु कमावणिआ ॥८॥१८॥१९॥

मूलम्

सचु सालाही अवरु न कोई ॥ जितु सेविऐ सदा सुखु होई ॥ नानक नामि रते वीचारी सचो सचु कमावणिआ ॥८॥१८॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सालाही = मैं सलाहता हूँ। जितु सेविऐ = जिसका स्मरण करने से। वीचारी = विचारवान, अच्छे बुरे की परख करने वाले।8।
अर्थ: (हे भाई!) मैं सदा कायम रहने वाले परमातमा की ही महिमा करता हूँ। मुझे कहीं उस जैसा कोई और नहीं दिखता। उस सदा स्थिर प्रभु का स्मरण करने से सदैव आत्मिक आनंद बना रहता है।
हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगे जाते हैं, वे अच्छी-बुरी करतूत को परखने के लायक हो जाते हैं, और वे सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम जपने की कमाई करते हैं।8।18।19।

[[0121]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ निरमल सबदु निरमल है बाणी ॥ निरमल जोति सभ माहि समाणी ॥ निरमल बाणी हरि सालाही जपि हरि निरमलु मैलु गवावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ निरमल सबदु निरमल है बाणी ॥ निरमल जोति सभ माहि समाणी ॥ निरमल बाणी हरि सालाही जपि हरि निरमलु मैलु गवावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सालाही = मैं सलाहता हूँ। जपि = जप के।1।
अर्थ: परमात्मा की पवित्र ज्योति सब जीवों में समाई हुई है। उसकी महिमा का शब्द (सबको) पवित्र करने वाला है। उसकी महिमा की वाणी (सबको) पवित्र करने वाली है। (हे भाई!) मैं उस हरि की पवित्र वाणी के द्वारा उसकी महिमा करता हूँ। परमात्मा का नाम जप के हम पवित्र हो जाते हैं। (विकारों की) मैल (मन से) दूर कर लेते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी सुखदाता मंनि वसावणिआ ॥ हरि निरमलु गुर सबदि सलाही सबदो सुणि तिसा मिटावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी सुखदाता मंनि वसावणिआ ॥ हरि निरमलु गुर सबदि सलाही सबदो सुणि तिसा मिटावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुखदाता = सुख देने वाला। मंनि = मनि, मन में। गुर सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। सलाही = मैं सलाहता हूँ। सबदे = शब्द ही। तिसा = माया की तृष्णा।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उनके सदके हूँ कुर्बान हूँ, जो सुख देने वाले परमात्मा को अपने मन में बसाते हैं। मैं गुरु के शब्द में जुड़ के पवित्र परमात्मा की महिमा करता हूँ। गुरु का शब्द ही सुन के मैं (अपने अंदर से माया की) तृष्णा को मिटाता हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमल नामु वसिआ मनि आए ॥ मनु तनु निरमलु माइआ मोहु गवाए ॥ निरमल गुण गावै नित साचे के निरमल नादु वजावणिआ ॥२॥

मूलम्

निरमल नामु वसिआ मनि आए ॥ मनु तनु निरमलु माइआ मोहु गवाए ॥ निरमल गुण गावै नित साचे के निरमल नादु वजावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। आए = आ के। नादु = गरज।2।
अर्थ: (जिस मनुष्य के) मन में पवित्र परमात्मा का नाम आ बसता है, उसका मन पवित्र हो जाता है, उसका तन पवित्र हो जाता है। (वह अपने अंदर से) माया का मोह दूर कर लेता है। वह मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के पवित्र गुण सदैव गाता है (जैसे जोगी नाद बजाता है) वह मनुष्य महिमा का (जैसे) नाद बजाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमल अम्रितु गुर ते पाइआ ॥ विचहु आपु मुआ तिथै मोहु न माइआ ॥ निरमल गिआनु धिआनु अति निरमलु निरमल बाणी मंनि वसावणिआ ॥३॥

मूलम्

निरमल अम्रितु गुर ते पाइआ ॥ विचहु आपु मुआ तिथै मोहु न माइआ ॥ निरमल गिआनु धिआनु अति निरमलु निरमल बाणी मंनि वसावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। ते = से। आपु = स्वै भाव।3।
अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु से पवित्र परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल प्राप्त कर लिया, उसके अंदर से स्वै भाव (अहम्) खत्म हो जाता है। उसके हृदय में माया का मोह नहीं रह जाता। (ज्यों ज्यों वह मनुष्य) परमात्मा के महिमा वाली पवित्र वाणी अपने मन में बसाता है, परमात्मा के साथ उसका पवित्र गहरा अपनापन बनता है, उसकी तवज्जो प्रभु चरणों से जुड़ती है जो उसे (और भी) पवित्र करती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो निरमलु सेवे सु निरमलु होवै ॥ हउमै मैलु गुर सबदे धोवै ॥ निरमल वाजै अनहद धुनि बाणी दरि सचै सोभा पावणिआ ॥४॥

मूलम्

जो निरमलु सेवे सु निरमलु होवै ॥ हउमै मैलु गुर सबदे धोवै ॥ निरमल वाजै अनहद धुनि बाणी दरि सचै सोभा पावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदे = शब्द के द्वारा। वाजै = बजती है। अनहद धुनि बाणी = वह वाणी जिस की धुनि एक रस होती रहती है। दरि = दर पर।4।
अर्थ: जो मनुष्य पवित्र परमात्मा का स्मरण करता है, वह (स्वयं भी) पवित्र हो जाता है। गुरु के शब्द की इनायत से वह (अपने मन में से) अहंकार की मैल धो लेता है। उस मनुष्य के अंदर एक रस लगन पैदा करने वाली महिमा की पवित्र वाणी अपना प्रभाव बनाए रखती है, और वह सदा स्थिर प्रभु के दर पे शोभा पाता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमल ते सभ निरमल होवै ॥ निरमलु मनूआ हरि सबदि परोवै ॥ निरमल नामि लगे बडभागी निरमलु नामि सुहावणिआ ॥५॥

मूलम्

निरमल ते सभ निरमल होवै ॥ निरमलु मनूआ हरि सबदि परोवै ॥ निरमल नामि लगे बडभागी निरमलु नामि सुहावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से, की छूह से। सबदि = शब्द से। नामि = नाम में।5।
अर्थ: पवित्र परमात्मा के (नाम की) छोह से सारी लोकाई पवित्र हो जाती है। (ज्यों ज्यों मनुष्य अपने मन को) परमात्मा के महिमा के शब्द में परोता है (त्यों त्यों उसका) मन पवित्र होता जाता है। बहुत भाग्यशाली मनुष्य ही प्रभु के नाम में लीन होते हैं। जो मनुष्य नाम में जुड़ता है, वह पवित्र जीवन वाला बन जाता है, वह सुंदर जीवन वाला बन जाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो निरमलु जो सबदे सोहै ॥ निरमल नामि मनु तनु मोहै ॥ सचि नामि मलु कदे न लागै मुखु ऊजलु सचु करावणिआ ॥६॥

मूलम्

सो निरमलु जो सबदे सोहै ॥ निरमल नामि मनु तनु मोहै ॥ सचि नामि मलु कदे न लागै मुखु ऊजलु सचु करावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोहै = सुंदर हो जाता है, सुंदर जीवन वाला बन जाता है। मोहै = मस्त हो जाता है। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम।6।
अर्थ: वही मनुष्य पवित्र जीवन वाला बनता है, जो गुरु के शब्द में जुड़ कर सुंदर जीवन वाला बनता है। पवित्र प्रभु के नाम में उसका मन मस्त रहता है, उसका तन (भाव, हरेक ज्ञान इंद्रियां) मस्त रहता है। सदा स्थिर परमात्मा के नाम में जुड़ने के कारण उसे (विकारों की) मैल कभी नहीं लगती। सदा स्थिर रहने वाला प्रभु उसका मुंह (लोक परलोक में) उज्जवल कर देता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनु मैला है दूजै भाइ ॥ मैला चउका मैलै थाइ ॥ मैला खाइ फिरि मैलु वधाए मनमुख मैलु दुखु पावणिआ ॥७॥

मूलम्

मनु मैला है दूजै भाइ ॥ मैला चउका मैलै थाइ ॥ मैला खाइ फिरि मैलु वधाए मनमुख मैलु दुखु पावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूजै भाइ = माया के मोह में, प्रभु के बिना किसी और के प्यार में। मैलै थाइ = मैली जगह में।7।
अर्थ: पर, जो मनुष्य माया के प्यार में मस्त रहता है, उसका मन (विकारों की मैल से) मैला (ही) रहता है। (वह लकीरें खीच खीच के बेशक स्वच्छ चौके बनाएं, पर उसके हृदय का) चौका मैला ही रहता है। (उसकी तवज्जो सदा) मैली जगह पर ही टिकी रहती है। वह मनुष्य (विकारों की) मैल को ही अपनी आत्मिक खुराक बनाए रखता है (जिस करके वह अपने अंदर) और-और (विकारों की) मैल बढ़ाता जाता है। (इस तरह) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (विकारों की) मैल (बढ़ा बढ़ा के) दुख सहता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैले निरमल सभि हुकमि सबाए ॥ से निरमल जो हरि साचे भाए ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि गुरमुखि मैलु चुकावणिआ ॥८॥१९॥२०॥

मूलम्

मैले निरमल सभि हुकमि सबाए ॥ से निरमल जो हरि साचे भाए ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि गुरमुखि मैलु चुकावणिआ ॥८॥१९॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे (जीव)। हुकमि = हुक्म अनुसार। सबाए = सारे। भाए = अच्छे लगे।8।
अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश?) विकारी जीव और पवित्र आत्मा जीव सारे परमात्मा के हुक्म में (ही चल रहे हैं)। जो लोग सदा स्थिर हरि को प्यारे लगने लगते हैं, वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।
हे नानक! जो मनुष्य गुरु के बताए रास्ते पर चलता है, उसके मन में परमात्मा का नाम बसता है, वह (अपने अंदर से विकार आदि की) मैल दूर कर लेता है।8।19।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ गोविंदु ऊजलु ऊजल हंसा ॥ मनु बाणी निरमल मेरी मनसा ॥ मनि ऊजल सदा मुख सोहहि अति ऊजल नामु धिआवणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ गोविंदु ऊजलु ऊजल हंसा ॥ मनु बाणी निरमल मेरी मनसा ॥ मनि ऊजल सदा मुख सोहहि अति ऊजल नामु धिआवणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मेरी मनसा = अपनत्व का फुरना। मनि = मन में, अंदर से। सहहि = सुंदर लगते हैं।1।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं वे बहुत पवित्र आत्मा के हो जाते हैं। उनके मन में (भी) शुद्ध (फुरने, विचार) उठते हैं उनके मुंह (भी) सुंदर दिखाई देते हैं। उनका मन पवित्र हो जाता है। वे पवित्र गोविंद का रूप हो जाते है, परमात्मा सरोवर के वह, (जैसे) सुंदर हंस बन जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी गोबिंद गुण गावणिआ ॥ गोबिदु गोबिदु कहै दिन राती गोबिद गुण सबदि सुणावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी गोबिंद गुण गावणिआ ॥ गोबिदु गोबिदु कहै दिन राती गोबिद गुण सबदि सुणावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = (गुरु के) शब्द से।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदा उस मनुष्य के सदके वारने जाता हूँ, जो गोबिंद के गुण सदा गाता है। जो दिन रात गोबिंद का नाम उचारता है। जो गुरु के शब्द द्वारा (और लोगों को भी) गोबिंद के गुण सुनाता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोबिदु गावहि सहजि सुभाए ॥ गुर कै भै ऊजल हउमै मलु जाए ॥ सदा अनंदि रहहि भगति करहि दिनु राती सुणि गोबिद गुण गावणिआ ॥२॥

मूलम्

गोबिदु गावहि सहजि सुभाए ॥ गुर कै भै ऊजल हउमै मलु जाए ॥ सदा अनंदि रहहि भगति करहि दिनु राती सुणि गोबिद गुण गावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = स्वच्छ प्यार में। भै = डर अदब में (रह के)। जाए = दूर हो जाती है। अनंदि = आनंद में। सुणि = सुन के।2।
अर्थ: जो मनुष्य गोबिंद (के गुण) आत्मिक अडोलता में (प्रभु के चरणों के) प्रेम में (टिक के) गाते हैं, गुरु के डर अदब में रह के वे (लोक परलोक में) सुर्ख-रू हो जाते हैं, (उनके अंदर से) अहम् की मैल दूर हो जाती है। वे दिन रात परमात्मा की भक्ति करते हैं, सदा आत्मिक आनंद में मगन रहते हैं। वे (औरों से) सुन के (भाव, वे गोबिंद के गुण सुनते भी हैं, और) गोबिंद के गुण गाते (भी) हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनूआ नाचै भगति द्रिड़ाए ॥ गुर कै सबदि मनै मनु मिलाए ॥ सचा तालु पूरे माइआ मोहु चुकाए सबदे निरति करावणिआ ॥३॥

मूलम्

मनूआ नाचै भगति द्रिड़ाए ॥ गुर कै सबदि मनै मनु मिलाए ॥ सचा तालु पूरे माइआ मोहु चुकाए सबदे निरति करावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनूआ = मन। नाचै = नाचता है, हुलारे में आता है। मनैमनु मिलाए = मन में ही मन को मिलाए रखता है, मन को रोके रखता है। तालु पूरे = राग व जोड़ी के वज़न के साथ मिला के हाथों की ताली मारता है अथवा पैरों का नाच करता है। निरति = नाच। सबदे = शब्द में ही।3।
अर्थ: ज्यों ज्यों मनुष्य भक्ति दृढ़ करता है उसका मन हुलारे में आता है। गुरु के शब्द द्वारा वह अपने मन को उधर ही टिकाए रखता है (बाहर भटकने से बचाए रखता है)। (जैसे कोई रास-धारिया रास डालने के समय राग व साज़ के साथ साथ मिल के नृत्य करता है, वैसे ही) वह मनुष्य (जैसे) सच्चा नाच करता है (जब वह अपने अंदर से) माया का मोह दूर करता है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह (आत्मिक) नृत्य करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊचा कूके तनहि पछाड़े ॥ माइआ मोहि जोहिआ जमकाले ॥ माइआ मोहु इसु मनहि नचाए अंतरि कपटु दुखु पावणिआ ॥४॥

मूलम्

ऊचा कूके तनहि पछाड़े ॥ माइआ मोहि जोहिआ जमकाले ॥ माइआ मोहु इसु मनहि नचाए अंतरि कपटु दुखु पावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तनहि = शरीर को। पछाड़े = (किसी चीज से) पटकाता है। मोहि = मोह में। जोहिआ = ताक (पहुँच) में रखा हुआ है। जमकाले = जमकाल ने, आत्मिक मौत ने। मनहि = मन को। कपटु = छल, ठगी।4।
अर्थ: पर, जो मनुष्य (रास आदि डालने के समय) ऊँचे-ऊँचे सुर में बोलता है और अपने शरीर को (किसी चीज से) पटकाता है। (वैसे वह) माया के मोह में (फंसा हुआ) है। उसे आत्मिक मौत ने अपनी निगाह (पहुँच, सीमा) में रखा हुआ है। उसके मन को माया का मोह ही नचा रहा है, उसके अंदर छल है। (सिर्फ बाहर ही रास आदि के वक्त प्रेम बताता है) और वह दुख पाता है।4।

[[0122]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि भगति जा आपि कराए ॥ तनु मनु राता सहजि सुभाए ॥ बाणी वजै सबदि वजाए गुरमुखि भगति थाइ पावणिआ ॥५॥

मूलम्

गुरमुखि भगति जा आपि कराए ॥ तनु मनु राता सहजि सुभाए ॥ बाणी वजै सबदि वजाए गुरमुखि भगति थाइ पावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा = जब। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रख के। राता = रंगा हुआ, मस्त। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाए = सुच्चे प्रेम में। वजै = प्रभाव डालती है। वजाए = (महिमा का बाजा) बजाता है। थाइ पावणिआ = स्वीकार करता है।5।
अर्थ: जब परमात्मा खुद किसी मनुष्य को गुरु की शरण में डाल के उससे अपनी भक्ति करवाता है, तो उसका मन उसका तन (अर्थात, हरेक ज्ञानेंद्रिय) आत्मिक अडोलता में प्रभु चरणों के प्रेम में रंगा जाता है। उसके अंदर महिमा की वाणी अपना प्रभाव डाले रखती है। वह गुरु के शब्द में जुड़ के (अपने अंदर से महिमा का, मानो,) बाजा बजाता है। गुरु का आसरा ले के की हुई भक्ति परमात्मा स्वीकार करता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु ताल पूरे वाजे वजाए ॥ ना को सुणे न मंनि वसाए ॥ माइआ कारणि पिड़ बंधि नाचै दूजै भाइ दुखु पावणिआ ॥६॥

मूलम्

बहु ताल पूरे वाजे वजाए ॥ ना को सुणे न मंनि वसाए ॥ माइआ कारणि पिड़ बंधि नाचै दूजै भाइ दुखु पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बहु = बहुते। मंनि = मनि, मन में। बंधि = बाँध के। दूजै भाइ = माया के मोह मे।6।
अर्थ: पर जो भी मनुष्य निरे साज बजाता है और साजों के साथ मिल के नाच करता है। वह (इस तरह) परमात्मा का नाम ना ही सुनता है और ना ही अपने मन में बसाता है। वह तो माया कामनी की खातिर मैदान बांध के नाचता है। माया के मोह में टिका रह के वह दुख ही सहता है (इस नाच से वह आत्मिक आनंद नहीं पा सकता)।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिसु अंतरि प्रीति लगै सो मुकता ॥ इंद्री वसि सच संजमि जुगता ॥ गुर कै सबदि सदा हरि धिआए एहा भगति हरि भावणिआ ॥७॥

मूलम्

जिसु अंतरि प्रीति लगै सो मुकता ॥ इंद्री वसि सच संजमि जुगता ॥ गुर कै सबदि सदा हरि धिआए एहा भगति हरि भावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकता = माया के बंधनों से मुक्त। वसि = वश में। संजमि = संजम में। जुगता = जुड़ा हुआ, टिका हुआ।7।
अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु चरणों की प्रीति पैदा होती है, वह माया के मोह से स्वतंत्र हो जाता है। वह अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है। वह मनुष्य सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण के संजम में टिका रहता है। गुरु के शब्द में जुड़ के वह सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है, और यही है भक्ति, जो परमात्मा को पसंद आती है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि भगति जुग चारे होई ॥ होरतु भगति न पाए कोई ॥ नानक नामु गुर भगती पाईऐ गुर चरणी चितु लावणिआ ॥८॥२०॥२१॥

मूलम्

गुरमुखि भगति जुग चारे होई ॥ होरतु भगति न पाए कोई ॥ नानक नामु गुर भगती पाईऐ गुर चरणी चितु लावणिआ ॥८॥२०॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जुग चारे = सदा ही। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रह के ही। होरतु = किसी और तरीके से।8।
अर्थ: परमात्मा की भक्ति गुरु के सन्मुख रहके ही हो सकती है, ये नियम सदा के लिए अटल है। (इसके बगैर) किसी भी और तरीके से कोई मनुष्य प्रभु की भक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। हे नानक! परमात्मा के नाम जपने की दाति गुरु में श्रद्धा रखने से ही मिल सकती है। वही मनुष्य नाम स्मरण कर सकता है, जो गुरु के चरणों में अपना चिक्त जोड़ता है।8।20।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ सचा सेवी सचु सालाही ॥ सचै नाइ दुखु कब ही नाही ॥ सुखदाता सेवनि सुखु पाइनि गुरमति मंनि वसावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ सचा सेवी सचु सालाही ॥ सचै नाइ दुखु कब ही नाही ॥ सुखदाता सेवनि सुखु पाइनि गुरमति मंनि वसावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेवी = मैं स्मरण करता हूँ। सालाही = मैं महिमा करता हूँ। सचु = सदा स्थिर प्रभु। सेवनि = स्मरण करते हैं। मंनि = मनि, मन में।1।
अर्थ: (हे भाई!) मैं सदा स्थिर प्रभु का स्मरण करता हूँ। मैं सदा स्थिर प्रभु की ही महिमा करता हूँ। सदा स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ने से कभी कोई दुख छू नहीं सकता। जो मनुष्य सब सुख देने वाले परमात्मा को स्मरण करते हैं, और गुरु की मति ले के उस प्रभु को अपने मन में बसाऐ रखते हैं, वे आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी सुख सहजि समाधि लगावणिआ ॥ जो हरि सेवहि से सदा सोहहि सोभा सुरति सुहावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी सुख सहजि समाधि लगावणिआ ॥ जो हरि सेवहि से सदा सोहहि सोभा सुरति सुहावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुख समाधि = आत्मिक आनंद की समाधि। सोहहि = अच्छे लगते हैं, सुहाने जीवन वाले बन जाते हैं।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं उन लोगों से सदके कुर्बान जाता हूं, जो आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक आनंद की समाधि लगाए रखते हैं। जो मनुष्य परमात्मा को स्मरण करते हैं, वे सदैव सुंदर जीवन वाले बने रहते हैं। उन्हें (लोक परलोक में) शोभा मिलती है, उनकी तवज्जो सदा सुहावनी टिकी रहती है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु को तेरा भगतु कहाए ॥ सेई भगत तेरै मनि भाए ॥ सचु बाणी तुधै सालाहनि रंगि राते भगति करावणिआ ॥२॥

मूलम्

सभु को तेरा भगतु कहाए ॥ सेई भगत तेरै मनि भाए ॥ सचु बाणी तुधै सालाहनि रंगि राते भगति करावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। सचु तधै = तुझ सदा स्थिर को। रंगि = प्रेम रंग में।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भगतु’ एकवचन है और ‘भगत’ बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे प्रभु! वैसे तो) हरेक मनुष्य तेरा भक्त कहलाता है, पर (असल) भक्त वही हैं जो तेरे मन को अच्छे लगते हैं। (हे प्रभु!) वह गुरु की वाणी के द्वारा तुझे सदा स्थिर रहने वाले को सलाहते हैं। वह तेरे प्रेम रंग में रंगे हुए तेरी भक्ति करते रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु को सचे हरि जीउ तेरा ॥ गुरमुखि मिलै ता चूकै फेरा ॥ जा तुधु भावै ता नाइ रचावहि तूं आपे नाउ जपावणिआ ॥३॥

मूलम्

सभु को सचे हरि जीउ तेरा ॥ गुरमुखि मिलै ता चूकै फेरा ॥ जा तुधु भावै ता नाइ रचावहि तूं आपे नाउ जपावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचे = हे सदा स्थिर प्रभु! चूकै = समाप्त हो जाता है। नाइ = नाम में। रचावहि = लीन करता रहता है।3।
अर्थ: हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभु जी! हरेक जीव तेरा (ही पैदा किया हुआ) है। (पर जब किसी को) गुरु की शरण पड़ के तेरा नाम मिलता है, तब (उसके जनम मरण का) चक्कर समाप्त होता है। जब तुझे अच्छा लगता है (जब तेरी रजा होती है), तब तू (जीवों को अपने) नाम में जोड़ता है। तू स्वयं ही (जीवों से अपना) नाम जपाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमती हरि मंनि वसाइआ ॥ हरखु सोगु सभु मोहु गवाइआ ॥ इकसु सिउ लिव लागी सद ही हरि नामु मंनि वसावणिआ ॥४॥

मूलम्

गुरमती हरि मंनि वसाइआ ॥ हरखु सोगु सभु मोहु गवाइआ ॥ इकसु सिउ लिव लागी सद ही हरि नामु मंनि वसावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरखु = खुशी। सोगु = ग़मी। लिव = लगन।4।
अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु की मति ले के परमात्मा (का नाम अपने) मन में बसा लिया, उसने खुशी (की लालसा) ग़मी (से घबराहट) खत्म कर ली। उसने (माया का) सारा मोह दूर कर लिया। उस मनुष्य की लगन सदा ही सिर्फ परमात्मा (के चरणों) से लगी रहती है। वह सदा हरि के नाम को अपने मन में बसाए रखता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगत रंगि राते सदा तेरै चाए ॥ नउ निधि नामु वसिआ मनि आए ॥ पूरै भागि सतिगुरु पाइआ सबदे मेलि मिलावणिआ ॥५॥

मूलम्

भगत रंगि राते सदा तेरै चाए ॥ नउ निधि नामु वसिआ मनि आए ॥ पूरै भागि सतिगुरु पाइआ सबदे मेलि मिलावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चाए = चाव, चाव से। नउ निधि = नौ खजाने। आइ = आ के।5।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे भक्त (बड़े) चाव से तेरे नाम रंग में रंगे रहते हैं। उनके मन में तेरा नाम आ बसता है (जो, मानो) नौ खजाने (हैं)। जिस मनुष्य ने पूरी किस्मत से गुरु को ढूँढ लिया, गुरु उसे (अपने) शब्द के द्वारा परमात्मा के चरणों में मिला देता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं दइआलु सदा सुखदाता ॥ तूं आपे मेलिहि गुरमुखि जाता ॥ तूं आपे देवहि नामु वडाई नामि रते सुखु पावणिआ ॥६॥

मूलम्

तूं दइआलु सदा सुखदाता ॥ तूं आपे मेलिहि गुरमुखि जाता ॥ तूं आपे देवहि नामु वडाई नामि रते सुखु पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाता = पहचाना जाता है। वडाई = इज्जत। नामि = नाम में।6।
अर्थ: हे प्रभु तू दया का स्रोत है। तू सदा (सब जीवों को) सुख देने वाला है। तू स्वयं ही (जीवों को गुरु के साथ) मिलाता है। गुरु की शरण पड़ कर जीव तेरे साथ गहरी सांझ डाल लेते हैं। हे प्रभु! तू स्वयं ही जीवों को अपना नाम बख्शता है, (नाम जपने की) इज्जत देता है। जो मनुष्य तेरे नाम (-रंग) में रंगे जाते हैं, वे आत्मिक आनंद लेते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा सदा साचे तुधु सालाही ॥ गुरमुखि जाता दूजा को नाही ॥ एकसु सिउ मनु रहिआ समाए मनि मंनिऐ मनहि मिलावणिआ ॥७॥

मूलम्

सदा सदा साचे तुधु सालाही ॥ गुरमुखि जाता दूजा को नाही ॥ एकसु सिउ मनु रहिआ समाए मनि मंनिऐ मनहि मिलावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साचे = हे सदा स्थिर प्रभु! मनि मंनिऐ = अगर मन मान जाए। मनहि = मन में ही।7।
अर्थ: हे सदा स्थिर रहने वाले प्रभु! (मेहर कर) मैं सदा ही सदा ही तेरी महिमा करता रहूँ। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह तेरे साथ सांझ डालता है। अन्य कोई (तेरे साथ सांझ) नहीं (डाल सकता)। (जो मनुष्य गुरु का आसरा लेता है उसका) मन सदा एक परमात्मा के साथ ही जुड़ा रहता है। अगर (मनुष्य का) मन (परमात्मा की याद में) मगन हो जाए, तो मनुष्य मन में मिला रहता है (भाव, बाहर नहीं भटकता)।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि होवै सो सालाहे ॥ साचे ठाकुर वेपरवाहे ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि गुर सबदी हरि मेलावणिआ ॥८॥२१॥२२॥

मूलम्

गुरमुखि होवै सो सालाहे ॥ साचे ठाकुर वेपरवाहे ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि गुर सबदी हरि मेलावणिआ ॥८॥२१॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सालाहे = महिमा करता है।8।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु का आसरा परना लेता है, वह सदा कायम रहने वाले बेपरवाह ठाकुर की महिमा करता है। हे नानक! उस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसता है। गुरु के शब्द की इनायत से वह मनुष्य परमात्मा (के चरणों) में लीन रहता है।8।21।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ तेरे भगत सोहहि साचै दरबारे ॥ गुर कै सबदि नामि सवारे ॥ सदा अनंदि रहहि दिनु राती गुण कहि गुणी समावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ तेरे भगत सोहहि साचै दरबारे ॥ गुर कै सबदि नामि सवारे ॥ सदा अनंदि रहहि दिनु राती गुण कहि गुणी समावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोहहि = शोभते हैं। साचै दरबार = सदा कायम रहने वाले दरबार में। अनंदि = आनंद में। कहि = कह के, उचार के। गुणी = गुणों के मालिक प्रभु में।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरी भक्ति करने वाले बंदेतेरे सदा स्थिर रहने वाले दरबार में शोभा पाते हैं। (हे भाई!) भक्त जन गुरु के शब्द द्वारा परमात्मा के नाम में जुड़ के सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं। वे सदा आत्मिक आनंद में टिके रहते हैं। वे दिन रात प्रभु के गुण उचार के गुणों के मालिक प्रभु में समाए रहते हैं।1।

[[0123]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी नामु सुणि मंनि वसावणिआ ॥ हरि जीउ सचा ऊचो ऊचा हउमै मारि मिलावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी नामु सुणि मंनि वसावणिआ ॥ हरि जीउ सचा ऊचो ऊचा हउमै मारि मिलावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। मंनि = मन में। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। मारि = मार के।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उन मनुष्यों से सदा कुर्बान जाता हूँ, जो परमात्मा का नाम सुन के उसे अपने मन में बसाए रखते हैं। वह परमात्मा सदा कायम रहने वाला है। (वह जीवों वाली ‘मैं मेरी’ से) बहुत ऊँचा है। भाग्यशाली जीव अहंकार को मार के (ही) उसमें लीन होते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जीउ साचा साची नाई ॥ गुर परसादी किसै मिलाई ॥ गुर सबदि मिलहि से विछुड़हि नाही सहजे सचि समावणिआ ॥२॥

मूलम्

हरि जीउ साचा साची नाई ॥ गुर परसादी किसै मिलाई ॥ गुर सबदि मिलहि से विछुड़हि नाही सहजे सचि समावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहने वाली। नाई = (स्ना = अरबी शब्द) बड़प्पन, बड़ाई। किसै = किसी विरले को। सबदि = शब्द से। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में।2।
अर्थ: परमात्मा सदा कायम रहने वाला है। उसका बड़प्पन सदा कायम रहने वाला है। गुरु की कृपा से किसी (विरले भाग्यशाली) को (प्रभु अपने चरणों में) मिलाता है। जो मनुष्य गुरु के शब्द के द्वारा (परमात्मा में) मिलते हैं, वह (उससे) बिछुड़ते नहीं। वे आत्मिक अडोलता में व सदा स्थिर प्रभु में लीन रहते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुझ ते बाहरि कछू न होइ ॥ तूं करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ आपे करे कराए करता गुरमति आपि मिलावणिआ ॥३॥

मूलम्

तुझ ते बाहरि कछू न होइ ॥ तूं करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ आपे करे कराए करता गुरमति आपि मिलावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। वेखहि = देखता है, संभाल करता है।3।
अर्थ: (हे भाई!) तुझसे (अर्थात, तेरे हुक्म से) बाहर कुछ नहीं हो सकता। तू (जगत) पैदा करके (उसकी) संभाल (भी) करता है। तू (हरेक के दिल की) जानता भी है।
(हे भाई!) कर्तार स्वयं ही (सब जीवों में व्यापक हो के सब कुछ) करता है (और जीवों से) करवाता है। गुरु की मति के द्वारा स्वयं ही जीवों को अपने में मिलाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामणि गुणवंती हरि पाए ॥ भै भाइ सीगारु बणाए ॥ सतिगुरु सेवि सदा सोहागणि सच उपदेसि समावणिआ ॥४॥

मूलम्

कामणि गुणवंती हरि पाए ॥ भै भाइ सीगारु बणाए ॥ सतिगुरु सेवि सदा सोहागणि सच उपदेसि समावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कामणि = कामिनी, स्त्री। भै = डर अदब में। भाइ = प्रेम में। सेवि = सेव के, आसरा बन के। सचु उपदेसु = सदा स्थिर प्रभु के साथ मिलाने वाले उपदेश में।4।
अर्थ: जो जीव-स्त्री परमात्मा के गुण अपने अंदर बसाती है वह परमात्मा को मिल पड़ती है। परमात्मा के डर अदब में रह के, परमात्मा के प्रेम में जुड़ के वह (परमात्मा के गुणों को अपने जीवन का) श्रृंगार बनाती है। वह गुरु का आसरा परना बन के सदा के लिए पति प्रभु वाली बन जाती है। वह प्रभु मिलाप वाले गुर-उपदेश में लीन रहती है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबदु विसारनि तिना ठउरु न ठाउ ॥ भ्रमि भूले जिउ सुंञै घरि काउ ॥ हलतु पलतु तिनी दोवै गवाए दुखे दुखि विहावणिआ ॥५॥

मूलम्

सबदु विसारनि तिना ठउरु न ठाउ ॥ भ्रमि भूले जिउ सुंञै घरि काउ ॥ हलतु पलतु तिनी दोवै गवाए दुखे दुखि विहावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भ्रमि = भटकना में पड़ के। भूले = कुमार्ग पर पड़ के। घरि = घर में। काउ = कौआ। हलतु = यह लोक। पलतु = परलोक। दुखे = दुखि ही, दुख में ही।5।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शबदको भुला देते हैं उन्हें (परमात्मा की हजूरी में) कोई जगह ठिकाना नहीं मिलता। वह (माया मोह की) भटकन में पड़ कर कुमार्ग पर पड़े रहते हैं। जैसे कोई कौए को किसी उजड़े घर में (खाने के लिए कुछ भी नहीं मिल सकता, वैसे ही गुरु शब्द को भुलाने वाले लोग आत्मिक जीवन के पक्ष से खाली हाथ ही रहते हैं)। ऐसे मनुष्य इस लोक व परलोक दोनों को बर्बाद कर लेते हैं, उनकी उम्र सदा दुख में ही व्यतीत होती है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लिखदिआ लिखदिआ कागद मसु खोई ॥ दूजै भाइ सुखु पाए न कोई ॥ कूड़ु लिखहि तै कूड़ु कमावहि जलि जावहि कूड़ि चितु लावणिआ ॥६॥

मूलम्

लिखदिआ लिखदिआ कागद मसु खोई ॥ दूजै भाइ सुखु पाए न कोई ॥ कूड़ु लिखहि तै कूड़ु कमावहि जलि जावहि कूड़ि चितु लावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: म्सु = स्याही। खोई = खत्म कर ली। दूजै भाइ = माया के प्यार में। तै = और। जलि जावहि = जल जाते हैं, खिझते हैं। कूड़ि = झूठ में, नाशवान के मोह में।6।
अर्थ: (माया के आँगन में माया के लेखे) लिखते लिखते (अनेक) कागज व (बेअंत) स्याही खत्म कर लेते हैं। पर माया के मोह में फंसे रह के किसी को कभी आत्मिक आनंद नहीं मिला। वे माया का ही लेखा लिखते रहते हैं, और माया ही एकत्र करते रहते हैं। वे सदा खिझते ही रहते हैं क्योंकि वे नाशवान माया में ही अपना मन जोड़े रखते हैं।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि सचो सचु लिखहि वीचारु ॥ से जन सचे पावहि मोख दुआरु ॥ सचु कागदु कलम मसवाणी सचु लिखि सचि समावणिआ ॥७॥

मूलम्

गुरमुखि सचो सचु लिखहि वीचारु ॥ से जन सचे पावहि मोख दुआरु ॥ सचु कागदु कलम मसवाणी सचु लिखि सचि समावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचे = सदा स्थिर प्रभु के रूप। मोख दुआरु = (माया के मोह से) खलासी का दरवाजा। सचु = सफल। मसवाणी = दवात। लिखि = लिख के।7।
अर्थ: गुरु की शरण में रहने वाले मनुष्य सदा स्थिर प्रभु का नाम लिखते है। परमात्मा के गुणों के विचार लिखते हैं। वे मनुष्य सदा स्थिर प्रभु का रूप हो जाते हैं, वे माया के मोह से विरक्त रहने का राह ढूँढ लेते हैं। उन मनुष्यों के कागज सफल हैं, उनकी कलम सफल हैं, दवात भी सफल है, जो सदा स्थिर प्रभु का नाम लिख लिख के सदा स्थिर प्रभु में ही लीन रहते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा प्रभु अंतरि बैठा वेखै ॥ गुर परसादी मिलै सोई जनु लेखै ॥ नानक नामु मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥२२॥२३॥

मूलम्

मेरा प्रभु अंतरि बैठा वेखै ॥ गुर परसादी मिलै सोई जनु लेखै ॥ नानक नामु मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥२२॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंतरि = (जीवों के) अंदर। लेखै = लेखे में, स्वीकार। ते = सै।8।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा परमात्मा (सब जीवों के) अंदर बैठा (हरेक की) संभाल करता है। जो मनुष्य गुरु की कृपा से उस परमात्मा के चरणों में जुड़ता है, वही मनुष्य परमात्मा की नजरों में स्वीकार होता है।
हे नानक! परमात्मा का नाम पूरे गुरु के पास से ही मिलता है। जिसे ये नाम मिल जाता है, वह (परमात्मा की हजूरी में) आदर प्राप्त करता है।8।22।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ आतम राम परगासु गुर ते होवै ॥ हउमै मैलु लागी गुर सबदी खोवै ॥ मनु निरमलु अनदिनु भगती राता भगति करे हरि पावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ आतम राम परगासु गुर ते होवै ॥ हउमै मैलु लागी गुर सबदी खोवै ॥ मनु निरमलु अनदिनु भगती राता भगति करे हरि पावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आतम राम = सभी आतमाओं में व्यापक प्रभु। परगासु = प्रकाश, आत्मिक रोशनी। आतम राम परगासु = इस सच्चाई की समझ कि परमात्मा सब जीवों में व्यापक है। ते = से। खोवै = दूर करता है। करे = कर के।1।
अर्थ: गुरु से ही मनुष्य को ये प्रकाश हो सकता है कि परमात्मा की ज्योति सब में व्यापक है। गुरु के शब्द द्वारा ही मनुष्य (मन को) लगी हुई मैल धो सकता है। जिस मनुष्य का मन मल-रहित हो जाता है वह प्रभु की भक्ति में रंगा जाता है। भक्ति कर करके वह परमात्मा (का मिलाप) प्राप्त कर लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी आपि भगति करनि अवरा भगति करावणिआ ॥ तिना भगत जना कउ सद नमसकारु कीजै जो अनदिनु हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी आपि भगति करनि अवरा भगति करावणिआ ॥ तिना भगत जना कउ सद नमसकारु कीजै जो अनदिनु हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करनि = करते हैं। कउ = को। सद = सदा। कीजै = करनी चाहिए। अनदिनु = हर रोज।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उन मनुष्यों से सदके कुर्बान जाता हूँ, जों स्वयं परमात्मा की भक्ति करते हैं तथा औरों से भी भक्ति करवाते हैं। ऐसे भगतो के आगे सदा सिर झुकाना चाहिए जो हर रोज परमात्मा के गुण गाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करता कारणु कराए ॥ जितु भावै तितु कारै लाए ॥ पूरै भागि गुर सेवा होवै गुर सेवा ते सुखु पावणिआ ॥२॥

मूलम्

आपे करता कारणु कराए ॥ जितु भावै तितु कारै लाए ॥ पूरै भागि गुर सेवा होवै गुर सेवा ते सुखु पावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कारणु = (भक्ति करने का) सबब। जितु कारै = जिस काम में। तितु = उस में।2।
अर्थ: कर्तार स्वयं ही (जीवों से भक्ति करवाने का) सबब पैदा करता है (क्योंकि) वह जीवों को उस काम में लगाता है जिस में लगाना उसे अच्छा लगता है। खुश किस्मती से ही जीव से गुरु का आसरा लिया जा सकता है। गुरु का आसरा ले कर (भाग्यशाली) मनुष्य आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मरि मरि जीवै ता किछु पाए ॥ गुर परसादी हरि मंनि वसाए ॥ सदा मुकतु हरि मंनि वसाए सहजे सहजि समावणिआ ॥३॥

मूलम्

मरि मरि जीवै ता किछु पाए ॥ गुर परसादी हरि मंनि वसाए ॥ सदा मुकतु हरि मंनि वसाए सहजे सहजि समावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरि = (अहम्) मार के। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। किछु = (भक्ति का) कुछ (आनंद)। मंनि = मनि, मन में। सहजे = सहज ही, आत्मिक अडोलता में ही।3।
अर्थ: जब मनुष्य बारंबार प्रयत्न करके अहंकार को मारता है, तो आत्मिक जीवन हासिल करता है। तबवह परमात्मा की भक्ति का कुछ आनंद लेता है। (तब) गुरु की कृपा से वह परमात्मा को अपने मन में बसाता है। जो मनुष्य परमात्मा को अपने मन में बसाए रखता है, वह सदैव (अहम् आदि विकारों से) आजाद रहता है। वह सदा आत्किम अडोलता में लीन रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु करम कमावै मुकति न पाए ॥ देसंतरु भवै दूजै भाइ खुआए ॥ बिरथा जनमु गवाइआ कपटी बिनु सबदै दुखु पावणिआ ॥४॥

मूलम्

बहु करम कमावै मुकति न पाए ॥ देसंतरु भवै दूजै भाइ खुआए ॥ बिरथा जनमु गवाइआ कपटी बिनु सबदै दुखु पावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकति = (अहम् से) खलासी। देसंतरु = देशांतर, और-और देश। खुआए = गुमराह में हुआ रहता है। कपटी = छल करने वाले ने।4।
अर्थ: (भक्ति के बिना) अगर मनुष्य अनेक और (निहित धार्मिक) कर्म करता है (तो भी विकारों से) मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। अगर देश-देशांतरों का रटन करता फिरे तो भी माया के मोह में रह के कुमार्ग पर पड़ा रहता है। (असल में वह मनुष्य छल ही करता है और) छली मनुष्य अपना मानव जीवन व्यर्थ गवाता है। गुरु के शब्द (का आसरा लिए) बिना वह दुख ही पाता रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ गुर परसादी परम पदु पाए ॥ सतिगुरु आपे मेलि मिलाए मिलि प्रीतम सुखु पावणिआ ॥५॥

मूलम्

धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ गुर परसादी परम पदु पाए ॥ सतिगुरु आपे मेलि मिलाए मिलि प्रीतम सुखु पावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धावतु = (विकारों की ओर) दौड़ता मन। ठाकि = (विकारों की ओर से) रोक के। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। मेलि = प्रभु मिलाप में, प्रभु के चरणों में। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के।5।
अर्थ: जो मनुष्य (विकारों की तरफ) दौड़ते मन की रक्षा करता है (इसे विकारों से) रोक के रखता है। वह गुरु की कृपा से सबसे ऊँचा दर्जा हासिल कर लेता है। गुरु स्वयं ही उसे परमात्मा के चरणों में मिला देता है। प्रीतम प्रभु को मिल के वह आत्मिक आनंद भोगता है।5।

[[0124]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

इकि कूड़ि लागे कूड़े फल पाए ॥ दूजै भाइ बिरथा जनमु गवाए ॥ आपि डुबे सगले कुल डोबे कूड़ु बोलि बिखु खावणिआ ॥६॥

मूलम्

इकि कूड़ि लागे कूड़े फल पाए ॥ दूजै भाइ बिरथा जनमु गवाए ॥ आपि डुबे सगले कुल डोबे कूड़ु बोलि बिखु खावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कूड़ि = झूठ में, नाशवान मोह में। बोलि = बोल के। बिखु = जहर।6।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कई जीव ऐसे हैं जो नाशवान जगत के मोह में ही फंसे रहते हैं। वे फल भी वही प्राप्त करते हैं जिनसे साथ टूट जाता है (और इस तरह सदा) माया के मोह में ही रह के वे अपना मानव जनम व्यर्थ गवा लेते हैं। वे स्वयं माया के मोह में गलतान रहते हैं, अपनी सारी कुलों को उस मोह में ही डुबोए रखते हैं, वह सदा माया के मोह की ही बातें करके उस जहर को अपनी आत्मिक खुराक बनाए रखते हैं (जो उनकी आत्मिक मौत का कारण बनता है)।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु तन महि मनु को गुरमुखि देखै ॥ भाइ भगति जा हउमै सोखै ॥ सिध साधिक मोनिधारी रहे लिव लाइ तिन भी तन महि मनु न दिखावणिआ ॥७॥

मूलम्

इसु तन महि मनु को गुरमुखि देखै ॥ भाइ भगति जा हउमै सोखै ॥ सिध साधिक मोनिधारी रहे लिव लाइ तिन भी तन महि मनु न दिखावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = कोई विरला। गुरमुखि = गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलने वाला। भाइ = प्रेम से। जा = जब। सोखै = सुखाता है। सिध = योग साधना में मगन योगी। साधिक = योग साधना करने वाले। मोनिधारी = सदा चुप रहने वाले साधु।7।
अर्थ: (आम तौर पे हरेक मनुष्य माया के पदार्थों के पीछे ही भटकता फिरता है) गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई विरला मनुष्य अपने मन को अपने इस शरीर के अंदर ही टिका हुआ देखता है। (पर ये तब ही होता है) जब वह प्रभु के प्रेम में प्रभु की भक्ति में टिक के (अपने अंदर से) अहंकार को खत्म कर देता है। पहुँचे हुए योगी, योग साधना करने वाले योगी, मौनधारी साधु तवज्जो जोड़ने का यत्न करते हैं, पर वे भी अपने मन को शरीर के अंदर टिका हुआ नहीं देख सकते।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि कराए करता सोई ॥ होरु कि करे कीतै किआ होई ॥ नानक जिसु नामु देवै सो लेवै नामो मंनि वसावणिआ ॥८॥२३॥२४॥

मूलम्

आपि कराए करता सोई ॥ होरु कि करे कीतै किआ होई ॥ नानक जिसु नामु देवै सो लेवै नामो मंनि वसावणिआ ॥८॥२३॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीते = पैदा किए हुए जीव से। किआ = क्या? नामो = नाम ही।8।
अर्थ: (पर, जीवों के भी क्या वश? मन को काबू करने का और भक्ति में जुड़ने का उद्यम) वह कर्तार स्वयं ही (जीवों से) करवाता है। (अपने आप) कोई जीव क्या कर सकता है? कर्तार के पैदा किए हुए इस जीव द्वारा किए गए अपने उद्यम से कुछ नहीं हो सकता।
हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा अपने नाम की दात देता है, वही नाम स्मरण कर सकता है। उस सदा प्रभु के नाम को ही अपने मन में बसाए रखता है।8।23।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ इसु गुफा महि अखुट भंडारा ॥ तिसु विचि वसै हरि अलख अपारा ॥ आपे गुपतु परगटु है आपे गुर सबदी आपु वंञावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ इसु गुफा महि अखुट भंडारा ॥ तिसु विचि वसै हरि अलख अपारा ॥ आपे गुपतु परगटु है आपे गुर सबदी आपु वंञावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अखुट = नाखत्म होने वाला। भण्डार = खजाने। तिसु विचि = इस शरीर गुफा में। अलख = अदृष्ट। आपु = स्वै भाव।1।
अर्थ: (योगी पहाड़ों की गुफाओं में बैठ के आत्मिक शक्तियां प्राप्त करने के यत्न करते हैं, पर) इस शरीर गुफा में (आत्मिक गुणों के इतने) खजाने (भरे हुए हैं जो) खत्म होने वाले नहीं। (क्योंकि सारे गुणों का मालिक) अदृष्ट व बेअंत हरि इस शरीर में ही बसता है। जिस मनुष्यों ने गुरु के शब्द में लीन हो के (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लिया उन्हें दिखाई देने लग पड़ता है कि परमात्मा स्वयं ही हर जगह मौजूद है। किसी को प्रत्यक्ष नजर आ जाता है और किसी को छुपा हुआ ही प्रतीत होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी अम्रित नामु मंनि वसावणिआ ॥ अम्रित नामु महा रसु मीठा गुरमती अम्रितु पीआवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी अम्रित नामु मंनि वसावणिआ ॥ अम्रित नामु महा रसु मीठा गुरमती अम्रितु पीआवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला जल। मंनि = मनि, मन में। महा रसु = बड़े रस वाला।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं उनसे सदके जाता हूँ जो आत्मिक जीवन देने वालेहरी के नाम को अपने मन में बसाते हैं। आत्मिक जीवन दाता हरि नाम अत्यंत रसीला व मधुर है, मीठा है। गुरु की मति पर चल कर ही ये नाम अंमृत पिया जा सकता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै मारि बजर कपाट खुलाइआ ॥ नामु अमोलकु गुर परसादी पाइआ ॥ बिनु सबदै नामु न पाए कोई गुर किरपा मंनि वसावणिआ ॥२॥

मूलम्

हउमै मारि बजर कपाट खुलाइआ ॥ नामु अमोलकु गुर परसादी पाइआ ॥ बिनु सबदै नामु न पाए कोई गुर किरपा मंनि वसावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बजर कपाट = कड़े मजबूत भिक्ति पर्दे।2।
अर्थ: जिस मनुष्य ने (अपने अंदर से) अहंकार को मार के (अहम् के) कठोर कपाट खोल लिए हैं, उसने गुरु की कृपा से वह नाम अंमृत (अंदर ही) ढूँढ लिया है जो किसी (दुनियावी पदार्थ के बदले) मोल में नहीं मिलता। गुरु के शब्द (में जुड़े) बगैर कोई मनुष्य नाम अंमृत प्राप्त नहीं कर सकता। गुरु की कृपा से ही (हरि नाम) मन में बसाया जा सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर गिआन अंजनु सचु नेत्री पाइआ ॥ अंतरि चानणु अगिआनु अंधेरु गवाइआ ॥ जोती जोति मिली मनु मानिआ हरि दरि सोभा पावणिआ ॥३॥

मूलम्

गुर गिआन अंजनु सचु नेत्री पाइआ ॥ अंतरि चानणु अगिआनु अंधेरु गवाइआ ॥ जोती जोति मिली मनु मानिआ हरि दरि सोभा पावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंजनु = सुर्मा। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। मानिआ = पतीज गया।3।
अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु से ज्ञान का अंजन (सुर्मा) (अपनी आत्मिक) आँखों में डाला है, उस के अंदर (आत्मिक) प्रकाश हो गया है। उसने (अपने अंदर से) अज्ञान अंधेरा दूर कर लिया है। उसकी तवज्जो प्रभु की ज्योति में लीन रहती है। उसका मन (प्रभु की याद में) मगन हो जाता है। वह मनुष्य परमात्मा के दर पे शोभा हासिल करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरीरहु भालणि को बाहरि जाए ॥ नामु न लहै बहुतु वेगारि दुखु पाए ॥ मनमुख अंधे सूझै नाही फिरि घिरि आइ गुरमुखि वथु पावणिआ ॥४॥

मूलम्

सरीरहु भालणि को बाहरि जाए ॥ नामु न लहै बहुतु वेगारि दुखु पाए ॥ मनमुख अंधे सूझै नाही फिरि घिरि आइ गुरमुखि वथु पावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरीरहु बाहरि = शरीर से बाहर (जंगलों, पहाड़ों की गुफाओं में)। फिरि घिरि = आखिर थक के। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। वथु = नाम वस्तु।4।
अर्थ: (पर यदि कोई मनुष्य अपने) शरीर के बाहर (अर्थात जंगलों में, पहाड़ों की गुफाओं में इस आत्मिक रोशनी को) तलाशने जाता है, उसे (ये आत्मिक प्रकाश देने वाला) हरि नाम तो नहीं मिलता, (उल्टा) वह (बेगार में फंसे किसी) बेगारी की तरह दुख ही पाता है। अपने मन के पीछे चलने वाले माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य को समझ नहीं पड़ती। (जंगलों पहाड़ों में खुआर हो हो के, भटक के) आखिर वह आ के गुरु की शरण पड़ के ही नाम अंमृत प्राप्त करता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर परसादी सचा हरि पाए ॥ मनि तनि वेखै हउमै मैलु जाए ॥ बैसि सुथानि सद हरि गुण गावै सचै सबदि समावणिआ ॥५॥

मूलम्

गुर परसादी सचा हरि पाए ॥ मनि तनि वेखै हउमै मैलु जाए ॥ बैसि सुथानि सद हरि गुण गावै सचै सबदि समावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचा = सच्चा, सदा स्थिर रहने वाला। मनि = मन में। तनि = तन में। बैसि = बैठ के। सुथानि = श्रेष्ठ स्थान में। सचै = सदा स्थिर प्रभु में। सबदि = शब्द द्वारा।5।
अर्थ: जब मनुष्य गुरु की कृपा से सदा स्थिर हरि का मिलाप प्राप्त करता है, तो वह अपने मन में (ही) अपने तन में (ही) उसका दर्शन कर लेता है, और उसके अंदर से अहंकार की मैल दूर हो जाती है। अपने शुद्ध हुए हृदय में ही बैठ के (भटकना रहित हो के) वह सदा परमात्मा के गुण गाता है, गुरु के शब्द द्वारा सदा स्थिर प्रभु में समाया रहता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नउ दर ठाके धावतु रहाए ॥ दसवै निज घरि वासा पाए ॥ ओथै अनहद सबद वजहि दिनु राती गुरमती सबदु सुणावणिआ ॥६॥

मूलम्

नउ दर ठाके धावतु रहाए ॥ दसवै निज घरि वासा पाए ॥ ओथै अनहद सबद वजहि दिनु राती गुरमती सबदु सुणावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नउ दर = नौ गोलकें। धावत = दौड़ता, भटकता मन। ठाके = रोकता, वरजे। दसवै = दसवें दर में, चिदाकाश में, दिमाग में। निज घरि = अपने घर में। अनहद = अनाहत, बिना बजाए बजने वाले, एक रस।6।
अर्थ: जिस मनुष्य ने अपने नौ दरवाजे (नौ गोलकें) (विकारों के प्रभाव की ओर से) बंद कर लिए हैं, जिस ने (विकारों की ओर) दौड़ता अपना मन काबू कर लिया है। उसने अपने चिक्त आकाश के द्वारा (अपनी ऊँची हुई अक़्ल के द्वारा) अपने असल घर में (प्रभु चरणों में) निवास प्राप्त कर लिया है। उस अवस्था में पहुँचे मनुष्य के अंदर (हृदय में) सदा एक रस परमात्माकी महिमा के बोल अपना प्रभाव डाले रखते हैं। वह दिन रात अपने गुरु की मति पर चल के महिमा की वाणी को ही अपनी तवज्जो में टिकाए रखता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सबदै अंतरि आनेरा ॥ न वसतु लहै न चूकै फेरा ॥ सतिगुर हथि कुंजी होरतु दरु खुलै नाही गुरु पूरै भागि मिलावणिआ ॥७॥

मूलम्

बिनु सबदै अंतरि आनेरा ॥ न वसतु लहै न चूकै फेरा ॥ सतिगुर हथि कुंजी होरतु दरु खुलै नाही गुरु पूरै भागि मिलावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हथि = हाथ में। होरतु = किसी और तरीके से। दरु = दरवाजा।7।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘दर’, ‘दरु’, तथा ‘दरि’ में अंतर स्मरणीय है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: गुरु के शब्द के बिना मनुष्य के हृदय में माया के मोह का अंधकार बना रहता है। जिसके कारण उसे अपने अंदरनाम पदार्थ नहीं मिलता और उसके जनम मरन का चक्कर बना रहता है। (मोह के बज्र किवाड़ खोलने की) कुँजी गुरु के हाथ में ही है। किसी और तरीके से वह दरवाजा नहीं खुलता। और, गुरु भी बहुत किस्मत से ही मिलता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुपतु परगटु तूं सभनी थाई ॥ गुर परसादी मिलि सोझी पाई ॥ नानक नामु सलाहि सदा तूं गुरमुखि मंनि वसावणिआ ॥८॥२४॥२५॥

मूलम्

गुपतु परगटु तूं सभनी थाई ॥ गुर परसादी मिलि सोझी पाई ॥ नानक नामु सलाहि सदा तूं गुरमुखि मंनि वसावणिआ ॥८॥२४॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुर परसादी = गुरु की कृपा से।8।
अर्थ: हे प्रभु! तू सब जगह मौजूद है। (किसी को) प्रत्यक्ष (दिखाई देता है और किसी के लिए) छुपा हुआ है। (तेरे सर्व-व्यापक होने की) समझ गुरु की कृपा से (तुझे) मिल के होती है।
हे नानक! तू (गुरु की शरण पड़ कर) सदा परमात्मा के नाम की महिमा करता रह। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभु के नाम को अपने मन में बसा लेता है।8।24।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ गुरमुखि मिलै मिलाए आपे ॥ कालु न जोहै दुखु न संतापे ॥ हउमै मारि बंधन सभ तोड़ै गुरमुखि सबदि सुहावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ गुरमुखि मिलै मिलाए आपे ॥ कालु न जोहै दुखु न संतापे ॥ हउमै मारि बंधन सभ तोड़ै गुरमुखि सबदि सुहावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु की ओर मुंह करने से, गुरु की शरण पड़ने से। कालु = आत्मिक मौत। जोहै = देखती। सबदि = शब्द में जुड़ के। सुहावणिआ = सुहाने जीवन वाला बन जाता है।1।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु का आसरा परना लेता है, उसे परमात्मा मिल जाता है। परमात्मा स्वयं ही उसे गुरु मिलाता है। (ऐसे मनुष्य को) आत्मिक मौत अपनी नजर में नहीं रखती, उसे कोई दुख-कष्ट सता नहीं सकता। गुरु के आसरे रहने वाला मनुष्य (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके (माया के मोह के) सारे बंधन तोड़ लेता है। गुरु के शब्द द्वारा उसका जीवन खूबसूरत बन जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी हरि हरि नामि सुहावणिआ ॥ गुरमुखि गावै गुरमुखि नाचै हरि सेती चितु लावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी हरि हरि नामि सुहावणिआ ॥ गुरमुखि गावै गुरमुखि नाचै हरि सेती चितु लावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नामि = नाम से। नाचै = हुलारे में आता है।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उस मनुष्य से सदा सदके जाता हूँ, जो परमात्मा के नाम में जुड़ के अपना जीवन सुंदर बना लेता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभु के गुण गाता रहता है। उसका मन (नाम स्मरण के) हिलोरों में आया रहता है। गुरु का आसरा रखने वाला मनुष्य परमात्मा (के चरणों) के साथ अपना मन जोड़े रखता है।1। रहाउ।

[[0125]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि जीवै मरै परवाणु ॥ आरजा न छीजै सबदु पछाणु ॥ गुरमुखि मरै न कालु न खाए गुरमुखि सचि समावणिआ ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि जीवै मरै परवाणु ॥ आरजा न छीजै सबदु पछाणु ॥ गुरमुखि मरै न कालु न खाए गुरमुखि सचि समावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है। मरै = (अहंकार की ओर से) मर जाता है, अहम् मार लेता है। आरजा = उम्र। न छीजै = व्यर्थ नहीं जाती। पछाणु = पहचान, साथी। मरै न = आत्मिक मौत नहीं होती। कालु = आत्मिक मौत।2।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है और अहंकार की तरफ से मरा रहता है (इस तरह वह प्रभु की नजरों में) स्वीकार हो जाता है। उसकी उम्र व्यर्थ नहीं जाती। गुरु का शब्द उसका जीवन साथी बना रहता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक मौत से बचा रहता है। आत्मिक मौत उस पर कोई जोर नहीं डाल सकती। वह सदा स्थिर प्रभु की याद में लीन रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि हरि दरि सोभा पाए ॥ गुरमुखि विचहु आपु गवाए ॥ आपि तरै कुल सगले तारे गुरमुखि जनमु सवारणिआ ॥३॥

मूलम्

गुरमुखि हरि दरि सोभा पाए ॥ गुरमुखि विचहु आपु गवाए ॥ आपि तरै कुल सगले तारे गुरमुखि जनमु सवारणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दरि = दर पे। आपु = स्वै भाव।3।
अर्थ: गुरु के आसरे परने रहने वाला मनुष्य परमात्मा के दर पर शोभा प्राप्त करता है। वह अपने अंदर से स्वै भाव दूर किए रखता है। वह स्वयं संसार समुंदर (के विकारों से) पार लांघ जाता है। अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेता है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य अपना जीवन सवार लेता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि दुखु कदे न लगै सरीरि ॥ गुरमुखि हउमै चूकै पीर ॥ गुरमुखि मनु निरमलु फिरि मैलु न लागै गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥४॥

मूलम्

गुरमुखि दुखु कदे न लगै सरीरि ॥ गुरमुखि हउमै चूकै पीर ॥ गुरमुखि मनु निरमलु फिरि मैलु न लागै गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरीरि = शरीर में। पीर = पीड़। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण लेता है, उसके शरीर में कभी हउमै का रोग नहीं लगता। उसके अंदर से अहंकार की पीड़ा समाप्त हो जाती है। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का मन अहम् की मैल से साफ रहता है, (गुरु का आसरा लेने के कारण उसको) फिर (अहंकार की मैल) नही चिपकती, वह आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि नामु मिलै वडिआई ॥ गुरमुखि गुण गावै सोभा पाई ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती गुरमुखि सबदु करावणिआ ॥५॥

मूलम्

गुरमुखि नामु मिलै वडिआई ॥ गुरमुखि गुण गावै सोभा पाई ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती गुरमुखि सबदु करावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनंदि = आनंद में। सबदु = महिमा की कार।5।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाता है। (लोक परलोक में) आदर मिलता है। वह परमात्मा के गुण गाता है और (हर जगह) शोभा कमाता है। गुरु के दर पे टिके रहने के कारण मनुष्य सदा दिन रात आत्मिक आनंद में मगन रहता है। वह सदा परमात्मा की महिमा ही करता रहता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि अनदिनु सबदे राता ॥ गुरमुखि जुग चारे है जाता ॥ गुरमुखि गुण गावै सदा निरमलु सबदे भगति करावणिआ ॥६॥

मूलम्

गुरमुखि अनदिनु सबदे राता ॥ गुरमुखि जुग चारे है जाता ॥ गुरमुखि गुण गावै सदा निरमलु सबदे भगति करावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। जुग चारे = चारों युगों में, सदा ही।6।
अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य हर वक्त गुरु के शब्द में रंगा रहता है। सदा से ही ये नियम है कि गुरु के दर पर रहने वाला मनुष्य प्रभु के साथ गहरी सांझ बनाए रखता है। वह सदा परमात्मा के गुण गाता है और पवित्र जीवन वाला बना रहता है। गुरु के शब्द द्वारा वह परमात्मा की भक्ति करता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाझु गुरू है अंध अंधारा ॥ जमकालि गरठे करहि पुकारा ॥ अनदिनु रोगी बिसटा के कीड़े बिसटा महि दुखु पावणिआ ॥७॥

मूलम्

बाझु गुरू है अंध अंधारा ॥ जमकालि गरठे करहि पुकारा ॥ अनदिनु रोगी बिसटा के कीड़े बिसटा महि दुखु पावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंध अंधारा = माया के मोह का घोर अंधकार। जमकालि = जमकाल ने, आत्मिक मौत ने। गरठे = ग्रसे हुए, जकड़े हुए।7।
अर्थ: गुरु की शरण पड़े बिना (माया के मोह का) घोर अंधेरा छाया रहता है। (इस अंधकार के कारण) जिन्हें आत्मिक मौत ने ग्रस लिया होता है वे (दुखी हो हो के) पुकारें करते रहते हैं (दुखों के गिले करते हैं)। वे हर वक्त विकारों के रोग में फंसे रहते हैं और दुख सहते रहते हैं। जैसे गंदगी के कीड़े गंदगी में ही कुरबल कुरबल करते रहते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि आपे करे कराए ॥ गुरमुखि हिरदै वुठा आपि आए ॥ नानक नामि मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥२५॥२६॥

मूलम्

गुरमुखि आपे करे कराए ॥ गुरमुखि हिरदै वुठा आपि आए ॥ नानक नामि मिलै वडिआई पूरे गुर ते पावणिआ ॥८॥२५॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वुठा = आ बसा। नामि = नाम में।8।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु की शरण में रहता है, उसके हृदय में परमात्मा स्वयं आ बसता है। उसे फिर ये निश्चय हो जाता है कि (प्रभु सब जीवों में व्यापक हो के) स्वयं ही सब कुछ करता है ओर (जीवों से) करवाता है।
हे नानक! परमात्मा के नाम में जुड़ने से (लोक परलोक में) आदर मिलता है, और (प्रभु का नाम) पूरे गुरु से (ही) मिलता है।8।25।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ एका जोति जोति है सरीरा ॥ सबदि दिखाए सतिगुरु पूरा ॥ आपे फरकु कीतोनु घट अंतरि आपे बणत बणावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ एका जोति जोति है सरीरा ॥ सबदि दिखाए सतिगुरु पूरा ॥ आपे फरकु कीतोनु घट अंतरि आपे बणत बणावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सबदि = शब्द द्वारा। कीतोनु = किया उन, उस प्रभु ने किया।1।
अर्थ: पूरा गुरु अपने शब्द में जोड़ के (शरण आए मनुष्य को) दिखा देता है (निष्चय करा देता है) कि सब शरीरों में परमात्मा की ही ज्योति व्यापक है। परमात्मा ने स्वयं ही सब जीवों की बनावट बनायी है (पैदा किए हैं) और खुद ही उसने सारे शरीरों में (आत्मिक जीवन का) फर्क बनाया हुआ है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी हरि सचे के गुण गावणिआ ॥ बाझु गुरू को सहजु न पाए गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी हरि सचे के गुण गावणिआ ॥ बाझु गुरू को सहजु न पाए गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: को = कोई भी मनुष्य। सहजु = आत्मिक अडोलता।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदा उन मनुष्यों पर से कुर्बान जाता हूँ, जो सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुण गाते रहते हैं (आत्मिक अडोलता में रह के ही महिमा की जा सकती है, तथा) गुरु की शरण के बिना कोई मनुष्य आत्मिक अडोलता हासिल नहीं कर सकता। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य ही आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं आपे सोहहि आपे जगु मोहहि ॥ तूं आपे नदरी जगतु परोवहि ॥ तूं आपे दुखु सुखु देवहि करते गुरमुखि हरि देखावणिआ ॥२॥

मूलम्

तूं आपे सोहहि आपे जगु मोहहि ॥ तूं आपे नदरी जगतु परोवहि ॥ तूं आपे दुखु सुखु देवहि करते गुरमुखि हरि देखावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोहहि = शोभा देता है। मोहहि = मोह रहा है। करते = हे कर्तार!।2।
अर्थ: हे कर्तार! तू स्वयं ही (जगत रच के जगत रचना से अपनी) सुंदरता दिखा रहा है, और (उस सुंदरता से) तू खुद ही जगत को मोहित करता है। तू खुद ही अपनी मेहर की निगाह से जगत को (अपनी कायम की मर्यादा के धागे में) परोए रखता है। हे कर्तार! तू खुद ही जीवों को दुख देता है, खुद ही जीवों को सुख देता है। हे हरि! गुरु की शरण पड़ने वाले बंदे (हर जगह) तेरा ही दर्शन करते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करता करे कराए ॥ आपे सबदु गुर मंनि वसाए ॥ सबदे उपजै अम्रित बाणी गुरमुखि आखि सुणावणिआ ॥३॥

मूलम्

आपे करता करे कराए ॥ आपे सबदु गुर मंनि वसाए ॥ सबदे उपजै अम्रित बाणी गुरमुखि आखि सुणावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में। सबदे = शब्द के द्वारा ही। आखि = कह के, उचार के।3।
अर्थ: (हे भाई! सारे जीवों में व्यापक हो के) कर्तार खुद ही सब कुछ कर रहा है और (जीवों से) करा रहा है। कर्तार खुद ही गुरु का शब्द (जीवों के) मन में बसाता है। गुरु के शब्द के द्वारा ही आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी (की लगन जीवों के हृदय में) पैदा होती है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (महिमा की वाणी) उचार के (और लोगों को भी) सुनाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करता आपे भुगता ॥ बंधन तोड़े सदा है मुकता ॥ सदा मुकतु आपे है सचा आपे अलखु लखावणिआ ॥४॥

मूलम्

आपे करता आपे भुगता ॥ बंधन तोड़े सदा है मुकता ॥ सदा मुकतु आपे है सचा आपे अलखु लखावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भुगता = भोगने वाला। मुकता = आजाद। अलखु = अदृष्ट।4।
अर्थ: कर्तार स्वयं ही सब जीवों को पैदा करने वाला है (सब जीवों में व्यापक हो के) खुद ही दुनिया के पदार्थ भोगने वाला है। कर्तार खुद ही (सारे जीवों के माया के) बंधन तोड़ता है। वह खुद सदा ही बंधनों से मुक्त है। सदा स्थिर रहने वाला कर्तार खुद ही सदा निर्लिप है, खुद ही अदृश्य (भी) है, और खुद ही अपना स्वरूप (जीवों को) दिखलाने वाला है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे माइआ आपे छाइआ ॥ आपे मोहु सभु जगतु उपाइआ ॥ आपे गुणदाता गुण गावै आपे आखि सुणावणिआ ॥५॥

मूलम्

आपे माइआ आपे छाइआ ॥ आपे मोहु सभु जगतु उपाइआ ॥ आपे गुणदाता गुण गावै आपे आखि सुणावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छाइया = छाया, प्रभाव।5।
अर्थ: (हे भाई!) कर्तार ने खुद ही माया पैदा की है, उसने खुद ही माया का प्रभाव पैदा किया है। कर्तार ने खुद ही माया का मोह पैदा किया है और खुद ही सारा जगत पैदा किया है। कर्तार स्वयं ही अपने गुणों की दाति (जीवों को) देने वाला है, स्वयं ही (अपने) गुण (जीवों में व्यापक हो के) गाता है। स्वयं ही (अपने गुण) उचार के (और लोगों को) सुनाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे करे कराए आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ तुझ ते बाहरि कछू न होवै तूं आपे कारै लावणिआ ॥६॥

मूलम्

आपे करे कराए आपे ॥ आपे थापि उथापे आपे ॥ तुझ ते बाहरि कछू न होवै तूं आपे कारै लावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थापि = पैदा करें। उथापे = नाश करता है। कारै = कार्य में।6।
अर्थ: (हे भाई! सब जीवों में व्यापक हो के) कर्तार स्वयं ही सब कुछ कर रहा है और स्वयं ही (जीवों से) करा रहा है। कर्तार स्वयं ही जगत की रचना करके स्वयं ही (जगत का) नाश करता है।
(हे प्रभु! जो कुछ जगत में हो रहा है) तेरे हुक्म से बाहर कुछ नहीं होता, तू खुद ही (सब जीवों को) काम में लगा रहा है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे मारे आपि जीवाए ॥ आपे मेले मेलि मिलाए ॥ सेवा ते सदा सुखु पाइआ गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥७॥

मूलम्

आपे मारे आपि जीवाए ॥ आपे मेले मेलि मिलाए ॥ सेवा ते सदा सुखु पाइआ गुरमुखि सहजि समावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मरे = आत्मिक मौत देता है। जीवाए = आत्मिक जीवन देता है।7।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही (किसी जीव को) आत्मिक मौत दे रहा है (किसी को) आत्मिक जीवन बख्श रहा है। प्रभु स्वयं ही (जीवों को गुरु) मिलाता है और (गुरु) मिला के अपने चरणों में जोड़ता है। (गुरु की बताई) सेवा करने वाले ने सदा आत्मिक आनंद पाया है। गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।7।

[[0126]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे ऊचा ऊचो होई ॥ जिसु आपि विखाले सु वेखै कोई ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि आपे वेखि विखालणिआ ॥८॥२६॥२७॥

मूलम्

आपे ऊचा ऊचो होई ॥ जिसु आपि विखाले सु वेखै कोई ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि आपे वेखि विखालणिआ ॥८॥२६॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कोई = कोई विरला। वेखि = देख के।8।
अर्थ: (हे भाई! परमात्मा अपनी स्मर्था से) स्वयं ही माया के प्रभाव से बहुत ऊँचा है। जिस किसी (भाग्यशाली मनुष्य) को (अपनी ये स्मर्था) परमात्मा स्वयं दिखाता है वह खुद देख लेता है (कि प्रभु बहुत शक्तिशाली है)।
हे नानक! (परमात्मा की अपनी ही मेहर से किसी भाग्यशाली मनुष्य के) हृदय में उसका नाम बसता है (उस मनुष्य में प्रगट हो के प्रभु खुद ही अपने स्वरूप का) दर्शन करके (और लोगों को) दर्शन कराता है।8।26।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ मेरा प्रभु भरपूरि रहिआ सभ थाई ॥ गुर परसादी घर ही महि पाई ॥ सदा सरेवी इक मनि धिआई गुरमुखि सचि समावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ मेरा प्रभु भरपूरि रहिआ सभ थाई ॥ गुर परसादी घर ही महि पाई ॥ सदा सरेवी इक मनि धिआई गुरमुखि सचि समावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरेवी = मैं सेवा करता हूँ। इक मनि = एकाग्र हो के।1।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा प्रभु सब जगहों पर पूर्ण तौर पे मौजूद है। गुरु की कृपा से मैंने उसे अपने हृदय घर में ही ढूँढ लिया है। मैं अब सदा उसे स्मरण करता हूँ। सदा एकाग्रचिक्त हो के उसका ध्यान धरता हूँ। जो भी मनुष्य गुरु का आसरा परना लेता है, वह सदा स्थिर परमात्मा में लीन रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी जगजीवनु मंनि वसावणिआ ॥ हरि जगजीवनु निरभउ दाता गुरमति सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी जगजीवनु मंनि वसावणिआ ॥ हरि जगजीवनु निरभउ दाता गुरमति सहजि समावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जग जीवनु = जगत का जीवन परमात्मा। मंनि = मनि, मन में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं उन लोगों से सदा कुर्बान जाता हूँ जो जगत की जिंदगी के आसरे परमात्मा को अपने मन में बसाते हैं। परमात्मा जगत को जिंदगी देने वाला है। जो मनुष्य गुरु की मति ले कर उसे अपने मन में बसाता है वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घर महि धरती धउलु पाताला ॥ घर ही महि प्रीतमु सदा है बाला ॥ सदा अनंदि रहै सुखदाता गुरमति सहजि समावणिआ ॥२॥

मूलम्

घर महि धरती धउलु पाताला ॥ घर ही महि प्रीतमु सदा है बाला ॥ सदा अनंदि रहै सुखदाता गुरमति सहजि समावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धउलु = बैल, आसरा। बाला = जवान। अनंदि = आनंद में।2।
अर्थ: जो परमात्मा धरती व पाताल का आसरा है, वह मनुष्य के हृदय में (भी) बसता है। वह प्रीतम प्रभु सदा जवान रहने वाला है वह हरेक हृदय में ही बसता है। जो मनुष्य गुरु की मति ले के उस सुखदाते प्रभु को स्मरण करता है, वह सदा आत्मिक आनंद में रहता है। वह आत्मिक अडोलता में समाया रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइआ अंदरि हउमै मेरा ॥ जमण मरणु न चूकै फेरा ॥ गुरमुखि होवै सु हउमै मारे सचो सचु धिआवणिआ ॥३॥

मूलम्

काइआ अंदरि हउमै मेरा ॥ जमण मरणु न चूकै फेरा ॥ गुरमुखि होवै सु हउमै मारे सचो सचु धिआवणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। सचो सचु = स्थिर प्रभु को ही।3।
अर्थ: पर, जिस मनुष्य के शरीर में अहम् प्रबल है, ममता प्रबल है, उस मनुष्य का जनम मरण रूपी चक्र खत्म नहीं होता। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है वह (अपने अंदर से) अहंकार को मार लेता है, और वह सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को ही स्मरण करता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काइआ अंदरि पापु पुंनु दुइ भाई ॥ दुही मिलि कै स्रिसटि उपाई ॥ दोवै मारि जाइ इकतु घरि आवै गुरमति सहजि समावणिआ ॥४॥

मूलम्

काइआ अंदरि पापु पुंनु दुइ भाई ॥ दुही मिलि कै स्रिसटि उपाई ॥ दोवै मारि जाइ इकतु घरि आवै गुरमति सहजि समावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: देइ = दे। दुही = दोनों ने ही। इकतु = एक में। इकतु घरि = एक घर में।4।
अर्थ: (अहंकार के प्रभाव तहत रहने वाले मनुष्य के) शरीर में (अहंम् से उत्पन्न हुए हुए) दोनों भ्राता पाप और पुण्य बसते हैं। इन दोनों ने ही जगत रचना की है। जो मनुष्य गुरु की मति ले के इन दोनों (के प्रभाव) को मारता है, वह एक ही घर में (प्रभु चरणों में ही) टिक जाता है। वह आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

घर ही माहि दूजै भाइ अनेरा ॥ चानणु होवै छोडै हउमै मेरा ॥ परगटु सबदु है सुखदाता अनदिनु नामु धिआवणिआ ॥५॥

मूलम्

घर ही माहि दूजै भाइ अनेरा ॥ चानणु होवै छोडै हउमै मेरा ॥ परगटु सबदु है सुखदाता अनदिनु नामु धिआवणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दूजै भाइ = माया के मोह के कारण। अनेरा = अंधकार।5।
अर्थ: परमात्मा मनुष्य के हृदय-घर में ही बसता है। पर, माया के प्यार के कारण मनुष्य के अंदर माया का अंधकार बना रहता है। जब मनुष्य गुरु की शरण ले के (अपने अंदर से) अहम् और ममता को दूर करता है, तब (इसके अंदर परमात्मा की ज्योति का आत्मिक) प्रकाश हो जाता है। आत्मिक आनंद देने वाली परमात्मा की महिमा (इसके अंदर) उघड़ पड़ती है, और ये हर वक्त प्रभु का नाम स्मरण करता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि जोति परगटु पासारा ॥ गुर साखी मिटिआ अंधिआरा ॥ कमलु बिगासि सदा सुखु पाइआ जोती जोति मिलावणिआ ॥६॥

मूलम्

अंतरि जोति परगटु पासारा ॥ गुर साखी मिटिआ अंधिआरा ॥ कमलु बिगासि सदा सुखु पाइआ जोती जोति मिलावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साखी = शिक्षा से। बिगासि = खिल के।6।
अर्थ: जिस प्रभु ज्योति ने सारा जगत पसारा पसारा है, गुरु की शिक्षा से वह जिस मनुष्य के अंदर प्रगट हो जाती है, उसके अंदर से अज्ञानता का अंधकार मिट जाता है। उसका हृदय कमल पुष्प की तरह खिल जाता है। वह सदा आत्मिक आनंद पाता है। उसकी तवज्जो प्रभु की ज्योति में मिली रहती है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंदरि महल रतनी भरे भंडारा ॥ गुरमुखि पाए नामु अपारा ॥ गुरमुखि वणजे सदा वापारी लाहा नामु सद पावणिआ ॥७॥

मूलम्

अंदरि महल रतनी भरे भंडारा ॥ गुरमुखि पाए नामु अपारा ॥ गुरमुखि वणजे सदा वापारी लाहा नामु सद पावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रतनी = रतनों से।7।
अर्थ: मनुष्य के शरीर में (परमात्मा के गुण रूपी) रत्नों के खजाने भरे पड़े हैं (पर, ये उस मनुष्य को ही प्राप्त होते हैं) जो गुरु की शरण पड़ के बेअंत प्रभु का नाम प्राप्त करता है। गुरु के शरण पड़ने वाला मनुष्य (प्रभु नाम का) व्यापारी (बन के आत्मिक गुणों के रत्नों का) व्यापार करता है और सदा प्रभु नाम की कमाई करता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे वथु राखै आपे देइ ॥ गुरमुखि वणजहि केई केइ ॥ नानक जिसु नदरि करे सो पाए करि किरपा मंनि वसावणिआ ॥८॥२७॥२८॥

मूलम्

आपे वथु राखै आपे देइ ॥ गुरमुखि वणजहि केई केइ ॥ नानक जिसु नदरि करे सो पाए करि किरपा मंनि वसावणिआ ॥८॥२७॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वथु = वस्तु, नाम पदार्थ। देइ = देता है। केई केइ = कई अनेक।8।
अर्थ: (पर, जीवों के बस की बात नहीं) परमात्मा स्वयं ही जीवों के अंदर अपना नाम पदार्थ टिकाता है, परमात्मा स्वयं ही (ये दाति) जीवों को देता है। गुरु की शरण पड़ के अनेक (भाग्यशाली) मनुष्य नाम निधि का सौदा करते हैं। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर की नजर करता है, वह प्रभु का नाम प्राप्त करता है। प्रभु अपनी कृपा करके अपना नाम उसके मन में बसाता है।8।27।28।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ हरि आपे मेले सेव कराए ॥ गुर कै सबदि भाउ दूजा जाए ॥ हरि निरमलु सदा गुणदाता हरि गुण महि आपि समावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ हरि आपे मेले सेव कराए ॥ गुर कै सबदि भाउ दूजा जाए ॥ हरि निरमलु सदा गुणदाता हरि गुण महि आपि समावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेव = सेवा भक्ति। सबदि = शब्द में जुड़ने से। दूजा भाउ = माया का प्यार।1।
अर्थ: परमात्मा स्वयं ही (जीवों को अपने चरणों में) जोड़ता है। (अपनी) सेवा भक्ति करवाता है। (जिस मनुष्य को प्रभु) गुरु के शब्द में (जोड़ता है, उसके अंदर से) माया का प्यार दूर हो जाता है। परमात्मा (स्वयं) सदा पवित्र स्वरूप है, (सब जीवों को अपने) गुण देने वाला है। परमात्मा स्वयं (अपने) गुणों में (जीव को) लीन करता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी सचु सचा हिरदै वसावणिआ ॥ सचा नामु सदा है निरमलु गुर सबदी मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी सचु सचा हिरदै वसावणिआ ॥ सचा नामु सदा है निरमलु गुर सबदी मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु सचा = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उन मनुष्यों से सदा सदके जाता हूँ, जो सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को अपने हृदय में बसाते हैं। परमात्मा का सदा कायम रहने वाला नाम सदा पवित्र है। (भाग्यशाली मनुष्य) गुरु के शब्द द्वारा (इस नाम को अपने) मन में बसाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे गुरु दाता करमि बिधाता ॥ सेवक सेवहि गुरमुखि हरि जाता ॥ अम्रित नामि सदा जन सोहहि गुरमति हरि रसु पावणिआ ॥२॥

मूलम्

आपे गुरु दाता करमि बिधाता ॥ सेवक सेवहि गुरमुखि हरि जाता ॥ अम्रित नामि सदा जन सोहहि गुरमति हरि रसु पावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करमि = हरेक जीव के किए कर्मों अनुसार। बिधाता = पैदा करने वाला।2।
अर्थ: परमात्मा स्वयं ही गुरु (रूप) है। स्वयंही दातें देने वाला है, स्वयं ही (जीव को उस के किए) कर्म अनुसार पैदा करने वाला है। प्रभु के सेवक गुरु की शरण पड़ के उसकी सेवा भक्ति करते हैं, और उससे गहरी सांझ डालते हैं। आत्मिक जीवन देने वाले हरि नाम में जुड़ के सेवक जन अपना जीवन सुहाना बनाते हैं गुरु की मति पर चल के परमात्मा के मिलाप का आनंद लेते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इसु गुफा महि इकु थानु सुहाइआ ॥ पूरै गुरि हउमै भरमु चुकाइआ ॥ अनदिनु नामु सलाहनि रंगि राते गुर किरपा ते पावणिआ ॥३॥

मूलम्

इसु गुफा महि इकु थानु सुहाइआ ॥ पूरै गुरि हउमै भरमु चुकाइआ ॥ अनदिनु नामु सलाहनि रंगि राते गुर किरपा ते पावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। अनदिनु = हर रोज।3।
अर्थ: (जिस मनुष्य के हृदय में से) पूरे गुरु ने अहम् को दूर कर दिया, भटकना समाप्त कर दी। उसके इस शरीर-गुफा में परमात्मा प्रगट हो गया और उस का हृदय सुंदर बन गया।
(भाग्यशाली मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर) हर वक्त परमात्मा का नाम सालाहते हैं, उसके प्रेम रंग में रंगे रहते हैं, गुरु की कृपा से उसका मिलाप प्राप्त करते हैं।3।

[[0127]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर कै सबदि इहु गुफा वीचारे ॥ नामु निरंजनु अंतरि वसै मुरारे ॥ हरि गुण गावै सबदि सुहाए मिलि प्रीतम सुखु पावणिआ ॥४॥

मूलम्

गुर कै सबदि इहु गुफा वीचारे ॥ नामु निरंजनु अंतरि वसै मुरारे ॥ हरि गुण गावै सबदि सुहाए मिलि प्रीतम सुखु पावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इहु = ये जीव। निरंजनु = (निर+अंजन) माया के मोह रूपी कालख से रहित।4।
अर्थ: यह जीव गुरु के शब्द द्वारा ही अपने शरीर रूपी गुफा में प्रभु के गुण विचारता है, और उसके हृदय में मुरारी प्रभु का माया के मोह की कालख से बचाने वाला नाम बस जाता है। उस गुरु के शब्द में (जुड़ के ज्यों ज्यों) परमात्मा के गुण गाता है। उसका जीवन सुंदर बन जाता है। प्रीतम को मिलके आत्मिक आनंद लेता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जमु जागाती दूजै भाइ करु लाए ॥ नावहु भूले देइ सजाए ॥ घड़ी मुहत का लेखा लेवै रतीअहु मासा तोल कढावणिआ ॥५॥

मूलम्

जमु जागाती दूजै भाइ करु लाए ॥ नावहु भूले देइ सजाए ॥ घड़ी मुहत का लेखा लेवै रतीअहु मासा तोल कढावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जागाती = मसूलिआ। दूजै भाइ = माया के प्यार में। करु = मसूल। रतीअहु = एक रक्ती से।5।
अर्थ: जो मनुष्य माया के प्यार में (फंसा रहता है, उससे) महसूलिया यमराज महसूल लेता है। परमात्मा के नाम से वंचित हुए मनुष्य को सजा देता है। यमराज महसूलिया उससे उसकी जिंदगी की एक-एक घड़ी का, आधी-आधी घड़ी का हिसाब लेता है। एक-एक रक्ती करके, एक-एक मासा करके यमराज उसके जीवन कर्मों का तौल करवाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेईअड़ै पिरु चेते नाही ॥ दूजै मुठी रोवै धाही ॥ खरी कुआलिओ कुरूपि कुलखणी सुपनै पिरु नही पावणिआ ॥६॥

मूलम्

पेईअड़ै पिरु चेते नाही ॥ दूजै मुठी रोवै धाही ॥ खरी कुआलिओ कुरूपि कुलखणी सुपनै पिरु नही पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेईअड़ै = पेके घर में, इस लोक में। दूजै = (प्रभु से बिना) और में। धाही = धाहें मार मार के (रोना)। खरी = बहुत। कुआलिओ = (कु+आलय) बुरे घर की।6।
अर्थ: जो जीव-स्त्री पेके घर में (इस जीवन में) प्रभु पति को याद नहीं करती, और माया के मोह में पड़ के (आत्मिक गुणों की राशि पूंजी) लुटाती रहती है, वह (लेखा देने के समय) धाहें (चीखें) मार मार के रोती है। वह जीव-स्त्री बुरे घर की, बुंरे रूप वाली, बुरे लक्षणों वाली ही कही जाती है। (पेके घर रहते हुए) उसने कभी सुपने में भी प्रभु मिलाप नही किया।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पेईअड़ै पिरु मंनि वसाइआ ॥ पूरै गुरि हदूरि दिखाइआ ॥ कामणि पिरु राखिआ कंठि लाइ सबदे पिरु रावै सेज सुहावणिआ ॥७॥

मूलम्

पेईअड़ै पिरु मंनि वसाइआ ॥ पूरै गुरि हदूरि दिखाइआ ॥ कामणि पिरु राखिआ कंठि लाइ सबदे पिरु रावै सेज सुहावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मंनि = मनि, मन में। हदूरि = अंग संग। कामणि = (जीव-) स्त्री। कंठि = गले से।7।
अर्थ: पेके घर में जिस जीव-स्त्री ने प्रभु पति को अपने मन में रखा, जिसे पूरे गुरु ने (प्रभु पति को उस के) अंग संग (बसता) दिखा दिया। जिस जीव-स्त्री ने प्रभु पति को सदा अपने गले से लगाए रखा, वह गुरु के शब्द द्वारा प्रभु पति के मिलाप का आनंद लेती रहती है, उसके हृदय की सेज सोहानी बनी रहती है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे देवै सदि बुलाए ॥ आपणा नाउ मंनि वसाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई अनदिनु सदा गुण गावणिआ ॥८॥२८॥२९॥

मूलम्

आपे देवै सदि बुलाए ॥ आपणा नाउ मंनि वसाए ॥ नानक नामु मिलै वडिआई अनदिनु सदा गुण गावणिआ ॥८॥२८॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सदि = बुला के। बुलाए = बुला के।8।
अर्थ: (पर, जीवों के वश की बात नहीं) परमात्मा स्वयं ही (जीव को) बुला के (अपने नाम की दाति) देता है, स्वयं ही अपना नाम (जीव के) मन में बसाता है। हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम मिलता है, उसे (लोक परलोक में) आदर मिलता है। वह हर वक्त सदा ही परमात्मा के गुण गाता रहता है।8।28।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ ऊतम जनमु सुथानि है वासा ॥ सतिगुरु सेवहि घर माहि उदासा ॥ हरि रंगि रहहि सदा रंगि राते हरि रसि मनु त्रिपतावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ ऊतम जनमु सुथानि है वासा ॥ सतिगुरु सेवहि घर माहि उदासा ॥ हरि रंगि रहहि सदा रंगि राते हरि रसि मनु त्रिपतावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुथानि = श्रेष्ठ स्थान में। सेवहि = सेवा करते हैं, आसरा लेते हैं। घर माहि = गृहस्थ में रहते हुए ही। रसि = रस में।1।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु का आसरा-परना लेते हैं, जो मनुष्य (साधु-संगत-) श्रेष्ठ स्थान में निवास रखते हैं, उनका मानव जनम श्रेष्ठ हो जाता है (सुधर जाता है)। वे गृहस्थ में रहते हुए ही (माया की ओर से) निर्लिप रहते हैं। वे परमात्मा के रंग में टिके रहते हैं, वे सदा प्रभु के नाम रंग में रंगे रहते हैं, प्रभु के नाम रस में उनका मन तृप्त रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी पड़ि बुझि मंनि वसावणिआ ॥ गुरमुखि पड़हि हरि नामु सलाहहि दरि सचै सोभा पावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी पड़ि बुझि मंनि वसावणिआ ॥ गुरमुखि पड़हि हरि नामु सलाहहि दरि सचै सोभा पावणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बुझि = समझ के। मंनि = मन में।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उन मनुष्यों से सदा सदके कुर्बान जाता हूँ, जो (धार्मिक पुस्तकें) पढ़ के समझ के (परमात्मा का नाम अपने) मन में बसाते हैं। गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (गुरु की वाणी) पढ़ते हैं, परमात्मा का नाम सालाहते हैं, और सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर शोभा पाते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलख अभेउ हरि रहिआ समाए ॥ उपाइ न किती पाइआ जाए ॥ किरपा करे ता सतिगुरु भेटै नदरी मेलि मिलावणिआ ॥२॥

मूलम्

अलख अभेउ हरि रहिआ समाए ॥ उपाइ न किती पाइआ जाए ॥ किरपा करे ता सतिगुरु भेटै नदरी मेलि मिलावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अलख = अदृष्ट। उपाइ किती = (अन्य) किसी भी उपाय से। भेटै = मिलता है।2।
अर्थ: परमात्मा अदृष्ट है, उसका भेद नही पाया जा सकता। वह (सब जीवों में हर जगह) व्यापक है। (गुरु का शरण पड़े बिना और) किसी भी तरीके से उसका मिलाप नहीं हो सकता। जब परमात्मा (किसी जीव पर) मेहर करता है, तो (उसे) गुरु मिलता है। (इस तरह परमात्मा अपनी) मेहर की नजर से उसे अपने चरणों में मिल जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूजै भाइ पड़ै नही बूझै ॥ त्रिबिधि माइआ कारणि लूझै ॥ त्रिबिधि बंधन तूटहि गुर सबदी गुर सबदी मुकति करावणिआ ॥३॥

मूलम्

दूजै भाइ पड़ै नही बूझै ॥ त्रिबिधि माइआ कारणि लूझै ॥ त्रिबिधि बंधन तूटहि गुर सबदी गुर सबदी मुकति करावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिबिधि = तीन किस्मों वाली, तीन गुणों वाली। लूझै = खिझता है, जलता है।3।
अर्थ: जो मनुष्य माया के प्यार में फंसा हुआ है, वह (अगर धार्मिक पुस्तकें) पढ़ता (भी) है तो भी उसे समझता नहीं है। वह (धार्मिक पुस्तकें पढ़ता हुआ भी) त्रिगुणी माया की खातिर (अंदर अंदर से) खिझता रहता है। त्रिगुणी माया (के मोह) बंधन गुरु के शब्द में जुड़ने से टूटते हैं। गुरु के शब्द में जोड़ के ही (परमात्मा जीव को) माया के बंधनों से खलासी दिलाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहु मनु चंचलु वसि न आवै ॥ दुबिधा लागै दह दिसि धावै ॥ बिखु का कीड़ा बिखु महि राता बिखु ही माहि पचावणिआ ॥४॥

मूलम्

इहु मनु चंचलु वसि न आवै ॥ दुबिधा लागै दह दिसि धावै ॥ बिखु का कीड़ा बिखु महि राता बिखु ही माहि पचावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुबिधा = दुचिक्तापन। दह दिसि = दसों दिशाओं में। राता = मस्त। पचावणिआ = खुआर होता है।4।
अर्थ: (माया के आँगन में मनुष्य का) ये मन चंचल (स्वभाव वाला रहता) है। (उसकी अपनी कोशिशों से) काबू में नहीं आता। (उसका मन माया के कारण) डाँवा डोल हालत में टिका रहता है। और (माया की खातिर) दसों दिशाओं में दौड़ता रहता है। (आत्मिक मौत लाने वाली माया रूपी) जहर का ही वह कीड़ा (बना रहता) है। (जैसे विष्टा का कीड़ा विष्टा में प्रसन्न रहता है), वह इस जहर में ही खुश रहता है, और इस जहर में ही (उसका आत्मिक जीवन) खुआर होता रहता है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ हउ करे तै आपु जणाए ॥ बहु करम करै किछु थाइ न पाए ॥ तुझ ते बाहरि किछू न होवै बखसे सबदि सुहावणिआ ॥५॥

मूलम्

हउ हउ करे तै आपु जणाए ॥ बहु करम करै किछु थाइ न पाए ॥ तुझ ते बाहरि किछू न होवै बखसे सबदि सुहावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै = तथा,और। आपु = स्वयं। थाइ न पाए = स्वीकार नही होता।5।
अर्थ: (माया में लिपटा मनुष्य सदा) अहंकार के बोल बोलता है। अपने आप को बड़ा जाहिर करता है (अपनी और से निहित धार्मिक) कर्म (भी) खूब करता है, पर उसका कोई काम परमात्मा की हजूरी में स्वीकार नही होता। (पर, हे प्रभु!) तेरी मेहर के बिनां (जीव से) कुछ नहीं हो सकता। (हे भाई!) जिस मनुष्य पर प्रभु दया करता है, वह गुरु के शब्द में जुड़ के सुंदर जीवन वाला बन जाता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपजै पचै हरि बूझै नाही ॥ अनदिनु दूजै भाइ फिराही ॥ मनमुख जनमु गइआ है बिरथा अंति गइआ पछुतावणिआ ॥६॥

मूलम्

उपजै पचै हरि बूझै नाही ॥ अनदिनु दूजै भाइ फिराही ॥ मनमुख जनमु गइआ है बिरथा अंति गइआ पछुतावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पचै = खुआर होता है। फिराही = फिरते हैं।6।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा के साथ सांझ नहीं पाता। वह कभी पैदा होता है कभी जलता है (भाव, वह कभी तो सुख का साँस लेता है कभी हाहुके भरता है)। जो मनुष्य (प्रभु को विसार के) माया के मोह में मस्त रहते हैं। वह हर समय (माया की खातिर ही) भटकते फिरते रहते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का जीवन व्यर्थ चला जाता है। वह आखिर (दुनियां से) पछताता ही जाता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिरु परदेसि सिगारु बणाए ॥ मनमुख अंधु ऐसे करम कमाए ॥ हलति न सोभा पलति न ढोई बिरथा जनमु गवावणिआ ॥७॥

मूलम्

पिरु परदेसि सिगारु बणाए ॥ मनमुख अंधु ऐसे करम कमाए ॥ हलति न सोभा पलति न ढोई बिरथा जनमु गवावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परदेसि = परदेस में। अंधु = अंधा। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में।7।
अर्थ: (स्त्री का) पति परदेस में हो और वह (अपने शरीर का) श्रृंगार करती रहे (ऐसी स्त्री को सुख नहीं मिल सकता), अपने मन के पीछे चलने वाला माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य (भी) ऐसे कर्म ही करता है। उसे इस लोक में (भी) शोभा नहीं मिलती, और परलोक में भी सहारा नहीं मिलता। वह अपना मनुष्य जनम व्यर्थ गवा लेता है।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि का नामु किनै विरलै जाता ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाता ॥ अनदिनु भगति करे दिनु राती सहजे ही सुखु पावणिआ ॥८॥

मूलम्

हरि का नामु किनै विरलै जाता ॥ पूरे गुर कै सबदि पछाता ॥ अनदिनु भगति करे दिनु राती सहजे ही सुखु पावणिआ ॥८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाता = पहचाना, सांझ डाली। सबदि = शब्द द्वारा। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में।8।
अर्थ: किसी विरले मनुष्य ने परमात्मा के नाम के साथ गहरी सांझ डाली है। कोई विरला मनुष्य पूरे गुरु के शब्द में जुड़ के परमात्मा के साथ सांझ डालता है। (जो सांझ डालता है) वह हर रोज दिन रात प्रभु की भक्ति करता है, और आत्मिक अडोलता में ही टिका रह के आत्मिक आनंद लेता है।8।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ महि वरतै एको सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ नानक नामि रते जन सोहहि करि किरपा आपि मिलावणिआ ॥९॥२९॥३०॥

मूलम्

सभ महि वरतै एको सोई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ नानक नामि रते जन सोहहि करि किरपा आपि मिलावणिआ ॥९॥२९॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: कोई एक आध मनुष्य ही गुरु की शरण पड़ के समझता है कि एक परमात्मा ही सब जीवों में मौजूद है। हे नानक! जो मनुष्य (उस सर्व-व्यापक परमात्मा के) नाम में मस्त रहते हैं, वे अपना जीवन सुंदर बना लेते हैं। प्रभु मेहर करके स्वयं ही उन्हें अपने साथ मिला लेता है।9।29।30।

[[0128]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ मनमुख पड़हि पंडित कहावहि ॥ दूजै भाइ महा दुखु पावहि ॥ बिखिआ माते किछु सूझै नाही फिरि फिरि जूनी आवणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ मनमुख पड़हि पंडित कहावहि ॥ दूजै भाइ महा दुखु पावहि ॥ बिखिआ माते किछु सूझै नाही फिरि फिरि जूनी आवणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। पढ़हि = पढ़ते हैं। दूजै भाइ = माया के प्यार में। बिखिआ = माया। माते = मस्त।1।
अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (वेद आदि धार्मिक पुस्तकें) पढ़ते हैं (और इस कारण अपने आप को) पण्डित-विद्वान कहलवाते हैं। (पर, फिर भी वह) माया के प्यार में (टिके रहते हैं। धर्म पुस्तकें पढ़ते हुए भी अहम् आदि का) बड़ा दुख सहते रहते हैं। माया के मोह में मस्त रहने करके उन्हें (आत्मिक जीवन की) कुछ भी समझ नहीं पड़ती, वह मुड़ मुड़ जूनियों में पड़े रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी हउमै मारि मिलावणिआ ॥ गुर सेवा ते हरि मनि वसिआ हरि रसु सहजि पीआवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी हउमै मारि मिलावणिआ ॥ गुर सेवा ते हरि मनि वसिआ हरि रसु सहजि पीआवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। गुर सेवा ते = गुरु की शरण पड़ने से। सहजि = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) मैं तो उन मनुष्यों से सदा सदके जाता हूँ, जो अहंकार दूर करके (गुरु चरणों में) मिले रहते हैं। गुरु की शरण पड़ने के कारण परमात्मा उनके मन में आ बसता है। आत्मिक अडोलता में टिक के वे परमात्मा के मिलाप का आनंद लेते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदु पड़हि हरि रसु नही आइआ ॥ वादु वखाणहि मोहे माइआ ॥ अगिआनमती सदा अंधिआरा गुरमुखि बूझि हरि गावणिआ ॥२॥

मूलम्

वेदु पड़हि हरि रसु नही आइआ ॥ वादु वखाणहि मोहे माइआ ॥ अगिआनमती सदा अंधिआरा गुरमुखि बूझि हरि गावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसु = स्वाद, आनंद। वादु = बहस, झगड़ा। अगिआन = ज्ञान हीनता, बेसमझी।2।
अर्थ: (अपने आप को पण्डित कहलवाने वाले लोग) वेद (तो) पढ़ते हैं, (पर) उन्हें परमात्मा के मिलाप का आनंद नहीं आता। (वेद आदि पढ़ के तो वह सिर्फ कोई ना कोई) धर्म चर्चा व बहस ही (और लोगों को) सुनाते हैं। पर (स्वयं वो) माया के मोह में ही टिके रहते हैं। उनकी अपनी मति बेसमझी वाली ही रहती है। उनके अंदर माया के मोह का अंधकार टिका रहता है। गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य (ही गुरु द्वारा) मति ले के परमात्मा की महिमा कर सकते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकथो कथीऐ सबदि सुहावै ॥ गुरमती मनि सचो भावै ॥ सचो सचु रवहि दिनु राती इहु मनु सचि रंगावणिआ ॥३॥

मूलम्

अकथो कथीऐ सबदि सुहावै ॥ गुरमती मनि सचो भावै ॥ सचो सचु रवहि दिनु राती इहु मनु सचि रंगावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अकथो = अकथ, जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। सुहावै = प्यारा लगता है। सचो = सदा स्थिर रहने वाला। रवहि = स्मरण करते हैं। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।3।
अर्थ: (जिस हृदय में) अकथ परमात्मा की महिमा होती रहे, (उस हृदय में) गुरु के शब्द की इनायत से (परमात्मा) सुंदर लगने लग पड़ता है। गुरु के उपदेश से सदा स्थिर प्रभु (मनुष्य के) मन को प्यारा लगने लग पड़ता है। (गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य) दिन रात सदा स्थिर परमात्मा को ही स्मरण करते रहते हैं। (उनका) ये मन सदा स्थिर प्रभु (के प्रेम रंग) में रंगा रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो सचि रते तिन सचो भावै ॥ आपे देइ न पछोतावै ॥ गुर कै सबदि सदा सचु जाता मिलि सचे सुखु पावणिआ ॥४॥

मूलम्

जो सचि रते तिन सचो भावै ॥ आपे देइ न पछोतावै ॥ गुर कै सबदि सदा सचु जाता मिलि सचे सुखु पावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भावै = अच्छा लगता है। देइ = देता है। जाता = सांझ डाल ली।4।
अर्थ: जो मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा (के प्रेम रंग) में रंगे रहते हैं, उन्हें वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभु प्यारा लगता है। (ये दाति परमात्मा) स्वयं ही (उनको) देता है। (ये दाति दे के वह) पछताता नहीं (क्योंकि इस दाति की इनायत से) गुरु के शब्द में जुड़ केवह सदा स्थिर प्रभु के साथ गहरी सांझ बनाए रखते है, और सदा स्थिर प्रभु (के चरणों) में मिल के आत्मिक आनंद लेते हैं।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूड़ु कुसतु तिना मैलु न लागै ॥ गुर परसादी अनदिनु जागै ॥ निरमल नामु वसै घट भीतरि जोती जोति मिलावणिआ ॥५॥

मूलम्

कूड़ु कुसतु तिना मैलु न लागै ॥ गुर परसादी अनदिनु जागै ॥ निरमल नामु वसै घट भीतरि जोती जोति मिलावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जागै = सचेत रहता है।5।
अर्थ: (ऐसे मनुष्यों के हृदयों को) झूठ छू नहीं सकता, ठगी छू नहीं सकती। विकारों की मैल नहीं लगती। जिस मनुष्य के हृदय में पवित्र स्वरूप परमात्मा का नाम बसता है, वह गुरु की कृपा से हर वक्त (माया के हमलों से) सुचेत रहता है। उसकी तवज्जो परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रै गुण पड़हि हरि ततु न जाणहि ॥ मूलहु भुले गुर सबदु न पछाणहि ॥ मोह बिआपे किछु सूझै नाही गुर सबदी हरि पावणिआ ॥६॥

मूलम्

त्रै गुण पड़हि हरि ततु न जाणहि ॥ मूलहु भुले गुर सबदु न पछाणहि ॥ मोह बिआपे किछु सूझै नाही गुर सबदी हरि पावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रेगुण = त्रिगुणी माया की खातिर। ततु = असलियत। मूलहु = मूल से, प्रभु से।6।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द के साथ सांझ नहीं डालते, वह (जगत के) मूल परमात्मा (की याद) से वंचित रहते हैं। वह जगत के असले प्रभु के साथ गहरी सांझ नहीं डालते, और वह सदा त्रिगुणी माया के लेखे ही पढ़ते रहते हैं। माया के मोह में गलतान उन मनुष्यों को (परमातमा की भक्ति करने के बारे में) कुछ भी नहीं सूझता। (हे भाई!) गुरु के शब्द की इनायत से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदु पुकारै त्रिबिधि माइआ ॥ मनमुख न बूझहि दूजै भाइआ ॥ त्रै गुण पड़हि हरि एकु न जाणहि बिनु बूझे दुखु पावणिआ ॥७॥

मूलम्

वेदु पुकारै त्रिबिधि माइआ ॥ मनमुख न बूझहि दूजै भाइआ ॥ त्रै गुण पड़हि हरि एकु न जाणहि बिनु बूझे दुखु पावणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिबिधि = तीन गुणों वाली।7।
अर्थ: (पण्डित) वेद (आदि धर्म पुस्तकों को) ऊँचा ऊँचा पढ़ता है। (पर उसके अंदर) त्रिगुणी माया (का प्रभाव बना रहता है)। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (आत्मिक जीवन को) नहीं समझते। (उनका मन) माया के प्यार में ही (टिका रहता है)। वह (इन धर्म पुस्तकों को) त्रिगुणी माया (कमाने) की खातिर पढ़ते हैं। एक परमात्मा से सांझ नहीं डालते (धर्म पुस्तकें पढ़ते हुए भी इस भेद को) समझे बिनां दुख (ही) पाते हैं।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा तिसु भावै ता आपि मिलाए ॥ गुर सबदी सहसा दूखु चुकाए ॥ नानक नावै की सची वडिआई नामो मंनि सुखु पावणिआ ॥८॥३०॥३१॥

मूलम्

जा तिसु भावै ता आपि मिलाए ॥ गुर सबदी सहसा दूखु चुकाए ॥ नानक नावै की सची वडिआई नामो मंनि सुखु पावणिआ ॥८॥३०॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसु भावै = उस प्रभु को अच्छा लगता है। सहसा = सहम।8।
अर्थ: (पर, जीवों के भी क्या बस?) जब परमात्मा की अपनी रजा होती है, तबवह स्वयं (ही जीवों को अपने चरणों में) मिलाता है। गुरु के शब्द द्वारा उसका सहम व दुख दूर करता है।
हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा अपने नाम जपने की सदा स्थिर रहने वाली इज्जत देता है, वह मनुष्य प्रभु के नाम स्मरण को ही (जीवन उद्देश्य) मान के आत्मिक आनंद का सुख पाता है।8।30।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ३ ॥ निरगुणु सरगुणु आपे सोई ॥ ततु पछाणै सो पंडितु होई ॥ आपि तरै सगले कुल तारै हरि नामु मंनि वसावणिआ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ३ ॥ निरगुणु सरगुणु आपे सोई ॥ ततु पछाणै सो पंडितु होई ॥ आपि तरै सगले कुल तारै हरि नामु मंनि वसावणिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरगुण = निर्गुण, माया के तीन गुणों से परे। सरगुण = सर्गुण, जिसमें माया के तीन गुण मौजूद हैं। ततु = अस्लियत।1।
अर्थ: वह परमात्मा स्वयं ही उस स्वरूप वाला है जिसमें माया के तीन गुणों का लेस मात्रभी अस्तित्व नहीं होता। स्वयं ही उस स्वरूप वाला है जिसमें माया के तीन गुण मौजूद हैं। (आकार-रहित भी स्वयं ही है, और इसका दिखाई देता आकार भी खुद ही है)। जो मनुष्य उसके असल को पहचानता है (उस असले के साथ सांझ डालता है), वह पण्डित बन जाता है। वह मनुष्य खुद (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है, वह सदा परमात्मा के नाम को अपने मन में बसाए रखता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ वारी जीउ वारी हरि रसु चखि सादु पावणिआ ॥ हरि रसु चाखहि से जन निरमल निरमल नामु धिआवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ वारी जीउ वारी हरि रसु चखि सादु पावणिआ ॥ हरि रसु चाखहि से जन निरमल निरमल नामु धिआवणिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सादु = स्वाद, आनंद।1। रहाउ।
अर्थ: मैं उन लोगों से सदा कुर्बान जाता हूँ जो परमात्मा का नाम रस चख के (उसका आत्मिक) आनंद लेते हैं। जो मनुष्य हरि नाम का रस चखते हैं, वे पवित्र आत्मा हो जाते हैं, वे पवित्र प्रभु का नाम सदा स्मरण करते हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो निहकरमी जो सबदु बीचारे ॥ अंतरि ततु गिआनि हउमै मारे ॥ नामु पदारथु नउ निधि पाए त्रै गुण मेटि समावणिआ ॥२॥

मूलम्

सो निहकरमी जो सबदु बीचारे ॥ अंतरि ततु गिआनि हउमै मारे ॥ नामु पदारथु नउ निधि पाए त्रै गुण मेटि समावणिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निहकरमी = निर्लिप, वासना रहित। गिआनि = ज्ञान द्वारा। नउ निधि = नौ खजाने।2।
अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द को अपने मन में बसाता है, वह दुनिया के कार्य-व्यवहार वासना रहित हो के करता है। उसके अंदर जगत का मूल प्रभु प्रगट हो जाता है। वह (गुरु के बख्शे) ज्ञान की सहायता से (अपने अंदर के) अहंकार को दूर कर लेता है। वह परमात्मा का नाम खजाना ढूंढ लेता है (जो उसके वास्ते दुनिया के) नौ खजाने (ही हैं)। (इस नाम पदार्थ की इनायत से) वह माया के तीन गुणों का प्रभाव मिटा के (प्रभु चरणों में) लीन रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउमै करै निहकरमी न होवै ॥ गुर परसादी हउमै खोवै ॥ अंतरि बिबेकु सदा आपु वीचारे गुर सबदी गुण गावणिआ ॥३॥

मूलम्

हउमै करै निहकरमी न होवै ॥ गुर परसादी हउमै खोवै ॥ अंतरि बिबेकु सदा आपु वीचारे गुर सबदी गुण गावणिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बिबेकु = अच्छे बुरे की परख। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को।3।
अर्थ: जो मनुष्य “मैं करता हूँ मैं करता हूँ” की रट लगाए रखते हैं, वे वासना रहित नहीं हो सकते। गुरु की कृपा से ही (कोई विरला मनुष्य) अहंकार को दूर कर सकता है। (जो मनुष्य अहम् को दूर कर लेता है) उसके अंदर अच्छे-बुरे कामों की परख की सूझ पैदा हो जाती है। वह सदा अपने आत्मिक जीवन को विचारता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि सरु सागरु निरमलु सोई ॥ संत चुगहि नित गुरमुखि होई ॥ इसनानु करहि सदा दिनु राती हउमै मैलु चुकावणिआ ॥४॥

मूलम्

हरि सरु सागरु निरमलु सोई ॥ संत चुगहि नित गुरमुखि होई ॥ इसनानु करहि सदा दिनु राती हउमै मैलु चुकावणिआ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरु = (मान-) सर, सरोवर। होइ = हो के।4।
अर्थ: (हे भाई!) वह परमात्मा ही पवित्र मानसरोवर है, पवित्र समुंदर है (पवित्र तीर्थ है), संत जन गुरु की शरण पड़ के (उस में से) सदा (प्रभु नाम रूपी मोती) चुगते रहते हैं। संत जन सदा दिन रात (उस सरोवर में) स्नान करते हैं, तथा (अपने अंदर से) अहंकार की मैल उतारते रहते हैं।4।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

निरमल हंसा प्रेम पिआरि ॥ हरि सरि वसै हउमै मारि ॥ अहिनिसि प्रीति सबदि साचै हरि सरि वासा पावणिआ ॥५॥

मूलम्

निरमल हंसा प्रेम पिआरि ॥ हरि सरि वसै हउमै मारि ॥ अहिनिसि प्रीति सबदि साचै हरि सरि वासा पावणिआ ॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हंसा = जीवात्मा। सरि = सर में, मानसरोवर में। अहिनिसि (अहि = दिन, निसि = रात) दिन-रात। साजै = सदा स्थिर प्रभु में।5।
अर्थ: वह मनुष्य, जैसे, साफ सुथरा हंस है, जो प्रभु के प्रेम प्यार में (टिका रहता) है। वह (अपने अंदर से) अहंकार को दूर करके परमात्मा सरोवर में बसेरा बनाए रखता है। गुरु के शब्द द्वारा वह दिन रात सदा स्थिर परमात्मा में प्रीति पाता है, और इस तरह परमात्मा सरोवर में निवास हासिल किए रखता है।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनमुखु सदा बगु मैला हउमै मलु लाई ॥ इसनानु करै परु मैलु न जाई ॥ जीवतु मरै गुर सबदु बीचारै हउमै मैलु चुकावणिआ ॥६॥

मूलम्

मनमुखु सदा बगु मैला हउमै मलु लाई ॥ इसनानु करै परु मैलु न जाई ॥ जीवतु मरै गुर सबदु बीचारै हउमै मैलु चुकावणिआ ॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बगु = बगुला, बगुले की तरह पाखण्डी। परु = परन्तु।6।
अर्थ: पर, जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है, वह मानो, बगुला है। वह सदा मैला है। उसके अंदर अहंकार की मैल लगी रहती है। (वह तीर्थों पे) स्नान (भी) करता है पर (इस तरह उसकी) अहमृ की मैल दूर नहीं होती। जो मनुष्य दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही स्वै भाव को मारे रहता है, जो गुरु के शब्द अपने अंदर टिकाए रखता है, वह अपने अंदर से अहंकार की मैल दूर कर लेता है।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रतनु पदारथु घर ते पाइआ ॥ पूरै सतिगुरि सबदु सुणाइआ ॥ गुर परसादि मिटिआ अंधिआरा घटि चानणु आपु पछानणिआ ॥७॥

मूलम्

रतनु पदारथु घर ते पाइआ ॥ पूरै सतिगुरि सबदु सुणाइआ ॥ गुर परसादि मिटिआ अंधिआरा घटि चानणु आपु पछानणिआ ॥७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घर ते = हृदय में ही। सतिगुरि = सतिगुर ने। परसादि = कृपा से। घटि = हृदय में। आपु = अपना आप।7।
अर्थ: जिस मनुष्य को अचूक गुरु ने (परमात्मा की महिमा का) शब्द सुना दिया, उस ने (प्रभु का नाम रूपी) कीमती रत्न अपने हृदय में से ही ढूँढ लिया। गुरु की कृपा से उसके अंदर से (अज्ञानता का, माया के मोह का) अंधकार मिट गया। उसके हृदय में (आत्मिक जीवन वाला) प्रकाश हो गया। उसने आत्मिक जीवन को पहचान लिया।7।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि उपाए तै आपे वेखै ॥ सतिगुरु सेवै सो जनु लेखै ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि गुर किरपा ते पावणिआ ॥८॥३१॥३२॥

मूलम्

आपि उपाए तै आपे वेखै ॥ सतिगुरु सेवै सो जनु लेखै ॥ नानक नामु वसै घट अंतरि गुर किरपा ते पावणिआ ॥८॥३१॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तै = और। वेखै = संभाल करता है। लेखै = लेखे में, स्वीकार।8।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा खुद (सब जीवों को) पैदा करता है और खुद ही (सब की) संभाल करता है। जो मनुष्य गुरु का आसरा लेता है, वह (परमात्मा की दरगाह में) स्वीकार हो जाता है। हे नानक! उसके हृदय में परमात्मा का नाम बस जाता है, गुरु की कृपा से वह (परमात्मा का) मिलाप हासिल कर लेता है।8।31।32।