विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु माझ असटपदीआ महला १ घरु १
मूलम्
रागु माझ असटपदीआ महला १ घरु १
विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सबदि रंगाए हुकमि सबाए ॥ सची दरगह महलि बुलाए ॥ सचे दीन दइआल मेरे साहिबा सचे मनु पतीआवणिआ ॥१॥
मूलम्
सबदि रंगाए हुकमि सबाए ॥ सची दरगह महलि बुलाए ॥ सचे दीन दइआल मेरे साहिबा सचे मनु पतीआवणिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। रंगाए = (जिन्होंने अपने मन नाम-रंग में) रंगा लिए। सबाए = वह सारे। महलि = (परमात्मा की) हजूरी में। सचे = हे सदा स्थिर! सचे = सचि, सदा स्थिर प्रभु में। पतीआवणिआ = जिन्होंनें मना लिया।1।
अर्थ: हे सदा चिर रहने वाले! हे दीनों पे दया करने वाले मेरे मालिक! जिन्होंने अपने मन को तेरे सदा स्थिर नाम में राजी कर लिया है, जो तेरे हुक्म में चलते हैं, वे सारे तेरी सदा स्थिर दरगाह में तेरे महल में बुला लिए जाते हैं।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ वारी जीउ वारी सबदि सुहावणिआ ॥ अम्रित नामु सदा सुखदाता गुरमती मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ वारी जीउ वारी सबदि सुहावणिआ ॥ अम्रित नामु सदा सुखदाता गुरमती मंनि वसावणिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी = कुर्बान। मंनि = मनि, मन में।1। रहाउ।
अर्थ: जिन्होंने गुरु के शब्द के द्वारा अपने जीवन को सुहाना बना लिया है, जिन्होंने आत्मिक जीवन देने वाला नाम, सदा सुख देने वाला प्रभु नाम गुरु की मति ले के अपने मन में बसा लिया है, मैं उनके कुर्बान हूँ, सदके हूँ।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ना को मेरा हउ किसु केरा ॥ साचा ठाकुरु त्रिभवणि मेरा ॥ हउमै करि करि जाइ घणेरी करि अवगण पछोतावणिआ ॥२॥
मूलम्
ना को मेरा हउ किसु केरा ॥ साचा ठाकुरु त्रिभवणि मेरा ॥ हउमै करि करि जाइ घणेरी करि अवगण पछोतावणिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किसु केरा = किस का? ठाकुरु = पालने वाला प्रभु। त्रिभवणि = तीनों भवनों में व्यापक। घणेरी = बहुत लोकाई।2।
अर्थ: (दुनिया में) कोई भी मेरा सदा का साथी नहीं है। मैं भी किसी का सदा के लिए साथी नहीं हूँ। मेरा सदा वास्ते पालने वाला सिर्फ वही (प्रभु) है, जो तीनों भवनों में व्यापक है। ‘मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा हूँ’-ये मान कर करके बेअंत दुनिया (जगत से) चलती जा रही है। (अभिमान में मतवाली हुई दुनिया) पाप कमा कमा के पछताती भी है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमु पछाणै सु हरि गुण वखाणै ॥ गुर कै सबदि नामि नीसाणै ॥ सभना का दरि लेखा सचै छूटसि नामि सुहावणिआ ॥३॥
मूलम्
हुकमु पछाणै सु हरि गुण वखाणै ॥ गुर कै सबदि नामि नीसाणै ॥ सभना का दरि लेखा सचै छूटसि नामि सुहावणिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वखाणै = कहता है। सबदि = शब्द के द्वारा। नामि = नाम में (जुड़ के)। नीसाणै = निशान से, राहदारी ले के (जाता है)। दरि = दर पे। सचै दरि = परमात्मा के दर पे। छूटसि = लेखे से आजाद होता है।3।
अर्थ: जे मनुष्य परमात्मा की रजा को समझता है, (वह अभिमान नहीं करता) वह परमात्मा की महिमा करता है। गुरु के शब्द के द्वारा वह प्रभु के नाम में (टिक के, नाम की) राहदारी समेत (यहाँ से जाता है)। सदा स्थिर प्रभु के दर पे सब जीवों के कर्मों का लेखा होता है। इस लेखे से वही सुर्ख-रू होता है जो नाम से अपने जीवन को सुहाना बना लेता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनमुखु भूला ठउरु न पाए ॥ जम दरि बधा चोटा खाए ॥ बिनु नावै को संगि न साथी मुकते नामु धिआवणिआ ॥४॥
मूलम्
मनमुखु भूला ठउरु न पाए ॥ जम दरि बधा चोटा खाए ॥ बिनु नावै को संगि न साथी मुकते नामु धिआवणिआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुकते = जम की चोटों से बचे हुए।4।
अर्थ: प्रभु नाम से टूटे हुए मन का मुरीद मनुष्य (कर्मों से बचने के लिए) कोई जगह नहीं ढूँढ सकता। (अपने किए अवगुणों का) बंधा हुआ यमराज के दर पे मार खाता है। (आत्मिक दुख-कष्ट की चोटों से बचाने कि लिए) प्रभु के नाम के बिना और कोई संगी साथी नहीं हो सकता। जम की इन चोटों से वही बचते हैं, जो प्रभु का नाम स्मरण करते हैं।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकत कूड़े सचु न भावै ॥ दुबिधा बाधा आवै जावै ॥ लिखिआ लेखु न मेटै कोई गुरमुखि मुकति करावणिआ ॥५॥
मूलम्
साकत कूड़े सचु न भावै ॥ दुबिधा बाधा आवै जावै ॥ लिखिआ लेखु न मेटै कोई गुरमुखि मुकति करावणिआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साकत कूड़े = झूठे मोह में फंसे हुए और प्रभु से विछुड़े हुए को। दुबिधा = मेर तेर, दु-चिक्तापन।5।
अर्थ: झूठे मोह में फंसे साकत को सदा स्थिर प्रभु (का नाम) अच्छा नही लगता। (उसे मोह वाली मेर-तेर पसंद है) उस मेर-तेर में फंसा हुआ जनम मरन के चक्कर में पड़ता है। (दुबिधा वाले किए कर्मों के अनुसार, माथे पर दुबिधा के संस्कारों का) लिखा लेख कोई मिटा नहीं सकता। (इस लेख से) वही खलासी पाता है, जो गुरु की शरण पड़ता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेईअड़ै पिरु जातो नाही ॥ झूठि विछुंनी रोवै धाही ॥ अवगणि मुठी महलु न पाए अवगण गुणि बखसावणिआ ॥६॥
मूलम्
पेईअड़ै पिरु जातो नाही ॥ झूठि विछुंनी रोवै धाही ॥ अवगणि मुठी महलु न पाए अवगण गुणि बखसावणिआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पेईअड़ै = पेक घर में, इस लोक में। झूठि = झूठे मोह में (फंसे रहने करके)। धाही = धाहें मार मार के। अवगणि मुठी = जिसे विकारों ने लूट लिया। गुणि = गुणों से।6।
अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने पेके घर (इस लोक) में प्रभु पति के साथ सांझ नहीं डाली, झूठे मोह के कारण प्रभु चरणों से विछुड़ी हुई वह (आखिर) धाड़ें मार मार के रोती है। जिस (के आत्मिक जीवन) को पाप (-स्वभाव) ने लूट लिया, उसे परमात्मा का महल नहीं मिलता। इन अवगुणों को गुणों का मालिक प्रभु (स्वयं ही) बख्शता है।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेईअड़ै जिनि जाता पिआरा ॥ गुरमुखि बूझै ततु बीचारा ॥ आवणु जाणा ठाकि रहाए सचै नामि समावणिआ ॥७॥
मूलम्
पेईअड़ै जिनि जाता पिआरा ॥ गुरमुखि बूझै ततु बीचारा ॥ आवणु जाणा ठाकि रहाए सचै नामि समावणिआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस (जीव-स्त्री) ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। ठाकि रहाए = रोके रखता है।7।
अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने पेके घर (इस लोक) में प्यारे प्रभु के साथ सांझ पा ली, वह गुरु की शरण पड़ कर (जगत के) मूल प्रभु (के गुणों) को समझती व विचारती है। जो सदा स्थिर प्रभु के नाम में टिके रहते हैं, गुरु उनका जनम मरन का चक्कर समाप्त कर देता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि बूझै अकथु कहावै ॥ सचे ठाकुर साचो भावै ॥ नानक सचु कहै बेनंती सचु मिलै गुण गावणिआ ॥८॥१॥
मूलम्
गुरमुखि बूझै अकथु कहावै ॥ सचे ठाकुर साचो भावै ॥ नानक सचु कहै बेनंती सचु मिलै गुण गावणिआ ॥८॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अकथु = जिस के गुण बयान ना हो सकें।8।
अर्थ: गुरु की शरण पड़ने से मनुष्य बेअंत गुणों वाले प्रभु (के गुणों) को समझता है। (औरों) को महिमा के वास्ते प्रेरता है। सदा स्थिर ठाकुर को (महिमा का) सदा स्थिर कर्म ही अच्छा लगता है। हे नानक! (गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य) सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण करता रहता है, (सदा स्थिर प्रभु के दर पे) आरजूऐं (करता रहता है)। प्रभु की महिमा करने वालों को सदा स्थिर प्रभु मिल जाता है।8।1।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
माझ महला ३ घरु १ ॥ करमु होवै सतिगुरू मिलाए ॥ सेवा सुरति सबदि चितु लाए ॥ हउमै मारि सदा सुखु पाइआ माइआ मोहु चुकावणिआ ॥१॥
मूलम्
माझ महला ३ घरु १ ॥ करमु होवै सतिगुरू मिलाए ॥ सेवा सुरति सबदि चितु लाए ॥ हउमै मारि सदा सुखु पाइआ माइआ मोहु चुकावणिआ ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। सबदि = गुरु के शब्द में। लाए = जोड़ता है। मारि = मार के। सुखु = आत्मिक आनंद। चुकावणिआ = समाप्त कर दिया।1।
अर्थ: जिस मनुष्य पर प्रभु की बख्शिश हो, उसे प्रभु गुरु से मिलाता है (गुरु की मेहर से वह मनुष्य) सेवा में ध्यान टिकाता है, गुरु के शब्द में चिक्त जोड़ता है। (इस तरह) वह (अपने अंदर से) अहंकार को मार के माया का मोह दूर करता है, और सदैव आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउ वारी जीउ वारी सतिगुर कै बलिहारणिआ ॥ गुरमती परगासु होआ जी अनदिनु हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
हउ वारी जीउ वारी सतिगुर कै बलिहारणिआ ॥ गुरमती परगासु होआ जी अनदिनु हरि गुण गावणिआ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी = सदके। बलिहारणिआ = कुर्बान। परगासु = आत्मिक जीवन देने वाली रौशनी। अनदिनु = हर रोज।1। रहाउ।
अर्थ: मैं सदैव गुरु से सदके हूँ कुर्बान हूँ। गुरु की मति ले के ही मनुष्य के अंदर (सही जीवन के वास्ते) आत्मिक प्रकाश होता है, और मनुष्य हर रोज (हर वक्त) परमात्मा की महिमा करता रहता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तनु मनु खोजे ता नाउ पाए ॥ धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ गुर की बाणी अनदिनु गावै सहजे भगति करावणिआ ॥२॥
मूलम्
तनु मनु खोजे ता नाउ पाए ॥ धावतु राखै ठाकि रहाए ॥ गुर की बाणी अनदिनु गावै सहजे भगति करावणिआ ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता = तब। धावतु = माया की ओर दौड़ता मन। राखै = काबू करे। ठाकि = रोक के। रहाए = रखे। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में।2।
अर्थ: जब मनुष्य अपने मन को खोजता रहे अपने शरीर को खोजता रहे (अर्थात, जो मनुष्य ये ध्यान रखे कि कहीं मन और ज्ञानेंद्रियां विकारों की तरफ तो नहीं पलट चलीं), तब परमात्मा का नाम प्राप्त कर लेता है। (और इस तरह विकारों की ओर) दौड़ते मन को काबू कर लेता है, रोक के (प्रभु चरणों में) जोड़े रखता है। जो मनुष्य हर वक्त गुरु की वाणी गाता रहता है, आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा की भक्ति करता रहता है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इसु काइआ अंदरि वसतु असंखा ॥ गुरमुखि साचु मिलै ता वेखा ॥ नउ दरवाजे दसवै मुकता अनहद सबदु वजावणिआ ॥३॥
मूलम्
इसु काइआ अंदरि वसतु असंखा ॥ गुरमुखि साचु मिलै ता वेखा ॥ नउ दरवाजे दसवै मुकता अनहद सबदु वजावणिआ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: काइआ = शरीर। असंखा = बेअंत गुणों वाला प्रभु। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। साचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। नउ दरवाजे = नौ द्वार (दो आँखें, दो कान, दो नासें, मुँह, गुदा, लिंग)। दसवै = दसवें द्वार से, दिमाग से विचार करके। मुकता = माया के मोह से आजाद। अनहद = (अनाहत, बिना आवाज के), एक रस, लगातार।3।
अर्थ: बेअंत गुणों के मालिक प्रभु मनुष्य के इस शरीर के अंदर ही बसता है। गुरु के सन्मुख रह के जब मनुष्य को सदा स्थिर प्रभु का नाम प्राप्त होता है तो (अपने अंदर बसते प्रभु के) दर्शन करता है। तब मनुष्य नौ कपाटों की वासनाओं से ऊँचा हो के दसवें द्वार में (भाव, विचार मण्डल में) पहुँच के (विकारों से) मुक्त हो जाता है और (अपने अंदर) एक रस महिमा की वाणी का अभ्यास करता है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सचा साहिबु सची नाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ अनदिनु सदा रहै रंगि राता दरि सचै सोझी पावणिआ ॥४॥
मूलम्
सचा साहिबु सची नाई ॥ गुर परसादी मंनि वसाई ॥ अनदिनु सदा रहै रंगि राता दरि सचै सोझी पावणिआ ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। साहिबु = मालिक। नाई = (स्ना = अरबी शब्द) बड़ाई, नामवर। मंनि = मनि, मन में। रंगि = प्रेम में। राता = मस्त। दरि सचै = सदा स्थि प्रभु के दर पे, प्रभु की हजूरी में। सोझी = आत्मिक जीवन की समझ।4।
अर्थ: मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है। उसका बड़प्पन भी सदा कायम रहने वाला है। (हे भाई!) गुरु की कृपा से (उसे अपने) मन में टिका के रख। (जो मनुष्य प्रभु की महिमा मन में बसाता है) वह हर समय सदा प्रभु के प्रेम में मस्त रहता है। (इस तरह) सदा स्थिर प्रभु की हजूरी में पहुँचा हुआ वह मनुष्य (सही जीवन की) समझ प्राप्त करता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाप पुंन की सार न जाणी ॥ दूजै लागी भरमि भुलाणी ॥ अगिआनी अंधा मगु न जाणै फिरि फिरि आवण जावणिआ ॥५॥
मूलम्
पाप पुंन की सार न जाणी ॥ दूजै लागी भरमि भुलाणी ॥ अगिआनी अंधा मगु न जाणै फिरि फिरि आवण जावणिआ ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सार = तमीज, पहिचान। पुंन = भला कर्म। दूजे = माया के मोह में। भरमि = भटकना में। भुलाणी = कुराहे पड़ी। मगु = (जीवन का सही) रास्ता।5।
अर्थ: जिस मनुष्य ने अच्छे-बुरे काम की तमीज नहीं की (भाव, कोई भला काम हो या बुरा काम हो जो मनुष्य करने से संकोच नहीं करता), जिस मनुष्य की तवज्जो माया के मोह में टिकी रहती है। जो माया की भटकना में पड़ के गलत रास्ते पे पड़ा रहता है, वह माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य (जीवन का सही) रास्ता नही समझता, वह मुड़-मुड़ के जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर सेवा ते सदा सुखु पाइआ ॥ हउमै मेरा ठाकि रहाइआ ॥ गुर साखी मिटिआ अंधिआरा बजर कपाट खुलावणिआ ॥६॥
मूलम्
गुर सेवा ते सदा सुखु पाइआ ॥ हउमै मेरा ठाकि रहाइआ ॥ गुर साखी मिटिआ अंधिआरा बजर कपाट खुलावणिआ ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ते = से, साथ। मेरा = ममता। साखी = शिक्षा के द्वारा। बजर = (वज्र), करड़े। कपाट = दरवाजे के भिक्त।6।
अर्थ: गुरु की बताई सेवा के द्वारा मनुष्य सदैव आत्मिक आनंद को प्राप्त करता है। अहम् और ममता को रोक के वश में रखता है। गुरु की शिक्षा पर चल के उसके अंदर से माया के मोह का अंधकार दूर हो जाता है। (उसके माया के मोह के वह) करड़े किवाड़ खुल जाते हैं (जिन्हों में उसकी तवज्जो जकड़ी पड़ी थी)।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हउमै मारि मंनि वसाइआ ॥ गुर चरणी सदा चितु लाइआ ॥ गुर किरपा ते मनु तनु निरमलु निरमल नामु धिआवणिआ ॥७॥
मूलम्
हउमै मारि मंनि वसाइआ ॥ गुर चरणी सदा चितु लाइआ ॥ गुर किरपा ते मनु तनु निरमलु निरमल नामु धिआवणिआ ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारि = मार के। मंनि = मनि, मन में। ते = से, साथ।7।
अर्थ: जिस मनुष्य ने सदा गुरु के चरणों में अपना चिक्त जोड़े रखा, जिस ने (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके (अपने) मन में (गुरु का शब्द बसाए रखा), गुरु की कृपा से उसका मन पवित्र हो गया, उसका शरीर (भाव, सारे ज्ञानेंद्रे) पवित्र हो गए, और वह पवित्र प्रभु का नाम सदैव स्मरण करता रहता है।7।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवणु मरणा सभु तुधै ताई ॥ जिसु बखसे तिसु दे वडिआई ॥ नानक नामु धिआइ सदा तूं जमणु मरणु सवारणिआ ॥८॥१॥२॥
मूलम्
जीवणु मरणा सभु तुधै ताई ॥ जिसु बखसे तिसु दे वडिआई ॥ नानक नामु धिआइ सदा तूं जमणु मरणु सवारणिआ ॥८॥१॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुधै ताई = तेरे वश है। दे = देता है।8।
अर्थ: (हे प्रभु! जीवों का) जीना (जीवों की) मौत, सब तेरे वश में है। (हे भाई!) जिस जीव पर प्रभु मेहर करता है, उसे (अपने नाम की दाति दे के) बडप्पन बख्शता है। हे नानक! सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। (नाम की इनायत से) जनम से ले के मौत तक सारा जीवन सुंदर बन जाता है।8।1।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंक 2 का भाव है कि गुरु नानक देव जी की अष्टपदी मिला के सारा जोड़ 2 बनता है।।