०२ गुरु अर्जन-देव चउपदे

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ चउपदे घरु १ ॥ मेरा मनु लोचै गुर दरसन ताई ॥ बिलप करे चात्रिक की निआई ॥ त्रिखा न उतरै सांति न आवै बिनु दरसन संत पिआरे जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ चउपदे घरु १ ॥ मेरा मनु लोचै गुर दरसन ताई ॥ बिलप करे चात्रिक की निआई ॥ त्रिखा न उतरै सांति न आवै बिनु दरसन संत पिआरे जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लोचै = लोचता है, तमन्ना करता है। ताई = वास्ते। बिलप = विरलाप। निआई = जैसा। त्रिखा = प्यास।1।
अर्थ: गुरु का दर्शन करने के लिए मेरा मन बड़ी तमन्ना कर रहा है (जैसे पपीहा स्वाति बूंद के लिए तड़पता है) पपीहे की तरह (मेरा मन गुरु के दर्शनों के लिए) तड़प रहा है। प्यारे संत-गुरु के दर्शन के बिना (दशर्नों की मेरी आत्मिक) प्यास तृप्त नहीं होती। मेरे मन को धैर्य नहीं आता।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ घोली जीउ घोलि घुमाई गुर दरसन संत पिआरे जीउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ घोली जीउ घोलि घुमाई गुर दरसन संत पिआरे जीउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। घोली = सदके। घोलि घुमाई = सदके, कर्बान, वारी।1। रहाउ।
अर्थ: मैं पिआरे संत-गुरु के दर्शन से कुर्बान हूं, सदके हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरा मुखु सुहावा जीउ सहज धुनि बाणी ॥ चिरु होआ देखे सारिंगपाणी ॥ धंनु सु देसु जहा तूं वसिआ मेरे सजण मीत मुरारे जीउ ॥२॥

मूलम्

तेरा मुखु सुहावा जीउ सहज धुनि बाणी ॥ चिरु होआ देखे सारिंगपाणी ॥ धंनु सु देसु जहा तूं वसिआ मेरे सजण मीत मुरारे जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुहावा = सुखावय, सुख देने वाला, सुंदर। सहज = आत्मिक अडोलता। धुनि = लहर। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता में लहर पैदा करने वाली। बाणी = महिमा। सारंग पाणी = हे सारंग पाणी! हे परमात्मा! (सारंग = धनुष। पाणी = पाणि, हाथ। धर्नुधारी प्रभु)। धंनु = भाग्यशाली। देसु = हृदय, देश। जहा = जहां। मुरारे = मुरारी, मुर+अरि = ‘मुर’ दैंत का वैरी।2।
अर्थ: हे धर्नुधारी प्रभु जी! तेरा मुख (तेरे मुंह का दर्शन) सुख देने वाला है (ठण्डक देने वाला है) तेरी महिमा (मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता की लहर पैदा करती है। हे धर्नुधारी! तेरे दर्शन किए काफी समय हो चुका है। हे मेरे सज्जन प्रभु! वह हृदय-देश भाग्यशाली है जिसमें तू (सदा) बसता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ घोली हउ घोलि घुमाई गुर सजण मीत मुरारे जीउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ घोली हउ घोलि घुमाई गुर सजण मीत मुरारे जीउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मेरे सज्जन गुरु! हे मेरे मित्र प्रभु! मैं तेरे पर कुर्बान हूँ, सदके हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता ॥ हुणि कदि मिलीऐ प्रिअ तुधु भगवंता ॥ मोहि रैणि न विहावै नीद न आवै बिनु देखे गुर दरबारे जीउ ॥३॥

मूलम्

इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता ॥ हुणि कदि मिलीऐ प्रिअ तुधु भगवंता ॥ मोहि रैणि न विहावै नीद न आवै बिनु देखे गुर दरबारे जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कदि = कब? प्रिअ = हे प्यारे! प्रिअ भगवंता = हे प्यारे भगवान! तुधु = तुझे। मोहि = मेरी। रैणि = (जिंदगी की) रात। नीद = शांति।3।
अर्थ: हे प्यारे भगवान! जब मैं तुझे एक घड़ी भर भी नहीं मिलता तो मुझे जैसे कलियुग सा प्रतीत होने लगता है (मैं तेरे विछोड़े में विहवल हूँ, बताओ अब मैं आपको कब मिल सकूँगा)। (हे भाई! गुरु की शरण के बिना परमात्मा से मिलाप नहीं हो सकता, तभी तो) गुरु के दरबार का दर्शन करने के बिना मेरी (जिंदगी की) रात (आसान) नहीं गुजरती, मेरे अंदर शांति नहीं आती।3।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ घोली जीउ घोलि घुमाई तिसु सचे गुर दरबारे जीउ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

हउ घोली जीउ घोलि घुमाई तिसु सचे गुर दरबारे जीउ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचे = सदा स्थिर रहने वाले।1। रहाउ।
अर्थ: मैं गुरु के दरबार से सदके हूँ कुर्बान हूँ जो सदैव अटल रहने वाला है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भागु होआ गुरि संतु मिलाइआ ॥ प्रभु अबिनासी घर महि पाइआ ॥ सेव करी पलु चसा न विछुड़ा जन नानक दास तुमारे जीउ ॥४॥

मूलम्

भागु होआ गुरि संतु मिलाइआ ॥ प्रभु अबिनासी घर महि पाइआ ॥ सेव करी पलु चसा न विछुड़ा जन नानक दास तुमारे जीउ ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भागु होआ = किस्मत जाग पड़ी है। गुरि = गुरु ने। संतु = शांत मूर्ति प्रभु। अबिनाशी = नाश रहित। घर महि = हृदय (ही)। करी = मैं करता हूँ। चसा = पल का तीसवां हिस्सा। विछुड़ा = मैं बिछुड़ता हूं।4।
अर्थ: मेरे भाग्य जाग पड़े हैं, गुरु ने मुझे शांति का स्रोत परमात्मा मिला दिया है (गुरु की कृपा से उस) अबिनाशी प्रभु को मैंने अपने हृदय में ढूंढ लिया है।
हे दास नानक! (कह: हे प्रभु! मेहर कर) मैं तेरे दासों की (नित्य) सेवा करता रहूँ, (तेरे दासों से) मैं एक पल भर भी ना बिछड़ जाऊँ, एक रत्ती भर भी ना अलग होऊँ।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ घोली जीउ घोलि घुमाई जन नानक दास तुमारे जीउ ॥ रहाउ॥१॥८॥

मूलम्

हउ घोली जीउ घोलि घुमाई जन नानक दास तुमारे जीउ ॥ रहाउ॥१॥८॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: वैसे तो साधारण तौर पर हरेक शब्द किसी प्रथाय ही हुआ करता है, ‘परथाय साखी महा पुरख बोलदे’। पर इस शब्द के साथ चिट्ठियों वाली कहानी मन घड़ंत प्रतीत होती है। चौथे बंद की तुक “भाग होआ गुरि संतु मिलाइआ” ध्यान से पढ़ें। इसका अर्थ है ‘गुरु ने संत (प्रभु) मिला दिया है। अगर कहानी ठीक होती तो कहते कि प्रभु ने गुरु मिला दिया है। उस कहानी में और भी कई कमियां हैं। यहां उनका जिक्र करना गैर जरूरी है। ये बिरह अवस्था का शब्द है, और ऐसे, और भी कई शब्द मिलते हैं। इसी ही राग में आ चुके गुरु राम दास जी के शब्द भी बिरहों अवस्था के हैं। बारंबार कहते हैं: ‘गुरु मेलहु’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तेरे दासों से सदके हूँ कुर्बान हूँ।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु माझ महला ५ ॥ सा रुति सुहावी जितु तुधु समाली ॥ सो कमु सुहेला जो तेरी घाली ॥ सो रिदा सुहेला जितु रिदै तूं वुठा सभना के दातारा जीउ ॥१॥

मूलम्

रागु माझ महला ५ ॥ सा रुति सुहावी जितु तुधु समाली ॥ सो कमु सुहेला जो तेरी घाली ॥ सो रिदा सुहेला जितु रिदै तूं वुठा सभना के दातारा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रुति = ऋतु, मौसम। सुहावी = सुखदायी। जितु = जिस में। समाली = मैं सम्हालता हूं, दिल में बसाता हूं। सुहेला = सुखदायी। घाली = सेवा में। रिदा = हृदय में। सुहेला = शांत। वुठा= वसा हुआ।1।
अर्थ: हे सभी जीवों के दाते! जब मैं तुझे अपने हृदय में बसाता हूँ, वह समय मुझे सुखदायी प्रतीत होता है। हे प्रभु! जो काम मैं तेरी सेवा के लिए करता हूँ, वह काम मुझे खुशी देता है। हे दातार! जिस दिल में तू बसता है, वह हृदय शीतल रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं साझा साहिबु बापु हमारा ॥ नउ निधि तेरै अखुट भंडारा ॥ जिसु तूं देहि सु त्रिपति अघावै सोई भगतु तुमारा जीउ ॥२॥

मूलम्

तूं साझा साहिबु बापु हमारा ॥ नउ निधि तेरै अखुट भंडारा ॥ जिसु तूं देहि सु त्रिपति अघावै सोई भगतु तुमारा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नउ निधि = (दुनिया के) नौ ही खजाने। अखुट = कभी न खत्म होने वाले। अघावै = तृप्त हो जाता है।2।
अर्थ: हे दातार! तू हमारे सभी जीवों का पिता है (और सभी को दातें बख्शता है)। तेरे घर में (जगत के सारे) नौ ही खजाने मौजूद हैं, तेरे खजानों में कभी कमी नहीं आती। (पर) जिस को (अपने नाम की दात) देता है, वह (दुनिया के पदार्थों की तरफ से) तृप्त हो जाता है, और, हे प्रभु! वही तेरा भक्त (कहलवा सकता) है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु को आसै तेरी बैठा ॥ घट घट अंतरि तूंहै वुठा ॥ सभे साझीवाल सदाइनि तूं किसै न दिसहि बाहरा जीउ ॥३॥

मूलम्

सभु को आसै तेरी बैठा ॥ घट घट अंतरि तूंहै वुठा ॥ सभे साझीवाल सदाइनि तूं किसै न दिसहि बाहरा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ को = हरेक जीव। साझीवाल = तेरे साथ सांझ रखने वाले। सदाइनि = कहलवाते हैं। किसै = किसी से। बाहरा = अलग किस्म।3।
अर्थ: हे दातार! तू खुद ही जीवों को गुरु की शरण में डाल के (माया के बंधनों से) आजाद करा देता है। तू स्वयं ही जीवों को मन का गुलाम बना के जनम मरण के चक्कर में भटकाता रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं आपे गुरमुखि मुकति कराइहि ॥ तूं आपे मनमुखि जनमि भवाइहि ॥ नानक दास तेरै बलिहारै सभु तेरा खेलु दसाहरा जीउ ॥४॥२॥९॥

मूलम्

तूं आपे गुरमुखि मुकति कराइहि ॥ तूं आपे मनमुखि जनमि भवाइहि ॥ नानक दास तेरै बलिहारै सभु तेरा खेलु दसाहरा जीउ ॥४॥२॥९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पा कर। मनमुखि = मन का गुलाम बना के। जनमि = जनम (मरन के चक्कर) में। दसाहरा = प्रगट।4।
अर्थ: हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं तुझसे कुर्बान हूँ, ये सारी जगत रचना तेरा ही प्रत्यक्ष तमाशा है।4।2।9।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अंक 2 का भाव है कि गुरु अरजन साहिब का दूसरा शब्द है। अंक 9 अब तक के सारे शबदों का जोड़ बताता है;

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ अनहदु वाजै सहजि सुहेला ॥ सबदि अनंद करे सद केला ॥ सहज गुफा महि ताड़ी लाई आसणु ऊच सवारिआ जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ अनहदु वाजै सहजि सुहेला ॥ सबदि अनंद करे सद केला ॥ सहज गुफा महि ताड़ी लाई आसणु ऊच सवारिआ जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनहदु = (अनाहत = not produced by beating [as sound]) वह आवाज जो कोई साज बजाए बगैर ही पैदा हो रही हो, एक रस शब्द। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुहेला = सुखदायी। सबदि = शब्द से। सद = सदा। केल = (केलि:) खेल, आनंद। सहज गुफा = आत्मक अडोलता की गुफा। ताड़ी = समाधि।1।
अर्थ: (गुरु की कृपा से मेरे अंदर परमात्मा की महिमा का) एक रस संगीत बज रहा है। (मेरा मन) आत्मिक अडोलता में टिक के सुखी हो रहा है, गुरु के शब्द के साथ जुड़ के सदा आनंद का रंग माण रहा है।
(सतिगुरु की मेहर से मैंने) आत्मिक अडोलता-रूपी गुफा में समाधि लगाई हुई है और सबसे ऊँचे अकाल पुरख के चरणों में बढ़िया ठिकाना बना लिया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

फिरि घिरि अपुने ग्रिह महि आइआ ॥ जो लोड़ीदा सोई पाइआ ॥ त्रिपति अघाइ रहिआ है संतहु गुरि अनभउ पुरखु दिखारिआ जीउ ॥२॥

मूलम्

फिरि घिरि अपुने ग्रिह महि आइआ ॥ जो लोड़ीदा सोई पाइआ ॥ त्रिपति अघाइ रहिआ है संतहु गुरि अनभउ पुरखु दिखारिआ जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फिरि घिरि = बारंबार। ग्रिह महि = हृदय घर में। अघाइ रहिआ = तृप्त रहा है। संतहु = हे संत जनों! गुरि = गुरु ने। अनभउ = अनुभव, आत्मिक प्रकाश। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभु।2।
अर्थ: हे संत जनों! गुरु ने (मुझे) आत्मिक प्रकाश दे के सब में व्यापक परमात्मा के दर्शन करा दिए हैं। अब (मेरा मन) मुड़ मुड़ के अंतरात्में में आ टिकता है। जो (आत्मिक शांति) मुझे चाहिए थी वह मैंने हासिल कर ली है, और (मेरा मन दुनिया की वासनाओं से) पूरी तरह से भर चुका है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपे राजनु आपे लोगा ॥ आपि निरबाणी आपे भोगा ॥ आपे तखति बहै सचु निआई सभ चूकी कूक पुकारिआ जीउ ॥३॥

मूलम्

आपे राजनु आपे लोगा ॥ आपि निरबाणी आपे भोगा ॥ आपे तखति बहै सचु निआई सभ चूकी कूक पुकारिआ जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राजनु = बादशाह। निरबाणी = निर्वाण, वासना रहित। तखति = तख्त पर। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। निआई = न्याय करने वाला।3।
अर्थ: (गुरु की कृपा से मुझे दिखाई दे गया है कि) प्रभु स्वयं ही बादशाह है और स्वयं ही प्रजा-रूप है। प्रभु वासना रहित भी है और (सब जीवों में व्यापक होने करके) स्वयं ही सारे पदार्थ भोग रहा है। वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभु स्वयं ही तख्त पर बैठा हुआ है और न्याय कर रहा है (इसलिए सुख आए चाहे दुख आए, मेरा) सारा गिला-शिकवा खत्म हो चुका है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहा डिठा मै तेहो कहिआ ॥ तिसु रसु आइआ जिनि भेदु लहिआ ॥ जोती जोति मिली सुखु पाइआ जन नानक इकु पसारिआ जीउ ॥४॥३॥१०॥

मूलम्

जेहा डिठा मै तेहो कहिआ ॥ तिसु रसु आइआ जिनि भेदु लहिआ ॥ जोती जोति मिली सुखु पाइआ जन नानक इकु पसारिआ जीउ ॥४॥३॥१०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसु = उस मनुष्य को। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। लहिआ = ढूंढ लिया। इक = परमात्मा ही। पसरिआ = व्याप रहा है।4।
अर्थ: (गुरु की मेहर से) मैंने परमात्मा को जिस (सर्व-व्यापक) रूप में देखा है वैसा ही कह दिया है। जिस मनुष्य ने ये भेद पा लिया है उसे (उसके मिलाप) का आनंद आता है। हे नानक! उस मनुष्य की तवज्जो प्रभु की ज्योति में मिली है, उसे आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, उसे सिर्फ परमात्मा ही सारे जगत में व्यापक दिखता हैं।4।3।10।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ जितु घरि पिरि सोहागु बणाइआ ॥ तितु घरि सखीए मंगलु गाइआ ॥ अनद बिनोद तितै घरि सोहहि जो धन कंति सिगारी जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ जितु घरि पिरि सोहागु बणाइआ ॥ तितु घरि सखीए मंगलु गाइआ ॥ अनद बिनोद तितै घरि सोहहि जो धन कंति सिगारी जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिसमें। घरि = हृदय घर में। पिरि = पिर ने। सखीए = हे सखी! गइआ = गाया जा सकता है। बिनोद = खुशियां। सोहहि = शोभायमान होते हैं। तितै घरि = उसी घर में। तितु घरि = उस घर में। धन = स्त्री। कंति = कंत ने।1।
अर्थ: हे सखी! जिस हृदय घर में प्रभु पति ने (अपने प्रकाश से) अच्छे भाग्य लगा दिये हों, उसके हृदय घर में (प्रभु पति की) महिमा का गीत गाए जाते है। जिस जीव-स्त्री को पति प्रभु ने आत्मिक सुंदरता बख्श दी हो, उसके हृदय घर में आतिमक आनंद शोभते हैं, आत्मिक खुशिआं शोभती हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा गुणवंती सा वडभागणि ॥ पुत्रवंती सीलवंति सोहागणि ॥ रूपवंति सा सुघड़ि बिचखणि जो धन कंत पिआरी जीउ ॥२॥

मूलम्

सा गुणवंती सा वडभागणि ॥ पुत्रवंती सीलवंति सोहागणि ॥ रूपवंति सा सुघड़ि बिचखणि जो धन कंत पिआरी जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सा = वह स्त्री। सीलवंति = मीठे स्वभाव वाली। सुघड़ि = सुचज्जी (जिसका मन सुंदर घड़ा हुआ है)। बिचखणि = विलक्षण, सिआनी। कंत पिआरी = पति की प्यारी।2।
अर्थ: जो जीव-स्त्री पति प्रभु की प्यारी बन जाए, वह सब गुणों की मलिका बन जाती है। वह भाग्यशाली हो जाती है। वह (आत्मिक ज्ञान-रूपी) पुत्रवती, सु-स्वाभाव वाली और सुहाग-भाग वाली बन जाती है। उसका आत्मिक जीवन सुंदर बन जाता है। वह सुचज्जे घाढ़त वाले मन वाले व्यक्तित्व और अच्छी सूझ की मलिका बन जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचारवंति साई परधाने ॥ सभ सिंगार बणे तिसु गिआने ॥ सा कुलवंती सा सभराई जो पिरि कै रंगि सवारी जीउ ॥३॥

मूलम्

अचारवंति साई परधाने ॥ सभ सिंगार बणे तिसु गिआने ॥ सा कुलवंती सा सभराई जो पिरि कै रंगि सवारी जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अचारवंति = अच्छे आचरणवाली। साई = सा ही, वही स्त्री। परधान = जानी मानी। बणे = फबते हैं। गिआने = ज्ञान से, गहरी समझ के सदके। सभराई = स+भराई, भाईयों वाली। पिर कै रंगि = पति के प्रेम में।3।
अर्थ: जो जीव-स्त्री प्रभु पति के प्रेम रंग में (रंग के) सुंदर जीवन वाली बन जाती है उसका आचरण ऊँचा हो जाता है वह (संगति में) जानी मानी जाती है। प्रभु पति के साथ गहरी सांझ के सदका सारे आत्मिक गुण उसके जीवन को संवार देते है। वह ऊँचे कुल वाली समझी जाती है। वह भाईयों वाली हो जाती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

महिमा तिस की कहणु न जाए ॥ जो पिरि मेलि लई अंगि लाए ॥ थिरु सुहागु वरु अगमु अगोचरु जन नानक प्रेम साधारी जीउ ॥४॥४॥११॥

मूलम्

महिमा तिस की कहणु न जाए ॥ जो पिरि मेलि लई अंगि लाए ॥ थिरु सुहागु वरु अगमु अगोचरु जन नानक प्रेम साधारी जीउ ॥४॥४॥११॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महिमा = उपमा, बड़िआई। तिस की = उसकी। पिरि = पिया ने। अंगि = अंग से, शरीर के साथ। लाए = लगा के। थिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। वरु = पति। अगमु = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = अ+गो+चर (गो = ज्ञानेंद्रिया, चर = पहुँच), जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। साधारी = स+आधरी, आसरे वाली।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस की’ में ‘तिसु’ और “तिस’ का फर्क ध्यानयोग है; यहां ‘तिसु’ में से ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट के ‘तिस’ बना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस जीव-स्त्री को प्रभु पति ने अपने चरणों में जोड़ के अपने में लीन कर लिया हो, उसकी उपमा बयान नही की जा सकती। हे दास नानक! जो परमात्मा अगम्य (पहुँच से परे) है जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती वह उस जीव-स्त्री का सदा कायम रहने वाला सुहाग-भाग बन जाता है। उस जीव-स्त्री को उसके प्रेम का आसरा सदैव मिला रहता है।4।4।11।

[[0098]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ खोजत खोजत दरसन चाहे ॥ भाति भाति बन बन अवगाहे ॥ निरगुणु सरगुणु हरि हरि मेरा कोई है जीउ आणि मिलावै जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ खोजत खोजत दरसन चाहे ॥ भाति भाति बन बन अवगाहे ॥ निरगुणु सरगुणु हरि हरि मेरा कोई है जीउ आणि मिलावै जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोजत = ढूंढते हुए। दरसन चाहे = दर्शनों की चाह करने से। भाति भाति = भांति भांति, कई किस्म के। बन = जंगल। अवगाहे = गाह मारे, ढूंढ डाले, तलाशे। निरगुण = माया के तीनों गुणों से ऊपर। सरगुण = रचे हुए जगत के स्वरूप वाला, माया के तीन गुण रच के अपना जगत रूपी स्वरूप दिखाने वाला। आणि = ला के।।1।
अर्थ: अनेक लोग (जंगलों पहाड़ों में) तलाशते तलाशते (परमात्मा के) दर्शन की तमन्ना करते हैं। कई किस्म के जंगल गाह मारते हैं। (पर इस तरह परमात्मा के दर्शन नही होते)। वह परमात्मा माया के तीन गुणों से अलग भी है और तीन गुणी संसार में व्यापक भी है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खटु सासत बिचरत मुखि गिआना ॥ पूजा तिलकु तीरथ इसनाना ॥ निवली करम आसन चउरासीह इन महि सांति न आवै जीउ ॥२॥

मूलम्

खटु सासत बिचरत मुखि गिआना ॥ पूजा तिलकु तीरथ इसनाना ॥ निवली करम आसन चउरासीह इन महि सांति न आवै जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खटु = छह। खटु सासत = छह शास्त्र (सांख, न्याय, विशैषिक, मीमांसा, योग और वेदांत)। मुखि = मुंह से। निवली कर्म-आँतों की वर्जिश (हाथ घुटनों पे रख के और आगे झुक के खड़े हो के पहले जोर से स्वाश अंदर को खींचते हैं, फिर सास स्वाश बाहर निकाल के आँतों को खींच लिया जाता है और चक्र में घुमाते हैं। इस साधन को निवली कर्म कहते हैं। ये साधन सवेरे शौच के बाद खाली पेट ही करते हैं)।2।
अर्थ: कई ऐसे हैं जो छह शास्त्रों को विचारते हैं और उनका उपदेश मुंह से (सुनाते हैं)। देव पूजा करते हैं और तिलक लगाते हैं, तीर्थों का स्नान करते हैं। कई ऐसे भी हैं जो निवली कर्म आदिक योगियों वाले चौरासी आसन करते हैं। पर इन उद्यमों से (मन में) शांति नहीं मिलती।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिक बरख कीए जप तापा ॥ गवनु कीआ धरती भरमाता ॥ इकु खिनु हिरदै सांति न आवै जोगी बहुड़ि बहुड़ि उठि धावै जीउ ॥३॥

मूलम्

अनिक बरख कीए जप तापा ॥ गवनु कीआ धरती भरमाता ॥ इकु खिनु हिरदै सांति न आवै जोगी बहुड़ि बहुड़ि उठि धावै जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बरख = वर्ष,साल। गवनु = चलना-फिरना, भ्रमण। भरमाता = चला फिरा। बहुड़ि बहुड़ि = बारंबार, मुड़ मुड़ के।3।
अर्थ: जोगी लोग अनेक साल जप करते हैं, तप साधते हैं। सारी धरती पे भ्रमण भी करते हैं। (इस तरह भी) हृदय में एक छिन के लिए भी शांति नहीं आती। फिर भी जोगी इन जपों-तपों के पीछे ही मुड़ मुड़ के ही दौड़ता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा मोहि साधु मिलाइआ ॥ मनु तनु सीतलु धीरजु पाइआ ॥ प्रभु अबिनासी बसिआ घट भीतरि हरि मंगलु नानकु गावै जीउ ॥४॥५॥१२॥

मूलम्

करि किरपा मोहि साधु मिलाइआ ॥ मनु तनु सीतलु धीरजु पाइआ ॥ प्रभु अबिनासी बसिआ घट भीतरि हरि मंगलु नानकु गावै जीउ ॥४॥५॥१२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। साधु = गुरु। घट = हृदय। मंगलु = महिमा के गीत।4।
अर्थ: परमात्मा ने कृपा करके मुझे गुरु मिला दिया है। गुरु से मुझे धैर्य मिला है। मेरा मन शीतल हो गया है (मेरे मन और ज्ञानेंद्रियों में से विकारों की तपस समाप्त हो चुकी है)। (गुरु की मेहर से) अविनाशी प्रभु मेरे हृदय में आ बसा है। अब (ये दास) नानक परमात्मा की महिमा का गीत ही गाता है (ये महिमा प्रभु चरणों में जोड़ के रखती है)।4।5।12।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ पारब्रहम अपर्मपर देवा ॥ अगम अगोचर अलख अभेवा ॥ दीन दइआल गोपाल गोबिंदा हरि धिआवहु गुरमुखि गाती जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ पारब्रहम अपर्मपर देवा ॥ अगम अगोचर अलख अभेवा ॥ दीन दइआल गोपाल गोबिंदा हरि धिआवहु गुरमुखि गाती जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारब्रहम = परमात्मा। अपरंपर = (अपर: नास्ति परो यस्य, जिससे परे कोई और नहीं), जो सबसे परे है। देव = प्रकाश रूप (दिव = चमकना)। अलख = (अलक्ष्य) जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सके। दइआल = दया का घर। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। गाती = गति देने वाला, उच्च आत्मिक अवस्था देने वाला।1।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ के उस हरि का स्मरण करो, जो परम आत्मा है। जिससे परे और कोई नहीं, जो सबसे परे है।
जो प्रकाश-रूप है, जो अगम्य (पहुँच से परे) है, जिस तक ज्ञाने इंद्रयों की पहुँच नहीं हो सकती। जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, जिसका भेद नहीं पाया जा सकता, जो दीनों पर दया करने वाला है। जो सुष्टि की पालना करने वाला है, जो सृष्टि के जीवों के दिलों की जानने वाला है और जो उच्च आत्मिक अवस्था देने वाला है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरमुखि मधुसूदनु निसतारे ॥ गुरमुखि संगी क्रिसन मुरारे ॥ दइआल दमोदरु गुरमुखि पाईऐ होरतु कितै न भाती जीउ ॥२॥

मूलम्

गुरमुखि मधुसूदनु निसतारे ॥ गुरमुखि संगी क्रिसन मुरारे ॥ दइआल दमोदरु गुरमुखि पाईऐ होरतु कितै न भाती जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मधुसूदन = (‘मधु’ दैंत को मारने वाला) परमात्मा। संगी = साथी। मुरारे = मुर+अरि, परमात्मा। दमोदरु = (दामन उदर, कृष्ण), परमात्मा। होरतु = और के द्वारा। होरतु भाती = और तरीके से।2।
अर्थ: गुरु की शरण पड़ने से मधु दैंत को मारने वाला (विकार रूपी दैंत से) बचा लेता है। गुरु की शरण पड़ने से मुर दैंत को मारने वाला प्रभु (सदा के लिए) साथी बन जाता है। गुरु की शरण पड़ने से ही वह प्रभु मिलता है जो दया का स्रोत है और जिसे दामादेर कहा है, किसी और तरीके से नहीं मिल सकता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरहारी केसव निरवैरा ॥ कोटि जना जा के पूजहि पैरा ॥ गुरमुखि हिरदै जा कै हरि हरि सोई भगतु इकाती जीउ ॥३॥

मूलम्

निरहारी केसव निरवैरा ॥ कोटि जना जा के पूजहि पैरा ॥ गुरमुखि हिरदै जा कै हरि हरि सोई भगतु इकाती जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरहारी = निर+आहारी, जिसे किसी खुराक की जरूरत नहीं, परमात्मा। केसव = (केशव: प्रशस्या: सन्ति अस्य) लंबे केशों वाले, परमात्मा। कोटि = क्रोड़। इकाती = एकान्तिन (devoted to one object only) अनिंन।3।
अर्थ: करोड़ों ही सेवक जिसके पैर पूजते हैं, वह परमात्मा केशव (सुंदर केशों वाला) किसी के साथ वैर नहीं रखता और उसे किसी खुराक की जरूरत नहीं पड़ती। गुरु के द्वारा जिस मनुष्य के हृदय में वह बस जाता है, वह मनुष्य अनिंन भक्त बन जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमोघ दरसन बेअंत अपारा ॥ वड समरथु सदा दातारा ॥ गुरमुखि नामु जपीऐ तितु तरीऐ गति नानक विरली जाती जीउ ॥४॥६॥१३॥

मूलम्

अमोघ दरसन बेअंत अपारा ॥ वड समरथु सदा दातारा ॥ गुरमुखि नामु जपीऐ तितु तरीऐ गति नानक विरली जाती जीउ ॥४॥६॥१३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अमोघ = अमोध, जरूर फल देने वाला। तितु = उस द्वारा। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। विरली = बहुत कम, गिनी चुनी।4।
अर्थ: उस परमात्मा का दर्शन जरूर (मन इच्छित) फल देता है। उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। उसकी हस्ती का दूसरा छोर नहीं ढूंढा जा सकता। वह बड़ी ताकतों वाला है और वह सदा ही दातें देता रहता है। गुरु की शरण पड़ कर अगर उसका नाम जपें, तो उसके नाम की इनायत से (संसार समुंदर से) पार हो जाते हैं। पर, हे नानक! ये ऊँची आत्मिक अवस्था किसी विरले ने ही समझी है।4।6।13।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ कहिआ करणा दिता लैणा ॥ गरीबा अनाथा तेरा माणा ॥ सभ किछु तूंहै तूंहै मेरे पिआरे तेरी कुदरति कउ बलि जाई जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ कहिआ करणा दिता लैणा ॥ गरीबा अनाथा तेरा माणा ॥ सभ किछु तूंहै तूंहै मेरे पिआरे तेरी कुदरति कउ बलि जाई जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कहिआ = कहा हुआ वचन, हुक्म। माणा = माण, आसरा, सहारा। कुदरति = स्मर्था। बलि जाई = सदके जाऊ।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू जो हुक्म करता है, वही जीव करते हैं। जो कुछ तू देता है, वही जीव हासिल कर सकते हैं। गरीब और अनाथ जीवों को तेरा ही आसरा है। हे मेरे प्यारे प्रभु! (जगत में) सब कुछ तू ही कर रहा है तू ही कर रहा है। मैं तेरी स्मर्था से सदके जाता हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भाणै उझड़ भाणै राहा ॥ भाणै हरि गुण गुरमुखि गावाहा ॥ भाणै भरमि भवै बहु जूनी सभ किछु तिसै रजाई जीउ ॥२॥

मूलम्

भाणै उझड़ भाणै राहा ॥ भाणै हरि गुण गुरमुखि गावाहा ॥ भाणै भरमि भवै बहु जूनी सभ किछु तिसै रजाई जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाणै = रजा मुताबक। उझड़ = गलत रास्ता। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। भरमि = भटकने में, भुलेखे में। तिसै = उस (परमात्मा) की ही। रजाई = रजा में।2।
अर्थ: परमात्मा की रजा में ही जीव (जिंदगी का) गलत रास्ता पकड़ लेते हैं और कई सही रास्ता पकड़ते हैं। परमात्मा की रजा में ही कई जीव गुरु की शरण पड़ कर हरि के गुण गाते हैं। प्रभु की रजा अनुसार ही जीव (माया के मोह की) भटकन में फंस के अनेक जूनों में भटकते फिरते हैं। (ये) सब कुछ उस प्रभु की रजा में ही हो रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना को मूरखु ना को सिआणा ॥ वरतै सभ किछु तेरा भाणा ॥ अगम अगोचर बेअंत अथाहा तेरी कीमति कहणु न जाई जीउ ॥३॥

मूलम्

ना को मूरखु ना को सिआणा ॥ वरतै सभ किछु तेरा भाणा ॥ अगम अगोचर बेअंत अथाहा तेरी कीमति कहणु न जाई जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वरतै = बर्तता है, घटित होता है। भाणा = रजा, हुक्म। अथाह = जिसकी गहराई का थाह न लगाया जा सके।3।
अर्थ: हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! हे इन्द्रियों की पहुँच से परे प्रभु! हे अथाह प्रभु! (अपनी स्मर्था से) ना ही कोई जीव मूर्ख है ना ही कोई बुद्धिमान। (जगत में जो कुछ हो रहा है) सब तेरा हुक्म चल रहा है। तेरे बराबर की कोई शै बताई नहीं जा सकती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खाकु संतन की देहु पिआरे ॥ आइ पइआ हरि तेरै दुआरै ॥ दरसनु पेखत मनु आघावै नानक मिलणु सुभाई जीउ ॥४॥७॥१४॥

मूलम्

खाकु संतन की देहु पिआरे ॥ आइ पइआ हरि तेरै दुआरै ॥ दरसनु पेखत मनु आघावै नानक मिलणु सुभाई जीउ ॥४॥७॥१४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खाकु = चरण धूल। आइ = आकर। हरि = हे हरि! पेखत = देखते हुए। आघावै = तृप्त हो जाता है। सुभाई = (तेरी) रजा अनुसार।4।
अर्थ: हे प्यारे हरि! मैं तेरे दर पे आ गिरा हूँ। मुझे अपने संतों के चरणों की धूल दे। हे नानक! (कह: परमात्मा का) दर्शन करने से मन (दुनिया के पदार्थों की तरफ से) भर जाता है और उसकी रजा अनुसार उससे मिलाप हो जाता है।4।7।14।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ दुखु तदे जा विसरि जावै ॥ भुख विआपै बहु बिधि धावै ॥ सिमरत नामु सदा सुहेला जिसु देवै दीन दइआला जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ दुखु तदे जा विसरि जावै ॥ भुख विआपै बहु बिधि धावै ॥ सिमरत नामु सदा सुहेला जिसु देवै दीन दइआला जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तदे = तब ही। भुख = माया की तृष्णा। विआपै = जोर डाल देती है। बहु बिधि = कई तरीकों से। सुहेला = सुखी।1।
अर्थ: (जीव को) दुख तभी होता है जब उसे (परमात्मा का नाम) बिसर जाता है। (नाम से वंचित जीव पे) माया की तृष्णा जोर डाल लेती है, और जीव कई ढंगों से (माया की खातिर) भटकता फिरता है। दीनों पे दया करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य को (नाम की दात) देता है वह स्मरण कर-कर के सदा सुखी रहता है।1।

[[0099]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु मेरा वड समरथा ॥ जीइ समाली ता सभु दुखु लथा ॥ चिंता रोगु गई हउ पीड़ा आपि करे प्रतिपाला जीउ ॥२॥

मूलम्

सतिगुरु मेरा वड समरथा ॥ जीइ समाली ता सभु दुखु लथा ॥ चिंता रोगु गई हउ पीड़ा आपि करे प्रतिपाला जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: स्मर्था = ताकत वाला। जीइ = जीउ में। समाली = मैं संभाला हूं। हउ पीड़ा = अहंकार का दुख।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जीइ’ है ‘जीउ’ का अधिकरण कारक, एकवचन ‘जीइ’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (पर ये नाम की दात गुरु से ही मिलती है) मेरा सतिगुरु बड़ी ताकत वाला है, (उसकी मेहर से) जब मैं (परमात्मा का नाम अपने) हृदय में बसाता हूँ तो मेरा सारा दुख दूर हो जाता है। (मेरे अंदर से) चिन्ता का रोग दूर हो जाता है, मेरा अहंकार रूपी दुख दूर हो जाता है। (चिन्ता, अहं आदि से) परमात्मा स्वयं ही मेरी रक्षा करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बारिक वांगी हउ सभ किछु मंगा ॥ देदे तोटि नाही प्रभ रंगा ॥ पैरी पै पै बहुतु मनाई दीन दइआल गोपाला जीउ ॥३॥

मूलम्

बारिक वांगी हउ सभ किछु मंगा ॥ देदे तोटि नाही प्रभ रंगा ॥ पैरी पै पै बहुतु मनाई दीन दइआल गोपाला जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (गुरु की मति ले के परमात्मा के दर से) मैं नादान बालक की तरह हरेक चीज मांगता हूँ। वह सदा मुझे (मेरी मुंह मांगी चीजें) देता रहता है, और प्रभु की दी हुई चीजों से मुझे कभी कोई कमी नहीं आती। वह परमात्मा दीनों पर दया करने वाला है। सृष्टि के जीवों की पालना करने वाला है, मैं उसके चरणों में गिर गिर के सदा उसको मनाता रहता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ बलिहारी सतिगुर पूरे ॥ जिनि बंधन काटे सगले मेरे ॥ हिरदै नामु दे निरमल कीए नानक रंगि रसाला जीउ ॥४॥८॥१५॥

मूलम्

हउ बलिहारी सतिगुर पूरे ॥ जिनि बंधन काटे सगले मेरे ॥ हिरदै नामु दे निरमल कीए नानक रंगि रसाला जीउ ॥४॥८॥१५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। मंगा = मांगू। तोटि = घाटा। प्रभ रंगा = प्रभ के पदार्थों में। पै = पड़ कर। मनाई = मैं मनाता हूं। बलिहारी = कुर्बान। जिनि = जिस (गुरु) ने। सगले = सारे। दे = दे के। रंगि = (अपने) प्रेम में (जोड़ के)। रसाला = रस का घर।4।
अर्थ: मैं पूरे सतिगुरु से कुर्बान जाता हूँ, उसने मेरे सारे माया के बंधन तोड़ दिए हैं।
हे नानक! गुरु ने जिनके हृदय में परमात्मा का नाम दे के, पवित्र जीवन वाला बना दिया है, वह प्रभु के प्रेम में लीन हो के आत्मिक आनंद का घर बन जाते हैं।4।8।15।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ लाल गोपाल दइआल रंगीले ॥ गहिर ग्मभीर बेअंत गोविंदे ॥ ऊच अथाह बेअंत सुआमी सिमरि सिमरि हउ जीवां जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ लाल गोपाल दइआल रंगीले ॥ गहिर ग्मभीर बेअंत गोविंदे ॥ ऊच अथाह बेअंत सुआमी सिमरि सिमरि हउ जीवां जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: लाल = हे लाल! हे प्यारे! श्रंगीले = हे रंगीले! , रंग+आलय, हे आनंद के श्रोत! गंभीर = हे बड़े जिगरे वाले! हउ = मैं। जीवां = आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूं।1।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! हे सृष्टि के रखवाले! हे दया के घर! हे आनंद के श्रोत! हे गहरे और बड़े जिगरे वाले! हे बेअंत गोबिंद! हे सबसे ऊँचे अथाह औरबेअंत प्रभु! हे स्वामी! (तेरी मेहर से तेरा नाम) स्मरण कर-कर के मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ।11

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुख भंजन निधान अमोले ॥ निरभउ निरवैर अथाह अतोले ॥ अकाल मूरति अजूनी स्मभौ मन सिमरत ठंढा थीवां जीउ ॥२॥

मूलम्

दुख भंजन निधान अमोले ॥ निरभउ निरवैर अथाह अतोले ॥ अकाल मूरति अजूनी स्मभौ मन सिमरत ठंढा थीवां जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुख भंजन = हे दुखों के नाश करने वाले! निधान = हे खजाने! संभौ = स्वयंभू, अपने आप से प्रगट होने वाला। मनि = मन में। ठंडा = शांत।2।
अर्थ: हे (जीवों के) दुखों के नाश करने वाले! हे कीमती पदार्थों के खजाने! हे निडर निर्वैर अथाह और अतोल प्रभु! तेरी हस्ती मौत से रहित है, तू योनियों में नहीं आता, और अपने आप से ही प्रगट होता है। (तेरा नाम) मन में स्मरण कर-कर के मैं शांत चिक्त हो जाता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा संगी हरि रंग गोपाला ॥ ऊच नीच करे प्रतिपाला ॥ नामु रसाइणु मनु त्रिपताइणु गुरमुखि अम्रितु पीवां जीउ ॥३॥

मूलम्

सदा संगी हरि रंग गोपाला ॥ ऊच नीच करे प्रतिपाला ॥ नामु रसाइणु मनु त्रिपताइणु गुरमुखि अम्रितु पीवां जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसाइणु = रसों के घर। त्रिपताइणु = तृप्त करने वाला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस।3।
अर्थ: परमात्मा (अपनी) सृष्टि की पालणा करने वाला है, सदा सभ जीवों के अंग-संग रहता है और सब सुख देने वाला है। (जगत में) उच्च कहलाने वाले और नीच कहलाने वाले सभी जीवों की पालना करता है। परमात्मा का नाम सब रसों का श्रोत है (जीवों के) मन को (माया की तृष्णा से) तृप्त करने वाला है।
गुरु की शरण पड़ कर आत्मिक जीवन देने वाले उस नाम रस को मैं पीता रहता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुखि सुखि पिआरे तुधु धिआई ॥ एह सुमति गुरू ते पाई ॥ नानक की धर तूंहै ठाकुर हरि रंगि पारि परीवां जीउ ॥४॥९॥१६॥

मूलम्

दुखि सुखि पिआरे तुधु धिआई ॥ एह सुमति गुरू ते पाई ॥ नानक की धर तूंहै ठाकुर हरि रंगि पारि परीवां जीउ ॥४॥९॥१६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुखि = दुख में। पिआरे = हे प्यारे! तुधु = तूझे। सुमति = अच्छी अक्ल। ते = से। धर = आसरा। ठाकुर = हे ठाकुर! रंगि = प्रेम में।4।
अर्थ: हे प्यारे प्रभु! दुख में (फंसा होऊँ, चाहे) सुख में (बस रहा होऊं), मैं सदा तुझे ही ध्याता हूँ (तेरा ही ध्यान धरता हूँ) - ये अच्छी अक्ल मैंने (अपने) गुरु से ली है। हे सबके पालणहार! नानक का आसरा तू ही है। (हे भाई!) परमात्मा के प्रेम रंग में (लीन हो के ही) मैं (संसार समुंदर से) पार लांघ सकता हूँ।4।9।16।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ धंनु सु वेला जितु मै सतिगुरु मिलिआ ॥ सफलु दरसनु नेत्र पेखत तरिआ ॥ धंनु मूरत चसे पल घड़ीआ धंनि सु ओइ संजोगा जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ धंनु सु वेला जितु मै सतिगुरु मिलिआ ॥ सफलु दरसनु नेत्र पेखत तरिआ ॥ धंनु मूरत चसे पल घड़ीआ धंनि सु ओइ संजोगा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धंनु = धन्य, भाग्योंवाले। जितु = जिस (समय) में। मैं = मुझे। सफलु = फल देने वाला। नेत्र = आँखों से। मूरत = महूरत, दो घड़ियों का समय। चसा = एक पल का तीसवां हिस्सा। संजोगा = मिलाप के समय।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (मेरी किस्मत से) वह समय भाग्यशाली (साबित हुआ) जिस समय मुझे सतिगुरु मिल गए, (गुरु का) दर्शन (मेरे वास्ते) फल दायक हो गया (क्योंकि इन) आँखों से (गुरु के) दर्शन करते ही मैं (विकारों के समुंदर से) पार लांघ गया। (सो मेरे वास्ते) वह महूरत, वह चसे, वह पल, वह घड़ीयां- वह (गुरु) मिलाप के समय सारे ही सौभाग्यशाली हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदमु करत मनु निरमलु होआ ॥ हरि मारगि चलत भ्रमु सगला खोइआ ॥ नामु निधानु सतिगुरू सुणाइआ मिटि गए सगले रोगा जीउ ॥२॥

मूलम्

उदमु करत मनु निरमलु होआ ॥ हरि मारगि चलत भ्रमु सगला खोइआ ॥ नामु निधानु सतिगुरू सुणाइआ मिटि गए सगले रोगा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: करत = करते हुए। होआ = हो गया। मारगि = रास्ते पे। भ्रमु = भटकना।2।
अर्थ: (गुरु द्वारा बताएकर्म स्मरण के वास्ते) उद्यम करते (मेरा) मन पवित्र हो गया है, (गुरु के द्वारा) प्रभु केरास्ते पर चलते हुए मेरी सारी भटकना समाप्त हो गयी है। गुरु ने मुझे (सारे गुणों का) खजाना प्रभु का नाम सुना दिया है (उसकी इनायत से) मेरे सारे (मानसिक) रोग दूर हो गए हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंतरि बाहरि तेरी बाणी ॥ तुधु आपि कथी तै आपि वखाणी ॥ गुरि कहिआ सभु एको एको अवरु न कोई होइगा जीउ ॥३॥

मूलम्

अंतरि बाहरि तेरी बाणी ॥ तुधु आपि कथी तै आपि वखाणी ॥ गुरि कहिआ सभु एको एको अवरु न कोई होइगा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वखाणी = बयान की। कथी = कही। तै = तूने। गुरि = गुरु ने। सभु = हर जगह।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) गुरु ने मुझे बताया है कि हर जगह एक तू ही तू है, तेरे बराबर का और कोई भी (ना हुआ है ना है और) ना ही होगा। (इस वास्ते अब मुझे) अंदर बाहर (सब जीवों में) तेरी ही वाणी सुनाई दे रही है (हरेक में तू ही बोलता प्रतीत हो रहा है। मुझे ये दृढ़ हो गया है कि हरेक जीव में) तू स्वयं ही कथन कर रहा है, तू स्वयं ही व्याख्यान कर रहा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रित रसु हरि गुर ते पीआ ॥ हरि पैनणु नामु भोजनु थीआ ॥ नामि रंग नामि चोज तमासे नाउ नानक कीने भोगा जीउ ॥४॥१०॥१७॥

मूलम्

अम्रित रसु हरि गुर ते पीआ ॥ हरि पैनणु नामु भोजनु थीआ ॥ नामि रंग नामि चोज तमासे नाउ नानक कीने भोगा जीउ ॥४॥१०॥१७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अम्रित रसु = नाम अमृत का स्वाद। ते = से। थीआ = हो गया। नामि = नाम में (जुड़े रहना)। भोगा = दुनिया के पदार्थ भोगने।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) परमात्मा के नाम रस का स्वाद मुझे गुरु के पास से प्राप्त हुआ है। अब परमात्मा का नाम ही मेरा खाना पीना है और नाम ही मेरा हंडाना है। प्रभु नाम में जुड़े रहना ही मेरे वास्ते दुनिया की सारी खुशियां हैं। नाम में जुड़े रहना ही मेरे वास्ते दुनिया के रंग तमाशे हैं। प्रभु नाम में ही मेरे वास्ते दुनिया के भोग विलास हैं।4।10।17।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ सगल संतन पहि वसतु इक मांगउ ॥ करउ बिनंती मानु तिआगउ ॥ वारि वारि जाई लख वरीआ देहु संतन की धूरा जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ सगल संतन पहि वसतु इक मांगउ ॥ करउ बिनंती मानु तिआगउ ॥ वारि वारि जाई लख वरीआ देहु संतन की धूरा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सगल = सारे। पहि = पास से। मांगउ = मैं मांगता हूं। वसतु = अच्छी चीज। करउ = मैं करता हूं। मानु = अहंकार। तिआगउ = मैं त्याग दूं। वारि वारि = सदके, कुर्बान। जाई = मै जाऊं। वरीआ = वारी। धूरा = चरण धूल।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरा भजन करने वाले सारे लोगों से मैं तेरा नाम पदार्थ ही मांगता हूँ। और (उनके आगे) बिनती करता हूं (कि किसी तरह) मैं (अपने अंदर से) अहंकार दूर कर सकूँ। हे प्रभु! मैं लाखों बार (संतों के) सदके कुर्बान जाता हूँ, मुझे अपने संतों की धूल बख्श।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम दाते तुम पुरख बिधाते ॥ तुम समरथ सदा सुखदाते ॥ सभ को तुम ही ते वरसावै अउसरु करहु हमारा पूरा जीउ ॥२॥

मूलम्

तुम दाते तुम पुरख बिधाते ॥ तुम समरथ सदा सुखदाते ॥ सभ को तुम ही ते वरसावै अउसरु करहु हमारा पूरा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पुरख = सर्व व्यापक। बिधाता = पैदा करने वाला, निर्माता। ते = से। वरसावै = फलित होता है। अउसरु = अवसर, समय, मनुष्य जनम रूपी समय। पूरा = सफल, कामयाब।2।
अर्थ: हे प्रभु! तू सब जीवों को पैदा करने वाला है। तू ही सब में व्यापक है। और, तू ही सब जीवों को दातें देने वाला है। हे प्रभु! तू सारी ताकतों का मालिक है, तू ही सारे सुख देने वाला है। हरेक जीव तुझसे ही मुरादें पाता है (मैं भी तुझसे ये मांग मांगता हूँ कि अपने नाम की दाति दे के) मेरा मानव जन्म का समय कामयाब कर।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरसनि तेरै भवन पुनीता ॥ आतम गड़ु बिखमु तिना ही जीता ॥ तुम दाते तुम पुरख बिधाते तुधु जेवडु अवरु न सूरा जीउ ॥३॥

मूलम्

दरसनि तेरै भवन पुनीता ॥ आतम गड़ु बिखमु तिना ही जीता ॥ तुम दाते तुम पुरख बिधाते तुधु जेवडु अवरु न सूरा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दरसनि = दर्शन से। भवन = (बहुवचन) शहर, सरीर शहर। पुनीता = पवित्र। गढ़ = किला। बिखमु = मुश्किल। जिसको जीतना मुश्किल है। सूरा = सूरमा।3।
अर्थ: हे प्रभु! (जिस लोगों ने) तेरे दर्शन (की इनायत) से अपने शरीर रूपी नगर को पवित्र कर लिया है, उन्होंने इस मुश्किल मन रूपी किले पर विजय प्राप्त की है। हे प्रभु! तू ही सबको दातें देने वाला है। तू ही सबमें व्यापक है। तू ही सबको पैदा करने वाला है। तेरे बराबर का और कोई सूरमा नहीं है।3।

[[0100]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

रेनु संतन की मेरै मुखि लागी ॥ दुरमति बिनसी कुबुधि अभागी ॥ सच घरि बैसि रहे गुण गाए नानक बिनसे कूरा जीउ ॥४॥११॥१८॥

मूलम्

रेनु संतन की मेरै मुखि लागी ॥ दुरमति बिनसी कुबुधि अभागी ॥ सच घरि बैसि रहे गुण गाए नानक बिनसे कूरा जीउ ॥४॥११॥१८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रेनु = चरण धूल। मुखि = मुंह पर, माथे पर। दुरमति = बुरी मति। कुबुधि = बुरी अकल। अभागी = भाग गई। सच घरि = सदा स्थिर प्रभु के घर में। कूरा = कूड़ा, माया के मोह के झूठे संस्कार।4।
अर्थ: (जब से) तेरे संत जनों की धूल मेरे माथे पे लगी है, मेरी दुर-मति का नाश हो गया है। मेरी कुमति दूर हो चुकी है। हे नानक! (कह:) जो लोग सदा स्थिर प्रभु के चरणों में टिके रहते हैं और प्रभु के गुण गाते हैं, उनके (अंदर से माया के मोह वाले) झूठे संस्कार नाश हो जाते हैं।4।11।18।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ विसरु नाही एवड दाते ॥ करि किरपा भगतन संगि राते ॥ दिनसु रैणि जिउ तुधु धिआई एहु दानु मोहि करणा जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ विसरु नाही एवड दाते ॥ करि किरपा भगतन संगि राते ॥ दिनसु रैणि जिउ तुधु धिआई एहु दानु मोहि करणा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दाते = हे दातार! स्ंगि = साथ। राते = हे रंगे हुए! रैणि = रात। धिआइ = मैं ध्याऊं। मोहि = मुझे।1।
अर्थ: हे इतने बड़े दातार! (हे बेअंत दातें देने वाले प्रभु!) हे भक्तों से प्यार करने वाले प्रभु! (मेरे पर) कृपा कर, मैं तुझे कभी ना भुलाऊं। मुझे ये दान दे कि जैसे हो सके मैं दिन रात तेरे चरणों का ध्यान धरता रहूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माटी अंधी सुरति समाई ॥ सभ किछु दीआ भलीआ जाई ॥ अनद बिनोद चोज तमासे तुधु भावै सो होणा जीउ ॥२॥

मूलम्

माटी अंधी सुरति समाई ॥ सभ किछु दीआ भलीआ जाई ॥ अनद बिनोद चोज तमासे तुधु भावै सो होणा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माटी = शरीर। सुरति = ज्योति, समझ, सोचने की ताकत। समाई = लीन कर दी। भलीयां = अच्छियां। जाई = जगहें।2।
अर्थ: हे प्रभु! (हमारे इस) जड़ शरीर में तूने चेतनंता डाल दी है, तूने (हम जीवों को) सब कुछ दिया हुआ है, अच्छी जगहें दी हुईं हैं। हे प्रभु! (तेरे पैदा किए जीव कई तरह की) खुशियां खेल तमाशे कर रहे हैं। ये सब कुछ जो हो रहा है तेरी रजा के मुताबिक हो रहा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस दा दिता सभु किछु लैणा ॥ छतीह अम्रित भोजनु खाणा ॥ सेज सुखाली सीतलु पवणा सहज केल रंग करणा जीउ ॥३॥

मूलम्

जिस दा दिता सभु किछु लैणा ॥ छतीह अम्रित भोजनु खाणा ॥ सेज सुखाली सीतलु पवणा सहज केल रंग करणा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: छतीह अंम्रित भोजनु = कई किस्मों का बढ़िया भोजन। सुखाली = सुखदायी। पवणा = हवा। सहज केल = बेफिक्री के कलोल।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का दिया हुआ सब कुछ हमें मिल रहा है (जिसकी मेहर से) अनेक किस्मों का खना हम खा रहे हैं। (आराम करने के लिए) सुखदायक चारपाई बिस्तरे हमें मिले हुए है। ठण्डी हवा हम ले रहे हैं, और बेफिक्री के कई खेल तमाशे हम करते हैं (उसे कभी विसारना नहीं चाहिए)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा बुधि दीजै जितु विसरहि नाही ॥ सा मति दीजै जितु तुधु धिआई ॥ सास सास तेरे गुण गावा ओट नानक गुर चरणा जीउ ॥४॥१२॥१९॥

मूलम्

सा बुधि दीजै जितु विसरहि नाही ॥ सा मति दीजै जितु तुधु धिआई ॥ सास सास तेरे गुण गावा ओट नानक गुर चरणा जीउ ॥४॥१२॥१९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जितु = जिस (बुद्धि) के द्वारा।4।
अर्थ: हे प्रभु! मुझे ऐसी बुद्धि दे, जिसकी इनायत से मैं तुझे कभी ना भुलाऊँ। मुझे वही मति दे, ता कि मैं तूझे स्मरण करता रहूँ।
हे नानक! (कह:) मुझे गुरु के चरणों का आसरा दे, ता कि मैं हरेक सांस के साथ तेरे गुण गाता रहूँ।4।12।19।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ सिफति सालाहणु तेरा हुकमु रजाई ॥ सो गिआनु धिआनु जो तुधु भाई ॥ सोई जपु जो प्रभ जीउ भावै भाणै पूर गिआना जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ सिफति सालाहणु तेरा हुकमु रजाई ॥ सो गिआनु धिआनु जो तुधु भाई ॥ सोई जपु जो प्रभ जीउ भावै भाणै पूर गिआना जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रजाई = हे रजा के मालिक। जो तुधु भाई = जो तुझे ठीक लगे। सोई = वही। भाणै = रजा में राजी रहना। पूर = पूर्ण, ठीक।1।
अर्थ: हे रजा के मालिक प्रभु! तेरा हुक्म (सिर माथे पर मानना) तेरी महिमा ही है। जो तुझे ठीक लगता है (उसमें अपनी भलाई जानना) यही असल ज्ञान है असल समाधि है।
(हे भाई!) जो कुछ प्रभु जी को भाता है (उसे स्वीकार करना ही) असल जप है। परमात्मा के भाणे में चलना ही असल ज्ञान है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रितु नामु तेरा सोई गावै ॥ जो साहिब तेरै मनि भावै ॥ तूं संतन का संत तुमारे संत साहिब मनु माना जीउ ॥२॥

मूलम्

अम्रितु नामु तेरा सोई गावै ॥ जो साहिब तेरै मनि भावै ॥ तूं संतन का संत तुमारे संत साहिब मनु माना जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। साहिब = हे साहिब! मनि = मन। भावै = प्यारा लगता है। माना = पतीजता है।2।
अर्थ: हे मालिक प्रभु! आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम वही मनुष्य गा सकता है, जो तेरे मन में (तुझे) प्यारा लगता है। हे साहिब! तू ही संतों का (सहारा) है। संत तेरे आसरे जीते हैं। तेरे संतों का मन सदा तेरे (चरणों में) जुड़ा रहता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं संतन की करहि प्रतिपाला ॥ संत खेलहि तुम संगि गोपाला ॥ अपुने संत तुधु खरे पिआरे तू संतन के प्राना जीउ ॥३॥

मूलम्

तूं संतन की करहि प्रतिपाला ॥ संत खेलहि तुम संगि गोपाला ॥ अपुने संत तुधु खरे पिआरे तू संतन के प्राना जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रतिपाला = पालना। खेलहि = आत्मिक आनंद लेते हैं। तुम संगि = तेरी संगति में रह के। खरो = बहुत। प्राना = जिंद जान, असल सहारा।3।
अर्थ: हे गोपाल प्रभु! हे सृष्टि के पालणहार! तू अपने संतों की सदा रक्षा करता है। तेरे चरणों में जुड़े रह के संत आत्मिक आनंद का सुख लेते हैं। तुझे अपने संत बहुत प्यारे लेगते हैं, तू संतों की जिंद जान है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

उन संतन कै मेरा मनु कुरबाने ॥ जिन तूं जाता जो तुधु मनि भाने ॥ तिन कै संगि सदा सुखु पाइआ हरि रस नानक त्रिपति अघाना जीउ ॥४॥१३॥२०॥

मूलम्

उन संतन कै मेरा मनु कुरबाने ॥ जिन तूं जाता जो तुधु मनि भाने ॥ तिन कै संगि सदा सुखु पाइआ हरि रस नानक त्रिपति अघाना जीउ ॥४॥१३॥२०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कै = से। तूं = तूझे। जाता = पहचाना है। तुधु मनि = तेरे मन में। त्रिपति अघाना = (माया की तृष्णा की तरफ से) बिल्कुल तृप्त हो गए हैं।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मेरा मन तेरे उन संतों से सदा सदके है, जिन्होंने तुझे पहचाना है (तेरे साथ गहरी सांझ डाली है), जो तुझे तेरे मन में प्यारे लगते हैं। (जो भाग्यशाली) उनकी संगति में रहते हैं, वे सदा आत्मिक आनंद का सुख पाप्त करते हैं। वे परमात्मा का नाम रस पी के (माया की तृष्णा की ओर से) सदैव तृप्त रहते हैं।4।13।20।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ तूं जलनिधि हम मीन तुमारे ॥ तेरा नामु बूंद हम चात्रिक तिखहारे ॥ तुमरी आस पिआसा तुमरी तुम ही संगि मनु लीना जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ तूं जलनिधि हम मीन तुमारे ॥ तेरा नामु बूंद हम चात्रिक तिखहारे ॥ तुमरी आस पिआसा तुमरी तुम ही संगि मनु लीना जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधि = खजाना। जल निधि = समुंदर। मीन = मछलियां। चात्रिक = पपीहे। तिखहारे = प्यास से घबराए हुए। तुम ही संगि = तेरे ही साथ।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू (जैसे) समुंदर है और हम (जीव) तेरी मछलियां हैं। हे प्रभु! तेरा नाम (जैसे, स्वाति नक्षत्र की बरखा की) बूँद है, और हम (जीव, जैसे) प्यासे पपीहे हैं।
हे प्रभु! मुझे तेरे मिलाप की आस है मुझे तेरे नाम जल की प्यास है (जो तेरी मेहर हो तो मेरा) मन तेरे ही चरणों में जुड़ा रहे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ बारिकु पी खीरु अघावै ॥ जिउ निरधनु धनु देखि सुखु पावै ॥ त्रिखावंत जलु पीवत ठंढा तिउ हरि संगि इहु मनु भीना जीउ ॥२॥

मूलम्

जिउ बारिकु पी खीरु अघावै ॥ जिउ निरधनु धनु देखि सुखु पावै ॥ त्रिखावंत जलु पीवत ठंढा तिउ हरि संगि इहु मनु भीना जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पी = पी के। खीर = क्षीर, दूध। अघावे = तृप्त होना, पेट भर जाना। देखि = देख के। त्रिखावंत = प्यासा। भीना = भीगा हुआ।2।
अर्थ: जैसे अंजान नादान बालक (अपनी माँ का) दूध पी के तृप्त हो जाता है, जैसे (कोई) कंगाल मनुष्य (प्राप्त हुआ) धन देख के सुख महिसूस करता है, जैसे कोई प्यासा ठण्डा पानी पी के (खुश होता है), वैसे ही (हे प्रभु! अगर तेरी कृपा हो तो) मेरा ये मन तेरे चरणों में (तेरे नाम जल से) भीग जीए (तो मुझे खुशी हो)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिउ अंधिआरै दीपकु परगासा ॥ भरता चितवत पूरन आसा ॥ मिलि प्रीतम जिउ होत अनंदा तिउ हरि रंगि मनु रंगीना जीउ ॥३॥

मूलम्

जिउ अंधिआरै दीपकु परगासा ॥ भरता चितवत पूरन आसा ॥ मिलि प्रीतम जिउ होत अनंदा तिउ हरि रंगि मनु रंगीना जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंधिआरै = अंधेरे में। दीपकु = दीया। चितवत = याद करते हुए। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के। रंगि = रंग में। प्रेम रंग मे।3।
अर्थ: जिस प्रकार अंधेरे में दीपक प्रकाश करता है, जिस प्रकार पति से मिलाप की तमन्ना करते करते स्त्री की आस पूरी होती है, और अपने प्रीतम को मिल के उसके हृदय में आनंद पैदा होता है, ठीक उसी प्रकार (जिस पे प्रभु की मेहर हो उसका) मन प्रभु के प्रेम रंग में रंगा जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतन मो कउ हरि मारगि पाइआ ॥ साध क्रिपालि हरि संगि गिझाइआ ॥ हरि हमरा हम हरि के दासे नानक सबदु गुरू सचु दीना जीउ ॥४॥१४॥२१॥

मूलम्

संतन मो कउ हरि मारगि पाइआ ॥ साध क्रिपालि हरि संगि गिझाइआ ॥ हरि हमरा हम हरि के दासे नानक सबदु गुरू सचु दीना जीउ ॥४॥१४॥२१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। कउ = को। मारगि = रास्ते पर। क्रिपालि = कृपाल ने। साध क्रिपालि = कृपालु गुरु ने। गिझाइआ = आदत डाल दी। सचु = सदा स्थिर।4।
अर्थ: हे नानक! (कह:) संतों ने मुझे परमातमा के (मिलाप के) रास्ते परडाल दिया है। कृपालु गुरु ने मुझे परमात्मा के चरणों में रहने की आदत डाल दी है। अब परमात्मा मेरा (आसरा बन गया है), मैं परमात्मा का (ही) सेवक (बन चुका) हूँ। गुरु ने मुझे सदा स्थिर रहने वाला महिमा का शब्द बख्श दिया है।4।14।21।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ अम्रित नामु सदा निरमलीआ ॥ सुखदाई दूख बिडारन हरीआ ॥ अवरि साद चखि सगले देखे मन हरि रसु सभ ते मीठा जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ अम्रित नामु सदा निरमलीआ ॥ सुखदाई दूख बिडारन हरीआ ॥ अवरि साद चखि सगले देखे मन हरि रसु सभ ते मीठा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमलीआ = निर्मल, साफ, पवित्र। दूख बिडारन = दुख दूर करने योग्य। हरिआ = हरी। अवरि = और। साद = स्वाद। चखि = चख के। सगले = सारे। मन = हे मन!।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘अवरि’ है ‘अवर’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मन! जो परमात्मा (जीवों को) सुख देने वाला है और (जीवों के) दुख दूर करने की स्मर्था रखता है, उसका नाम आत्मिक जीवन देने वाला ऐसा जल है जो सदा ही साफ रहता है। हे मन! (दुनिया के पदार्थों के) सार स्वाद चख के मैंने देख लिए हैं, परमात्मा के नाम का स्वाद और सभी से मीठा है।1।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

जो जो पीवै सो त्रिपतावै ॥ अमरु होवै जो नाम रसु पावै ॥ नाम निधान तिसहि परापति जिसु सबदु गुरू मनि वूठा जीउ ॥२॥

मूलम्

जो जो पीवै सो त्रिपतावै ॥ अमरु होवै जो नाम रसु पावै ॥ नाम निधान तिसहि परापति जिसु सबदु गुरू मनि वूठा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिपतावै = तृप्त हो जाता है। अमरु = मौत रहित, जिसे आत्मिक मौत ना आए। निधान = खजाने। जिसु मनि = जिस के मन में।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो जो परमात्मा के नाम का रस पीता है, नाम का रस प्राप्त करता है, वह (दुनिया के पदार्थों की ओर से) तृप्त हो जाता है, उसे आत्मिक मौत कभी भी छूह नहीं सकती। (पर प्रभु-) नाम के खजाने सिर्फ उसे मिलते हैं, जिसके मन में गुरु का शब्द आ बसता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिनि हरि रसु पाइआ सो त्रिपति अघाना ॥ जिनि हरि सादु पाइआ सो नाहि डुलाना ॥ तिसहि परापति हरि हरि नामा जिसु मसतकि भागीठा जीउ ॥३॥

मूलम्

जिनि हरि रसु पाइआ सो त्रिपति अघाना ॥ जिनि हरि सादु पाइआ सो नाहि डुलाना ॥ तिसहि परापति हरि हरि नामा जिसु मसतकि भागीठा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। अघाना = तृप्त हो गया। साद = स्वाद। तिसहि = उस को ही। मसतकि = माथे पे। भागीठा = सौभाग्य।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सादु’ है एक वचन व ‘साद’ है बहुवचन।
नोट: ‘तिसहि’ में ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा, क्रिया विशेषण ‘हि’ के कारण नहीं लगी है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम का रस चखा है, वह पूर्ण तौर पे तृप्त हो गया है (उसकी माया वाली प्यास व भूख मिट चुकी है)। जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम का स्वाद चखा है, वह (माया के हमलों, विकारों के हमलों के सन्मुख) कभी डोलता नहीं। (पर) परमात्मा का यह नाम सिर्फ उस मनुष्य को मिलता है जिसके माथे के अच्छे भाग्य (जाग जाएं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि इकसु हथि आइआ वरसाणे बहुतेरे ॥ तिसु लगि मुकतु भए घणेरे ॥ नामु निधाना गुरमुखि पाईऐ कहु नानक विरली डीठा जीउ ॥४॥१५॥२२॥

मूलम्

हरि इकसु हथि आइआ वरसाणे बहुतेरे ॥ तिसु लगि मुकतु भए घणेरे ॥ नामु निधाना गुरमुखि पाईऐ कहु नानक विरली डीठा जीउ ॥४॥१५॥२२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकसु हथि = एक के हाथ में। वरसाणे = लाभ उठाते हैं। मुकतु = माया के बंधनों से आजाद। घणेरे = अनेक। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।4।
अर्थ: हे नानक! कह: जब यह हरि नाम एक (गुरु) के हाथ में आ जाता है तो (उस गुरु के पास से) अनेक लोग लाभ उठाते हैं। उस (गुरु के) चरणों में लग के अनेक ही मनुष्य (माया के बंधनों से) आजाद हो जाते हैं। ये नाम खजाना गुरु की शरण पड़ने से ही मिलता है। विरलों (किसी किसी) ने ही (इस नाम खजाने के) दर्शन किए हैं।4।15।22।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ निधि सिधि रिधि हरि हरि हरि मेरै ॥ जनमु पदारथु गहिर ग्मभीरै ॥ लाख कोट खुसीआ रंग रावै जो गुर लागा पाई जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ निधि सिधि रिधि हरि हरि हरि मेरै ॥ जनमु पदारथु गहिर ग्मभीरै ॥ लाख कोट खुसीआ रंग रावै जो गुर लागा पाई जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निधि = नौ निधियां, दुनिया के नौ खजाने। सिध = आत्मिक ताकतें (जो आम तौर पे अठारह माने गए हैं)। रिधि = उन की बहुलता। मेरै = मेरे हृदय में, मेरे वास्ते। पदारथु = कीमती चीज। गंभीरै = बड़े जिगरे वाले प्रभु की मेहर से। कोटि = करोड़ों। गुर पाई = गुरु की चरनीं।1।
अर्थ: (हे भाई!) मेरे वास्ते तो परमात्मा का नाम ही दुनिया के नौ खजाने हैं। प्रभु नाम ही आत्मिक ताकतें हैं। गहरे और बड़े जिगरे वाले परमात्मा की मेहर से मुझे मनुष्य जनम (दुर्लभ) पदार्थ (दिखाई दे रहा) है। (पर ये नाम गुरु की कृपा से ही मिलता है) जो मनुष्य गुरु की चरणीं लगता है, वह लाखों करोड़ों खुशियों का आनंद लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरसनु पेखत भए पुनीता ॥ सगल उधारे भाई मीता ॥ अगम अगोचरु सुआमी अपुना गुर किरपा ते सचु धिआई जीउ ॥२॥

मूलम्

दरसनु पेखत भए पुनीता ॥ सगल उधारे भाई मीता ॥ अगम अगोचरु सुआमी अपुना गुर किरपा ते सचु धिआई जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेखत = देखते हुए। सगले = सारे। उधारे = (विकारों से) बचा ले। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। ते = से।2।
अर्थ: (गुरु का) दीदार करके (मेरा तन मन) पवित्र हो गया है। मेरे सारे भाई और मित्र (ज्ञानेंद्रियों को गुरु ने विकारों से) बचा लिये हैं। मैं गुरु की कृपा सेअपने उस मालिक को स्मरण कर रहा हूँ, जो अगम्य (पहुँच से परे) है। जिस तक ज्ञान इंद्रियों की पहुँच नहीं है और जो सदा कायम रहने वाला है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कउ खोजहि सरब उपाए ॥ वडभागी दरसनु को विरला पाए ॥ ऊच अपार अगोचर थाना ओहु महलु गुरू देखाई जीउ ॥३॥

मूलम्

जा कउ खोजहि सरब उपाए ॥ वडभागी दरसनु को विरला पाए ॥ ऊच अपार अगोचर थाना ओहु महलु गुरू देखाई जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कउ = जिस को। उपाए = पैदा किए हुये जीव। महलु = टिकाना।3।
अर्थ: जिस परमात्मा को उसके पैदा किए सारे जीव ढूँढते रहते हैं, उसका दर्शन कोई बिरला ही भाग्यशाली मनुष्य प्राप्त करता है। जो प्रभु सबसे ऊँची हस्ती वाला है, जिसके गुणों का दूसरा छोर नहीं मिल सकता, जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, उसका वह ऊँचा स्थान ठिकाना गुरु (ही) दिखाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गहिर ग्मभीर अम्रित नामु तेरा ॥ मुकति भइआ जिसु रिदै वसेरा ॥ गुरि बंधन तिन के सगले काटे जन नानक सहजि समाई जीउ ॥४॥१६॥२३॥

मूलम्

गहिर ग्मभीर अम्रित नामु तेरा ॥ मुकति भइआ जिसु रिदै वसेरा ॥ गुरि बंधन तिन के सगले काटे जन नानक सहजि समाई जीउ ॥४॥१६॥२३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गंभीर = हे बड़े जिगरे वाले! अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। आत्मिक मौत से बचाने वाला। मुकति = विकारों से खलासी। जिसु रिदै = जिसके हृदय में। गुरि = गुरु ने। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाई = लीनता।4।
अर्थ: हे गहरे प्रभु! हे बड़े जिगरे वाले प्रभु! तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला है। जिस मनुष्य के दिल में तेरा नाम बस जाता है, वह विकारों से मुक्त हो जाता है।
हे नानक! (जिनके हृदय में प्रभु नाम बसा है) गुरु ने उनके सारे माया के फाहे काट दिए हैं वे सदा आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं।4।16।23।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ प्रभ किरपा ते हरि हरि धिआवउ ॥ प्रभू दइआ ते मंगलु गावउ ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत हरि धिआईऐ सगल अवरदा जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ प्रभ किरपा ते हरि हरि धिआवउ ॥ प्रभू दइआ ते मंगलु गावउ ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत हरि धिआईऐ सगल अवरदा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ। मंगलु = महिमा का गीत। गावउ = मैं गाता हूँ। अवरदा = उम्र।1।
अर्थ: परमात्मा की मेहर से मैं परमातमा का नाम स्मरण करता हूँ, परमात्मा की ही कृपा से मैं परमातमा के महिमा के गीत गाता हूँ।
(हे भाई!) उठते बैठते सोते जागते सारी (ही) उम्र परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु अउखधु मो कउ साधू दीआ ॥ किलबिख काटे निरमलु थीआ ॥ अनदु भइआ निकसी सभ पीरा सगल बिनासे दरदा जीउ ॥२॥

मूलम्

नामु अउखधु मो कउ साधू दीआ ॥ किलबिख काटे निरमलु थीआ ॥ अनदु भइआ निकसी सभ पीरा सगल बिनासे दरदा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अउखधु = दवा। मो कउ = मुझे। साधू = गुरु ने। किलबिख = पाप, किलविष। पीरा = पीड़ा। सगल = सारे।2।
अर्थ: परमातमा का नाम दारू (है, जब) मुझे गुरु ने दिया (इस की इनायत से मेरे सारे) पाप कट गए और मैं पवित्र हो गया। (मेरे अंदर आत्मिक) सुख पैदा हो गया। (मेरे अंदर से अहंकार की) सारी पीड़ा निकल गई। मेरे सारे दुख-दर्द दूर हो गए।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस का अंगु करे मेरा पिआरा ॥ सो मुकता सागर संसारा ॥ सति करे जिनि गुरू पछाता सो काहे कउ डरदा जीउ ॥३॥

मूलम्

जिस का अंगु करे मेरा पिआरा ॥ सो मुकता सागर संसारा ॥ सति करे जिनि गुरू पछाता सो काहे कउ डरदा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मुकता = विकारों से आजाद। सति करे = सति कर, ठीक जान के, निश्चय धार के। जिनि = जिस ने। काहे कउ = किस लिए? 3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिस का’ मैं शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) मेरा प्यारा (गुरु परमात्मा) जिस मनुष्य की सहायता करता है, वह इस संसार समुंदर (के विकारों) से मुक्त हो जाता है। जिस मनुष्य ने श्रद्धा धार के गुरु के साथ सांझ डाल ली, उसे (इस समुंदर से) डरने की जरूरत नहीं रह जाती।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब ते साधू संगति पाए ॥ गुर भेटत हउ गई बलाए ॥ सासि सासि हरि गावै नानकु सतिगुर ढाकि लीआ मेरा पड़दा जीउ ॥४॥१७॥२४॥

मूलम्

जब ते साधू संगति पाए ॥ गुर भेटत हउ गई बलाए ॥ सासि सासि हरि गावै नानकु सतिगुर ढाकि लीआ मेरा पड़दा जीउ ॥४॥१७॥२४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साधू = गुरु। गुर भेटत = गुरु के मिलने से। हउ बलाए = हउमे की बला। गावै नानकु = नानक गाता है। सतिगुरि = सतिगुरु ने। पड़दा ढाकि लीआ = इज्जत रख ली, विकारों के हमलों से बचा के इज्जत रख ली।4।
अर्थ: (हे भाई!) जब से मुझे गुरु की संगति मिली है, गुरु को मिलने से (मेरे अंदर से) अहंकार की बला दूर हो गई। सतिगुरु ने (अहंकार आदि विकारों से बचा के) मेरी इज्जत रख ली है। अब नानक हरेक स्वास के साथ परमात्मा के गुण गाता है।4।17।24।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ ओति पोति सेवक संगि राता ॥ प्रभ प्रतिपाले सेवक सुखदाता ॥ पाणी पखा पीसउ सेवक कै ठाकुर ही का आहरु जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ ओति पोति सेवक संगि राता ॥ प्रभ प्रतिपाले सेवक सुखदाता ॥ पाणी पखा पीसउ सेवक कै ठाकुर ही का आहरु जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ओतिपोति = परोया, ओत प्रोत, sewn crosswise and lengthwise। संगि = साथ। प्रतिपाले = रक्षा करता है। सुखदाता = सुख देने वाला। पीसउ = मैं पीसता हूँ। सेवक कै = सेवक के दर पर। आहरु = उद्यम।1।
अर्थ: (जैसे कपड़े का सूत) ओत प्रोत हो के परोया होता है (वैसे ही परमात्मा अपने) सेवक के साथ मिला रहता है। (जीवों को) सुख देने वाला प्रभु अपने सेवकों की रक्षा करता है। (मेरी चाहत है कि) मैं प्रभु के सेवकों के दर पे पानी ढोऊँ, पंखा फेरूँ और चक्की पीसूँ। (क्योंकि सेवकों को) पालणहार प्रभु (के स्मरण) का ही उद्यम रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

काटि सिलक प्रभि सेवा लाइआ ॥ हुकमु साहिब का सेवक मनि भाइआ ॥ सोई कमावै जो साहिब भावै सेवकु अंतरि बाहरि माहरु जीउ ॥२॥

मूलम्

काटि सिलक प्रभि सेवा लाइआ ॥ हुकमु साहिब का सेवक मनि भाइआ ॥ सोई कमावै जो साहिब भावै सेवकु अंतरि बाहरि माहरु जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिलक = फाही। प्रभि = प्रभु ने। काटि = काट के। सेवक मनि = सेवक के मन में। साहिब भावै = साहिब को ठीक लगता है। अंतरि बाहरि = नाम जपने में और जगत के साथ प्यार से पेश आने पर। माहरु = माहिर।2।
अर्थ: प्रभु ने (जिसे उसकी माया की मोह की) फाँसी काट के अपनी सेवा भक्ति में जोड़ा है उस सेवक के मन में मालिक प्रभु का हुक्म प्यारा लगने लगता है। वह सेवक वही कमाई करता है, जो मालिक प्रभु को ठीक लगती है। वह सेवक नाम स्मरण में और जगत से प्रेम के साथ पेश आने में माहिर हो जाता है।2।

[[0102]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं दाना ठाकुरु सभ बिधि जानहि ॥ ठाकुर के सेवक हरि रंग माणहि ॥ जो किछु ठाकुर का सो सेवक का सेवकु ठाकुर ही संगि जाहरु जीउ ॥३॥

मूलम्

तूं दाना ठाकुरु सभ बिधि जानहि ॥ ठाकुर के सेवक हरि रंग माणहि ॥ जो किछु ठाकुर का सो सेवक का सेवकु ठाकुर ही संगि जाहरु जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ बिधि = सारी हालातें। दाना = माहिर, सियाणा, जानने वाला। जाहरु = प्रगट।3।
अर्थ: हे प्रभु! (अपने सेवकों के दिल की) तू जानता है।, तू (अपने सेवकों का) पालणहार है, तू (सेवकों को माया के मोह से बचाने के) सब तरीके जानता है।
(हे भाई!) पालनहार प्रभु के सेवक प्रभु के मिलाप का आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। पालणहार प्रभु का स्वै उसके सेवक का स्वै बन जाता है। (ठाकुर और उसके सेवक के आत्मिक जीवन में कोई फर्क नहीं रह जाता)। ठाकुर के चरणों में जुड़ा रह के सेवक (लोक परलोक में) प्रगट हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपुनै ठाकुरि जो पहिराइआ ॥ बहुरि न लेखा पुछि बुलाइआ ॥ तिसु सेवक कै नानक कुरबाणी सो गहिर गभीरा गउहरु जीउ ॥४॥१८॥२५॥

मूलम्

अपुनै ठाकुरि जो पहिराइआ ॥ बहुरि न लेखा पुछि बुलाइआ ॥ तिसु सेवक कै नानक कुरबाणी सो गहिर गभीरा गउहरु जीउ ॥४॥१८॥२५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ठाकुरि = ठाकुर ने। जो = जिस को। पहिराइआ = सिरोपा दिया, आदर दिया। बहुरि = मुड़, फिर। पुछि = पूछ के। कै = से।4।
अर्थ: जिस (सेवक) को प्यारे ठाकुर प्रभु ने (सेवा भक्ति का) सिरोपा (सम्मान) बख्शा है, उसे फिर (उसके कर्मों का) लेखा नहीं पूछा। (लेखा पूछने के लिए) नहीं बुलाया (भाव, वह सेवक बुरे कर्मों की तरफ जाता ही नहीं)।
हे नानक! (कह:) मैं उस सेवक से सदके जाता हूँ। वह सेवक गहरे स्वभाव वाला, बड़े जिगरे वाला और ऊँचे स्वाभाव वाला और उच्च अमोलक जीवन वाला हो जाता है।4।18।25।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ सभ किछु घर महि बाहरि नाही ॥ बाहरि टोलै सो भरमि भुलाही ॥ गुर परसादी जिनी अंतरि पाइआ सो अंतरि बाहरि सुहेला जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ सभ किछु घर महि बाहरि नाही ॥ बाहरि टोलै सो भरमि भुलाही ॥ गुर परसादी जिनी अंतरि पाइआ सो अंतरि बाहरि सुहेला जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ किछु = सारा कुछ, सारा आत्मिक आनंद। घरि महि = हृदय घर में (टिके रहने से)। टोले = (सुख की) तलाश करता है। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाही = गलत राह पर भटके रहते हैं। परसादी = कृपा से। अंतरि = अंदर, हृदय में। अंतरि बाहरि = प्रभु चरणों में जुड़ा हुआ और जगत से प्रेम से रहता हुआ। सुहेला = सुखी।1।
अर्थ: गुरु की कृपा से जिस मनुष्यों ने अपने हृदय मेंही टिक के परमात्मा को पा लिया है, वे अंतरात्मे स्मरण करते हुए भी जगत से प्रेम का इस्तेमाल करते हुए भी सदा सुखी रहते हैं। सारा आत्मिक सुख हृदय में टिके रहने में है, बाहर भटकने में नहीं। जो मनुष्य बाहर सुख की तलाश करता है वह सुख नहीं पा सकता। ऐसे लोग तो भटकना में पड़े रहके कुमार्ग पर पड़े रहते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

झिमि झिमि वरसै अम्रित धारा ॥ मनु पीवै सुनि सबदु बीचारा ॥ अनद बिनोद करे दिन राती सदा सदा हरि केला जीउ ॥२॥

मूलम्

झिमि झिमि वरसै अम्रित धारा ॥ मनु पीवै सुनि सबदु बीचारा ॥ अनद बिनोद करे दिन राती सदा सदा हरि केला जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झिमि झिमि = मध्यम मध्यम सुर से। सुनि = सुन के। अनद बिनोद = आत्मिक सुख आनंद। केला = केल, खेल तमाशे, आनंद।2।
अर्थ: (जैसे मध्यम-मध्यम बरखा होती है और वह धरती को सींचती जाती है उसी तरह जब) आत्मिक अडोलता की हालत में नाम अमृत की धार धीरे-धीरे बरसती है तब मनुष्य का मन गुरु का शब्द सुन के (प्रभु के गुणों की) विचार सुन के उस अमृत धारा को पीता जाता है (अपने अंदर टिकाए जाता है) (उस अवस्था में मन) हर समय आत्मिक आनंद लेता रहता है, सदैव परमात्मा के मिलाप का सुख प्राप्त करता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम जनम का विछुड़िआ मिलिआ ॥ साध क्रिपा ते सूका हरिआ ॥ सुमति पाए नामु धिआए गुरमुखि होए मेला जीउ ॥३॥

मूलम्

जनम जनम का विछुड़िआ मिलिआ ॥ साध क्रिपा ते सूका हरिआ ॥ सुमति पाए नामु धिआए गुरमुखि होए मेला जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साध = गुरु। ते = से, साथ। सूका = सूखा हुआ। सुमति = अच्छी अक्ल। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।3।
अर्थ: (महिमा की इनायत से) जन्मों जन्मांतरों का बिछुड़ा हुआ जीव प्रभु चरणों से मिलाप हासिल कर लेता है। मनुष्य का रूखा हो चुका मन गुरु की कृपा से प्यार रस से तर हो जाता है। गुरु से जब मनुष्य श्रेष्ठ मति लेता है, तब परमात्मा का नाम स्मरण करता है। गुरु की शरण पड़ने से जीव का परमात्मा से मिलाप हो जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जल तरंगु जिउ जलहि समाइआ ॥ तिउ जोती संगि जोति मिलाइआ ॥ कहु नानक भ्रम कटे किवाड़ा बहुड़ि न होईऐ जउला जीउ ॥४॥१९॥२६॥

मूलम्

जल तरंगु जिउ जलहि समाइआ ॥ तिउ जोती संगि जोति मिलाइआ ॥ कहु नानक भ्रम कटे किवाड़ा बहुड़ि न होईऐ जउला जीउ ॥४॥१९॥२६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरंग = लहर। जलहि = जल ही, जल में ही। भ्रम किवाड़ा = भटकना के तख्ते। जउला = (फारसी शब्द ‘जउला’ = दौड़ता) दौड़ भाग करने वाला, भटकनेवाला।4।
अर्थ: जैसे (नदी आदि के) पानी की लहिर (उस नदी में से उभर के फिर उस) नदी के पानी में ही समा जाती है वैसे ही (गुरु की शरण पड़ कर स्मरण करने से मनुष्य की) तवज्जो (ज्योति) प्रभु की ज्योति में मिली रहती है।
हे नानक! कह: (गुरु के सन्मुख हो के स्मरण करने से मनुष्य के) भटकनों रूपी किवाड़ (दरवाजे) खुल जाते हैं, और फिर मनुष्य माया के पीछे दौड़-भाग करने वाले स्वभाव का नहीं रहता।4।19।26।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ तिसु कुरबाणी जिनि तूं सुणिआ ॥ तिसु बलिहारी जिनि रसना भणिआ ॥ वारि वारि जाई तिसु विटहु जो मनि तनि तुधु आराधे जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ तिसु कुरबाणी जिनि तूं सुणिआ ॥ तिसु बलिहारी जिनि रसना भणिआ ॥ वारि वारि जाई तिसु विटहु जो मनि तनि तुधु आराधे जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तूं = तुझे, तेरी महिमा, तेरा नाम। रसना = जीभ (से)। भणिआ = उचारा। वारि वारि जाई = मैं सदके जाता हूँ। विटहुं = से।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) जिस मनुष्य ने तेरा नाम सुना है (जो सदा तेरी महिमा सुनता है), मैं उससे सदके जाता हूं। जिस मनुष्य ने अपनी जिहवा से तेरा नाम उचारा है (जो तेरी महिमा करता रहता है), उससे मैं वारने जाता हूँ। (हे प्रभु!) उस मनुष्य से (बार बार) कुर्बान जाता हूं, जो अपने मन से अपने शरीर से तुझे याद करता रहता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिसु चरण पखाली जो तेरै मारगि चालै ॥ नैन निहाली तिसु पुरख दइआलै ॥ मनु देवा तिसु अपुने साजन जिनि गुर मिलि सो प्रभु लाधे जीउ ॥२॥

मूलम्

तिसु चरण पखाली जो तेरै मारगि चालै ॥ नैन निहाली तिसु पुरख दइआलै ॥ मनु देवा तिसु अपुने साजन जिनि गुर मिलि सो प्रभु लाधे जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पखाली = मैं धोता हूं। मारगि = रास्ते पे। निहाली = मैं देखता हूं। गुर मिलि = गुरु को मिल के। लाधे = मिला।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) जो मनुष्य तेरे मिलाप के राह पे चलता है, मैं उसके पैर धोता रहूँ।
(हे भाई!) दया के श्रोत अकाल-पुरख को मैं अपनी आँखें से देखना चाहता हूँ (इस वास्ते) मैं अपना मन अपने उस सज्जन के हवाले करने को तैयार हूँ जिसने गुरु को मिल के उस प्रभु को पा लिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

से वडभागी जिनि तुम जाणे ॥ सभ कै मधे अलिपत निरबाणे ॥ साध कै संगि उनि भउजलु तरिआ सगल दूत उनि साधे जीउ ॥३॥

मूलम्

से वडभागी जिनि तुम जाणे ॥ सभ कै मधे अलिपत निरबाणे ॥ साध कै संगि उनि भउजलु तरिआ सगल दूत उनि साधे जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से = वह लोग। जिनि = जिस जिस ने। तुम = तुझे। अलिपत = निर्लिप। निरबाणे = वासना रहित। उनि = उस आदमी ने। भउजल = संसार समुंदर।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘जिनि’ एकवचन है। ‘से’ बहुवचन है। ‘सो’ एकवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे प्रभु!) जिस जिस मनुष्य ने तेरे साथ सांझ डाली है, वे सब सौभाग्यशाली हैं।
(हे भाई!) परमात्मा सब जीवों के अंदर बसता है (फिर भी वह) निर्लिप है और वासना रहित है। (जिस मनुष्य ने उसके साथ सांझ डाली है) साधु-संगत में रह के उसने संसार समुंदर तैर लिया है, उसने (कामादिक) सारे विकार अपने वश में कर लिए हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन की सरणि परिआ मनु मेरा ॥ माणु ताणु तजि मोहु अंधेरा ॥ नामु दानु दीजै नानक कउ तिसु प्रभ अगम अगाधे जीउ ॥४॥२०॥२७॥

मूलम्

तिन की सरणि परिआ मनु मेरा ॥ माणु ताणु तजि मोहु अंधेरा ॥ नामु दानु दीजै नानक कउ तिसु प्रभ अगम अगाधे जीउ ॥४॥२०॥२७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तजि = त्याग के। अगाधे = अथाह। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)।4।
अर्थ: (हे भाई! दुनिया वाले) आदर मान छोड़ के (दुनिया वाली) ताकतें छोड़के (जीवन-राह में) अंधकार (पैदा करने वाली माया का) मोह त्याग के मेरा मन उनकी शरण पड़ता है (जिन्होंने सारे दूत वश कर लिए हैं, और उनके आगे अरदास करते हैं कि) मुझ नानक को (भी) उस अगम्य (पहुँच से परे) अथाह प्रभु का नाम दान के रूप में दो।4।20।27।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ तूं पेडु साख तेरी फूली ॥ तूं सूखमु होआ असथूली ॥ तूं जलनिधि तूं फेनु बुदबुदा तुधु बिनु अवरु न भालीऐ जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ तूं पेडु साख तेरी फूली ॥ तूं सूखमु होआ असथूली ॥ तूं जलनिधि तूं फेनु बुदबुदा तुधु बिनु अवरु न भालीऐ जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पेडु = पेड़, वृक्ष। साख = शाखा, टाहणियां। फूली = फूटी हुई, स्फुटित हुई। सूखमु = सुक्ष्म (subtle, minute) अदृष्ट। असथूल = स्थूल (gross, course) दृष्टमान जगत। जलनिधि = समुंदर। फेन = झाग। बुद बुदा = बुलबुला।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू (मानो, एक) वृक्ष है (ये संसार तेरे वृक्ष से) फूटी हुई (निकली) टहनियां हैं। हे प्रभु! तू अदृष्ट है (अपने अदृष्ट रूप से) दिखता जगत बना हैं। हे प्रभु! तू (मानों, एक) समुंदर है (ये सारा जगत पसारा, जैसे) झाग और बुलबुला (भी) तू स्वयं ही है। तेरे बिना और कोई भी नहीं दिखता।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं सूतु मणीए भी तूंहै ॥ तूं गंठी मेरु सिरि तूंहै ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई अवरु न कोइ दिखालीऐ जीउ ॥२॥

मूलम्

तूं सूतु मणीए भी तूंहै ॥ तूं गंठी मेरु सिरि तूंहै ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई अवरु न कोइ दिखालीऐ जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सूतु = धागा, डोरी। मणीए = मणके। गंठी = गांठ। मेरु = सिरे का मणका। सिरि = (मणकों के) सिर पे। आदि = शुरू में। मधि = बीच में। अंति = आखिर में।2।
अर्थ: (ये सारा जगत पसारा तुझसे बना तेरा ही स्वरूप, जैसे एक माला है। उस माला का) धागा तू खुद है, मणके भी तू ही है। (मणकों पर) गाँठ भी तू ही है, (सब मणकों के) सिर पर मेरू मणका भी तू ही है।
(हे भाई!) (जगत रचना के) शुरू में, मध्य में और अंत में प्रभु स्वयं ही स्वयं है। उससे बगैर और कोई नहीं दिखता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं निरगुणु सरगुणु सुखदाता ॥ तूं निरबाणु रसीआ रंगि राता ॥ अपणे करतब आपे जाणहि आपे तुधु समालीऐ जीउ ॥३॥

मूलम्

तूं निरगुणु सरगुणु सुखदाता ॥ तूं निरबाणु रसीआ रंगि राता ॥ अपणे करतब आपे जाणहि आपे तुधु समालीऐ जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरगुण = माया के तीन गुणों से रहित। सरगुण = माया के तीन गुणों वाला। निरबाणु = वासना रहित। रसीआ = आनंद लेने वाला, भोगने वाला। रंगि = माया के रंग में। समालिये = संभालता है।3।
अर्थ: हे प्रभु! तू (अपनी रची माया के) तीन गुणों से परे है। तीनों गुणों से बना जगत पसारा भी तू स्वयं ही है। सब जीवों को सुख देने वाला भी तू स्वयं ही है। तू वासना रहित है (सब जीवों में व्यापक हो के) रसों को भोगने वाला भी है और रसों के प्यार में मस्त भी है। हे प्रभु! अपने खेल तमाशे तू स्वयं ही जानता है। तू स्वयं ही सारी संभाल भी कर रहा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं ठाकुरु सेवकु फुनि आपे ॥ तूं गुपतु परगटु प्रभ आपे ॥ नानक दासु सदा गुण गावै इक भोरी नदरि निहालीऐ जीउ ॥४॥२१॥२८॥

मूलम्

तूं ठाकुरु सेवकु फुनि आपे ॥ तूं गुपतु परगटु प्रभ आपे ॥ नानक दासु सदा गुण गावै इक भोरी नदरि निहालीऐ जीउ ॥४॥२१॥२८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: फुनि = फिर, दुबारा। आपे = स्वयं ही। प्रभ = हे प्रभु! इक भोरी = रत्ती भर समय। निहालीऐ = देखें।4।
अर्थ: हे प्रभु! मालिक भी तू है और सेवक भी तू स्वयं ही है। हे प्रभु! (सारे संसार में) तू छुपा हुआ भी है और (संसार रूप हो के) तू प्रत्यक्ष भी दिखायी दे रहा है।
हे नानक! (कह: तेरा ये) दास सदा तेरे गुण गाता है। छण भर के लिए ही (इस दास की ओर) मेहर की निगाह से देख।4।21।28।

[[0103]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ सफल सु बाणी जितु नामु वखाणी ॥ गुर परसादि किनै विरलै जाणी ॥ धंनु सु वेला जितु हरि गावत सुनणा आए ते परवाना जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ सफल सु बाणी जितु नामु वखाणी ॥ गुर परसादि किनै विरलै जाणी ॥ धंनु सु वेला जितु हरि गावत सुनणा आए ते परवाना जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सफलु = फल देने वाला, लाभदायक। जितु = जिस (वाणी) द्वारा। वखाणी = बखान किया, उच्चारा। परसादि = कृपा से। किनै = किसी ने। जाणी = सांझ पाई। धनु = धन्य। जितु = जिस (समय) में। परवाना = स्वीकार। आए = जगत में जन्में। ते = वह लोग।1।
अर्थ: (हे भाई!) उस वाणी को पढ़ना लाभदायक उद्यम है, जिस वाणी से कोई मनुष्य परमात्मा का नाम उचारता है। (पर) गुरु की कृपा से किसी विरले मनुष्य ने (ऐसी वाणी के साथ) सांझ डाली है। (हे भाई!) वह समय भाग्य भरा जानों, जिस वक्त परमात्मा के गुण गाए जाएं और सुने जाएं। जगत में जन्में वो मनुष्य, मनुष्य मियार में पूरे गिने जाते हैं (जो प्रभु की महिमा करते हैं और सुनते हैं)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

से नेत्र परवाणु जिनी दरसनु पेखा ॥ से कर भले जिनी हरि जसु लेखा ॥ से चरण सुहावे जो हरि मारगि चले हउ बलि तिन संगि पछाणा जीउ ॥२॥

मूलम्

से नेत्र परवाणु जिनी दरसनु पेखा ॥ से कर भले जिनी हरि जसु लेखा ॥ से चरण सुहावे जो हरि मारगि चले हउ बलि तिन संगि पछाणा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: से नेत्र = वे आँखें (बहुवचन)। परवाणु = (प्रमाण, authority) जाना माना मियार। पेखा = देखा। कर = हाथ (बहुवचन)। करु = हाथ (एकवचन)। जसु = महिमा। लेखा = लिखी। मारगि = रास्ते पर। हउ = मैं। बलि = कुर्बान।2।
अर्थ: वही आँखें इन्सानी आँखें कहलाने के योग्य हैं, जिन्होंने परमात्मा का दर्शन किया है। वे हाथ अच्छे हैं, जिन्होंने परमात्मा की महिमा लिखी है। वह पैर सुख देने वाले हैं, जो परमात्मा के (मिलाप के) राह पर चलते हैं। मैं उन (आखें, हाथों, पैरों) से सदके जाता हूँ। इनकी संगति में परमात्मा के साथ सांझ पड़ सकती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुणि साजन मेरे मीत पिआरे ॥ साधसंगि खिन माहि उधारे ॥ किलविख काटि होआ मनु निरमलु मिटि गए आवण जाणा जीउ ॥३॥

मूलम्

सुणि साजन मेरे मीत पिआरे ॥ साधसंगि खिन माहि उधारे ॥ किलविख काटि होआ मनु निरमलु मिटि गए आवण जाणा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: साजन = हे सज्जन! खिन माहि = एक छिन में, पल, a moment। किलविख = पाप।3।
अर्थ: हे मेरे प्यारे मित्र प्रभु! सज्जन प्रभु! (मेरी विनती) सुन (मुझे साधु-संगत दे) साधु-संगत में रहने से एक पल में ही (पापों विकारों से) बच जाते हैं। (जो मनुष्य साधु-संगत में रहता है) सारे पाप कट के उसका मन पवित्र हो जाता है। उसके जनम मरन के चक्कर मिट जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुइ कर जोड़ि इकु बिनउ करीजै ॥ करि किरपा डुबदा पथरु लीजै ॥ नानक कउ प्रभ भए क्रिपाला प्रभ नानक मनि भाणा जीउ ॥४॥२२॥२९॥

मूलम्

दुइ कर जोड़ि इकु बिनउ करीजै ॥ करि किरपा डुबदा पथरु लीजै ॥ नानक कउ प्रभ भए क्रिपाला प्रभ नानक मनि भाणा जीउ ॥४॥२२॥२९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दुइ कर = दानों हाथ। बिनउ = विनती (‘विनय’ पुलिंग)। पथरु = कठोर चिक्त। प्रभ = प्रभु जी!।4।
अर्थ: (हे भाई!) दोनों हाथ जोड़ के (परमात्मा के दर पे) एक (ये) अरदास करनी चाहिए (कि हे प्रभु!) मेहर कर के (विकारों के समुंदर में) डूब रहे मुझ कठोर चिक्त को बचा ले। (हे भाई! ये अरदास सुन के) प्रभु जी मुझ नानक पर दयावान हो गए हैं, और प्रभु जी नानक के मन में प्यारे लगने लग पड़े हैं।4।22।29।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ अम्रित बाणी हरि हरि तेरी ॥ सुणि सुणि होवै परम गति मेरी ॥ जलनि बुझी सीतलु होइ मनूआ सतिगुर का दरसनु पाए जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ अम्रित बाणी हरि हरि तेरी ॥ सुणि सुणि होवै परम गति मेरी ॥ जलनि बुझी सीतलु होइ मनूआ सतिगुर का दरसनु पाए जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। हरि = हे हरि! सुणि = सुन के। सुणि सुणि के = बारंबार सुन के। परम गति = सबसे ऊूंची आत्मिक अवस्था। जलनि = जलन। सीतलु = ठंडा, शांत। पाए = पा के।1।
अर्थ: हे हरि! तेरी महिमा की वाणी आत्मिक जीवन देने वाली है (आत्मिक मौत से बचाने वाली है), (गुरु की उचारी हुई ये वाणी) बार बार सुन के मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बनती जा रही है। गुरु का दर्शन करके (तृष्णा, ईश्या आदि की) जलन बुझ जाती है और मन ठंडा ठार हो जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूखु भइआ दुखु दूरि पराना ॥ संत रसन हरि नामु वखाना ॥ जल थल नीरि भरे सर सुभर बिरथा कोइ न जाए जीउ ॥२॥

मूलम्

सूखु भइआ दुखु दूरि पराना ॥ संत रसन हरि नामु वखाना ॥ जल थल नीरि भरे सर सुभर बिरथा कोइ न जाए जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पराना = पलायन, दौड़ गया। रसन = जीभ। संत रसन = गुरु की जीभ ने। वखाना = उचारा। नीरि = पानी के साथ। जल थल = टोए टिब्बे। सर = तालाब। सुभर = नाको नाक भरा हुआ। बिरथा = खाली, व्यर्थ।2।
अर्थ: गुरु की जीभ ने (जब) परमात्मा का नाम उचारा (जिसने उसको सुना उस के अंदर) आत्मिक आनंद पैदा हो गया (उस का) दुख दूर भाग गया। (जैसे बरखा होने से) गड्ढे (टोए टिब्बे) तालाब सब पानी से नाको नाक भर जाते हैं (वैसे ही गुरु के दर पे प्रभु नाम की बरखा होती है तब जो भाग्यशाली मनुष्य गुरु की शरण में आते हैं उनका मन, उनकी ज्ञानेंद्रियां सब नाम जल से नाको नाक भर जाती है। गुरु के दर पे आया कोई मनुष्य (नाम अमृत) से वंचित नहीं रह जाता।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दइआ धारी तिनि सिरजनहारे ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपारे ॥ मिहरवान किरपाल दइआला सगले त्रिपति अघाए जीउ ॥३॥

मूलम्

दइआ धारी तिनि सिरजनहारे ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपारे ॥ मिहरवान किरपाल दइआला सगले त्रिपति अघाए जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिनि = उस ने। सिरजनहारे = निर्माता ने। प्रतिपारे = रक्षा की। सगले = सारे। त्रिपत अघाए = पूरी तौर पर तृप्त हो गए।3।
अर्थ: उस निर्माता प्रभु ने मेहर की (और गुरु को भेजा इस तरह उसने सृष्टि के) सारे जीवों की (विकारों से) रक्षा (की तरकीब) की। मेहरवान, कृपाल, दयावान (परमात्मा की मेहर से गुरु की शरण आए) सारे जीव (माया की प्यास भूख की ओर से) पूर्ण तौर पे तृप्त हो गए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वणु त्रिणु त्रिभवणु कीतोनु हरिआ ॥ करणहारि खिन भीतरि करिआ ॥ गुरमुखि नानक तिसै अराधे मन की आस पुजाए जीउ ॥४॥२३॥३०॥

मूलम्

वणु त्रिणु त्रिभवणु कीतोनु हरिआ ॥ करणहारि खिन भीतरि करिआ ॥ गुरमुखि नानक तिसै अराधे मन की आस पुजाए जीउ ॥४॥२३॥३०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वणु = जंगल। त्रिणु = घास का तीला। कीतोनु = उसने कर दिया। करणहारि = करने वाले ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। तिसै = उस प्रभु ने।4।
अर्थ: (जैसे जब) जगत के पैदा करने वाले प्रभु ने (बरखा की तो) एक पल में ही जंगल, घास और सारा त्रिवनी जगत हरा कर दिया (उसी तरह उसका भेजा हुआ गुरु, नाम की बरखा करता है, गुरु दर पे आए लोगों के हृदय नाम जल से आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं)। हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य उस परमात्मा को स्मरण करता है, परमात्मा उसके मन की आस पूरी कर देता है (दुनिया की आसा तृष्णा में भटकने से उसको बचा लेता है)।4।23।30।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ तूं मेरा पिता तूंहै मेरा माता ॥ तूं मेरा बंधपु तूं मेरा भ्राता ॥ तूं मेरा राखा सभनी थाई ता भउ केहा काड़ा जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ तूं मेरा पिता तूंहै मेरा माता ॥ तूं मेरा बंधपु तूं मेरा भ्राता ॥ तूं मेरा राखा सभनी थाई ता भउ केहा काड़ा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बंधपु = सन्बंधी, रिश्तेदार। थाई = जगहों पे। काड़ा = चिन्ता।1।
अर्थ: हे प्रभु! तू मेरा पिता (की जगह) है तू ही मेरी माँ (की जगह) है। तू मेरा रिश्तेदार है, तू ही मेरा भाई है। (हे प्रभु! जब) तू ही सब जगहों पे मेरा रक्षक है, तो कोई डर मुझे पोह भी नहीं सकता, कोई चिन्ता मुझपर जोर नहीं डाल सकती।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुमरी क्रिपा ते तुधु पछाणा ॥ तूं मेरी ओट तूंहै मेरा माणा ॥ तुझ बिनु दूजा अवरु न कोई सभु तेरा खेलु अखाड़ा जीउ ॥२॥

मूलम्

तुमरी क्रिपा ते तुधु पछाणा ॥ तूं मेरी ओट तूंहै मेरा माणा ॥ तुझ बिनु दूजा अवरु न कोई सभु तेरा खेलु अखाड़ा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ते = से। तुधु = तुझे। पछाणा = मैं पहचानता हूं, मैं सांझ डालता हूं। ओट = आसरा। अवरु = और, अन्य। अखाड़ा = वह स्थान जहाँ पहलवान कुश्तियां करते हैं।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरी मेहर से मैं तेरे साथ गहरी सांझ डाल सकता हूँ। तू ही मेरा आसरा है, तू ही मेरे गौरव की जगह है। तेरे बगैर तेरे जैसा और कोई नहीं। ये जगत तमाशा ये जगत अखाड़ा तेरा ही बनाया हुआ है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीअ जंत सभि तुधु उपाए ॥ जितु जितु भाणा तितु तितु लाए ॥ सभ किछु कीता तेरा होवै नाही किछु असाड़ा जीउ ॥३॥

मूलम्

जीअ जंत सभि तुधु उपाए ॥ जितु जितु भाणा तितु तितु लाए ॥ सभ किछु कीता तेरा होवै नाही किछु असाड़ा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि = सारे। तुधु = तू ही। उपाए = पैदा किए हैं। जितु = जिस तरफ, जिस काम में। भाणा = तुझे ठीक लगे। तितु = उस काम में। असाड़ा = हमारा।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) जगत के सारे जीव जन्तु तूने ही पैदा किये हैं। जिस जिस काम में तेरी रजा होती है तूने उस उस काम में (सारे जीव जन्तु) लगाए हुए हैं। (जगत में जो कुछ हो रहा है) सब तेरा किया ही हो रहा है। हम जीवों का कोई जोर नहीं चल सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु धिआइ महा सुखु पाइआ ॥ हरि गुण गाइ मेरा मनु सीतलाइआ ॥ गुरि पूरै वजी वाधाई नानक जिता बिखाड़ा जीउ ॥४॥२४॥३१॥

मूलम्

नामु धिआइ महा सुखु पाइआ ॥ हरि गुण गाइ मेरा मनु सीतलाइआ ॥ गुरि पूरै वजी वाधाई नानक जिता बिखाड़ा जीउ ॥४॥२४॥३१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धिआइ = स्मरण करके। सीतलाइआ = ठण्डा हो गया। गुरि पूरै = पूरे गुरु द्वारा। वाधाई = आत्मिक तौर पे बढ़ने फूलने की अवस्था, उत्साह। वजी वाधाई = उत्साह की हालत प्रबल हो रही है (जैसे जब ढोल बजता है तब अन्य छोटी मोटी आवाजें सुनाई नही देतीं)। बिखाड़ा = विषम अखाड़ा, मुश्किल कुश्ती।4।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरण करके मैंने बड़ा आत्मिक आनंद हासिल किया है। परमात्मा के गुण गा के मेरा मन ठण्डा ठार हो गया है। हे नानक! (कह:) पूरे गुरु के द्वारा (मेरे अंदर) आत्मिक उत्साह का (जैसे) ढोल बज रहा है और मैंने (विकारों के साथ हो रही) मुश्किल कुश्ती को जीत लिया है।4।24।31।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ जीअ प्राण प्रभ मनहि अधारा ॥ भगत जीवहि गुण गाइ अपारा ॥ गुण निधान अम्रितु हरि नामा हरि धिआइ धिआइ सुखु पाइआ जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ जीअ प्राण प्रभ मनहि अधारा ॥ भगत जीवहि गुण गाइ अपारा ॥ गुण निधान अम्रितु हरि नामा हरि धिआइ धिआइ सुखु पाइआ जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीअ = जिंद का (जीउ = जिंद)। मनहि = मन का। अधारा = आसरा। जीवहि = आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। गाइ = गा के। अपारा = बेअंत प्रभु के गुण। निधानु = गुणों का खजाना। अंम्रितु = आत्मिक मौत से बचाने वाला।1।
अर्थ: परमात्मा (भक्त जनों की) जिंद का, प्राणों का, मन का आसरा है। भक्त बेअंत प्रभु के गुण गा के आत्मिक जिंदगी हासिल करते हैं। परमात्मा नाम के गुणों का खजाना है। परमात्मा का नाम आत्मिक मौत से बचाने वाला है। भक्त, परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक आनंद लेते हैं।1।

[[0104]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसा धारि जो घर ते आवै ॥ साधसंगि जनमु मरणु मिटावै ॥ आस मनोरथु पूरनु होवै भेटत गुर दरसाइआ जीउ ॥२॥

मूलम्

मनसा धारि जो घर ते आवै ॥ साधसंगि जनमु मरणु मिटावै ॥ आस मनोरथु पूरनु होवै भेटत गुर दरसाइआ जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनसा = (मनीषा) चाहत, तमन्ना। धारि = धार के, कर के। ते = से। साधसंगि = साधु-संगत में। भेटत = मिलने से।2।
अर्थ: जो मनुष्य (परमात्मा के मिलाप की) तमन्ना करके घर से चलता है वह साधु-संगत में आ के (प्रभु नाम की इनायत से) अपने जनम मरन का चक्कर खत्म कर लेता है। (साधु-संगत में) गुरु के दर्शन करके उसकी ये आस पूरी हो जाती है, उसका ये उद्देश्य सफल हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगम अगोचर किछु मिति नही जानी ॥ साधिक सिध धिआवहि गिआनी ॥ खुदी मिटी चूका भोलावा गुरि मन ही महि प्रगटाइआ जीउ ॥३॥

मूलम्

अगम अगोचर किछु मिति नही जानी ॥ साधिक सिध धिआवहि गिआनी ॥ खुदी मिटी चूका भोलावा गुरि मन ही महि प्रगटाइआ जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिति = (मा = माप, नापना), अंदाजा, बड़ेपन का अंदाजा। साधिक = साधन करने वाले। सिध = योग साधना में लगे हुए जोगी। खुदी = अहम्। चूका = खत्म हो गया। भोलावा = भुलेखा। गुरि = गुरु ने। महि = में।3।
अर्थ: योग साधना करने वाले जोगी, योग साधना में माहिर हुए जोगी, ज्ञानवान लोग समाधियां लगाते हैं। पर कोई मनुष्य ये पता नहीं कर सका कि वह अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु, वहज्ञानेंद्रियों की पहुँच से परे प्रभु कितना बड़ा है। (गुरु की शरण पड़ कर) जिस मनुष्य का अहंकार दूर हो जाता है, जिस मनुष्य को (अपनी शक्ति आदिक का) भुलेखा समाप्त हो जाता है, गुरु ने उस के मन में (उस बेअंत प्रभु का) प्रकाश कर दिया है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनद मंगल कलिआण निधाना ॥ सूख सहज हरि नामु वखाना ॥ होइ क्रिपालु सुआमी अपना नाउ नानक घर महि आइआ जीउ ॥४॥२५॥३२॥

मूलम्

अनद मंगल कलिआण निधाना ॥ सूख सहज हरि नामु वखाना ॥ होइ क्रिपालु सुआमी अपना नाउ नानक घर महि आइआ जीउ ॥४॥२५॥३२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कलिआण = खुशी, सौभाग्य। वखाना = उचारा। घरि महि = हृदय में।4।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम स्मरण किया है, उसके हृदय में आत्मिक आनंद खुशियों के खजाने प्रगट हो पड़ते हैं। उसके अंदर आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है। जिस मनुष्य पर अपना मालिक प्रभु दयावान हो जाता है, उसके हृदय-घर में उस का नाम बस जाता है।4।25।32।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ सुणि सुणि जीवा सोइ तुमारी ॥ तूं प्रीतमु ठाकुरु अति भारी ॥ तुमरे करतब तुम ही जाणहु तुमरी ओट गुोपाला जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ सुणि सुणि जीवा सोइ तुमारी ॥ तूं प्रीतमु ठाकुरु अति भारी ॥ तुमरे करतब तुम ही जाणहु तुमरी ओट गुोपाला जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। सोइ = (श्रुति) खबर, बात। अति भारी = बहुत बड़ा। करतब = कर्तव्य, फर्ज। ओट = आसरा। गुोपाल = हे गोपाल!।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गुोपाल’ में ‘ग’ पर दो मात्राएं है = ‘ु’ ओ ‘ो’। असल शब्द ‘गोपाल’ है, यहां ‘गुपाल’ पढ़ना है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! तेरी महिमा की बातें सुन सुन के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। तू मेरा प्यारा है, तू मेरा पालनहार है, तू बहुत बड़ा (मालक) है। हे प्रभु! अपने फर्ज तू स्वयं ही जानता है। हे सृष्टि के पालने वाले! मुझे तेरा ही आसरा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुण गावत मनु हरिआ होवै ॥ कथा सुणत मलु सगली खोवै ॥ भेटत संगि साध संतन कै सदा जपउ दइआला जीउ ॥२॥

मूलम्

गुण गावत मनु हरिआ होवै ॥ कथा सुणत मलु सगली खोवै ॥ भेटत संगि साध संतन कै सदा जपउ दइआला जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावत = गाते हुए। मलु = विकारों की मैल। सगली = सारी। खोवै = नाश हो जाती है। संतन के संगि = संतों की संगति में। जपउ = मैं जपता हूँ।2।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की महिमा कर के (आत्मिक जीवन की तरफ से मेरा सूखा हुआ) मन हरा होता जा रहा है, प्रभु की महिमा की बातें सुन के मेरे मन की सारी (विकारों की) मैल दूर हो रही है। गुरु की संगति में संत जनों की संगति में मिल के मैं सदा उस दयाल प्रभु का नाम जपता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु अपुना सासि सासि समारउ ॥ इह मति गुर प्रसादि मनि धारउ ॥ तुमरी क्रिपा ते होइ प्रगासा सरब मइआ प्रतिपाला जीउ ॥३॥

मूलम्

प्रभु अपुना सासि सासि समारउ ॥ इह मति गुर प्रसादि मनि धारउ ॥ तुमरी क्रिपा ते होइ प्रगासा सरब मइआ प्रतिपाला जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। समारउ = मैं सम्भालता हूँ, मैं याद करता हूँ। गुर प्रसादि = गुरु की कृपा से। मनि = मन में। धारउ = मैं धारण करता हूँ, मैं टिकाता हूँ। मइआ = दया।3।
अर्थ: (हे भाई!) मैं अपने प्रभु को अपनी हरेक सांस के साथ याद करता रहता हूँ, ये सुकर्म मैंने अपने गुरु की कृपा से अपने मन में टिकाया हुआ है।
हे प्रभु! तेरी कृपा से ही (जीवों के मन में तेरे नाम का) प्रकाश हो सकता है, तू सबके ऊपर रहिम करने वाला है और सबकी रक्षा करने वाला है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सति सति सति प्रभु सोई ॥ सदा सदा सद आपे होई ॥ चलित तुमारे प्रगट पिआरे देखि नानक भए निहाला जीउ ॥४॥२६॥३३॥

मूलम्

सति सति सति प्रभु सोई ॥ सदा सदा सद आपे होई ॥ चलित तुमारे प्रगट पिआरे देखि नानक भए निहाला जीउ ॥४॥२६॥३३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सति = (सत्य) सदा कायम रहने वाला। आपे = स्वयं ही। चलित = (चरित्र) तमाशे। पिआरे = हे प्यारे प्रभु! देखि = देख के। निहाला = प्रसंन।4।
अर्थ: (हे भाई!) प्रभु सदा कायम रहने वाला है। सदा कायम रहने वाला है। सदा कायम रहने वाला है। सदा ही, सदा ही, सदा ही वह स्वयं ही स्वयं है।
हे नानक! (कह:) हे प्यारे प्रभु! तेरे चरित्र तमाशे तेरे रचे हुए संसार में प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं। (तेरा ये दास उनको) देख के प्रसन्न हो रहा है।4।26।33।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ हुकमी वरसण लागे मेहा ॥ साजन संत मिलि नामु जपेहा ॥ सीतल सांति सहज सुखु पाइआ ठाढि पाई प्रभि आपे जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ हुकमी वरसण लागे मेहा ॥ साजन संत मिलि नामु जपेहा ॥ सीतल सांति सहज सुखु पाइआ ठाढि पाई प्रभि आपे जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हुकमी = हुक्म ही, प्रभु के हुक्म मुताबिक ही। मेहा = वर्षा, नाम की बरखा। साजन संत = सतसंगी गुरमुख लोग। मिलि = (सतसंगि में) मिल के। जपेहा = जपते हैं। सीतल = ठण्ड डालने वाली। सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। ठाढि = ठंड। प्रभि = प्रभु ने। आपे = स्वयं ही।1।
अर्थ: (जैसे बरखा ऋतु आने पे जब बारिश होती है, तो ठंड पड़ जाती है। फसल बहुतात में उगती है, सब लोग अन्न से तृप्त हो जाते हैं, वैसे ही) जब सत्संगी गुरमुख लोग (साधु-संगत में) मिल के परमात्मा का नाम जपते हैं, (तो वहां) परमात्मा के हुक्म अनुसारमहिमा की (मानो) बरखा होने लगती है। (जिस की इनायत से सत्संगी लोग) आत्मिक ठंड पाने वाली शांति और आत्मिक अडोलता का आनंद लेते हैं। (उनके हृदय में वहां) प्रभु ने स्वयं ही (विकारों की तपश मिटा के) आत्मिक ठंड डाल दी होती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभु किछु बहुतो बहुतु उपाइआ ॥ करि किरपा प्रभि सगल रजाइआ ॥ दाति करहु मेरे दातारा जीअ जंत सभि ध्रापे जीउ ॥२॥

मूलम्

सभु किछु बहुतो बहुतु उपाइआ ॥ करि किरपा प्रभि सगल रजाइआ ॥ दाति करहु मेरे दातारा जीअ जंत सभि ध्रापे जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक आत्मिक गुण। करि = करके। प्रभि = प्रभु ने। रजाइआ = संतोषी बना दिया। करहु = तुम करते हो। दातारा = हे दातार! सभि = सारे। ध्रापे = तृप्त हो जाते हैं।2।
अर्थ: (साधु संगत में हरि नाम की बरखा के कारण) परमात्मा हरेक आत्मिक गुण (की, जैसे फसल) पैदा कर देता है। (जिस सदका) प्रभु ने कृपा करके (वहां) सारे सत्संगियों के भीतर संतोख वाला जीवन पैदा कर दिया होता है।
हे मेरे दातार! (जैसे बरखा करके धन-धान्य पैदा करके तू सब जीवों को तृप्त कर देता है, वैसे ही) तू अपने नाम की दाति करता है और सारे सत्संगियों को (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त कर देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचा साहिबु सची नाई ॥ गुर परसादि तिसु सदा धिआई ॥ जनम मरण भै काटे मोहा बिनसे सोग संतापे जीउ ॥३॥

मूलम्

सचा साहिबु सची नाई ॥ गुर परसादि तिसु सदा धिआई ॥ जनम मरण भै काटे मोहा बिनसे सोग संतापे जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला। नाई = बड़ाई, बडप्पन, उपमा। तिसु = उस (प्रभु) को। धिआई = मैं ध्यान धरता हूँ। भै = सारे डर। संतापे = दुख-कष्ट।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘भउ’ का बहुवचन ‘भै’ है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: जो परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है, जिसका बड़प्पन सदा स्थिर रहने वाला है, उसको मैं गुरु की कृपा से सदा स्मरण करता हूँ। (उस नाम जपने की इनायत से) मेरे जनम मरन के सारे डर व मोह काटे गए हैं। मेरे सारे चिन्ता-फिक्र, दुख-कष्ट नाश हो गये हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासि सासि नानकु सालाहे ॥ सिमरत नामु काटे सभि फाहे ॥ पूरन आस करी खिन भीतरि हरि हरि हरि गुण जापे जीउ ॥४॥२७॥३४॥

मूलम्

सासि सासि नानकु सालाहे ॥ सिमरत नामु काटे सभि फाहे ॥ पूरन आस करी खिन भीतरि हरि हरि हरि गुण जापे जीउ ॥४॥२७॥३४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक श्वास के साथ साथ। नानकु सालाहे = नानक महिमा करता है (नानक = हे नानक!)। पूरन करी = पूरी करता है।4।
अर्थ: (हे भाई!) नानक अपने हरेक श्वास के साथ प्रभु की महिमा करता है। प्रभु का नाम स्मरण करते हुए मोह के सारे जंजाल कट गए हैं। (नानक की) ये आस प्रभु ने एक छिन में ही पूरी कर दी, और अब (नानक) हर वक्त प्रभु के ही गुण याद करता रहता है।4।27।34।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ आउ साजन संत मीत पिआरे ॥ मिलि गावह गुण अगम अपारे ॥ गावत सुणत सभे ही मुकते सो धिआईऐ जिनि हम कीए जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ आउ साजन संत मीत पिआरे ॥ मिलि गावह गुण अगम अपारे ॥ गावत सुणत सभे ही मुकते सो धिआईऐ जिनि हम कीए जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। गावह = हम गाएं। मुकते = (माया के बंधनों से) स्वतंत्र। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। हम = हमें।1।
अर्थ: हे मेरे प्यारे मित्रो! हे संत जनों! हे मेरे सज्जनों! आओ, हम मिल के अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु के गुण गाएं। प्रभु के गुण गाते और सुनते सारे ही जीव (माया के बंधनों से) स्वतंत्र हो जाते हैं। (हे संत जनों!) उस परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए, जिसने हमें पैदा किया है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम जनम के किलबिख जावहि ॥ मनि चिंदे सेई फल पावहि ॥ सिमरि साहिबु सो सचु सुआमी रिजकु सभसु कउ दीए जीउ ॥२॥

मूलम्

जनम जनम के किलबिख जावहि ॥ मनि चिंदे सेई फल पावहि ॥ सिमरि साहिबु सो सचु सुआमी रिजकु सभसु कउ दीए जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: किलबिख = पाप। मनि = मन में। चिंदे = विचार किए हुये,सोचे हुए। पावहि = हासिल कर लेते हैं। सचु = सदा कायम रहने वाला। सभसु कउ = सब जीवों को।2।
अर्थ: (जो लोग परमात्मा का ध्यान धरते हैं, उनके) जन्म जन्मांतरों के (किए हुए) पाप दूर हो जाते हैं। जो फल वे अपने मन में सोचते हैं, वही फल वे प्राप्त कर लेते हैं। (हे भाई!) उस सदा कायम रहने वाले मालिक को स्वामी का स्मरण कर, जो सब जीवों को रिजक देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु जपत सरब सुखु पाईऐ ॥ सभु भउ बिनसै हरि हरि धिआईऐ ॥ जिनि सेविआ सो पारगिरामी कारज सगले थीए जीउ ॥३॥

मूलम्

नामु जपत सरब सुखु पाईऐ ॥ सभु भउ बिनसै हरि हरि धिआईऐ ॥ जिनि सेविआ सो पारगिरामी कारज सगले थीए जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरब = हरेक किस्म का, सर्व। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। पारगिरामी = (संसार समुंदर से) उस पार पहुँचने लायक। थीए = हो जाते हैं, सिरे चढ़ते हैं।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम जपने से हरेक किस्म का सुख प्राप्त हो जाता है। (हे भाई!) सदा परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए। (इस तरह दुनिया का) सारा डर नाश हो जाता है। जिस मनुष्य ने परमात्मा का स्मरण किया है, वह संसार समुंदर के उस पार पहुँचने के लायक हो जाता है। उसके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आइ पइआ तेरी सरणाई ॥ जिउ भावै तिउ लैहि मिलाई ॥ करि किरपा प्रभु भगती लावहु सचु नानक अम्रितु पीए जीउ ॥४॥२८॥३५॥

मूलम्

आइ पइआ तेरी सरणाई ॥ जिउ भावै तिउ लैहि मिलाई ॥ करि किरपा प्रभु भगती लावहु सचु नानक अम्रितु पीए जीउ ॥४॥२८॥३५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आइ = आ के। जिउ भावै = जैसे तुझे ठीक लगे। प्रभू = हे प्रभु! नानक = हे नानक!।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं आ के तेरी शरण पड़ा हूँ। जैसे भी हो सके, मुझे अपने चरणों में जोड़ ले। हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू कृपा करके अपनी भक्ति में जोड़ता है, वह तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम अंम्रित पीता रहता है।4।28।35।

[[0105]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ भए क्रिपाल गोविंद गुसाई ॥ मेघु वरसै सभनी थाई ॥ दीन दइआल सदा किरपाला ठाढि पाई करतारे जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ भए क्रिपाल गोविंद गुसाई ॥ मेघु वरसै सभनी थाई ॥ दीन दइआल सदा किरपाला ठाढि पाई करतारे जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गुसाई = गो+सांई, धरती का मालिक। मेघु = बादल। वरसै = बरसता है। ठाढि = ठंड। करतारे = कर्तार ने।1।
अर्थ: (जैसे) बादल (ऊँचे-नीचे) हर जगह पर वर्षा करते हैं, (वैसे ही) सृष्टि का पति परमात्मा (सभ जीवों पर) दयावान होता है। उस कर्तार ने जो दीनों पर दया करने वाला है जो सदा ही कृपा का घर है (सेवकों के हृदय में नाम की इनायत से) शांति की दाति बख्शी हुई है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपुने जीअ जंत प्रतिपारे ॥ जिउ बारिक माता समारे ॥ दुख भंजन सुख सागर सुआमी देत सगल आहारे जीउ ॥२॥

मूलम्

अपुने जीअ जंत प्रतिपारे ॥ जिउ बारिक माता समारे ॥ दुख भंजन सुख सागर सुआमी देत सगल आहारे जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रतिपारे = पालता है।, रक्षा करता है। संमारे = सम्भालती है। सुख सागर = सुखों का समुंदर। आहारै = आहार, खुराक।2।
अर्थ: (हे भाई!) जैसे माँ अपने बच्चों की संभाल करती है, वैसे ही परमात्मा अपने (पैदा किए) सारे जीव-जंतुओं की पालना करता है। (सब के) दुखों के नाश करने वाले और सुखों के समुंदर मालिक प्रभु सब जीवों को खुराक देता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलि थलि पूरि रहिआ मिहरवाना ॥ सद बलिहारि जाईऐ कुरबाना ॥ रैणि दिनसु तिसु सदा धिआई जि खिन महि सगल उधारे जीउ ॥३॥

मूलम्

जलि थलि पूरि रहिआ मिहरवाना ॥ सद बलिहारि जाईऐ कुरबाना ॥ रैणि दिनसु तिसु सदा धिआई जि खिन महि सगल उधारे जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जलि = पानी में। थलि = धरती में। सद = सदा। रैणि = रात। जि = जो (प्रभु)। उधारे = (विकारों से) बचाता है।3।
अर्थ: (हे भाई!) मेहर करने वाला परमात्मा पानी में धरती में (हर जगह) व्याप रहा है। उससे सदके जाना चाहिए। कुर्बान होना चाहिए। (हे भाई!) जो परमातमा सब जीवों को एक पल में (संसार समुंदर से) बचा सकता है, उसे दिन रात हर समय स्मरणा चाहिए।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राखि लीए सगले प्रभि आपे ॥ उतरि गए सभ सोग संतापे ॥ नामु जपत मनु तनु हरीआवलु प्रभ नानक नदरि निहारे जीउ ॥४॥२९॥३६॥

मूलम्

राखि लीए सगले प्रभि आपे ॥ उतरि गए सभ सोग संतापे ॥ नामु जपत मनु तनु हरीआवलु प्रभ नानक नदरि निहारे जीउ ॥४॥२९॥३६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। संतापे = दुख-कष्ट। प्रभि = हे प्रभु!। निहारे = देखे।4।
अर्थ: (जो जो भाग्यशाली प्रभु की शरण आए) प्रभु ने वो सारे स्वयं (दुख-कष्टों से) बचा लिए। उनके सारे चिन्ता फिक्र, सारे दुख-कष्ट दूर हो गए। परमातमा का नाम जपने से मनुष्य का मन, मनुष्य का शरीर में (उच्च आत्मिक जीवन की) हरियाली (का स्वरूप) बन जाती है। हे नानक! (अरदास कर और कह) हे प्रभु! (मेरे पर भी) मेहर की निगाह कर (मैं भी तेरा नाम स्मरण करता रहूँ)।4।29।36।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ जिथै नामु जपीऐ प्रभ पिआरे ॥ से असथल सोइन चउबारे ॥ जिथै नामु न जपीऐ मेरे गोइदा सेई नगर उजाड़ी जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ जिथै नामु जपीऐ प्रभ पिआरे ॥ से असथल सोइन चउबारे ॥ जिथै नामु न जपीऐ मेरे गोइदा सेई नगर उजाड़ी जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जपीऐ = जपा जाता है। से = वह। असथल = (स्थल) टीले, ऊची नीची जगह। सोइन = सोने के। गोइदा = हे गोबिंद।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘से’ है ‘सो’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) जिस जगह पे प्यारे प्रभु का नाम स्मरण करते रहें, वह ऊची जीची जगह भी (मानो) सोने के चौबारे हैं। पर, हे मेरे गोबिंद! जिस स्थान पे तेरा नाम ना जपा जाए, वो (बसे हुए) शहर भी उजाड़ (समान) हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि रुखी रोटी खाइ समाले ॥ हरि अंतरि बाहरि नदरि निहाले ॥ खाइ खाइ करे बदफैली जाणु विसू की वाड़ी जीउ ॥२॥

मूलम्

हरि रुखी रोटी खाइ समाले ॥ हरि अंतरि बाहरि नदरि निहाले ॥ खाइ खाइ करे बदफैली जाणु विसू की वाड़ी जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि समाले = हरि को (हृदय में) संभालता है। खाइ = ख के। नदरि = मेहर की नजर से। निहाले = देखता है। बदफैली = बुरे काम। जाणु = समझो। विसू की = जहर की। वाड़ी = बगीची।2।
अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य रूखी रोटी खा के भी परमात्मा (का नाम अपने हृदय में) संभाल के रखता है। परमात्मा उसके अंदर बाहर हर जगह उस पर अपनी मिहर की निगाह रखता है। जो मनुष्य दुनिया के पदार्थ खा खा के बुरे काम ही करता रहता है, उसे जहर की बगीची जानो।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

संता सेती रंगु न लाए ॥ साकत संगि विकरम कमाए ॥ दुलभ देह खोई अगिआनी जड़ अपुणी आपि उपाड़ी जीउ ॥३॥

मूलम्

संता सेती रंगु न लाए ॥ साकत संगि विकरम कमाए ॥ दुलभ देह खोई अगिआनी जड़ अपुणी आपि उपाड़ी जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेती = साथ। रंगु = प्रेम। साकत = परमात्मा से टूटे हुए लोग, माया में फंसे जीव। विकरम = कुकर्म। देह = शरीर। उपाड़ी = उखाड़ ली।3।
अर्थ: जो मनुष्य संत जनों के साथ प्रेम नहीं बनाता, और परमात्मा से टूटे हुए लोगों के साथ (मिल के) बुरे कर्म करता रहता है, उस बे-समझ ने ये अति कीमती शरीर व्यर्थ गवा लिया, वह अपनी जड़ें स्वयं ही काट रहा है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी सरणि मेरे दीन दइआला ॥ सुख सागर मेरे गुर गोपाला ॥ करि किरपा नानकु गुण गावै राखहु सरम असाड़ी जीउ ॥४॥३०॥३७॥

मूलम्

तेरी सरणि मेरे दीन दइआला ॥ सुख सागर मेरे गुर गोपाला ॥ करि किरपा नानकु गुण गावै राखहु सरम असाड़ी जीउ ॥४॥३०॥३७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नानक गावै = नानक गाता रहे। सरम = लज्जा, इज्जत। असाड़ी = हमारी।4।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले मेरे प्रभु! हे सुखों के समुंदर! हे सृष्टि के सबसे बड़े पालक! मैं तेरी शरण आया हूँ। मेहर करो (तेरा दास) नानक तेरे गुण गाता रहे। (हे प्रभु!) हमारी लज्जा रखो (हम विकारों में ख्वार ना होएं)।4।30।47।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ चरण ठाकुर के रिदै समाणे ॥ कलि कलेस सभ दूरि पइआणे ॥ सांति सूख सहज धुनि उपजी साधू संगि निवासा जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ चरण ठाकुर के रिदै समाणे ॥ कलि कलेस सभ दूरि पइआणे ॥ सांति सूख सहज धुनि उपजी साधू संगि निवासा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। समाणे = टिक गए। कलि = झगड़े। कलेस = दुख। पइआणे = चले गए, कूच कर गए (प्रया = कूच कर जाना)। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की लगन। साधू = गुरु।1।
अर्थ: जिस मनुष्य का निवास गुरु की संगति में बना रहता है, उसके हृदय में पालनहार प्रभु के चरण (सदैव) टिके रहते हैं। उसके अंदर से सभ तरह के झगड़े दुख-कष्ट कूच कर जाते हैं और उसके हृदय में शांत आत्मिक आनंद आत्मिक अडोलता की लहिर पैदा हो जाती है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

लागी प्रीति न तूटै मूले ॥ हरि अंतरि बाहरि रहिआ भरपूरे ॥ सिमरि सिमरि सिमरि गुण गावा काटी जम की फासा जीउ ॥२॥

मूलम्

लागी प्रीति न तूटै मूले ॥ हरि अंतरि बाहरि रहिआ भरपूरे ॥ सिमरि सिमरि सिमरि गुण गावा काटी जम की फासा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मूले = मूल, बिल्कुल। गावा = गाया।2।
अर्थ: जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के उसकी महिमा के गीत गाता रहता है, उसकी जमों की फाँसी काटी जाती है। प्रभु चरणों के साथ लगी हुई उसकी प्रीति बिल्कुल नहीं टूटती, और उसको अपने अंदर और बाहर जगत में हर जगह परमात्मा ही व्यापक दिखता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्रितु वरखै अनहद बाणी ॥ मन तन अंतरि सांति समाणी ॥ त्रिपति अघाइ रहे जन तेरे सतिगुरि कीआ दिलासा जीउ ॥३॥

मूलम्

अम्रितु वरखै अनहद बाणी ॥ मन तन अंतरि सांति समाणी ॥ त्रिपति अघाइ रहे जन तेरे सतिगुरि कीआ दिलासा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अनहद बाणी = एक रस महिमाकी वाणी के द्वारा। अनहद = लगातार, एकरस। सतिगुरि = सतिगुरु ने। दिलासा = हौसला, धीरज।3।
अर्थ: हे प्रभु! जिस सौभाग्यशालियों को विकारों का टाकरा करने के लिए) गुरु ने हौसला दिया, वह तेरे सेवक (माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तरह से तृप्त हो जाते हैं, उनके अंदर महिमा की वाणी की इनायत से एक रस नाम अंमृत की बरखा होती है। उनके मन में उनके शरीर में (ज्ञानेंद्रियों में) शांति टिकी रहती है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस का सा तिस ते फलु पाइआ ॥ करि किरपा प्रभ संगि मिलाइआ ॥ आवण जाण रहे वडभागी नानक पूरन आसा जीउ ॥४॥३१॥३८॥

मूलम्

जिस का सा तिस ते फलु पाइआ ॥ करि किरपा प्रभ संगि मिलाइआ ॥ आवण जाण रहे वडभागी नानक पूरन आसा जीउ ॥४॥३१॥३८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सा = था। ते = से, द्वारा। आवण जाण = जनम मरन का चक्कर।4।
अर्थ: (गुरु ने) कृपा करके (जिस मनुष्य को) प्रभु के चरणों में जोड़ दिया उसने उस प्रभु से जीवन उद्देश्य प्राप्त कर लिया, जिसका वह भेजा हुआ है। हे नानक! उस सौभाग्यशाली मनुष्य के जनम मरन के चक्कर खत्म हो गए, उसकी आशाएं पूरी हो गई (भाव, आसा-तृष्णा आदि उसे व्यथित, दुखी नही कर सकतीं)।4।31।38।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ मीहु पइआ परमेसरि पाइआ ॥ जीअ जंत सभि सुखी वसाइआ ॥ गइआ कलेसु भइआ सुखु साचा हरि हरि नामु समाली जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ मीहु पइआ परमेसरि पाइआ ॥ जीअ जंत सभि सुखी वसाइआ ॥ गइआ कलेसु भइआ सुखु साचा हरि हरि नामु समाली जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। सभि = सारे। साचा = सदा कायम रहने वाला। समाली = मैं संभालता हूँ।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: यहां ‘जिस’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘के’ के कारण हट गई है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (जैसे जैसे) बारिश हुई (जब) परमेश्वर ने बरसात की तो उसके सारे जीव जन्तु सुखी बसा दिए। (वैसे ही, ज्यों ज्यों) मैं परमात्मा का नाम अपने हृदय में बसाता हूँ मेरे अंदर से दुख-कष्ट खत्म होता जाता है और सदा स्थिर रहने वाला आत्मिक आनंद मेरे अंदर टिकता जाता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस के से तिन ही प्रतिपारे ॥ पारब्रहम प्रभ भए रखवारे ॥ सुणी बेनंती ठाकुरि मेरै पूरन होई घाली जीउ ॥२॥

मूलम्

जिस के से तिन ही प्रतिपारे ॥ पारब्रहम प्रभ भए रखवारे ॥ सुणी बेनंती ठाकुरि मेरै पूरन होई घाली जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिनि ही = उन ही।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिनि’ एक वचन है जिसका अर्थ है ‘उसने’; ‘तिन’ बहुवचन है अर्थ है ‘उन्होंने’। शब्द ‘तिनि’ क्रिया विषोशण ‘ही’ के कारण ‘तिन’ बन जाता है, पर अर्थ में एकवचन ही रहता है: ‘उसने ही’।

दर्पण-भाषार्थ

ठाकुरि = ठाकुर ने। घाली = मेहनत।2।
अर्थ: (जैसे बरसात करके) पारब्रहम प्रभु उन सारे जीव जन्तुओं की पालना करता है जो उसने पैदा किए हुए हैं सबका रक्षक बनता है (वैसे ही उसके नाम की बरखा वास्ते जब जब मैंने विनती की तो) मेरे पालणहार प्रभु ने मेरी विनती सुनी और मेरी (सेवा भक्ति की) मेहनत सिरे चढ़ गई।2।

[[0106]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरब जीआ कउ देवणहारा ॥ गुर परसादी नदरि निहारा ॥ जल थल महीअल सभि त्रिपताणे साधू चरन पखाली जीउ ॥३॥

मूलम्

सरब जीआ कउ देवणहारा ॥ गुर परसादी नदरि निहारा ॥ जल थल महीअल सभि त्रिपताणे साधू चरन पखाली जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कउ = को। नदरि = मेहर की निगाह से। निहारा = देखता है। महीअल = मही तल, धरती के ऊपर का हिस्सा, आकाश, अंतरिक्ष। त्रिपताणे = तृप्त हो गए। पखाली = मैं धोता हूँ।3।
अर्थ: जो प्रभु सब जीवों को दातें देने की सामर्थ्य रखता है (जिसकी कृपा से) पानी धरती व धरती के ऊपर के अंतरिक्ष के सारे जीव-जंतु उसकी दातों से तृप्त हो रहे हैं। उस प्रभु ने गुरु की कृपा से (मुझे भी) मेहर की निगाह से देखा (और मेरे हृदय में नाम बरखा करके मुझे माया की तृष्णा की ओर से तृप्त कर दिया, तभी तो) मैं गुरु के चरण धोता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन की इछ पुजावणहारा ॥ सदा सदा जाई बलिहारा ॥ नानक दानु कीआ दुख भंजनि रते रंगि रसाली जीउ ॥४॥३२॥३९॥

मूलम्

मन की इछ पुजावणहारा ॥ सदा सदा जाई बलिहारा ॥ नानक दानु कीआ दुख भंजनि रते रंगि रसाली जीउ ॥४॥३२॥३९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाई = मैं जाता हूँ। दुख भंजनि = दुखों के नाश करने वाले प्रभु ने। रंगि = प्रेम में। रसाली = रस+आलय, रसों के घर प्रभु। रंगि रसाली = सभ रसों के मालिक प्रभु के प्रेम में।4।
अर्थ: परमात्मा सब जीवों के मन की कामना पूरी करने वाला है। मैं उससे सदा ही सदा ही सदके जाता हूँ। हे नानक! (जीवों के) दुख नाश करने वाले प्रभु ने (जिन्हें नाम की) दाति बख्शी वह उस सारे रसों के मालिक प्रभु के प्रेम में रंगे गए।4।32।39।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ मनु तनु तेरा धनु भी तेरा ॥ तूं ठाकुरु सुआमी प्रभु मेरा ॥ जीउ पिंडु सभु रासि तुमारी तेरा जोरु गोपाला जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ मनु तनु तेरा धनु भी तेरा ॥ तूं ठाकुरु सुआमी प्रभु मेरा ॥ जीउ पिंडु सभु रासि तुमारी तेरा जोरु गोपाला जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंड = शरीर। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। गोपाला = हे गोपाल!।1।
अर्थ: हेसृष्टि के पालक! मुझे ये मन (जिंद) ये शरीर तेरे से ही मिला है। (ये) धन भी तेरा ही दिया हुआ है। तू मेरा पालणहार है। तू मेरा स्वामी है। तू मेरा मालिक है। ये जिंद ये शरीर सब तेरा ही दिया हुआ है। हे गोपाल! मुझे तेरा ही मान तान है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा सदा तूंहै सुखदाई ॥ निवि निवि लागा तेरी पाई ॥ कार कमावा जे तुधु भावा जा तूं देहि दइआला जीउ ॥२॥

मूलम्

सदा सदा तूंहै सुखदाई ॥ निवि निवि लागा तेरी पाई ॥ कार कमावा जे तुधु भावा जा तूं देहि दइआला जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तूं है = तू ही। सुखदाई = सुख देने वाला। निवि = झुक के, विनम्रता से। पाई = पैरों पर, चरणों में। जो कार = जो सेवा, जो काम।2।
अर्थ: हे दयाल प्रभु! सदा से ही सदा से ही मुझे तू ही सुख देने वाला है। मैं सदा झुक झुक के तेरे ही पैर लगता हूँ। जो तेरी रजा हो तो मैं वही काम करूँ जो तू (करने के लिए) मुझे दे।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ तुम ते लहणा तूं मेरा गहणा ॥ जो तूं देहि सोई सुखु सहणा ॥ जिथै रखहि बैकुंठु तिथाई तूं सभना के प्रतिपाला जीउ ॥३॥

मूलम्

प्रभ तुम ते लहणा तूं मेरा गहणा ॥ जो तूं देहि सोई सुखु सहणा ॥ जिथै रखहि बैकुंठु तिथाई तूं सभना के प्रतिपाला जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुम ते = तेरे पास से। गहणा = सुंदरता का उपाय। सुखु सहणा = सुख (जान के) सहना। प्रतिपाला = पालने वाला।3।
अर्थ: हे प्रभु! (सारे पदार्थ) मैंने तेरे पास से ही लेने है (सदा लेता रहता हूँ)। तू ही मेरे आत्मिक जीवन की सुंदरता का उपाय है साधन है। (सुख चाहे दुख) जो कुछ तू मुझे देता है मैं उसे सुख जान के सहता हूँ (कबूलता हूँ)। हे प्रभु! तू सब जीवों की पालना करने वाला है। मुझे तू जहाँ रखता है मेरे वास्ते वही बैकुंठ (स्वर्ग) है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरि सिमरि नानक सुखु पाइआ ॥ आठ पहर तेरे गुण गाइआ ॥ सगल मनोरथ पूरन होए कदे न होइ दुखाला जीउ ॥४॥३३॥४०॥

मूलम्

सिमरि सिमरि नानक सुखु पाइआ ॥ आठ पहर तेरे गुण गाइआ ॥ सगल मनोरथ पूरन होए कदे न होइ दुखाला जीउ ॥४॥३३॥४०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। सुख = आत्मिक आनंद। नानक = हे नानक! सगल = सारे। दुखाला = (दुख+आलय) दुखी।4।
अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जिस मनुष्य ने आठों पहर (हर वक्त) तेरी महिमा के गीत गाए हैं, उसने तेरा नाम स्मरण करके आत्मिक आनंद लिया है। उसकी सारी जरूरतें पूरी हो जाती है, वह कभी दुखी नहीं होता।4।33।40।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ पारब्रहमि प्रभि मेघु पठाइआ ॥ जलि थलि महीअलि दह दिसि वरसाइआ ॥ सांति भई बुझी सभ त्रिसना अनदु भइआ सभ ठाई जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ पारब्रहमि प्रभि मेघु पठाइआ ॥ जलि थलि महीअलि दह दिसि वरसाइआ ॥ सांति भई बुझी सभ त्रिसना अनदु भइआ सभ ठाई जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। प्रभि = प्रभु ने। मेघ = बादल। पठाइआ = भेजा। जलि = पानी में। महीअलि = मही तल, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में। दह दिसि = दसों तरफ। त्रिसना = प्यास। ठाई = जगहों में।1।
अर्थ: (जैसे, जब भी) पारब्रहम प्रभु ने बादल भेजे और पानी में धरती में आकाश में दसों दिशाओं में बरखा कर दी (जिसकी इनायत से जीवों के अंदर) ठंड पड़ गई, सभी की प्यास मिट गई और सब जगह खुशी ही खुशी छा गई (इस तरह अकाल-पुरख ने गुरु को भेजा जिसने प्रभु के नाम की बरखा की तो सब जीवों के हृदय में शांति पैदा हुई, सभी की माया की तृष्णा मिट गई, और सबके हृदयों में आत्मिक आनंद पैदा हुआ)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखदाता दुख भंजनहारा ॥ आपे बखसि करे जीअ सारा ॥ अपने कीते नो आपि प्रतिपाले पइ पैरी तिसहि मनाई जीउ ॥२॥

मूलम्

सुखदाता दुख भंजनहारा ॥ आपे बखसि करे जीअ सारा ॥ अपने कीते नो आपि प्रतिपाले पइ पैरी तिसहि मनाई जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भंजनहारा = नाश करने वाला। जीअ सारा = जीवों की सार, जीवों की संभाल। नो = को। पइ = पड़ के। तिसहि = उसको ही। मनाई = मैं मनाता हूँ।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिसहि में ‘तिस’ की ‘ु’ मात्रा क्रिया विशेषक ‘हि’ के कारण नहीं लगी है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (सब जीवों को) सुख देने वाला (सबके) दुख दूर करने वाला परमात्मा खुद ही मिहर करके सब जीवों की संभाल करता है। प्रभु अपने पैदा किए जगत की स्वयं ही प्रतिपालना करता है। मैं उसके चरणों में गिर के उसे ही प्रसन्न करने का यत्न करता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा की सरणि पइआ गति पाईऐ ॥ सासि सासि हरि नामु धिआईऐ ॥ तिसु बिनु होरु न दूजा ठाकुरु सभ तिसै कीआ जाई जीउ ॥३॥

मूलम्

जा की सरणि पइआ गति पाईऐ ॥ सासि सासि हरि नामु धिआईऐ ॥ तिसु बिनु होरु न दूजा ठाकुरु सभ तिसै कीआ जाई जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। सासि सासि = हरेक श्वास के साथ। तिसै कीआ = उस की ही। जाई = जगहें।3
अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा का आसरा लेने से उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है, उस हरि का नाम हरेक श्वास के साथ याद करते रहना चाहिए। उसके बिनां (उस जैसा) और कोई पालणहार नहीं है। सारी जगहें उसी की हैं। (सब जीवों में वह स्वयं ही बस रहा है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरा माणु ताणु प्रभ तेरा ॥ तूं सचा साहिबु गुणी गहेरा ॥ नानकु दासु कहै बेनंती आठ पहर तुधु धिआई जीउ ॥४॥३४॥४१॥

मूलम्

तेरा माणु ताणु प्रभ तेरा ॥ तूं सचा साहिबु गुणी गहेरा ॥ नानकु दासु कहै बेनंती आठ पहर तुधु धिआई जीउ ॥४॥३४॥४१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! सचा = सदा स्थिर रहने वाला। गहेरा = गहरा। धिआई = मैं ध्याता हूँ।4।
अर्थ: हे प्रभु! मुझे तेरा ही माण है। मुझे तेरा ही आसरा है। तू सदा कायम रहने वाला मेरा मालिक है। तू सारे गुणों वाला है तेरे गुणों की थाह नहीं पाई जा सकती। हे प्रभु! (तेरा) दास नानक! (तेरे आगे) विनती करता है (कि मेहर कर) मैं आठों पहर तूझे ही याद करता रहूँ।4।34।41।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ सभे सुख भए प्रभ तुठे ॥ गुर पूरे के चरण मनि वुठे ॥ सहज समाधि लगी लिव अंतरि सो रसु सोई जाणै जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ सभे सुख भए प्रभ तुठे ॥ गुर पूरे के चरण मनि वुठे ॥ सहज समाधि लगी लिव अंतरि सो रसु सोई जाणै जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तुठे = प्रसन्न होने से। मनि = मन में। वुठे = वश पड़े। सहज = आत्मिक अडोलता। सहज समाधि = आत्मिक अडोलता की समाधि। लिव = लगन। अंतरि = (जिसके) हृदय में। सोई = वही मनुष्य।1।
अर्थ: जब प्रभु प्रसन्न हो (और उसकी मेहर से) पूरे गुरु के चरण (किसी बड़े भाग्यशाली के) मन में आ बसें तो (उसको) सारे सुख प्राप्त हो जातें हैं। पर उस आनंद को वही मनुष्य समझता है जिसके अंदर (प्रभु मिलाप की) लगन हो जिसकी आत्मिक अडोलता वाली समाधि लगी हुई हो (अर्थात, जो सदैव आत्मिक अडोलता में टिका रहे)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगम अगोचरु साहिबु मेरा ॥ घट घट अंतरि वरतै नेरा ॥ सदा अलिपतु जीआ का दाता को विरला आपु पछाणै जीउ ॥२॥

मूलम्

अगम अगोचरु साहिबु मेरा ॥ घट घट अंतरि वरतै नेरा ॥ सदा अलिपतु जीआ का दाता को विरला आपु पछाणै जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = अ+गो+चरु, जिस तक ज्ञान इंद्रियां नही पहुँच सकतीं। वरतै = मौजूद है। नेरा = नजदीक। अलिपत = अलिप्त, निर्लिप। आपु = अपने आप को।2।
अर्थ: (हे भाई!) मेरा मालिक प्रभु अगम्य (पहुँच से परे) है। ज्ञानेंद्रियों की उस तक पहुँच नहीं हो सकती। (वैसे) वह हरेक के दिल में बस रहा है वह सब जीवों के नजदीक बसता है। (फिर भी) वह माया के प्रभाव से परे है, और सब जीवों को दातें देने वाला है (वह सब की जिंद जान है, सब की आत्मा है, सब का स्वै है) उस (सबके) स्वै (प्रभु) को कोई विरला मनुष्य ही पहचानता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभ मिलणै की एह नीसाणी ॥ मनि इको सचा हुकमु पछाणी ॥ सहजि संतोखि सदा त्रिपतासे अनदु खसम कै भाणै जीउ ॥३॥

मूलम्

प्रभ मिलणै की एह नीसाणी ॥ मनि इको सचा हुकमु पछाणी ॥ सहजि संतोखि सदा त्रिपतासे अनदु खसम कै भाणै जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचा = सदा कायम रहने वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता में। संतोखि = संतोख में। त्रिपतासे = तृप्त हो जाते हैं। भाणै = रजा में।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के मिलाप की निशानी ये है (कि जो उसके चरणों में जुड़ा रहता है वह) अपने मन में उस प्रभु का सदा कायम रहने वाला हुक्म समझ लेता है (उसकी रजा में राजी रहता है)। जो मनुष्य पति प्रभु की रजा में रहते हैं, वह आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं। वे संतोषमयी जीवन व्यतीत करते हैं और (तृष्णा) की ओर से सदा तृप्त रहते हैं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हथी दिती प्रभि देवणहारै ॥ जनम मरण रोग सभि निवारे ॥ नानक दास कीए प्रभि अपुने हरि कीरतनि रंग माणे जीउ ॥४॥३५॥४२॥

मूलम्

हथी दिती प्रभि देवणहारै ॥ जनम मरण रोग सभि निवारे ॥ नानक दास कीए प्रभि अपुने हरि कीरतनि रंग माणे जीउ ॥४॥३५॥४२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हथी = तली (घर में बच्चों के लिए माएं अज्वाइन-सौंफ आदि की फक्की बना के रखती हैं, और वक्त-बेवक्त बच्चों को तली पर देती हैं), फक्की। प्रभि = प्रभु ने। सभि = सारे। निवारे = दूर कर दिए। कीरतनि = कीरतन में।4।
अर्थ: (प्रभु की महिमा मानो एक फक्की है) देवनहार प्रभु ने इस जीव-बाल को (इस फक्की की) तली दी, उसके जनम मरन के चक्कर में डालने वाले सारे रोग दूर कर दिए।
हे नानक! जिन्हें प्रभु ने अपना सेवक बना लिया, वे परमात्मा की महिमा में (आत्मिक) आनंद लेते हैं।4।35।42।

[[0107]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ कीनी दइआ गोपाल गुसाई ॥ गुर के चरण वसे मन माही ॥ अंगीकारु कीआ तिनि करतै दुख का डेरा ढाहिआ जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ कीनी दइआ गोपाल गुसाई ॥ गुर के चरण वसे मन माही ॥ अंगीकारु कीआ तिनि करतै दुख का डेरा ढाहिआ जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माही = में। अंगीकार कीआ = (अंगी+कृ to accept) स्वीकार कर लिया है। तिनि = उसने। तिनि करतै = उस कर्तार ने। ढाहिआ = गिरा दिया।1।
अर्थ: सृष्टि के पालणहार! सृष्टि के पति प्रभु ने (जिस मनुष्य पर) मेहर की, उसके मन में गुरु के चरण बस गए। (उस को) उस कर्तार ने स्वीकार कर लिया (अपना बना लिया, और उसके अंदर से कर्तार ने) दुख का अड्डा ही उठवा दिया।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनि तनि वसिआ सचा सोई ॥ बिखड़ा थानु न दिसै कोई ॥ दूत दुसमण सभि सजण होए एको सुआमी आहिआ जीउ ॥२॥

मूलम्

मनि तनि वसिआ सचा सोई ॥ बिखड़ा थानु न दिसै कोई ॥ दूत दुसमण सभि सजण होए एको सुआमी आहिआ जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। बिखड़ा = मुश्किल। दूत = कष्ट देने वाला। सभि = सारे। आहिआ = प्यारा लगा।2।
अर्थ: जिस मनुष्य के मन में, शरीर में वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा बस जाए, उसको (जीवन सफर में) कोई जगह मुश्किल नहीं दिखती। जिसका प्यार प्रभु मालिक के साथ बन जाए, सारे कष्ट देने वाले दुश्मन उसके सज्जन मित्र बन जाते हैं (कामादिक वैरी उसके अधीन हो जाते हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो किछु करे सु आपे आपै ॥ बुधि सिआणप किछू न जापै ॥ आपणिआ संता नो आपि सहाई प्रभि भरम भुलावा लाहिआ जीउ ॥३॥

मूलम्

जो किछु करे सु आपे आपै ॥ बुधि सिआणप किछू न जापै ॥ आपणिआ संता नो आपि सहाई प्रभि भरम भुलावा लाहिआ जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। आपो = आपे से। जापै = दिखती। नो = को। प्रभि = प्रभु ने। भुलावा = भुलेखा।3।
अर्थ: जिस मनुष्य के मन में से प्रभु ने भटकना व भुलेखा दूर कर दिया, (उसे यह निश्चय हो जाता है कि) जो कुछ प्रभु करता है स्वयं ही अपने आप से करता है (उसके कामों में किसी और की) अक्ल या चतुराई (काम करती) नहीं दिखती। अपने संतों वास्ते प्रभु खुद सहायक बनता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरण कमल जन का आधारो ॥ आठ पहर राम नामु वापारो ॥ सहज अनंद गावहि गुण गोविंद प्रभ नानक सरब समाहिआ जीउ ॥४॥३६॥४३॥

मूलम्

चरण कमल जन का आधारो ॥ आठ पहर राम नामु वापारो ॥ सहज अनंद गावहि गुण गोविंद प्रभ नानक सरब समाहिआ जीउ ॥४॥३६॥४३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आधारो = आधार, आसरा। वापारो = व्यापार,वणज। गावहि = गाते हैं। समाहिआ = व्यापक है।4।
अर्थ: हे नानक! प्रभु के सुंदर चरण प्रभु के सेवकों की जिंदगी का आसरा बन जाते हैं। सेवक आठों पहर परमात्मा के नाम का व्यापार करते हैं। सेवक आत्मिक अडोलता का आनंद (लेते हुए सदैव) उस गोबिंद प्रभु के गुण गाते हैं जो सब जीवों में व्यापक है।4।36।43।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ सो सचु मंदरु जितु सचु धिआईऐ ॥ सो रिदा सुहेला जितु हरि गुण गाईऐ ॥ सा धरति सुहावी जितु वसहि हरि जन सचे नाम विटहु कुरबाणो जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ सो सचु मंदरु जितु सचु धिआईऐ ॥ सो रिदा सुहेला जितु हरि गुण गाईऐ ॥ सा धरति सुहावी जितु वसहि हरि जन सचे नाम विटहु कुरबाणो जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर, अटल। मंदरु = देव स्थान। जितु = जिस में। रिदा = हृदय। सुहेला = सुखी। गाईऐ = गाएं। सा = वह। सुहावी = सुख देने वाली, सुहानी। विटहु = में से। कुरबाणो = कुर्बान।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सा’ स्त्रीलिंग है, ‘सो’ पुलिंग है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) जिस जगह में सदा स्थिर परमात्मा का स्मरण किया जाता है, वह सदा कायम रहने वाला मंदिर है। वह हृदय (सदा) सुखी है जिसके द्वारा परमात्मा के गुण गाए जाएं। वह धरती सुंदर बन जाती हैजिसमें परमात्मा के भक्त बसते हैं, और परमात्मा के नाम से सदके जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु वडाई कीम न पाई ॥ कुदरति करमु न कहणा जाई ॥ धिआइ धिआइ जीवहि जन तेरे सचु सबदु मनि माणो जीउ ॥२॥

मूलम्

सचु वडाई कीम न पाई ॥ कुदरति करमु न कहणा जाई ॥ धिआइ धिआइ जीवहि जन तेरे सचु सबदु मनि माणो जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: कीम = कीमत। करमु = बख्शिश। जीवहि = जीते हैं, आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। मनि = मन में। माणो = माण, आसरा।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू सदा स्थिर रहने वाला है। तेरी प्रतिभा का कोई जीव मुल्य नहीं डाल सकता। (अर्थात, तेरे जितना बड़ा और कोई नहीं है)। तेरी कुदरति बयान नहीं की जा सकती। तेरे भक्त तेरा नाम स्मरण कर-कर के आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। उनके मन में तेरा सदा स्थिर (महिमा का) शब्द ही आसरा है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचु सालाहणु वडभागी पाईऐ ॥ गुर परसादी हरि गुण गाईऐ ॥ रंगि रते तेरै तुधु भावहि सचु नामु नीसाणो जीउ ॥३॥

मूलम्

सचु सालाहणु वडभागी पाईऐ ॥ गुर परसादी हरि गुण गाईऐ ॥ रंगि रते तेरै तुधु भावहि सचु नामु नीसाणो जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगि = प्रेम में। तेरै रंगि = तेरे प्रेम में। तुधु = तुझे। नीसाणों = निशान, परवाना।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू सदा कायम रहने वाला है। तेरी महिमा बड़े भाग्यों के साथ मिलती है। हे हरि! तेरे गुण गुरु की कृपा से गाए जा सकते हैं। हे प्रभु! तूझे वह सेवक प्यारे लगते हैं जो तेरे प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। उनके पास तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम (जीवन सफर में) राहदारी है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचे अंतु न जाणै कोई ॥ थानि थनंतरि सचा सोई ॥ नानक सचु धिआईऐ सद ही अंतरजामी जाणो जीउ ॥४॥३७॥४४॥

मूलम्

सचे अंतु न जाणै कोई ॥ थानि थनंतरि सचा सोई ॥ नानक सचु धिआईऐ सद ही अंतरजामी जाणो जीउ ॥४॥३७॥४४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचे अंतु = सदा स्थिर प्रभु का अंत। थानि थनंतरि = हरेक जगह में। जाणो = जानकार, सुजान।4।
अर्थ: (हे भाई!) सदा कायम रहने वाले परमात्मा के गुणों का कोई मनुष्य अंत नहीं जान सकता। वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभु हरेक जगह में बस रहा है। हे नानक! उस सदा स्थिर प्रभु को सदा ही स्मरणा चाहिए। वह सुजान है और हरेक के दिल की जानने वाला है।4।37।44।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ रैणि सुहावड़ी दिनसु सुहेला ॥ जपि अम्रित नामु संतसंगि मेला ॥ घड़ी मूरत सिमरत पल वंञहि जीवणु सफलु तिथाई जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ रैणि सुहावड़ी दिनसु सुहेला ॥ जपि अम्रित नामु संतसंगि मेला ॥ घड़ी मूरत सिमरत पल वंञहि जीवणु सफलु तिथाई जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुहावड़ी = सुख देने वाली, सुहानी। सुहेला = आसान। जपि = जप के। अंम्रित = आत्मिक मौत से बचाने वाला। संगि = संग में। मूरत = महूरत, दो घड़ीयां। वंञहि = (इसमें ‘ञ’ का उच्चारण ‘अं’ और ‘ज’ के बीच में करना है) बीतना। तिथाई = वहीं।1।
अर्थ: (अगर) संतों की संगति में मेल (हो जाए तो वहाँ) आत्मिक मौत से बचाने वाले हरि नाम को जप के रात सुहानी बीतती है। दिन भी आसान हो गुजरता है। जहाँ उम्र की घड़ीआं दो घड़ीआं पल परमात्मा का नाम स्मरण करते हुए व्यतीत हो वहीं जीवन (का समय) सफल होता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिमरत नामु दोख सभि लाथे ॥ अंतरि बाहरि हरि प्रभु साथे ॥ भै भउ भरमु खोइआ गुरि पूरै देखा सभनी जाई जीउ ॥२॥

मूलम्

सिमरत नामु दोख सभि लाथे ॥ अंतरि बाहरि हरि प्रभु साथे ॥ भै भउ भरमु खोइआ गुरि पूरै देखा सभनी जाई जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दोख = पाप। सभि = सारे। भै = प्रभु का डर दिल में रखने से, भउ के कारण। भरमु = भटकना। गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा। देखा = देखूँ, मैं देखता हूँ। जीई = जगह।2।
अर्थ: परमातमा का नाम स्मरण करने से सारे पाप उतर जाते हैं। जीव के हृदय में और बाहर जगत में परमात्मा (हर समय) साथ (बसता प्रतीत) होता है।
परमात्मा काडर अदब दिल में रखने के कारण पूरे गुरु ने मेरा दुनिया वाला डर समाप्त कर दिया है। अब मैं परमात्मा को सब जगहों पे देखता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु समरथु वड ऊच अपारा ॥ नउ निधि नामु भरे भंडारा ॥ आदि अंति मधि प्रभु सोई दूजा लवै न लाई जीउ ॥३॥

मूलम्

प्रभु समरथु वड ऊच अपारा ॥ नउ निधि नामु भरे भंडारा ॥ आदि अंति मधि प्रभु सोई दूजा लवै न लाई जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नउनिधि = नौ खजाने। आदि = शुरू में। अंति = आखिर मे। महि = बीच में। न लाई = मैं नहीं लगाता। लवै = बराबर। लवै न लाई = मैं बराबर नहीं समझता।3।
अर्थ: प्रभु सब ताकतों वाला है। सबसे बड़ा ऊँचा है, और बेअंत है। उसका नाम (मानो, जगत के) नौं ही खजाने है, (नाम धन से उस प्रभु के) खजाने भरे पड़े हैं। (संसार रचना के) शुरू में प्रभु स्वयं ही स्वयं था (दुनिया के) अंत में भी प्रभु स्वयं ही स्वयं होगा (अब संसार रचना के) मध्य में प्रभु स्वयं ही स्वयं है। मैं किसी और को बराबर का नहीं समझ सकता।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि किरपा मेरे दीन दइआला ॥ जाचिकु जाचै साध रवाला ॥ देहि दानु नानकु जनु मागै सदा सदा हरि धिआई जीउ ॥४॥३८॥४५॥

मूलम्

करि किरपा मेरे दीन दइआला ॥ जाचिकु जाचै साध रवाला ॥ देहि दानु नानकु जनु मागै सदा सदा हरि धिआई जीउ ॥४॥३८॥४५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाचिकु = भिखारी। जाचै = मांगता है। रवाला = चरण धूल। साध = गुरु। जनु = दास। नानकु मागै = नानक मांगता है। धिआई = मैं ध्याता हूँ।4।
अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले मेरे प्रभु! (मेरे पर) कृपा कर। (तेरा ये) भिखारी (तुझसे) गुरु के चरणों की धूल मांगता हूँ। (तेरा) दास नानक (तुझसे) मांगता है (कि ये) दान दे कि मैं, हे हरि! सदा सदा ही (तुझे) स्मरण करता रहूँ।4।38।45।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ ऐथै तूंहै आगै आपे ॥ जीअ जंत्र सभि तेरे थापे ॥ तुधु बिनु अवरु न कोई करते मै धर ओट तुमारी जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ ऐथै तूंहै आगै आपे ॥ जीअ जंत्र सभि तेरे थापे ॥ तुधु बिनु अवरु न कोई करते मै धर ओट तुमारी जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऐथै = इस लोक में। आगै = परलोक में। आपे = (तू) स्वयं ही। सभि = सारे। थापे = पैदा किए हुए। करते = हे कर्तार! धर = आसरा। ओट = सहारा।1।
अर्थ: हे कर्तार! इस लोक में मेरा तू ही सहारा है, और परलोक में भी मेरा तू स्वयं ही आसरा है। सारे ही जीव जन्तु तेरे ही सहारे हैं। हे कर्तार तेरे बिना मुझे कोई और (सहायक) नहीं (दिखता)। मुझे तेरी ही ओट है तेरा ही आसरा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसना जपि जपि जीवै सुआमी ॥ पारब्रहम प्रभ अंतरजामी ॥ जिनि सेविआ तिन ही सुखु पाइआ सो जनमु न जूऐ हारी जीउ ॥२॥

मूलम्

रसना जपि जपि जीवै सुआमी ॥ पारब्रहम प्रभ अंतरजामी ॥ जिनि सेविआ तिन ही सुखु पाइआ सो जनमु न जूऐ हारी जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। जपि जपि = बार बार जप के। जीवै = (मनुष्य) आत्मिक जीवन हासिल करता है। प्रभू = हे प्रभु! अंतरजामी = हे सबके दिलों की जानने वाले। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिन ही = उसने ही। जूऐ = जूए के खेल में। हारी = हारता है।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिन ही’ में ‘तिनि’ के ‘न’ अक्षर से ‘ि’ की मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण नहीं लगी है और ‘ही’ लगने के कारण शब्द बन गया ‘तिन’।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे स्वामी! हे पारब्रहम! हे अंतरयामी प्रभु! (तेरा सेवक तेरा नाम अपनी) जीभ से जप जप के आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। जिस मनुष्य ने तेरी सेवा भक्ति की उसने ही आत्मिक आनंद हासिल किया। वह मनुष्य अपना मानव जनम व्यर्थ नहीं गवाता (जैसेकि जुआरिया जूए में अपना सब कुछ हार जाता है)।2।

[[0108]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु अवखधु जिनि जन तेरै पाइआ ॥ जनम जनम का रोगु गवाइआ ॥ हरि कीरतनु गावहु दिनु राती सफल एहा है कारी जीउ ॥३॥

मूलम्

नामु अवखधु जिनि जन तेरै पाइआ ॥ जनम जनम का रोगु गवाइआ ॥ हरि कीरतनु गावहु दिनु राती सफल एहा है कारी जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अवखदु = दवा। जिनि = जिस ने। जनि = जन ने। जिनि जनि तेरै = तेरे जिस दास ने। कारी = कार।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे जिस सेवक ने तेरा नाम (-रूप) दवा ढूँढ ली, उसने कई जन्मों (के विकारों) का रोग (उस दवा के साथ) दूर कर लिया। (हे भाई!) रात दिन परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहो, यही कार लाभदायक है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रिसटि धारि अपना दासु सवारिआ ॥ घट घट अंतरि पारब्रहमु नमसकारिआ ॥ इकसु विणु होरु दूजा नाही बाबा नानक इह मति सारी जीउ ॥४॥३९॥४६॥

मूलम्

द्रिसटि धारि अपना दासु सवारिआ ॥ घट घट अंतरि पारब्रहमु नमसकारिआ ॥ इकसु विणु होरु दूजा नाही बाबा नानक इह मति सारी जीउ ॥४॥३९॥४६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: द्रिसटी = दृष्टि, मेहर की नजर। धारि = धार के, धारण करके। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। बाबा = हे भाई! नानक = हे नानक! सारी = श्रेष्ठ।4।
अर्थ: (प्रभु ने जो) अपना सेवक (अपनी) मेहर की निगाह करके सदकर्मों वाले जीवन वाला बना दिया, उसने हरेक शरीर में उस परमात्मा को (देख के हरेक के आगे) अपना सिर निवाया (भाव, हरेक के साथ प्रेम प्यार वाला बरताव किया)।
हे नानक! (कह:) हे भाई! एक परमात्मा के बिना और कोई (उस जैसा) नहीं है, यही सबसे श्रेष्ठ सूझ है।4।39।46।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ मनु तनु रता राम पिआरे ॥ सरबसु दीजै अपना वारे ॥ आठ पहर गोविंद गुण गाईऐ बिसरु न कोई सासा जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ मनु तनु रता राम पिआरे ॥ सरबसु दीजै अपना वारे ॥ आठ पहर गोविंद गुण गाईऐ बिसरु न कोई सासा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरबसु = (सर्वस्व। सर्व+स्व = सारा+धन), सब कुछ। सास = श्वास।1।
अर्थ: (हे भाई! अगर तू ये चाहता है कि तेरा) मन (तेरा) शरीर प्यारे प्रभु (के प्रेम रंग में) रंगा रहे (तो) अपना सब कुछ सदके करके (उस प्रेम के बदले) दे देना चाहिए। आठों पहर गोविंद के गुण गाने चाहिए। (हे भाई!) कोई एक श्वास (लेते हुए भी परमात्मा को) ना भुलाओ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई साजन मीतु पिआरा ॥ राम नामु साधसंगि बीचारा ॥ साधू संगि तरीजै सागरु कटीऐ जम की फासा जीउ ॥२॥

मूलम्

सोई साजन मीतु पिआरा ॥ राम नामु साधसंगि बीचारा ॥ साधू संगि तरीजै सागरु कटीऐ जम की फासा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तरीजै = तैरते हैं। सागरु = समुंदर। फासा = फांसी।2।
अर्थ: जो मनुष्य साधु-संगत में (टिक के) परमात्मा के नाम को विचारता है, वही सज्जन-प्रभु का प्यारा मित्र है। साधु-संगत में (रहने से) संसार समुंदर से पार लांघ सकते हैं, और जमों वाली फांसी कट जाती है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारि पदारथ हरि की सेवा ॥ पारजातु जपि अलख अभेवा ॥ कामु क्रोधु किलबिख गुरि काटे पूरन होई आसा जीउ ॥३॥

मूलम्

चारि पदारथ हरि की सेवा ॥ पारजातु जपि अलख अभेवा ॥ कामु क्रोधु किलबिख गुरि काटे पूरन होई आसा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चारि पदारथ = (धर्म, अर्थ काम, मोक्ष)। पारजातु = स्वर्ग का वृक्ष, जो मनोकामना पूरी करता है। अलख = जिसका स्वरूप बयान ना हो सके। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। किलबिख = पाप। गुरि = गुरु ने।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की सेवा भक्ति ही (दुनिया के प्रसिद्ध) चार पदार्थ हैं। (हे भाई!) अलख अभेव प्रभु का नाम जप, यही पारजात (वृक्ष मनोकामनाएं पूरी करने वाला) है। जिस मनुष्य (के अंदर से) गुरु ने काम-वासना दूर कर दी है जिसके सारे पाप गुरु ने काट दिए हैं, उसकी (हरेक किस्म की) आशा पूरी हो गई।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरन भाग भए जिसु प्राणी ॥ साधसंगि मिले सारंगपाणी ॥ नानक नामु वसिआ जिसु अंतरि परवाणु गिरसत उदासा जीउ ॥४॥४०॥४७॥

मूलम्

पूरन भाग भए जिसु प्राणी ॥ साधसंगि मिले सारंगपाणी ॥ नानक नामु वसिआ जिसु अंतरि परवाणु गिरसत उदासा जीउ ॥४॥४०॥४७॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भाग = किस्मत। सारंगपाणी = सारंग+पाणि = धनुष+हाथ, धनुषधारी प्रभु। जिसु अंतरि = जिसके हृदय में। उदास = माया के मोह से उपराम।4।
अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जाग पड़ें, उसको साधु-संगत में परमात्मा मिल जाता है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में परमातमा का नाम बस जाता है, वह घर-बार वाला होता हुआ भी माया से निर्लिप रहता है और उस प्रभु के दर पे स्वीकार रहता है।4।40।47।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ सिमरत नामु रिदै सुखु पाइआ ॥ करि किरपा भगतीं प्रगटाइआ ॥ संतसंगि मिलि हरि हरि जपिआ बिनसे आलस रोगा जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ सिमरत नामु रिदै सुखु पाइआ ॥ करि किरपा भगतीं प्रगटाइआ ॥ संतसंगि मिलि हरि हरि जपिआ बिनसे आलस रोगा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। सुखु = आत्मिक आनंद। भगती = भगतों ने। बिनसे = नाश हो गए।1।
अर्थ: (जिस मनुष्य के हृदय में) भगतजनों ने कृपा करके (परमात्मा का नाम) प्रगट कर दिया, उसने नाम स्मरण करके हृदय में आत्मिक आनंद का सुख प्राप्त किया। साधु-संगत में मिल के जिस ने सदा हरि नाम जपा, उसके सारे आलस उसके सारे रोग दूर हो गए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जा कै ग्रिहि नव निधि हरि भाई ॥ तिसु मिलिआ जिसु पुरब कमाई ॥ गिआन धिआन पूरन परमेसुर प्रभु सभना गला जोगा जीउ ॥२॥

मूलम्

जा कै ग्रिहि नव निधि हरि भाई ॥ तिसु मिलिआ जिसु पुरब कमाई ॥ गिआन धिआन पूरन परमेसुर प्रभु सभना गला जोगा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जा कै ग्रिहि = जिस हरि के घर में। नवनिधि = नौ खजाने। पुरब कमाई = पहले जन्मों की नेक कमाई (सामने आ गई)। गिआन = गहरी सांझ। धिआन = समाधि, ध्यान। जोगा = समर्थ।2।
अर्थ: हे भाई जिस हरि के घर में नौ खजाने मौजूद हैं, वह हरि उस मनुष्य को मिलता है (गुरु के द्वारा) जिसकी पहले जन्मों में की नेक कमाई के संस्कार जाग पड़ते हैं। उसकी पूर्ण परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन जाती है। उसे यकीन हो जाता है कि परमात्मा सब काम करने की स्मर्था रखता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

खिन महि थापि उथापनहारा ॥ आपि इकंती आपि पसारा ॥ लेपु नही जगजीवन दाते दरसन डिठे लहनि विजोगा जीउ ॥३॥

मूलम्

खिन महि थापि उथापनहारा ॥ आपि इकंती आपि पसारा ॥ लेपु नही जगजीवन दाते दरसन डिठे लहनि विजोगा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: थापि = स्थापना करके, पैदा करके। उथापनहारा = नाश करने की ताकत रखने वाला। इकंती = एकांती, अकेला। पसारा = जगत का पसारा। लेपु = प्रभाव। लहनि = उतर जाते हैं।3।
अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा (सारा जगत) रच के एक छिन में (इसको) नाश करने की ताकत भी रखता है। वह स्वयं ही (निर्गुण स्वरूप हो के) अकेला (हो जाता) है, और स्वयं ही (अपने आप से सरगुण स्वरूप धार के) जगत रचना कर देता है। उस कर्तार को, जगत के जीवन उस प्रभु को माया का प्रभाव विचलित नहीं कर सकता। उसका दर्शन करने से सारे विछोड़े उतर जाते हैं (प्रभु से विछोड़ा डालने वाले सारे प्रभाव मन से उतर जाते हैं)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंचलि लाइ सभ सिसटि तराई ॥ आपणा नाउ आपि जपाई ॥ गुर बोहिथु पाइआ किरपा ते नानक धुरि संजोगा जीउ ॥४॥४१॥४८॥

मूलम्

अंचलि लाइ सभ सिसटि तराई ॥ आपणा नाउ आपि जपाई ॥ गुर बोहिथु पाइआ किरपा ते नानक धुरि संजोगा जीउ ॥४॥४१॥४८॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अंचलि = पल्ले के साथ। सिसटि = सृष्टि, दुनिया। बोहिथु = जहाज। ते = साथ, से। धुरि = प्रभु की धुर दरगाह से।4।
अर्थ: (हे भाई! गुरु के) पल्ले लगा के (प्रभु स्वयं ही) सारी सृष्टि को (संसार समुंदर से) पार लंघाता है, प्रभु (गुरु के द्वारा) अपना नाम स्वयं (जीवों से) जपाता है। हे नानक! परमात्मा की धुर दरगाह से मिलाप के सबब बनने से परमात्मा की मेहर से गुरु जहाज मिलता है।4।41।48।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ५ ॥ सोई करणा जि आपि कराए ॥ जिथै रखै सा भली जाए ॥ सोई सिआणा सो पतिवंता हुकमु लगै जिसु मीठा जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ५ ॥ सोई करणा जि आपि कराए ॥ जिथै रखै सा भली जाए ॥ सोई सिआणा सो पतिवंता हुकमु लगै जिसु मीठा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सा जाए = वह जगह (शब्द ‘सा’ स्त्रीलिंग है)। पतिवंता = इज्जतवाला। जि = जो।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सो’ शब्द पुलिंग है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (जीव) वही काम कर सकता है, जो परमात्मा स्वयं कराता है। (जीव को) जिस जगह पे परमात्मा रखता है, वही जगह (जीव वास्ते) ठीक होती है। वही मनुष्य अक्ल वाला है वही मनुष्य इज्जत वाला है, जिसे परमात्मा का हुक्म प्यारा लगता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ परोई इकतु धागै ॥ जिसु लाइ लए सो चरणी लागै ॥ ऊंध कवलु जिसु होइ प्रगासा तिनि सरब निरंजनु डीठा जीउ ॥२॥

मूलम्

सभ परोई इकतु धागै ॥ जिसु लाइ लए सो चरणी लागै ॥ ऊंध कवलु जिसु होइ प्रगासा तिनि सरब निरंजनु डीठा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: इकतु = एक में। इकतु धागे = एक ही धागे में। ऊंध = उल्टा हुआ, प्रभु चरणों से उलट हुआ। तिनि = उस (मनुष्य) ने। निरंजन = निर+अंजन, जिस पर माया की कालख का कोई असर नहीं हो सकता।2।
अर्थ: परमात्मा ने सारी सृष्टि को अपने (हुक्म रूपी) धागे में परो रखा है। जिस जीव को प्रभु (अपने चरणों से) लगाता है, वही चरणों से लगता है। उस मनुष्य ने (ही) निर्लिप प्रभु को हर जगह देखा है, जिसका पलटा हुआ हृदय रूपी कमल का फूल (प्रभु ने अपनी मेहर से खुद) खिला दिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी महिमा तूंहै जाणहि ॥ अपणा आपु तूं आपि पछाणहि ॥ हउ बलिहारी संतन तेरे जिनि कामु क्रोधु लोभु पीठा जीउ ॥३॥

मूलम्

तेरी महिमा तूंहै जाणहि ॥ अपणा आपु तूं आपि पछाणहि ॥ हउ बलिहारी संतन तेरे जिनि कामु क्रोधु लोभु पीठा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: महिमा = बड़ाई, उपमा। आपु = स्वै को। हउ = मैं। जिनि = जिस जिस ने। पीठा = पीस दिया, नाश कर दिया।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘जिनि’ एकवचन और ‘जिन’ बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही जानता है कि तू कितना बड़ा है। अपने आप को तू स्वयं ही समझ सकता है। तेरे जिस जिस संत ने (तेरी मेहर से अपने अंदर से) काम को, क्रोध को, लोभ को दूर किया है, मैं उन पे से कुर्बान जाता हूं।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं निरवैरु संत तेरे निरमल ॥ जिन देखे सभ उतरहि कलमल ॥ नानक नामु धिआइ धिआइ जीवै बिनसिआ भ्रमु भउ धीठा जीउ ॥४॥४२॥४९॥

मूलम्

तूं निरवैरु संत तेरे निरमल ॥ जिन देखे सभ उतरहि कलमल ॥ नानक नामु धिआइ धिआइ जीवै बिनसिआ भ्रमु भउ धीठा जीउ ॥४॥४२॥४९॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: निरमल = पवित्र। कलमल = पाप, गुनाह। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। धीठा = ढीठ, अमोड़।4।
अर्थ: हे प्रभु! तेरे अंदर किसी के वास्ते वैर नहीं है। तेरे संत भी (वैर भावना आदि की) मैल से रहित हैं। तेरे उन संत जनों का दर्शन करने से (औरों के भी) पाप दूर हो जाते हैं। हे नानक! (कह: हे प्रभु तेरा) नाम स्मरण कर-कर के जो मनुष्य आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है उसके मन में से भटकना के डर दूर हो जाते हैं।4।42।49।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

मांझ महला ५ ॥ झूठा मंगणु जे कोई मागै ॥ तिस कउ मरते घड़ी न लागै ॥ पारब्रहमु जो सद ही सेवै सो गुर मिलि निहचलु कहणा ॥१॥

मूलम्

मांझ महला ५ ॥ झूठा मंगणु जे कोई मागै ॥ तिस कउ मरते घड़ी न लागै ॥ पारब्रहमु जो सद ही सेवै सो गुर मिलि निहचलु कहणा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: झूठा मंगणु = निरे नाशवान पदार्थों की ही मांग। मरते = आत्मिक मौत बर्दाश्त करते हुए। सद = सदा। गुर मिलि = गुरु को मिल के। निहचलु = (माया के हमलों से) अडोल।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘तिस कउ’ में शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबधक ‘कउ’ के कारण हट गई है। देखें गुरबाणी व्याकरण।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: यदि कोई मनुष्य (सदैव) नाशवान पदार्थों की ही मांग करता रहे (और नाम जपने की दाति कभी ना मांगे), उसे आत्मिक मौत मरते देर नहीं लगती। जो मनुष्य सदा ही परमेश्वर की सेवा-भक्ति करता है, वह गुरु को मिल के (माया की तृष्णा की तरफ से) अडोल हो गया कहा जा सकता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेम भगति जिस कै मनि लागी ॥ गुण गावै अनदिनु निति जागी ॥ बाह पकड़ि तिसु सुआमी मेलै जिस कै मसतकि लहणा ॥२॥

मूलम्

प्रेम भगति जिस कै मनि लागी ॥ गुण गावै अनदिनु निति जागी ॥ बाह पकड़ि तिसु सुआमी मेलै जिस कै मसतकि लहणा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मनि = मन में। अनदिनु = हर रोज। निति = सदा। जागी = जाग के, माया के हमलों से सुचेत रह कर। मसतकि = माथे पर। लहणा = प्राप्त करने के लेख।2।
अर्थ: जिस मनुष्य के मन में परमात्मा की प्यार-भरी भक्ति की लगन लग जाती है, जो मनुष्य हर रोज सदा (माया के हमलों से) सुचेत रह के परमात्मा के गुण गाता है, (उस की) बाँह पकड़ के उसको मालिक प्रभु (अपने साथ) मिला लेता है। (पर ये दाति उसी को प्राप्त होती है) जिसके माथे पर ये दात हासिल करने का लेख मौजूद हो (भाव, जिसके अंदर पूर्बले समय में किए कर्मों के अनुसार सेवा भक्ति के संस्कार मौजूद हों, गुरु को मिल के उसके वह संस्कार जाग पड़ते हैं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल भगतां मनि वुठे ॥ विणु परमेसर सगले मुठे ॥ संत जनां की धूड़ि नित बांछहि नामु सचे का गहणा ॥३॥

मूलम्

चरन कमल भगतां मनि वुठे ॥ विणु परमेसर सगले मुठे ॥ संत जनां की धूड़ि नित बांछहि नामु सचे का गहणा ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वुठे = बसते हैं। मुठे = लूटे जाते हैं। बांछहि = (जो) इच्छा रखते हैं।3।
अर्थ: (परमात्मा की भक्ति करने वाले लोग जानते हैं कि) परमेश्वर के चरणों में जुड़े बिना सारे ही जीव (माया के कामादिक दूतों के हाथों) लूटे जाते हैं। (सो) भगतों के मन में परमात्मा के सुहाने चरण (सदा) बसते रहते हैं। जो मनुष्य ऐसे संत जनों की चरण धूल की सदा चाहत रखते हैं। उन्हें सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम मिल जाता है, जो उनके जीवन को संवार देता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊठत बैठत हरि हरि गाईऐ ॥ जिसु सिमरत वरु निहचलु पाईऐ ॥ नानक कउ प्रभ होइ दइआला तेरा कीता सहणा ॥४॥४३॥५०॥

मूलम्

ऊठत बैठत हरि हरि गाईऐ ॥ जिसु सिमरत वरु निहचलु पाईऐ ॥ नानक कउ प्रभ होइ दइआला तेरा कीता सहणा ॥४॥४३॥५०॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वरु = पति। निहचलु = सदा स्थिर रहने वाला, अटल। सहणा = सहना, बर्दाश्त करना।4।
अर्थ: (हे भाई!) उठते बैठते (हर वक्त) परमात्मा की महिमा करनी चाहिए, क्योंकि उसका स्मरण करने से पति प्रभु मिल जाता है जो सदा अटल रहने वाला है।
हे नानक! (कह: हे प्रभु!) जिस पर तू दयावान होता है (वह उठते बैठते तेरा नाम स्मरण करता है और इस तरह) उसे तेरी रजा प्यारी लगती है।4।43।50।