०१ गुरु राम-दास चउपदे

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विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु माझ चउपदे घरु १ महला ४

मूलम्

रागु माझ चउपदे घरु १ महला ४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

मूलम्

ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि नामु मै हरि मनि भाइआ ॥ वडभागी हरि नामु धिआइआ ॥ गुरि पूरै हरि नाम सिधि पाई को विरला गुरमति चलै जीउ ॥१॥

मूलम्

हरि हरि नामु मै हरि मनि भाइआ ॥ वडभागी हरि नामु धिआइआ ॥ गुरि पूरै हरि नाम सिधि पाई को विरला गुरमति चलै जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चउपदे = चार पदों वाले, चार बंद वाले शब्द। मै मनि = मेरे मन में। वडभागी = बड़े भाग्यों से। गुरि = गुरु के द्वारा। गुरि पूरे = पूरे गुरु से। सिधि = सफलता। चलै = चलता है।1।
अर्थ: परमात्मा का नाम मेरे मन को प्यारा लग रहा है, परमात्मा मुझे मन में भा रहा है। बड़े भाग्यों से (ही) मैंने परमात्मा का नाम स्मरण किया है। परमात्मा का नाम जपने की ये सफलता मैंने पूरे गुरु से हासिल की है (जिस पर गुरु की मेहर हो, उसे ये दात मिलती है) कोई विरला (भाग्यशाली) गुरु की मति पर चलता है (और नाम स्मरण करता है)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै हरि हरि खरचु लइआ बंनि पलै ॥ मेरा प्राण सखाई सदा नालि चलै ॥ गुरि पूरै हरि नामु दिड़ाइआ हरि निहचलु हरि धनु पलै जीउ ॥२॥

मूलम्

मै हरि हरि खरचु लइआ बंनि पलै ॥ मेरा प्राण सखाई सदा नालि चलै ॥ गुरि पूरै हरि नामु दिड़ाइआ हरि निहचलु हरि धनु पलै जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: प्राण सखाई = प्राणों का साथी, जिंद का साथी। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। निहचलु = सदा टिके रहने वाला। पलै = मेरे पल्ले में, मेरे पास।2।
अर्थ: (पूरे गुरु की मेहर से) मैंने परमात्मा का नाम (अपने जीवन सफर के वास्ते) खर्च पल्ले से बांध लिया है। ये हरि का नाम मेरी जिंद का साथी बन गया है। (अब ये) सदा मेरे साथ रहता है (मेरे दिल में टिका रहता है)। पूरे गुरु ने (ये) हरि नाम (मेरे दिल में) पक्का करके टिका दिया है। हरि नाम धन मेरे पास अब सदा टिके रहने वाला धन हो गया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हरि सजणु मेरा प्रीतमु राइआ ॥ कोई आणि मिलावै मेरे प्राण जीवाइआ ॥ हउ रहि न सका बिनु देखे प्रीतमा मै नीरु वहे वहि चलै जीउ ॥३॥

मूलम्

हरि हरि सजणु मेरा प्रीतमु राइआ ॥ कोई आणि मिलावै मेरे प्राण जीवाइआ ॥ हउ रहि न सका बिनु देखे प्रीतमा मै नीरु वहे वहि चलै जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: राइआ = बादशाह। आणि = ला के। प्राण जीवाइआ = प्राणो को जीवन देने वाला, आत्मिक जीवन देने वाला। हउ = मैं। प्रीतम = हे प्रीतम! नीरु = नीर, पानी, आँखों में पानी। वहे वहि चलै = बहता जा रहा है।3।
अर्थ: परमात्मा (ही) मेरा (असल) सज्जन है। परमात्मा ही मेरा प्रीतम पातशाह है। मुझे आत्मिक जीवन देने वाला है। (मेरी हर समय तमन्ना है कि) कोई (गुरमुख वह प्रीतम) ला के मुझे मिला दे।
हे मेरे प्रीतम प्रभु! मैं तेरा दर्शन किये बिना नहीं रह सकता (तेरे विछोड़े में मेरी आँखों में से बिरह का) पानी निरंतर चल पड़ता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुरु मित्रु मेरा बाल सखाई ॥ हउ रहि न सका बिनु देखे मेरी माई ॥ हरि जीउ क्रिपा करहु गुरु मेलहु जन नानक हरि धनु पलै जीउ ॥४॥१॥

मूलम्

सतिगुरु मित्रु मेरा बाल सखाई ॥ हउ रहि न सका बिनु देखे मेरी माई ॥ हरि जीउ क्रिपा करहु गुरु मेलहु जन नानक हरि धनु पलै जीउ ॥४॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बाल सखाई = बचपन का साथी। माइ = हे माँ! हरि जीउ = हे हरि जी! करहु = करते हो। मेलहु = तुम मिलाते हो।4।
अर्थ: हे मेरी माँ! गुरु मेरा (ऐसा) मित्र है (जैसे) बचपन का साथी हो। मैं गुरु के दर्शन किये बगैर नहीं रह सकता (मुझे धैर्य नहीं आता)।
हे दास नानक! (कह:) हे प्रभु जी! जिस पे तुम कृपा करते हो, उसे गुरु मिलाते हो और उसके पल्ले हरि नाम धन इकट्ठा हो जाता है।4।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ४ ॥ मधुसूदन मेरे मन तन प्राना ॥ हउ हरि बिनु दूजा अवरु न जाना ॥ कोई सजणु संतु मिलै वडभागी मै हरि प्रभु पिआरा दसै जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ४ ॥ मधुसूदन मेरे मन तन प्राना ॥ हउ हरि बिनु दूजा अवरु न जाना ॥ कोई सजणु संतु मिलै वडभागी मै हरि प्रभु पिआरा दसै जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मधुसूदन = मधु नाम के राक्षस को मारने वाला, परमात्मा। मन तन प्राना = मेरे मन का मेरे तन का आसरा। हउ = मैं। वडभागी = बड़े भाग्यों से।1।
अर्थ: परमात्मा मेरे मन का आसरा है, मेरे शरीर का (ज्ञानेंद्रियों का) आसरा है। परमात्मा के बिना किसी और को मैं (जीवन का आसरा) नहीं समझता। सौभाग्य से मुझे कोई गुरमुख सज्जन मिल जाए और मुझे प्यारे प्रभु का पता बता दे।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हउ मनु तनु खोजी भालि भालाई ॥ किउ पिआरा प्रीतमु मिलै मेरी माई ॥ मिलि सतसंगति खोजु दसाई विचि संगति हरि प्रभु वसै जीउ ॥२॥

मूलम्

हउ मनु तनु खोजी भालि भालाई ॥ किउ पिआरा प्रीतमु मिलै मेरी माई ॥ मिलि सतसंगति खोजु दसाई विचि संगति हरि प्रभु वसै जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: खोजी = मैं खोजता हूँ। भालि = ढूंढ के। भालाई = भला करके। किउ = कैसे? माई = हे मां! मिलि = मिल के। खोजु दसाई = मैं पता पूछता हूँ। दसाई = मैं पूछता हूँ।2।
अर्थ: हे मेरी मां! (इसलिए कि) कैसे मुझे प्यारा प्रीतम प्रभु मिल जाए मैं ढूंढ के और ढूंढवा के अपना मन खोजता हूँ अपना शरीर खेजता हूँ। साधु-संगत में (भी) मिल के (उस प्रीतम का) पता पूछता हूँ (क्योंकि वह) हरि प्रभु साधु-संगत में बसता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरा पिआरा प्रीतमु सतिगुरु रखवाला ॥ हम बारिक दीन करहु प्रतिपाला ॥ मेरा मात पिता गुरु सतिगुरु पूरा गुर जल मिलि कमलु विगसै जीउ ॥३॥

मूलम्

मेरा पिआरा प्रीतमु सतिगुरु रखवाला ॥ हम बारिक दीन करहु प्रतिपाला ॥ मेरा मात पिता गुरु सतिगुरु पूरा गुर जल मिलि कमलु विगसै जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दीन = निमाणे, नादान। गुर जल मिलि = गुरु रूपी जल से मिल के। विगसै = खिल जाता है।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) हम तेरे नादान बच्चे हैं। हमारी रक्षा कर। (हे प्रभु!) मुझे प्यारा प्रीतम गुरु मिला (वही विकारों से मेरी) रक्षा करने वाला है। पूरा गुरु सत्गुरू (मुझे इस तरह प्यारा है, जैसे) मेरी मां और मेरा पिता है (जैसे) पानी को मिल के कमल फूल खिलता है (वैसे ही) गुरु को (मिल के मेरा हृदय गद्-गद् हो जाता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै बिनु गुर देखे नीद न आवै ॥ मेरे मन तनि वेदन गुर बिरहु लगावै ॥ हरि हरि दइआ करहु गुरु मेलहु जन नानक गुर मिलि रहसै जीउ ॥४॥२॥

मूलम्

मै बिनु गुर देखे नीद न आवै ॥ मेरे मन तनि वेदन गुर बिरहु लगावै ॥ हरि हरि दइआ करहु गुरु मेलहु जन नानक गुर मिलि रहसै जीउ ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: नीद = आत्मिक शांति। मन तनि = मन में तन में। वेदन = पीड़ा। गुर बिरहु = गुरु का विछोड़ा। रहसै = खुश रहता है, आनंद हासिल करता है।4।
अर्थ: हे हरि! गुरु का दर्शन किए बिनां मेरे मन को शांति नहीं आती। गुरु से विछोड़ा (एक ऐसी) पीड़ा (है, जो सदा) मेरे मन में मेरे तन में लगी रहती है। हे हरि! (मेरे पर) मेहर कर (और मुझे) गुरु मिला।
हे दास नानक! (स्वयं-) गुरु को मिल के (मन) खिल उठता है।4।2।

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विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ४ ॥ हरि गुण पड़ीऐ हरि गुण गुणीऐ ॥ हरि हरि नाम कथा नित सुणीऐ ॥ मिलि सतसंगति हरि गुण गाए जगु भउजलु दुतरु तरीऐ जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ४ ॥ हरि गुण पड़ीऐ हरि गुण गुणीऐ ॥ हरि हरि नाम कथा नित सुणीऐ ॥ मिलि सतसंगति हरि गुण गाए जगु भउजलु दुतरु तरीऐ जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पढ़ीऐ = (आओ मिल के) पढ़ें। गुणीऐ = (आओ मिल के) विचारें। मिलि = मिल के। गाए = गा के। भउजलु = संसार समुंदर। दुतरु = दुस्तर, जिससे पार लांघना दुश्वार हो।1।
अर्थ: (हे सत्संगी मित्र, आओ मिल के हम) परमात्मा के गुणों वाली वाणी पढ़ें और विचारें। परमात्मा के नाम की कथा ही सुनाते व सुनते रहें। साधु-संगत में मिल के परमात्मा की (महिमा) के गुण गा के इस जगत से इस संसार समुंदर से पार लांघ जाता है। (महिमा के बिना) इससे पार लांघना बहुत मुश्किल है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आउ सखी हरि मेलु करेहा ॥ मेरे प्रीतम का मै देइ सनेहा ॥ मेरा मित्रु सखा सो प्रीतमु भाई मै दसे हरि नरहरीऐ जीउ ॥२॥

मूलम्

आउ सखी हरि मेलु करेहा ॥ मेरे प्रीतम का मै देइ सनेहा ॥ मेरा मित्रु सखा सो प्रीतमु भाई मै दसे हरि नरहरीऐ जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सखी = हे सहेली, हे सत्संगी। हरि मेलु = हरि की प्राप्ति वाला इकट्ठ, सतसंग। करेहा = हम करें। मैं = मुझे। देइ = देता है। सखा = मित्र, साथी। नरहरीऐ = नरहरी, परमात्मा।2।
अर्थ: हे सतसंगी मित्र! आओ, परमात्मा (की प्राप्ति) वाला सत्संग बनाएं। जो गुरमुख मुझे मेरे प्रीतम का संदेशा दे, मुझे परमात्मा (का पता ठिकाना) बताए वही मेरा मित्र है मेरा साथी है, मेरा सज्जन है मेरा भाई है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरी बेदन हरि गुरु पूरा जाणै ॥ हउ रहि न सका बिनु नाम वखाणे ॥ मै अउखधु मंत्रु दीजै गुर पूरे मै हरि हरि नामि उधरीऐ जीउ ॥३॥

मूलम्

मेरी बेदन हरि गुरु पूरा जाणै ॥ हउ रहि न सका बिनु नाम वखाणे ॥ मै अउखधु मंत्रु दीजै गुर पूरे मै हरि हरि नामि उधरीऐ जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: बेदन = पीड़ा। हउ = मैं। अउखधु = (वेदना दूर करने के लिए) दवा। गुर पूरे = हे पूरे गुरु! नामि = नाम में (जोड़ के)। उधरीऐ = पार लंधाए, उद्धार।3।
अर्थ: (हे सत्संगी मित्र!) परमात्मा (का रूप) पूरा गुरु ही मेरी पीड़ा जानता है कि परमात्मा के नाम उच्चारण के बिनां मुझे धैर्य नहीं आ सकता (इस वास्ते मैं गुरु के आगे बिनती करता हूं और कहता हूँ-) हे पूरे सतिगुरु! मुझे (अपना) उपदेश दे (यही) दवाई (है जो मेरी वेदना दूर कर सकती है)। हे पूरे सतिुगुरू! मुझे परमात्मा के नाम में (जोड़ के संसार से) पार लंघाऔ3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम चात्रिक दीन सतिगुर सरणाई ॥ हरि हरि नामु बूंद मुखि पाई ॥ हरि जलनिधि हम जल के मीने जन नानक जल बिनु मरीऐ जीउ ॥४॥३॥

मूलम्

हम चात्रिक दीन सतिगुर सरणाई ॥ हरि हरि नामु बूंद मुखि पाई ॥ हरि जलनिधि हम जल के मीने जन नानक जल बिनु मरीऐ जीउ ॥४॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: चात्रिक = पपीहे। मुखि = मुंह में। जल निधि = पानी का खजाना, समुंदर। मीने = मछलियां।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: प्रचलित ख्याल है कि पपीहा स्वाति नक्षत्र के समय पर पड़ी बूंद को ही पीता है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हम अदने से चात्रिक हैं और गुरु की शरण आए हैं। (गुरु की कृपा से हमनें) परमात्मा का नाम मुंह में डाल लिया है (जैसे चात्रिक स्वाति) बूंद (मुंह में पीता है)। परमात्मा पानी का समुंदर है, हम उस पानी की मछलियां हैं। उस नाम जल के बिना आत्मिक मौत आ जाती है (जैसे, मछली पानी के बिना मर जाती है)।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ४ ॥ हरि जन संत मिलहु मेरे भाई ॥ मेरा हरि प्रभु दसहु मै भुख लगाई ॥ मेरी सरधा पूरि जगजीवन दाते मिलि हरि दरसनि मनु भीजै जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ४ ॥ हरि जन संत मिलहु मेरे भाई ॥ मेरा हरि प्रभु दसहु मै भुख लगाई ॥ मेरी सरधा पूरि जगजीवन दाते मिलि हरि दरसनि मनु भीजै जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जन संत = हे हरि जनो! हे संत जनो! भाई = हे भाईयो! मै = मुझे। जगजीवन = हे जग जीवन! हे जगत के जीवन! मिलि = मिल के। दरसनि = दर्शन में।1।
अर्थ: हे हरि जनों! हे संत जनों!! हे मेरे भाईयो! (मुझे) मिलो। मुझे मेरे हरि प्रभु परमात्मा का पता बताओ। मुझे (उसके दीदार की) भूख लगी हुई है।
हे जगत के जीवन प्रभु! हे दातार! हे हरि! मेरी ये श्रद्धा पूरी करो कि तेरे दीदार में लीन हो के मेरा मन (मेरे नाम अंम्रित से) तरो तर हो जाए।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिलि सतसंगि बोली हरि बाणी ॥ हरि हरि कथा मेरै मनि भाणी ॥ हरि हरि अम्रितु हरि मनि भावै मिलि सतिगुर अम्रितु पीजै जीउ ॥२॥

मूलम्

मिलि सतसंगि बोली हरि बाणी ॥ हरि हरि कथा मेरै मनि भाणी ॥ हरि हरि अम्रितु हरि मनि भावै मिलि सतिगुर अम्रितु पीजै जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सतसंगि = सतसंगति में। बोली = मैं बोलूं, बोली। मेरै मनि = मेरे मन में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल।2।
अर्थ: (मेरा मन लोचता है कि) साधु-संगत में मिल के मैं परमात्मा के महिमा की वाणी उचारूँ। परमात्मा के महिमा की बातें मेरे मन को प्यारी लग रही हैं।
आत्मिक जीवन देने वाले प्रभु का नाम-जल मेरे मन में अच्छा लग रहा है। ये नाम जल सतिगुरु को मिल के ही पिया जा सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडभागी हरि संगति पावहि ॥ भागहीन भ्रमि चोटा खावहि ॥ बिनु भागा सतसंगु न लभै बिनु संगति मैलु भरीजै जीउ ॥३॥

मूलम्

वडभागी हरि संगति पावहि ॥ भागहीन भ्रमि चोटा खावहि ॥ बिनु भागा सतसंगु न लभै बिनु संगति मैलु भरीजै जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: वडभागी = बड़े भाग्यों वाले। भ्रमि = भटकनों में पड़ के। भरीजै = भर जाते, लिबड़ जाते हैं।3।
अर्थ: भाग्यशाली मनुष्य प्रभु का मिलाप कराने वाली साधु-संगत प्राप्त करते हैं।
पर अभागे लोग भटकनों में पड़ कर चोटें खाते हैं (विकारों की चोटें बर्दाश्त करते हैं)। अच्छी किस्मत के बगैर साधु-संगत नहीं मिलती। साधु-संगत के बिना (मनुष्य का मन विकारों की) मैल के साथ लिबड़ा रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मै आइ मिलहु जगजीवन पिआरे ॥ हरि हरि नामु दइआ मनि धारे ॥ गुरमति नामु मीठा मनि भाइआ जन नानक नामि मनु भीजै जीउ ॥४॥४॥

मूलम्

मै आइ मिलहु जगजीवन पिआरे ॥ हरि हरि नामु दइआ मनि धारे ॥ गुरमति नामु मीठा मनि भाइआ जन नानक नामि मनु भीजै जीउ ॥४॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मै = मुझे। आइ = आ के। दइआ धारे = दया धार के। नामि = नाम में।4।
अर्थ: हे जगत को जीवन देने वाले प्यारे प्रभु! आ के मुझे मिल। हे हरि! अपने मन में दया धार के मुझे अपना नाम दे।
हे दास नानक! (कह:) गुरु की मति की इनायत से (जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा का नाम मीठा लगने लगता है, प्यारा लगने लगता है, उसका मन (सदा) नाम में ही भीगा रहता है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ४ ॥ हरि गुर गिआनु हरि रसु हरि पाइआ ॥ मनु हरि रंगि राता हरि रसु पीआइआ ॥ हरि हरि नामु मुखि हरि हरि बोली मनु हरि रसि टुलि टुलि पउदा जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ४ ॥ हरि गुर गिआनु हरि रसु हरि पाइआ ॥ मनु हरि रंगि राता हरि रसु पीआइआ ॥ हरि हरि नामु मुखि हरि हरि बोली मनु हरि रसि टुलि टुलि पउदा जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गिआनु = जान-पहिचान, गहरी सांझ। रंगि = रंग में। राता = रंगा हुआ। मुखि = मुंह में। बोली = बोली, मैं बोलता हूं। हरि रसि = हरि नाम के रस में। टुलि टुलि = डुल डुलके, उछल उछल के। पउदा = पड़ता है।1।
अर्थ: मैंने गुरु की दी हुई परमात्मा के साथ गहरी सांझ प्राप्त कर ली है। मुझे परमात्मा का नाम रस मिल गया है। मेरा मन परमात्मा के नाम रंग में रंगा गया है। मुझे (गुरु ने) परमात्मा का नाम-रस पिला दिया है। (अब) मै सदा परमात्मा का नाम मुंह से उचारता रहता हूँ। परमात्मा के नाम रस से मेरा मन उछल-उछल पड़ता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आवहु संत मै गलि मेलाईऐ ॥ मेरे प्रीतम की मै कथा सुणाईऐ ॥ हरि के संत मिलहु मनु देवा जो गुरबाणी मुखि चउदा जीउ ॥२॥

मूलम्

आवहु संत मै गलि मेलाईऐ ॥ मेरे प्रीतम की मै कथा सुणाईऐ ॥ हरि के संत मिलहु मनु देवा जो गुरबाणी मुखि चउदा जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गलि = गले से। मै = मुझे। देवा = मैं दे दूँ। चउदा = बोलता।2।
अर्थ: हे संत जनों! आओ, मुझे अपने गले से लगा लो। और मुझे मेरे प्रीतम प्रभु के महिमा की बातें सुनाओ। हे प्रभु के संत जनों! मुझे मिलो। जो कोई सतिगुरु की वाणी मुंह से उचारता है (और मुझे सुनाता है) मैं अपना मन उसके हवाले करता हूँ।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडभागी हरि संतु मिलाइआ ॥ गुरि पूरै हरि रसु मुखि पाइआ ॥ भागहीन सतिगुरु नही पाइआ मनमुखु गरभ जूनी निति पउदा जीउ ॥३॥

मूलम्

वडभागी हरि संतु मिलाइआ ॥ गुरि पूरै हरि रसु मुखि पाइआ ॥ भागहीन सतिगुरु नही पाइआ मनमुखु गरभ जूनी निति पउदा जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: संतु = गुरु। गुरि पूरे = पूरे गुरु ने। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। निति = सदा।3।
अर्थ: मेरे बड़े भाग्यों से परमात्मा ने मुझे गुरु से मिला दिया, और (उस) पूरे गुरु ने परमात्मा का नाम रस मेरे मुंह में डाल दिया है। अभागे लोगों को ही सतिगुरु नहीं मिलता। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता रहता है, वह सदा जोनियों के चक्कर में पड़ा रहता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपि दइआलि दइआ प्रभि धारी ॥ मलु हउमै बिखिआ सभ निवारी ॥ नानक हट पटण विचि कांइआ हरि लैंदे गुरमुखि सउदा जीउ ॥४॥५॥

मूलम्

आपि दइआलि दइआ प्रभि धारी ॥ मलु हउमै बिखिआ सभ निवारी ॥ नानक हट पटण विचि कांइआ हरि लैंदे गुरमुखि सउदा जीउ ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दइआलि = दयाल ने। प्रभि = प्रभु ने। दइआल प्रभि = दयाल प्रभु ने। बिखिआ = माया। निवारी = दूर कर दी। पटण = शहर। कांइआ = काया, शरीर। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।4।
अर्थ: दया के घर प्रभु ने जिस मनुष्य पर मेहर की, उसने (अपने अंदर से) अहंकार की मैल, माया की मैल सारी ही दूर कर ली।? हे नानक! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख होते हैं, वह (अपने) शरीर रूपी दुकान में ही, शरीर-रूपी शहर में ही (टिक के) परमात्मा के नाम का सौदा खरीदते हैं।4।5।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ४ ॥ हउ गुण गोविंद हरि नामु धिआई ॥ मिलि संगति मनि नामु वसाई ॥ हरि प्रभ अगम अगोचर सुआमी मिलि सतिगुर हरि रसु कीचै जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ४ ॥ हउ गुण गोविंद हरि नामु धिआई ॥ मिलि संगति मनि नामु वसाई ॥ हरि प्रभ अगम अगोचर सुआमी मिलि सतिगुर हरि रसु कीचै जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। मनि = मन में। वसाई = मैं बसाऊँ। हउ = मैं। प्रभ = हे प्रभु! अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु। अगोचर = वह प्रभु जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। कीचै = किया जा सके।1।
अर्थ: (मेरी अरदास है कि) मैं गोबिंद के गुण गाऊँ। मैं हरि का नाम स्मरण करूँ। और साधु-संगत में मिल के मैं परमात्मा का नाम अपने मन में बसाऊँ। हे हरि! हे प्रभु! हे अगम्य (प्रभु)! हे अगोचर (प्रभु)! हे स्वामी! (अगर तेरी मेहर हो तो) सतिगुरु को मिल के तेरे नाम का आनंद पाया जा सकता है।1।

[[0096]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनु धनु हरि जन जिनि हरि प्रभु जाता ॥ जाइ पुछा जन हरि की बाता ॥ पाव मलोवा मलि मलि धोवा मिलि हरि जन हरि रसु पीचै जीउ ॥२॥

मूलम्

धनु धनु हरि जन जिनि हरि प्रभु जाता ॥ जाइ पुछा जन हरि की बाता ॥ पाव मलोवा मलि मलि धोवा मिलि हरि जन हरि रसु पीचै जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जिन = जिन्होंने। जाता = पहचाना, गहरी सांझ डाली। जाइ = जा के। पुछा = पूछूं। पाव = पैर। मलोवा = मलूं, मलना। मलि = मल के। पीचै = पीआ जाए।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘पाव’ है ‘पाउ’ का बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: भाग्यशाली हैं परमात्मा के वह सेवक जिन्होंने हरि प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल रखी है। (मेरा जी करता है कि) मैं उन हरि के जनों के पास जा के हरि की महिमा की बातें पूछूं। मैं उनके पैर दबाऊँ, (उनके पैर) मल मल के धोऊँ। हरि के सेवकों को ही मिल के हरि का नाम रस पिया जा सकता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतिगुर दातै नामु दिड़ाइआ ॥ वडभागी गुर दरसनु पाइआ ॥ अम्रित रसु सचु अम्रितु बोली गुरि पूरै अम्रितु लीचै जीउ ॥३॥

मूलम्

सतिगुर दातै नामु दिड़ाइआ ॥ वडभागी गुर दरसनु पाइआ ॥ अम्रित रसु सचु अम्रितु बोली गुरि पूरै अम्रितु लीचै जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: दातै = दाते ने। दिढ़ाइआ = (हृदय में) दृढ़ किया। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। बोली = मैं बोलूं। गुरि पूरे = पूरे गुरु के द्वारा। लीचै = लिया जा सकता है।3।
अर्थ: (नाम की दाति) देने वाले सतिगुरु ने परमात्मा का नाम मेरे हृदय में पक्का कर दिया है। सौभाग्य से मुझे गुरु के दर्शन प्राप्त हुए। अब मैं आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस माणता हूँ और सदा कायम रहने वाला अमृत नाम (मुंह से) उच्चारता हूँ। पूरे गुरु के द्वारा (ही) ये आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस लिया जा सकता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि सतसंगति सत पुरखु मिलाईऐ ॥ मिलि सतसंगति हरि नामु धिआईऐ ॥ नानक हरि कथा सुणी मुखि बोली गुरमति हरि नामि परीचै जीउ ॥४॥६॥

मूलम्

हरि सतसंगति सत पुरखु मिलाईऐ ॥ मिलि सतसंगति हरि नामु धिआईऐ ॥ नानक हरि कथा सुणी मुखि बोली गुरमति हरि नामि परीचै जीउ ॥४॥६॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! धिआइऐ = ध्याया जा सकता है। सुणी = मैं सुनूं। बोली = मैं बोलूं। परीचै = परीचते हैं, प्रसन्न होते हैं।4।
अर्थ: हे हरि! मुझे साधु-संगत मिला, मुझे सतिगुरु मिला। साधु-संगत में मिल के ही हरि नाम स्मरण किया जा सकता है। हे नानक! (अरदास कर कि साधु-संगत में मिल के गुरु की शरण पड़ के) मैं परमात्मा के महिमा की बातें सुनता रहूँ और मुंह से बोलता रहूँ। गुरु की मति ले कर (मन) परमात्मा के नाम में प्रसन्न रहता है।4।6।

विश्वास-प्रस्तुतिः

माझ महला ४ ॥ आवहु भैणे तुसी मिलहु पिआरीआ ॥ जो मेरा प्रीतमु दसे तिस कै हउ वारीआ ॥ मिलि सतसंगति लधा हरि सजणु हउ सतिगुर विटहु घुमाईआ जीउ ॥१॥

मूलम्

माझ महला ४ ॥ आवहु भैणे तुसी मिलहु पिआरीआ ॥ जो मेरा प्रीतमु दसे तिस कै हउ वारीआ ॥ मिलि सतसंगति लधा हरि सजणु हउ सतिगुर विटहु घुमाईआ जीउ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भैणे पिआरीआ = हे प्यारी बहनों! हे सतसंगिओ! तिस कै = उस से। हउ = मैं। वारीआ = सदके हूं। मिलि = मिल के। विटहु = से। घुमाइआ = कुर्बान हूँ (स्त्रीलिंग)।1।
अर्थ: हे प्यारी बहनों! (सत्संगी जनों)! तुम आओ और मिल के बैठो। जो बहिन मुझे मेरे प्रीतम का पता बताएगी मैं उसके सदके जाऊँगी। साधु-संगत में मिल के (गुरु के द्वारा) मैंने सज्जन प्रभु ढूंढा है, मैं गुरु से कुर्बान जाती हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जह जह देखा तह तह सुआमी ॥ तू घटि घटि रविआ अंतरजामी ॥ गुरि पूरै हरि नालि दिखालिआ हउ सतिगुर विटहु सद वारिआ जीउ ॥२॥

मूलम्

जह जह देखा तह तह सुआमी ॥ तू घटि घटि रविआ अंतरजामी ॥ गुरि पूरै हरि नालि दिखालिआ हउ सतिगुर विटहु सद वारिआ जीउ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जह जह = जहां जहां। तह तह = तहां तहां। देखा = देखूं, मैं देखता हूं। सुआमी = हे स्वामी! घटि घटि = हरेक घट में। अंतरजामी = हे अंतरयामी! हरेक के दिलों की जानने वाले! गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। सद = सदा। वारिआ = कुर्बान (पुलिंग)।2।
अर्थ: हे स्वामी! मैं जिधर जिधर देखता हूँ उधर उधर तू ही है। हे अंतरजामी! तू हरेक शरीर में व्यापक है। मैं पूरे गुरु से सदा कुर्बान जाता हूँ। पूरे गुरु ने मुझे परमात्मा मेरे साथ बसता दिखा दिया है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको पवणु माटी सभ एका सभ एका जोति सबाईआ ॥ सभ इका जोति वरतै भिनि भिनि न रलई किसै दी रलाईआ ॥ गुर परसादी इकु नदरी आइआ हउ सतिगुर विटहु वताइआ जीउ ॥३॥

मूलम्

एको पवणु माटी सभ एका सभ एका जोति सबाईआ ॥ सभ इका जोति वरतै भिनि भिनि न रलई किसै दी रलाईआ ॥ गुर परसादी इकु नदरी आइआ हउ सतिगुर विटहु वताइआ जीउ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पवणु = हवा, स्वास। माटी = मिट्टी तत्व, शरीर। सबाइआ = सारी, समूची। वरतै = मौजूद है। भिन भिन = अलग अलग शरीर में। न रलई = मिलती नहीं। इकु = एक परमात्मा। वताइआ = कर्बान (पुलिंग)।3।
अर्थ: (हे भाई!) (सारे शरीरों में) एक ही हवा (स्वाश) है, मिट्टी तत्व भी सारे शरीरों में एक जैसा ही है और सारे शरीरों में एक ही रूहानी ज्योति मौजूद है। सबमें एक ही ज्योति काम कर रही है। अलग अलग (दिखाई देते) हरेक शरीर में एक ही ज्योति है। पर (माया के आंगन में जीवों को) किसी की ज्योति दूसरे की ज्योति से मिली हुई नहीं दिखती (ज्योति सांझी नहीं प्रतीत होती)। गुरु की कृपा में हरेक जीव में एक परमात्मा ही दिखता है। मैं गुरु से कुर्बान जाता हूँ।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनु नानकु बोलै अम्रित बाणी ॥ गुरसिखां कै मनि पिआरी भाणी ॥ उपदेसु करे गुरु सतिगुरु पूरा गुरु सतिगुरु परउपकारीआ जीउ ॥४॥७॥ सत चउपदे महले चउथे के ॥

मूलम्

जनु नानकु बोलै अम्रित बाणी ॥ गुरसिखां कै मनि पिआरी भाणी ॥ उपदेसु करे गुरु सतिगुरु पूरा गुरु सतिगुरु परउपकारीआ जीउ ॥४॥७॥ सत चउपदे महले चउथे के ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जनु = दास (एकवचन)। नानकु बोलै = नानक बोलता है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ का फर्क याद रखने योग्य है।

दर्पण-भाषार्थ

अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली, आत्मिक मौत से बचाने वाली। कै मनि = के मन में। भाणी = पसंद है। परउपकारी = औरों का भला करने वाला।4।
अर्थ: दास नानक आत्मिक जीवन देने वाली गुरु की वाणी (सदा) उच्चारता है। गुरु के सिखों के मन को ये वाणी प्यारी लगती है मीठी लगती है। पूरा गुरु पूरा सत्गुरू (यही) उपदेश करता है। (कि सब जीवों में एक ही परमात्मा की ज्योति बरत रही है)। पूरा गुरु औरों का भला मनाने वाला है।4।7।