विश्वास-प्रस्तुतिः
सोहिला रागु गउड़ी दीपकी महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
सोहिला रागु गउड़ी दीपकी महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जै घरि कीरति आखीऐ करते का होइ बीचारो ॥ तितु घरि गावहु सोहिला सिवरिहु सिरजणहारो ॥१॥
मूलम्
जै घरि कीरति आखीऐ करते का होइ बीचारो ॥ तितु घरि गावहु सोहिला सिवरिहु सिरजणहारो ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जै घरि = जिस घर में। जिस सतसंग घर में। कीरति = महिमा। आखीऐ = कही जाती है। तितु घरि = उस सत्संग घर में। सोहिला = सुहाग के गीत, प्रभु-पति से मिलन के उल्लास के शब्द।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: लड़की के विवाह के समय जो गीत रात को औरतें मिल के गाती हैं उनको ‘सोहिलड़े’ कहा जाता है। इन गीतों में कुछ तो विछोड़े का जज़्बा होता है जो लड़की के ब्याहे जाने से माता-पिता और सहेलियों को होता है, तथा कुछ असीसें आदि होती हैं कि पति के घर जा के सुखी बसे।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जिस (सत्संग) घर में (परमात्मा की) महिमा की जाती है और कर्तार के गुणों की विचार होती है (हे शरीर-कन्या!) उस (सत्संग) घर में (जा के तू भी) प्रभु के महिमा के गीत (सुहाग-मिलाप के उल्लास के शब्द) गाया कर और अपने पैदा करने वाले प्रभु को याद करा कर।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम गावहु मेरे निरभउ का सोहिला ॥ हउ वारी जितु सोहिलै सदा सुखु होइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
तुम गावहु मेरे निरभउ का सोहिला ॥ हउ वारी जितु सोहिलै सदा सुखु होइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी = सदके। जितु सोहिलै = जिस सोहिले की बरकत से।1। रहाउ।
अर्थ: (हे शरीर!) तू (सत्संगियों के साथ मिल के) प्यारे निरभउ (पति परमेश्वर) की कीर्ति के गीत गा (और कह) मैं सदके हूँ उस कीर्ति के गीत से जिसकी इनायत से सदा सुख मिलता है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित नित जीअड़े समालीअनि देखैगा देवणहारु ॥ तेरे दानै कीमति ना पवै तिसु दाते कवणु सुमारु ॥२॥
मूलम्
नित नित जीअड़े समालीअनि देखैगा देवणहारु ॥ तेरे दानै कीमति ना पवै तिसु दाते कवणु सुमारु ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नित नित = सदा ही। समालीअनि = संभालते हैं। देखैगा = संभाल करता है, संभाल करेगा। तेरे = तेरे पास से (हे शरीर!)। दानै कीमति = दान का मुल्य, बख्शिशों की कीमत। सुमारु = अंदाजा, अंत।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘समालीअनि’ शब्द कर्मवाच,वर्तमान काल, अन् पुरख, बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे शरीर! जिस पति परमेश्वर की हजूरी में) सदा ही जीवों की संभाल हो रही है, जो दातें देने वाला मालिक (हरेक जीव की) संभाल करता है, (जिस दातार की) दातों के मुल्य (हे शरीर-कन्या!) तुझसे नहीं चुकाए जा सकते, उस दातार का क्या अंदाजा (तू लगा सकती है)? (वह दातार प्रभु बहुत बेअंत है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मबति साहा लिखिआ मिलि करि पावहु तेलु ॥ देहु सजण असीसड़ीआ जिउ होवै साहिब सिउ मेलु ॥३॥
मूलम्
स्मबति साहा लिखिआ मिलि करि पावहु तेलु ॥ देहु सजण असीसड़ीआ जिउ होवै साहिब सिउ मेलु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: स्मबति = साल। साहा = ब्याहे जाने का दिन। लिखिया = मिथा हुआ।
मिलि करि = मिल जुल के। पावहु तेल = (विवाह से कुछ दिन पहले विवाह वाली लड़की को मांईए डालते हैं। चाचियां, ताईयां व सहेलियां मिल के उसके सिर पर तेल डालती हैं, और आर्शीवाद भरेगीत गाती हैं कि पति के घर जा के सुखी बसे)। असीसड़ीआ = खूबसूरत आसीसें।3।
अर्थ: (सत्संग में जा के, हे शरीर-कन्या! आरजूएं करा कर-) वह संबत् वह दिन (जो पहले ही) निश्चित है (जब पति के देश जाने के लिए मेरे वास्ते साहे-चिट्ठी आनी है, हे सत्संगी सहेलियो!) मिल के मुझे मांईएं डालो, तथा, हे सज्जन सहेलियो! मुझे खूबसूरत आर्शीवाद भी दो (भाव, मेरे लिए अरदास भी करो) जिससे प्रभु पति से मेरा मिलाप हो जाए।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
घरि घरि एहो पाहुचा सदड़े नित पवंनि ॥ सदणहारा सिमरीऐ नानक से दिह आवंनि ॥४॥१॥
मूलम्
घरि घरि एहो पाहुचा सदड़े नित पवंनि ॥ सदणहारा सिमरीऐ नानक से दिह आवंनि ॥४॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: घरि = घर में। घरि घरि = हरेक घर में। पाहुचा = पहोचा, साहे चिट्ठी, बुलावा पत्र।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: विवाह का साहा और लगन पक्का होने पे लड़के वालों का नाई बारात की गिनती आदि व और जरूरी संदेश ले के लड़की वालों के घर जाता है। उसको पहोचे वाला नाई कहते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवंनि = पड़ते हैं। सदड़े = बुलावे। सो दिह = उस दिहाड़े। आवंनि = आते हैं।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: विवाह के समय पहले माईए की रस्म होती है। चाचियां, ताईयां, भाभियां व सहेलियां मिल के विवाह वाली लड़की के सिर में तेल डालती हैं। उसको स्नान करवाती हैं, साथ साथ सुहाग के गीत गाती हैं। पति के घर जा के सुखी बसने की आसीसें देती हैं। उन दिनों रात को गाने बैठी औरतें भी सोहिलड़े व सुहाग के गीत गाती हैं। इन गीतों में आसीसें व सुहाग के गीत भी होते हैं और वैराग के भी। क्योंकि, एक तरफ तो लड़की ने ब्याहे जा के अपने पति के घर जाना है; दूसरी तरफ, उस लड़की का माता-पिता, बहिनों-भाईयों, सहेलियों, चाचियों, ताईयों, भरजाईयों आदि से वियोग भी होना होता है। इन गीतों में ये दोनों मिश्रित भाव होते हैं।
जैसे विवाह के लिए समय महूरत तय किया जाता है, और उस तय समय में ही विवाह की सभी रस्में संपन्न करने का पूरा प्रयत्न किया जाता है। इसी प्रकार हरेक जीव-कन्या का वह समय पहले ही निश्चित किया जा चुका है, जब मौत की साहा-चिट्ठी आती है, और इसने साक-सम्बंधियों से बिछुड़ के इस जगत पेके घर को छोड़ के परलोक में जाना है।
इस शब्द में शरीर-कन्या को समझाया गया है कि सत्संग में सुहाग के गीत गाया कर, और सुना कर। सत्संग, जैसे, माईएं पड़ने की जगह है। सत्संगी सहेलियां यहां एक-दूसरी सहेली को आसीसें देती हैं, अरदास करती हैंकि परलोक जाने वाली सहेली को प्रभु-पति का मिलाप हो।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (परलोक में जाने के लिए मौत की) ये साहा-चिट्ठी हरेक घर में आ रही है, ये बुलावे नित्य आ रहे हैं। (हे सत्संगियो!) उस बुलावा देने वाले प्रभु-पति को हमेशा याद रखना चाहिए (क्योंकि) हे नानक! (हमारे भी) वह दिन (नजदीक) आ रहे हैं।4।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु आसा महला १ ॥ छिअ घर छिअ गुर छिअ उपदेस ॥ गुरु गुरु एको वेस अनेक ॥१॥
मूलम्
रागु आसा महला १ ॥ छिअ घर छिअ गुर छिअ उपदेस ॥ गुरु गुरु एको वेस अनेक ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: छिअ = छह। घर = शास्त्र (सांख, न्याय, वैशेषिक, योग, मीमांसा तथा वेदांत)। गुर = (इन शास्त्रों के) कर्ता (कपिल, गौतम, कणाद, पतंजली, जैमिनी व व्यास)। उपदेश = शिक्षा, सिद्धांत। गुर गुर = ईष्ट प्रभु। एको = एक ही। वेस = रूप।1।
अर्थ: (हे भाई!) छह शास्त्र हैं, छह ही (इन शास्त्रों को) चलाने वाले हैं, छह ही इनके सिद्धांत हैं। पर इन सारों का मूल गुरु (परमात्मा) एक है। (ये सारे सिद्धांत) उस एक प्रभु के ही अनेक वेश हैं (प्रभु की हस्ती के प्रकाश के रूप हैं)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाबा जै घरि करते कीरति होइ ॥ सो घरु राखु वडाई तोइ ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
बाबा जै घरि करते कीरति होइ ॥ सो घरु राखु वडाई तोइ ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! जै घरि = जिस (सत्संग) घर में। करते कीरति = कर्तार की महिमा। होइ = होती है। राखु = संभाल। तोइ = तेरी। वडाई = भलाई।1। रहाउ।
अर्थ: हे भाई! जिस (सत्संग) घर में कर्तार की महिमा होती है, उस घर को संभाल के रख (उस सत्संग का आसरा लिए रख। इसी में) तेरी भलाई है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
विसुए चसिआ घड़ीआ पहरा थिती वारी माहु होआ ॥ सूरजु एको रुति अनेक ॥ नानक करते के केते वेस ॥२॥२॥
मूलम्
विसुए चसिआ घड़ीआ पहरा थिती वारी माहु होआ ॥ सूरजु एको रुति अनेक ॥ नानक करते के केते वेस ॥२॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आँख के 15 फोर= 1 विसा। 15 विसुए= 1 चसा। 30 चसे = 1 पल। 60पल = 1 घड़ी। 7.5 घड़ीयां =1 पहर। 8 पहर = 1 दिन रात। 15 थितें; 7 वार; 12 महीने; 6ऋतुएं।2।
अर्थ: जैसे, विसुए, चसे, घड़ियां, पहर, थिति, वार, महीना (आदि) और अन्य ऋतुएं हैं, पर सूरज एक ही है (जिसके सारे विभिन्न रूप हैं), उसी प्रकार, हे नानक! कर्तार के (ये सारे सिद्धांत आदि) अनेक स्वरूप हैं।2।2।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु धनासरी महला १ ॥ गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥ धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥
मूलम्
रागु धनासरी महला १ ॥ गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥ धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: सारा आकाश (जैसे कि) थाल है। सूरज और चाँद (उस थाल में) दिये बने हुए हैं। तारों के समूह, जैसे, थाल में मोती रखे हुए हैं। मलय पर्वत से आने वाली हवा, जैसे धूप (धूणे की सुगंध) है। हवा चौर कर रही है। सारी बनस्पति ज्योति-रूप (प्रभु की आरती) वास्ते फूल दे रही है।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैसी आरती होइ ॥ भव खंडना तेरी आरती ॥ अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
कैसी आरती होइ ॥ भव खंडना तेरी आरती ॥ अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गगन = आकाश। गगन मै = गगनमय, आकाशरूप, सारा आकाश। रवि = सूरज। दीपक = दीप, दीया। जनक = जैसा, जानो, मानो। मलआनलो = (मलय+अनलो, अनल = हवा, पवन) मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा। मलय पर्वत पर चंदन के पौधे होने की वजह से उधर से आनी वाली हवा भी सुगंध भरी होती है। मलय पहाड़ भारत के दक्षिण में है। सगल = सारी। बनराइ = बनस्पति। फुलंत = फूल रही है। जोती = ज्योति-रूप प्रभु।1। भव खंडन = हे जनम मरन काटने वाले। अनहता = अन+हत, जो बिना बजाए बजे, एक रस। शबद = आवाज़, जीवन लहर। भेरी = डफ, नगारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे जीवों के जनम, मरन, नाश करने वाले! (कुदरति में) कैसी सुंदर तेरी आरती हो रही है! (सभ जीवों में चल रहीं) एक ही जीवन तरंगें, मानों तेरी आरती के वास्ते नगारे बज रहे है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एक तुोही ॥ सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥
मूलम्
सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एक तुोही ॥ सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहस = हजारों। तव = तेरे। नैन = आँखें। नन = कोई नहीं। तोहि कउ = तेरे, तुझे, तेरे वास्ते। मूरति = शकल। ना = कोई नहीं। तूोही = तेरी। पद = पैर। बिमल = साफ। गंध = नाक। तिव = इस तरह। चलत = कौतक, आश्चर्यजनक खेल।2।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘हहि’ ‘है’ का बहुवचन है।
नोट: ‘तूोही’ में अक्षर ‘त’ के साथ दो मात्राएं हैं, ‘ु’ व ‘ो’। असल शब्द ‘तुही’ है जिसे ‘तोही’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (सभ जीवों में व्यापक होने के कारण) हजारों तेरी आँखें हैं (पर, निराकार होने की वजह से, हे प्रभु) तेरी कोई आँख नहीं। हजारों तेरी शक्लें हैं, पर तेरी कोई भी शक्ल नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं (पर निराकार होने के कारण) तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं, पर तू नाक के बिना ही है। तेरे ऐसे चमत्कारों ने मुझे हैरान किया हुआ है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभ महि जोति जोति है सोइ ॥ तिस दै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥ गुर साखी जोति परगटु होइ ॥ जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥
मूलम्
सभ महि जोति जोति है सोइ ॥ तिस दै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥ गुर साखी जोति परगटु होइ ॥ जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जोत = प्रकाश, रोशनी। सोइ = उस प्रभु। तिस दै चानणि = उस परमेश्वर के प्रकाश से। साखी = शिक्षा के साथ।3।
अर्थ: सारे जीवों में एक वही परमात्मा की ज्योति बरत रही है। उस ज्योति के प्रकाश से सारे जीवों में प्रकाश (सूझ-बूझ) है। पर, इस ज्योति का ज्ञान गुरु की शिक्षा से ही होता है। (गुरु के द्वारा ही ये समझ पड़ती है कि हरेक के अंदर परमात्मा की ज्योति है) (इस सर्व-व्यापक ज्योति की) आरती ये है कि जो कुछ भी उसकी रजा में हो रहा है, वह जीव को अच्छा लगे (प्रभु की रजा में रहना ही प्रभु की आरती करना है)।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि चरण कवल मकरंद लोभित मनो अनदिनुो मोहि आही पिआसा ॥ क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नाइ वासा ॥४॥३॥
मूलम्
हरि चरण कवल मकरंद लोभित मनो अनदिनुो मोहि आही पिआसा ॥ क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नाइ वासा ॥४॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मकरंद = फूलों के बीच की धूल (Pollen Dust), फूलों का रस। मनो = मन। अनदिनुों = हर रोज। मोहि = मुझे। आही = है, रहती है। सारंगि = पपीहा। कउ = को। जा ते = जिस से, जिसके साथ। तेरे नाइ = तेरे नाम में।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘अनदिनुों’ में अक्षर ‘न’ के साथ दो मात्राएं हैं, ‘ु’ व ‘ो’; असल शब्द ‘अनदिनु’ है जिसे ‘अनदिनो’ पढ़ना है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे हरि! तुम्हारे चरण-रूपी कमल फूलों के लिए मेरा मन ललचाता है, हर रोज मुझे इस रस की प्यास लगी हुई है। मुझ नानक पपीहे को अपनी मेहर का जल दे, जिस (की इनायत) से मैं तेरे नाम में टिका रहूँ।4।3।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: आरती: (आरित, आरात्रिका) देवते की मूर्ति अथवा किसी पूज्य के आगे दीए घुमा के पूजा करनी। हिन्दू मतानुसार चार बार चरणों के आगे, दो बार नाभी के ऊपर, एक बार मुँह पे, और सात बार सारे शरीर पे दीए घुमाने चाहिए। दीपक एक से लेकर एक सौ तक होते हैं। गुरु नानक देव जी ने इस आरती का ख्ंडन करके कर्तार की कुदरती आरती की प्रसंशा की है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ कामि करोधि नगरु बहु भरिआ मिलि साधू खंडल खंडा हे ॥ पूरबि लिखत लिखे गुरु पाइआ मनि हरि लिव मंडल मंडा हे ॥१॥
मूलम्
रागु गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ कामि करोधि नगरु बहु भरिआ मिलि साधू खंडल खंडा हे ॥ पूरबि लिखत लिखे गुरु पाइआ मनि हरि लिव मंडल मंडा हे ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कामि = काम-वासना से। करोधि = क्रोध से। नगरु = शरीर, नगर। मिलि = मिलके। साधू = गुरु। खंडल खंडा = तोड़ा है। पूरबि = पूर्व में, पहले बीते समय मे। पूरबि लिखे लिखत = पिछले (किये कर्मों के) लिखे हुए संस्कारों के अनुसार। मनि = मन में। मंडल मंडा = जड़ा हुआ है।1।
अर्थ: (मनुष्य का यह शरीर रूपी) शहर काम और क्रोध से भरा रहता है। गुरु को मिल के ही (काम-क्रोध आदि के इस मेल को) तोड़ जा सकता है। जिस मनुष्य को पूर्बले कर्मों के संजोगों से गुरु मिल जाता है, उसके मन में परमात्मा के साथ लगन लग जाती है (और उसके अंदर से कामादिक विकारों का जोड़ टूट जाता है)।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि साधू अंजुली पुनु वडा हे ॥ करि डंडउत पुनु वडा हे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
करि साधू अंजुली पुनु वडा हे ॥ करि डंडउत पुनु वडा हे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंजुली = दोनों हाथ जुड़े हुए। पुनु = भला काम। डंडउत = डंडौत, नीचे लेट कर नमस्कार।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के आगे हाथ जोड़, यह बहुत भला काम है। गुरु के आगे नत्मस्तक हो जाओ, ये बड़ा नेक काम है।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकत हरि रस सादु न जाणिआ तिन अंतरि हउमै कंडा हे ॥ जिउ जिउ चलहि चुभै दुखु पावहि जमकालु सहहि सिरि डंडा हे ॥२॥
मूलम्
साकत हरि रस सादु न जाणिआ तिन अंतरि हउमै कंडा हे ॥ जिउ जिउ चलहि चुभै दुखु पावहि जमकालु सहहि सिरि डंडा हे ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साकत = ईश्वर से टूटे हुए लोग। सादु = स्वाद। तिन अंतरि = उनके अंदर, उनके मन में। चलहि = चलते हैं। चुभै = (काँटा) चुभता है। जम कालु = (आत्मिक) मौत। सिरि = सिर पे।2।
अर्थ: जो मनुष्य प्रमात्मा से टूटे हुए हैं, वे उसके नाम के रस के स्वाद को नहीं समझ सकते। उनके मन में अहंकार का (मानों) काँटा चुभा हुआ है। ज्यों ज्यों वे चलते हैं (ज्यों ज्यों वे अहम् के स्वभाव में जीते हैं, अहंकार का काँटा उनको) चुभता है, वे दुख पाते हैं, और अपने सिर पर उन्हें आत्मिक मौत रूपी डंडा बर्दाश्त करना पड़ता है। (भाव, आत्मिक मौत उनके सिर पे सवार रहती है)।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि जन हरि हरि नामि समाणे दुखु जनम मरण भव खंडा हे ॥ अबिनासी पुरखु पाइआ परमेसरु बहु सोभ खंड ब्रहमंडा हे ॥३॥
मूलम्
हरि जन हरि हरि नामि समाणे दुखु जनम मरण भव खंडा हे ॥ अबिनासी पुरखु पाइआ परमेसरु बहु सोभ खंड ब्रहमंडा हे ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नामि = नाम में। समाणे = लीन, मस्त। भव = संसार। खंडा हे = नाश कर लिया है। सोभ = शोभा। खंड ब्रहमंडा = सारे जगत में।3।
अर्थ: (दूसरी तरफ) परमात्मा के प्यारे बंदेपरमात्मा के नाम में जुड़े रहते हैं। उनके संसार के जनम-तरण का दुख काटा जाता है। उन्हें कभी नाश ना होने वाला परमेश्वर मिल जाता है। उनकी शोभा सारे खंड-ब्रहिमंडों में हो जाती है।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम गरीब मसकीन प्रभ तेरे हरि राखु राखु वड वडा हे ॥ जन नानक नामु अधारु टेक है हरि नामे ही सुखु मंडा हे ॥४॥४॥
मूलम्
हम गरीब मसकीन प्रभ तेरे हरि राखु राखु वड वडा हे ॥ जन नानक नामु अधारु टेक है हरि नामे ही सुखु मंडा हे ॥४॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मसकीन = आज़िज़। प्रभ = हे प्रभु। राखु = रक्षा कर। आधारु = आसरा। नामे = नाम में ही। मंडा = मिला।4।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव तेरे दर के गरीब भिखारी हैं। तू सबसे बड़ा मददगार है। हमें (इन कामादिक विकारों से) बचा ले। हे प्रभु तेरे दास नानक को तेरा ही आसरा है, तेरा नाम ही सहारा है। तेरे नाम में जुड़ने से ही सुख मिलता है।4।4।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अगर पैर में काँटा चुभ जाए तो चलना-फिरना मुश्किल हो जाता है। उस काँटे को निकालने की जगह यदि पैरों में मख़मल की जूती पहन लें, तो भी चलते वक्त वह काँटा चुभता ही रहेगा। सुख तभी होगा, जब वह काँटा पैर में से निकाल लिया जाए।
जितनी देर तक आदमी के अंदर अहंकार है, यह दुखी ही करता रहेगा। बाहरी धार्मिक वेष आदि भी सुख नहीं दे सकेंगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागु गउड़ी पूरबी महला ५ ॥ करउ बेनंती सुणहु मेरे मीता संत टहल की बेला ॥ ईहा खाटि चलहु हरि लाहा आगै बसनु सुहेला ॥१॥
मूलम्
रागु गउड़ी पूरबी महला ५ ॥ करउ बेनंती सुणहु मेरे मीता संत टहल की बेला ॥ ईहा खाटि चलहु हरि लाहा आगै बसनु सुहेला ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ। सुणहु = तुम सुनो। बेला = मौका, बेला। ईहा = यहाँ, इस जनम में। खाटि = कमा के। लाहा = लाभ, कमाई। आगै = परलोक में। बसनु = बसना, आबाद होना। सुहेला = सुखमय।1।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘करउ’ वर्तमानकाल, उत्तमपुरख, एकवचन।
नोट: ‘सुणहु’ आदेश भविष्यत, मध्यम पुरख, बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे मेरे मित्रो! सुनो! मैं विनती करता हूँ- (अब) गुरमुखों की सेवा करने की बेला है। (यदि सेवा करोगे, तो) इस जनम में ईश्वर के नाम की कमाई कर के जाओगे, और परलोक में बसेरा सुखमय हो जाएगा।1।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अउध घटै दिनसु रैणारे ॥ मन गुर मिलि काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥
मूलम्
अउध घटै दिनसु रैणारे ॥ मन गुर मिलि काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अउधु = उम्र। रैणा = रात। मन = हे मन! मिलि = मिल के। सवारे = सवार ले।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! दिन रात (बीत बीत के) उम्र घटती जा रही है। हे (मेरे) मन! गुरु को मिल के (मानव जीवन के) उद्देश्य को सफल कर।1। रहाउ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहु संसारु बिकारु संसे महि तरिओ ब्रहम गिआनी ॥ जिसहि जगाइ पीआवै इहु रसु अकथ कथा तिनि जानी ॥२॥
मूलम्
इहु संसारु बिकारु संसे महि तरिओ ब्रहम गिआनी ॥ जिसहि जगाइ पीआवै इहु रसु अकथ कथा तिनि जानी ॥२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बिकार = विकार रूप, विकारों से भरा हुआ। संसे महि = शंकाओं में, तौखले में। जिसहि = जिस मनुष्य को। जगाइ = जगा के। पीआवै = पिलाता है। तिनि = उसने।2।
अर्थ: ये जगत विकारों से भरपूर है। (जगत के जीव) शंकाओं में (डूब रहे हैं। इनमें से) वही मनुष्य निकलता है जिसने परमात्मा के साथ जान-पहिचान बना ली है। (विकारों में सो रहे) जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं खुद जगा के ये नाम अमृत पिलाता है, उस मनुष्य ने अकथ प्रभु की बातें (बेअंत गुणों वाले प्रभु की महिमा) करने का तौर-तरीका सीख लिया है।2।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जा कउ आए सोई बिहाझहु हरि गुर ते मनहि बसेरा ॥ निज घरि महलु पावहु सुख सहजे बहुरि न होइगो फेरा ॥३॥
मूलम्
जा कउ आए सोई बिहाझहु हरि गुर ते मनहि बसेरा ॥ निज घरि महलु पावहु सुख सहजे बहुरि न होइगो फेरा ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा कउ = जिस (उद्देश्य) के वास्ते। बिहाझहु = खरीदो, व्यापार करो। ते = से, के द्वारा। मनहि = मन में ही। निज घरि = अपने घर में। महलु = (प्रभु का) ठिकाना। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। बहुरि = फिर, दुबारा।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस काम वास्ते (यहाँ) आए हो, उस का व्यापार करो। वह हरि नाम गुरु के द्वारा ही मन में बस सकता है। (यदि गुरु की शरण पड़ोगे, तो) आत्मिक आनंद और अडोलता में टिक के अपने अंदर ही परमात्मा का ठिकाना ढूँढ लोगे। फिर दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं रहेगा।3।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरजामी पुरख बिधाते सरधा मन की पूरे ॥ नानक दासु इहै सुखु मागै मो कउ करि संतन की धूरे ॥४॥५॥
मूलम्
अंतरजामी पुरख बिधाते सरधा मन की पूरे ॥ नानक दासु इहै सुखु मागै मो कउ करि संतन की धूरे ॥४॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंतरजामी = हे दिलों के जानने वाले! पुरख = हे सभ में व्यापक! बिधाते = हे निर्माता! पूरे = पूरी कर। मागै = मांगता है। मो कउ = मुझे। धूरे = चरण धूल।4।
अर्थ: हे हरेक दिल की जानने वाले सर्व-व्यापक निर्माता! मेरे मन की इच्छा पूरी कर। दास नानक तुझसे यही सुख मांगता है कि मुझे संतों के चरणों की धूल बना दे।4।5।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: आखीरले अंक ५ का भाव ये है कि इस संग्रहि (सोहिले) का यह पाँचवां शबद है। पाठक सज्जन ध्यान रखें कि इस संग्रहि का नाम ‘सोहिला’ है, ‘कीरतन सोहिला’ नहीं।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मूलम्
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥