०२ रहिरास

१ सो दरु

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो दरु रागु आसा महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

सो दरु रागु आसा महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो दरु तेरा केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब समाले ॥ वाजे तेरे नाद अनेक असंखा केते तेरे वावणहारे ॥ केते तेरे राग परी सिउ कहीअहि केते तेरे गावणहारे ॥

मूलम्

सो दरु तेरा केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब समाले ॥ वाजे तेरे नाद अनेक असंखा केते तेरे वावणहारे ॥ केते तेरे राग परी सिउ कहीअहि केते तेरे गावणहारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: केहा = कैसा? , आश्चर्य भरा। दरु = दरवाजा। जितु = जहाँ। बहि = बैठ के। सरब = सारे जीवों को। समाले = तूने संभाल की है, तू संभाल कर रहा है। नाद = आवाजें, शब्द, राग। वावणहारे = बजाने वाले। परी = राग परी, रागनियां। सिउ = समेत। परी सिउ = रागनियों समेत। कहिअहि = कहे जाते हैं।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरा वह घर और (उस घर का) वह दरवाजा बड़ा ही आश्चर्य भरा है जहाँ बैठ के तू सारे जीवों की संभाल कर रहा है। (तेरी इस रची हुई कुदरत में) अनेक और अनगिनत वाजे (संगीत-यंत्र) और राग हैं; बेअंत ही जीव (इन बाजों को) बजाने वाले हैं। रागनियों समेत बेअंत ही रागों के नाम लिए जाते हैं। अनेक ही जीव (इन राग रागनियों के द्वारा तुझे) गाने वाले हैं (तेरी तारीफ के गीत गा रहे हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावनि तुधनो पवणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरमु दुआरे ॥ गावनि तुधनो चितु गुपतु लिखि जाणनि लिखि लिखि धरमु बीचारे ॥

मूलम्

गावनि तुधनो पवणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरमु दुआरे ॥ गावनि तुधनो चितु गुपतु लिखि जाणनि लिखि लिखि धरमु बीचारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गावनि = गाते हैं। तुध नो = तुझे। बैसंतरु = आग। गावै = गाता है। राजा धरमु = धर्मराज। दुआरे = तेरे दर पे (हे निरंकार!)। चितु गुपतु = प्राचीन हिन्दू ख्याल चला आ रहा है कि ये दोनों व्यक्ति चित्र और गुप्त सारे जीवों के किए हुए अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा लिखते रहते हैं। लिखि जाणहि = लिखना जानते हैं। धरमु = धर्म राज। लिखि लिखि = लिख लिख के, अर्थात, जो कुछ वह चित्रगुप्त लिखते रहते हैं।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘गावै’ एकवचन है, ‘गावनि’ बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे निरंकार!) पवन, पानी, अग्नि (आदि तत्व) तेरा गुण गान कर रहे हैं (तेरी मर्जी में चल रहे हैं)। धर्मराज तेरे दर पे (खड़ा होकर) तेरी स्तुति कर रहा है। वह चित्रगुप्त भी जो (जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों के लेखे) लिखने जानते हैं और जिनके लिखे हुए को धर्मराज विचारता है, तेरी महानताओं का गुणगान कर रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावनि तुधनो ईसरु ब्रहमा देवी सोहनि तेरे सदा सवारे ॥ गावनि तुधनो इंद्र इंद्रासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥

मूलम्

गावनि तुधनो ईसरु ब्रहमा देवी सोहनि तेरे सदा सवारे ॥ गावनि तुधनो इंद्र इंद्रासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ईसरु = शिव। बरमा = ब्रह्मा। देवी = देवियां। सोहनि = सुशोभित होते हैं, सुंदर लगते हैं। सवारे = तेरे द्वारा सवाँरे हुए। इंद = इंद्र देवते। इदासणि = (इंद-आसणि) इंद्र के आसन पर। देवतिआं नाले = देवताओं के समेत।
अर्थ: (हे अकाल पुरख!) अनेक देवियां, शिव व ब्रह्मा, जो तेरे संवारे हुए हैं सदा (तेरे दर पे) शोभायमान होकर तुझे गा रहे हैं (तेरे गुण गा रहे हैं)। कई इंद्र देवते अपने तख्त पे बिराजमान देवताओं समेत तुझे गा रहे हैं (तेरी महिमा के गीत गा रहे हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावनि तुधनो सिध समाधी अंदरि गावनि तुधनो साध बीचारे ॥ गावनि तुधनो जती सती संतोखी गावनि तुधनो वीर करारे ॥

मूलम्

गावनि तुधनो सिध समाधी अंदरि गावनि तुधनो साध बीचारे ॥ गावनि तुधनो जती सती संतोखी गावनि तुधनो वीर करारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: समाधी अंदरि = समाधि में लीन हो के। सिध = योग साधनाओं में लगे हुए योगी, वह व्यक्ति जो मनुष्य श्रेणी से ऊपर और देवताओं से नीचे। ये सिध पवित्रता के पुँज थे और आठों प्रकार की सिद्धियों के मालिक समझे जाते हैं। बिचारे = विचारि, विचार के। सती = दानी, दान करने वाले। वीर करारे = तगड़े शूरवीर।
अर्थ: (हे प्रभु!) सिद्ध लोग समाधियां लगा के तुझे गा रहे हैं। साधु जन (तेरे गुणों का) चिंतन कर कर के तुझे सालाह रहे हैं। जती, दानी और संतोषी पुरष भी तेरा गुणगान कर रहे हैं और (बेअंत) महाबली योद्धे तेरी ही वडिआईयां कर रहे हैं।

[[0009]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावनि तुधनो पंडित पड़नि रखीसुर जुगु जुगु वेदा नाले ॥ गावनि तुधनो मोहणीआ मनु मोहनि सुरगु मछु पइआले ॥

मूलम्

गावनि तुधनो पंडित पड़नि रखीसुर जुगु जुगु वेदा नाले ॥ गावनि तुधनो मोहणीआ मनु मोहनि सुरगु मछु पइआले ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: पढ़नि = पढ़ते हैं। रखीसर = (ऋषि ईसर) महाऋषि। जुग जुग = हरेक युग में, सदैव। वेदा नाले = वेदों समेत। मोहणीआं = सुंदर स्त्रीयां। मनु मोहनि = जो मन को मोह लेती हैं। मछ = मात लोक में। पइआले = पाताल में।
अर्थ: (हे प्रभु!) पण्डित और महाऋिषी जो (वेदों को) पढ़ते हैं। वेदों समेत तेरा ही यश गा रहे हैं। सुंदर स्त्रीयां जो (अपनी सुंदरता के साथ मनुष्य के) मन को मोह लेतीं हैं, तुझे गा रही हैं (भाव, तेरी सुंदरता का प्रकाश कर रही हैं)। स्वर्ग, मात लोक व पाताल लोक में (अर्थात, हर जगह के सारे ही जीव जन्तु) तेरी ही स्तुति के गीत गा रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावनि तुधनो रतन उपाए तेरे अठसठि तीरथ नाले ॥ गावनि तुधनो जोध महाबल सूरा गावनि तुधनो खाणी चारे ॥ गावनि तुधनो खंड मंडल ब्रहमंडा करि करि रखे तेरे धारे ॥

मूलम्

गावनि तुधनो रतन उपाए तेरे अठसठि तीरथ नाले ॥ गावनि तुधनो जोध महाबल सूरा गावनि तुधनो खाणी चारे ॥ गावनि तुधनो खंड मंडल ब्रहमंडा करि करि रखे तेरे धारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: उपाए तेरे = तेरे पैदा किये हुए। अठसठि = अड़सठ की गिनती। तीरथ नाले = तीर्तों समेत। जोध = योद्धे। महाबल = महाबली। सूरा = शूरवीर,सूरमे। खाणी चारे = चारों खाणीआं, उत्पत्ति के चारों तरीके = अण्डज, जेरज, सेतज व उत्भुज। खाणी = खान, जिसकी खुदायी करके बीच में से धातुऐं, रतन आदि पदार्थ निकाले जाते हैं। (‘खन’ = ‘खुदायी करना’) पुरातन समय से ये ख्याल चला आ रहा है कि जगत के सारे जीव चार खाणियों से पैदा हुए हैं: अण्डा, जिउर (जेरज), पसीना व पानी की मदद से धरती में से अपने आप उग पड़ना। ‘चारे खाणी’ का यहाँ भाव है कि चारों ही खानों के जीव जन्तु, सारी रचना। खण्ड = टुकड़ा, ब्रहिमण्ड का टुकड़ा, भाव हरेक धरती। मण्डल = चक्कर, ब्रहिमण्ड का एक चक्कर, जिसमें एक सुरज, एक चंद्रमां व धरती आदिक गिने जाते हैं। वरभंडा = सारी सृष्टि। करि करि = बना के, रच के। धारे = धारित किए हुए, टिकाए हुए।
अर्थ: (हे निरंकार!) तेरे पैदा किए हुए रतन अढ़सठ तीर्तों समेत तुझे ही गा रहे हैं। महाबली योद्धे व शूरवीर (तेरा दिया बल दिखा के) भी तेरी ही (ताकत की) सिफतिकर रहे हैं। चारों खानों के जीव-जन्तु तुझे गा रहे हैं। सारी सृष्टि, सृष्टि के सारे खण्ड और चक्कर, जो तूने पैदा करके टिका रखे हैं, तुझे ही गाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेई तुधनो गावनि जो तुधु भावनि रते तेरे भगत रसाले ॥ होरि केते तुधनो गावनि से मै चिति न आवनि नानकु किआ बीचारे ॥

मूलम्

सेई तुधनो गावनि जो तुधु भावनि रते तेरे भगत रसाले ॥ होरि केते तुधनो गावनि से मै चिति न आवनि नानकु किआ बीचारे ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सेई = वही जीव। तुधु भावनि = तुझे अच्छे लगते हैं। रते = रंगे हुए, प्रेम में मस्त। रसाले = रस+आलय, रस का घर, रसिए। होरि केते = अनेक और जीव। मै चिति = मेरे चित्त में। मै चिति न आवनि = मेरे चित्त में नहीं आते, मुझसे गिने नहीं जा सकते, मेरे विचारों से परे हैं। किआ बिचारे = क्या विचार कर सकते हैं?

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे प्रभु!) असल में तो वही बंदे तेरी महिमा करते हैं (भाव, उनकी ही महिमा सफल है) जो तेरे प्रेम में रंगे हुए हैं और तेरे रसिए भक्त हैं। वही बंदे तुझे प्यारे लगते हैं। अनेक और जीव तेरी बड़ाई कर रहे हैं, जो मुझसे गिने भी नहीं जा सकते। (भला, इस गिनती के बारे में) नानक क्या विचार कर सकता है? (नानक यह विचार करने के लायक नहीं हैं)।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोई सोई सदा सचु साहिबु साचा साची नाई ॥ है भी होसी जाइ न जासी रचना जिनि रचाई ॥

मूलम्

सोई सोई सदा सचु साहिबु साचा साची नाई ॥ है भी होसी जाइ न जासी रचना जिनि रचाई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचु = स्थिर रहने वाला, अटल। नाई = वडियाई, महानता।

दर्पण-टिप्पनी

अरबी शब्द ‘स्ना’। इस अरबी शब्द के पंजाबी में दो पाठ हैं: स्नाई, नाई।
‘जो किछु होइआ सभु किछु तुझ ते, तेरी सभ असनाई’, इसी तरह संस्कृत के शब्दों से;
स्थान – असथान, थान
स्नान – असनान, न्हान
स्तंभ – असथंभ, थंभ
स्नेह – असनेह, नेह
स्थिर – असथिर, थिर
स्थल – असथल, तल
(देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)
नोट: शब्द ‘साचा’ पुलिंग है और ‘साहिब’ का विशेषण है। शब्द ‘साची’ सत्रीलिंग है और ‘नाई’ का विशेषण है। इस तुक के पाठ में विरामों का ध्यान रखना है।

दर्पण-भाषार्थ

होसी = होवेगा, स्थिर रहेगा। जाइ न = पैदा नहीं होता। न जासी = ना ही मरेगा। जिनि = जिस (प्रभु) ने। रचाई = पैदा की है।
अर्थ: जिस (प्रभु) ने यह सृष्टि पैदा की है, वह इस वक्त मौजूद है तथा सदाकायम रहने वाला है। वह मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है। उसकी महानता भी सदा कायम रहने वाली है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रंगी रंगी भाती करि करि जिनसी माइआ जिनि उपाई ॥ करि करि देखै कीता आपणा जिउ तिस दी वडिआई ॥

मूलम्

रंगी रंगी भाती करि करि जिनसी माइआ जिनि उपाई ॥ करि करि देखै कीता आपणा जिउ तिस दी वडिआई ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: रंगी रंगी = रंगों रंगों की, कई रंगों की। भाती = कई किस्मों की। करि करि = पैदा कर के। जिनसी = कई जिन्सों की। जिनि = जिस अकाल-पुरख ने। उपाई = पैदा की। करि करि = पैदा करके। देखै = संभाल करता है। कीता आपणा = अपना रचा हुआ जगत। जिउ = जैसे। वडिआई = रज़ा।
अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने कई रंगों, किस्मों, जिनसों की माया रच दी है, वह जैसे उसकी रज़ा है, जगत को पैदा करके अपने पैदा किये हुए की संभाल कर रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तिसु भावै सोई करसी फिरि हुकमु न करणा जाई ॥ सो पातिसाहु साहा पतिसाहिबु नानक रहणु रजाई ॥१॥

मूलम्

जो तिसु भावै सोई करसी फिरि हुकमु न करणा जाई ॥ सो पातिसाहु साहा पतिसाहिबु नानक रहणु रजाई ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिसु भावै = उसको अच्छा लगता है। करसी = करेगा। न करणा जाई = नहीं किया जा सकता। साहा पति साहिबु = शाहों का बादशाह मालिक। रहणु = रहना (फबदा है), रहना फबता है। रजाई = अकाल-पुरख की रजा में।
अर्थ: जो कुछ अकाल-पुरख को भाता है, वह वही करता है। कोई भी जीव अकाल-पुरख को आगे से हैंकड़ नहीं दिखा सकता (उसे ये नहीं कह सकता कि “तू एैसे कर, एैसे ना कर”)। अकाल-पुरख बादशाह है, बादशाहों का भी बादशाह है। हे नानक! (जीवों का) उसकी रजा में रहना (ही फबता है)।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: पवन, पानी, बैसंतर (अग्नि) आदिक अचेतन पदार्थ भी प्रभु की महिमा कर रहे हैं। इस का भाव ये है कि उसके पैदा किये हुए सारे तत्व भी उसी की रज़ा में चल रहे हैं। रज़ा में चलना ही उसकी महिमा करना है। (1430पन्ने वाली बीड़, पंना 9)

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ सुणि वडा आखै सभु कोइ ॥ केवडु वडा डीठा होइ ॥ कीमति पाइ न कहिआ जाइ ॥ कहणै वाले तेरे रहे समाइ ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ सुणि वडा आखै सभु कोइ ॥ केवडु वडा डीठा होइ ॥ कीमति पाइ न कहिआ जाइ ॥ कहणै वाले तेरे रहे समाइ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। सभु कोइ = हरेक जीव। केवडु = कितना। डीठा = देखने से ही। होइ = (बयान) हो सकता है, कहा जा सकता है। कीमति = मुल्य, बराबर की चीज। कीमति पाइ न = मुल्य नहीं पाया जा सकता, उसके बराबर की कोई हस्ती नहीं बताई जा सकती। रहे समाइ = लीन हो जाते हैं।।।
अर्थ: हरेक जीव (औरों से) सिर्फ सुन के (ही) कह देता है कि (हे प्रभु!) तू बड़ा है। पर तू कितना बड़ा है (कितना बेअंत है) - ये बात सिर्फ तेरे दर्शन करके ही बताई जा सकती है। (तेरा दर्शन करके ही बताया जा सकता है कि तू कितना बेअंत है)। तेरे बराबर का और कोई नहीं कहा जा सकता, तेरे स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता। तेरी वडियाई कहने वाले (तेरा गुणगान करने वाले) बल्कि (स्वै को भुला के) तेरे में (ही) लीन हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वडे मेरे साहिबा गहिर ग्मभीरा गुणी गहीरा ॥ कोइ न जाणै तेरा केता केवडु चीरा ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

वडे मेरे साहिबा गहिर ग्मभीरा गुणी गहीरा ॥ कोइ न जाणै तेरा केता केवडु चीरा ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: गहिर = हे गहिरे! गंभीरा = हे बड़ जिगरे वाले! गुणी गहीरा = हे गहिरे गुणों वाले! हे बेअंत गुणों के मालिक! चीरा = पाट, चौड़ाई, विस्थार।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे बड़े मालिक! तू (मानों, एक) गहरा (समुंदर) है, तू बड़े जिगरे वाला है, तू बेअंत गुणों वाला है। कोई भी जीव नहीं जानता कि तेरा कितना बड़ा विस्तार है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभि सुरती मिलि सुरति कमाई ॥ सभ कीमति मिलि कीमति पाई ॥ गिआनी धिआनी गुर गुरहाई ॥ कहणु न जाई तेरी तिलु वडिआई ॥२॥

मूलम्

सभि सुरती मिलि सुरति कमाई ॥ सभ कीमति मिलि कीमति पाई ॥ गिआनी धिआनी गुर गुरहाई ॥ कहणु न जाई तेरी तिलु वडिआई ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि मिलि = सभी ने मिल के, सभी ने एक दूसरे की सहायता लेकर। सुरती = तवज्जो, ध्यान। सुरती सुरति कमाई = बारंबार समाधी लगाई। सभ कीमति….पाई = सभने मिल के कीमत लगाई। गिआनी = विचारवान, ऊँची समझ वाले। धिआनी = ध्यान जोड़ने वाले। गुर = वडे। गुर हाई = गुरभाई, बड़ों के भाई, ऐसे और कोई बड़े। गुर गुरहाई = कई बड़े बड़े प्रसिद्ध (ये शब्द ‘गुर गुरहाई’ शब्द ‘गिआनी धिआनी’ का विशेषण है)। तिलु = तिल जितना भी।2।
अर्थ: (तू कितना बड़ा है, ये ढूँढने के लिए) समाधियां लगाने वाले कई बड़े-बड़े प्रसिद्ध योगियों ने ध्यान जोड़ने के यत्न किये, बारंबार प्रयत्न किये। बड़े-बड़े प्रसिद्ध (शास्त्र-वेक्ताओं) विचारवानों ने आपस में एक दूसरे की सहायता ले कर, तेरे बराबर की कोई हस्ती तलाशने की कोशिश की, पर तेरी महानता का एक तिल जितना हिस्सा भी नहीं बता सके।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभि सत सभि तप सभि चंगिआईआ ॥ सिधा पुरखा कीआ वडिआईआ ॥ तुधु विणु सिधी किनै न पाईआ ॥ करमि मिलै नाही ठाकि रहाईआ ॥३॥

मूलम्

सभि सत सभि तप सभि चंगिआईआ ॥ सिधा पुरखा कीआ वडिआईआ ॥ तुधु विणु सिधी किनै न पाईआ ॥ करमि मिलै नाही ठाकि रहाईआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि सत = सारे भले काम। तप = कष्ट, मुश्किलें। चंगिआईआं = अच्छे गुण। सिध = जीवन वाले सफल मनुष्य। सिधी = सफलता, कामयाबी। करमि = (तेरी) मेहर से, बख्शिश से। ठाकि = वर्ज के, रोक के।3।
अर्थ: (विचारवान क्या और सिद्ध योगी क्या? तेरी वडियाई का अंदाजा तो कोई भी नहीं लगा सका, पर विचारवानों के) सारे भले काम, सारे तप व सारे अच्छे गुण, सिद्ध लोगों की (रिद्धियां-सिद्धियां आदिक) बड़े-बड़े काम - ये कामयाबी किसी को भी तेरी मदद के बिना हासिल नहीं हुई। (जिस किसी को सिद्धी प्राप्त हुई है) तेरी मेहर से प्राप्त हुई है। एवं, कोई और उस प्राप्ती के राह में बाधा नहीं डाल सका।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आखण वाला किआ वेचारा ॥ सिफती भरे तेरे भंडारा ॥ जिसु तू देहि तिसै किआ चारा ॥ नानक सचु सवारणहारा ॥४॥२॥

मूलम्

आखण वाला किआ वेचारा ॥ सिफती भरे तेरे भंडारा ॥ जिसु तू देहि तिसै किआ चारा ॥ नानक सचु सवारणहारा ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सिफती = सिफतों से, गुणों से। चारा = जोर, तदबीर, प्रयत्न।4।
अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे गुणों के (मानों) खजाने भरे हुए हैं। जीव की क्या बिसात है कि इन गुणों को बयान कर सके? जिसको तुम महिमा करने की दात बख्शते हो; उसकी राह में रुकावटें डालने में किसी का जोर नहीं चल सकता, (क्योंकि) हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तू सदा ही कायम रहने वाला प्रभु उस (भाग्यशाली) को संवारने वाला (स्वयं) ही है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ आखा जीवा विसरै मरि जाउ ॥ आखणि अउखा साचा नाउ ॥ साचे नाम की लागै भूख ॥ उतु भूखै खाइ चलीअहि दूख ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ आखा जीवा विसरै मरि जाउ ॥ आखणि अउखा साचा नाउ ॥ साचे नाम की लागै भूख ॥ उतु भूखै खाइ चलीअहि दूख ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आखा = कहूँ, (जब) मैं (हरि नाम) उचारता हूँ। जीवा = जीता हूँ, मैं जीअ जाता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। मरि जाउ = मैं मर जाता हूँ, (विकारों के कारण) मेरा आत्मिक जीवन समाप्त हो जाता है, मेरी आत्मिक मौत हो जाती है। साचा = सदा कायम रहने वाला। उतु = (शब्द ‘उस’ का कर्णकारक। ‘जिस’ से ‘जितु’)। उतु भूखै = उस भूख के कारण। खाइ = (नाम भोजन) खा के। चलिअहि = दूर हो जाते हैं।1।
अर्थ: (ज्यों ज्यों) मैं (प्रमात्मा का) नाम स्मरण करता हूँ, त्यों त्यों मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। (पर जब मुझे प्रभु का नाम) भूल जाता है, मेरी आत्मिक मौत हो जाती है। (ये मालूम होते हुए भी) सदा कायम रहने वाले प्रमात्मा का नाम स्मरणा मुश्किल (काम लगता है)। (जिस मनुष्य के अंदर) सदा रहने वाले प्रभु के नाम जपने की चाहत पैदा हो जाती है उस ललक की बरकत से (हरि नाम भोजन) खा के उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो किउ विसरै मेरी माइ ॥ साचा साहिबु साचै नाइ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सो किउ विसरै मेरी माइ ॥ साचा साहिबु साचै नाइ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माइ = हे मां! नाइ = नाम के द्वारा। साचै नाइ = सदा कायम रहने वाले हरि नाम के द्वारा, ज्यों ज्यों सदा स्थिर रहने वाले हरि नाम को स्मरण करें। किउ विसरे = कभी ना विसरे।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरी माँ (प्रार्थना कर कि) वह प्रमात्मा मुझे कभी भी ना भूले। ज्यों ज्यों उस सदा कायम रहने वाले प्रभु का नाम स्मरण करते हैं, त्यों त्यों वह सदा कायम रहने वाला मालिक (मन में आ बसता है)।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

साचे नाम की तिलु वडिआई ॥ आखि थके कीमति नही पाई ॥ जे सभि मिलि कै आखण पाहि ॥ वडा न होवै घाटि न जाइ ॥२॥

मूलम्

साचे नाम की तिलु वडिआई ॥ आखि थके कीमति नही पाई ॥ जे सभि मिलि कै आखण पाहि ॥ वडा न होवै घाटि न जाइ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तिलु = रत्ती भर भी। आखि = कह के, बयान करके। सभि = सारे जीव। आखणि पाहि = कहने का यत्न करे।2।
अर्थ: सदा कायम रहने वाले प्रभु के नाम की रत्ती जितनी भी महिमा बयान करके (सारे जीव) थक गये हैं (बयान नहीं कर सकते)। कोई भी नहीं बता सकता कि प्रमात्मा के बराबर की कौन सी हस्ती है। यदि (जगत के) सारे ही जीव मिल के (प्रभु की वडियाई) बयान करने का प्रयत्न करें, तो वह प्रभु (अपने असल से) बड़ा नहीं हो जाता, और (यदि कोई उसकी वडियाई ना भी करे), तो वह (पहले से) कम नहीं हो जाता। (उसे अपनी शोभा का लालच नहीं)।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना ओहु मरै न होवै सोगु ॥ देदा रहै न चूकै भोगु ॥ गुणु एहो होरु नाही कोइ ॥ ना को होआ ना को होइ ॥३॥

मूलम्

ना ओहु मरै न होवै सोगु ॥ देदा रहै न चूकै भोगु ॥ गुणु एहो होरु नाही कोइ ॥ ना को होआ ना को होइ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सोगु = अफसोस। देदा = देता। न चूकै = समाप्त नहीं होता। भोगु = उपयोग करना। गुण एहो = यही खूबी। को = कोई (और)। होआ = हुआ है। ना होइ = ना ही होगा।3।
अर्थ: वह प्रभु कभी मरता नहीं, ना ही (उसके खातिर) उसे शोक होता है। वह सदा (जीवों को रिजक देता है उसकी दी हुई दातों का कभी अंत नहीं होता है) (उसकी दातें बाँटने से कभी खत्म नहीं होतीं)। उसकी सबसे बड़ी खूबी ये है कि और काई भी उस जैसा नहीं है, (उस जैसा अभी तक) ना कोई हुआ है, ना ही कभी होगा।3।

[[0010]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेवडु आपि तेवड तेरी दाति ॥ जिनि दिनु करि कै कीती राति ॥ खसमु विसारहि ते कमजाति ॥ नानक नावै बाझु सनाति ॥४॥३॥

मूलम्

जेवडु आपि तेवड तेरी दाति ॥ जिनि दिनु करि कै कीती राति ॥ खसमु विसारहि ते कमजाति ॥ नानक नावै बाझु सनाति ॥४॥३॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘आखणि पाइ’ एक वचन है ‘जे को खाइकु आखणि पाइ’।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जेवडु = जितना बड़ा। तेवड = उतनी बडी। जिनि = जिस ने। करि कै = पैदा कर के। विसारहि = भुला देते हैं। ते = वह (बंदे) (बहुवचन)। कमजाति = बुरी जाति वाले। नावै बाझु = हरि नाम के बिना। सनाति = नीच।4।
अर्थ: (हे प्रभु!) जितना बेअंत तू स्वयं है उतनी बेअंत तेरी बख्शिश। (तू ऐसा है) जिस ने दिन बनाया है और रात बनाई है।
हे नानक! वे लोग नीच जीवन वाले बन जाते हैं जो (ऐसे) खसम प्रभु को भुला देते हैं। नाम से रहित जीव ही नीच हैं।4।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गूजरी महला ४ ॥ हरि के जन सतिगुर सतपुरखा बिनउ करउ गुर पासि ॥ हम कीरे किरम सतिगुर सरणाई करि दइआ नामु परगासि ॥१॥

मूलम्

रागु गूजरी महला ४ ॥ हरि के जन सतिगुर सतपुरखा बिनउ करउ गुर पासि ॥ हम कीरे किरम सतिगुर सरणाई करि दइआ नामु परगासि ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि के जन = हे हरि के सेवक! स्तिगुरू = हे सतिगुर! सत पुरखा = हे महापुरख गुरु! बिनउ = विनय, विनती। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। गूर पासि = हे गुरु! तेरे पास। सतिगुर सरणाई = हे गुरु! तेरी शरण। कीरे किरम = कीड़े कृमि, छोटे कीड़े मकोड़े। परगासि = प्रगट कर, रोशन कर।1।
अर्थ: हे महापुरख गुरु! हे प्रभु के भक्त सत्गुरू! मैं, हे गुरु! तेरे आगे विनती करता हूँ - कृपा करके (मेरे अंदर) प्रभु के नाम का प्रकाश पैदा कर। हे सत्गुरू! मैं निमाणा तेरी शरण आया हूँ।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे मीत गुरदेव मो कउ राम नामु परगासि ॥ गुरमति नामु मेरा प्रान सखाई हरि कीरति हमरी रहरासि ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे मीत गुरदेव मो कउ राम नामु परगासि ॥ गुरमति नामु मेरा प्रान सखाई हरि कीरति हमरी रहरासि ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे, मेरे अंदर। मीत = हे मित्र! गुरमति = गुरु की मति द्वारा (प्राप्त हुआ)। प्रान सखाई = प्राण के साथी। कीरति = कीर्ति, शोभा, महिमा। रहरासि = राह की राशि, जिंदगी के सफर वास्ते खर्च।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे मित्र गुरु! मुझे प्रभु के नाम का प्रकाश बख्श। गुरु की बताई मति द्वारा मिला हुआ हरि नाम मेरे जीवन का साथी बना रहे, ईश्वर की महिमा मेरी जिंदगी के सफर के लिए राशि पूंजी बनी रहे।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि जन के वड भाग वडेरे जिन हरि हरि सरधा हरि पिआस ॥ हरि हरि नामु मिलै त्रिपतासहि मिलि संगति गुण परगासि ॥२॥

मूलम्

हरि जन के वड भाग वडेरे जिन हरि हरि सरधा हरि पिआस ॥ हरि हरि नामु मिलै त्रिपतासहि मिलि संगति गुण परगासि ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: त्रिपतासहि = त्रिप्त हो जाते हैं। मिलि = मिल के।2।
अर्थ: प्रभु के उन सेवकों के बड़े ही ऊँचे भाग्य हैं जिनके अंदर प्रभु के नाम के वास्ते श्रद्धा है, खिचाव है। जब उन्हें प्रमात्मा का नाम प्राप्त होता है वे (माया की तृष्णा से) त्रिप्त हो जाते हैं, साधु-संगत में मिल के (उनके अंदर भले गुण) पैदा होते हैं।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन हरि हरि हरि रसु नामु न पाइआ ते भागहीण जम पासि ॥ जो सतिगुर सरणि संगति नही आए ध्रिगु जीवे ध्रिगु जीवासि ॥३॥

मूलम्

जिन हरि हरि हरि रसु नामु न पाइआ ते भागहीण जम पासि ॥ जो सतिगुर सरणि संगति नही आए ध्रिगु जीवे ध्रिगु जीवासि ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ध्रिग जीवे = लाहनत है उनके जीवन को।3।
अर्थ: पर जो मनुष्यों को परमात्मा के नाम का स्वाद नहीं आया, जिस को प्रभु का नाम नहीं मिला, वे बद्-किस्मत हैं, उन्हें जमों के वश (में समझो, उनके सिर पर आत्मिक मौत हमेशा सवार रहती है)। जो मनुष्य गुरु की शरण में नहीं आते, जो साधु-संगत में नहीं बैठते, लाहनत है उनके जीवन को, उनका जीना तिरस्कार योग्य है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन हरि जन सतिगुर संगति पाई तिन धुरि मसतकि लिखिआ लिखासि ॥ धनु धंनु सतसंगति जितु हरि रसु पाइआ मिलि जन नानक नामु परगासि ॥४॥४॥

मूलम्

जिन हरि जन सतिगुर संगति पाई तिन धुरि मसतकि लिखिआ लिखासि ॥ धनु धंनु सतसंगति जितु हरि रसु पाइआ मिलि जन नानक नामु परगासि ॥४॥४॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द की बाबत बहुत विद्वानों ने यह लिखा है कि गुरु रामदास जी ने अपने विवाह के समय यह शब्द गुरु अमरदास जी के हजूर उच्चारण किया था। पर ये बात परख की कसवटी पे खरी नहीं उतरती। संन्1552 में गुरु अमरदास जी गुरु गद्दी पर बैठे। सन् 1553 में उन्होंने अपनी लड़की बीबी भानी जी की शादी जेठा जी (गुरु रामदास जी) के साथ की, तब उनकी उम्र 19 साल थी। गूरू अमरदास जी सन्1574 में ज्योति से ज्योति समाए और गुरु रामदास जी गुरु बने। अपने विवाह के 21 साल बाद गुरु बने। तब तक वे गुरु नहीं थे बने, तब तक वे शब्द ‘नानक’ का इस्तेमाल करके कोई वाणी उच्चारण का हक नहीं रखते थे। सो, ये शब्द गुरु रामदास जी के विवाह के समय का नहीं हो सकता। सन् 1574 के बाद का ही हो सकता है जबकि वे गुरु बन चुके हुए थे।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: धुरि = प्रमात्मा से। मसतकि = माथे पर। लिखासि = लेख (शब्द ‘जीवासि’ और ‘लिखासि’ शब्द ‘जीए’ और ‘लेख’ के तुकांत पूरा करने वाले रूप हैं)। जितु = जिस में, जिस द्वारा। मिलि जन = जनों को मिल के, प्रभु के सेवकों को मिल के।4।
अर्थ: जिस प्रभु के सेवकों को गुरु की संगति में बैठना नसीब हुआ है, (समझो) उनके माथे पर धुर से ही भाग्यशाली लेख लिखे हुए हैं। हे नानक! धन्य है सत्संग! जिस में (बैठने से) प्रभु के नाम का आनन्द मिलता है, जहाँ गुरमुखों को मिलने से (हृदय में परमात्मा का) नाम आ बसता है।4।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु गूजरी महला ५ ॥ काहे रे मन चितवहि उदमु जा आहरि हरि जीउ परिआ ॥ सैल पथर महि जंत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ ॥१॥

मूलम्

रागु गूजरी महला ५ ॥ काहे रे मन चितवहि उदमु जा आहरि हरि जीउ परिआ ॥ सैल पथर महि जंत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: काहे = क्यूँ? चितवहि = तू सोचता है। चितवहि उदमु = तू उद्यम चितवता है, तू जिकर करता है। जा आहरि = जिस आहर में। परिआ = पड़ा हुआ है। सैल = शैल, चट्टान। ता का = उनका। आगै = पहले ही।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘उद्यम चितवनें’ और ‘उद्यम करने में फर्क याद रखने योग्य है। रोजी कमाने के लिए उद्यम करना हर एक मनुष्य का फर्ज है। गुरु साहिब ने चिन्ता शिकवे शिकायतों से भरे गलत रास्ते से रोका है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे मन! (तेरी खातिर) जिस आहर में प्रमात्मा स्वयं लगा हुआ है, उस वास्ते तू क्यूँ (सदा) चिन्ता-फिक्र करता रहता है? जो जीव प्रभु ने चट्टानों में पत्थरों में पैदा किए हैं, उनका भी रिजक उसने (उनको पैदा करने से) पहले ही बना रखा है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे माधउ जी सतसंगति मिले सु तरिआ ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सूके कासट हरिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मेरे माधउ जी सतसंगति मिले सु तरिआ ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सूके कासट हरिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माधउ जी = हे प्रभु जी! हे माया के पति जी! (माधउ = मा+धव। मा = माया। धव = पती)। परसादि = कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। कासट = काठ, लकड़ी।1। रहाउ।
अर्थ: हे मेरे प्रभु जी! जो मनुष्य साधु संगति में मिल बैठते हैं, वो (व्यर्थ की चिन्ता-फिक्र से) बच जाते हैं। गुरु की कृपा से जिस मनुष्य को यह (अडोलता वाली) उच्च आत्मिक अवस्था मिल जाती है, वह (मानों) सूखी लकड़ी हरी हो गई।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जननि पिता लोक सुत बनिता कोइ न किस की धरिआ ॥ सिरि सिरि रिजकु स्मबाहे ठाकुरु काहे मन भउ करिआ ॥२॥

मूलम्

जननि पिता लोक सुत बनिता कोइ न किस की धरिआ ॥ सिरि सिरि रिजकु स्मबाहे ठाकुरु काहे मन भउ करिआ ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जननि = माँ। सुत = पुत्र। बनिता = पत्नी, गृहिणी। धरिआ = आसरा। किस की = किसी का। सिरि = सिर ऊपर। सिरि सिरि = हरेक सिर ऊपर, हरेक जीव के लिए। संबाहे = संवाह्य, पहुँचाता है। मन = हे मन!।2।
अर्थ: (हे मन!) माता, पिता, पुत्र, लोग, पत्नी - कोई भी किसी का आसरा नहीं है। हे मन! तू क्यूँ डरता है? पालनहार प्रमात्मा हरेक जीव को स्वयं ही रिजक पहुँचाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊडे ऊडि आवै सै कोसा तिसु पाछै बचरे छरिआ ॥ तिन कवणु खलावै कवणु चुगावै मन महि सिमरनु करिआ ॥३॥

मूलम्

ऊडे ऊडि आवै सै कोसा तिसु पाछै बचरे छरिआ ॥ तिन कवणु खलावै कवणु चुगावै मन महि सिमरनु करिआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: ऊडे = उड़े। ऊडे ऊडि = उड़ उड़के। सै = सैकड़ों। तिसु पाछै = उस (कूंज) के पीछे। बचरे = छोटे छोटे बच्चे। छरिआ = छोड़े हुए होते हैं। चुगावै = चोगा देता है। मनि महि = (वह कुंज अपने) मन में। सिमरनु = (उन बच्चों का) ध्यान। खलावै = कौन खिलाता है? कोई भी कुछ खिलाता नहीं।3।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सै’ शब्द ‘सौ’ का बहुवचन है।
जैसी गगनि फिरंती ऊडती, कपरे बागे वाली। उह राखै चीतु पीछै बीचि बचरे, नित हिरदै सारि समाली।1।7।13।51। (गउड़ी बैरागणि महला ४)

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे मन! देख! कूंज) उड़ उड़ के सैकड़ों ही कोसों से आ जाती हैं, पीछे उसके बच्चे (अकेले) छोड़े हुये होते हैं। उन्हें कोई खिलाने वाला नहीं, कोई उन्हें चोगा नहीं चुगाता। वह कूंज अपने बच्चों का ध्यान अपने मन में धरी रखती है (और, इसी को प्रभु उनके लालन पालन का साधन बनाता है)।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभि निधान दस असट सिधान ठाकुर कर तल धरिआ ॥ जन नानक बलि बलि सद बलि जाईऐ तेरा अंतु न पारावरिआ ॥४॥५॥

मूलम्

सभि निधान दस असट सिधान ठाकुर कर तल धरिआ ॥ जन नानक बलि बलि सद बलि जाईऐ तेरा अंतु न पारावरिआ ॥४॥५॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभि निधान = सारे खजाने। असट = आठ। दस असट = अठारह। सिधान = सिद्धियां।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: अठारह सिद्धियों में से आठ सिद्धियां बहुत प्रसिद्ध हैं:
अणिमा लघिमा प्राप्ति; प्राकाम्य महिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वं च, तथा कामावसायिता।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: अणिमा = बहुत ही सुक्ष्म रूप हो जाना। लघिमा = शरीर को छोटा कर लेना। प्राप्ती = मन इच्छत पदार्थ प्राप्त कर लेने। प्राकाम्य = औरों के मन की जान लेना। महिमा = शरीर को बड़ा कर लेना। ईशित्व = अपनी मर्जी अनुसार सबको प्रेर लेना। वशित्व = सबको वश में कर लेना। कामावसाइता = काम-वासना को रोकने की क्षमता।)
निधान = (नौ) खजाने (सारे जगत के नौ खजाने माने गये हैं। इन खजानों का मालिक कुबेर देवता माना गया है): महापद्मश्च पद्मश्च, शंखो मकर कच्छपौ। मुकुन्द कुन्द नोलाश्च, खर्वश्च निधयो नव।
पदम = सोना चांदी। महा पदम = हीरे जवाहरात। संख = सुन्दर भोजन व कपड़े। मकर = शस्त्र विद्या की प्राप्ति, राज दरबार में सम्मान। मुकंदु = राग आदि कोमल कलाओं की प्राप्ति। कुंद = सोने की सौदागरी। नील = मोती मूंगे की सौदागरी। कछप = कपड़े दाने की सौदागिरी। कर तल = हाथों की तलियों पे। पारावारिआ = पार+अवर, उस पार व इस पार का छोर।4।
अर्थ: हे पालनहार प्रभु! जगत के सारे खजाने और अठारह सिद्धियां (मानो) तेरे हाथों की तलियों पर रखे हुये हैं। हे दास नानक! ऐसे प्रभु से सदा सदके हो, सदा कुर्बान हो, (और कह: हे प्रभु!) तेरी प्रतिभा के इस पार के और उस पार के छोर का अंत नहीं पाया जा सकता।4।5।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘सोदरु’ के शीर्षक के तहत उपरोक्त संग्रह के पाँच शब्द आ चुके हैं। अब आगे नया शीर्षक ‘सो पुरखु’ आरम्भ होता है जिसके चार शब्द हैं।

२ सो पुरखु

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागु आसा महला ४ सो पुरखु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मूलम्

रागु आसा महला ४ सो पुरखु ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो पुरखु निरंजनु हरि पुरखु निरंजनु हरि अगमा अगम अपारा ॥ सभि धिआवहि सभि धिआवहि तुधु जी हरि सचे सिरजणहारा ॥ सभि जीअ तुमारे जी तूं जीआ का दातारा ॥ हरि धिआवहु संतहु जी सभि दूख विसारणहारा ॥ हरि आपे ठाकुरु हरि आपे सेवकु जी किआ नानक जंत विचारा ॥१॥

मूलम्

सो पुरखु निरंजनु हरि पुरखु निरंजनु हरि अगमा अगम अपारा ॥ सभि धिआवहि सभि धिआवहि तुधु जी हरि सचे सिरजणहारा ॥ सभि जीअ तुमारे जी तूं जीआ का दातारा ॥ हरि धिआवहु संतहु जी सभि दूख विसारणहारा ॥ हरि आपे ठाकुरु हरि आपे सेवकु जी किआ नानक जंत विचारा ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सो = वह। पुरखु = (पुरि शेते इति पुरष:) जो हरेक शरीर में व्यापक है। निरंजनु = (निर+अंजनु। अंजनु = कालख, माया का प्रभाव) जिस पे माया का प्रभाव नहीं पड़ सकता। अगम = अगम्य (गम = पहुँच)। अपारा = अ+पार, जिसका दूसरा सिरा ना मिल सके, बेअंत। सभि = सारे जीव। दातार = राजक। ठाकुरु = मालिक।१।
अर्थ: वह परमात्मा सारे जीवों में व्यापक है (फिर भी) माया के प्रभाव से ऊपर है, अगम्य (पहुँच से परे) है और बेअंत है।
हे सदा कायम रहने वाले और सभ जीवों को पैदा करने वाले हरि! सारे जीव तुझे हमेशा स्मरण करते हैं, तेरा ध्यान धरते हैं। हे प्रभु! सारे जीव तेरे ही पैदा किये हुए हैं, तू ही सभ जीवों का दाता है।
हे संत जनों! डस प्रमात्मा का ध्यान धरा करो, वह सारे दुखों का नाश करने वाला है। वह (सभी जीवों में व्यापक होने के कारण) स्वयं ही मालिक है और स्वयं ही सेवक है। हे नानक! उस के बिना जीव बिचारे क्या हैं? (उस हरि से अलग जीवों का कोई वजूद नहीं)।1।

[[0011]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि जी हरि एको पुरखु समाणा ॥ इकि दाते इकि भेखारी जी सभि तेरे चोज विडाणा ॥ तूं आपे दाता आपे भुगता जी हउ तुधु बिनु अवरु न जाणा ॥ तूं पारब्रहमु बेअंतु बेअंतु जी तेरे किआ गुण आखि वखाणा ॥ जो सेवहि जो सेवहि तुधु जी जनु नानकु तिन कुरबाणा ॥२॥

मूलम्

तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि जी हरि एको पुरखु समाणा ॥ इकि दाते इकि भेखारी जी सभि तेरे चोज विडाणा ॥ तूं आपे दाता आपे भुगता जी हउ तुधु बिनु अवरु न जाणा ॥ तूं पारब्रहमु बेअंतु बेअंतु जी तेरे किआ गुण आखि वखाणा ॥ जो सेवहि जो सेवहि तुधु जी जनु नानकु तिन कुरबाणा ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: घट = शरीर। अंतरि = में, अंदर। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। सरब = सारे। निरंतरि = अंदर एक रस। सरब निरंतरि = सभी में एक रस। अंतरु = दूरी। निरंतरि = दूरी के बिना, एकरस। एको = एक (स्वयं) ही। इकि = कई जीव। दाते = दानी। भेखारी = भिखारी। सभि = सारे। विडाण = आश्चर्य। चोज = कौतक, तमाशे,चमत्कार। भुगता = भोगनेवाला, उपभोगकरने वाला, उपयोग कर्ता। हउ = मैं। आखि = कह के। वखाणा = मैं बयान करूँ। सेवहि = स्मरण करते हैं।2।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘इकि’ शब्द ‘इक’ का बहुवचन है।
नोट: ‘जनु नानकु’ के बारे में। पिछले छंद में ‘जन नानक’ और इस ‘जनु नानकु’ में फर्क को ध्यान से देखें।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: हे हरि! तू हरेक शरीर में व्यापक है, तू सारे जीवों में एक रस मौजूद है, तू एक खुद ही सभ में समाया हुआ है (फिर भी) कई जीव दानी हैं, कई जीव भिखारी हैं; ये सारे तेरे ही आश्चर्यजनक तमाशे हैं (क्योंकि असल में) तू स्वयं ही दातें देने वाला है, तथा, स्वयं ही (उन दातों का) उपयोग करने वाला है। (सारी सृष्टि में) मैं तेरे बिना किसी और को नहीं पहचानता (तेरे बिना और कोई नहीं दिखता)।
मैं तेरे कौन कौन से गुण गा के बताऊँ?
तू बेअंत पारब्रह्म है। हे प्रभु! जो मनुष्य तुझे याद करते हैं, तुझे स्मरण करते हैं (तेरा) दास नानक उनसे सदके जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि धिआवहि हरि धिआवहि तुधु जी से जन जुग महि सुखवासी ॥ से मुकतु से मुकतु भए जिन हरि धिआइआ जी तिन तूटी जम की फासी ॥ जिन निरभउ जिन हरि निरभउ धिआइआ जी तिन का भउ सभु गवासी ॥ जिन सेविआ जिन सेविआ मेरा हरि जी ते हरि हरि रूपि समासी ॥ से धंनु से धंनु जिन हरि धिआइआ जी जनु नानकु तिन बलि जासी ॥३॥

मूलम्

हरि धिआवहि हरि धिआवहि तुधु जी से जन जुग महि सुखवासी ॥ से मुकतु से मुकतु भए जिन हरि धिआइआ जी तिन तूटी जम की फासी ॥ जिन निरभउ जिन हरि निरभउ धिआइआ जी तिन का भउ सभु गवासी ॥ जिन सेविआ जिन सेविआ मेरा हरि जी ते हरि हरि रूपि समासी ॥ से धंनु से धंनु जिन हरि धिआइआ जी जनु नानकु तिन बलि जासी ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हरि जी = हे प्रभु जी! धिआवहि = स्मरण करते हैं। से जन = वे लोग। जुगि महि = जिंदगी में। सुखवासी = सुख से बसने वाले। मुकतु = (माया के बंधनों से) आजाद। फासी = फांसी। भउ सभु = सारा डर। गवासी = दूर कर देता है। रूपि = रूप में। समासी = मिल जाते हैं। धंनु = सौभाग्य वाले। बलि जासी = सदके जाता है।3।
अर्थ: हे प्रभु जी! जो लोग तुझे स्मरण करते हैं, तेरा ध्यान धरते हैं, वो लोग अपनी जिंदगी में सुखी बसते हैं।
जो लोगों ने हरि नाम स्मरण किया है, वे हमेशा के लिए माया के बंधनों से आजाद हो गये हैं, उनकी यमों वाली फांसी टूट गई है (भाव, आत्मिक मौत उनके नजदीक नहीं फटकती)। जो लोगों ने सदा निरभउ प्रभु का नाम स्मरण किया है; प्रभु उनका सारा डर दूर कर देता है।
जो मनुष्यों ने प्यारे प्रभु को हमेशा स्मरण किया है, वो प्रभु के रूप में ही लीन हो गये हैं। सौभाग्यशाली हैं वे मनुष्य, धन्य हैं वह लोग, जिन्होंने प्रभु का नाम स्मरण किया है। दास नानक उनके सदके जाता है।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेरी भगति तेरी भगति भंडार जी भरे बिअंत बेअंता ॥ तेरे भगत तेरे भगत सलाहनि तुधु जी हरि अनिक अनेक अनंता ॥ तेरी अनिक तेरी अनिक करहि हरि पूजा जी तपु तापहि जपहि बेअंता ॥ तेरे अनेक तेरे अनेक पड़हि बहु सिम्रिति सासत जी करि किरिआ खटु करम करंता ॥ से भगत से भगत भले जन नानक जी जो भावहि मेरे हरि भगवंता ॥४॥

मूलम्

तेरी भगति तेरी भगति भंडार जी भरे बिअंत बेअंता ॥ तेरे भगत तेरे भगत सलाहनि तुधु जी हरि अनिक अनेक अनंता ॥ तेरी अनिक तेरी अनिक करहि हरि पूजा जी तपु तापहि जपहि बेअंता ॥ तेरे अनेक तेरे अनेक पड़हि बहु सिम्रिति सासत जी करि किरिआ खटु करम करंता ॥ से भगत से भगत भले जन नानक जी जो भावहि मेरे हरि भगवंता ॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भगति भंडार = भक्ति के खजाने। भगत = भक्ति करने वाले।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘भक्ति’ और ‘भक्त’ के फर्क को ध्यान में रखना है।

दर्पण-भाषार्थ

अनिक = अनेक। तपु = धूणियां आदि का शारीरिक कष्ट। सिम्रिति = स्मृतियां, वह धार्मिक पुस्तकें हैं जो हिन्दू विद्वान ऋषियों ने वेदों के याद करके अपने समाज की अगवाई के लिए लिखे। इनकी गिनती 27 के करीब है। सासत = शास्त्र, हिन्दू धर्म के दर्शनशास्त्र (फिलासफी) की पुस्तकें जो गिनती में 6 हैं: सांख, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा व वेदांत। किरिआ = क्रिया, धार्मिक संस्कार। खटु = छह। खटु करम = मनुस्मृति अनुसार ये छह कर्म यूँ हैं: विद्या पढ़नी व पढ़ानी, यज्ञ करना व यज्ञ करवाना, दान देना व दान लेना। करंता = करते हैं। भावहि = अच्छे लगते हैं।
अर्थ: हे प्रभु! तेरी भक्ति के बेअंत खजाने भरे पड़े हैं। हे हरि! अनेक और बेअंतों तेरे भक्त तेरी महिमा कर रहे हैं। हे प्रभु! अनेक जीव तेरी पूजा करते हैं। बेअंत जीव (तुझे मिलने के लिए) तप साधना करते हैं। तेरे अनेक (सेवक) कई समृतियां व शास्त्र पढ़ते हैं (और उनके बताए हुए) छह धार्मिक कर्म व और कर्म करते हैं।
हे दास नानक! वही भक्त भले हैं (उनके ही प्रयत्न स्वीकार हुए मानों) जो प्यारे हरि-भगवंत को प्यारे लगते है।4।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता जी तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तूं जुगु जुगु एको सदा सदा तूं एको जी तूं निहचलु करता सोई ॥ तुधु आपे भावै सोई वरतै जी तूं आपे करहि सु होई ॥ तुधु आपे स्रिसटि सभ उपाई जी तुधु आपे सिरजि सभ गोई ॥ जनु नानकु गुण गावै करते के जी जो सभसै का जाणोई ॥५॥१॥

मूलम्

तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता जी तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तूं जुगु जुगु एको सदा सदा तूं एको जी तूं निहचलु करता सोई ॥ तुधु आपे भावै सोई वरतै जी तूं आपे करहि सु होई ॥ तुधु आपे स्रिसटि सभ उपाई जी तुधु आपे सिरजि सभ गोई ॥ जनु नानकु गुण गावै करते के जी जो सभसै का जाणोई ॥५॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आदि = शुरू से। अपरंपर = अ+परं+पर, जिसका परले का परला छोर ना ढूँढा जा सके, बेअंत। तुधु जेवडु = तेरे जितना, तेरे बराबर का। अवरु = और। जुगु जुगु = हरेक युग में। एको = एक स्वयं ही। निहचल = ना हिलने योग्य, अटल। वरतै = होता है। सु = वह। सभ = सारी। उपाई = पैदा की। सिरजि = पैदा करके। आपे = स्वयं ही। गोई = नाश की। जाणोई = जानने वाला। सभसै का = हर एक (दिल का)। सोई = संभाल करने वाला।
अर्थ: हे प्रभु! तू (सारे जगत का) मूल है। सभ में व्यापक है, बेअंत है, सबको पैदा करने वाला है और तेरे बराबर का और कोई नहीं है। तू हरेक युग में एक स्वयं तू ही है, तू सदैव ही स्वयं ही स्वयं है, तू सदैव कायम रहने वाला है, सबको पैदा करने वाला है, सबकी सार लेने वाला है।
हे प्रभु! जगत में वही होता है जो तुझे स्वयं को अच्छा लगता है। वही होता है जो तू स्वयं करता है। हे प्रभु! सारी सृष्टि स्वयं तूने पैदा की है। तू खुद ही इसको पैदा करके, खुद ही इसका नाश करता है। दास नानक उस कर्तार के गुण गाता है जो हरेक जीव के दिल की जानने वाला है।5।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के पाँच बंद (Stanzas) हैं। हरेक बंद में पाँच तुके हैं। आखिरी बंद की समाप्ति पर अंक ‘5’ के साथ एक और अंक ‘1’ दिया गया है। इसका अर्थ है कि शीर्षक ‘सो पुरखु’ एक नया संग्रहि है जिसका यह पहला शब्द है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ४ ॥ तूं करता सचिआरु मैडा सांई ॥ जो तउ भावै सोई थीसी जो तूं देहि सोई हउ पाई ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

आसा महला ४ ॥ तूं करता सचिआरु मैडा सांई ॥ जो तउ भावै सोई थीसी जो तूं देहि सोई हउ पाई ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-टिप्पनी

नोट: इस शब्द के 4 बंद हैं। अंक 4 से अगला 2 अंक बताता है कि शीर्षक ‘सो पुरखु’ की कड़ी में ये दूसरा शब्द है।

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सचिआरु = (सच+आलय) स्थ्रिता का घर, सदा कायम रहने वाला। मैडा = मेरा। सांई = खसम, मालिक। तउ = तुझे। भावै = अच्छा लगता है। थीसी = होगा। हउ = मैं। पाई = पाऊँ, प्राप्त करता हूँ।1। रहाउ।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू सबको पैदा करने वाला है, तू सदा कायम रहने वाला है, तू ही मेरा खसम है। (जगत में) वही कुछ होता है जो तुझे पसंद आता है। जो कुछ तू दे, मुझे वही कुछ प्राप्त हो सकता है।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभ तेरी तूं सभनी धिआइआ ॥ जिस नो क्रिपा करहि तिनि नाम रतनु पाइआ ॥ गुरमुखि लाधा मनमुखि गवाइआ ॥ तुधु आपि विछोड़िआ आपि मिलाइआ ॥१॥

मूलम्

सभ तेरी तूं सभनी धिआइआ ॥ जिस नो क्रिपा करहि तिनि नाम रतनु पाइआ ॥ गुरमुखि लाधा मनमुखि गवाइआ ॥ तुधु आपि विछोड़िआ आपि मिलाइआ ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सभ = सारी सृष्टि। तूं = तुझे।

दर्पण-टिप्पनी

(गउड़ी छंत म: 5 पंना 248: ‘मोहन, तूं मानहि एकु जी, अवर सभ राली’; यहां भी शब्द ‘तूं’ का अर्थ ‘तैनूं’ या तुझे है। भाव, हे मोहन प्रभु! तुझ एक को ही लोग नाश रहित मानते हैं, और सारी सृष्टि नाशवान है)। इसी तरह सिरी राग महला 5, पंना 51, शब्द नं: 95: ‘जिनि तूं साजि सवारिआ’; तूं = तुझे। पंना 52: ‘जिन तूं सेविआ भाउ करि’; तूं = तुझे। पंना 61: ‘गुरमति तूं सलाहणा, होरु कीमत कहणु न जाइ’; तूं = तुझे। पंना 100: ‘जिन तूं जाता, जो तुधु मनि भाणे’; तूं = तुझे। पंना 102: ‘तिसु कुरबाणी जिनि तूं सुणिआ’ तूं = तुझे। पंना 130: ‘तुधु बिनु अवरु न कोई जाचा, गुर परसादी तूं पावणिआ’; तूं = तुझे। पंना 142: ‘भी तूं है सलाहणा, आखण लहै न चाउ’ में भी तूं = तुझे। और भी बहुत सारे ऐसे प्रमाण हैं)।

दर्पण-भाषार्थ

तिनि = उस (मनुष्य) ने। गुरमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह गुरु की ओर है। मनमुखि = वह मनुष्य जिसका मुँह अपने मन की ओर है।1।
अर्थ: (हे प्रभु!) सारी सृष्टि तेरी (ही बनाई हुई) है, सारे जीव तुझे ही स्मरण करते हैं। जिस पर तू दया करता है उसने तेरा रतन जैसा (कीमती) नाम ढूँढ लिया है। जो अपने मन के पीछे चला, उसने गवा लिया। (पर, किसी जीव के क्या बस? हे प्रभु!) जीव को तू स्वयं ही (अपने आप से) विछोड़ता है, और स्वयं ही खुद से मिला लेता है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूं दरीआउ सभ तुझ ही माहि ॥ तुझ बिनु दूजा कोई नाहि ॥ जीअ जंत सभि तेरा खेलु ॥ विजोगि मिलि विछुड़िआ संजोगी मेलु ॥२॥

मूलम्

तूं दरीआउ सभ तुझ ही माहि ॥ तुझ बिनु दूजा कोई नाहि ॥ जीअ जंत सभि तेरा खेलु ॥ विजोगि मिलि विछुड़िआ संजोगी मेलु ॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: माहि = में। सभि = सारे। विजोगि = वियोग के कारण (भाव, जिसके माथे पर वियोग के लेख हैं)। मिलि = मिल के, मानव शरीर प्राप्त करके। संजोगी = संयोग (के लेख) से। मेलु = मिलाप।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू (जिंदगी का, मानो, एक) दरिया है, सारे जीव तेरे में ही (मानों, लहरें) हैं। तेरे बिना (तुझ जैसा) और कोई नहीं है। ये सारे जीअ-जंतु तेरी (रची हुई) खेल हैं। जिनके माथे पर विछोड़े का लेख है, वह मानव जन्म प्राप्त करके भी तुझसे विछुड़े हुए हैं। (पर, तेरी रज़ा अनुसार) संजोगों केलेख से (फिर तेरे साथ) मिलाप हो जाता है।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिस नो तू जाणाइहि सोई जनु जाणै ॥ हरि गुण सद ही आखि वखाणै ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ ॥ सहजे ही हरि नामि समाइआ ॥३॥

मूलम्

जिस नो तू जाणाइहि सोई जनु जाणै ॥ हरि गुण सद ही आखि वखाणै ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ ॥ सहजे ही हरि नामि समाइआ ॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: जाणाइहि = (तू) समझ बख्शता है। सोई = वही। सद = सदा। आखि = कह के। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में।3।
अर्थ: (हे प्रभु!) जिस मनुष्य को तू खुद सूझ बख्शता है, वह मनुष्य (जीवन का सही रास्ता) समझता है। वह मनुष्य, हे हरि! सदा तेरे गुण गाता है, और (और लोगों को) उचार उचारके सुनाता है।
(हे भाई!) जिस मनुष्य ने प्रमात्मा का नाम स्मरण किया है, उसने सुख हासिल किया है। वह मनुष्य सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहके प्रभु के नाम में लीन हो जाता है।3।

[[0012]]

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू आपे करता तेरा कीआ सभु होइ ॥ तुधु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ तू करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ जन नानक गुरमुखि परगटु होइ ॥४॥२॥

मूलम्

तू आपे करता तेरा कीआ सभु होइ ॥ तुधु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ तू करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ जन नानक गुरमुखि परगटु होइ ॥४॥२॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। कीआ = किया हुआ। सभु = हरेक काम। अवरु = और। वेखहि = संभाल करता है। सोइ = सार। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य।4।
अर्थ: (हे प्रभु!) तू स्वयं ही सब कुछ पैदा करने वाला है, सब कुछ तेरा किया हुआ ही होता है। तेरे बिना (तेरे जैसा) और कोई नहीं है। जीव पैदा करके उनकी संभाल भी तू स्वयं ही करता है। और, हरेक (के दिल) की सार जानता है।
हे दास नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है उसके अंदर प्रमात्मा परगट हो जाता है।4।2।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला १ ॥ तितु सरवरड़ै भईले निवासा पाणी पावकु तिनहि कीआ ॥ पंकजु मोह पगु नही चालै हम देखा तह डूबीअले ॥१॥

मूलम्

आसा महला १ ॥ तितु सरवरड़ै भईले निवासा पाणी पावकु तिनहि कीआ ॥ पंकजु मोह पगु नही चालै हम देखा तह डूबीअले ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: तितु = उस में। सरवरु = तालाब। सरवरड़ा = भयानक तालाब। सरवरड़ै = भयानक तालाब में। तितु सरवरड़ै = उस भयानक तालाब में। भईले = हुआ है। पावकु = अग्नि, तृष्णा की आग। तिनहि = उस (प्रभु) ने स्वयं ही। पंक = कीचड़। पंक जु मोह = जो मोह का कीचड़ है। पगु = पैर। हम देखा = हमारे देखते ही, हमारे सामने ही। तह = उस (सरोवर) में। डूबीअले = डूब गये, डूब रहे हैं।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘तिसु’ का ‘तितु’ अधिकर्ण कारक एकवचन है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई! हम जीवों का) उस भयानक (संसार) सरोवर में बसेरा है (जिसमे) उस प्रभु ने खुद ही पानी (की जगह तृष्णा की) आग पैदा की है (और उस भयानक शरीर में) जो मोह का कीचड़ है (उसमें जीवों का) पैर नहीं चल सकता है (जीव मोह के कीचड़ में फंसे हुए हैं)। हमारे सामने ही (अनेको जीव मोह के कीचड़ में फंस के) उस (तृष्णारूपी आग के अथाह समुंदर में) डूबते जा रहे है।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन एकु न चेतसि मूड़ मना ॥ हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

मन एकु न चेतसि मूड़ मना ॥ हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: मन = हे मन! मूढ़ मना = हेमूर्ख मन! गलिआ = गलते जा रहे है, घटते जा रहे हैं।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! हे मूर्ख मन! तू एक परमात्मा को याद नहीं करता। तू ज्यों ज्यों प्रमात्मा को विसारता जा रहा है, तेरे (अंदर से) गुण घटते जा रहे हैं।1। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ना हउ जती सती नही पड़िआ मूरख मुगधा जनमु भइआ ॥ प्रणवति नानक तिन की सरणा जिन तू नाही वीसरिआ ॥२॥३॥

मूलम्

ना हउ जती सती नही पड़िआ मूरख मुगधा जनमु भइआ ॥ प्रणवति नानक तिन की सरणा जिन तू नाही वीसरिआ ॥२॥३॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: हउ = मैं। जती = काम-वासना को रोकने का प्रयत्न करने वाला। सती = ऊँचे आचरण वाला। मुगध = मूर्ख, बे-समझ। जनमु = जीवन। प्रणवति = विनती करता है।2।
अर्थ: (हे प्रभु!) ना मैं जती हूँ, ना मैं सती हूँ, ना ही मैं पढ़ा हुआ हूँ। मेरा जीवन तो मूर्खों-बेसमझों वाला बना हुआ है (भाव, जत, सत और विद्या इस तृष्णा की आग और मोह के कीचड़ में गिरने से बचा नहीं सकते। यदि मनुष्य प्रभु को भुला दे तो जत, सत, विद्या के होते हुए भी मनुष्य की जिंदगी महांमूर्खों वाली ही होती है)। सो, नानक विनती करता है: (कि हे प्रभु! मुझे) उन (गुरमुखों) की शरण में (रख), जिनको तू नहीं भूला (जिनको तेरी याद नहीं भूली)।2।3।

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसा महला ५ ॥ भई परापति मानुख देहुरीआ ॥ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ ॥ अवरि काज तेरै कितै न काम ॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम ॥१॥

मूलम्

आसा महला ५ ॥ भई परापति मानुख देहुरीआ ॥ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ ॥ अवरि काज तेरै कितै न काम ॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम ॥१॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: भई परापति = मिली है। देहुरीआ = खूबसूरत देह। मानुख देहुरीआ = सुंदर मानव शरीर। बरीआ = बारी,मौका। अवरि = और सारे। भजु = याद कर, स्मरण कर।1।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ‘अवरु’ एकवचन है और ‘अवरि’ बहुवचन।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: (हे भाई!) तुझे सुंदर मानव शरीर मिला है। परमेश्वर को मिलने का तेरे लिए यही मौका है। (यदि ईश्वर को मिलने का कोई प्रयत्न ना किया, तो) और सारे काम तेरे किसी भी अर्थ नहीं। (ये काम तेरी जीवात्मा को कोई लाभ नहीं पहुँचाएंगे)। (इस वास्ते) साधु-संगत में (भी) मिल बैठा कर। (साधु-संगत में बैठ के भी) सिर्फ परमेश्वर का नाम स्मरण किया कर (साधु-संगत में बैठने का भी तभी लाभ है अगर वहाँ तू परमात्मा की महिमा में जुड़े)।1।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरंजामि लागु भवजल तरन कै ॥ जनमु ब्रिथा जात रंगि माइआ कै ॥१॥ रहाउ॥

मूलम्

सरंजामि लागु भवजल तरन कै ॥ जनमु ब्रिथा जात रंगि माइआ कै ॥१॥ रहाउ॥

दर्पण-भाषार्थ

पद्अर्थ: सरंजामि = इंतजाम में, प्रबंध में। लागु = लग। भवजल = संसार समुंदर। तरन कै सरंजामि = पार होने की कोशिश में। ब्रिथा = व्यर्थ। जात = जा रहा है। रंगि = प्यार में।1। रहाउ।
(हे भाई!) संसार समुन्द्र से पार लांघने की भी कोशिश में लग। (सिर्फ) माया के प्यार में मानव जन्म व्यर्थ जा रहा है। १। रहाउ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपु तपु संजमु धरमु न कमाइआ ॥ सेवा साध न जानिआ हरि राइआ ॥ कहु नानक हम नीच करमा ॥ सरणि परे की राखहु सरमा ॥२॥४॥

मूलम्

जपु तपु संजमु धरमु न कमाइआ ॥ सेवा साध न जानिआ हरि राइआ ॥ कहु नानक हम नीच करमा ॥ सरणि परे की राखहु सरमा ॥२॥४॥

दर्पण-भाषार्थ

जपु = स्मरण। तपु = सेवा आदि उद्यम। संजमु = मन को विकारों से रोकने की पूरी कोशिश। साधू = गूरू। सेवा हरि राइआ = हरि राय की सेवा, मालिक प्रभु का स्मरण। कहु = कहो। नानक = हे नानक! हम = हम जीव। नीच करंमा = नीच कर्म करने वाले, मंदकर्मी। सरमा = शर्म, लज्जा।2।
(हे भाई!) तू प्रभु का स्मरण नहीं करता (प्रभु से मिलने के लिए सेवा आदि कोई) उद्यम नहीं करता, मन को विकारों की ओर से रोकने का कोई यत्न नहीं करता - तू (ऐसा कोई) धर्म नहीं कमाता। ना तूने गुरु की सेवा की, ना तूने मालिक प्रभु का नाम जपना ही किया। हे नानक! (परमेश्वर के दर पे अरदास कर, और) कह - (हे प्रभु!) हम जीव मंद-कर्मी हैं (तेरी शरण पड़े हैं) शरण पड़े की लज्जा रखो।2।4।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: साधारण तौर पे हरेक संग्रहि के शब्द आदि महला १ के शबदों से शुरू होते हैं। आगे बाकी गुरु-व्यक्तियों के सिलसिलेवार आते हैं। पर, संग्रहि ‘सो पुरखु’ का पहला शब्द है ही महला ४ का। इस वास्ते म: ४ का दूसरा शबदभी साथ ही दे के आगे बाकी की तरतीब सिलसिलेवार रखी है।
अगर ये दोनों संग्रहि अलग-अलग ना होते तो इनकी मिलीजुली तरतीब यूँ होती;

म: १– सोदरु केहा; सुणि वडा; आखा जीवा; तित सरवरड़ै—-(4 शब्द)

म: ४– हरि के जन; सो पुरखु; तूं करता————————(3 शब्द)

म: ५– काहे रे मन; भई परापति——————————–(2 शब्द)

जोड़—————————————————————-9 शब्द।