विश्वास-प्रस्तुतिः
॥ जपु ॥
मूलम्
॥ जपु ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदि+++(से)+++ सचु+++(=सत्य)+++, जुगादि+++(से)+++ सचु ॥
है +++(अब)+++ भी सचु, नानक! होसी+++(=होगा)+++ भी सचु ॥१॥
कार्लानुवादः
आदेः सद् युगादेः सत् ।
सदस्ति हि नानक! भविष्यति सत् ॥
मूलम्
आदि सचु जुगादि सचु ॥ है भी सचु नानक होसी भी सचु ॥१॥
दर्पण-पदार्थ
पद्अर्थ: आदि = आरम्भ से। सचु = अस्तित्व वाला। शब्द ‘सचु’ संस्कृत के ‘सत्य’ का प्राकृत है, जिसकी धातु ‘अस’ है। ‘अस’ का अर्थ है ‘होना’। जुगादि = युगों के आरम्भ से। है = अर्थात, इस समय भी है। नानक = हे नानक। होसी = होगा, रहेगा।१।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हे नानक! अकाल पुरख आरम्भ से ही अस्तित्व वाला है, युगों के आरम्भ से मौजूद है। इस समय भी मौजूद है और आगे भी अस्तित्व में रहेगा।१।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये श्लोक मंगलाचरण के तौर पर है। इस में गुरु नानक देव जी ने अपने ईष्ट का स्वरूप बयान किया है। जिसका जप, स्मरण करने का उपदेश इस सारी वाणी ‘जपु’ में किया गया है।
इससे आगे वाणी ‘जपु’ की रचना शुरू होती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोचै+++(=स्वच्छता)+++ सोचि+++(=शुचि)+++ न होवई,
जे सोची लख+++(=लाख)+++ वार ॥
चुपै+++(=चुप कर रहने से)+++ चुप+++(→शान्ति)+++ न होवई जे
+++(समाधि मेँ)+++ लाइ+++(=लगायी)+++ रहा+++(=रखूँ)+++ लिव+++(=लगन का)+++ तार ॥
कार्लानुवादः
शुच्या शुचिर् न भवेत् यद् धावति लक्षवारम्।
मनसो न शाम्येत् कृत्वा समाधौ संहारम्।
कार्ल-टीका
यद्यहं सम्प्रक्षालो लक्षवारमपि (स्नानादिभिः शरीरस्य) स्वच्छतां पालयेयं, (तथापि ईदृश्या) शुच्या (मनसः) स्वच्छता न रक्ष्येत। यद्यहं (शरीरम्) एकाग्रतया समाधिना धरेयं, (तथापि अमुष्या रीत्या) मौनं साधयित्वा मनो न शाम्येत्।
मूलम्
सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥ चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिव तार ॥
दर्पण-पदार्थ
पद्अर्थ: सोचै = स्वच्छता रखने से, पवित्रता कायम रखने से। सोचि = सुचि, पवित्रता, सुच। न होवई = नहीं हो सकती। सोची = मैं स्वच्छता रखूँ। चुपै = चुप कर रहने से। चुप = शांति, मन की चुप, मन का टिकाउ। लाइ रहा = मैं लगायी रखूँ। लिव तार = लगन की तार, लगन की डोर, एक तार समाधि।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इस पौड़ी की पाँचवीं लाइन पढ़ने से ये पता चलता है कि इस पौड़ी में गुरु नानक साहिब मन को ‘सचिआरा’ (सत्यनिष्ठ) करने का तरीका बता रहे हैं। सबसे पहले उन साधनों का ज़िकर करते हैं जो और लोग इस्तेमाल कर रहे हैं। तीर्तों का स्नान, जंगलों में जा के समाधी लगानी, मन की भूख को पहले माया से तृप्त करने की कोशिश, शास्त्रों की फिलासफी; ये आम प्रचलित तरीके थे। पर सत्गुरू जी इनसे अलग वह साधन बताते हैं, जिसे गुरु सिखी का मौलिक सिद्धांत समझ लेना चाहिए, भाव, अकाल पुरखु की रजा में चलना।
पहली चार लाईनों के ठीक अर्थ समझने के लिए पाँचवीं लाइन पर खास ध्यान देना जरूरी है। ‘किव सचिआरा होइअै किव कूड़ै तुटै पालि।’ इस लाइन को पहली हर एक लाइन के साथ पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि पहिली हरेक लाइन में ‘मन’का ही जिकर है। पहली लाइन में ‘मन की सुच’, दूसरी में ‘मन की चुप’, तीसरी में ‘मन की भूख’ और चौथी में ‘मन की चतुराई’ का हाल बताया है।
(प्र:) लफ्ज़ ‘सोचि’ के अर्थ ‘स्वच्छता’ से क्यूँ किए गए हैं?
(उ:) मन की सोचों और चतुराईयों का तो चौथी लाइन में वर्णन कर दिया गया है, इस वास्ते पहिली लाइन में कुछ और ख्याल है, जो नीचे लिखी तुकों को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है:
कहु नानक सचु धिआईऐ॥
सुचि होवै तां, सचु पाईऐ॥ (आसा दी वार)
सोच करै दिनसु अरु राति॥
मन की मैल न तन ते जाति॥ (सुखमनी)
न सुचि संजमु तुलसी माला॥
गोपी कानु न गऊ गोपाला॥
तंतु मंतु पाखंडु न कोई,
ना को वंसु वजाइदा॥7॥ (मारू महला १)
‘सोच’ का अर्थ है ‘स्नान’, तथा ‘सुचि’ का अर्थ है ‘पवित्रता’। इन दो शब्दों को मिलाने से बना है ‘सोचि’। जिसका अर्थ है शुचिता, पवित्रता, स्नान। शब्द ‘सुचि’ स्त्रीलिंग है। संस्कृत में भी ये इसी रूप में है। जैसे शब्द ‘मन’ से ‘मनि’ बना है और जिसका अर्थ है ‘मन में’। लेकिन, इस तरह ‘सोच’ से ‘सोचि’ नहीं बन सकता, क्योंकि शब्द ‘मन’ पुलिंग है और ‘सोच’ (जिसका अर्थ ‘विचार’ है) स्त्रीलिंग है। सो, शब्द ‘सोचि’ अधिकर्ण कारक की (ि) मात्रा के बिना ही असल रूप वाला संस्कृत का ही शब्द ‘सुचि’ है, जिसके अर्थ हैं पवित्रता।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अगर में लाखों बार (भी) (स्नान आदि से शरीर की) स्वच्छता रखूँ, (तो भी इस तरह) स्वच्छता रखने से (मन की) स्वच्छता नहीं रहि सकती। यदि मैं (शरीर की) एक-तार समाधि लगाई रखूँ; (तो भी इस तरह) चुप कर के रहने से मन शांत नहीं हो सकता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुखिआ+++(=बुभुक्षोः)+++ भुख+++(=तृष्णा)+++ न उतरी
जे बंना+++(=बांध लूँ)+++ पुरीआ+++(→लोकानाम्)+++ भार ॥
सहस सिआणपा+++(=स्यानापन, चतुराईयां)+++ लख+++(=लाख)+++ होहि -
त इक न चलै नालि+++(=सह)+++ ॥
कार्लानुवादः
क्षुधां बुभुक्षु र्नोत्तरेद् ऊढ्वा लोकभारम् ।
सहस्र-कौशल्यं लक्षं गते नायात्येको तत्साकम् ॥
कार्ल-टीका
यद्यहं सर्वेषां भवनानां द्रव्यस्य राशिम् (अपि) संभरेयं, तथापि तृष्णाया अधीनस्य मे तृष्णा दूरं नापयाति। (मयि) सहस्रं लक्षं वा चातुर्याणि भवेयुश्चेदपि (तेषु) एकमपि चातुर्यं मे साहाय्यं न दास्यति।
मूलम्
भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार ॥ सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि ॥
दर्पण-पदार्थ
पद्अर्थ: भुख = त्रिष्णा, लालच। भुखिआ = त्रिष्णा के अधीन रहने से। न उतरी = दूर नहीं हो सकती। बंना = बांध लूँ, सम्भाल लूँ। पुरी = लोक, भवण। पुरीआ भार = सारे लोकों के भार। भार = पदार्तों के समूह। सहस = हजारों। सिआणपा = चतुराईयां। होहि = हों। इक = एक भी चतुराई।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: यदि मैं सारे भवनों के पदार्तों के ढेर (भी) संभाल लूँ, तो भी त्रिष्णा के अधीन रहने से त्रिष्णा दूर नहीं हो सकती। यदि, (मेरे में) हजारों व लाखों ही चतुराईयां हों, (तो भी उनमें से) एक भी चतुराई साथ नहीं देती।
विश्वास-प्रस्तुतिः
किव+++(=कथं)+++ सचिआरा होईऐ+++(=होवे)+++?
किव कूड़ै+++(=असत्य)+++ तुटै+++(=टूटे)+++ पालि+++(=तिरस्करिणी)+++ ॥
हुकमि+++(=हुक्म में)+++ रजाई+++(=रजावाला ←अरबी-रजा= सदिच्छा, ईश्वरेच्छा)+++ चलणा -
नानक लिखिआ नालि+++(=सह)+++ ॥१॥
कार्लानुवादः
कथं सत्यवान् भवेद् अपास्तं च मिथ्याजालम् ।
ईशादेशं पालयेन् नानक सर्वं नित्यसहचारम् ॥१॥
कार्ल-टीका
(तर्हि) अकालपुरुषस्य प्रकाशार्हः कथं भवेयं, (अपि च ममान्तरङ्गे) मिथ्यायाः जवनिका कथं विदीर्येत ? स्वामिनः प्रसादस्य आदेशानुसरणम् (- इयमेकमात्रविधिः)। हे नानक! (विधिरियम्) जगतः सृष्टेरादित आरभ्य एव लिख्यमाना विद्यते।
मूलम्
किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि ॥ हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥
दर्पण-पदार्थ
पद्अर्थ: किव = किस तरह। होईऐ = हो सकते हैं। कूड़ै पालि = झूठ की पाल, झूठ की दीवार, झूठ का पर्दा। सचिआरा = (सच आलय) सच का घर, सत्य के प्रकाश के योग्य। हुकमि = हुक्म में। रजाई = रजा वाला, अकाल पुरख। नालि = जीव के साथ ही, शुरू से ही जब से जगत बना है।1।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (तो फिर) अकाल पुरख के प्रकाश होने योग्य कैसे बन सकते हैं (और हमारे अंदर का) झूठ का पर्दा कैसे कैसे टूट सकता है? रजा के मालिक अकाल पुरख के हुक्म में चलना- (यही एक मात्र विधि है)। हे नानक! (ये विधि) आरम्भ से ही जब से जगत बना है, लिखी चली आ रही है।1।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु से जीव की दूरी मिटाने का एक ही तरीका है कि जीव उसकी रजा में चले। ये उसूल धुर से ही ईश्वर द्वारा जीव के लिए जरूरी हैं। पिता के कहने पर पुत्र चलता रहे तो प्यार, ना चले तो दूरी पड़ती जाती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमी होवनि आकार +++(सारे)+++
हुकमु न कहिआ जाई ॥
हुकमी होवनि जीअ+++(=जीव)+++
हुकमि मिलै वडिआई ॥
कार्लानुवादः
आदेशाद् भवत्याकार आदेशोऽनिर्वचनीयः।
आदेशाद्धि जीवेद् आदेशाद्धि शोभेत जीवः ॥
कार्ल-टीका
अकालपुरुषस्यादेशानुसारं शरीराणि निर्मीयन्ते, (परन्तु) इमान् आदेशान् विवर्तुं न संभवति। ईशादेशानुसारेणैव सर्वे जन्तवः समुद्भवन्ति, तथा तस्यादेशानुसारेणैव ते (प्रभोर्द्वारमासाद्य) शोभाम् अश्नुवते।
मूलम्
हुकमी होवनि आकार हुकमु न कहिआ जाई ॥
हुकमी होवनि जीअ हुकमि मिलै वडिआई ॥
दर्पण-पदार्थ
पद्अर्थ: हुकमी = हुक्म में, अकाल-पुरख के हुक्म अनुसार। होवनि = होते हैं, अस्तित्व में आते हैं, बन जाते हैं। आकार = स्वरूप, शक्लें, शरीर। न कहिआ जाई = कथन नहीं किया जा सकता। जीअ = जीव जन्तु। हुकमि = हुक्म अनुसार। वडिआई = आदर, शोभा।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अकाल पुरख के हुक्म के अनुसार सारे शरीर बनते हैं, (पर ये) हुक्म कहा नहीं जा सकता कि कैसा है। ईश्वर के आदेश मुताबिक ही सारे जीव पैदा हो जाते हैं और आदेशानुसार ही (ईश्वर के दर पर) शोभा मिलती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमी उतमु, नीचु हुकमि
लिखि दुख सुख पाईअहि ॥
इकना+++(=एकस्मै)+++ हुकमी बखसीस, इकि
हुकमी सदा भवाईअहि+++(=भ्रामयति)+++ ॥
कार्लानुवादः
आदेशाद् उच्चनीचाः स आदिशेद् दुःखसुखाय ।
आदेशात् कस्मैचिद् आशिषोऽन्यस्मै तु विभ्रमाय ॥
कार्ल-टीका
विधातुरादेशात् कश्चित् सद्गुणोपेतो भवति, कश्चित् विगुणः। तस्यादेशे लिखितं (स्वकर्मणां) फलस्वरूपं दुःखं वा सुखं वा भुञ्जते। आदेशे हि बहुषु मनुष्येषु (अकालपुरुषस्य द्वारात्) कृपा वर्षति, तथा तस्यादेशे हि केचन जीवाः जन्ममरणयोश्चक्रे नित्यं भ्रमन्ति।
मूलम्
हुकमी उतमु नीचु हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि ॥
इकना हुकमी बखसीस इकि हुकमी सदा भवाईअहि ॥
दर्पण-पदार्थ
पद्अर्थ: उतमु = श्रेष्ठ, बढ़िया। लिखि = लिख के, लिखे अनुसार। पाईअहि = प्राप्त होते हैं, भोगते हैं। इकना = कई मनुष्यों को। बखसीस = दात, बख्शिश। इकि = एक मनुष्य। भवाईअहि = भ्रमित होते हैं, जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े रहते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: रब के हुक्म में कोई मनुष्य अच्छा (बन जाता) है, काई बुरा। उसके हुक्म में ही (अपने किए कर्मों के) लिखे अनुसार दुख व सुख भोगते हैं। हुक्म में ही कई मनुष्यों पर (अकाल पुरख के दर से) कृपा होती है, और उसके हुक्म में ही कई मनुष्य नित्य जन्म-मरण के चक्कर में फसे रहते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमै अंदरि सभु को
बाहरि हुकम न कोइ ॥
नानक हुकमै जे बुझै+++(=बुध्येत्)+++
त हउमै+++(=अहङ्कारी)+++ कहै न कोइ ॥२॥
कार्लानुवादः
आदेशस्य सर्वेऽधीना, आदेशम् उल्लङ्घयितुं न कश्चिदर्हः ।
य आदेशं बोधेन् नानक, नाधिकं स्वानुरागेण जल्पति सः॥२॥
कार्ल-टीका
प्रत्येको जीवः तदादेशस्याधीन एव वर्तते। कोऽपि जीव आदेशगणाद् बहिर्गन्तुं न शक्यते। हे नानक ! यदि कश्चिद् अकालपुरुषस्यादेशचक्रम् अवगच्छेत् तदनन्तरं सः स्वार्थपूर्णां वार्तां पुन र्न करोति (अर्थात् सः स्वार्थिनं जीवनं त्यजति)।
मूलम्
हुकमै अंदरि सभु को बाहरि हुकम न कोइ ॥
नानक हुकमै जे बुझै त हउमै कहै न कोइ ॥२॥
दर्पण-पदार्थ
पद्अर्थ: अंदरि = रब के हुक्म में। सभु को = हर एक जीव। बाहरि हुकम = हुक्म से बाहर। हकमै = हुक्म को। बुझै = समझ ले। हउमै कहै न = अहंकार भरे बोल नहीं बोलता, मैं मैं नहीं कहता, स्वार्थी नहीं बनता।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: हरेक जीव ईश्वर के हुक्म में ही है, कोई जीव हुक्म से बाहर नहीं हो सकता। हे नानक! अगर कोई मनुष्य अकाल पुरख के हुक्म को समझ ले तो फिर वो स्वार्थ भरी बातें नहीं करता (अर्थात, स्वार्थी जीवन छोड़ देता है)।2।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु के हुक्म का सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, पर वह छोटे दायरे में नहीं है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावै को+++(=कोई)+++ ताणु+++(=बल)+++, होवै किसै ताणु ॥
गावै को दाति+++(=दत्त)+++ जाणै+++(→जानकर)+++ +++(ईश्वर-)+++नीसाणु ॥
कार्लानुवादः
यस्मिंश्च राजते शक्तिः स स्तौति शक्तिदम् ।
स्वदन्तान् हि स्तौति कश्चित् तु मत्वा तच्चिह्नंम्।
कार्ल-टीका
यस्य कस्यापि मनुष्यस्य सामर्थ्यं वर्तते, सः ईश्वरस्य शक्त्याः गायति (भावेन, तस्य गुणकीर्तनं करोति पुनश्च तस्य तानि कर्माणि कथयति यानि तच्छक्तिं प्रकटीकुर्वन्ति)। कोऽपि मनुष्यस्तु (इमे दन्ताः प्रभोः कृपायाः) चिह्नं मत्वा तस्य दन्तानां हि गायति ।
मूलम्
गावै को ताणु होवै किसै ताणु ॥
गावै को दाति जाणै नीसाणु ॥
दर्पण-पदार्थ
पद्अर्थ: को = कोई मनुष्य। ताणु = बल, अकाल पुरख की ताकत। किसै = जिस किसी मनुष्य को। ताणु = सामर्थ्य। दाति = बख्शे हुए पदार्थ। नीसाणु = (कृपा का) निशान।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: जिस किसी मनुष्य की स्मर्था होती है, वह ईश्वर की ताकत को गाता है, (भाव, उसकी महिमा करता है और उसके उन कर्मों का कथन करता है जिनसे उनकी बड़ी ताकत प्रगट हो) कोई मनुष्य उसकी दातों को ही गाता है, (क्योंकि, इन दातों को वह ईश्वर की कृपा का) निशान समझता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावै को+++(=कोई)+++ गुण वडिआईआ चार+++(=चारु)+++ +++(ईश्वर का)+++॥
गावै को +++(अध्यात्म)+++विदिआ विखमु+++(=विषम)+++ वीचारु ॥
कार्लानुवादः
चारुगुणान् उपबृंहयति संस्तूय कश्चित्।
विषम-विद्यां विचारयति संस्तूय कश्चित्।
कार्ल-टीका
कोऽपि मनुष्य ईश्वरस्य सुन्दरान् गुणान् अभिवर्ध्य वर्णयति। कोऽपि मनुष्यो विद्यायाः बलेन अकालपुरुषस्य कठिनज्ञानस्य गानं करोति (भावेन, शास्त्रादिभिः आध्यात्मदर्शनेषु विमर्शयति)।
मूलम्
गावै को गुण वडिआईआ चार ॥
गावै को विदिआ विखमु वीचारु ॥
दर्पण-पदार्थ
पद्अर्थ: चार = सुंदर। विदिआ = विद्या द्वारा। विखमु = कठिन, मुष्किल। विचारु = ज्ञान।
दर्पण-टिप्पनी
शब्द ‘चार’ विशेषण है, जो एकवचन पुलिंग के साथ ‘चारु’ हो जाता है और बहुवचन के साथ या स्त्रीलिंग के साथ ‘चार’ रहता है। पर शब्द ‘चारि’ ‘चहुँ’ (4) की गिनती का वाचक है। जैसे:
- चारि कुंट दह दिस भ्रमे, थकि आए प्रभ की साम।
- चारि पदारथ कहै सभु कोई।
- चचा चरन कमल गुर लागा। धनि धनि उआ दिन संजोग सभागा। चारि कुंट दहदिस भ्रमि आइओ। भई क्रिपा तब दरसनु पाइओ। चार बिचार, बिनसिओ सभ दूआ। साध संगि मनु निरमलु हूआ।
- तटि तीरथि नही मनु पतीआइ। चार अचार रहे उरझाइ।2।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: कोई मनुष्य ईश्वर के सुन्दर गुण और अच्छी बढ़ाईयों का वर्णन करता है। कोई मनुष्य विद्या के बल से अकाल पुरख के कठिन ज्ञान को गाता है (भाव, शास्त्र आदि विद्या द्वारा आत्मिक फिलासफीजैसे मुश्किल विषयों पर विचार करता है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावै को+++(=कोई)+++ +++(ईश्वर)+++ साजि+++(=सृष्ट्वा)+++, करे तनु खेह+++(=स्वाहा)+++ ॥
गावै को जीअ+++(जीव)+++ लै, फिरि देह ॥
कार्लानुवादः
तनूं सृष्ट्वा करोति भस्म पुनरिति गायति।
प्राणं नीत्वा पुनर्दधातीत्यन्यः ।
कार्ल-टीका
कोऽपि मनुष्यः गायति यत् अकालपुरुषः शरीरं निर्माय पुनर्भस्मसात् करोतीति। अन्यो गायति यत् हरिः (देहात्) प्राणं निष्कास्य पुनः (नूतने देहे) निदधातीति।
मूलम्
गावै को साजि करे तनु खेह ॥ गावै को जीअ लै फिरि देह ॥
दर्पण-पदार्थ
पद्अर्थ: साजि = पैदा करके, बना के। तनु = शरीर को। खेह = स्वाह, राख। जीअ = जीवात्मा। लै = ले के। देह = दे देता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘जीउ’ तथा ‘जीअ’ बहुवचन है।
यहाँ शब्द ‘देह’ का ‘ह’ पहली तुक के ‘खेह’ के साथ मिलाने के वास्ते बरता गया है। वैसे शब्द ‘देह’ संज्ञा का अर्थ है ‘शरीर’, जैसे कि ‘भरीअै हथु पैरु तनु देह’।
शब्द ‘दे’, ‘देहि’ और ‘देह’ को अच्छी तरह समझने के लिए जपु जी में से ही नीचे लिखीं तुकें दी जा रही हैं:
देंदा दे लैदे थकि पाहि। पउड़ी३।
आखहि मंगहि देहि देहि, दाति करे दातारु।४।
गुरा इक देहि बुझाई।५।
नानक निरगुणि गुणु करे गुणवंतिआ गुण दे।७।
भरीअै हथु पैरु तनु देह।२०।
ले साबूणु लईअै ओहु धोइ।२०।
आपे जाणै आपे देइ।२५।
दे = देता है। दे = दे के।
देइ = देता है। देइ = दे के
देह = शरीर। देहि = देह (हुकमी भविष्यत काल)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: कोई मनुष्य ऐसे गाता है, ‘अकाल पुरख शरीर को बना के फिर राख कर देता है। कोई ऐसे गाता है, ‘हरि (शरीरों में से) जान निकाल के फिर (दूसरे शरीरों में) डाल देता है’।
[[0002]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावै को जापै दिसै दूरि ॥ गावै को वेखै हादरा हदूरि ॥
मूलम्
गावै को जापै दिसै दूरि ॥ गावै को वेखै हादरा हदूरि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जापै = प्रतीत होता है, जापता है। हादरा हदूरि = सब जगह हाजिर, हाज़र नाज़र।
अर्थ: कोई मनुष्य कहता है, ‘अकाल पुरख दूर प्रतीत होता है’; पर कोई कहता है, (नहीं नजदीक है), हर जगह हाजिर है, सभी को देख रहा है’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथना कथी न आवै तोटि ॥ कथि कथि कथी कोटी कोटि कोटि ॥
मूलम्
कथना कथी न आवै तोटि ॥ कथि कथि कथी कोटी कोटि कोटि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कथना = कहना, बयान करना। कथना तोटि = कहने का अंत, गुण वर्णन करने का अंत। कथि = कह के। कथ कथ कथी = कह कह के कही है, बेअंत बार प्रभु के हुकमों का वर्णन किया है। कोटि = करोड़ो जीवों ने।
दर्पण-टिप्पनी
लफ्ज़ कोटि, कोटु व कोट का निर्णय:
कोटि = करोड़ (विशेषण)
कोटि करम करै हउ धारे।
स्रमु पावै सगले बिरथारे।3।12। (सुखमनी)
कोटि खते खिन बखसनहार।3।30। (भैरउ म: ५)
कोटु = किला (संज्ञा एकवचन)
लंका सा कोटु समुंद सी खाई। (आसा कबीर जी)
एकु कोटि पंच सिकदारा (सूही कबीर जी)
कोट = किले (संज्ञा, बहुवचन)
कंचन के कोट दतु करी बहु हैवर गैवर दानु। (सिरी राग म: १)
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: करोड़ों जीवों ने बेअंत बार (अकाल पुरख के हुक्म का) वर्णन किया है। पर हुक्म के वर्णन करने में कमीं नहीं आ सकी। (भाव, वर्णन कर कर के हुक्म का अंत नहीं पाया जा सका, हुक्म का सही स्वरूप नहीं ढूंढा जा सका)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देदा दे लैदे थकि पाहि ॥ जुगा जुगंतरि खाही खाहि ॥
मूलम्
देदा दे लैदे थकि पाहि ॥ जुगा जुगंतरि खाही खाहि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देदा = देंदा, देने वाला, दातार ईश्वर। दे = (सदा) देता है, दे रहा है। लैदे = लैंदे, लेने वाले जीव। थक पाहि = थक जाते हैं। जुगा जुगंतरि = जुग जुग अंतर, सारे युगों से, सदा से ही। खाही खाहि = खाते ही खाते हैं, इस्तेमाल करते आ रहे हैं।
अर्थ: दातार अकाल पुरख (सभी जीवों को रिज़क) दे रहा है, पर जीव लै लै के थक जाते हैं। (सभ जीव) सदा से ही (ईश्वर के दिए पदार्थ) खाते चले आ रहे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुकमी हुकमु चलाए राहु ॥ नानक विगसै वेपरवाहु ॥३॥
मूलम्
हुकमी हुकमु चलाए राहु ॥ नानक विगसै वेपरवाहु ॥३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हुकमी = हुक्म का मालिक अकाल-पुरख। हुकमी हुकमु = हुक्म वाले ईश्वर का हरि का हुक्म। राहु = रास्ता, संसार की कार। नानक = हे नानक। विगसै = खिल रहा है, प्रसंन्न है। वेपरवाहु = बेफिक्र, चिन्ता से रहित।3।
अर्थ: हुक्म वाले रब का हुक्म ही (संसार की कार वाला) रास्ता चला रहा है। हे नानक! वह निरंकार सदा बेपरवाह है, प्रसंन्न है। (भाव, हलांकि, ईश्वर हर वक्त संसार के बेअंत जीवों को अटूट पदार्थ व रिज़क दे रहा है, पर इतने बड़े कार्य में उसे कोई घबराहट/परेशानी नहीं हो रही। वह सदा ही प्रसंन्न अवस्था में है। उसे इतने बड़े पसारे में खचित नहीं होना पड़ता। उसकी एक हुक्म रूप सत्ता ही सारे व्यवहार को निबाह रही है।) 3।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु के अलग अलग काम देख के मनुष्य अपनी अपनी समझ अनुसार प्रभु की हुक्म रूप ताकत का अंदाजा लगाए चले आ रहे हैं, पर किसी भी तरफ से मुकम्मल अंदाजा नहीं लग सका।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचा साहिबु साचु नाइ भाखिआ भाउ अपारु ॥ आखहि मंगहि देहि देहि दाति करे दातारु ॥
मूलम्
साचा साहिबु साचु नाइ भाखिआ भाउ अपारु ॥ आखहि मंगहि देहि देहि दाति करे दातारु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साचा = अस्तित्व वाला, सदा स्थिर रहने वाला। साचु = सदा स्थिर रहने वाला। नाइ = न्याय, इंसाफ, संसार के कार्य को चलाने का नियम।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘साचु नाइ’ बरे में। व्याकरण का नियम है कि किसी भी संज्ञा के विशेषण का वही ‘लिंग’ होता है, जो उस ‘संज्ञा’ का है। ‘साचु नाइ’ वाली तुक में ‘साहिबु’ पुलिंग है, इसलिए ‘साचा’ भी पुलिंग है। ‘साचु’ पुलिंग है, सो, जिस संज्ञा का यह विशेषण है, वह भी पुल्रिंग ही चाहिए। जैसे कि ‘साहिबु’ है।
शब्द ‘नाउ’ जब तक ‘कर्ताकारक’ या ‘कर्मकारक’ के साथ इस्त्रमाल होता है, तब तक इसका स्वरूप यही रहता है, जैसेकि,
• अंम्रित वेला सचु नाउ वडिआई विचारु।4।
• चंगा नाउ रखाइ कै जसु कीरति जगि लेइ।7।
• जेता कीता तेता नाउ। (पउड़ी 19)
• उचै ऊपरि ऊचा नाउ। (पउड़ी 24)
यही ‘शब्द ‘नाउ’ जपु जी में एक बार और आया है, पर वह ‘क्रिया’ है और उसका अर्थ है ‘स्नान करो’। जैसे कि;
अंतरगति तीरथ मलि नाउ। (पउड़ी 21)
शब्द ‘नाउ’ का बहुवचन जपु जी में दो बार आया है, उसका रूप ‘नांव’ है, जैसे;
• असंख नाव असंख थाव। (पउड़ी 19)
• जीअ जाति रंगा के नाव। (पउड़ी 16)
जब शब्द ‘नाउ’ कर्ताकारक या कर्मकारक के बिना और किसी कारक में इस्तेमाल हो, तो ‘नाउ’ की जगह ‘नाइ’ हो जाता है, जैसे;
नाइ तेरै तरणा नाइ पति पूज।
नाउ तेरा गहणा मति मकसूद। (परभाती बिभास महला १)
नाइ = नाम के द्वारा।
पर ‘साचि नाइ’ वाला ‘नाइ’ कर्ताकारक ही हो सकता है, क्योंकि इसका विशेषण ‘साचु’ भी कर्ताकारक है। ये ‘नाइ’ उपरोक्त प्रमाण वाले ‘नाइ’ से अलग है।
जपुजी की पउड़ी ६ की पहिली तुकमें भी ‘नाइ’ शब्द मिलता है, पर यहाँ ‘क्रिया’ है, इसका अर्थ है ‘नहा के’। यो, ये ‘नाइ’ भी ‘साचु नाइ’ वाला नहीं है। शब्द ‘नाई’ भी जपुजी में निम्न-लिखित तुकों में इस्तेमाल किया गया है;
• वडा साहिब, वडी नाई, कीता जा का होवै। (पउड़ी 21)
• सोई सोई सदा सचु, साहिब साचा, साची नाई। (पउड़ी 27)
यहां, शब्द ‘नाई’ स्त्रीलिंग है। इसलिए ये शब्द भी ‘साचु नाइ’ से अलग है।
हमने इस शब्द ‘नाइ’ का अर्थ ‘निआइ’ किया है। इसी तरह नीचे दी गयीं तुकों में भी ‘नाई’ से ‘निआई’ पाठ वाला अर्थ करना है।
‘बुत पूज पूज हिंदू मुए तुरक मूए सिरु नाई। (सोरठि कबीर जी)
‘नाई’ व ‘निआई’ का अर्थ है ‘नियाइ’ (झुकना?) आजकल की पंजाबी में भी ‘निआइ’, ‘नीची जगह’ को कहा जाता है। सो, जैसे इस प्रमाण में ‘नाई’ को ‘निआई’ समझ के अर्थ किया जाता है, उसी प्रकार इस लफ्ज़ ‘नाइ’ को ‘निआइ’ (नियम) ही समझना है।
भाखिआ = बोली। भाउ = प्रेम। अपार = पार से रहित, बेअंत। आखहि = हम कहते हैं। मंगहि = हम मांगते हैं। देहि देहि = (हे हरि!) हमें दे, हम पे बख्शिश कर।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: अकाल पुरख सदा स्थिर रहने वाला ही है, असका नियम भी सदा अटल है। उसकी बोली प्रेम है और वह अकाल-पुरख बेअंत है। हम जीव उससे दातें मांगते हैं और कहते हैं, ‘(हे हरि! हमें दातें) दे’। वह दातार बख्शिशें करता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: उसकी बोली प्रेम है। प्रेम ही एक तरीका है जिसके द्वारा वह हमसे बातें करता है, हम उससे बातें कर सकते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
फेरि कि अगै रखीऐ जितु दिसै दरबारु ॥ मुहौ कि बोलणु बोलीऐ जितु सुणि धरे पिआरु ॥
मूलम्
फेरि कि अगै रखीऐ जितु दिसै दरबारु ॥ मुहौ कि बोलणु बोलीऐ जितु सुणि धरे पिआरु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: फेरि = (अगर सारी दातें वह स्वयं ही कर रहा है) फिर। कि = कौन सी भेंट। अगै = रब के आगे। रखीऐ = रखी जाए, हम रखें। जितु = जिस भेटा के सदके। दिसै = दिख जाए। मुहौ = मुँह से। कि बोलणु = कौन सा वचन? जितु सुणि = जिस द्वारा सुनके। धरे = टिका दे, कर दे। जितु = जिस बोल द्वारा।
अर्थ: (अगर सारी दातें वह बख्श रहा है तो) हम कौन सी भेटा उस अकाल-पुरख के आगे रखें, जिस सदके हमें उसका दरबार दिख जाए? हम मुँह से कौन से वचन कहें कि (भाव, कैसी अरदास करें कि) जिसे सुन के वह हरि (हमें) प्यार करने लगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्रित वेला सचु नाउ वडिआई वीचारु ॥ करमी आवै कपड़ा नदरी मोखु दुआरु ॥ नानक एवै जाणीऐ सभु आपे सचिआरु ॥४॥
मूलम्
अम्रित वेला सचु नाउ वडिआई वीचारु ॥ करमी आवै कपड़ा नदरी मोखु दुआरु ॥ नानक एवै जाणीऐ सभु आपे सचिआरु ॥४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंम्रित = कैवल्य, निर्वाण, मोक्ष, पूर्ण खिलाव। अंम्रित वेला = अमृत की बेला, पूर्ण खिड़ाव का समय, वह समय जिस वक्त मानव मन आम तौर पे संसार के झमेलों से मुक्त होता है, सुबह, प्रभात। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। नाउ = ईश्वर का नाम। वडिआई विचारु = ईश्वर के बड़प्पन की विचार। करमी = प्रभु की मेहर/ करम से। करम = बख्शिश, मेहर।
दर्पण-टिप्पनी
जैसे;
• जेती सिरठि उपाई वेखा, विणु करमा कि मिले लई। (पउड़ी 9)
• नानक नदरी करमी दाति। (पउड़ी 14)
कपड़ा = पटोला, प्रेम पटोला, अपार भाउ-रूप पटोला, प्यार-रूप पटोला, महिमा का कपड़ा। जैसे:
“सिफति सरम का कपड़ा मागउ”।4।7। प्रभाती म: १।
नदरी = रब की मेहर से। मोक्ष = मुक्ति, ‘झूठ’ से खलासी। दुआरु = दरवाजा, रब का दर। एवै = इस तरह (इन कोशिशों व अकाल-पुरख की कृपादृष्टि होने से)।
नोट: लफ्ज़ ‘एवै’ प्रगट करता है कि इस पउड़ी की तीसरी और चौथी तुक मेंकिए गए प्रश्न का उत्तर अगली तीन तुकों में है: अगर अमृत वेले ईश्वर के बड़प्पन का विचार करें तो उसकी मेहर से सदा महिमा-रूप कपड़ा मिलता हैऔर वह प्रभु हर जगह दिखने लगता है।
दर्पण-भाषार्थ
जाणीऐ = जान लेते हैं, अनुभव कर लेते हैं। सभु = सब जगह। सचिआरु = अस्तित्व का घर, हस्ती की मालिक।4।
अर्थ: पूर्ण खिड़ाव का समय हो (भाव, प्रभात का समय हो), नाम (स्मरण करें) तथा उसके बड़प्पन का विचार करें। (इस तरह) प्रभु की मेहर से ‘सिफति’ रूप पटोला मिलता है, उसकी कृपा दृष्टि से ‘झूठ की दीवार’ से मुक्ति मिलती है तथा ईश्वर का दर प्राप्त हो जाता है। हे नानक! इस तरह ये समझ आ जाता है कि वह अस्तित्व का मालिक अकाल पुरख सर्व-व्यापक है।4।
दर्पण-भाव
भाव: दान-पुन्न करने या कोई धन-संपदा भेट करने से जीव की प्रभु से दूरी मिट नहीं सकती; क्योंकि ये दातें तो उस प्रभु की ही दी हुईं हैं। उस प्रभु से बातें उसकी अपनी बोली में ही हो सकती हैं, और वह बोली है ‘प्रेम’। जो मनुष्य प्रभात के समय उठ के उसकी याद में जुड़ता है, उसको ‘प्रेम पटोला’ मिलता है, जिसकी बरकत से उसे हर जगह प्रमात्मा ही दिखाई देने लगता है।4।
विश्वास-प्रस्तुतिः
थापिआ न जाइ कीता न होइ ॥ आपे आपि निरंजनु सोइ ॥
मूलम्
थापिआ न जाइ कीता न होइ ॥ आपे आपि निरंजनु सोइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थापिआ ना जाइ = बनाया नहीं जा सकता, स्थापित नहीं किया जा सकता।
दर्पण-टिप्पनी
संस्कृत धातु स्था का अर्थ है ‘खड़े होना’। इससे प्रेणार्थक धातु है ‘स्थापय’, जिसका अर्थ है खड़ा करना, नींव रखनी।
इस प्रेणार्थक धातु से ‘संज्ञा’ बनी है स्थापन, जिसका अर्थ है ‘पुंसवन संस्कार’। स्त्री के गर्भवती होने की जब पहिली निशानियां प्रगट होतीं हैं, तो हिंदू घरों में ये संस्कार किया जाता है ता कि पुत्र का जन्म हो।
स्थाप्य से पहले उद् लगाने से ये बन जाता है, उत्थाप्य, जिसका अर्थ उसके उलट है: उखाड़ना, नाश करना। जैसे कि:
आपे देखि दिखावै आपे। आपे थापि उथापे आपे। (म: १)
दर्पण-भाषार्थ
कीता न होइ = (हमारे) बनाए नहीं बनता। न होइ = अस्तित्व में नहीं आता। आपे आपि = स्वयं ही, भाव, ना उसे कोई पैदा करने वाला और ना ही कोई बनाने वाला है। सोइ निरंजनु = अंजन से रहित वो हरि। निरंजन = अंजन से रहित, माया से रहित, जो माया से नहीं बना, जिस में माया का अंश नहीं (निर+अंजन, निर = बिना। अंजन = सुर्मा, कालिख, विकारों की अंश, माया का प्रभाव नहीं है, वह जिस पर माया का प्रभाव नहीं है।)
अर्थ: वह अकाल पुरख माया के प्रभाव से परे है (क्योंकि) वह पूर्णत: स्वयं ही स्वयं है, ना वह पैदा किया जा सकता है, ना ही हमारे बनाए बनता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनि सेविआ तिनि पाइआ मानु ॥ नानक गावीऐ गुणी निधानु ॥
मूलम्
जिनि सेविआ तिनि पाइआ मानु ॥ नानक गावीऐ गुणी निधानु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनि = जिस मनुष्य ने। तिनि = उस मनुष्य ने। मानु = आदर, सत्कार। गुणी निधानु = गुणों के खजाने को। गावीऐ = महिमा करिए।
अर्थ: जिस मनुष्य ने उस अकाल पुरख का स्मरण किया है, उसने ही आदर सत्कार पा लिया है। हे नानक! (आओ) हम भी उस गुणों के खजाने हरि की महिमा करें।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावीऐ सुणीऐ मनि रखीऐ भाउ ॥ दुखु परहरि सुखु घरि लै जाइ ॥
मूलम्
गावीऐ सुणीऐ मनि रखीऐ भाउ ॥ दुखु परहरि सुखु घरि लै जाइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मनि = मन में। रखीऐ = टिकाएं। दुखु परहरि = दुख को दूर करके। घरि = हृदय में। लै जाइ = ले के जाता है, कमाई कर लेता है।
अर्थ: (आओ! अकाल पुरख के गुण) गाएं और सुनें और अपने मन में उसका प्रेम टिकाएं। (जो मनुष्य उसका आहर करता है, प्रयत्न करता है, वह) अपना दुख दूर करके सुख को हृदय में बसा लेता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरमुखि नादं गुरमुखि वेदं गुरमुखि रहिआ समाई ॥ गुरु ईसरु गुरु गोरखु बरमा गुरु पारबती माई ॥
मूलम्
गुरमुखि नादं गुरमुखि वेदं गुरमुखि रहिआ समाई ॥ गुरु ईसरु गुरु गोरखु बरमा गुरु पारबती माई ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की ओर मुंह करने से, जिस मनुष्य का मुंह गुरु की ओर है, गुरु के द्वारा। नादं = आवाज, शब्द, नाम, जिंदगी की रुमक। वेदं = ज्ञान। रहिआ समाई = समाया हुआ है, सर्व व्यापक है। ईसरु = शिव। बरमा = ब्रह्मा, पारबती माई = माँ पार्वती।
अर्थ: (पर उस ईश्वर का) नाम और ज्ञान गुरु के द्वारा (प्राप्त होता है)। गुरु के द्वारा ही (ये प्रतीति आती है कि) वह हरि सर्व-व्यापक है। गुरु ही (हमारे लिए) शिव है, गुरु ही (हमारे लिए) गोरख व ब्रह्मा हैऔर गुरु ही (हमारे लिए) पार्वती माँ है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे हउ जाणा आखा नाही कहणा कथनु न जाई ॥ गुरा इक देहि बुझाई ॥ सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥५॥
मूलम्
जे हउ जाणा आखा नाही कहणा कथनु न जाई ॥ गुरा इक देहि बुझाई ॥ सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: हउ = मैं। जाणा = समझ लूँ, अनुभव कर लूँ। आखा नाही = मैं उसका वर्णन नही कर सकता। कहणा…….जाई = कथन कहा नहीं जा सकता। गुरा = हे सत्गुरू! इक बुझाई = एक समझ। इकु दाता = दातें देने वाला एक अकाल पुरख। विसरि न जाई = भूल ना जाए।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: यहाँ शब्द ‘इक’ स्त्रीलिंग है और शब्द ‘बुझाई’ का विशेषण है। शब्द ‘इकु’ पुलिंग है और शब्द ‘दाता’ का विशेषण है। दोनों शब्दों के जोड़ों का फर्क याद रखना होगा।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: वैसे (इस अकाल पुरख के हुक्म को) अगर मैं समझ (भी) लूँ, (तो भी) उसका वर्णन नहीं कर सकता। (अकाल-पुरख के हुक्म का) कथन नहीं किया जा सकता। (मेरी तो) हे सत्गुरू! (तेरे आगे अरदास है कि) मुझे ये समझ दे कि जो सभी जीवों को दाता देने वाला एक रब हैमैं उसको भुला ना दूँ।5।
दर्पण-भाव
भाव: प्रेम को मन में बसा के जो मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है उसके हृदय में सदा सुख व शांति का निवास होता है। पर ये याद, ये बंदगी, गुरु के पास से ही मिलती है। गुरु ही ये दृढ़ करवाता है कि ईश्वर हर जगह में बस रहा है, गुरु के द्वारा ही जीव की प्रभु से दूरी दूर होती है। इसलिए गुरु के पास से ही बंदगी की दात मांगें।5।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथि नावा जे तिसु भावा विणु भाणे कि नाइ करी ॥ जेती सिरठि उपाई वेखा विणु करमा कि मिलै लई ॥
मूलम्
तीरथि नावा जे तिसु भावा विणु भाणे कि नाइ करी ॥ जेती सिरठि उपाई वेखा विणु करमा कि मिलै लई ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तीरथि = तीर्थ पे। नावा = मैं स्नान करूँ। तिसु = उस रब को। भावा = मैं अच्छा लगूँ। विणु भाणे = अगर रब की नजर में स्वीकार ना हुआ, ईश्वर को ठीक लगे बिना। कि नाइ करी = स्नान करके मैं करूँ? जेती = जितनी। सिरठी = सृष्टि, कुनिया। उपाई = पैदा की हुई। वेखा = मैं देखता हूँ। विणु करमा = प्रभु की मेहर के बिना।
दर्पण-टिप्पनी
जैसे: ‘विणु करमा किछु पाईअै नाही, जे बहु तेरा धावै’ (तिलंग महला १)
दर्पण-भाषार्थ
कि मिलै = क्या मिलता है? कुछ नहीं मिलता। कि लई = क्या कोई ले सकता है?
अर्थ: मैं तीर्तों पे जा के तब स्नान करूँ जो ऐसा करके उस प्रमात्मा को खुश कर सकूँ। पर, अगर इस तरह प्रमात्मा खुश नहीं होता तो मैं (तीर्तों पे) स्नान कर के क्या पा लूगाँ। ईश्वर की पैदा की हुई जितनी भी दुनिया मैं देखता हूँ (इसमें) प्रमात्मा की कृपा के बिना किसी को कुछ नहीं मिलता, कोई कुछ नहीं ले सकता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मति विचि रतन जवाहर माणिक जे इक गुर की सिख सुणी ॥
मूलम्
मति विचि रतन जवाहर माणिक जे इक गुर की सिख सुणी ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मति विचि = (मनुष्य की) बुद्धि में। माणिक = मोती। इक सिख = एक शिक्षा। सुणी = सुनी जाए, सुनें।
अर्थ: यदि सत्गुरू की एक शिक्षा सुन ली जाए, तो मनुष्य की बुद्धि के अंदर रतन, जवाहर और मोती (उपज पड़ते हैं, अर्थात, प्रमात्मा के गुण पैदा हो जाते हैं)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरा इक देहि बुझाई ॥ सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥६॥
मूलम्
गुरा इक देहि बुझाई ॥ सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥६॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (इसलिए) हे सत्गुरू! (मेरी तेरे आगे ये प्रार्थना है, अरदास है कि) मुझे एक ये समझ दे, जिससे मुझे वह अकाल पुरख ईश्वर ना विसर जाए, जो सभी जीवों को दातें देने वाला है।6।
दर्पण-भाव
भाव: तीर्तों के स्नान भी प्रभु की प्रसन्नता के प्यार की प्राप्ति का तरीका नहीं है। जिस पर मिहर हो वह गुरु के राह पे चल के प्रभु की याद में जुड़े। बस! उसी मनुष्य की मति में हिलौरे आते हैं।6।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे जुग चारे आरजा होर दसूणी होइ ॥ नवा खंडा विचि जाणीऐ नालि चलै सभु कोइ ॥
मूलम्
जे जुग चारे आरजा होर दसूणी होइ ॥ नवा खंडा विचि जाणीऐ नालि चलै सभु कोइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जुग चारे = चारों युगों जितनी। आरजा = उम्र। दसूणी = दस गुनी। नवा खंडा विचि = सारी सृष्टि में। जाणीऐ = जानी जाए, प्रगट हो जाए। सभ कोइ = हरेक मनुष्य। नालि चलै = साथ हो कर चले, हिमायती हो, पक्ष करता हो।
अर्थ: अगर किसी मनुष्य की उम्र चार युगों जितनी हो जाए, (सिर्फ इतनी ही नहीं, बल्कि) उससे भी दस गूनी और (उम्र) हो जाए, अगर वो सारे संसार में प्रगट हो जाए और हरेक मनुष्य पीछे हो ले।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंगा नाउ रखाइ कै जसु कीरति जगि लेइ ॥ जे तिसु नदरि न आवई त वात न पुछै के ॥ कीटा अंदरि कीटु करि दोसी दोसु धरे ॥
मूलम्
चंगा नाउ रखाइ कै जसु कीरति जगि लेइ ॥ जे तिसु नदरि न आवई त वात न पुछै के ॥ कीटा अंदरि कीटु करि दोसी दोसु धरे ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: चंगा…कै = खूब मशहूर हो के, खूब नाम कमा के। जसु = शोभा। कीरति = शोभा। जगि = जगत में। लेइ = ले, कमाए। तिसु = अकाल पुरख की। नदरि = कृपा दृष्टि में। न आवई = नहीं आ सकता। वात = खबर, सुर्त। न के = कोई मनुष्य नहीं। कीटु = कीड़ा। करि = कर के, बना के, ठहिर के। दोसु धरे = दोश लगाता है। कीटा अंदरि कीटु = कीड़ों में कीड़ा, मामूली सा कीड़ा।
अर्थ: अगर कोई खूब नाम कमा के सारे संसार में शोभा प्राप्त कर ले, पर लेकिन अकाल पुरख की मेहर की नजर में नहीं आ सका, तो वह ऐसा है जिसकी कोई बात भी नहीं पूछता। (अर्थात, इतना मान सत्कार होते हुए भी वह बेआसरा ही है)। (बल्कि ऐसा मनुष्य अकाल-पुरख के सामने) एक मामूली सा कीड़ा है। (“खसमै नदरी कीड़ा आवै।” आसा महला१) अकाल पुरख उासे दोषी करार दे के (उस पे नाम को भूलने का) दोष लगाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक निरगुणि गुणु करे गुणवंतिआ गुणु दे ॥ तेहा कोइ न सुझई जि तिसु गुणु कोइ करे ॥७॥
मूलम्
नानक निरगुणि गुणु करे गुणवंतिआ गुणु दे ॥ तेहा कोइ न सुझई जि तिसु गुणु कोइ करे ॥७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: निरगुणि = गुणहीन मनुष्य में। गुणवंतिया = गुणी मनुष्यों को। करे = पैदा करता है। दे = देता है। तेहा = इस तरह का। न सुझई = नहीं सूझता, नहीं मिलता। जि = जो। तिसु = उस निर्गुण को।
अर्थ: हे नानक! वह अकाल-पुरख गुणहीन मनुष्य में गुण पैदा कर देता है और गुणी जीवों को भी गुण वही बख्शता है। ऐसा कोई और नहीं दिखता जो निर्गुण जीवों को कोई गुण दे सकता हो। (प्रभु की मेहर की नजर ही उसको ऊँचा कर सकती है, लम्बी उम्र तथा जगत की शोभा सहायता नहीं करती)।7।
दर्पण-भाव
भाव: प्रणायाम की सहायता से लंबी उम्र बढ़ा के जगत में हलांकि मनुष्य का आदर-सत्कार बन जाए, पर अगर वह बंदगी के गुणों से रहित है तो प्रभु की मेहर का पात्र नहीं बना। प्रभु की नजरों में तो बल्कि वह नामहीन जीव एक छोटा सा कीड़ा ही है। ये बंदगी वाला गुण जीव को प्रमात्मा की मेहर से ही मिल सकता है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पौड़ी 8 से 11 तक चारों एक ही लड़ी में है। इनका सांझा शव ये है कि जिन्होंने प्रभु की याद में चित्त जोड़ा हुआ है, उनके मन सदैव आनन्दित रहते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणिऐ सिध पीर सुरि नाथ ॥ सुणिऐ धरति धवल आकास ॥ सुणिऐ दीप लोअ पाताल ॥ सुणिऐ पोहि न सकै कालु ॥ नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥८॥
मूलम्
सुणिऐ सिध पीर सुरि नाथ ॥ सुणिऐ धरति धवल आकास ॥ सुणिऐ दीप लोअ पाताल ॥ सुणिऐ पोहि न सकै कालु ॥ नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणिऐ = सुनने से, यदि नाम में तवज्जो जोड़ी जाए। सिध = वह योगी जिनकी मेहनत सफल हो चुकी है। सुरि = देवते। धवल = धरती का आसरा, बौलद। दीप = धरती के विभाजन के सात द्वीप। लोअ = लोक, भवन। पोहि न सकै = डरा नहीं सकता, अपना प्रभाव नहीं डाल सकता। विगासु = उमाह, खुशी, खिड़ाउ।
अर्थ: हे नानक! (अकाल-पुरख के नाम में ध्यान जोड़ने वाले) भक्तजनों के हृदय में सदा ही आनन्द बना रहता है, (क्योंकि) उसकी महिमा सुनने से (मनुष्य के) दुखों व पापों का नाश हो जाता है। ये नाम हृदय में टिकने का ही नतीजा है कि (साधारण मनुष्य भी) सिद्धों,पीरों, देवताओं व नाथों वाली पदवी प्राप्त कर लेते हैं और उन्हें ये समझ आ जाती है कि धरती-आकाश का आसरा वह प्रभु ही है, जो सारे द्वीपों, लोकों, पातालों में व्यापक है।8।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु महिमा में जुड़ के साधारण मानव भी उच्च आत्मिक अवस्था/पद को प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि प्रभु सारे खण्डों-ब्रह्मण्डों में व्यापक है, और धरती-आकाश का आसरा है। इस प्रकार हर जगह ईश्वर का दीदार होने से उनको मौत का डर भी नहीं सता सकता।8।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणिऐ ईसरु बरमा इंदु ॥ सुणिऐ मुखि सालाहण मंदु ॥ सुणिऐ जोग जुगति तनि भेद ॥ सुणिऐ सासत सिम्रिति वेद ॥ नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥९॥
मूलम्
सुणिऐ ईसरु बरमा इंदु ॥ सुणिऐ मुखि सालाहण मंदु ॥ सुणिऐ जोग जुगति तनि भेद ॥ सुणिऐ सासत सिम्रिति वेद ॥ नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥९॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईसरु = शिव। इंदु = इंद्र देवता। मुखि = मुंह से। सालाहण = महिमा, रब की स्तुति। मंदु = बुरा मनुष्य। जोग जुगति = योग की युक्ति, योग के साधन। तनि = शरीर के भीतर के। भेद = बातें।
अर्थ: हे नानक! (नाम के साथ प्रीत करने वाले) भक्त जनों के हृदय में सदैव प्रसन्नता बनी रहती है; (क्योंकि) ईश्वर की महिमा स्तुति सुन के (मनुष्य) के दुखों और पापों का नाश हो जाता है। अकाल पुरख के नाम के साथ ध्यान जोड़ने के सदका साधारण मनुष्य शिव,ब्रह्मा और इन्द्र की पदवी को प्राप्त कर लेता है, बुरा आदमी भी मुँह से ईश्वर की स्तुति करने लगता है, (साधारण बुद्धि वाले को भी) शरीर के भीतर की गहन सच्चाईयां, (भाव, आँख, कान, नाक, जीभ आदि इन्द्रियों के क्रिया कलापों व विकारों आदि की और की दौड़ भाग) के भेद का पता चल जाता है। प्रभु मेल की युक्ति की समझ पड़ जाती है, शास्त्रों स्मृतियों व वेदों की समझ पड़ जाती है। (भाव, धार्मिक पुस्तकों का असल ऊँचा निशाना तभी समझ आता है जब हम नाम में ध्यान जोड़ते हैं, नहीं तो निरे लफ्जों को ही पढ़ लेते हैं, उस असली जज़बे तक नहीं पहुँचते जिस अहिसास पे पहुँच के उन धार्मिक पुस्तकों का सृजन हुआ होता है)।9।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सुणिअै मुखि सालाहणु मंदु।
बहुत टीकाकार इस तुक का अर्थ इस प्रकार करते हैं:
‘सुनने के कारण बुरे मनुष्य भी मुँह से सालाहे जाते हैं’ या ‘सुनने के कारण बुरे लोग भी मुखी और प्रशंसनीय हो जाते हैं’। पर,
गुरबाणी व्याकरण अनुसार इस अर्थ के राह में बहुत रुकावटें हैं। शब्द ‘मंदु’ एकवचन है,इसका अर्थ है ‘बुरा मनुष्य’। शब्द ‘सालाहण’ क्रिया नहीं है। ‘सलाहे जाते हैं’ व्याकरण अनुसार वर्तमानकाल, अन्य-पुरुष, बहुवचन, क्रमवाच (Passive voice) है, पुरानी पंजाबी में इसके वास्ते शब्द ‘सालाहिअनि’ है, जैसे ‘पावहि’ (Active voice) कर्तरी वाच से ‘पाईअहि’ और ‘भवावहि’ से ‘भवाईअहि’ है, जैसे पउड़ी नं: २ में:
हुकमी उतमु नीचु, हुकमि लिखि दुख सुख ‘पाई्रअहि’॥
इकना हुकमी बखसीस, इकि हुकमी सदा ‘भवाईअहि’॥
‘सलाहते हैं’ करतरीवाच (Active voice) वर्तमान काल, अन्य-पुरुष, बहुवचन है। पुरानी पंजाबी में इसकी जगह ‘सालाहनि’ है। यह फर्क भी याद रखने वाला है, ‘ण’ नहीं है, ‘न’ है और इसके साथ मात्रा (ि) है, जैसे:
गुरमुखि सालाहनि से सादु पाइनि मीठा अंम्रितु सारु। (प्रभाती म: ३)
तुधु सालाहनि तिनु धनु पलै, नानक का धनु सोई। (प्रभाती म: १)
सालाहनि = सलाहते हैं, स्तुति करते हैं।
सो, इस विचारयोग तुक में शब्द ‘सालाहण’ का अर्थ ‘सलाहते हैं’ या ‘सलाहे जाते हैं’ नहीं किया जा सकता।
‘सालाहण’ संज्ञा पुलिंग बहुवचन है, इसका एक वचन ‘सालाहणु’ है और इसका अर्थ है ‘सिफ़ति’, जैसे:
सचु सालाहणु वडभागी पाईअै। (मारू म: ५)
सिफति सलाहणु छडि कै, करंगी लगा हंसु।2।16। (म: १ सूही की वार)
दर्पण-भाव
पउड़ी की भाव: ज्यों ज्यों एकाग्रता नाम में जुड़ती है जो मनुष्य पहले विकारी था, वह भी विकार छोड़ के महिमा करने वाला स्वभाव पका लेता है। इस तरह ये समझ आ जाता है कि गलत रास्ते की ओर जा रही ज्ञान-इंद्रिय कैसे प्रभु से दूरियां बढ़ाए जा रही हैं और इस दूरी को मिटाने का कौन सा तरीका है। नाम में ध्यान जोड़ने से ही धर्म-पुस्तकों का ज्ञान मानव मन में खुलता है।9।
[[0003]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणिऐ सतु संतोखु गिआनु ॥ सुणिऐ अठसठि का इसनानु ॥ सुणिऐ पड़ि पड़ि पावहि मानु ॥ सुणिऐ लागै सहजि धिआनु ॥ नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥१०॥
मूलम्
सुणिऐ सतु संतोखु गिआनु ॥ सुणिऐ अठसठि का इसनानु ॥ सुणिऐ पड़ि पड़ि पावहि मानु ॥ सुणिऐ लागै सहजि धिआनु ॥ नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥१०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सतु संतोख = दान और संतोख।
दर्पण-टिप्पनी
सतु: इस शब्द के तीन अलग अलग रूप मिलते हैं: ‘सति’, ‘सतु’ और ‘सत’। इनके अर्थ समझने के लिए नीचे दिए गए प्रमाणों को ध्यान से पढ़िए;
अ. सतु संतोखु होवै अरदासि। ता सुणि सदि बहालै पासि।1। (रामकली म: १)
आ. जतु सतु संजमु सचु सुचीतु। नानक जोगी त्रिभवन मीतु।8।2। (रामकली म: १)
इ. सतीआ मनि संतोखु उपजै, देणै कै वीचारि। (आसा की वार म: १, पउड़ी ६)
ई. गुर का सबदु करि दीपको, इह सत की सेज बिछाइ री।3।16।118। (आसा म: १)
उ. सती पहरी सतु भला, बहीअै पड़िआ पासि। (माझ की वार, श्लोक म: २ पउड़ी १८)
इन उपरोक्त प्रमाणों के पहले अंक ‘अ’ में शब्द ‘सतु’, शब्द ‘संतोखु’ के साथ इस्तेमाल किया गया है। अंक ‘आ’ में ‘सतु’ शब्द ‘जतु’ के साथ आया है। अंक ‘उ’ में ‘सतु’ (सती) संस्कृत का ‘सप्त’ है, जिसका अर्थ है ‘सात की गिनती’।
शब्द ‘सतु’ संस्कृत के ‘अस’ धातु से बना हुआ है, जिसका अर्थ र्ह ‘हाथ से छोड़ना’। सो, ‘सतु’ का अर्थ है ‘दान’। अंक ‘इ’ में आसा दी वार वाले प्रमाण से साफ हो जाता है, जहाँ ‘सतीआ’ के अर्थ ‘दानी मनुष्यों’ है। ‘सती देइ संतोखी खाइ’ आम प्रचलत तुक है, जिसमें ‘सतीआ’ के अर्थ हैं ‘दानी’। ‘दानी’ और ‘संतोखी’ का अपने आप में बहुत गहरा सम्बन्ध है। ‘दानी’ वही हो सकता है जो ‘संतोखी’ भी है, वर्ना जो खुद त्रिष्णा का मारा हुआ हो, वह अपने हाथ से किसी और को क्या दे सकता है? गुरु साहिव इन दोनों गुणों को बहुत जगहों पर इकट्ठा प्रयोग करते हैं। इस तरह, अंक ‘अ’ में ‘सतु’ का अर्थ है ‘दान’, दानी स्वभाव।
शब्द ‘सतु’ का दूसरा अर्थ है “साफ सुथरा आचरण, पतिव्रता धर्म, स्त्रीव्रत धर्म’। इन अर्तों में इस शब्द का संबन्ध शब्द ‘जतु’ के साथ मेल सही खाता है। यो, अंक ‘आ’ में ‘सतु’ का अर्थ है: ‘स्वच्छ आचरण’।
अंक ‘इ’ में ‘सतु’ का अर्थ है ‘दान’। अंक ‘ई’ में सतु का अर्थ है फिर ’स्वच्छ आचरण’ है।
शब्द ‘सति’ भी संस्कृत की ‘अस’ धतु से बना हुआ है, जिसका अर्थ है ‘होना’। इसो, ‘सति’ का अर्थ है ‘अस्तित्व वाला, सत्य’।
जपुजी साहिब में ‘सतु’ और ‘सति’ वाली निम्न-लिखित तुकें हैं:
‘सतिनामु’ (मूल मंतर में)
सुणिअै, सतु संतोखु गिआनु। (पउड़ी १०)
असंख सती असंख दातार। (पउड़ी १७)
सति सुहाणु सदा मनि चाउ। (पउड़ी २१)
गावनि जती सती संतोखी गावहि वीर करारे।२७।
दर्पण-भाषार्थ
अठसठि = अड़सठ तीर्थ। पड़ि पड़ि = विद्या पढ़ के। पावहि = पाते हैं। सहजि = सहज अवस्था में। सहज = (सह+ज, सह = साथ, ज = जन्मा) पैदा हुआ, वह स्वभाव जो शुद्ध-स्वरूप आत्मा के साथ जन्मा है, शुद्ध-स्वरूप आत्मा का अपना असली धर्म, माया के तीनों गुणों को पार करके ऊपर की अवस्था, तुरिया अवस्था, शांति, अडोलता। धिआनु = ध्यान, तवज्जो। गिआनु = सारे जगत को प्रभु पिता का एक परिवार समझने की सूझ, प्रमात्मा से जान-पहिचान।
अर्थ: हे नानक! (अकाल पुरख के नाम में ध्यान जोड़ने वाले) भक्तजनों के हृदय में सदैव आनन्द बना रहता है। (क्योंकि) अकाल पुरख की महिमा सुनने से (मनुष्य के) दुखों व पापों का नाश हो जाता है। रब के नाम से जुड़ने से (हृदय में) दान (देने का स्वभाव) संतोष व प्रकाश प्रकट होता है, मानों अड़सठ तीर्तों का स्नान (ही) हो जाता है (अर्थात, अड़सठ तीर्तों का स्नान नाम जपने में ही आ जाते हैं)। जो आदर (मनुष्य विद्या) पढ़ के प्राप्त करते हैं वह भक्त जनों को अकाल-पुरख के नाम में जुड़ के ही मिल जाता है। नाम सुनने के सदका अडोलता में चित्त की तवज्जो टिक जाती है।10।
दर्पण-भाव
भाव: नाम में ध्यान जोड़ने से ही मन विशाल होता है, जरूरतमंदों की सेवा और संतोष वाला जीवन बनता है। नाम में डुबकी ही अड़सठ तीर्तों का स्नान है। जगत के किसी भी आदर-सत्कार की परवाह नहीं रह जाती, मन सहज अवस्था में,अडोलता में, मगन रहता है।10।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणिऐ सरा गुणा के गाह ॥ सुणिऐ सेख पीर पातिसाह ॥ सुणिऐ अंधे पावहि राहु ॥ सुणिऐ हाथ होवै असगाहु ॥ नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥११॥
मूलम्
सुणिऐ सरा गुणा के गाह ॥ सुणिऐ सेख पीर पातिसाह ॥ सुणिऐ अंधे पावहि राहु ॥ सुणिऐ हाथ होवै असगाहु ॥ नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥११॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरा गुणा के = गुणों के सरोवरों के, बेअंत गुणों के। गाह = सूझ वाले, वाकफियत वाले। राहु = रास्ता। असगाहु = गहरा समुंदर, संसार।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘हाथ’ ‘हाथ’ स्त्रीलिंग है, इस वास्ते एकवचन में भी इसके आखिर में (ु) मात्रा नहीं है। इसका अर्थ है ‘गहराई तक समझ’। पर जबपुलिंग हो तब इसका अर्थ है आदमी का अंग ‘हाथ’। जैसे;
हाथु पसारि सकै को जन कउ, बोलि न सकै अंदाजा।१। (बिलावल कबीर जी)
बहुवचन ‘हाथ’ का रूप स्त्रीलिंग ‘हाथ’ वाला ही है, जैसे कि;
हाथ देइ राखे परमेसरि, सगला दुरतु मिटाइआ।1।7।16। (गूजरी महला ५)
दर्पण-भाषार्थ
हाथ होवै = हाथ हो जाती है, गहराई का पता चल जाता है, असलिअत समझ आ जाती है।11।
अर्थ: हे नानक! (अकाल पुरख के नाम में ध्यान जोड़ने वाले) भक्तजनों के हृदय में सदा प्रसन्नता बनी रहती है, (क्योंकि) अकाल-पुरख का नाम सुनने से (मनुष्य के) दुखों व पापों का नाश हो जाता है। अकाल-पुरख के नाम में ध्यान जोड़ने से (साधरण मनुष्य) बेअंत गुणों की सूझ वाले हो जाते हैं, शेख, पीर व बादशाह की पदवी पा लेते हैं। ये नाम सुनने की ही बरकत है कि अंधे और ज्ञानहीन मनुष्य भी (अकाल-पुरख को मिलने का) रास्ता ढूँढ लेते हैं। अकाल-पुरख के नाम में जुड़नेके सदके इस संसार समुन्द्र की हकीकत की समझ आ जाती है।11।
दर्पण-भाव
भाव: ज्यों ज्यों ध्यान नाम में जुड़ता है, मनुष्य रूहानी गुणों के समुंदर में डुबकी लगाता है। संसार अथाह समुंदर है, जहाँ ईश्वर से बिछड़ा हुआ जीव अंधों की तरह हाथ पैर मारता है। पर, नाम के साथ जुड़ा हुआ जीव जीवन की सही राह ढूंढ लेता है।11।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: नंबर 12 से 15 तक चार पउड़ियों का विषय वस्तु एक ही कड़ी में है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंने की गति कही न जाइ ॥ जे को कहै पिछै पछुताइ ॥ कागदि कलम न लिखणहारु ॥ मंने का बहि करनि वीचारु ॥ ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१२॥
मूलम्
मंने की गति कही न जाइ ॥ जे को कहै पिछै पछुताइ ॥ कागदि कलम न लिखणहारु ॥ मंने का बहि करनि वीचारु ॥ ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंने की = मानने वाले की, यकीन कर लेने वाले की, पतीजे हुए की। गति = हालत, अवस्था। कहै = बताए, बयान करे। मंने का वीचारु = श्रद्धा धारण करने वाले की महानता का विचार। बहि करन = बैठ के करते हैं। ऐसा = ऐसा, इतना ऊँचा। होइ = है। मंनि = श्रद्धा धारण करके, लगन लगा के। मंनि जाणै = श्रद्धा रख के देखो, मान के देखो। मनि = मन में। कागदि = कागज़ पे। कलम = कलम से।
अर्थ: उस मनुष्य की (ऊँची) आत्मिक अवस्था बयान नहीं की जा सकती, जिसने (अकाल-पुरख के नाम को) मान लिया है, (भाव, जिसकी लगन नाम में लग गई है)। यदि कोई मनुष्य वर्णन करे भी, तो वह पीछे पछताता है (कि मैंने होछा प्रयत्न किया है)। (मनुष्य) मिल के नाम में पतीजी हुई आत्मिक अवस्था का अंदाजा लगाते हैं, पर कागज पर कलम से कोई मनुष्य लिखने में समर्थ नहीं है। अकाल-पुरख का नाम बहुत (ऊँचा) है और माया के प्रभाव से परे है, (इसमें जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है, पर ये बात तभी समझ में आतीं है) जब कोई मनुष्य अपने अंदर लगन लगा के झाँके।12।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु माया के प्रभाव से बेअंत ऊँचा है। उसके नाम में ध्यान जोड़ जोड़ के जिस मनुष्य के मन में उसकी लगन लग जाती है, उसकी भी आत्मा माया की मार से ऊपर हो जाती है। जिस मनुष्य की प्रभु से लगन लग जाए, उसकी आत्मिक उच्चता को ना तो कोई बयान कर सकता है, ना ही कोई लिख सकता है।12।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंनै सुरति होवै मनि बुधि ॥ मंनै सगल भवण की सुधि ॥ मंनै मुहि चोटा ना खाइ ॥ मंनै जम कै साथि न जाइ ॥ ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१३॥
मूलम्
मंनै सुरति होवै मनि बुधि ॥ मंनै सगल भवण की सुधि ॥ मंनै मुहि चोटा ना खाइ ॥ मंनै जम कै साथि न जाइ ॥ ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मंनै = मानने से, यदि मान लें, अगर मन पतीज जाए, यदि प्रभु के नाम में लगन लग जाए। सुरति होवै = (ऊँची) सोच हो जाती है। मनि = मन में। बुधि = जागृति। सुधि = खबर, सोझी, सूझ। मुहि = मुँह पे। चोटा = चोटें। जम कै साथि = यमदूतों के साथ।13।
अर्थ: यदि मनुष्य के मन में प्रभु के नाम की लगन लग जाए, तो उसकी अक़्ल ऊँची हो जाती है, उसके मन में जागृति आ जाती है (भाव, माया में सोया मनुष्य जाग जाता है) सभी भवनों/लोकों की उसको समझ आ जाती है (कि हर जगह ईश्वर व्यापक है)। वह मनुष्य (संसार के विकारों की) चोटें मुँह पे नहीं खाता (अर्थात, सांसारिक विकार उस पर दबाव नहीं डाल सकते) और यमों से उसका वास्ता नहीं पड़ता (भाव, वह जन्म-मृत्यु के चक्कर में से बच जाता है)। अकाल-पुरख का नाम जो माया के प्रभाव से परे है इतना (ऊँचा) है (कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है, पर ये बात तभी समझ में आती है) जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लगन पैदा कर ले।13।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु चरणों की प्रीत मानव-मन को रौशन कर देती है, सारे संसार में उसको प्रमात्मा ही दिखता है। उसको विकारों की चोटें नहीं पड़तीं और ना ही उसको मौत डरा सकती है।13।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंनै मारगि ठाक न पाइ ॥ मंनै पति सिउ परगटु जाइ ॥ मंनै मगु न चलै पंथु ॥ मंनै धरम सेती सनबंधु ॥ ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१४॥
मूलम्
मंनै मारगि ठाक न पाइ ॥ मंनै पति सिउ परगटु जाइ ॥ मंनै मगु न चलै पंथु ॥ मंनै धरम सेती सनबंधु ॥ ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मारगि = मार्ग में, राह में। ठाक = रोक। ठाक न पाइ = रुकावट नहीं पड़ती। पति सिउ = इज्जत के साथ। परगटु = प्रसिद्ध हो के।
दर्पण-टिप्पनी
मगु पंथु:
(प्र:) शब्द ‘मगु’ व ‘पंथु’ के आखिर में (ु) की मात्रा क्यों है?
(उ:) साधरण नियम के अनुसार तो यहाँ (ि) की मात्रा ही चाहिए, पर संस्कृत में एक नियम आम प्रचलित था कि यदि ‘लंबे समय’ या ‘लंबे मार्ग’ की जिकर हो, तो अधिकर्ण कारक की जगह कर्मकारक इस्तेमाल होता था। वही नियम प्राकृत द्वारा थोड़ा बहुत पुरानी पंजाबी में भी इस्तेमाल हुआ है; जैसे:
गावनि तुध नो पंडित पढ़नि रखीसर, ‘जुगु जुगु’ वेदा नाले। (पउड़ी २०)
‘जुगु जुगु’ भगत उपाइआ, पैज रखदा आइआ राम राजे।
सवणि वरसु अंम्रिति ‘जगु’ छाइआ जीउ। (गउड़ी माझ म: ४)
बावै ‘मारगु’ टेढा चलणा। सीधा छोडि अपूठा बुनना।3।29। (गउड़ी गुआरेरीमहला ५)
मगु = मार्ग, रास्ता (संस्कृत ‘मार्ग’ से प्राकृत शब्द ‘मग’ बना है)। पंथ = रास्ता। गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में ये दोनों शब्द ‘मारग’ (जिसका प्राकृत रूप ‘मग’ है) और ‘पंथ’ एक ही अर्तों में इस्तेमाल हुए हैं; जैसे:
‘मारगि पंथ चले गुर सतिगुर संगि सिखा।’ (तुखारी छंत महला ४)
मुंध नैण भरेदी, गुण सारेदी, किउं प्रभ मिला पिआरे।
मारगु पंथु न जाणउ बिखड़ा, किउ पाईअै पिर पारे। (तुखारी महला १)
दर्पण-भाषार्थ
सेती = साथ। सनबंधु = साक, रिश्ता, मेल।
अर्थ: जिस मनुष्य का मन नाम में पतीज जाए तो जिंदगी के सफर में विकारों की कोई रोक नहीं पड़ती, वह (संसार से) शोभा कमा के इज्जत के साथ जाता है। उस मनुष्य का धर्म के साथ (सीधा) जोड़ बन जाता है, वह फिर (दुनिया के विभिन्न मजहबों के बताए) रास्तों पे नहीं चलता (भाव, उसके अंदर ये द्वंद नहीं रहता कि ये रास्ता ठीक है और ये गलत है)। अकाल पुरख का नाम जो माया के प्रभाव से परे है इतना (ऊंचा) है (कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है) पर ये बात तभी समझ में आती है) जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लगन पैदा कर ले।14।
दर्पण-भाव
भाव: याद की बरकत से ज्यों ज्यों मनुष्य का प्यार प्रमात्मा से बनता है, इस स्मरण रूप धर्म से उसका इतना गहरा संबंध बन जाता है कि कोई भी रुकावट उसे सही निशाने से विचलित नहीं कर सकती। और इधर-उधर की पगडंडियां उसे पथ-भ्रष्ट नहीं कर सकतीं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंनै पावहि मोखु दुआरु ॥ मंनै परवारै साधारु ॥ मंनै तरै तारे गुरु सिख ॥ मंनै नानक भवहि न भिख ॥ ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१५॥
मूलम्
मंनै पावहि मोखु दुआरु ॥ मंनै परवारै साधारु ॥ मंनै तरै तारे गुरु सिख ॥ मंनै नानक भवहि न भिख ॥ ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पावहि = प्राप्त कर लेते हैं, ढूंढ लेते हैं। मोखु दुआरु = मुक्ति का द्वार, ‘झूठ’ से मुक्ति पाने का राह। परवारै = परिवार को। साधारु = आधार सहित करता है, (अकाल-पुरख की) टेक दृढ़ कराता है। तरै गुरु = गुरु खुद तैरता है। सिख = सिखों को।
दर्पण-टिप्पनी
जपु जी में शब्द ‘सिख’ नीचे लिखीं तुकों में आया है:
मति विचि रतन जवाहर माणिक, जे इक गुर की सिख सुणी। (पउड़ी ६)
मंनै तरै तारे गुरु सिख। (पउड़ी १५)
पहली तुक में ‘सिख’ स्त्रीलिंग है। इसका विशेषण ‘इक’ भी स्त्रील्रिग है। इसलिए एकवचन होते हुए भी (ु) की मात्रा नहीं लगाई गई। (ु) की मात्रा सिर्फ पुलिंग के लिए लगती है। दूसरी तुक में ‘सिख’ पुल्रिग बहुवचन है।
दर्पण-भाषार्थ
तारे सिख = सिखों को तारता है। भवहि न = दर-ब-दर नहीं भटकते, जरूरतों की खातिर दर-दर नहीं रुलते फिरते, हरेक की मुथाजगी नहीं करते फिरते।
अर्थ: यदि मन में प्रभु के नाम की लगन लग जाए तो (मनुष्य) ‘झूठ’ से छुटकारा पाने का रास्ता ढूँढ लेता है। (ऐसा मनुष्य) अपने परिवार को भी (अकाल-पुरख की) टेक दृढ़ करवाता है। नाम में मन पतीजने से ही, सत्गुरू (भी स्वयं संसार सागर से) पार लांघ जाता है और सिखों को पार कर देता है। नाम में मन जुड़ने से ही, हे नानक! मनुष्य हरेक की मुथाजगी नहीं करते फिरते। अकाल-पुरख का नाम, जो माया के प्रभाव से परे है, इतना (ऊंचा) है (कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च जीवन वाला हो जाता है पर ये बात तभी समझ में आती है) जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लगन पैदा कर ले।15।
दर्पण-भाव
भाव: इस लगन की बरकत से वह सारे बंधन टूट जाते हैं जिन्होंने प्रभु से दूरी बना रखी थी। ऐसी लगन वाला आदमी केवल स्वयं ही नहीं बचता, अपने परिवार के जीवों को भी पिता परमेश्वर के साथ मिला लेता है। ये दात जिनको गुरु से मिलती है वो प्रभु दर से टूट के कहीं और नहीं भटकते।15।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पौड़ी 12 में शब्द दो जगह ‘मंने’ है, बाकी हर जगह ‘मंनै’ आया है। दोनों के अर्तों में फर्क है। नहिली तुक है;‘मंने की गति कही न जाइ’। इसी ही पउड़ी की चौथी तुक: ‘मंनै का बहि करनि वीचारु का जिक्र है। सो ‘मंने’ का भाव है, ‘माने हुए मनुष्य का’। बाकी सब जगह ‘मंनै’ है। जैसे पहिली चार पउड़ियों में ‘सुणिअै’ आया है। ‘सुणिअै’ का अर्थ है, ‘सुनने से, अगर सुन लें। तैसे ही ‘मंनै’ का अर्थ है ‘मान लेने से, अगर मन पतीज जाए’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंच परवाण पंच परधानु ॥ पंचे पावहि दरगहि मानु ॥ पंचे सोहहि दरि राजानु ॥ पंचा का गुरु एकु धिआनु ॥
मूलम्
पंच परवाण पंच परधानु ॥ पंचे पावहि दरगहि मानु ॥ पंचे सोहहि दरि राजानु ॥ पंचा का गुरु एकु धिआनु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पंच = वे मनुष्य जिन्होंने नाम संना है और माना है, वो मनुष्य जिनकी तवज्जो नाम में जुड़ी है और जिनके अंदर प्रतीत आ गई है।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये शब्द ‘पंच’ उनके लिए है जिनका जिकर पिछली 8 पउड़ियों में आया है।
दर्पण-भाषार्थ
परवाण = स्वीकार किया हुआ, स्वीकृत। परधान = ने, नायक। पंचे = पंच ही, संतजन ही। दरगह = अकाल-पुरख के दरबार में। मान = आदर, सम्मान। सोहहि = शोभनीय हैं, सुहाने लगते हैं। दरि = दर से, दरबार में। गुरु एकु = केवल गुरु ही। धिआनु = तवज्जो का निशाना।
अर्थ: जिस लोगों की तवज्जो नाम में जुड़ी रहती है और जिनके अंदर प्रभु के वास्ते लगन बन जाती है वही मनुष्य (यहां जगत में) मशहूर होते हैं और सभी के नायक होते हैं। अकाल-पुरख के दरबार में भी वही पंच जन मान सम्मान पाते हैं। राज-दरबारों में भी वह पंच जन ही शोभनीय हैं। इन पंच जनों की तवज्जो का निशाना केवल एक गुरु ही है (भाव, इनकी तवज्जो गुरु-शबद में ही रहती है, गुरु-शबद में जुड़े रहना ही इनका असल निशाना है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे को कहै करै वीचारु ॥ करते कै करणै नाही सुमारु ॥
मूलम्
जे को कहै करै वीचारु ॥ करते कै करणै नाही सुमारु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कहै = बयान करे, कथन करे। वीचारु = कुदरत केलेखे का चिंतन/ विचार। करते के करणै = कर्तार की कुदरत का। सुमारु = हिसाब।
अर्थ: (पर गुरु-शबद में जुड़े रहने का ये नतीजा नहीं निकल सकता कि कोई मनुष्य प्रभु की रची सृष्टि का अंत पा सके) अकाल-पुरख की कुदरत का कोई लेखा नहीं (भाव, अंत नहीं पाया जा सकता), चाहे कोई भी कहि के देखे या विचार कर ले (प्रमात्मा व उसकी कुदरत का अंत ढूँढना मनुष्य की जिंदगी का उद्देश्य हो ही नहीं सकता)।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: प्राचीन काल में बहुत से ऋषि-मुनि जंगलों में तप करते रहे, जिन्होंने उपनिशदें लिखीं। ये बहुत पुरानी धर्म पुस्तकें हैं। कईयों में ये विचार किया गया है कि जगत कब बना, क्यूँ बना, कैसे बना, कितना बड़ा है इत्यादिक। भक्ति करने गए ऋषि भक्ती की जगह एक ऐसे कार्य में लग गए जो मनुष्य की समझ से परे है। यहाँ सत्गुरू जी इस कमजोरी की तरफ इशारा करते हैं। ऐसे बेमतलब प्रयत्नों का ही ये फल था कि आम लोगों ने ये धारणा बना ली कि हमारी धरती को बैल नेउठाया हुआ है। ये मिसाल ले के गुरु जी इसका खण्डन करके कहते हैं कि कुदरत बेअंत है, तथा इसका रचनहार भी बेअंत है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धौलु धरमु दइआ का पूतु ॥ संतोखु थापि रखिआ जिनि सूति ॥ जे को बुझै होवै सचिआरु ॥ धवलै उपरि केता भारु ॥ धरती होरु परै होरु होरु ॥ तिस ते भारु तलै कवणु जोरु ॥
मूलम्
धौलु धरमु दइआ का पूतु ॥ संतोखु थापि रखिआ जिनि सूति ॥ जे को बुझै होवै सचिआरु ॥ धवलै उपरि केता भारु ॥ धरती होरु परै होरु होरु ॥ तिस ते भारु तलै कवणु जोरु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धौलु = बैल। दइआ का पूत = दया का पुत्र, धर्म दया से उत्पन्न होता है, भाव जिस हृदय में दया है वहाँ धर्म प्रफुल्लित होता है। संतोखु = संतोष को। थापि रखिआ = टिका के रखा, अस्तित्व में लाए हैं, पैदा किया है। जिनि = जिस (धर्म) ने। धर्म = अकाल-पुरख का नियम। सूति = सूत्र में, मर्यादा में। बुझै = समझ ले। सचिआरु = सत्य का प्रकाश होने योग्य। केता भारु = बेअंत वजन। धरती होरु = धरती के नीचे और बैल। परै = उससे भी नीचे। तिस ते = उस बैल पे। तलै = उस बैल के नीचे। कवणु जोरु = कौन सा सहारा।
अर्थ: (अकाल-पुरख का) धर्म रूपी अटल नियम ही बैल है (जो सृष्टि को कायम रख रहा है)। (ये धरम) दया का पुत्र है (भाव, अकाल-पुरख ने अपनी मेहर करके सृष्टि को टिकाए रखने के लिए ‘धरम’ रूप नियम बना दिया है)। इस धरम ने अपनी मर्यादा अनुसार संतोष को जन्म दिया है। यदि कोई मनुष्य (ऊपर दिए हुए विचारों को) समझ ले तो वह इस योग्य हो जाता है कि उसके अंदर अकाल-पुरख का प्रकाश हो जाए। (वरना, सोच के तो देखो कि) बैल पे धरती का कितना बेअंत भार है (वह बेचारा इतने भार को कैसे उठा सकता है?), (दूसरी बात ये भी है कि अगर धरती के नीचे बैल है, उस बैल को सहारा देने के लिए नीचे और धरती हुई, उस) धरती के और बैल, उसके नीचे (धरती के नीचे) और बैल, फिर और बैल, (इसी तरह आखिरी) बैल के भार का सहारा बनने के लिए और कौन सा आसरा होगा?
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीअ जाति रंगा के नाव ॥ सभना लिखिआ वुड़ी कलाम ॥ एहु लेखा लिखि जाणै कोइ ॥ लेखा लिखिआ केता होइ ॥ केता ताणु सुआलिहु रूपु ॥ केती दाति जाणै कौणु कूतु ॥ कीता पसाउ एको कवाउ ॥ तिस ते होए लख दरीआउ ॥
मूलम्
जीअ जाति रंगा के नाव ॥ सभना लिखिआ वुड़ी कलाम ॥ एहु लेखा लिखि जाणै कोइ ॥ लेखा लिखिआ केता होइ ॥ केता ताणु सुआलिहु रूपु ॥ केती दाति जाणै कौणु कूतु ॥ कीता पसाउ एको कवाउ ॥ तिस ते होए लख दरीआउ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जीअ = जीव जन्तु। के नाव = कई नामों के। वुड़ी = बहती, चलती। कलाम = कलम। वुड़ी कलाम = चलती कलम से, भाव, कलम को रोके बिना इक तार। लिखि जाणे = लिखना जानता है, लिखने की समझ है। कोइ = कोई एक आध। लेखा लिखिआ = लिखा हुआ लेखा, अगर ये लेखा लिखा जाए। केता होइ = कितना बड़ा हो जाए, बेअंत हो जाए। पसाउ = पसारा, संसार। कवाउ = वचन, हुक्म। तिस ते = उस हुक्म से। होए = बन गए। लख दरीआउ = लाखों दरिया लाखों नदीयां। सुआलिहु = सुंदर। कूतु = नाप, अंदाजा।
अर्थ: (सृष्टि में) कई जातियों के, कई किस्मों के और कई नामों के जीव हैं। इन सब का एक तार चलती कलम से (अकाल-पुरख की कुदरत का) लेखा लिखा गया है। (पर) कोई विरला मनुष्य ही ये लेखा लिखना जानता है। (भाव, परमात्मा की कुदरत का अंत कोई भी जीव नहीं पा सकता)। (यदि) लेखा लिख (भी लिया जाए, तो ये अंदाजा नहीं लग सकता कि लेखा) कितना बड़ा हो जाए। अकाल-पुरख का बेअंत बल है, बेअंत सुंदर रूप है, बेअंत उसकी दात है; इसका कौन अंदाजा लगा सकता है? (अकाल-पुरख ने) अपने हुक्म के अनुसार ही सारा संसार बना दिया, उसके हुक्म से ही (जिंदगी के) लाखों दरिया बन गए।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥ जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१६॥
मूलम्
कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥ जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कुदरति = ताकत, स्मर्था। कवण = कौन सी। कुदरति कवण = कौन सी स्मर्था? कहा = मैं कहूँ। कहा वीचारु = मैं विचार कर सकूँ। वारिआ न जावा = सदके नहीं जा सकता (भाव, मेरी क्या बिसात है/ स्मर्था है)। साई कार = वही काम। सलामति = स्थिर, अटल। निरंकार = हे हरि!
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘कुदरति’ शब्द स्त्ररलिंग है। सो, ये ‘कुदरति’ का विशेषण है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (सो) मेरी क्या ताकत है कि (करते की कुदरत की) विचार कर सकूँ? (हे अकाल-पुरख!) मैं तो आप पर एक बार भी सदके होने के काबिल नहीं हूँ (अर्थात मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है)। हे निरंकार! तू सदा अटल रहने वाला है जो आपको अच्छा लगता है वही काम भला है (भाव तेरी रज़ा में रहना ही ठीक है)।16।
दर्पण-भाव
भाव: किस्मत वाले हैं वह मनुष्य जिन्होंने गुरु के बतलाए रास्ते को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया है, जिन्होंने नाम में तवज्जो जोड़ी है और जिन्होंने परमात्मा के साथ प्यार का रिश्ता बांधा है। इस राह पे चल के प्रभु की रजा में रहना ही उन्हें भाता है। ये नाम स्मरण रूप ‘धर्म’ उनकी जिंदगी का सहारा बनता है, जिस करके वे संतोषी जीवन व्यतीत करते हैं।
पर गुरु के बताए हुए रास्ते पे चलने का नतीजा ये नहीं निकल सकता कि कोई मनुष्य प्रभु की रची हुई सृष्टि का अंत पा सके। इधर तो ज्यों ज्यों ज्यादा गहराई में जाओगे, त्यों त्यों ये सृष्टि और भी बेअंत लगेगी। दरअसल, ऐसे बेमतलब प्रयत्नों का ही ये फल था कि आम लोगों ने ये धारणा बना ली कि हमारी धरती को बैल ने उठाया हुआ है। प्रमात्मा और उसकी कुदरत का अंत ढूंढना मनुष्य की जिंदगी का लक्ष्य बन ही नहीं सकता।16।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंख जप असंख भाउ ॥ असंख पूजा असंख तप ताउ ॥
मूलम्
असंख जप असंख भाउ ॥ असंख पूजा असंख तप ताउ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: असंख = अनगिनत, बेअंत (जीव)। भाउ’ = प्यार। तप ताउ = तपों का तपना।
अर्थ: (अकाल-पुरख की रचना में) अनगिनत जीव तप करते हैं, बेअंत जीव (औरों के साथ) प्यार (का बरताव) कर रहे हैं। कई जीव पूजा कर रहे हैं। और अनगिनत जीव तप साधना कर रहे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंख गरंथ मुखि वेद पाठ ॥ असंख जोग मनि रहहि उदास ॥
मूलम्
असंख गरंथ मुखि वेद पाठ ॥ असंख जोग मनि रहहि उदास ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुखि = मुंह से। गरंथ वेद पाठ = वेदों व और धार्मिक पुस्तकों के पाठ। जोग = योग साधना करने वाले। मनि = मन में। उदास रहहि = उपराम रहते हैं।
अर्थ: बेअंत जीव वेदों व और धार्मिक पुस्तकोंके पाठ मुंह से कर रहे हैंयोग साधना करने वाले बेअंत मनुष्य अपने मन में (माया की ओर से) उपराम रहते हैं।
[[0004]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंख भगत गुण गिआन वीचार ॥ असंख सती असंख दातार ॥
मूलम्
असंख भगत गुण गिआन वीचार ॥ असंख सती असंख दातार ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गुण विचारु = अकाल-पुरख के गुणों का ख्याल। गिआन वीचारु = (अकाल-पुरख के) ज्ञान का विचार। सती = सत धर्म वाले मनुष्य। दातार = दातें देने वाले, बख्शिश करने वाले।
अर्थ: (अकाल-पुरख की कुदरत में) अनगिनत भक्त हैं, जो अकाल-पुरख के गुणों और ज्ञान की विचार कर रहे है, अनेक ही दानी व दाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंख सूर मुह भख सार ॥ असंख मोनि लिव लाइ तार ॥
मूलम्
असंख सूर मुह भख सार ॥ असंख मोनि लिव लाइ तार ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सूर = सूरमे, वीर, योद्धे। मुह = मुंहों पे। भखसार = सार भक्षण वाले,शास्त्रों के वार सहिने वाले। मोनि = चुप रहने वाले। लिव लाइ तार = लगन की तार लगा के, निरंतर चिंतन, एक रस तवज्जो जोड़ के।
अर्थ: (अकाल-पुरख की रचना में) बेअंत शूरवीर हैं जो अपने मुँह पे (भाव, सनमुख हो के) शास्त्रों के वार सहन करते हैं, अनेक मौनी हैं, जो निरंतर बिर्ती जोड़ के बैठे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥ जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१७॥
मूलम्
कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥ जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१७॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: मेरी क्या ताकत है कि मैं करते की कुदरत की विचार कर सकूँ? (हे अकाल-पुरख!) मैं तो आप पर एक बार भी सदके होने के लायक नहीं हूँ (भाव मेंरी हस्ती बहुत तुच्छ है)। हे निरंकार! तू सदा अटल रहने वाला है, जो तुझे ठीक लगता है वही काम भला है (भाव, तेरी रजा में रहना ही ठीक है)।17।
दर्पण-टिप्पनी
प्रभु की सारी कुदरत का अंत ढूंढना तो कहीं रहा, जगत में जो तुम उसके बंदों की ही गिनती करने लगो जो जप, तप, पूजा, धार्मिक पुस्तकों का पाठ, योग, समाधि आदिक काम करते चले आ रहे हैं, तो ये लेखा ही ना खत्म होने योग्य है।17।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंख मूरख अंध घोर ॥ असंख चोर हरामखोर ॥ असंख अमर करि जाहि जोर ॥
मूलम्
असंख मूरख अंध घोर ॥ असंख चोर हरामखोर ॥ असंख अमर करि जाहि जोर ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मूरख अंध घोर = महामूर्ख, पहले दर्जे का मूर्ख। हरामखोर = पराया माल खाने वाले। अमर = हुक्म। जोर = धक्के से, जबरदस्ती। करि जाहि = कर के (अंत में इस संसार से) चले जाते हैं
अर्थ: (निरंकार की रची हुई सृष्टि में) अनेक ही महामूर्ख हैं, अनेको ही चोर हैं, जो पराया माल (चुरा चुरा के) इस्तेमाल कर रहे हैं और अनेक ही ऐसे मनुष्य भी हैं जो (दूसरों पे) हुक्म चला के ज़ोर जबरदस्ती कर करके (अंत में इस संसार से) चले जाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंख गलवढ हतिआ कमाहि ॥ असंख पापी पापु करि जाहि ॥
मूलम्
असंख गलवढ हतिआ कमाहि ॥ असंख पापी पापु करि जाहि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: गलवढ = गला काटने वाले, कातिल, खूनी। हतिआ कमाहि = दूसरों का गला काटते हैं। पापु करि जाहि = पाप कमा के अंत को संसार से चले जाते हैं।
अर्थ: अनेक ही खूनी मनुष्य लोगों का गला काट रहे हैं और अनेक ही पापी मनुष्य पाप कमा के (आखिर) इस दुनिया से चले जाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंख कूड़िआर कूड़े फिराहि ॥ असंख मलेछ मलु भखि खाहि ॥
मूलम्
असंख कूड़िआर कूड़े फिराहि ॥ असंख मलेछ मलु भखि खाहि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कूड़िआर = वह मनुष्य जिनके हृदय में झूठ के ठिकाने बने हुए हैं, झूठे स्वभाव वाले। कूड़े = झूठ में ही। फिराहि = फिरते हैं, परविर्त हैं, मशगूल हैं। मलेछ = मलीन बुद्धि वाले, खोटी मति वाले मनुष्य। खाहि = खाते हैं। भखि खाहि = भूखों की तरह बेसब्री से खाना। (‘भख’ और ‘खाहि’ दोनों ही संस्कृत की धातु हैं, दोनों का अर्थ है ‘खाना’। तीसरी पउड़ी में भी एक ऐसी ही ‘खाही खाहि’ क्रिया आ चुकी है)।
अर्थ: अनेकां ही झूठ बोलने वाले स्वभावके मनुष्य झूठ में ही लिप्त रहते हैं और अनेक ही खोटी बुद्धि वाले मनुष्य मल (अभक्ष) ही खाए जा रहे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंख निंदक सिरि करहि भारु ॥ नानकु नीचु कहै वीचारु ॥
मूलम्
असंख निंदक सिरि करहि भारु ॥ नानकु नीचु कहै वीचारु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिरि = अपने सिर ऊपर। सिरि करहि भारु = अपने सिर पे भार उठाते हैं।
दर्पण-टिप्पनी
नानक नीचु: इस तुक में शब्द ‘नानक’ कर्ताकारक हैऔर पुलिंग है। शब्द ‘नीचु’ विशेषण है और पुलिंग है। वैसे भी शब्द ‘नानक’ के साथ इस्तेमाल किया गया है। इस तरह ‘नीचु’ शब्द ‘नानक’ का विशेषण है। सत्गुरू जी स्वयं को ‘नीच’ कहते हैं, ये गरीबी भाव और भी बहुत जगह आया है; जैसे:
• मै कीता न जाता हरामखोर। हउ किआ मुहु देसा दुसटु चोरु।
• नानकु नीचु कहै बीचारु। धाणक रूपि रहा करतार।4।29। (सिरी राग महला१)
• जुग जुग साचा है भी होसी। कउणु न मूआ कउणु न मरसी।
• नानकु नीचु कहै बेनंती, दरि देखहु लिव लाई हे।16।2। (सिरीराग महला १, सोहले)
• कथनी करउ न आवै ओरु। गुरु पूछ देखिआ नाही दरु होरु।
• दुख सुखु भाणे तिसै रजाइ। नानकु नीचु कहै लिव लाइ।8।4। (गउड़ी महला १)
दर्पण-भाषार्थ
नानकु नीचु = नीच नानक, नानक विचारा, गरीब नानक।
अर्थ: अनेक ही निंदक (निंदा कर के) अपने सिर ऊपर (निंदा का) भार उठा रहे हैं। (हे निरंकार!) अनेक और जीव कई और कुकर्मों में फसे होंगे, मेरी क्या ताकत है कि तेरी कुदरत का पूरा विचार कर सकूँ? नानक विचारा (तो) ये (उपरोक्त तुच्छ सी) विचार पेश करता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वारिआ न जावा एक वार ॥ जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१८॥
मूलम्
वारिआ न जावा एक वार ॥ जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१८॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) मैं तो आप पर एक बार भी सदके होने के लायक नहीं हूँ (भाव, मैं तेरी बेअंत कुदरत का पूरा विचार करने के लायक नहीं हूँ)। हे निरंकार! तू सदा अटल रहने वाला है, जो तुझे ठीक लगता है वही काम भला है (भाव, तेरी रजा में रहना ही ठीक है; तेरी स्तुति करते रहें हम जीवों के लिए यही भली बात है कि तेरी रज़ा में रहें)।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु की सारी कुदरत का अंत ढूंढना तो कहां रहा, जगत में जो तुम सिर्फ चोर, लुटेरे, ठग, निंदक आदि बंदों का ही हिसाब लगाने लगो तो इनका भी कोई अंत नहीं। जब से जगत बना है, बेअंत जीव विकारों में ग्रसे चले आ रहे हैं।18।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंख नाव असंख थाव ॥ अगम अगम असंख लोअ ॥ असंख कहहि सिरि भारु होइ ॥
मूलम्
असंख नाव असंख थाव ॥ अगम अगम असंख लोअ ॥ असंख कहहि सिरि भारु होइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नाव = (कुदरत के अनेक जीवों और बेअंत पदार्तों के) नाम। अगंम = जिस तक (किसी की) पहुँच ना हो सके। लोअ = लोक, भवण। असंख लोअ = अनेक ही भवण। कहहि = कहते हैं (जो मनुष्य)। सिरि = उनके सिर पे। होइ = होता है।
अर्थ: (कुदरत के अनेक जीवों व अन्य बेअंत पदार्तों के) असंखों ही नाम हैं। असंखों ही (उनके) स्थान-ठिकाने हैं। (कुदरत में) असंखों ही भवण हैं जिस तक मनुष्य की पहुँच नहीं हो सकती। (पर, यदि मनुष्य कुदरत का लेखा करने के वास्ते शब्द) असंख (भी) कहते हैं, (उनके) सिर पे भार ही होता है (भाव, वो भी भूल करते हैं, ‘असंख’ शब्द भी प्रयाप्त नहीं है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अखरी नामु अखरी सालाह ॥ अखरी गिआनु गीत गुण गाह ॥ अखरी लिखणु बोलणु बाणि ॥ अखरा सिरि संजोगु वखाणि ॥ जिनि एहि लिखे तिसु सिरि नाहि ॥ जिव फुरमाए तिव तिव पाहि ॥
मूलम्
अखरी नामु अखरी सालाह ॥ अखरी गिआनु गीत गुण गाह ॥ अखरी लिखणु बोलणु बाणि ॥ अखरा सिरि संजोगु वखाणि ॥ जिनि एहि लिखे तिसु सिरि नाहि ॥ जिव फुरमाए तिव तिव पाहि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अखरी = अक्षरों के द्वारा। सालाह = सिफति, स्तुति। गुण गाह = गुणों के गाहने वाले, गुणों के ग्राहक, गुणों के वाकफ़। बाणि लिखणु = वाणी का लिखना। बाणि = वाणी, बोली। बाणि बोलणु = वाणी (बोली) का बोलना। अखरा सिरि = अक्षरों के द्वारा ही। संजोगु = भाग्यों का लेख। वखाणि = बयान किया जा सकता है, बताया जा सकता है। जिनि = जिस अकाल-पुरख ने। एहि = संजोग के ये अक्षर। तिसु सिरि = उस अकाल-पुरख के माथे पे। नाहि = (कोई लेख) नहीं हैं। जिव = जिस तरह। फ़रमाए = अकाल-पुरख हुक्म करता है। तिव तिव = उसी तरह। पाहि = (जीव) पा लेते हैं, भोगते हैं।
अर्थ: (हलांकि, अकाल-पुरख की कुदरत का लेखा करने के लिए शब्द ‘असंख’ तो कहां रहा, कोई भी शब्द काफी नहीं है, पर) अकाल-पुरख का नाम भी अक्षरों द्वारा ही (लिया जा सकता है), उसकी स्तुति भी अक्षरों द्वारा ही की जा सकती है। अकाल-पुरख का ज्ञान भी अक्षरों द्वारा ही (विचारा जा सकता है)। अक्षरों के द्वारा ही असके गीत और गुणों से वाकिफ हो सकते हैं। बोली का लिखना और बोलना भी अक्षरों के द्वारा ही संभव है। (इस लिए शब्द ‘असंख’ इस्तेमाल किया गया है, वैसे) जिस अकाल-पुरख ने (जीवों के संजोग के) ये अक्षर लिखे हैं, उसके स्वयं के सिर पर कोई लेख नहीं है (भाव, कोई मनुष्य उस अकाल-पुरख का लेखा नहीं कर सकता)। जैसे जैसे वह अकाल-पुरख हुक्म करता है वैसे ही (जीव अपने संजोग) भोगते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेता कीता तेता नाउ ॥ विणु नावै नाही को थाउ ॥
मूलम्
जेता कीता तेता नाउ ॥ विणु नावै नाही को थाउ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेता = जितना। कीता = पैदा किया हुआ संसार। जेता कीता = यह सारा संसार जो अकाल-पुरख ने पैदा किया है। तेता = वह सारा, उतना ही। नाउ = नाम, रूप, सरूप।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अंग्रेजी में दो शब्द हैं: Substance और property. इसी तरह संस्कृत में हैं ‘नाम’ तथा ‘गुण’ या ‘मूर्ति’ तथा ‘गुण’। सो, ‘नाम’ (सरूप) Substance है तथा गुण Property है। जब किसी जीव का या किसी पदार्थ का ‘नाम’ रखते हैं, इसका भाव ये होता है कि उसका स्वरूप (शकल) नीयत करते हैं। जब भी वो नाम लेते हैं, वह हस्ती आँखों के आगे आ जाती है। विणु नावै = ‘नाम’ से बिना, नाम से विहीन।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: ये सारा संसार, जो अकाल-पुरख ने बनाया है, ये उसका स्वरूप है (‘इह विसु संसारु तुम देखदे, इहु हरि का रूपु है, हरि रूपु नदरी आइआ’)। कोई भी जगह अकाल-पुरख के स्वरूप से खाली नहीं है, (भाव, जो भी जगह या पदार्थ देखें वही अकाल-पुरख का स्वरूप दिखाई देता है, सृष्टि का जर्रा-जर्रा ईश्वर का ही स्वरूप है)।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: उस पउड़ी में आरम्भ में ही वर्णन है कादर की इस कुदरत में अनेक ही जीव-जंतु, अनेक ही जातियों के, रंगों के और अनेक ही नामों वाले हैं। इतने हैं कि इनकी गिनती के लिए शब्द ‘असंख’ का इस्तेमाल भी भूल है। पर जितनी भी यह रचना है, ये सारी अकाल-पुरख का स्वरूप है, कोई भी जगह ऐसी नहीं जहाँ अकाल-पुरख का स्वरूप नहीं। जिधर भी देखें, अकाल-पुरख का अस्तित्व ही आँखों के सामने नजर आता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥ जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१९॥
मूलम्
कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥ जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१९॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: मेरी क्या ताकत है कि मैं कुदरत का विचार कर सकूँ? (हे अकाल-पुरख!) मैं तो तेरे ऊपर एक बार भी सदके होने के लायक नहीं हूँ। (भाव, मेरी हस्ती तो बहुत तुच्छ है)। हे निरंकार! तू सदैव स्थिर रहने वाला है, जो तुझे ठीक लगता है वही काम भला है, (भाव, तेरी रज़ा में रहना ही हम जीवों के लाभदायक है)।19।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ‘कुदरति कवण’ शब्द ‘वीचारु’ पुलिंग है। अगर शब्द ‘कवण’ इसका विशेषण होता, तो ये भी पुलिंग होता और इसका रूप ‘कवणु’ हो जाता। ‘कुदरति’ स्त्रीलिंग है। सो शब्द ‘कवण’ कुदरति’ का विशेषण है। इस शब्द ‘कवण’ के पुलिंग व स्त्रीलिंग रूप को समझने के लिए देखिए पउड़ी नंबर २१:
कवण सु वेला, वखतु कवणु, कवण थिति, कवण वारु॥
कवणि सि रुती, माहु कवणु, जितु होआ आकारु॥21।
पउड़ी नंबर 16,17 और 19 में ‘कुदरति कवण कहा वीचारु’ तुक आई है। पर पउड़ी नं: 18 में इस तुक की जगह तुक ‘नानकु नीचु कहै वीचारु’ इस्तेमाल की गई है। इन दोनों को आमने-सामने रख के विचार करें, तो भी यही अर्थ निकलते हैं कि ‘मेरी क्या ताकत है? मैं विचारा नानक क्या विचार कर सकता हूँ? ’
शब्द ‘कुदरति’ ‘समरथा’ के अर्थ में श्री गुरु ग्रंथ साहिब में और जगह भी आया है, जैसे कि:
• जे तू मीर महापति साहिबु, कुदरति कउण हमारी।
चारे कुंट सलामु करहिगे, घरि घरि सिफति तुमारी।7।1।8। (बसंत हिण्डोलु महला१)
• जिउ बोलावहि तिउ बोलहि सुआमी, कुदरति कवन हमारी।
साध संगि नानक जसु गाइओ, जो प्रभ की अति पिआरी।8।1।8। (गूजरी महला ५)
दर्पण-भाव
भाव: भला, कितनी धरतियों और कितने जीवों की प्रभु ने रचना की है? मनुष्यों की किसी भी बोली में भी कोई ऐसा शब्द नहीं है जो ये लेखा कर सके।
बोली भी ईश्वर की ओर से एक दात मिली है, पर ये मिली है महिमा करने के लिए। ये संभव नहीं है कि उसके द्वारा मनुष्य प्रभु का अंत पा जाए। देखिए! बेअंत है उसकी कुदरत और इस में जिधर भी देखें वह स्वयं ही स्वयं मौजूद है। कौन अंदाज़ा लगा सकता है कि वह कितना बड़ा है और उसकी कितनी बड़ी रचना है?।19।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरीऐ हथु पैरु तनु देह ॥ पाणी धोतै उतरसु खेह ॥
मूलम्
भरीऐ हथु पैरु तनु देह ॥ पाणी धोतै उतरसु खेह ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरीऐ = अगर भर जाए, यदि गंदा हो जाए, अगर मैला हो जाए। तनु = शरीर। देह = शरीर। पाणी धोते = पानी से धोने से। उतरसु = उतर जाती है। खेह = मिट्टी, धूल, मैल।
अर्थ: अगर हाथ या पैर या शरीर मैला हो जाए, तो पानी से धोने से वह मैल उतर जाती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूत पलीती कपड़ु होइ ॥ दे साबूणु लईऐ ओहु धोइ ॥
मूलम्
मूत पलीती कपड़ु होइ ॥ दे साबूणु लईऐ ओहु धोइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पलीती = गंदे। मूत पलीती = मूत्र से गंदे हुए। कपड़ = कपड़ा। दे साबूणु = साबुन लगा के। लईऐ = लगाते हैं। ओह = वह गंदा हुआ कपड़ा। लईऐ धोइ = धो लेते हैं।
अर्थ: अगर (कोई) कपड़ा मूत्र से गंदा हो जाए, तो साबुन लगा के उसको धो लेते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरीऐ मति पापा कै संगि ॥ ओहु धोपै नावै कै रंगि ॥
मूलम्
भरीऐ मति पापा कै संगि ॥ ओहु धोपै नावै कै रंगि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भरीऐ = अगर भर जाए, यदि मलीन हो जाए। मति = बुद्धि। पापा कै संगि = पापों से। ओह = वह पाप। धोपै = धुलता है, धोया जा सकता है। रंगि = प्यार से। नावै कै रंगि = अकाल-पुरख के नाम के प्रेम से।
अर्थ: (पर) यदि (मनुष्य की) बुद्धि पापों से मलीन हो जाए, तो वह पाप अकाल-पुरख के नाम में प्यार करने से ही धोया जा सकता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंनी पापी आखणु नाहि ॥ करि करि करणा लिखि लै जाहु ॥ आपे बीजि आपे ही खाहु ॥ नानक हुकमी आवहु जाहु ॥२०॥
मूलम्
पुंनी पापी आखणु नाहि ॥ करि करि करणा लिखि लै जाहु ॥ आपे बीजि आपे ही खाहु ॥ नानक हुकमी आवहु जाहु ॥२०॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आखणु = नाम, वचन। नाहि = नहीं है। करि करि करणा = (अपने-अपने) कर्म करके, जैसे जैसे कर्म करोगे। लिखि = लिख के (वैसा ही लेख) लिख के, (वैसे ही संस्कारों के) लेख, (उसी तरह के संस्कार) अपने मन में अंकुरित करके। लै जाहु = (अपने साथ) ले जाओगे, अपने मन में परो लोगे। आपे = स्वयं ही। बीजि = बीज के। हुकमी = अकाल-पुरख के हुक्म में। आवहु जाहु = आओगे जाओगे, जन्म मरण में पड़े रहोगे।
अर्थ: हे नानक! ‘पुनी’ या ‘पापी’ निरे नाम नहीं हैं (भाव, निरे कहने की बातें नहीं है, सच-मुच ही) जिस तरह के कर्म तू करेगा वैसे ही संस्कार अपने अंदर अंकुरित करके साथ ले कर अंकुरित करके ले कर जाएगा। जो कुछ तू खुद बीजेगा, उसका फल स्वयं ही खाएगा। (अपने बीजे मुताबिक) अकाल पुरख के हुक्म में जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहेगा।20।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘आखणु’ को ध्यान से विचारना जरूरी है। जपु जी साहिब में ये शब्द नीचे लिखीं तुकों में आया है;
पुंनी पापी आखणु नाहि। (पउड़ी 20)
नानक आखणि सभ को आखै, इक दू इकु सिआणा। (पउड़ी 21)
जे को खाइकु आखणि पाहि। (पउड़ी 25)
केते आखहि आखणि पाहि। (पउड़ी 26)
आखणि जोरु चुपै नहि जोरु। (पउड़ी 33)
इस शब्द ‘आखणु’ के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कुछ और प्रमाण नीचे दिए जा रहे हैं;
आखणु आखि न रजिआ, सुनणि न रजे कंन।2।19। (माझ की वार)
आखणि आखहि केतड़े, गुर बिनु बूझन होइ।3।13 (माझ की वार)
उपरोक्त प्रमाणों से ये स्पष्ट हो जाता है कि ‘आखणु’ संज्ञा है और ‘आखणि’ क्रियाहै। संज्ञा ‘आखणु’ का अर्थ है: नाम, कहना, मुंह- जैसे प्रमाण नं: 1और 6 में। प्रमाण नं: 2,3,4,5 और 7 में ‘आखणि’ क्रिया है।
नोट: पहिली पउड़ी में एक तुक आई है, ‘हुकमि रजाई चलणा, नानक लिखिआ नालि’। दूसरी पौड़ी में जिक्र आया है, ‘हुकमी उतमु नीचु हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि’। अब इस पौड़ी में ऊपर की तुकों वाला ख्याल बिल्कुल स्पष्ट किया गया है। सारी सृष्टि अकाल-पुरख के खास नियमों में चल रही है। इन नियमों का नाम सत्गुरू जी ने ‘हुक्म’ रखा है। वह नियम ये हैं कि मनुष्य जिस तरह के कर्म करता है, वैसा ही फल प्राप्त करता है। उसके अपने धुर अंदर वैसे ही अच्छे-बुरे संस्कार बन जाते हैं और उन्हीं के अनुसार जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। या, अकाल-पुरख की रजा में चल के अपना जनम सवार लेता है।
दर्पण-भाव
भाव: माया के प्रभाव के कारण मनुष्य विकारों में पड़ जाता है, और इसकी मति मैली हो जाती है। ये मैल इसको शुद्ध-स्वरूप प्रमात्मा से विछोड़ के रखती है, और जीव दुखी रहता है। नाम नाम जपना ही एकमात्र उपाय है जिससे मन की यह मैल धुल सकती है (सो, स्मरण तो विकारों की मैल धो के मन को प्रभु के साथ मेल करवाने के लिए है, प्रभु और उसकी रचना का अंत पाने के लिए जीव को समर्थ नहीं बना सकता)।20।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीरथु तपु दइआ दतु दानु ॥ जे को पावै तिल का मानु ॥
मूलम्
तीरथु तपु दइआ दतु दानु ॥ जे को पावै तिल का मानु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जे को पावै = यदि कोई मनुष्य प्राप्त करे, अगर किसी मनुष्य को मिल भी जाए, तो। तिल का = तिल मात्र, रति मात्र। मानु = आदर, बड़प्पन। दतु = दिया हुआ।
अर्थ: तीर्तों, यात्राएं, तपों की साधना, (जीवों पे) दया करनी, दिया हुआ दान- (इन कर्मों के बदले) अगर किसी मनुष्य को कोई आदर-सत्कार मिल भी जाए, तो वह नाम मात्र ही है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुणिआ मंनिआ मनि कीता भाउ ॥ अंतरगति तीरथि मलि नाउ ॥
मूलम्
सुणिआ मंनिआ मनि कीता भाउ ॥ अंतरगति तीरथि मलि नाउ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुणिआ = (जिस मनुष्य ने) अकाल पुरख का नाम सुन लिया है। मंनिआ = (जिसका मन उस नाम को सुन के) मान गया है, पतीज गया है। मनि = मन में। भाउ कीता = (जिसने) प्रेम किया है। अंतरगति = अंदर की। तीरथि = तीर्थ पे। अंतरगति तीरथि = अंदर के तीर्थ में। मलि = मलमल के अच्छी तरह। नाउ = स्नान (किया है)।
अर्थ: (पर जिस मनुष्य ने अकाल-पुरख के नाम में) तवज्जो जोड़ी है, (जिस का मन नाम में) पतीज गया है, (और जिसने अपने मन) में (अकाल-पुरख का) प्यार पैदा किया है, उस मनुष्य ने (मानों) अपने भीतर के तीर्थ में मलमल के स्नान कर लिया है (भाव, उस मनुष्य ने अपने अंदर बस रहे अकाल-पुरख में जुड़ के अच्छी तरह अपने मन की मैल उतार ली है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभि गुण तेरे मै नाही कोइ ॥ विणु गुण कीते भगति न होइ ॥ सुअसति आथि बाणी बरमाउ ॥ सति सुहाणु सदा मनि चाउ ॥
मूलम्
सभि गुण तेरे मै नाही कोइ ॥ विणु गुण कीते भगति न होइ ॥ सुअसति आथि बाणी बरमाउ ॥ सति सुहाणु सदा मनि चाउ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सभि = सारे। मै नाही कोइ = मैं कोई नहीं हूँ, मेरा अपना कोई (गुण) नहीं है। विणु गुणु कीते = गुण पैदा किये बिना, अगर तू गुण पैदा ना करे, अगर तू अपने गुण मेरे में पैदा ना करे। न होइ = नहीं हो सकती। सुअसति = जै हो तेरी, तू सदा अटल रहे (भाव, मैं तेरा ही आसरा लेता हूँ)। बरमाउ = ब्रह्मा। सति = सदा स्थिर। सुहाणु = सुंदर, सोहना, सुबहान। मनि चाउ = मन में चाव/खिड़ाव।
अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) अगर तू (स्वयं खुद) गुण (मेरे में) पैदा ना करें तो मुझसे तेरी भक्ति नहीं हो सकती। मेरी कोई बिसात नहीं है (कि मैं तेरे गुण गा सकूँ)। ये सब तेरी ही महानता है। (हे निरंकार!) तेरी सदा जै हो! तू स्वयं ही माया है। तू स्वयं ही वाणी है, तू सवयं ही ब्रह्मा है। (भाव, इस सृष्टि को बनाने वाली माया, वाणी या ब्रह्मा तुझसे अलग हस्ती वाले नहीं हैं, जो लोगों ने माने हुए हैं), तू सदा स्थिर हैं, सुंदर है, तेरा मन हमेशा प्रसन्नता से भरा हुआ है (तू ही जगत को रचने वाला है, तुम्ही को पता है कि इसे तुमने कब बनाया)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कवणु सु वेला वखतु कवणु कवण थिति कवणु वारु ॥ कवणि सि रुती माहु कवणु जितु होआ आकारु ॥
मूलम्
कवणु सु वेला वखतु कवणु कवण थिति कवणु वारु ॥ कवणि सि रुती माहु कवणु जितु होआ आकारु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेला = समय। वखतु = समय, वेला।
दर्पण-टिप्पनी
वार: शब्द ‘वार’ दो रूपों में इस्तेमाल किया गया है: ‘वार’ और ‘वारु’। ‘वार’ स्त्रीलिंग है, जिसका अर्थ है ‘बारी’। ‘वारु’ पुलिंग है, जिसका अर्थ है ‘दिन’।
• जपुजी साहिब में ये शब्द नीचे दी गई तुकों में आया है;
• सोचै सोचि न होवई, जे सोची लख वार।१।
• वारिआ न जावा एक वार।१६।
• जो किछु पाइआ सु एका वार।३१।
• कवणु सु वेला, वखतु कवणु थिति, कवणु वारु।२१।
• राती रुती थिती वार।३४।
प्रमाण नं: 1,2 और 3 में ‘वार’ स्त्रीलिंग है। नंबर 4 में ‘वारु’ पुलिंग एकवचन है और नं: 5 में ‘वार’ पुलिंग बहुवचन है।
जब ये शब्द (ि) मात्रा के साथ आता है, तो ‘क्रिया’ होता है, जैसे: ‘वारि वारउ अनिक डारिउ, सुख प्रिअ सुहाग पलक राति।१। रहाउ।३।४२। (कानड़ा म: ५)।
यहां वारि’ का अर्थ है ‘सदके करना’।
दर्पण-भाषार्थ
थिति वार = चंद्रमां की चाल से थितियां/तिथियां गिनी जाती हैं, जैसे = एकम, दूज, तीज आदिक और सूर्य से दिन रात व वार, सोम मंगल आदिक। कवणि सि रुती = कौन सी वह ऋतुएं हैं। माह = महीना। कवणु = कौन सा। जितु = जिस में, जिस समय। होआ = अस्तित्व में आया, पैदा हुआ, बना। आकारु = ये दिखने वाला संसार।
अर्थ: वह कौन सा वक्त व समय था, कौन सी तिथि थी, कौन सा दिन था, कौन सी ऋतुऐं थीं और वह कौन सा महीना था, जब ये संसार बना था?
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेल न पाईआ पंडती जि होवै लेखु पुराणु ॥ वखतु न पाइओ कादीआ जि लिखनि लेखु कुराणु ॥
मूलम्
वेल न पाईआ पंडती जि होवै लेखु पुराणु ॥ वखतु न पाइओ कादीआ जि लिखनि लेखु कुराणु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वेल = समय। पाइआ = पाई, ढूँढी। वेल न पाईआ = समय ना मिला।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘वेला’ पुलिंग है और ‘वेल’ स्त्रीलिंग है)।
दर्पण-भाषार्थ
पंडती = पण्डितों ने। जि = नहीं तो। होवै = होता, बना होता। लेखु = मज़मून। लेखु पुराणु = पुराणु रूप लेख, इस लेख वाला पुराण (भाव, जैसे और कई पुराण बने हैं, इस लेख का भी एक पुराण बना होता)। वखतु = समय, जब जगत बना। न पाइओ = नहीं मिला। कादीआं = काजियों ने। जि = नहीं तो। लिखनि = (काज़ी) लिख देते। लेखु कुराणु = कुरान जैसा लेख (भाव, जैसे काज़ियों ने मुहम्मद साहिब की उच्चारित आयतें एकत्र करके कुरान लिख दी थीं, वैसे ही वे संसार के बनने का समय का लेख भी लिख देते)।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: अरबी के अक्षर ज़ुआद, ज़ुइ और ज़े का उच्चारण अक्षर ‘द’ से होता है। शब्द ‘कागज़’ का ‘कागद’, ‘नज़र’ का ‘नदरि’ और ‘हज़ूर’ का ‘हदूरि’ उच्चारण है। इसी तरह ‘काज़ी’ का ‘कादी’ उच्चारण भी है।
नोट: इस पौड़ी में इस्तेमाल हुए शब्द ‘वखतु’, ‘पाइओ’ और ‘कादीआ’ के अर्तों को तोड़-मरोड़ के कादियानी मुसलमानों द्वारा अंजान सिखों को गुमराह किया जा रहा है कि यहाँ गुरु नानक देव जी ने पेशीन-गोई करके सिखों को हिदायत की हुई है कि नगर कादियां में प्रगट होने वाले पैग़ंबर को तुम लोग कोई वख्त (मुसीबत) ना डालना।
हमने यहां किसी बहस में नहीं पड़ना और किसी को गुमराह भी नहीं करना। शब्दों की बनावट और अर्तों की ओर ही ध्यान दिलाना है। शब्द ‘कादीआं’ पद्अर्थ में समझाया जा चुका है। लफ्ज़ ‘वखतु’, अरबी का लफ्ज़ ‘वकत’ (वक्त) है। हिंदुओं का ज़िकर करते हुए हिंदका लफ्ज़ ‘वेला’ (बेला) उपयोग किया है। मुसलमानों के ज़िकर में मुसलमानी लफ्ज़ ‘वकत’ का पंजाबी ‘वखतु’ इस्तेमाल हुआ है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में जहां कहीं भी ये लफ्ज़ आया है, इसका अर्थ सदा समय ही है। जैसे;
‘जे वेला वखतु वीचारीऐ, तां कितु वेलै भगति होइ।’
‘इकना वखत खुआईअहि, इकना पूजा जाइ।’
शब्द ‘पाइओ’ हुकमी भविष्यत काल नहीं है, जैसे कि कादियानी कहते हैं। ये शब्द भूतकाल में है। इस किस्म का भूतकाल गुरबाणी में अनेक जगहों पर आया है, जैसे;
आपीनै आपु ‘साजिओ’, आपीनै ‘रचिओ’ ‘नाउं’।
बिनु सतिगुर किनै न ‘पाइओ’, बिनु सतिगुर किनै न पाइआ।
हुकमी भविष्यत का रूप है ‘सदिअहु’, ‘करिअहु’ (रामकली ‘सदु’)। पाठक लफ्जों के जोड़ों का खास ख्याल रखें। ‘पाइओ’ भूतकाल है, इसका हुकमी भविष्यत ‘पाइअहु’ (उच्चारण: पायहु) हो सकता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (कब ये संसार बना?) उस समय का पण्डितों को भी पता ना लगा, नहीं तो (इस मसले पे भी) एक पुराण लिखा होता। उस समय के काज़ियों को भी ख़बर ना लगी वर्ना वे भी लिख देते जैसे उन्होंने (आयतें इकट्ठी करके) कुरान (लिखी थी)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
थिति वारु ना जोगी जाणै रुति माहु ना कोई ॥ जा करता सिरठी कउ साजे आपे जाणै सोई ॥
मूलम्
थिति वारु ना जोगी जाणै रुति माहु ना कोई ॥ जा करता सिरठी कउ साजे आपे जाणै सोई ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जा करता = जो कर्तार। सिरठी कउ = जगत को। साजै = पैदा करता है, बनाता है। आपे सोई = वह खुद ही।
अर्थ: (जब जगत बना था तब) कौन सी तिथि थी, (कौन सा) दिन वार था, ये बात कोई जोगी भी नहीं जानता। कोई मनुष्य नहीं (बता सकता) कि तब कौन सी ऋतु थी और कौन सा महीना था। जो निर्माता इस जगत को पैदा करता है, वह स्वयं ही जानता है (कि जगत कब रचा)।
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विश्वास-प्रस्तुतिः
किव करि आखा किव सालाही किउ वरनी किव जाणा ॥ नानक आखणि सभु को आखै इक दू इकु सिआ णा ॥
मूलम्
किव करि आखा किव सालाही किउ वरनी किव जाणा ॥ नानक आखणि सभु को आखै इक दू इकु सिआ णा ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: किव करि = किस तरह, क्यूँ कर। आखा = मैं कहूँ, मैं बयान करूँ, मैं कह सकूँ। सालाही = मैं सालाहूँ, मैं अकाल-पुरख की स्तुति करूँ। किउ = किस तरह, क्यूँ कर। वरनी = मैं वर्णन करूँ। सभ को = हरेक जीव। आखणि आखै = कहने को तो कहता है, कहने का यत्न करता है। इक दू इकु सिआणा = एक दूसरे से ज्यादा समझदार बन बन के, एक जना अपने आपको दूसरे से ज्यादा समझदार समझ के। दू = से।
अर्थ: मैं किस तरह (अकाल-पुरख की वडियाई) बताऊँ, किस तरह अकाल-पुरख की महिमा करूँ, किस तरह (अकाल-पुरख की बड़ाई) का वर्णन करूँ और किस तरह उसे समझ सकूँ? हे नानक! हरेक जीव अपने आप को दूसरे से ज्यादा समझदार समझ के (अकाल-पुरख की वडियाई) बताने का प्रयत्न करता है (पर बता नहीं सकता)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडा साहिबु वडी नाई कीता जा का होवै ॥ नानक जे को आपौ जाणै अगै गइआ न सोहै ॥२१॥
मूलम्
वडा साहिबु वडी नाई कीता जा का होवै ॥ नानक जे को आपौ जाणै अगै गइआ न सोहै ॥२१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: साहिबु = मालिक, अकाल-पुरख। नाई = बड़ाई। जा का = जिस (अकाल-पुरख) का। कीता जा का होवै = जिस हरि का किया ही सब कुछ होता है। जे को = यदि कोई मनुष्य। आपौ = अपने आप को, अपनी अक्ल के बल पे, स्वयं ही। न सोहै = शोभा नहीं पाता, आदर नहीं मिलता। अगै गइआ = अकाल-पुरख के दर पर जा के।
अर्थ: अकाल-पुरख (सबसे) बड़ा है, उसकी बड़ाई ऊँची है। जो कुछ जगत में हो रहा है, उसीका किया ही हो रहा है। हे नानक! यदि कोई मनुष्य अपनी अक्ल के आसरे (प्रभु की वडियाई का अंत पाने का) प्रयत्न करे, वह अकाल-पुरख के दर पर जा के आदर मान नहीं पाता।21।
दर्पण-भाव
भाव: जिस मनुष्य ने ‘नाम’ में चित्त जोड़ा है, जिसको नाम जपने की लगन लग गई है, जिसके मन में प्रभु का प्यार उपजा है, उसकी आत्मा शुद्ध पवित्र हो जाती है। पर ये भक्ति उसकी मेहर से ही प्राप्त होती है।
और बंदगी का ये नतीजा नहीं निकलता कि मनुष्य ये बता सके कि जगत कब बना। ना पण्डित, ना काज़ी, ना योगी, कोई भी ये भेत नहीं पा सके। परमात्मा बेअंत बड़ा है। उसका बड़प्पन (वडियाई) भी बेअंत है, उसकी रचना भी बेअंत है।21।
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाताला पाताल लख आगासा आगास ॥ ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहनि इक वात ॥
मूलम्
पाताला पाताल लख आगासा आगास ॥ ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहनि इक वात ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पाताला पाताल = पातालों के नीचे और पाताल हैं। आगासा आगास = आकाशों के ऊपर और आकाश हैं। ओड़क = आख़ीर, अंत, आखिरी छोर पे। भालि थके = ढूँढढूँढ के थक गए हैं। कहनि = कहते हैं। इक वात = एक बात, एक ज़बान हो के।
अर्थ: (सारे) वेद एक जुबान हो के कहते हैं, “पातालों के नीचे और भी लाखों पाताल हैं और आकाशों के ऊपर और भी लाखों आकाश हैं (बेअंत ऋषी मुनी) जगत के आखिरी छोर को ढूँढढूँढ के थक गए हैं (पर ढूँढ नहीं सके)”।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इकु धातु ॥ लेखा होइ त लिखीऐ लेखै होइ विणासु ॥
मूलम्
सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इकु धातु ॥ लेखा होइ त लिखीऐ लेखै होइ विणासु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सहस अठारह = अठारह हजार (आलम)। कहनि कतेबा = कतेबें कहती हैं। कतेबा = इसाई मत व इस्लाम आदि की चार किताबें: कुरान, अंजील, तौरेत व जंबूर। असुलू = शुरू।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ये अरबी बोली का शब्द है। अक्षर ‘स’ की मात्रा (ु) अरबी के अक्षर ‘सुआद’ बताने के लिए है।
दर्पण-भाषार्थ
इक धातु = एक अकाल-पुरख, एक पैदा करने वाला। लेखा होइ = अगर लेखा हो सके। लिखीऐ = लिख सकते हैं। लेखै विणासु = लेखे का खात्मा, लिखे का अंत।
अर्थ: (मुसलमान व इसाई धर्म की चारों) कतेबें कहती हैं, “कुल अठारह हजार आलम हैं, जिनका आरंभ एक अकाल-पुरख है। (पर सच्ची बात तो ये है कि शब्द) ‘हजारों’ और ‘लाखों’ भी कुदरत की गिनती में इस्तेमाल नहीं किए ना सकते (अकाल-पुरख की कुदरत का) लेखा तभी लिखा जा सकता है जो लेखा संभव हो (ये लेखा तो हो ही नहीं सकता, लेखा करते करते) लेखे का ही खात्मा हो जाता है (गिनती के हिंदसे ही खत्म हो जाते हैं)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक वडा आखीऐ आपे जाणै आपु ॥२२॥
मूलम्
नानक वडा आखीऐ आपे जाणै आपु ॥२२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आखीऐ = कहते हैं (जिस अकाल-पुरख को)। आपे = वह अकाल-पुरख खुद ही। जाणै = जानता है। आपु = अपने आपको।
अर्थ: हे नानक! जिस अकाल-पुरख को (सारे जगत में) बड़ा कहा जा रहा है, वह स्वयं ही अपने आप को जानता है (वह अपनी वडियाई स्वयं ही जानता है।22।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु की कुदरत को बयान करते हुए ‘हजारों’ व ‘लाखों’ के हिंदसे भी इस्तेमाल नहीं किये जा सकते। इतनी बेअंत कुदरत है कि इसका लेखा करने के समय गिनती के हिंदसे ही समाप्त हो जाते हैं।22।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सालाही सालाहि एती सुरति न पाईआ ॥ नदीआ अतै वाह पवहि समुंदि न जाणीअहि ॥
मूलम्
सालाही सालाहि एती सुरति न पाईआ ॥ नदीआ अतै वाह पवहि समुंदि न जाणीअहि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सालाही = सालाहुण-जोग परमात्मा। सालाहि = महिमा कर के। एती सुरति = इतनी समझ (कि अकाल-पुरख कितना बड़ा है)। न पाईआ = किसी ने नहीं पाई। अतै = और, तथा। वाह = वहिण, नाले। पवहि = पड़ते हैं। समुंदि = समुन्द्र में। न जाणीअहि = नहीं जाने जाते, वह नदियां और नाले (जो फिर अलग) पहचाने नहीं जा सकते, (बीच में ही लीन हो जाते हैं, और समुंदर की थाह नहीं पा सकते)।
अर्थ: सालाहने योग्य अकाल-पुरख की महानताओं का वर्णन कर करके किसी भी मनुष्य ने इतनी समझ नहीं पाई कि वो अंत पा सके कि अकाल-पुरख कितना बड़ा है (महिमा करने वाले मनुष्य उस अकाल-पुरख में ही लीन हो जाते हैं)। (जैसे) नदियां और नाले समुंदर में जा मिलते हैं (और फिर उनका अलग अस्तित्व नहीं रहता) और वह पहचाने नहीं जा सकते (बीच में ही लीन हो जाते हैं, और समुंदर की थाह नहीं पा सकते)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुंद साह सुलतान गिरहा सेती मालु धनु ॥ कीड़ी तुलि न होवनी जे तिसु मनहु न वीसरहि ॥२३॥
मूलम्
समुंद साह सुलतान गिरहा सेती मालु धनु ॥ कीड़ी तुलि न होवनी जे तिसु मनहु न वीसरहि ॥२३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समुंद साह सुलतान = समुंद्रों के बादशाहों के सुल्तान। गिरहा सेती = पहाड़ों जितने। तुलि = बराबर। न होवई = नहीं होते। तिसु मनहु = उस कीड़ी के मन में से। जे न वासरहि = यदि तूँ ना बिसर जाए (हे हरि!)।
अर्थ: समुंद्रों के बादशाहों के सुल्तान (जिनके खजानों में) पहाड़ जितने धन-पदार्तों के (ढेर हों) (प्रभु की महिमा करने वाले की नजरों में) एक कीड़ी के भी बराबर नहीं होते, यदि (हे अकाल-पुरख!) उस कीड़ी के मन में से तू ना बिसर जाए।23।
दर्पण-भाव
भाव: सो, बंदगी करने से प्रभु का अंत नहीं पाया जा सकता। पर इसका ये भाव नहीं कि प्रमात्मा की महिमा करने का कोई लाभ नहीं है। प्रभु की भक्ति की बरकत से मनुष्य शाहों-बादशाहों की भी परवाह नहीं करता, प्रभु के नाम के सामने उसे बेअंत धन भी तुच्छ प्रतीत होता है।23।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतु न सिफती कहणि न अंतु ॥ अंतु न करणै देणि न अंतु ॥ अंतु न वेखणि सुणणि न अंतु ॥ अंतु न जापै किआ मनि मंतु ॥
मूलम्
अंतु न सिफती कहणि न अंतु ॥ अंतु न करणै देणि न अंतु ॥ अंतु न वेखणि सुणणि न अंतु ॥ अंतु न जापै किआ मनि मंतु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सिफती = सिफतों का, स्तुति का। कहणि = कहने से, बताने से। करणै = बनाई हुई कुदरत का। देणि = देने में, दातें देने में। वेखणि, सुणणि = देखने और सुनने से। न जापै = नहीं दिखता, नहीं प्रतीत होता। मनि = (अकाल-पुरख के) मन में। मंतु = सलाह।
अर्थ: (अकाल-पुरख के) गुणों की कोई हद-बंदी, सीमा नहीं है, गिनने से भी (गुणों का) अंत नहीं पाया जा सकता। (गिने नहीं जा सकते)। अकाल-पुरख की रचना और दातों का अंत नहीं पाया जा सकता। देखने और सुनने से भी उसके गुणों का पार नहीं पा सकते। उस अकाल-पुरख के मन में क्या सलाह हैइस बात का अंत भी नहीं पाया जा सकता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतु न जापै कीता आकारु ॥ अंतु न जापै पारावारु ॥
मूलम्
अंतु न जापै कीता आकारु ॥ अंतु न जापै पारावारु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कीता = बनाया हुआ। आकारु = ये जगत जो दिखाई दे रहा है। पारावारु = इसपार व उसपार का छोर।
अर्थ: अकाल-पुरख ने यह जगत (जो दिखाई दे रहा है) बनाया है, पर इस का आखीर, इसके इसपार-उसपार का छोर दिखाई नहीं देता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंत कारणि केते बिललाहि ॥ ता के अंत न पाए जाहि ॥
मूलम्
अंत कारणि केते बिललाहि ॥ ता के अंत न पाए जाहि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अंत कारणि = हदबंदी ढूँढने के लिए। केते = कई मनुष्य। बिललाहि = बिलकते हैं, तरले लेते हैं। ता के अंत = उस अकाल-पुरख का अंत/ की सीमा। न पाऐ जाहि = ढूँढे नही जा सकते।
अर्थ: कई मनुष्य अकाल-पुरख की हदें, सीमाएं तलाशने में व्याकुल हो रहे हैं, पर वे उस की सीमांओं को नहीं ढूँढ सकते।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहु अंतु न जाणै कोइ ॥ बहुता कहीऐ बहुता होइ ॥
मूलम्
एहु अंतु न जाणै कोइ ॥ बहुता कहीऐ बहुता होइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एहु अंतु = ये सीमाएं (जिसकी तलाश बेअंत जीव कर रहे हैं)। बहुता कहीऐ = ज्यों ज्यों अकाल-पुरख को बड़ कहते जाएं, ज्यों ज्यों उसके गुण कथन करते जाएं। बहुता होइ = त्यों त्यों वह और बड़ा, और बड़ा प्रतीत होने लग जाता है।
अर्थ: (अकाल पुरख के गुणों का) इन सीमाओं को (जिसकी बेअंत जीव तलाश में लगे हुए हैं) कोई मनुष्य नहीं पा सकता। ज्यों ज्यों ये बात कहते जाएं कि वह बड़ा है, त्यों त्यों वह और भी बड़ा, और भी बेअंत प्रतीत होने लग पड़ता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
वडा साहिबु ऊचा थाउ ॥ ऊचे उपरि ऊचा नाउ ॥ एवडु ऊचा होवै कोइ ॥ तिसु ऊचे कउ जाणै सोइ ॥
मूलम्
वडा साहिबु ऊचा थाउ ॥ ऊचे उपरि ऊचा नाउ ॥ एवडु ऊचा होवै कोइ ॥ तिसु ऊचे कउ जाणै सोइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: थाउ = अकाल-पुरख के निवास का ठिकाना। ऊचे ऊपरि ऊचा = ऊचे से भी ऊँचा, बहुत ऊँचा। नाउ = मशहूरी, नाम, शोहरत। एवडु = इतना बड़ा। होवै कोइ = यदि कोई मनुष्य हो। तिसु ऊचे कउ = उस ऊँचे अकाल-पुरख को। सोइ = वह मनुष्य ही।
अर्थ: अकाल-पुरख बहुत बड़ा है, उसका ठिकाना ऊँचा है। उसकी शोहरत भी ऊँची है। अगर कोई और उसके जितना बड़ा हो, वह ही उस ऊचे अकाल-पुरख को समझ सकता है (कि वह कितना बड़ा है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेवडु आपि जाणै आपि आपि ॥ नानक नदरी करमी दाति ॥२४॥
मूलम्
जेवडु आपि जाणै आपि आपि ॥ नानक नदरी करमी दाति ॥२४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेवडु = जितना बड़ा। जाणै = जानता है। आपि आपि = केवल स्वयं ही (उसके बिना कोई और नहीं जानता)। नदरी = मेहर की नजर करने वाला हरि। करमी = करम से, कृपा से। दाति = बख़्शिश, कृपा।
अर्थ: अकाल-पुरख स्वयं ही जानता है कि वह खुद कितना बड़ा है। हे नानक! (हरेक) दात, मिहर की नज़र करने वाले अकाल पुरख की बख़्शिश से ही मिलती है।24।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु बेअंत गुणों का मालिक है, उसकी पैदा की हुई रचना भी बेअंत है। ज्यों ज्यों उसके गुणों की तरफ ध्यान मारें, वह और भी बड़ा प्रतीत होने लग पड़ता है। जगत में ना कोई उस प्रभु जितना बड़ा है, और इस वास्ते ना हीकोई ये बता सकता है कि प्रभु कितना बड़ा है।24।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुता करमु लिखिआ ना जाइ ॥ वडा दाता तिलु न तमाइ ॥
मूलम्
बहुता करमु लिखिआ ना जाइ ॥ वडा दाता तिलु न तमाइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। तिलु = तिल मात्र भी। तमाइ = लालच, त्रिष्णा। दाता = दातें देने वाला।
अर्थ: अकाल-पुरख बहुत सी दातें देने वाला है, उसे तिलमात्र भी लालच नहीं है। उसकी बख्शिश इतनी बड़ी है कि लिखने में नहीं लाई जा सकती।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केते मंगहि जोध अपार ॥ केतिआ गणत नही वीचारु ॥ केते खपि तुटहि वेकार ॥
मूलम्
केते मंगहि जोध अपार ॥ केतिआ गणत नही वीचारु ॥ केते खपि तुटहि वेकार ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केते = कई। जोध अपार = अपार योद्धे, अनगिनत सूरमें। मंगहि = मांगते हैं। गणत = गिनती। केतिआ = कईयों की। वेकार = विकारों में। खपि तुटहि = खप खप के नाश होते हैं।
अर्थ: बेअंत शूरवीर व कई और ऐसे, जिनकी गिनती पे विचार नहीं हो सकती, (अकाल-पुरख के दर पे) मांग रहे हैं। कई जीव (उसकी दातें बरत के) विकारों में ही खप खप नाश हो रहे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केते लै लै मुकरु पाहि ॥ केते मूरख खाही खाहि ॥
मूलम्
केते लै लै मुकरु पाहि ॥ केते मूरख खाही खाहि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केते = बेअंत जीव। मुकरि पाहि = मुकर जाते हैं। खाही खाहि = खाते ही खाते हैं, खाए जाते हैं।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘तूं देखहि हउ मुकरि पाउ।’
सभ किछु सुणदा वेखदा, किउ मुकरि पाइआ जाइ।’
इन दोनें तुकों में शब्द ‘मुकरि’ है, पर उपरोक्त तुक में ‘मुकरु’ है। दोनों का अर्थ एक ही है। ‘मुकरि’ व्याकरण अनुसार सटीक बैठता है। इस शब्द संबंधी अभी और खोज की जरूरत है)।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: बेअंत जीव (अकाल-पुरख के दर से पदार्थ) प्राप्त कर के मुकर जाते हैं (भाव, कभी शुक्राने में आ के ये नहीं कहते कि सभ पदार्थ प्रभु स्वयं दे रहा है)। अनेक मूर्ख (पदार्थ ले कर) खाए ही जाते हैं (पर दातार को याद नहीं रखते)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केतिआ दूख भूख सद मार ॥ एहि भि दाति तेरी दातार ॥
मूलम्
केतिआ दूख भूख सद मार ॥ एहि भि दाति तेरी दातार ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केतिआ = कई जीवों को। दूख = कई दुख-कष्ट। भूख = भूख (अर्थात, खाने को भी नहीं मिलता)। सद = सदा। दाति = बख्शिश। दातार = हे देनहार अकाल-पुरख!
अर्थ: अनेक ही जीवों को सदैव मार, कष्ट व भूख (ही भाग्य में लिखे हैं)। (पर) हे देनहार अकाल-पुरख! ये भी तेरी बख्शिश ही है (क्योंकि, इन दुखों, कष्टों के कारण ही मनुष्य को रजा में चलने की समझ पड़ती है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
बंदि खलासी भाणै होइ ॥ होरु आखि न सकै कोइ ॥
मूलम्
बंदि खलासी भाणै होइ ॥ होरु आखि न सकै कोइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: बंद = बंदी से, कारागार से, माया के मोह से। खलासी = मुक्ति, छुटकारा। भाणें = अकाल-पुरख की रज़ा में चलने से। होइ = होता है। होरु = ईश्वर की रज़ा के उलट कोई और तरीका। कोइ = कोई मनुष्य।
अर्थ: और (माया के मोह रूप) बंधन से छुटकारा अकाल-पुरख की रज़ा में चलने से ही होता है। रज़ा के बग़ैर कोई और तरीका कोई मनुष्य नहीं बता सकता (भाव, कोई मनुष्य नहीं बता सकता कि ईश्वर की रज़ा में चलने के अलावा मोह से छुटकारे का और कोई तरीका भी हो सकता है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे को खाइकु आखणि पाइ ॥ ओहु जाणै जेतीआ मुहि खाइ ॥
मूलम्
जे को खाइकु आखणि पाइ ॥ ओहु जाणै जेतीआ मुहि खाइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: खाइकु = मूर्ख, कच्चा मनुष्य। आखणि पाइ = कहने का यत्न करे (भाव, मोह से छुटकारे का कोई और तरीका) बताने का प्रयत्न करे। ओहु = वह मूर्ख ही। जेतीआ = जितनी (चोटें)। मुहि = मुंह पे। खाइ = खाता है।
अर्थ: (पर) यदि कोई मनुष्य (माया से छुटकारे का और कोई साधन) बताने का प्रयत्न करे तो वही जानता है जितनी चोटें वह (इस मूर्खता के कारण) अपने मुंह पे खाता है (भाव, ‘झूठ’ से बचने का एक ही तरीका है कि मानव रजा में चले। पर अगर कोई मूर्ख कोई और तरीका ढूँढता है तो इस ‘झूठ’ से बचने की बजाए बलिक ज्यादा दुखी होता है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपे जाणै आपे देइ ॥ आखहि सि भि केई केइ ॥
मूलम्
आपे जाणै आपे देइ ॥ आखहि सि भि केई केइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: देइ = देता है। आखहि = कहते हैं। सि भी = ये बात भी। केई केइ = कई मनुष्य।
अर्थ: (सारे ना-शुक्रे ही नहीं हैं) अनेकां लोग ये बात भी कहते हैं कि अकाल-पुरख स्वयं ही (जीवों की जरूरतों को) जानता है तथा स्वयं ही (दातें) देता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिस नो बखसे सिफति सालाह ॥ नानक पातिसाही पातिसाहु ॥२५॥
मूलम्
जिस नो बखसे सिफति सालाह ॥ नानक पातिसाही पातिसाहु ॥२५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिस नो = जिस मनुष्य को। नानक = हे नानक! पातिसाही पातिसाहु = बादशाहों के बादशाह।
अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को अकाल-पुरख अपनी महिमा की बख्शिश करता है, वह बादशाहों का बादशाह बन जाता है। (महिमा ही सब से ऊँची दात है)।25।
दर्पण-भाव
भाव: प्रभु कितना बड़ा है: ये बात बयान करनी तो कहां रही, उसकी बख्शिशें ही इतनी बड़ी हैं कि लिखने में नहीं लाई जा सकती। जगत में जो बड़े ब्ड़े दिखाई दे रहे हैं, ये सभी उस प्रभु के दर से ही मांगते हैं। वह तो बल्कि इतना बड़ा है कि जीवों के मांगने के बिना इनकी जरूरतों को जान के अपने आप दातें दिए जा रहा है।
पर जीव की मूर्खता देखिए! दातों का इस्तेमाल करते करते दातार को विसार के विकारों में पड़ जाता है और कई दुख-कष्ट अपने ऊपर ले लेता है। ये दुख-कष्ट भी प्रभु की दात हैं, क्योंकि इन दुखों-कष्टों के कारण ही मनुष्य को मुड़ रजा में चलने की समझ आ जाती है, और ये ईश्वर की महिमा करने लग जाता है। यह महिमा ही सबसे ऊँची दात है।25।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमुल गुण अमुल वापार ॥ अमुल वापारीए अमुल भंडार ॥ अमुल आवहि अमुल लै जाहि ॥ अमुल भाइ अमुला समाहि ॥
मूलम्
अमुल गुण अमुल वापार ॥ अमुल वापारीए अमुल भंडार ॥ अमुल आवहि अमुल लै जाहि ॥ अमुल भाइ अमुला समाहि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमुल = अनमोल, जिसका कोई मुल्य ना हो सके। गुण = अकाल-पुरख के गुण। वापारीए = अकाल-पुरख के गुणों का व्यापार करने वाले। भंडार = खजाने। आवहि = जो मनुष्य (इस व्यापार के लिए) आते हैं। लै जाहि = (ये सौदा खरीद के) ले जाते हैं। भाइ = भाउ में, प्रेम में। समाहि = (अकाल-पुरख में) लीन हैं।
अर्थ: (अकाल-पुरख के) गुण अमोलक हैं (उसके गुणों का मुल्य नहीं पड़ सकता, अमुल्य हैं), (इन गुणों के) व्यापार करने भी अमुल्य हैं। उन मनुष्यों का भी मुल्य नहीं पड़ सकता, जो (अकाल-पुरख के गुणों का) व्यापार करते हैं, (गुणों के) खजाने (भी) अमुल्य हैं। उन मनुष्यों का मूल्य नहीं पड़ सकता, जो (इस व्यापार के लिए जगत में) आते हैं। वो भी अति भाग्यशाली हैं, जो (ये सौदा खरीद के) ले जाते हैं। जो मनुष्य अकाल-पुरख के प्रेम में हैं और जो मनुष्य उस अकाल-पुरख में लीन हुये हुए हैं वह भी अमुल्य हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमुलु धरमु अमुलु दीबाणु ॥ अमुलु तुलु अमुलु परवाणु ॥ अमुलु बखसीस अमुलु नीसाणु ॥ अमुलु करमु अमुलु फुरमाणु ॥
मूलम्
अमुलु धरमु अमुलु दीबाणु ॥ अमुलु तुलु अमुलु परवाणु ॥ अमुलु बखसीस अमुलु नीसाणु ॥ अमुलु करमु अमुलु फुरमाणु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरमु = नियम, कानून। दीबाणु = कचहरी, दीवान, राज दरबार। तुलु = तुला, तकड़ी। परवाणु = प्रमाण, तोलने वाला बाँट। बखसीस = रहमत, दया। नीसाणु = अकाल-पुरख की रहमत का निशान। करमु = रहिमत, बख्शिश। फुरमाणु = हुक्म। अमुलु = अंदाजों से परे।
अर्थ: अकाल-पुरख का कानून और उसका राज दरबार अनमोल हैं। वह तराजू भी अनमोल है और वह बाँट भी अनमोल है (जिससे वह जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों को तौलता है)। उसकी रहिमत व रहिमत के निशान भी अमोलक हैं। अकाल-पुरख की बख्शिश तथा हुक्म भी मुल्यों से परे हैं। (किसी का भी अंदाजा नहीं लग सकता)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ ॥ आखि आखि रहे लिव लाइ ॥
मूलम्
अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ ॥ आखि आखि रहे लिव लाइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: अमुलो अमुलु = अमुल्य ही अमुल्य, किसी भी अंदाज से परे। आखि आखि = अंदाजा लगा लगा के। रहे = रह गए हैं, थक गए हैं। लिव लाइ = ध्यान जोड़ के, चिंतन कर के।
अर्थ: अकाल-पुरख सभ अंदाजों से परे है, उसका कोई अंदाजा नहीं लग सकता। जो मनुष्य ध्यान लगा लगा के अकाल-पुरख का अंदाजा लगाते हैं, वह (अंत को) रह जाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आखहि वेद पाठ पुराण ॥ आखहि पड़े करहि वखिआण ॥ आखहि बरमे आखहि इंद ॥ आखहि गोपी तै गोविंद ॥
मूलम्
आखहि वेद पाठ पुराण ॥ आखहि पड़े करहि वखिआण ॥ आखहि बरमे आखहि इंद ॥ आखहि गोपी तै गोविंद ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आखहि = कह रहे हैं, वर्णन करते हैं। वेद पाठ = वेदों के पाठ, वेद मंत्र। पड़े = पढ़े हुए मनुष्य, विद्वान। करहि वखिआण = व्याख्यान करते हैं, उपदेश करते हैं, और लोगों को सुनाते हैं। बरमें = कई ब्रह्मा। इंद = इंद्र देवते। तै = और। गोविंद = कई कान्हे।
अर्थ: वेद मंत्र व पुराण अकाल-पुरख का अंदाजा लगा लेते हैं। विद्वान लोग भी, जो (और लोगों को) उपदेश करते है, (अकाल-पुरख का) बयान करते हैं। कई ब्रह्मा, कई इंद्र, गोपियां और कई कान्हें अकाल-पुरख का अंदाजा लगा रहे हैं।
[[0006]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
आखहि ईसर आखहि सिध ॥ आखहि केते कीते बुध ॥ आखहि दानव आखहि देव ॥ आखहि सुरि नर मुनि जन सेव ॥
मूलम्
आखहि ईसर आखहि सिध ॥ आखहि केते कीते बुध ॥ आखहि दानव आखहि देव ॥ आखहि सुरि नर मुनि जन सेव ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इसर = शिव। केते = कई, बेअंत। कीते = अकाल-पुरख के पैदा किए हुए। बुध = महात्मा बुध। दानण = दानव, दैंत, राक्षस। देव’ = देवते। सुरि नर = सुरों के स्वभाव वाले नर। मुनि जन = मुनी लोग। सेव = सेवक।
अर्थ: कई शिव और सिद्ध, अकाल-पुरख के पैदा किये हुए बेअंत बुद्ध, राक्षस और देवते, देव स्वभाव मनुष्य, मुनि जन तथा सेवक अकाल-पुरख का अंदाजा लगाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केते आखहि आखणि पाहि ॥ केते कहि कहि उठि उठि जाहि ॥ एते कीते होरि करेहि ॥ ता आखि न सकहि केई केइ ॥
मूलम्
केते आखहि आखणि पाहि ॥ केते कहि कहि उठि उठि जाहि ॥ एते कीते होरि करेहि ॥ ता आखि न सकहि केई केइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केते = कई जीव। आखणि पाहि = कहने का प्रयत्न करते हैं। कहि कहि = कह कह के, अकाल-पुरख का मुल्य लगा लगा के, अकाल-पुरख का अंदाजा लगा लगा के। उठि उठि जाहि = जहाँ से चले जाते हैं। एते कीते = इतने जीव पैदा किए हुए हैं। होरि = और बेअंत जीव। करेहि = यदि तू पैदा कर दे (हे हरि!)। ता = तो भी। न केई केइ = कोई भी मनुष्य नहीं। आखि सकहि = कह सकते हैं।
अर्थ: बेअंत जीव अकाल-पुरख का अंदाजा लगा रहे हैं, और बेअंत ही लगाने का प्रयत्न कर रहे हैं। बेअंत जीव अंदाजा लगा लगा के इस जगत से चले जा रहे हैं। जगत में इतने (बेअंत) जीव पैदा किये हुए हैं (जो बयान कर रहे हैं), (पर, हे हरि!) अगर तू और भी (बेअंत जीव) पैदा कर दे तो भी कोई जीव तेरा अंदाजा नहीं लगा सकता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेवडु भावै तेवडु होइ ॥ नानक जाणै साचा सोइ ॥ जे को आखै बोलुविगाड़ु ॥ ता लिखीऐ सिरि गावारा गावारु ॥२६॥
मूलम्
जेवडु भावै तेवडु होइ ॥ नानक जाणै साचा सोइ ॥ जे को आखै बोलुविगाड़ु ॥ ता लिखीऐ सिरि गावारा गावारु ॥२६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जेवडु = जितना बड़ा। भावै = चाहता है। तेवडु = उतना बड़ा। साचा सोइ = वह सदा स्थिर रहने वाला अकाल-पुरख। बोलु विगाड़ु = बड़बोला, बढ़ा चढ़ा के बातें करने वाला। लिखिऐ = (वह बड़बोला) लिखा जाता है। सिरि गावारा गावारु = गावारों का भी गावार, मूर्खों के सिर मूर्ख, महा मूर्ख।
अर्थ: हे नानक! परमात्मा जितना चाहता है उतना ही बड़ा हो जाता है (अपनी कुदरत बढ़ा लेता है)। वह सदा स्थिर रहने वाला हरि स्वयं ही जानता है (कि वह कितना बड़ा है)। अगर कोई बड़बोला मनुष्य ये बताने लगे (कि अकाल पुरख कितना बड़ा है) तो वह मनुष्यों में महा मूर्ख गिना जाता है।26।
दर्पण-भाव
भाव: जगत में बेअंत विद्वान हो चुके हैं और पैदा होते रहेंगे। पर, अभी तक ना कोई मनुष्य ये लेखा कर सका है, और ना ही आगे कोई कर सकेगा कि प्रभु में कितनी महानतायें हैं, और वह कितनी रहमतें जीवों पर कर रहा है। बेअंत हैं उसके गुण, बेअंत हैं उसकी दातें। इस भेद को उस परमेश्वर के बिना और कोई नहीं जानता। ये काम मनुष्य की ताकत से बहुत परे का है। वह मनुष्य महा गावार है, जो प्रभु के गुणों और दातों की सीमाएं ढूँढ सकने का दावा करता है।26।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो दरु केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब समाले ॥ वाजे नाद अनेक असंखा केते वावणहारे ॥ केते राग परी सिउ कहीअनि केते गावणहारे ॥
मूलम्
सो दरु केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब समाले ॥ वाजे नाद अनेक असंखा केते वावणहारे ॥ केते राग परी सिउ कहीअनि केते गावणहारे ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केहा = कैसा, आश्चर्य भरा। दरु = दरवाजा। जितु = जहाँ। बहि = बैठ के। सरब = सारे जीवों को। समाले = तू संभाल करता है। नाद = आवाज, शब्द, राग। वावणहारे = बजाने वाले। परी = रागनी। सिउ = समेत। परी सिउ = रागनियों समेत। कहिअनि = कहे जाते हैं।
अर्थ: वह दर बड़ा ही आश्चर्य भरा है जहाँ बैठ के (हे निरंकार!) तू सारे जीवों की संभाल कर रहा है। (तेरी इस रची हुई कुदरत में) अनेक और अनगिनत वाजे (संगीत-यंत्र) और राग हैं; बेअंत ही जीव उन बाजों को बजाने वाले हैं, रागनियों समेतबेअंत ही राग कहे जाते हैं, और अनेको ही जीव (इन रागों के) गाने वाले हैं (जो तुझे गा रहे हैं)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावहि तुहनो पउणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरमु दुआरे ॥ गावहि चितु गुपतु लिखि जाणहि लिखि लिखि धरमु वीचारे ॥
मूलम्
गावहि तुहनो पउणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरमु दुआरे ॥ गावहि चितु गुपतु लिखि जाणहि लिखि लिखि धरमु वीचारे ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तुहनो = तुझे (हे अकाल-पुरख!)। राजा धरमु = धर्मराज। दुआरे = तेरे दर पे (हे निरंकार!)। चितु गुपतु = वे व्यक्ति जो यमलोक में रह के संसारी जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा लिखते हैं। प्राचीन हिन्दू मत की धर्म-पुस्तकों में ये विचार चले आ रहे हैं। धरमु = धर्म राज। लिखि लिखि = लिख लिख के, अर्थात, जो कुछ वह चित्रगुप्त लिखते हैं। बैसंतरु = आग।
अर्थ: (हे निरंकार!) पवन, पानी, अग्नि तेरा गुण गान कर रहे हैं। धर्मराज तेरे दर पे (खड़ा होकर) तेरी स्तुति कर रहा है। वह चित्रगुप्त भी जो (जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों के लेखे) लिखने जानते हैं और जिनके लिखे हुए को धर्मराज विचारता है, तेरी महानताओं का गुणगान कर रहे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावहि ईसरु बरमा देवी सोहनि सदा सवारे ॥ गावहि इंद इदासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥
मूलम्
गावहि ईसरु बरमा देवी सोहनि सदा सवारे ॥ गावहि इंद इदासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ईसरु = शिव। बरमा = ब्रह्मा। देवी = देवियां। सोहनि = सुशोभित होते हैं, सुंदर लगते हैं। सवारे = तेरे द्वारा सवाँरे हुए। इंद = इंद्र देवते। इदासणि = (इंद-आसणि) इंद्र के आसन पर। देवतिआं नाले = देवताओं के साथ।
अर्थ: (हे अकाल पुरख!) देवियां, शिव व ब्रह्मा, जो तेरे संवारे हुए हैं, तुझे गा रहे हैं। कई इंद्र अपने तख्त पे बिराजमान देवताओं समेत तेरी स्तुति कर रहे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावहि सिध समाधी अंदरि गावनि साध विचारे ॥ गावनि जती सती संतोखी गावहि वीर करारे ॥
मूलम्
गावहि सिध समाधी अंदरि गावनि साध विचारे ॥ गावनि जती सती संतोखी गावहि वीर करारे ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: समाधी अंदरि = समाधि में लीन हो के। सिध = प्राचीन संस्कृत पुस्तकों में सिध वह व्यक्ति मानें गये हैं जो मनुष्य श्रेणी से ऊपर और देवताओं से नीचे। ये सिध पवित्रता के पुँज थे और आठों प्रकार की सिद्धियों के मालिक समझे जाते थे। विचारे = विचार विचार के। सती = दानी, दान करने वाले। वीर करारे = तगड़े शूरवीर।
अर्थ: सिद्ध लोग समाधियां लगा के तुझे गा रहे हैं, साधु जन चिंतन कर कर के तुझे सालाह रहे हैं। जत-धारी, दान करने वाले और संतोषी पुरष तेरा गुणगान कर रहे हैं और (बेअंत) महाबली योद्धे तेरी स्तुति कर रहे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावनि पंडित पड़नि रखीसर जुगु जुगु वेदा नाले ॥ गावहि मोहणीआ मनु मोहनि सुरगा मछ पइआले ॥
मूलम्
गावनि पंडित पड़नि रखीसर जुगु जुगु वेदा नाले ॥ गावहि मोहणीआ मनु मोहनि सुरगा मछ पइआले ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पढ़नि = पढ़ते हैं। रखीसर = (ऋषि ईसर) महाऋषि। जुग जुग = हरेक युग में, सदैव। वेदा नाले = वेदों समेत। मोहणीआं = सुंदर स्त्रीयां। मछ = मात लोक में। पइआले = पाताल में।
अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) पण्डित और महाऋिषी जो (वेदों को) पढ़ते हैं। वेदों समेत तुझे गा रहे हैं। सुंदर स्त्रीयां जो स्वर्ग, मात लोक व पाताल लोक में (अर्थात, हर जगह) मानव मन को मोह लेती हैं, भी तुझे गा रही हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावनि रतन उपाए तेरे अठसठि तीरथ नाले ॥ गावहि जोध महाबल सूरा गावहि खाणी चारे ॥ गावहि खंड मंडल वरभंडा करि करि रखे धारे ॥
मूलम्
गावनि रतन उपाए तेरे अठसठि तीरथ नाले ॥ गावहि जोध महाबल सूरा गावहि खाणी चारे ॥ गावहि खंड मंडल वरभंडा करि करि रखे धारे ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: उपाए तेरे = तेरे पैदा किये हुए। अठ सठि = अड़सठ की गिनती। तीरथ नाले = तीर्तों समेत। जोध = योद्धा। महा बल = महाबली। सूरा = शूरवीर, सूरमे। खाणी चारे = चारों खाणीआं, उत्पत्ति के चारों तरीके: अण्डज, जेरज, सेतज व उत्भुज। खाणी = खान, जिसकी खुदायी करके बीच में से धातुऐं, रतन आदि पदार्थ निकाले जाते हैं। ये संस्कृत का शब्द है। धातु ‘खन’ है, जिसका अर्थ है ‘खुदायी करना’। खाणी चारे, पुरातन समय से ये ख्याल हिंदू धर्म पुस्तकों में चला आ रहा है कि जगत के सारे जड़-चेतन पदार्तों की उत्पत्ति की चार खानें हैं। अण्डा, जिउर (जेरज), पसीना व स्वै उत्पत्ति। ‘चारे खाणी’ का यहाँ भाव है कि चारों ही खानों के जीव जन्तु, सारी रचना। खण्ड = टुकड़ा, ब्रहिमण्ड का टुकड़ा, भाव हरेक धरती। मण्डल = चक्कर, ब्रहिमण्ड का एक चक्कर, जिसमें एक सुरज, एक चंद्रमां व धरती आदिक गिने जाते हैं। वरभंडा = सारी सृष्टि। करि करि = बना के, रच के। धारे = धारित किए हुए, टिकाए हुआ।
अर्थ: (हे निरंकार!) तेरे पैदा किए हुए रतन अढ़सठ तीर्तों समेत तुझे गा रहे हैं। महाबली योद्धे व शूरवीर भी तेरी स्तुति कर रहे हैं। चारों खानों के जीव-जन्तु तुझे गा रहे हैं। सारी सृष्टि, सृष्टि के सारे खण्ड और चक्कर, जो तूने पैदा करके टिका रखे हैं, तुझे गाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेई तुधुनो गावहि जो तुधु भावनि रते तेरे भगत रसाले ॥ होरि केते गावनि से मै चिति न आवनि नानकु किआ वीचारे ॥
मूलम्
सेई तुधुनो गावहि जो तुधु भावनि रते तेरे भगत रसाले ॥ होरि केते गावनि से मै चिति न आवनि नानकु किआ वीचारे ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सेई = वही जीव। तुधु भावन = तुझे अच्छे लगते हैं। रते = रंगे हुए, प्रेम में डूबे हुए। रसाले = रस+आलय, रस का घर, रसिए। होरि केते = अनेक और जीव। मै चिति = मेरे चित्त में। मै चिति न आवनि = मेरे चित्त में नहीं आते, मुझसे गिने नहीं जा सकते, मेरे विचारों से परे। किआ विचारे = क्या विचार करे?
अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) (असल में तो) वही तेरे प्रेम में रंगे हुए रसिए भक्तजन तुझे गाते हैं (भाव उनका गाना ही सफल है) जो तुझे अच्छे लगते हैं। अनेक और जीव तुझे गा रहे हैं, जो मुझसे गिने भी नहीं जा सकते। (भला) नानक (विचारा) क्या विचार कर सकता है?
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोई सोई सदा सचु साहिबु साचा साची नाई ॥ है भी होसी जाइ न जासी रचना जिनि रचाई ॥
मूलम्
सोई सोई सदा सचु साहिबु साचा साची नाई ॥ है भी होसी जाइ न जासी रचना जिनि रचाई ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचु = स्थिर रहने वाला, अटल। नाई = वडियाई, महानता। होसी = होवेगा, स्थिर रहेगा। जाइ न = पैदा नहीं होगा। न जासी = ना ही मरेगा। जिनि = जिस अकाल-पुरख ने। रचाई = पैदा की है।
अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने यह सृष्टि पैदा की है, वह इस वक्त मौजूद है, सदैव रहेगा, ना वह जन्मा है ना ही मरेगा। वह अकाल-पुरख सदा स्थिर है, वह सच्चा मालिक है, उसकी महानता भी सदा अटल है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
रंगी रंगी भाती करि करि जिनसी माइआ जिनि उपाई ॥ करि करि वेखै कीता आपणा जिव तिस दी वडिआई ॥
मूलम्
रंगी रंगी भाती करि करि जिनसी माइआ जिनि उपाई ॥ करि करि वेखै कीता आपणा जिव तिस दी वडिआई ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: रंगी रंगी = रंगों रंगों की, कई रंगों की। भाती = कई किस्मों की। करि करि = पैदा कर के। जिनसी = कई जिन्सों की। जिनि = जिस अकाल-पुरख ने। वेखै = संभाल करता है। कीता आपणा = अपना रचा हुआ जगत। जिव = जैसे। वडिआई = रज़ा।
अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने कई रंगों, किस्मों, जिनसों की माया रच दी है, वह जैसे उसकी रज़ा है, (भाव, जितना बड़ा वह स्वयं है उतने बड़े जिगरे से जगत को रच के) अपने पैदा किये हुए की संभाल भी कर रहा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो तिसु भावै सोई करसी हुकमु न करणा जाई ॥ सो पातिसाहु साहा पातिसाहिबु नानक रहणु रजाई ॥२७॥
मूलम्
जो तिसु भावै सोई करसी हुकमु न करणा जाई ॥ सो पातिसाहु साहा पातिसाहिबु नानक रहणु रजाई ॥२७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करसी = करेगा। न करण जाइ = नहीं किया जा सकता। साहा पाति साहिबु = शाहों का बादशाह। रहणु = रहना (हो सकता है), रहना फबता है। रजाई = अकाल-पुरख की रजा में।
अर्थ: जो कुछ अकाल-पुरख को भाता है, वह वही करता है। कोई भी जीव अकाल-पुरख को आगे से हुक्म नहीं कर सकता (उसे ये नहीं कह सकता कि “तू एैसे कर, एैसे ना कर”)। अकाल-पुरख बादशाह है, बादशाहों का भी बादशाह है। हे नानक! (जीवों का) उसकी रजा में रहना (ही फबता है)।27।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: पवन, पानी, बैसंतर (अग्नि) आदिक अचेतन पदार्थ कैसे अकाल-पुरख की महिमा कर रहे हैं। इस का भाव ये है कि उसके पैदा किये हुए सारे तत्व भी उसी की रज़ा में चल रहे हैं। रज़ा में चलना उसकी महिमा करना है।
दर्पण-भाव
भाव: कई रंगों, कई किस्मों, कई जिन्सों की बेअंत रचना कर्तार ने रची है। इस बेअंत सृष्टि की संभाल भी वह खुद ही कर रहा है, क्योंकि वह स्वयं ही एक ऐसा है जो सदैव कायम रहने वाला है। जगत में ऐसा कौन है जो ये दम भर सके कि किस तरह की जगह बैठ के वह निर्माता इस बेअंत रचना की संभाल करता है? किसी भी मनुष्य में ऐसी स्मर्था ही नहीं। मनुष्य को सिर्फ एक बात ही फबती है कि वह प्रभु रजा में रहे। यही एक तरीका है ईश्वर से दूरी मिटाने का, और यही है इसके जीवन का उद्देश्य। देखें! हवा, पानी आदि तत्वों से लेकर उच्च जीवन वाले महाँपुरुषों तक सभी अपने-अपने अस्तित्व के उद्देश्य सफल कर रहे हैं, भाव, उसके हुक्म में मिली जिंमेदारियों को निभा रहे हैं।27।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: इससे आगे नंबर २८ से ३१ तक की चार पउड़ियों का समूचा भाव ये है कि सारे संसार के पैदा करने वाले व सदैव स्थिर रहने वाले प्रमात्माका नाम जपना ही रज़ा में टिका के प्रभु से जीव की दूरी मिटा सकता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुंदा संतोखु सरमु पतु झोली धिआन की करहि बिभूति ॥ खिंथा कालु कुआरी काइआ जुगति डंडा परतीति ॥
मूलम्
मुंदा संतोखु सरमु पतु झोली धिआन की करहि बिभूति ॥ खिंथा कालु कुआरी काइआ जुगति डंडा परतीति ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: मुंदा = मुंद्रां। सरमु = उद्यम,मेहनत। पतु = पात्र, ख्प्पर। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में ये शब्द तीन रूपों में आया है, ‘पति’, ‘पत’, ‘पतु’। पंजाबी में यद्यपि ये एक ही शब्द प्रतीत होता हो, पर ये अलग अलग तीनों ही संस्कृत से आये हैं। शब्द ‘पति’ का संस्कृत में अर्थ है‘खसम, मालिक’। पंजाबी में ये एक और अर्थ के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है ‘इज्जत, आबरू’।
दर्पण-टिप्पनी
शब्द ‘पतु’ एकवचन है। संस्कृत में ‘पात्र’ है जिसका अर्थ है ‘भांडा, प्याला, खप्पर। इसका बहुवचन है: ‘पत’, पर इस ऊपर लिखे अर्थ में ये शब्द ‘पत’ श्री गुरु ग्रंथ साहिब में नहीं आया। सो, शब्द ‘पत’ वास्ते संस्कृत में एक और शब्द है ‘पत्र’, जिसका अर्थ है ‘वृक्षों के पत्ते’।
दर्पण-भाषार्थ
करहि = अगर तू बनाए। बिभूति = गोबर की राख। खिंथा = गुदड़ी। कालु = मौत। कुआरी काइआ = कुआरा शरीर, विकारों से अछूती काया। जुगति = योग मति की मर्यादा। परतीत = श्रद्धा, यकीन।
अर्थ: (हे योगी!) अगर तू संतोष को अपनी मुंद्राएं बनाए, मेहनत को खप्पर और झोली, और अकाल-पुरख के ध्यान की राख (शरीर पर मले), मौत (का भय) तेरी गुदड़ी हो, शरीर को विकारों से बचा के रखना तेरे लिये योग की रहित मर्यादा हो और श्रद्धा को डंडा बनाए (तो अंदर से झूठ की दीवार टूट सकती है।)
विश्वास-प्रस्तुतिः
आई पंथी सगल जमाती मनि जीतै जगु जीतु ॥ आदेसु तिसै आदेसु ॥ आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२८॥
मूलम्
आई पंथी सगल जमाती मनि जीतै जगु जीतु ॥ आदेसु तिसै आदेसु ॥ आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आई पंथु = जोगियों के 12 फिरके हैं, उनमें सबसे ऊँचा ‘आई पंथ’ गिना जाता है। पंथी = आई पंथी वाला, आई पंथ के साथ संबंध रखने वाला। सगल = सारे जीव। जमाती = एक ही पाठशाला में, एक ही श्रेणी में पढ़ने वाले, एक जगह मिल बैठने वाले मित्र सज्जन। मनि जीतै = मन को जीतने से, यदि मन को जीता जाए। इस तरह के वाक्यांश श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में अनेक आते है।, जैसे:
नाइ विसारिऐ = यदि नाम बिसर जाए।
नाइ मंनिऐ = यदि नाम को मान लें।
आदेसु = प्रणाम। तिसै = उसी ही अकाल-पुरख को। आदि = शुरू से। अनीलु = कलंक रहित, पवित्र, शुद्ध स्वरूप। अनादि = जिसका कोई आरम्भ नहीं है। अनाहति = (अन-आहत, आहति = नाश, क्षय; इस शब्द की संस्कृत धातु ‘हन’ है, जिसका अर्थ है ‘मारना, नाश करना’) नाश रहित, एक रस। जुग जुग = हरेक युग में, सदा। वेसु = रूप।
अर्थ: जो मनुष्य सारी सृष्टि को अपने सज्जन-मित्र समझता है (असल में) वही आई पंथ वाला है। अगर अपना मन जीत लिया जाए तो सारा जगत ही जीत लिया जाता है (भाव, तब जगत की माया परमात्मा से विछोड़ नहीं सकती)। (सो, झूठ की दीवार गिराने के लिए) केवल उस को (अकाल-पुरख) प्रणाम करो, जो (सब का) आरम्भ है, जो शुद्ध-स्वरूप है, जिसका कोई अंत नहीं (ढूँढ सकता), जो नाश रहित है और जो सदैव इकसार रहता है।28।
दर्पण-भाव
भाव: योग मत के खिंथा, मुंद्रा, झोली आदि प्रभु से जीव की दूरी नहीं मिटा सकते। ज्यों ज्यों सदा स्थिर ईश्वर की याद में जुड़ते जाओगे, संतोष वाला जीवन बनता जाएगा और सारी लोगों में वह प्रभु ही व्याप्त दिखेगा।28।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुगति गिआनु दइआ भंडारणि घटि घटि वाजहि नाद ॥ आपि नाथु नाथी सभ जा की रिधि सिधि अवरा साद ॥ संजोगु विजोगु दुइ कार चलावहि लेखे आवहि भाग ॥
मूलम्
भुगति गिआनु दइआ भंडारणि घटि घटि वाजहि नाद ॥ आपि नाथु नाथी सभ जा की रिधि सिधि अवरा साद ॥ संजोगु विजोगु दुइ कार चलावहि लेखे आवहि भाग ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भुगति = चूरमा। भंडारणि = भण्डारा बाँटने वाली। घटि घटि = हरेक शरीर में। वाजहि = बज रहे हैं। नाद = शब्द (योगी भण्डारा खाने के समय एक नादी बजाते हैं, जिसे उन्होंने अपने गले में लटकाया हुआ होता है)। आपि = अकाल-पुरख स्वयं। नाथी = नाथ डाली हुई, वश में। सभ = सारी सृष्टि। रिधि = प्रताप, महानता। सिधि = जोगी-सफलता, करामात।
दर्पण-टिप्पनी
(जोगियों में आठ बड़ी सिद्धियां मानी गई हैं। आठ सिद्धियां ये हैं: अणिमा, लघिमा, प्राप्ती, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व, वशित्व, कामावासायता। अणिमा: एक अणु जितना छोटा बन जाना। लघिमा: बहुत ही हलके भार का हो जाना। प्राप्ती: हरेक पदार्थ प्राप्त करने की स्मर्था। प्राकाम्य: स्वतंत्र मर्जी, जिसकी कोई विरोधता ना कर सके। महिमा: अपने आप को जितना चाहे उतना बड़ा बनाने की ताकत। ईशित्व: प्रभुता। वशित्व: दूसरे को अपने वश में कर लेना। कामावासायता: काम आदि विकारों को काबू में रखने का बल।
दर्पण-भाषार्थ
अवरा = अन्य, अकाल-पुरख से परे ले जाने वाले। साद = स्वाद, चस्के। संजोगु = संयोग, मेल, अकाल-पुरख की रज़ा का वह अंश जिससे जीव मिलते हैं, या संसार के अन्य कार्य होते हैं। विजोग = विछोड़ा, अकाल-पुरख की रज़ा का वह अंश जिसके द्वारा जीव विछड़ते है या कोई अस्तित्व वाले पदार्थ नाश हो जाते हैं। दुइ = दोनों। कार = संसारिक कार्य। चलावहि = चला रहे हैं। (जोगियों में भंडारे के वास्ते एक आदमी रसद लाने वाला होता है; इसे अकाल-पुरख की ‘संजोग रूप’ सत्ता समझ लें। दूसरा बाँटने वाला होता है, जो ‘विजोग’सत्ता है)। लेखे = किये हुए कर्मों केलेखे मुताबिक। आवहि = आते हैं, मिलते हैं। भाग = अपने-अपने हिस्से, अपने-अपने छांदे। (जोगी भंडारा बाँटने के समय हरेक को दर्जा-ब-दर्जा छांदा दिए जाते हैं, अकाल-पुरख की ‘संजोग’ ‘विजोग’ की सत्ता सब जीवों को उनके किये कर्मों के लेख अनुसार सुख दुख के छांदे बाँट रही है।)
अर्थ: (हे जोगी! यदि) अकाल-पुरख की सर्वव्यापकता का ज्ञान तेरे लिए भण्डारा (चूरमा) हो, दया इस (ज्ञान रूप) भण्डारे को बाँटने वाली हो, हरेक जीव के अंदर जो (जिंदगी की) लहर चल रही है, (भण्डारा खाने के समय यदि तेरे अंदर) यह नादी बज रही हो, तेरा नाथ स्वयं अकाल-पुरख हो, जिसके वस में सारी सृष्टि है (तो झूठ की दीवार तेरे अंदर से टूट के परमात्मा से तेरी दूरी खतम हो सकती है। योग साधनों से प्राप्त हुई रिद्धियां व्यर्थ हैं, ये) रिद्धियां और सिद्धियां (तो) दूसरास्वाद हैं (ईश्वर की राह से परे ले जाते हैं)। अकाल-पुरख की ‘संजोग’ सत्ता व ‘विजोग’ सत्ता दोनों (मिल के इस संसार की) कार को चला रहे हैं (भाव, पिछले संयोगों सदके परिवार आदि के जीव यहाँ आ के एकत्र होते हैं। फिर रजा में बिछड़ के अपनी-अपनी बारी यहाँ से चले जाते हैं) और (सभ जीवों के किये कर्मों के) लेख अनुसार (दर्जा-ब-दर्जा सुख-दुख के) छांदे मिल रहे हैं (अगर ये यकीन बन जाए तो अंदर से झूठ की दीवार टूट जाती है।)
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विश्वास-प्रस्तुतिः
आदेसु तिसै आदेसु ॥ आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२९॥
मूलम्
आदेसु तिसै आदेसु ॥ आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥२९॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (सो, झूठ की दीवार दूर करने के लिए) केवल उस को (अकाल-पुरख) प्रणाम करो, जो (सब का) आरम्भ है, जो शुद्ध-स्वरूप है, जिसका कोई अंत नहीं (ढूँढ सकता), जो नाश रहित है और जो सदैव इकसार रहता है।29।
दर्पण-भाव
भाव: नाम जपने की बरकत से यह ज्ञान पैदा होगा कि प्रभु हर जगह भरपूर है (सर्व-व्यापक है) और सब का सांई है। उसकी रजा में जीव यहाँ आ के एकत्र होते हैं और रजा में ही यहां से चले जाते हैं। ये ज्ञान पैदा होने से ही लोगों से प्यार करने की विधि आ जाएगी। योगाभ्यास द्वारा प्राप्त हुई रिद्धियों-सिद्धियों को ऊँचा जीवन समझ लेना भूल है। ये तो बल्कि गलत रास्ते पे ले जातीं हैं। (इनकी सहायता से जोगी लोग आम जनता पर दबाव डाल कर उन्हें इन्सानियत से गिराते हैं)।29।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु ॥ इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीबाणु ॥
मूलम्
एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु ॥ इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीबाणु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एका = अकेली। माई = माया। जुगति = युक्ति से, तरीके से। विआई = प्रसूति हुई, गर्भवती। तिनि = इस शब्द के तीन स्वरूप हैं: ‘तिन’,‘तिनि’ और ‘तीनि’। ‘तीनि’ का अर्थ है तीन की गिनती।
दर्पण-टिप्पनी
‘तिनि’ का अर्थ भी तीन है, पर इसके और अर्थ भी बनते हैं।
‘तिन’ सर्वनाम बहुवचन है और ‘तिनि’ सर्वनाम एकवचन है।
इनके मुकाबले पे ‘जिन’ बहुवचन तथा ‘जिनि’ एकवचन।
तिनि = उस मनुष्य ने (एक वचन)
‘जिनि सेविआ तिनि पाइआ मानु’। (पउड़ी ५)
तिन = उन मनुष्यों के (बहु वचन)
‘जिन हरि जपिआ तिन फलु पाइआ,
सभि तूटे माइआ फंदे।3।
परवाणु: शब्द ‘परवाणु’ की ओर भी थोड़ा सा ध्यान देने की जरूरत है। जपुजी साहिब में ये शब्द नीचे-लिखीं तुकों में आया है:
पंच परवाण, पंच परधानु। (पउड़ी १६)
अमुलु तुलु, अमुलु परवाणु। (पउड़ी २६)
एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु। (पउड़ी ३०)
तिथै सोहनि पंच परवाणु। (पउड़ी ३४)
संस्कृत में ये शब्द ‘प्रमाण’ है, जिसके बहुत अर्थ है, जैसे;
(अ) बाँट (तोलने वाला)
(आ) बित्त
(इ) सबूत, गवाही।
(ई) रसूख वाला जाना माना। इस अर्थ में ये शब्द दो तरह से प्रयोग किया जाता है। जैसे, ‘व्याकरणे पाणिनि प्रमाणं’ और ‘वेदा: प्रमाण: ’, अर्थात एक वचन में भी और बहुवचन में भी।
सो, उपरोक्त तुक नं: 1 में ‘परवाण’ (बहु वचन) का अर्थ है ‘जाने माने हुए’ है। तुक नं: 2 में ‘परवाणु’ (एक वचन) का अर्थ है ‘बाँट’ (तोलने वाला)। तुक नं: 3 और 4 में ‘परवाणु’ (एकवचन) का अर्थ है ‘जाने माने तौर पर’, ‘प्रत्यक्ष तौर पे’।
दर्पण-भाषार्थ
परवाणु = प्रत्यक्ष। संसारी = घरबारी, घर बार वाला व्यक्ति। भण्डारी = भण्डारे का मालिक, रिजक देने वाला। लाए = लगाता है। दीबाणु = दरबार, कचहरी।
अर्थ: (लोगों में ये ख़्याल आम प्रचलित है कि) अकेली माया (किसी) जुगति (युक्ति) से गर्भवती हुई और प्रत्यक्ष तौर पे उसके तीन पुत्र पैदा हो गए। उनमें से एक (ब्रह्मा) घरबारी बन गया (भाव, जीव-जन्तुओं को पैदा करने लग पड़ा), एक (विष्णु) भण्डारे का मालिक बन गया (भाव, जीवों को रिजक पहुँचाने का काम करने लगा), और एक (शिव) कचहरी लगाता है (भाव, जीवों को संहारता है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिव तिसु भावै तिवै चलावै जिव होवै फुरमाणु ॥ ओहु वेखै ओना नदरि न आवै बहुता एहु विडाणु ॥
मूलम्
जिव तिसु भावै तिवै चलावै जिव होवै फुरमाणु ॥ ओहु वेखै ओना नदरि न आवै बहुता एहु विडाणु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिव = जिस तरह। तिसु = उस अकाल-पुरख को। चलावै = (संसार की कार्यवाही) चलाता है। फुरमाणु = हुक्म। ओहु = अकाल-पुरख। ओना = जीवों को। नदरि न आवै = दिखाई नहीं देता। विडाणु = आश्चर्यजनक चमत्कार।
अर्थ: (पर असल में बात ये है कि) जिस तरह उस अकाल-पुरख को ठीक लगता है और जैसे उसका हुक्म होता है, वैसे ही वह संसार की (कार) कार्यवाही चला रहा है, (इन ब्रह्मा, विष्णु और शिव के हाथ में कुछ नहीं)। ये बड़ा आश्चर्य जनक चमत्कार है कि वह अकाल-पुरख (सभी जीवों को) देख रहा है, पर जीवों को अकाल-पुरख नहीं दिखाई देता।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदेसु तिसै आदेसु ॥ आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३०॥
मूलम्
आदेसु तिसै आदेसु ॥ आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३०॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (सो, ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि की जगह) केवल उस को (अकाल-पुरख) प्रणाम करो, जो (सब का) आरम्भ है, जो शुद्ध-स्वरूप है, जिसका कोई अंत नहीं (ढूँढ सकता), जो नाश रहित है और जो सदैव एक जैसा ही रहता है (यही है तरीका उस प्रभु से दूरी दूर करने का)।30।
दर्पण-भाव
भाव: ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है, त्यों-त्यों उसको ये ख्याल कच्चे प्रतीत होने लगते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदिक कोई अलग हस्तियां जगत के प्रबंध को चला रही हैं। नाम-जपने वाले को यकीन है कि प्रभु खुद अपनी रज़ा में अपने हुक्म अनुसार जगत की कार चला रहा है, हलांकि जीवों को इन आँखों से वह दिखता नहीं।30।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसणु लोइ लोइ भंडार ॥ जो किछु पाइआ सु एका वार ॥ करि करि वेखै सिरजणहारु ॥ नानक सचे की साची कार ॥
मूलम्
आसणु लोइ लोइ भंडार ॥ जो किछु पाइआ सु एका वार ॥ करि करि वेखै सिरजणहारु ॥ नानक सचे की साची कार ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आसणु = टिकाणा। लोइ = लोक में। लोइ लोइ = हरेक भवन में। आसणु भंडार = भण्डारों का टिकाना। पाइआ = उस अकाल-पुरख ने डाल दिया है। करि करि = (जीवों को) पैदा करके। वेखै = संभाल करता है। सिरजणहारु = सृष्टि को पैदा करने वाला अकाल-पुरख। साची = सदैव अटल रहने वाली।
अर्थ: अकाल-पुरख के भण्डारों का ठिकाना हरेक भवन में है (भाव, हरेक भवन में अकाल-पुरख के भण्डारे चल रहे हैं)। जो कुछ (अकाल-पुरख ने उन भण्डारों में) डाला है, एक बार में ही डाल दिया है (भाव, उसके भण्डारे सदा अतुट हैं)। सृष्टि को पैदा करने वाला अकाल-पुरख (जीवों को) पैदा करके (उनकी) सम्भाल कर रहा है। हे नानक! सदा स्थिर रहने वाले (अकाल-पुरख) की (सृष्टि की संभाल वाली) यह कार सदा अटल है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदेसु तिसै आदेसु ॥ आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३१॥
मूलम्
आदेसु तिसै आदेसु ॥ आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु ॥३१॥
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (सो) केवल उस को (अकाल-पुरख) प्रणाम करो, जो (सब का) आरम्भ है, जो शुद्ध-स्वरूप है, जिसका कोई अंत नहीं (ढूँढ सकता), जो नाश रहित है और जो सदैव एक जैसा ही रहता है (यही है तरीका उस प्रभु से दूरी मिट सकती है)।31।
दर्पण-भाव
भाव: बंदगी की बरकत के साथ ये समझ पड़ती है कि यद्यपि कर्तार की पैदा की हुई सृष्टि बेअंत है, फिर भी इसकी पालना करने के लिए उसके भण्डारे भी बेअंत हैं, कभी खत्म नहीं हो सकते। परमात्मा के इस प्रबंध के रास्ते में कोई बाधा नहीं पड़ सकती।31।
विश्वास-प्रस्तुतिः
इक दू जीभौ लख होहि लख होवहि लख वीस ॥ लखु लखु गेड़ा आखीअहि एकु नामु जगदीस ॥
मूलम्
इक दू जीभौ लख होहि लख होवहि लख वीस ॥ लखु लखु गेड़ा आखीअहि एकु नामु जगदीस ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: इक दू = एक से। इक दू जीभौ = एक जीभ से। होहि = हो जाएं। लख = लाख (जीभें)। लख होवहि = लाख जीभों से हो जाएं। लख वीस = बीस लाख। गेड़ा = फेरे, चक्कर। आखीअहि = कहे जाएं। एकु नामु जगदीस = जगदीश का एक नाम। जगदीश = जगत का ईश, जगत का मालिक, अकाल-पुरख।
अर्थ: यदि एक जीभ (जिहवा) से लाखों जीभें हो जाएं, और लाखों जीभों से बीस लाख बन जाएं, (इन बीस लाख जीभों से) अकाल-पुरख के एक नाम को एक-एक लाख बार कहें (तो भी झूठे मनुष्य की झूठी ही ठीस है, अर्थात, जो ये सोचे कि मैं अपनी मेहनत के बल पर इस तरह नाम स्मरण करके अकाल-पुरख को पा सकता हूँ, तो ये एक झूठा अहंकार है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतु राहि पति पवड़ीआ चड़ीऐ होइ इकीस ॥ सुणि गला आकास की कीटा आई रीस ॥
मूलम्
एतु राहि पति पवड़ीआ चड़ीऐ होइ इकीस ॥ सुणि गला आकास की कीटा आई रीस ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: एतु राहि = इस रास्ते में, अकाल-पुरख को मिलने वाले रास्ते में। पति पवड़ीआ = पति की सीढ़ियां, पति को मिलने के लिए जो पौड़ियां हैं। चढ़ीऐ = चढ़ते है, चढ़ सकते हैं। होइ इकीस = एक रूप हो के, स्वैभाव मिटा के। सुणि = सुन के। कीटा = कीड़ीयों को।
अर्थ: इस रास्ते में (परमात्मा से दूरी दूर करने वाले राह में) अकाल-पुरख को मिलने के लिए जो सीढ़ीयां हैं, उन के ऊपर स्वैभाव गवा के ही चढ़ सकते हैं। (लाखों जीभों के साथ भी गिनती के स्मरण से कुछ नहीं बनता। अहम् भाव दूर करने के बिना इन गिनती के पाठों का उद्यम यूँ है, मानों) आकाश की बातें सुन के कीड़ियों को भी ये रीस आ गयी है (कि हम भी आकाश पर पहुँच जाएं)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानक नदरी पाईऐ कूड़ी कूड़ै ठीस ॥३२॥
मूलम्
नानक नदरी पाईऐ कूड़ी कूड़ै ठीस ॥३२॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: नदरी = अकाल-पुरख की मेहर की नज़र से। पाईऐ = पाते हैं, अकाल-पुरख को प्राप्त करते हैं। कूड़े = झूठे मनुष्य की। कूड़ी ठीस = झूठी गप, खुद की झूठी महानता।
अर्थ: हे नानक! यदि अकाल-पुरख मेहर की नज़र करे, तभी उससे मिला जा सकता है, (वर्ना) झूठे मनुष्य की खुद की निरी झूठी ही वडियाई है (कि मैं स्मरण कर रहा हूँ)।33।
दर्पण-भाव
भाव: ‘कूड़ की पालि’ में घिरा मनुष्य दुनिया की चिन्ता-फिक्रों, दुख-क्लेशों के गट्ठों में गिरा रहता है, तथा प्रभु का निवास स्थान, मानों, एक ऐसा ऊँचा ठिकाना है जहाँ ठंड ही ठंड, शान्ति ही शान्ति है। इस नीची जगह से उस ऊँची अर्शी अवस्था पर जीव तभी पहुँच सकता है, अगर नाम जपने की सीढ़ी का आसरा ले। ‘तूं तूं’ करते हुण् ‘तूं’ में ही स्वैलीन कर दे। इस ‘स्वै’ वारे बिना ये स्मरण वाला उद्यम ठीक वैसा ही है जैसे आकाश की बातें सुन कर कीड़ियों को भी वहाँ पहुँचने का शौक पैदा हो जाए, पर चलें अपनी कीड़ी वाली रफतार से ही। ये भी ठीक है कि प्रभु की मर्जी में अपनी मर्जी वही लोग मिटाते हैं जिनके ऊपर प्रभु की मेहर हो।32।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आखणि जोरु चुपै नह जोरु ॥ जोरु न मंगणि देणि न जोरु ॥ जोरु न जीवणि मरणि नह जोरु ॥ जोरु न राजि मालि मनि सोरु ॥
मूलम्
आखणि जोरु चुपै नह जोरु ॥ जोरु न मंगणि देणि न जोरु ॥ जोरु न जीवणि मरणि नह जोरु ॥ जोरु न राजि मालि मनि सोरु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: आखणि = कहने में, बोलने में। चुपै = चुप रहने में। जोरु = ताकत, स्मर्था, इख्यिार,अपने मन की मर्जी। मंगणि = मांगने में। देणि = देने में। मरणि = मरने में। राजि मालि = राजमाल में, राज वैभव प्राप्त करने में। सोरु = शोर, हल्ला, फूँ फां।
अर्थ: बोलने में और चुप रहने में भी हमारा कोई अपना इख्तियार नहीं है। ना ही मांगने में हमारी मन-मर्जी चलती है और ना ही देने में। जीने में और मरने में भी हमारी कोई ताकत (काम नहीं देती)। इस राज व वैभव की प्राप्ति में भी हमारा कोई जोर नहीं चलता (जिस राज माल की वजह से हमारे) मन में इतनी फूँ-फां होती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोरु न सुरती गिआनि वीचारि ॥ जोरु न जुगती छुटै संसारु ॥ जिसु हथि जोरु करि वेखै सोइ ॥ नानक उतमु नीचु न कोइ ॥३३॥
मूलम्
जोरु न सुरती गिआनि वीचारि ॥ जोरु न जुगती छुटै संसारु ॥ जिसु हथि जोरु करि वेखै सोइ ॥ नानक उतमु नीचु न कोइ ॥३३॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सुरती = सोच में, आत्मिक चेतन्यता में। गिआनि = ज्ञान (प्राप्त करने) में। वीचारि = विचार (करने) में। जुगती = जुगत में, रहित में। छुटै = मुक्त होता है, समाप्त हो जाता है।
दर्पण-टिप्पनी
‘जिसु हथि….सोइ’, इस तुक को समझने के लिए शब्द ‘सोइ’ और ‘करि वेखै’ की ओर खास ध्यान देने की आवश्यक्ता है।
जपुजी साहिब में शब्द ‘सोइ’ नीचे दी हुईं तुकों में आता है:
आपे आपि निरंजनु सोइ। (पउड़ी ५)
जा करता सिरठी कउ साजे, आपे जाणै सोइ। (पउड़ी २१)
तिसु ऊचे कउ जाणै सोइ। (पउड़ी २४)
नानक जाणै साचा सोइ। (पउड़ी २६)
सोई सोई सदा सचु, साहिब साचा, साची नाई। (पउड़ी २७)
करहि अनंदु सचा मनि सोइ। (पउड़ी ३७)
इन ऊपर दी हुईं तुकों में से केवल पउड़ी २४ वाली तुक में ‘सोइ’ पहली तुक वाले ‘कोइ’ मनुष्य के लिए आया है, बाकी सभी जगह ‘अकाल-पुरख’ के वास्ते आया है। इसी ही अर्थ को ‘करि वेखै’ और भी पक्का करता है। वेखै = संभाल करता है, जैसे;
गावै को वेखै हादरा हदूरि। (पउड़ी ३)
करि करि वेखै कीता आपणा, जिव तिस दी वडिआई। (पउड़ी २७)
करि करि वेखै सिरजणहारु। (पउड़ी ३१)
ओह वेखै ओना नदरि न आवै, बहुता एहु विडाणु। (पउड़ी २७)
करि करि वेखै नदरि निहाल। (पउड़ी ३७)
वेखै विगसै करि वीचारु। (पउड़ी ३७)
दर्पण-भाषार्थ
जिसु हथि = जिस अकाल-पुरख के हाथ में। करि वेखै = (सृष्टि की) रचना करके सम्भाल कर रहा है। सोइ = वह अकाल-पुरख। संसारु = जनम मरण।
अर्थ: आत्मिक जागृति अवस्था में, ज्ञान में और विचार में रहने की भी हमारी स्मर्था नहीं है। उस जुगती में रहने के लिए भी हमारा इख्तियार नहीं है कि जिससे जनम मरण खत्म हो सके। वही अकाल-पुरख रचना रच के (उसकी हर प्रकार से) सम्भाल करता है, जिसके हाथ में स्मर्था है। हे नानक! अपने आप में ना कोई मनुष्य उत्तम है और ना ही नीच (भाव, जीवों को सदाचारी या दुराचारी बनाने वाला भी वह प्रभु स्वयं ही है) (अगर नाम जपने की बरकत से ये निश्चय बन जाए तो ही प्रमात्मा से जीव का फासला दूर होता है।33।
दर्पण-भाव
भाव: भले रास्ते पे चलना या बुरे रास्ते पे जाना जीवों के अपने बस की बात नहीं; जिस ईश्वर ने पैदा किये हैं वही इन पुतलियों को खिला रहा है। सो, अगर कोई जीव प्रभु की सिफति-सालाह कर रहा है तो ये प्रभु की अपनी मेहर है; जो कोई इस ओर से टूटा हुआ है तो भी ये मालिक की मर्जी है। यदि हम उसके दर से दातें मांगते हैं तो ये प्रेरणा भी वह स्वयं ही करने वाला है, तो फिर, दातें देता भी खुद ही है। अगर कोई जीव राज व धन के मद में मतवाला है तो ये भी प्रभु की रज़ा ही है; यदि किसी की श्रुति प्रभु चरणों में है तथा जीवन-जुगति स्वच्छ है तो ये मेहर भी ईश्वर की ही है।33।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राती रुती थिती वार ॥ पवण पाणी अगनी पाताल ॥ तिसु विचि धरती थापि रखी धरम साल ॥ तिसु विचि जीअ जुगति के रंग ॥ तिन के नाम अनेक अनंत ॥
मूलम्
राती रुती थिती वार ॥ पवण पाणी अगनी पाताल ॥ तिसु विचि धरती थापि रखी धरम साल ॥ तिसु विचि जीअ जुगति के रंग ॥ तिन के नाम अनेक अनंत ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: राती = रातें। रुती = ऋतुऐं। वार = दिन। पवण = सभ प्रकार कीहवा। पाताल = सारे पाताल। तिसु विचि = इन सभी के समुदाय में।
दर्पण-टिप्पनी
यहाँ ‘तिसु’ की ओर खास ध्यान देने की जरूरत है। पहिली तुके सारे शब्द बहुवचन में हैं। ‘तिसु’ एकवचन है, जिसका अर्थ है ‘सभी का एकत्र’।
दर्पण-भाषार्थ
थापि रखी = स्थापित की है, रख के टिका दी है। धरमसाल = धर्म कमाने का स्थान। तिसु विचि = उस धरती पे। जीअ = जीव जन्तु। जीअ जुगति = जीवों की जुगति, जीवों के रहने की युक्ति (बना दी) है।
दर्पण-टिप्पनी
के रंग = इस ‘के रंग’ को समझने के लिए नीचे लिखीं तुकों को ध्यान से विचारना आवश्यक है:
जीअ जाति रंगा के नाव। सभना लिखिआ वुड़ी कलाम। (पउड़ी १६)
तिथै भगत वसहि के लोअ। (पउड़ी ३७)
जे तिसु नदरि न आवई, त वात न पुछै के। (पउड़ी ७)
आपे जाणै आपे देइ। आखहि सि भि केई केइ। (पउड़ी २५)
एते कीते होर करेहि। ता आखि न सकहि केई केइ। (पउड़ी २६)
करमी आपो आपणी के नेड़े के दूरि।
इन सभी तुकों में ‘के’ अर्थ हैं ‘बहुत’; ‘न के’ के अर्थ हैं ‘कोई भी नहीं’। पउड़ी नं: 21 में ‘केई केइ’ इस्तेमाल हुआ है, आजकल की पंजाबी में भी हम ‘बहुत बहुत’ कहते हैं। जैसे, ‘के रंग’ का अर्थ है ‘बहुत रंगों के’। उसी तरह ‘के नाव’ का अर्थ है ‘बहुत नामों वाले’, ‘के लोअ’ का अर्थ हैकई लोगों के, बहुत भावनाओं की।
दर्पण-भाषार्थ
के रंग = कई रंगों के। तिन के = उन जीवों के। अनंत = बेअंत।
अर्थ: रातें, ऋतुएं, तिथिआं और वार, हवा, पानी, अग्नि व पाताल- इन सभी की एकत्रता में (अकाल-पुरख ने) धरती को धर्म कमाने का स्थान बना के टिका दिया है। इस धरती पर कई जुगतियों और रंगों के जीव (बसते हैं), जिनके अनेक और अनगिनत नाम हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करमी करमी होइ वीचारु ॥ सचा आपि सचा दरबारु ॥ तिथै सोहनि पंच परवाणु ॥ नदरी करमि पवै नीसाणु ॥
मूलम्
करमी करमी होइ वीचारु ॥ सचा आपि सचा दरबारु ॥ तिथै सोहनि पंच परवाणु ॥ नदरी करमि पवै नीसाणु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करमी करमी = जीवों के किए हुए कर्मों अनुसार। तिथै = अकाल-पुरख के दरबार में। सोहनि = शोभायमान होते है। परवाणु = प्रत्यक्ष तौर पे। नदरी = मेहर की नजर करने वाला अकाल-पुरख। करमि = करम द्वारा, रहमत से। नदरी करमि = अकाल-पुरख की बख्शिश से। पवै नीसाणु = निशान पड़ जाता है, महानता का चिन्ह (माथे पे) चमक पड़ता है, निशान लग जाता है।
अर्थ: (इन अनेक नामों और रंगों वाले जीवों के) अपने-अपने किये कर्मों के अनुसार (अकाल-पुरख के दर पे) निर्णय होता है (जिसमें कोई कोताही नहीं होती क्योंकि न्याय करने वाला) अकालपुख खुद सच्चा है, उसका दरबार भी सच्चा है। उस दरबार में संत जन प्रत्यक्ष तौर पे शोभायमान होते हैं और मेहर की नजर करने वाले अकाल-पुरख की बख्शिश से (उन संत जनों के माथे पे) वडियाई का निशान चमक पड़ता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच पकाई ओथै पाइ ॥ नानक गइआ जापै जाइ ॥३४॥
मूलम्
कच पकाई ओथै पाइ ॥ नानक गइआ जापै जाइ ॥३४॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: कच = कच्चा। पकाई = पक्के। ओथै = अकाल-पुरख की दरगाह में। पाइ = पाई जाती है, पता लगती है। गइआ = जा के ही, पहुँच के ही। जापै जाइ = जाना जाता है, देखा जाता है, पता चलता है।
अर्थ: (यहाँ संसार में किसी का बड़ा छोटा कहलाना कोई मायने नहीं रखता, इनके) कच्चे-पक्के की परख तो अकाल-पुरख के दर पे होती है। हे नानक! अकाल-पुरख के दर पर पहुँच के ही ये समझ आती है (कि असल में कौन पक्का है कौन कच्चा)।
दर्पण-भाव
भाव: जिस मनुष्य पे प्रभु की रहिमत होती है उसे पहले ये समझ आ जाती है कि मनुष्य इस धरती पे कोई खास मकसद के निर्बाह के लिए आया है। यहाँ जो अनेक जीव पैदा होते हैं इन सभी का अपने-अपने किए कर्मों के हिसाब से निबेड़ा होता है कि किस किस ने मानव जन्म के उद्देश्य को पूरा किया है। जिनकी मेहनत स्वीकार पड़ती है, वह ही प्रभु की हजूरी में आदर पाते हैं। यहाँ संसार में किसी का छोटा बड़ा कहलाना कोई अर्थ नहीं रखता।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: ऊपर दिए गये विचार आत्मिक राह में जीव की पहिली अवस्था है। जहाँ, ये अपने फर्ज को पहचानता है। इस आत्मिक अवस्था का नाम ‘धर्मखण्ड’ है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
धरम खंड का एहो धरमु ॥ गिआन खंड का आखहु करमु ॥
मूलम्
धरम खंड का एहो धरमु ॥ गिआन खंड का आखहु करमु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: धरमु = कर्तव्य, फर्ज। आखहु = बताओ, वर्णन करो, समझ लो। करम = काम, कर्तव्य। एहो = यही जो ऊपर बताया गया है।
अर्थ: धर्म खण्ड का मात्र यही कर्तव्य है, (जो ऊपर बताया गया है)। अब ज्ञान खण्ड के कर्तव्यों को भी समझ लो (जो अगली तुकों में है)।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: सत्गुरू जी पउड़ी नं: ३४ से ३७ तक मनुष्य की आत्मिक अवस्था के पाँच हिस्से बताते हैं: धर्म खण्ड, ज्ञान खण्ड, श्रम खण्ड, कर्म खण्ड और सच खण्ड।
इन चार पौड़ियों में जिक्र है कि प्रभु की मेहर से मनुष्य साधारण हालात से ऊँचा हो हो के कैसे ईश्वर के साथ एकरूप हो जाता है। पहले मनुष्य दुनिया के विषौ-विकारों से पलट के ‘आत्मा’ की ओर झाँकता है, और ये सोचता है कि मेरे जीवन का क्या प्रयोजन है, मैं संसार में क्यूँ आया हूँ, मेरा क्या फर्ज है। इस अवस्था में मनुष्य ये विचारता है कि इस धरती पे जीव धर्म कमाने के लिये आए हैं; अकाल-पुरख के दर पे जीवों के अपने-अपने किये कर्मों अनुसार निर्णय होता है। जिस गुरमुखों (गूरू की इच्छा और आदेश का अनुसरण करने वाले) पर अकाल-पुरख की बख्शिश होती है। वह उसकी हजूरी में सुशोभित होते हैं। इस दुनियां में आदर या निरादर कोई मुल्य नहीं रखते, दरअसल, वही आदरणीय हैं जो अकाल-पुरख के दर पे स्वीकार हैं।
ज्यों-ज्यों मनुष्य की तवज्जो ऐसे ख्यालों से जुड़ती है, त्यों-त्यों उस के अंदर से ‘स्वार्थ’ की गाँठ खुलती जाती है। मनुष्य पहले माया में मस्त रहने के कारण अपने आप को या अपने परिवार को ही ‘अपना’ जानता था और इनसे परे किसी और विचार में नहीं पड़ता, पर अब अपना ‘धर्म’ समझने और अपनी वाकफ़ियत को बढ़ाने का यत्न करता है। विद्या व विचार के बल पर अकाल-पुरख की बेअंत कुदरत का नक्शा आँखों के आगे आने लग पड़ता है। ज्ञान की आँधी आ जाती है, जिसके आगे सब वहिम-भ्रम उड़ जाते हैं। ज्यों ज्यों अंदर विद्या द्वारा समझ बढ़ती है, त्यों त्यों वह आनन्द मिलता है, जो पहले माया के पदार्तों में से नहीं था मिलता। आत्मक राह में इस अवस्था का नाम है ‘ज्ञानखण्ड’।
पर, इस राह पर पड़ कर मनुष्य निरा यहीं पर बस नहीं कर देता। वाणी की विचार उसको उद्यम की ओर प्रेरती है। सिर्फ, अक्ल से समझ लेना काफी नहीं। मन का पहला स्वभाव, पहली बुरी वादियां निरी ‘समझ’ से नहीं हट सकतीं। इस पहले निर्माण को, इन पहले संस्कारों को तोड़ के, अंदर नई सृजना करनी है, अंदर ऊँची अक़्ल वाले संस्कार पैदा करने हैं। अंमृत बेला (प्रभात) आदि में जागने की मेहनत करनी है। ज्ञानखण्ड में पहुँचा हुआ मनुष्य ज्यों ज्यों ये मेहनत करता है, ज्यों ज्यों गुरमति वाली नई कमाई करता है, त्यों त्यों उसके मन को मानो, सुंदर रूप चढ़ता है, काया कंचन जैसी होने लगती है। ऊँची अक़्ल और ऊँची बुद्धि हो जाती है, मन में जागृति आ जाती है। मनुष्य को देवताओं और सिद्धों वाली सूझ आ जाती है। यह ‘सरम खण्ड’ है।
बस, फिर क्या है! मालिक की मेहर हो जाती है। अंदर अकाल-पुरख बल भर देता है, आत्मा विकारों की ओर डावांडोल नहीं होती। बाहर भी हर जगह वही निर्माता ही दिखता है, मन सदा निरंकार की याद में परोया रहता है। उन्हें फिर पैदा होने या मरने का भय कैसा? उनके मन में सदा आनन्द ही आनन्द रहता है। यह ‘कर्मखण्ड’ है।
अकाल-पुरख की मेहर का पात्र बन के आखिर पाँचवें खण्ड में प्रवेश मिलता है, अर्थात अकाल-पुरख के साथ एक हो जाते हैं, जो सभी जीवों की संभाल कर रहा है और जिसका हुक्म हर ओर चल रहा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केते पवण पाणी वैसंतर केते कान महेस ॥ केते बरमे घाड़ति घड़ीअहि रूप रंग के वेस ॥
मूलम्
केते पवण पाणी वैसंतर केते कान महेस ॥ केते बरमे घाड़ति घड़ीअहि रूप रंग के वेस ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केते = कई, बेअंत। वैसंतर = अग्नियां। महेस = (कई) शिव। बरमे = कई ब्रह्मा। घाढ़ति घढ़ीअहि = घाढ़त घढ़ी जाती है, पैदा किए जाते हैं। के वेस = कई वेशों में (इस ‘के’ के अर्थ के लिए देखिए पौड़ी नंबर = 34)।
अर्थ: (अकाल-पुरख की रचना में) कई प्रकार की पवन, पानी और अग्निायां हैं, कई कृष्ण हैं और कई शिव हैं। कई ब्रह्मा पैदा किए जा रहे हैं, जिस के कई रूप, कई रंग और कई वेश हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केतीआ करम भूमी मेर केते केते धू उपदेस ॥ केते इंद चंद सूर केते केते मंडल देस ॥ केते सिध बुध नाथ केते केते देवी वेस ॥
मूलम्
केतीआ करम भूमी मेर केते केते धू उपदेस ॥ केते इंद चंद सूर केते केते मंडल देस ॥ केते सिध बुध नाथ केते केते देवी वेस ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: केतीआ = कई, बेअंत। करम भूमी = काम करने की भूमियां, धरतियां। मेर = मेरु पर्वत। धू = ध्रुअ भक्त। उपदेश = उन ध्रुअ भक्तों के उपदेश। इंद = इंद्र देवते। चंद = चंद्रमा। सूर = सूर्य। मंडल देस = भवण-चक्र। बुध = बुद्ध अवतार। देवी वेस = देवियों के पहिरावे में, देवियों के परिधान में।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: ‘केते’ पुलिंग हैजो ‘वेस’ शब्द के साथ प्रयोग किया गया है। इस लिए ‘देवी वेस’ का अर्थ करना है ‘देवियों के पहिरावे’)
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (अकाल-पुरख की कुदरत में) बेअंत धरतियां हैं, बेअंत मेरु पर्बत, बेअंत ध्रुअ भक्त व उनके उपदेश हैं। बेअंत इंद्र देवते, चंद्रमा, बेअंत सूरज और बेअंत भवन-चक्र हैं। बेअंत सिद्ध हैं, बेअंत बुद्ध अवतार हैं, बेअंत नाथ हैं और बेअंत देवियों के पहिरावे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
केते देव दानव मुनि केते केते रतन समुंद ॥ केतीआ खाणी केतीआ बाणी केते पात नरिंद ॥ केतीआ सुरती सेवक केते नानक अंतु न अंतु ॥३५॥
मूलम्
केते देव दानव मुनि केते केते रतन समुंद ॥ केतीआ खाणी केतीआ बाणी केते पात नरिंद ॥ केतीआ सुरती सेवक केते नानक अंतु न अंतु ॥३५॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: दानव = राक्षस, दैंत। मुनि = मौन धारी ऋषि। रतन समुंद = रतन और समुंदर। पात = पातशाह। नरिंद = राजे। सुरति = सोच, लगन, ध्यान।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: इस सारी पउड़ी को थेड़ा सा ध्यान देने से ये स्पष्ट हो जाता है कि ‘केते’ पुलिंग शब्दों के साथ प्रयोग किया गया है और ‘केतीआ’ स्त्रीलिंग शब्दों के साथ। सो, ‘सुरती’ स्त्रीलिंग है और ‘सुरति’ का बहुवचन) है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (अकाल-पुरख की रचना में) बेअंत देवते व दैंत हैं, बेअंत मुनि हैं, बेअंत प्रकार के रतन तथा (रत्नों के) समुंदर हैं। (जीव रचना की) बेअंत खाणीयां हैं। (जीवों की बोली भी चार नहीं) बेअंत बाणियां हैं। बेअंत बादशाह और राजे हैं, बेअंत प्रकार के ध्यान हैं (जो जीव मन द्वारा लगाते हैं), बेअंत सेवक हैं। हे नानक! कोई अंत नहीं पा सकता।35।
दर्पण-भाव
भाव: मानव जन्म के कर्तव्य (‘धर्म’) की समझ आ जाने से मनुष्य का मन बहुत विशाल हो जाता है। पहले एक छोटे से परिवार के स्वार्थ में बंधा हुआ ये जीव बहुत तंग दिल था। अब ये ज्ञान हो जाता है कि बेअंत प्रभु का पैदा किया हुआ ये बेअंत जगत एक बेअंत बड़ा परिवार है, जिसमें बेअंत कृष्ण, बेअंत विष्णू, बेअंत ब्रह्मा और बेअंत धरतियां हैं। ज्ञान की इस बरकत से तंग दिली हट के इसके अंदर प्यार की लहिर चल के खुशी ही खुशी बनी रहती है।35।
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिआन खंड महि गिआनु परचंडु ॥ तिथै नाद बिनोद कोड अनंदु ॥
मूलम्
गिआन खंड महि गिआनु परचंडु ॥ तिथै नाद बिनोद कोड अनंदु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: महि = में। परचंड = तेज़, प्रबल, बलवान। तिथै = उस ज्ञानखंड। मेंनाद = राग। बिनोद = तमाशे। कोड = कौतक, चमत्कार। अनंदु = स्वाद, मज़ा।
अर्थ: ज्ञानखण्ड में (भाव मनुष्य की ज्ञान अवस्था में) ज्ञान ही बलवान होता है। इस अवस्था में (मानों) सभी रागों, तमाशों व चमत्कारों का आनन्द आ जाता है।
[[0008]]
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरम खंड की बाणी रूपु ॥ तिथै घाड़ति घड़ीऐ बहुतु अनूपु ॥
मूलम्
सरम खंड की बाणी रूपु ॥ तिथै घाड़ति घड़ीऐ बहुतु अनूपु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सरम = श्रम, उद्यम, मेहनत। सरम खण्ड की = उद्यम अवस्था में। बाणी = बनावट। रूप = सुंदरता। तिथै = इस मेहनत वाली अवस्था में। बहुत अनूप = (मन) बहुत सुंदर।
अर्थ: श्रम अवस्था की बनावट सुंदरता है (भाव, इस अवस्था में आ के मन दिनों दिन खूबसूरत बनना शुरू हो जाता है)। इस अवस्था में (नई) घाढ़त के कारण मन बहुत सुंदर घढ़ा जाता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता कीआ गला कथीआ ना जाहि ॥ जे को कहै पिछै पछुताइ ॥
मूलम्
ता कीआ गला कथीआ ना जाहि ॥ जे को कहै पिछै पछुताइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: ता कीआ = उस अवस्था की। कथीआ न जाहि = कही नहीं जा सकतीं। को = कोई मनुष्य। कहै = कहे, ब्यान करे। पिछै = बताने के बाद। पछुताइ = पछताए, पछताता है (क्योंकि वह ब्यान करने से अस्मर्थ रहता है)।
अर्थ: उस अवस्था की बातें ब्यान नहीं की जा सकतीं। यदि कोई मनुष्य बयान करता है, तो बाद में पछताता है (क्योंकि वह बयान करने से अस्मर्थ रहता है)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिथै घड़ीऐ सुरति मति मनि बुधि ॥ तिथै घड़ीऐ सुरा सिधा की सुधि ॥३६॥
मूलम्
तिथै घड़ीऐ सुरति मति मनि बुधि ॥ तिथै घड़ीऐ सुरा सिधा की सुधि ॥३६॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: तिथै = उस श्रम खण्ड में। घड़ीऐ = घड़ी जाती है। मनि बुधि = मन में जागृति। सुरा की सुधि = देवताओं जैसी सूझ। सिधा की सुधि = सिद्धों वाली समझ।
अर्थ: उस मेहनत वाली अवस्था में मनुष्य की तवज्जो और मति घढ़ी जाती है, (भाव, श्रुति और मति ऊँची हो जाती है) और मन में जागृति पैदा हो जाती है। श्रम खण्ड में देवताओं और सिद्धों वाली बुद्धि (मनुष्य के भीतर) बन जाती है।36।
दर्पण-भाव
भाव: ज्ञान अवस्था की बरकत सेज्यों ज्यों सारा जगत एक सांझा परिवार दिखाई देने लगता है, जीव खलकत की सेवा की मेहनत (श्रम) की बीड़ा सिर पे उठाता है, मन की पहली तंगदिली हट के विशालता व उदारता की घाड़त में मन नए सिरे से सुंदर सा घड़ा जाता है, मन में एक नई जागृति आती है, अक़्ल ऊँची होने लगती है।36।
विश्वास-प्रस्तुतिः
करम खंड की बाणी जोरु ॥ तिथै होरु न कोई होरु ॥ तिथै जोध महाबल सूर ॥ तिन महि रामु रहिआ भरपूर ॥
मूलम्
करम खंड की बाणी जोरु ॥ तिथै होरु न कोई होरु ॥ तिथै जोध महाबल सूर ॥ तिन महि रामु रहिआ भरपूर ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: करम = बख्शिश। बाणी = बनावट। जोरु = बल, ताकत। होरु = अकाल-पुरख के बिना कोई दूसरा। होरु न कोई होरु = अकाल-पुरख के बिना दूसरा बिल्कुल ही कोई नहीं है। जोध = योद्धे। महाबल = बड़े बल वाले। सूर = सूरमे। तिन महि = उन में। रामु = अकाल-पुरख। रहिआ भरपूर = नाको नाक भरा हुआ है, रोम रोम में बस रहा है।
अर्थ: बख्शिश, रहिमत वाली अवस्था की बनावट बल है, (भाव, जब मनुष्य पर अकाल-पुरख की मेहर की नज़र होती है, तो उसके अंदर ऐसा बल पैदा होता है कि विषय-विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते), क्योंकि उस अवस्था में (मनुष्य के अंदर) अकाल-पुरख के बिना और कोई दूसरा बिल्कुल नहीं रहता। उस अवस्था में (जो मनुष्य हैं वह) योद्धे, महांबली व सूरमें हैं, उन के रोम रोम में अकाल-पुरख बस रहा है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिथै सीतो सीता महिमा माहि ॥ ता के रूप न कथने जाहि ॥ ना ओहि मरहि न ठागे जाहि ॥ जिन कै रामु वसै मन माहि ॥
मूलम्
तिथै सीतो सीता महिमा माहि ॥ ता के रूप न कथने जाहि ॥ ना ओहि मरहि न ठागे जाहि ॥ जिन कै रामु वसै मन माहि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सीतो सीता = पूर्ण तौर पर सिला हुआ।
दर्पण-टिप्पनी
(नोट: यहां एक ही शब्द ‘सीता’ दूसरी बार प्रयोग किया गया है। इसी तरह इस ख्याल पे खास ज्यादा जार दिया गया है। एसे ही वाक्यांश और भी हैं, जैसे:
नानकु अंतु न अंतु। {पउड़ी ३५}
तिथै होरु न कोई होरु। {पउड़ी ३७}
जे को कथै त अंत न अंत। {पउड़ी ३७})
दर्पण-भाषार्थ
महिमा = (अकाल-पुरख की) महिमा, वडियाई। माहि = बीच में। ता के = उन मनुष्यों के। रूप = सुंदर रूप। न कथने जाहि = कथन नहीं किए जा सकते। ओहि = वे लोग। ना मरहि = आत्मिक मौत नहीं मरते। ना ठागै जाहि = ना ही ठगे जा सकते है (माया उन को ठग नहीं सकती)।
अर्थ: उस (बख्शिश) अवस्था में पहुँचे हुए मनुष्य का मन पूरी तरह से अकाल-पुरख की वडिआईमें परोया रहता है, (उनके शरीर ऐसे कंचन सी चमक वाले हो जाते हैं कि) उनके सुंदर रूप का वर्णननहीं किया जा सकता। (उनके मुख पर नूर ही नूर लिशकारे मारता है)। (इस अवस्था में) मन में अकाल-पुरख बसता है, वे आत्मिक मौत नहीं मरतेऔर माया उनको ठग नहीं सकती।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिथै भगत वसहि के लोअ ॥ करहि अनंदु सचा मनि सोइ ॥
मूलम्
तिथै भगत वसहि के लोअ ॥ करहि अनंदु सचा मनि सोइ ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वसहि = बसते हैं। लोअ = लोक, भवन। के लोअ = कई भवनों के (देखें पउड़ी 34 में ‘के रंग’)। करहि अनंदु = आनन्द करते हैं, सदा खुश रहते हैं। सचा सोइ = वह सच्चा हरि। मनि = (उनके) मन में है।
अर्थ: उस अवस्था में कई भवनों के भक्तजन बसते हैं, जो सदा प्रसन्न रहते हैं, (क्योंकि) वह सच्चा अकाल पुरख उनके मन में (मौजूद) है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सच खंडि वसै निरंकारु ॥ करि करि वेखै नदरि निहाल ॥
मूलम्
सच खंडि वसै निरंकारु ॥ करि करि वेखै नदरि निहाल ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: सचि = सच में। सचि खंडि = सचखण्ड में। करि करि = सृष्टि रच के। नदरि निहाल = निहाल करने वाली नजर से। वेखै = देखता है, संभाल करता है।
अर्थ: सच खंड में (भाव, अकाल-पुरख के साथ एकरूप होने वाली अवस्था में) मनुष्य के अंदर वह अकाल-पुरख खुद ही बसता है, जो सृष्टि को रच रच के मेहर की नजर से उसकी संभाल करता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिथै खंड मंडल वरभंड ॥ जे को कथै त अंत न अंत ॥ तिथै लोअ लोअ आकार ॥ जिव जिव हुकमु तिवै तिव कार ॥ वेखै विगसै करि वीचारु ॥ नानक कथना करड़ा सारु ॥३७॥
मूलम्
तिथै खंड मंडल वरभंड ॥ जे को कथै त अंत न अंत ॥ तिथै लोअ लोअ आकार ॥ जिव जिव हुकमु तिवै तिव कार ॥ वेखै विगसै करि वीचारु ॥ नानक कथना करड़ा सारु ॥३७॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वरभंड = ब्रह्मिण्ड। को = कोई मनुष्य। कथै = बताने लगे, बयान करे। त अंत न अंत = इन खण्डों मण्डलों तथा ब्रह्मिण्डों के अंत नहीं पाये जा सकते। लोअ लोअ = कई लोक, कई भवन। विगसै = विगसता है, खुश होता है। करि वीचारु = वीचार करके। कथना = कथन करना, बयान करना। सारु = इस शब्द को समझने के लिए उदाहरण के तौर पे नीचे लिखे प्रमाण दिए जा रहे हैं:
दर्पण-टिप्पनी
• पहिरा अगनि हिवै घरु बाधा भोजन सारु कराई।१। (पउड़ी१९,माझ की वार)
• तूँ सागरो रतनागरो हउ सार न जाणा तेरी राम। (सूही छंत महला ५)
लाहा भगति सु सारु गुरमुखि पाईऐ। (माझ की वार पउड़ी १५)
धनु वडभागी नानका, जिन गुरमुखि हरि रसु सारि।१। (कानड़े की वार)
इन ऊपर दिए प्रमाणों का निर्णय इस प्रकार है:
‘सारु’ संज्ञा है, पुलिंग व स्त्रीलिंग।
‘सारु’ पुलिंग का अर्थ है: ‘लोहा’ या ‘तत्व’
‘सार’ स्त्रीलिंग का अर्थ है: ‘सूझ, खबर’।
जैसे प्रमाण नं: 1 और 2 में।
‘सार’ विशेषण है, जैसे प्रमाण नं: 3 में, यहाँ इसका अर्थ है: ‘श्रेष्ठ’।
‘सारि’ क्रिया है, जिस का अर्थ है: ‘खबर लेनी’, ‘याद करना’। जैसे प्रमाण नं: 4 में।
दर्पण-भाषार्थ
सारु = लोहा। करड़ा सारु = सख्त जैसे लोहा है।
अर्थ: उस अवस्था में (भाव, अकाल-पुरख के साथ एकरूप होने वाली अवस्था में) मनुष्य को बेअंत खण्ड, मण्डल व बेअंत ब्रह्मिण्ड (दिखाई देते हैं, इतने बेअंत कि) यदि कोई मनुष्य उनका कथन करने लगे, तो उसकी कमी नहीं पड़ सकती,कभी ना खत्म होने वाला सिलसिला। उस अवस्था में बेअंत भवन तथा आकार दिखाई देते हैं (जिस सभी में) उसी तरह कार-व्यवहार चल रहा है जिस तरह अकाल-पुरख का हुक्म होता है (भाव, इस अवस्था में पहुँच के मनुष्य को हर जगह अकाल-पुरख की रजा वर्तती दिखती है)। (उसको प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि) अकाल-पुरख विचार करके (सभ जीवों की) संभाल करता है और खुश होता है। हे नानक! इस अवस्था का कथन करना बहुत मुश्किल है (भाव, ये अवस्था बयान नहीं हो सकती, अनुभव ही की जा सकती है बस!)।37।
दर्पण-भाव
भाव: परमात्मा के साथ एक-रूप हो चुकने वाली आत्मिक अवस्था में पहुँचे जीव के ऊपर प्रमात्मा की रहिमत का दरवाजा खुलता है, उसको सब अपने ही अपने नजर आते हैं, हर तरफ प्रभु ही नज़र आता है। ऐसे मनुष्य की तवज्जो हमेशा प्रभु की महिमा में जुड़ी रहती है। अब माया इसे ठग नहीं सकती। आत्मा बलवान हो जाती है, प्रभु से दूरी पैदा नहीं हो सकती। अब उसे प्रत्यक्ष प्रतीत होने लगता है कि बेअंत कुदरत रच के ईश्वर सभी को अपनी मर्जी से चला रहा है, तथा सब पे मिहर की नज़र कर रहा है।37।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जतु पाहारा धीरजु सुनिआरु ॥ अहरणि मति वेदु हथीआरु ॥
मूलम्
जतु पाहारा धीरजु सुनिआरु ॥ अहरणि मति वेदु हथीआरु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जतु = अपनी शारीरिक इन्द्रियों को विकारों से रोक के रखना। पाहारा = सुनियारे की दुकान। सुनिआरु = सोनार। अहिरण = सोना ढालने वाला आधार। मति = अक्ल, बुद्धि। वेदु = ज्ञान। हथिआर = हथौड़ा।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: शब्द ‘वेद’ नीचे लिखी तुकों में जपुजी साहिब में प्रयोग में आया है:
गुरमुखि नादं, गुरमुखि वेदं, गुरमुखि रहिआ समाई। (पउड़ी ५)
सुणिऐ सासत सिंम्रिति वेद। (पउड़ी ९)
असंख गरंथ मुखि वेद पाठ। (पउड़ी (१७)
ओड़क ओड़क भालि थके, वेद कहनि इक वात। (पउड़ी २२)
आखहि वेद पाठ पुराण। (पउड़ी २६)
गावनि पंडित पढ़नि रखीसर, जुग जुग वेदा नाले। (पउड़ी २७)
पउड़ी नं 5 वाली तुक के बिना बाकी सब पउड़ियों में शब्द ‘वेद’ बहुवचन में है और हिन्दू मत की धर्म पुस्तकों ‘वेदों’ की ओर इशारा है। पर पउड़ी नं: 5 में ‘वेदं’ एकवचन है और अर्थ है: ‘ज्ञान’। पर ये जरूरी नहीं है कि जहाँ जहाँ शब्द ‘वेद’ एकवचन में आया है, वहाँ उसके अर्थ ‘ज्ञान’ ही हों। बहुत शब्द ऐसे हैं, जहाँ ‘वेद’ एकवचन होते हुए भी हिन्दू मत की धर्म पुस्तक वेद ही है। पर प्रकरण को विचारना भी जरूरी है।
इस पउड़ी में ‘जतु’, ‘धीरज’, ‘मति’, ‘भउ’, ‘तपताउ’, और ‘भाउ’ भाव-वाचक शब्द आए हैं, इस वास्ते शब्द ‘वेद’ भी उनके साथ मिलता जुलता (‘ज्ञान’ अर्थ) भाव-वाचक ही हो सकता है।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (यदि) जत-रूप दुकान (हो), धैर्य सोनार बने, मनुष्य की अपनी बुद्धि अहिरण हो, (उस मति अहिरण पर) ज्ञान का हथौड़ा (चोट करे)।
विश्वास-प्रस्तुतिः
भउ खला अगनि तप ताउ ॥ भांडा भाउ अम्रितु तितु ढालि ॥ घड़ीऐ सबदु सची टकसाल ॥
मूलम्
भउ खला अगनि तप ताउ ॥ भांडा भाउ अम्रितु तितु ढालि ॥ घड़ीऐ सबदु सची टकसाल ॥
दर्पण-टिप्पनी
भउ: ‘भउ’ शब्द को यहाँ ध्यान से विचारने की जरूरत है।
‘जपुजी’ साहिब में ये शब्द दो बार आया है, मूलमंत्र में ‘निरभउ’ और पउड़ी नं: 38 में ‘भउ’।
संस्कृत का शब्द ‘भय’ है। पर सत्गुरू जी इसको ‘भउ’ लिखते हैं। आर्या समाज जैसी पढ़ी-लिखी श्रेणी के मुखी स्वामी दयानंद इस भउ शब्द को सामने रख के, अपनी विद्या के आधार पे, गुरु नानक साहिब को अनपढ़ लिख गए हैं। संस्कृत विद्या की जानकारी के आधार पर वे लिखते हैं कि गुरु नानक साहिब अगर संस्कृत जानते होते तो ‘भय’ को ‘भउ’ ना लिखते।
इस पुस्तक का इस विषय के साथ कोई संबंध नहीं कि गुरु नानक साहिब की संस्कृत विद्या का सबूत दिया जाए, क्योंकि इस बात की तो जरूरत ही नहीं थी कि गुरु नानक साहिब अपने समय के जीवों को संस्कृत बोली में उपदेश देते या संस्कृत की धार्मिक पुस्तकों का उपदेश दृढ़ करवाते। अकाल-पुरख की ओर से वे जो संदेश ले के आए थे, वह उन्होंने उस बोली में सुनाना था और सुनाया, जो इस समय इस देश के लोगों में प्रचलित थी।
बोली हमेशा बदलती आई है। वेदों की संस्कृत बदल के और हो गई। संस्कृत बदल के प्राकृत बन गई। प्राकृत से पंजाबी बनती गई। गुरु नानक साहिब के समय की पंजाबी भी अब ना रही, बदल गई है। इस वास्ते स्वामी दयानंद गुरु नानक साहिब की शान में दुखदाई शब्द लिखने की जगह अगर ये देखते कि देश की बोली उस समय कौन सी थी तो यह भूल ना करते।
संस्कृत, प्राकृत और पंजाबी के शब्दों की खोज के आधार पे बेअंत शब्द पेश किए जा सकते हैं, जहाँ ये प्रत्यक्ष रूप से साबित हो जाता हैकि कैसे संस्कृत शब्द बदल कर पंजाबी में नया रूप धारण करते गए।
नोट: इस विचार को विस्थार से समझने के लिए पढ़िए मेरी पुस्तक “गुरबाणी के इतिहास बारे” के पन्ना 43 से 61 तक।
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: भउ = अकाल-पुरख का डर। खला = खलां, धौंकनी, फूकनी (जिससे सोनारे फूक मार के आग सुलगाते हैं)। भाउ = प्रेम। अंम्रितु = अमृत: अकाल-पुरख का अमर करने वाला नाम। तितु = उस बरतन में। घढ़ीऐ = घढ़ा जाता है। घढ़ीऐ शबद = शब्द ढाला जाता है। सची टकसाल = ऊपर वर्णित सच्ची टकसाल में।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: जत, धीरज (धैर्य), मति, ज्ञान, भय (भउ), तपताउ और भाउ (भाव, भावना) की मिश्रित सच्ची टकसाल में गुर-शब्द की मोहर घढ़ी जाती है, (भाव, जिस ऊँची आत्मिक अवस्था में कोई शब्द गुरु जी ने उचारा है, सिख को भी वह शब्द उसी अवस्था में ले पहुँचता है), (झूठ की दीवार तोड़ देता है) यदि जत धीरज आदि वाला जीवन बन जाएं टकसाल; वह जगह जहाँ सरकारी रुपए सिक्के घढ़े जाते हैं।
दर्पण-भाषार्थ
अर्थ: (यदि) अकाल-पुरख का डर धौंकनी (हो), मेहनत आग (हो), प्रेम कुठाली हो, तो (हे भाई!) उस (कुठाली) में अकाल-पुरख का अमृत साथ गलाओ, (क्योंकि ऐसी ही) सच्ची टकसाल में (गुरु का) शब्द घढ़ा जा सकता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन कउ नदरि करमु तिन कार ॥ नानक नदरी नदरि निहाल ॥३८॥
मूलम्
जिन कउ नदरि करमु तिन कार ॥ नानक नदरी नदरि निहाल ॥३८॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिन कउ = जो मनुष्यों पर। नदरि = मेहर की नज़र। करमु = बख्शिश। तिन कार = उन मनुष्यों की ही ये कार (कार्यशैली/कार्य-व्यवहार) है (भाव, वे मनुष्य जो ऊपर बताई गई टकसाल तैयार करके शब्द की घाढ़त घढ़ते हैं)। निहाल = प्रसन्न, खुश, आनन्द। नदरी = मिहर की नजर करने वाला प्रभु।
अर्थ: ये कार्य-व्यवहार उन्हीं मनुष्यों का ही है, जिस पे मेहर की नजर होती है। हे नानक! वे मनुष्य अकाल-पुरख की कृपा-दृष्टि से निहाल हो जाते हैं।38
दर्पण-भाव
भाव: पर ऐसी उच्च आत्मिक अवस्था तभी बन सकती है जब आचरण पवित्र हो, दूसरों के आक्रामक रुख को बर्दाश्त करने का हौसला हो, ऊँची व विशाल समझ हो, प्रभु का भय हृदय में बना रहे, सेवा की मेहनत कमाई की जाए, ख़ालक व ख़लक का प्यार दिल में हो। ये जत, धैर्य, मति, ज्ञान, भय, मेहनत और प्रेम के गुणएक सच्ची टकसाल है जिसमें गुर-शब्द की मोहर घढ़ी जाती है (भाव, जिस ऊँची आत्मिक अवस्था में कोई शब्द सत्गुरू जी ने उचारा है, ऊपर बताए जीवन-शैली वाले सिख को भी वह शब्द उसी आत्मिक अवस्था में ले पहुँचता है)।38।
दर्पण-टिप्पनी
नोट: वाणी ‘जपु’ की कुल 38 पउड़ियां हैं, जो यहाँ समाप्त हुई हैं। पहले श्लाक में मंगलाचरण के तौर पर सत्गुरू जी ने अपने ईष्ट का स्वरूप बयान किया था। अगले आखिरी श्लोक में सारी वाणी ‘जपु’ का सिद्धांत बताया है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सलोकु ॥ पवणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु ॥ दिवसु राति दुइ दाई दाइआ खेलै सगल जगतु ॥
मूलम्
सलोकु ॥ पवणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु ॥ दिवसु राति दुइ दाई दाइआ खेलै सगल जगतु ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: पवणु = हवा, स्वास, प्राण। महतु = बड़ी, विशाल। दिवसु = दिन। दुइ = दोनों। दिवसु दाइआ = दिन खिलावा है। राति दाई = रात खिलावी है। सगल = सारा।
अर्थ: प्राण (शरीर में इस प्रकार हैं जैसे) गुरु (जीवों की आत्मा के लिए) है। पानी (सभी जीवों का) पिता है और धरती (सबकी) बड़ी माँ है। दिन और रात दोनों खेल खिलाने वाला और खिलाने वाली हैं, सारा संसार खेल रहा है (भाव, संसार के सारे जीव रात को सोने में और दिन के कार्य-व्यवहार में परखे जा रहे हैं)
विश्वास-प्रस्तुतिः
चंगिआईआ बुरिआईआ वाचै धरमु हदूरि ॥ करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि ॥
मूलम्
चंगिआईआ बुरिआईआ वाचै धरमु हदूरि ॥ करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि ॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: वाचै = परखता है, लिखे हुए को पढ़ता है। हदूरि = अकाल-पुरख की हजूरी में, अकाल-पुरख के दर पर। करमी = कर्मों अनुसार। के = कई जीव। नेड़ै = अकाल-पुरख के नज़दीक।
अर्थ: धर्मराज अकाल पुरख की हज़ूरी में (जीवों के किये हुए) सही कामों को विचारता है। अपने-अपने (इन किए हुये) कर्मों के अनुसार कई जीव अकाल-पुरख के नज़दीक हो जाते हैं और कई अकाल-पुरख से दूर रह जाते हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिनी नामु धिआइआ गए मसकति घालि ॥ नानक ते मुख उजले केती छुटी नालि ॥१॥
मूलम्
जिनी नामु धिआइआ गए मसकति घालि ॥ नानक ते मुख उजले केती छुटी नालि ॥१॥
दर्पण-भाषार्थ
पद्अर्थ: जिनी = जो मनुष्यों ने। ते = वे मनुष्य। धिआइआ = ध्यान किया है, स्मरण किया है। मसकति = मुशक्कत, मेहनत। घालि = सफल करके। मुख उजले = उज्जवल चेहरे वाले। केती = कई जीव। छुटी = मुक्त हो गई, माया के बंधनों से रहित हो गई। नालि = उन (गुरमुखों) की संगत में।
अर्थ: हे नानक! जो मनुष्यों ने अकाल-पुरख का नाम स्मरण किया है, वे अपनी मेहनत सफल कर गये हैं। (अकाल-पुरख के दर पर) वे उज्जवल मुख वाले हैं और (और भी) कई जीव, उनकी संगत में (रह के) (‘कूड़ की पालि’ गिरा के माया के बंधनों से) आज़ाद हो गए हैं।1।
दर्पण-भाव
भाव: यह जगत एक रंग-भूमि है, जिस में जीव खिलाड़ी अपना अपना खेल खेल रहे हैं। हर एक जीव के खेल की परख पड़ताल बड़े ध्यान से की जा रही है। जो सिर्फ माया की खेल ही खेल गए, वो प्रभु से दूरी बनाते गए। पर जिन्होंने नाम जपने की खेल खेली, वे अपनी मेहनत सफल कर गये तथा और भी कई जीवों को इस सच्चे मार्ग पर डालते हुए स्वयं भी ईश्वर की हज़ूरी में सुर्ख़-रू हुए।