०० मूलमन्त्र

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ +++(= इक ओंकार)+++, सति+++(=अस्तित्ववान्)+++ नाम,
करता पुरखु+++(=पुरुषः)+++,
निरभउ+++(=निर्भय)+++, निरवैर
अकाल-मूरति, अजूनी+++(=अयोनि)+++, सैभं+++(=स्वयंभू)+++,
गुर प्रसादि।।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

दर्पण-पदार्थ

पद्अर्थ:
१ओअंकार का उच्चारण करने के लिए इसके तीन हिस्से किए जाते हैं: १, ਓ, और ͡ । इसका पाठ है ‘इक ओअंकार’। तीनों हिस्सों का अलग-अलग उच्चारण ऐसे बनता है: १ = इक। ਓ = ओअं। ͡ = कार।
ਓਂ ‘ओअं’ संस्कृत का शब्द है। अमर कोश के अनुसार इसके तीन अर्थ हैं:
वेद आदि धर्म पुस्तकों के आरम्भ तथा अंत में, प्रार्थना व किसी पवित्र धार्मिक कार्य आरम्भ में अक्षर ‘ओं’ पवित्र अक्षर मान के इस्तेमाल किया जाता है।
किसी आदेश व प्रश्न आदि के उत्तर में आदर व सत्कार से ‘जी हाँ’ कहना। सो, ‘ओं’ का अर्थ है ‘जी हाँ’।
ओअं = ब्रह्म।
इनमें से कौन सा अर्थ इस शब्द का यहाँ लिया जाना है: इसे दृढ़ करने के लिए शब्द ‘ओअं’ से पहले ‘१’ लिख दिया है। इसका भाव ये है कि यहां ‘ओअं’ का अर्थ है ‘वह हस्ती जो एक है। जिस जैसा और कोई नहीं है और जिसमें ये सारा जगत समा जाता है’।
तीसरा हिस्सा ͡ है, जिसका उच्चारण है ‘कार’। ‘कार’ संस्कृत का एक पिछोत्तर (प्रत्यय) है। आम तौर पर ये प्रत्यय ‘संज्ञा’ के आखिर में इस्तेमाल किया जाता है। इसका अर्थ है ‘एक रस, जिस में परिवर्तन ना आए’।
इस प्रत्ययके लगाने से ‘संज्ञा’ के लिंग में कोई फर्क नहीं पड़ता। भाव अगर ‘संज्ञा’ पहिले ‘पुलिंग’ है, तो इसके पीछे प्रत्यय लग जाने के बाद भी पुल्रिग ही रहता है। अगर, पहले स्त्रीलिंग हो तो इस प्रत्यय के समेत भी स्त्रीलिंग ही रहता है। जैसे कि, पुलिंग:
नंनाकारु न कोइ करेई।
राखै आपि वडिआई देई।2।2। (गउड़ी म: १)
कीमति सो पावै आपि जणावै
आपि अभुलु न भुलए।
जै जैकारु करहि तुधु भावहि
गुर कै सबदि अमुलए।9।2।5 (सूही म: १)
सहजे रुणझुणकार सुहाइआ।
ता कै घरि पारब्रहमु समाइआ।7।3। (गउड़ी म: ५)
स्त्रीलिंग:
दइआ धारी तिनि धारणहार।
बंधन ते होई छुटकार।7।4। (रामकली म: ५)
मेघ समै मोर निरतिकार।
चंदु देखि बिगसहि कउलार।4।2। (बसंत म: ५)
देखि रूपु अति अनूपु मोह महा मग भई।
किंकनी सबद झनतकार खेलु पाहि जीउ।1।6। (सवईए महले चउथे के)
इस प्रत्यय के लगने से इन शब्दों के अर्थ इस प्रकार करने हैं:
नंनकार = एक-रस इन्कार, सदा के लिए इन्कार।
जैकार = लगातार ‘जै जै’ की गूँज।
निरतिकार = एक रस नाच।
झनतकार = एक रस सुंदर आवाज़।
प्रत्यय ‘कार’ लगाने के बिना और लगाने से, दोनों तरह से शब्दों के अर्तों में फर्क नीचे दिए प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है:
“घरि महि घरु दिखाइ देइ, सो सतिगुरु पुरखु सुजाणु।
पंच सबदि धुनिकार धुनि, तह बाजै सबदु नीसाणु।1।27।
धुनि = आवाज। धुनिकार = लगातार नाद, निरंतर आवाज। इसी तरह:
मनु भूलो सिरि आवै भारु।
मनु मानै हरि एकंकार।2।2। (गउड़ी म: १)
एकंकारु = एक ओअंकार, वह एक ओं जो एक रस है, जो हर जगह व्यापक है।
सो, ੴ का उच्चारण है‘इक (एक) ओअंकार’ और इसके अर्थ है “एक अकाल पुरख, जो एक रस सर्व-व्यापक है”।
सतिनामु = जिसका नाम ‘सति’ है। लफ्ज़ सति का संस्कृत स्वरूप सत्य है, इसका अर्थ है ‘अस्तित्व वाला’। इस का धातु ‘अस’ है, जिसके अर्थ हैं ‘होना’। इस तरह ‘सतिनाम’ के अर्थ हैं “वह एक ओअंकार, जिसका नाम है अस्तित्व वाला’।
पुरखु = संस्कृत मेंव्योतिपत्ति अनुसार इस शब्द के अर्थ यूँ किए गए हैं, ‘पूरिशेते इति पुरष: ’, अर्थात जो शरीर में लेटा हुआ है। संस्कृत में आम प्रचलित अर्थ है ‘मनुष्य’। भगवत गीता में ‘पुरखु’, ‘आत्मा’ के अर्तों में इस्तेमाल हुआ है। ‘रघुवंश’ में ये शब्द ‘ब्राह्मण्ड वा आत्मा’ के अर्तों में आया है, इसी तरह पुस्तक ‘शिशुपाल वध’ में भी।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब में ‘पुरखु’ का अर्थ है ‘वह ओअंकार जो सारे जगत में व्यापक है, वह आत्मा जो सारी सृष्टि में रम रही है’। ‘मनुख’ और ‘आत्मा’ अर्तों में भी ये शब्द कई जगह आया है।
अकाल मूरति = शब्द ‘मूर्ति’ स्त्रीलिंग है, ‘अकाल’ इसका विशषण है, ये भी स्त्रीलिंग रूप में लिखा गया है। अगर शब्द ‘अकाल’ अकेला ही ‘पुरखु’, ‘निरभउ’, ‘निरवैर’ की तरह ‘इक ओअंकार’ का गुणवाचक होता तो पुलिंग रूप में होता, तो इसके अंत में भी (ु) की मात्रा होती।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: शब्द ‘मूरति’ (मूर्ति) तथा ‘मूरतु’ का भेद जानना जरूरी है। ‘मूरति’ के साथ सदा (ि) की मात्रा लगती है और स्त्रीलिंग है। इसका अर्थ है ‘स्वरूप’। संस्कृत का शब्द है।
लफ्ज़ ‘मुरतु’ संस्कृत का शब्द ‘महूरत’ है। महूरत आदि शब्द समय के लिए इस्तेमाल होते हैं। ये शब्द पुलिंग है।

दर्पण-पदार्थ

अजूनी = योनियों से रहित, जो जन्म में नहीं आता।
सैभं = स्वयंभू (स्व = स्वयं। भं = भू) अपने आप से होने वाला, जिसका प्रकाश अपने आप से हुआ है।
गुर प्रसादि = गुरु के प्रसाद से, गुरु की कृपा द्वारा, भाव, उपरोक्त ‘इक (एक) ओअंकार’ गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।

दर्पण-भाषार्थ

अर्थ: अकाल-पुरख एक है, जिसका नाम ‘अस्तित्व वाला’ है जो सृष्टि का रचनहार है, (करता है) जो सभ में व्यापक है, भय से रहित है (निर्भय), वैर से रहित है (निर्वेर), जिसका स्वरूप काल से परे है, (भाव, जिसका शरीर नाश-रहित है), जो यौनियों में नहीं आता,जिसका प्रकाश अपने आप से हुआ है और जो सत्गुरू की कृपा से मिलता है।

दर्पण-टिप्पनी

नोट: ये उपरोक्त वाणी गुरसिख्खी का मूलमंत्र है। इससे आगे लिखी गई वाणी का नाम है ‘जपु’। ये बात याद रखने वाली है कि ये ‘मूलमंत्र’ अलग है और वाणी ‘जपु’ अलग। श्री गुरु ग्रंथ साहिब के आरम्भ में ये मूलमंत्र लिखा है। जैसे हरेक राग के शुरू में भी लिखा मिलता है। वाणी ‘जपु’ लफ्ज़ ‘आदि सचु’ से शुरू होती है। वाणी ‘आसा दी वार’ के शुरू में भी यही मूलमंत्र है, पर ‘वार’ से इसका कोई संबंध नहीं है। ठीक वैसे ही यहाँ भी है। ‘जपु’ के आरम्भ में मंगलाचरण के तौर पर एक शलोक उच्चारा गया है, फिर ‘जपु’ साहिब की 38 पौड़ियां हैं।

कार्लानुवादः

अकालपुरुष एकः, यस्य नाम अस्तित्व-सम्पन्न इति, यः सृष्टे रचयिता (कर्ता) अस्ति, यः सर्वेषु व्यापको विष्णु र्अस्ति, भयेन रहितः, वैरेण वैरनिर्यातनेन च रहितः, यस्य स्वरूपः कालात् परः भवति (भावेन, यस्य वपुर् अविनाशी वर्तते), यो जन्मना योनिषु नोद्भवति, यस्य प्रकाशः स्वतो ऽभूद् भवति च, यश्च सत्गुरोः कृपया मिल्यते।

मूलम्

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥