सामान्य परिचय
वेदान्तसूत्रों पर शङ्करप्रभृति अनेक आचार्यों ने भाष्यरचना की है। इस क्रम में सोलहवीं शताब्दी के आचार्य विज्ञानभिक्षु का नाम भी सर्वथा उल्लेखनीय है। आचार्य विज्ञानभिक्षु एक समन्वयवादी दार्शनिक थे। उन्होंने सांख्य-योग और वेदान्त तथा न्याय-वैशेषिक दर्शनों के प्रतिपाद्य सिद्धान्तों में अविरोध प्रदर्शित करते हुए सामंजस्य स्थापित किया है। उनका विश्वास यह था कि सभी आस्तिक-दर्शनों के प्रतिष्ठापक-प्रवर्तक ऋषिगण ऋतम्भराप्रज्ञा से परिपूर्ण थे, इसलिये इनमें से किसी भी ऋषि के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त न तो भ्रान्त हैं और न परस्परविरोधी। यही मान्यता उनके दर्शनसमन्वय की मूलभित्ति है। तत्तदर्शनों के पारस्परिक अविरोध को सिद्ध करने के लिये विज्ञानभिक्षु ने प्रत्येक
आस्तिक-दर्शन के प्रमुख प्रतिपाद्य क्षेत्र में भिन्नता स्वीकृत की है।
“तस्मादास्तिकशास्त्रस्य न कस्याप्यप्रामाण्यं विरोधो वा, स्वस्वविषयेषु सर्वेषामबाधादविरोधात्तवेति”
-सांख्यप्रवचनभाष्य प्रतिपाद्य क्षेत्र-वैविध्य का निर्धारण करते हुए वे न्याय-वैशेषिक और पूर्वमीमांसा को अपारमार्थिक अर्थात् व्यावहारिक (लौकिक एवं पारलौकिक) भूमि के दर्शन बताते हैं।
“न चैतावता न्यायाधप्रामाण्यं विवक्षितार्थे देहयाद्यतिरिक्तांशे बाधाभावात्”
(वही, पृ. ८) पारमार्थिक भूमिका वाले आस्तिक दर्शन उनकी दृष्टि में सांख्य, योग और वेदान्त हैं। इनमें से सांख्य का प्रमुख प्रतिपाद्य उनकी दृष्टि में पुरुषार्थ साधनभूत प्रकृति और पुरुष का विवेक है, योग का प्रमुख प्रतिपाद्य ज्ञान का साधनभूत (संप्रज्ञात) योग तथा ज्ञान का साध्यभूत (असम्प्रज्ञात) योग हैं और वेदान्त को ब्रह्ममीमांसा की संज्ञा देते हुए विज्ञानभिक्षु उसका प्रमुख प्रतिपाद्य ब्रह्म अर्थात् ईश्वर मानते हैं।
विज्ञानभिक्षु का विज्ञानामृतभाष्य
३८ इस प्रकार सांख्ययोग और वेदान्त को ही पारमार्थिक स्तर वाले आस्तिक दर्शन होने की मान्यता रखने वाले विज्ञानभिक्षु ने तीनों शास्त्रों पर अलग-अलग अनेक ग्रन्थ लिखे। सांख्य में उन्होंने सांख्यप्रवचनभाष्य और सांख्यसार, योग में योगवार्तिक तथा योगसारसंग्रह
और वेदान्त में विज्ञानामृतभाष्य एवं ब्रह्मादर्श नामक प्रसिद्ध एवं मानक ग्रन्थों की रचना की। उनका वेदान्तग्रन्थ विज्ञानामृतभाष्य बादरायण के वेदान्तसूत्रों पर संस्कृत में लिखा गया एक बृहदाकार भाष्य है। इस ग्रन्थ के अन्य नाम भी विज्ञानभिक्षु ने स्वयं व्यवहृत किये हैं। कहीं वे इस को “विज्ञानामृतभाष्य”, कहीं “ब्रह्ममीमांसाभाष्य” और कहीं “ब्रह्मसूत्र-ऋजुव्याख्या” कहकर निर्देशित करते हैं। बाह्य आकार की दृष्टि से वेदान्तसूत्रों पर “श्रीभाष्य” के बाद सबसे पृथुल कलेवर वाला भाष्य “विज्ञानामृतभाष्य” ही है। इस भाष्य में लगभग चौदह सहरन पंक्तियां हैं।
इस भाष्य में वेदान्तसूत्रों का पाठ प्रायः वही स्वीकृत है जो आचार्य शङ्कर ने माना है। किन्तु प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के प्रारम्भिक चार सूत्रों की चतुःसूत्री के स्थान पर उन्होंने ‘ईक्षते शब्दम्" को सम्मिलित करके प्रारम्भिक पाँच सूत्रों की पञ्चसूत्री को असाधारण महत्त्व दिया है। शंकर, रामानुज, मध्व और निम्बार्क ने उक्त प्रारम्भिक चतु:सूत्री में ही समस्त वेदान्तसिद्धान्त को समाहित करने का प्रयास किया है। इसलिये इन चारों आचार्यों के ब्रह्मसूत्रभाष्यों में उक्त चतुःसूत्री भाष्य अनितरसाधारण महत्त्वयुक्त माना गया है। वल्लभाचार्य ने अपने भाष्य में चतुःसूत्री भाष्य के स्थान पर त्रिसूत्री भाष्य को ही यह महत्त्व दिया है किन्तु यह अन्तर नाम-मात्र का अन्तर है क्योंकि उन्होंने “जन्माद्यस्य यतः” - (वे. सू. १.१.२) और “शास्त्रयोनित्वात्” - (वे. सू. १.१.३) - इन दोनों सूत्रों को मिलाकर एक ही सूत्र माना गया है। इसीलिये “तत्तु समन्वयात्” (वे. सू. १.१.४) के भाष्य के अन्त में वल्लभ ने “इति त्रिसूत्रीभाष्यम्” लिखा है। आचार्य विज्ञानभिक्षु ने इस कड़ी में अगला सूत्र भी सम्मिलित करके पुरानी परम्परा में परिवर्तन ला दिया है। इसका कारण कदाचित् यह है कि पाँचवें सूत्र “ईक्षते शब्दम्” (वे. सू. १.१.५) के भाष्य में उन्हें स्वाभिमत ईश्वरकर्तृत्वादि सिद्धान्तों के प्रतिपादन का उपयुक्त अवसर प्राप्त था।
ग्रन्थ के आरम्भ में दिये गये मङ्गलाचरण में उनके वेदान्त-सिद्धान्तों की पर्याप्त झलक मिलती है। उनका ब्रह्म सकलजगद्व्यापी है। चिद्रूप जीव और अचित् प्रकृति उसकी शक्तियां हैं। इन उभयप्रकारक शक्तियों से शक्तिमान ब्रह्म चिन्मात्ररूपी है। उसकी आनन्दरूपता का विज्ञानभिक्षु सर्वत्र खण्डन करते हैं, इसीलिये ब्रह्म को चिन्मात्र बताते हैं। समूचे भाष्य में उनकी सांख्य-निष्ठा परिलक्षित होती है। पूरा ग्रन्थ भाँति-भाँति के लौकिक एवं शास्त्रीय तर्कों और प्रमाणों से भरा पड़ा है। आचार्य शङ्कर उनके प्रमुख आलोच्य और प्रधान प्रतिमल्ल हैं। कोई भी अवसर शाङ्करमत के खण्डन का वे व्यर्थ नहीं जाने देते। इसलिये अनुचित आरोप, पुनरुक्ति, असहिष्णुता आदि से उनकी शैली कभी-कभी उपहास्य हो जाती
वेदान्त-खण्ड
है। शंकर एवं शंकरमतानुयायियों के प्रति प्रयुक्त भाषा-शैली किसी भी विवेचक या अध्येता को पद्मपुराण की उस पदावली की याद दिला देती है, जिसमें शङ्कर को प्रच्छन्न बौद्ध, वेदान्तिब्रुव, पाखण्डपरायण आदि कहा गया है। कुल मिलाकर इस भाष्य की भाषाशैली से विज्ञानभिक्षु की असहिष्णु तर्कप्रवणता और सांख्यमतावलम्बिता तथा अनावश्यक शास्त्रीय हटवादिता का पर्याप्त परिचय मिलता है। हाँ, यह और बात है कि न तो व्याकरण की दृष्टि से और न शास्त्रपक्ष-प्रस्तुतीकरण में ही उनके अगाध पाण्डित्य पर उँगली उठा सकना सम्भव है। वे सोलहवीं शताब्दी के एक विद्वद्वरेण्य आचार्य के रूप में उभर कर सामने आते हैं। सूत्रभाष्य के पादों और अध्यायों के आरम्भ में विगत पाद और अध्याय के प्रतिपादित विषयों का संक्षिप्त, किन्तु वस्तुनिष्ठ प्रस्तुतीकरण होने से सिद्धान्तों को हृदयङ्गम करने में अद्भुत सहायता मिलती है। यही नहीं, पादान्त में दिये गये श्लोकों में उक्त अर्थों का उपसंहार करने की पद्धति से शास्त्रीय सिद्धान्तों को स्मरण रखने में अद्भुत सहायता मिलती है। विज्ञानामृतभाष्य के प्रतिपाद्य विषयों में निम्नलिखित प्रमुख हैं
१. अधिकारी
आचार्य विज्ञानभिक्षु सामान्यरूप से समस्त द्विजातियों को और विशेषरूप से ब्राह्मणों को ही ब्रह्मज्ञान देने वाले विज्ञानामृतभाष्य के अध्ययन का अधिकारी मानते हैं। इन द्विजातियों में भी इस शास्त्र के ज्ञान का अधिकार केवल उन्हीं को बताया गया है जो वेदान्तशास्त्र का अर्थबोध कर सकने के लिये उपयोगी शमदमादिसाधनसम्पत्ति से युक्त हों, जिनमें अटूट गरुभक्ति हो, जो नित्यकर्म और तपस्या से समन्वित हों, जिनमें ब्रह्म की वास्तविक जिज्ञासा हो और साथ ही जो निष्काम कर्म करने वाले हों। शंकराभिमत शमदमादिसम्पन्न सर्वकर्मसंन्यासी को ब्रह्मविद्या का सच्चा अधिकारी नहीं माना जा सकता। संन्यास का अर्थ सर्वकर्मत्याग नहीं माना जा सकता। गौतमीतन्त्र आदि ग्रन्थों में भी सर्वकर्मपरित्याग का निषेध ही संन्यासियों के सन्दर्भ में किया गया है।
“केवलं सततं श्रीमच्चरणाम्भोजभाजिनाम्। संन्यासिनां मुमुक्षूणां तामसः कथितो विधिः।।
(विज्ञानामृतभाष्य, पृ. ७ में उद्धृत गौतमीतन्त्रम्) अर्जुन जैसे घोर कर्मनिष्ठ प्राणी को ब्रह्मविद्या का उपदेश अपने आपमें कर्मपरायणता को सिद्धान्तित करता है। इसलिये ब्रह्मज्ञान के अधिकारी को सर्वकर्मत्यागी होने की शर्त शास्त्रविरुद्ध है।
“तस्मात्सर्वकर्माणि संन्यस्य श्रवणं मामी कुर्यादिति अपसिद्धान्तः कलिकृत एव।” का
(वही, पृ. २६)
विज्ञानभिक्षु का विज्ञानामृतभाष्य
४०१ विज्ञानभिक्षु की मान्यता यह है कि उक्त अधिकारी तो केवल श्रवण और मनन का अधिकारी होता है। ब्रह्मज्ञान की चरम सीढ़ी है, निदिध्यासन। निदिध्यासन का सच्चा अधिकारी उनकी दृष्टि में वह है जो योगशास्त्रप्रोक्त अष्टाङ्गयोग की साधना से सम्पन्न हो। भली-भाँति अभ्यस्त श्रवण और मनन के द्वारा कोमलकण्टकन्याय से जिसे ब्रह्मज्ञान की झलक मिल गयी हो, जिसे नित्यानित्य विवेक आदि साधनचतुष्टय सिद्ध हो, और इन सबके साथ ही जो शान्त, दान्त और योगविरोधी कर्मों से उपरति को प्राप्त है। (वही, पृ. २८)।
विज्ञानभिक्षु की दृष्टि में निदिध्यासन के अधिकारियों के दो भेद हैं-मन्दाधिकारी और उत्तमाधिकारी। मन्दाधिकारी वे कहे जाते हैं जो गृहस्थाश्रम से लेकर त्रिदण्ड्याश्रमपर्यन्त किसी स्थिति में रहते हुए ब्रह्मविद्याभ्यास या निदिध्यासन करते हैं और परमहंस लोग
उत्तमाधिकारी होते हैं।
२. विषय, प्रयोजन और सम्बन्ध
छ विज्ञानामृतभाष्य के अनुसार वेदान्तसूत्रों का विषय ब्रह्म है, न कि आचार्यशंकराभिमत जीवबौक्य। इस मान्यता की पुष्टि में विज्ञानभिक्षु का तर्क यह है कि गीता ने स्वयं ब्रह्मसूत्रपदों को ब्रह्मा के स्वरूप का निश्चायक बताया है, न कि जीवब्रह्मैक्य का निश्चायक।
“ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः। इति गीतावाक्येन सूत्राणां ब्रह्मविषयतामात्रावगमात्”।।
(वही, पृ. ३) अतः सूत्रभाष्य का भी विषय “ब्रह्म” ही माना जाना चाहिए। सभी आस्तिक दर्शनों की भाँति वेदान्तशास्त्र का भी प्रयोजन “मोक्षलाभ” ही स्वीकृत हुआ है। विषय और ब्रह्ममीमांसाशास्त्र का प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव-सम्बन्ध माना गया है।
समग मी
३. ब्रह्म-विमर्श
ब्रह्म सर्वोच्च एवं सर्वव्यापक चरम सत्ता है। प्रकृति और पुरुष तथा काल और अदृष्ट आदि ब्रह्म की अन्तर्लीन शक्तियां हैं। ब्रह्म शक्तिमान् है।
“परमेश्वरादन्तीनप्रकृतिपुरुषाधखिलशक्तिकाद्”।
(वही, पृ. ३२) ब्रह्म को ईश्वर या परमेश्वर भी कहा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, हिरण्यगर्भ, नारायण इत्यादि देवाधिदेव साक्षात् ब्रह्म न होकर ब्रह्म की व्यक्त शक्तियां मात्र हैं। ब्रह्म की
वेदान्त-खण्ड
सत्ता में श्रुति और स्मृतियां परम प्रमाण हैं। निदिध्यासन के द्वारा योगिजन ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं, इसलिए योगज-प्रत्यक्ष को भी ब्रह्म में प्रमाण माना जा सकता है। यही नहीं, विज्ञानभिक्षु अनुमानप्रमाण से भी ब्रह्म की सत्ता को सिद्ध करते हैं। इस अनुमान की तीन कड़ियां हैं: - १. बुद्धि इत्यादि सकल कार्यजात, उपादानगोचरप्रत्यक्षजन्य हैं,
कार्य होने के कारण, घटादि की भांति। २. बुद्धि इत्यादि सकल कार्यजात का मूलकारण कारणसत्त्व है,
उपादानगोचर प्रत्यक्षवृत्तीच्छाकृतिमज्जन्य होने के कारण। ३. इस कारणसत्त्व का भोक्ता कोई एतदतिरिक्त सत्ता है,
अन्य के द्वारा भोग्य होने के कारण।
यद्यपि ब्रह्म अतीन्द्रिय है तथापि योगज-प्रत्यक्ष से उसके स्वरूप की प्रतीति हो सकती है। इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि अवस्तुभूतविशेष मानकर योगज-प्रत्यक्ष संभव है और दूसरा यह कि योगज-धर्म की शक्ति अचिन्त्य है, ऐसा सभी शास्त्र मानते हैं। मन को विभु मानने पर मन का सर्वत्र संयोग हो सकता है और उसे परिच्छिन्न मानने पर भी योगज प्रत्यासत्ति के द्वारा ब्रह्म-साक्षात्कार सर्वथा सम्भव है। शाङ्करमतावलम्बी वेदान्तियों के द्वारा प्रतिपादित ब्रह्म में वृत्तिव्याप्यत्व की स्वीकृति और फलव्याप्यत्व (अर्थात् अनुभवव्याप्यत्व) का निषेध सर्वथा अप्रामाणिक है।
तत्रैतादृशकल्पनायां प्रमाणादर्शनात्
(वही, पृ. ७२) अनुभवव्याप्यत्व न स्वीकार करने पर ब्रह्म के सम्बन्ध में कोई व्यवहार ही (श्रवणमनननिदिध्यासन आदि कोई व्यवहार) सम्भव नहीं हो सकेगा। यह कहना कि वह स्वप्रकाश है इसलिए तद्विषयक व्यवहार संभव है, भ्रान्ति है। इसमें निरर्थक कल्पनागौरव है (वही, पृ. ७३)। आचार्य विज्ञानभिक्षु कहते हैं– -
ब्रह्म चिन्मात्र है। तस्मै नमश्चिन्मात्ररूपिणे (वही, पृ. १) चैतन्य या चेतनता ब्रह्म का गुण नहीं है, अपि तु द्रव्य-विशेष है।
- चैतन्यं चात्मनो न गुणः किन्तु द्रव्यविशेष एव धर्मधर्मिविभागशून्यश्चेतन इति चैतन्यमिति चोच्यते। (वही, पृ. ६२)।
और इसमें धर्म और धर्मी का विभाग नहीं है। इस चिन्मयता अर्थात् ज्ञानमात्रैकरूपता के कारण ब्रह्म को शास्त्रों में सर्वज्ञ भी कहा जाता है। ब्रह्म आनन्दस्वरूप नहीं है। अतः उसमें
४०३
विज्ञानभिक्षु का विज्ञानामृतभाष्य सच्चिदानन्दरूपता की कल्पना भान्ति है। जो चिन्मात्र है वह चैतन्य के अतिरिक्त आनन्दादि रूप नहीं हो सकता।
*‘एतेन ब्रह्मण आनन्दरूपत्वमपास्तम् नैकस्यानन्दचिद्रूपत्वे विरोधादिति"।
(वही, पृ. ६३) श्रुतियों के द्वारा एकरस प्रतिपादित किये जाने के कारण ब्रह्म में ज्ञानरूपता और आनन्दरूपता का प्रकार-भेद नहीं माना जा सकता है। श्रुतियों ने ब्रह्म की आनन्दरूपता का स्फुट प्रत्याख्यान भी किया है
“नानन्दं न निरानन्दं विद्वान् हर्षशोकौ जहाति”। काम
(वही, पृ. ६४ पर उद्धृत) स्मृतियों ने भी ब्रह्म को सुखरहित अर्थात् आनन्दशून्य बताया है। ‘अदुःखमसुखं ब्रह्म भूतभव्यभवात्मकम्’ (वही, पृ. ६४ पर उद्धृत) । आनन्दादि वस्तुतः “प्रधान" के धर्म हैं। स्थूल दृष्टिवाले उपासकों के लिए ही ब्रह्म की उपाधिभूत प्रधान के धर्म कहीं-कहीं श्रुतियों में ब्रह्म के सम्बन्ध में कह दिए गए हैं। आनन्दयुक्ता भी वैसे ही कही गयी समझी जानी
चाहिए।
ब्रह्म वस्तुतः अक्षर, कूटस्थ, नित्य, और निर्गुण है। जीवों और सकल प्रकृतिप्रसूत पदार्थों का लयाधार होने के कारण वह अन्तर्यामी भी कहा जाता है। ब्रह्म ही परम सत्ता है क्योंकि सभी पुरुष उसके अंश हैं
जीवो ब्रह्मणोऽशः पितुरिव पुत्रः
हिमा
(वही, पृ. ३६) अर्थात् उसकी शक्ति-मात्र हैं। सकल बोधों और भोगों का साक्षिमात्र होने से ही वह भोक्ता कहलाता है। जीव के भोग से ईश्वर-भोग सर्वथा विलक्षण है। ‘न त्वीश्वरो जीववत्कामजन्यं सुखं भुङक्ते इति दिक्’ (वही, पृ. १८५)। ब्रह्म विभु है। ब्रह्मपद को पङ्कजादि की भाँति योगरूढ़ समझना चाहिए। हिरण्यगर्भादि जीवों के लिए जहाँ कहीं भी ब्रह्मशब्द का प्रयोग हुआ है वह विभुत्व सर्वाधारत्वादि गुणों के योग के कारण गौणरूप में ही
“अन्यजीवेषु ब्रह्मशब्दप्रयोगोंऽशांश्यभेदो विभुत्वसर्वाधारत्वादिगुणयोगाद्वेति बोध्यम्”।
(वही, पृ. ३८)
४०४
वेदान्त-खण्ड
हि यद्यपि ब्रह्म या ईश्वर नित्यशुद्धबुद्धमुक्तसत्यस्वभाव है, तथापि पुरुष और प्रकृतिरूपिणी अपनी अन्तर्लीन शक्तियों के द्वारा होने वाली सृष्टि इत्यादि उसकी उपाधि बनती है
आमा “कारणसत्त्वमेव तस्योपाधिः" (ईश्वरगीताभाष्यम्, पृ. १६)। स्मरणीय है कि ईश्वर विभु है और उसकी उपाधि भी विभु है और दोनों का संयोग भी नित्य है। इसलिए सृष्टि, स्थिति और लय की परम्परा निर्बाध रूप से चलती रहती है। चूंकि बिना उपाधि को माने ईश्वर का इच्छादिकर्तृत्व सिद्ध नहीं होता इसलिए इच्छादिकर्तृत्व की अनन्यथानुपपत्ति से ईश्वरोपाधि की सत्ता सिद्ध होती है। ईश्वरोपाधि की जीवोपाधि से विलक्षणता स्पष्ट और निश्चित है। ईश्वर में कारणोपाधि और जीवों में कार्योपाधि रहती है। ‘कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः’ (विज्ञानामृतभाष्य, पृ. ६७) ईश्वरोपाधि नित्य तथा विशुद्धसत्त्व रूप है, अतः ईश्वर का उपाधि-भोग के लिए किसी इन्द्रिय या अंतःकरण की आवश्यकता नहीं होती। ईश्वरोपाधिभूत विशुद्धसत्त्वा माया को अविद्या नहीं कहा जा सकता। अविद्या तो जीवोपाधि का अङ्ग है। माया प्रकृति का एक रूप है। यह नित्यज्ञान, नित्येच्छा एवं नित्यानन्द से युक्त रहती है। इसे माया कहते हैं, अविद्या नहीं। यह ईश्वर के सत्यसकल्पादि की आधारभूत है। ईश्वर की अन्तरङ्ग शक्ति है। इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि यह अपरिणामिनी है ‘ईश्वरोपाधेरपरिणामित्वेऽपि जडत्वसाधयेण प्रकृतिमध्ये प्रवेशासम्भवात्’ (वही, पृ. १२७)।
यद्यपि ब्रह्म अविकारी और चिन्मात्र है, तथापि अधिष्ठान रूप से वह जगत् का उपादान कारण है
“चिन्मात्रस्यापि ब्रह्मणोऽधिष्ठानत्वेन जगदुपादानत्वमुपपादितम्”।
(वही, पृ. १००) प्रकृति के माध्यम से उसकी कारणता अक्षुण्ण है। उपाधि में विकारपूर्ण कृत्यों की निमित्त-कारणता मानने में कोई अनिष्टापत्ति नहीं है। सोपाधिक ब्रह्म के दो शरीर श्रुतियों में बताये गये हैं, जैसे जीव के दो शरीर होते हैं। एक शरीर सूक्ष्म कहलाता है और दूसरा स्थूल। सभी विकारपूर्ण कृत्यों का आधार-रूप नित्य विशुद्धसत्त्व (स्वयम् उपाधि या) माया ही ब्रह्म का सूक्ष्म शरीर है तथा साक्षात्प्रयत्नजन्यक्रिया रूप चेष्टाओं का आश्रयरूप अन्य जीव-जन्तु एवं निर्जीव पदार्थ उसके स्थूल रूप हैं। इन्द्रियाश्रयरूप शरीर का ब्रह्म के विषय में निषेध है।
ब्रह्म जगत् का अधिष्ठान कारण है। इस अचिन्त्यरचनात्मक जगत् का जन्मस्थित्यादि अर्थात् उत्पत्ति या विकास आदि ब्रह्म से होता हैं, क्योंकि ब्रह्म में प्रकृति पुरुष आदि अखिल शक्तियां अन्तर्लीन रहती हैं और स्वतः चिन्मात्र होने पर भी वह विशुद्धसत्त्वाख्यमायोपाधियुक्त
४०५
विज्ञानभिक्षु का विज्ञानामृतभाष्य है। महदादिक्रम से विकसित होने वाला यह सारा जगत् इसी ब्रह्म पर अधिष्ठित है। ब्रह्म इस जगत् का अधिष्ठान कारण है।
अधिष्ठान कारण उस उपादान कारण को कहते हैं जो आधार से अविभक्त तथा उपष्टब्ध होकर कार्यरूप में परिणत होता है। स्मृतियों में भी अधिष्ठान कारण रूप से महेश्वर को माना गया है। इसी प्रकार ब्रह्म से अविभक्त प्रकृत्यादि ब्रह्म के साक्षित्वमात्र से उपष्टब्ध होकर जगत् रूपी कार्य के आकार में परिणत होती हैं। अतः ब्रह्म जगत् का कारण भी सिद्ध है और उसमें विकारित्व का भी प्रसङ्ग नहीं आया है। साथ ही प्रकृति अथवा पुरुषादि शक्तियों में मूलकारणता का अतिप्रसग भी नहीं है। इस प्रकार अधिष्ठान कारण के साथ ही साथ ब्रह्म जगत् का उपादान कारण भी सिद्ध होता है, क्योंकि उससे अविभक्त रहकर और उपष्टब्ध होकर ही प्रकृत्यादि का परिणमन कार्यरूप में होता है। वास्तव में ब्रह्म संसार का समवायि-असमवायि से उदासीन तथा निमित्त कारणों से विलक्षण चौथे प्रकार का आधारकारण अर्थात् अधिष्ठानकारण है।
“ब्रह्मणश्च जगत्कर्तृत्वं स्वोपाधिमायोपाधिकं, परिणामित्वरूपोपादानत्वं प्रकृतितत्कार्याद्योपाधिकमपीष्यत एव”।
वर्ग: शी (वही, पृ. ३४) इस प्रकार ब्रह्म की उपादान-कारणता उसकी अन्तर्लीन परिणामिनी शक्ति प्रकृति के बल पर सिद्ध होती है। जगत् का कर्तृत्व भी ब्रह्म में कहा जाता है। यह कर्तृत्व ब्रह्म की उपाधिभूत शुद्धसत्ता माया के बल पर है। यह माया अपरिणामिनी है। कर्तृत्व एक प्रकार का निमित्तकारणत्व ही है। इस प्रकार जगत् का अधिष्ठानकारण और कर्ता होने के कारण ब्रह्म जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादानकारण भी सिद्ध होता है
“एतेन जगतोऽभित्रनिमित्तौपादानत्वं व्याख्यातम्”
(वही, पृ. ३४)
४. जीव-तत्त्व
जगत् द्विधा भासमान होता है-चेतन रूप में और अचेतन रूप में। चेतन और अचेतन तत्त्वों का ही नाम क्रमशः पुरुष और प्रकृति हैं। ये दोनों ईश्वर या ब्रह्म की अन्तर्लीन शक्तियां हैं। चेतनशक्ति कार्योपाधि से अवच्छिन्न होकर जीव कहलाती है। बन्ध और मोक्ष जीव को ही होते हैं. परमेश्वर को कभी नहीं। यह बात और है कि बन्ध-मोक्ष जीव को भी स्वरूपतः न होकर औपाधिक रूप से होते हैं। इसीलिए जीव की उपाधि कार्योपाधि या मलिनसत्त्वप्रधाना कही गयी है जबकि ईश्वर की उपाधि कारणोपाधि या विशुद्धसत्वप्रधाना है।
४०६
वेदान्त-खण्ड
एक जीव एक नहीं, अपितु अनेक हैं। अनेक जीव न मानने पर बन्धमोक्षादि व्यवस्था के कारण ही जीवनानात्व मानने के गौरव को भी स्वीकार किया जाता है।
“बन्धमोक्षव्यवस्थानुपपत्तिप्रमाणसिद्धतया आत्मनानात्वगौरवस्यैवादर्तव्यत्वात् ।’
(वही, पृ. ४२) प्रश्न यह उठता है कि फिर विज्ञानभिक्षु की, जो अद्वैतवादी बनते हैं, जीवनानात्व के परिप्रेक्ष्य में यह स्थिति कैसे सम्भव है? इस शड़का का समाधान करने का उनके पास साधन यह है कि वह जीवों में जातिपरक ऐक्य मानते हैं। जीव और ब्रह्म में भी यही सामान्याद्वैत या जातिपरक अद्वैत है। चिन्मात्रत्व सामान्य की दृष्टि से जीवों के बीच परस्पर तथा जीव और परमात्मा के बीच अद्वैत ही सिद्ध होता है।
“जातिपरकत्वात् चित्सामान्याद्वैतपरत्वात् श्रुतीनामित्यर्थः” ।
का प्रतिमा पनि निकाहारः (वही, पृ. ४७) सृष्टि के पूर्व भी शक्ति-सम्बन्ध से ईश्वराधिष्ठेय जीव की सत्ता थी। जीव और ब्रह्म का पूर्ण ऐक्य अर्थात् पूर्ण अभिन्नता अलबत्ता असम्भव है, क्योंकि बिना स्वरूपभेद के ईश्वर और जीव का अधिष्ठातृ-अधिष्ठेयभाव असम्भव है। इसलिए अखण्डैकात्म्य की स्थिति सर्वथा अमान्य है।
गाड
जान चायमुपाधिसंबन्धात्पूर्वमधिष्ठेयाधिष्ठानभावो, हामीण
निरंशस्यात्मनः स्वरूपभेदं विनोपपद्यते”।
(वही, पृ. ४८) । जीवों और ब्रह्म में अंशांशिभाव-सम्बन्ध ही मानना चाहिए।
“तस्माद्भेदाभेदाभ्यां जीवब्रह्मणोरंशांशिभाव एव ब्रह्ममीमांसासिद्धान्तोऽवधारणीयः”
(वही, पृ. ५०)। 4 अंश और अंशी में भेदाभेद दोनों हैं। यदि यह शङ्का उठे कि भेद एवम् अभेद विरोधी शब्द हैं इसलिए किन्हीं दो वस्तुओं में भेद और अभेद दोनों एक साथ असम्भव है? तो उसका समाधान यह है कि काल-भेद से भेद और अभेद दोनों स्थितियां सम्भव तथा युक्तियुक्त हैं। जीव और ब्रह्म में आत्यन्तिक या सार्वकालिक अन्योन्याभाव है। शक्ति
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विज्ञानभिक्षु का विज्ञानामृतभाष्य और शक्तिमान् का अविभाग नित्य ही माना जाना चाहिए। मा के कतिको
“तथा शक्तिशक्तिमदविभागोऽपि नित्य एवेति मन्तव्यम्”।
- (वही, पृ. ५१)। इस अंशांशिभाव का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत करते हुए विज्ञानभिक्षु लिखते हैं कि अंशत्व का अर्थ है सजातीय होने पर अविभाग का प्रतियोगित्व और अंशित्व का अर्थ है उसका अनुयोगित्व।
“अंशत्वं च सजातीयत्वे सत्यविभागप्रतियोगित्वम्, तदनुयोगित्वञ्चांशित्वम्”
(वही, पृ. ५१) । सजातीयत्व का अर्थ है “द्रव्यत्वसाक्षादव्याप्यजातित्व” और विभाग का अर्थ है “लक्षणान्यत्व” अर्थात् अभिव्यक्त धर्मभेद तथा अविभाग का अर्थ है “लक्षणान्यत्वाभाव” अर्थात् “अभिव्यक्तधर्मभेदाभाव”। अविभाग को इस प्रकार भी समझना चाहिए कि अविभाग एक संयोगविशेष या स्वरूप सम्बन्धविशेष है।
“अथवास्तु अविभागः संयोगविशेषः स्वरूपसंबन्धो वाथेयत्वादिवत्”
(वही, पृ. ५१)। जल और दधिलवण का जिस प्रकार से समुद्र में अविभाग कहा जाता है उसी प्रकार प्रकृति और जीव का ब्रह्म में अविभाग सम्बन्ध समझना चाहिए। यही अविभागाद्वैत विज्ञानभिक्षु का मौलिक मत है।
यद्यपि जीव भी ब्रह्म की भाँति स्वरूपतः विभु एवं चिन्मात्र होते हैं तथापि उपाध्यवच्छेद के कारण अभिव्यक्त परिच्छिन्न चैतन्य होने से चिनगारियों की भाँति होते हैं। शुद्धरूप में जीव भी असङ्ग, असंसारी, विभु और सर्वाधार होते हैं। पर उपाधिमालिन्य के संयोग से उसकी सारी सांसारिकता है। जीव में चैतन्यफलोपधान कादाचित्क है, वाचारम्भणमात्र है। जीव ईश्वर के परतन्त्र है और अल्प है।
“जीवेषु चैतन्यफलोपधानं कादाचित्कतया ण गरि मनाजोगी वाचारम्भणमात्रम् ईश्वरपरतन्त्रम् सदल्पञ्च” SAY
पवार
(वही, पृ. ५६)।४०८
वेदान्त-खण्ड
चिच्छक्ति के अमुख्ययोग के कारण जीव गौणात्मा है और ईश्वर मुख्य आत्मा है, सर्वज्ञता स्वतन्त्रता के कारण जैसे प्राण मुख्य है और अनेक कारण गौण हैं। इसी कारण ईश्वर परात्मा या परमात्मा है, जीव अपरात्मा है, ईश्वर श्रेष्ठ आत्मा है, जीव-ब्रह्म का वास्तविक सम्बन्ध खण्डैकात्म्य अर्थात् अविभागलक्षणा भेद या अंशांशित्वरूप का है।
इस प्रकार जीव और ईश्वर में अशांशिभाव से विभागरूपी भेद और अविभागरूपी अभेद सिद्ध हुआ। विशेष ध्यान देने की केवल एक बात है कि आदि और अन्त में चूंकि नित्य जीव और नित्य ब्रह्म में अविभागरूपी अभेद ही रहेगा, इसलिए वही सत्य और पारमार्थिक है और चूंकि मध्य में उपाधि के स्वल्पावच्छेद के कारण नैमित्तिक रूप से जीव
और ब्रह्म के पारस्परिक सम्बन्ध में अन्य औपाधिक विकारों की भाँति विभागरूपी भेद होता है इसलिए वह वाचारम्भणमात्र है अर्थात् भेद केवल कहने भर को है और प्राधान्येन आत्माद्वैत ही सिद्ध होता है।
ईश्वरोपाधि सर्वथा विशुद्धसत्त्वा है अपरिणामिनी है। जीवोपाधि परिणामिनी है। हिरण्यगर्भ आदि जीव ही हैं। वे आनन्दमय नहीं हैं। जीव असंकुचित और विस्तृत संसार की सृष्टि नहीं कर सकते। जीव का प्रधान लक्षण बुद्धि है। बिना बुद्धि-सम्पर्क के “जीव” संज्ञा हो ही नहीं सकती।
“बुद्धिं विना जीवव्यवहाराभावात्”
(वही, पृ. १५३)। जिस दृष्टि से जीव का परमेश्वर से भेद बताया गया है उसी दृष्टि से उनका पारस्परिक विभाग या भेद भी सिद्ध है।
सुषुप्ति, प्रलय और मोक्षदशा में भी जीव और ब्रह्म का अनौपाधिक या स्वाभाविक भेद रहता है। यह भेद स्वरूपभेद है औपाधिक नहीं। यह अविभागलक्षणरूपक है, अखण्डतात्मक नहीं।
“एतत्सूत्राज्जीवब्रह्माखण्डतावादोऽपसिद्धान्त एवाधुनिकानाम्”
(वही, पृ. २३६)। जीव सृष्टि के पूर्व अविभक्त रूप से ब्रह्म में अवस्थित रहते हैं। उसके पश्चात् सर्गकाल में पिता से पुत्र के समान ब्रह्म से ही विभक्त हो जाते हैं। जैसे अग्नि से क्षुद्र विस्फुलिङ्ग निकलते हैं वैसे ही ब्रह्म से जीव निकलते हैं। आभासवाद, अवच्छेदबाद और प्रतिबिम्बवाद के अनुसार जीव को मिथ्या मानने से मोक्षादि की भी अनुपपत्ति होती है। अतः ऐसी मान्यता सर्वथा हेय है।
विज्ञानभिक्षु का विज्ञानामृतभाष्य “आधुनिका अखण्डैकात्म्योपपत्त्यै जीवानां प्रतिबिम्बावच्छेदादिरूपैः कुकल्पनां कुर्वन्ति" .
4 (वही, पृ. ५७)। जीव भी वस्तुतः निरवयव है। जीवादि की जो उत्पत्ति कही गई है, वह भी गौण है। ‘अतो जीवोत्पत्तिौणी’ (वही, पृ. २६१) । प्रधानादि की भी उत्पत्ति गौण है। सद्वस्तु की उत्पत्ति गौण ही समझी जानी चाहिए। सृष्टि-प्रक्रिया में किसी जीव या देवता का मुख्य योगदान नहीं है। ये सभी परतन्त्र हैं। ब्रह्म ही वास्तविक कर्ता है। जीवादि की उत्पत्ति केवल अभिव्यक्तिरूपिणी है, इसीलिए गौणी कही जाती है। वह ब्रह्म के सरूप अवश्य है, किन्तु फिर भी बिल्कुल ब्रह्मस्वरूप या ब्रह्म नहीं है।
जीव विभु है। उसमें अणुत्व का व्यपदेश केवल औपाधिक है। जीवोपाधि बुद्धि ही कार्यावस्था के कारण परिच्छिन्त्रपरिणामवाली है, अतः वही अणु है, न कि जीव। वह तो निर्गुण है।
अब प्रश्न होता है कि जीव कर्त्ता है कि नहीं? विज्ञानभिक्षु कहते हैं कि स्व-व्यापारों में जीव भी कर्ता होता है। बिना जीवकर्म के माने हुए यज्ञविधियों में अनुष्ठानलक्षण वाला प्रामाण्य असिद्ध हो जाता है। साथ ही ब्रह्म में वैषम्यनैघृण्यादि की प्रसक्ति होती है। इन सब बातों से जीव और ईश्वर दोनों कर्ता हैं। अन्तर यह है कि जीव अदृष्ट के द्वारा महदादिकों में संयोगमात्र से कर्ता होता है जबकि ईश्वर साक्षात् कार्य करके ही सर्वकर्ता कहलाता है। ईश्वर सर्वकर्मकारयिता है।
अत ईश्वरः कर्तापि कारयितापि भवतीति सिद्धम्"।
(वही, पृ. ३५८)। जीव का कर्तृत्व यावद्रव्यभावि और नित्य नहीं है। वह केवल औपाधिक है, बुद्धिरूपी उपाधिकृत ही है।
“एवं जीवो बुद्धिकर्तृत्वादेवोपाधिवशात्मा चार माकर्ता स्वतस्तुपरमार्थतोऽकर्तेति”
(वही, पृ. ३५६)। । ईश्वर का कर्तृत्व भी औपाधिक ही है। जीव में कर्तृत्वादि परमेश्वर से ही प्राप्त है, स्वतन्त्र नहीं, जैसे कि घोड़े की विविध चालें घुड़सवार से प्रेरित होती हैं।
‘तज्जीवस्य कर्तृत्वादिकं परात्परमेश्वरादेव भवति न स्वातन्त्रयेणाश्वस्य विविधसंचार
១
सामवेदान्त-खण्डमा
इवाश्वारोहात्’ (वही, पृ. ३५७) । म
तो क्या जीव घुड़सवार से सम्बन्धित घोड़े की भाँति ब्रह्म के परतन्त्र ही है? इसका उत्तर यह है कि ईश्वर, जीवकृत शुभाशुभसापेक्ष होकर ही उससे शुभाशुभ करवाता है।
विज्ञानभिक्षु ब्रह्म और जीव के पारस्परिक सम्बन्ध के प्रसङ्ग में अन्य वेदान्तियों के दास-भाव, भक्त-भाव, प्रतिबिम्बवाद, अवच्छेदवाद और आभासवाद आदि का खण्डन करते हैं और ‘आभास एव च’ सूत्र से यह अर्थ लेते है कि जैसे- हेतु और हेत्वाभास दोनों सत् या वस्तुभूत हैं, दोनों का अस्तित्व है, वैसे ही जीव भी आभास होने पर भी मिथ्या नहीं, अपितु ब्रह्म के ही समान सत्तावान् है
“आत्मा जीवो हेत्वाभास इवेत्यर्थः”
(वही, पृ. ३७४)।
५. प्रकृति
विज्ञानभिक्षु का प्रकृति और माया सम्बन्धी सिद्धान्त बड़ा ही अनोखा और विचित्र है। यह सिद्धान्त विज्ञानामृतभाष्य में विशद रूप से प्रतिपादित है। वे प्रकृति को स्वतन्त्र नहीं मानते, अपितु परमेश्वर या परब्रह्म की अन्तर्लीन शक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं।
‘दृष्टान्ताच्च प्रधानं न स्वतन्त्रम्"
(वही, पृ. २४५)। इस मान्यता के कारण यद्यपि वे रामानुज और निम्बार्क के काफी निकट प्रतीत होते हैं, परन्तु इन लोगों की भाँति वे प्रकृति को अविद्या या माया अथवा अक्षर नहीं मानते। उन्होंने माया नाम की अपरिणामिनी प्रकृति को सामान्य प्रकृति से भिन्न परमेश्वर की उपाधि के रूप में स्वीकार किया है। शङ्कराचार्य की भाँति प्रकृति को माया और अविद्या कहकर उसे सर्वथा तुच्छ अथवा असत् अथवा अनिर्वचनीय मानने के वे तीव्र विरोधी हैं।
चिन्मात्र परमेश्वर शक्तिमान् है और सोपाधि भी। पुरुष और प्रकृति ये दोनों उसकी शक्तियां हैं और माया उसकी उपाधि । माया का अन्तर्भाव उन्होंने प्रकृति में ही बताया है। इस प्रकार सृष्टि का कारण बनने में प्रकृति स्वतन्त्र नहीं है, प्रत्युत ब्रह्म के परतन्त्र है। सांख्य-योग में प्रकृति पुरुषार्थ-सम्पादन के लिए स्वयं ही स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्त हुई मानी जाती है। किन्तु विज्ञानभिक्षु ने प्रकृति-पुरुष के संयोग को परमेश्वर-कृत माना है। इसीलिए पूरे भाष्य में उन्होंने अन्य सांख्य-योग आचार्यों के प्रकृति स्वातन्त्र्य-सिद्धान्त का प्रबल प्रत्याख्यान किया है-
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विज्ञानभिक्षु का विज्ञानामृतभाष्य । सृष्टि के पूर्व यह प्रकृति परमेश्वर में गर्तस्थ मृतसर्पवत् विलीन रहती है। यह स्मरणीय है कि जीव-चैतन्य यद्यपि परमेश्वर-चैतन्य के अंश हैं लेकिन जीवोपाधि परमेश्वरोपाधिभूतमाया का अंश नहीं है।
“न चेश्वरोपाधेरंशो जीवोपाथिरीश्वरस्यापि माप । तद्वारा भवन्मते संसारप्रसङ्गातू”
कोपिक (वही, पृ. ५२-५३)। जीवोपाधि सामान्य प्रकृति से बनती है। अतः दोनों अलग स्वभाव वाली वस्तुएं हैं। जीवोपाधि क्लेशादि वासनाओं से मलिन होती हैं, जबकि परमेश्वरोपाधि विशुद्धसत्त्वा होती है। सृष्टि के निमित्त कारण बनने में परमेश्वर की उपाधि या माया ही मूल है। विज्ञानभिक्षु ने माया शब्द को परमेश्वरोपाधिरूप प्रकृति के अर्थ में ही रूढ़ माना है। जीवोपाधिभूत प्रकृति तथा जड़ात्मक प्रकृति उनकी सृष्टि में माया शब्द से अवाच्य है।
- अविद्या या अज्ञान न प्रकृति के पर्यायवाची हैं और न माया के समानार्थक । अतः अविद्या जगत् का कारण नहीं मानी जा सकती है। न तो प्रकृति को और न माया को ही “अविद्या” कहा जा सकता है। अविद्या पुरुष-भेद से भिन्न प्रकार का प्रान्तज्ञान है। “प्रकृति” और “प्रधान” शब्द पर्यायवाची है। सृष्टि के पूर्व या प्रलयदशा में निर्व्यापार और परमात्मा में गर्तस्थमृतसर्पवद् अन्तर्निहित रहने के कारण प्रकृति को अव्यक्त कहा जा सकता है।
प्रकृति वस्तुतः परमेश्वर की जगज्जन्मादिनिर्वाहिका शक्ति है। इस शक्ति के बिना निर्विकार एवं निर्गुण ब्रह्म की उपादानता और निमित्तता या अधिष्ठानता असम्भव है।
“ब्रह्मणश्च जगत्कर्तृत्वं स्वोपाधिमायोपाधिक परिणामित्वरूपोपादानत्वं च प्रकृतितत्कार्याद्यौपाधिकमपीष्यत एव”
का (वही, पृ. ३४)। प्रकृति का अस्तित्व ऊर्णनाभ के शरीर के अस्तित्व के समान है। प्रकृति सूक्ष्म है और विशाल जगत्प्रपंच उसी का स्थूल रूप है। घुले-मिले हुए सैन्धवनमक से युक्त समुद्र-जल में जैसे द्वैतापत्ति नहीं होती, वैसे ही साम्यावस्थोपलक्षित प्रकृति नामक शक्ति से युक्त शक्तिमान् परमेश्वर में भी द्वैतापत्ति नहीं है। उसकी अद्वैतता अक्षुण्ण है। इस प्रकृति का अत्यन्तोच्छेद कभी नहीं होता, लय भले ही हुआ करे। प्रकृति को उन्होंने नित्यपरिणामिनी सिद्ध किया है।
प्रकृति के सत्त्वादिगुण यद्यपि वस्तुतः रूपादिहीन हैं फिर भी उनसे रागप्रकाशावरणरूपता
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वेदान्त-खण्ड
की प्राप्ति के लिए उनमें लोहितशुक्लकृष्णरूप कल्पित कर लिए गये हैं। ये तीनों गुण ही समवेत रूप में प्रकृति अथवा प्रधान नाम से अभिहित किए जाते हैं। इस प्रकृति के मुख्य भेदों का वर्गीकरण इस प्रकार से किया जा सकता है
१. माया- नित्य शुद्ध केवल सत्त्वांशमयी प्रकृति नित्यज्ञान, नित्येच्छा एवं नित्यानंदयुक्तरूप में ईश्वरोपाधि कहलाती है।
“केवलं नित्यज्ञानेच्छानन्दादिमत्सदैकरूपकारणसत्त्वमेव तस्योपाधिः”
(वही, पृ. १३०)। इसी का नाम माया है। इसी को कारणसत्त्व भी कहते हैं। वह ईश्वर के संकल्पादि की आधारभूत और अन्तरग होती है। सामान्य प्रकृति परिणामिनी होती है जब कि माया अपरिणामिनी है। माया और सामान्य प्रकृति में एक प्रमुख साधर्म्य है जड़त्व या अचेतनता। इस साधर्म्य के कारण माया प्रकृति के अन्तर्गत हैं।
“ईश्वरोपाधेरपरिणामित्वेऽपि जडत्वसाधर्म्यण प्रकृतिमध्ये प्रवेशसम्भवाच्चेति”
(वही, पृ. १२७)। २.जीवोपाधि-प्रकृति जब मलिनसत्त्वविशेषणरूप अपने अवयवों से पुरुषसंयोग के द्वारा महत्त्व के रूप में परिणत होती है तो जीवोपाधि कहलाती है। यह परिणामिनी होती
“सैव च प्रकृतिर्मलिनसत्त्वविशेषरूपैरंशान्तरैः रजस्तमः सम्भित्रैः पुरुषसंयोगेन महत्तत्त्वरूपतः परिणता सती जीवोपाधिर्भवति।”
भजन (वही, पृ. २६२)। ३.जड़जगत्- उसी प्रकृति के तमोबहुल अंशों से स्वकीयपरिणामधारा के फलस्वरूप सकल जड़जगत् विकसित होता रहता है। यही प्रकृति का तीसरा रूप है। इस रूप में भी प्रकृति परिणामिनी है।
६. जगत्
जगत्प्रपंच की वास्तविक सत्ता के सन्दर्भ में आचार्य विज्ञानभिक्षु की पूर्ण आस्था है। जगत्प्रपंच “नाम” और “रूप” से व्याकृत होकर दृश्यमान हो रहा है, यह चेतन और अचेतन दोनों से युक्त है। जगत् के सकल व्यापार देश, काल और संस्थान की दृष्टि से प्रतिनियत हैं। सब कुछ पूर्णतया सुश्लिष्ट है। यह जगत् उत्पन्न होता है, स्थिर होता है, वृद्धि
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विज्ञानभिक्षु का विज्ञानामृतभाष्य प्राप्त करता है, विपरिणत होता है, क्षीण होता है और नष्ट होता है। चाहे इन छ: रूपों में से जिस अवस्था में यह रहे, रहता यह जरूर है। इसका आत्यन्तिक नाश असम्भव है। इसकी सत्ता सार्वकालिक है।
संसार को अनित्य मानने वाले वेदान्तियों को विज्ञानभिक्षु ने बौद्धप्रभेद ही कहा है।
“ते तु बौद्धप्रभेदा इव मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौद्धमेव”
(वही, पृ. १०५)। पद्मपुराणकृत निन्दा का भी उन्होंने उल्लेख किया है। असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्’ इत्यादि गीतावाक्य का भी उन्होंने प्रमाण उपस्थित किया है। विज्ञानभिक्षु का कहना है कि जगत् सृष्टि-दशा में व्यंजमान, स्थिति-दशा में व्यक्त और प्रलय-दशा में अव्यक्त रहता
जीव की सृष्टि ब्रह्म से वैसे ही होती है जैसे अग्नि से स्फुलिङ्गों की। ब्रह्मसूत्र २-४-१३, “अणुश्च” का भाष्य करते समय इस प्रकार से उन्होंने सृष्टिक्रम निरूपित किया
सकल सृष्टि का अधिष्ठान ईश्वर या ब्रह्म है। पुरुष और प्रकृति दोनों ब्रह्म की अन्तर्लीन शक्तियां हैं। पुरुष से उपष्टब्ध होकर प्रकृति ईश्वर में अधिष्ठित रहती हुई अव्यक्तता से व्यक्तता की ओर उन्मुख होती है तो उस समय महत्तच उत्पन्न होता है। सृष्टिक्रम में सर्वप्रथम उत्पत्ति महत् की ही होती है। इस महत् का स्वरूप दो प्रकार का है। इस महत् की क्रियात्मक शक्ति का नाम प्राण और इसकी अध्यवसायात्मक शक्ति का नाम बुद्धि है। इन दोनों में भी प्रथम प्राणवृत्ति की ही उत्पत्ति हुई है।
“तयोर्मध्ये प्रथम प्राणवृत्तिरुत्पद्यते”
(वही, पृ. ४०१)। इसके बाद जैसे अंकुर वृक्षरूपता को प्राप्त करने लगता है उसी प्रकार महत् से अहकार रूपी अन्तःकरण का वृत्ति-विशेष उत्पन्न होता है। उससे उसी प्रकार से मन और मन के बाद इन्द्रियां उत्पन्न होती हैं और उसके बाद अहङ्कार से ही इन्द्रियों की ही भांति परस्परकार्यकारणभावरहित पाँचों तन्मात्राएं उत्पन्न होती हैं। इन तन्मात्राओं को सूक्ष्मतर भूत समझना चाहिए। और इन पाँचों तन्मात्राओं से स्थूलमहाभूतों के सूक्ष्म परमाणु उत्पन्न होते हैं। इसके पश्चात् तैत्तिरीय और छान्दोग्योपनिषद् में बताये गए क्रम से प्रथमतः आकाश, फिर उससे वायु, उससे अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुए-पाँचौं स्थूल महाभूतों की उत्पत्ति हुई। उसके बाद छान्दोग्योपनिषनिर्दिष्ट रीति से त्रिवृत्करण के द्वारा ब्रह्माण्डादि की सृष्टि हुई। पुराणपरायण आचार्यविज्ञानभिक्षु ने सृष्टिक्रम के परिवर्तनों को भी
वेदान्त-खण्ड
र
मानने की इच्छा प्रकट की है कि अन्य स्मृतियों में यदि यह क्रम व्युत्क्रान्त बताया गया हो तो उसे कल्पभेद के द्वारा समाधेय समझना चाहिये। इस प्रकृति और पुरुष के संयोग को करने वाला ईश्वर है।
परब्रह्मकृत प्रकृति-पुरुष-संयोग सर्वथा सम्भव है, क्योंकि प्रकृति गुणत्रयरूप है अतः परिच्छिन्न गुणांशों से उसमें क्षोभ सम्भव है और पुरुष की उपाधि की स्थिति के कारण उसमें भी संयोग हो सकता है। अतः सृष्टि-व्यवस्था सर्वथा उत्पन्न है।
इस जगत्प्रपंच की सृष्टि में ब्रह्मसाक्षित्वमात्र से अथवा अधिष्ठानरूप से कारण है। उपादानरूप में ब्रह्म में अन्तलीन प्रकृति नाम की शक्ति ही जगत्प्रपंच का कारण बनती है। सृष्टि-काल में सारे प्रपंच उसी ब्रह्म से ही विभक्त होकर स्थित होते हैं और प्रलय-काल में सकल प्रपंच उसी में अविभक्त होकर अव्यक्तदशा में रहते हैं। यह अव्यक्तदशावाली प्रकृति उस दशा में निर्यापार होने के कारण गर्तस्थमृतसर्पवत् करणकारणविविक्त चिन्मात्र ब्रह्म में अन्तर्निहित है। प्रलयकाल में जड़वर्ग प्रकृतिदशापन्न हो जाता है और चिन्मय अंश पुरुष-रूप रहता है। दोनों प्रकार का जड़जङ्गमजगत् प्रलयकाल में ब्रह्म में अविभक्त होकर अवस्थित रहता है।
प्रकृति परिणामिनी है। वही नाना विकारों में परिणत होती रहती है। सारी सृष्टि प्रकृति के विचित्र परिणामों का मेला या प्रदर्शिनी है। आचार्य विज्ञानभिक्षु ने सृष्टि की कारणता में परिणामिनी प्रकृति को ही प्रधानता दी है अतः परिणामवाद के समर्थकों में ही उनकी गणना की जाएगी।
“ब्रह्मणः साक्षात्परिणामवादं विवर्तवादञ्च तत्रैव निराकरिष्यामः” ।
(वही, पृ. ३३)। यह प्रकृति ईश्वरोपाधि नहीं है। सृष्टि ईश्वर की अन्तर्लीन शक्तिभूत परिणामिनी प्रकृति से ही सम्भव है। यह प्रकृति शृद्धसत्त्वा नहीं है, प्रत्युत रजस्तमोबहुला है।
विज्ञानभिक्षु न तो पुरातन आचार्य भर्तृप्रपञ्च आदि की भाँति ब्रह्मपरिणामवादी हैं और न शङ्कराचार्य की भाँति माया के विवर्त का राग आलापने वाले हैं। ईश्वरोपाधिभूत माया को अपरिणामिनी मानने के कारण वे औपाधिकपरिणामवादी भी नहीं कहे जा सकते।
मामा
७. मुक्ति
मुक्ति को मनीषियों ने मानव का चरम पुरुषार्थ माना है। हस्तगत हुए ज्ञानामृत को विज्ञानामृतभाष्य में उन्होंने मुक्ति के शुद्ध स्वरूप, मुक्ति के प्रकार उसके साधन तथा भक्ति और योग आदि पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। पुरुषच्छायापन्न-महदादि के अव्यक्त में लीन
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विज्ञानभिक्षु का विज्ञानामृतभाष्य हो जाने पर पुरुष को कैवल्य या मोक्ष हो जाता है। विकारविलय के द्वारा चिन्मात्ररूप से पुरुष का स्थित रहना ही मोक्ष है। जिन पुण्य-पापों के फलरूप कार्य आरम्भ नहीं हुए रहते उनका नाश सम्यग्ज्ञान से हो जाता है और जिन पुण्य-पापों का फल प्रारम्भ हो जाता है उनका नाश केवल ज्ञान से नहीं होता। यौगिक विधियों से तुरन्त भोग अथवा जीवन्मुक्त के रूप में सामान्य रीति के भोग के द्वारा उनका क्षय करके ही पुरुष मुक्त हो सकता है। इस प्रकार से ज्ञान केवल संचित कर्मों तथा क्रियमाण कर्मों के फलों को शांत कर सकता है। प्रारब्ध कर्मों का नाश केवल ज्ञान से नहीं होता, उसका नाश भोग के द्वारा ही सम्भव है-चाहे वह साधारण रीति से हो अथवा योगोक्त रीति से। मोक्षदशा में पुरुष आनन्दशून्य ही रहता है। आनन्दमयता का उन्होंने प्रबल प्रतिरोध किया है। निर्गुण ब्रह्म को आनन्द गुणयुक्त बताना और मोक्ष को आनन्दविशिष्ट दशा मानना उनकी दृष्टि में सर्वथा असङ्गत है। आत्मा की चिन्मात्रता या चिन्मयस्वरूपता पर ही उनका एकमात्र आग्रह है।
विज्ञानभिक्षु ने दो प्रकार की मुक्ति मानी है। एक है सद्योमुक्ति और दूसरी क्रमिक मुक्ति। वस्तुतः ये दोनों भेद मुक्ति के स्वरूप के भेद नहीं हैं। अपि तु मुक्तिलाभ होने में लगने वाले समय की अपेक्षा से है। सद्योमुक्ति के सम्बन्ध में बताते हुए वे लिखते हैं कि निखिल-वेदान्तों के सारभूत तत्त्व “स मे आत्मति सोऽहम्” -का साक्षात्कार करने वाला शमदमादिसाधनसम्पत्र विद्वान् अर्थात् ब्रह्मज्ञानी अविद्या तथा तज्जन्य कार्य-धर्माधर्म के क्षय हो जाने पर विमोक्ष का लाभ करता है, उसके सारे दुःख सदा के लिए विगलित हो जाते हैं। “न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति" ऐसी श्रुति है। यह उसकी सद्योमुक्ति कही जायेगी। यही
परमामुक्ति या ऐहिक मुक्ति के नाम से भी वर्णित है।
“यथोक्तसाधनैर्निर्गुणब्रह्मविद्यापरिपाकवत ऐहिकी परममुक्तिविचारिता"
FIF (वही, पृ. ५७६)। जो साधक माया तथा जीवादि के अविवेक से शबल ब्रह्म की उपासना करता है और तनिष्ठ हो जाता है, वह अर्चिरादि शुभ-मागों से सावरण बहिर्गमन करता हुआ कारणब्रह्म में रहकर हिरण्यगर्भादिकों का भी ईश्वर बन कर परमेश्वरेच्छा से उसके लीलावताररूप अवतार आदि लेकर स्वेच्छा से वही क्रमशः मुक्ति लाभ करता है। अथवा कार्यब्रह्म के लोक को प्राप्त करके दो परार्ध के अन्ततक वहाँ ब्रह्मा, विष्णु, रुद्रादि के साथ भोग प्राप्त करता हुआ परिपक्व ज्ञान प्राप्त करके ब्रह्मा-विष्णु रुद्रादि देवताओं के साथ क्रमिक मुक्ति का लाभ करता है। यदि यहाँ पर मुक्तिलाभ न कर सका तो धीरे-धीरे किसी न किसी सर्गान्त तक मुक्ति लाभ कर लेता है। ये स्थितियां क्रमिक मुक्ति की वैकल्पिक गतियां हैं। इनका नाम सामूहिक रूप से क्रम-मुक्ति या क्रमिक-मुक्ति है।
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८. मुक्ति के साधन
यद्यपि ज्ञान को ही प्रधानतः मुक्ति का साधन आचार्य विज्ञानभिक्षु ने भी बतलाया है, किन्तु इस ज्ञान को योग के ढाँचे में ढाल कर ही मुक्ति के साधन के योग्य बनाया गया है। आत्म-साक्षात्कार ज्ञान होने के बाद ही साधक को असम्प्रज्ञात योग की सिद्धि होती है। असम्प्रज्ञात समाधि के द्वारा चित्त का विलय हो सकता है और तभी मोक्ष होता है। तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होती है और अपूर्व उत्पन्न होता है। इस अपूर्व के द्वारा कर्मनिवृत्ति होती है। इस कर्मनिवृत्ति के द्वारा तथा तत्त्वज्ञानजन्यवैराग्य के द्वारा मुक्तिलाभ होता है, क्योंकि स्वयं विद्या या ज्ञान बिना किसी द्वार के धर्माधर्म का नाश नहीं कर सकता।
आप कभी-कभी परवैराग्य के उदय होने पर परतत्त्वज्ञानजन्य अपूर्व के माध्यम की आवश्यकता मुक्तिलाभ में नहीं होती, क्योंकि परवैराग्य कर्मानुत्पादरूप दृष्ट-द्वार मात्र से ही मोक्ष सम्पन्न कर देता है। इसमें यह विशेषता अवश्य होती है कि अपूर्व-रहित मार्ग से मोक्षलाभ में कुछ देर होती है।
- चूंकि ब्रह्म ही एक तत्त्व है अतः उसी का साक्षात् ज्ञान अर्थात् ब्रह्मज्ञान ही तत्त्वज्ञान है, वही मुक्ति का हेतु बताया गया है। आचार्य विज्ञानभिक्षु का कहना है कि चूंकि जीव और ब्रह्म में अभेद है अतः केवल जीवात्मा के ही तात्त्विक ज्ञान से भी मुक्ति समुपलब्ध हो सकती है। किन्तु दोनों मागों में ब्रह्मज्ञानजन्यमुक्ति का पथ ही अधिक श्रेयस्कर है। वही मुख्य कल्प है। त
सगुण ब्रह्म की उपासना करने से तत्त्वज्ञान की क्रमिकप्राप्ति तथा क्रम-मुक्ति-प्राप्ति में उपासना या भक्ति तथा कर्म की बड़ी उपयोगिता है। किन्तु परम-मुक्ति अथवा सद्योमुक्ति में वह बात नहीं है। वह तो निर्गुण-तत्त्वज्ञान से साक्षात् होती है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या सद्योमुक्ति में तत्त्वज्ञान? कर्मनिरपेक्ष ही साधन है? अथवा कर्म और ज्ञान दोनों का समुच्चय सद्यो-मुक्ति का साधन है? या फिर कर्म प्रधान और तत्त्वज्ञान उसका अङ्गभूत होकर सद्योमुक्ति सम्पादित करता है।
प्रचि अधिकारी की अवस्थाभेद से तीन स्थितियां होती हैं। अधिकारी तीन प्रकार के होते हैं-१. योगारुरुक्षु, २. युञ्जान और ३. योगारूढ़। प्रथम प्रकार की अवस्था में कर्म का अङ्गभूत तत्त्वज्ञान रहता है। द्वितीय अवस्था में ज्ञानकर्मसमुच्चय होता है और जब अधिकारी की तीसरी अवस्था आ जाती है तब ज्ञान प्रधान रूप से सद्योमुक्ति का साधन बन जाता है। मुक्ति-हेतु के रूप में तत्त्वज्ञान की स्वतन्त्र शक्ति रहती है। सच्ची परिस्थिति तो यह है कि कर्म का तत्त्वज्ञान से कोई विरोध भी नहीं है। कर्म का विरोध तो समाधि से है। ज्ञान के साथ तो केवल कर्माभिमान का विरोध है। स्वाभाविक कर्म तो स्वतः होते रहते हैं।
योगारूढ़ अवस्था में कर्मशेषत्व तथा कर्मसमुच्चय दोनों का खण्डन करते है और कर्मनिरपेक्ष ज्ञान को परममुक्ति का हेतु मानते हैं।
विज्ञानभिक्षु का विज्ञानामृतभाष्य
४१७ इस प्रकार क्रममुक्ति की प्राप्ति भी ज्ञान से ही होगी, भले ही वह ज्ञान ब्रह्मादिलोकों में रहकर प्राप्त किया जाय।
“ब्रह्मलोकं गता हि तत्रैव ज्ञानोपरता हि तत्रैव ज्ञानोत्पत्त्या प्रायशो मुच्यन्ते”
(वही, पृ. ४६८) । इसलिए उभयविध मुक्ति का हेतु केवल तत्त्वज्ञान ही है। सगुणोपासना जीव के भोगों को भले ही उत्कृष्ट करती रहे, मोक्षहेतु नहीं बन सकती। मुक्ति के दोनों भेद साधनभेद के आधार पर नहीं किए गए हैं, बल्कि क्रमिकता और क्रमरहितता के कारण किए गए हैं। न तो दोनों मुक्तियों में स्वरूपभेद है न साधनभेद। केवल प्राप्ति में लगने वाले समय के
आधार पर मुक्ति के ये दो भेद माने गए हैं।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
१. विज्ञानभिक्षु, ईश्वरगीताभाष्यम्- एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल के कलकत्ता
स्थित संग्रहालय में सुरक्षित पाण्डुलिपि। २. योगवार्तिकम्, विज्ञानभिक्षुकृतम्, चौखम्बा वाराणसी, १६३५. ३. विज्ञानामृतभाष्यम्, विज्ञानभिक्षुकृतम्, चौखम्बा वाराणसी, १६३०.षष्ठ अध्याय