Nato
०१. मध्वाचार्य का व्यक्तित्व और कृतित्व
मा पं. गोपीनाथ कविराज के अनुसार मध्वाचार्य का जन्म ११६६ ई. में विल्वग्राम, पाजक क्षेत्र, कर्नाटक में हुआ था। किन्तु कृष्णशास्त्री उनका जन्म १२३८ ई. में मानते हैं
और निधन १३१७ ई. में। उनकी जन्मभूमि उडिपी से दक्षिण-पूर्व ८ मील की दूरी पर है। बचपन में उनका नाम वासुदेव था। २५ वर्ष की आयु में उन्होंने संन्यास ले लिया था। तब उनका नाम पूर्णप्रज्ञ आनन्दतीर्थ हो गया। मध्वाचार्य उनका रहस्यात्मक नाम है जो बताता है कि वे वायु के अवतार थे। उनका सम्प्रदाय ब्रह्म-सम्प्रदाय है। प्रसिद्ध है कि वे वायु के तृतीय अवतार हैं -
lima प्रथमो हनुमनाम द्वितीयो भीम एव च।
म पूर्णप्रज्ञस्तृतीयस्तु भगवत्कार्यसाधकः।। Hapher मध्वाचार्य ने अपने दर्शन को तत्त्ववाद या यथार्थवाद कहा है। माधवाचार्य के सर्वदर्शनसंग्रह में उसे पूर्णप्रज्ञ दर्शन कहा गया है। सामान्यतः उसे द्वैतवेदान्त कहा जाता है।
मध्वाचार्य के कुल ३७ ग्रन्थ हैं। ब्रह्मसूत्र पर उनके चार भाष्य हैं - (१) ब्रह्मसूत्रभाष्य, (२) अणुभाष्य, (३) अनुव्याख्यान और (४) न्यायविवरण। भगवद्गीता पर उनके दो भाष्य हैं- गीताभाष्य और गीतातात्पर्यनिर्णय। ईश, केन, प्रश्न, मुण्डक, कठ, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और माण्डूक्य, दश उपनिषदों पर उनके अलग-अलग भाष्य हैं। भागवततात्पर्यनिर्णय, महाभारत-तात्पर्यनिर्णय, ऋग्भाष्य (ऋग्वेद के प्रथम ४० सूक्तों का भाष्य) और तन्त्रसारसंग्रह उनके अन्य ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त उनके द्वारा रचित दश प्रकरण ग्रन्थ हैं - प्रमाणलक्षण, उपाधिखण्डन, मायावाद-खण्डन, तत्त्वोद्योत, कथालक्षण, प्रपंचमिथ्यात्वानुमानखण्डन, तत्त्वसंख्यान, तत्त्वविवेक, विष्णुतत्त्वनिर्णय और कर्मनिर्णय। यमकभारत, नरसिंहनखस्तुति, द्वादशस्तोत्र, कृष्णामृतमहार्णव, सदाचारस्मृति, यतिप्रणवकल्प
और कृष्णजयन्तीनिर्णय मध्वाचार्य के शेष ग्रन्थ हैं। इन सभी ग्रन्थों में ब्रह्मसूत्र के चारों भाष्यों का विशेष महत्त्व है। मध्व ब्रह्मसूत्र को निर्णायकशास्त्र तथा अन्य शास्त्रों को निर्णय शास्त्र मानत है।
वन मिति
३५६
वेदान्त-खण्ड
(१) ब्रह्मसूत्रभाष्य को पूर्णप्रज्ञभाष्य भी कहते हैं। इसमें ब्रह्मसूत्र का संक्षेप में अर्थ किया गया है। मध्व ने अपने अर्थ के पक्ष में पुराणों तथा आगमों से अनेक उद्धरण दिये हैं। इस पर जयतीर्थ की तत्त्वप्रकाशिका टीका है और तत्त्वप्रकाशिका पर व्यासतीर्थ की तात्पर्यचन्द्रिका टीका है। इस प्रकार माध्व-वेदान्त के मुनित्रय का सम्बन्ध ब्रह्मसूत्रभाष्य से हो गया है। अतः यह ग्रन्थ माध्व-वेदान्त में महत्त्वपूर्ण है। किन्तु इसको समझने के लिए मध्वाचार्य के उन अन्य तीन ग्रन्थों का अध्ययन भी अपेक्षित है जिन्हें उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर लिखा है। यह उल्लेखनीय है कि मध्वाचार्य ब्रह्मसूत्र के प्रत्येक सूत्र के आदि और अन्त में ॐ का प्रयोग करते हैं, जैसे उनके ब्रह्मसूत्रभाष्य में ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ के स्थान पर “ॐ अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ॐ” ऐसा सूत्र मिलता है।
(२) अणुभाष्य में केवल ३४ अनुष्टुप् श्लोकों में ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों का संक्षेप दिया गया है।
(३) अनुव्याख्यान मध्वाचार्य की सर्वश्रेष्ठ कृति है। यह पद्य में है। इसमें ब्रह्मसूत्र की व्याख्या के साथ ही साथ अद्वैतवाद का विशद खण्डन किया गया है। इस पर त्रिविक्रम पंडित ने तत्त्वप्रदीप नामक टीका लिखी है, जयतीर्थ ने न्यायसुधा नामक एक विशालकाय व्याख्या लिखी है और राघवेन्द्र यति ने न्यायसुधा पर परिमल नामक टीका लिखी है। न्यायसुधा जयतीर्थ की सर्वश्रेष्ठ कृति है। इसके बारे में प्रसिद्धि है : “सुधा वा पठनीया वसुधा वा पालनीया" अर्थात् न्यायसुधा का अध्ययन करना उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना किसी राज्य का संचालन करना। न्यायसुधा का अध्ययन और राज्य-संचालन अथवा राज्यसेवा, इन दो विकल्पों में अधिकांश विद्वानों ने प्रथम विकल्प को चुना है और माध्ववेदान्त की महान् सेवा की है।
(४) न्यायविवरण में ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों का संक्षेप तथा ब्रह्मसूत्र में उठाये गये सभी पूर्वपक्षों तथा सिद्धान्तपक्षों का गद्य में विवेचन है। इस पर भी जयतीर्थ की टीका है जो अपूर्ण है। उसे रघूत्तम तीर्थ ने बाद में पूरा किया है।
मध्य ने शास्त्रार्थ में अद्वैतवादी त्रिविक्रम पंडित को परास्त किया था। त्रिविक्रम पंडित तब मध्वाचार्य के शिष्य हो गये थे। उनके पुत्र नारायण भट्ट ने मध्वविजय और मणिमंजरी नामक दो ग्रन्थ लिखे। प्रथम ग्रन्थ में मध्वाचार्य की जीवनी है।
मी
०२. मध्वाचार्य का द्वैतवाद
जिस अर्थ में दैतवाद का प्रयोग पाश्चात्त्य दर्शन में होता है उसमें मध्व द्वैतवादी नहीं हैं, क्योंकि वे एक ही स्वायत्त सत्ता को मानते हैं और दूसरी सत्ता को परतन्त्र कहते हैं। वास्तव में शंकराचार्य के अद्वैतवाद के सन्दर्भ में ही माध्ववेदान्त को द्वैतवादी कहा जाता है। क्योंकि माध्वदर्शन में सत्ता के दो भेद स्वीकृत हैं- स्वतन्त्र सत्ता और परतन्त्र सत्ता।
मध्वाचार्य का द्वैतवेदान्त
३७ ‘स्वतन्त्रमस्वतन्त्रं च प्रमेयं द्विविधं मतम् ।’ उनका दर्शन एकेश्वरवादी है। डॉ. बी.एन.के. शर्मा जैसे माध्व-सम्प्रदाय के अद्यतन व्याख्याकारों ने कहा है कि यह “स्वतन्त्र ब्रह्मवाद’ अर्थात् अतुल्य स्वतन्त्र ब्रह्मसिद्धान्त है।
र चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी बलदेव विद्याभूषण ने प्रमेयरत्नावली में माध्व- तत्त्वज्ञान का वर्णन नौ सूत्रों में यों किया है: -
श्रीमन्मध्वमते हरिः परतरः सत्यं जगत् तत्त्वतो भेदो जीवगणा हरेरनुपरा नीचोच्चभावं गताः। मुक्तिनँजसुखानुभूतिरमला भक्तिश्च तत्साधनं
यक्षादि त्रितयं प्रमाणमखिलाम्नायैकवेद्यो हरिः।।
अर्थात् (१) हरि परमोच्च है। (२) जगत् सत्य है। (३) भेद सत्य है। (४) जीव हरि के अनुचर हैं। (५) जीवों में निम्नोच्चता का तारतम्य है। (६) जीवों का अन्तःस्थ आनन्दभोग ही मुक्ति है। (७) शुद्ध भक्ति ही मुक्ति का साधन है। (८) प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द, ये तीन प्रमाण हैं। (६) हरि केवल वेदों से ही जाने जाते हैं। मि इन सूत्रों से स्पष्ट है कि यदि परम ज्ञातव्य को अद्वैत तत्त्वज्ञान में निर्गुण कहा जाय, तो माध्व तत्त्वज्ञान में उसी को सगुण कहना चाहिये। वह ब्रह्म, विष्णु या नारायण से भिन्न नहीं है। अद्वैत तत्त्वज्ञान में यह जगत् माया या मिथ्या है। किन्तु माथ्च की दृष्टि से जगत् सत्य है। अद्वैतवादी सारे भेदों को असत्य मानते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि से सत्य एक ही है, और सत्य से भिन्न कुछ है ही नहीं। अगर भिन्नता कहीं दिखाई देती है तो वह मिथ्या है। वस्तुएं जैसी भी हों, भिन्नता के आधार पर ही निर्भर हैं। यही द्वैतवाद है। अद्वैतमत के अनुसार जीवों का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है। वे ब्रह्म से भिन्न हैं ही नहीं। माध्वों का कथन है कि जीवों का अस्तित्व ब्रह्म पर निर्भर होते हुए भी ब्रह्म से भिन्न है। जीव असंख्य हैं। स्वभावतः वे एक दूसरे से भिन्न हैं। उनकी भिन्नता की मात्रा भी अलग-अलग होती है। अद्वैतवादियों का कहना है कि जीव स्वयं ब्रह्म है और इस ज्ञान का उदय ही मुक्ति है। इस कथन का तात्पर्य है कि जीवात्मा व्यक्तिरूप में असत् है। ब्रह्म पर आश्रित होते हुए भी, ब्रह्म से भिन्न अपने अस्तित्व का ज्ञान होना ही जीव की मुक्ति का लक्षण है, यह माध्वमत है। आत्मा के अन्तरतम आनन्द का आस्वादन ही मुक्ति है। आचार्य शंकर कहते हैं कि ज्ञान से ही मोक्ष-लाम हो सकता है, ‘ज्ञानादेव तु कैवल्यम’। द्वैतवादी की दृष्टि से
शुद्धा भक्ति ही मोक्ष होती है, भक्ति से ही मुक्तिलाभ होता है। माना
द्वैतमत के अनुसार प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द, ये तीन ही प्रमाण होते हैं। इनके अतिरिक्त अद्वैतवादी उपमान, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि को भी प्रमाण मानते हैं। माध्वों के अनुसार हरि या परमात्मा केवल वेदों से ही ज्ञात होते हैं, वे एकमात्र वेदवेद्य हैं।३५८
वेदान्त-खण्ड इससे यह सिद्ध होता है कि अद्वैत और द्वैत की विचारधाराएँ परस्पर विरोधी हैं। मध्वाचार्य को दो प्रकार के कार्य करने थे। एक, विवेचनात्मक कार्य जिसमें अद्वैतविचारधारा को सदोष दिखाकर वाद-विश्लेषणात्मक रीति से उसके तत्त्वज्ञान के खोखलापन को प्रकाशित करना था। दूसरे विधायक कार्य जिसमें एक महान् एकेश्वरवादी वैष्णव-तत्त्वज्ञान की नींव डालकर न्यायसंगत भक्ति-सिद्धान्त की स्थापना करना था। मध्वाचार्य के तत्त्वज्ञान का अध्ययन करते समय अगर हम उनके वाग्युद्ध सदृश वैश्लेषिक युक्तिवादों पर सूक्ष्मता से ध्यान नहीं देंगे, तो हमें न द्वैतमत का आकलन होगा और न अद्वैतमत का। इस निबन्ध में मेरा यह प्रयास रहेगा कि मध्वाचार्य के तत्त्वज्ञान के विधायक स्वरूप की विवेचना के साथ ही साथ उनके विवेकपूर्ण विश्लेषण की ओर भी ध्यानाकर्षण करूं।
Raj THEIR
०३. प्रमाण-विवेचन
जिसे ज्ञान होता है वह ज्ञाता या विषयी है और जिस वस्तु का ज्ञान होता है वह विषय या ज्ञेय है। जिसे ज्ञान होना है वह अगर नहीं है तो ज्ञाता कौन है और ज्ञान भी क्या है? इसी तरह अगर विषय नहीं है, वस्तु नहीं है, तो भी ज्ञान सम्भव नहीं है। विषयी
और विषय, इन दोनों में जो एक अनोखा सम्बन्ध है वही ज्ञान है। विषय से विषयी जब विशिष्ट स्थिति में जुड़ जाता है तब ज्ञान सम्भव होता है। अद्वैतवाद मानता है कि ज्ञान अखण्ड और अविषय है, अर्थात् ज्ञान वस्तुविषयक नहीं है और अविशेष या अनिर्धार्य है। इस विषय में द्वैतवादियों की धारणा बिल्कुल भिन्न है। वे मानते हैं कि ज्ञान अखण्ड, सविषयक और सविशेष है। विषयहीन या वस्तुविहीन ज्ञान की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, क्योंकि जब ज्ञान होता है तो वह किसी वस्तु के विषय में ही होता है और किसी व्यक्ति को ही होता है। ज्ञाता को ज्ञान तो होता है, मगर जिसका ज्ञान होता है वह कोई वस्तु है ही नहीं, यह कथन सामान्य अनुभव और तर्क के विपरीत है। जब कोई ज्ञाता ज्ञानविषय को जानता है तो इस प्रक्रिया में ज्ञाता के सम्मुख वस्तुविषय का प्रकटीकरण ही ज्ञान है। यही ज्ञान का स्वरूप है। वस्तुविषय जाना जाय या नहीं, वह एक सत्य है। ज्ञाता को वह ज्ञात हो या न हो, इस पर उसकी सत्यता निर्भर नहीं है। वह वस्तुविषयक ज्ञान में स्वयं को प्रकट करता है और उसकी सत्ता कालबद्ध और देशबद्ध होती है, अर्थात् आकाश और विशिष्ट काल में उसका अस्तित्व होता है। अपने अस्तित्व के लिए उस वस्तुविषय को ज्ञानप्रक्रिया पर निर्भर रहना आवश्यक नहीं है। ज्ञान बस्तु-विषय के रूप
और गुणों से निश्चित होता है। ‘मेयाधीनं मानम्। कि ज्ञान और ज्ञानविषय, इन दोनों का सम्बन्ध केवल कलिएत सम्बन्ध नहीं है। यह केवल शुद्ध संकल्पनात्मक सम्बन्ध भी नहीं है। मध्वाचार्य एक सच्चे वास्तववादी थे। ज्ञान
मध्वाचार्य का द्वैतवेदान्त और वस्तुविषय, इन दोनों के सम्बन्ध को वे सत्य मानते थे। आत्मा, द्रव्य और ईश्वर, ये तीनों जैसे सत्य हैं, ठीक उसी तरह ज्ञान और वस्तु विषय दोनों ही सत्य हैं। यही उनकी धारणा थी। इसी को वे विषय-विषयीभाव या दृग्दृश्य-सम्बन्ध कहते थे।
पुनश्च, मध्वाचार्य मानते हैं कि ज्ञान स्वयं आत्मा का गुण है। ज्ञान और विषय का सम्बन्ध गुणविशेष और गुणविशिष्ट के सम्बन्ध को स्पष्ट करता है। ज्ञान और विषय के परस्पर-सम्बन्ध से दोनों का कोई वास्ता नहीं है। जो वस्तु ज्ञात होती है या जिस वस्तु का बोध होता है वह वस्तु ज्ञात होने के पहले जैसी थी, वैसी ही रहती है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। ज्ञान कारक नहीं है। वह वस्तु को अन्यथा नहीं बनाता। जय
ज्ञाता और ज्ञान परस्पर भिन्न हैं। ज्ञान किसी ज्ञाता को होता है। फिर भी ज्ञान और ज्ञाता एक नहीं हैं और न ज्ञान ज्ञाता से एकरूप है। ज्ञान आत्मा का गुणविशेष है और इसका अर्थ है कि वह स्वयं एक द्रव्य है। ज्ञान स्वयं में गुणधर्म वाला धर्मी है। वह स्वयं का एक आगन्तुक गुणविशेष नहीं है। न्यायशास्त्र में ज्ञान को आगन्तुक गुणविशेष कहा गया है, पर मध्वाचार्य इसका खण्डन करते हैं।
ज्ञान स्वयं प्रकाशक है। इसीलिए ज्ञान स्वयंसिद्ध है। वस्तु को प्रकाशित करने से वस्तुज्ञान सिद्ध होता है। इसके अलावा, ज्ञान स्वयं की प्रकाश्य वस्तु भी हो जाता है। यह मत मीमांसकों के त्रिपुटी-प्रत्यक्ष-सिद्धान्त के सन्निकट आ जाता है।
मध्वाचार्य प्रमाण की परिभाषा देते हुए कहते हैं-‘यथार्थं प्रमाणम्’ । वस्तु जैसी हो वैसी उसकी प्रतीति होना प्रमाण का लक्षण है। प्रमाण की यह परिभाषा सार्वभौम है क्योंकि इसमें समग्र यथार्थ ज्ञान आ जाता है, इसमें स्मृतिज्ञान भी सम्मिलित है तथा संशय और विपर्यय (प्रमाद) इसके बाहर हैं।
मध्वाचार्य प्रमाण का प्रयोग दो अर्थों में करते हैं (9) सत्यज्ञान और
(२) सत्य-ज्ञान की प्राप्ति का उपाय। प्रथम अर्थ में इसे केवल प्रमाण कहते हैं और दूसरे अर्थ में अनुप्रमाण। सत्यता इन दोनों की विशिष्टता है। वस्तु का वास्तविक और सत्यज्ञान केवल प्रमाण है। यह ज्ञान जिससे प्राप्त होता है वह अनुप्रमाण है। अनुप्रमाण तीन प्रकार के होते हैं, (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान और (३) शब्द।।
केवल प्रमाण चार प्रकार के होते हैं। वे हैं-510 (१) ईश्वरज्ञान, (२) लक्ष्मीज्ञान, (३) योगीज्ञान और
३६०
वेदान्त-खण्ड
क () अयोगीज्ञान। यह वर्गीकरण प्रकाश और परिक्षेत्र (रज) के गुणों की आन्तरिक भित्रताओं पर आधारित है। प्रथम दो प्रकार स्वरूपज्ञान की विशेषता है और अन्य दो प्रकारों में वृत्तिज्ञान सम्मिलित है।
की सीमा
०४. प्रत्यक्ष-विवेचन
“निर्दोषेन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यं ज्ञानम् प्रत्यक्षम्’, यह प्रत्यक्ष की परिभाषा है। दोषरहित इन्द्रियों का सापेक्ष वस्तुओं से संस्पर्श होने से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसी को प्रत्यक्षज्ञान कहते हैं। यहाँ मध्वाचार्य की दोष-व्याख्या वही है जो सांख्यों की दोष-व्याख्या है। ‘अतिदूरादतिसामीप्यात्सौक्ष्म्यं व्यवधानं समानद्रव्याभिधातोऽनभिव्यक्तमन्यसादृश्यं च।’ वस्तु अति दूर हो, अति समीप हो, सूक्ष्म हो, व्यवधानसहित हो, समान वस्तुओं से मिश्रित हो, स्पष्टतया प्रकट न हो, अन्य वस्तुओं के सदृश हो, तो ऐसी स्थिति में वस्तु का ज्ञान ठीक नहीं होता। सन्निकर्ष दोष-रहित होना चाहिए, अन्यथा ये दोष भ्रम या संशय पैदा कर सकते
मध्वाचार्य ज्ञानेन्द्रियों की संख्या छः मानते हैं, चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, स्पर्श, रसना और मन। इन सभी इन्द्रियों के अलग-अलग दोष होते हैं। मन सुख-दुःखादि अनुभवों से अभिभूत होकर वस्तुओं का विपरीत ज्ञान करा सकता है। चक्षु पाण्डुरोग-जैसी व्याधि से या लघुदृष्टि-जैसे दोष से बाधित होकर ज्ञान-प्राप्ति में बाधक हो सकती है। इसीलिए ज्ञानेन्द्रियों का निर्दोष होना आवश्यक है।
र इसके अलावा मध्वाचार्य साक्षी में प्रातिभज्ञान की क्षमता मानते हैं। मनुष्य के स्वयं की भीतरी संवेदना-शक्ति को ही साक्षी कहते हैं। साक्षी स्वयं का स्वरूपेन्द्रिय है। वह ज्ञानग्नाहक तो है ही, ज्ञानप्रामाण्य-ग्राहक भी है। शुद्ध और दोषरहित है और वस्तुओं का यथार्थज्ञान प्राप्त कराने में सक्षम है। यहाँ और अब जो विद्यमान है, अप्रतिहत है और सापेक्षतया सन्निकट है उसके यथार्थ आकलन को बोध कहते हैं। मध्वाचार्य स्मृतिज्ञान को भी प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। इस प्रक्रिया में मन के लिए उसके संस्कार वस्तुविशेष होते हैं। उपर्युक्त तीन प्रमाणों में प्रत्यक्ष (बोध) सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है। सामान्यतः हम देखते हैं कि हमारे इन्द्रियजन्य अनुभव, तर्कज्ञान तथा शाब्दप्रामाण्य में कई बार विरोध दिखाई देता है। विरोध आपाततः हो या वास्तव, इससे हमारे मन में अनुभव, तर्क और शाब्द-प्रामाण्य के बारे में आशका पैदा होती है। जब अद्वैतवादी तर्क द्वारा यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हमारा सृष्टिविषयक अनुभव मिथ्या है, तब माध्व वेदान्ती स्वभावतः चिढ़ जाते हैं। अद्वैतवादियों की दृष्टि में तर्क और अनुमान प्रत्यक्ष (बोध) से श्रेष्ठतर हैं। यह समस्या माध्व-तत्त्वमीमांसा में बहुत महत्त्वपूर्ण है। अतः हम इसके बारे में थोड़ा गहराई से विचार करेंगे।
मध्वाचार्य का दैतवेदान्त
२६१
मध्वाचार्य की दृष्टि से प्रत्यक्ष (बोध) ही उच्चतम ज्ञान है। यद्यपि अनुमान और शब्द-प्रमाण से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह यथार्थ हो सकता है, तथापि इस प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष-बोध को न तो प्रतिरुद्ध करता है और न उस पर हावी हो सकता है। तत्त्वोद्योत में मध्वाचार्य लिखते हैं
“न च प्रत्यक्षसिद्धमन्येन केनापि बाध्यं दृष्टम् । चन्द्रप्रदेशत्वादिविषयं तु दूरत्वादिदोषयुक्तत्वात्पटु । न च जगत्प्रत्यक्षस्यापटुत्वे किञ्चिन्मानम्।”
ऐन्द्रियज्ञान स्वयं ही सत्य का एक मानक है। उसे अनुमान या शब्द-प्रमाण की पुष्टि की आवश्यकता नहीं है। चन्द्र का लघु आकार युक्त और अन्य दोषयुक्त दर्शन, दूरी और अन्य असाधारण कारणों का परिणाम है। कठोर परीक्षण करने पर भी, अपने मन के बाहरी जगत् के अस्तित्व के बारे में ऐन्द्रिय संवेदन से प्राप्त ज्ञान को पूर्णतया अस्वीकृत करना हमारे लिए सम्भव नहीं है। जैसा कि अद्वैतवादियों ने प्रयास किया है, प्रत्यक्ष-त्रुटियों के कारण और भ्रम के कारण संपूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञान को अस्वीकृत करना ठीक नहीं है। जगत् मिथ्या, दृश्यत्वात् शुक्तिरजतवत् यह अनुमान प्रत्यक्षविरुद्ध है। इस सम्बन्ध में मैक्स बोर्न फिजिक्स इन माइ जेनरेशन में जो कहते हैं वह माध्वाचार्य को इष्ट है। मैक्स बोर्न लिखते हैं, “वैज्ञानिक को वास्तववादी होना चाहिए। इन्द्रिय-संस्कारों को उसे विभ्रमों से अधिक स्वीकृति देनी चाहिए क्योंकि वे बाह्य जगत् के वास्तविक संदेश हैं”।
(१) प्रत्यक्ष और अनुमान-अनुमान में व्याप्ति सर्वथा पूर्वकल्पित है और व्यक्ति सर्वथा प्रत्यक्ष पर अवलंबित है। प्रत्यक्ष अनुमान का उपजीव्य है। अनुमान उपजीवक है। अगर प्रत्यक्ष हमें यथार्थ ज्ञान नहीं दे तो अनुमान संभव नहीं है, क्योंकि वह व्यक्ति के लिए प्रत्यक्ष पर ही अवलंबित है। प्रत्यक्ष ही यथार्थता की नींव है। निश्चितार्थता के लिए उसे अन्य किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है और न वह किसी अन्य प्रमाण पर अवलम्बित है। अतः प्रत्यक्ष कभी भी मिथ्या नहीं है और यदि वह मिथ्या है, तो वह प्रत्यक्ष नहीं है और भ्रम है जो प्रत्यक्ष सहवर्ती कारणों के दोषों से लिप्त है। जयतीर्थ ने लिखा है
“यदा प्रत्यक्षं समबलप्रत्यक्षान्तरेण न बाध्यते, हन्त!
तदा का वार्ता तत्पदोपजीविनो वराकस्य तर्कस्य तद्बाधकत्वे।” (२) प्रत्यक्ष और शब्द-शब्दप्रमाण को आगम कहा जाता है। प्रत्यक्ष और आगम इन दोनों के क्षेत्र पृथक्-पृथक् हैं। इसलिए इन दोनों के सापेक्ष महत्त्व या सापेक्ष शक्ति के परीक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है। तथापि आगमों के एक भाग में, जहाँ यज्ञ का विचार आता है वहाँ प्रत्यक्ष के विषय में कुछ व्यामिश्र स्थिति है। आगम-ग्रन्थों के इस भाग का अर्थनिरूपण प्रत्यक्ष की दृष्टि से करना उचित होगा, न कि किसी अन्य दृष्टि से।
૩૬૨
मा बैदान्त-खण्ड
आगम में ब्रह्म के स्वरूप के बारे में विचार-विमर्श हो और प्रत्यक्ष से उसका विरोध न हो, तो वहाँ आगम सर्वथैव मान्य है। किन्तु यदि आगम प्रत्यक्ष के क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं तब वहाँ प्रत्यक्ष-ज्ञान के नियमों को ही बिना किसी हिचकिचाहट के मानना होगा। इस स्थिति में आगमों को ही प्रत्यक्ष के नियमों के आगे झुकना पड़ेगा।
०५. अनुमान-विवेचन
निर्दोष उपपत्ति ही अनुमान है। न्यायसुधा में इसकी परिभाषा है-हेतु और साध्य के बीच जो अचल सम्बन्ध तर्क से स्थापित होता है उसे अनुमान कहते हैं। हेतु और साध्य का यह अचल सम्बन्ध अनुमान को निश्चित रूप से निर्धारित करता है और इसी में प्रत्यक्ष
और शब्द-प्रमाण से उसकी भिन्नता है। भूत और भविष्यत्कालीन वस्तुएं भी अनुमानगोचर हैं। अनुमान-प्रक्रिया देश-काल से बाधित नहीं हो सकती। अनुमान व्यवहित ज्ञान है और प्रत्यक्षज्ञान के निकटतम है।
कुछ स्वल्प भेदों के अतिरिक्त मध्वाचार्य की अनुमान-प्रक्रिया न्यायशास्त्र की अनुमानप्रक्रिया से भिन्न नहीं है। मध्वाचार्य अन्वयव्याप्ति को स्वीकार करते हैं और केवलान्वयी अनुमान को ही मानते हैं। अनुमान में अनेक अवयवों की कोई विशेष अपेक्षा वे नहीं रखते।
०६. शब्द-प्रमाण का विवेचन
मध्वाचार्य के मत में ईश्वर के बारे में या पारमार्थिक विषयों के बारे में शब्द-प्रमाण एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। प्रस्थानत्रयीसमेत वेदों, स्मृतियों पाञ्चरात्रागम और पुराणों को मध्वाचार्य शास्त्र मानते हैं। यह समस्त शास्त्र स्वतः प्रमाणित हैं। वैदिक संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता अपौरुषेय हैं। वेदों पर आधारित स्मृतियां और पुराणों को पौरुषेय माना जाता है। श्रुत्यनुसारी स्मृतियाँ ही प्रमाण हैं, अन्य स्मृतियाँ नहीं। तथापि इस नियम का एक अपवाद है। माध्चों के अनुसार पांचरात्र आगम स्वयं भगवान विष्णु की कृति होने के कारण वेदों के समकक्ष हैं और वेदों से कनिष्ठ नहीं हैं।
मध्वाचार्य स्वतः प्रामाण्यवादी हैं। वे अनिर्वचनीय ख्याति की आलोचना करते हैं और अन्यथाख्याति को प्रस्तुत करते हैं। इसे वे अभिनव अन्यथाख्याति कहते हैं।
०७. हरि की सर्वश्रेष्ठता
मध्वाचार्य के विष्णुतत्त्वनिर्णय का प्रथम श्लोक निम्न है: -
सदागमैर्हि विज्ञेयं समतीतक्षराक्षरम्। नारायणं सदा वन्दे निर्दोषाशेषसद्गुणम् ।।
३६३
मध्वाचार्य का द्वैतवेदान्त “क्षर और अक्षर से अतीत, निर्दोष और सभी सद्गुणों से परिपूर्ण तथा सच्छास्त्रों द्वारा जेय नारायण को मैं नमस्कार करता हूँ”। नारायण के सम्बन्ध में किया हुआ प्रत्येक विधान अविवाद रूप से आप्तवचन है। ईश्वर के सम्बन्ध में कोई भी कथन करने में इन्द्रियाँ तथा बुद्धि सक्षम नहीं हैं। इस विधान के पोषक प्रमाणों का उद्धरण ब्रह्माण्डपुराण, तैत्तिरीय, कठ और पिप्पलाद श्रुतियों से मध्वाचार्य तत्त्वनिर्णय में देते हैं।
हरि परमोच्च तत्त्व है। हरि से बढ़कर कोई भी तत्त्व नहीं है तथा उनके समकक्ष भी कोई नहीं है। वे स्वतन्त्र और एकमेव हैं। लक्ष्मी, ब्रह्मा, रुद्र और अन्य देवता उन पर निर्भर हैं। मध्वाचार्य एकेश्वरवादी हैं। वे हरिवंश से निम्नलिखित उद्धरण देते हुए कहते हैं कि सभी शास्त्रों में सर्वत्र हरि का वर्णन है:
वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा
आदावन्ते च मध्ये च विष्णुः सर्वत्र गीयते। । अर्थात् वेद, रामायण और पुराणों के आदि, मध्य, तथा अन्त में विष्णु का ही वर्णन
न लोक में प्रायः माना जाता है कि विष्ण, हरि या नारायण विशेष नाम हैं, जैसे देवदत्त और यज्ञदत्त आदि। किन्तु मध्वाचार्य ऐसा नहीं मानते। वे कहते हैं कि विष्णु, हरि और नारायण परमोच्च भगवान् के गुणविशेषों के नाम हैं। ऐश्वर्य, बुद्धिवैभव, दया और करुणा, ये गुण ईश्वर कोटिक व्यक्तिविशेष में होते हैं। विष्णु शब्द के अनेक अर्थ हैं। जब कहा जाता है कि विष्णु परमोच्च तत्त्व है, तब उसका अर्थ है कि विष्णु सर्वव्यापी है। इसी प्रकार हरि का भी अर्थ समस्त पापों का विनाश (हरण) करने वाला है (सर्वपापहरो हरिः) । एवं नारायण का अर्थ है, दोषरहित और सद्गुणों से परिपूर्ण। तथा बृहन्तो यस्मिन् गुणा इत्यादि श्रुतिवचनाद्गुणपूर्ण ब्रह्मशब्दार्थः, अर्थात् ब्रह्म सम्पूर्ण है। आत्मन् शब्द जब परमेश्वर के लिए प्रयुक्त होता है, तब उसका अर्थ होता है-वह निरपेक्ष सत्ता जो नियामक है। परमेश्वर के विविध गुणों की विधा दर्शाने वाले अनेक वैदिक शब्दों का विवरण मध्वाचार्य ने अपने भाष्य में किया है। उदाहरणार्थ, “अहं ब्रह्मास्मि”, इसका साधारण अर्थ है, मैं ब्रह्म हूँ। परन्तु मध्वाचार्य इसे परमेश्वर का ही गुणनिधान समझते हैं। अहम् = अहेयम् अर्थात् अत्याज्य । ब्रह्म = संपूर्ण परिपूर्ण। अस्मि = स्वयंसिद्ध सत्ता। कुछ भारतीय और पाश्चात्त्य विद्वानों ने कहा है कि ये अर्थ काफी कौशल्यपूर्ण होते हुये भी सर्वथा काल्पनिक हो सकते हैं, किन्तु अपने अर्थविवरण की पुष्टि में मध्वाचार्य अनेक प्रमाण देते हैं। + हरि सत्, चित् और आनन्द हैं। वे सत् हैं, क्योंकि उनका अस्तित्व स्वतन्त्र है। वह नित्यो नित्यानाम् = नित्यों में नित्य हैं, जैसे जीव। जीवों को उन्होंने बड़ी करुणा से नित्य
वेदान्त-खण्ड बना दिया है। हरि चित् है। चेतनश्चेतनानाम् वही केवल सर्वज्ञ है। वही आनन्द है, आनन्दघन है, वह दूसरों को भी आनन्द वितरित करता है। प्रेम, दया, ऐश्वर्य, शुद्धता, ज्ञान, शक्ति प्रभृति उसके अनन्त गुणों की कोई सीमा नहीं है। वह असीमों में असीम है। प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर के विषय में ज्ञान पाने में सक्षम है, भले ही उसका ज्ञान कुछ कम या अधिक हो। किन्तु कोई भी उस परमेश्वर को समग्रतया जान नहीं पाता। इसीलिए वह अप्रमेय है, अमेय है। वही अपने को पूर्णतया जान सकता है। जिस मात्रा में हम उसे जान पाते हैं उससे वह कहीं अधिक है। फिर, सभी सीमित वस्तुओं से वह परे है। इसीलिए ‘वह यह नहीं है’ ‘वह यह नहीं है’ (नेति-नेति) के द्वारा उसका वर्णन किया जाता है।
____ हरि ज्ञानस्वरूप है। फिर भी वह ज्ञानी है। वह सब कुछ जान सकता है। सभी वस्तुएं उसके लिए यहाँ और अभी विद्यमान हैं। उसके लिए ज्ञान स्वाभाविक और अपरोक्ष है। स्वयं उसमें और ज्ञान में तथा स्वयं उसमें और उसके गुण में कुछ भेद नहीं है। मध्वाचार्य ऋग्-भाष्य में लिखते हैं-“अभेदो हरिरूपानां गुणानां क्रियासु च। तस्यैव अवयवानां च”।
ब्रह्म या हरि एक चमत्कार है। वह अचिन्त्य, अद्भुत और शक्तिमान् है। वह अणोरणीयान् और महतो महीयान् है। बैठा हुआ वह दूर तक जाता है और सोता हुआ सर्वदूर भ्रमण करता है। (आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः)। बिना चक्षु वह देखता है और हाथ न होते हुये भी वह ग्रहण करता है। वह सब वस्तुओं में व्याप्त है और सब वस्तुओं के बाहर भी है। वह दूर से भी दूर और समीप से भी समीप है। वह अपने पूर्ण ऐश्वर्य के साथ वैकुण्ठ में विराजमान है और हमारे हृदयाकाश में भी है। दि किसी भी आकार से सीमित न होने से वह निराकार है। वैसे उसके आकार अनन्त हैं। वह अवतारों के रूप में हमें दृश्य होता है। वह केवल सत्-चित्-आनन्द है। मध्वाचार्य की दृष्टि में परमेश्वर व्यक्तिरूप में प्रकट तो होते हैं फिर भी उनका कोई सीमित व्यक्तिरूप नहीं है। वे मानवीय रूप भी धारण करते हैं क्योंकि उनके अनेक रूप हैं। उनके अन्तर्गत भेद नहीं है। वे निर्भिन्न, समरूप, बोधस्वरूप, परमानन्द-स्वरूप और सर्वशक्तिमान् हैं।
न आचार्य शंकर निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म दोनों को ही ग्राह्य मानते हैं। सगुण ब्रह्म ही व्यक्तिरूप परमेश्वर है। निर्गुण ब्रह्म अनिर्वचनीय सत्ता है। शकराचार्य की दृष्टि से “केवलो निर्गुणश्च” का अर्थ आत्यन्तिक गुणराहित्य है। (वस्तुतः गीता-भाष्य में शंकराचार्य निर्गुण का निर्वचन “त्रिगुणातीत” करते हैं) । मध्वाचार्य निर्गुण का अर्थ “त्रिगुणातीत” ही करते हैं। श्रुति के अनेक उद्धरणों से वे इसको सिद्ध करते हैं। महाभारत में भी नारायण को त्रैगुण्यवर्जित कहा गया है। अगर ब्रह्म निर्गुण है तो ब्रह्म ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य नहीं हो सकता, क्योंकि जिस वस्तु के गुण होते हैं, वही जानी जाती है, अन्य नहीं।
न ब्रह्मसूत्र में ब्रह्म का निरूपण “जन्माद्यस्य यतः” सूत्र में किया गया है। जिससे इस विश्व का जन्म आदि होता है वह ब्रह्म है। मध्वाचार्य की दृष्टि से इसका अर्थ यह है कि
३६५
मध्वाचार्य का द्वैतवेदान्त सृष्टि, स्थिति, संहार, नियमन, ज्ञान, अज्ञान, बन्ध और मोक्ष सब हरिकर्तृक हैं। जिन
अतः मध्वाचार्य मानते हैं कि परमोच्च सत्ता केवल एक ही है। उसी के अनन्त नाम हैं और सारे नाम उसी को दर्शाते हैं। वह स्वतंत्र है, सर्वशक्तिमान् है और सर्वज्ञ भी। किसी भी स्थान में या किसी भी काल में उसके समकक्ष या उससे श्रेष्ठ कोई भी नहीं है। अन्य प्रत्येक वस्तु से वह सर्वथा भिन्न है। किन्तु स्वयं उसमें कोई भिन्नता नहीं है। वह अविभाज्य है। वह शुभ लक्षणों से युक्त है और उसमें कोई भी दोष नहीं है। वह परिपूर्ण है, सर्वोत्कृष्ट है। वह सृजन करता है, रक्षण करता है और नाश भी। सर्व जीवों का वह अधिपति है।
____ स्वयं भगवान् या परमेश्वर और ब्रह्मा के बीच लक्ष्मी और श्री की कल्पना मध्वाचार्य करते हैं। श्री चित् प्रकृति है। वह सर्वव्यापी और अनन्त है। गीता में उसे अक्षरपुरुष कहा गया है। वह पुरुषोत्तम से या क्षर वस्तुओं से पृथक् है। वह हरि के ऊपर (केवल हरि के ही ऊपर) अवलंबित है। श्री नित्यमुक्ता है।
सत्त्व, रजस् और तमस्, इन तीन रूपों में चित् प्रकृति श्री, भू और दुर्गा के नाते प्रकट होती है और जीवों और जड़ पदार्थों में अष्टधा प्रकृति का निर्माण कर अपना जागतिक कार्य निभाती है। शुद्ध सृष्टि-व्यवस्था में शक्तिस्वरूपिणी लक्ष्मी भगवान् वासुदेव के साथ जीवों को प्रलय के अन्त में मोक्ष प्रदान करती हैं। लक्ष्मी के पुरुषकार का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। फिर भी वह नित्य मुक्ता श्री के पुरुषकार में गर्भित है और वह उस पुरुषकार के योग्य भी है। परन्तु लक्ष्मी का यह पुरुषकार भगवान् की इच्छा के बाहर नहीं है। लक्ष्मी के पुरुषकार का यह सिद्धान्त तत्त्वतः माध्व-तत्त्वज्ञान के विरोध में नहीं है।
०८. हरि सर्ववेदों का ज्ञेय है
कुछ मनीषी वेदों को सामान्यतः कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड में विभाजित करते हैं। कर्म के अनुष्ठानों का वेदों के जिन भागों में समावेश है वह भाग कर्मकाण्ड कहलाता है। जैमिनीय पूर्वमीमांसा मुख्यतः कर्मकाण्ड से सम्बद्ध है। उत्तरमीमांसा, जिसे वेदान्त कहा जाता है, ज्ञानकाण्ड से सम्बद्ध है। उपनिषद् ही ज्ञानकाण्ड हैं। वे लोग फिर यह भी मानते हैं कि ज्ञानकाण्ड कर्मकाण्ड से अधिक महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान् है, क्योंकि ज्ञानकाण्ड हमें मुक्ति की ओर ले जाता है। कर्मकाण्ड हमें सुखमय जीवन तो प्राप्त करा देता है, लेकिन वह सुख स्थायी नहीं होता।
मध्वाचार्य उपर्युक्त विचार से असहमत हैं । वेद जैसे भी हों, उनका विभाजन अधिक महत्त्वपूर्ण और कम महत्त्वपूर्ण, अधिक मूल्यवान् और कम मूल्यवान्, अच्छा और बुरा, ऐसा हो ही नहीं सकता। समग्र वेद एक उच्चकोटि का साहित्य है। वह समान रूप से महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान् है। यह ठीक है कि वेदों का कुछ भाग कर्मकाण्ड से जुड़ा हुआ है और कुछ ब्रह्मविद्या से। ये दोनों भाग आवश्यक हैं और यदि हम ठीक समझें तो वे
वेदान्त-खण्ड
हमें ब्रह्म का ही ज्ञान कराते हैं। वेद संहिता या मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् इन चार भागों में विभाजित किए जाते हैं। संहिता या मन्त्रों को अधिदैव कहा जाता है, क्योंकि वे देवों के विषय में हमें जानकारी देते हैं। ब्राह्मणभाग हमें यज्ञों के बारे में जानकारी देता है और इसीलिए अधियज्ञ कहा जाता है और अन्त में आरण्यक तथा उपनिषद् ब्रह्मज्ञानपरक होने से अध्यात्म कहे जाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि संहिता या ब्राह्मणों में ब्रह्म के बारे में कुछ भी निर्देश नहीं है। वेदों के प्रत्येक वाक्य के तीन अर्थ होते हैं और उनमें से एक अर्थ परमेश्वर भगवान् की ओर संकेत करता है। ऋग्वेद की प्रथम ४० ऋचाओं पर ऋग्भाष्य लिखकर मध्वाचार्य ने अपना यह मत स्थापित किया है। इसका अर्थ है कि हरि वेदों के सभी वाक्यों से और केवल वेद द्वारा ही ज्ञेय है। अतः प्रत्येक श्रुतिवाक्य महत्त्वपूर्ण और मौलिक है।
०६. जगत् की वास्तविकता
मध्वाचार्य की दृष्टि से सत्य क्या है? यह समझने का अब हम प्रयास करेंगे। “तत्त्वोद्योत” नामक ग्रन्थ में वे सत्य का स्वरूप और उसके आधारों का विवेचन करते हैं। वे लिखते हैं - सदिति प्रतीयमानत्वात् अतः सर्वदा प्रत्यक्षेण प्रतीयमानं वस्तु सदित्येव प्रतीयते’। अर्थात् सत्यता अनुभव-विषय है। निर्दोष अनुभव प्रदान करने वाली कोई भी वस्तु सत्य होती है। उसके ज्ञान में प्रमाद सम्भव नहीं है। साक्षी ज्ञान प्रायः यथार्थ होता है
और कुछ दोषपूर्ण सह-स्थिति में ही ज्ञान के प्राकट्य में प्रमाद सम्भव है। इससे यह सिद्ध होता है कि अनुभव का जो भी विषय हो, वह सत्य होता है। केवल अलीक ही अस्तित्वरहित होता है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष का विषय नहीं है और वह कभी सम्भव भी नहीं है। माध्व-तत्त्वज्ञान में यथार्थ ज्ञान या अनुभव के सम्बन्ध में वस्तुविषयता सत्यता के लिए निर्णायक सिद्ध होती है और उसे वाद-कौशल्य से कभी भी तथ्यहीन नहीं किया जा सकता। सत्य प्रत्यक्षतः ज्ञानविषय होता है और उसका अस्तित्व दृश्य होता है। वह कालसम्बद्ध भी होता है। माध्व-तत्त्वज्ञान में “अस्तित्वशील” और “ऐहिक” ये दो शब्द परस्पर सम्बद्ध हैं। एक की दूसरे की अनुपस्थिति में कल्पना भी सम्भव नहीं है। सत्य वही है जो कालसापेक्ष
नित्य और अनित्य, दोनों प्रकार की वस्तुएँ सत्य हैं क्योंकि वे अनुभव-विषय हैं। नित्यत्व और अनित्यत्व में जो भेद है वह उनके निजी स्वभाव के कारण है, न कि उनकी सत्यता के कारण।
माध्व-तत्त्वज्ञों का दावा है कि अर्थ कियाकारित्व सत्य का यथार्थ लक्षण है। अगर वस्तु सत्य है तो उससे कोई किया साध्य होनी चाहिए या उसका कोई परिणाम दिखाई देना चाहिए। वह नित्यत्व नहीं है। हमने पहले ही देखा है कि अलीक असत्य होता है, क्योंकि
मध्वाचार्य का द्वैतवेदान्त
३६७ वह अनुभव-विषय नहीं हो सकता और न वह अर्थक्रियाकारित्व के लिए पर्याप्त है।
मा अद्वैत-तत्त्वज्ञान में सत्ता के जो तीन वर्ग माने जाते हैं उन्हें मध्वाचार्य नहीं मानते। ये तीन वर्ग हैं, पारमार्थिक सत्ता, व्यावहारिक सल्ला और प्रातिभासिक सत्ता। पारमार्थिक सत्ता को न हम जानते हैं न जान सकते हैं, क्योंकि वह रूपरसगन्पहीन और अनिर्वचनीय होती है। अनुभाव्य सत्ता के अतिरिक्ति ऐसी कोई सत्ता है, इसके लिए कोई प्रमाण भी नहीं है। जैसा कि पहले ही कहा गया है ऐसी सत्ता ज्ञानविषय नहीं हो सकती है और न वह अर्थकियाकारिच साधक हो सकती है। प्रातिभासिक सत्ता के बारे में कहना ही क्या है? प्रमाद तो हमारे जीवन का एक अविभाज्य अंग है। किन्तु प्रमाद अपवादस्वरूप होते हैं। प्रमाद नियम नहीं है। अलीक और अद्वैततत्त्व-ज्ञान के पारमार्थिक सत् में मध्वाचार्य कोई भेद नहीं मानते।
इस जगत् में दृश्य वस्तुएँ अनित्य हैं, किन्तु वे मिथ्या नहीं कही जा सकतीं, क्योंकि नित्य और अनित्य दोनों प्रकार के विषय अनुभव-विषय हो सकते हैं और वे अर्थकियाकारित्व को निभाते है। मायावाद-खण्डन, प्रपंचमिथ्यात्वानुमान-खण्डन और उपाधिखण्डन इन तीन प्रकरण-ग्रन्थों में मध्वाचार्य जगन्मिथ्यात्व के सम्बन्ध में विमर्श करते हैं। कथालक्षण में वे लिखते हैं
प्रत्यक्षसिद्धेषु अर्थेषु प्रश्ने मामक्षजं वदेत।
ज्ञानं वा ज्ञानसिद्धेषु नानुमाने प्रथमं वदेत् ।। इन्द्रिय-संवेदन से सम्बन्धित विषयों में प्रत्यक्ष ही प्रमाण माना जाना चाहिए और अन्तःप्रज्ञाजन्यज्ञान के विषय में अन्तःप्रज्ञा ही प्रमाण मानी जानी चाहिए। इन्द्रिय-संवेदन के विषयों में “अनुमान” कभी भी प्रभावकारी नहीं हो सकता। फिर इन्द्रिय-संवेदन से बास्य विषयों में शास्त्र ही एकमात्र प्रमाण है। अनुमान का कार्य केवल इतना है कि वह प्रत्यक्ष और शास्त्रनिर्णय में सहायक हो। इस विषय में मध्वाचार्य तीन स्वयंसिद्धियाँ प्रस्तुत करते हैं १. अतीन्द्रिय विषयों के सम्बन्ध में केवल शास्त्र का निर्णय अंतिम होता है। (विष्णु
तत्त्वनिर्णय)। २ चित् और अचित् में मूलभूत भेद है। वे दोनों कभी भी एक नहीं हो सकते। चित्
स्वयं क्रियाकारी है और अचित् जो भी क्रियाकारिता दर्शाता है, उसका मूलस्रोत चित् मा ही है। (अनुव्याख्यान) ३. हमारे प्रत्यक्षज्ञान का मिथ्यात्व जब तक सिद्ध नहीं होता तब तक उसे सत्य समझना
चाहिए। (छान्दोग्यभाष्य) यदि इन तीन स्वयंसिद्धियों को हम ध्यान में रखें तो मध्वाचार्य का जगत्-विषयकवेदान्त-खण्ड
दृष्टिकोण सरलता से समझ सकेंगे। इस जगत् का निर्माण कैसे हुआ? इस प्रश्न का उत्तर हमारा प्रत्यक्ष-ज्ञान नहीं दे सकता। अनुमानप्रमाण से भी यह नहीं ज्ञात हो सकता। यहाँ शब्द-प्रमाण को ही स्वीकारना होगा। “जन्माद्यस्य यतः”, “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते” इत्यादि श्रुतिवचनों से हम परिचित हैं। अनादिकाल से ब्रह्म इस सृष्टि का निर्माण कर रहा है। (ईशोपनिषद्) वराहपुराण में कहा गया है
एवंभूतो महाविष्णुर्यथार्थं जगदीदृशम् ।
अनाद्यनन्तकालीनं ससर्जात्मेच्छया प्रभुः ।। ईश्वर जगत् का सक्षम कारण है। इस अर्थ में मध्वाचार्य अनेक श्रुतिवाक्यों को उद्धृत करते हैं। जैसे मकड़ी अपने शरीर से जाला बनाती है और अन्त में उस जाले को समेट लेती है, ठीक उसी तरह भगवान् सृष्टि का सृजन करते हैं और अन्त में उसको अपने ही भीतर समेट लेते हैं। यह किया उनके लिए स्वभावगत है। यह उनकी लीला है। ‘लोकवत् तु लीलाकैवल्यम्’ । सृष्टि के कल्याण के लिए ही वे सृजन करते हैं, अपने सन्तोष के लिए नहीं। अपने अकेलापन को दूर करने के लिए या अपनी निष्क्रियता से ऊब कर वे ऐसा नहीं करते।
इसका अर्थ है कि यह जगत् अपने अस्तित्व के लिए परमेश्वर पर निर्भर है। परमेश्वर ही उसका अनिवार्य आधार है। वह सामान्य अर्थ में जगत् का केवल कारण ही नहीं है।
अगर परमेश्वर को जगत् का अनिवार्य आधार माना जाय तो आत्माएं और प्रकृति-जैसी नित्य वस्तुओं के अस्तित्व को परतन्त्र मानना पड़ेगा। मध्वाचार्य इस तथ्य को पराधीन विशेषाप्ति या नित्य सृष्टि कहते हैं। यही सद्भाव विकार है। प्रत्येक जीब का अस्तित्व और भावी रूप, उसकी नित्य और स्थायी परतन्त्रता तथा जागतिक संस्थिति, एक, अनंत और स्वतन्त्र ईश्वर पर निर्भर होते हैं।
सृष्टि के विषय में मध्वाचार्य पाञ्चरात्र के चतु—हवाद को मानते हैं। वे सृष्टि के क्रमविकास और प्राकट्य के विविध प्रकार भी मानते हैं।
इस प्रकार सृष्ट जगत् की स्थिति क्या है? जैसा कि पहले कहा गया है, वह सत्य है। मध्वाचार्य मायावाद नहीं मानते। उनकी दृष्टि में माया ईश्वर की अचिन्त्य और अद्भुत शक्ति है। पुनश्च, मायावाद, अजातिवाद, अस्तित्व के तीन प्रकार (सत्तात्रैविध्यवाद) ये सब बौद्धतत्त्वज्ञान से वेदान्त-तत्त्वज्ञान में घुस गये हैं। जगत् की सत्ता के बारे में मध्वाचार्य ने जो प्रमाण-रूप उद्धरण प्रस्तुत किये हैं उन सब को देना विस्तार होगा। तथापि दो महत्त्वपूर्ण उद्धरणों का निर्देश किया जा सकता है।
मध्वाचार्य का बैतवेदान्त १. विश्वं सत्यं मघवाना युवोरिदापश्चन (ऋग्वेद) २/२४/१२
र जित “इन्द्र और बृहस्पति जानते हैं कि दोनों के द्वारा रक्षित जगत् सत्य है। देव भी यह
जानते हैं।” २. असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् (भ.गी. १६।८) का
असुर कहते हैं कि जगत् असत्य और निराधार है। लाक
१०. भेदवाद
मध्वाचार्य मानते हैं कि सादृश्य और अनन्यता में अन्तर है। जब हम सादृश्य शब्द का व्यवहार करते हैं तो यह मानते हैं कि वस्तु एक से अधिक है और उनमें मूलतः भिन्नता है। अनन्यता में दूसरी वस्तु नहीं होती। क क से अनन्य है अर्थात् क क ही है। अथवा क जिसको सबेरे मैंने अमक स्थान पर देखा था वही आज दोपहर मेरे सामने उपस्थित है। इसे क की अनन्यता कहते हैं। अगर हम कहेंगे कि क ब से, या ह से या ख से या ग से मिलता जुलता है तो यह सादृश्य है। फिर अगर वस्तुओं में भिन्नता न हो तो सादृश्य का कोई अर्थ नहीं रहता।
किसी भी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने का अर्थ यह जानना है कि वह वस्तु अन्य वस्तुओं से कहाँ तक मिलती-जुलती है और कहाँ तक भिन्न है। अर्थात् उस वस्तु की प्रजाति क्या है और उसके व्यावर्तक गुण क्या हैं, यह जानना । वस्तु को जानने की प्रक्रिया में वह कौन-सी वस्तुओं से भिन्न है यह भी मैं जान लेता हूँ। फिर भिन्नता का क्या अर्थ है? भिन्नता का अर्थ है सादृश्य विरोधी गुण अन्योन्याभाव। भिन्नता का क्या स्थान है? क्या भिन्नता अर्थात् किसी का अन्य वस्तुओं से पृथकू होना, उस वस्तु से भिन्न है या उससे अनन्य है? भारतीय तत्त्वज्ञान में इस सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं। एक है भेदाभेदवाद अर्थात् भिन्नता में अनन्यता या अनन्यता में भिन्नता है। दूसरा मत है कि शुद्ध भिन्नता सत्य है। रामानुज, भास्कर, त्रिदण्डी, जैन प्रथम मत के समर्थक हैं। दूसरा मत दो प्रकार से समझा जाता है। (१) भेद वस्तु का मूलभूत स्वरूप है। ली (२) भेद यथार्थ वस्तु है जो अपने आधारभूत तत्त्व से और अपनी
प्रतिवस्तु से बिल्कुल स्वतंत्र है। यहाँ माध्व, सांख्य और मीमांसक प्रथम मत के समर्थक हैं और वैशेषिक दूसरे मत के।
मध्वाचार्य के विचार से भेद का अस्तित्व है, वह धर्मी है और वह सत्य है, क्योंकि वह ज्ञातव्य वस्तु है। वह क्षय वस्तु का निजी रूप है और उसका स्वभाव भी। भेद वैसे ही सत्य है जैसे कोई अस्तित्ववान् वस्तु। अन्य वस्तुओं की अपेक्षा में अनेक आधार-स्तर हमें
३७०
वेदान्त-खण्ड
जितने प्रकारों में दिखाई देते हैं उतने ही भेद के प्रकार होते हैं। इस जगत् की प्रत्येक वस्तु में अनगिनत भेद होते हैं जो धी और मूल आधार से अनन्य होते हैं। मध्वाचार्य तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्य में लिखते हैं -
सत्यं भेदास्तु वस्तूनां स्वरूपं नात्र संशयः।
तस्माद्वस्तुविनाशे तु तभेदो नास्ति कुत्रचित् ।। भेद स्वभावतः वस्तुगत है। इसीलिए जब वस्तु तिरोहित हो जाती है तो भेद भी उसके साथ नष्ट हो जाता है।
भेदों की सत्यता प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द तीनों प्रमाणों से सिद्ध होती है। प्रत्यक्ष और अनुमान तो स्पष्ट ही हैं। भेद की पुष्टि में कुछ शब्दप्रमाण यों हैं : (१) न स्वरूपैकता तस्य मुक्तस्यापि निरूपतः (परम श्रुति)। (२) सर्वे वेदा हरेर्भेदं सर्वस्मै ज्ञापयन्ति हि (नारायण श्रुति) (३) निरञ्जनं परमं साम्यमुपैति (मुण्डकोपनिषद्)। ह (४) परात्परं पुरुषमुपैति (मुण्डकोपनिषद्)। (५) द्वा सुपर्णा संयुजा सखाया (मुण्डक-उपनिषद्)। ELECT (६) सत्य आत्मा सत्यो जीवः सत्यं भिदा सत्यं भिदा (पैंगीउप.)। (७) भेदव्यपदेशात् च (ब्रह्मसूत्र)। (८) उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः (भगवद्गीता)। (e) स्थित्यदनाभ्यां च (ब्रह्मसूत्र)।
जैसा कि हम पहले ही देख चुके हैं, मध्वाचार्य सत्ता के दो प्रकार मानते हैं। (१) स्वतंत्र और (२) अस्वतंत्र। (१) स्वतन्त्र - स्वयं भगवान् हैं। वह हरि हैं, सर्वोच्च सत् हैं
और केवल श्रुतिगम्य है। (२) अस्वतंत्र और आश्रित सत्ता के दो भेद हैं। (9) जीव जो अनेक हैं और नित्य हैं। (२) जड़-प्रकृति। इन दोनों में उच्चतर कोटि जीवों की है। स्वतन्त्र और अस्वतन्त्र एक दूसरे से भिन्न हैं। अस्वतन्त्रों में भी जीव एक दूसरे से और जड़ प्रकृति से भिन्न हैं, तथा जड़ प्रकृति भी जीवों से और अन्य पदार्थों से भिन्न है। इस प्रकार पाँच पकार के भेद होते हैं -
(9) जीव-ईश-भेद, (२) जीव-जीव-भेद, (३) जीव-जड़-भेद, (४) जड़-ईश-भेद, और (५) जड़-जड़-भेद।
कार्ड तो इन पाँच भेदों को समग्रतः प्रपंच कहा जाता है। ‘प्रकृष्टः पंचविधो भेदः प्रपञ्चः’। ये भेद सत्य हैं और इनकी संख्या सत्यवस्तु के अनन्त सम्बन्धों की भाँति अनन्त है। भेद
मध्वाचार्य का द्वैतवेदान्त
३७१
मध्वाचार्य आत्मा या जीव की व्याख्या इस प्रकार करते हैं -
अहमित्येव यो वेद स जीव इति कीर्तितः।का
। स दुःखी स सुखी चैव स पात्रं बन्धमोक्षयोः।। NES हि असार जो इस जीवन में सुख और दुःख का अनुभव करता है, जो बन्ध और मोक्ष का पात्र है और जो प्रत्येक अनुभव में ‘मैं हूँ’ इस ज्ञान का साक्षी है, वही जीव है (विष्णुतत्त्वनिर्णय)। जीव की इस व्याख्या से उसके अनेक लक्षणों का पता चलता है, जैसे - काही का (१) जीव कर्ता और भोक्ता है, अनुभवों का केन्द्र-स्थान है। (२) जीव बन्ध-मोक्ष का विषय है। (३) जीव एक स्व-संवेद्य सत्ता है, स्वयं के ज्ञातृत्व और भोक्तृत्व का तथा ‘मैं हूँ’ - इस प्रकार के अनुभव-विशेष उसकी विशेषता हैं और अनुभवों की समस्त
अवस्थाओं में वह इस ज्ञानविशेष से जुड़ा होता है। (४) जीव में अनन्यता है। वह अपने सभी अनुभवों का आधार है। श्री
जीव एक नहीं है। जीवों की संख्या अनेक है। फिर जीव का स्वत्व क्या है? और : एक जीव दूसरे जीव से किस विषय में भिन्न होता है? ये प्रश्न यहाँ उभरते हैं। आत्मा स्वयं शुद्ध, अमिश्रित, आनन्द और बोधस्वरूप है। वह समस्त प्रकार के सुख-दुःखों से मुक्त है। सुख और दुःख जीवों के नहीं होते। वे जीव से बाहर हैं। बन्ध के कारण ही जीव दुःख का अनुभव करता है। जीव परमेश्वर पर निर्भर है। जीवों के उच्च तथा निम्न स्तर होते हैं। उनके तारतम्य का आधार उनके स्वरूप और योग्यता हैं। जीव देहवान होते हैं। यह) देह जड़ नहीं होता। प्रकृति के समस्त प्रभावों का वह उल्लंघन कर सकता है। यह देह भौतिक नहीं होता, किन्तु चित्स्वरूप और आनन्दमय होता है। स्वरूप ही उसका शरीर है। जीव आकार में अणु है और चैतन्य से संपूर्ण देह में व्याप्त है।
- जीवों की अनेकता के लिए मध्वाचार्य सांख्य-युक्तियों को नहीं मानते हैं। वे जीवों की अनेकता के बारे में अद्वैतवादियों के उपाधि-सिद्धान्त की भी कड़ी आलोचना करते हैं। उनके विचार से प्रत्येक जीव असाधारण है। वह कारणहीन है और इसलिए एक जीव दूसरे जीव से भिन्न है। और फिर दूसरों के अनुभव का हम स्वयं अनुभव नहीं कर सकते। इससे यह निर्विवादरूप से सिद्ध होता है कि जीव भिन्न-भिन्न हैं। जीव- स्वरूप का आधार भेदवाद है। जीवों की अनेकता इसी से सिद्ध होती है।
जीव ईश्वर का अंश है। मध्वाचार्य इस उक्ति का अर्थ यह मानते हैं कि जीव ईश्वर
३७२
वेदान्त-खण्ड
का प्रतिबिम्ब है। तथापि अद्वैतवादियों के बिम्ब-प्रतिबिम्बवाद से उनका बिम्ब-प्रतिविम्बवाद पूर्णतया भिन्न है। “आभास एव च”, इस सूत्र पर व्याख्या करते हुए मध्वाचार्य प्रतिबिम्ब के दो प्रकार मानते हैं, (१) सोपाधिक और (२) निरुपाधिक। सोपाधिक प्रतिबिम्ब के लिए किसी उपाधि की आवश्यकता होती है जिसमें बिम्ब की छाया (प्रतिबिम्ब) हूबहू बिम्ब से एक-जैसी मिलती है। किन्तु प्रतिबिम्ब की आभा और स्पष्टता प्रतिबिम्बित करने वाले माध्यम की स्वच्छता और अस्वच्छता या स्थिरता और अस्थिरता पर निर्भर होती है जैसे
D) अनुपाधिक प्रतिबिम्ब अलग होते हैं। सत्य यह है कि प्रतिबिम्बित करने वाली उपाधि के बिना हम प्रतिबिम्ब की कल्पना ही नहीं कर सकते। अनुपाधिक प्रतिबिम्ब की जो उपाधि होती है वह सही अर्थ में उपाधि ही नहीं होती। सोपाधिक में प्रतिबिम्ब बिल्कुल अलग होता है। वस्तु और उसकी प्रतिबिम्बित छाया, इन दोनों से उपाधि अलग दर्शायी जाती है। किन्तु अनुपाधिक में उपाधि ही प्रतिबिम्बस्वरूप बन जाती है और उसे प्रतिबिम्ब से भिन्न मानना सम्भव नहीं है।
उपाधि एक भिन्न सत्ता है। इसे हम सिद्ध नहीं कर सकते। यद्यपि अनुपाधिक में बिम्ब ही प्रतिबिम्ब का कारण होता है और प्रतिबिम्ब बिम्ब पर निर्भर होता है, तथापि बिम्ब और प्रतिबिम्ब में कुछ भी साम्य दिखाई नहीं देता। मध्वाचार्य इन्द्रधनुष का उदाहरण देते हैं जो इस प्रकार का प्रतिबिम्ब है। (१) इन्द्रधनुष सूर्यकिरणों से निर्मित होता है। (२) इन्द्रधनुष सूर्यकिरणों पर निर्भर है। (३) इन्द्रधनुष का सूर्य से कोई साम्य नहीं है। वह एक अनोखा दृश्य है। इस (४) इन्द्रधनुष जलकणों से जो उसकी उपाधियाँ हैं, अभिन्न (अनन्य) है। भान
इसी प्रकार जीव ईश्वर का अनुपाधिक प्रतिबिम्ब है। इससे निम्न निष्कर्ष निकलते हैं:
(१) जीव की उपाधि उसके स्वभाव से भिन्न नहीं होती। इसलिए उपाधि का अस्तित्व एक अलग सत्ता के रूप में सिद्ध होता। उपाधि जीव का स्वरूप है।
(२) यद्यपि ईश्वर जीव का सत्य कारण और आधार है, तथापि जीव ईश्वर से भिन्न (अन्य) है। इस प्रकार जीव और ईश्वर (या ब्रह्म) अनन्य नहीं हैं।
जीव का कर्तृत्व और भोक्तृत्व सत्य है, मिथ्या नहीं। “अहम्’ चिदचिदात्मक है और वह आत्मा से भिन्न है, यह शाकरमत मध्वाचार्य को स्वीकार्य नहीं है। उनकी दृष्टि में
अहम् जीव से अभिन्न है। आत्मा और अहम् एक ही है।
मध्वाचार्य जीवों की अनेकता सिद्ध करते हैं। प्रत्येक जीव का एक निजी स्वरूपगत
मध्वाचार्य का द्वैतवेदान्त
३७३ अनादि विशेष होता है। इस विशेष पदार्थ के कारण प्रत्येक जीव अनन्य होता है और अन्य जीवों से ज्ञान, आनन्द, शक्ति आदि गुणों में न्यूनाधिक भिन्न होता है। इसी को जीवों का स्वरूप-तारतम्य कहा गया है। जीवों के तीन प्रकार हैं- (१) मुक्तियोग्य, (२) नित्य संसारी
और (३) तमोयोग्य। इस त्रिवर्गात्मक वर्गीकरण की पुष्टि में ऋग्वेद, पुराण, महाभारत, भगवद्गीता, उपनिषद् आदि ग्रन्थों से प्रमाणवचन प्रस्तुत किये जाते हैं। मीच
जीव अविद्या या अज्ञान का आश्रय है। ज्ञान के विरोध में ही अज्ञान है। अविद्या स्वभावतः अभावात्मक है। माध्व-तत्त्वज्ञान में सृष्टि का सृजन माया-शक्ति करती है, न कि अविद्या। माया ईश्वर की अचिन्त्य, अद्भुत शक्ति है। ईश्वर का दिव्य व्यक्तित्व माया का आधार है। इसके विपरीत अविद्या का आश्रय जीव है। माध्व-तत्त्वज्ञान में अविद्या के चार प्रकार होते हैं - (9) जीवाच्छादिक (२) परमाच्छादिक, (३) शैवाल और (४) माया। चारों के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण, पदार्थसंग्रह नामक ग्रन्थ में पाया जाता है।
ना
११. बंधन और मोक्ष
शुन्द्र भक्ति मोक्ष का साधन है। “जन्माद्यस्य यतः”, इस सूत्र पर व्याख्या करते हुए मध्वाचार्य ईश्वर के कार्य का विवरण देते हैं। उसके कार्य आठ हैं, जन्म, स्थिति, लय, नियमन, ज्ञान, अज्ञान, बन्ध और मोक्ष । बन्ध भी ईश्वर की इच्छा से ही होता है, न कि जीव के केवल कर्म या अज्ञान, काल, गुण इत्यादि कारणों से। यह मत श्रुतिसम्मत है। ‘संसारमोक्षस्थितिबन्धहेतुः’ (श्वेताश्वर श्रुति)। ‘पराभिध्यानन्तु तिरोहितं ततो हि अस्य बन्धविपर्ययौ’। (ब्रह्मसूत्र)
बन्धको भवपाशेन भवपाशाच्च मोचकः।
कैवल्यदः परं ब्रह्म विष्णुरेव सनातनः।। (स्कन्दपुराण) इससे स्पष्ट है कि ईश्वर की इच्छा ही हमारे बन्धन का कारण है। कर्म इत्यादि स्वतः अचेतन हैं और कोई सचेतन सत्ता ही उन्हें क्रियान्वित कर सकती है। इसीलिए कर्म स्वतः बन्धन का कारण नहीं है।
मध्वाचार्य के मतानुसार बन्धन सत्य है। जीव की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं, ‘स दुःखी च सुखी चैव’ । वे जीव के सुख और दुःख दर्शाते हैं कि जीव भोक्ता और कर्ता है। जीव का भोक्तृत्व और कर्तृत्व सत्य है। किन्तु ईश्वर की कृपा से ही उसे कर्तृत्व मिला है। उसका स्वातंत्र्य ईश्वर का प्रदेय है। उसी से उसका भोक्तृत्व भी लब्ध है। दोनों ही सत्य हैं और ईश्वर पर निर्भर हैं। अविद्या के कारण जीव अपने को स्वतंत्र समझ लेता है। वह भूल जाता है कि उसके कर्तृत्व और भोक्तृत्व ईश्वर की देन हैं। अज्ञान के कारण कर्तृत्व की मिथ्या धारणा और स्वतंत्रता की भावना उसे बन्धन की ओर ले जाती है। इस कारण
३७४
वेदान्त-खण्ड जीव बारम्बार जन्म ग्रहण करता है। अन्त में वह ईश्वर की कृपा से ही अपने को ईश्वर से भिन्न और उन पर पूर्णतया निर्भर समझता है। ‘यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः’ । अपने को ईश्वर का कृपापात्र बनाना चाहिए। ईश्वर जब अपनी कृपा बरसायेंगे, तब उस कृपा को पाने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। ईश-कृपा हमारा अधिकार नहीं है। इसे हम ईश्वर से बलात् माँग नहीं सकते। उनकी कृपा उनकी है। सत्पात्र को ही वे चुनेंगे। वे जिसे चुनेंगे वही कृपा पा सकेगा। वे कब हमें कृपा के पात्र समझेंगे इसका ज्ञान हमें नहीं है। फिर भी हमें चाहिए कि हम सदैव प्रतीक्षा में रहें। इसीलिए साधना आवश्यक है। परा भक्ति ही वह साधना है। जीव की भक्ति ही ईश्वर को कृपा करने की याद दिलाती है। उससे द्रवित होकर
ईश्वर कृपा करता है। पर शिव भक्ति क्या है? इस पर मध्वाचार्य कहते हैं -गामा
माहात्म्यज्ञानपूर्वस्तु सुदृढः सर्वतोऽधिकः ।
स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्तस्तया मुक्तिर्न चान्यथा।। अर्थात् भगवान् की श्रेष्ठता का सम्यक् ज्ञान होने पर उनके प्रति दृढ़ श्रद्धा और प्रेम को, जो अन्य समस्त लौकिक प्रेम-बन्धनों से ऊपर है, भक्ति कहते हैं। वही एकमात्र मोक्ष-साधन है। भगवान के लिए गम्भीर प्रेम, जिस प्रेम का मूलस्रोत परमेष्ठी भगवान् के स्वरूपज्ञान में हो, वही भक्ति है। मध्वाचार्य के इन विचारों से स्पष्ट है कि ज्ञान भक्ति में मिला हुआ है और भक्ति का एक घटक है। इसी अर्थ में भक्ति को ज्ञान कहा जाता है। वे अनुव्याख्यान में लिखते हैं
ज्ञानस्य भक्तिभागत्वात् भक्तिर्ज्ञानमित्युच्यते। माध्व-तत्त्वज्ञान में आत्मज्ञान को ही बिम्बापरोक्ष ज्ञान कहा गया है। वह परमोच्च सत्य का (बिम्ब का) प्रत्यक्ष दर्शन है। आत्मा अपने बिम्ब के पूर्ण प्रेममय आकर्षण का जो अनुभव अपने सत्-चित्-आनन्द की तुला पर करता है उसको भक्ति रूपी ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार की भक्ति के बारे में मध्वाचार्य लिखते हैं
भक्त्या ज्ञानं ततो भक्तिस्ततो दृष्टिस्ततश्च सा।
ततो मुक्तिस्ततो भक्तिः सैव स्यात् सुखरूपिणी।। भक्ति से ज्ञान होता है। उस ज्ञान से पुनः भक्ति होती है। उससे दृष्टि मिलती है। पुनः दृष्टि (भगवद्दर्शन) से भगवान् के प्रति भक्ति और परिपक्व होती है। उसके बाद मुक्ति प्राप्त होती है और उस मुक्ति से फिर भक्ति प्राप्त होती है जो स्वयं आत्यंतिक 13 आनन्द का ही रूप है और स्वतः साध्य है। कनारमा
मध्वाचार्य का वैतवेदान्त
३७५ नैतिक शुद्धाचरण इस साधना-मार्ग का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। नैतिक शुद्धता के लिए मुमुक्ष को बीस प्रकार के विविध गुणों का चयन करना चाहिए। इनमें से कुछ गुण निम्नलिखित हैं
इहामुत्रफलभोग-विराग, शमदमादिसम्पत्ति, अध्ययन, श्रवण, मनन, परमात्मा की भक्ति, अयोग्यनिन्दा, पंचभेद, उपासना, गुरुभक्ति, इत्यादि।
उपासना दो प्रकार ही है (१) शास्त्राभ्यास-स्वरूपिणी और (२) ध्यान-स्वरूपिणी । भगवद्गीता में स्पष्ट कहा गया है कि जहाँ तक सम्भव हो, किसी भी साधना का आधार लेकर भगवान् की शरण में जाना चाहिए। उनकी कृपा से ही परम शान्ति मिलती है। भगवान उसी को स्वीकार करते हैं जो विनीतभाव से, प्रेम और श्रद्धा से, उनकी शरण में जाते हैं। सत्कर्मों की नितान्त आवश्यकता है, क्योंकि उन कर्मों से अन्तस्तल शुद्ध होता है। सत्यज्ञान के लिए वे साधनभूत हैं।
ज्ञान आवश्यक है क्योंकि वह मोक्ष का साक्षात् साधन है। प्रेम भी अत्यावश्यक है, क्योंकि उसके बिना सत्कर्म और सत्यज्ञान सम्भव नहीं है। प्रेम सर्वोच्च है और भगवत्प्रेम ही एकमात्र सच्चा प्रेम है।
भक्ति के द्वारा मुमुक्षु अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर लेता है। जीव के उत्कट कोटि के प्रेम से विगलित होकर भगवान् स्वयं को भक्त के सामने प्रकट कर देते हैं। प्रतिबिम्ब (जीवात्मा) को भीतर झाँककर जीव के बिम्ब को अपने में देखना अपरोक्ष अनुभव है। मध्वाचार्य का यह अपरोक्ष ज्ञानी जीवन्मुक्त जैसा है। उसके लिए मोक्ष कोई सुदूर वस्तु नहीं है। फिर भी वह उसे प्राप्त नहीं है। किन्तु मोक्षलाभ के लिए अब वह आश्वस्त है।
जीव का अन्तरतम आनन्दभोग ही मुक्ति है। चार पुरुषार्थों में मुक्ति चरम पुरुषार्थ है। मध्वाचार्य अपने ब्रह्मसूत्रभाष्य में लिखते हैं-सर्व बाह्य सम्बन्धों को त्याग कर स्वयं को स्वस्थित करना ही मुक्ति है। इस प्रकार मुक्तजीव शुद्ध आनन्द का अनुभव करता है। आनन्द ही उसका अन्तरतम स्वरूप है। मुक्तजीव का यह आनन्दानुभव हरि के आनन्दानुभव जैसा हो सकता है, किन्तु हरि के आनन्द से एकरूप नहीं होता। हरि का आनन्द अनन्त और असीम है। ईश्वर की दया और कृपा से मुक्त जीव जब अविद्या को लांघ कर आनन्द का अनुभव करता है तब उसका आनन्द हरि के असीम आनन्द के सदृश होता है, समान नहीं।
माध्व-तत्त्वज्ञान मुक्ति को प्राप्य मानता है। अद्वैतवादी ऐसा नहीं मानते। माध्व तत्त्वज्ञान के अनुसार मुक्ति भक्ति और ज्ञान के द्वारा प्राप्त होने वाली जीव की उपलब्धि होती है। क्योंकि जीव अनेक होते हैं और उनकी साधना तथा साधना की तीव्रता न्यूनाधिक भिन्न-भिन्न होती है, अतः उस साधना से प्राप्त होने वाला फल भी एक जैसा नहीं
३७६
वेदान्त-खण्ड
हैं कि छात्र अपनी क्षमता, बुद्धिमत्ता और समझ के अनुसार परीक्षा में उत्तर लिखते हैं और उसी मात्रा में अंक पाते हैं। वे परीक्षा में उत्तीर्ण तो होते हैं, परन्तु उनकी उत्तीर्णता की श्रेणियों में वर्गीकरण होता है। ठीक इसी प्रकार जीव भिन्न-भिन्न होते हैं, उनकी साधना भिन्न-भिन्न होती है। साधना के गुणविशेष और साधना की तीव्रता भिन्न होती हैं और वे सब मोक्ष के पात्र होते हुए भी हरेक के मोक्ष में भिन्नता होती है। इसी को मोक्ष के आनन्द का तारतम्य कहा जाता है।
भागवत और पांचरात्र की परम्परा के अनुसार मध्वाचार्य मुक्ति के चार प्रकार मानते हैं, (१) सालोक्य, (२) सामीप्य, (३) सारूप्य और (४) सायुज्य। सही अर्थ में ये मुक्ति के चार प्रकार नहीं हैं, किन्तु चार अवस्थाएं हैं। सर्वोच्च मुक्ति सायुज्य-मुक्ति है। उसकी ओर बढ़ने के लिए जीव अन्य तीन अवस्थाओं को पार करता है। सायुज्य-मुक्ति ही अन्तिम मुक्ति है जहाँ जीव को पूर्ण आनन्द प्राप्त होता है। वही उसका सत्य स्वरूप है। इस सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त होने पर भी परमोच्च भगवान् से भिन्नता की और उन पर निर्भरता की भावना का अनुभव होता है। भगवान के उस अतिशायी स्थान में, वैकुण्ठ में रहते हुए जीव भगवान् के निरन्तर सान्निध्य का अनुभव करते हैं, असीम आनन्द का अनुभव करते हैं और सर्वोच्च भक्ति द्वारा भगवान् से संयुक्त हो जाते हैं। तब भक्ति साधन नहीं रह जाती, वह साध्य बन जाती है। बैकुण्ठ में प्रवेश पाने के बाद जीवों के सब कर्म नष्ट हो जाते हैं। वे पुनः पृथिवी पर वापस नहीं लौटते। उनका पुनर्जन्म नहीं होता, उनकी पुनरावृत्ति नहीं
होती।
सालोक्य-मुक्ति निम्नतम मुक्ति है। इस मुक्ति में जीव भगवान् के निवास में, वैकुण्ठ में प्रवेश पाता है। वैकुण्ठ में प्रवेश पाने वाले जीवों में कुछ जीव अधिक पुण्यवान् और सक्षम होते हैं। उनके पास ज्ञान की मात्रा अधिक होती है। वे भगवान् की ओर और आगे बढ़ सकते हैं। इसी को सामीप्य कहते हैं। इनमें से कुछ भाग्यवान् जीव भगवान् का रूप प्राप्त कर लेते हैं। इसी को सारूप्य-मुक्ति कहते हैं। इस दशा में उनका स्वभाव और भोगविशेष भगवान् के स्वभाव और भोगविशेष जैसे होते हैं। इससे भी बढ़कर मुक्ति की सर्वोच्च अवस्था है जिसे सायुज्य मुक्ति कहते हैं। इस अवस्था में जीव भगवान के निजी रूप में प्रविष्ट होते हैं। फिर भी वे अपने स्वत्व का और अपने व्यक्तित्व का भान नहीं
समान होता है। मोक्ष की अवस्था में यह आनन्दानुभव जीवों को पुनर्जन्म के प्रति आकृष्ट नहीं करता। मध्वाचार्य कहते हैं कि मुक्तजीव वैकुण्ठ के भोग भोगते हैं और आनन्द अनुभव करते हैं। यह सब वे स्वसंकल्प से करते हैं, न कि अन्य साधनों से । सायुज्य-मुक्ति ही परम पुरुषार्थ है।
३७७
मध्वाचार्य का दैतवेदान्त
१२. माध्व-वेदान्त का ऐतिहासिक महत्त्व -
माध्व-तत्त्वज्ञान का भारतीय तत्त्वज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इस सम्प्रदाय के आचार्यों ने नव्य-न्याय की तर्कप्रणाली से शंकराचार्य और उनके अनुयायियों के अद्वैतवाद का बड़ी दृढ़ता से खण्डन किया है। १५वीं शताब्दी ईसवी में माध्व-सम्प्रदाय काफी बढ़ चुका था और उसका मुख्य विरोध अद्वैत-वेदान्तियों से था। माध्व-वेदान्ती व्यासतीर्थ ने न्यायामृत में अद्वैत-वेदान्त का प्रचंड खण्डन किया। व्यासतीर्थ ने नव्य नैयायिकों की तर्कपद्धति का सहारा लिया था। उनका खण्डन भारतीय तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में एक युगान्तरकारी घटना है। मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैतसिद्धि की रचना कर व्यासतीर्थ के आघात से अद्वैत-वेदान्त को बचाया। परन्तु इस कार्य में उन्हें वैष्णवों के ईश्वरवाद से समझौता करना पड़ा, यह उनके भक्ति-रसायन ग्रन्थ से सिद्ध होता है। दूसरे शब्दों में, ईश्वरवाद और भक्ति को स्वीकार करके ही व्यासतीर्थ को उत्तर दिया गया। इस प्रकार व्यासतीर्थ की कुछ आपत्तियां मधुसूदन सरस्वती को इष्टापत्ति हो गयीं। यह वस्तुतः व्यासतीर्थ की विजय है।
किन्तु मध्वाचार्य के प्रति मुख्यतः यह आरोप लगाया जाता है कि उनका अर्थविवरण बहुत दूरान्वयी होता है और वे श्रुत्यर्थ को अपने पक्ष में तोड़ते-मरोड़ते हैं। किन्तु यह आरोप आचार्य शंकरसहित अन्य वेदान्तियों पर भी थोपा जा सकता है। वास्तव में भारतीय चिन्तक सर्वप्रथम एक सुसंगत सिद्धान्त बनाते हैं और फिर उसकी पुष्टि में प्राचीन ग्रन्थों का आश्रय ढूढ़ते हैं। उन ग्रन्थों के कुछ उद्धरणों को वे अपने सिद्धान्तों की पुष्टि में प्रस्तुत करते हैं और कुछ अन्य उद्धरणों की व्यर्थता स्थापित करते हैं। सभी आचार्यों ने कमोवेश यही किया है। मध्वाचार्य भी अपवाद नहीं हैं।
मध्वाचार्य का भारतीय तत्त्वज्ञान में क्या योगदान है? इसका उत्तर संक्षेप में इस प्रकार दिया जा सकता है (9) भगवत्कृपा मानव की मुक्ति का आवश्यक साधन है। भक्ति के बल पर ही भक्त
भगवान् की विशेष कृपा पा सकेगा। इस मत को पूर्णतया तर्क के आधार पर स्थापित
(२) माध्व-तत्त्वज्ञान ने ईश्वरवाद को एक प्रामाणिक सिद्धान्त के रूप में स्थापित किया है। (३) विशेष सिद्धान्त को तथा भेदवाद को उसने जिन युक्तियों से स्थापित किया है उनसे
सिद्ध होता है कि तत्त्वविचारों में उसने तर्क का उपयोग चरम सीमा तक किया। उनका तत्त्वज्ञान एक सुसंगत न्याययुक्त विचारधारा का उदाहरण है।वेदान्त-खण्ड
जानका
सन्दर्भ-ग्रन्थ
१. कृष्णाचार्य, टी. आर. (संपादक) मध्वाचार्य के समस्त ग्रन्थों का संग्रह, निर्णय सागर,
बम्बई। २. कृष्णराव, सी. आर., श्रीमध्व, हिज़ लाइफ एण्ड डाक्ट्रिन, प्रभाकर प्रेस, उडिपी,
१६२६. ३. दासगुप्त, - प.स. एन., ए हिस्ट्री आफ इण्डियन फिलासफी, भाग-४ कैम्ब्रिज
यूनिवर्सिटी प्रेस, १६४६. ४. नारायण, कैलाश, एन आउटलाइन आफ मध्व फिलासफी, उदयन पब्लिकेशन
। इलाहाबाद, १९६२. ५. चतुर्वेदी, डॉ. कृष्णकान्त, द्वैतवेदान्त का तात्त्विक अनुशीलन, विद्याप्रकाशन मन्दिर,
दिल्ली, १६७१. जा ६. गोस्वामी, ललित कृष्ण, श्री माध्ववेदान्त, (मध्व का ब्रह्मसूत्रभाष्य, हिन्दी अनुवाद
सहित), निम्बार्कपीठ, १२ महाजनी टोला, इलाहाबाद, १६७४. ७. भण्डारकर, सर रामकृष्ण गोपाल, वैष्णविज़्म, शैविज़म एण्ड माइनर रिलीजस
सिस्टम्स, भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, १६२८. ८. मध्वाचार्य, विष्णुतत्त्वनिर्णय, प्रो. के. टी. पाण्डुरंगी कृत अंग्रेजी अनुवाद सहित,
द्वैतवेदान्त स्टडीज़ एण्ड रिसर्च फाउण्डेशन, बंगलौर, १६६१. ६. मध्वाचार्य, ब्रह्मसूत्रानुव्यारव्यानम्, से. प्रो. के. टी. पाण्डुरंगी, १३२/४ ब्लाक,
जयनगर, बंगलौर। १०. शर्मा, बी. एन. के., द फिलासफी आफ श्री मध्वाचार्य, भारतीय विद्याभवन, बम्बई,
१६६२. ११. नागराजराव, पी., एलिमेन्ट्स आफ द्वैत-वेदान्त, अड्यार, मद्रास, १६७६. १२. शर्मा, नागराज, द रेन आफ रियलिज्म इन इण्डियन फिलासफी, नेशनल प्रेस, मद्रास,
१६३७. १३. राघवेन्द्राचार, एच. एन., द्वैत फिलासफी एण्ड इट्स प्लेस इन द वेदान्त, मैसूर
विश्वविद्यालय, मैसूर, १६४१. कि १४. कृष्णस्वामी राव, बी. ए., श्री मध्वाचार्य, मैसूर विश्वविद्यालय, मैसूर, १६५१.
अंग्रेजी अनुवाद सहित भी संकलित है।
चतुर्थ अध्याय