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१. भास्कर का भेदाभेद-वेदान्त
नागरी भास्कर का उल्लेख यामुनाचार्य ने सिद्धित्रय में अपने पूर्ववर्ती वेदान्ताचार्यों की सूची में किया है। यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने भास्कर का नामोल्लेख शंकराचार्य के बाद किया है। पुनश्च, उदयन ने न्यायकुसुमांजलि में लिखा है कि भास्कर त्रिदण्डिमतभाष्यकार हैं और ब्रह्मपरिणामवाद को मानते हैं (न्यायकुसुमांजलि, द्वितीय स्तवक) । वाचस्पति मिश्र ने भामती ३-३-२६ में भास्करभाष्य से उद्धरण दिया है और अन्यत्र भी भास्कर के भेदाभेदवाद का खंडन किया है (देखिए भामती कल्पतरु परिमल पृ. ६E६) | इन बहिरंग प्रमाणों के आधार पर भास्कर का समय आठवीं शती ईसवी का आरम्भ सिद्ध होता है। इसकी पुष्टि भास्करभाष्य के अंतरंग प्रमाण से भी होती है, क्योंकि उन्होंने वहाँ शंकराचार्य के मत का खंडन किया है। अतः निर्विवाद रूप से यह सिद्ध होता है कि भारकर शंकराचार्य के उत्तरवर्ती थे। माधव के शंकर दिग्विजय में शंकर और भास्कर के शास्त्रार्थ का वर्णन आता है। किन्तु इस घटना का आशय इतना ही प्रतीत होता है कि भास्कर संभवतः शंकराचार्य के कनिष्ट समकालीन थे या उनके ठीक बाद हुए थे और शंकराचार्य के अनुयायी भास्करमत का खंडन करते थे। शंकराचार्य के शिष्य पद्मपाद ने विज्ञानदीपिका की विवृति में पृष्ठ १० में भास्कर का नामोल्लेख भी किया है और उनके मत का खंडन किया है। अतएव भास्कर निःसन्देह आठवीं शती में थे। भास्कर के दो ग्रन्थ मिलते हैं १. ब्रह्मसूत्रभाष्य और २. गीताभाष्य।
इसके अतिरिक्त छान्दोग्योपनिषद् पर उनका एक भाष्य था जो अब अनुपलब्ध है।
२. भास्कर और शंकर
भास्कर ने अपने भाष्य के आरंभ में एक श्लोक लिखा है जिसका बहुत अधिक प्रचार है और जिसमें शंकराचार्य के शारीरक-भाष्य का निर्देश है। वह श्लोक निम्न है
सूत्राभिप्रायसंवृत्या स्वाभिप्रायप्रकाशनात्। व्याख्यातं यैरिदं शास्त्रं व्याख्येयं तन्निवृत्तये।।
भेदाभेद-वेदान्त
३१ अर्थात् कुछ लोगों ने ब्रह्मसूत्र या वेदान्तशास्त्र के अभिप्राय को छिपा दिया है और उसकी नयी व्याख्या द्वारा अपने ही अभिप्राय को प्रकाशित किया है। उनकी व्याख्या का निराकरण करने के लिए ब्रह्मसूत्र की यह व्याख्या (अर्थात् भास्करभाष्य) लिखी गयी है। एक भास्करभाष्य में सर्वत्र मायावाद और अद्वैतवाद का खंडन है। इससे सिद्ध होता है कि भास्कर ने उक्त आरोप शंकराचार्य पर ही लगाया है। उनके मत से शारीरकभाष्य बादरायणानुसारी नहीं है। शंकराचार्य पर यह आरोप सबसे पहले भास्कर ने ही लगाया था। इसके अतिरिक्त वे शंकराचार्य के अद्वैतवाद का निराकरण निम्नलिखित आधारों पर भी करते हैं १. सूत्रकार बादरायण ने श्रुति-अनुसारी परिणामवाद को सूत्रबद्ध किया था। इसीको
छान्दोग्य-उपनिषद् के वाक्यकार (ब्रह्मनन्दि) और वृत्तिकार (द्रविडाचार्य) ने सम्प्रदायानुसार पुष्ट किया था। उनका वाक्य है - जगत् वैसे ही परिणाम है जैसे दधि आदि (तथा च वाक्यं परिणामस्तु स्याद् दध्यादिवदिति विगीतम्-भास्करभाष्य १-४-२५) । अतएव, जो लोग मायावाद का वर्णन करते हैं और लोक को मोहित करते हैं उनका मत निराधार है तथा महायान बौद्धगाथित (महायान मत से उदधता है वही १-४-२५)।
शंकराचार्य के मायावाद का आधार महायान बौद्धमत है, छान्दोग्य-उपनिषद् का वाक्य ‘वाचारम्भणी विकारो नामधेयम्’ आदि नहीं है, यह आरोप सर्वप्रथम भास्कर ने ही लगाया है। पाकी ब्रह्मसून २-२-२६ के भाष्य में भास्कर कहते हैं कि इस सूत्र का अभिप्राय है कि बास्य अर्थ (विषय) सत् है और स्वप्नवत् नहीं है। अतः जो बौद्धमतावलम्बी मायावादी इस सूत्र की व्याख्या मायावादानुसारी करते हैं उनका निराकरण स्वयं सूत्रकार ने ही कर दिया है। ये तु बौद्धमतावलम्बिनो मायावादिनस्तेऽपि अनेन न्यायेन सूत्रकारेण निरस्ता वेदितव्याः।’ स्पष्ट है कि भास्कर के मत से शंकराचार्य
बौद्धमतावलम्बी (प्रच्छन्न बौद्ध) मायावादी हैं। ३. शंकराचार्य के शुद्ध ज्ञानमार्ग का निराकरण करते हुए भास्कर कहते हैं कि यद्यपि
केवल कर्म क्षयिष्णु हैं तथापि श्रुति कहती है कि ज्ञानसहकारी कर्म क्षयिष्णु नहीं हैं। श्रुति है- ‘स य आत्मानमेव लोकमुपास्ते न हि अस्य कर्म क्षीयते’ (१-१-१ में उद्धृत)। अतः भास्कर मानते हैं कि सूत्रकार ने ज्ञानकर्मसमुच्चय को मोक्षमार्ग घोषित
किया है- ‘अत्र हि ज्ञानकर्मसमुच्चयान्मोक्षप्राप्तिः सूत्रकारस्याभिप्रेता’। ४. भास्कर कर्म और उपासना का भी समुच्चय मानते हैं। ‘कर्मोपासनयोश्च समुच्चयो
वक्ष्यते। अभेदज्ञानम् अभ्यस्यमानम् अज्ञानवासनाम् उच्छिनत्ति रागादिवासनां च’ कविता (भारकरभाष्य १-१-१)।
वेदान्त-खण्ड
५. पूर्वमीमांसा ब्रह्ममीमांसा के पूर्व अवश्य पठनीय है इस मत को शंकर नहीं मानते।
किन्तु भास्कर इसे मानते हैं। वे कहते हैं-ब्रह्मजिज्ञासा के पूर्व धर्मजिज्ञासा का पूर्वभावित्व सिद्ध है, क्योंकि धर्मजिज्ञासा स्वाध्याय-विधि में अधिकार देती है तथा अन्य विधियों में कार्यकारी बनाती है। ‘स्वाध्यायविधिकारिता इतरविधिकारिता वास्तु ब्रह्मजिज्ञासातः सर्वथा धर्मजिज्ञासायाः पूर्वभावित्वं सिद्धम् । तस्मात् पूर्ववृत्ताद् धर्मज्ञानाद् अनन्तरं ब्रह्मजिज्ञासेति युक्तम् । इस प्रकार भास्कर कर्ममीमांसा और ब्रह्ममीमांसा दोनों के शास्त्रैक्य को मानते हैं। ये दोनों एक ही शास्त्र के पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती भाग हैं। भास्कर यहाँ आचार्य उपवर्ष के मत का भी उल्लेख करते हैं जिन्होंने जैमिनि की मीमांसा और बादरायण के वेदान्त का समन्वय पौवापर्य आधार पर किया था। भास्कर मानते हैं कि “ब्रह्म" शब्द का अर्थ ईश्वर है (ब्रह्मशब्देन ईश्वरो गृह्यते (ब्रह्मसूत्र १-१-१ का भाष्य)। ब्रह्म जगत् से भिन्न और अभिन्न दोनों है
कार्यरूपेण नानात्वमभेद: कारणात्मना।
हेमात्मना यथाभेदः कुण्डलाधात्मना भिदा।। ब्रा कारणरूप से सर्वत्र विद्यमान है। अतएव वह सभी वस्तुओं से अभिन्न है। किन्तु कार्यरूप में वह अनेक है। विशिष्ट वस्तुएं ब्रह्म से भिन्न है। केवल उनका शक्तिमान् सर्दश (सद्-अंश) ब्रह्म से अभिन्न है (ब्रह्मसूत्र १-१-४ का भाष्य)। ईश्वर को सिद्ध करते हुए भास्कर कहते हैं
तस्मात् स्वतंत्रः सर्वज्ञः सर्वशक्तिनिरंजनः। ईश्वरोऽभ्युपगन्तव्यो जगत्सृष्टिलयश्रुतेः ।।
(१-४-२१ के भाष्य में उद्धृत) ईश्वर स्वतंत्र, सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और निरंजन है। सृष्टि-श्रुतियों और लय- श्रुतियों से उसका अस्तित्व सिद्ध है। अनुमान से उसकी सत्ता-असत्ता नहीं सिद्ध की जा सकती है। वह श्रुतिगम्य है, अन्य प्रमाणों से गम्य नहीं है। ब्रह्म निर्विशेष नहीं है। वह आनन्द नहीं है, किन्तु आनन्दमय है। शंकर कहते हैं कि आनन्दमयाधिकरण में निर्विशेष ब्रह्म विवक्षित है। परन्तु भास्कर कहते हैं कि नहीं, ऐसा कथन ठीक नहीं है। आनन्द ब्रह्म का गुण है। अतएव ब्रह्म निर्विशेष नहीं है। (भास्कर भाष्य १-१-१६)
इस प्रकार शंकराचार्य के मतों का खंडन करते हुए भी भास्कर वास्तव में शंकराचार्य के शारीरक-भाष्य से अत्यन्त प्रभावित हैं। अनेक स्थानों पर उन्होंने शंकराचार्य की उक्तियों
भेदाभेद-बेदान्त
३२१
को ज्यों की त्यों ले लिया है। उदाहरण के लिए निम्न युक्तियाँ ली जा सकती हैं: १. शंकराचार्य ज्ञान को वस्तुतन्त्र मानते हैं और उसे पुरुषतन्त्र नहीं मानते। यही भास्कर
भी कहते हैं- (ज्ञानस्यापुरुषतन्त्रत्वात् १-१-३ का भाष्य)। २. ब्रह्मजिज्ञासा का प्रयोजन बताते हुए शंकर कहते हैं कि आत्मा के विशेष स्वरूप पर
विप्रतिपत्तियाँ हैं और उनका निराकरण करना ब्रह्मजिज्ञासा का प्रयोजन है। यही बात भास्कर कहते हैं
किमर्था तर्हि जिज्ञासा तविशेष प्रति
विप्रतिपत्तिनिराकरणार्था (१-१-१ का भाष्य)। ३. ‘जन्माधस्य यतः’ का भास्करभाष्य शब्दतः और अर्थतः शंकर के भाष्य का अनुसरण
करता है।
ऐसे ही अनेक सूत्रों के भाष्य के लिए भास्कर शंकराचार्य के ऋणी हैं। यह आश्चर्य है कि ये दोनों आचार्य उपवर्ष के सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं और उनके प्रति आदरभाव रखते हैं।
३. भास्करभाष्य का वैशिष्टय
यद्यपि भास्करभाष्य का सर्वाधिक वैशिष्ट्य शंकराचार्य के शारीरकभाष्य के खंडन का सूत्रपात करना है और इस रूप में उसका प्रभाव समस्त वैष्णव-भाष्यों पर थोड़ा बहुत पड़ा है तथापि उसकी कुछ अपनी अन्य मौलिक विशेषताएं भी हैं। उनमें से निम्नलिखित को रेखांकित किया जा सकता है १. भास्करभाष्य के अनुसार ब्रह्मसूत्र के वर्ण्यविषय अधोलिखित हैं - प्रथम अध्याय में
ब्रह्म के स्वरूप और प्रमाण का प्रतिपादन है। द्वितीय अध्याय में स्मृतिविरोध परिहार, (प्रथम पाद), परमतनिराकरण (द्वितीय पाद) और श्रुतियों के परस्पर विरोध के परिहार (तृतीय और चतुर्थ पाद) हैं। तृतीय अध्याय में संसारगति का वर्णन (प्रथम पाद), जीव के अवस्थाभेद (द्वितीय पाद), ब्रह्मतत्त्व सहित विद्याओं के भेदाभेद का विचार (तृतीय पाद), और ज्ञानकर्मसमुच्चय (चतुर्थ पाद) के वर्णन हैं। चतुर्थ अध्याय में ज्ञान की आवृत्ति (प्रथम पाद), अर्चिरादिमार्गनिरूपण (द्वितीय और तृतीय पाद) तथा फलनिरूपण (चतुर्थ पाद) हैं। …
भेदाभेदवादी भाष्यों में भास्करभाष्य अन्यतम है। इसके पहले का कोई भेदाभेदवादी भाष्य सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। इसके बाद के भेदाभेदवादी भाष्यों में निम्बार्क और बलदेव विद्याभूषण के भाष्य विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। उन पर भास्करभाष्य का प्रभाव पड़ा है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
३२२
वेदान्त-खण्ड
३. अद्वैतवादी भाष्यों के अतिरिक्त ब्रह्मसूत्र पर जितने अन्य भाष्य हैं उन पर भी कुछ
न कुछ प्रभाव भास्करभाष्य का है। विशेष रूप से ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद को वे सभी मानते हैं और इसकी उत्तम व्याख्या भास्करभाष्य में उपलब्ध है। भास्कर का उद्घोष है कि सम्पूर्ण वेदान्त कार्यपरक है। (कृत्स्नो वेदान्तः कार्यपरः १-१-४ का भाष्य) भास्करभाष्य में अतिविस्तार को प्रायः बचाया गया है। कहीं-कहीं जब थोड़ा विस्तार किया गया है तो स्पष्ट शब्दों में उसका अभिकथन करने के बाद तुरन्त “अलमतिप्रसंगेन” (विस्तार को अब समाप्त किया जाय) कहकर उसको समाप्त कर दिया गया है। (द्रष्टव्य १-१-३, १-३-३३, १-४-२१ आदि)। बीच-बीच में अनेक संग्रहश्लोक दिये गये हैं जो वर्ण्यविषयों का सुन्दर संक्षेप प्रस्तुत करते हैं। भास्कर ने अपने भाष्य में श्रुतहानि और अश्रुतकल्पना के दोषों पर विशेष बल दिया है। वेदान्त श्रुतियों का अर्थ है। उनका अर्थ करने में किसी श्रुति की हानि नहीं होनी चाहिए। फिर कोई ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए जो श्रुति में न हो। अनुमान और उपज्ञा का प्रयोग अश्रुतकल्पना है। यथासंभव उनका प्रयोग श्रुति-अनुकूल करना चाहिए। उनका श्रुतिविरुद्ध प्रयोग करना अश्रुतकल्पना दोष हो जाता है। इसके अतिरिक्त भास्कर सम्प्रदाय-परम्परा के अनुसार ब्रहासत्र के भाष्य करने पर बल देते है ‘सम्प्रदायपरम्परया च तद्व्याख्यानं शोभनम्’ (१-१-१६ का भाष्य)। सम्प्रदायप्रवर्तन के लिए गुरु-शिष्य का द्वैत (भेद) आवश्यक है। अतः वे भेद को उतना ही पारमार्थिक मानते हैं जितना अभेद को।
४. भेदाभेदवाद के लिए भास्करीय युक्तियाँ
भास्कर ने भेदाभेदवाद के लिए निम्न युक्तियाँ दी हैं १. सामान्यविशेषमूलकयुक्ति। सत्ता, द्रव्यत्व आदि सामान्यों के आधार पर सभी वस्तुएँ
परस्पर अभिन्न हैं और व्यक्त, विशेष आदि के आधार पर चे परस्पर भिन्न हैं।
‘वस्तुजातं गवाश्वादि भिन्नाभिन्नं प्रतीयते’ (भास्कर भाष्य पृ. ६६)। २. द्रव्यगुणमूलकयुक्ति । द्रव्य और गुण का सम्बन्ध भेदाभेद है। भास्कर कहते हैं
‘न हि शुक्लपटयो धर्मधर्मिणोरत्यन्तभेदः किन्तु एकमेव वस्तु। नहि निर्गुणं नाम द्रव्यमस्ति । न हि निर्द्रव्यो गुणोऽस्ति तथोपलब्धैः। उपलब्धिश्च भेदाभेदव्यवस्थायां प्रमाणम् । शक्तिशक्तिमतोश्च अनन्यत्वम् अन्यत्वं चौपलक्ष्यते यथा अग्ने दहनप्रकाशनादिशक्तयो भेदाः । तस्मात् सर्वमेकानेकात्मकं नात्यन्तभिन्न भिन्नं वा। तदेवं प्रत्यक्षम् अनुमानागमाश्च अस्मत्पक्षे प्रमाणत्रयम्’ ।
(भास्कर भाष्य २-१-१७)
३२३
भेदाभेद-वेदान्त अर्थात् कोई द्रव्य निर्गुण नहीं है। कोई गुण निर्द्रव्य नहीं है, इस तथ्य की उपलब्धि प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम से होती है। द्रव्य वास्तव में शक्तिमान है और गुण उसकी शक्ति है। शक्तिमान और शक्ति न तो अत्यन्त अभिन्न हैं और न भिन्न ।
उनमें भेदाभेद सम्बन्ध है। ३. कारणकार्यमूलकयुक्ति। कारणरूप से ब्रह्म एक और अभिन्न है और कार्यरूप से वह
भिन्न है। जैसे स्वर्णरूप में कुण्डल, केयूर आदि आभूषण अभिन्न हैं और कार्यरूप में वे परस्पर भिन्न हैं। वैसे एक ही ब्रह्म सभी वस्तुओं में अनुवृत्त है और वे वस्तुएँ परस्पर भिन्न हैं
कार्यरूपेण नानात्वमभेदः कारणात्मना। हेमात्मना यथाभेदः कुण्डलाद्यात्मना भिदा।।
(भास्करभाष्य पृ. १८) इस युक्ति को सृष्टिलयमूलकयुक्ति भी कहा जा सकता है। सृष्टि के आरम्भ में एक
और अद्वितीय ब्रह्म ही था। उससे यह समस्त जगत् आविर्भूत होता है। उसी में यह जगत् स्थित है। अन्ततोगत्वा यह जगत् उसी में लय होता है। इस प्रकार जो कुछ ब्रह्म से भिन्न है वह ब्रह्ममय है। यह प्रपंच शक्तिरूप से अपने मूलकारण ब्रह्म में प्रविलय प्राप्त करता है
ब्रह्माख्येति प्रपंचो यं रूपं हित्वा तु वैकृतम्। जहाति कठिनावस्था जलस्थलवणं यथा।।
(भास्करभाष्य २-१-89) ४. श्रुतिप्रमाण। श्रुतिवाक्य दो प्रकार के हैं- अभेदपरक और भेदपरक जिन्हें क्रमशः
अभेदश्रुति और भेदश्रुति कहा जाता है। ‘सदेव सोम्य इदमग्र आसीत्’, ‘एकमेवाद्वितीयम्’ इत्यादि अभेद श्रुतियाँ हैं। ‘एकोऽहं बहु स्याम’ आदि श्रुतियाँ भेद को सिद्ध करती
हैं। अतः भेदाभेद श्रुति सिद्ध है। ५. ज्ञानमीमांसात्मकयुक्ति-ज्ञाता-ज्ञेय अथवा ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध भेदाभेद को सिद्ध करता
है। जितने विषय हैं वे ज्ञेयरूप में परस्पर भिन्न हैं, किन्तु ज्ञेयत्व या ज्ञान-रूप में उनमें एक ही ज्ञानप्रकार अनुस्यूत है। बिना आत्मज्ञान के कोई विषय ज्ञेय नहीं हो सकता है। इस प्रकार आत्मा प्रकाशक है और समस्त विषय प्रकाश्य हैं। ऐसा होने पर ज्ञान-ज्ञेय व्यवहार संभव है। अतः ज्ञान की संभावना भेदाभेद को सिद्ध करती है। एक ओर वह आत्मा की अभिन्नता को और दसरी ओर विषयों की भिन्नता को इंगित करती है।
वेदान्त-खण्ड
६. बन्धनमोक्षमूलकयुक्ति। जीव मुक्ति-अवस्था में ब्रह्म से अभिन्न हैं और बन्ध-अवस्था
में भिन्न हैं। भास्कर पाञ्चरात्र मत को यहाँ उद्धृत करते हैं -
आमुक्तेर्भेद एवं स्याज्जीवस्य परस्य च।
ति मुक्तस्य च न भेदोऽस्ति भेदहेतोरभावतः।।
(भास्कर भाष्य १-४-२० में उद्धत)
इस प्रकार भास्कर ने भेद और अभेद दोनों को वास्तविक या पारमार्थिक सिद्ध किया
इस पर कुछ लोग आपत्ति करते हैं कि भेदाभेद का प्रत्यय विरोधग्रस्त है। किसी वस्तु को अन्य वस्तुओं से भिन्न और अभिन्न दोनों कहने में विरोध या वदतोव्याघात है। इसका निराकरण करते हुए भास्कर कहते हैं -
_कहाँ विरोध है? कहाँ अविरोध है? इसका निर्णय प्रमाण से होता है। यदि प्रमाण से भेदाभेद प्रतीत होता है तो विरोध कहाँ है?
SR प्रमाणतश्चेत प्रतीयते को विरोधोऽयमुच्यते।
विरोधेऽविरोधे च प्रमाणं कारणं मतम् ।।
(भास्कर भाष्य २-१-२२) जो प्रमाण से निर्धारित है वह निःसन्देह अविरुद्ध है। प्रत्यक्ष प्रमाण से गौ, अश्व आदि सभी वस्तुएँ भिन्नाभिन्न प्रतीत होती है, क्योंकि वे सामान्य रूप में, गौत्व और अश्वत्व रूप में अभिन्न हैं तथा व्यक्तिरूप में परस्पर भिन्न हैं।
यत् प्रमाणैः परिच्छिन्नमविरुद्धं हि तत् तथा। वस्तुजातं गवाश्वादि भिन्नाभिन्न प्रतीयते।।
(भास्कर भाष्य १-१-४) - इस प्रसंग में भास्कर ने एक अनमोल बात कहीं है। वे कहते हैं - मनाली
एकरूपं प्रतीतत्वात् द्विरूपं तत् तथेष्यताम्। ला कि Of एकरूपं भवेदेकमिति नेश्वरभाषितम् ।।
जो एकरूप है वह एक है, अनेक नहीं है, ऐसा ईश्वर ने नहीं कहा है। जो वस्तु एकरूप प्रतीत होती है, वह द्विरूप भी प्रतीत हो सकती है। एक दृष्टि से वह सामान्य है
र भेदाभेद-येदान्त
३३२५ और दूसरी दृष्टि से वह विशेष है, एक दृष्टि से वह द्रव्य है तो दूसरी दृष्टि से गुण। जहाँ भी वैशेषिक कारण और कार्य में अथवा द्रव्य और गुण में या सामान्य और विशेष में समवाय ति सम्बन्ध मानते हैं, वहाँ भास्कर तादात्म्य सम्बन्ध मानते हैं और समवाय सम्बन्ध का निराकरण करते हैं। अतः स्पष्ट है कि उनका भेदाभेद तादात्म्य सम्बन्ध है। यहाँ उल्लेखनीय है कि शंकर भी तादात्म्य सम्बन्ध को स्वीकार करते हैं किन्तु उनका तादात्म्य सम्बन्ध अभेदमूलक है, भेदाभेदमूलक नहीं। ..
- इस प्रकार भास्कर ने सिद्ध किया है कि भेदाभेद का संप्रत्यय विरोधग्रस्त नहीं है। वास्तव में यह प्रत्यय शीतोष्णवत् नहीं है । शीतोष्ण में विरोध है क्योंकि दोनों का अवस्थान एक ही है और वह अवस्थान शीत तथा उष्ण दोनों एकसाथ नहीं हो सकता। कार्यकारण भिन्न देशवर्ती हैं। अतएव उनमें विरोध नहीं है। कारणात्मना ब्रह्म प्रपंच से अभिन्न है। शीतोष्ण में उत्पाद्य-उत्पादक या आधार-आधेय का सम्बन्ध नहीं होता है। ब्रह्म और प्रपंच में यह सम्बन्ध होता है। अतएव ब्रह्म और प्रपंच का भेदाभेद शीतोष्णवत् विरुद्ध नहीं है। वस्तुतः भास्कर का भेदाभेदवाद स्वाभाविक भेदाभेदवाद नहीं है। वह औपाधिक भेदाभेदवाद है। उपाधि से अभेद और उपाधि में भेद है। स्वाभाविक भेदाभेद विरुद्ध है, किन्तु औपाधिक भेदाभेद विरुद्ध नहीं है, क्योंकि आधार भित्र है या उपाधिभेद होने के कारण विरोध नहीं है। अब प्रश्न है कि उपाधि क्या है? भास्कर के अनुसार उपाधि का अर्थ व्यक्तीकरण है। अनन्त सत् या ब्रह्मा का व्यक्तीकरण जीव और प्रपंच रूपों में होता है। यह व्यक्तीकरण ब्रह्म की शक्ति का परिणाम है। अतएव उपाधि का सिद्धान्त ब्रह्मशक्तिपरिणामवाद है, यह मात्र ब्रह्मपरिणामवाद नहीं है।
जीशिवाय जीव और ब्रह्म का सम्बन्ध बताते हुए भास्कर कहते हैं - उसका (जीव का) स्वरूप भिन्नाभिन्न है। उसका अभिन्नरूप स्वाभाविक है और भिन्नरूप औपाधिक है। उपाधियाँ (अविद्या, प्राण, मन, काम, कर्म आदि बलवान होती हैं। अतएव जीव इनके प्रभाव से संसरण करता है, जन्मता-मरता रहता है (भास्कर भाष्य २-३-४३) जीव ईश्वर (= ब्रह्म) का अंश है। अंश का अर्थ अनन्यभूत का उपाधि-अवच्छिन्न होना है- ‘उपाध्यवच्छिन्नस्य अनन्यभूतस्य वाचको व अंशशब्दः’ (भास्करभाष्य २-३-४३)। जीवेश्वर-सम्बन्ध को अहिकुण्डलवत् या अग्निस्फुलिंगवत् कहा जाता है। परमात्मा अहिस्थानीय है और जीव कुण्डलस्थानीय (भास्करभाष्य ३-२-२) । परमात्मा अग्निस्थानीय है और जीव स्फुलिंगस्थानीय (द्रष्टव्य भास्करभाष्य २-३-४३)। इस प्रकार परमात्मा और जीव में भेदाभेद सम्बन्ध है। परमात्मा जीव में अनुप्रविष्ट है। इस रूप में अभेद है। जीवत्वरूप में जीव परमात्मा से भिन्न है क्योंकि वह अविद्या, प्राण, मन, काम आदि से अपरिच्छिन्न, सीमित तथा संसारी है। परमात्मा इन उपाधियों से परिच्छिन, असीम और असंसारी है। जीव ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। वह नित्य और अविनाशी है। उसके जन्म तथा मरण औपाधिक हैं। जैसे
वेदान्त-खण्ड
अग्निविस्फुलिंग अग्नि से अभिन्न है और उपाधिकृत है वैसे ही जीव ब्रह्म से अभिन्न है और उसका जीवत्व औपाधिक है। ‘न पात्रविकारभावो विवक्षितः किन्तूपाधिकृतभेदाभिप्राया हि सा। (भास्करभाष्य २-३-१७)। अतः जीव की उत्पत्ति या सृष्टि नहीं होती है। उसका विच्छेदमात्र होता है जो औपाधिक है। विस्फुलिंगन्याय से जीव विज्ञानघन है। उसका स्वाभाविक रूप ब्राह्मरूप (ईश्वरीय) है। इसके अतिरिक्त अन्य सब कुछ जो उसके स्वरूप में है वह औपाधिक है (वही, २-३-१८)। जीव अणुपरिमाण और महापरिमाण दोनों है। स्वाभाविकरूप या ब्राह्मरूप में वह महापरिमाण या विभु है। औपाधिकरूप में वह अणुपरिमाण है। अणुरूप में वह नाना है। महापरिमाणरूप में वह एक है। अणुरूप में वह पुर्यष्टक है और बद्ध है अर्थात् बन्धन में रहता है। ब्रह्मरूप में वह मुक्त है। ‘तत्त्वमसि’ इत्यादि श्रुतियाँ उसके ब्रह्मरूप का प्रतिपादन करती हैं। ‘द्वा सुपर्णा’ आदि श्रुतियाँ उसको परमात्मा से भिन्न बताती हैं। जबतक जीव मुक्त नहीं होता तबतक उसका उपाधि-योग (उपाधि-सम्बन्ध) रहता है। सुषुप्ति और प्रलय में भी उपाधियोग रहता है। अतएव सुषुप्ति
और प्रलय मोक्ष की अवस्था नहीं हैं।
जीव का कर्तृत्व स्वतन्त्र नहीं है, अपितु ईश्वरापेक्ष है। स्वामिभृत्यन्याय से ईश्वर-जीव का सम्बन्ध है। जीव परमात्मा का दास है अर्थात् वह परमात्मा के अधीन है।
वास्तव में उपाधि ब्रह्म की शक्ति का परिणाम है। ब्रह्म में विविध शक्तियाँ हैं
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते।
स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च। इस प्रकार श्वेताश्वतर-उपनिषद् का उद्धरण देते हुए भास्कर मानते हैं कि ईश्वर अचिन्त्यशक्तिमान् है। (भास्कर भाष्य २-१-१४)।
परमात्मा की शक्ति का विक्षेप ही जगत् की सृष्टि है। वह अपनी शक्ति के अनुसार स्वेच्छा से लोकहिताय अपने को जगद्प में परिणत करता है।
स हि स्वेच्छया स्वात्मानं लोकहितार्थं परिणामयन् ।
स्वशक्त्यनुसारेण परिणामयति (भास्कर भाष्य २-१-१४) ।। उसका परिणमन पटतन्तुबत् है -
अप्रच्युतस्वरूपस्य शक्तिविक्षेपलक्षणः । परिणामो यथा तन्तुनाभस्य पटतन्तुवत् ।।
भेदाभेद-वेदान्त
३२७ जैसे मकड़ी अपने अन्दर से ही जाला निकालती है वैसे ब्रह्म अपने अन्दर से ही जगत् को उत्पन्न करता है। ब्रह्म ही जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है। किन्तु उसका यह परिणमन औपाधिक है, अर्थात् स्वशक्तिद्वारेण है। इसलिए इस सिद्धान्त को ब्रह्मशक्तिपरिणामवाद या ब्रह्म का औपाधिक परिणामवाद कहा जाता है। जगत् वास्तव में ब्रह्मशक्ति का विक्षेप या विकास है। प्रलय इस शक्ति का संकोच है।
इस प्रकार ब्रह्म से जीव और जगत् दोनों के सम्बन्ध भेदाभेद हैं। किन्तु जगत् जिस रूप में ब्रह्म से सम्बन्धित है उस रूप में जीव नहीं है। जीव में ब्रह्मभाव (मोक्ष) की योग्यता है। वह स्वाभाविक रूप में ब्रह्म से अभिन्न है। किन्तु जगत् ब्रह्म की शक्ति से उत्पन्न है। वह पूर्णतया औपाधिक है। उसके सृष्टि और लय होते हैं जो ईश्वर की स्वेच्छा पर निर्भर
५. मोक्ष
शंकराचार्य ने कहा था कि मोक्ष ब्रह्मभाव है और वह उत्पाद्य, प्राप्य, विकार्य तथा संस्कार्य नहीं है। भास्कर मोक्ष को ब्रह्मभाव मानते हैं। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि मोक्ष उत्पाद्य, विकार्य और संस्कार्य नहीं है। किन्तु वे मोक्ष को प्राप्य मानते हैं। ‘सत्यं त्रिविधं कर्म न संभवतीति आप्यं तु न शक्यते निरसितुम्’ (भास्कर भाष्य १-१-४)। मुक्त पुरुष सर्वतः सर्वात्मा हो जाता है। ‘अस्मत्पक्षे मुक्तः सर्वात्मा भवति सर्वतः । सर्वात्मा भवति सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति’ (वही, १-१-४)। यदि मोक्ष नित्यप्राप्त है, अयत्नज है, तो फिर सभी मुक्त हो जायेंगे जो संभव नहीं है। अतः मोक्ष यत्नसाध्य है। ऐसा मानने में सर्वमुक्तिप्रसंग नहीं
शंकर के मत में मोक्ष अविद्यानिवृत्ति है। भास्करमत में शरीरादि में आत्मबुद्धि की निवृत्ति मोक्ष है। यह निवृत्ति देहपात के अनन्तर ही संभव है। देहपात के अनन्तर ही मुमुक्षु पुरुष सर्वज्ञ, सर्वशक्ति, निरतिशयसुख-संवेदी होता है (वही १-१-४)। इस प्रकार भास्करमत में केवल विदेहमुक्ति संभव है और जीवन्मुक्ति संभव नहीं है। पत्र
जीव और परमात्मा में स्वाभाविक अभेद है। उनका भेद औपाधिक है। यह औपाधिक भेद जब निवृत्त हो जाता है तो जीव का परमात्मा से एकीभाव हो जाता है। यही मुक्त अवस्था मोक्ष है। (जीवपरयोश्च स्वाभाविकोऽभेद औपाधिकस्तु भेदः । स तन्निवृत्तिी निवर्तते, भास्करभाष्य ४-४-४)। मुक्तजीव कारणात्मा (परमात्मा) को प्राप्त करता है और उसी की भाँति सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और सर्वात्मा हो जाता है। मुक्ति द्विविध है- क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति। जो साक्षात् कारणब्रह्म की ही उपासना करते हैं, वे सद्योमुक्ति प्राप्त करते हैं। जो कार्यब्रह्म (हिरण्यगर्भ) की उपासना करते हैं वे ब्रह्मलोक पहुँचते हैं और वहाँ ज्ञान प्राप्त करके कारणब्रह्म में लीन हो जाते हैं। (भास्करभाष्य ४-४-१४)।३२८
वेदान्त-खण्ड
पंचाग्निविद्या, मधुविद्या आदि औपनिषद विद्याएँ क्रममुक्ति को सूचित करती हैं। इन उपासनाओं के बल पर अर्चिरादि मार्ग से जाकर जीव हिरण्यगर्भ को प्राप्त करता है और वहाँ ब्रह्म (कारणब्रह्म) से उसका एकीभाव होता है। तब उसका लिंगशरीर (सूक्ष्म शरीर) परमात्मा में विलीन हो जाता है। (अचिरादिना गत्वा परमात्मनि लिङ्गप्रलयः न प्राक्, भास्करभाष्य ४-३-१३)। इस प्रकार आमुक्तिपर्यन्त सूक्ष्मशरीररूपी उपाधि रहती है।
भास्कर ज्ञानकर्म-समुच्चय-मार्ग को मानते हैं। उपासना को वे कर्म के अन्तर्गत करते हैं। इस प्रकार वास्तव में वे ज्ञान, उपासना और कर्म इन तीनों के समुच्चय को मोक्ष-प्राप्ति का उपाय मानते हैं।
६. भर्तृप्रपंच और यादवप्रकाश
वास्तव में भास्कर ने भेदाभेद वेदान्त का उद्धार किया था। उनके पूर्व यादव प्रकाश और भर्तृप्रपंच प्रसिद्ध भेदाभेदवादी थे। यादव प्रकाश ने ब्रह्मसूत्र पर एक भाष्य भी लिखा था जो अब उपलब्ध नहीं है। उनके कुछ वचन रामानुज, सुदर्शनसरि तथा वेदान्तदेशिक के ग्रन्थों में पाये जाते हैं। उनके आधार पर उनके भेदाभेदवाद का पुनर्निर्माण पी.एन. श्रीनिवासाचारी ने अपनी पुस्तक भेदाभेद का दर्शन (अंग्रेजी में) किया है। यह उल्लेखनीय है कि यादव प्रकाश का उल्लेख अद्वैतवेदान्त की परम्परा में नहीं मिलता है। भर्तृप्रपंच ने बृहदारण्यकोपनिषद् पर भाष्य लिखा था। वे शंकराचार्य के पूर्व थे। उनका कोई ग्रन्थ सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। उनका उल्लेख अद्वैतवेदान्त की परम्परा में भास्करादि के साथ प्रमुख भेदाभेदवादियों में किया जाता है। शंकराचार्य ने बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य में, सुरेश्वराचार्य ने बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक में और आनन्दगिरि ने उसकी टीका में भर्तृप्रपंच के मतों का उल्लेख किया है और उनका खंडन भी किया है। यही नहीं, आश्मरथ्य और औडुलोभि जिसका उल्लेख बादरायण के ब्रह्मसूत्र में किया गया है, भेदाभेदवादी थे। संभवतः उनके द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र थे जो अब उपलब्ध नहीं हैं। बादरायण के ब्रह्मसूत्र के सामने वे टिक न सके। किन्तु बादरायण के बाद भेदाभेदवादियों ने उनके सूत्र पर ही भेदाभेदवादी भाष्य लिखना आरंभ किया और सिद्ध किया कि बादरायण भी भेदाभेदवादी थे। किन्तु भक्तिसूत्र में शाण्डिल्य ने बादरायण को अद्वैतवादी बताया है। शंकराचार्य और उनके अनुयायियों ने
बादरायण को पूर्णरूपेण अद्वैतवेदान्ती सिद्ध किया है। अतएव इन प्रबल प्रमाणों के आधार कि पर कहा जा सकता है कि बादरायण भेदाभेदवादी नहीं थे। किन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि
भास्कर के पूर्व और शंकराचार्य के पहले भेदाभेदवादी वेदान्त की एक लम्बी परम्परा थी।
स्वयं भर्तृप्रपंच के अनुयायी चार सम्प्रदायों में विभक्त थे। इसी तथ्य से भेदाभेदवाद की की गहनता और विशालता का परिचय प्राप्त किया जा सकता है।
भर्तृप्रपंच के वचनों का एक संकलन प्रो. मैसूर हिरियण्णा ने प्रकाशित किया है। प्रो.
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भेदाभेद-वेदान्त संगमलाल पाण्डेय ने प्री. शांकर अद्वैत फिलासफी में उनके दर्शन का पुनर्निर्माण किया है। पुनश्च, भास्कर के बाद भेदाभेदवाद की परम्परा का पुनरुद्धार निम्बार्क ने किया। किन्तु उन दोनों के बीच कई शताब्दियों का अन्तर है। भास्कर के ठीक बाद लगभग दो शताब्दी तक किसी ने भी भेदाभेदवाद का समर्थन नहीं किया। शंकराचार्य के अनुयायी, रामानुज तथा उनके अनुयायी और मध्च तथा उनके अनुयायी भास्कर के भेदाभेदवाद का खंडन करते रहे। कालान्तर में विज्ञानभिक्षु ने तेरहवीं शती में ब्रह्मसूत्र पर विज्ञानामृतभाष्य लिखा। यद्यपि उन्होंने अपने मत को अविभागाद्वैत बताया, तथापि वह भेदाभेदवाद ही है। उन्होंने केवल इस तथ्य पर बल दिया कि भेदाभेदबाद भी एक प्रकार का अद्वैतवाद ही है जो शंकराचार्य के अद्वैतवाद से भिन्न है। यह भी एक उल्लेखनीय तथ्य है कि भास्कर और विज्ञानभिक्षु के ब्रह्मसूत्रभाष्यों पर किसी ने टीका नहीं लिखी। संभवतः उनके शिष्यगण यह समझते थे कि इनके भाष्य उतने प्रामाणिक नहीं है जितने शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि के हैं। इस प्रकार ब्रह्मसूत्र के समस्त भाष्यों में भेदाभेदवादी भाष्य अलग-थलग पड़ गये हैं। केवल निम्बार्क के भाष्य का कुछ विकास टीका-टिप्पणी द्वारा हुआ है, क्योंकि उनका एक प्रवल वैष्णव धार्मिक सम्प्रदाय था इसलिए उनके सम्प्रदाय के अनुयायीगण ने उनके भाष्य पर टीका-टिप्पणी की। ऐसा सम्प्रदाय यादव प्रकाश, भास्कर, विज्ञानभिक्षु आदि का नहीं था। इस कारण उनके भाष्यों का परम्परागत विकास नहीं हुआ। Fine
७. यादवप्रकाशमत की समीक्षा
यादव प्रकाश आचार्य रामानुज के विद्यागुरु थे। किन्तु रामानुज ने वेदान्तदीप में उनके मत का खंडन किया है। सुदर्शनाचार्य ने श्रुतिप्रकाशिका (श्रीभाष्य की टीका) में लिखा है कि यादव प्रकाश आश्मरश्य के मत को मानते थे। का यादव प्रकाश स्वाभाविक भेदाभेदवादी थे। वे माया या उपाधि को नहीं मानते थे। वेदान्तदेशिक ने शतपणी में उनके निम्न श्लोक को उद्धृत किया है जिसमें कहा गया है कि अद्वैतवेदान्ती और बौद्ध दार्शनिक समान मतों को मानते हैं -
वेदोऽन्टतो बौद्धकतागमोऽनतः। प्रामाण्यमेतस्य च तस्य चान्टतम् ।। बोद्धान्टतो बुद्धिफले तथान्टते। यूयं च बौद्धश्च समानसंसदाः ।।
(शतदूषणी, ४२ वाद) अर्थात् ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय, बुद्धि ये सभी मिथ्या हैं, इस तथ्य पर अद्वैतवादियों और बौद्ध महायान दार्शनिकों में समानता है। अतः अद्वैत वेदान्त प्रच्छन्न बौद्धमत है।
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वेदान्त-खण्ड
मा यादव प्रकाश चित् और अचित् दोनों को नित्य सत् मानते हैं। चित् (जीव) और अचित् (जगत) ब्रा या परमात्मा के परिणाम हैं। परमात्मा में विविध शक्तियाँ हैं। शक्तियों के दो रूप है, सूक्ष्म सत् है। इस शक्तिवशात् वह अपने को भोक्ता (जीव), भोग्य (जगत्) तथा नियन्ता (ईश्वर), इन तीन रूपों में अभिव्यक्त करता है। इन रूपों में उसकी सूक्ष्मशक्ति का स्थूल विकार या परिणाम होता है। यहाँ रामानुज वेदान्तदीप में कहते हैं कि यादव प्रकाश के मत में जीब और ईश्वर अनित्य हो जायेंगे, क्योंकि उनके आविर्भाव-तिरोभाव होते हैं और वे ब्रह्म से नित्य जुड़े नहीं हैं। इस प्रकार यद्यपि यादव प्रकाश ने भास्कर के भेदाभेदवाद में निहित द्वैतवाद को निरस्त किया था और अद्वैतवाद के भेदाभेदवाद की स्थापना की थी तथापि उनके भेदाभेदवाद में जीव तथा ईश्वर में अनित्यत्व दोष आ गया
उनके स्वाभाविक भेदाभेदवाद में विरोध भी है जिसका उल्लेख द्वैताद्वैत की आलोचना में शंकराचार्य ने किया है। नैष्कर्म्यसिद्धि की टीका चन्द्रिका में इस भेदाभेदवाद को जैनमत से अभिन्न किया गया है जो वस्तुओं को अनेकधर्मात्मक मानता है (अनेकान्तवाद) और जिसका खण्डन बादरायण ने ब्रह्मसूत्र के तर्कपाद में किया है
‘अहो माहात्म्यं प्रज्ञायाः नमोऽस्तु ब्रह्मवादिभ्यः क्षपणक शिष्येभ्यः’। (नैष्कर्म्यसिद्धिचन्द्रिका १। ७६)।
पुनश्च, ज्ञानोत्तम मिश्र नैष्कर्म्यसिद्धि-चन्द्रिका में भेदाभेद का इस प्रकार खण्डन करते हैं
यहाँ अभेद का क्या अर्थ है? (१) भेदाभाव? या (२) भेदविरोधी? या (३) भेद से अन्य?
‘पहला विकल्प संभव नहीं है क्योंकि इस स्थिति में भेद और अभेद की युगपत् स्थिति संभव ही नहीं है। इसी दोष के कारण दूसरा विकल्प भी संभव नहीं है। तीसरा विकल्प भी दोषपूर्ण है क्योंकि तब रूप, रस इत्यादि जो भेद से अन्य हैं अभेदग्रस्त हो जायेंगे। इस प्रकार भेदाभेद के अभ्युपगम (कल्पना) में अलौकिकता का दोष है (देखिए चन्द्रिका ११७८)।
अन्त में, ब्रह्म को जीव से भिन्नाभिन्न मानने में ब्रह्म में जीवगत दोष हो जायेंगे अर्थात् जीव के दुःख को भी ब्रह्म में मानना पड़ेगा। इसीलिए सुरेश्वराचार्य कहते हैं -
भिन्नाभिन्नं विशेषश्चेद् दुःखि स्याद् ब्रह्म ते ध्रुवम्
(नैष्कर्म्यसिद्धि १।७८) अन्त में, भेदाभेदवाद ज्ञानकर्म-समुच्चयवाद का आधार है। इस आधार के निरस्त हो जाने पर ज्ञानकर्म-समुच्चयवाद भी धराशायी हो जाता है।
भेदाभेद-वेदान्त
सन्दर्भ-ग्रन्थ
ब्रह्मसूत्रभास्करभाष्य, सं. विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी, चौखम्बा, वाराणसी, १६१४,
पुनर्मुद्रण १६६१. २. द फिलासफी ऑफ भेदाभेद, पी.एन. श्री निवासाचारी, अड्यार लाइब्रेरी एण्ड रिसर्च
सेन्टर, मद्रास, १६३४, पुनर्मुद्रण १६७२. ३. श्रीमती शैलकुमारी, भास्कर-भाष्य का दार्शनिक अनुशीलन (अप्रकाशित डी. फिल
शोध-प्रबन्ध), संस्कृत विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। ४. गीता का भास्करभाष्य, कुछ विद्वानों का मत है कि यह भास्करभाष्य काश्मीर में
लिखा गया था जिसका उद्धरण अभिनवगुप्त ने अपने गीताभाष्य में किया है और इसके लेखक भास्कर ब्रह्मसूत्रभाष्यकार भास्कर से भिन्न हैं। (सं.) सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी।
द्वितीय अध्याय
काम या