१. परिचय
श्रीसहजानंद स्वामी उर्फ श्रीस्वामिनारायण का जन्म २ अप्रैल १७८१ (वि.सं. १६३७, चैत्र सुदी रामनवमी) को हुआ था। वैष्णव धर्मपरायण ब्राह्मण-कुल के पिता धर्मदेव और माता भक्तिदेवी के हाथों, पवित्र वातावरण में उनका लालन-पालन हुआ। बाल्यकाल से ही अलौकिक दिव्य शक्तियाँ, कुशाग्र बुद्धि, प्रेम और निर्वैर की भावना, करुणा और सेवावृत्ति और लोककल्याण की उच्च भावना उनमें दृष्टिगोचर होती थी। आठ वर्ष की आयु में उनका यज्ञोपवीत हुआ। सकल शास्त्रों का अध्ययन अपनी प्रगल्भ-बुद्धिचातुर्य और स्मरणशक्ति से पूर्ण कर, नैपुण्य अर्जित किया। माता-पिता के अक्षरवास के अनन्तर केवल बारह वर्ष की कोमल आयु में गृहत्याग कर, संसार के बन्धनों से मुक्त हो, हिमालय की राह ली। वहाँ पुल्हाश्रम में गंडकी के तीर पर छ: महीने एक पैर पर खड़े रहकर उन तपश्चर्या की। वृद्ध मुनि गोपाल योगी के सानिध्य में अष्टांगयोग सिद्ध किया। सात वर्ष तक उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम भारत की पैदल यात्रा पूर्ण कर सौराष्ट्र के लोज-गाँव में पदार्पण किया। मार्ग में स्थित प्रत्येक मंदिर, तीर्थ, धर्म, सम्प्रदाय, धार्मिक उत्सव, परम्परा, रीति-रिवाज, गुरु, धर्माचार्य आदि के उपदेश, जीवन-कथन, व्यवस्था आदि का अध्ययन विविध दृष्टिकोणों से किया। मार्ग में कई मुमुक्षुओं को मार्गदर्शन दिया। स्थान-स्थान पर जीव, ईश्वर, माया, ब्रह्म, परब्रह्म, बन्धन और मोक्ष जैसे आध्यात्मिक विषयों पर विद्वानों, गुरुओं और धर्माचार्यों से चर्चाएं कीं। धर्म और अध्यात्मसाधना के नाम पर प्रचलित पाखंडों और दुराचारों को देखकर दुःख का अनुभव किया।
काठियावाड़ के लोज-गाँव में स्थित सद्गुरु रामानन्द स्वामी के आश्रम में वे पधारे। यहाँ पर रामानन्द स्वामी को अपना गुरु बनाया। उनसे वैष्णवी दीक्षा ग्रहण कर ‘सहजानंद स्वामी’ नाम पाया और यहीं स्थायी हो गये। गुरु रामानंद ने इक्कीस वर्ष के युवक सहजानंद के अमूल्य सत्त्व को पहचान लिया। इसीलिए अपने किसी भी वृद्ध, विद्वान् या वाचाल शिष्य के स्थान पर अद्भुत कर्तृत्वशक्ति तथा आध्यात्मिक क्षमता के धारक २१ वर्ष के युवक सहजानंद जी को विधिपूर्वक धर्म की गद्दी पर प्रतिष्ठित कर नये संप्रदाय की पुनः प्रतिष्ठा होगी, इस विश्वास से रामानंद ने शांति का अनुभव किया। तदनन्तर अति अल्पावधि में ही गुरु रामानंदजी ने इस लोक से विदा ली। सहजानंदजी ने धर्मचक्रप्रवर्तन का कार्य प्रारंभ किया। उनका अभिप्रेत धर्म था-धर्म, ज्ञान, वैराग्य और माहात्म्यज्ञानयुक्त२६८
वेदान्त-खण्ड नवधा भक्ति, इन चारों अंगों पर आधारित और उसे परिपुष्ट करता “ऐकांतिक धर्म”। अपनी बुद्धि, शक्ति, ऐश्वर्य, करुणा, कल्याण-भावना और धार्मिक जीवन में अनुशासन तथा आग्रहयुक्त नेतृत्व को कार्यरत करते हुए उन्होंने सुगठित, सुव्यवस्थित संप्रदाय के सर्जन-प्रवर्तन का काम प्रारंभ किया। दैवी शक्तियाँ और ऐश्वर्य उनके लिए सहज थे। चमत्कार और समाधि द्वारा असंख्य मुमुक्षुओं को, अपने इष्टदेव के दर्शन कराकर, ईश्वरोन्मुख किया। अति अल्पकाल में ही एक विशाल जनसमुदाय उनका अनुगामी हो गया। नीति, धर्म के प्रसार के लिए बुद्धि, कार्यशक्ति और उत्साह से परिपूर्ण, सुखी परिवारों के मुमुक्षु युवकों को ढूंढकर एक ही रात्रि को ५०० को परमहंस कक्षा की साधु दीक्षा प्रदान की। बाईस वर्ष के युवा गुरु के हाथों आयु में और पांडित्य में उनसे बड़े ५०० व्यक्ति साधु बने। उनके अनुशासन और नियम के अन्तर्गत रहकर इन साधुओं ने प्रेमपूर्वक उन्हें धर्माचार्य के रूप में स्वीकार किया। यह उनकी आकर्षक प्रतिभा और दिव्य व्यक्तित्व का सूचक है। धर्म के इतिहास में यह अद्वितीय और विरल घटना है। अपनी परमहंस मंडली की सहायता से स्थान-स्थान पर बावड़ी-कुआँ-तालाब खुदवाना, मार्ग बनवाना तथा नदी के तट बंधवाना, अन्नक्षेत्र तथा सदाव्रत खुलवाना, गोशाला, पाठशाला और धर्मशालाएं बनवाना- जैसे पूर्तकर्मों से उन्होंने ज्ञाति-जाति-धर्म अथवा वर्ग का भेद नहीं किया। वहम, व्यसन और जड़ता से तथा अज्ञान और अंधश्रद्धा से समाज को मुक्त किया। गाली-गलौज
और अश्लील भाषा-प्रयोग जिनके जीवन से जुड़ गये थे ऐसे वर्ग से शिष्टभाषा का उपयोग करवाया। होली तथा विवाहादि प्रसंगों पर गाये जाते अश्लील गीतों-बोलों के स्थान पर लोगों से तुलसीविवाह, रुक्मिणीविवाह, प्रभुमहिमा के पद गवाये। बेटी को दूधपीती करना (दम घोंट कर मार डालना), पति की मृत्यु के पश्चात् सती होना, अपनी स्त्री का दान करना, स्त्री को ताड़न देना और विधवा स्त्री को कष्ट देना- इस प्रकार समाज की बद्धमूल कुप्रथाओं को उन्होंने निर्मूल किया। संस्कृत के स्थान पर लोकभाषा गुजराती में ही उपदेश देकर, मातृभाषा की महिमा में अभिवृद्धि की और उसके माध्यम से शिक्षा की महत्ता का प्रतिपादन किया। अक्षरज्ञान प्रदान कर स्त्रियों को स्वयं ही धर्मग्रन्थों का अध्ययन करने की प्रेरणा दी, उनमें निहित कर्तृत्वशक्ति और सेवाभाव के पोषण के लिए उनके लिए अलग मंदिर बनवाये। इस माध्यम से स्त्री-उपदेशक तैयार किये। उन्हें संगठित कर मूल्यमूलक समाज के नवनिर्माण के कार्य में जगाया। इस प्रकार स्त्रियों के स्थान और रुतबे में वृद्धि की। यज्ञ तथा धर्मस्थानों में होती पशु तथा नरहत्या का विरोध किया। उनके स्थान पर वेदविहित विधि के अनुसार अहिंसामय विष्णयाग, महारुद्रयाग आदि यज्ञों की एक नुतन परम्परा का प्रचलन किया। इससे दंभी साधु, दुराचारी गुरु, हिंसा प्रेमी राजा, वहम और अंधश्रद्धा के जाल में फाँस कर मौज करते बाबाओं के गाली, अपमान-तिरस्कार-पीड़न
और ताडन सहजानंद जी के परमहंसों को जितना सहना पड़ा था उतना विरले ही अन्य किसी को सहना पड़ा होगा। समाज की निचली और उपेक्षित जाति का आत्मीयजन बनकर, उनकी समस्याओं को जान कर, उनका उद्धार किया। उनके वाणी-व्यवहार को, सवर्णों को
२६६
श्रीस्वामिनारायण-विशिष्टाद्वैतवाद लज्जित कर दे, इतना विशुद्ध बनाया। ठगों, चोरों, बटमारों को प्रेम और करुणा से वशीभूत कर, उनका जीवन-परिवर्तन किया, उन्हें उच्च श्रेणी का भक्त बनाकर समाज में सम्माननीय स्थान प्रदान करवाया।
मानवसेवा और समाजोद्वार के साथ-साथ धर्मसुधार, साहित्य-सर्जन और ललित कलाओं का पोषण-प्रवर्तन भी किया। उनके परमहंसों में निहित शक्ति-क्षमता को पहचान कर, उनके हाथों गुजराती, हिंदी और संस्कृत-साहित्य को समृद्धतर किया। संगीत, चित्रकला, कला, शिल्प, स्थापत्य इत्यादि ललित कलाओं को प्रोत्साहन प्रदान कर उनका भी प्रसार-प्रचार किया। जीव, ईश्वर, माया (प्रकृति) अक्षरब्रह्म और परब्रह्म के पाँच अनादि भेदों से युक्त ‘स्वतन्त्र मौलिक वेदांत-दर्शन’ प्रदान किया। मंदिरों, साधुओं, विशाल भक्त समुदायों, शास्त्रों, सांप्रदायिक व्यवस्था के लिए आचार्यों और सुव्यवस्थित रूप से प्रवाहित होती रहे ऐसी गुरुपरंपरा की स्थापना कर- मोनियर विलियम्स के शब्दों में - ‘शुद्ध वैष्णव धर्म का आदर्श स्वरुप’ प्रतिष्ठित किया। ४६ वर्ष की अल्पायु में ही ई.सं. १८३० के जून १ तारीख (वि.सं. १८८५ ज्येष्ठ शुक्ल १०) के दिन भौतिक देह का परित्याग कर स्वधाम सिधारे, उनके कार्यों की प्रशंसा करते हुए फांजवा मेलिसन लिखते हैं : “भारतीय हिन्दू परंपरा को जारी रखते हुए भी स्वामिनारायण संप्रदाय आधुनिक युग में नवीनतम हिन्दूधर्म का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करता है।"
२. नव्यविशिष्टाद्वैत
एक सेश्वर वेदांत-दर्शन, जिसके प्रवर्तक भगवान् श्रीस्वामिनारायणजी थे। उन्होंने अपने वेदांतदर्शन के लिए कोई विशेष नामाभिधान नहीं किया था। ‘श्री रामानुजाचार्य जी का विशिष्टाद्वैत मुझे प्रिय है’ ऐसा उन्होंने बताया है, किन्तु बहुत सारी बातों में रामानुज के विशिष्टाद्वैत से भिन्न होने के कारण, कालक्रमशः यह दर्शन ‘नव्यविशिष्टाद्वैत’ ‘ब्रह्म-परब्रह्मवाद’ नामों से विशेष रूप से प्रचलित हुआ।
-दर्शन-वैशिष्टय-तत्त्वपञ्चक, परमेश्वरवाद ही परब्रह्मवाद, एकेश्वरवाद, परब्रह्मपरमेश्वर वाद, साकार-सगुण तत्त्व, अक्षरब्रह्म का परब्रह्म से अतिरिक्त तत्त्व के रूप में निरूपण, केवल शरीर-शरीरी संबंध पर जोर, परमेश्वर का अक्षरब्रह्मस्वरूप सत्पुरुष द्वारा अविरत प्राकट्य, अक्षरब्रह्मरूप होकर परब्रह्म की निरंतर दासत्वभाव से भक्ति ही मोक्ष, मोक्षप्राप्ति के लिए परमेश्वर के निरंतर धारक प्रकट अक्षरब्रह्मस्वरूप सत्पुरुष का समागम तथा उन्हीं के संग में ऐकांतिकधर्म की सिद्धि प्राप्त करना खास विशेषताएँ हैं। यह वास्तववादी, बहुजीववादी, नीतिपरायण, उपासना-प्रधान-भक्तिमार्गी दर्शन है। यह शुद्ध वैष्णवसंप्रदाय है। इस दर्शन का सार है
वेदान्त-खण्ड “गुणातीतोऽक्षरब्रह्म भगवान् पुरुषोत्तमः। जनो जानत्रिदं सत्यं मुच्यते भवबंधनात् ।। निजात्मानं ब्रह्मरूपं देहत्रयविलक्षणम् ।
विभाव्य तेन कर्तव्या भक्तिः कृष्णस्य सर्वदा।।” उन्होंने रामानुजाचार्यप्रणीत विशिष्टाद्वैत का समर्थन किया, उसे प्रिय माना, परन्तु उसकी कमज़ोर कड़ियों को जोड़कर अपने सर्वोपरि पद और अनुभव पर आधारित मौलिक
और बुद्धिग्रास्य दार्शनिक विचारों को तर्कपूर्ण युक्तिवादों और शास्त्रप्रमाणों के आधार पर प्रतिपादित किया। उनका आकलन मंडनात्मक था क्योंकि अपने सिद्धान्त-निरूपण में उन्होंने कभी भी किसी का खंडन नहीं किया। उन्होंने स्वयं प्रस्थानत्रयी पर भाष्य नहीं लिखा। उन्होंने अपना धर्मदर्शन, वेदांत-सिद्धान्त एवं साधना-मार्ग-विवरण, लोकभाषा गुजराती में प्रमुख ग्रंथ ‘वचनामृत’ में प्रस्तुत किया है। हालांकि आचार- व्यवहार प्रायश्चित-विधिनिषेध भक्तिरीति-आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए नित्यपाठ का लघुप्रबंध, ‘शिक्षापत्री’, संस्कृत में दिया है। इसके अतिरिक्त संप्रदाय के साधुओं के लिए साधना और आत्मानुशासन संबंधी उपदेश ग्रंथ ‘वेदरहस्य’ में भी गहरा दार्शनिक प्रकाश डाला है।
स्वीकार्य सच्छास्त्र-स्वामिनारायणीय धर्मदर्शन, इस संप्रदाय द्वारा मान्य आठ सच्छास्त्रों पर आधारित है। ये शास्त्र है : (१) उपनिषदों सहित चार वेद, (२) व्यासजी रचित वेदान्तसूत्र, (३) श्रीमद्भगवद्गीता, (४) श्रीमद्भागवत, (५) महाभारत में अन्तर्निहित विष्णुसहस्रनाम, (६) तथा विदुरनीति, (७) मिताक्षराटीका समेत याज्ञवल्क्यस्मृति, (८) स्कंदपुराण के विष्णुखंड के अंतर्गत वासुदेवमाहात्म्य। (शिक्षापत्री८३ से ६५ वच्य वरताल-१८) शिक्षापत्री, श्लोक-२०० में श्रीमद्रामानुजाचार्यकृत श्रीभाष्य तथा गीताभाष्य को प्रिय अध्यात्मशास्त्र के रूप में माना है।
३. स्वामिनारायण-संप्रदाय एवं नव्यविशिष्टाद्वैत का साहित्य
वेदान्त-दर्शन का साहित्य इस धर्म-दर्शन की ग्रंथसंपदा बहुत ही समृद्ध है, किन्तु प्रकाशित ग्रंथों की संख्या सीमित है। दर्शन तथा संप्रदाय संबंधी आधारभूत विस्तृत जानकारी देने वाले ग्रंथ इस प्रकार
(१) श्रीस्वामिनारायण द्वारा उद्बोधित और प्रमाणित प्रमुख ग्रंथ ‘वचनामृत’ है, जिसका
संपादनकार्य गोपालानंद स्वामी, मुक्तानंद स्वामी, नित्यानंद स्वामी तथा शुकानंद स्वामी ने संयुक्तरूप से किया। मूलग्रंथ गुजराती गद्य में लिखा गया है जिसका संस्कृत अनुवाद शतानंद मुनि ने ‘श्रीहरिवाक्यसुधासिन्धु’ के नाम से किया है। इसे सरल, ललित संस्कृत पद्य में (अनुष्टुप् छंद में) लिखा गया है। यह कुल २६२ तरंगों (अर्थात् अध्यायों) में व्याप्त, लगभग दस हजार श्लोकों से युक्त है। इसमें
श्रीस्वामिनारायण-विशिष्टाद्वैतवाद
२७१ स्वामिनारायणी अध्यात्ममीमांसा, भक्ति-मीमांसा, ज्ञान-मीमांसा, धर्म-मीमांसा, मोक्ष-मीमांसा
और साथना मार्गदर्शन की ब्योरेवार विवेचना है। इस आधारस्तंभ रूप ग्रंथ पर ‘सेतुमाला’ नामक टीका श्री रघुवीराचार्यजी ने लिखी है तथा एक और विस्तृत भाष्य
‘ब्रह्मरसायणभाष्यम्’ के नाम से श्री कृष्णवल्लभाचार्यजी द्वारा लिखा गया है। (२) श्रीस्वामिनारायणजी द्वारा लिखित ‘शिक्षापत्री’ श्लोकयुक्त अनुष्टुप्छंदबद्ध, नित्यपाठहेतु
लघुबंध है। यह व्यक्तिगत तथा सामाजिक नीति-नियम, सांप्रदायिक, विधि-विधान, नित्यकर्म, सामान्य और विशेष धर्म तथा भक्तिरीति और सांप्रदायिक दर्शन की बुनियादी जानकारी प्रदान करने वाला ग्रंथ है। यह ग्रंथ विशेष रूप से नीति-धर्म, आचार, व्यवहार, प्रायश्चित और भक्ति पर जोर देने वाला श्रुति-स्मृति का दोहनरूप लघु-प्रबंध है। गीर्वाणभाषा संस्कृत में लिखा हुआ होने के बावजूद अति सरल और सुबोध है। प्रेयस् और श्रेयस् की सिद्धि और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों की सिद्धि के बारे में सुस्पष्ट मार्ग-दर्शन इस ग्रंथ में प्राप्त होता है। तभी श्री स्वामिनारायण लिखते हैं :
“शिक्षापत्र्याः प्रतिदिनं पाठोऽस्यामदुपाश्रितैः। कर्तव्योऽनक्षरज्ञैस्तु श्रवणं कार्यमादरात् ।।”
शिक्षापत्री - २०६
इस ‘शिक्षापत्री’ पर श्री शतानंदजी मुनि ने अर्थदीपिका’ नामक एक वृहद्भाष्य लिखा है। तदुपरांत श्री रघुवीराचार्यजी ने भी भाष्य और टीका लिखी है, उसी प्रकार श्री कृष्णवल्लभाचार्य जी ने ‘किरणावली लिखी है। संक्षेप में, ‘वचनामृत’ और ‘शिक्षापत्री’ दोनों चूँकि स्वयं श्रीस्वामिनारायण के वचन
हैं, इसलिए उन्हें मूलभूत ग्रंथों के रूप में प्रथम स्थान दिया जाता है। (३) श्रीमद्बादरायण-वेदव्यासरचित वेदांतसूत्रों (ब्रह्मसूत्र) पर ‘ब्रह्ममीमांसा’ नामक भाष्य
श्री मुक्तानंद स्वामी ने लिखा है। उस भाष्य पर विशेष प्रकाश डालती है ‘ब्रह्मसूत्रार्थप्रदीप’
नामक प्रदीपिका जिसे श्री गोपालानंद स्वामी ने लिखा है। (४) श्री गोपालानंद ने ‘ईशादि दशोपनिषदभाष्यम’ तथा ‘श्रीमदभगवदगीताभाष्यम’ भी
लिखे हैं। ये भाष्य बहुत ही गहन, व्यापक एवं विद्वत्तापूर्ण हैं। तदुपरांत ‘श्रीमद् भागवतम्’ के द्वितीय, दशम और एकादश स्कंध पर ‘भक्त मनोरंजनी’ नामक उनकी तात्पर्यदर्शक टीका है। श्रीमद्भागवत’ के अंतर्गत ‘वेदस्तुतिगद्य’ पर भी विस्तृत भाष्य श्रीगोपालानंद ने लिखा है। इन मुख्य ग्रंथों के अतिरिक्त ‘श्रीहरिस्वरूपनिर्णय’ ‘श्रीभक्तिसिद्धि’ तथा ‘विवेकदीप’ ये गोपालानंद लिखित मुख्य प्रकीर्ण ग्रंथ हैं। संक्षेप में, वेदान्त की आधारशिलारूप प्रस्थानत्रयी तथा श्रीमद्भागवत पर गोपालानंद स्वामी ने अकेले ही भाष्य लिखे हैं। वे स्वामिनारायण वेदान्त के महान् आचार्य थे।
२७२
वेदान्त-खण्ड
(५) सांप्रदायिक और दार्शनिक बातों में सर्वज्ञान संग्रह, जैसे दो ग्रंथों में ‘सत्संगीजीवनम्
को मूलभूत प्रथम स्थान प्राप्त है। इस महान् ग्रंथ के रचयिता श्री शतानंद मुनि हैं। कुल पाँच प्रकरण (खंडों), ३१६ अध्याय और १७५२७ श्लोकों में यह महाप्रबंध भगवान् श्री स्वामिनारायण की उपस्थिति में, उनकी अनुमति और निगरानी में रचा गया है। इस महान् ग्रंथ पर श्री शुकानंद मुनि ने हेतु’ नामक टीका, बिहारीलाल आचार्य ने ‘भावबोधिनी’ नामक टीका तथा पंडितराज श्रीकृष्णमाचार्य ने ‘भवप्रदीपिका’ नामक टीका लिखी है। ‘सत्संगीजीवनम्’ के प्रथम प्रकरण में भगवान् स्वामिनारायण के प्राकट्य के हेतु तथा उनके प्रारंभिक जीवन का चरित्र है। दूसरे प्रकरण में भगवान स्वामिनारायण के मध्यजीवन का चरित्र तथा धर्म का स्वरूप निरूपित है। तीसरे प्रकरण में धर्मसिद्धि और अध्यात्मसिद्धि के उपाय, आचार, व्यवहार और प्रायश्चित्त के नियम और विधियाँ तथा जीव, ईश्वर, माया-प्रकृति, ब्रह्म और परब्रह्म के स्वरूप, उसी प्रकार बंधन और मोक्ष के स्वरूप और साधना-विचार का विवरण दिया गया है। उसी प्रकार भगवान् का अवतारकार्य, उत्पत्तिसर्ग की मीमांसा और भगवान् के परमधाम अक्षरधाम का वर्णन किया गया है। संक्षेप में, तीसरे प्रकरण में स्वामिनारायणी वेदान्त के अध्यात्म-दर्शन तथा सांप्रदायिक विशिष्टताओं की जानकारी देने के लिए बहुत उपयोगी सामग्री उपलब्ध करायी गई है और साथ ही गुरुतुल्य ऐकांतिक साध की महिमा कही गयी है। चौथे प्रकरण में पाञ्चरान आगमों तथा पुष्टिमार्गीय वैष्णव-परंपरा के समान व्रतोत्सवों का स्वरूप, रीति और फलविचार, शास्त्रों का श्रवण और भागवत का श्रेष्ठत्व, उन्हें मान्य आठ सच्छास्त्रों की महिमा तथा भगवान् के असंख्य अवतारों के संबंध में विस्तृत वर्णन है। पांचवाँ खण्ड इस महान् ग्रंथ का अंतिम खंड है। उसमें श्रुति-स्मृति-पुराणों के आधार पर धर्म के स्वरूप का विस्तार से वर्णन है। सामान्य धर्म, विशेष धर्म,, आनिक कर्म, देवार्चन-विधि तथा गृहस्थ,
साधु और आचार्य के धर्मों का सूक्ष्म विवरण है।। (६) ऐसा ही दूसरा विशाल अनुपम ग्रंथ है- ‘श्री हरिलीलाकल्पतरु’। यह ग्रंथ श्रीमद्
अचिन्त्यानंद ब्रह्मचारी ने लिखा है। इस ग्रंथ का हेतु “श्री स्वामिनारायणस्तु सर्वावतारी परब्रह्म भगवान् स्वयम्” प्रस्थापित करना है। बारह स्कंध और तैंतीस हजार श्लोकों में व्यापक यह ग्रंथ श्रीमद्भागवत की भाषा, शैली, और सर्वांगीणता को अनुसरण कर रचित है। मुख्यरूप से श्रीस्वामिनारायण भगवान् और उनके भक्तों के चरित्र का आलेखन करता यह ग्रंथ सांप्रदायिक दृष्टि से आवश्यक जानकारियों से समृद्ध है। दूसरे स्कंध के अध्याय २६ से ३२ में विस्तारपूर्वक अद्वैतमत का खंडन, शास्त्रों के आधार पर तर्कपूर्ण युक्ति से किया है तथा तीसरे स्कंध के अध्याय १५ से १७ में भगवान् स्वामिनारायण के अभिप्नेत ‘योग’ की विशद चर्चा की गई है। ये दोनों बातें ‘श्री हरिलीलाकल्पतरु’ ग्रंथ की विशेषता कही जा सकती हैं। अचिन्त्यानन्द ब्रहाचारी ने हरिसम्भवमहाकाव्य तथा लगभग ५० अन्य ग्रंथ संस्कृत में लिखे हैं।
श्रीस्वामिनारायण-विशिष्टाद्वैतवाद
२७३ (७) श्रीचैतन्यानंद मुनिरचित ’ श्री ज्ञानविलास’ ग्रंथ सांप्रदायिक और दार्शनिक जानकारी
की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सरल भाषा में सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना इस ग्रंथ की
विशेषता है। (८) प्रस्थानत्रयी पर आधारित प्रस्थानत्रयी की पुष्टि करे ऐसे, शांडिल्यसूत्रों पर श्री
नित्यानंद मुनिकृत ‘शांडिल्यसूत्रभाष्य’ महत्त्वपूर्ण प्रमाणभूत ग्रंथ है। ऐकांतिकी पराभक्ति
की महिमा इस ग्रंथ में अच्छी तरह निरूपित की गयी है। श्रीनित्यानंद मुनिकत ‘श्रीहरिदिग्विजय’ ग्रंथ चरित्रात्मक होने के बावजूद अद्वैत-खंडन
तथा सांप्रदायिक दर्शन को समझने में सहायक है। (e) श्री वासुदेवानंद ब्रह्मचारी रचित ‘सत्संगिभूषणम्’ ग्रंथ संप्रदाय के भक्तिशास्त्र के रूप
में प्रचलित है। इस ग्रंथ के प्रथम अंश के अध्याय ३६ से ३७ तक दार्शनिक परिपाटी
का अच्छी तरह से प्रस्तुतीकरण किया गया है। (१०) स्वामिनारायण संप्रदाय में बीसवीं सदी में प्रकांड विद्वान् श्रीकृष्णवल्लभाचार्यजी हुए।
उन्होंने विपुल संस्कृत-साहित्य रचा है। लगभग प्रत्येक दर्शन पर किरणावली नामक टीका रची है। परन्तु उनका विशिष्ट प्रदेय संप्रदाय के दर्शन-साहित्य अर्थात् तत्त्वज्ञान से संबंधित है। श्रीकृष्णवल्लभाचार्यजी रचित ‘ब्रह्मरसायणभाष्य’; ‘श्रुतितात्पर्यनिर्णय’, ‘श्रीस्वामिनारायणदर्शनम्’, ‘श्री स्वामिनारायणवेदान्तसार’ तथा ‘तत्त्वप्रभावली’ मुख्य हैं। श्वेतायन व्यास के नाम से उन्होंने १,२६,००० श्लोकों में लक्ष्मीनारायण-संहिता लिखी है। ये सभी ग्रन्थ संप्रदाय और उसके तत्त्वज्ञान को समझने के लिए अति आवश्यक हैं। सम्प्रति स्वामिनारायण सम्प्रदाय की दो प्रमुख शाखाएं हैं- आचार्य शाखा तथा संत शाखा । दूसरी शाखा अक्षरपुरुषोत्तमसंस्था के नाम से प्रसिद्ध है। इस शाखा में हर्षदभाई त्रि, दवे नामक एक विशिष्ट विद्वान् हुए हैं जिन्होंने अंग्रेजी में स्वामिनारायण के जीवन तथा दर्शन पर एक ग्रन्थ लिखा है। इस संस्था ने अंग्रेजी तथा गुजराती में अनेक ग्रन्थों तथा लेखों को प्रकाशित किया है और अनेक दार्शनिकों को स्वामिनारायण वेदान्त पर लेख लिखवाये हैं।
४. ज्ञान
ज्ञान स्वयंप्रकाश, नित्य, विभु, अचेतन द्रव्यविषयी पदार्थ है। ज्ञान प्रकृति के त्रिगुण से परे है। ज्ञान ही प्रकाश है तथा मोक्ष का कारण है। ज्ञान सत् स्वरूप है। सद्-असद् अर्थात् आत्मा-अनात्मा का विवेक तथा जीव, ईश्वर, माया, प्रकृति, अक्षरब्रह्म और परब्रह्म (सदा साकार परमेश्वर) के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान ही परा विद्या है। यह ज्ञान इंद्रिय-अंतःकरण, जीवसत्ता तदाश्रित ज्ञान है। ज्ञान की उत्पत्ति माने ज्ञान का विकास और ज्ञान का नाश माने ज्ञान का संकोच।
प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द- ये तीन प्रमाण स्वीकार्य हैं। लौकिक विषयों में
२७४
वेदान्त-खण्ड विश्वसनीय व्यक्ति का शब्द, प्रमाण है, जबकि पारलौकिक-आध्यात्मिक विषयों में व्यासजी रचित शास्त्र, भगवान् की परावाणी एवं श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ संतपुरुष के वचन- ये सर्वोपरि प्रमाण हैं। जाग्रत अवस्था में होता जगत्-विषयक ज्ञान अपरा विद्या है। ।
शास्त्रप्नमाण अर्थात् शब्दप्रमाण के आविष्कार और अनुसरण में विवेक बताते हुए श्री स्वामिनारायण कहते हैं : ‘‘व्यासजी स्वयं भगवान् हैं - हमें व्यासजी के वचनों का ही अनुसरण करना चाहिए" (वच. वरताल-१८) तथा जिन शास्त्रों में भगवान् के स्वरूप का ज्ञान, साकार स्वरूप की महिमा, भक्ति, वैराग्य और धर्म की अति उत्कृष्टता कथित हो उन्हीं शास्त्रों और उन शास्त्रों के वचनों को प्रधानतः स्वीकार करना चाहिए। जिसको भगवान् के सम्बन्ध में उनकी सदा साकार स्वरूप की महिमा के सहित निश्चय नहीं है, उसके मुख से गीता-भागवत जैसे सद्ग्रंथों का श्रवण करने पर भी किसी का कल्याण नहीं होता। -माहात्म्यसहित भगवान् संबंधी निश्चय से रहित व्यक्ति के मुख से गीता-भागवत सुनने से किसी का कल्याण नहीं होता। इसीलिए परम भागवत व्यासजी के अतिरिक्त अन्य किसी का प्रमाण स्वीकार्य नहीं है।
“व्यासादन्यो न कोऽप्यस्ति महानाचार्य उत्तमः। अतस्तद्वाक्यतो नान्याचार्यवाक्यं प्रमाणकम् (प्रमापकम्)।। २०।।”
न - ह.वा.सु.सि. २३३।१० जो अनुभूति-प्रतीति नितांत विशुद्ध, निश्चित एवं शास्त्र-प्रमाणित है, वह अवश्यमेव सत्य है तथा सर्वथा स्वीकार्य है। इस बात को दोहराते वे कहते हैं : “यह बात जो हम कह रहे हैं वह वेद, शास्त्र, पुराण आदि जो-जो कल्याण के अर्थ पृथ्वी में शब्दमात्र हैं, उन सबका श्रवण कर और उनका सार निकाल कर कह रहे हैं। वह परम रहस्य है और सार का भी सार है। -यह तो हमारे द्वारा आजमाई हुई बात है। - यह हमने प्रत्यक्ष देखकर कहा है। इसमें कोई संदेह नहीं। - यह सभी शास्त्रों का सिद्धान्त है और अनुभव में भी वैसा ही है।” (वचः ग.म. २८, ग. अं. ३६, ६४, ग. म. २३)
५. तत्त्वपंचक
स्वामिनारायणीय ‘नव्यविशिष्टाद्वैत’ वेदांत-दर्शन “तत्त्वपंचक’ अर्थात् पाँच अनादि तत्त्वों को अपनी अध्यात्ममीमांसा में स्वीकार करता है।
“जीवेशब्रह्मकृष्णानां मायायाश्चापि वास्तवः। अस्त्यनादिरयं भेदे, इति जानीहि निश्चितम् ।। १७ ।।”
- ह.वा.सु.सि. ६१७
श्रीस्वामिनारायण-विशिष्टाद्वैतवाद “जीवा ईशा ब्रह्म माया परमेश्वर इत्यमी। अनादयो भवन्त्येव पंच चापि न संशयः || २E ||”
- ह. वा.सु.सि. २३३ २६ अर्थात् जीव, ईश्वर, माया, ब्रह्म (अक्षर) और परब्रह्म-परमेश्वर (हरिकृष्ण-नारायण) इन पाँचों के बीच भेद अनादि है, पाँचों तत्त्व वास्तविक हैं। इनमें कोई संशय नहीं।
६. जीव
हृत्स्थोऽणुसूक्ष्मश्चिद्रूपो ज्ञाता व्याप्याखिलां तनुम् । ज्ञानशक्त्या स्थितो जीवो, ज्ञेयोऽच्छेदिलक्षणः।।
- (शिक्षा-१०५) जीव परमाणु की भाँति अति सूक्ष्म है, चैतन्यस्वरूप है, ज्ञाता है, अपनी ज्ञातृत्व शक्ति द्वारा समग्र देह में नख से शिखा तक व्याप्त ही रहता है। अछेद्य-अभेद्य, अजर, अमर, अविनाशी इत्यादि लक्षणयुक्त है। जीव चेतन द्रव्य है जो अपने ज्ञानरूपी प्रकाश द्वारा सब कुछ जानता है, ग्रहण करता है। देह-इन्द्रिय-अंतःकरणादि से जीव भिन्न है, उनका अधिष्ठाता है। खंड के अर्थ में, जीव, परमेश्वर का अंश नहीं । जीव असंख्य है, एक दूसरे से भिन्न है।
ज्ञातृत्वशक्ति द्वारा जीवात्मा समग्र देह में व्यापक होने के कारण ज्ञानप्रक्रिया में जिन-जिन पदार्थों को इन्द्रियों-अंतःकरण द्वारा ग्रहण करता है, उनका ज्ञान होता है, तथा कोई नूतन (जाना) ज्ञान प्राप्त हुआ-उसका भी ज्ञान होता है, और जिसने जाना अर्थात् जानने वाला जीवात्मा है उसका भी ज्ञान होता है। मतलब कि, धर्मभूतज्ञान चैतन्यरूप जीवात्मा का अपृथसिद्ध लक्षण है। जीव ज्ञानस्वरूप है तथा ज्ञाता है, अर्थात् ज्ञान का * आश्रय भी जीव ही है।
जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति-जीव की ये तीन अवस्थाएँ हैं। जीव, ज्ञाता, कर्ता एवं भोक्ता है, किन्तु उसकी ज्ञातृत्वशक्ति, कर्तृत्वशक्ति एवं भोक्तृत्वशक्ति परमेश्वर के अधीन है। जीव पराधीन तथा स्वयमेव असमर्थ है। अनादिकाल से अपने ही अविद्याकर्म से प्रत्येक जीव बद्ध है। अच्छे-बुरे कर्म कर स्वयं ही अपना प्रारब्ध गढ़ता है।
फिर भी परमेश्वर-दत्त संकल्प-स्वातंत्र्य की वहज से जीवात्मा प्रारब्ध कर्म की सीमाओं के अंतर्गत मनपसंद कर्मों को यथेच्छ कर सकता है तथा अपने बंधन को बढ़ाता
या कम करता है। परमेश्वर जीवों का कर्मफलदाता है। जीवों में अंतर्यामी/साक्षी रूप में - व्याप्त हो परमात्मा सदा अवस्थित है।
RUE
वेदान्त-खण्ड
७. ईश्वर
ईश्वर चैतन्यधर्मी भिन्न तत्त्व है। ईश्वर की चैतन्यधर्मिता जीव से अधिक है। ईश्वर असंख्य है, एक-दूसरे से भिन्न है। जीव और ईश्वर के बीच खद्योत-नक्षत्र जितनी भिन्नता है। चेतनत्व, धर्मभूतज्ञान और सर्वज्ञता ईश्वर के लक्षण हैं। ईश्वर की सत्ता और ज्ञानशक्ति जीव से बहुत अधिक बढ़कर है। ईश्वर महामाया से बद्ध है। विराट्, सूत्रात्मा तथा अव्याकृत - ये तीनों ईश्वर के शरीर हैं और ईश्वर उनका शरीरी है। उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय- ये तीनों ईश्वर की अवस्थाएँ हैं। प्रलयकाल में ईश्वर भी जीव की भाँति मूलप्रकृति में लीन हो जाते हैं। ईश्वर की आयु-मर्यादा जीव की अपेक्षा अत्यधिक लंबी और विस्तृत है। ईश्वर की कार्यशक्ति और ज्ञातृत्वशक्ति अपने देह के अतिरिक्त जिस ब्रह्माण्ड का कार्य उसे सौंपा गया है उस ब्रह्माण्ड में व्यापक रूप से सीमित है। ईश्वरों को भी परमपद-मोक्ष की आवश्यकता रहती है। ईश्वर भी परब्रह्म परमेश्वर के अधीन है। उनमें भी अंतर्यामी व्यापक रूप से परमेश्वर अवस्थित रहते हैं। महाविष्णु, महावैराज, विराट्, ब्रह्मा, सरस्वती, विष्णु, लक्ष्मी, महेश, पार्वती, सूर्य, चंद्र, अग्नि, वरुण इत्यादि सभी देवी-देवताओं का ईश्वरकोटि में समावेश होता है।
८. माया-प्रकृति
माया शब्द से त्रिगुणात्मिका प्रकृति का व्यपदेश किया गया है। किन्तु सांख्य की तरह प्रकृति को स्वतंत्र नहीं माना गया। सत्त्व, रजस्, तमस् से युक्त होने के कारण उसे त्रिगुणात्मिका कहा गया है। माया तमोरूपा अर्थात् अंधकाररूपा है। जड़चिदात्मक है, नित्य है, निर्विशेष है, परिवर्तन-परिणामक्षम्य है। अनात्मा अर्थात् देह-गेहादि संबंधित पदार्थों में अहं-ममत्व की जननी है। माया भी परब्रह्म-परमेश्वर के अधीन है, नियम्य है और उनसे व्याप्य है। माया एवं मायानिर्मित पदार्थों में अंतर्यामी रूप से परमेश्वर अवस्थित है। माया-प्रकृति परब्रह्म की कार्योपयोगी, परब्रह्म पर सदा अवलंबित शक्ति है। माया अचेतन है, विभु है, महतत्त्वादि चौबीस तत्त्वों की जननी है। चेतन जीव-ईश्वरों को जड़-संज्ञा दिलाने की शक्ति माया में निहित है। जीव-ईश्वरों के बंधन का कारण है, क्षेत्र है।
माया की सत्ता परब्रह्म-परमेश्वर, परमेश्वर के अवतारों, अक्षरब्रह्म, अक्षरमुक्तों तथा ब्रह्मस्वरूप संत पर नहीं चलती । ये सभी दिव्य, निर्दोष और माया से निर्लिप्त हैं। अविद्यामय अंधकार जैसे प्रलयकाल में माया-प्रकृति के गर्भ में सभी जीवेश्वर जड़तुल्य हो लीन (बीजरूप) रहते हैं। इसी वजह से माया को जड़चिदात्मिका कहा है। माया ही जीवेश्वरों के लिए अविद्या-कर्म, अज्ञान, बंधन, ममत्वादि का कारण है। (सत्संगी जीवनम् २२।६)
मा महामाया अर्थात् मूलप्रकृति उत्पत्तिरहित है, नित्य है। जबकि माया के कार्यरूप जो महत्तत्त्वादि चौबीस तत्त्व हैं वे अनित्य हैं, नाशवंत हैं। जगत् सत्य है। जगत् काल्पनिक आभास नहीं, परन्तु नाशवान् है, दुःख और बंधन का कारक है। स्वामिनारायणीय वेदांत यथार्थवादी (वास्तववादी) है।
२७७
श्रीस्वामिनारायण-विशिष्टाद्वैतवाद
९. जगदुत्पत्ति
उत्पत्ति के समय परब्रह्मा-पुरुषोत्तम संकल्प कर अक्षरब्रह्म सन्मुख दृष्टि करता है, तब परब्रह्म की इच्छा और अक्षरब्रह्म की प्रेरणा से एक अक्षरमुक्त (अक्षरपुरुष) सृष्टिरूप सेवा करने के लिए उद्यत होता है, उस समय पुरुषोत्तम अक्षरब्रह्म में प्रवेश कर, उसके द्वारा अक्षरमुक्त (अक्षरपुरुष) में प्रवेश करता है। यों परब्रह्म, पुरुषरूप होकर पुरुष द्वारा मूलप्रकृति (महामाया) में अपनी शक्ति को प्रेरित करता है। माया के तीन गुणों की साम्यावस्था विचलित होती है। इसी प्रकार मूलपुरुष (अक्षरात्मक पुरुष-अक्षरमुक्त) और प्रकृति (मूलप्रकृति) के सान्निध्यमात्र से और प्रेरकशक्ति से असंख्य ‘प्रधान + पुरुष’ के जोड़े असंख्य ब्रह्माण्डों के सर्जन के लिए उत्पन्न होते हैं। ‘उत्पद्यन्ते झण्डसमूहाश्च सहेशास्तस्याः ।’ (सतसंगी जीवनम् १।१२।३२ वच. ग.प्र. १२) (यहाँ प्रधान = निम्न प्रकृति, और ‘पुरुष’ = ईश्वर)। प्रत्येक ‘प्रधान-पुरुष के जोड़े में से देवलोक, दैत्यलोक और स्थावर-जंगम सृष्टियुक्त मनुष्यलोक का चौबीस तत्त्वों से बना एक-एक ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है। (वच. ग.प्र. १२ और ग.अं. १२) श्रीस्वामिनारायण का अभिप्रेत कार्यकारण सिद्धांत है - ‘परब्रह्म प्रशासित प्रकृति-परिणामबाद’। यह सिद्धान्त सत्कार्यवादपरक है। अतिशय करुणायुक्त कृपाप्रसाद से प्रेरित हो, कल्याणकारी हेतु से परब्रह्म जगत् की सृष्टि करता है। अनादिकाल
से मायाबद्ध जीवों की मायाकृत उपाधियों से मुक्ति हो, जन्म-मरण से निवृत्ति प्राप्त हो- इस । शुभ हेतु से परमेश्वर-परब्रह्म जगत् की सृष्टि करता है। उसी प्रकार, जब नाना-प्रकार की संसृति से जीव थक जाते हैं तब उनकी विश्रांति के लिए प्रलय करता है। (वच. कारीयाणी-१) अतः जगत् सत्य है, वास्तविक है, किन्तु परिवर्तनशील एवं नाशवंत है।
१०. अक्षरब्रह्म
‘अक्षर’, ‘ब्रह्म’, ‘अक्षरब्रह्म शब्दों को पर्यायवाची रूप में श्रीस्वामिनारायण ने प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार ‘अक्षरब्रह्म’ परब्रह्म तत्त्व से निम्न, निराला तत्त्व है। परब्रह्म-पुरुषोत्तम परम आध्यात्मिक तत्त्व है, जबकि अक्षरब्रह्म उनके पश्चात् का, उनसे भिन्न परन्तु अक्षरमुक्त, माया (प्रकृति-जगत), ईश्वर और जीवों से परे और उनका आधाररूप भिन्न आध्यात्मिक तत्त्व है। परब्रह्म, क्षर और अक्षर से परे हैं, क्षर और अक्षर की आत्मा है और शरीरी हैं।
अक्षरब्रह्म भी एक और अद्वितीय है। अक्षरब्रह्म की परिभाषा इस प्रकार है -
“सत्यं ज्ञानमनन्तं च पूर्ण चाखण्डमक्षरम् । धाम यद्वासुदेवस्य मूर्त चामूर्तमुच्यते ।। शुद्धं नित्यं चाविकारि मायादीनां प्रकाशकम् । तद्ब्रह्मेति विजानीहि, सर्वाधारतया मतम्”।।
(सत्संगी जीवनम्-२।५१।३२-३३)२७८
वेदान्त-खण्ड अस्तु, अक्षरब्रहा एक और अद्वितीय होते हुए भी मूर्तिमान् तथा अमूर्तरूप से कार्यकारी है।
मूर्तिमान् अक्षरब्रह्म केवल भगवान् पुरुषोत्तम की नित्यसेवा में रहता है। अक्षरब्रह्म के सदा साकार स्वरूप का निरूपण करते हुए हरिवाक्यसुधासिंधु की सेतुमाला टीका में आचार्य रघुवीरप्रसाद जी लिखते हैं -
“तदक्षरं कृष्णस्य सेवकत्वाद् मुख्यपरिचारकत्वात् हेतोः दिव्यैरतिमनोहरैः पाणिपादमुखादिभिः अवयवैः प्रतीकैः उपलक्षितत्वात् साकृतिः पुरुषाकारमुच्यते।”
(६३४८) वह अक्षर, परब्रह्म हरिकृष्ण का सदा मुख्य परिचारक अर्थात् प्रमुख सेवक-उत्तम भक्त होते, होने के कारण तथा दिव्य अति मनोहर हाथ, पैर, मुख इत्यादि अवयवों से संपन्न होने के कारण पुरुष (अर्थात् पुरुषोत्तम) समाकार है। सीत “यद् ब्रह्ममूर्त भगवत्सेवायां पुरुषरूपेण स्थितत्वात् मूर्तिमत् ।”
– (हेतु १५।१।३२) मूर्तिरूप में अक्षरब्रह्म परमात्मा समाकार है। द्विभुज और दिव्यविग्रह है। सत्-चिद्-आनंद लक्षण युक्त है। सदा साकार है, अमायिक है, त्रिगुणातीत है, प्राकृतदोषों से रहित एवं कल्याणकारी गुण-ऐश्वयों से युक्त है। परब्रह्म की नित्यसेवा में अतिशय-निकटतम, उत्तम सेवक-भक्त के रूप में समीप रहता है। यह अक्षरब्रह्म परब्रह्म के साथ दासभावयुक्त नित्य परम स्नेहैक्य संबंध से जुड़े हुए हैं। अक्षरब्रह्म की कल्पना परब्रह्म के अतिरिक्त या परब्रह्म से दूरस्थ कभी नहीं जा सकती।
वही अक्षरब्रह्म अपने दूसरे रूप से परमधाम बनकर परब्रह्म-पुरुषोत्तम का नित्य निवास स्थान है।
“तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम् । हरेर्धाम परं साक्षात् पुरुषस्य महात्मनः।।”
“योऽस्याध्यक्षः परमेव्योमन ते देव तद् भव्यम् । इदं तदक्षरं परमे व्योमन्।
अमूर्तनिरवयवधामरूपेण मूर्तिवर्जितम्।”
(हेतु-१५।१।३२)
RUE
श्रीस्वामिनारायण-विशिष्टाद्वैतवाद अक्षरधाम मुक्ति का स्थान है। अक्षरब्रह्म का यह अमूर्त स्वरूप निराकृति एकरस चैतन्यमय है। वह सच्चिदानंद है। शास्त्रों में उसे ब्रह्मधाम, ब्रह्मपुर, चिदाकाश, परमधाम, अक्षरधाम इत्यादि नामों से वर्णित किया गया है। इस ब्रह्मधाम को सबसे परे बताया गया है। “यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।” (गीता-१५६)। ब्रह्मधाम अथो, ऊर्ध्व और सर्वत्र प्रमाण-परिमाणरहित, अति विशाल, सर्वत्र व्यापक, चैतन्यमय सर्वदिशिविस्तरित तेज का समूह के रूप में शास्त्रों में निरूपित है। “तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।” (कठ. उप-२-२-१५) अतः अक्षरधाम नित्य, सनातन अविकारी, अप्राकृत, अनादि, अनंत तथा ज्योतिःस्वरूप है। इस धामरूप अक्षर में अनंतकोटि मुक्तों से सेवित परब्रहा-परमात्मा नित्य निवास करते हैं। (सेतु. त. ५६५) अनंतकोटि सूर्य-चंद्रों से अत्यधिक शीतल शांत प्रकाशमान यह धाम है। यह माया से परे त्रिगुणातीत चैतन्य भूमिका है।
सगुण और निर्गुण संज्ञाएं अक्षरब्रह्म पर विशिष्ट अर्थ में लागू होती हैं। अक्षरब्रह्म निर्गुणत्व में अतिसूक्ष्म है और एक परमेश्वर के सिवाय सर्व में व्याप्त है। माया और माया-प्रकृति के कार्यरूप अनंतकोटि ब्रह्मांडों में अन्वयत्व से सर्वत्र बाह्यांतर व्यापक है और कारणरूप में अनंतकोटि ब्रह्मांडों का आधार है। जबकि सगुण रूप में वह (एक परमेश्वर के अतिरिक्त) बड़े से बड़े पदार्थ से भी अति विशाल है। इस प्रकार सदा संकोच-विकास रहित सर्वत्र बाह्यांतर व्यापक चिदाकाश के रूप में अक्षरब्रह्म ही है। अतः वह कूठस्थ है, सदा ध्रुव है, अचल है, सर्वव्यापक, अंतर्यामी भी है।
जब परब्रह्म परमात्मा इस धरा पर अवतरण करते हैं तब अपने साथ मूर्तिमंत अक्षरब्रह्म को भी अवश्य लाते हैं। (वच. ग.प्र. ७१) और परमात्मा अंतर्धान होने के पश्चात् अपना प्राकट्य अक्षरब्रह्म में सांगोपांग रहकर जारी रखते हैं। अतः अक्षरब्रह्म अनादि गुरु है और वह परम ऐकांतिक संत के रूप में इस पृथ्वी पर सदा प्रकट रहता है। ऐसे अक्षरब्रह्मस्वरूप सत्पुरुष में दृढ़ प्रीति ही आत्मदर्शन का साधन है और परमेश्वर का साक्षात् दर्शन होने (पाने) का भी यही साधन है (वच. वर-११)। इसीलिए कहा गया है
“यस्य देवे पराभक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्याः प्रकाशन्ते महात्मनः।। "
(श्वेत.उप-६-२३) इस बात को दोहराते भगवान् स्वामिनारायण कहते हैं : जो मुमुक्षु भगवान् तथा अक्षरब्रह्मस्वरूप उत्तम लक्षणवाले सन्त की प्रगाढ़ प्रेमपूर्वक एक समान सेवा करता है वह एक सौ जन्मों के बाद प्राप्त होने वाला उत्तम भक्त तुल्य सादृश्य इसी जन्म में पाता है, तथा परमपद अर्थात् मोक्ष इसी जन्म में प्राप्त करता है। अतः परब्रह्म सेतुतुल्य है और
२८०
वेदान्त-खण्ड अक्षरधाम संसार-सागर के उस पार अभय तट है। (“यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत् परम् । अभयं तितीर्षतां पारम् ११”) कठ.उप. १-३-२)।
११. परब्रह्म-पुरुषोत्तम
“उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।”
(गीता १५।१७)
“नारायणो वासुदेवः स्वतंत्रः स्वप्रकाशकः। आनन्ददिव्यमूर्तिश्च विष्णुः कृष्णोऽच्युतोऽव्ययः।। सर्वज्ञः सत्यसंकल्पः सर्वकर्मफलप्रदः।
अन्तर्यामी सर्वशक्तिसेवितः परमेश्वरः।।”
(स.जी. २५१३४३५)
“ईश्वराणां च जीवानां मायापुरुषयोस्तथा। अहं कालाक्षरादीनां स्वतंत्रोऽस्मि नियामकः।।”
(ह.ली.क. ५।८।२८) परब्रह्म सर्वोच्च आध्यात्मिक तत्त्व है। वह एक और अद्वितीय है। इस नारायण के समान तो एक नारायण स्वयं ही है (वच, लो-१३)। पुरुषोत्तम, वासुदेव, हरिकृष्ण तथा नारायण- इन नामों से परब्रह्म-परमात्मा का ही बोध होता है। वह एक ही सर्वोपरि सर्वतंत्रस्वतंत्र और सब कारणों के कारण हैं। परब्रह्म सदा साकार, सदा सगुण, सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, दिव्य और पूर्ण हैं। अनवधितिकातिशय अनंत कल्याणकारी गुणों से युक्त तथा सकल दिव्य ऐश्वर्य संपन्न हैं। सर्वदोषों और विकारों से रहित हैं और अमायिक हैं। त्रिगुणातीत हैं।
सर्वांतर्यामी, सबकी आत्मा, सर्वव्यापक, सर्वनियामक और स्वतंत्र-सर्वाधार परब्रह्म जीव, ईश्वर, माया, अक्षरमुक्त और अक्षरब्रह्म का शरीरी है। जबकि जीव, ईश्वर, माया-प्रकृति, अक्षरमुक्त और अक्षरब्रह्म-परब्रह्म का शरीर है। यहाँ शरीर-शरीरी संबंध को शब्दार्थ या वाच्यार्थ में न लेते हुए उसके सच्चे भावार्थ में समझना चाहिए। शरीर और शरीरी की व्याख्या भगवान् स्वामिनारायण इस प्रकार करते हैं- ‘शरीरत्व व्याप्यता, अधीनता, असमर्थता और परतंत्रता के कारण हैं। जबकि शरीरीत्व व्यापकत्व, आधारत्व, सर्वसामर्थ्य और स्वातंत्र्य के कारण हैं। इसके आधर पर वह कहते हैं “भगवान् का निर्गुण स्वरूप तो सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म तथा पृथ्वी आदि समस्त तत्त्वों, उनसे परे प्रधानपुरुष,
२८१
श्रीस्वामिनारायण-विशिष्टाद्वैतवाद उनसे परे शुद्ध पुरुष तथा प्रकृति और उनसे परे अक्षर की भी आत्मा (धारक, नियंता तथा शेषी रूप से) है। ये सब भगवान के शरीर हैं। जैसे देह की अपेक्षा जीव सूक्ष्म शुद्ध तथा अधिक प्रकाशमान है, वैसे ही भगवान इन सबसे अतिशय सूक्ष्म, अतिशय शुद्ध, अतिशय निर्लेप एवं अतिप्रकाशयुक्त हैं” (वच. कारी-८) “भगवान् तो अनंत ब्रह्माण्ड की आत्मा है, (तथा) जिस प्रकार क्षर (जीवेश्वरों) की आत्मा है, वैसे ही प्रकृति-पुरुष से परे जो अक्षरब्रह्म है उसकी भी आत्मा हैं” (वच. ग.म.१६ तथा ग.प्र.७२)। “भगवान् अपनी अतर्यामी शक्तिद्वारा आत्मा और अक्षर में व्यापक हैं। भगवान स्वतंत्र हैं जबकि आत्मा एवं अक्षर तो भगवान् के अधीन और परतन्त्र हैं। भगवान् अति समर्थ हैं जबकि आत्मा एवं अक्षर तो भगवान के समक्ष अत्यन्त असमर्थ हैं। इस प्रकार भगवान इन दोनों के शरीरी हैं, और ये दोनों भगवान् के शरीर हैं। ऐसे शरीरी पुरुषोत्तम भगवान् सदैव दिव्य मूर्तिमान हैं” (वच. ग.प्र. ६४)।
इस प्रकार यह एक स्वतंत्र-मौलिक वेदांत-दर्शन है जिसे हम ‘नव्यविशिष्टाद्वैत’ नाम से पहचानते हैं।
परब्रह्म सबका प्रेरक है। सर्वकर्ता है। अनंत कोटि ब्रह्माण्ड का राजाधिराज है। सर्वकारणों का कारण है। अति समर्थ है। कर्तुम् अकर्तुम् अन्यथाकतुं, समर्थ है। अपनी (ब्रह्मरूप) अंतर्यामी शक्ति से सभी में व्याप्त हैं। मूर्तिमान् होते हुए भी सबसे विलग हैं। इस भगवान् के अतिरिक्त अन्य कोई जगत् का कर्ता नहीं। भगवान्-सम होने में कोई समर्थ नहीं। अतः परब्रह्म-परमात्मा ‘एकमेवाद्वितीयम्’ है। अर्थात् सजातीय-विजातीय-स्वगत भेदों का निषेध नहीं है। प्रत्युत ‘एक’ से नामरूपयोग का निषेध है;, ‘एव’ से नैयायिक सूचित कार्य की पूर्वावस्था में असत्ता का निषेध है; और ‘अद्वितीयम्’ से परब्रह्म से अतिरिक्त पदार्थों में अनिमित्तान्तरत्व बताया है। श्रुति के ‘ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशानीशी’, ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया’ इत्यादि मंत्रों में जीवेश्वरों और परब्रह्म-परमात्मा का वास्तविक भेद सूचित है।
परमात्मा सर्वविकाररहित, त्रिगुणातीत, अमायिक हैं। माया-प्रकृति में यदि परमात्मा प्रवेश करें, तो उसे भी तत्कालावधि के लिए निर्गुण और ब्रह्मरूप (ब्रह्मात्मक) कर देते हैं, ऐसे शुद्ध, अविकारी, निर्लिप्त, असंगी और दिव्य परमात्मा हैं। भगवान् को अतिशय निर्दोष
और दिव्य समझने वाला मुमुक्षु चाहे कितना भी दोषयुक्त हो तो भी अतिशय निर्दोष हो जाता है, ऐसी भगवान् के स्वरूप की महिमा है। _भगवान की मूर्ति परम चैतन्य, सच्चिदानंद, सदा दिव्यविग्रह है। अति रूपवान है, अति तेजस्वी है। उनके एक-एक रोम में अनंत कोटि सूर्य-सा प्रकाश है, और कोटि कामदेव को लज्जित कर दे ऐसा परम सुन्दर भगवान् का स्वरूप है। ऐसे अति सुखरूप भगवान् हैं कि उनकी मूर्ति के सुख के आगे अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के सुख मात्र तुच्छ हो जाते हैं। यह सुख निर्गुण, अखंड, अपरिमित, अविनाशी है। इस प्रकार भगवान् की महिमा
२८२
वेदान्त-खण्ड अति अपार, नेति-नेति है। भगवान् मायिक करचरणादिक से रहित, परन्तु दिव्य करचरणादिक युक्त द्विभुज, द्विचरणयुक्त मनुष्याकृतिसम, परम सुन्दर मूर्ति हैं। सर्वान्तर्यामी और सर्वज्ञ भगवान् एककालावच्छिन्न सभी कुछ हस्तामलकवत् जानते हैं। केवल भगवान ही सर्वकर्मफल प्रदाता हैं और ऐकांतिक धर्म के प्रवर्तक हैं।
क्षर-अक्षर से विशिष्ट होने के कारण अनंतकोटि ब्रह्माण्डों का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण भगवान् है। अपने चिद-अचिद् शरीर द्वारा बहु होने में समर्थ है, सत्य संकल्प है। जगत् का उपादान कारण होने पर भी परब्रह्म में सविकारित्व की आपत्ति नहीं आती, क्योंकि जगत् उनके चिद्-अचिद्रूप विशेषणों का ही परिणाम है। जिस प्रकार ऊर्णनाभि स्वशरीररूप विशेषणों के द्वारा तन्तुजालरूपी कार्य का उपादान कारण बन कर भी स्वरूप से अविकृत रहता है, उसी प्रकार परमात्मा इस जगत् का उपादान कारण होते हुए भी अविकृत है। विकाराश्रयत्व केवल उनके विशेषण में है। यह बात श्रुति के ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते’ इत्यादि वाक्यों तथा वेदव्यासकृत ‘जन्माद्यस्य यतः’ सूत्रों पर गोपालानंदस्वामी और मुक्तानंदस्वामीकृत भाष्यों में सुस्पष्ट है। अतः परब्रह्म ही उपादान और उपादेय है, अर्थात् उनका सूक्ष्म चिद्-अचिद्-विशिष्ट रूप उपादान है और स्थूल चिद्-अचिद्-विशिष्ट रूप उपादेय है। अतएव उपादान और उपादेय में एकता है। श्रुति के ‘नेह नानास्ति किंचन’ (बृ.उप.४-४-१६)। इस वाक्य में जो ‘नानात्व’ का निषेध किया गया है, उसका अर्थ है कि विशेष्य में कोई भेद नहीं, अर्थात् परब्रह्म से कोई भी विशेषण पृथक् नहीं है। अवस्थान्तरयोग का नाम ही उत्पत्ति है। कोई वस्तु अपूर्व नहीं होती, परन्तु उसकी अवस्था ही अपूर्व होती है। अतः उत्पत्त्याश्रयदव्यस्वरूप की सर्वदा विद्यमानता होने के कारण ‘सत्कार्यवाद’ ही यथार्थ है। तात्पर्य यह कि परमात्मा ही सर्वविशेषणों का विशेष्य है। जिसे इस सत्य का अनुभवज्ञान होता है उसकी दृष्टि में ‘नेह नानास्ति किंचन’, ‘एकविज्ञानेन सर्व विज्ञातं भवति’, ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ का सही अर्थ प्रतीत होता है। इस प्रकार सबसे पृथक् होते हुए भी परब्रह्म-परमात्मा जीच, ईश्वर, माया-प्रकृति और अक्षरब्रह्म से सदा विशिष्ट एकमेवाद्वितीय परम तत्त्व है।
परब्रह्म भगवान् अपनी कृपा एवं संकल्प से जीवों के कल्याण के लिए पृथ्वी पर प्रकट होते हैं। वे ही भगवान् रामकृष्णादिक रूप से स्वेच्छया जीवों के कल्याण के लिए युग-युग में प्रकट होते हैं, परन्तु वे मनुष्यतुल्य नहीं, किन्तु अक्षरधामाधिपति हैं, दिव्य हैं। रामकृष्णादिक अवतार न तो प्राकृत हैं, न परब्रह्म के अंश हैं। अवतारमात्र परब्रह्म-पुरुषोत्तम के कार्य निमित्त यथायोग्य अनुप्रवेश से, अपने संकल्पविशेष से होते हैं। जब परब्रह्म-परमात्मा पुरुष (महापुरुष) रूप से बैराजपुरुष में आकर विराजमान होते हैं तब वह अवतार कहलाता है। परब्रह्म भगवान अपनी मूर्ति को जहाँ जितनी दिखानी होती है वहाँ उतनी अपनी इच्छा से दिखाते हैं, और जहाँ जितना (ऐश्वर्य) प्रकाश करना उचित होता है वहाँ उतना प्रकाश करते हैं। संक्षेप में, श्रीमद्भागवत सूचित अंशावतार, आवेशावतार, कलावतार इत्यादि प्रकार के सभी अवतार बैराजपुरुष में से परब्रह्म-पुरुषोत्तम भगवान् के तत्-तत् कालावधि
श्रीस्वामिनारायण-विशिष्टाद्वैतवाद
२८३ के लिए, तत्-तत् प्रकार की अन्तर्यामी शक्ति द्वारा अनुप्रवेश से होते हैं। वह परब्रह्म का स्वरूप सदा द्विभुज, द्विचरणयुक्त, मनुष्याकृति और दिव्य है, फिर भी अपनी इच्छा से कभी-कभी चतुर्भुज, अष्टभुज, अनंतभुजयुक्त स्वरूप दिखाते हैं तथा मत्स्य, कच्छप, बाराह आदि रूपों में भासमान होते हैं। इस प्रकार जहाँ जिस प्रकार का रूप उपयुक्त होता है वहाँ वैसा रूप स्वेच्छा से प्रकाशित करते हैं, परन्तु स्वयं तो सदा एकरूप से ही विराजमान हैं। ___ इसके अतिरिक्त सर्वावतारी परब्रह्म स्वयं स्वेच्छा एवं करुणा-कृपा विवश जीवों का आत्यंतिक कल्याण करने के लिए कैसे प्रकट होते हैं, वह बताते हुए श्री स्वामिनारायण कहते हैं : “अक्षरातीत तथा मन-वाणी से परे और अगोचर रहने वाले परब्रह्म-भगवान स्वयं कृपा करके ऐसा संकल्प करते हैं कि ‘मृत्युलोक के सभी ज्ञानी-अज्ञानी मनुष्य मुझे देखें, इसीलिए सत्यसंकल्प वाले परब्रह्म-भगवान् अपने कृपाप्रसाद से मृत्युलोक के समस्त मनुष्य देख सकें वैसा अपना दर्शनीय स्वरूप धारण करते हैं।” अपना अनवधिकातिशय ऐश्वर्य, समर्थता, तेज इत्यादि तिरोहित करके मनुष्य जैसा होकर कार्य करते हैं। किन्तु परमधाम में सदा स्थित परब्रह्म की मूर्ति जैसी दिव्य हे वैसी ही इहलोक अवतरित मनुष्यरूप मूर्ति भी दिव्य है, निर्गुण है, असंगी है, प्रकृति-माया से निर्लिप्त है। इस सर्वावतारी की विशेषता यह है कि : ‘परब्रह्म-पुरुषोत्तम भगवान् अपने अक्षरधाम में नित्य रहते हुए भी स्वेच्छा से अनंतकोटि ब्रह्माण्डों में अपने भक्तों के लिए अनंत (असंख्य) रूप से दिखाई देते हैं।" (वच.लो.४)। अतः परब्रह्म सर्वावतारी भगवान् बिना माया-प्रकृति से संबंध लगाये, स्वसंकल्प से स्वस्वातंत्र्य से जहाँ भी, जब भी, जैसे भी उपस्थित होना चाहते हैं, हो जाते हैं।
इस चर्चा के अनुसंधान में सांप्रदायिक मान्यता को लोकसमक्ष रखते हुए श्री कृष्णवल्लभाचार्य जी लिखते हैं:
“जीवेशब्रह्ममुक्ताद्यगणित चिदचिद्व्याप्त सर्वावतारि श्रीस्वामिनारायणभगवति वै मुख्यतात्पर्यम् ।” (शिक्षापत्रीकिरणावलीभाष्यः मंगलश्लोक) तथा श्रीअचिन्त्यानंदवर्णी लिखते हैं
“यद्रोमविवरे लीना अंडानां कोटयः पृथक् ।
तदक्षरं गुणातीतं गुणानन्दं नमाम्यहम्।।” तात्पर्य यह है कि इस संप्रदाय के आद्य संस्थापक श्री सहजानंद स्वामी (भगवान् स्वामिनारायण) को परम इष्टदेव के रूप में-अर्थात् सर्वावतारी पूर्ण पुरुषोत्तम (परब्रह्म) के रूप में; और उनके परमहंस शिष्यों में से प्रमुख शिष्य परम आदर्श संत-भक्त गुणानंद स्वामी को अनादि अक्षरब्रह्म के मूर्तिमंत स्वरूप के रूप में स्वीकार किया गया है। अतः इस संप्रदाय में भी अन्य वैष्णव संप्रदायों की तरह ‘भक्तसहित भगवान्’ की भक्ति का विधान है। इसी से इस ‘स्वामिनारायण संप्रदाय’ की गुरुपरंपरा वाली शाखा ‘अक्षरपुरुषोत्तम संप्रदाय’ नाम से भी प्रचलित है।
२८४
वेदान्त-खण्ड भगवान् स्वामिनारायण इस पृथ्वी से अन्तर्ध्यान होने के पश्चात् उन्होंने अपनी ज्योति का प्रकटन (अर्थात् अपने स्वरूप का प्राकट्य) अपने शिष्य अक्षरब्रह्म के मूर्तिमंत स्वरूप गुणानंदजी में निवसन कर आपूरित किया। उनके बाद में उत्तरोत्तर परम ऐकांतिक ब्रह्मस्वरूप संत (सद्गुरु) के द्वारा उनका प्राकट्य आज भी विद्यमान गुरु प्रमुख स्वामीजी में जारी है, ऐसी मान्यता है।
१२. गुरुलक्षण
‘श्रीहरिदिग्विजय’ ग्रंथ में पंडित नित्यानंद स्वामी लिखते हैं: “गुरु का असामान्य लक्षण है ब्रह्मनिष्ठा; और शिष्य का असामान्य लक्षण है मुमुक्षुता।” क्षोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ संत ही गुरु करने लायक हैं। गुरु “शाब्दे परे च निष्णातः” अर्थात् शास्त्र के सच्चे अर्थ के जानने वाले उच्च नैतिक-आध्यात्मिक स्थिति वाले गुरु से ही सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है। ऐसे सद्गुरु-संतपुरुष के लक्षणों के उपलक्ष्य में श्री स्वामिनारायण कहते हैं :
“-सर्वदा कृष्णसंबंद्धयक्रियास्वेव रता हि ते।। बास्यांतः करणानां याः क्रियाः स्युस्तासु सर्वदा।
। तद्वशा न भवेयुश्च कुर्युस्तास्त्वात्मनो वशे। अहिंसा ब्रह्मचर्यादीन् पालयेयुर्यमान् दृढम्।। ब्रह्मीभूता अपि दृढं भजेयुः कृष्णमादरात्।। एवंविधाः कृष्णभक्ता ये स्युः कृष्णकचेतसः। त एव हरिवत्प्रीत्या मान्याः पूज्याश्च सादरम्।। नैतेऽन्यमनुजैः तुल्या न च देवैः समा अपि। यतस्तेष्वीदृशी नास्ति क्रियाऽतस्तद्विलक्षणाः।। ईदृशाः पुरुषाः सेव्याः पुरुषैस्तु मुमुक्षुभिः । ईदृश्यो योषितः सेव्या योषिद्भिश्च मुमुक्षुभिः।।
(ह.वा.सु.सिं. २४६।४-६, ग.अं. २६) तात्पर्य यह है कि, जो गुरु-संतपुरुष इन्द्रियाँ, अंतःकरण आदि जो माया के गुण हैं उनकी क्रियाओं को दबाकर (स्व-वशकर) आचरण करें, परंतु उनकी क्रियाओं से स्वयं दबे नहीं, और केवल भगवान् संबंधी क्रियाओं को ही करें और पंचवर्तमान (धर्माचरण) में दृढ़ रहें और स्वयं को ब्रह्मरूप मानकर पुरुषोत्तम भगवान् की उपासना करें,-ऐसे संत-सद्गुरु हैं, उन्हें मनुष्य-सा न जानो, और देवता-सा भी न जानो, क्योंकि ऐसी क्रिया देवता या मनुष्य से नहीं हो पाती। अतः ऐसे संत मनुष्य रूप में होते हुए भी भगवान की तरह सेव्य हैं। इसलिए जिन्हें मोक्ष पाना है ऐसे जो मुमुक्षु हैं उन्हें ऐसे संत-सद्गुरु की सेवा करनी चाहिए” क्योंकि ऐसे “सत्पुरुष में दृढ़ प्रीति ही आत्मदर्शन का साधन है-और परमेश्वर
२६५
श्रीस्वामिनारायण-विशिष्टाद्वैतवाद का साक्षात् दर्शन पाने का भी यही साधन है” (वच. वर-११)। अतः धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा माहात्म्य ज्ञानयुक्त भक्ति जिनमें अतिकृष्ट गुण के रूप में है, जो ब्रह्मस्वरूप है, फिर भी सदा-साकार परब्रह्म-पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा-भक्ति में रत है, ऐसे परम ऐकांतिक-परम भागवत संत-सद्गुरु के शरण और सत्संग से ही मुमुक्षु आत्यंतिकी मुक्ति पा सकता है। जो मुमुक्षु गुरु की संगति में परम आदर्श भक्त अक्षरब्रह्म तुल्य होता है, वही मोक्ष पाकर परमधाम (अक्षरधाम) में परब्रह्म-पुरुषोत्तम की नित्य सेवा में स्थान पाता है।
१३. ऐकांतिक धर्म/ऐकांतिकी भक्ति
कि अपने-अपने धर्मों के पालन के संबंध में अचल निष्ठा, आत्मनिष्ठा की अतिशय दृढ़ता, एकमात्र भगवान् के सिवा अन्य समस्त पदार्थों के प्रति अरुचि और भगवान में उनके माहात्म्यज्ञानसहित निष्काम भक्ति-इन चारों साधनों के समन्वय से बनता है ऐकांतिक धर्म। इसी धर्म को ‘भागवत धर्म’ भी कहते हैं। वास्तव में यह धर्म और भक्ति दो अलग बातें नहीं, बल्कि इसका एक ही प्रकार है। ऐकांतिक धर्म के अंतर्गत चार साधनों का स्वरूप इस प्रकार है- धर्म माने श्रुति-स्मृति प्रतिपादित सदाचार। इस सदाचार के सारभूत सभी नीति-नियम ‘शिक्षापत्री’ में दिये गए हैं। उसका यथार्थ पालन ही धर्म है। ज्ञान माने जीव, ईश्वर, माया-प्रकृति, अक्षर-ब्रह्म, परब्रह्म-पुरुषोत्तम तथा बंध, मोक्ष ओर जिनके द्वारा भगवान् स्वयं प्रकट हैं ऐसे सत्पुरुष का स्वरूप यथार्थ रूप से जानना। वैराग्य माने परमेश्वर के अतिरिक्त सभी पदार्थों में अप्रीति एवं अनासक्ति। देह तथा मायिक पदार्थों से भिन्न अपने आत्मा को मानकर रहना ही वैराग्य है। भक्ति माने परमेश्वर में माहात्य ज्ञानपूर्वक अतिशय उत्कट स्नेह । ऐसा स्नेह, आत्मा रूप होकर परमेश्वर में करना जरूरी है। अर्थात् भक्ति माने स्नेह; किन्तु ऐसा स्नेह जिनमें तैलधारावत् परमेश्वर की अखंड स्मृति रहती हो तथा परमेश्वर को छोड़कर अन्य किसी भी चीज का संकल्प भी न होता हो।
मुक्ति, भक्ति से ही है। यहाँ ‘भक्ति’ शब्द से ‘ऐकांतिकी भक्ति’ -यह अर्थ लेना है क्योंकि “आत्मनिष्ठा (ज्ञान), वैराग्य और धर्म तो भगवान की भक्ति के सहायरूप उपकरण हैं। परन्तु भगवान की भक्ति के बिना केवल वैराग्य, आत्मनिष्ठा (ज्ञान) तथा धर्म–जीव को माया से तारने के साधन नहीं है–और यदि धर्म, आत्मनिष्ठा (ज्ञान) और वैराग्य अतिशय न हों और केवल भगवान् की भक्ति हो तो भी उस जीव का कल्याण होता है और वह माया से तर जाता है। इसलिए धर्मादि की तुलना में भक्ति विशिष्ट है, फिर भी धर्मादि अंगों की सहायता हो तो उससे भक्ति में कोई विघ्न नहीं आता-इसीलिए धर्मादि अंगों सहित (ऐकांतिकी) भक्ति करनी चाहिए” (म.३२) । पुनः धर्म, ज्ञान, वैराग्य और माहात्म्यज्ञानयुक्त भक्ति के साधनचतुष्टययुक्त ऐकांतिक धर्म (ऐकांतिकी भक्ति) के उपदेशक भगवान स्वामिनारायण ने भगवद्गीता में उपदिष्ट चारों मार्गों का प्रतिपादन किया है। नीति, सदाचार पर आधारित नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म, विशेष धर्म-स्वधर्म इत्यादि धर्मों द्वारा कर्म-मार्ग का प्रतिपादन किया है। आत्मनिष्ठा याने पाँच भेद और ब्रह्म-परब्रह्म के सदा साकार स्वरूप
२८६
वेदान्त-खण्ड के यथार्थज्ञान द्वारा ज्ञानमार्ग का प्रतिपादन किया गया है। सद्-असद् के ज्ञान में से परिणमित होते वैराग्य का प्रतिपादन कर त्याग और अनासक्ति की भावना का पोषण किया है जिससे कर्मबंधन नहीं होता। फल की आशा प्रधान नहीं हो जाती और सभी काम परमेश्वर की आज्ञा मानकर परमेश्वर को चरम लक्ष्य में रखकर होते हैं। जिससे प्रवृत्ति करने पर भी निवृत्ति और नैष्कर्म्य की सिद्धि होती है। इस प्रकार वैराग्य द्वारा अनासक्ति मार्ग का और योगमार्ग का प्रतिपादन किया गया है। जबकि माहात्म्यज्ञानयुक्त भक्ति से ब्रह्मरूप हो, परमेश्वर में प्रीति हो जाती है। सभी वृत्तियों, प्रवृत्तियों और पदार्थों को परमेश्वर के चरणों में रख देने से आत्म निवेदन होता है, उसकी सभी कियाएं निर्गुण होती हैं। परमेश्वर में लीनता (स्नेहैक्य) होती है। परमेश्वर वरेण्य होता है। इस प्रकार भक्तिमार्ग
का प्रतिपादन किया है।
१४. भक्ति और मुक्ति
धर्म, ज्ञान, वैराग्य और माहात्म्यज्ञानयुक्त भक्ति-इन चारों का विकास साधक के जीवन में आवश्यक है। ऐसी ऐकांतिकी भक्ति ही मोक्ष अर्थात् परमपद का हेतु है। ऐकांतिकी भक्ति में पतिव्रता स्त्री के समान अनन्यनिष्ठा और परम निरभिमानता का द्योतक-दासत्व अन्तर्भूत है। ऐकांतिकी भक्ति में परमात्मा के प्रकट स्वरूप की उपासना-भक्ति का निर्देश है।
जो मुमुक्षुजन प्रकट ब्रह्मस्वरूप सद्गुरु से ज्ञानप्राप्ति और अध्यात्म-साधना करते हैं, वे ही मोक्ष के मार्ग पर पूरी तरह आगे बढ़कर परमपद प्राप्त कर सकते है।
“निजात्मानं ब्रह्मरूपं देहत्रयविलक्षणम्। विभाव्य तेन कर्तव्या भक्तिः कृष्णस्य सर्वदा।।”
-शिक्षा. ११६
क्योंकि जो मुमुक्षुजन तीन गुण, तीन अवस्था और तीन देह से अपनी आत्मा को विलक्षण जानकर, अक्षरब्रह्म के साकार स्वरूप के साथ अपनी आत्मा की एकता को प्राप्त कर परब्रह्म के सदा साकार स्वरूप की भक्ति करता है वही जीवन-मुक्त होता है, और वही परमपद जो मोक्ष है उसे प्राप्त करता है और वही परमधाम में (अक्षर धाम में) परब्रह्म परमात्मा की नित्य सेवा में स्थान प्राप्त करता है (शिक्षा ११६, १२१ तथा वच. लो.७ और म.३०)।
भगवान् कृपासाध्य है। भक्त का अविरत प्रयत्न और अतिदृढ़ भक्ति देखकर स्वयं ही उसके अधीन हो जाता है (प्र. ६)। उस पर अपना कृपा-प्रसाद बरसाता है और उस मुमुक्षु के दोषों-विकारों, अज्ञान और कारण शरीर की वासनाओं को अपने संकल्प मात्र
श्रीस्वामिनारायण-विशिष्टाद्वैतवाद
२८७ से दूर कर उसे मोक्ष प्रदान करता है, “इसलिए अति सच्चे भाव से जो सत्संग करता है उसमें किसी प्रकार का दोष हृदय में नहीं रहता और देह होते हुए भी ब्रह्मरूप हो जाता है” (सा-६) और इस प्रकार जो भगवान् के चरणारविन्द में अपने मन को रखता है वह मरने के बाद ही भगवान् के धाम में जायेगा ऐसा नहीं है। वह तो देह के होते हुए भी भगवान् के धाम को प्राप्त हो रहा है" (ग.अं-७)। इसलिए “जो अपनी जीवात्मा को स्थूल-सूक्ष्म और कारण- इन तीन शरीरों से पृथक् मानता है और उसमें अखंड (सदैव) भगवान् विराजमान हैं यों समझता है उससे भगवान अथवा भगवान् का धाम तो अणुमात्र भी दूर नहीं होता (सा-१०)। यह है जीवन्मुक्ति का आदर्श। यह है जीवन्मुक्ति की स्थिति; यह है अविद्या कारण-शरीर-वासनामय लिंगदेह से मुक्ति। जीवन्मुक्ति याने अविद्या और जन्म-मरण के चक्र से निवृत्ति और भगवान् के सान्निध्य और सुख की अहिर्निश अनुभूति । ऐसा जीवन्मुक्त, जब देह-त्याग के पश्चात् भगवान् के धाम में जाता है तब उसे भगवान् की इच्छा-कृपा से ब्रह्मरूप देह (दिव्य-तेजोमय-परमात्मा-समाकार-भागवतीतनु) प्राप्त होता है (वच.प्र.१, म-६६)। भगवान् के परम अक्षरधाम में परब्रह्म भगवान्, अक्षरब्रह्म, अक्षरमुक्त और नित्यपार्षदों का आकार भगवान् के समान ही है, सत्य है, दिव्य है, अतिशय प्रकाशयुक्त है, पुरुष के समान ही द्विभुज है और सच्चिदानंदरूप है फिर भी मुक्त और पार्षद पुरुष हैं, जबकि भगवान्, पुरुषोत्तम है और वह सबसे श्रेष्ठ है और सबका उपास्य है और सबका स्वामी है (ग.अ.३७, ३८)। धाम में अक्षरब्रह्म और सभी मुक्त, दास्यभाव से परब्रह्म की नित्य-निरन्तर ध्यान-भक्ति में रत रहते हैं।
१५. शरणागति
इस संप्रदाय में शरणागति की महत्ता है, परन्तु शरणागति ग्रहण करने के पश्चात् स्वयं कुछ नहीं करना होता और सब कुछ परमात्मा कर लेंगे-यह स्वीकार नहीं किया गया है। सद्गुरु के माध्यम से परमात्मा की शरणागति स्वीकार करने के बाद, संप्रदाय में सम्मिलित हो, अध्यात्ममार्ग ग्रहण करने वाले मुमुक्षुजनों की सभी पाप, भय, दोष, त्रास इत्यादि से रक्षा परमात्मा करता है परन्तु शरणागत को परमेश्वर की रुचि, रहस्य, अभिप्राय
और आज्ञानुसार कर्म, परमात्मा की मोक्षदायिनी कृपा को प्राप्त करने के लिए करने ही पड़ते हैं। ऐसे शरणागत पर परमात्मा वरेण्य होकर, अपनी कृपा-अनुग्रह द्वारा मुक्ति प्रदान करता है, अपने धाम में, अपनी सेवा में नित्य आवास प्रदान करता है। यह सत्य है कि परमात्मा यदि स्वयं ही अतिकृपा-करुणा से प्रसन्न हो किसी प्रपन्न को सीधे ही (साधनामार्ग से गुजरे बिना भी) परमपद प्रदान करना चाहे तो प्रदान कर सकता है, और प्रदान करता भी है। यह बात परमात्मा की कृपा-करुणा का आधिक्य सूचित करती है, न कि प्रपन्न का सीधे ही परमपद पाने का अधिकार। अपने आश्रित भक्तजनों को अंतकाल में स्वधाम ले जाने के लिए भगवान् स्वयं ही दिव्यदेह में मुक्तों-पार्षदों के साथ आते हैं। ऐसा है परमात्मा का वरदान।२८E
वेदान्त-खण्ड
१६. संप्रदायविषयक अन्य जानकारी
इस संप्रदाय में आचार-शुद्धि, विचार-शुद्धि, चरित्र-शुद्धि तथा आध्यात्मिक जीवन शुद्धि पर अधिक जोर दिया गया है। सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य को मानव-धर्म की आधारशिला माना गया है। मद्यनिषेध, मांसभक्षण-निषेध, स्तेनकर्म (चोरी)-निषेध, व्यभिचार निषेध और स्वधर्म पालन-इन पाँच व्रतों को सभी आश्रित-मुमुक्षुओं के लिए धार्मिक जीवन के आवश्यक अंगभूत व्रत माना गया है। तदुपरांत विश्वासघात, ताडन, हिंसा, कुत्सा, दोषारोपण, परस्त्रीसंग, नास्तिक के मुख से कथा-श्रवण, देवनिंदा,
आत्मश्लाघा, अश्लील भाषाप्रयोग, आत्महत्या, कुसंग इत्यादि का त्याग अनिवार्य है। पूर्तकर्म, दान, विद्वान्, गुरु, देव, ब्राह्मण, साधु, माता-पिता, गुरुजन, पतिव्रता, राजा (राज्याधिकारी), अतिथि, देवमंदिर, धर्मकार्य, विद्याभ्यास, विद्यादान आदि के प्रति आदरभावयुक्त कर्तव्यपालन आवश्यक माना गया है। ‘शिक्षापत्री’ नामक नित्यपाठ के ग्रंथ में इन सभी नियमों का सुस्पष्ट विवरण दिया गया है। स्त्रियों एवं पुरुषों को अपने सहजीवन में विवेक, मर्यादा और कर्तव्य से कभी चूकना नहीं चाहिए। ये नियम संप्रदाय के आश्रित सभी जनों पर लागू होते है। परंतु संसार त्याग कर मानवसेवा, धर्मोपदेश और अध्यात्म-साधना का उच्चतर मार्ग ग्रहण करने वाले साधु-ब्रह्मचारी-पार्षदों के लिए पाँच विशेष वर्तमान (नियम) का विधान आवश्यक है। ये वर्तमान है :- निःस्नेह, निःस्वाद, निर्लोभ, निष्काम और निर्मान । इन पाँच विशेष नियमों को पालकर उनकी सिद्धि करना साधु-संतों के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसी से त्यागी-संन्यासीवर्ग (साधु-पार्षद) के लिए द्रव्यसंपत्ति का सर्वथा त्याग, अष्टप्रकार से स्त्री-प्रसंग का त्याग, निःस्वादिता के लिए परोसी गई सर्वखाद्यसामग्री एक साथ मिलाकर, एक अंजलि भर जल डालकर लकड़ी के पात्र में भोजन करना, केवल ग्यारह वस्त्रों और धर्मग्रंथों के सिवाय सभी वस्तुओं का अपरिग्रह, मान-अहंकार त्याग कर निम्न सेवा करना, अपने पूर्वाश्रम के कुटुंबीजनों और जन्मस्थान का संपर्क छोड़ देना, ग्राम्यवार्ताओं और जागतिक मामलों में से वृत्ति पीछे खींच लेना,–ऐसी विशेष आज्ञाएँ दी गई हैं, जिसका अनुपालन आज भी इस संप्रदाय के साधुओं की जीवनशैली में देखने को मिलता है। इस संप्रदाय के त्यागी-संन्यासी एवं गृहस्थ सभी आश्रित कंठी गले में द्विसूत्रीय छोटे दाने की तुलसी की माला धारण करते हैं। आश्रितों में पुरुषवर्ग माथे पर चंदन का पीला ऊर्ध्वपुंड्र तिलक तथा उसके मध्य में कुंकुम का गोल टीका लगाते हैं। वे सभी प्याज-लहसुन रहित भोज्य लेने वाले शुद्ध शाकाहारी हैं। नित्यकर्म, नैमित्तिककर्म और स्वधर्म के प्रति जागरूकता तथा विचार, उच्चार, आचार और हृदय की पवित्रता का उपदेश ‘शिक्षापत्री’ नामक नित्यपाठ के ग्रंथ में दिया है। इसी से सत्त्वशुद्धि होती है, अधिकारित्व प्राप्त होता है, अध्यात्मदर्शन के लिए पात्रता विकसित होती है। ऐसे धर्मपालक सभी शरणागत भक्तों के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं। उनके अन्न-वस्त्रादि की जिम्मेदारी भगवान उठाते
श्रीस्वामिनारायण-विशिष्टाद्वैतवाद
२८६ मन को सदैव परमेश्वरोन्मुख प्रवृत्तियों में जोड़े रखने के लिए पांचरात्र आगमों और भागवतादि पुराणों द्वारा प्रतिपादित भक्ति की परिपुष्टिकारी प्रवृत्तियों को निर्गुण भक्तिरूप आवश्यक माना गया है। संगीत और कीर्तन भक्ति को परमेश्वर की प्रसन्नता के साधनरूप उपकरण के रूप में विकसित किया गया है। चित्रकला, शिल्प, स्थापत्य और मंदिरनिर्माण की प्रवृत्तियाँ भी इसी आशय से अपनायी गयी हैं। परमेश्वर की धातु-पाषाण-काष्ट की प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ साक्षात् परमेश्वर ही का प्रकट अर्चास्वरूप है-ऐसी श्रद्धायुक्त धारणा से उन प्रतिमाओं का वस्त्र, आभूषण, पुष्पहार, नैवेद्य, आरती, पूजा, प्रार्थना, स्तुति, दंडवत्-प्रणाम इत्यादि सेवा-परिचर्यायुक्त पूजाविधि बड़ी महिमा से की जाती है। प्रभु की प्रसन्नता के लिए एकादशी-उपवास, तप, देहदमन, इत्यादि व्रत; तथा हिंडोल, फूलदोल, होली, जलयात्रा, स्थयात्रा, अन्नकूट, दीपावली इत्यादि उत्सव मनाना तथा महाशिवरात्रि, गणेश चतुर्थी, हनुमान् जयंती, रामनवमी, हरि जयंती, जन्माष्टमी इत्यादि जन्मोत्सव मनाना, वगैरह सेवा-विधियों को प्रमु-प्रीति एवं प्रभु-प्रसन्नता के भक्तिप्रकारों के रूप में अपनाया गया है। नव-आगंतुक के लिए विधिपूर्वक परमेश्वर की शरण ग्रहण करके, सद्गुरु-संतपुरुष से प्रभुमंत्र पाकर, वर्तमान दीक्षा धारण कर संप्रदाय में सम्मिलित होने की विधि आवश्यक है। संसार-त्याग कर साधु (संत) आश्रम में प्रवेश करने के लिए सद्गुरु-संतपुरुष द्वारा भगवती दीक्षा ग्रहण करने की विशिष्ट विधि है। चारों वर्गों के हिन्दू-अहिन्दू, ज्ञाति-जाति, वर्ग या देश का भेदभाव रखे बिना सभी मुमुक्षुओं को इस संप्रदाय में आश्रित के रूप में स्वीकार किया जाता है। उन्हें साप्रदायिक चिह्न जैसे कि तिलक, कंठी-धारण और ज्ञान-भक्ति का पूर्ण अधिकार मिलता है। पूजा, माला, स्तोत्र, ध्यान, प्रदक्षिणा, शास्त्रपठन, संगीतमय कीर्तन भक्ति, पंयकाल मानसी पूजा एवं उपदेश-कथामृत श्रवण को नित्य नियम में समाया गया है। परमेश्वर को लक्ष्य में रखकर उसके लिए सेवा के रूप में देवमंदिर की सेवा, सफाई, फुलवारी-बगीचा करना, भोजन, पकवान, नैवेद्य तैयार करना, भक्तजनों का आदर-सत्कार करना, इत्यादि को भक्तिरूप क्रिया मानी है।
वर्तमान स्थिति
इस संप्रदाय के दो मुख्य पंथ (शाखाएँ) हैं। ‘गादीपति आचार्य वाली शाखा’ जिसे ‘पुराना स्वामिनारायण संप्रदाय’ के नाम से अधिकतर लोग पहचानते हैं। दूसरी शाखा है “अक्षरपुरुषोत्तम स्वामिनारायण संप्रदाय’ जिसे ‘नयी स्वामिनारायण शाखा’ भी कहते हैं। पुरानी शाखा में केवल भगवान् की अर्थात् भगवान् स्वामिनारायण की उपासना अन्य अवतारों के साथ की जाती है तथा मंदिरों में भी उसी प्रकार मूर्तियाँ मुख्य गर्भगृह में दिखाई देती हैं। नयी शाखा में भक्त एवं भगवान् अर्थात् अक्षर स्वरूप गुणातीतानंद जी और पुरुषोत्तम स्वरूप श्री स्वामिनारायण जी की उपासना की जाती है। पुरानी शाखा की अपेक्षा नयी शाखा कड़े धर्मपालन पर अधिक जोर देती है। वैसे ही परंपरा-संरक्षण तथा संप्रदाय के प्रचार और प्रसार के बारे में नयी शाखा अधिक जागृत और प्रवृत्त है। पुरानी शाखा
२६०
वेदान्त-खण्ड में अहमदाबाद गादी के विद्यमान आचार्य नरेन्द्र प्रसाद जी हैं तथा वरताल गादी के विद्यमान आचार्य तेजेन्द्र प्रसाद जी हैं। नयी शाखा गुरु-परंपरावादी है। उसके विद्यमान गुरु प्रकट ब्रह्मस्वरूप प्रमुख स्वामी नारायणस्वरूप दास जी हैं। अहमदाबाद और वरताल पुरानी शाखा के मुख्य केन्द्र हैं, जबकि बोचासण और अहमदाबाद नयी शाखा के मुख्य केन्द्र हैं।
इस संप्रदाय के मुख्य तीर्थ क्षेत्र-मंदिर छपीया (यू.पी. अयोध्या के नजदीक) तथा गुजरात में गढ़डा-स्वामीना, अहमदाबाद, भादरा-गुणातीत नगर, वरताल, धोलेरा, कच्छ-भूज, जूनागढ़, गोंडल, बौचासण, अटलादरा-बड़ोदरा, सारंगपुर, और सूरत हैं। इसके अलावा विदेशों में अफ्रीका के नैरोबी,मोम्बासा, म्बॉन्जा, दारेसलाम, जहोनिसबर्ग में, यूरोप के लिस्बन, पेरिस, लंदन, लेस्टर, बरमिंगहम, प्रेस्टन, आस्टन-यू-लाईन और बेलिंगबरों में, अमेरीका के न्यूयोर्क, लोस ऐन्जीलस, शिकागो, व्यूस्टन डलास, न्यूजर्सी, फेजेनो, सेन्ट होने और अटलान्टा में, : केनडा के टोरान्टो में वेस्टइन्डोज के ट्रिनीडाड में; आस्ट्रेलिया के स्वानसे में; अरबस्तान के दुबई में बड़े मंदिरों के साथ इस संप्रदाय की शाखाएँ कार्यशील
श्रीकण्ठप्रणीत ब्रह्मसूत्रशैवभाष्य का दर्शन द्वितीय : शिव विशिष्टाद्वैत मत (शाम्भव दर्शन)
ॐगाया यशामा