१. सामान्य परिचय
अद्वैतवेदान्त को समझना कठिन है। तुलसीदास ने कहा है -
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक। होत घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।।
(रामचरितमानस उत्तरकाण्ड (८) ख)। अर्थात् ज्ञानमार्ग समझने, साधने और कहने में कठिन है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए अनेक अद्वैतवादियों ने अद्वैतवाद के बालबोध या आरंभिक ग्रन्थ लिखे हैं। इन ग्रन्थों को प्रकरण-ग्रन्थ में ही गिना जाता है। फिर भी ये सारसंग्रह ग्रन्थ हैं। इनके अध्ययन के अनन्तर शारीरकभाष्य, बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक, अद्वैतसिद्धिचित्सुखी आदि ग्रन्थों को पढ़ने की परम्परा है। इन प्रारम्भिक ग्रन्थों में निम्नलिखित का प्रचलन तथा प्रयोग अधिक है। ये प्रयोग दो दृष्टियों से हैं, जिज्ञासु की दृष्टि से और मुमुक्षु की दृष्टि से। अन्तिम दृष्टि से पंचदशी तथा तत्त्वानुसन्धान का विशेष महत्त्व है। प्रथम दृष्टि से वेदान्तसार, वेदान्तपरिभाषा और अद्वैतब्रह्मसिद्धि का महत्त्व है। अब यहाँ इन ग्रन्थों के संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किये जाते हैं -
२. पंचदशी
पंचदशी विवरण-प्रस्थान का एक प्रमुख तथा प्राथमिक श्लोकबद्ध पाठ्य ग्रन्थ है। इसके लेखक स्वामी विद्यारण्य तथा उनके गुरु भारतीतीर्थ हैं। पंचदशी में १५ प्रकरण (अध्याय) हैं। प्रथम पांच प्रकरण विवेकान्त हैं (तत्त्वविवेक, पंचमहाभूतविवेक, पंचकोशविवेक, द्वैतविवेक और महावाक्यविवेक)। मध्य के पांच प्रकरण दीपान्त हैं (चित्रदीप, तृप्तिदीप, कूटस्थदीप, ध्यानदीप और नाटकदीप)। अन्त के पांच प्रकरण आनन्दान्त हैं (योगानन्द, आत्मानन्द, अद्वैतानन्द, विद्यानन्द और विषयानन्द)। प्रायः इन प्रकरणों के नाम से ही पंचदशी के श्लोकों को उद्धृत किया जाता है। इन १५ प्रकरणों में मध्य के पांच प्रकरण
अत्यन्त महत्वपूर्ण और सर्वाधिक उद्धरण-योग्य हैं।
परम्परा से माना जाता है कि प्रथम छ: प्रकरण विद्यारण्यस्वामी रचित हैं और शेष ६ प्रकरण भारतीतीर्थ द्वारा। पंचदशी-टीकाकार रामकृष्ण ने सातवें प्रकरण, तृप्तिदोष को
वेदान्त-खण्ड
भारतीतीर्थकृत माना है। अप्पय दीक्षित ने सिद्धान्तलेशसंग्रह में ध्यानदीप को भारतीतीर्थकृत माना है। इन दोनों आचार्यों से उपयुक्त परम्परा का समर्थन होता है। किन्तु निश्चलदास ने वृत्तिप्रभाकर में कहा है कि विद्यारण्य प्रथम दश प्रकरणों के लेखक हैं और अन्तिम पाच प्रकरणों के लेखक भारतीतीर्थ हैं। किन्तु रामकृष्ण और अप्पय दीक्षित निश्चलदास के पूर्ववर्ती थे। उनकी सम्मति में विद्यारण्य केवल प्रथम छ: प्रकरण के ही प्रणेता हैं। सम्प्रति साधारण जनों द्वारा संपूर्ण पंचदशी के लेखक स्वामी विद्यारण्य माने ही जाते हैं। परन्तु यह मत भामक है।
भारतीतीर्थ विद्यारण्य के गुरु थे। रामकृष्ण, जिन्होंने पंचदशी पर व्याख्या लिखी है, विद्यारण्य के शिष्य थे। डा. टी.एम.पी. महादेवन मानते हैं कि स्वामी विद्यारण्य और मारतीतीर्थ दो व्यक्ति नहीं, किन्तु एक ही व्यक्ति हैं। स्वामी विद्यारण्य श्रृंगेरीमठ के शंकराचार्य थे। गृहस्थाश्रम में उनका नाम माधव था और वे वेदभाष्यप्रणेता सायण के बड़े भाई थे। माधव के नाम से उन्होंने सर्वदर्शनसंग्रह लिखा है जिसमें क्रमशः १. चार्वाक दर्शन, २. बौद्ध दर्शन, ३. जैन दर्शन, ४. रामानुज दर्शन :- पूर्ण प्रज्ञदर्शन, ६. नकुलीश-पाशुपत दर्शन, ७. शैव दर्शन, ८. प्रत्यभिज्ञादर्शन, ६.रसेश्वर दर्शन, १०. वैशेषिक दर्शन, ११. न्याय दर्शन, १२. जैमिनिदर्शन, १३. पाणिनिदर्शन, १४. सांख्यदर्शन, १५. योगदर्शन और १६. शांकर दर्शन के विवेचन हैं। बहुतों के मत से सर्वदर्शनसंग्रह में दर्शनों का उपर्युक्त कम निम्नोच्चता के आधार पर है या कम श्रेष्ठ से अधिक श्रेष्ठ के आधार पर है। अतः शांकर वेदान्त सर्वश्रेष्ठ दर्शन है। सर्वदर्शनसंग्रह पर महामहोपाध्याय वासुदेव शास्त्री अभ्यंकर की एक टीका भी है जिसकी रचना शक संवत् १८४४ में की गई थी। ___ स्वामी विद्यारण्य का समय १३५० ई. के आस-पास है। वे वेदान्तदेशिक के समकालीन थे। उन्होंने अद्वैतवेदान्त को जितना प्रचारित और प्रतिष्ठित किया उतना शंकराचार्य के बाद किसी ने नहीं किया था। दक्षिणपूर्व एशिया में उनके शिष्यों ने अद्वैतवेदान्त का विशेष प्रचार किया था। इसीलिए कभी-कभी उन्हें द्वितीय शंकराचार्य कहा जाता है। शंकराचार्य के नाम से प्रचलित कई ग्रन्थ वास्तव में जगद्गुरु शंकराचार्य विद्यारण्य स्वामी के ही लिखे हैं। उदाहरण के लिए देव्यपराधक्षमापनस्तोत्र विद्यारण्य स्वामी द्वारा रचित है क्योंकि इसमें कहा गया है -
परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया
मया पंचाशीतेरधिक मपनीते तु वयसि। अर्थात् ‘मैं ८५ वर्ष से अधिक हो गया हूँ और हे देवि अब मैं विधिवत् पूजा नहीं कर सकता हूँ। अतः क्षमा करो।’
जैसा कि पंचदशी के प्रकरणों के नाम से विदित होता है उसमें अद्वैतवेदान्त के सभी विषयों का सम्यक् निरूपण है। सभी प्रकरणों में चित्रदीप प्रकरण अत्यन्त लोकप्रिय तथा
प्रारम्भिक प्रस्थान के ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। इससे प्रायः अधिक उद्धरण परवर्ती आचार्यों ने दिये हैं। वैसे कूटस्थदीप तथा ध्यानदीप से भी बहुत उद्धरण दिये गये मिलते हैं।
पंचदशी में निम्नलिखित मत उल्लेख योग्य हैं १. परमात्मा में चार अवस्थाएं वैसे ही दृष्ट हैं जैसे चित्रपट पर चार अवस्थाएं। जैसे
चित्रपट धौत, घट्टित, लांछित और रंजित होता है, वैसे ही परमात्मा चित,
अन्तर्यामी, सूत्रात्मा और विराट् होता है।
यथा चौतो घट्टितश्च लाञ्छितो रंजितः पटः ।
चिदन्तर्यामी सूत्रात्मा विराट् चात्मा तथैर्यते।। २. कूटस्थ (साक्षि चैतन्य), ब्रह्म, जीव और ईश्वर के सम्बन्ध को बताते हुए चित्रदीप में
कहा गया है -
कूटस्थो ब्रह्म जीवेशावित्येवं चिच्चतुर्विधा।
घटाकाशमहाकाशी जलाकाशानखे यथा ।। कूटस्थदीप में कूटस्थ चैतन्य का ही साक्षी कहा गया है -
अन्तःकरणतवृत्तिसाक्षीत्यादावनेकथा।
कूटस्थ एव सर्वत्र पूर्वाचार्यैर्विनिश्चितः।। ३. चूंकि ब्रह्म वृत्तिव्याप्त है अतएव ब्रहा की उपासना भी संभव है -
अवास्तवीं वेद्यता चेदुपास्यत्वं तथा न किम् । वृत्तिव्याप्तिर्वेधता चेदुपास्यत्वेऽपि तत्समम्।।
(ध्यानदीय ६१) निर्गुणोपासना का वर्णन भी वहीं इस प्रकार किया गया है -
आनन्दाभिस्थूलादिभिश्चात्मा च लक्षितः। आनन्दैकरसः सोऽहमस्मीत्येवमुपासते।।
(ध्यानदीप ७३) फिर वहीं बोध और उपासना का अन्तर भी स्पष्ट कर दिया गया है -
बोधोपास्त्योर्विशेषः स इति चेदुच्यते श्रृणु। वस्तुतन्त्रो भवेद्बोधः कर्तृतन्त्रमुपासनम्
(ध्यानदीप ७४)
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वेदान्त-खण्ड अर्थात् बोध वस्तुतन्त्र है और उपासना कर्तृतन्त्र है। बोध विचारजन्य है। उपासना प्रत्ययसन्तति है, प्रत्ययों की एकतानता है। इस कारण उपासना से विचार में सहयोग
मिलता है। उपासना ज्ञान या बोध में आराद् उपकारक है। ४. अध्यारोप और अपवाद की प्रणाली का प्रयोग पंचदशी में अन्य ग्रन्थों के समान ही किया गया है। परन्तु इस प्रणाली के पूरक के रूप में अन्वयव्यतिरेक-प्रणाली को भी अपनाया गया है। उदाहरण के लिए आत्मा पंचकोशव्यतिरिक्त है, इसे प्रायः अध्यारोप-अपवाद द्वारा सिद्ध किया गया है। किन्तु विद्यारण्य स्वामी तत्त्व-विवेक नामक प्रथम प्रकरण में ही इसे अन्वय-व्यतिरेक से भी सिद्ध करते हैं -
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पञ्चकोशविवेकतः। स्वात्मानं तत उद्धृत्य परं ब्रह्म प्रपद्यते।।
(तत्त्वविवेक ३७) ५. माया का त्रिविध वर्णन पंचदशी में बड़े सुन्दर ढंग से किया गया है। प्रत्यक्षतः वह वास्तवी है। अर्थात् वह अनिर्वचनीय है और श्रौतबोध से वह तुच्छ या अलीक है।
तुच्छानिर्वचनीया च वास्तवी चैत्यसौ त्रिधा। ज्ञेया माया त्रिभिर्बोधैः श्रौतयौक्तिकलौकिकैः।।
मस्तान (चित्रदीप १३०) ६. तृप्तिदीप में कहा गया है कि जीवत्व की उपाधि अन्तःकरणसाहित्य है और ब्रह्म की
उपाधि अन्तःकरणराहित्य है। वेदान्त में अतद्व्यावृत्ति द्वारा (अतत् की निवृत्ति द्वारा)
और विधिमुख से ब्रह्म का बोध होता है। ब्रह्म बुद्धि का साक्षी है, मन का साक्षी है, प्रतिबोध विहित है, यह सब विधिमुखेन ब्रह्मबोध है। ब्रह्म है, यह परोक्ष ज्ञान है। मैं
ब्रह्म हूँ, यह अपरोक्ष ज्ञान है और ब्रह्म का साक्षात्कार है। ७. विद्यारण्य स्वामी अविद्यालेश को मानते हैं। दग्धपटन्याय से अनुवर्तमान मूला अविद्या
ही अविद्यालेश है। वास्तव में पंचदशी की भाषा बहुत सरल और प्राञ्जल है। लौकिक साम्यानुभवों का प्रयोग होने से वह बहुत सुबोध है। श्रुति, युक्ति और अनुभूति से उसमें अद्वैतवाद को सिद्ध किया गया है। इन कारणों से अद्वैतवेदान्त का मात्र प्रवेशद्वार रूपी ग्रन्थ ही नहीं है, वरन् एक प्रामाणिक तथा आप्ततायुक्त ग्रन्थ भी है। निःसन्देह पञ्चदशी अद्वैतमंदिर का गोपुरम् है।
प्रारम्भिक प्रस्थान के ग्रन्थ
។ ២
सन्दर्भ ग्रन्थ
१. विद्यारण्य और भारतीतीर्थ रचित पंचदशी, रामकृष्णकृत व्याख्या सहित सप्तम
संस्करण, निर्णयसागर बम्बई, १६४६. २. अप्पयदीक्षित, सिद्धान्तलेशसंग्रह, हिन्दी अनुवाद सहित, अच्युत ग्रन्थमाला वाराणसी,
१६३६. ३. टी.एम.पी. महादेवन, द फिलासफी आफ अद्वैत विद स्पेशल रेफेरेन्स टु भारतीतीर्थ
विद्यारण्य लु जैक एण्ड कम्पनी, लन्दन, १६३८. ४. सायण-माधव, सर्वदर्शनसंग्रह, वासुदेव शास्त्री अभ्यंकर की टीका सहित, भण्डारकर
ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना, तृतीय संस्करण,, १९७८ | इस ग्रन्थ की रचना विद्यारण्य स्वामी ने संन्यासी होने के पूर्व की थी। इसमें क्रमशः (१) चार्वाकदर्शन, (२) बौद्धदर्शन, (३) जैनदर्शन, (४) रामानुजदर्शन, (५) पूर्णप्रज्ञ (मध्य) दर्शन, (६) नकुलीशपाशुपतदर्शन, (७) शैवदर्शन, (८) प्रत्यभिज्ञादर्शनम्, (e) रसेश्वरदर्शन, (१०) वैशेषिकदर्शन, (११) न्यायदर्शन, (१२) जैमिनिदर्शन, (१३) पाणिनिदर्शन, (१४) सांख्यदर्शन, (१५) योगदर्शन और (१६) शांकरदर्शन के निरूपण हैं। बहुतों का मत है कि दर्शनों का यह कम अद्वैतवेदान्त तक पहुँचने का मार्ग है। अर्थात् इस क्रम से अद्वैतवेदान्त के साथ शेष दर्शनों का क्रम-समुच्चय संभव है। सर्वप्रथम यहीं अद्वैतवेदान्त को सर्वोत्तम दर्शन के रूप में ऐतिहासिक और तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया गया। विद्यारण्य स्वामी को इसीलिए द्वितीय शंकराचार्य कहा जाता है। निःसन्देह उन्होंने अद्वैतवेदान्त के इतिहास में एक युगान्तरकारी क्रान्ति की है। उनके बाद का समस्त अद्वैतवेदान्त विद्यारण्योत्तर अद्वैतवाद के नाम से विख्यात है।
३. अद्वैतब्रह्मसिद्धि
ब्रह्मसिद्धि नैष्कर्म्यसिद्धि, इष्टसिद्धि और अद्वैतसिद्धि अद्वैतवेदान्त के प्रौढ़ ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों में प्रवेश कराने के लिए तथा अद्वैतवेदान्त का अवदात ज्ञान कराने के लिए १७वीं शती में सदानन्दयति काश्मीरक ने अद्वैतब्रह्मसिद्धि नामक एक प्रामाणिक ग्रन्थ की रचना की। वामनशास्त्री ने इसका संपादन किया है और परिमल प्रकाशन दिल्ली से १६८१ में यह छपी है। अद्वैतसिद्धिसिद्धान्तसार, प्रत्यक्तत्त्व चिन्तामणि (प्रभासहित), ईश्वरवा, स्वरूपनिर्णय, स्वरूपप्रकाश, गीताभावप्रकाश (पद्य में), तत्त्वविवेक-टीका और शंकरदिग्विजयसार इनके अन्य ग्रन्थ हैं। ये मधुसूदन सरस्वती के सिद्धान्तबिन्दु के टीकाकार ब्रह्मानन्द सरस्वती
और नाराणयतीर्थ के शिष्य थे और काशी में रहते थे। सं.
वामनशास्त्री भूमिका में लिखते हैं कि अद्वैतब्रह्मसिद्धि में छ: आस्तिक और छ:१६८
नास्तिक दर्शनों का उपन्यासपूर्वक खण्डन तथा अद्वैतवेदान्त का अबाथित प्रतिपादन है। यह सर्वदर्शनसंग्रह जैसा ग्रन्थ है। किन्तु इसकी विशेषता या अपूर्वता यह है कि इसमें अद्वैत भिन्न दर्शनों का खण्डन भी दिया गया है, जबकि सर्वदर्शनसंग्रह में वर्णित किसी भी दर्शन का खण्डन नहीं किया गया है। तात्पर्य यह कि अद्वैतब्रह्मसिद्धि आद्योपान्त आलोचनात्मक तथा विश्लेषणात्मक है। मधुसूदन सरस्वती की अद्वैतसिद्धि में खण्डन की प्रधानता है और अद्वैतवेदान्त का सिद्धान्तनिरूपण गौण हो गया है। भट्टोजी दीक्षित का तत्त्वकौस्तुम, अप्ययदीक्षित का सिद्धान्तलेशसंग्रह, नृसिहाश्रम का भेदधिक्कार - ये सब एकदेशी ग्रन्थ हैं। इनमें अद्वैतवेदान्त के प्रतिपादन की आवश्यकता थी। इसको सदानन्दयति ने अद्वैतब्रह्मसिद्धि लिखकर पूरा किया।
अद्वैतब्रह्मसिद्धि में चार अध्याय हैं जिनके नाम हैं- प्रथम मुद्गरप्रहार, द्वितीय मुद्गरप्रहार, तृतीय मुद्गरप्रहार और चतुर्थ मुद्गरप्रहार। प्रथम मुद्गरप्रहार में देहतत्त्व का
और द्वितीय मुद्गरप्रहार में जीवतत्त्व का युक्तियुक्त विवेचन है। तृतीय मुद्गरप्रहार में बताया गया है कि अद्वैती को छोड़कर कोई अन्य शास्त्र से गुरु नहीं हो सकता। इसमें भेद, भेदाभेद आदि का खण्डन है। न्याय-वैशेषिक तथा मीमांसा का भी यहीं खण्डन है। चतुर्थ मुद्गरप्रहार में विशेषतः सांख्य और योग का खण्डन है। वास्तव में अद्वैतब्रह्मासिद्धि में विषयानुसार खण्डन है, दर्शनानुसार नहीं। अर्थात् किसी विषय को लेकर जितने मत-मतान्तर अद्वैत-विरुद्ध हैं उनका वहां खण्डन किया गया है।
विशेष रूप से इसमें वैशेषिक, दिगम्बर जैनमत, चार्वाकमत , प्रभाकरमीमांसा, कुमारिलमीमांसा, त्रिदण्डिवेदान्त, सांख्यदर्शन, पातञ्जलदर्शन, न्यायदर्शन, माध्च-वेदान्त, रामानुजमत, वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार तथा माध्यमिक मत का निराकरण किया गया
पुनश्च अद्वैतब्रह्मसिद्धि में सभी आस्तिक दर्शनों का समन्वय अद्वैतवेदान्त में किया गया है। उसका मत है कि अन्य दर्शनों में जो श्रुतिविरुद्ध अंश हैं वे त्याज्य हैं, जो अंश श्रुति से अविरुद्ध हैं वे ग्रास्य हैं। वास्तव में ब्रह्मा से लेकर सभी ऋषि पर्यन्त जितने आचार्य हैं वे सब सत् शास्त्र के स्मारक हैं, कारक नहीं हैं।
ब्रह्माद्या ऋषिपर्यन्ताः स्मारका न तु कारकाः
(अद्वैतब्रह्मसिद्धि पृ. ४५) और भी, यह प्रपंच मिथ्या है, यह श्रुति, युक्ति तथा अनुभूति से सिद्ध है -
अयं प्रपंचो मिथ्या सत्यं ब्रह्माहमद्वयम्। तत्र प्रमाणं वेदान्ताः गुरुः स्वानुभवस्तथा।।
(वही, पृ. ४४) श्रुतिविरुद्ध दर्शनों के प्रवर्तकों को सदानन्दयति ने छ: प्रकार का बताया है। इनकी
प्रारम्भिक प्रस्थान के अन्य
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उपेक्षा की जानी चाहिए।
पाषण्डिनो विकर्मस्थान वैडालबतिकान् शठान्।
हैतुकान् बकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ।। प्रतिबिम्बबाद और अवच्छेदवाद को सदानन्दयति बालबोधनार्थक मानते हैं। उनमें अद्वैतवेदान्त का आग्रह नहीं है।
वस्तुतस्तु प्रतिबिम्बवादावच्छेदवादानां व्युत्पादने नात्यन्ताग्रहः, तेषां बालबोधनार्थत्वात्।
(वहीं पृ. २११) पुनश्च वे मानते हैं कि एकजीववाद ही वेदान्त का मुख्य सिद्धान्त है, नाना जीववाद नहीं, (वही पृ. २६३)। यह मत किसे ज्ञात होता है? इस पर वे कहते हैं - इदं च अनेकजन्मार्जितसुकृतस्य भगवदर्पणेन भगवदनुग्रहफलाद्वैत श्रद्धाविशिष्टस्य निदिध्यासनसहित श्रवणादिसम्पन्नस्य चित्तारुढ भवति (वही प्र. २१३) ।
केवल वेदान्तश्रवण से, निदिध्यासनशून्य पाण्डित्य से एकजीववाद का बोध नहीं हो सकता है।
इसी क्रम में वे दृष्टिसृष्टिवाद को मानते हैं और उसके लिए निम्न अनुमान देते हैं
अज्ञानं तत्पयुक्तं दृश्यं च प्रातीतिकम्, स्वप्नवत् । यदा यदा विद्यते तदा तदैव साक्षिस्वरूपेण जीवेन प्रकाश्यो। न तु तत्र आवरणम्, तद्भञ्जकमनोवृत्तिर्वा, तत्साधनमिन्द्रियं वा कल्प्यते, गौरवात
(वही पृ. २१४)। । साक्षी का विवेचन करते हुए वे चार विकल्प प्रस्तुत करते हैं -(१) साक्षी ब्रह्म कोटिक है। (२) साक्षी ईश्वरकोटिक है। (३) साक्षी उभयाभिन्न कोटिक है और (४) साक्षी जीवकोटिक है। फिर वे कहते हैं कि यह कोटिचतुष्टय सम्यक् है - मतभेदेन कोटिचतुष्टयक सम्यगेव (वहीं पृ. २५३) । तथापि एकजीववादी होने के कारण वे अन्तिम मत को अधिक पसन्द करते हैं। मात्र द्रष्टा होना और उदासीन रहना - ये दो साक्षी के लक्षण हैं। अर्थात् जो जीव का कीपन तथा भोक्तापन है, वह साक्षी का लक्षण नहीं है।
वास्तव में सदानन्दयति ने अपने पूर्ववर्ती अद्वैतवादियों के मतों का ही समर्थन श्रुति, युक्ति तथा अनुभूति से किया है। विशेषतः वे शंकराचार्य, सुरेश्वर, अमलानन्द तथा स्वामी विद्यारण्य से प्रभावित थे। स्वामी विद्यारण्य को वे अखिल वेदार्थविद् कहते हैं (वहीं पृ. ३००) और उनकी पंचदशी के चित्रदीप, नाटकदीप तथा ध्यानदीप से अनेक श्लोकों को
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अपने मत के समर्थन में उद्धृत करते हैं।
अद्वैतब्रह्मसद्धि के उपसंहार (पृ. २०६) में सदानन्दयति ने इसका संक्षेप यों दिया है
जीवतत्त्वं जगत्तत्त्वमीशतत्त्वं तृतीयकम्। स्थित्वैकादशतन्त्रेषु तत्तद्युक्त्या निरूपितम् ।। प्रश्नाद् वेदान्तसयुक्त्या अद्वैतश्रुतिमानतः ।।
अद्वयं ब्रह्म संसिद्धं द्वैतस्यावसरः कुतः ।। अर्थात् यहां जीवतत्त्व, जगत्तत्त्व तथा ईश्वरतत्त्व पर पहले एकादश दर्शनों के मतों का युक्तिपूर्वक निरूपण किया गया है और बाद में युक्तियों तथा श्रुतियों से सिद्ध किया गया है कि एकमात्र तत्त्व ब्रह्म है तथा द्वैत के लिए कोई अवकाश (स्थान) नहीं है।
व इस प्रकार अद्वैतब्रह्मसिद्धि अद्वैततत्त्वमीमांसा का एक मानक ग्रन्थ हो गया है। इसका प्रयोग वेदान्त के उन सभी जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी है जो वेदान्त-प्रस्थानों को तथा वेदान्तभिन्न दर्शनों के निराकरण को जानना चाहते हैं और वेदान्त के बारे में किसी एक निश्चित प्रस्थान को मानना चाहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सदानन्दयति अन्ततोगत्वा वार्तिकप्रस्थान को विशेष महत्त्व देते हैं। सूत्र-भाष्य-वार्तिक की परम्परा का अद्वैतवेदान्त ही अन्य अधिकांश अद्वैतवेदान्तियों की भांति उनको भी मान्य है।
सहायक ग्रन्थ :
अद्वैतब्रह्मसिद्धि, सदानन्दयतिविरचिता, वामनशास्त्री की भूमिका तथा टिप्पणी सहित, परिमल पबल्केशन्स, दिल्ली, १६८१।
४. वेदान्तसार
सदानन्द का वेदान्तसार अद्वैतवेदान्त का प्रथम और प्रामाणिक सारग्रन्थ है। इसके पूर्व रामानुज ने ब्रह्मसूत्र पर श्रीभाष्य के अतिरिक्त एक लघुकाय भाष्य लिखा था जिसका नाम भी वेदान्तसार है। परन्तु वह विष्टाद्वैतवादी वेदान्त का सार-ग्रन्थ है। सदानन्द के पूर्व अद्वैतवेदान्त में आचार्य पद्मपाद ने एक वेदान्तसार लिखा था जो शंकराचार्यरचित आत्मबोध की टीका है। उसमें अद्वैतवेदान्त के सम्पूर्ण विषयों का विवेचन नहीं है। सदानन्द के वेदान्तसार में अद्वैतवेदान्त के प्रायः सभी विषय आ गये हैं। अतएव यह अद्वैतवेदान्त का एक लोकप्रिय पाठ्यग्रन्थ हो गया है। अधिकांश लोग अद्वैतवेदान्त को जानने के लिए पहले इसी ग्रन्थ का अध्ययन करते है, विशेषतः अद्वैतवेदान्त के विद्यार्थीगण।
सदानन्द के वेदान्तसार की रचना लगभग १५२५ ई. में हुई थी। उनके शिष्य कृष्णानन्द थे। कृष्णानन्द के शिष्य नृसिंह सरस्वती थे जिन्होंने शक संवत् १५१० में अर्थात् १५८८ ई. में वेदान्तसार के ऊपर सुबोधिनी नामक एक टीका लिखी। उन्होंने सुबोधिनी का
प्रारम्भिक प्रस्थान के अन्य
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रचनाकाल स्वयं बताया है -
जाते पञ्चशताधिके दशशते संवत्सराणां पुनः सजाते दशवत्सरे प्रभुवरश्रीशालिवाहे शके। प्राप्ते दुर्मुखवत्सरे शुभशुचौ मासेऽनुमित्यां तिथौ
प्राप्ते भार्गववासरे नरहरिष्टीकां चकारोज्जवलाम्।। सुबोधिनीकार नृसिंह सरस्वती नृसिंहाश्रम से भिन्न व्यक्ति हैं। सुबोधिनी के अतिरिक्त वेदान्तसार पर संस्कृत में दो और टीकाएं हैं -रामतीर्थ की विद्वन्मनोरंजनी जिसकी रचना १६५० ई. के आस-पास हुई थी और आपदेव द्वितीय की बालबोधिनी जिसकी रचना १७वीं शती के उत्तरार्द्ध में हुई थी। इन तीनों टीकाओं में विद्वन्मनोरंजनी
सर्वोत्तम है।
सुबोधिनी और विद्वन्मनोरंजनी ने वेदान्तसार में वर्णित विषयों को ३८ विषयों में बांटा है। किन्हीं-किन्हीं खण्डों में कई अनुच्छेद हैं। इन सबको पृथक् करते हुए वेदान्तसार के हिन्दी
अनुवादक डॉ. संत नारायण श्रीवास्तव ने उसके विषयों को ६८ खण्डों में बांटा है।
उपर्युक्त तीनों आचार्यों के अनुसार वेदान्तसार के बारे में निम्नलिखित कथन महत्त्वपूर्ण हैं -
वेदान्तसार एक प्रकरण-ग्रंथ है जिसका अनुबन्धचतुष्टय (अधिकारी, विषय, प्रयोजन तथा सम्बन्ध) वही है जो अन्य अद्वैतवेदान्त के ग्रन्थों का है। तथापि सार-ग्रन्थ होने के कारण इसका अधिकारी अवान्तर (मुख्य नहीं) है क्योंकि वह मात्र सार-ग्रहण चाहता है। इसका विषय केवल निर्गुणसार मात्र है, अर्थात् सगुण-निर्गुण का भेद यहाँ छोड़ दिया गया है और निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा करना मात्र इसका प्रयोजन है जो वस्तुतः अवान्तर प्रयोजन है। सम्बन्ध भी इसी प्रकार अवान्तर ही है। तात्पर्य यह है
कि यह अद्वैतवेदान्त के अध्ययन का आरंभिक ग्रन्थ है। २. वेदान्त की परिभाषा देते हुए सदानन्द ने कहा “वेदान्तो नाम उपनिषत्प्रमाणं
तदुपकारीणि शारीरकसूत्रादीनि च।” नृसिंह सरस्वती कहते हैं कि जिस शास्त्र में केवल उपनिषद् ही प्रमाण हैं वह वेदान्त है और उसके उपकारक जो ग्रन्थ हैं वे भी वेदान्त कहे जाते हैं, जैसे शारीरकभाष्य, भगवद्गीता तथा अध्यात्मशास्त्र के अन्य ग्रन्थ । रामतीर्थ कहते हैं कि वेदान्त का मुख्य अर्थ उपनिषद् ही है क्योंकि वे ही वेद के अन्तिम भाग हैं। पुनश्च शारीरकमीमांसासूत्र (ब्रह्मसूत्र) आदि ग्रन्थों को गौण अर्थ में वेदान्तग्रन्थ कहा जाता है - मुख्यो वेदान्तशब्दो वेदभागभेदेषु शारीरकादौ तु
उपचरित इति व्युत्पादितः (विद्वन्मनोरंजनी, पृ. ६७)। ३. वास्तव में वेदान्तसार शंकराचार्य के शारीरकभाष्य का संक्षेप है। इस संक्षेप में
सर्वज्ञात्ममुनि के संक्षेपशारीरक को विशेष महत्त्व दिया गया है और उन्हें अभियुक्त
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वेदान्त-खण्ड
अर्थात अद्वैतवेदान्त का विशिष्ट ज्ञाता कहा गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि विद्धन्मनोरंजनी के लेखक रामतीर्थ ने संक्षेपशारीरक पर भी एक टीका लिखी है। अतएव उनके अनुसार वेदान्तसार संक्षेपशारीरक के परिवार या सम्प्रदाय का ग्रन्थ है। आचार्य शंकर की उपदेशसाहस्री, सुरेश्वर की नैष्कर्म्य-सिद्धि, सुरेश्वर के बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक और पंचीकरणवार्तिक तथा गौडपाद के आगम शास्त्र को अनेक श्रुति और स्मृति के वाक्यों के साथ सप्रमाण उद्धृत किया गया है। इन उद्धृत ग्रन्थों के आधार पर कहा जा सकता है कि वेदान्तसार वार्तिक-प्रस्थान से अधिक संबंधित है। इसके अध्ययन के पश्चात् शारीरकभाष्य, वार्तिक तथा संक्षेपशारीरक का अध्ययन करना चाहिए जो वेदान्त के मुख्य ग्रन्थ हैं। विद्वन्मनोरंजनी में “तथा च न्यायः” कहकर ब्रह्मसूत्र का उद्धरण दिया गया। उसमें सर्वत्र ब्रह्मसूत्र के सत्र को न्याय की संज्ञा दी गयी है, क्योंकि ब्रह्मसूत्र को न्यायप्रस्थान माना गया है। पहले से ही ब्रह्मसूत्र को न्याय कहने की परम्परा है। स्वामी विद्यारण्य के गुरु भारतीतीर्थ ने वैयासकन्यायमाला में शारीरकभाष्य में वर्णित विषयों के अधिकरणों को श्लोकबद्ध किया है। श्लोकों पर उनकी स्वयंकृत टीका भी है। वे कहते हैं ‘वेदान्तवाक्यार्थनिर्णायकानि अधिकरणानि न्यायः’ (वैयासकन्यायमाला, पृष्ठ १) अर्थात् वेदान्तवाक्य के अर्थनिर्णायक अधिकरण को न्याय कहते हैं। विद्धन्मनोरंजनी में इसको थोड़ा व्यापक बना दिया गया है। उसके लेखक वेदान्तवाक्य के निर्णयार्थ करने वाले सूत्र को भी न्याय कहते हैं। शास्त्रप्रतिपाद्य, अध्यायप्रतिपाय और पादप्रतिपाद्य अर्थों को त्रिविध न्यायसंगति कहते हैं (वैयासकन्यायमाला पृष्ठ, २१)। अतएव वेदान्तसार वास्तव में शारीरकभाष्य का सार है। यद्यपि यह रामानुज के वेदान्तसार की भांति संक्षिप्त भाष्य नहीं है या सूत्रानुसारी नहीं है और एक प्रकरणग्रन्थ है, तथापि प्रायः इसके प्रत्येक मत के समर्थन में कोई न कोई ब्रह्मसूत्रवाक्य या शारीरकभाष्य का वाक्य उद्धृत किया गया है। इसे शारीरकभाष्य रूपी मन्दिर का गोपुरम् या प्रवेशद्वार कहा जा सकता है। वेदान्तसार में अन्तःकरण दो ही माने गये हैं - बुद्धि और मन । चित्त का अन्तर्भाव बुद्धि में तथा अहंकार का अन्तर्भाव मन में किया गया है। जो लोग वेदान्तसार पर सांख्यदर्शन का प्रभाव मानते हैं उनको इस मत पर विशेष ध्यान देना चाहिए, क्योंकि सांख्य जिलना महत्त्व अहंकार को देता है वेदान्तसार उतना महत्त्व अहंकार को नहीं देता। अतएव वेदान्तसार सांख्यदर्शन के निकट नहीं है। वेदान्तसार में आत्मा-सम्बन्धी चार्वाकों के चार मत दिये गये हैं। कुछ चार्वाक
आत्मा को अन्नमय मानते हैं, कुछ इन्द्रियमय, कुछ प्राणमय और कछ मनोमय । इन सबका खण्डन वेदान्तसार तथा उसकी टीकाओं में किया गया है। यह ग्रन्थ का वैशिष्ट्य है।
प्रारम्भिक प्रस्थान के ग्रन्य
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६. वेदान्तसार में ‘तत्त्वमसि’ इत्यादि महावाक्यों का अर्थनिर्धारण सम्प्रदायानुसार किया
गया है। ‘तत्त्वमसि’ के वाक्यार्थ के निर्धारण में सामानाधिकरण्य, विशेषणविशेष्यभाव तथा लक्ष्यलक्षणसंबंध, इन तीनों सम्बन्धों की व्याख्या की गई है और अन्ततोगत्वा तीसरे का समर्थन किया गया है। जहदजहत् (भागत्याग) लक्षणा द्वारा ‘तत्त्वमसि’
का अर्थ निश्चित होता है। ७. पंचदशी की भांति वेदान्तसार में भी ब्रह्मज्ञान को वृत्तिव्याप्य माना गया है और
फलव्याप्य नहीं माना गया है।
अज्ञान को एक मानते हुए भी वेदान्तसार में उसके दो भेद, व्यष्टिगत और समष्टिगत, माने गये हैं। फिर व्यष्टिगत अज्ञान अनेक हैं। व्यष्टि-समष्टि के निरूपण द्वारा जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्थाओं में जीव-ब्रह्मैक्य का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है। इस प्रतिपादन पर माण्डूक्यकारिका और उसकी टीकाओं का प्रभाव सुस्पष्ट है। इन सभी मतों के सप्रमाण विवेचन के कारण निःसन्देह वेदान्तसार को अद्वैतवेदान्त के सभी जिज्ञासुओं को सबसे पहले पढ़ना चाहिए। इसके विकल्प के रूप में लगभग १८५० ई. में निश्चलदास ने विचारसागर नामक एक हिन्दी ग्रन्थ लिखा जो इतना उपयोगी सिद्ध हुआ कि उसका संस्कृत अनुवाद भी बीसवीं शती में किया गया। तथापि विचारसागर वेदान्तसार का स्थान नहीं ले सकता, यद्यपि दोनों ही ग्रन्थ अद्वैतवेदान्त के प्रवेशद्वार हैं। वेदान्तसार प्राधान्येन तत्त्वमीमांसा का ग्रन्थ है। वेदान्तसार शारीकरभाष्यमूलक है। यहां यह विचारणीय है कि वेदान्तसार वस्तुतः संक्षेपशारीरकमूलक है। इस पर उपदेशसाहस्री का भी प्रभाव है। वार्तिक-प्रस्थान के मुख्य ग्रंथों का प्रभाव उस पर जितना है उतना शारीरकभाष्य और उसकी टीकाओं का नहीं। ।। सं.।। और विचारसागर वैसा नहीं है। फिर भी जो संस्कृत नहीं जानते उनके लिए विचारसागर से श्रेष्ठ कोई ग्रन्थ नहीं है। इस अर्थ में वह वेदान्तसार का स्थानापन्न हो गया है।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
१. वेदान्तसार, सदानन्दविरचित, नृसिंहसरस्वती की सुबोधिनी तथा रामतीर्थ की
विद्वन्मनोरंजनी के साथ कर्नल जी.ए. जैकब द्वारा संपादित, प्रथम संस्करण १८६३,
द्वितीय संस्करण कृष्णदास अकादमी, वाराणसी, १६७५, २. वेदान्तसार सदानन्दविरचित, डॉ. सन्तनाराण श्रीवास्तव की तत्त्वपारिजात नामक
हिन्दी टीका सहित, लोकभारती, इलाहाबाद १६६८. . . ३. भारतीतीर्थ, वैयासकन्यायमाला, आनन्दाश्रम, पूना, १६६६।
वेदान्त-खण्ड
५. वेदान्त परिभाषा
(१) सामान्य परिचय-
यद्यपि प्रमेय पदार्थों का वेदादि शास्त्रों में सम्यक् विवेचन किया गया है, तथापि प्रमा, प्रमाण-प्रक्रिया, परिभाषा आदि का स्पष्ट विवेचन वहाँ अनुलब्ध है। पुनश्च कतिपय विद्वानों ने प्रमाण आदि प्रक्रियाओं का विवेचन भी किया है, तथापि धर्मराजाध्वरीन्द्रकृत “वेदान्तपरिभाषा” प्रमाण के दृष्टिकोण से एक नितान्त महत्त्वपूर्ण प्रकरण ग्रन्थ है। नव्य-न्याय की शैली में प्रमाणों का सुस्पष्ट विवेचन प्रस्तुत करके वेदान्त दर्शन की एक बहुत बड़ी सेवा धर्मराज ने वेदान्तपरिभाषा के माध्यम से की है।
धर्मराज तमिलनाडु में तंजोर जनपद के कण्डूमणिक्कम ग्राम के निवासी थे। उनका समय सत्रहवीं शती माना जाता है। महामहोपाध्याय अनन्तकृष्णशास्त्री के अनुसार वे सिद्धान्तलेशसंग्रहकार अप्पयदीक्षित के परवर्ती थे। वे वेंकटनाथ के पुत्र थे और न्याय वैशेषिक एवं वेदान्त में नितान्त निष्णात थे। न्याय-दर्शन पर उनकी उल्लेखनीय कृतियों में गंगेश के तत्त्वचिन्तामणि पर तर्कचूड़ामणि, मुक्तिसंग्रह एवं शशधर के न्याय-सिद्धान्तदीप पर प्रकाशिका टीका है। वेदान्त पर उनके दो ग्रन्थ हैं- वेदान्तपरिभाषा तथा पदमोजनिका।
वेदान्तपरिभाषा कई प्रकाशनों से हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित है। इस पर सबसे प्रमुख टीका शिखामणि है जिसके लेखक रामकृष्ण धर्मराज के पुत्र थे। अमरदास स्वामी ने एक टीका लिखी। धर्मराज के शिष्य एवं भ्रातृज पेद्ददीक्षित ने भी एक टीका की है। नारायण भट्ट द्वारा लिखी हुई “भूषण टीका" भी उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त शिवदत्त की “अर्थदीपिका” टीका सर्वमान्य है। अर्थदीपिका की उल्लेखनीय विशिष्टता यह है कि इमसें धर्मराज के सिद्धान्तों का पूर्णतया समर्थन किया गया है तथा उनके पुत्र द्वारा लिखी गई टीका का यथास्थल खण्डन करके वेदान्तपरिभाषा के तात्पर्य को अभिव्यक्त किया गया है। अनन्तकृष्णशास्त्रीकृत परिभाषाप्रकाशिका कोचीन-नरेश श्रीराम वर्माकृत परिभाषासंग्रह है और आनन्द झा कृत भगवती वेदान्तपरिभाषा की अन्य प्रकाशित टीकाएँ हैं। सूर्यनारायण शास्त्री ने मद्रास से इसका अंग्रजी अनुवाद भी प्रकाशित किया है।
वेदान्तपरिभाषा आठ परिच्छेदों में विभाजित है। प्रथम छः परिच्छेदों में वेदान्तसम्मत छः प्रमाणों का विवेचन किया गया है। सातवें परिच्छेद में वेदान्त के विषय तथा आठवें परिच्छेद में वेदान्त से सिद्ध होने वाले प्रयोजन की व्याख्या की गई है। वेदान्तपरिभाषा का विषय विश्वोत्पत्ति से सम्बन्धित सृष्टि-विज्ञान नहीं है। यह धर्म-मीमांसा भी नहीं है। यह इन्द्रियानुभवविषयक विज्ञान भी नहीं है। यह दर्शन शास्त्र अथवा आन्विक्षिकी का एक ऐसा ग्रन्थ है जो ज्ञानमीमांसीय पदों का तार्किक विश्लेषण प्रस्तुत करने का सक्षम प्रयास करता है। अतएव इसे वेदान्त-ज्ञानमीमांसा का ही नहीं, अपितु ज्ञान का दर्शन-शास्त्र कहना अधिक उपयुक्त होगा। वेदान्तपरिभाषा वस्तुतः तर्कशास्त्र का दर्शन है। धर्मराज ने इसमें प्रायः वैसी ही वैध युक्तियों तथा प्रामाणिक तकनीकों का प्रयोग किया है, जैसी दार्शनिक युक्तियों तथा तकनीकों का प्रयोग आज समसामयिक दार्शनिक करते हैं। उन्होंने वेदान्त के
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प्रारम्भिक प्रस्थान के अन्य पदों, प्रत्ययों का विश्लेषण लोकसिद्ध व्यवहार-परम्परा तथा संस्कार के आधार पर किया है। उन्होंने सामान्य दृष्टिकोण को विशिष्ट उदाहरणों के निष्कर्ष पर परखने की उस विधा का भी प्रयोग किया है, जिसे आजकल कुछ दार्शनिक “अप्रमाणन की प्रणाली” की संज्ञा देते हैं। वेदान्तपरिभाषा के अन्तर्गत उन्होंने सादृश्यानुमानों एवं रूपकों का बहुत प्रयोग किया है। इनका प्रयोग युक्तियों के स्थान पर नहीं, अपि तु युक्तियों को और अधिक बलवान् बनाने हेतु किया गया है। इस विधा का प्रयोग प्राचीन काल में प्लेटो ने तथा समसामयिक पाश्चात्त्य दर्शन में विटगेन्स्टाइन ने किया है। अतः वेदान्तपरिभाषा में धर्मराज एक विश्लेषणवादी दार्शनिक के रूप में उभर कर आते हैं। परन्तु उनका विश्लेषण समकालीन पाश्चात्त्य दर्शन के विश्लेषण-जैसा आंशिक विश्लेषण नहीं है। काल, मन, ज्ञान आदि प्रत्ययों का उनका विश्लेषण दार्शनिक सम्प्रत्ययों के परिवार का वर्णनात्मक विश्लेषण भी नहीं है, जैसा कि भाववादी दार्शनिक ‘ज्ञान’ के अन्तर्गत रखकर उनका विश्लेषण करते हैं। वह दुरूह दार्शनिक सम्प्रत्ययों या सत्ताविषयकसम्प्रत्यय का सामान्य-भाषायी विश्लेषण भी नहीं है। वह इश्वर, द्रव्य आदि दार्शनिक सम्प्रत्ययों का चिकित्सीय विश्लेषण भी नहीं है जिसे आजकल कुछ पश्चिमी दार्शनिक करते हैं। वेदान्तपरिभाषा वास्तव में वर्णनात्मक तत्त्वमीमांसा का ग्रन्थ है। इसमें वर्णनात्मक तत्वमीमांसा की सभी सम्भावनाओं की खोज के प्रयास के साथ-साथ मात्र चिन्तन-मूलक (ऊहात्मक) मीमांसा की सम्भावना को ध्वस्त करने का भी प्रयास किया गया है। ऊहात्मक तत्त्ववाद कपोलकल्पना है, वेदान्त तत्त्ववाद यथार्थ ज्ञान है।
वेदान्तपरिभाषा के कतिपय अन्य विषय भी उल्लेखनीय है। प्रोफेसर एस.एन. दास गुप्त इस को वेदान्त के प्रमुख विषयों तथा ज्ञानमीमांसा का नितान्त मौलिक एवं उच्चकोटि का ग्रन्थ मानते हुए भी कालान्तर में यह मानते हैं कि धर्मराज रामाद्वय तथा उनके ग्रन्थ “वेदान्तकौमुदी’ के प्रति नितान्त ऋणी हैं। उनके अनुसार वेदान्तपरिभाषा में विवेचित सम्पूर्ण प्रतिपाद्य रामादय के पिष्टपेषण मात्र है। परन्तु डॉ. दासगुप्त का यह मत क्षोदक्षम है। रामाद्वय नव्यन्याय में उतने कुशल नहीं थे जितने धर्मराज। इस कारण उनके ग्रन्थ का
अपना वैशिष्ट्य है। निजी
यहाँ एक अन्य विवाद की चर्चा करना भी अप्रासंगिक न होगा। कुछ विद्वान् मानते हैं कि वेदान्तपरिभाषा में धर्मराज ने विवरणमत को स्वीकार किया है। फिर अन्य विद्वानों ने उन्हें शंकराचार्य के कार्य को ही और आगे बढ़ाने वाला बताया है। परन्तु इस विचार की गहरी छानबीन करना यहां वाञ्छनीय नहीं है। वेदान्तपरिभाषा को एक स्वतःपूर्ण प्रकरण ग्रन्थ माना जा सकता है। स्वयं धर्मराज ने भी इसे वेदान्तार्थावलम्बिनी कहा है। उसमें
चैतन्य, अन्तःकरण, वृत्ति, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, जीव-साक्षी, व्याप्ति, संस्कार, अनुभूति आदि सम्प्रत्ययों का तार्किक विवेचन एवं विश्लेषण किया गया है। इसी प्रकार उसमें आत्मा, ब्रह्म, अधिष्ठान, अध्यास, अविद्या, माया एवं मोक्ष आदि के भी दार्शनिक विश्लेषण किये गये हैं।
बेदान्त-खण्ड
वेदान्तपरिभाषा की प्रमाण-प्रमेय-प्रतिपादन की शैली अनोखी है। इसके उल्लेखनीय मत हैं मन का अतीन्द्रियत्व, वहिनमान् पर्वत में पर्वतांश की प्रत्यक्षत्वव्यवस्था, ज्ञानगत प्रत्यक्ष एवं विषयगत प्रत्यक्ष के पृथक्-पृथक् प्रयोजक शब्द से भी प्रत्यक्षज्ञान की उत्पत्ति, जातिशक्तिवाद, अर्थापत्ति तथा अनुपलब्धि का पृथक् प्रमाणत्व, स्वतःप्रामाण्यवाद, महावाक्य में लक्षणा का खण्डन, एक-अविद्यावाद की स्वीकृति आदि।
चूंकि ब्रह्मज्ञान भी किसी प्रमाण की ही अपेक्षा रखता है अतएव ब्रह्म, ब्रह्मज्ञान एवं इस विषय में प्रमाण के विवेचन से पूर्व सर्वप्रथम प्रमाणों का विवेचन ही आवश्यक एवं वाञ्छनीय प्रतीत होता है। वेदान्तपरिभाषा में स्वीकृत प्रमाण हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द (आगम), अर्धापत्ति एवं अनुपलब्धि। इनका प्रथक विवेचन करने के पूर्व प्रमा के स्वरूप का विवेचन आवश्यक है।
(२) प्रमा
ज्ञान को भम तथा प्रमा भेद से दो भागों में बांटा गया है। बाधित वस्तु को विषय करने वाले ज्ञान को भ्रम तथा अबाधित वस्तु को विषय करने वाले ज्ञान को प्रमा की संज्ञा दी जाती है। कुछ लोगों के अनुसार अबाधित वस्तु को विषय करने वाली स्मृति को प्रमा की कोटि में रखना उचित नहीं है। ऐसे लोगों के अनुसार जानी हुई वस्तु को पुनः जानना प्रमा नहीं है। पहले से अज्ञात तथा अबाधित वस्तुमात्र के ज्ञान को ही प्रमा कहना उचित होगा। अतएव प्रमा ‘ज्ञान’ के करण (व्यापार वाला असाधारण कारण) को प्रमाण कहते हैं।
(३) प्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष सभी प्रमाणों में प्रथम है। यदि ज्ञान तथा उसका विषय समान देश-काल में हों तो उसे प्रत्यक्ष और यदि दोनों पृथक्-काल में हो तो उसे परोक्ष कहते हैं। वेदान्त के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमा तथा ब्रह्मचैतन्य पर्याय हैं। अन्तःकरण की वृत्ति, जो ब्रह्मचैतन्य की अभिव्यञ्जक है, गौण अर्थ में ज्ञान कही गई है। अतएव प्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग ब्रह्मचैतन्य, उसके अभिव्यञ्जक अन्तःकरण की वृत्ति एवं विषय तीनों ही के लिए ही किया गया है। इनमें स्वयंप्रकाश होने के कारण ब्रह्मचैतन्य सदैव प्रत्यक्ष होते हुए भी विषयाकार वृत्ति के अभाव में विषयदेशस्थ चैतन्य की अभिव्यक्ति नहीं है तथा विषय का प्रमाता के साथ अभेद नहीं होता है। इस प्रकार ब्रह्मचैतन्य रूप ज्ञान तथा विषय के प्रत्यक्ष हेतु वृत्ति मध्यस्थ का कार्य करते हैं।
वृत्ति-रूप ज्ञान आत्मा का धर्म नहीं हैं। वह अपञ्चीकृत महाभूतों के सत्त्वगुण के कार्य और मध्यम परिमाण वाले अन्तःकरण का धर्म है। “मैं जानता हूँ”, “मैं सुखी हूँ” आदि अनुभवों में मन के धर्म का आत्मा में अध्यास होता है। यथा, लौहपिण्ड में जलाने की शक्ति का अभाव होने पर भी अग्नि के साथ उसका तादात्म्य (अध्यास) हो जाने पर लौहपिण्ड जलाता है, ठीक उसी भांति यहाँ भी समझना चाहिए।
मन को इन्द्रिय न मानने पर भी ज्ञान का करण तो उसे स्वीकार ही किया जाता है। इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मानना तथा मन का इन्द्रिय कहना नैयायिकों को पर्याप्त महंगा
प्रारम्भिक प्रस्थान के अन्य
ថ្ងៃ
पड़ेगा, क्योंकि मनोजन्य होने के कारण अनुमिति आदि के ज्ञान में प्रत्यक्षत्व का समावेश हो जायेगा तथा इन्द्रियजन्य न होने के परिणामस्वरूप ईश्वर के ज्ञान में प्रत्यक्षत्व का प्रयोग हो जायेगा।
अतएव ज्ञान के प्रत्यक्ष विषयदेशस्थ चैतन्य तथा मनोवृत्तिरूप प्रमाण-चैतन्य के अभेद को कारण माना गया है। यद्यपि चेतन एक ही है, तथापि विषय, अन्तःकरण एवं उसकी वृत्ति रूप उपाधि को लेकर विषय चैतन्य, प्रमात चैतन्य, प्रमाण चैतन्य आदि भिन्न-भिन्न रूपों से उसे जाना गया है। जब अन्तःकरण की वृत्ति शब्द, संस्कार तथा अनुमान आदि हृदयदेश में ही घट आदि विषय के आकार बन जाती हैं तथा विषय बाह्यदेश में होता है, अर्थात् वृत्ति एवं विषय एक देश में नहीं होते हैं, तो उस समय घट आदि के विषय अंश के ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं, अपि तु परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। फलस्वरूप ‘पर्वतो वहिमान्’ इस अनुमिति के पर्वत-अंश को प्रत्यक्ष-विषय तथा वह्नि-अंश को परोक्ष विषय माना गया
है।
कुछ विषयों में स्वभावतः प्रत्यक्ष-योग्यता होती है और कुछ में नहीं। प्रत्यक्षयोग्य वर्तमान विषय को देशस्थ चैतन्य और उसके आकार वृत्ति से अवच्छिन्न चैतन्य के अभेद काल में प्रत्यक्ष कहा गया है। सभी विषय स्वावच्छिन्न चैतन्य में कल्पित हैं। अधिष्ठान से भिन्न जो कल्पित पदार्थ हैं उनकी सत्ता नहीं मानी जाती। जिस प्रकार शुक्ति में कल्पित रजत की शुक्ति से पृथक् सत्ता नहीं है, उसी प्रकार घट आदि व्यावहारिक विषयों की भी उनके अधिष्ठान (ब्रह्मचैतन्य) से पृथक् सत्ता नहीं हैं। स्वयंप्रकाश चैतन्य भी अपने में कल्पित व्यावहारिक घट आदि विषय-अंश में तब तक प्रत्यक्ष नहीं कहा जाता जब तक कि घटदेश में जाकर घटाकार अन्तःकरण की वृत्ति नहीं बन जाती। वृत्ति बनते ही घट का प्रत्यक्ष होता है। इसका आशय है कि प्रत्यक्ष-ज्ञान प्रमाता को होता है। यदि प्रमाता अन्तर्देश में है तथा विषय बाह्य देश में है, तो घट आदि विषय का प्रमाता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। परन्तु जब नेत्र आदि इन्द्रियों द्वारा अन्तःकरण की वृत्ति विषयदेश में जाती है, तब अन्तःकरण तथा घट आदि विषय-रूप दोनों उपाधियों के एकदेश में हो जाने के फलस्वरूप प्रमातृचैतन्य एवं विषयचैतन्य का अभेद हो जाता है। ऐसी स्थिति में यदि घट आदि विषय-देश में स्थित चैतन्य को कल्पित कहा जाय अथवा उस विषय चैतन्य से अभिन्न प्रमातृचैतन्य में घट आदि विषय को कल्पित माना जाय, तो दोनों में कोई अन्तर नहीं हैं। ऐसी दशा में प्रमाता से पृथक् घट आदि विषय की सत्ता न रह जाने के कारण घट आदि विषय का प्रत्यक्ष माना जाता है। अनुमिति आदि में वृद्धि आदि साध्य के साथ इन्द्रियों का सम्बन्ध न होने के कारण उस देश में अन्तःकरण का जाना सम्भव ही नहीं है। अतएव प्रमाता से पृथक् ही बहिन आदि की सत्ता रह जाती है। इसी कारण उसे प्रत्यक्ष न मानकर परोक्ष माना जाता है। ज्ञान के प्रत्यक्ष के समान विषय के प्रत्यक्ष के लिए भी विषय की प्रत्यक्ष योग्यता अपेक्षित है। यहाँ स्मरणीय है कि विषयाकारवृत्ति के अभाव मेंवेदान्त-खण्ड माता
।
किसी भी विषय में प्रत्यक्षत्व नहीं आता। विषय चाहे घट आदि की भांति बाह्य हो अथवा सुख आदि की भांति आन्तरिक हो या स्वयं वृत्ति ही क्यों न हो, उसके लिए विषयाकार वृत्ति आवश्यक है। अतएव योग्य विषय में तदाकार वृत्ति से उपहित प्रमातृ-सत्ता से पृथक सत्ता का अभाव ही उसमें प्रत्यक्षत्व है।
अंग प्रत्यक्षज्ञान के सविकल्पक एवं निर्विकल्पक दो प्रकार हैं। जिसमें पदार्थों का सम्बन्ध दिखलाई दे वह सविकल्पक प्रत्यक्ष तथा जिसमें ऐसा सम्बन्ध न दिखलाई दे वह निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है। “मैं घट को जानता हूँ” इस ज्ञान में “मैं” पदवाच्य प्रमाता में घटज्ञान प्रकार है तथा घटज्ञान में घट प्रकार है। इनके साथ-साथ इनका सम्बन्ध भी दिखलाई देता है अतएव इसे सविकल्पक प्रत्यक्ष कहते हैं। परन्तु “सोऽयम् देवदत्तः”, “तत्त्वमसि’ आदि वाक्यों से होने वाला ज्ञान मात्र देवदत्त व्यक्ति तथा केवल तत् और त्वम् पद से वाच्य जीवेश्वर में विद्यमान चैतन्य मात्र को विषय करने के कारण निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है। विषय एवं प्रमाता का अभेद सम्भव होने पर शब्द से भी प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। “तत्त्वमसि” आदि महावाक्यों के अर्थज्ञान के समय प्रमाता एवं ब्रह्म का अभेद ही तो विषय होता है। यह शांकरवेदान्त की प्रमुख विशिष्टता है कि व्यापक चैतन्य का प्रत्यक्ष सम्भव है, अन्यथा जीव से पृथक् परम सत् ब्रह्म को देखने के लिए अन्य कोई साधन उपलब्ध नहीं है। “तत्त्वमसि” आदि महावाक्य अखण्डार्थ के बोधक हैं। अखण्डार्थबोध का तात्पर्य है कि वे संसर्ग का अवगाहन न करने वाले ज्ञान को उत्पन्न करते हैं। या
प्रत्यक्षज्ञान के दो प्रकार जीव साक्षी एवं ईश्वर साक्षी के भेद के कारण भी हैं। इनमें जीव की उपाधि अन्तःकरण-परिच्छिन्न तथा अनेक है। अतएव जीव-साक्षी भी परिच्छिन्न तथा अनेक है। परन्तु ईश्वर की उपाधि माया विश्वव्यापी अपरिच्छिन्न तथा एक है। शांकरवेदान्त में यह उल्लेखनीय है कि अपने आपको ब्रह्मरूप से अपरोक्षानभव करने पर कारण सहित दुःखों की निवृत्ति तथा ब्रह्मानन्द की प्राप्ति हो जाती है। नित्य सिद्ध होते हुए भी जो अविद्या के कारण तिरोहित था, उस अविद्या की निवृत्ति ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान से ही होती है, किसी अन्य साधन से नहीं। परन्तु अविद्या तथा उसके कार्य में मिथ्यात्व निश्चय के अभाव में अद्वैतबोध असम्भव है। आत्मा से पृथक् परमेश्वर को स्वीकार करके न्याय, वैशेषिक तथा सेश्वर सांख्य दर्शनों ने परमेश्वर को प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय नहीं माना। यह उनकी बौद्धिक ईमानदारी है, परन्तु उन्होंने आत्मा से पृथक् ईश्वर को स्वीकार करके उसके प्रत्यक्ष का प्रयास किया, यह उनके दुःसाहस का द्योतक है। अतएव श्रुति-तात्पर्य का अनुगमन करने वाला शांकर वेदान्त सन्मार्ग को प्रदर्शित कर कल्याण स्वरूप ब्रह्म का आत्मभावेन साक्षात्कार कराता है। तात
(४) अनुमान
जो अनुमिति-प्रमा का कारण हो, वह अनुमान है। अनुमिति-प्रमा व्याप्तिज्ञानजन्य है। व्याप्तिज्ञान के अनुव्यवसाय व्याप्तिज्ञानजन्यत्व नहीं है। इसी कारण अनुव्यवसाय, स्मृति, शब्दज्ञान आदि को अनुमिति नहीं कहा जाता। जिस व्याप्तिज्ञान से
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प्रारम्भिक प्रस्थान के ग्रन्थ अनुमिति-प्रमा उत्पन्न होती है, वह व्याप्तिज्ञान अनुमान है। व्युत्पन्न अनुमान लक्षण है और अव्युत्पन्न अनुमान लक्ष्य है।
THE व्याप्तिज्ञान अनुमिति का साधन है तथा व्याप्तिज्ञान का संस्कार उसका अवान्तर व्यापार है। तृतीय लिंगपरामर्श अनुमिति का करण नहीं है, क्योंकि उसमें अनुमिति का हेतुत्व ही असिद्ध है। अतएव असाधारण कारणत्व रूप करणत्व अत्यन्त खण्डित है। यदि कारणत्व तथा करणत्व परस्पर विराधी होते तो एक ही व्याप्तिज्ञान को कारण तथा करण नहीं कहा जा सकता था। किन्तु ये परस्पर विरोधी नहीं है, क्योंकि असाधारण कारण को ही करण कहते हैं। जिस प्रकार एक ही ब्राह्मण को आश्रम-भेद से ब्राह्मण एवं परिव्राजक कहा जाता है, उसी प्रकार एक ही व्याप्तिज्ञान में कारणत्व तथा करणत्व जैसे अविरोधी धर्मो के रहने में कोई भी दोष नहीं है। अतएव एक ही ज्ञान को कारण एवं करण कह सकते
नैयायिक केवलान्वयि, केवलव्यतिरेकि तथा अन्वयव्यतिरेकि भेद से तीन प्रकार का हेतु मानते हैं। परन्तु वेदान्त के अनुसार अन्वयि एक ही हेतु स्वीकार किया गया है।
अनुमान-प्रमाण का प्रयोग ब्रह्मज्ञान में भी होता है। प्रपंच मिथ्या है, ब्रह्म से भिन्न होने के कारण। यथा शुक्ति, रजत आदि इस अनुमान में शुक्ति रजत के विभिन्न भ्रम स्थलों में भिन्न-भिन्न कारण मानने की अपेक्षा मिथ्यात्व का प्रयोजक मात्र ब्रह्म-भिन्नता को मानने में लाघव है, क्योंकि उक्त स्थल में ब्रह्माभिन्नत्व सर्वत्र अनुगत एवं एक है। वस्तुतः जो वस्तु जहाँ नहीं है यदि वह वहाँ आपाततः दिखाई देती है, तो निश्चित है कि विचारकाल में आपाततः दिखलाई देने वाली वस्तु के अत्यन्ताभाव का प्रतियोगित्वरूप मिथ्यात्व नितान्त सिद्ध हो जायगा। “सन् घटः” इस प्रत्यक्ष में प्रत्यक्ष होने वाली घट सत्ता उसके अधिष्ठान (ब्रह्म) की है, न कि उस घट की। अतः उक्त रीति से समस्त प्रपञ्च में मिथ्यात्वानुमान कर लेने पर ब्रह्मात्मैक्य ज्ञान निर्बाध रूप से सिद्ध हो जाता है। अतएव वेदान्त में “मन्तव्यः’ आदि वाक्यों में अनुमान प्रमाण को समुचित स्थान प्राप्त है।
(५) उपमान
सादृश्य-प्रमा के करण को उपमान कहते हैं, जैसे “गो” तथा ‘गवय” का सादृश्य। इनमें अनुयोगी प्रतियोगी के भेद से सादृश्य भिन्न-भिन्न माना गया है। नागरिक के जंगल में जाने पर ‘गवय-पिण्ड” को देखते ही “यह पिण्ड गो के सदृश है’, ऐसा ज्ञान होने को उपमान कहते हैं। तत्पश्चात् ‘इसी के समान मेरी गो है,” ऐसे ज्ञान को उपमिति कहते हैं। यह परोक्ष है, अपरोक्ष नहीं। इसके विपरीत नैयायिकों के अनुसार “संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञान” तो प्रत्यक्ष है, अतएव उसे परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत उपमिति-रूप कैसे स्वीकार किया जायगा? इसलिए वेदान्त के अनुसार उपमान, उपमिति का स्वरूप ही समीचीन है। ब्रह्म की व्यापकता में आकाश की तथा स्वप्रकाशता में सूर्य की उपमा देकर उपमान की उपादेयता को स्वीकार किया गया है। उपमान की इस उपयोगिता को ध्यान में रखकर वेदान्त में इसे एक प्रमाण माना गया है।
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वेदान्त-खण्ड
परन्तु सांख्य दार्शनिक प्रत्यक्ष में ही उपमान का अन्तर्भाव मानते हैं। उनके अनुसार ““गवय” के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष होने पर उसमें जो ‘गोसादृश्य” का ज्ञान होता है और वह जिस प्रकार प्रत्यक्षात्मक रहता है, उसी प्रकार गो का स्मरण होने के पश्चात् “गो” में जो “गवयसादृश्य” का ज्ञान, जिसे उपमिति कहते हैं, होता है, वह भी प्रत्यक्षरूप ही है, क्योंकि “गवय में भासित होने वाला सादृश्य”, “गो” में भासित होने वाले सादृश्य से भिन्न नहीं है। जो सादृश्य गवयनिष्ठ है, वही गोनिष्ठ भी है। क्योंकि किसी एक जाति का अन्य जाति में रहने वाले बहुत से अवयवों का साम्य ही सादृश्य है। ऐसे सादृश्य का गवय तथा गो में समान रूप से प्रत्यक्ष होता है। अतएव उपमान स्वतंत्र प्रमाण नहीं है, उसका प्रत्यक्ष में ही अन्तर्भाव है।
परन्तु यह युक्ति ठीक नहीं है। यद्यपि सादृश्य सर्वत्र एक-सा ही है, तथापि उसके धर्मी तथा प्रतियोगी सर्वत्र भिन्न-भिन्न होते हैं। सादृश्य जिसमें प्रतीत होता है. वह उस सादृश्य का धर्मी होता है, उसी को सादृश्य का अनुयोगी भी कहते हैं। जिसका सादृश्य भासित होता है उसे प्रतियोगी कहते हैं। “गोसदृशो गवयः” इस ज्ञान में ‘गवय" धर्मी अथवा अनुयोगी है तथा “गो" प्रतियोगी है। प्रत्येक व्यक्ति में सादृश्य पृथक्-पृथक् ही रहता है। इसीलिए गवय प्रत्यक्ष होने पर उसके साथ चक्षु का सन्निकर्ष होता है। परन्तु गो व्यक्ति वहाँ पर उस समय समीप न होने से, उसके साथ इन्द्रिय-सन्निकर्ष नहीं होता। अतएव गोनिष्ठ सादृश्य प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकता। अतः उपमान का प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव करना युक्तियुक्त नहीं है।
___ वैशेषिक दार्शनिक उपमान का अन्तर्भाव अनुमान में करते हैं। मैत्र यदि चैत्र जैसा है तो चैत्र भी मैत्र जैसा अवश्य ही होगा। इस प्रकार के अनुमान में कोई दोष नहीं है। अतएव अनुमान से ही उपमान की व्याख्या हो सकती है।
परन्तु वैशेषिकों की यह युक्ति ठीक नहीं है। उक्त अनुमान के दोषरहित होने पर भी प्रत्येक सादृश्य प्रमा के समय, ऐसा अनुमान किया ही जाय, यह कोई नियम नहीं है। बिना अनुमान के भी “अनेन सदृशी मदीया गौः” ऐसी अबाधित प्रतीति होती है। अतएव उपमान एक स्वतन्त्र प्रमाण है। इसका अन्तर्भाव न तो प्रत्यक्ष में और न ही अनुमान में हो सकता है।
(६) आगम
जहाँ प्रत्यक्षादि प्रमाणों की सार्थकता नहीं रहती वहाँ आगम प्रमाण ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है। आगम के पौरुषेय तथा अपौरुषेय दो भेद हैं। वेद अपौरुषेय तथा इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र आदि पौरुषेय आगम माने गये हैं। वेदानुकूल होने के कारण तथा वेद के तात्पर्य को स्पष्ट करने के कारण पौरुषेय आगम को भी प्रामाणिक माना गया है।
शब्द एक ऐसा प्रमाण है जिसका कभी-कभी आपाततः अर्थ के तात्पर्य से सर्वथा भिन्न अर्थ हो जाता है। किन्तु तात्पर्य के अनुसार ही सर्वत्र शब्द का अर्थ ग्रहण करना
प्रारम्भिक प्रस्थान के ग्रन्य
१८१ पड़ता है। वाक्यार्थ ज्ञान में आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति एवं तात्पर्य ज्ञान को कारण माना गया है।
वाक्य में अनेक पद होते हैं। उनमें से क्रिया एवं कारक अर्थ के वाचक पदों में से किया के श्रवण से कारक की तथा कारक को सुनने से क्रियार्थ सुनने की जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है। यथा, “घटमानय” इस वाक्य के “आनय” (ले आओ) पद के श्रवण से क्रिया पदार्थ का बोध होते ही कारक पदार्थ के श्रवण की जिज्ञासा हो जाने के कारण कारक में जिज्ञासा विषयत्व आ जाता है, तथा “घटम्" पद के श्रवण से पदार्थबोध होते ही किया के सुनने की जिज्ञासा आ जाना ही आकांक्षा है। जिज्ञासा के अभाव में भी व्युत्पन्न व्यक्ति को वाक्य से वाक्यार्थ बोध होता है। अतएव आकांक्षा के लक्षण में योग्यत्व पद का भी समावेश किया गया है।
तात्पर्य अर्थ का बाधित न होना ही योग्यता है। अतएव वह अग्नि से सींचता है, इस वाक्य में तात्पर्य अर्थ के बाधित हो जाने के कारण योग्यता नहीं है। “तत्त्वमसि” आदि महावाक्य का तात्पर्य जीव और ब्रह्म के अभेद का बोध कराने में है। यहाँ वाच्यार्थ के अभेद का बोध होने पर भी लक्ष्यार्थ का बोध न होने के कारण योग्यता है। । यदि पद से पदार्थ की मानसिक उपस्थिति बिना व्यवधान के हो, तो उसे आसत्ति कहते हैं। प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से अर्थ की उपस्थिति होने पर भी उस पदार्थ का अन्वयबोध शब्दज्ञान में नहीं होता, अपितु ऐसे स्थल पर पद का अध्याहार करना पड़ता है तथा अध्याहृत पदार्थ का ही श्रौत पदार्थ के साथ अन्वय होता है।
पदार्थ दो प्रकार का है- शक्य तथा लक्ष्य। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि लक्षणा का विवेचन करते समय वेदान्तपरिभाषा के लेखक ने जहदजहद् लक्षणा के प्रसिद्ध उदाहरण “तत्त्वमसि” तथा “सोऽयम् देवदत्तः” को लक्षणा से पृथक् कर दिया है तथा शक्तिवृत्ति के द्वारा उपस्थित दोनों के विशेष्य भाग का अभेद या तादात्म्य अनायास सिद्ध किया है। यह धर्मराज की बुद्धि-कुशलता है। “काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्” को परिभाषाकार ने भागत्यागलक्षणा का उदाहरण माना है।
तात्पर्य की सिद्धि के लिए ही लक्षणा की आवश्यकता है। अतएव जहाँ तात्पर्यसिद्धि न हो रही हो वहाँ यथासम्भव जहदजहद् एवं भागत्यागलक्षणा के द्वारा उसे सिद्ध किया जाता है। तात्पर्य वक्ता की इच्छा के अधीन नहीं होता, अपितु पद का स्वभाव है। उक्त चार सहकारी कारणों के रहने पर ही वाक्यज्ञान से वाक्यार्थबोध होता है। श्रवण से अथवा लिपिसंकेत को देखने से दोनों प्रकार से हुआ शब्दज्ञान शाब्दबोध का कारण है। शाब्दबोध के लिए शब्दज्ञान असाधारण करणरूप होने से कारण है, पदार्थ का स्मरण द्वार है तथा शक्तिग्रह (अभिधावृत्ति से ज्ञान) सहकारी कारण है।
(७) अर्थापत्ति
अर्थापत्ति प्रमाण के द्वारा अदृश्य अर्थ की कल्पना की जाती है। जिस व्यक्ति को दिन में कभी खाते हुए नहीं देखा जाता, किन्तु फिर भी वह स्वस्थ एवं पुष्ट
१८२
देवान्त-खण्ड रहता है तो इससे उस व्यक्ति के रात्रिभोजन की कल्पना विचारशील व्यक्ति सहज में ही कर लेते हैं। रात्रिभोजन की इस कल्पना को अर्थापत्ति प्रमा कहते हैं। ऐसी कल्पना कभी देखने से तथा कभी सुनने से हो जाती है। इसीलिए अर्थापत्ति के दृष्टार्थापत्ति तथा श्रुतार्थापत्ति दो भेद होते हैं। श्रुतार्थापत्ति का उदाहरण है ‘तरति शोकमात्मवित्" (आत्मज्ञानी शोक को पार कर जाता है)। यहाँ पर कल्पना की जाती है कि यदि शोक (संसार-दुःख) सत्य होता तो केवल आत्मज्ञान से उसका निराकरण सम्भव न होता। लोगों को सत्य सर्प, दण्ड आदि साधनों से मरते हुए देखा गया है। परन्तु रज्जु में कल्पित सर्प मात्र रज्जु के ज्ञान से ही मिट जाता है। उसे मारने के लिए किसी भी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसी प्रकार यदि संसार-बन्धन सत्य होता तो उसे नष्ट करने के लिए अन्य उपचार आवश्यक होता, मात्र आत्मज्ञान से उसका निराकरण न होता। अतएव अज्ञान के कारण आत्मा में बन्धन आदि दुःख कल्पित हैं, इस प्रकार का निश्चय होने पर साधक सोत्साह वेदान्त- विचार में प्रवृत्त होकर अद्वैत आत्मा का साक्षात्कार करके मुक्त हो जाता है। इस प्रकार अर्थापत्ति प्रमाण का उपयोग ब्रह्मज्ञान में किया गया है।
(८) अनुपलब्धि
प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रत्यक्षयोग्य वस्तु का ज्ञान होता है परन्तु उसके अभाव का ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं होता। घटाभाव का प्रतियोगी घट है जो उपस्थित रहने पर नेत्र आदि से अवश्य दिखलाई पड़ता है, क्योंकि वह प्रत्यक्षयोग्य होता है, परन्तु यदि प्रत्यक्षयोग्य घट भी दिखलाई न देता हो तो वह घट की अनुपलब्धि कही जायेगी। इसी अनुपलब्धि से घटाभाव की प्रमा (घटाभावाकारवृत्ति) उत्पन्न होती है। इस प्रकार की प्रमा प्रत्यक्ष से कदापि उत्पन्न नहीं हो सकती है, क्योंकि उस घटाभाव के साथ नेत्र आदि का सम्बन्ध नहीं होता है। प्रत्यक्ष प्रमाण की शक्ति तो मात्र घटाभाव के आधार भूतल को देखकर ही क्षीण हो जाती है। यदि अभाव-ग्रहण के प्रति प्रत्यक्ष कारण नहीं है तो फिर उसे असाधारण कारण रूप करण भी नहीं कहा जा सकता है। नेत्र का अन्वय-व्यतिरेक घटाभाव के आधारभूत भूतल के ग्रहणमात्र में ही उपयुक्त है, उसके अभाव-ग्रहण में नहीं। इस अभाव के चार प्रकार हैं- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव तथा अन्योन्याभाव । उत्पत्ति के पूर्व मृत्तिका में घट के अभाव को घट का प्रागभाव कहते हैं। यह घट के उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाता है। अतएव प्रागभाव अनित्य है। घट को दण्ड से तोड़ देने पर जो अभाव दिखलाई पड़ता है, उसे प्रध्वंसाभाव कहते हैं। प्रध्वंसाभाव के आधार कपालादि के नष्ट हो जाने पर प्रध्वंसाभाव का भी नाश हो जाता है। अतएव यह भी अनित्य है। बायु में रूप न था, न है तथा न होगा। ऐसे त्रैकालिक अभाव को अत्यन्ताभाव कहते हैं। यह भी स्वाधिकरण के नाश से नष्ट हो जाने के कारण अनित्य है। घट पट नहीं है, इस प्रतीति में दिखलाई देने वाले अभाव को अन्योन्याभाव कहते हैं। इसी के लिए ही भेद, विभाग एवं पृथकत्व शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। यह भेद अधिकरण के सादि होने पर सादि तथा अधिकरण के अनादि होने पर अनादि होता है। उदाहरण के लिए घट-पट का भेद सादि तथा जीव-ब्रह्म का भेद अनादि है।
प्रारम्भिक प्रस्थान के अन्य वस्तुतः भेद के न होने पर भी आकाश में घट आदि रूप उपाधि के रूप में दिखलाई देने वाला भेद सोपाधिक तथा घट-पट का भेद निरुपाधिक है। अखण्ड ब्रह्मचैतन्य में परमार्थतः भेद न होते हुए भी माया से कल्पित प्रपञ्च को लेकर जीव, ईश्वर आदि कल्पित भेद दिखलाई पड़ते हैं, अतएव ब्रह्मात्मैक्य अपरोक्षानुभव से अविद्या के नष्ट होते ही सम्पूर्ण भेद का भी नाश हो जाता है। केवल अखण्ड सच्चिदानन्दरूप ब्रह्म ही शेष रह जाता है। जिस प्रकार स्वप्न से जगे हुए व्यक्ति को स्वप्न दृश्य नहीं दिखलाई पड़ते हैं, उसी प्रकार महास्वप्न से जगे हुए तत्त्ववेत्ता को सकारण प्रपञ्च नहीं दिखलाई देता। यही ज्ञान की चरम सीमा है, जिसे विरले व्यक्ति ही प्राप्त करते हैं।
(९) विषय
वेदान्त का प्रतिपाद्य विषय जीव-ब्रह्म की एकता है। इसी का बोध कराने के लिए अध्यारोप एवं अपवाद-न्याय का आश्रय लिया जाता है। सम्पूर्ण श्रुतियों का तात्पर्य अद्वैतवोध में ही है। तत् एवं त्वम् पदों के वाच्यार्थ जीव और ईश्वर में औपाधिक भेद रहने पर भी उनके लक्ष्यार्थ निरुपाधिक चैतन्य में बिल्कुल भेद नहीं है। इसको श्रुति, युक्ति तथा अनुभव से समझा जा सकता है। यही वेदान्त का मुख्य विषय है। __(१०) प्रयोजन : समस्त दुःखों की निवृत्ति तथा परमानन्द की प्राप्ति ही वेदान्त का प्रयोजन है। यह आत्मज्ञान के अधीन है। यही मोक्ष है। दुःखनिवृत्ति एवं परमानन्द की प्राप्ति नित्य सिद्ध होते हुए भी अविद्या के कारण प्रतीत होने वाले दुःख तथा आनन्दाभाव का ब्रह्मविद्या के द्वारा निराकरण की अपेक्षा रखते हैं। अन्य साधन इसी के अन्तरङ्ग साधन ब्रह्मात्मैक्य अपरोक्षानुभव है। यह साधनचतुष्टय से सम्पन्न मुमुक्षुओं को महावाक्य के श्रवण मात्र से होता है।
यद्यपि वेदान्त में श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन के द्वारा ब्रह्मात्मैक्य-बोध को कतिपय आचार्यों ने स्वीकार किया है, तथापि असम्भावना, विपरीत भावना आदि दोष से रहित व्यक्ति को महावाक्य के श्रवण मात्र से यह बोध हो जाता है। श्रवण से वेदान्तशास्त्र रूप प्रमाणगत असम्भावना की, मनन से ब्रह्म एवं आत्मा के तादात्म्य रूप प्रमेयगत असम्भावना की तथा निदिध्यासन से विपरीत भावना की निवृत्ति होती है। अतः अद्वैत ब्रह्म का साक्षात्कार महावाक्य के श्रवण से ही होता है।
(१०) सन्दर्भ-ग्रन्थ -
१. वेदान्तपरिभाषा, धर्मराजाध्वरीन्द्र, एस.एस. सूर्यनारायण शास्त्री द्वारा अंग्रेजी अनुवाद
के साथ सम्पादित मदास, अड्यार लाइब्रेरी तथा शोध संस्थान, १६७१. २. वेदान्तपरिभाषा, स्वामी माधवानन्द द्वारा अंग्रेजी अनुवाद के साथ सम्पादित बेलूर
मठ, कलकत्ता, १६७७. ३. वेदान्तपरिभाषा, विद्यानन्द जिज्ञासु की हिन्दी व्याख्या सहित ज्ञानसत्र प्रकाशन
मन्दिर, नर्मदापुरम्, दिल्ली।
वेदान्त-खण्ड ४. वेदान्तपरिभाषा, डॉ. गजानन शास्त्री मुसलगांवकर की हिन्दी व्याख्या सहित,
__ चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी। ५. वेदान्तपरिभाषा, ऐन एनालिटिकल स्टडी, डा. जी.पी. दास, अनु बुक्स, शिवाजी
रोड, मेरठ। ६. दि सिक्स वेज़ ऑफ नोइङ्ग, डी.एम. दत्त, कलकत्ता, युनिवर्सिटी ऑफ कलकत्ता,
१७२. ७. वेदान्तकौमुदी, रामाद्वय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। ८. वृत्तिप्रभाकर, साधु निश्चलदास, वेंकटेश्वर स्टीमप्रेस, बम्बई, १६५४ ।
६. तत्त्वानुसन्धान
तत्त्वानुसन्धान महादेव सरस्वती की कृति है। इसकी रचना १८वीं शती के प्रथम दशक में हुई थी, क्योंकि उनकी आरम्भिक रचना विष्णुसहस्रनाममृत्तिका है जिसकी रचना का काल उन्होंने स्वयं १७५० विक्रमी या १६६२ ई. बताया है -
श्रीमत्स्वयंप्रकाशतीर्थाङ्घिलब्धवेदान्तिसत्पदः महादेवो करोति धारण्यां विष्णुसहस्रनामगम् । खबाणमुनिभूमाने (१७५०) वत्सरे श्रीमुखाभिधे
मार्गासिततृतीयायां नगरे तात्पलंकृते।। म उनके गुरु स्वयं प्रकाशानन्द सरस्वती ने उनको वेदान्ती की पदवी दी थी। तत्त्वानुसन्धान पर उन्होंने एक स्पोपज्ञ टीका भी लिखी है जिसका नाम अद्वैतचिन्ताकौस्तुभ है। अद्वैतचिन्ताकौस्तुभ प्रकाशित है। इसके अतिरिक्त तत्त्वानुसन्धान पर शुकाचार्य, स्वयंप्रकाशानन्द रामनारायण और अप्रन्दसरस्वतीकृत चार टीकाएं है जो अभी तक अप्रकाशित हैं। इन टीकाओं के कारण तत्त्वानुसन्धान का महत्त्व बढ़ा है और वह एक विशेष प्रस्थान का प्रवर्तक हो गया है।
वास्तव में तत्त्वानुसन्धान एक प्रकरण-ग्रन्थ है। इसका मुख्य विषय तत्पदार्थशोधन, त्वंपदार्थशोधन तथा ब्रह्मात्मैक्यतत्त्वशोधन है। इस प्रकार “तत् त्वमसि” के श्रवण, मनन
और निदिध्यासन द्वारा आत्मा का साक्षात्कार करना इस ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य है। अद्वैतवेदान्त का यही मुख्य विषय भी है जिसका निरूपण भगवत्पाद शंकराचार्य ने विशेष रूप से उपदेशसाहस्री में किया है। क्योंकि तत्त्वानुसन्धान अद्वैतवेदान्त के मुख्य विषय पर आधारित है, अतएव इसका प्रचार बहुत हुआ। इसके हिन्दी और गुजराती अनुवाद भी किये गये। डॉ. स्वयंप्रकाश पाण्डेय ने इस पर शोध करके ‘तत्त्वानुसन्धान का दर्शन’ नामक एक ग्रन्थ प्रकाशित किया है जिसमें तत्त्वानुसन्धान प्रस्थान का भी संक्षेप में विवरण दिया गया है। डॉ. सुरेन्द्रदास गुप्त ने अपने भारतीय दर्शन के इतिहास ग्रन्थ के द्वितीय भाग
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प्रारम्भिक प्रस्थान के ग्रन्थ के पृष्ठ ५६-५७ पर लिखा है कि इस प्रस्थान पर विवरण-प्रस्थान की अपेक्षा सुरेश्वर, सर्वज्ञात्ममुनि और वाचस्पति मिश्र का अधिक प्रभाव था। उनका यह कथन सत्य है। परन्तु उनके इस कथन में थोड़ा संशोधन भी अपेक्षित है, क्योंकि वाचस्पति मिश्र भामती-प्रस्थान से सम्बन्धित हैं और सुरेश्वर तथा सर्वज्ञात्मा वार्तिक-प्रस्थान से, और यह निश्चय करना आवश्यक है कि इन दोनों प्रस्थानों में तत्त्वानुसन्धान के ऊपर किसका प्रभाव अधिक है। डॉ. स्वयंप्रकाश पाण्डेय ने दिखाया है कि इनमें से वार्तिक-प्रस्थान का प्रभाव तत्त्वानुसन्धान पर अधिक है। इसके लेखक वेदान्त सम्प्रदाय की मुख्य धारा ब्रह्मसूत्रभाष्यवार्तिक टीका की परम्परा को मानते हैं। वे शंकराचार्य के शारीरकभाष्य, सुरेश्वराचार्य के बृहदारण्यकवार्तिक, सर्वज्ञात्मा के संक्षेपशारीरक तथा वाचस्पति मिश्र की भामती टीका को अद्वैतवेदान्त की मुख्यधारा के ग्रन्थ मानते हैं। किन्तु इनमें भी वे शंकराचार्य, सुरेश्वराचार्य और सर्वज्ञात्ममुनि के विचारों के सन्निकट हैं। परन्तु फिर भी वे वार्तिक-प्रस्थान के अनुयायी नहीं हैं।
वास्तव में १८वीं शती में अद्वैतवेदान्त के सभी पूर्ववर्ती प्रस्थानों का न्यूनाधिक प्रभाव पड़ा और इस कारण वह उन सभी प्रस्थानों से निरपेक्ष या स्वतन्त्र हो गया। इस प्रस्थान के प्रमुख ग्रन्थ के रूप में तत्त्वानुसन्धान प्रतिष्ठित हो गया। साधकों के बीच इसका जितना प्रभाव है उतना धर्मराज की वेदान्तपरिभाषा अथवा सदानन्द के वेदान्तसार का नहीं है। इस दृष्टि से इसका महत्त्व अद्वैतवेदान्त के प्रमुख पाठ्य-ग्रन्थ के रूप में उभरा है।।
महादेवानन्द सरस्वती ने कई स्थानों पर अपने मत को नृसिंहाश्रम तथा विद्यारण्य स्वामी के मतों से भिन्न किया है। विशेष रूप से वे माया और अविद्या में भेद करते हैं
और एकजीववादी होते हुए भी दृष्टिसृष्टिवादी नहीं हैं। वस्तुतः तत्त्वानुसन्धान प्रस्थान वेदान्तपरिभाषा-प्रस्थान का विकल्प है। वेदान्तपरिभाषा विवरण-प्रस्थान से अधिक संबंधित है और न्यायशास्त्र के, विशेषतः नव्यन्याय के प्रभाव में है। उसके लेखक धर्मराज नृसिंहाश्चम के शिष्य थे। नृसिंहाश्चम १७वीं शती के एक महान् अद्वैतवेदान्ती थे जिन्होंने खण्डनखण्डखाद्य की परम्परा में भेदधिक्कार नामक एक प्रकरण-ग्रन्थ लिखा, बार्तिक प्रस्थान के सर्वज्ञात्मुनि के संक्षेपशारीरक पर तत्त्वबोधिनी टीका लिखी तथा विवरणप्रस्थान पर पंचपादिका-विवरणप्रकाशिका लिखी। इनके अतिरिक्त उन्होंने अद्वैतदीपिका, अद्वैतपंचरत्न, अद्वैत बोधदीपिका, अद्वैतरत्नकोश और तत्त्वविवेक नामक प्रकरणग्रन्थ लिखे। विवरण प्रस्थान में उनका नाम पद्मपाद, प्रकाशात्मा और विद्यारण्य के बाद सर्वोच्च है। अप्पयदीक्षित उनसे प्रभावित थे। वेदान्त-परिभाषा १७वीं और १८वीं शती में नृसिंहाश्रम प्रवर्तित अद्वैतवेदान्तानुशीलन का पाट्य-ग्रन्थ हो गया।
तत्त्वानसन्धान वेदान्तपरिभाषा-प्रस्थान की अपेक्षा अद्वैतवेदान्त के मुख्य सम्प्रदाय के अधिक सन्निकट है, क्योंकि सर्वप्रथम उसमें ब्रह्मसूत्र के तौल पर चार परिच्छेद हैं जबकि वेदान्तपरिभाषा में ८ परिच्छेद हैं। दूसरे, उसका मुख्य वर्ण्यविषय तत्त्वमसि और प्रमा है, जबकि वेदान्त परिभाषा का वर्ण्यविषय प्रमाण विवेचन है। पुनश्च वेदान्तपरिभाषा पर
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वेदान्त-खण्ड नव्यन्याय का प्रभाव है। तत्त्वानुसन्धान अपेक्षाकृत इस प्रभाव से मुक्त है। वेदान्तपरिभाषा विवरण-प्रस्थान से संयुक्त है और तत्त्वानुसन्धान उससे मुक्त होकर वाचस्पति मिश्र तथा सुरेश्वर की परम्पराओं से संयुक्त है। वेदान्तपरिभाषा मननशास्त्र है तो तत्त्वानुसन्धान निदिध्यासनशास्त्र है। तत्त्वानुसन्धान का प्रभाव साधकों पर जितना पड़ा है उतना वेदान्त परिभाषा का नहीं । वृत्ति और प्रमा की जो परिभाषाएं तत्त्वानुसन्धान में दी गयी हैं वे परवर्ती वेदान्तियों को स्वीकार्य हो गयीं। विषय को अभिव्यक्त करने वाला अन्तःकरण का परिणाम वृत्ति है। पुनश्च प्रमा की परिभाषा है-बोधेद्धा वृत्ति या वृत्तीद्धा चैतन्य प्रमा है। प्रमा अखण्डज्ञान है। बोध (आत्मा) और वृत्ति (विषय) दोनों की अभेद प्रमा है। इस प्रकार प्रमा का विवेचन इस प्रस्थान का मुख्य प्रतिपाद्य है। तत्त्वानुसन्धान में चार परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में पारमार्थिकी प्रमा का निरूपण है। द्वितीय परिच्छेद में व्यावहारिक प्रमा का विवेचन है जिसमें प्रत्यक्ष प्रमा, अनुमान प्रमा, उपमान प्रमा, शब्द प्रमा, अर्धापत्ति प्रमा और अभाव प्रमा शामिल हैं। तृतीय परिच्छेद में अप्रमा का निरूपण है और उसके निराकरण का उपाय बताया गया है। चतुर्थ परिच्छेद में अपरोक्ष प्रमा और जीवन्मुक्ति का विवरण है।
मुख्यरूप से तत्त्वमसि आदि महावाक्यों से उत्पन्न होने वाली प्रमा पारमार्थिकी है। वह शाब्दी और प्रत्यक्षा दोनों है। प्रत्यक्ष प्रमा के सन्दर्भ में प्रमा का निरूपण एक सारणी में यों रखा जा सकता है
प्रत्यक्ष प्रमा नाम
ईश्वरप्रमा (मायावृत्ति में प्रतिबिम्बित चैतन्य)
जीवप्रमा (अन्तःकरणवृत्ति में प्रतिबिंबित चैतन्य)
आन्तरप्रमा
बाह्य प्रमा (व्यावहारिक प्रमा) शब्द स्पर्श रूप रस
गन्ध
आत्मगोचरा
सुखादिगोचरा
विशिष्टात्मविषया
शुद्धात्मविषया
(पारमार्थिक प्रमा) यहाँ शुद्ध आत्मविषया आत्मगोचरा आन्तर प्रत्यक्ष प्रमा पारमार्थिक प्रमा है। इसी प्रकार प्रत्यक्षादि छः प्रमाणों के बाह्य प्रमा और आन्तर प्रमा के भेद हैं। उन प्रमाणों से ब्रह्मात्मैक्य तत्त्व का जो ज्ञान होता है वह पारमार्थिक प्रमा है और उसके अतिरिक्त उनसे
जो बाह्य विषयों का ज्ञान होता है वह व्यावहारिक प्रमा है।
प्रारम्भिक प्रस्थान के अन्य
चाकति प्रमाकविलाशा व्यावहारिक द्वैतपरका
पारमार्थिक (अद्वैतपरक) प्रत्यक्ष अनुमान शब्द उपमान अर्थापत्ति अनुपलब्धि
शिप के प्रत्यक्ष अनुमान शब्द उपमान अर्थापत्ति अनुपलब्धि
अप्रमा अज्ञान है। अज्ञान के दो भेद हैं-माया और अविद्या। दोनों प्रकार का अज्ञान उपाधियों की उत्पत्ति का कारण है। उपाधि की परिभाषा महादेवानन्द सरस्वती इस प्रकार देते हैं - ‘उपाधिनाम स्वस्मिन् इव स्वसर्गिणि स्वधर्मासंजकः’ -अपने संसर्गी में अपने धर्म का ऐसा असंसर्ग कारक जो मानो अपने में ही है उपाधि है। उपाधि का यह लक्षण माया से लेकर घटपर्यन्त सभी विषयों में सटीक बैठता है। उपाधि का प्रस्ताव करने के कारण अद्वैतवेदान्त ‘इवदर्शन’ (फिलासफी ऑफ ऐज इफ) लगता है जिसका विशेष निरूपण जर्मनी में वैहिंगर ने किया है और जिसका संकेत डा. रामचन्द्र दत्तात्रेय रानाडे ने उपनिषदों के दर्शन में भी देखा है।
वास्तव में सम्पूर्ण प्रपंच औपाधिक है। औपाधिक होने के कारण वह काल्पनिक है। उसके तीन भेद हैं -व्यावहारिक, प्रातिभासिक और अज्ञानमय। व्यावहारिक अर्थ की उपलब्धि जाग्रत अवस्था है। प्रातिभासिक अर्थ की उपलब्धि स्वप्नावस्था है। अज्ञानमय अर्थ की उपलब्धि सुषुप्ति अवस्था है। पुनश्च जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में ये तीन अवस्थाएं प्रत्येक में आती हैं -अर्थात् जाग्रत में जाग्रत-जाग्रत, जाग्रत-स्वप्न, जाग्रत-सुषुप्ति ये तीन अवस्थाएं हैं। स्वप्न में स्वप्न-जाग्रत, स्वप्न-स्वप्न, स्वप्न-सुषुप्ति, ये तीन अवस्थाएं हैं। सुषुप्ति में जाग्रत-सुषुप्ति, स्वप्न-सुषुप्ति और सुषुप्ति-सुषुप्ति - ये तीन अवस्थाएं हैं। इन
नौ अनुभवों के उदाहरण क्रमशः निम्न हैं - १. अयं घटः (यह घड़ा है) - जाग्रत-जाग्रत २. इदं रजतम् (शुक्ति को देखकर यह चांदी है।) - जाग्रत-स्वप्न ३. स्तब्धो ऽहम् (मैं स्तब्ध हूँ) - जाग्नत-सुषुप्ति ४. स्वप्ने मंत्रप्राप्तिः (स्वप्न में किसी गुरु से मंत्र प्राप्त करना) - स्वप्न-जाग्रत ५. स्वप्ने स्वप्नो मया दृष्टः (स्वप्न में यह अनुभव करना कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ) -
स्वप्न-स्वप्न ६. स्वप्ने यद् दृष्टं तन्नानुभवे (जो सपना देखा वह अनुभव में नहीं है।) स्वप्न-सुषुप्ति ७. सात्त्विकी सुखाकारा वृत्तिः (मै। सुखपूर्वक सोया)-सुषुप्ति-जाग्रत ८. राजसी सुखाकारा वृत्तिः (मै दुःखपूर्वक सोया) सुषुप्ति-स्वप्न ६. तामसी सुखाकारा वृत्तिः (गाढ निद्रा का अनुभव) सुषुप्ति-सुषुप्ति
सोऽहं या अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव उपर्युक्त ६ प्रकार के अनुभवों से भिन्न है। इस कारण उसे तुरीय कहा गया।१८८
वेदान्त-खण्ड तत्त्वानुसन्धान सम्प्रदाय से सम्बन्धित दार्शनिक तत्त्वानुसन्धान और उसकी टीकाओं के लेखकों के अतिरिक्त स्वप्रकाशानन्द सरस्वती हैं जिन्होंने माण्डूक्यकारिका पर मिताक्षरा नामक टीका लिखी है और भामती के आधार पर ब्रह्मसूत्र पर वेदान्तनयभूषण नामक एक टीका लिखी है। वे महादेवानन्द सरस्वती के गुरु थे। संभवतः वे उन स्वयं प्रकाशानन्द सरस्वती से भिन्न हैं जिन्होंने तत्त्वानुसन्धान पर एक टीका लिखी है। फिर इससे संबंधित तत्त्वानुसन्धान के हिन्दी अनुवादक चिद्घनानन्द हैं जो १८वीं शती के उत्तरार्द्ध में एक उच्चकोटि के अद्वैतवेदान्ती थे। उनका तत्त्वानुसन्धान इतना प्रसिद्ध हुआ कि बहुत से परवर्ती विद्वानों ने उनको ही तत्त्वानुसन्धान का मूल लेखक मान लिया। वास्तव में उनका तत्त्वानुसन्धान अद्वैतचिन्ताकौस्तुभ का ही स्वतन्त्र हिन्दी अनुवाद है।
सहायक ग्रन्थ
१. महादेवानन्द सरस्वती-अद्वैतचिन्ताकौस्तुभ सहित तत्त्वानुसन्धान, बिबलियोथिका इण्डिका,
कलकत्ता, १६२२॥ २. डॉ. स्वयंप्रकाश पाण्डेय - तत्त्वानुसन्धान का दर्शन, दर्शन पीठ, इलाहाबाद, १९८६ । ३ चिद्घनानन्द - तत्त्वानुसन्धान, कल्याण, बम्बई, १६१६, पुनर्मुद्रित बरेली, १६७६ । ४. निश्चलदास, वृत्तिप्रभाकर, वेंकटेश्वर स्टीम प्रेस, बम्बई, १६४६ । ५. निश्चलदास, विचारसागर, वेंकटेश्वर स्टीम प्रेस, बम्बई, १६५४।