१. इष्टसिद्धि
अद्वैतवेदान्त के अनेक मानक ग्रन्थ हैं जो उसके किसी प्रस्थान- विशेष से संबन्धित नहीं हैं। ऐसे प्रकरण-ग्रन्थों में यहां केवल दो का विवेचन किया जा रहा है। अन्य ग्रन्थों को अद्वैत ग्रन्थ-कोश, कांचीपुरम, १६५८ से जाना जा सकता है। सं.
इष्टसिद्धि अद्वैतवेदान्त के मौलिक ग्रन्थों में से अन्यतम है। इस ग्रन्थ का महत्त्व इतने से ही स्पष्ट हो जाता है कि मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैतसिद्धि में, दो अन्य सिद्धियों के साथ, आदरपूर्वक उल्लेख किया है
सिद्धिीनाम् इष्टनैष्कर्म्यब्रह्मगानामियं चिरात्।
अद्वैतसिद्धिरधुना चतुर्थी समजायत।। मधुसूदन सरस्वती के अतिरिक्त अन्य अद्वैतवादी आचार्यों में चित्सुख, अमलानन्द, आनन्दबोध और भारतीतीर्थ विद्यारण्य इष्टसिद्धि को उद्धृत करते हैं। इष्टसिद्धि की प्रसिद्धि तथा गरिमा का ज्ञान इस बात से और स्पष्ट होता है कि अद्वैतेतर सम्प्रदाय के विचारक रामानुज (श्रीभाष्य), यामुनाचार्य (आत्मसिद्धि) तथा वेदान्तदेशिक (सर्वार्थसिद्धि) इसका उद्धरण देते हैं। वेदान्तदेशिक ने तत्त्वटीका में इष्टसिद्धि का प्रथम श्लोक उद्धृत किया है और कहा है कि श्रीभाष्य का महापूर्वपक्ष इसी श्लोक पर आधारित है। वह श्लोक इस प्रकार है
यानुभूतिरजामेयानन्तात्मानन्दविग्रहा।
महदादि जगन्माया चित्रभित्तिं नमामि ताम्।। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि इष्टसिद्धि एक युगान्तरकारी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके रचयिता विमुक्तात्मा का काल विवादग्रस्त है। उपलव्य साक्ष्यों के आधार पर प्रथम तो यह सिद्ध होता है कि विमुक्तात्मा १२वीं शती के बाद के नहीं हो सकते, क्योकि रामानुज ने इष्टसिद्धि का श्लोक महापूर्वपक्ष के निमित्त उद्धृत किया है और उनका काल १२वीं शती है। पुनश्च यामुनाचार्य (११०० ई.) इष्टसिद्धि को प्रतिष्ठित ग्रन्थ के रूप में स्वीकार करते हैं। यदि किसी ग्रन्थ को प्रतिष्ठिति होने में ५० वर्ष का समय मान लिया जाय तो इष्टसिन्द्रि का काल १०५० ई. के पहले होना चाहिए। दूसरी ओर विमुक्तात्मा ने भास्कर को उद्धृत
इष्टसिद्धि और वेदान्त-सिद्धान्तमुक्तावली
१५५ किया है, जिनका काल ६ वीं शती का पूर्वार्द्ध माना जाता है। अतः विमुक्तात्मा का काल ८५० ई. से १०५० ई. के मध्य स्थिर करना होगा।
आनन्दबोध विमुक्तात्मा के शिष्य थे और उन्होंने वाचस्पति मिश्र (८४१ ई.) को उद्धृत किया है। वाचस्पति मिश्र ने भास्कर की आलोचना की है, अतः विमुक्तात्मा भास्कर के परवर्ती, आनन्दबोध के पूर्ववर्ती तथा वाचस्पति मिश्र के समकालिक होंगे। इस मत के अनुसार विमुक्तात्मा का काल ८५० ई. के आसपास नियत होता है।
प्रो. मैसूर हिरियन्ना ने पूर्वोक्त मत पर अपनी सहमति दी है, जबकि प्रो. सुरेन्द्रनाथ दास गुप्त इससे असहमत हैं। उनके अनुसार विमुक्तात्मा की तिथि १२०० ई. के आसपास तथा रामानुज का काल १२ वीं शती माना जाय, तब प्रो. हिरियन्ना द्वारा स्थापित तिथि अधिक संगत प्रतीत होती है।
इष्टसिद्धि अद्वैतवेदान्त का एक प्रकरण-ग्रंथ है। उस पर ज्ञानोत्तम ने विवरण नाम की टीका लिखी है। प्रो. हिरियन्ना ने उसका संक्षेप प्रकाशित किया है। पुनश्च आनन्दानुभव ने इष्टसिद्धिव्याख्याविवरण तथा अनुभूतिस्वरूप (ये वे ही अनुभूतिस्वरूप हैं जिन्होंने प्रकटार्थविवरण नामक टीका शारीरकभाष्य पर लिखी है)। ने इष्टसिद्धिविवरण नामक टीकायें इष्टसिद्धि पर लिखी हैं। ये टीकायें अभी तक अप्रकाशित हैं। इष्टसिद्धि की रचना गद्य और पद्य दोनों में है, जैसे, ब्रह्मसिद्धि की रचना। गद्यभाग या श्लोकभाग अथवा कारिकाभाग का विवेचन है। या यों कहिए कि पूरा विवेचन संस्कृत गद्य में है और उसके सारांश रूप में इष्टसिद्धि के प्रत्येक अध्याय में कुछ कारिकाएँ या श्लोक दिये गए हैं।
इष्टसिद्धि में कुल र अध्याय हैं। इनमें प्रथम अध्याय सर्वाधिक विस्तृत है। इस अध्याय में १५६ श्लोक तथा उनके बीच में गद्य में विविध विषयों का मौलिक विवेचन किया गया है। प्रमुखतः भेद-निरास, विविधख्यातिवाद, ब्रहम के लिए प्रमाण, जीवन्मुक्ति, भ्रम एवं इसका निराकरण, असद्वाद, परिणामवाद, शब्दाद्वैतपद का खण्डन आदि विषय इस अध्याय में वर्णित हैं।
द्वितीय अध्याय में गद्य के अतिरिक्त ११E श्लोक हैं, जिसमें मुख्यरूप से परिवर्तन की असंभाव्यता, आत्मा की अपरिवर्तनीयता तथा सप्रपंचवाद एवं उसका खण्डन प्रतिपादित है। तृतीय अध्याय में ११६ श्लोक है जिनमें इस सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ है कि ज्ञान की उत्पति अन्यथा नहीं हो सकती। चतुर्थ अध्याय में २१ श्लोक हैं और उसमें प्रमुखतः आत्मख्याति एवं अख्यातिवाद का खण्डन किया गया है। पंचम अध्याय में अन्यथा ख्यातिवाद का सविस्तर खण्डन किया गया है। षष्ठ अध्याय में २७ श्लोक हैं और उसमें अविद्या के आश्रय का विवेचन किया गया है। सप्तम अध्याय में ६२ श्लोक हैं और उसमें मुख्यरूप से द्वैतवाद, भौतिकवाद प्रधानकारणवाद का खण्डन किया गया है। अष्टम अध्याय में २८ श्लोक हैं और उसमें अविद्या-निवृत्ति का विवेचन किया गया है।
इन अध्यायों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि विमुक्तात्मा का इष्ट माया
१५६
वेदान्त-खण्ड का विवेचन एवं उसकी स्थापना है। इस निमित्त भारतीय दर्शनों में स्वीकृत विविध भ्रम सिद्धान्तों का खण्डन करके उन्होंने अपने इष्ट अनिर्वचनीय ख्यातिवाद की स्थापना की है।
अतः इष्टसिद्धि का प्रमुख प्रतिपाद्य माया की सिद्धि है। एतदर्थ विमुक्तात्मा ने अख्यातिवाद, अन्यथाख्यातिवाद, सत्ख्यातिवाद, असत्ख्यातिवाद तथा आत्मख्यातिवाद का खण्डन करके अनिर्वचनीयख्यातिवाद की स्थापना की है।
अख्यातिवाद- प्रभाकर मीमांसकों के मत में अयथार्थ ज्ञान अलीक है, समस्त ज्ञान यथार्थ ज्ञान है। शुक्ति एवं रज्जु का इदं रूप से सामान्य ज्ञान प्रत्यक्ष होता है और रजत एवं सर्प का स्मृति ज्ञान होता है। शुक्ति एवं रजत का विशेष रूप प्रत्यक्ष का विषय नहीं बन पाता तथा सादृश्य के कारण रजत एवं सर्प के संस्कार उबुद्ध होकर रजत एवं सर्प की स्मृति कराते हैं। रजत-शुक्ति प्रसंग में रजत को प्रमुष्टतंत्रा कहा गया है और अविवेक अथवा भेदाग्रह के कारण प्रत्यक्ष के विषय और स्मृति के विषय एकाकार हो जाते हैं। यही भेदाग्रह भ्रम का कारण है। प्रत्यक्ष एवं स्मृति दोनों ज्ञान यथार्थ है, अतः अख्यातिवाद में भ्रमज्ञान असिद्ध है। किन्तु यह मत समीचीन नहीं है क्योंकि बाध-ज्ञान में यह नहीं होता कि ‘मैं स्मृति के द्वारा शुक्ति में रजत देख रहा था’। बाध होने पर यही मालूम होता है कि ‘यह तो शुक्ति है, भ्रमवश मैं इसे रजत समझ रहा था। इसके अतिरिक्त इस सिद्धान्त में केवल आवरण रूप अम की व्याख्या है और विक्षेप की व्याख्या नहीं है। जी
अन्यथाख्यातिवाद- नैयायिकों द्वारा प्रतिष्ठित अन्यथाख्यातिवाद के अनुसार अम का आधार अभेदग्रह है। शुक्ति में रजत का भ्रम इसलिए उत्पन्न होता है, क्योंकि दृष्ट पुरोवर्ती पदार्थ एवं पूर्वदृष्ट रजत के अभेद का ग्रहण होता है। पूर्वदृष्ट रजत के संस्कारों का उद्बोध अम का कारण बनता है। शुक्ति आदि की अन्यथा प्रतीति के कारण इसे अन्यथाख्यातिवाद कहते हैं। इष्टसिद्धि के पंचम अध्याय में ७६ श्लोकों में अन्यथाख्यातिवाद के पाँच प्रकारों का सविस्तर विवेचन एवं खण्डन है। अन्यथाख्यातिवाद से विक्षेप की व्याख्या कुछ अंश में होती है, किन्तु आवरण की व्याख्या बिल्कुल नहीं होती। पुनश्च निरधिष्ठान श्रम की व्याख्या ..
अन्यथाख्याति द्वारा हो ही नहीं सकती है। मार
सख्यातिवाद- शुक्ति-रजत प्रसंग में संख्या विवाद के अनुसार शुक्ति और रजत दोनो के अवयव सत्य हैं। इनमें से कोई मिथ्या नहीं है। दोषसहित नेत्रसंयोग से शुक्ति-अवयवों से रजत की उत्पत्ति होती है और शुक्तिज्ञान के पश्चात् सत्य रजत का अपने ही अवयवों में ध्वंस हो जाता है। इस मत में शुक्ति और रजत दोनों सत् हैं। अतः इसे सत्ख्यातिवाद कहा गया है। किन्तु सत्ख्यातिवाद अप्रतिष्ठित है, क्योंकि इसे स्वीकार करने पर भ्रमनिरास संभव नहीं है। शुक्तिज्ञान से सत् रजत की निवृत्ति नहीं हो सकती। शुक्ति में प्रतीत होने वाले रजत की निवृत्ति तभी सम्भव है, जब अमकाल में प्रतीयमान रजत को मिथ्या माना जाय। अतः सत्ख्यातिवाद असिद्ध है।
असत्ख्यातिवाद- अधिष्ठान और अध्यस्त दोनों को असत् मानकर असत्ख्यातिवाद
इष्टसिद्धि और वेदान्त-सिद्धान्तमुक्तावली
१५७ का प्रतिपादन किया गया है। किन्तु यह मत तर्क और अनुभव दोनों के विरुद्ध है। तर्क विरुद्ध इसलिए है, क्योंकि असत् अथवा अलीक की प्रतीति तर्कतः संभव नहीं है। अनुभव से भी इसका विरोध है, क्योंकि अमकाल में अध्यस्त का तथा भ्रमनिवृत्तिकाल में अधिष्ठान का अनुभव होता है।
आत्मख्यातिवाद- विज्ञानवादी बौद्ध क्षणिक विज्ञान को आत्मा कहते हैं और भ्रम की व्याख्या आत्मख्याति के आधार पर करते हैं। आन्तर विज्ञान को ही ये आन्तर रजत का अधिष्ठान मानते हैं। दोष केवल इतना है कि इसकी बाहूय प्रतीति होती है। आत्मख्यातिवाद के अनुसार ज्ञान से रजत के स्वरूप का बाप नहीं होता, केवल उसकी बाह्यता का ही बाध होता है। किन्तु यह मत समीचीन नहीं है, क्योंकि यह अनुभव एवं प्रमाण के विरुद्ध है। प्रतीयमान रजत आन्तर है, ऐसा किसी को अनुभव नहीं होता। न ही आन्तरता किसी प्रमाण से सिद्ध होती है। अतः रजत को आन्तर मानकर उसकी बाह्य प्रतीति मानना सर्वथा असंगत है।
अनिर्वचनीयख्यातिवाद- अनिर्वचनीयख्याति का निर्वचन करते हुए विमुक्तात्मा ने इष्टसिद्धि १/E में लिखा है-‘सत्चे न भान्तिबाधौ स्तां नासत्वे ख्यातिबाधकी। सदसयामनिर्वाच्या विद्या वेद्यैस्सह अमाः ।।
या रज्जु-सर्प अथवा शुक्ति-रजत प्रसंगों में सर्प अथवा रजत सत् नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर श्रम एवं बाध संभव नहीं हैं। वह असत् भी नहीं है क्योंकि तब ज्ञान (प्रतीति) नहीं है। अतएव वह सदसद् से भिन्न अर्थात् अनिर्वाच्य है। अनिर्वचनीयख्यातिवाद में श्रम के आवरण तथा विक्षेप दोनों पक्षों की व्याख्या है।
इष्टसिद्धि के अनुसार प्रमा की उत्पत्ति में प्रमाण सहायक होते हैं, किन्तु प्रमाणों की अपनी सीमा है, जिसके परे उनकी प्रामाणिकता नहीं हैं। स्वयंप्रकाश आत्मा का ज्ञान किसी प्रमाण की अपेक्षा नहीं करता। उसे प्रमाणों के द्वारा सिद्ध भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि वह उनके पूर्व सिद्ध है। प्रत्यक्षादि प्रमाणों की उपादेयता केवल व्यवहार तक ही सीमित है।
विमुक्तात्मा ग्रन्थ के अन्त में स्वयं अपने वर्ण्यविषय का उपसंहार इस प्रकार करते हैं
सर्वेष्टः परमानन्दो वेदान्तात्मप्रमाणकः। इत्येषोऽथों विशेषेण मयेष्टो वेदमिन्यतः।।२७।।
अर्थश्चायमनिर्वाच्या यद्यविद्या प्रसिध्यति ।
व्ययचीरमविद्यां तामत इष्टार्थसिद्धये ।।२।। अविद्या सदसदनिर्वाच्या है। इसकी निवृत्ति इससे भिन्न होनी चाहिए। इसी कारण अविद्यानिवृत्ति को पञ्चम प्रकार कहा गया है।१५८
वेदान्त-खण्ड
सन्दर्भ-ग्रन्थ १. विमुक्तात्मा, इष्टसिद्धि- सं. डा. पी. के. सुन्दरम् २. ज्ञानोत्तम, इष्टसिद्धि व्याख्या 3. Advaita Epistmology- Dr. P.K.Sundaram ४. A History of Indian Philosophy- Dr. S.N. Das gupta ५. विमुक्तात्मा, इष्टसिद्धि, सं. मैसूर हिरियन्ना गायकवाड ओरियन्टल इन्स्टीच्यूट,
बड़ौदा १E३६ तत्व ६. हिरियन्ना, मैसूर, इष्टसिद्धि, एन ओल्ड अद्वैतिक वर्क, ओरियन्टलिस्ट्स की
इण्टरनेशनल कांग्रेस के १७ वें अधिवेशन की कार्यवाही, आक्सफोर्ड, १६२८ में भी प्रकाशित। इडियन फिलोसिफकल स्टडीज भाग २, मैसूर हिरियन्ना, काव्यालय, मैसूर, १६१२ में भी सम्मिलित।
२. वेदान्त-सिद्धान्तमुक्तावली
हा यद्यपि अनेक अद्वैतवेदान्तियों ने माना है कि एकजीववाद अद्वैतवेदान्त का मुख्य सिद्धान्त है, तथापि एकजीववाद-प्रस्थान की स्थापना का श्रेय श्रीप्रकाशानन्द सरस्वती को है, जिनकी कृति वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली इस प्रस्थान का मुख्य आधार-ग्रन्थ है। वेदान्तसिद्धान्तमुक्ततावली एक लघुकाय प्रकरण ग्रन्थ हैं जिसमें कुछ कारिकाएं (श्लोक) हैं
और उनसे सम्बन्धित उन पर भाष्य तथा युक्तियां हैं।
इस प्रस्थान के अनुसार अज्ञान से उपहित बिम्ब चैतन्य ईश्वर और अज्ञान में प्रतिबिम्बित चैतन्य जीव कहा जाता है अथवा अज्ञान से अनुपहित शुद्ध चैतन्य को जीव कहा जाता है। इसी को दृष्टिसृष्टिवाद कहा जाता है। इस प्रस्थान में जीव ही अपने अज्ञान से जगत् का उपादान तथा निमित्त कारण माना जाता है और यह सम्पूर्ण दृश्य जगत् प्रतीति मात्र है। शरीरभेद से जीवभेद प्रतीत होता, यही आन्ति है।
एकजीववाद का उत्स पूर्वाचार्यों में भी विद्यमान है। आचार्य प्रकाशानन्द सरस्वती ने स्वामी विद्यारण्य को उद्धृत किया है और अप्पय दीक्षित ने प्रकाशानन्द सरस्वती को उद्धृत किया है। वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली में पंचदशीकार विद्यारण्य का निम्न श्लोक ज्यों का त्यों उद्धृत है -
“तुच्छाऽनिर्वचनीया च वास्तवी चेत्यसौ विधा।
ज्ञेया माया त्रिभिर्बोधैः श्रौतयौक्तिकलौकिकैः ।।।” इसी प्रकार तत्त्वमसि महावाक्य से अपरोक्ष ज्ञान हो जाता है। इसका विवेचन आचार्य
इष्टसिद्धि और वेदान्त-सिद्धान्तमुक्तावली प्रकाशानन्द ने ‘दशमोऽसि’ का दृष्टान्त दिया है। उनके जल
‘लौकिकरयापि वाक्यस्य दशमरत्वमसीत्यादेरात्मनि अपरोक्षज्ञानजनकत्वस्यैव दृष्टत्वात्’ (वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली पृ. ६५-६६)। यह दृष्टान्त भी सर्वप्रथम पंचदशी के तृप्तिदीप प्रकरण में उपलब्ध होता है।
आत्मा ब्रह्मेति वाक्याथै निःशेषेण विचारिते,
व्यक्तिरुल्लिखते यद्वद् दशमस्त्वमसीत्यतः।। पुनश्च अप्पय दीक्षित ने सिद्धान्तलेशसंग्रह में प्रकाशानन्द सरस्वतीकृत वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली को इस प्रकार उद्धृत किया है -
‘सिद्धान्तमुक्तावलीकृतस्तु मायाशक्तिरेवोपादानं न ब्रह्म तदेतद् ब्रह्मापूर्वमनपरमग्राह्यम्,’ ‘न तस्य कार्यकारणं च विद्यते” इत्यादि श्रुतेः जगदुपादानमायाधिष्ठानत्वेन
उपचारादुपादानम् तादृशमेवोपादानत्वं लक्षणे विवक्षितमित्याहुः। इस सिद्धान्त का उपपादन वेदान्तसिद्धान्तमुक्तवाली में इस प्रकार किया गया है
‘दृश्यत्वाद्येतदनुमानसिद्धानिर्वचनीयस्य जगतः अनाद्यनिर्वचनीया
अविधैव कारणम् न ब्रह्म, तस्य कूटस्थस्य कार्यकारणविलक्षणत्वात् ‘तदेतद् ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबोध्यम्’, ‘अयम् आत्मा ब्रह्म’
‘सर्वानुभूः’ इति श्रुतेः।
इसी प्रकार अप्पय दीक्षित ने वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली को कई स्थलों पर भी उद्धृत किया है।
स्वामी प्रज्ञानन्द सरस्वती, डा. एस.एन. दास गुप्त एवं वासुदेव शास्त्री अभ्यंकर ने स्वामी विद्यारण्य का समय १४वीं शताब्दी का मध्य माना है।
इन इतिहासकारों ने आचार्य अप्पय दीक्षित का समय १६वीं शताब्दी स्वीकारा है। महावैयाकरण भट्टोजि दीक्षित ने आचार्य अप्पय दीक्षित को अपना गुरु माना है। कुछ लोग मानते हैं कि उनका समय १६वीं शती है। किन्तु महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज उनका समय १४वीं शती मानते हैं (काशी की सारस्वत साधना, पृ.७)। यह भी संभव है क्योंकि स्वामी विद्यारण्य के बाद उन्हें १४वीं शती के अन्तिम दो दशकों में रखा जा सकता है। अतः प्रकाशानन्द सरस्वती का समय १६वीं शती निश्चित होता है। वे विद्यारण्य स्वामी के बाद
और अप्पयदीक्षित के पूर्व हुये थे। उनके गुरु का नाम ज्ञानानन्द सरस्वती था। प्रकाशानन्द सरस्वती काशीवासी लगते हैं। उनके शिष्य नाना दीक्षित थे जो भट्टोजि दीक्षित के परिवार के थे। वे स्वयं काशीवासी थे और उन्होंने वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली पर सिद्धान्तदीपिका’
१६०
वेदान्त-खण्ड या सिद्धान्तप्रदीपिका नामक एक टीका लिखी है। नाना दीक्षित का कहना है कि प्रकाशानन्द सरस्वती के बहुत से शिष्य भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में वेदान्त का प्रचार करते थे
यच्छिष्यशिष्यसन्दोहैयाप्ता भारतभूमयः।
वन्दे तं यतिभिर्वन्धं प्रकाशानन्दमीश्वरम् ।। इस टीका के मंगलाचरण में वे प्रकाशानन्द एवं नृसिंहाश्रम की गुरु-रूप में वन्दना करते हैं -
आनन्दान्तप्रकाशानुभवपद्मपदं सद्गुरु श्रीनृसिंहं वन्दे। वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली के अतिरिक्त प्रकाशानन्द सरस्वती की अन्य कृतियां हैं - (9) ताराभक्तितरंगिणी, (२) महालक्ष्मीपद्धति, (३) श्रीविद्यापद्धति और (४) मनोरमातन्त्र-राजटीका।
वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली के अध्ययन से जहाँ एक ओर प्रकाशानन्द सरस्वती का उत्कट अद्वैतवेदान्ती एवं वैष्णव होना सिद्ध होता है, वहीं पर उपर्युक्त रचनायें तन्त्रशास्त्र में भी उनकी आस्था को प्रदर्शित करती हैं।
किन्तु उनको सर्वाधिक प्रतिष्ठा वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली के प्रणयन से मिली। नाना दीक्षित की टीका के अतिरिक्त वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली पर निम्न टीकाएं भी हैं १. श्रीजीवानन्द विद्यासागर भट्टाचार्य द्वारा संकलित व्याख्या। इसकी पुष्पिका में व्याख्या
के विषय में निम्न उल्लेख है - ‘इति श्रीपण्डितकुलपतिना बी.ए. उपाधिधारिणा श्रीजीवानन्द विद्यासागरभट्टाचार्येण प्राचीनां व्याख्यामवलम्बय संकलिता विस्तृतव्याख्या समाप्ता’ । अतः इसका आधार एक प्राचीन व्याख्या है। इस व्याख्या का आधार सिद्धान्तदीपिका के अतिरिक्त कोई अन्य टीका नहीं हो सकती। इसका प्रथम प्रकाशन कलकत्ता से १८६७ ई. में और तृतीय संस्करण वहीं
से १६३५ ई. में हुआ। २. साधु गुरुदत्त सिंह ने वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली पर ‘शब्दार्थशोधिनी’ नामक खड़ी
बोली में भाषा टीका लिखी। उन्होंने मुक्तावली की मूल कारिकाओं पर भी अलग से भाषा टीका लिखी। इन दोनों का एक साथ प्रकाशन लाहौर से १६७४ ई. में साधु
मुकन्दसिंह ने किया है। कर ३. पं. प्रेमवल्लभ त्रिपाठी ने मुक्तावली का अनुवाद हिन्दी में किया जिसका प्रकाशन
अच्युत-ग्रन्थमाला काशी से सन् १६३६ में हुआ।
वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली ‘एकजीववाद’ एवं ‘दृष्टिसृष्टिवाद’ का अनुपम ग्रन्थ है। प्रकाशानन्द ने सत्तात्रयवाद का खण्डन वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली में निम्न प्रकार से किया है :
इष्टसिद्धि और वेदान्त-सिद्धान्तमुक्तावली सत्त्वत्रयं वदन् वादी प्रष्टव्योऽत्राऽधुना मया ।। सत्यं द्वैतमसत्यं वा नासत्ये त्रिविधः कुतः।।
उन्होंने त्रिविध सत्तावाद का निराकरण कर द्विविध सत्तावाद की स्थापना की है। इसी प्रकार उन्होंने एकजीववाद की प्रतिष्ठा निम्न ढंग से की है -
‘एक एव नित्यशुद्धबुद्धमुक्स्वभाव उपनिषन्मात्रगम्यो वस्तुतोऽस्ति। स एवम् अज्ञानमाश्रित्य जीवभाव लब्ध्वा देवतिर्यगमनुष्यादिदेहान् परिकल्प्य तदुपकरणत्वेन ब्रह्माण्डादिचतुर्दशभुवनं सृष्ट्वा तेषु तेषु देहेषु कश्चिदेवः, कश्चित् मनुष्यः, कश्चित् हिरण्यगर्भः सर्वेषां स्रष्टा, कश्चित् विष्णुः पालकः, कश्चित् अन्यः सर्वसंहारकर्ता रुद्रः प्रलये। तेषामुपाधयः सत्त्वादिगुणाः तद्वशात् तेषां सर्व-सामर्थ्यम् । अहं पुनः कश्चित् ब्राह्मणकुमारः तेषां भक्तिपूजानमस्कारादिना अनुष्ठाय, श्रवणादि । साधनं सम्पाद्य मोक्षं साधयिष्यामीति ईश्वरोऽपि सन् प्रान्तो भवति जागरे। (वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली पृ. २४-२५)
सिद्धान्तलेशसंग्रह में एकजीववाद के तीन प्रकार बताये गए हैं - १. एक जीव - एक शरीरवाद । इस मत से जीव एक है और उसका शरीर भी एक है।
अन्य सभी जीव और उनके शरीर कल्पित हैं। यहां तक कि ईश्वर भी कल्पित है। २. एक जीववाद का अर्थ है कि हिरण्यगर्भ जो सृष्टिकर्ता ईश्वर है वह मुख्य जीव है।
अन्य सभी जीव जीवाभास हैं। किन्तु प्रत्येक कल्प के हिरण्यगर्भ भिन्न-भिन्न हैं। अतएव इस मत में अनेक हिरण्यगर्भ मानने से एकजीववाद में दोष आ जाता है।
इसलिए इसे न मानकर एक तीसरा एकजीववाद माना जाता है। ३. एक जीव-अनेक शरीरवाद। इस मत के अनुसार जीव तो एक ही है और सभी
शरीरों में रहता है। अर्थात् जीव में अनेक शरीर हो सकते हैं, जैसे योगीगण योगबल से अनेक शरीर धारण करते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि फिर सभी शरीरों में होने वाले सुख-दुःख का अनुभव मुझे या एक जीव को क्यों नहीं होता? इसका समाधान है कि जैसे जन्मान्तर के सुख-दुःख का अनुभव किसी जीव को नहीं होता वैसे ही उसे अनेक शरीरों के भी सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता।
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वेदान्त-खण्ड इसी प्रकार प्रकाशानन्द सरस्वती का दृष्टिसृष्टिवाद भी उग्र कोटि का है। सामान्यतः दृष्टिसृष्टिवाद के अनुसार ‘दृष्टिकाले एव सृष्टि:’, जब तक दृष्टि तब तक सष्टि है, यह माना जाता है। इस मत को कल्पतरुकार अमलानन्द मानते हैं। इसे दृष्टि समकालसृष्टिवाद कहा जाता है। किन्तु प्रकाशानन्द का मत है ‘दृष्टिरेव सृष्टिः’ अर्थात् दृष्टि के अतिरिक्त सृष्टि है ही नहीं। वे विवर्त को भी स्वीकार नहीं करते। ‘बालान् प्रति विवर्तो ऽयं ब्रह्मणः सकलं जगत्।’ अर्थात् विवर्तवाद चालकों के लिए हैं, प्रौढ़ विद्वानों के लिए नही। उनका उद्घोष है -
आत्मसत्तैव द्वैतस्य सत्ता नान्या यतस्ततः। आत्मन्येव जगत् सर्वं दृष्टे दृष्टं श्रुते श्रुतम् ।।
सहायक ग्रन्थ
१. वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली, नाना दीक्षितकृत सिद्धान्तदीपिका सहित, वाराणसी, १६५०. २. वेदान्त सिद्धान्तमुक्तावली ऑफ प्रकाशानन्द आर्थर वेनिस के अंग्रेजी अनुवाद सहित,
प्रथम संस्करण, १८६०, द्वितीय संस्करण, चौखम्बा ओरियन्टालिया, वाराणसी,
१८७५. ३. रेवतीरमण पाण्डेय, सम फन्डामेण्टल प्राब्लेम्बस ऑफ वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली,
डब्ल्यू. जेड. के. एस. (एक पत्रिका का नाम) अंक २०, वियना, आस्ट्रिया, १६७६ । ४. सिद्धान्तलेशसंग्रह, अप्पय दीक्षित, हिन्दी अनुवाद सहित, अच्युत-ग्रन्थमाला, काशी,
१६३६. ५. जीवानन्द, वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली टीका, कलकत्ता, १६७५ ।
अष्टम अध्याय