०१- सामान्य परिचय
भामती-प्रस्थान, विवरण-प्रस्थान तथा वार्तिक प्रस्थान को मिलाकर अधिकरण-प्रस्थान कहा जाता है, क्योंकि इनमें मुख्यतः अद्वैतवाद के सिद्धान्तों की व्याख्या करने का प्रयास किया गया है। इसके विपरीत वाद-प्रस्थान में जिसमें एक ओर अद्वैतवाद के सभी पूर्ववर्ती प्रस्थानों का समन्वय किया गया है और दूसरी ओर अद्वैतवाद-विरोधी मतों का खण्डन किया गया है। इसको कुछ लोग बाध-प्रस्थान भी कहते हैं क्योंकि इसमें बाध-नियम के बल पर परमत खंडन है। इस प्रस्थान के मुख्य ग्रन्थ श्रीहर्ष का खण्डनखण्डखाद्य, चित्सुख की तत्त्वप्रदीपिका और मधुसूदन सरस्वती की अद्वैतसिद्धि हैं। इन तीन ग्रन्थों को कठिनत्रयी कहा जाता है क्योंकि भाषा, शैली और विचार सभी दृष्टियों से ये ग्रंथ कठिन हैं। वाद-प्रस्थान को ही नव्य-वेदान्त कहा जाता है, क्योंकि एक ओर इस पर नव्यन्याय का प्रभाव है, और दूसरी ओर इसने अद्वैतवेदान्त को एक दूसरी दिशा में मोड़ा है और युक्ति के बल पर सभी विरोधी दर्शनों का, विशेषतः न्यायदर्शन का सामना करते हुए अद्वैतवेदान्त का तर्कसंगत समर्थन किया है। कुछ नव्यवेदान्तियों ने भी अद्वैतवेदान्त को सर्वाधिक प्रामाणिक दर्शन बनाने का प्रयत्न किया है।
उपर्युक्त तीन आचार्यों और उनके टीकाकारों के अतिरिक्त भी इस प्रस्थान के अन्तर्गत अनेक अद्वैतवेदान्ती हैं जिनमें से निम्नलिखित आचार्यों के योगदानों का विचार उदाहरणस्वरूप किया जाता है। १, आनन्दबोध जिन्होंने न्यायमकरन्द लिखा। २. नृसिंहाश्रम जिन्होंने भेदधिक्कार लिखवाकर वाद-प्रस्थान का विकास किया। इस ग्रन्थ
के पक्ष तथा विपक्ष में अनेक ग्रन्थ लिखे गये। ३. अप्पयदीक्षित जिन्होंने मध्वमुखमर्दन लिखकर मध्व के द्वैतवाद का खंडन किया और
रामानुजशृंगभंग लिखकर रामानुज के विशिष्टाद्वैत वेदान्त का खंडन किया। ४. सदानन्दगिरि जिन्होंने सहस्राक्ष लिखकर शुद्धाद्वैतवादी विट्ठलनाथ के विद्वन्मण्डन
तथा गोस्वामी गिरिधर के शुद्धाद्वैतमार्तण्ड का खंडन किया। ५. अनन्तकृष्णशास्त्री (२.वीं शती) जिन्होंने शतभूषणी लिखकर विशिष्टाद्वैतवादी वेदान्तदेशिक
की शतदूषणी और उसकी टीका चण्डमारुत का प्रतिवाद किया है।
वाद-प्रस्थान और उसका विकास ६. स्वामी हरिहरानन्द सरस्वती जो करपात्री स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हैं, बीसवीं शती
के एक श्रेष्ठ अद्वैतवेदान्ती थे। उन्होंने मार्क्सवाद, भौतिकवाद तथा पाश्चात्त्यों के द्वारा किये गये वेद के अर्थ का तथा आर्यसमाज के द्वारा किये गये सायणाचार्य के वेदभाष्य के खंडन का निराकरण किया। इसके अतिरिक्त उन्होनें राहुलसांकृत्यायन, साम्यवादी और कामिल बुल्के आदि आधुनिक विद्वानों के मतों का भी खंडन किया, जिन्होंने भारतीय परम्परागत राजनीति तथा रामायण का शास्त्रविरुद्ध अर्थ किया है।
इनके अतिरिक्त भी अनेक विद्वान् हुए हैं जिन्होंने अद्वैतवेदान्त के किसी-न-किसी विरोधी दर्शन का खंडन किया है। वे सभी बाध-प्रस्थान के अनुयायी है। स्वामी करपात्री जैसे संन्यासी ने बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में अनेक अद्वैतविरोधी मतों का खंडन किया है। उन्हें भी इस प्रस्थान का आचार्य माना जा सकता है। वास्तव में इस प्रस्थान के अनुयायी बहुत अधिक हैं। ऊपर केवल कुछ अत्यन्त प्रसिद्ध आचार्यों के ही नाम दिये गये हैं। अब इस प्रस्थान के सिद्धान्तों का निरूपण आगे किया जायेगा।
०२. श्रीहर्ष
श्रीहर्ष ने खंडनखंडखाद्य नामक एक महान् ग्रन्थ की रचना की जिसमें उन्होंने उदयन की लक्षणावली में दी गयी न्यायदर्शन की अनेक परिभाषाओं का खंडन किया। लक्षणावली की रचना दशमी शताब्दी के अन्त में हुई थी जैसा कि उसकी पुष्पिका से ज्ञात होता है। पुनश्च गंगेश ने तत्त्वचिन्तामणि में श्रीहर्ष के मत का खंडन किया है। उनका समय १२०० ई. है। इस प्रकार श्रीहर्ष उदयन ओर गंगेश के बीच में हुए और उनका समय ११५० ई. माना जा सकता है। कान्यकुब्जेश्वर जयचन्द्र जो ११E५ ई. में राज्यच्युत हो गये थे, श्रीहर्ष के आश्रयदाता थे। श्रीहर्ष ने नैषधचरित नामक एक महाकाव्य लिखा है जिसके अन्त में उन्होंने अपने द्वारा प्रणीत अर्णववर्णन, गौडोर्वीशकुलप्रशस्ति, नवसाहसांकचरित, विजयप्रशस्ति, शिवशक्तिसिद्धि, स्थैर्यविचार, छन्दःप्रशस्ति, ईश्वराभिसन्धि और पंचनलीयकाव्य नामक ग्रन्थों का उल्लेख किया है। किन्तु नैषधचरित और खंडनखंडखाद्य के अतिरिक्त उनका कोई अन्य ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। खंडनखंडखाद्य उनकी दार्शनिकता की यशोगाथा सदा गाता रहेगा क्योंकि वह अत्यन्त मौलिक और निराला ग्रन्थ है।
खण्डनखंडखाद्य पर निम्न टीकाएं है - जमीन १. परमानन्दकृत खण्डन-मण्डन
साम या २. भवनाथकत खण्डन-मण्डन ३. रघुनाथ शिरोमणिकृत दीधिति ४. वर्धमानकृत प्रकाश
विद्याभरणकृत विद्याभरणी
६. विद्यासागरकृत विद्यासगरी १७. पदमनाभपंडितकृत खण्डन टीका
८. शंकरमिश्रकृत आनन्दवर्धन (शांकरी) ६. शुभंकरकृत श्रीदर्पण १०. चरित्रसिंहकृत खण्डनमहातर्क ११. प्रगल्म मिश्रकृत खण्डनदर्पण १२. पद्मनाभकृत शिष्यहितैषिणी १३. गोकुलनाथ उपाध्यायकृत खण्डनकुठार १४. अभिनव वाचस्पति मिश्रकृत खण्डनोद्वार १५. चित्सुखकृत भावदीपिका १६, शंकर चैतन्यभारतीकृत शारदा १७. सूर्यनारायण शुक्लकृत खण्डनरत्नमालिका १८. रघुनाथ भट्टाचार्यकृत खण्डनभूषामरिग १६. साधु मोहनलालकृत खण्डनगर्तप्रदर्शिनी
इन टीकाकारों में गोकुलनाथ उपाध्याय तथा अभिनव वाचस्पति ने श्रीहर्ष का स्पष्ट खण्डन किया और न्यायदर्शन को उनके खण्डन से मुक्त किया है। शंकर मिश्र ने भी कहीं-कहीं खंडनखंडखाद्य का खंडन किया है, अभेदवाद का तिरस्कार किया है और भेदसिद्धि की है। भेदरत्नप्रकाश नाम से उन्होंने एक स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखा है जिसमें भेदवाद को सिद्ध किया गया है। सर्वप्रथम उन्होंने ही खड़नखंडखाद्य के खंडन का सूत्रपात किया।
उपर्युक्त टीकाकारों को तीन कोटियों में बांटा जा सकता है। पहली कोटि में शंकर मिश्र, गोकुलनाथ उपाध्याय तथा अभिनव वाचस्पति मिश्र आते हैं जिन्होंने खंडनखंडखाद्य का खंडन करके न्यायदर्शन का पक्ष स्थापित किया है। दूसरी कोटि में चित्सुख, आनन्दपूर्ण विद्यासागर और साधु मोहनलाल जैसे अद्वैतवेदान्ती आते हैं जिन्होंने खंडनखंडखाद्य का समर्थन करते हुए उसकी युक्तियों का विकास किया है। तीसरी कोटि में वे नैयायिक आते हैं जैसे भवनाथ, रघुनाथ भट्टाचार्य, रघुनाथ शिरोमणि, सूर्यनारायण शुक्ल, प्रगल्भ मिश्न आदि जिन्होंने न्यायदर्शन का विकास अद्वैतवेदान्त की ओर किया है और इसका माध्यम खंडनखंडखाद्य को बनाया है। कहना नहीं होगा कि खंडनखंडखाद्य के टीकाकारों में नैयायिकों की संख्या अधिक है। वे लोग इसे वितण्डा का ग्रन्थ मानते हैं और नव्य-न्याय में वितण्डा का कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं था, इस कारण प्रायः गंगेशोत्तर सभी नव्य नैयायिकों ने खंडनखंडखाद्य पर टीका लिखी है। किन्तु खंडनखंडखाद्य वितण्डा का ग्रन्थ नहीं है। यह वस्तुतः अद्वैतवाद का ग्रन्थ है और इसमें अनिर्वचनीयतावाद की स्थापना अनेक युक्तियों द्वारा की गयी है। श्रीहर्ष ने अपने मत को यों अभिव्यक्त किया है -
वाद-प्रस्थान और उसका विकास मम त्वेवं दर्शनम् - प्रतीतिसिद्धत्वात अत्यन्तासविलक्षणं भवदपि जगत् तथा सत्तोपगमेऽपि बाध्यमानत्त्वाद् अनिर्वचनीयमिति
खंडनखंडाखाद्य पृ. १६४, योगीन्द्रानन्द का अनुवाद। कोई यह न समझे कि खंडनखंडखाद्य का मत बौद्धों के विज्ञानवाद या शून्यवाद के समान है, इसलिए स्वयं श्रीहर्ष ने सौगत सिद्धान्त और अद्वैतमत का अन्तर स्पष्ट कर दिया है -
सौगत ज्ञान और ज्ञेय सब को अनिर्वचनीय कहते हैं, किन्तु ब्रह्मवादी केवल ज्ञेय को अनिर्वचनीय अर्थात् सदसद्विलक्षण कहते हैं, वे ज्ञान को सत् मानते हैं। (वही, पृष्ठ
प्रसिद्धि है कि श्रीहर्ष के पिता श्री हीरपंडित को उदयनाचार्य ने शास्त्रार्थ में पराजित किया था। श्रीहर्ष ने इस कारण उदयन के मतों का खंडन किया, उनका नामोल्लेख किये हुए बिना ही। वस्तुतः उदयन के माध्यम से उन्होंने न्यायदर्शन का ही खण्डन किया। उदयन की निम्न कारिका अनुमान को प्रामाणिक सिद्ध करती है -
शङ्का चेदनुमास्त्येव न चेच्छका ततस्तराम्। व्याघातावधिराशङ्का तर्कः शङ्काबधिर्मतः।।
(न्यायकुसुमाञ्जलि ३/७) अर्थात् यदि शंका होती है, तो अनुमान सिद्धि हो जाता है। यदि शंका नहीं होती तो अनुमान और भी अधिक प्रकार से सिद्ध है। शंका व्याघातावधि ही है और तर्क शङ्कावधि तक है।
इसके प्रतिवाद में श्रीहर्ष कहते हैं -
व्याघातो यदि शङ्कास्ति, न चेच्छङ्का ततस्तराम्।
व्याघातावधिराशका तर्कः शङ्कावधिः कुतः ।। अर्थात् यदि व्याघात माना जाय, तो उसकी आश्रयीभूत शंका रहेगी। यदि व्याघात नहीं है तब तो शङ्का और अधिक होगी। व्याघात को शंका की अवधि (पर्यवसान) कभी नहीं माना जा सकता। तर्क सदैव व्याघातपूर्ण है। अतः तर्क से शड्का का पर्यवसान नहीं हो सकता।
पुनश्च अनुमान व्याप्तिमूलक होता है और व्याप्ति की जितनी परिभाषाएं दी जाती हैं उन सबमें श्रीहर्ष ने दोष दिखाये हैं। इस कारण व्याप्तिसिद्धान्त दोषग्रस्त है।
खंडनखंडखाद्य में चार परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में प्रमाणसामान्य और प्रमाणविशेष । दोनों का खंडन है। कुमारिलसम्मत प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और
में
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वेदान्त-खण्ड अनुपलब्धि - इन छ: प्रमाणों का खंडन किया जाता है। परिच्छेद के अन्त में न्यायदर्शन के हेत्वाभासों के लक्षण का भी पडन है।
द्वितीय परिच्छेद में निग्रहस्थानों का खण्डन है। इसमें विशेषत: उदयनाचार्य के न्यायपरिशिष्ट का खण्डन किया है, ऐसा प्रतीत होता है।
तृतीय परिच्छेद में किम् तद्, यद् आदि सर्वनामों का खण्डन किया गया है जिनके द्वारा नैयायिकगण अपने लक्षणों का अभियान करते हैं।
__चतुर्थ परिच्छेद में न्याय-वैशेषिक के अनेक लक्षणों का खण्डन किया गया है। विशेषतः द्रव्य, गण आदि की परिभाषाओं का खण्डन करके सिद्ध किया गया है कि न्याय-वैशेषिक किसी भी पद का निर्वचन नहीं कर सके हैं। इसी बात को स्वामी विद्यारण्य ने पंचदशी में यों अभिव्यक्त किया है
निरुक्तावभिमानं ये दधते तार्किकादयः। हर्षमिश्रादिभिस्ते तु खण्डनादौ सुशिक्षिताः।।
(पंचदशी ६/१६४) अर्थात् जिन तार्किकों को निर्वचन करने का गर्व था, उनके गर्व को श्रीहर्ष ने खंडनखंडखाद्य में चूर-चूर कर दिया है।
श्रीहर्ष की खण्डनयुक्तियों के प्रदर्शन के लिए नीचे दो उदाहरण दिये जाते हैं। सर्वप्रथम प्रत्यक्ष के लक्षण का खंडन है। प्रत्यक्ष का लक्षण न्यायसूत्र में यों किया गया है इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मक प्रत्यक्षम्। इस पर श्री हर्ष कहते हैं
इस लक्षण का उद्देश्य क्या है? (१) क्या वह सजातीय और विजातीय पदार्थों से भिन्न करने और उसकी प्रतीति के लिए है? (२) अथवा साक्षात्कारित्व की प्रतीति कराने के लिए है? अथवा (३) व्यवहारसंपादन के लिए है? अथवा (४) साक्षात्कारित्व के ज्ञापक चिन्ह को दिखाने के लिए है? अथवा (9) प्रत्यक्ष शब्द का प्रवृत्ति-निमित्त बताने के लिए है? अथवा (६) किसी अन्य उद्देश्य की सिन्दि के लिए है। पहला विकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से यहां सजातीय पदार्थों का ग्रहण किया गया है? या अन्य धर्म से सजातीय का ग्रहण है? दोनों पक्ष ठीक नहीं है। क्योंकि एक प्रत्यक्ष-व्यक्ति का सजातीय दूसरा प्रत्यक्ष व्यक्ति ही है। अतः उक्त लक्षण सभी सजातीय प्रत्यक्ष व्यक्तियों पर लागू है। अतः इस प्रत्यक्ष से भिन्न यह लक्षण है, ऐसा बन नहीं सकता। और यदि ऐसा बनता है, तो फिर प्रत्यक्ष में अव्याप्ति का दोष हो जायेगा। पुनश्च अन्य धर्म से (जैसे प्रमेयत्व से) यदि सजातीयता विवक्षित है तो इस लक्षण से विजातीय पद का ग्रहण व्यर्थ हो जायेगा, क्योंकि अनुमानादि प्रमाण में भी प्रमेयत्व है।
दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि यदि साक्षात्कारित्व विषयक ज्ञान के द्वारा
वाद-प्रस्थान और उसका विकास
१२५ प्रत्यक्ष का लक्षण माना जाय तो अन्योन्याश्रय दोष हा जाएगा। तीसरा विकल्प भी युक्तिहीन है, क्योंकि जिस व्यवहार का संपादन करना है उसका स्वरूप तो प्रत्यक्ष लक्षण ही है। अतः इसमें आत्माश्रय दोष है। चौथा विकल्प भी असंगत है, क्योंकि चिन्ह लक्ष्य में व्याप्य होता है और लक्षण सदैव लक्ष्य में व्यापक होता है, परन्तु अपराक्ष व्यवहार-हेतु प्रत्यय वैसा नहीं है। कारण, मार्ग में जाते समय आनुवंगिक तृण आदि से प्रत्यक्ष में अपरोक्ष व्यवहार नहीं होता है। पांचवां विकल्प भी व्यर्थ है क्योंकि जब प्रत्यक्ष का लक्षण ही सम्भव नहीं है, तो उसमें प्रवृत्ति निमित्त कैसे होगा? अन्त में छठा विकल्प भी संभव नहीं है क्योंकि ऐसे किसी प्रयोजन का जो भी निर्वचन किया जायेगा उसमें दोषोभावना संभव है। इस प्रकार न्यायसूत्र में जो प्रत्यक्ष का लक्षण किया गया है वह दोषमुक्त नहीं है।
इसी प्रकार द्रव्य के लक्षण का भी उदाहरण ध्यातव्य है। उदयन ने द्रव्य का लक्षण किया है
गुणात्यन्ताभावानधिकरणं द्रव्यम् (लक्षणावली पृष्ठ २)। इसी आधार पर प्रसिद्ध है कि गुणाश्रयो द्रव्यम् । किन्तु इस पर श्रीहर्ष कहते हैं कि यह लक्षण संगत नहीं है, क्योंकि एकत्व आदि संख्या गुण हैं और उनकी प्रतीति रूप, रस आदि में भी होती है जो स्वयं गुण हैं। अर्थात् गुण का आश्रय गुण भी अनुभद्य में आता है। समवायकारणं द्रव्यम्, यह लक्षण भी ठीक नहीं है, क्योंकि रूपादि गुणों में भी संख्यादि गुणों की समवायिकारणता सिद्ध
वास्तव में खण्डनखंडखाद्य की युक्तियों का प्रयोग तीन प्रकार का है -
तत्तुल्योहस्तदीयं च योजनं विषयान्तरें। श्रृंखला तस्य शेषे च त्रिधा भ्रमति मत्किया।।
(खंडनखंडळयाय ४/७) (9) कथित खण्डन-युक्तियों के समान अन्य युक्तियों की कल्पना। (२) खंडनखंडखाद्य की ही युक्त्यिों का अन्य विषयों में उपयोग करना। (३) यदि कोई खण्डनयुक्तियों का निराकरण करे, ता खडनखडखाध के प्रयोगकर्ता को
निराकरणकर्ता के वचनों पर खंडन युक्तियों का प्रयोग करना चाहिये। इस खण्डन की प्रक्रिया है कई विकल्पों का निर्माण करना और उनमें से प्रत्येक विकल्प को युक्तिहीन दिखाना, जैसे प्रत्यक्ष के लक्षण के बारे में ऊपर प्रदर्शित किया गया है।
इस प्रकार प्रत्येक लक्षण को गलत सिद्ध करके श्रीहर्ष ने वास्तव में यह प्रतिपादित किया है कि जो सत् है उसका लक्षण या निर्वचन नहीं हो सकता है। उन्होंने अनिर्वचनीयतासारसर्वस्ववाद की स्थापना की है, जो अद्वैतवाद का मुख्य प्रतिपाद्य है।
०३. आनन्दबोध
(१२वीं शती का पूर्वार्द्ध) आनन्दबोध इष्टसिद्धिकार वियुक्तात्मा के शिष्य थे। इन्होंने न्यायमकरन्द में नैयायिकों का खण्डन किया है। इसके अतिरिक्त उनके अन्य ग्रन्थ हैं न्यायदीपावली और प्रमाणमाला।
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वेदान्त-खण्ड अनुभूतिस्वरूप ने इन तीनों ग्रन्थों पर टीकाएं लिखी हैं। न्यायमकरन्द तथा प्रमाणमाला पर चित्सुख की भी टीकाएं हैं। चित्सुख के शिष्य सुखप्रकाश ने भी प्रमाणमाला पर एक टीका लिखी है। उन्होंने तथा अमृतानन्द योगी ने पृथक्-पृथक् न्यायदीपावली पर टीकाएं लिखी हैं। मिथ्या को एक परिभाषा आनन्दबोध ने दी है जिसे मधुसूदन सरस्वती ने समर्थित किया है। न्यायवैशाषक-दर्शन का खण्डन करके अतवाद की स्थापना करने के कारण आनन्दबोध वाद-प्रस्थान के प्रमुख निर्माताओं में से हैं। उन्होंने न्यायमकरन्द में ख्यातिवाद के विभिन्न मतों की अच्छी समालोचना की है और अनिर्वचनीय ख्यातिवाद को सिद्ध किया है। आत्मा को वे आनन्द रूप नहीं मानते, अपितु मात्र संविद्रूप मानते हैं। वे अविद्यानिवृत्ति को सत् असत् सदसत् और अनिर्वचनीय से भिन्न पंचम प्रकार की मानते हैं। इस कारण अद्वैतवेदान्त के इतिहास में वे एक अत्यन्त मौलिक दार्शनिक के रूप में विख्यात हैं।
०४. चित्सुख
श्रीहर्ष की तर्क प्रणाली का चित्सुख ने तत्वप्रदीपिका में बहुत विकसित किया है। जो लोग खंडनखडखाद्य को वितण्डा-ग्रन्थ मानते थे उनका उत्तर देते हुए वे चित्सुखी में कहते हैं -
विप्रातपत्तिवातथ्वान्तथ्वंसनगात्म वाचाना।
वियते चित्सुखमुनिना प्रत्यक् तत्त्वप्रदीपिका।। अर्थात् विविध विवादरूपा अन्धकारों को छिन्न-भिन्न करने में अत्यन्त समर्थ तत्त्वप्रदीपिका की रचना विद्वान् चित्सुखने को है जिसमें प्रत्यक्-तत्त्व (आत्मा) का निरूपण किया गया है। खंडनखडखाध को भावदीपिका में भी उन्होंने दर्शाया है कि खंडनखंडखाद्य अद्वैतवदान्त का ग्रन्थ है और उसमें स्वयप्रकाश का सम्यक् विवेचन है। तत्त्वप्रदीपिका पर प्रत्वकूस्वरता की नयनप्रसादनी टाका है। चित्सुख ने मण्डन मिश्र की ब्रह्मसिद्धि, श्रीहर्ष के खंडनखडखाद्य और आनन्दबोध के न्यायमकरन्द तथा प्रमाणरत्नमाला और सुरेश्वराचार्य की नैष्कम्यासद्धि पर टीकाएं लिखीं हैं। प्रकाशात्मा के विवरण पर भी उनकी व्याख्या है। अतः वे विवरणप्रस्थान से प्रभावित थे, किन्तु उनका मुख्य ग्रन्थ तत्वप्रदीपिका है जिसे उन्हीं के नाम पर चित्सुखी कहा जाता है। यह निश्चित रूप से नव्यवेदान्त या बाध-प्रस्थान का
A.In
चित्सुख का समय श्रीहर्ष के बाद है क्योंकि उन्होंने खंडनखंडखाद्य पर भावदीपिका नामक टीका लिखी है और चित्सुखी में भी एक स्थान पर उनको खण्डनकार कहकर उद्धृत किया है। माथ्व वेदान्ती जयतीर्थ जिनका समय १३६५-१३८८ ई. है चित्सुख का उल्लेख किया है। आनन्दबोध भट्टारक जिनका समय १२०० ई. है चित्सुख के पूर्ववर्ती थे क्योंकि चित्सुख ने उनके दो ग्रन्थों पर टीकाएं लिखी हैं। इससे सिद्ध होता है कि चित्सुख का समय १२२५-१२२४ ई. है। वे कल्पतरुकार अमलानन्द के समकालीन प्रतीत होते हैं।
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वाद-प्रस्थान और उसका विकास चित्सुख के प्रधान शिष्य सुखप्रकाश थे जो अमलानन्द के गुरु थे।
चित्सुखी में चार परिच्छेद हैं जिनके वर्ण्य-विषयों का वर्णन प्रत्यक् स्वरूप ने इस प्रकार किया है -
प्रथम परिच्छेद में निम्न विषयों का वर्णन है -
विज्ञानं स्वप्रकाशं भवति च पुरुषस्तद्वपुर्भावरूपम्
ध्वान्तं मिथ्या प्रपञ्चो प्रमनरनिलयोऽनादिभावो प्रबोधः।। आरोपारोप्यसिद्धिः प्रमितिजनकता खण्डता स्वप्रमात्वम् ।
शक्तिर्लक्ष्यः पदार्थान्वय इति कथिताः पौरुषेयो न वेदः।। अर्थात्
(१) विज्ञान की स्वप्रकाशता, (२) आत्मा की ज्ञानरूपता, (३) अन्धकार की भावरूपता, (४) प्रपंच का मिथ्यात्व (५) भ्रम-सिद्धि, (६) अज्ञान की अनादिता एवं भावरूपता, (७) अध्ययनसिद्धि, (८) वेद में सिद्धार्थविषयक प्रमा की जनकला, (E) अखण्डार्थता, (१०) स्वतः प्रमात्व, (११) अतिरिक्त शक्ति-कल्पना (१२) अभिहितान्वयवाद, और (१३) वेदों की अपौरुषेयता प्रथम परिच्छेद में वर्णित है।
द्वितीय परिच्छेद के विषय हैं -
भेदो द्रव्यादिषट्क क्षणनिधनमतं षट्प्रमाणान्यभावो। भावः पश्चात्यपराणु ईयवयविसहितश्चान्ययोगो वियोगः।। द्वित्वादिर्जातिमानं द्वयणुकपरिमिता पाकजप्रक्रियाथो
हेतुत्वं कालकाष्ठे जनिमदपि भिदाऽभेदवादो निरासः ।। अर्थात्
भेद, द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव, भाव, अवयवीसहित परमाणु, संयोग, विभाग, द्वित्व आदि, जाति, द्वयणुकारम्भ, पाकजप्रक्रिया, कारणत्व, काल, दिशा और भेदाभेद - इन न्याय वैशेषिक सिद्धान्तों का खण्डन किया गया है।
तृतीय परिच्छेद के विषय है -
शब्दः साक्षात्कारहेतुर्विद्या युक्तिफलप्रदा।
विधैव न तु कर्मेति तृतीयं चितयं मतम् ।। अर्थात्
शब्द में अपरोक्ष ज्ञान की हेतुता, ज्ञान मुक्ति का एकमात्र साधन है, तथा ज्ञान-कर्म समुच्चयवाद का खण्डन - इन तीन मतों का वर्णन तृतीय परिच्छेद में है।१२८
वैदान्त-खण्ड चतुर्थ परिच्छेद में विषय हैं -
स्वात्यन्तोच्छेदरूपा क्षणिकनिरतिभिस्तार्किकैः कापिलैर्या । सोक्ता मुक्तिनिर्रस्ता दृढनयनिकरैरात्मपक्षे च मुक्तिः।। एकानेका चिदेकाश्रयविषयवती जीवभावैकहेतु
र्या विद्या तन्निवृत्तिः परमसुखमयी जीवतश्चेति सोक्ता।।
अर्थात्
बौद्ध विज्ञानवाद के मुक्तिसिद्धान्त का खंडन, तार्किकों के मुक्तिवाद का खण्डन, सांख्य के मक्तिसिद्धान्त का खण्डन, अविद्या का एकत्व तथा उसका विषय, अविद्या निवृत्ति का स्वरूप और जीवन्मुक्ति का साधन ये विषय चतुर्थ परिच्छेद में वर्णित हैं।
चित्सुख की तर्कप्रणाली को समझने के लिए नीचे स्वयंप्रकाशत्व तथा माया के ऊपर उनकी तर्कपद्धति का प्रयोग दिया जाता है।
स्वप्रकाशत्त्व का निरूपण करते हुए वे पहले पूर्वपक्ष में ११ विकल्प बनाते हैं जो यों हैं-(9) क्या स्वप्रकाशत्व का अर्थ स्वत्त्व-विशिष्ट प्रकाशता है? अथवा (२) स्वविषयकताविशिष्ट प्रकाशता है? अथवा (३) सजातीय प्रकाश से अप्रकाशितता है? (४) अथवा स्वसत्ता में प्रकाश की नियतता है? (५) अथवा स्वव्यवहारहेतुताविशिष्ट प्रकाशता है? (६) अथवा ज्ञान-अविषयत्ता है? अथवा (७) ज्ञान-अविषयता-विशिष्ट अपरोक्षता है? अथवा (८) व्यवहारविषयताविशिष्ट ज्ञान अविषयता है? अथवा (E) स्व-सम्बन्धी व्यवहार में किसी सजातीय अन्य वस्तु की अनपेक्षता है? अथवा (१०) अवेद्यताविशिष्ट अपरोक्षव्यवहार-विषयता है? अथवा (११) अवेद्यता-विशिष्ट-अपरोक्ष व्यवहार-योग्यता है?
इस प्रकार स्वप्रकाश के ग्यारह लक्षण किये गये। किन्तु प्रत्येक लक्षण सदोष है। देखिए-प्रथम लक्षण ठीक नहीं है, क्योंकि जो वेद्य वृत्ति (अस्वप्रकाश) हैं उसमें भी प्रकाशता मानी जाती है। अतएव इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष है। दूसरा लक्षण भी गलत है, कर्मकर्तृभाव-विरोध के कारण यह लक्षण असंभव है। अर्थात् स्वविषयता और प्रकाशता दोनों का युगपद्भाव असंभव है, विरोध होने के कारण। तीसरा लक्षण भी समीचीन नहीं है, क्योंकि दीपक आदि भी सजातीय प्रकाश से प्रकाशित नहीं है और वे अस्वप्रकाश होने के कारण अलक्ष्य हैं। परन्तु यह लक्षण उसमें भी लागू होता है। अतएव इसमें अतिव्याप्ति है। चौथा लक्षण भी निर्दोष नहीं है, क्योंकि सुख आदि भावों में भी इसकी अतिव्याप्ति है। सुख आदि भी अपनी सत्ता में प्रकाश-नियत हैं। पांचवां लक्षण भी अयुक्त है, क्योंकि यह दीपक आदि में भी अतिव्याप्त है। दीपक में भी अपने व्यवहार की हेतुता और प्रकाशता है। छठां लक्षण भी सदोष है, क्योंकि स्वप्रकाशत्व में स्वयं प्रकाशत्व साधक अनुमान और आगम प्रमाण से जन्य ज्ञान की विषयता रहती है। उसमें पूर्णरूपेण अविषयता नहीं है।
वाद-प्रस्थान और उसका विकास
१२६ अतः इस लक्षण में असंभवदोष है। सातवां लक्षण भी युक्तिहीन है, क्योंकि इसमें भी अव्याप्ति तथा असंभव दोष है। अविषयता के कारण असंभव दोष है। और मोक्षकालीन आत्मा में यह लक्षण घटित नहीं होता इसलिए इसमें अव्याप्ति दोष भी है। आठवें लक्षण में भी इसी प्रकार अव्याप्ति और असंभव दोष है। नवम लक्षण भी ठीक नहीं है, क्योंकि सजातीय अन्य वस्तु की अपेक्षा दीपक घट आदि को भी नहीं है। अतः इस लक्षण में अतिव्याप्ति है। दशम लक्षण भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वप्रकाशत्व के अवेद्य होने पर उसके विषय में विचार-विनिमय की संभावना नहीं होगी। पुनश्च व्यवहार-विषयता कहना और अपरोक्ष कहना ये दोनों विरुद्ध कथन हैं। ग्यारहवां लक्षण भी समीचीन नहीं है, क्योंकि इसमें कथित योग्यता स्वप्रकाशत्व का धर्म है? या स्वरूप है? यदि धर्म है तो मोक्ष-अवस्था की आत्मा में अव्याप्ति होगी। फिर यदि उक्त योग्यता को स्वरूप माना जाय तो ज्ञानस्वरूप आत्मा में व्यवहार-निरूपणीयत्ता आ जाने से नित्य सापेक्षता आ जायेगी। इस प्रकार स्वप्रकाश का कोई लक्षण सिद्ध नहीं होता है।
किन्तु इतना पूर्वपक्ष प्रस्तुत करने के अनन्तर चित्सुख ग्यारहवें लक्षण का परिष्कार करके उसे स्वप्रकाशत्व का लक्षण सिद्ध करते हैं। देखिए जो कहा गया कि उक्त योग्यता धर्म नहीं है वह ठीक नहीं है, क्योंकि यहां उक्त योग्यता के अत्यन्ताभाव की अनधिकरणता इष्ट है। इससे अव्याप्ति दोष का निराकरण हो जाता है। पंचपादिका में कहा भी गया है कि आनन्द, विषयानुभव तथा नित्यत्व-ये धर्म आत्मा में हैं। “अवेद्यत्वे सति” कहने का तात्पर्य है कि आत्मा में फलव्याप्यतारूप वेधता नहीं रहती है। अतः अवेद्यता का अर्थ फलव्याप्यता का अभाव है। इसी को प्रतिबोधविदित कहा जाता है। बोध के अतिरिक्त वेद्यता का अभाव ही आत्मा का स्वरूप है। इस प्रकार ग्यारहवा लक्षण शुद्ध हो जाता है और “अवेद्यत्वे सति अपरोक्ष-व्यवहार-योग्यत्वम्”-यह स्वप्रकाश का लक्षण पूर्णरूपेण निर्दोष दिखाया गया है।
चित्सुख अन्ततोगत्वा घोषणा करते हैं कि स्वप्रकाशत्व को कौन असिद्ध कर सकता है?
चिद्रूपत्वादकर्मत्वात्स्वयं ज्योतिरिति श्रुतेः।।
आत्मनः स्वप्रकाशत्वं को निवारयितुं क्षमः।। अर्थात् चिद्रूप होने के कारण, अकर्मत्व होने के कारण, स्वयंज्योति होने के कारण श्रुतिप्रमाण से जो स्वप्रकाश रूप आत्मा सिद्ध है उसका निवारण कौन कर सकता है? स्पष्ट है कि कोई नहीं कर सकता है।
। इसी प्रकार मिथ्यात्व का लक्षण क्या है? इस पर चित्सुख ने निम्नलिखित १० विकल्प बनाये हैं और प्रत्येक में दोष देखा है। ये विकल्प हैं-(9) क्या मिथ्यात्व प्रमाण-अविषयत्व है? अथवा (२) प्रमाण-ज्ञान विषयत्व है? अथवा (३) अयथार्थ ज्ञान का विषयत्व है? अथवा (४) सद्विलक्षणत्व है? अथवा (५) सदसद्विलक्षणत्व है? अथवा (६) अविद्या या
देवान्त-खण्ड उसका कार्य है? अथवा (७) ज्ञान-निवयत्व है? अथवा (८) ज्ञायमान आश्रय में होने वाले निषेध का प्रतियोगित्व है? अथवा (E) बाध्यत्व है? अथवा (१०) अपने अत्यन्ताभाव के
अधिकरण में प्रतीयमानता है? ।
इनमें से कोई लक्षण ठीक नहीं है। देखिए - प्रथम लक्षण में अतिव्याप्ति है, क्योंकि वह ब्रह्म पर भी घटित होता है। द्वितीय लक्षण में अर्थान्तर-कल्पना है क्योंकि प्रपंच को सत्य मानने वाले भी सत्य पदार्थ में अप्नमाण ज्ञान की विषयता मानते हैं। तृतीय लक्षण में भी उक्त सभी दोष हैं, अतः वह भी ठीक नहीं है। चतुर्थ लक्षण में अतिव्याप्ति है क्योंकि शशविषाण में भी वह घटित होता है और शशविषाण को मिथ्या नहीं माना जाता। पंचम लक्षण में वदतो व्याघात है। एक का निषेध करने पर दूसरे का अभिधान संभव हो जायेगा। अतः सद्-असद् उभय विलक्षणत्व संभव नहीं है। छठा लक्षण भी ठीक नहीं है क्योंकि अविद्या का अर्थ अनिश्चित है। अविद्या का अर्थ अनिर्वचनीय है? या अग्रहण? या मिथ्याज्ञान? अनिर्वचनीयत्व अन्य मतों में अप्रसिद्ध है। शेष दो में अर्थान्तर कल्पना है क्योंकि जो मिथ्यात्व नहीं है उसमें भी अग्रहण और मिथ्याज्ञान सम्भव है। सप्तम लक्षण में अर्थान्तरता-दोष है निवर्त्य ज्ञान सुखादि में सत्य है। अष्टम लक्षण भी सदोष है क्योंकि प्रमाण ज्ञान से जो जिस कार्य का आश्रय ज्ञात होता है उसमें उसके कार्य का निषेध नहीं हो सकता, अन्यथा ब्रह्म में भी ज्ञानरूपता का निषेध होने लगेगा। ।
नवम लक्षण में प्रश्न है कि बाध्यत्व क्या है? वह बाधक ज्ञान-विषयत्व है? या बाधक ज्ञान-निवर्त्यत्व है? दोनों दशाओं में अर्थान्तर दोष है, क्योंकि शुक्ति आदि सत्य पदार्थों में भी बाधक ज्ञान की विषयता है और बाधक ज्ञान से उसके पूर्व ज्ञान की निवृत्ति मानी जाती है। दशम लक्षण भी ठीक नहीं है, क्योंकि तार्किक लोग संयोग, विभाग, शब्द एवं आत्मगुणों को अव्याप्तवृत्ति मानते हैं जो अपने अत्यन्ताभाव के अधिकरण मे प्रतीयमान है और सत्य हैं। इस प्रकार प्रपंचमिथ्यात्व का कोई लक्षण सिद्ध नहीं होता।
इस प्रकार पूर्वपक्ष स्थापित करके चित्सुख मिथ्यात्व का लक्षण उत्तरपक्ष (सिद्धान्तपक्ष) में देते हैं। उनके अनुसार मिथ्यात्व स्वाश्रयनिष्ठ अत्यन्ताभाव का प्रतियोगित्व है। उनका श्लोक है
सर्वेषां भावानामाश्रयत्वेन संमते। प्रतियोगित्वमत्यन्ताभावं प्रति मृषात्मता।।
(चित्सुख १/७) इस लक्षण में भी उन्होंने कुछ दोष लगाये हैं, परन्तु उनका निवारण करके इसे अन्त में शुद्ध सिद्ध किया है। उनकी तत्त्वप्रदीपिका (चित्सुखी) निःसन्देह अद्वैतवेदान्त का एक मानक ग्रन्थ है। उसमें एक ओर न्यायदर्शन का खण्डन है तो दूसरी ओर अद्वैतवेदान्त का तर्कपूर्ण समर्थन है। किन्तु सबसे उल्लेखनीय इसकी तर्कप्रणाली है जिसमें प्रसंगानुमान और
वाव-प्रस्थान और उसका विकास
१३१ अनन्तकोटिक कल्प्यों का प्रयोग है।
बीसवीं शती में अंग्रेज दार्शनिक कार्ल पापर ने प्राक्कल्पना और तन्निराकरण द्वारा ज्ञान-विकास की व्याख्या की है। चित्सुख में प्राक्कल्पना (विविध कल्पों या विकल्पों का सृजन) तथा उनका निराकरण मिलता है। वे पापर की विधि को प्रदर्शित करते हैं। किन्तु पापर ने इस विधि का प्रयोग विज्ञान के क्षेत्र में किया। चित्सुख ने यह नहीं किया। सं.
०५. मधुसूदन सरस्वती
चित्सुख के बाद बाध-प्रस्थान के महान् दार्शनिक मधुसूदन सरस्वती आते हैं। उनका समय सोलहवीं शती का पूर्वार्ध है। पं. गोपीनाथ कविराज ने उनके समय के बारे में तीन मत दिये हैं। कुछ लोग मानते हैं कि उनका समय १५४० से १६२३ ई. तक है। कुछ अन्य लोग कहते हैं कि वे १५५५ से १६ १५ ई. तक थे। अन्त में कुछ लोग कहते हैं कि उनका समय १५७० से १६४० तक है। (दे. काशी की सारस्वत साधना पृ. ३८)।
वे गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे। रामचरितमानस के बारे में उनका यह श्लोक बहुत प्रसिद्ध है -
आनन्दकानने काश्यां तुलसी जङ्गमस्तरुः ।
कविता कामिनी यस्य रामभ्रमरभूषिता।। वे नव्य नैयायिक गदाधर भट्टाचार्य के सहपाठी थे। ऐसी प्रसिद्धि है कि जब मधुसूदन सरस्वती नवद्वीप पहुँचे थे तो गदाधर भट्टाचार्य भी कांप गये थे -
नवद्वीपं समायाते मधुसूदनवाक्पतौ।
चकम्पे तर्कवागीशः कातरोऽभूदू गदाधरः।। प्रसिद्धि है कि राजा टोडरमल जो सम्राट् अकबर के अर्थसचिव थे, मधुसूदन सरस्वती के सुहद् थे। उन्होंने मधुसूदन सरस्वती का सम्मान अकबर के दरबार में करवाया था। वहां उपस्थित सभी पंडितों ने एकमत से स्वीकारा कि
वेत्ति पारं सरस्वत्या मधुसूदनसरस्वती।
मधुसूदनसरस्वत्याः पारं वेत्ति सरस्वती।। इस प्रकार मधुसूदन सरस्वती अपने समय के अद्वितीय विद्वान् तथा अद्वैतवेदान्ती थे। इन सब से सिद्ध है कि मधुसूदन सरस्वती अपने समय के अत्यन्त समादृत 7 अद्वैतवेदान्ती थे और नव्य न्याय में भी उनकी अबाध गति थी।
१३२
बैदान्त-खण्ड उनकी यथाक्रम निम्न रचनाएं हैं - १. संक्षेपशारीरकसारसंग्रह। सर्वज्ञात्ममुनि के संक्षेपशारीरक की टीका। २. वेदान्तकल्पलतिका। इसमें अद्वैतवेदान्त के अनुसार मोक्ष का विचार किया गया है। ३. सिद्धान्तबिन्दु-यह शंकराचार्य की दशश्लोकी-टीका है। इस टीका पर भी अनेक
उपटीकाएं हैं। इनमें गौड ब्रह्मानन्द सरस्वती रचित न्यायरत्नावली, नारायणतीर्थकृत लघुव्याख्या, पुरुषोत्तम सरस्वतीकृत सिद्धान्तबिन्दु शान्तिदीपन, पूर्णानन्दसरस्वतीकृत तत्त्वविवेक और वासुदेव शास्त्री अभ्यंकरकृत बिन्दुप्रपात नामक व्याख्याएँ उल्लेखनीय हैं। प्रायः शाकरवेदान्त को समझने के लिए सिद्धान्तबिन्दु को एक मानक ग्रन्थ माना
जाता है। ४. महिम्नस्तोत्र की टीका। यह पुष्पदन्तकृत शिवमहिम्नस्तोत्र की टीका है। इसके सातवें
श्लोक के भाष्य का अपना स्वतंत्र महत्त्व है, क्योंकि उसे प्रस्थानभेद नामक ग्रन्थ कहा जाता है जिसमें सभी आस्तिक दर्शनों का समन्चय किया गया है। महिम्नस्तोत्र की व्याख्या शिवपरक तथा विष्णुपरक दोनों हैं। इसमें मधुसूदन सरस्वती के विलक्षण वैदुष्य का दिग्दर्शन होता है। प्रस्थानभेद का एक और महत्त्व है। उसमें ६४ कलाओं
का नामोल्लेख किया गया है। ५. भागवत प्रथम श्लोक टीका । उसको परमहंसप्रिया भी कहा जाता है। ६. हरिलीला व्याख्या जो बोपदेवकृत हरिलीलामृत की टीका है। ७. भक्तिरसायन । इसमें प्रथम उल्लास पर मधुसूदन की स्वोपज्ञ टीका भी है। यह भक्ति
5 का एक मौलिक ग्रन्थ है। इसमें भक्तिमार्ग और अद्वैतवाद का समन्वय किया गया है। ८. आनन्दमन्दाकिनी। यह एक काव्य ग्रन्थ है। ६. अद्वैतसिद्धि। यह माध्व वेदान्ती व्यासतीर्थ के न्यायामृत का विशद प्रतिवाद है। इसके
कारण मधुसूदन सरस्वती प्रायेण अद्वैतसिद्धिकार कहे जाते हैं। यह उनके सभी ग्रन्थों
में सर्वोत्कृष्ट है। १०, गूढार्थदीपिका। यह शंकराचार्य के गीताभाष्य की विशद टीका है। माध्ववेदान्ती _ विजयीन्द्रस्वामी ने इसका खण्डन युक्तिमल्लिका नामक ग्रन्थ में किया है। ११. अद्वैतरत्नरक्षण। यह शंकरमिश्न के भेदरत्नप्रकाश का खण्डन है। १२. ईश्वरप्रतिपत्तिप्रकाशिका। १३. कृष्णकुतूहल। यह एक नाटक है।
उपर्युक्त ग्रन्थों से स्पष्ट है कि मधुसूदन सरस्वती ने बाध-प्रस्थान के अन्तर्गत अद्वैतसिद्धि और अद्वैतरत्नरक्षण नामक दो ग्रन्थ लिखे। इनमें से अद्वैतसिद्धि उनका एक महान् ग्रन्थ है जिसके खण्डन तथा मण्डन में भी कई ग्रन्थ लिखे गये हैं। उनके अन्य ग्रन्थों में भक्ति-सिद्धान्त का प्रतिपादन है। उन्होंने ही अद्वैतवेदान्त में सर्वप्रथम श्रीकृष्ण का अभेद
याद-प्रस्थान और उसका विकास परम ब्रह्म से किया है। इस प्रसंग में उनका यह श्लोक अत्यन्त प्रसिद्ध है -
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्। पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।।
(गूढार्थदीपिका के अन्त में प्रथम श्लोक) अद्वैतवेदान्त में निश्चित रूप से उनकी द्विविध क्रान्ति है। पहली क्रान्ति है-बाध प्रस्थान को चरम बिन्दु तक पहुँचा देना और अद्वैतवेदान्त को तर्कतः स्थापित कर देना। दूसरी कान्ति है अद्वैतवेदान्त में भक्ति और भागवतपुराण का प्रवेश करना। उन्होंने कर्म, भक्ति और ज्ञान के सह-समुच्चय का प्रचार किया और अपने समय में प्रचलित भक्ति-आन्दोलन को अद्वैतवेदान्त की ओर उन्मुख किया। एकेश्वरवाद और भक्तिमार्ग अद्वैतवेदान्त के विरोधी नहीं हैं, अपितु वे अद्वैतवेदान्त के प्रबल समर्थक हैं, ऐसा उनका निश्चय है।
पर अद्वैतसिद्धि में व्यासतीर्थ के न्यायामृत का खण्डन है। व्यासतीर्थ ने न्यायामृत की रचना श्रीमच्चशास्त्र का मंथन करके की है। उनके अनुसार इसमें अद्वैतवाद के इधर-उधर जो खण्डन किये गये हैं उनका संग्रह है, कहीं जो भी उक्त है उसका तर्कपूर्ण प्रतिपादन है और कहीं-कहीं अनुक्त कथन भी किया गया है -
विक्षिप्तसंग्रहात् क्वापि क्वाप्युक्तस्यौपपादनात् ।
अनुक्तकथनात्क्वापि सफलोऽयं श्रमो मम।।
(न्यायामृत १/८) को अद्वैतसिद्धि के हिन्दी अनुवादक स्वामी योगीन्दानन्द का अभिमत है कि न्यायामृत का आधार वेदान्तदेशिककृत शतदूषणी है और चित्सुखी का खण्डन वादावली में किया गया है जिसके प्रणेता जयतीर्थ हैं। वेदान्तदेशिक ने अद्वैतवाद पर ६६ आक्षेप लगाये गये हैं, जयतीर्थ ने वादावली में अद्वैतवाद पर ३४ आक्षेप लगाये हैं। दोनों को मिलाकर १०० आक्षेप हो जाते हैं। परन्तु न्यायामृत में चित्सुखी की भाँति चार परिच्छेद हैं। इसी न्यायामृत का खण्डन अद्वैतसिद्धि है जिसमें भी चार परिच्छेद हैं, व्यासतीर्थ ने न्यायामृत में आनन्दबोध तथा प्रकाशात्मा की युक्तियों का खण्डन किया है जिसका निराकरण मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैतसिद्धि में किया है।
अद्वैतसिद्धि का खण्डन व्यासतीर्थ के शिष्य रामाचार्य ने तरंगिणी में किया । तरंगिणी का खण्डन गौड़ ब्रह्मानन्द सरस्वती ने गुरुचन्द्रिका और लघुचन्द्रिका में किया। जैसे तरंगिणी न्यायामृत की टीका है वैसे ही गुरुचन्द्रिका और लघुचन्द्रिका भी अद्वैतसिद्धि की टीकाएं हैं। पुनश्च
बेदान्त-खण्ड
वनमाली मिश्र ने लघुचन्द्रिका का खण्डन न्यायामृत की एक अन्य टीका न्यायामृतसौगन्ध्य में की है। न्यायामृतसौगन्थ्य का भी खण्डन विट्ठलेश उपाध्याय ने अद्वैतसिद्धि के ऊपर एक टीका लिखकर किया है जिसका नाम विट्ठलेशोपाध्यायी टीका है। इन टीकाओं के अतिरिक्त मधुसूदन सरस्वती के शिष्य बलभद्र ने भी अद्वैतसिद्धि पर सिद्धि नामक व्याख्या लिखी है। इस प्रकार अद्वैतसिद्धि के पक्ष तथा विपक्ष में विपुल साहित्य रचा गया है। इस पर कुछ इधर अनुसंधान भी हुए हैं और आगे भी अनुसन्धान की गुंजाइश है।
जहां श्रीहर्ष और चित्सुख का लक्ष्य न्यायवैशेषिक का खण्डन करके अद्वैतवाद की स्थापना करना था, वहीं मधुसूदन सरस्वती का लक्ष्य द्वैतवेदान्त का खण्डन करके अद्वैतवेदान्त की स्थापना करना था। कारण, उनके समय में नव्यन्याय का झुकाव अद्वैतवेदान्त की ओर हो गया था और माध्ववेदान्ती ही अद्वैतवाद के कट्टर आलोचक थे। अतएव उनकी आलोचना की प्रत्यालोचना करके अद्वैतवाद की युगीन सेवा करना मधुसूदन सरस्वती के लिए अनिवार्य हो गया था।
अद्वैतसिद्धि के जिन सिद्धान्तों की विशेष चर्चा है उनमें से सबसे प्रसिद्ध मिथ्यात्व के पांच लक्षण हैं। व्यासतीर्थ ने मिथ्यात्व के पांच लक्षण लिये हैं और उन सभी में दोष दिखाया है। मधुसूदन सरस्वती ने इन पांच लक्षणों में से प्रत्येक को निर्दोष सिद्ध किया है।
दोनों में इस विषय पर जो विवाद है वह संक्षेप में निम्नलिखित है - १. मिथ्यात्व का प्रथम लक्षण पद्मपाद ने पंचपादिका में किया है। इसके अनुसार मिथ्यात्व सत्वासत्वानधिकरण है। इस लक्षण पर व्यासतीर्थ ने तीन विकल्प बनाये
(क) क्या सत्त्वासत्त्वानधिकरण सत्त्वविशिष्ट - असत्त्वाभाव है? अथवा (ख) सत्त्वात्यन्त्वाभाव और असत्त्वात्यन्ताभाव दोनों का आधार है? अथवा (ग) सत्त्वात्त्यन्ताभाव-विशिष्ट असत्त्वात्यन्ताभाव रूप धर्म का आधार है? ये तीनों विकल्प सदोष हैं। प्रथम पक्ष में सिद्धसाधनता है। द्वितीय पक्ष में विरोध है। तृतीय पक्ष में भी व्याघात है क्योंकि सत्त्वात्यन्ताभाव विशिष्ट असत्त्वात्यन्ताभाव स्ववचनविरोध है। यहां मधुसूदन सरस्वती ने प्रथम विकल्प को छोड़कर द्वितीय और तृतीय विकल्प को निर्दोष सिद्ध किया है। द्वितीय विकल्प में सत्य और असत्य एक दूसरे के अभाव नहीं हैं, अपितु दोनों स्वतन्त्र धर्म हैं। सत्त्व का अर्थ है त्रिकाल-अबाध्यत्व और असत्य का अर्थ है कहीं उपाधि के होने पर प्रतीयमानत्व का अनधिकरण आकाशकुसुम में असत्त्व है। ब्रह्म में सत्त्व है और जगत् में सत्त्व और असत्व दोनों का अभाव है। अतः द्वितीय विकल्प निर्दोष है। तीसरे विकल्प में भी यही बात है क्योंकि सत्त्व के अत्यन्ताभाव से विशिष्ट (आकाशकुसुम के असत्त्व से विशिष्ट) असत्त्व का अत्यन्ताभाव (अर्थात् ब्रह्म के सत्त्व का अभाव) जगत् में है। वास्तव में तृतीय विकल्प द्वितीय विकल्प का एक प्रकार है। प्रथम में सहभाव है और द्वितीय विशेष्य-विशेषणभाव है। दोनों प्रकारों में कोई व्याघात नहीं है।
२. मिथ्यात्व का दूसरा लक्षण है-त्रैकालिक निषेधप्रतियोगित्व मिथ्यात्व है। यह
वाद-प्रस्थान और उसका विकास
१३५ लक्षण प्रकाशात्मा के विवरण में मिलता है। यहां भी व्यासतीर्थ ने तीन विकल्प उठाये हैं? (क) त्रैकालिक निषेध को तात्त्विक मानने पर अद्वैतहानि है। (ख) कालिक निषेध को प्रातिमासिक मानने पर सिद्धसाधन दोष है। (ग) त्रैकालिक निषेध को व्यावहारिक मानने पर उसे बाधित मानना पड़ेगा और तब उसमें अर्थान्तर-कल्पना का दोष हो जायेगा। यहां मधुसूदन सरस्वती कहते है कि यद्यपि त्रैकालिक निषेध तात्त्विक है तथापि उससे अद्वैतहानि नहीं होती है, क्योंकि प्रपंच का निषेध तात्त्विक होने पर भी ब्रह्म रूप ही है, वह ब्रह्म से भिन्न नहीं है। अतः अद्वैतहानि नहीं है। ३. मिथ्यात्व का तीसरा लक्षण है ज्ञान - निवर्यत्व। यह लक्षण भी विवरणकार ने ही दिया है। यहां व्यासतीर्थ कहते हैं कि अतीत घट आदि में यह लक्षण अव्याप्त है, क्योंकि वे ज्ञान के द्वारा निवृत्त नहीं होते, अपितु टूटने-फूटने से नष्ट हो जाते हैं। फिर ज्ञानगत निवर्तकता का अभिप्राय क्या ज्ञान है या ज्ञानत्व-व्याप्य धर्म है? प्रथम पक्ष मानने पर शुक्ति-रजत आदि में अव्याप्ति है, क्योंकि शुक्ति-ज्ञान में निवर्तकता अधिष्ठान के साक्षात्कार से होती है, ज्ञानत्व से नहीं होती। द्वितीय पक्ष में संस्कारों में अतिव्याप्ति है, क्योंकि वे स्मृतिरूप ज्ञान में व्याप्त ज्ञानत्व से निवृत्त होते हैं।
जति यहां मधुसूदन सरस्वती ने इन सभी विकल्पों को छोड़कर एक नया मार्ग अपनाया है। उनका कहना है - ज्ञानप्रयुक्त अवस्थिति सामान्य के विरह (अभाव) का प्रतियोगिच ज्ञाननिवर्त्यत्व है। माया जैसे अनादि पदार्थ की भी निवृत्ति आत्मज्ञान से होती है। अतीत घट आदि की निवृत्ति भी ईश्वरीय ज्ञान से होती है क्योंकि ईश्वर-ज्ञान कार्यमात्र का साधारण कारण है। अधिष्ठान साक्षात्कार भी ज्ञान-कोटि में ही आता है। अतएव शुक्ति-रजत आदि में भी भ्रम की निवृत्ति ज्ञान से ही होती है। इस प्रकार प्रपंच से संबन्धित सर्वत्र ज्ञाननिवर्त्यत्व सिद्ध है। ४. मिथ्यात्व का चतुर्थ लक्षण है - स्वाश्रयनिष्ठ - अत्यन्ताभाव - प्रतियोगित्वं मिथ्यात्वं है। इस लक्षण को चित्सुख ने किया है। इस लक्षण पर भी व्यासतीर्थ ने पूर्वोक्त लक्षणों पर आरोपित दोष लगाये हैं और कहा है कि अत्यन्ताभाव को तात्त्विक मानने पर द्वैतावन्ति अर्थात् अद्वैतहानि होगी। इस पर मधुसूदन सरस्वती पूर्वोक्त प्रकार से ही कहते हैं कि प्रपंच के अत्यन्ताभाव से अद्वैतहानि नहीं होती है क्योकि वह ब्रह्मरूप ही है। ५. मिथ्यात्व का पांचवा लक्षण है -सविविक्तत्व मिथ्यात्व है-जो सद् से भिन्न है वह मिथ्या है। इस लक्षण को आनन्दबोध ने दिया है। इस पर व्यासतीर्थ ने तीन विकल्प बनाये हैं - (क) सत्ता का अर्थ क्या सत् जाति (सत्ता सामान्य) है या (ख) अबाध्य वस्तु? या (ग) ब्रह्म? प्रथम विकल्प में प्रपंच में अव्याप्ति है क्योंकि उसमें सत्ता जाति मानी जाती है। अतः प्रपंच सत है, सद् से भिन्न नहीं । द्वितीय विकल्प में असम्भव दोष है क्योंकि प्रपंच कभी अबाधित नहीं होता। अतः वह सत् है, सत् से भिन्न नहीं । तृतीय पक्ष में सिद्धसाधन दोष है। मधुसूदन सरस्वती ने यहां सत् की परिभाषायें की है। - सत्त्वं च प्रमाणसिद्धत्वम्।
१३६
वेदान्त-खण्ड जो प्रमाण -सिद्ध है वह सत् है। इस लक्षण के द्वारा उन्होंने व्यासतीर्थ के तीनों विकल्पों को अप्रासंगिक बना दिया है। जगत् की सत्ता प्रमाणसिद्ध नहीं है। प्रमाण-सिद्ध ब्रह्म की सत्ता है। अतएव जगत् सत् से भिन्न है। ma
इस प्रकार मिथ्यात्व के पांचों लक्षणों को मधुसूदन सरस्वती ने निर्दोष सिद्ध किया और बताया कि माया (मिथ्यात्व) का निर्वचन किया जा सकता है। रामानुज ने जो इस पर निर्वचनानुपपत्ति लगायी थी वह भी इससे दूर हो जाती है।
अविद्या, प्रतिबिम्बवाद तथा अभेद पर भी व्यासतीर्थ और मधुसूदन सरस्वती में गम्भीर विवाद है। मधुसूदन सरस्वती ने इन मतों की स्थापना व्यासतीर्थ की युक्तियों का खण्डन करके ही की है। उनकी यह स्थापना परवर्ती अद्वैतवेदान्तियों तथा द्वैतवादियों के लिए बहुत प्रेरक सिद्ध हुई है। दोनों तरफ से उनकी युक्तियों पर प्रतिक्रियायें हुई हैं।
पुनश्च मधुसूदन सरस्वती के अद्वैतरत्नरक्षण में नैयायिक शंकर मिश्न के भेदरत्नप्रकाश का विस्तृत खण्डन है।
भेद-अभेद के बारे में जो विवाद है उसकी अभिव्यक्ति भेदवादी नव्यनैयायिक शंकर मिश्र के ग्रन्थ भेदरत्नप्रकाश में और अभेदवादी मधुसूदन सरस्वती के ग्रन्थ अद्वैतरत्नरक्षण में विशेषतः हुई है। शंकर मिश्र ने कहा है कि उन्होंने भेदसिद्धि इसलिए की है कि अद्वैतवेदान्ती भेद-खण्डन न कर सकें -
भेदरलपरित्राणे तार्किका एव यामिकाः।
अतो वेदान्तिनः स्तेनान्निरस्यत्येष शङ्करः ।। इसका प्रत्युत्तर मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैतरत्नरक्षण में यों दिया है -
अद्वैतरत्नरक्षायां तात्त्विका एव यामिकाः ।
अतो न्यायविदः स्तेनान्निरस्यामः स्वयुक्तिभिः ।। वस्तुतः भेद के चतुर्विधप्रभेद का खण्डन मधुसूदन सरस्वती के पूर्व श्रीहर्ष ने खंडनखण्डखाद्य में किया था। वे कहते हैं -
एकं ब्रह्मास्त्रमादाय नान्यं गणयतः क्वचित् ।
आस्ते न धीरवीरस्य भंगः संगरकेलिषु ।। अर्थात् अद्वैतवादी ब्रह्मवादरूपी अस्त्र से समस्त भेद का खण्डन कर देता है। किन्तु इसका उत्तर देते हुए भेदरलप्रकाश में शंकर मिश्र कहते हैं -
एक भेदास्त्रमादाय नान्यं गणयतः क्वचित्। आस्ते न धीरवीरस्य भंगः संगरकेलिषु।।
वाद-प्रस्थान और उसका विकास अर्थात् नैयायिक भेद-रूपी अस्त्र से ब्रह्मसहित तत्त्वों का खण्डन करते हैं।
इस विवाद में खण्डनकार का पक्ष लेते हुए मधुसूदन सरस्वती शंकरमिश्र को निम्नलिखित परामर्श देते हैं -
मोक्षाय स्पृहयालवः श्रुतिगिरां श्रद्धालवोऽर्थेऽनृजौ वेदान्तार्थविभावनासु सुतरां व्याजेन निद्रालवः। भेदे खण्डनखण्डितेऽपि शतधा तन्द्रालवस्तार्किकाः
कैवल्यात्प्रतलायवः श्रृणुत सयुक्तिं दयालोर्मया ।। अर्थात हे नैयायिक खण्डनखण्डखाद्य में शतथा भेद का खण्डन किये जाने पर भी आप सोते न रहें, कैवल्य से आपका पतन न हो, अतएव मेरी सयुक्तियों को सुनकर अभेदवाद को स्वीकार करो और मोक्ष के लिए प्रयत्न करो।
वास्तव में भेद के ऊपर जो विवाद है उसका मुख्य बिन्दु यह है कि भेद पारमार्थिक है या औपाधिक? नैयायिक और माध्व वेदान्ती भेद को पारमार्थिक मानते हैं। अद्वैतवादी भेद को औपाधिक मानते हैं। उनका कहना है कि यदि भेद को औपाधिक मान लेने से समस्त प्रमाण-प्रमेय व्यवहार की व्याख्या हो सकती है तो फिर भेद को पारमार्थिक मान लेने पर गौरवकल्पना है। वैसे याचितमण्डन न्याय से जो भी वस्तु सत् है उसकी सत्ता ब्रह्म भी वस्तु से ही उधार ली गयी है। अतएव एक मात्र ब्रह्म को ही सत् मानना युक्तिसंगत है।
०६. नृसिंहाश्रम
नृसिंहाश्रम मुनि सोलहवीं शती के पूर्वार्ध के एक महान् अद्वैतवेदान्ती थे। वे गीर्वाणेन्द्र सरस्वती और जगन्नाथ आश्रम के शिष्य थे। उनके शिष्य नारायण आश्रम तथा धर्मराज अध्वरीन्द्र थे। धर्मराज ने वेदान्तपरिभाषा नामक एक ज्ञानमीमांसीय ग्रन्थ की रचना की है। नृसिंहाश्रम ने संक्षेपशारीरक पर तत्त्वबोधिनी तथा पंचपादिकाविवरण पर पंचपादिकाविवरणप्रकाश नामक व्याख्याएं लिखी है। इनके अतिरिक्त उनकी निम्न प्रसिद्ध रचनाएं हैं - १. अद्वैतदीपिका । यह नृसिंहाश्रम के शिष्य नारायण आश्रम की टीका अद्वैतदीपिका
विवरण के साथ चौखम्बा, वाराणसी से प्रकाशित है। इसमें दो परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद का नाम साक्षिविवेक है और दूसरे परिच्छेद का नाम विभाग-प्रकिया है। यह ग्रन्थ अद्वैतवेदान्त का एक मानक ग्रन्थ है। साक्षि का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि साक्षित्व अविद्या दशा में ही रहता है- साक्षित्वम् अविद्यादशायामेव दृश्यापेक्षत्वात् (अद्वैतदीपिका विवरण पृ. ४४१)। वहीं नृसिंहाश्रम कहते हैं - अतएव द्रष्टुत्वघटित साक्षित्वं न स्वरूपम् अपितु उदासीनबोधात्मकमेव साक्षिरूपम् । तस्य निष्प्रतियोगिस्वरूपत्वात्। (अद्वैतदीपिका पृ. ४४१)। अद्वैत दीपिका में नृसिंहाश्रम ने विवरण-प्रस्थान तथा भामती-प्रस्थान का संवाद भी दिखाया है।वेदान्त-खण्ड
२. अद्वैतपञ्चरत्न। ३. अद्वैतबोधदीपिका।
बता ४. अद्वैतवाद। ५. वाचारम्भण। ६. वेदान्ततत्त्वविवेक। इस पर उनकी एक स्वोपज्ञ टीका भी है। ७. भेद-धिक्कार।
वे निश्चित रूप से नव्य अद्वैतवाद के पुराकर्ता थे। उनके प्रभाव से ही भट्टो जी दीक्षित, अप्पय दीक्षित आदि अद्वैतवेदान्त में दीक्षित हुए थे। भेद-धिक्कार के कारण उन्हें आसानी से बाध-प्रस्थान का भी पुरस्कर्ता माना जा सकता है। मेदधिक्कार पर निम्नलिखित टीकाएं हैं - १. नारायण आश्रमकृत सक्रिया। २. पूर्णधारानन्द सरस्वतीकृत भेदधिक्कार सत्कियोज्ज्वल जो स्पष्टतः उपर्युक्त सत्किया की उपटीका है। ३. कालहस्तियज्वाकृत भेदधिक्कारविवृति।। ४. अज्ञातकर्तृक भेदधिक्कार टिप्पणी। ५. अज्ञातकर्तृक भेदाधिकारोपन्यास। पुनश्च माध्व वेदान्ती नृसिंहदेव ने भेदधिक्कार का
खंडन भेदधिक्कारन्यक्कार में किया है। उसका प्रतिवाद वेंकटनाथ (अद्वैतवेदान्ती) ने भेदधिक्कारन्यक्कारांकुश में किया है। इस प्रकार नृसिंहाश्रम के भेदधिक्कार के पक्ष तथा विपक्ष में पर्याप्त विवेचन हुआ है। उनका अभिमत है कि ईश्वर-जीव तथा जीव-जड़ के भेद में कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि जो भी प्रमाण दिये जाते हैं वे सभी सदोष हैं -
मानाभावादयुक्तेश्च न भिदेश्वरजीवयोः। जीवानामचितां चैव नात्मनो परस्परम् ।।
(भेदधिक्कार पृ. ८) पुनश्च अद्वैतदीपिका (पृ. १६) में वे कहते हैं -
परमार्थो न जीवेशभेदो मानप्रसिद्धितः।
दृष्टभेदं श्रुतिश्चैनं पौनःपुन्येन बाधते।। अर्थात् पारमार्थिक भेद का निराकरण श्रुति बारम्बार करती है। युक्ति से भी भेद की पारमार्थिकता सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि जो भी युक्ति उसके लिए दी जाती है वह दोषग्रस्त रहती है। वास्तव में नृसिंहानम ने भेद-खण्डन और अभेदसिद्धि में श्रुति-प्रामाण्य का सहारा नहीं लिया है। उन्होंने भेद-खण्डन द्वारा अद्वैतसिद्धि की है। वे स्वयं कहते हैं -
१३E
वाद-प्रस्थान और उसका विकास आस्तामन्यप्रमाणत्वमभेदे सर्ववस्तुनः। भेदप्रमाणमेवैतदद्वैतं साधयत्यलम् ।।
(भेदधिक्कार पृ. ११८) अद्वैतदीपिका में भी द्वैतवेदान्त का खण्डन प्रधान विषय है। अतएव उसे भी बाध-प्रस्थान के अन्तर्गत रखा जा सकता है। वहां मंगलाचरण में नृसिंहाश्रम कहते हैं -
श्रीमद्गुरुपदद्वन्द्वध्याननिषूतकल्मषः।
कुर्वे तदाज्ञयाद्वैतदीपिका भेदमेदिनीम् ।। अर्थात् गुरु की आज्ञा से अद्वैतदीपिका की रचना की गयी है जिसका प्रयोजन भेद का भेदन (खण्डन) करना है। इसमें माध्व वेदान्ती टीकाचार्य जयतीर्थ के मत का खण्डन है। जयतीर्थ आनन्दमय को ब्रह्म मानते हैं। परन्तु नृसिंहाश्रम शारीरकभाष्य की युक्तियों की पुनःस्थापना करते हुए सिद्ध करते हैं कि आनन्दमय ब्रह्म नहीं है, क्योंकि अन्नमयादि की तरह वह भी विषय तथा विकार है और उन्हीं के दल में शामिल है। जो पंचकोश से परे है वह ब्रह्म है।
नृसिंहाश्रम और उनके टीकाकारों के अतिरिक्त भी अद्वैतवेदान्ती हैं जिन्होंने भेद के खण्डन में रुचि ली है। इनमें सोलहवीं शती के मल्लनाराध्य मुख्य हैं जिन्होंने अद्वैतरत्न (अथवा अभेदरल) नामक एक ग्रन्थ की रचना की है।
०७. अप्पयदीक्षित
अप्पयदीक्षित यद्यपि परिमल के कारण भामती-प्रस्थान के दार्शनिक हैं, तथापि उन्होंने नव्य वेदान्त में भी अधिक योगदान किया है। इस ओर उनका योगदान त्रिविध है १. सर्वप्रथम उन्होंने शैवमत और वैष्णवमत को एक करने का प्रयास किया अथवा
कम से कम श्रीकण्ठभाष्य पर शिवार्कमणिका नामक टीका लिखकर तमिलनाडु के
शैवमत को अद्वैतमत के सन्निकट लाने का प्रयत्न किया। २. उन्होंने रामानुज के मत का खण्डन करने वाले ग्रन्थ रामानुजशृंगभंग लिखकर
बाध-प्रस्थान को महत्त्व दिया। ३. अन्त में उन्होंने मध्वतन्त्रमुखमर्दन लिखकर मध्ववेदान्त का खण्डन किया और
बाध-प्रस्थान की जो धारा माव-वेदान्त के खण्डन में लगी थी उसको परिपुष्ट किया। इन कारणों से उनको बाध-प्रस्थान अथवा नव्य वेदान्त के अन्तर्गत रखा जा सकता है।
उनके मध्वतन्त्रमुखमर्दन में कुल ६६ श्लोक हैं। उन पर अप्पय दीक्षित ने स्वयं मध्वमतविध्वंसनम् नामक टीका गद्य में लिखी है। टीका के मंगलाचरण श्लोक सं. २ में वे कहते हैं -
वेदान्त-खण्ड
मध्वतन्त्रमुखमर्दनं मया यत्कृतं प्रकरणं मिताक्षरम् ।
पद्यरूपमनतिस्फुटाशयं तत्सुखावगतये विविच्यते।। अर्थात् मध्वमतविध्वंसनम् मध्वतन्त्रमुखमर्दनम् की बृहत् टीका है। इन दोनों ग्रन्थों का प्रतिवाद माध्व वेदान्ती विजयीन्द्र ने मध्वाध्वकपटकोद्वार में, भाराणाचार्य ने अद्वैतकात्यानत्य में और सत्यनाथ यति ने अभिनवगदा में किया है। विजयीन्द्र के मध्वाध्वकण्टकोद्वार का खण्डन अद्वैतवेदान्ती नारायण शास्त्री ने मखिवर्यभूषण में किया है जो मध्चतन्त्रमुखमर्दन तथा मध्वमतविध्वंसन की टीका है।
अप्पयदीक्षित की मान्यता है कि माध्वमत में वैदिकमर्यादा का भंग है -
तथाप्यानन्दतीर्थीय मतमग्राहूयमेव नः। यत्र वैदिकमर्यादा भूयस्थाकुलतां गता।।
____(मध्वतंत्रमुखमर्दन २) इस ग्रन्थ में मध्व के ब्रह्मसूत्रभाष्य के प्रथम पांच अधिकरणों का खण्डन है। अपने खण्डन का निष्कर्ष उन्होंने ६३वें श्लोक में दे दिया है जो यों है -
आद्रियध्वमिदमध्वदर्शनं व्यवनं त्यजत मध्वदर्शनम् ।
शाकर भजत शाश्वतं मतं साधवः स इह साक्ष्युमाधवः ।। उनका मुख्य अर्थ है कि अभेद श्रुतियों का प्राबल्य भेद-श्रुतियों के बल से अधिक है। स्वयं माध्व वेदान्त मानता है कि स्वयं विष्णु अन्य शब्द के अर्थ के बावजूद अनन्य कहे जाते हैं और अपने ऐश्वर्य के कारण पुरुषोत्तम हैं अर्थात् समस्त भेदों को मानने के बावजूद भी माध्व वेदान्ती एकेश्वरवादी हैं -
अनन्योऽप्यन्यशब्देन तथैको बहुरूपवान्।। प्रोच्यते भगवान् विष्णुरैश्वर्यात्पुरुषोत्तमः।।
(मध्वमतविध्वंसन पृ. ६० में उद्धृत) मा इसी न्याय के आधार पर अप्पयदीक्षित अद्वैतवाद को सिद्ध करते हैं। वे कहते है कि भेद रहने पर भी भगवान् अपनी शक्ति के कारण एक हैं और उसके अभेद में कोई दोष नहीं है
प्राबल्यं भवतोऽप्यभेदवचसां भेदश्रुतिभ्यो मतम् नो चेदन्नमयादयो वद कथं भिन्नां भवेयुर्न ते। भेदे सत्यपि युज्यते हि भगवच्छक्त्यैव निर्दोषता शक्तः किं न स एक एव बहुधा भिन्नो हरिः क्रीडितुम् ।।
(मध्वतंत्रमुखमर्दन, श्लोक ६०)
។
वाद-प्रस्थान और उसका विकास उपर्युक्त ग्रन्थ और उसके सिद्धान्तों के अतिरिक्त अप्पयदीक्षित का नव्य वेदान्त में एक अद्वितीय महान् योगदान है। उनकी कृति है सिद्धान्तलेशसंग्रह।
सिद्धान्तलेशसंग्रह वास्तव में अद्वैतवेदान्त का एक विश्वकोश है। इसमें चार परिच्छेद हैं। अद्वैतवेदान्तियों में जो मतभेद हैं उनकी इसमें विशद चर्चा है। किन्तु इन मतभेदों के कारण अद्वैतवेदान्त के सम्प्रदाय को समझने में विशेष सहायता मिलती है। उनसे अद्वैतवाद को समझने में कोई प्रम नहीं उत्पन्न होता है। सिद्धान्त रीति से ग्रन्थ लिखकर दीक्षित ने अनुरोध किया कि विद्वानों को सहृदयता तथा सहानुभूति के साथ संशोधन करते हुए अद्वैतवेदान्त का निर्विशडक परिशीलन करना चाहिए। सिद्धान्तलेशसंग्रह पर निम्नलिखित टीकाएं हैं - १. मधुसूदन सरस्वतीकृत टीका जिसका उल्लेख आउफेक्ट के कैटालोगस कैटालोगोरम
में है। २. अच्युत कृष्णतीर्थकृत कृष्णालंकार। ३. गंगाधरेन्द्र सरस्वती कृत वेदान्तसूक्तिमंजरी (सिद्धान्तलेशसंग्रह का पद्यमय संक्षेप है)। ४. विश्वनाथतीर्थकृत सिद्धान्तलेशव्याख्या। ५. जीवानन्द विद्यासागरकृत सिद्धान्तलेशव्याख्या।
मूलशंकर व्यास ने सिद्धान्तलेशसंग्रह का हिन्दी में अनुवाद किया है जिसे चण्डी प्रसाद शुक्ल ने संपादित करके अच्युतग्रन्थमाला, वाराणसी से १६३६ ई. में प्रकाशित किया है। मूलशंकर व्यास के मतानुसार सिद्धान्तलेशसंग्रह में ४३ ग्रन्थकारों के मत दिये गये हैं (देखिए उनकी भूमिका पृ. २२) अप्पयदीक्षित के मत से अद्वैतवेदान्तियों के मतभेद वस्तुतः, अद्वैतवाद की स्थापना की विविध सरणियां (मार्ग) हैं।
सिद्धान्तलेशसंग्रह गद्य में है। उसकी टीका वेदान्तसूक्तिमंजरी जिसकी रचना १८वीं शती के आरम्भ में हुई थी, पद्य में है। वह सभी मतभेदों को स्मरण रखने में इस कारण बहुत उपयोगी है। सिद्धान्तलेशसंग्रह अद्वैतवेदान्त का एक प्रकार का इतिहास है। शकरोत्तर अद्वैतवेदान्त को समझने के लिए वह बहुत उपयोगी है।
अप्पयदीक्षित एक महान् अद्वैतवेदान्ती के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ विद्वान तथा लेखक थे। अलंकारशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, पूर्वमीमांसा, पूर्वोत्तरमीमांसा, काव्य, शैवमत, वेदान्त, शांकरमत, रामानुजमत और माध्वमत आदि पर उनकी अन्य रचनाएं भी हैं जिनमें से ४५ का उल्लेख मध्वतंत्रमुखमर्दन की प्रस्तावना में किया गया है। किन्तु उनकी कुल कृतियां १०४ थीं, ऐसी प्रसिद्धि है। उन्होंने भागवतपुराण पर जयोल्लासनिधि नामक टीका तथा वेदान्तदेशिक के काव्य यादवाभ्युदय और कृष्णमिश्र के अद्वैतवादप्रतिपादक प्रबोधचन्द्रोदय नाटक पर टीकाएं लिखीं। इनके अतिरिक्त उनका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ उपक्रमपरामक्रम है जिसका खण्डन माध्व वेदान्ती विजयीन्द्र ने उपसंहारविजय में किया है। इनमें भी
अद्वैत-द्वैत के विवाद हैं।
१४२
मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैतसिद्धि में अप्पयदीक्षित को सर्वतन्त्र स्वतन्त्र कहकर सम्मान दिया है-सर्वतन्त्रस्वतन्त्रैर्भामतीकारकल्पतरुकारपरिमलकारैः। सिद्धान्तलेशसंग्रह की रचना १५४७ ई. के बाद हुई थी। १५८२ ई. में उनका कनकाभिषेक हुआ था। कुछ दिन वे काशी में भी रहे थे, यद्यपि उनका अधिकांश जीवन दक्षिण भारत में चिदम्बरम् में बीता था। उन पर नृसिंहाश्रम का बड़ा प्रभाव था। अप्पयदीक्षित का देहावसान चिदम्बरम् में हुआ था। उनके कई आश्रयदाता थे जो राजा या सेनापति थे। काशी में पंडितराज जगन्नाथ अप्पयदीक्षित के विरोधी थे। इसका मुख्य कारण यह था कि सिद्धान्तकौमुदी और मनोरमा के प्रणेता भट्टोजी दीक्षित अप्पयदीक्षित के शिष्य थे और पंडितराज ने मनोरमाकुचमर्दन लिखकर भट्टोजी दीक्षित का विरोध किया था। महामहोपाध्याय कुप्यूस्वामी शास्त्री के
अनुसार अप्पयदीक्षित का जन्म १५५३ ई. में और देहान्त १६२६ ई. हुआ था।
०८. सदानन्दगिरि
सदानन्दगिरि अद्वैतवेदान्ती थे और स्वरूपानन्दगिरि के शिष्य थे। उन्होंने १८६५ ई. में सहस्राक्ष नामक एक ग्रन्थ लिखा जिसमें गोस्वामी गिरिधर के शुद्धाद्वैतमार्तण्ड और विट्ठलनाथ के विद्वन्मण्डन का खण्डन है। उनके पहले किसी अद्वैतवेदान्ती ने वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैतवाद का खण्डन नहीं किया था। अतएव इस अर्थ में उनका ग्रन्थ अपूर्व है। सहस्राक्ष का खंडन विट्ठलनाथ ने (प्रभुचरण विट्ठलनाथ नहीं) प्रभंजन में किया। प्रभजन पर गटूलाल नाग ने मारुतशक्ति नामक टीका लिखी। किन्तु इन प्रतिवादों पर शतदूषणी
और उसकी टीकाओं का प्रभाव है। इनमें कोई नई युक्ति नहीं है।
सहस्राक्ष दो भागों में है। पूर्वभाग का नाम मेघविस्तार है और उत्तरभाग का नाम वज्रविस्तार है। प्रथम भाग में ११ श्लोक हैं तथा उनकी अवतरणिकाएं और टीकाएं हैं। उत्तरभाग में विद्वन्मण्डन तथा उसकी टीका के अनेक बिन्दुओं के खण्डन हैं।
जयपुर के एक दण्डी संन्यासी ने शुद्धाद्वैतवाद पर ६४ आपत्तियां लगायी थीं। उनका निराकरण गटूलाल जी ने सत्सिद्धान्तमार्तण्ड नामक ग्रन्थ में किया। वेदान्तचिन्तामणि नामक ग्रन्थ में भी गटूलाल जी ने शुद्धाद्वैत-विरोधी मतों का खंडन करते हुए शुद्धाद्वैतवाद की प्रतिरक्षा की। इस प्रकार केवलाद्वैतवाद और शुद्धाद्वैतवाद के विवादपूर्ण संघर्ष लगभग १०० वर्ष चलते रहे।
सहस्राक्ष की रचना भावनगर, गुजरात, के नागर ब्राह्मण सन्तोषराम शर्मा की जिज्ञासा को शान्त करने के लिए की गयी थी।
सहनाक्ष में सदानन्दगिरि ने वैष्णवों द्वारा किये गये शिवद्वेष पर कड़ा प्रहार किया है। विष्णु का सम्यक् या असम्यक् आश्रय लेकर शिव की निन्दा करना वास्तव में एक धार्मिक दोष या अपराध है। पद्मपुराण में कूर्मपुराण तथा मत्स्यपुराण को जो तामस पुराण कहा गया है वह वास्तव में प्रक्षिप्तांश है। कोई पुराण तामस पुराण नहीं है। सदानन्द गिरि
वाद-प्रस्थान और उसका विकास
१४३ ने शुद्धाद्वैत, विशिष्टिाद्वैत, द्वैत, भेदाभेद तथा इनके अवान्तर भेदों को गौतमादि सप्त ब्राह्मणों के वचन कहा है। शुद्धद्वैतवादी मानते हैं कि ईश्वरेच्छा मात्र जगत् का हेतू है। इसका खण्डन करते हुए सदानन्दगिरि कहते हैं -
ईशानः सृजतीच्छयैव यदि तां केनात्मनाऽत्माश्रयान् नान्येष्टयापि भयात् श्रुतिस्मृतिगौरिच्छोद्भवः कालतः । उबुधज्जनकर्मणो बत तथा विद्यारण्यमायावशाद् हेतुत्वं च परस्य लक्षणमिदं शाखेन्दु वद वान्यगाम् ।।
(सहस्राक्ष १/३) अर्थात् यदि ईश्वरेच्छा नित्य है तो सर्वदा सब कार्य नित्य होंगे और जितने विषय या कार्य होंगे उतनी इच्छाएं होंगी। किन्तु इसमें गौरव-कल्पना है और नित्यसृष्टि का प्रसंग है। अतएव यह विकल्प संभव नहीं है। पुनश्च ईश्वर और उसकी इच्छा में क्या सम्बन्ध है। क्या स्वरूप सम्बन्ध है या उससे भिन्न सम्बन्ध है? स्वरूप सम्बन्ध होने पर भी क्या इच्छा ईश्वरस्वरूपात्मक है या विषयस्वरूपात्मक है? स्वरूप-सम्बन्ध होने पर संयोगादि व्यर्थ हो जायेंगे। समवाय सम्बन्ध मानने पर अनवस्था दोष है। अतएव चाहे ईश्वरस्वरूपात्मक सम्बन्ध माने या विषयस्वरूपात्मक सम्बन्ध मानें दोनों में समान दोष हैं। उससे भिन्न सम्बन्ध मानने पर अनिर्वचनीयत्व दोष हो जायेगा और अद्वैतापत्ति आ जायेगी जो शुद्धाद्वैतवाद के लिए बाधक है। अतएव शुद्धाद्वैतवाद में ईश्वर और उसकी इच्छा का सम्बन्ध सयुक्तिक नहीं है।
शुद्धाद्वैतवादी ब्रह्म को माया-सम्बन्ध रहित होने के कारण शुद्ध मानते हैं। इस पर सदानन्दगिरि कहते हैं कि भगवान् का यह अभिन्नत्व क्या है? यह तादात्म्य है या भेदाभाव है? यदि यह तादात्म्य है तो वह आगन्तुक है या सर्वथा स्वयंसिद्ध है? वह आगन्तुक नहीं हो सकता, क्योंकि तन्त्र भेदो न चैव, ऐसा शुद्धाद्वैतमार्तण्ड श्लोक ४६ में कहा गया है और इससे स्ववचनविरोध होगा। फिर वह सर्वथा भी नहीं हो सकता क्योंकि तब शक्ति और शक्तिमान के व्यवहार का ही लोप हो जायेगा। फिर सत्ता-तादात्म्य निषेधक श्रुति भी है-नो सदासीत् (नासदीय सूक्त)। पुनश्च माया विनाशी है और इससे अभिन्न होने के कारण ब्रह्म भी विनाशी हो जायेगा। अतएव प्रथम पक्ष ठीक नहीं है। फिर यदि अभिन्नत्व का अर्थ भेदाभाव है तो वह अद्वैतवादियों को स्वीकार्य ही है, क्योंकि ब्रह्म में मिथ्याभूत माया-भेद का अभाव उचित ही है।
सहस्राक्ष के उत्तरभाग में विद्वन्मण्डन और उसकी टीका का खण्डन किया गया है। सदानन्दगिरि यहां कहते हैं कि पुष्टिमार्ग श्रुति-स्मृति के अर्थों का विलोम है -
श्रुतिस्मृत्याद्यर्थविलोमतोधमपराः पुष्टिमार्गाः स्थिताः
(सहस्राक्ष पृ. ५७)
वेदान्त-खण्ड सदानन्दगिरि ने विद्वन्मण्डन और उसकी टीका से पहले लम्बे-लम्बे उद्धरण दिये हैं जिसमें अद्वैतवाद का खण्डन तथा पुष्टिमार्ग और शुद्धाद्वैतवाद का समर्थन है। तत्पश्चात् उन्होंने उन सब उद्धृत वचनों का खण्डन किया है। इस प्रकार उनका खण्डन मूलग्रन्थों पर
आधारित है।
विट्ठल अद्वैतवादी को मिथ्यावादी कहते हैं। इस पर सदानन्दगिरि कहते हैं - मिथ्यावादी का क्या अर्थ है? (१) क्या अद्वैतवादी सर्वमिथ्यावादी हैं या (२) किंचिद् मिथ्यावादी है या (३) जगन्मिथ्यावादी है? पहला विकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि ब्रह्म के मिथ्यात्व को अगीकार नहीं किया गया है। दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्वप्नादि को शुद्धाद्वैतवादी भी मिथ्या मानते हैं। पुनश्च अहन्ता आदि को शुद्धाद्वैतवादी भी मिथ्या मानते है अतएव दूसरा विकल्प शुद्धाद्वैतवादी के लिए अनिष्ट है। अन्त में तीसरा विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि यह वास्तव में गाली है। मायामानं त, इस ब्रह्मसूत्र (३/२/२) के अनुसार स्वप्न में मिथ्यात्च का दर्शन होता है। जगत् मिथ्या है, केवल इस अर्थ में मिथ्या पद की वाचकता नहीं है। बाधितार्थवाद के अर्थ में मिथ्यात्व का प्रयोग अग्रिम निर्णयाधीन है। अपने मन में ही निर्णय करके अमुक वस्तु मिथ्या है, ऐसे प्रयोग में
अतिप्रसंग भी है। अतः शुद्धाद्वैतवादियों के द्वारा अद्वैतवादी को मिथ्यावादी कहना वस्तुतः निरर्थक प्रलाप मात्र है। यह केवल गाली देना है।
इस प्रकार सदानन्दगिरि ने शुद्धाद्वैतवाद की मूल अवधारणाओं का खण्डन युक्ति और श्रृति तथा पुराणों के वचनों के आधार पर किया है। उल्लेखनीय है कि शुद्धाद्वैतवादी भी श्रुति और पुराणों पर ही अपना मत आधारित करते हैं। अतएव उनको उन्हीं के अस्त्र से सदानन्दगिरि ने परास्त किया है।
०९. अनन्तकृष्णशास्त्री
बीसवीं शती में अनन्तकृष्णशास्त्री दक्षिण भारत के एक श्रेष्ठ अद्वैत वेदान्ती थे। अखिल भारतवर्ष में उनके पाण्डित्य तथा मनीषा का यश फैला था। अनन्तकृष्णशास्त्री राजकीय ‘महामहोपाध्याय’ उपाधि से सम्मानित थे। ये सुब्रह्मण्योपाध्याय के पुत्र थे और नूरणि नामक ग्राम के निवासी थे। इन्होंने चित्तूर पाठशाला में साहित्य का अध्ययन करके १६०४ में चिदम्बर क्षेत्र में हरिहर शास्त्री से व्याकरण तथा मद्रास संस्कृत आर्ट्स कालेज में पूर्वोत्तर मीमांसाशास्त्र का अध्ययन किया और तिरुपति संस्कृत आर्ट्स कालेज में ये अध्यापक नियुक्त हुए। उसके बाद कलकत्ता संस्कृत आर्ट्स कालेज में वेदान्त के अध्यापक होकर १५ वर्षों के बाद बम्बई भारती विद्याभवन के गीता विद्यालय में प्राध्यापक हुए। इनके गुरुओं में पञ्चापगेशशास्त्री और वेङ्कटसुब्बाशास्त्री अन्यतम हैं।
बाथ-प्रस्थान में उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की। सर्वप्रथम, उन्होंने शतभूषणी नामक एक ग्रन्थ की तीन भागों में रचना की जिनमें वेदान्तदेशिककृत शतदूषणी का खण्डन है।
वाद-प्रस्थान और उसका विकास
| शतदूषणी ने विशिष्टाद्वैतवादियों के जगत् में एक हलचल पैदा कर दी। उसके फलस्वरूप उत्तमूर वीरराघवाचार्य ने परमार्थभूषणम् तथा डी.टी. ताताचारी ने विशिष्टाद्वैतसिद्धि लिखकर शतभूषणी का खण्डन किया। ताताचारी ने विशिष्टाद्वैतसिद्धि को चार परिच्छेदों में विभाजित किया है। इन परिच्छेदों के अतिरिक्त उनके ग्रन्थ में दो अनुबन्ध हैं जिनमें एक अन्य आधुनिक अद्वैतवेदान्ती पोलक श्री रामशास्त्री के द्रमिडात्रेयदर्शनम् की चिन्तनशैली का खण्डन किया गया है। ताताचारी का मुख्य आरोप यह है कि श्री रामशास्त्री केवल अद्वैतग्रन्थों में ही उल्लिखित प्राचीन आचार्यों और उनके मतों को ही वैदिक तथा प्रामाणिक मानते हैं तथा अन्य वेदान्त-सम्प्रदायों के ग्रन्थों में उल्लिखित आचार्यों और उनके मतों का तिरस्कार करते हैं। किन्तु ताताचारी बहुत सुलझे हुए विचारक थे। उन्होंने विशिष्टाद्वैतसिद्धि की अंग्रेजी प्रस्तावना में स्वीकार किया है कि वर्तमान परिस्थिति में हिन्दुधर्म के मानने वालों को एक दूसरे के दर्शन के खण्डन में बहुत रुचि नहीं लेनी चाहिए; यथासम्भव अपने दर्शन का समर्थन तो करना चाहिए, परन्तु परमत के प्रति आदर-भाव या उदासीनता-भाव रखना अधिक उपयोगी है। वे अनन्तकृष्णशास्त्री की प्राचीन या मध्ययुगीन खण्डन-पद्धति को महत्त्व नहीं देते हैं। तथापि अपने मत की रक्षा के लिए उन्होंने सावधानी से उनको उत्तर दिया है। वीरराघवाचार्य ने श्रीभाष्य तथा शतदूषणी के आधार पर शतभूषणी का प्रबलतम खण्डन किया है। सर्वप्रथम उन्होंने जिज्ञासाधिकरण पर लगाई गई आपत्तियों को १८ श्लोकों में और वेदान्तदेशिक के द्वारा शतदूषणी में उठायी गई ६६ आपत्तियों को १६ श्लोकों में अभिव्यक्त किया है जो स्मरण रखने के लिए बहुत उपयोगी हैं। फिर उन्होंने प्रत्येक दूषण या आपत्ति के अनुसार अनन्तकृष्णशास्त्री को प्रत्युत्तर दिया है।
अनन्तकृष्णशास्त्री ने अद्वैततत्त्वसुधा नामक एक और खण्डनात्मक ग्रन्थ दो भागों में लिखा है। इसके प्रथम भाग में माध्च वेदान्ती जयतीर्थ की न्याय-सुधा का सविस्तार खण्डन है। उस भाग का नाम ही द्वैताद्वैतपरीक्षात्मक निबन्ध है। पुनश्च अद्वैततत्त्वसुधा के द्वितीय भाग में दो खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में श्रीभाष्य का खण्डन है और दूसरे खण्ड में परमार्थभूषण का खण्डन है। इस प्रकार अनन्तकृष्णशास्त्री ने द्वैतवेदान्त और विशिष्टाद्वैतवेदान्त दोनों का खण्डन किया और जिन्होंने उनके खण्डन का प्रतिवाद किया उनके प्रतिवाद का भी खण्डन उन्होंने स्वयं किया। इस प्रकार बाध-प्रस्थान की परम्परा का पुनर्जागरण उन्होंने किया। किन्तु जैसा कि ताताचारी कहते हैं इस पुनर्जागरण का कोई विशेष प्रभाव भारतीय समकालीन चिन्तन पर नहीं पड़ा, क्योंकि भक्ति-आन्दोलन ने तथा स्वतन्त्रता-संग्राम की विचारधारा ने समस्त भारतीय दर्शनों को एक मंच पर ला दिया है और उनमें राष्ट्रीयता की अभिनव भावना भर दी है। इसके फलस्वरूप वेदान्त के सभी सम्प्रदायों के समन्वय तथा ऐक्य को विशेष बल मिला है और हिन्दूनवजागरण हुआ है। रामराज्य, स्वाराज्य, साम्य, ऐक्य, ज्ञान-भक्ति-अभेद, ईश्वर-दर्शन, आत्मसंयम, आत्मलाभ आदि इस नवजागरण से उभरे सिद्धान्त हैं जो सर्वमान्य हैं।
वेदान्त-खण्ड ____फिर भी अनन्तकृष्णशास्त्री की कुछ युक्तियों की जानकारी अपेक्षित है। उनके पहले विद्यारण्यस्वामी तथा अप्पयदीक्षित जैसे कट्टर अद्वैतवेदान्तियों ने वेदान्तदेशिक की शतदूषणी का खण्डन नहीं किया था। यही नहीं, किसी अद्वैती ने शतदूषणी का खण्डन नहीं किया था क्योंकि सभी अद्वैतवेदान्तियों ने एक प्रकार से व्यावहारिक दर्शन के लिए विशिष्टाद्वैतवाद को मान लिया था। जैसा कि राधाकृष्णन कहते हैं और जैसा कि उसका उन्दरण ताताचारी ने विशिष्टाद्वैतसिद्धि की अंग्रेजी प्रस्तावना में किया है, प्रत्येक अद्वैतवादी सिद्धान्त में अद्वैती था, धर्म में विशिष्टाद्वैती था और दैनिक व्यवहार में हैतवादी था। यह एक विचित्र समन्वय है। ऐसा ही समन्वय ‘अन्तःशाक्ताः, बहिः शैवाः, सभामध्ये च वैष्णवाः’ इस न्याय से शैव, शाक्त और वैष्णव-मतों का भी हो गया है। यही क्यों, सौगतधर्म का श्रवण करना चाहिए, वैदिकधर्म का व्यवहार करना चाहिए और जैनधर्म के आचार को मानना चाहिए, इस न्याय से वैदिक, बौद्ध और जैन-मतों का भी समन्वय हुआ है। इस समन्वय के कारण मध्ययुगीन अद्वैतवादियों ने वेदान्तदेशिक की शतदूषणी की उपेक्षा की थी। किन्तु अनन्तकृष्णशास्त्री को यह उपेक्षा अपमान-जनक प्रतीत हुई। इस कारण उन्होंने उसके खण्डन में अपने चिन्तन को लगाया। इसके फलस्वरूप अद्वैतवाद तथा विशिष्टाद्वैतवाद के मतभेदों को समझाने में अत्यन्त स्पष्टता आयी है, यह निर्विवाद है। । अनन्तकृष्णशास्त्री ने वेदान्तदेशिक के दो दूषणों का खण्डन नहीं किया, क्योंकि वे एकदेशी वेदान्ती पर लगाये गये थे और शाकरवेदान्त में उन सिद्धान्तों की मान्यता नहीं है। ये दोनों मत है निष्प्रपंचीकरण नियोग तथा अपलेपकमत। फिर उन्होंने शेष ६४ दूषणों को नौ शीर्षकों में विभक्त किया है (१) अविद्या पर लगाई गई सात अनुपपत्तियां, (२) प्रपंचमिथ्यात्व पर लगाये गये १३ दुषण, (३) अथ शब्द का अर्थ कर्म के अनन्तर नहीं है, इस पर चार दूषण, (४) साधन-चतुष्टय पर ४ दूषण, (५) त्वम्पदार्थ पर ५ दूषण तथा (६) उसके प्रमाण पर ५ दूषण (७) तत्पदार्थ पर १३ दूषण (८) तत्त्वमसि के अर्थ पर ६ दूषण
और (E) जीवन्मुक्ति पर २ दूषण। इन १६ दूषणों के अन्तर्गत ही उन्होंने ६४ दूषणों को रख दिया है।
है उनका मुख्य कथन यह है कि वेदान्तदेशिक ने निम्नलिखित तीन सिद्धान्तों के प्रति अपनी अनभिज्ञता दिखायी है जिसके कारण उन्होंने दूषण लगाये हैं - १. अविद्या की निवृत्ति विद्या या वृत्ति से संभव है। २. विवरणप्रस्थान के अनुसार ब्रह्म वृत्तिव्याप्य है, किन्तु वह फलव्याप्य नहीं है। पर ३. भामती-प्रस्थान के अनुसार ब्रह्मजिज्ञासा का विषय उपहित ब्रह्म है, अनौपाधिक शुद्ध
ब्रह्म नहीं।
इन तीन मर्तों को न जानने या समझने के कारण वेदान्तदेशिक के अधिकांश दूषण अर्थान्तर-कल्पना मात्र हैं। वेदान्तदेशिक ने कहा कि चिन्मात्र स्वप्रकाश ज्ञान अविषय है वह जिज्ञास्य नहीं है। अनन्तर अनन्तकृष्ण शास्त्री कहते हैं
१४७
वाव-प्रस्थान और उसका विकास ‘ब्रह्मजिज्ञासा हि निर्विशेषमिव सविशेषमपि तटस्थलक्षणतया जिज्ञास्या मन्यते। तथा च साक्षात् ब्रह्मणि शब्दवृत्यभावेऽपि तस्य वाक्यगम्यत्वं न हीयते।’
अर्थात ब्रह्म का तटस्थ लक्षण जिज्ञास्य है और तद्वारा लक्षणावृत्ति से परम ब्रह्म भी जिज्ञास्य है। विष्णुपुराण का वचन है
प्रत्यस्तमितभेदं परमसत्तामात्रगोचरम्।
वचसामात्मसंवेद्यं तज्ज्ञानं ब्रह्मसंज्ञितम् ।। इस प्रकार ब्रह्म शब्द निर्विशेष ब्रह्म का साक्षात् वाचक होता है, सांकेतिक निरूढ़िवशात् । वास्तव में अद्वैत वेदान्ती मानते हैं कि वाक्यार्थ सर्वत्र ही लक्ष्य है, अभिधेय नहीं । वे व्याप्यारोपेण व्यापकारोपः, इस तर्क को नहीं मानते हैं। वेदान्तशास्त्र वाक्यशास्त्र है। वहां वह तर्क मान्य है जो अनुगृहीत हो और अति विशुद्ध न हो। इस प्रकार का मान्य है इसी को लक्ष्य करके अमलानन्द ने कल्पतरू में कहा है
वशीकृते मनस्येषां सगुणं ब्रह्म शीलनात्। नया
तदेवाविभर्वत्साक्षादपेतोपाधिकल्पनम् ।। पुनश्च अनुभुति (संविद्) की एकता निम्न अनुमान से सिद्ध है
‘अनुभूतिः न नाना, अजत्वात्,
यन्नैवं तन्नैवं, यथा घटः। इस अनुमान से अनुभूति का अद्वैतत्व सिद्ध है। श्रुति भी नानात्व को मिथ्या सिद्ध करती है “नेह नानास्ति किंचन”। वास्तव में विवर्तमान आकारों से निराकार संविद् का विरोध नहीं है, क्योंकि वह उन आकारों से निरपेक्ष है और वे आकार मात्र काल्पनिक हैं। आधुनिक विज्ञान की भाषा में वे मात्र प्रकल्पनाएं (हाइपाथीसीसि) हैं। अतएव संविद् का एक और अद्वितीय होना सिद्ध है और इसको भेदवान् सिद्ध करने के जितने प्रयास है वे कल्पना-गौरव तथा अनवस्थादि दोषों से ग्रस्त हैं।
वेदान्तदेशिक अद्वैतवाद को कभी शून्यवाद से तो कभी बौद्धविज्ञानवाद से अभिन्न करने का प्रसंग उपस्थित करते हैं। इस पर अनन्तकृष्णशास्त्री सिद्ध करते हैं कि अद्वैतवाद इन दोनों बौद्धमतों से भिन्न है। अद्वैतवाद में असत् है। शून्यबाद और विज्ञानवाद में वह मिथ्या की कोटि में है। अद्वैतवेदान्त में प्रत्येक विषय आत्मा से अन्वित है, बौद्धमत में प्रत्येक विषय आत्मा से रहित है। अतएव अद्वैतवाद को प्रच्छन्न बौद्धमत का कहना वैष्णवों की अर्थान्तर-कल्पना मात्र है। वे इन सूक्ष्म प्रभेदों को न समझने के कारण ऐसा आरोप लगाते हैं।
अन्त में अनन्तकृष्णशास्त्री ने उन अद्वैतवादियों का भी खण्डन किया है जिन्होंने१४८
वेदान्त-खण्ड केवलद्वैतवाद और विशिष्टाद्वैतवाद में घपला किया है। अद्वैततत्त्वशुद्धि लिखकर उन्होंने वासुदेवशास्त्री अभ्यंकर के अद्वैत-ग्रन्थ अद्वैतामोद का खण्डन किया है। अभ्यंकर ने अद्वैतामोद के अतिरिक्त रामानुज के श्रीभाष्य तथा उसकी श्रुतिप्रदीपिका टीका पर विवृत्ति नामक एक ग्रन्थ लिखा है तथा रामानुजदर्शन के आरंभिक पाठ्यग्रन्थ श्रीनिवासाचार्यकृत यतीन्द्रदीपिका पर एक टीका लिखी है। यद्यपि उन्होंने सिद्धान्तबिन्दु पर बिन्दुप्रपात नामक टीका लिखी है और सर्वदर्शनसंग्रह की अपनी टीका में स्वीकारा है कि अद्वैतवाद समस्त भारतीय दर्शनों में शिरोमणि है, तथापि वे अद्वैतवाद को विशिष्टाद्वैतवाद का प्रतितन्त्र ही मानते हैं। उनकी आलोचना करते हुए अनन्तकृष्णशास्त्री ने अद्वैतवेदान्त के निम्न सिद्धान्तों की बड़ी स्पष्ट व्याख्या की है १. अद्वैतवेदान्त का कोई प्रतितन्त्र सिद्धान्त नहीं है। (अद्वैततत्त्वशुद्धि, भूमिका पृ. ३५)
क्योंकि जो भी उसके प्रतितन्त्र कहे जाते हैं उनमें जो अंश औपनिषद हैं उनको अद्वैतवेदान्ती मानते हैं। अनिर्वचनीय ख्याति का समर्थन जो भी सिद्धान्त करता है। उसको अद्वैतवादी आदर से देखते हैं। किन्तु अन्य ख्यातिवाद भी वस्तुतः अनिर्वचनीय ख्याति पर ही आधारित हैं। जैसा कि शंकराचार्य ने शारीरकभाष्य के उपोद्घात में सिद्ध किया है, अध्यासवाद समस्त ख्यातिवादों की प्रागपेक्षा है। अनिर्वचनीय
ख्यातिवाद अध्यासवाद का ही ताकिक परिणाम है। व्यवहारे भाट्टनयः, यह अद्वैतवाद में एकान्ततः मान्य नहीं है। भाट्टमीमांसा के स्थान पर व्यवहार में सांख्यदर्शन या पातंजल योगदर्शन या किसी अन्य दर्शन को भी माना जा सकता है। आधुनिक संदर्भ में पाश्चात्त्य विज्ञान और तन्मूलक विश्लेषण दर्शन को भी व्यवहार में माना जा सकता है, जैसे न्यायदर्शन को। अद्वैतवेदान्त और विशिष्टिाद्वैतवेदान्त में २६ विषयों पर मतभेद अद्वैततत्त्वशुद्धि में दिखाये गये हैं और कहा गया है कि विशिष्टाद्वैतवादी अद्वैतवाद के खण्डन द्वारा ही अपने सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। अभ्यंकर ने स्वयं श्रीभाष्य-टीका की विवृति में ऐसा किया है। ऐसे अवसरों पर यदि अभ्यंकर का लक्ष्य ‘यक्षानुरूपो बलिः’ न्याय द्वारा अपने प्रौढ़िवाद का समर्थन है और उसके द्वारा द्वैतवाद का प्रतिपादन हैं तो उनका यह कृत्य स्तुत्य नहीं है। अद्वैतवाद और विशिष्टाद्वैत के अन्तर की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। दोनों में एक ही का समर्थन उचित है। अभ्यंकर दोनों नावों पर पैर रखते हैं जो ठीक नहीं है।
१०. स्वामी करपात्री
स्वामी करपात्री बीसवीं शती के उत्तर भारत के एक मूर्धन्य अद्वैत वेदान्ती थे। उनके अनुयायी उन्हें अभिनव शंकर मानते हैं। उनका संन्यास-नाम हरिहरानन्द सरस्वती था। उन्होंने जगद्गुरु श ,कराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से संन्यास दीक्षा ली थी। उनका जन्म प्रतापगढ़ जनपद के भटनी ग्राम में १९०७ में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री
वाद-प्रस्थान और उसका विकास
१४६ रामनिधि ओझा था। गृहस्थाश्रम में उनका नाम हरनारायण ओझा था। १७ वर्ष की आयु में उन्होंने वैराग्य-वृत्ति अपनायी। सर्वप्रथम हरिहर चेतन नामक ब्रहमचारी के रूप में नरवर बुलन्दशहर की संस्कृत पाठशाला में पं. जीवनदत्त से व्याकरण आदि का और स्वामी विश्वेश्वराश्रम से दर्शनशास्त्र, विशेषतः वेदान्त का, अध्ययन किया। वहां से वे फिर हिमालय की तलहटी में चले गये और वहां पर उस समय किसी पात्र का प्रयोग वे नहीं करते थे और अपने हाथ पर ही रखकर भोजन करते थे। अतः उनको लोगों ने करपात्री कहना शुरू किया। बाद में वे इसी नाम से बहुत विख्यात हुए। १६३१ में उन्होंने जगद्गुरु शंकराचार्य ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-ग्रहण किया। १६४० में उन्होंने धर्मसंघ की स्थापना की जिसका प्रचार आज भी पूरे देश में है। हरिद्वार में माध्व वेदान्ती स्वामी विद्यामान्य तीर्थ से करपात्री जी का शास्त्रार्थ हुआ था। शास्त्रार्थ का विषय विद्यामान्य तीर्थ ने स्वयं घोषित किया था। उनका मत था कि भगवद्गीता १६/८ में जो आसुरमत कहा गया है वह अद्वैतवेदान्त है। करपात्री ने इसका खण्डन करके विद्यामान्य तीर्थ को परास्त किया। १६५१ में उन्होंने रामराज्य परिषद् की स्थापना की और सभी सनातनी हिन्दुओं को एक राजनीतिक मंच पर लाने का प्रयास किया। उन्होंने नव्य वेदान्त की परम्परा का पर्याप्त उन्नयन किया। उन्होंने मधुसूदन सरस्वती की रीति से सिद्ध किया कि भक्ति-दर्शन का विरोध अद्वैतवेदान्त से नहीं है। उनका कहना है -
आत्मारामाश्च मुनयो निम्रन्था अप्युपक्रमे
कुर्वन्त्यहेतुर्की भक्तिमित्थंभूतगुणो हरिः ।। अर्थात् जीवन्मुक्त भी अहेतुकी भक्ति करता है। त्रिपुरारहस्य का प्रामाण्य देते हुए वे कहते हैं
पारमार्थिकमतं तं अजनहेतवे। । तादृशी यदि भक्तिः स्यात् सा तु मुक्तिशताधिका ।।
भक्त्यर्थ भावितं दैतमद्वैतादपि सुन्दरम्।
(भक्तिरसार्गव पृ. २२१) इस प्रकार ‘भक्ति नाय कल्पते’ की अभिनव व्याख्या करके उन्होंने मधुसूदन सरस्वती की युक्तियों को अपने ग्रन्थ भक्तिरसार्णव में अपनी नवीन युक्तियों से समर्थित किया है। ऐसा करके उन्होंने यह सिद्ध किया कि जो विशिष्टाद्वैती द्वैतवादी, शुद्धाद्वैतवादी, द्वैतवादी और अचिन्त्य भेदाभेदवादी वैष्णव अद्वैतवाद को भक्ति-विरोधी सिद्ध करते हैं, वे वस्तुतः व्यर्थ प्रलाप.करते हैं। भक्ति की आवश्यकता पर किसी भी वेदान्ती को आपत्ति नहीं है। सभी वेदान्ती मानते हैं
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वेदान्त-खण्ड श्रृणु सखि कौतुकमेकं नन्दनिकेताङ्गणे मया दृष्टम्। । धूलीधूसरिताङ्गो नृत्यति वेदान्तसिद्धान्तः।। -
(भक्तिरसार्णव पृ. २३५ से उद्धृत) इस द्वैतमूलक भक्ति को अद्वैतवेदान्ती आहार्यज्ञान की संज्ञा देता है। त्रिपुरासुन्दरीरहस्य में कहा गया है
यत्सुभक्तेरतिशयप्रीत्या कैतववर्जनात् । स्वभावस्य स्वरसतो ज्ञात्वापि स्वाद्वयं पदम्।
विभेदभावमाहृत्य सेव्यतेऽत्यन्ततत्परैः।। यह आहार्यज्ञान अध्यास-ज्ञान नहीं है अपि तु ‘रसो वै सः’ के आधार पर आनन्दरूप आत्मा का रस-रूप है। अतएव इस आधार पर करपात्री स्वामी ने सभी वेदान्तों का, अद्वैतवेदान्त तथा वैष्णववेदान्तों का, समन्वय किया है। उनका यह सचमुच अभूतपूर्व योगदान है। अल्प मतभेदों के रहते सभी वेदान्तों में ऐक्य है, यह उनकी मान्यता थी। यही नहीं, उन्होंने काश्मीर शैवमत के ग्रन्थ शेषकृत परमार्थसार के ऊपर अहमर्थ और परमार्थसार नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध किया कि काश्मीर शैवमत में भी आत्मवाद का जो विवेचन है वह अद्वैतसम्मत है। उनके इस ग्रन्थ का खण्डन त्रिदण्डी स्वामी विष्वकसेन ने आत्ममीमांसा नामक ग्रन्थ में किया। करपात्री ने अपने ग्रन्थ में रामानुज के श्रीभाष्य का भी खण्डन किया था। इससे कुपित होकर त्रिदण्डी स्वामी ने उक्त पुस्तक लिखी । उनकी पुस्तक का भी खण्डन सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के वेदान्ताचार्य रघुनाथ शर्मा ने अहमर्थविवेक नामक ग्रन्थ में किया है। उन्होंने करपात्री स्वामी के विचारों का अनुमोदन अपनी युक्तियों से किया है। इस प्रकार बाध-प्रस्थान के खण्डन-मण्डन साहित्य में करपात्री का नाम उजागर हो गया है।
पुनश्च वेदस्वरूपविमर्श और वेदार्थपारिजातम् लिखकर उन्होंने मैक्समूलर, ग्रिफिथ, आदि पाश्चात्त्य पंडितों द्वारा किये गये वेदार्थ का खण्डन किया है। इस खण्डन में उन्होंने आर्यसमाज और उसके संस्थापक दयानन्द सरस्वती के द्वारा किये गये वेदभाष्य का भी निराकरण किया है। पुनश्च मार्क्सवाद और रामराज्य लिखकर उन्होंने मार्क्सवाद का खण्डन किया है। राहुल सांकृत्यायन ने इसके खण्डन में रामराज्य और मार्क्सवाद नामक ग्रन्थ लिखा। उनके मत का खण्डन करते हुए स्वामी ने कुल की भान्ति नामक एक पुस्तक लिखी। इस प्रकार नव्य वेदान्त की खण्डन-प्रणाली का उपयोग उन्होंने मार्क्सवाद आदि आधुनिक पाश्चात्त्य सिद्धान्तों के खण्डन में किया है। वे वैदिक मार्ग तथा वैदिक धर्म और राजनीति के प्रामाणिक अधिवक्ता थे। सूतसंहिता से उद्धरण देते हुए वे कहते हैं कि जो व्यक्ति समर्थ होते हुए भी वैदिक मार्ग की स्थापना नहीं करता वह पापी है।
(मार्क्सवाद और रामराज्य पृ. ६४५) ।
वाद-प्रस्थान और उसका विकास और जैसा कि महाभारत के उद्योगपर्व में कहा गया है जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक वैदिक मार्ग की स्थापना में संलग्न रहता है वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। (वही पृ. ८४५)। भारतीय राजनीति के ग्रन्थों को स्वामी जी शास्त्र के अन्तर्गत रखते थे। जो लोग इस शास्त्र में संशोधन करने का प्रयास करते हैं उनकी भी उन्होंने आलोचना की है। इस प्रकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारक माधव सदाशिव गोलवलकर के राजनीतिक ग्रन्थ विचारनवनीत का खण्डन उन्होंने विचारपीयूष नामक ग्रन्थ में किया और प्रामाणिक भारतीय राजनीति का पुनरुद्धार किया। इसी प्रकार रामायण-मीमांसा में उन्होंने कामिल बुल्केकृत रामकथा के व्याख्यानों का खंडन किया है। उन्होंने सिद्ध किया है कि भारतीय शास्त्रों और ग्रन्थों के परिशीलन के लिए आधुनिक ऐतिहासिक तथा विकासबादी प्रणाली ठीक नहीं हो सकती है, क्योंकि भारतीय परम्परा के अनसार शब्द नित्य है और अर्थ ऋषियों के वचनों का अनुधावन करते हैं। ऐसा मत विश्व में किसी आचार्य या शास्त्र का नहीं है। अतएव अद्वैतवेदान्त की खण्डन-प्रणाली का विकास करते हुए स्वामी करपात्री ने भारतीय शास्त्रों की प्रतिरक्षा में अभूतपूर्व योगदान दिया है। उन्होंने बाध-प्रस्थान को एक नयी दिशा की ओर मोड़ा है तथा जिस दिशा में वह विगत एक हजार वर्षों से चल रहा था उसको उन्होंने रोका है। वे वेदान्त के सभी सम्प्रदायों में ऐक्य या समन्वय के हिमायती थे। क्योंकि वे सभी वेदमूलक हैं, वेद को अपौरुषेय मानते हैं और प्रामाण्यस्वतस्त्व के पक्षधर हैं। वे वेदाविरुद्ध शैव तथा शाक्त मतों को भी अपने अद्वैतवाद के अनुकूल पाते हैं। इसी दृष्टि से उन्होंने वरीवस्यारहस्य और श्रीविद्यारत्नार्णव संज्ञक ग्रन्थ लिखे।
।
११. वादन्याय विधि
उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध है कि नव्य वेदान्त संस्कृतज्ञों और अद्वैत वेदान्तियों के बीच एक जीवन्त दर्शन है। उसमें नये-नये आयाम प्रत्येक शताब्दी की आवश्यकतानुसार जुड़ते चले जा रहे हैं। अनेक विद्वानों की दृष्टि में वह भारत का राष्ट्रीय दर्शन बन गया है और उसी तक अन्य सभी दर्शन अन्ततः पहुंचते हैं। इसने एक प्रकार की तर्क-प्रणाली विकसित की है जिसे अद्वैत द्वन्द्वन्याय (खंडन-विधिद्वारा अद्वैतवाद का विकास) कहा गया है। इस पर नव्यन्याय की तर्कप्रणाली का प्रभाव है यद्यपि यह उससे भिन्न है।
अद्वैतवादी द्वन्द्वन्याय के विकास की निम्न भूमिकाएं उल्लेखनीय हैं १. उपनिषदों में यह नेति-नेति की प्रक्रिया तथा इति-इति (एतद् वैतत्) की प्रक्रिया से
सम्बन्धित है। अर्थात इसके दो पक्ष हैं- निषेध तथा अभिधान। २. गौडपाद तथा शंकर ने इसमें चतुष्कोटिक तर्कप्रणाली जोड़ी जिसको उनके पूर्व
माध्यमिकों ने विकसित किया था। मण्डनमिश्र और शंकर ने इसमें अध्यारोप और अपवाद की प्रणाली जोड़ी। इससे अध्यारोपों की संख्या भी अनियमत हो जाती है और उनके निराकरण की संख्या भी अनियत हो जाती है।
ና
वेदान्त-खण्ड ४. श्रीहर्ष, चित्सुख और मधुसूदन सरस्वती ने इसमें प्रसंगानुसार की पद्धति जोड़ी और
किसी विषय का खण्डन करने के लिए उसके अर्थ के अनेक विकल्प बनाये और यह दिखाया कि कोई भी विकल्प संभव नहीं है। इन विकल्पों की संख्या कभी-कभी
२०-२२ तक हो जाती है। अर्थात् विकल्पों की संख्या प्रसंगानुसार या अनियत है। ५. मधुसूदनोत्तर अद्वैतवेदान्तियों ने अन्वय-व्यतिरेकानुमान का भी प्रयोग किया और
श्रुति, स्मृति तथा युक्ति से अद्वैतवाद को सिद्ध किया।।
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सप्तम अध्याय