०५ वार्तिक-प्रस्थान और उसका विकास

०१. वार्तिक-प्रस्थान के आचार्य और ग्रन्थ

अद्वैतवेदान्त के वार्तिक-प्रस्थान का नामकरण सुरेश्वराचार्य के ग्रन्थ बृहदारण्यक उपनिषद्भाष्य के नाम पर हुआ है। अतः इसके संस्थापक शंकराचार्य के साक्षात् शिष्य सुरेश्वराचार्य हैं और इसका आधार-ग्रन्थ बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक है जिस पर आनन्दगिरि की टीका तथा विद्यारण्य स्वामी का बृहदारण्यकवार्तिकसार नामक संक्षेप है। इस प्रकार वार्तिक-प्रस्थान को समझने के लिए. ये सभी ग्रन्थ उपादेय हैं।

परन्तु सुरेश्वराचार्य के अन्य ग्रन्थ भी इसी प्रस्थान में आते हैं। उनके ग्रन्थों में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण हैं - १. तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्यवार्तिक। २. पंचीकरणवार्तिक (शंकराचार्यकृत पंचीकरण पर वार्तिक) ३. नैष्कर्म्यसिद्धि जिस पर कई टीकाएं हैं। ४. मानसोल्लास जो शंकराचार्यकृत दक्षिणामूर्तिस्तोत्र पर वार्तिक है।

सुरेश्वराचार्य के नाम से स्वाराज्यसिद्धि और काशीमृतिमोक्षविचार नामक ग्रन्थ भी हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची में दिये गये हैं। किन्तु जो स्वाराज्यसिद्धि प्रकाशित है उसके प्रणेता गंगाधरेन्द्र सरस्वती (१८वीं शती) हैं, सुरेश्वराचार्य नहीं ।

तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्यवार्तिक पर भी आनन्दगिरि की टीका है। वार्तिकप्रस्थान में इस ग्रन्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नैष्कर्म्यसिद्धि आचार्य सुरेश्वर की एक मौलिक कृति है जिसमें चार अध्याय हैं। इस पर निम्नलिखित टीकाएं हैं। जिनके कारण यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गया है -

१. ज्ञानोत्तम की चन्द्रिका टीका। २. चित्सुख की भावतत्त्वप्रकाशिका। ३. ज्ञानामृत की विद्यासुरभि । ४. अखिलात्मा की नैष्कर्म्यसिद्धिविवरण। ५. रामदत्तकृत सारार्थ।

वार्तिक-प्रस्थान और उसका विकास पंचीकरणवार्तिक पर भी निम्न टीकाएं प्रकाशित हैं : १. नारायण सरस्वतीकृत वार्तिकाभरण २. आनन्दगिरिकृत विवरण ३. रामतीर्थकृत तत्त्वचन्द्रिका ४. शान्त्यानन्द सरस्वतीकृत अद्वैतागमहृदय ५. गंगाधरकृत पंचीकरणचन्द्रिका

यहां यह उल्लेखनीय है कि भामती-प्रस्थान में त्रिवृतकरण की मान्यता है जबकि वार्तिक-प्रस्थान में पंचीकरण की मान्यता है।

इन ग्रन्थों के अतिरिक्त वार्तिक-प्रस्थान का एक अन्य प्रधान ग्रन्थ सर्वज्ञात्म मुनि रचित संक्षेपशारीरक है। सर्वज्ञात्मा आचार्य सुरेश्वर के शिष्य थे। उनके इस ग्रन्थ को कहीं-कहीं शारीरकभाष्य का वार्तिक भी कहा जाता है। यह पद्य में है। इस पर निम्नलिखित टीकाएं हैं - १. मधुसूदन सरस्वतीकृत संक्षेपशारीकरसारसंग्रह। २. नृसिंहाश्रमकृत तत्त्वबोधिनी। ३. पुरुषोत्तम दीक्षितकृत सुबोधिनी।

राघवानन्दकृत विद्यामृतवर्षिणी। ५. विश्ववेदकृत सिद्धान्तदीप। ६. रामतीर्थकृत अन्वयार्थप्रकाशिका। ७. प्रत्यग्विष्णुकृत संक्षेपशारीरकव्याख्या। ८. वेदानन्दकृत संक्षेपशारीरक संवन्धोक्ति। ६. अज्ञातकर्तृक संक्षेपशारीरक टीका।

संक्षेपशारीरक के अतिरिक्त सर्वज्ञात्ममुनि के दो और ग्रन्थ हैं - पंचप्रक्रिया और प्रमाणलक्षण। प्रथम का प्रकाशन और अंग्रेजी अनुवाद हो गये हैं। दूसरा अभी अप्रकाशित है और हस्तलिखित प्रति में सुरक्षित है। पंचप्रक्रिया पर आनन्दज्ञान की टीका और पूर्णविद्यामुनि की व्याख्या है। इसका अभी हाल में अंग्रेजी अनुवाद भी हो गया है।

०२. आचार्य सुरेश्वर और मण्डन मिश्र

भगवत्पाद शङ्कराचार्य के प्रमुख चार शिष्यों में सुरेश्वराचार्य अन्यतम हैं। उनका एक नाम देवेश्वराचार्य था। उनके शिष्य सर्वज्ञात्मा थे जो श्रृंगेरीमठ के लेखानुसार नवम पीठाधीश थे। उहोंने अपने ग्रन्थ संक्षेपशारीरक के अंत में अपने परिचय में एक श्लोक लिखा है जिसमें अपने गुरु को देवेश्वर नाम से स्मरण किया है -

वेदान्त-खण्ड

श्रीदेवेश्वरपादपङ्कजरजः सम्पर्कपूताशयः । सर्वज्ञात्मगिराङ्कितो मुनिवरः संक्षेपशारीरकम् ।। कपाल चक्रे सज्जनबुद्धिवर्धनमिदं राजन्यवेशे नृपे

श्रीमत्यक्षतशासने मनुकुलादित्ये भुवं शासति।। शान्ति संक्षेपशारीरक के व्याख्याकार मधुसूदन सरस्वती और रामतीर्थ ने सुरेश्वर तथा देवेश्वर को एक ही व्यक्ति माना है। वे श्रृंगेरीपीठ के अध्यक्ष पद पर बहुत दिनों तक विराजमान थे। मण्डन तथा श्रीसुरेश्वर एक हैं या ये दो अलग-अलग व्यक्ति हैं, इस पर बहुत विचार किया गया है। श्रीविद्यारण्य द्वारा विरचित शंकरदिग्विजय में एक कथा दी गयी है जिसके अनुसार आचार्य मण्डन मिन के साथ आचार्य शंकर का शास्त्रार्थ हुआ था। श्रीमण्डन मिश्र उस समय के प्रखर मीमांसक थे और आचार्य शंकर अद्वितीय अद्वैतवादी वेदान्ती थे। यह शास्त्रार्थ कई दिनों तक चला। शास्त्रार्थ में मध्यस्थता श्रीमण्डन मिन की पत्नी भारती देवी कर रही थीं, जो बड़ी विदुषी थीं। इसमें आचार्य मण्डन मिश्र पराजित हुए। शास्त्रार्थ से पूर्व यह निश्चय किया गया था कि जो पराजित होगा उसे अपने सिद्धान्त से विरत होना पड़ेगा। अतः निश्चयानुसार श्रीमण्डन मिश्न को कर्मकाण्डमार्ग छोड़कर संन्यास में आना पड़ा। इस समय उनकी पत्नी भारती जो शास्त्रार्थ में मध्यस्थता कर रही थीं, उन्होंने कहा- “अभी आधा शरीर ही पराजित हुआ है। अर्थात् अभी पतिदेव श्रीमण्डन ही पराजित हुए हैं। अर्धाङ्गिनी में भारती देवी अभी पराजित नहीं हुई हूँ। मेरे पराजित होने के बाद ही मेरे पतिदेव पराजित माने जायेंगे।” तब भारती देवी के साथ आचार्य शंकर

का शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। शास्त्रार्थ में कामविषयक प्रश्न होने पर आचार्य शंकर ने कुछ समय मांगा और एक राजा के शरीर में प्रविष्ट होकर कामशास्त्र का परिशीलन किया। इसके बाद पुनः शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ और भारती देवी पराजित हुईं। निश्चित प्रतिज्ञा के अनुसार आचार्य मण्डन ने आचार्य शंकर का शिष्यत्व स्वीकारा और संन्यासी बन गये। संन्यासावस्था में आचार्य मण्डन का नाम आचार्य सुरेश्वर पड़ा। शंकराचार्य स्वयं श्रृंगेरी में रहते थे। ये काण्वशाखाध्यायी कृष्णयजुर्वेदी थे। अतः कण्वशाखाध्यायी यजुर्वेदी मण्डन के सुरेश्वर होने पर श्रृंगेरीपीठ के अध्यक्ष बनाये गये। ऋग्यजुः साम और अथर्ववेद के अनुसार पूर्व में पुरी में, दक्षिण में शृंगेरी में, पश्चिम में द्वारका में और उत्तर में बदरिकाश्रम में चारों वेदों के पूर्वाश्चमी क्रमशः पद्मपादाचार्य, सुरेश्वराचार्य, हस्तामलकाचार्य तथा त्रोटकाचार्य मठाधीश बनाये गये। शंकरदिग्विजय में लिखा है कि शंकराचार्य के आदेश से सुरेश्वर ने शांकरभाष्यों पर वार्तिक की रचना की। शशा __कर्नल जी.ए. जैकब ने नैष्कर्म्यसिद्धि के द्वितीय संस्करण की भूमिका में श्रीमण्डन मिश्र श्रीसुरेश्वर तथा श्रीविश्वरूप को एक माना है। विद्यारण्य ने अपने विवरणप्रमेयसंग्रह में सुरेश्वराचार्य के वार्तिकग्रन्थ (४/८) से एक गद्यखण्ड उद्धृत करके उसे विश्वरूप का वाक्य कहा है। याज्ञवल्क्यस्मृति की बालक्रीड़ा नामक एक टीका उपलब्ध है। वह विश्वरूप

वार्तिक-प्रस्थान और उसका विकास

१०५ सुरेश्वर की कृति कही जाती है। इस बालकीड़ा टीका का उल्लेख श्राद्धकलिका ग्रन्थ में

इसी शंकरदिग्विजय ग्रन्थ में एक स्थल पर श्रीमण्डन को सुरेश्वर तथा विश्वरूप के साथ एक और नाम उम्बेक भी दिया गया है। यहां एक बात विचारणीय है कि विद्यारण्यस्वामी शंकरदिग्विजय में मण्डन तथा सुरेश्वर को एक कहते हैं और वही विद्यारण्य पुनः अपने बार्तिकसार ग्रन्थ में ब्रह्मसिद्धि के लेखक मण्डनमिश्र को सुरेश्वर से भिन्न लिखते हैं। ऐसी स्थिति में यह सन्देह होता है कि वार्तिकसार तथा विवरणप्रमेयसंग्रह के प्रणेता विद्यारण्य तथा शंकरदिग्विजय के प्रणेता विद्यारण्य एक ही व्यक्ति थे या दोनों भिन्न-भिन्न थे। यहां एक बात और भी विचारणीय है कि १३३५ ई. में विद्यमान विद्यारण्यस्वामी ने अपने शंकरदिग्विजय ग्रन्थ (१३१५) में लिखा है कि चित्सुखाचार्य श्री पद्मपादाचार्य के शिष्य थे, जबकि पद्मपादाचार्य आचार्य आदि शंकर के साक्षात् शिष्य नवम शताब्दी में हो चुके थे और चित्सुखाचार्य तेरहवीं शताब्दी में हुए थे। अतः यह कहा जा सकता है कि विवरणप्रमेयसंग्रह के प्रणेता और शंकरदिग्विजय के प्रणेता एक नहीं हो सकते। यदि एक होते तो वे इस प्रकार का उल्लेख न करते। प्रो. हिरियन्ना ने जर्नल ऑफ रायल एशियाटिक सोसायटी १E२३ ई. में एक लेख लिखा है जिसमें उपरिलिखित तथ्य की पुष्टि की गयी है। इसके अतिरिक्त डा. दासगुप्त ने अपने ‘भारतीय दर्शन का इतिहास’ ग्रन्थ में इन दोनों की भिन्नता की, अर्थात् ये दोनों दो व्यक्ति थे, इसकी सिद्धि के लिए एक दूसरा प्रमाण भी लिखा है।

परम्परा से श्रीमण्डनमिश्र और श्रीसुरेश्वराचार्य को एक ही व्यक्ति माना जाता है। उनका गृहस्थाश्रम का नाम मण्डन मिश्र है तथा संन्यासाश्रम का नाम आचार्य सुरेश्वर है। किन्तु दूसरे पक्ष का कहना है कि ये दोनों दो व्यक्ति हैं। इस सम्बन्ध में श्रीकुप्पूस्वामी शास्त्री ने स्वसम्पादित ब्रह्मसिद्धि की भूमिका में बड़े विस्तार के साथ विचार किया है और अन्त में निर्णय लिया है कि श्रीमण्डन मिश्र तथा श्रीसुरेश्वराचार्य दोनों भिन्न-भिन्न दो व्यक्ति हैं।

यह तो स्पष्ट है कि मण्डन मिश्र के ग्रन्थों में तथा आचार्य सुरेश्वर के ग्रन्थों में अनेक सैद्धान्तिक मतभेद हैं। इन मतभेदों के विषय में कहा जाता है कि जब गृहस्थाश्रम के मण्डन श्रीशंकर के शिष्य नहीं हुए थे और अद्वैत की दीक्षा नहीं ली थी तब के लिखे ग्रन्थों में कुछ और सिद्धान्त लिखे गये और आचार्य शंकर से अद्वैत- वेदान्त की दीक्षा लेने के अनन्तर संन्यासावस्था में लिखित ग्रन्थों में कुछ और सिद्धान्त लिखे गये। संभव है कि यह तर्क कुछ अंशों में सत्य हो। किन्तु सुरेश्वराचार्य के द्वारा लिखित ग्रन्थों में श्रीमण्डन मिश्र के लिए जो उपहास-शब्दावली प्रयुक्त की गयी है, उसे देखकर सोचना पड़ता है कि मूलतः ये दोनों दो व्यक्ति होने चाहिये। एक ही व्यक्ति अपने आश्रम के भेद से इतना कैसे बदल सकता है? जैसे मण्डन मिश्र की ब्रह्मासिद्धि के नियोगकाण्ड की १८२ कारिका में

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प्रसंख्यानवाद की उद्भावना की गयी है। इसका आधार बृहदारण्यक उपनिषद् के विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत’ (४/४/२१), इस वाक्य को माना गया है। मण्डन मित्र ने प्रज्ञा का अर्थ उपासना किया है। इसी उपासना को प्रसंख्यान भी कहा है। अर्थात् श्रवण-मनन की बार-बार आवृत्ति करने से चित्त का एकाग-रूप प्रसंख्यान होता है। इस प्रसंख्यान के द्वारा ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। आचार्य मण्डन के इस प्रसंख्यानवाद का आचार्य सुरेश्वर ने बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य वार्तिक में बहुत उपहास किया है। वे लिखते हैं -

अन्ये तु पण्डितम्मन्याः सम्प्रदायानुसारतः। विज्ञायेति वचः श्रौतमिदं व्याचक्षतेऽन्यथा।।, इति व्याचक्षते केचिद् विज्ञायेति वचः स्फुटम्। महामीमांसका धीरा अत्र प्रतिविधीयते।। इत्येवमादीनि वाक्यानि गम्भीरन्यायवेदिनः।

केचिद् व्याचक्षते यत्नादत्र प्रतिविधीयते ।। आचार्य सुरेश्वर ने अपनी नैष्कर्म्यसिद्धि (३/८६) में भी प्रसंख्यान का विरोध किया

निराकुर्यात् प्रसंख्यानं दुःखित्वं चेत् स्वनुष्ठितम् ।

(नै. सि. ३/८६) इन वार्तिकों में मण्डन मिश्र को पण्डितमन्य, महामीमांसक तथा गम्भीरन्यायवेदी कहकर उपहास किया गया है। और भी ऐसा स्थान है जहाँ मण्डन की आलोचना की गयी है। अतः सुरेश्वर और मण्डन दोनों के एक होने में संदेह होता है। प्रो. संगमलाल पाण्डेय ने दोनों को पृथक् व्यक्ति मानकर उनके दर्शन का विवेचन किया है।

आचार्य मण्डन के जन्मस्थान के विषय में भी दो मत है। कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि वर्तमान बिहार प्रदेश के सहरसा जिले के वर्तमान महिषी ग्राम में आचार्य मण्डन का जन्म हुआ था और वे वहीं रहते थे। ये बहुत बड़े मीमांसक थे और कर्मकाण्ड में उनकी बड़ी आस्था थी। इससे भिन्न एक दूसरा मत है जिसमें यह कहा जाता है कि श्रीमण्डन मिश्र की जन्मस्थली माहिष्मती नगरी है जो इस समय इन्दौर के पास नर्मदा के तट पर मान्धाता नाम से प्रसिद्ध है। ये प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल के शिष्य थे। इनकी पत्नी का नाम अम्बा या उम्बा था। ये बड़ी विधी थीं। इनका एक उपनाम शारदा भी था। ये शोणतट निवासी विष्णुमित्र की कन्या थीं। माधवाचार्य ने अपने शंकरदिग्विजय में इनके पिता का नाम हिममित्र लिखा है।

  • आचार्य मण्डनमिश्र मीमांसक थे और कुमारिल भट्ट के पट शिष्य थे। प्रसिद्धि है कि

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वार्तिक-प्रस्थान और उसका विकास उम्बेकः कारिकां वेति तन्त्रं वेत्ति प्रभाकरः।

मण्डनस्तूभयं वेत्ति नोभयं वेत्ति रैवणः ।। अर्थात् उम्बेक, प्रभाकर, मण्डन और रैवण - ये सभी कुमारिल भट्ट के शिष्य थे जिनमें से मण्डन मिश्र ही कुमारिल भट्ट के समस्त ग्रन्थों के ज्ञाता थे। मीमांसक होने के कारण ही मण्डन मिश्र ने पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा दोनों पर ग्रन्थ लिखे और दोनों का पूर्वापरन्याय से समन्वय किया। आचार्य मण्डन मिश्र की कृतियां हैं। - १. ब्रह्मसिद्धि, २. स्फोटसिद्धि, ३. विधिविवेक, ४. भावनाविवेक, ५. विभ्रमविवेक, ६. मीमांसासूत्रानुक्रमणी।

इसी ग्रन्थ में ब्रह्मसिद्धि, स्फोटसिद्धि तथा उनकी टीकाओं का परिचय प्रथम अध्याय में दिया गया है। विधिविवेक पर वाचस्पति मिश्श की न्यायकणिका टीका है। ब्रह्मसिद्धि पर भी उनकी ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा नामक टीका थी जो अब अनुपलब्ध है। भावना-विवेक पर उम्बेक की टीका है। मीमांसासूत्रानुक्रमणी पर डॉ. गंगानाथ झा की टीका है। मण्डनमिश्र के सभी ग्रन्थ उक्त टीकाओं के सहित प्रकाशित हैं। इन ग्रन्थों का अद्वैतवेदान्त के इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा है। भामती-प्रस्थान के अनेक मत मण्डन मिश्र के ग्रन्थों में मिलते हैं। इस कारण वाचस्पति मिन को मण्डनमिश्रपृष्ठसेवी कहा गया है। आचार्यों की परम्परा में मण्डन मिश्र का नाम निःसन्देह अग्रगण्य है। 1 आचार्य सुरेश्वर ने श्रीशंकरानुमोदित अद्वैतसिद्धान्त पर अनेक प्रौढ़ ग्रन्थों की रचना की है जिनके नाम ऊपर दिये गये हैं। उनके सभी वार्तिक कुमारिल भट्ट के श्लोकवार्तिक की शैली में लिखे गये हैं। उनके वार्त्तिक ग्रन्थों में अद्वैतसिद्धान्त का विशद वर्णन है तथा विरोधियों के मतों का सयुक्तिक तथा सप्रमाण खण्डन किया है। वे वार्त्तिक ग्रन्थ बड़े महत्वपूर्ण है। अतः अद्वैतवेदान्त के इतिहास में ये वार्तिककार के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार मोक्ष के लिए श्रौतस्मार्त कर्मों की आवश्यकता नहीं है या इसका विवेचन नैष्कर्म्यसिद्धि ग्रन्थ में किया गया है।

आचार्य मण्डन मिश्र एवं आचार्य सुरेश्वर के सिद्धान्तों में निम्नलिखित भेद हैं - आचार्य मण्डन मिश्र स्फोटवाद मानते हैं और भर्तृहरि द्वारा समादृत शब्दाद्वैतवाद का समर्थन करते हैं। अपने ग्रन्थ स्फोटसिद्धि तथा ब्रह्मसिद्धि में इन दोनों वादों की अच्छी विवेचना उन्होंने की है। सुरेश्वराचार्य ने स्फोटवाद का नाम तक नहीं लिया।

उनके गुरु आदि शंकर ने अपने शारीरकभाष्य में शब्दाद्वैतवाद की आलोचना की है। (२) मण्डन मिश्र ने ब्रह्मसिद्धि में कुमारिल भट्ट समर्थित विपरीत ख्याति को महत्व दिया

है। सुरेश्वराचार्य ने अपने वार्तिक ग्रन्थ में इस ख्यातिवाद का खण्डन किया है। (३) मण्डन मिश्र ने अविद्या के दो भेद माने हैं - अग्रहण तथा अन्यथाग्रहण।

सुरेश्वराचार्य ने अपने वार्तिक में (बृआ उप.भा वा २ भाग श्लोक १EE) अविद्या के उक्त दोनों भेदों का खण्डन किया है।१०

वेदान्त-खण्ड

(४) मण्डन मिश्र ने अविद्या का आश्रय जीव तथा विषय ब्रह्म को माना है। पर सुरेश्वर

ने अविद्या का आश्रय एवं विषय दोनों ब्रह्म को ही माना है। सर्वज्ञात्ममुनि एवं

प्रकाशात्मयति ने भी यही माना है। (५) मण्डनमिश्र के मत में ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्यों से परोक्ष ज्ञान होता है। बाद में

ऐकाय्य (समाधि) से मानस साक्षात्कार होता है। इसके लिए ‘विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत’ (बृ.आ.उप. ४/४/२१) यह श्रुति-वाक्य तथा इसके आधार पर उपासना या प्रसंख्यान को माना गया है। किन्तु सुरेश्वर ने अपने ग्रन्थ नैष्कर्म्यसिद्धि (१-६७, ८-६३ आदि) में एवं बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक (श्लो. ८१८-८४६) में प्रसंख्यान मार्ग की बड़ी आलोचना की है। यहां तक कि मण्डन मिश्र के लिए

पण्डितमन्य, महामीमांसक तथा गम्भीर न्यायवेदी जैसे शब्द प्रयुक्त किये हैं। (६) कर्म-सिद्धान्त में भी दोनों का मतभेद प्राप्त है। आचार्य मण्डन मोक्ष के लिए कर्म

तथा उपासना की अपेक्षा करते हैं। आचार्य सुरेश्वर मोक्ष के लिए केवल ज्ञान की अपेक्षा करते हैं। आचार्य सुरेश्वर ने नैष्कर्म्यसिद्धि में इस पर बहुत विचार किया है।

०३. सुरेश्वर का अद्वैतवाद

(क) मोक्ष-साधन कर्म का खण्डन

आचार्य सुरेश्वर का अद्वैत-विषयक सिद्धान्त भगवत्पाद शंकर के सिद्धान्तों से भिन्न रहा है। पर उन्होंने शंकर-प्रतिपादित कुछ विषयों को लेकर उन पर विशद विवेचन प्रस्तुत किया है। जैसे कर्म-सिद्धान्त का विवेचन। मीमांसादर्शन दो भागों में विभक्त है- पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा। इन दोनों को क्रमशः कर्ममीमांसा तथा ज्ञानमीमांसा भी कहते हैं। पूर्वमीमांसा के आचार्य जैमिनि ने मोक्ष का साधन कर्म को बतलाया है। यह मीमांसादर्शन यज्ञविधान तथा कर्मानुष्ठान के लिए विशेष आग्रह रखता है। इनका कहना है कि मोक्ष का एकमात्र साधन कर्म है। यहां तक कि जो वेद-वाक्य क्रियार्थक नहीं हैं उन्हें निरर्थक घोषित कर दिया गया है। जैमिनि का सूत्र है-आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदानाम् (१/२/%)। कर्म तीन प्रकार के हैं। -नित्य, नैमित्तिक तथा निषिद्ध । इनमें नित्य तथा नैमित्तिक कों का अनुष्ठान सदा होना चाहिये तथा उसी प्रकार निषिद्ध कर्मों का परित्याग भी सदा होना चाहिये। यह इनका संक्षिप्त सारांश है। इसके खण्डन के लिए नैष्कर्म्यसिद्धि में आचार्य सुरेश्वर ने कहा है कि कर्मफल चार प्रकार के होते हैं - १. उत्पाद्य, २. आप्य, ३. संस्कार्य और ४. विकार्य । मुक्ति इन चारों कर्मफलों के अतिरिक्त है। आत्मा स्वयं नित्य मुक्त है। अतः उसके लिए मुक्ति न तो उत्पाद्य है, न आप्य है, न संस्कार्य है और न विकार्य है। अतः मुक्ति के लिए कर्म की आवश्यकता नहीं है। नैष्कर्म्यसिद्धि (१५३) में उनका वचन यह है -

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वार्तिक-प्रस्थान और उसका विकास उत्पाद्यमाप्यं संस्कार्य विकार्य च क्रियाफलम्। ति मा नैवं मुक्तिर्यतस्तस्मात् कर्म तस्या न साधकम्।

(नष्कर्म्यसिद्धि १/१५३) " नित्य तथा नैमित्तिक कर्मों के अनुष्ठान से चित्तशुद्धि होती है और उसके बाद वैराग्य, मुमुक्षुत्व आदि गुण उत्पन्न होते हैं, जिससे मोक्ष में ये साधन बनते हैं। सुरेश्वराचार्य का कहना है कि साधन की एक सोपान-परम्परा है। कर्म आदि परम्परा साधन हो सकते हैं, किन्तु ये साक्षात् साधन नहीं हैं। मुक्ति का साक्षात् साधन ज्ञान ही है।

(ख) आत्मदर्शन के तीन साधन

बृहदारण्यकोपनिषद् में महषि याज्ञवल्क्य ने अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहा है - ‘आत्मा वा रे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि।’ अर्थात हे मैत्रेयि! आत्मदर्शन के तीन साधन हैं, श्रुति वाक्यों को सुनना, सुनकर युक्तियों से मनन करना तथा मनन के बाद उनका ध्यान करना। इन तीनों साधनों के पूर्वापर के संबन्ध में आचार्यों में मतभेद है। वाचस्पति मित्र के मतानुसार श्रवण, मनन और निदिध्यासन इसी कम से ये ब्रह्मसाक्षात्कार के हेतु हैं। विवरणप्रस्थान के अनुसार ब्रह्मसाक्षात्कार का साधन केवल श्रुतिवाक्य का श्रवण है। मनन तथा निदिध्यासन श्रुतिवाक्यार्थ के ज्ञान को सुदृढ़ तथा सुव्यवस्थित बनाते हैं। श्रवण में साक्षात् हेतुता है और वह प्रधान है। मनन तथा निदिध्यासन में गौण हेतुता है अर्थात् परम्परया हेतुता है। सुरेश्वराचार्य का मत है कि ये तीनों श्रवण, मनन और निदिध्यासन इसी कम से समान रूप से ब्रह्म साक्षात्कार में हेतु हैं। प्रथम श्रुतिवाक्य का श्रवण करना चाहिए तदनन्तर युक्तिपूर्वक मनन करना चाहिए। मनन को तब तक बार-बार करना चाहिये जब तक निदिध्यासन (ध्यान) की सिद्धि नहीं हो जाती। आचार्य सुरेश्वर और वाचस्पति मिश्र के मत में इतना ही अन्तर है कि जहाँ वाचस्पति मिश्र श्रवण से मनन तथा मनन से निदिध्यासन की सिद्धि मानते हैं, वहां सुरेश्वराचार्य श्रवण और मनन को संयुक्त करके अथवा दोनों को परस्पर संसक्त करके निदिध्यासन के प्रति साधन मानते हैं। (ग) कर्मसमुच्चित ज्ञान

शांकरमत में केवल ज्ञान से ही ब्रह्म साक्षात्कार माना गया है। कुछ आचार्यों ने जैसे ब्रह्मदत्त तथा मण्डन मिश्र ने, कर्मसमुच्चित ज्ञान को ब्रह्मसाक्षात्कार का कारण माना है। इसको ये अभ्यास तथा प्रसंख्यान कहते हैं। प्रसंख्यान का अर्थ उपासना या आराधना या अभ्यास करना है। मण्डनमिश्र ने ब्रह्मसिद्धि में इसका वर्णन किया है। वाचस्पति मिश्र ने भी इसको माना है और भामती में इस पर बहुत विचार किया है। श्रीमण्डन मिश्च के अनुसार केवल ज्ञान ब्रह्म-साक्षात्कार का कारण नहीं बनता, किन्तु शम, दम आदि से

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परिपुष्ट होकर ही ज्ञान ब्रह्म-साक्षात्कार का कारण बनता है। इसी से मिलता हुआ मत ब्रह्मदत्त का भी है। मण्डन मिश्र ने इसके लिए विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत’ - (बृ. आ. उप. ४/४/२१) को प्रमाण-कोटि में रखा है। ‘तत्त्वमसि’ आदि श्रुति-वाक्य तो केवल ब्रह्मात्मैक्य का ज्ञान करा देते हैं। यह ज्ञान निदिध्यासन से संवलित होकर ही ब्रह्म-साक्षात्कार कराता है। निदिध्यासन की पूर्णता के लिए बार-बार आवृत्ति करने की आवश्यकता है। इसी आवृत्ति का नाम प्रसंख्यान है। सुरेश्वराचार्य ने श्रीमण्डन मिन के इस कर्मसमुच्चित ज्ञान का बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्त्तिक में विस्तार के साथ खण्डन किया है।

(घ) कर्मज्ञान-सम-समुच्चयवाद -

यह आचार्य भर्तृप्रपंच का मत है। इसका अर्थ है कि कर्म और ज्ञान समान रूप से मिलकर ब्रह्मसाक्षात्कार के कारण हैं। पूर्वमत में तो कर्म संवलित ज्ञान को कारण माना गया था जिसमें कर्म गौण तथा ज्ञान की प्रधानता रहती हैं। भर्तृप्रपंच मत में कर्म और ज्ञान दोनों समान भाव से ब्रह्मसाक्षात्कार में कारण हैं। ये भेदाभेदवादी हैं। सुरेश्वराचार्य ने बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक में इसका विस्तार के साथ खण्डन किया है। आनन्दगिरि ने उसमें कुछ और युक्तियाँ जोड़ी हैं अपनी टीका में।

(च) भागलक्षणा वृत्ति -

सुरेश्वराचार्य ने ‘तत्त्वमसि’ महावाक्यार्थबोध के लिए भाग-लक्षणा वृत्ति मानी है। ‘तत् त्वम् असि इस वाक्य में ‘तत्’ पद का वाच्यार्थ परोक्षत्वादिविशिष्ट चैतन्य है तथा ‘त्वम्’ पद का वाच्यार्थ अपरोक्षत्वादिविशिष्ट चैतन्य है। ये दोनों परस्परविरुद्ध हैं। अतः ये परस्पर अन्चित होकर वाक्यार्थबोध नहीं करा सकते। इसलिए भागलक्षणा वृत्ति स्वीकार की है। इस वृत्ति के द्वारा परोक्षत्व का परित्याग कर चैतन्यांश बच जाते हैं। फलतः इन दोनों के अभेद अथवा ऐक्य के बोधन में पर्यवसान होता है। इस वृत्ति का भागत्यागलक्षणा वृत्ति भी कहते हैं। सामान्यतः उसे जहदजहत् लक्षणा कहा जाता है। ‘गंगायां घोषः, यहां जहत् लक्षणा है। ‘काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्’, यहां अजहत् लक्षणा है। ‘तत् त्वम् असि’, यहाँ उक्त दोनों लक्षणाएं हैं। सं..

(छ) आभासवाद -

शाकराद्वैत में जीव, ईश्वर, जगत् और परमात्मा में भेद नहीं माना जाता। संसारावस्था में जो भेद-प्रतीति होती है उसे औपाधिक भेद कहा जाता है। इस औपाधिक भेद की व्यवस्था के लिए तीन मत प्रसिद्ध हैं-१. आभासवाद, २. प्रतिबिम्बवाद और ३. अवच्छेदवाद। इन तीनों के तीन प्रमुख समर्थक हैं। प्रथम मत के समर्थक श्री सुरेश्वराचार्य

हैं।

वार्तिक-प्रस्थान और उसका विकास द्वितीय मत के प्रवर्तक श्री पद्मपाद तथा तृतीय मत के समर्थक श्री वाचस्पति मिश्र हैं। इन तीनों वादों की व्याख्यापरम्परा बड़ी लम्बी है।

। इन तीनों में सबसे प्राचीन आभासवाद है जिसका प्रारम्भ तथा समर्थन सुरेश्चराचार्य के द्वारा हुआ है। उन्होंने ८२५ ई. में इसकी स्थापना की थी। श्री पद्मपादाचार्य (200 ई.) की पंचपादिका में प्रतिबिम्बवाद निर्दिष्ट है। पंचपादिका पर विवरण-ग्रन्थ की रचना करते समय श्री प्रकाशात्मयति ने १२०० ई. में प्रतिबिम्बबाद का विस्तार से विचार करना प्रारम्भ किया। श्री वाचस्पति मिश्र ने ५० ई. में अवच्छेदवाद का समर्थन एवं विस्तार किया।

यद्यपि वाचस्पति मिश्र से पूर्व श्रीमण्डन मित्र को ब्रह्मसिद्धि में अवच्छेदवाद का मूल प्राप्त होता है, तथापि उसको पुष्ट करने से एवं प्रबल समर्थन करने से वाचस्पति के नाम से ही अवच्छेदबाद जुड़ गया है। इसी प्रकार पद्मपाद की पंचपादिका में प्रतिबिम्बवाद का मूल प्राप्त है, तथापि उसकी पुष्टि एवं प्रबल समर्थन करने के कारण प्रकाशात्मयति के साथ प्रतिबिम्बवाद गुड़ कर प्रसिद्ध हो गया है।

इन तीनों वादों के मूल ब्रह्मसूत्र-अतएव चोपमासूयादिवत् (ब्र.सू. ३/२/१८) अम्बुग्रहणात्तु न तथात्वम् (वहीं ३/२/१६), वृद्धिहासभाक्त्वमन्तर्भावादुभयसामञ्जस्यादेवम् (वहीं ३/२/२०) में तथा उनके शांकरभाष्य में प्राप्त होते हैं। प्रकाशादिवन्नैवं परः (वही

२/३/४६) तथा आभास एव च (वहाँ २/३/५०).

इन दोनों सूत्रों में और इनके शाकरभाष्य में स्पष्ट रूप से उक्त तीनों बादों का निर्देश है। इन तीनों सूत्रों के शांकरभाष्य में कहा गया है कि सौर या चान्द्र प्रकाश जैसे आकाश में फैलकर विद्यमान है, फिर भी अंगुलि आदि उपाधि के सम्बन्ध से उस प्रकाश को सीधा तवा टेढ़ा देखा जाता है, अथवा जैसे पानी के पात्र में प्रतिबिम्बित सूर्य कंपते हुए जल के सम्पक से करता हुआ दिखायी पड़ता है पर वस्तुतः सूर्य कपता नहीं है, अथवा जैसे जल में सूर्य का आभास लक्षित होता है, उसी प्रकार जीव के दु:खा होने पर में दुःख का सम्बन्ध नहीं होता। इन तीनों उदाहरणों में पहले में अवच्छेदबाद, दूसरे में प्रतिबिम्बबाद और तीसरे में आभासवाद का संकेत दिया गया है। इन्हीं के आधार पर श्री वाचस्पति मिश्र ने अवच्छेदवाद का, श्री पद्मपादाचार्य तथा श्री प्रकाशात्मयति ने प्रतिबिम्बवाद का तथा आचार्य सुरेश्वर ने आभासवाद का समर्थन किया है।

आभास शब्द का अर्थ ब्रह्मसूत्र अध्यास-भाष्य में तथा इसकी व्याख्या भामती तथा परिमल कल्पतरु में बड़ा स्पष्ट किया गया है। अध्यास का लक्षण करते हुए शंकर ने कहा-स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृष्टावभासः (अध्यासः)। इस पर भामतीकार ने कहा- अवसन्नाऽवमतो वा भासोचभास:। इस पर व्याख्या करते हए कल्पतरुकार ने कहा - ‘अवसाद: उच्छेदः । अवमानों यौक्तिकस्तिरस्कारः।" इस पर परिमलकार ने कहा - “तिरस्कारः इच्छाप्रवृत्यादिकायाक्षमत्वापादनम् । इस तरह इन सभी का अभिप्राय यही है कि जिस प्रतीति

में

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वेदान्त-खण्ड का उत्तरकाल में तिरस्कार हो या युक्ति से बाध हो वह आभास है। शंकराचार्य ने माण्डूक्यकारिका ३/४ के भाष्य में तथा आनन्दगिरि ने बृहदारण्यक भाष्यवार्तिक (२/१/२१६) की व्याख्या में कहा है कि आभास के द्वारा कल्पित वस्तु का अवभासन मात्र होता है।

__माण्डूक्यकारिका में गौडपादाचार्य ने इस अवभासन के तीन भेद बतलाये हैं-१.. अजात वस्तु जातवत् भासित होती है अर्थात् अनुत्पन्न भी उत्पन्नवत् प्रतीत होने लगता है। २. अक्रिय वस्तु सक्रिय की तरह प्रतीत होने लगती है। ३. अवस्तु भी वस्तुवत् भासित होती है। तीनों के ये तीन उदाहरण दिये गये हैं - जैसे १. देवदत्त जन्म लेता है, २. देवदत्त जाता है, ३. वह देवदत्त गौरवर्ण का है या लम्बा है। यहाँ वस्तु शब्द का अर्थ द्रव्य अथवा धर्म गृहीत है। इसके लिए उनकी यह कारिका प्रसिद्ध है -

जात्याभासं चलाभासं वस्त्वाभासं तथैव च। अजाचलमवस्तुत्वं विज्ञानं शान्तमव्ययम्।।

(माण्डूक्यका. ४/४५) - श्री सुरेश्वराचार्य ने इस आभास के लिए चिदाभास, चिबिम्ब और कूटस्थाभास शब्द का प्रयोग किया है। साथ ही इसके लिए बृहदारण्यकभाष्यवार्तिक में महिमा, अभिप्राय, प्रसाद, आकृति तथा वृत्ति शब्द भी प्रयुक्त किये गये हैं।

आभास के दो भेद माने गये हैं - १. कारणाभास तथा २. कार्याभास। अविद्या में जब चैतन्य का आभास होता है तब उसे कारणाभास कहते हैं। यही संसार का कारण है

और जब अविद्या के कार्य अन्तःकरण या अहंकारात्मिका बुद्धि में आभास होता है तब उसे कार्याभास कहते हैं। सर्वत्र द्वैत का कारण अज्ञान है और उसका कार्य आकाश आदि है। इन दोनों में असङगपरमात्मा की जो दो मायामयी बत्तियाँ हैं वही दो आभास हैं। वस्ततः यह आभास एक ही है, पर अवस्थाभेद से दो प्रकार का कहा जाता है। पूर्वापर-रूप से यह दो प्रतीति है - अज्ञानगत आभास कारणाभास है तथा अज्ञानजन्य वस्तुगत आभास कार्याभास है। बृहदारण्यकभाष्यवार्तिक (१/४/६३६) में तथा इसकी टीका में यह विस्तार से समझाया गया है। कार

(ज) आभास-प्रयोजन

है आत्मा से अतिरिक्त समस्त अनात्म वस्तुओं की स्वरूपनिष्पत्ति के लिए और उनकी व्यावहारिक तथा प्रातिभासिक स्थिति की सिद्धि के लिए आभास की आवश्यकता है। संसार-प्रयोजिका अविद्या तथा अविद्याकार्य जगत् की सत्तासिद्धि के आभास के द्वारा ही होती हैं। इसीलिए आभास को आत्म-ज्योति भी कहा गया है। अविद्या जड़ है। अतः आभास के बिना जड़ अविद्या से जगत् की सत्ता असंभव है। आभास से ही अज्ञानसमुद्भूत

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वार्तिक प्रस्थान और उसका विकास जगत् की सत्ता बन पाती है। वस्तुतः आभासी वस्तु से अतिरिक्त आभास की सत्ता ही नहीं है। पंचदशी में ‘आभासस्य मिथ्यात्वात्’ (तृप्तिप्रदीप) कहकर आभास को मिथ्या कहा गया है।

आमास का दूसरा प्रयोजन यह भी है कि जगत् का कारण ब्रह्म बन सके। क्योंकि निष्प्रपंच निर्विकार निर्गुण निष्कल तथा निरंश ब्रह्म जगत् का कारण नहीं बन सकता और

अविद्या भी जगत् का कारण नहीं बन सकती, क्योंकि अविद्या जड़ है। जड़ स्वतः कारण नहीं बन पाता। इस प्रकार जगत् का कारण न तो ब्रह्म बन पाता है और न तो अविद्या ही। ऐसी स्थिति में आभास ही एक ऐसा मार्ग है जिसके द्वारा चित् का अज्ञान से सम्बन्ध होता है और ब्रह्म जगत् का कारण बन पाता है। इसीलिए कहा गया है -

(9) अज्ञानं तदुपाश्रित्य ब्रह्म कारणमुच्यते।

(बृ. आ. उप. भा. वा. १/४/३७१)

(२) अज्ञानस्थाभासद्वारा कूटस्थस्यैक्ये तस्य कारणत्वमिष्टं स्वतस्तदयोगात्।

(वही ४/३/३८५ की आनन्दगिरि की टीका)

(३) कार्यकारणातीतं ब्रह्म…. सर्वप्रपंचप्रकाशनाय नालम्…

अविद्यापि प्रपञ्चप्रकाशनाय नालम्। तदास्वाभाससाचिव्येनैवात्मा विषयान् प्रकाशयति।

(वही ४/३/६६) इस प्रकार वार्तिककार आचार्य सुरेश्वर व्याध-संबंधित राजकुमार-न्याय तथा कौन्तेय राधेय-न्याय से ब्रह्म ही अविद्या से जीवभाव को प्राप्त होता है, यह मानते हैं। वे प्रतिबिम्बवाद और अवच्छेदवाद को नहीं मानते। जैसे व्याध के द्वारा संवर्धित राजकुमार को व्याध माना गया अथवा जैसे कुन्ती-पुत्र कौन्तेय कर्ण को राधापुत्र राधेय माना गया, वैसे इन दोनों स्थलों पर केवल आभास ही कारण है। यहाँ भान्ति में प्रतिबिम्ब या अवच्छेद कारण नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्म से जीवभाव होने में प्रतिबिम्ब या अवच्छेद की आवश्यकता नहीं है। किन्तु अज्ञान के द्वारा उसका आभास ही प्रयोजक है, किन्तु वेदान्तसूक्तिमंजरी १०४२ में इसका विरोध किया गया है।

सुरेश्वराचार्य का यही आभासवाद है। ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् बादरायण तथा भगवत्पाद शंकर को भी यही बाद अभिप्रेत है। इसीलिए संभवतः बादरायण ने ‘आभास एव च’ (ब्र.सू. ३/२/५०) यह सूत्र कहा और शंकर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य के आदि में अध्यास के लक्षण में ‘स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृष्टावभासः तथा शुक्तिका हि रजतवदवभासते’ कहा। जिसका आभास होता है वह वस्तु मिथ्या होती है और उत्तर काल

है के

११४

बेदान्त-खण्ड

में उसका बाध होता है। मिथ्या वस्तु कुछ क्षण के लिए अन्य वस्तु की तरह प्रतीत होती है, यही आभास है। किसी वस्तु का वस्त्वन्तर रूप में प्रतीत होना ही आभास है। जैसे शुद्ध स्वच्छ स्फटिक के पास रजत-पुष्प रख दिया जाए तो शुभ्रस्वच्छ स्फटिक रक्तवर्ण का आसित होने लगता है। उसी प्रकार अज्ञान का कार्य अन्तःकरण में आभासित होने वाला चैतन्य जीव है और अविद्या में आभासित होने वाला ब्रह्म ईश्वर है। इसी को संक्षेपशारीरक में सर्वज्ञात्म मुनि ने कहा है

कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः। इस मत में अविद्या का आश्रय और विषय दोनों ब्रह्म ही हैं। अन्तःकरण के नाना होने से जीव भी नाना है। जिससे सुख-दुःखादि का जीवों में सांकर्य नहीं होता। अविद्या (अज्ञान) भावरूपा है। ज्ञानरूप ब्रह्म के साथ अज्ञान का समवधान होने से अविद्या का आश्रय और विषय दोनों ब्रह्म हो सकता है इसीलिए संक्षेपशारीरक में कहा गया है - आश्रयत्व-विषयत्व-भागिनी निर्विभागचितिरेव केवला (१/३१६), अन्यथा जीव ईश्वर एवं शुद्ध चैतन्य के साथ अविद्या के सम्बन्ध बनाने में अन्योन्याश्रयदोष आ जाता है। जैसे अविद्या के आश्रय होने पर जीवमात्र और जीव होने पर अविद्या का आश्रय बनेगा। अतः ब्रह्म को आश्रय और विषय दोनों मानने पर यह दोष मिट जाता है।

प्रतिबिम्बवाद में कहा जाता है कि ब्रह्म शुद्ध चिद्-रूप है। पर विशुद्ध सत्त्व प्रधानरूपा माया में जब चित् प्रतिबिम्ब पड़ता है तो वह ईश्वर कहा जाता है और जब मलिनसत्त्वरूपा अविद्या में चित् का प्रतिबिम्ब पड़ता है तब वह जीव कहा जाता है। उसी अविद्योपाधि में ब्रह्म का भी प्रतिबिम्ब पड़ता है। बिम्ब सत्य होता है और प्रतिबिम्ब मिथ्या होता है। इसी प्रकार बिम्बस्थानीय ब्रह्म सत्य है और प्रतिबिम्ब स्थानीय जीव ईश्वर जगत आदि असत्य है, या मिथ्या है। इसके लिए संक्षेपशारीरक (१२-१३२) में कहा गया है -

जीवानां प्रतिबिम्बकल्पवपुषां बिम्बोपमे ब्रह्मणि। श्री सुरेश्वराचार्य के साक्षात् शिष्य होकर भी सर्वज्ञात्ममुनि प्रतिविम्बबाद के पक्ष में हैं और आभासवाद को नहीं मानते हैं। अतः प्रश्न उठता है “वार्तिक-प्रस्थान” का क्या वैशिष्ट्य है? अन्य प्रस्थानों से वह कैसे भिन्न है? इनका उत्तर यों है - (१) वार्तिक प्रस्थान में उपनिषद् तथा उनके भाष्यों और सुरेश्वर के वार्तिकों को अधिक महत्त्व दिया जाता है, कम से कम शारीरकभाष्य से अधिक महत्त्व। (२) इस प्रस्थान में निम्न ६ तत्त्वों को अनादि माना जाता है-जीव, ईश्वर, शुद्ध चैतन्य, जीवेश्वरभेद, अविद्या और शुद्धचैतन्य-अविद्या-सम्बन्ध।

जीव ईशो विशुद्धा चितु तथा जीवेशयोर्मिदा। अविद्या तच्चितोर्योगः षडस्मकामनादयः।।

११५

वार्तिक-प्रस्थान और उसका विकास यह श्लोक आचार्य सुरेश्वरकृत ही परम्परा से माना जाता है। किन्तु यह उनके किसी उपलब्ध ग्रन्थ में मिलता नहीं है।

(३) वेदान्तसार जिसके लेखक सदानन्द यति (१५५० ई. के लगभग) हैं, बार्तिक-प्रस्थान का संग्रह-ग्रन्थ लगता है। इसके टीकाकार नृसिंह सरस्वती (१५८८ ई.) तथा रामतीर्थ (१७वीं शती का पूर्वार्द्ध) ने कमशः- अपनी टीका सुबोधिनी और विद्वन्मनोरंजनी में दिखलाया है कि शेषकृत परमार्थसार और योगवासिष्ठ के अनेक वचन अद्वैतवेदान्त की पुष्टि करते हैं। इससे ज्ञात होता है कि वार्तिक-प्रस्थान काश्मीर शैवमत तथा योगवासिष्ठ से भी सामञ्जस्य स्थापित करता है। उसका आभासवाद काश्मीर शैवमत का ही आभासवाद है। विवरण-प्रस्थान तथा भामती-प्रस्थान इस प्रकार अपनी परम्परा के बास्य ग्रन्थों को प्रमाण-कोटि में नहीं लेते हैं। अतएव वार्तिक-प्रस्थान उनकी अपेक्षा अधिक उदार है। सं.

अवच्छेदवाद में यह कहा जाता है कि जैसे व्यापक आकाश सर्वत्र व्याप्त है। घट के ले चलने पर जैसे घटगत आकाश को कहीं नहीं ले जा सकते, किन्तु घट रूप अवच्छेदक से अवच्छिन्न आकाश को ले जाना कहते हैं, उसी प्रकार व्यापक असीम ब्रह्म भी अविद्या रूपी अवच्छेदक या मतान्तर से अन्तःकरण रूपी अवच्छेद से अवच्छिन्न होकर जीवमात्र को प्राप्त होता है और कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि धर्मों से सम्पृक्त हो जाता है। इस- मत में जीव की आकाश से उपमा दी जाती है -

घटसंवृतमाकाशं नीयमाने घटे यथा। घटो नीयेत नाकाशं तदवज्जीवी नभोपमः ।।

(त्रि. ता.उप. १३) इन तीनों वादों के लक्षण इस प्रकार किये गये हैं -

आभिमुख्येन अहम् इत्यपरोक्षेण भासते इत्याभासः। प्रत्यक् चितोचमतो भासो नाम आभासः।।

(बृ.आ. भा.वा. २/१/२१६ आ.गि.टी.) अर्थात् प्रत्यक् चैतन्य का तिरस्कृत होने वाला भास (प्रतीति) आभास है। जैसे अक्रिय का सक्रिय प्रतीत होना अथवा अवस्तु का वस्तुवत् प्रतीत होना, जैसे शुद्ध चैतन्य का ईश्वर रूप में तथा जीव रूप में भासित होना। शङ्कराचार्य ने भी ऐसा कहा है -

आभास एव चैष जीवः परमात्मनो जलसूर्यादिवत् प्रतिपत्तव्यः ।

(ब्र.सू. २/३/५० शा.भा.)

जीवो हि नाम दैवताया आभासमात्रः।

(छा.उप. ६/३/२ शां.भा.) इसीलिए आभास को - चिद्वद् अवभासनत्वे सति चिल्लक्षणरहितत्वम् कहा गया है।

प्रतिबिम्ब का लक्षण किया गया है-दर्पणाद्यपाध्यन्तर्गतत्वे सति औपाधिक परिच्छेद शून्यत्वे च सति बहिः स्थितस्वरूपकत्वम् प्रतिबिम्बत्वम्।

(सिद्धान्तबिन्दु, श्लोक की ब्रह्मानन्दी टीका )

जैसे दर्पण में प्रतिफलित मुखरूप प्रतिबिम्ब है, उसी प्रकार अविद्या माया एवं अन्तःकरण में प्रतिफलित चैतन्य ईश्वर और जीव आदि है।

अवच्छेद का स्वरूप कहा गया है -

सत्यमेवैतत् पर एवात्मा देहेन्द्रियमनो बुद्धयुपाधिभिः

परिच्छिद्यमानो बालैः शरीर इत्युपचर्यते। यथा

घटकरकाद्युपाधिवशादपरिच्छिन्नमपि नभः परिच्छिन्नवदवभासते तद्वत् । (ब. सू. १//६ शा. भा.)

जैसे घट तथा करक (पुरवा) आदि के अन्तर्गत आकाश परिच्छिन्न होकर घटाकाश आदि शब्दों से व्यवहृत होता है, उसी प्रकार मन-बुद्धि आदि उपाधि से परिच्छिन्न परमात्मा को जीव कहते हैं। माना

(झ) तीनों वादों के युक्तायुक्तत्व का विचार

आचार्यों ने बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से इन तीनों वादों की समीक्षा की है।

अवच्छेदवाद की समीक्षा में वे कहते हैं कि जैसे अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य जीव है। उसी प्रकार घटावच्छिन्न चैतन्य को जीव क्यों नहीं मानते। क्योंकि जैसे व्यापक आकाश घटावच्छिन्न होकर घटाकाश हो सकता है तो घटावच्छिन्न चैतन्य भी जीव हो सकता है। इस पर यह समाधान दिया जाता है कि अन्तःकरण के स्वच्छ होने से अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य ही जीव हो सकता है। इस पर यह कहा जाता है कि अवच्छेदक में स्वच्छत्व तथा अस्वच्छत्व विशेषण तो लगाये नहीं गये हैं, और यदि स्वच्छत्व विशेषण लगाकर अवच्छेदक को प्रतिबिम्बग्राही माना जाय तो हठात् अवच्छेदवाद की जगह प्रतिबिम्बवाद मानना पड़ेगा। श्री वाचस्पति मिश्र ने जीव को प्रतिबिम्ब-कल्प भी कहा है - का

तथापि तत्प्रतिबिम्बकल्पजीवद्वारेण परस्मिन्नुच्यते।

(ब्र. सू. १/४/६ शां. भा. भामती)

वार्तिक-प्रस्थान और उसका विकास

११७ इसी प्रकार प्रतिबिम्बवाद की भी विवेचना की गयी है। पहला आक्षेप यह है कि नीरूप चैतन्य का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता। इसके समाधान में कहा जाता है कि जल में जैसे नीरूप आकाश का प्रतिबिम्ब पड़ता है अथवा जैसे नीरूप शब्द का प्रतिबिम्ब पड़ता है। उसी प्रकार नीरूप चैतन्य का भी प्रतिविम्ब पड़ सकता है। एक समाधान यह भी दिया जाता है कि चाक्षुष प्रतिबिम्ब के लिए ही रूपवान् द्रव्य का होना आवश्यक है, ब्रह्म के प्रतिबिम्ब के लिए यह नियम नहीं है।

  • इसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि बिम्ब से प्रतिबिम्ब का अभेद या तादात्म्य रहता है। अतएव प्रतिबिम्ब जीव में चैतन्य आता है। श्रीदामोदर शास्त्री सम्पादित वाक्यसुधा (पृ. २६) में कहा गया है -

उपाधिस्थितवैशिष्ट्येन प्रतिबिम्बस्य सत्यत्वम् । इस प्रकार बिम्ब के साथ प्रतिबिम्ब के तादात्म्य या अभेद होने से और प्रतिबिम्ब के सत्य होने से प्रतिबिम्बरूप जीव को कभी भी जीवत्व से मुक्ति नहीं हो सकती। और यदि बिम्ब से प्रतिबिम्ब का भेद माना जाय तो प्रतिबिम्ब में चैतन्य नहीं बन पाता। उसके समाधान में कहा जाता है कि बिम्ब से प्रतिबिम्ब में भेदमात्र का अध्यास होता है, प्रतिबिम्ब स्वरूपतः सत्य है। इस सिद्धान्त से प्रतिबिम्ब जीव का चैतन्य और बन्ध मोक्ष बन जाते हैं।

  • इसी प्रकार आभासवाद का भी विवेचन किया गया है। स्वच्छ स्फटिक के पास स्थित जपा कुसुम के रक्तत्व का आभास स्फटिक में पड़ता है और स्फटिको रक्तः कहा जाता है। यहाँ जैसे रक्तत्वाभास मिथ्या है। उसी प्रकार अज्ञान परिणामभूत अहंकार-रूप बुद्धि में पड़ा हुआ चिदाभास जीव मिथ्या है। अब इस पर यह कहा जाता है कि यदि यह आभास मिथ्या है तब चिदाभासरूप जीव भी मिथ्या है। इस स्थिति में जीव का न तो बन्धन बन पायेगा और न तो मोक्ष बन पायेगा। वाचस्पति मिश्र ने ब्रह्मसूत्र के रचनानुपत्त्यधिकरण (२/२/१) की भामती में प्रतिबिम्बववाद और आभासबाद दोनों पर यह आक्षेप उठाकर कहा है कि इन दोनों वादों के मानने पर वेदान्त में माध्यमिक मत का प्रवेश हो जायेगा

और इस प्रकार के आभासवाद स्वीकार करने पर जीव का सर्वथा नाश हो जायेगा। ____इसका समाधान अनेक प्रकार से किया जाता है। एक तो यह है कि जिस प्रकार बिम्बभूत जीव से प्रतिबिम्बभूत अभिन्न है या इन दोनों में तादात्म्य है। उसी प्रकार चिदाभास चित् से अभिन्न नहीं है, भिन्न भी नहीं है और भिन्नाभिन्न भी नहीं है, अपितु

अनिर्वचनीय है। वाक्य-सुधा (२६) की टीका में श्रीदामोदर शास्त्री ने कहा है

उपाधिस्थित वैशिष्ट्येन प्रतिबिम्बस्य सत्यत्वम् । आभासस्य न बिम्बधर्मो नाप्युपाधिधर्मों नापि स्वतन्त्रः।

अतः आभास के अनिर्वचनीय होने से चिदाभास जीव न तो मिथ्या है और न तो सत्य ही है। इस प्रकार बन्ध-मोक्ष व्यवहार की उपपत्ति की जाती है।११८

वेदान्त-खण्ड __ प्रतिबिम्ब तथा आभास में पार्थक्य यह है कि प्रतिबिम्ब में दर्पण के सम्मुख स्थित व्यक्ति के ग्रीवास्थ मुख की छाया दर्पण के अतिस्वच्छ तल पर पड़ती है और वही सम्मुख स्थित व्यक्ति की नेत्ररश्मि जाकर दर्पणतल से टकराकर परावर्तित होकर अपने ग्रीवास्थ मुख पर आती है और मुख का प्रत्यक्ष करती है। इस प्रकार ग्रीवास्थ मुख और दर्पण में प्रतिबिम्बित मुख दोनों एक कहे जाते हैं और इनमें अभेद माना जाता है। यही स्थिति चित्प्रतिबिम्ब की भी है। आभास में यह स्थिति नहीं है। आभास के लिए आभासाधार के सम्मुख स्थित होना आवश्यक नहीं है, और इसके लिए वस्तु का रूपवान होना भी अनिवार्य नहीं है। इसलिए वस्त्वाभास के समान जात्याभास तथा क्रियाभास भी होते हैं।।

विद्यारण्य स्वामी ने पंचदशी ग्रन्थ (तृ.प्र. १५) में और उनके साक्षात् शिष्य श्रीरामकृष्ण तथा परम्परया शिष्य श्री अच्युतराम ने अपनी-अपनी व्याख्या में अवच्छेदवाद, प्रतिबिम्बवाद एवं आभासवाद, इन तीनों को अन्ततः एक ही माना है। वास्तव में जितना अन्तर भामती-प्रस्थान और विवरण-प्रस्थान में है उतना अन्तर वार्तिकप्रस्थान तथा विवरण-प्रस्थान में नहीं है। यही कारण है कि अनेक परवर्ती आचार्य वार्तिक प्रस्थान तथा विवरण-प्रस्थान दोनों के अन्तर्गत रखे जा सकते हैं। फिर भी सम्प्रदायविद् के नाम पर सूत्र-भाष्य-वार्तिकविद् ही आते हैं और आभासवाद मुख्यतः वार्तिक-प्रस्थान का सिद्धान्त है। इस कारण विवरणप्रस्थान से भिन्न करके वार्तिक- प्रस्थान को माना जाता है। जितनी प्रामाणिकता आचार्य सुरेश्वर के ग्रन्थों की है, अद्वैतवेदान्त में शंकराचार्य के ग्रन्थों के अतिरिक्त उतनी प्रामाणिकता अन्य आचार्यों के ग्रन्थों की नहीं है। अतएव लोकोक्ति है-वार्तिकान्ता वेदान्ताः-अर्थात् वार्तिक तक ही वेदान्त ग्रन्थों में आप्तता है।

सहायक ग्रन्थ : (संपादक द्वारा संकलित)

१. सुरेश्वर, बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक, आनन्दगिरि टीका सहित, ३ भागों में,

आनन्द आश्रम, पूना, १८E२, १८६४. २. सुरेश्वर, नैष्कर्म्यसिद्धि, ज्ञानोत्तम चन्द्रिका टीका सहित, बनारस, १८६०. ३. सर्वज्ञात्मा, संक्षेपशारीरक, स्वामी रामानन्द की हिन्दी व्याख्या भावदीपिका सहित,

स्वामी रामानन्द, वाराणसी, १६५७।। ४. सर्वज्ञात्मा, संक्षेपशारीरक, रामतीर्थ स्वामी की टीका अन्वयार्थ प्रकाशिका सहित,

चौखम्बा , वाराणसी, १८१३। । ५. सुरेश्वर, संबन्ध वार्तिक, अंग्रेजी अनुवाद डा. टी. एम. पी. महादेवन् मद्रास

विश्वविद्यालय १६५८। ६. मंडन मिश्र, ब्रह्मसिद्धि, शंखपाणि की टीका सहित, संपादक और भूमिकाकार एस.

कुप्पूस्वामी शास्त्री, मद्रास गवर्नमेण्ट ओरियण्टल मैनुरिकष्ट सिरीज, मद्रास १६३७। ७. सुरेश्वर, पंचीकरण - षट्टीकोपेतम्, गुजराती प्रिन्टिंग प्रेस, बम्बई, १६३० में

पूना, १६

बार्तिक-प्रस्थान और उसका विकास

११ सम्मिलित पंचीकरण वार्तिक, उपाध्याय, वी.प्र.। ८. लाइट्स आन वेदान्त (सुरेश्वराचार्य का दर्शन), उपाध्याय, चौखम्बा, वाराणसी,

१६५ ६. सुरेश्वर, तैत्तिरीयोपनिषद् भाष्यवार्तिक, आनन्दज्ञान की टीका सहित, आनन्दाश्रम,

991 १०. सुरेश्वर, पञ्चीकरणबार्तिक, आनन्दगिरि टीका तथा नारायणेन्द्र सरस्वतीकृत वार्तिकाभरण

सहित, प्रकरणद्वादशी, महेश अनुसन्धान संस्थान, वाराणसी, १६८१ में सम्मिलित। ये दोनों टीकाएं उपर्युक्त टिप्पणी ७ में भी हैं। पंचीकरणवार्तिक को प्रणववार्तिक भी

कहते हैं। ११. सुरेश्वर, दक्षिणामूर्तिवार्तिक, सं. महेशानन्द गिरि, श्रीदक्षिणामूर्ति संस्कृत ग्रन्थमाला

आगरा, १६६३ । इसको मानसोल्लास भी कहते हैं। यह शंकराचार्य कृत दक्षिणामूर्तिस्तोत्र की टीका है। अमरनाथ राय इस स्तोत्र तथा इसके वार्तिक दोनों को अभिनवगुप्त की कृति मानते हैं, क्योंकि इनमें काश्मीर शैवमत के ३६ तत्त्वों का वर्णन है। देखिए, कार्लपाटर द्वारा संपादित इनसाइकलोपीडिया आफ इण्डियन फिलासफी, भाग ३, पृ.

५५०-५५१। १२. ऐल्स्टन, ए.जे., द नैष्कर्म्यसिद्धि आफ सुरेश्वर, शान्तिसदन, लन्दन, १६५६। १३. बालसुब्रह्मण्यम्, आर., द तैत्तिरीयोपनिषद् भाष्यवार्तिक आफ सुरेश्वर, मद्रास

विश्वविद्यालय, मद्रास, १६७६ । १४. द्विवेदी, हरिहरकृपालु, बृहदारण्यकवार्तिकसार (विद्यारण्यकृत), हिन्दी अनुवाद सहित।

अच्युतग्रन्थमाला, वाराणसी। १५. द्विवेदी, हरिहरकृपालु, वेदान्त-प्रबन्ध (स्रग्धरा वृत्त में) इसके केवल ७६ छन्द ही

मुद्रित हैं। द्विवेदी जी के पुत्र ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने वारणसी से इसे प्रकाशित किया था। संपादक के पुस्तकालय में यह ग्रन्थ है।

षष्ठ अध्याय