०४ भामती-प्रस्थान और उसका विकास

०१. भामती का परिचय

भामती वाचस्पति मिश्र की रचना है। यह शंकराचार्य के शारीरकभाष्य की विशद और मौलिक टीका है। इसके अतिरिक्त वाचस्पति मिश्र ने मंडनमिश्र की ब्रह्मसिद्धि पर ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा नामक एक टीका लिखी थी जो अब अनुपलब्ध है। इसका उल्लेख वाचस्पति मिश्र ने भामती में कई स्थानों में किया है। उदाहरण के लिए ब्रह्मसूत्र ३/३/५४ के भाष्यभामती में वे कहते हैं कि-न च विषयभेदग्राहि प्रमाणमस्तीति चोपपादितं ब्रह्मतत्त्वसमीक्षायामस्माभिः -विषयभेद का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है, इसको मैने ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा में सिद्ध किया है। वेदान्त के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों पर भी वाचस्पति मिश्र की कृतियां हैं। न्यायशास्त्र पर न्यायसूचीनिबन्ध और न्यायवार्तिकतात्पर्य, सांख्यदर्शन में सांख्यकारिका की टीका तत्त्वकौमुदी, योगदर्शन में पतंजलि के योगसूत्र पर व्यासभाष्य की टीका तत्त्ववैशारदी, पूर्वमीमांसा में एक प्रकरण ग्रन्थ तत्त्वबिन्दु और मंडन मिश्र के विधिविवेक पर न्यायकणिका नामक टीका उनके ग्रन्थ हैं। न्यायसूचीनिबन्ध उनकी पहली रचना है। इसका रचनाकाल उन्होंने शक संवत् ८६८ अर्थात् ६७६ ई. बताया है -

न्यायसूचीनिबन्धोऽसावकारि सुधियां मुदे।

श्रीवाचस्पतिमिश्रेण वस्वङ्कवसुवत्सरे।। इस प्रकार उनका समय निश्चित है। वे दसवीं शताब्दी के एक श्रेष्ठ सर्वतंत्रस्वतंत्र दार्शनिक हैं। नैयायिक लोग उन्हें मुख्यतः नैयायिक ही मानते हैं और उनको तात्पर्याचार्य के नाम से सम्बोधित करते हैं। प्राचीन न्यायदर्शन के विकास में उनके न्यायवार्तिकतात्पर्य की संरचनात्मक भूमिका भी है। उस पर उदयन -जैसे नैयायिक ने परिशुद्धि नामक टीका लिखी है जिससे उसके गौरव में वृद्धि हुई है।

। तथापि लगता है कि वाचस्पति मिश्र न्यायदर्शन से आरंभ कर के सांख्य-योग दर्शन तक पहुंचे थे और पुनः वहाँ से पूर्वमीमांसा का मार्ग पकड़कर वेदान्त तक पहुँचे थे। भामती उनकी अन्तिम रचना प्रतीत होती है। इसके अन्त में वे कहते हैं, “जो पुण्य मैने न्यायकणिका, ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा, तत्त्वबिन्दु, तत्त्वकौमुदी (सांख्यनिबन्ध), तत्त्ववैशारदी” (योगनिबन्ध)

और भामती (वेदान्तनिबन्ध) लिखकर प्राप्त किया है उसके फल को परमेश्वर को चढ़ाता हूँ। परमेश्वर मुझसे प्रसन्न हो"।

वेदान्त-खण्ड

यन्न्यायकणिकातत्त्वसमीक्षा तत्त्वबिन्दुभिः यन्न्यायसांख्ययोगानां वेदान्तानां निबन्धनैः।। समचैष महत्पुण्यं तत्फलं पुष्कलं मया। समर्पितमथैतेन प्रीयतां परमेश्वरः ।।।

इस प्रकार वाचस्पति मिश्र की दार्शनिक प्रगति का अपना महत्त्व है। कुछ लोग कहते हैं कि भामती वाचस्पति मिश्र की पत्नी थी जिसकी उन्होंने यावत् जीवन उपेक्षा की थी। किन्तु वह प्रतिव्रता और सेवापरायणा थी। उसका नाम अमर करने के लिए उन्होंने अपनी

अन्तिम कृति का नाम भामती रख दिया था। कुछ भी हो, भामती मात्र एक ग्रन्थ ही नहीं है, उसके नाम से अद्वैतवेदान्त में एक सम्प्रदाय स्थापित हो गया है। अन्ततोगत्वा वाचस्पति मिश्र अद्वैतवेदान्ती हो गये थे और अन्य दर्शनों का समन्वय उन्होंने अद्वैतवेदान्त से कर लिया था। फिर, यत्परः शब्दः स शब्दार्थः, इस न्याय पर उनका यह समन्वय आधृत है। उन्होंने ही वेदान्त के क्षेत्र में सर्वप्रथम बादरायण और वेदव्यास को अभिन्न किया है। उनके पूर्व ब्रह्मसूत्र के रचयिता बादरायण माने जाते थे। परन्तु उन्होंने उनको भगवान् विष्णु की ज्ञान-शक्ति का अवतार वेदव्यास कहा -

ब्रह्मसूत्रकृते तस्मै वेदव्यासाय वेधसे। ज्ञानशक्त्यवताराय नमो भगवतो हरेः।।

(भामती, मंगलश्लोक ५)

वाचस्पति मिश्र ने ही सबसे पहले कहा कि बादरायण व्यास या विष्णु के अवतार हैं और शंकराचार्य भगवान शंकर के अवतार हैं । तब से यह मान्यता अद्वैतवेदान्त में सुदृढ़ हो गयी है।

न्यायकणिका का उल्लेख वाचस्पति मिश्र ने भामती में अध्यासभाष्य के अन्तर्गत और वर्णवाद की व्याख्या के प्रसंग में किया है। भामती १.३.२८ में वे कहते हैं कि इस प्रसंग का विस्तृत विवेचन न्यायकणिका में किया गया है। कल्पतरुकार अमलानन्द कहते हैं कि भामती ग्रन्थ मात्र शारीरकभाष्य की व्याख्या नहीं है। उसमें कई स्थलों पर बौद्ध इत्यादि विरुद्ध सिद्धान्तों के स्वतन्त्र खण्डन भी किये गये हैं, अज्ञान को दूर किया गया है और ब्रह्मबोध को स्थिर किया गया है। (देखिए भामती की पुष्पिका के द्वितीय श्लोक की व्याख्या)। इस प्रकार भामती की मौलिकता को स्वयं भामतीकार तथा उनके टीकाकार ‘भलीभांति समझते थे। उसके मौलिक योगदानों को संगठित करके भामती-प्रस्थान का निर्माण हुआ है। अमलानन्द सरस्वती को भामती प्रस्थान के संस्थापकत्व का श्रेय दिया

जा सकता है।

भामती-प्रस्थान और उसका विकास

०२. भामती की टीकाएं

भामती पर अमलानन्द सरस्वती ने वेदान्तकल्पतरु नामक एक टीका लिखी है जिसने भामती-प्रस्थान को अद्वैतवेदान्त के क्षेत्रों में प्रतिष्ठा प्रदान की है। उनका कल्पतरूकार के नाम से सामान्यतः संबोधित किया जाता है। उन्होंने भामती को शारीरक भाष्य का वार्तिक कहा है-“ननु टीकायां दुरुक्तचिन्ता न युक्ता, वार्तिके हि सा भवति, तर्हि वार्तिकचमस्तु न हि वार्तिकस्य शृंगमस्ति” (कल्पतरु २.४.१६)।

उनकी एक अन्य रचना है शास्त्रदर्पण जो भामती के आधार पर लिखी गई ब्रह्मसूत्र की एक स्वतंत्र कृति है। उसमें ब्रह्मसूत्र के सभी विषयों का विचार अधिकरणानुसार किया गया है। अतएव, उसे ब्रह्मसूत्राधिकरण व्याख्या कहा जाता है। उसके आरम्भ में ही

अमलानन्द ने लिखा है कि इसमें वाचस्पति मिश्र के मत का प्रतिबिम्ब है

वाचस्पतिमतिबिम्बितमादर्शप्रारभे विमलम् । शास्त्रदर्पण की रचना वेदान्तकल्पतरु के बाद हुई थी, क्योंकि शास्त्रदर्पण में वेदान्तकल्पतरु का नाम-उल्लेख किया गया है- पूर्वपूर्वाध्यासिकस्य देहादेः संस्कारारूढस्य उत्तरोत्तराध्यासोपयोगित्वेन बीजांकुरवद् अनादित्वेन अभ्युपगमात्। उपपादितं चैतद्

वेदान्तकल्पतरौ।

उनका समय डा. सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त के अनुसार १२४७-१२६६ ई. है।

अमलानन्द ने “जन्माद्यस्य यतः” को ब्रह्म का उपलक्षण (तटस्थ लक्षण) तथा ‘सत्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" को ब्रह्म का स्वरूप-लक्षण कहा है। स्वरूपं सद् व्यावर्तकं स्वरूपलक्षणाम्। कादाचित्कत्वे सति व्यावर्तकं तटस्थलक्षणम्-ऐसी इन दोनों लक्षणों की परिभाषा है।

अमलानन्द के वेदान्तकल्पतरु पर निम्न टीकाएं हैं - (१) अप्पयदीक्षित (१६०० ई.) कृत वेदान्तकल्पतरुपरिमल जिसे संक्षेप में परिमल

कहा जाता है। (२) लक्ष्मीनृसिंह (१६६० ई.) कृत आभोग । (३) वैद्यनाथ पायगुण्डे कृत वेदान्तकल्पतरुमंजरी। (४) अज्ञातकर्तृक कल्पतरु व्याख्या

इन टीकाओं के कारण कल्पतरु का महत्त्व बढ़ गया है। वेदान्तकल्पतरु के अतिरिक्त भामती पर निम्न अन्य टीकाएं भी हैं - (9) वल्लालसूरिकृत भामतीतिलक। (२) अखंडानुभूति यतिकृत ऋजुप्रकाशिका। (३) अच्युतकृष्णतीर्थकृत भामतीभावदीपिका। (४) अज्ञातकर्तृक - भामतीयुक्त्यर्थसंग्रहवेदान्त-खण्ड (५) सुब्रह्मण्यशास्त्रीकृत भामतीविवरण (६) लक्ष्मीनाथ झा कृत चतुःसूत्री -भामती-टीका-प्रकाश (७) स्वयं प्रकाशानन्द सरस्वती : वेदान्तनयभूषण।

वस्तुतः वेदान्तकल्पतरु की प्रकाशित टीकाएं दो ही हैं - अप्पयदीक्षितकृत परिमल और लक्ष्मीनृसिंहकृत आभोग । इन दोनों टीकाओं में कहीं-कहीं दृष्टिभेद है। जहाँ-जहाँ भामती और कल्पतरु में शंकराचार्य के शारीरकभाष्य से कुछ असमानताएं हैं वहाँ-वहाँ अप्ययदीक्षित ने भामती और कल्पतरू का खण्डन करके शारीरकभाष्य का समर्थन किया है। किन्तु आभोगकार ने परिमल की ऐसी व्यवस्थाओं की तीव्र आलोचना की है और भामतीकार तथा कल्पतरूकार का समर्थन किया है। इस प्रकार भामती- प्रस्थान के अन्दर भी दो उपप्रस्थान बन गये हैं। आभोगकार ने कल्पतरुकार की आलोचना को एक कदम और आगे बढ़ाया। उत्तरोत्तरम ऋषीणां प्रामाण्यम इस न्याय के आधार पर भामती-प्रस्थान का विकास उनके द्वारा हुआ है।

०३. भामती-प्रस्थान की प्रामाणिकता

वाचस्पति मिश्र ने पद्मपाद की पंचपादिका का कहीं-कहीं खण्डन किया है। अमलानन्द सरस्वती ने इस खण्डन को और उजागर कर दिया है। एक स्थान पर वे कहते

पंचपादीकृतस्तु वाजसनेयिवाक्यस्यापि आत्मोपक्रमत्वलाभे किं शास्त्रानन्तरालोचनयेति पश्यन्तः पुरुषमनूद्य वैश्वानरत्वं विधेयमिति व्याचक्षते, तद् दूषयति

(कल्पतरु १.२.२६)। वस्तुतः प्रकाशात्मा ने विवरण में भामती का प्रबल खण्डन किया है। विवरणप्रस्थान के अनुयायी अनुभूतिस्वरूप ने प्रकटार्थविवरण में वाचस्पति के ऊपर अनेक दोष आरोपित किये हैं जिनमें निम्न दोषारोपण मुख्य हैं -

१. वाचस्पति मिश्र मण्डनपृष्ठसेवी हैं और सूत्र और भाष्य के अर्थ से अनभिज्ञ हैं।

वाचस्पतिस्तु मण्डनपृष्ठसेवी सूत्रभाष्यार्थानभिज्ञः (प्रकटार्थविवरण पृ. ६८t). २, वाचस्पति मिश्र को कुश’ शब्द के अर्थ का ज्ञान नहीं था (प्रकटार्थविवरण

३. वाचस्पति मिश्र अन्यथाख्याति को मानते है, जबकि अद्वैतवेदान्त में अनिर्वचनीयख्यातिबाद

को माना जाता है। ४. चाचस्पति मिश्र ने श्रवण को मनन से कम महत्त्व दिया है, परन्तु यह वस्तुतः लज्जा

का विषय है।

भामती-प्रस्थान और उसका विकास विधिसामर्थ्यमाश्रित्य ब्रुवन्नामुष्मिकं फलम्।

श्रवणादेः कथंकारं वाक्पति न च तत्र ये।।

(प्रकटार्थविवरण पृ. ६६५) ऐसे सभी आरोपों का प्रतिवाद अमलानन्द सरस्वती ने किया है। सर्वप्रथम, उन्होंने कहा है कि यह कहना दुःसाहस है कि वाचस्पति मिश्र को किसी शब्द का अर्थ नहीं ज्ञात था या उन्हें सूत्र और भाष्य के अर्थ अज्ञात थे, क्योंकि वे पदवाक्यप्रमाणज्ञ थे।

पदवाक्यप्रमाणाब्धेः परं पारमुपेयुषः। वाचस्पतेरित्यर्थेऽप्यबोध इति साहसम्।।

(कल्पतरू ३.३.२६) दूसरे, जहाँ तक वाचस्पति मिश्र के मण्डनपृष्ठसेवी होने का प्रश्न है, वहाँ यह विवेच्य है कि वाचस्पतिमिश्र ने स्थितप्रज्ञ को जीवन्मुक्त माना है, जबकि मण्डनमिश्र ने उसे मात्र साधक कहा है। वाचस्पतिमिश्र ने यहाँ मण्डनमिश्र के मत का खण्डन किया है -

स्थितप्रज्ञश्च न साधकः, तस्य उत्तरोत्तरध्यानोत्कर्षण पूर्वप्रत्ययानवस्थितत्वात्। निरतिशयस्तु स्थितप्रज्ञः। स च सिद्ध एव ।

(भामती ४.१.१५) तीसरे, जहां तक अन्यथाख्यातिवाद का आरोप है वह भी गलत है। अमलानन्द सरस्वती ने दिखाया है कि यह वाचस्पति मिश्र के ख्यातिवाद की ‘भान्त व्याख्या है क्योंकि वे भी अनिर्वचनीय ख्यातिवादी हैं -

स्वरूपेण मरीच्यम्भो मृषा वाचस्पतेर्मतम् ।

अन्यथाख्यातिरिष्टास्त्येत्यन्यथा जगृहुर्जनाः।।

(भामतीकल्पतरुपरिमल पृ. २४) चौथै, पुनश्च श्रवण-विधि वाचस्पति मिश्र को अस्वीकार्य नहीं है क्योंकि उनके मत से वह शास्त्र अध्ययन से उत्पन्न होती है। अमलानन्द कहते हैं -

अपि संराधने सूत्राच्छास्त्रार्थध्यानजा प्रमा शास्त्रदृष्टिमता तां तु वेति वाचस्पतिः परम् ।।

(भामतीवेदान्तकल्पतरु, पृ. २१८) । इस प्रकार अमलानन्द सरस्वती ने सिद्ध किया है कि वाचस्पति मिश्र ने भी सनातन वैदिकमार्ग या अद्वैतवेदान्त के मार्ग का संरक्षण किया है। कल्पतरु के मंगलाचरण में वे कहते हैं -

वेदान्त-खण्ड

वैविकमार्ग वाचस्पतिरपि सम्यक सुरक्षितं चक्र।

नयविजितवादिदैत्यः स जयति विबुधेश्वराचार्यः।। वास्तव में वाचस्पति मिश्र अद्वैतवेदान्त को सभी दर्शनों का मुकुट मानते हैं। अन्य दर्शनों से अद्वैतवेदान्त का समन्वय उन्होंने जिस आधार पर किया है वह ‘यत्परः शब्दः स शब्दार्थः’ यह न्याय है। अर्थात प्रत्येक दर्शन की अपनी एक भूमिका है जहां वह पूर्ण सत्य है। न्याय के वैपुल्यवाद में सांख्य का द्वैतवाद निहित है। सांख्य के द्वैतवाद में योग का ईश्वरवाद निहित है। योग के ईश्वरवाद में अद्वैतवेदान्त का ब्रह्मवाद निहित है। जो निहित हैं उसका स्पष्टीकरण नवीन है, परन्तु वह अपने निथान का निराकरण नहीं करता। अन्त में, यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि यद्यपि वाचस्पति मिश्र मण्डनपृष्ठसेवी नहीं हैं, तथापि उन्होंने मण्डन मिश्र के कुछ मतों को स्वीकार किया है क्योंकि वे न्यायसंगत हैं। इन मतों में से निम्नलिखित मत विशेषतः सल्लेखनीय हैं - १. वाचस्पति मिश्र मण्डन मिश्र की ही भाति मानते हैं कि जीव अविद्या का आश्रय है, ब्रह्म नहीं। अमलानन्द ने इस मत को श्रुति और भाष्य के अनुकूल बताया है

जीवस्थाया अविद्याया विषयं ब्रह्म शुक्तिवत्। ऊचे वाचस्पतिर्भाष्यश्रुत्योर्हृदयवेदिता।।

(कल्पतरु १.४.११) अतः भामती-प्रस्थान में माना जाता है कि अविद्या का आश्रय जीव है और विषय

ब्रह्म है। इस मत पर मण्डन मिश्र का प्रभाव है। २. मण्डनमिश्र ने शब्दजन्य ज्ञान को परोक्ष माना है। ऐसा ही वाचस्पति मिश्च मानते

हैं। वे कहते हैं –

निर्विचिकित्स वाक्यार्थ भावनापरिपाकाहितमन्तः करणं त्वंपदार्थस्य अपरोक्षस्य तत्तदुपाध्याकारनिषेधेन तत्पदार्थताम् अनुभावयति

(भामती १.१.9) कल्पतरूकार ने इसी मत का यों स्पष्टीकरण किया है -

वेदान्तवाक्यजज्ञानभावनाजाऽपरोक्षधीः।

मूलप्रमाणदायेन न भ्रमत्वं प्रपद्यते।। ३. असत्यं च सत्यप्रतिपत्तेः, ऐसा कहकर मण्डन मिश्र ने ब्रह्मसिद्धि (पृ. १३-१४) में

प्रतिपादित किया है कि असत्य से सत्य का बोध होता है। इसी को वाचस्पति मिश्र

भामती-प्रस्थान और उसका विकास भी मानते हैं। कतकरजोमल न्याय में इस विधि का समावेश हो गया है। जैसे कतकरज मल को नष्ट करते हुए स्वयं अपने को भी नष्ट कर देता है वैसे अज्ञान

भी अपने विषय को दूर करते हुए अपने को नष्ट कर देता है। ४. निषेधार्थक वेदान्त-वाक्यों का तात्पर्य ब्रह्मपरक, ऐसा मण्डन मिश्र ने निम्न कारिका

में कहा है

आमनायस्य प्रसिद्धिं च कवयोऽस्य प्रचक्षते।

भेदप्रपंचविलयद्वारेण च निरूपणम् ।। वाचस्पति मिश्र ने मण्डन मिश्र के उक्त वाक्य को भामती में उद्धृत भी किया है। वे प्रपंचविलयवाद को आत्मसाक्षात्कार में उपयोगी पाते हैं। अतः इसका खंडन वे वैसा नहीं करते जैसा शंकराचार्य करते हैं। इस प्रकार वाचस्पति मिश्र विचारपूर्वक मण्डन मिश्र के कुछ मतों को स्वीकार करते हैं और कुछेक का खण्डन करते हैं। उनके ऊपर मण्डन मिश्र का प्रभाव अवश्य है, परन्तु वे मण्डनपृष्ठसेवी नहीं कहे जा सकते हैं। उनकी ब्रह्मसिद्धि-टीका का नाम ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा है। इससे स्पष्ट है कि वे मण्डन मिश्र के मतों के व्याख्याकार नहीं अपितु समीक्षक हैं।

०४. शंकर और वाचस्पति

वाचस्पति मिश्र ने शंकराचार्य को विशुद्धविज्ञान तथा करुणाकर कहा है। उनके शारीरकभाष्य को उन्होंने प्रसाद गुण से पूर्ण तथा अत्यन्त गम्भीर माना है, गंगा के समान उसे पवित्र और पावन कहा है। अपने ग्रन्थ को वे अपवित्र मानते हुए कहते हैं कि उनके शारीरकभाष्य रूपी गंगा से मिल जाने के कारण उनकी कृति भामती भी पवित्र हो गयी है (देखिए भामती का मंगलाचरण)।

भामती ने निस्सन्देह शारीकरभाष्य की रक्षा की है। विशेषतः उन दर्शनों से जिनका खण्डन स्वयं शंकराचार्य ने तर्कपाद में किया था। वाचस्पति मिश्र के समय में बौद्ध, जैन, सांख्य, वैशेषिक, पाशुपत और पांचरात्र दर्शनों के आचार्यों ने शंकर के खण्डनों का प्रतिवाद किया था। वाचस्पति मिश्र ने इस प्रतिवाद का निराकरण किया है और अनेक उद्धरण तथा प्रमाण देकर शंकराचार्य की आलोचना-दिशा को पुनः प्रतिष्ठापित किया है। शारीरकभाष्य के तर्कपाद को जितना भामती ने प्रामाणिक, तथ्यसंगत और युक्तियुक्त बनाया है उतना किसी अन्य टीका ने नहीं। यही कारण है कि तार्किकों के जगत् में शंकर और वाचस्पति मिश्र मूर्धन्य तर्कविद् माने जाने लगे। परवर्ती सभी आचार्यों ने इन दोनों आचार्यों को किसी-न-किसी रूप में आदर्श माना है। उनको आदर्श नैयायिक मानते हुए ही शंकर मिश्र

और अभिनव वाचस्पति मिश्र की तुलना उनसे की गयी है। (देखिए मेरा ग्रन्थ, शंकर मिश्र, दर्शनपीठ, इलाहाबाद)।

वेदान्त-खण्ड

फिर भी शंकर और बाचस्पति मिश्र के मतों में कुछ अन्तर है। इस अन्तर को सर्वप्रथम अमलानन्द ने यों प्रकट किया है -

स्वशक्त्या नटवद् ब्रह्म कारणं शकरोऽब्रवीत्। जीवभ्रान्तिनिर्मितं तद् बभासे भामतीपतिः ।। अज्ञातं नटवद् ब्रह्म कारणं शकरोऽब्रवीत्। जीवाज्ञानं जगद्बीजं जगी वाचस्पतिस्तथा।।

(कल्पतरु पृ. ४७१). शंकराचार्य ने माना कि स्वशक्ति से ब्रह्म जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है किन्तु वाचस्पति मिश्र ने माना कि जो ब्रह्म जगत का कारण है वह जीव के प्रम का विषय है। शंकराचार्य ने कहा कि जगत् का कारणरूप ब्रह्म जीवों को अज्ञात है। वाचस्पति मिश्र ने माना कि जीव का अज्ञान ही जगत् का कारण है। यहां यथार्थतः शंकर-मत और वाचस्पति-मत में कोई अन्तर नहीं है। वाचस्पति मिश्र ने केवल शंकर के मत का अधिक स्पष्टीकरण कर दिया है। शंकर और वाचस्पति दोनों ही माया-संबंध से युक्त ब्रह्म को जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण मानते हैं। यथार्थतः शुद्ध ब्रह्म कारण-कार्य से परे

गंगाधरेन्द्र सरस्वती वेदान्तसूक्ति मंजरी में वाचस्पति मिश्र के इस मत को यों व्यक्त करते हैं -

ब्रह्मव जीवाश्रितयाऽविद्यया विषयीकृतम्।

वाचस्पतिमते हेतुर्माया तु सहकारिणी।। अर्थात् वाचस्पति के मत में जीवाश्रित अविद्या से विषयीकृत ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है तथा माया सहकारिणी कारण है। जीवाश्रिताविद्या विषयीकृत ब्रह्म ही जगद्-आकार में विवर्तमान होता है। जो अकारण है वह भी द्वारकारण या सहकारी कारण हो जाता है, जैसे मृत्तिका का चिकनापन घट का सहकारी कारण हो जाता है। एवमेव माया अकारण होते हुए भी जगत् का सहकारी (= द्वार) कारण हो जाती है। सामान

परन्तु भामती में कई स्थलों पर वाचस्पति मिश्र ने शंकराचार्य की आलोचना भी की है। इन स्थलों में निम्न को उदाहरणार्थ लिया जा सकता है - १. ब्रह्मसूत्र १/१/३१ के भाष्य में शंकराचार्य ने त्रिविध ब्रह्मोपासना का वर्णन किया है

प्राणधर्मेण, प्रज्ञाधर्मेण और स्वधर्मेण । फिर भी उन्होंने यहाँ वाक्यभेद नामक दोष नहीं माना। प्रस्तुत प्रसंग कौषीतकि उपनिषद् ३/१-३ का है जहाँ प्रतर्दन ने ब्रह्म को प्राण कहा और फिर प्राण की विविध

E३

भामती-प्रस्थान और उसका विकास उपासना का निर्देश किया है। शंकराचार्य कहते है कि यहां उपक्रम - उपसंहार के बल पर प्राण शब्द का सर्वत्र ब्रह्म ही अर्थ है, अतएव वाक्य-भेद नहीं है, अपितु एकवाक्यता है।

किन्तु वाचस्पति कहते हैं - प्राणोपासना विधेय है। विधेय के भेद से विधि में वाक्य-भेद स्फुट है। किन्तु भाष्यकार ने इसका उद्घाटन नहीं किया-‘तद् अनूद्य अप्राप्तोपासना भावार्थो विधेयस्तस्य च भेदात् विध्यावृत्तिलक्षणो वाक्यभेदोऽतिस्फुट इति भाष्यकृता नोद्घाटितः।’ २. भाष्यकार ने ब्रह्मसूत्र २/३/५१ के भाष्य में सांख्यदर्शन के अदृष्टवाद पर दोषारोपण

किया है और वही दोष (अनियमत्व) वैशषिक दर्शन के अदृष्टवाद पर लगा दिया है। वाचस्पति मिश्न ने इसे गलत बताते हुए कहा कि यह भाष्यकार का प्रौढ़िवाद है :

भाष्यकृता तु प्रौढवादितया काणादान प्रति अपि अदृष्टानियमादित्यादीनि सूत्राणि योजितानि।

सांख्यमतदूषणपराण्येवेति तु रोचयन्ते केचित् तदास्तां तावत् । ३. ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ सूत्र में भाष्यकार ने अथ का अर्थ आनन्तर्य किया है। किन्तु

वाचस्पति मिश्र ऐसा नहीं मानते हैं। वे कहते हैं -‘न वयम् आनन्तर्यार्थतां व्यसनितया रोचयामहे, किन्तु ब्रह्म जिज्ञासाहेतुभूतपूर्वप्रकृतसिद्धये। न तावत् यस्य कस्यचिद् अत्र आनन्तर्यमिति वक्तव्यं, तस्य अभिधानमन्तरेणापि प्राप्तत्वात्।’

अर्थात् ब्रह्मजिज्ञासा जिसके अनन्तर उत्पन्न होने वाली कही जाती है उसके बिना भी संभव है। उसका कोई नियतपूर्ववर्ती हेतु नहीं है, ऐसा वाचस्पति कहते हैं। परन्तु भाष्यकार उसके नियत पूर्ववर्ती हेतुओं को स्वाध्याय तथा साधन-चतुष्टय के रूप में बताते हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि वाचस्पति ने निष्पक्षतापूर्वक शंकराचार्य के मतों की समालोचना की है। आलोचना के बावजूद भी वे भाष्यकार को बड़ा सम्मान देते हैं। अपनी आलोचनाओं के द्वारा ही वे अद्वैतवेदान्त का विकास करने में सफल हुए हैं। निःसन्देह वे एक महान समीक्षक थे। उनकी समीक्षा-पद्धति अनुसन्धेय है।

०५. भामती-प्रस्थान और विवरण-प्रस्थान का अन्तर

भामती-प्रस्थान का मुख्य भेद विवरण-प्रस्थान से है। इन दोनों प्रस्थानों में प्रायः निम्न भेद किये जाते हैं :

भामती-प्रस्थान १. श्रवण में कोई विधि नहीं है। २. जीवाश्रित अविद्या का विषय

ब्रह्म जगत् का कारण है। ३. जीव ब्रह्म का अवच्छेद है।

विवरण-प्रस्थान १. श्रवण में नियम-विधि है। २. ईश्वर जगत् का कारण है।

३. जीव ईश्वर का प्रतिबिम्ब है।

६४

वेदान्त-खण्ड

४. अविद्या का आश्रय जीव तथा ४. अविद्या का आश्रय और

विषय ब्रह्म है।

विषय दोनों ब्रह्म है। ५. मन एक इन्द्रिय है।

मन इन्द्रिय नहीं है। ६. श्रवण, मनन और निदिध्या- ६. महावाक्य से आत्मसाक्षात्कार

सन से संस्कृत मन से

होता है। शब्द से अपरोक्ष ज्ञान होता है। आत्म-साक्षात्कार होता है।

यह मत शब्दपरोक्षवाद है। शब्द से केवल परोक्ष ज्ञान होता है। ७. अविद्या अनेक है। वह प्रति ७. अविद्या एक है।

जीव भिन्न है। ८. जीव अनेक है। नाना-जीव-वाद। ८. जीव एक है। एक जीववाद। ६. ईश्वर अनेक हैं।

६. ईश्वर एक है। वह बिम्बभूत है। १०. ईश्वर कल्पित है ‘मायिनं १०. ईश्वर परम सत् है।

तुमहेश्वरम्’ (श्वेताश्वतर) ११. याग आदि कर्म विविदिषा के ११. याग आदि कर्म ज्ञान के साधन

साधन हैं, ज्ञान के नहीं। १२. संन्यास में ज्ञान की अंगता १२. संन्यास में ज्ञान की अंगता दृष्ट

अदृष्ट के द्वारा है।

के द्वारा है। १३. सभी श्रुतियां प्रत्यक्ष से बलवान् १३. तात्पर्यवती श्रुतियां भी प्रत्यक्ष

नहीं हैं किन्तु तात्पर्यवती श्रुति से बलवान नहीं हैं। उनका अर्थ प्रत्यक्ष से बलवान् है। जो अन्य लक्षणा द्वारा ही किया जाता है।

श्रुतियां हैं वे अर्थवाद मात्र हैं। १४, दृष्टि-सृष्टिवाद द्वारा जगत् की १४. सृष्टिदृष्टिवाद द्वारा जगत् की व्याख्या की जाती है।

व्याख्या की जाती है। १५. त्रिवृत्करण प्रक्रिया मान्य है। १५. पंचीकरण प्रक्रिया मान्य है। इस

इससे स्पष्ट है कि पंचीकरण मत को वार्तिक-प्रस्थान की भांति नामक ग्रन्थ वाचस्पति के मत विवरण-प्रस्थान भी मानता है। से आचार्य शंकरकृत नहीं है।

०६. निष्प्रपंच ब्रह्मवाद

शंकराचार्य के निगुणब्रह्मवाद का व्याख्यान करते हुए वाचस्पति मिश्र ने ब्रह्मवाद को निम्नलिखित युक्तियों से सिद्ध किया है जिनमें आत्मा और ब्रह्म को अभिन्न किया गया है।

भामता प्रस्थान और उसका विकास १. सर्वस्य हि प्रपंचजातस्य ब्रह्मैव तत्त्वमात्मा (भामती १.४.४)। समस्त प्रपंच की आत्मा ब्रह्म है, क्योंकि वही समस्त प्रपंच का ज्ञाता है। किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि आत्मा अहं-प्रत्यय-विषय है, कर्ता, भोक्ता और संसारी है। वास्तव में जो अहं-प्रत्ययविषय है, कर्ता, भोक्ता और संसारी है वह जीव है। वह कार्यकारण-संघात से उपहित है। आत्मा उसका साक्षी है । वह निरूपाधक सत् है। अतएव वह कार्यकारणसंघातोपहित जीव से भिन्न है। यह आत्मा केवल उपनिषद्गोचर है, अन्य प्रमाणों से यह गोचर नहीं है। ____२. यद्यपि आत्मा श्रुति-गोचर है तथापि शुति का अनुवाद करने वाले स्मृति, इतिहास

और पुराण तथा उनके अविरुद्ध न्याय से भी वह सिद्ध है। आत्मा परमार्थ सत है। जो परमार्थ सत् है वही विकारों को जन्म देने वाली प्रकृति है । जैसे, रज्जु सर्प-भान्त को जन्म देती है वैसे ब्रह्म या आत्मा विकारों को जन्म देता है। यदि कहो कि उपाधि के निराकरण के साथ उपहित का भी निराकरण हो जायेगा तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अधिष्ठान के अभाव में विभ्रम नहीं हो सकता। प्रपंच-विभ्रम का अधिष्ठान वह प्रकाश है जो सर्वात्मा है - “प्रकाशो हि सर्वस्यात्मा तदधिष्ठानत्वाच्च प्रपचविसमस्य न च चाधिष्ठानाभावे विमो भवितुमर्हति” (भामती १.१.४)। अतएव आत्मा अप्रत्याख्येय है।

३. पुरुषान्तो विकारनाशः शुक्तिरज्जुतत्त्वान्त इव रजतमुजंगविनाशः । जैसे भुजंग का विनाश रज्जुतत्त्वज्ञान पर्यन्त होता है, जैसे रजत का विनाश शुवित्त-तत्वज्ञान तक होता है, वैसे समस्त प्रपंच का विनाश पुरुष-पर्यन्त होता है। पुरुष का विनाश नहीं होता। सभी नश्वर वस्तुएं अन्ततः उसी अविनाशी पुरुष के अस्तित्व को सिद्ध करता है।

४. चिदात्मा सत्ता शब्द से निर्वाच्य है। उसकी सत्ता अबाधित और स्वयंप्रकाश है। वह चिदात्मा का स्वरूप है। उससे अतिरिक्त वह सत्ता सामान्य समवाय या अर्थक्रियाकारिता नहीं है, क्योंकि इनमें द्वैतापत्ति है।

५. आत्मा कूटस्थ नित्य है। वह परिणामि नित्य नहीं है। जो परिणामि नित्य है वह प्रत्यभिज्ञाकल्पित है और मिथ्या है। उसका अधिष्टान कूटस्थ नत्य है जो आत्मा का स्वरूप

६. सत्ता की अनवृत्ति सर्वत्र है। उसमें कहीं कोई विभाग नहीं है। सत्तानुवृत्या च सर्ववस्त्वनुगमे इदमिह नेदम्, इदमस्मान्नेदम्, इदमिदानी नेदम्, इदमेवं नेदमिति विभागो न स्यात्। कस्यचित् क्वचित् कदाचित् कथंचिद् विवेकहेतोरभावात् (भामती १.१.४)।

७. यद्यपि ब्रह्म निष्प्रपंच है तथापि वह द्विविध अविद्या, मुलाविद्या (कारण-अविद्या) और तूलाविद्या (कार्य-अविद्या) के सहयोग से सम्रपंच हो जाता है और आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी ये पांच महाभूत उसके विवर्त हो जाते हैं। निष्प्रपंच ब्रह्म निर्विशेष, निर्गुण निराकार है। सप्रपच ब्रह्म सविशेष, सगुण, साकार है। प्रथम का नान जिन श्रुतियों से होता है उन्हें अभेद–श्रुति कहा जाता है। दूसरे का ज्ञान जिनसे होता है उन्हें भेद- श्रुति कहा जाता है। भेद-श्रुतियों का तात्पर्य उपासना है, न कि भेदतत्त्व की स्थापना। इस उपासना

वेदान्त-खण्ड से अभेद स्थापित होता है एक विषय पर ध्यान केन्द्रित होने के कारण। इसके विपरीत अभेद-श्रुतियों का तात्पर्य अभेद की स्थापना है, एक और अद्वितीय सत् का ज्ञान कराना

यहाँ वाचस्पति मिश्र कहते हैं-विशेष ब्रह्म पारमार्थिक है और सविशेष ब्रह्म उस पर अध्यारोपित है, वह सोपाधिक है। जैसे स्वभावतः स्वच्छ स्फटिक मणि में लाक्षारस के संपर्क से लालिमा आरोपित होती है, वैसे निसर्गतः निर्विशेष ब्रह्म में पृथिवी आदि के संपर्क से सविशेषत्व आरोपित होता है (भामती ३.२.११)।

सभी विशेष अध्यस्त हैं। अतएव परमार्थतः जो सत् निर्विशेष, एकरूप, एकरस चैतन्य है वही ब्रह्म है।

०७. अविद्या

ब्रह्मवाद के निरूपण में वाचस्पति मिश्र ने अविद्याद्वितय पद का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है मूला अविद्या और तूला अविद्या। यह अविद्याद्वितय क्या है? मूला अविद्या कारण-अविद्या है और तूला-अविद्या कार्य-अविद्या है। कार्य-अविद्या की श्रृंखला अनन्त और अनादि है। कारण-अविद्या भी अनादि है। तूला अविद्या का सम्बन्ध सर्वविषयसमूह से है। वह अपवाद (निराकरण) की प्रक्रिया से नष्ट हो जाती है। किन्तु मूला अविद्या सुषुप्ति

और प्रलय में रहती है। उसका नाश केवल विद्या या ब्रह्मज्ञान से होता है। अविद्याद्वितय कहकर वाचस्पति मिश्र ने यह सिद्ध किया है कि अविद्या एक-रूप नहीं है, क्योंकि एकरूप केवल ब्रह्म है और अविद्या ब्रह्म से भिन्न है।

अविद्या, अज्ञान और माया ये सभी पद एकार्थक हैं। अविद्या भावरूप है। वह अनादि और अनिर्वाच्य है। वह जड़ात्मा है, अर्थात् चैतन्य से भिन्न है। अनिर्वाच्य कहने का अभिप्राय यह है कि अविद्या को तत्त्व या अन्यत्व नहीं कहा जा सकता, वह तत्त्व और अन्यत्व से विलक्षण है। उसे इसीलिए अव्याकृत कहा जाता है। किन्तु यह अव्याकृतवाद सांख्य का अव्याकतवाद या प्रधानवाद नहीं है, क्योंकि अविद्या ईश्वराधीन है और प्रधान ईश्वराधीन नहीं है। अविद्या द्रव्य नहीं है, गुण नहीं है, कर्म नहीं है, जबकि प्रकृति द्रव्यवत् है और त्रिगुणात्मिका है। प्रधान सभी जीवों के लिए एक है, किन्तु अविद्या प्रतिजीव भिन्न है। अविद्या अनेक है। दोनों मूला अविद्या और तूला अविद्या अनेक हैं। तूला अविद्या वासनाओं की श्रृंखला है और अन्ततोगत्वा मूला अविद्या से जनित है। अविद्या का आश्रय जीव है, ब्रह्म नहीं। ब्रह्म जीवाश्रित अविद्या का विषय है। यदि कहा जाय कि अविद्योपाधि-भेदाधीन जीवभेद है तथा जीवभेदाधीन अविद्योपाधि-भेद है और इस कारण इस कल्पना में इतरेतरायदोष है तो इसका उत्तर यह है कि ये दोनों अनादि हैं, और क्योंकि इस अन्योन्याश्रय से दोनों की सिद्धि होती हैं अतएव यह दोष नहीं है। यह दोष वहीं होता है जहाँ यह दो सादि वस्तुओं में आरोपित होता है।

भामती-प्रस्थान और उसका विकास

जीवाश्रित अविद्या निमित्त से या विषयता से ईश्वराश्रित या ईश्वराश्चय कही जाती है। वह ईश्वर उसका आधार नहीं है, क्योंकि ब्रह्मज्ञान होने पर ईश्वर का कल्पितत्व या

औपाधिक रूप विलीन हो जाता है। (भामती १.४.३.)।

इस प्रकार वाचस्पति मिन के अविद्या-सिद्धान्त को अनेक जीवाश्रित ब्रह्म-विषयक-अविद्यावाद कहा जाता है। इस मत में एक जीव के मुक्त होने पर संसार का उच्छेद नहीं होता और संसार का उच्छेद न होने से अनिर्मोक्ष प्रसंग नहीं होता है। अतएव वाचस्पति मिश्न का मत इन दोनों दोषों से मुक्त है।

०८. अवच्छेदवाद

वाचस्पति मिश्र अवच्छेदवाद के द्वारा ब्रह्म और जीव के संबंध की व्याख्या करते हैं। ब्रह्म निरस्तोपाथि जीव है और जीव अविद्योपाधि ब्रह्म है। जैसे घटाकाश और महाकाश में आकाश एक और अविभाज्य (अखंड) है वैसे जीव और ब्रह्म में जो चैतन्य है वह एक और अखण्ड है। उपाध्यवच्छिन्नश्च जीवः (भामती-न्यायनिर्णय- रत्नप्रभा में भामती पृ. २१०) जीव उपाधि से अवच्छिन्न है, परमार्थतः वह ब्रह्म या परमात्मा ही है।

ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ विकार है। वह किसी अपेक्षा से कथंचित् सत् कहा जाता है, परमार्थतः वह अनृत या असत्य है। इस प्रकार अवच्छेदवाद जहाँ ब्रह्म की निरपेक्षता सिद्ध करता है वहीं वह जीवत्व को आपेक्षिक सत्य मानता है। ब्रह्म का जीवभाव काल्पनिक

नहीं है, अपितु भाविक है (भामती वहीं पृ.. ३७५).

परमार्थतः ईश्वरत्व भी अतात्विक है, किन्तु नाम और रूप की अपेक्षा से वह सत्य कहा जाता है। उसके नाम और रूप जगत् (प्रपंच) के बीज (कारण) हैं। जगत् के उपादान की अपेक्षा से उसे सर्वज्ञ कहा जाता है। इस प्रकार ईश्वर और जीव दोनों कार्य-प्रपंच के अंगभूत हैं। दोनों में अंशी और अंश का, समष्टि और व्यष्टि का सम्बन्ध है। कारणोपाधि ईश्वर है और कार्योपाधि जीव है। उनके उपाधिभेद ही उनके अवच्छेदकभेद हैं। अतः जीव

और ईश्वर में अवच्छेदक-भेद से भेद अनुपपन्न नहीं है। मधुसूदन सरस्वती ने सिद्धान्तबिन्दु में अवच्छेदवाद का वर्णन यों किया है :

“अज्ञानविषयीभूतं चैतन्यमीश्वरः। अज्ञानाश्रयीभूतं च जीव इति वाचस्पतिमिश्रः। अस्मिन् पक्षे अज्ञाननानात्वात् जीवनानात्वम्। प्रतिजीवं च प्रपंचभेदः । जीवस्यैव अज्ञानोपहिततया मान जगदुपादानत्वात् । प्रत्यभिज्ञा च अतिसादृश्यात्। ईश्वरस्य च सप्रपंचजीवाविद्याधिष्ठानत्वेन कारणत्वोपवेदान्त-खण्ड

चारादिति। अयमेवं चावच्छेदवादः।” इसी प्रकार परिमल में चतुःसूत्री के अन्त में अप्पयदीक्षित ने अवच्छेदवाद का स्पष्टीकरण किया है, यद्यपि उनका पक्षपात प्रतिबिंबवाद में है।

अवच्छेदवाद प्रतिबिंबवाद का प्रतिद्वन्द्वी सिद्धान्त है। दोनों सिद्धान्तों के अन्तर निम्न प्रकार से किये जाते हैं -

जैसे (१) निरुपाधिक महाकाश, (२) जलादि उपाधि से सोपाधिक महाकाश, (३) जलान्तर्गत जलावच्छिन्न महाकाश और (४) जल में प्रतिबिम्बत महाकाश, ये चार प्रकार के महाकाश हैं, वैसे चैतन्य भी चतुर्विध हैं -(१) निरूपाधिक चैतन्य, (२) अविद्योपाधिक चैतन्य, (३) अविद्यावच्छिन्न-अविद्यान्तर्गत चैतन्य, (४) अविद्या में प्रतिबिंबित चैतन्य।

यहाँ प्रतिबिम्बवाद में उक्त चतुर्थ चैतन्य जीव-स्वरूप है और द्वितीय चैतन्य ईश्वर-स्वरूप है। इसमें उक्त तृतीय चैतन्य संभव नहीं है।

इसी प्रकार अवच्छेदवाद में तृतीय चैतन्य जीव-स्वरूप है और प्रथम चैतन्य ईश्वरस्वरूप है। इसमें द्वितीय चैतन्य और चतुर्थ चैतन्य कल्प्य नहीं है। इस कारण इसमें केवल दो प्रकार के ही चैतन्य हैं। प्रतिबिम्बवाद में त्रिविध चैतन्य है, शुद्ध संवित, ईश्वर

और जीव। यही अवच्छेदवाद और प्रतिबिम्बवाद का अन्तर है।

०९. दृष्टिसृष्टिवाद

दृष्टिसृष्टिवाद अद्वैतवेदान्त का एक विशिष्ट मत है जिसका विरोधी मत सृष्टिदृष्टिवाद है जिसे विवरण प्रस्थान मानता है। दृष्टिसृष्टिवाद का सम्बन्ध भामती-प्रस्थान से है, क्योंकि वाचस्पतिमित्र ने ही उसका दार्शनिक विश्लेषण करते हुए एक मतवाद का दर्जा प्रदान किया है। वैसे दृष्टिसृष्टिबाद के बीज गौडपाद के आगमशास्त्र तथा योगवासिष्ट में भरे पड़े हैं। मंडन मिश्र ने ब्रह्मसिद्धि में जीवाश्रित अविद्या के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। उन्हीं के प्रभाव से बाचस्पति मिश्र ने दृष्टिसृष्टिवाद का विकास किया।

दृष्टिसृष्टिवाद के विकास की अधोलिखित पांच अवस्थाएं हैं - (9) जीवाश्रित अविद्यावाद। मंडन मिश्न के इस मत से इतना स्पष्ट है कि अविद्या का

आश्रय जीव है और विषय ब्रह्म है। किन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि अविद्या एक है या अनेक और जीव एक है या अनेक? आगे चलकर इस मत का विकास इन्हीं प्रश्नों

के उत्तर के रूप में हुआ। (२) कुछ लोगों ने अनेकजीवाश्रित एक अविद्यावाद का प्रतिपादन किया। उनके मत से

जीव अनेक हैं और अविद्या एक है। सांख्य के पुरुष प्रकृति के समान उन्होंने

जीव-अविद्या की कल्पना की। (३) वाचस्पति मिश्र के समय में ही अनेक जीवाश्रित भिन्नावरणशक्तिक एक अविद्यावाद

EE

भामती-प्रस्थान और उसका विकास का प्रचलन हो चला था जिसके अनुसार जीव अनेक हैं और वे ही अविद्या के आश्रय हैं। इस अविद्या की विक्षेप-शक्ति तो एक ही है जिससे जगत् का प्रकाश होता है

किन्तु इसकी आवरण शक्ति प्रतिजीव भिन्न है। (४) वाचस्पति मिश्र ने इस प्रसंग में अनेक जीवाश्रित अनेक-अविद्यावाद को अग्रसर

किया। उनके मत से अविद्या दो प्रकार की है,, मूला अविद्या जो वासनामय है और कारण-रूप है और तुला अविद्या जो कार्यप्रपंच-रूप है। दोनों प्रकार की अविद्या अनेक है, अर्थात् प्रतिजीव भिन्न हैं। इससे प्रश्न उठता है कि क्या जिस घट को कई जीव देखते हैं वह प्रतिजीव भिन्न है? वाचस्पति मिश्र कहते हैं कि हां, वह प्रतिजीव भिन्न विषय है, परन्तु इन विभिन्न विषयों में सादृश्य सा सामान्यत्व है जिसके कारण एक ही घट की प्रतीति सभी जीवों को होती है। परवर्ती अद्वैतवेदान्तियों ने वाचस्पति मिश्र के इस मत पर न्यायमत का प्रभाव दिखलाया है। कारण, वेदान्त इस प्रकार के सामान्य को अस्वीकार करता है। जहाँ सामान्य को एक पदार्थ माना जाता

है वहीं यह समाधान संभव है। २ (५) अतः जीवाश्रित अविद्या के सिद्धान्त ने अन्ततः एक जीवाश्रित एक अविद्यावाद का

रूप लिया जिसके प्रवर्तक वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली के लेखक प्रकाशानन्द हैं। उन्होंने एकजीववाद और दृष्टिसृष्टिवाद को एक साथ जोड़ दिया। उनका दृष्टिसृष्टिवाद दृष्टि ही सृष्टि है, ऐसा मानता है। इसके पहले के दृष्टिसृष्टिवाद यह मानते थे कि सृष्टि दृष्टि-सम सामयिक है और दृष्टि ही सृष्टि नहीं है। अर्थात् वे प्रत्येक सृष्ट वस्तु को अनिवार्यतः दृष्टि से अनन्य तो कहते थे किन्तु उसको दृष्टि से अभिन्न नहीं करते थे, अनन्यता और अभेद का यह अन्तर वाचस्पति मिश्र के मत में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जगत् ब्रह्म से अनन्य है, इसको स्पष्ट करने के लिए वे कहते हैं -‘खलु अनन्यत्वमिति अभेदं ब्रूमः, किन्तु भेदं व्यासेधामः’ (भामती, २/१/४) । इस प्रकार वाचस्पति मिश्र एक प्रत्ययवादी दार्शनिक सिद्ध होते हैं। किन्तु वे अंग्रेज पत्ययवादी बर्कले के ‘दृष्टि ही सत्ता है’ (एस्से इज़ परिसिपी) को नहीं मानते थे। अलबत्ता, प्रकाशानन्द का सिद्धान्त बर्कले के सिद्धान्त के बिल्कुल सदृश है, क्योंकि दृष्टि ही सृष्टि है, ऐसा वे मानते हैं। प्रकाशानन्द के मत का साम्य अंग्रेज दार्शनिक जार्ज बर्कले से होने के कारण डा. आर्थर वेनिस का ध्यान प्रकाशानन्द की वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली की ओर गया था। उन्होंने इसको अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशित किया। देखिए डा. आर्थरवेनिस, वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली टिप्पणी और अंग्रेजी अनुवाद सहित, चौखम्मा, ओरियन्टालिया, द्वितीय संस्करण, वाराणसी,

१. आधुनिक युग में अंग्रेज दार्शनिक डेविड जूम और बरट्रैप्ड रसेल ने भी सादृश्य के आधार पर विषय

की एकता की व्याख्या की है। सौत्रान्तिक विज्ञानवाद में भी यही मत माना जाता है। सं. २. किन्तु सामान्य की बाख्या भी सादृश्य के आधार पर संभव है। अतः एव वाचस्पति के मत को

न्याय-मत से भिन्न किया जा सकता है। सं.

१००

वेदान्त-खण्ड

१८७५। पहला संस्करण, गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज, बनारस से १९८० में छपा था। एसे इज परसिपी’ यह मत दृष्टि-सम-सृष्टिवाद है। वाचस्पति मिश्र का मत यह नहीं है।

दृष्टिसृष्टिवाद के विकास में वाचस्पति मिश्र के मत की ऐतिहासिक तथा तार्किक भूमिका है। यह आश्चर्य है कि यद्यपि जीवाश्रित अविद्या का सिद्धान्त ब्रह्माश्रित अविद्या के सिद्धान्त के विरोध में प्रस्तुत किया गया तथापि इन दोनों मतों की अन्तिम परिणति एकजीववाद में हुई। ब्रह्माश्रित अविद्या के मत को सर्वज्ञात्मामुनि ने एकचिदाश्रित एक अज्ञानवाद के रूप में परिणत किया। यह मत प्रकाशानन्द के एक जीववाद एक अविद्यावाद के समान ही है। इस प्रकार यद्यपि दृष्टिसृष्टिवाद और सृष्टिदृष्टिवाद में तथा नानाजीववाद और एकजीववाद में परस्पर द्वन्द्व है, तथापि इन दोनों पक्षों की परिणति अन्ततोगत्वा एक ही सिद्धान्त में हो जाती है। दोनों एकजीववाद और अजातवाद (या मायावाद) को अक्षरशः स्वीकार करते हैं। अतः अद्वैतवेदान्त का मुख्य सिद्धान्त एकजीववाद ही है, नानाजीववाद नहीं, ऐसा निष्कर्ष अनेक आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में निकाला है।

सहायक ग्रन्थ

१. भामती (रत्नप्रभा और न्यायनिर्णय के साथ प्रकाशित) सं. महादेवशास्त्री बाकरे,

निर्णयसागर बम्बई, १६३४। २. भामती, कल्पतरु और परिमल के साथ प्रकाशित, सं. अनन्तकृष्ण शास्त्री, निर्णयसागर

बम्बई, १६३४। ३. भामती, हिन्दी अनुवाद सहित, अनुवादक संपादक योगीन्द्रानन्द स्वामी, वाराणसी,

१६८२। ४. सिद्धान्तलेशसंग्रह, अप्पयदीक्षित, हि. अ. सहित, अच्युतग्रंथमाला वाराणसी, १६३६ । ५. वाचस्पति मिश्र आन अद्वैतवेदान्त, डॉ. एस.एस. हासुरकर, मिथिला इन्स्टीट्यूट,

दरभंगा, १६५८. ६. वाचस्पति’ज कन्ट्रीब्यूशन टु अद्वैत, डॉ. वी. एन. शेषगिरि राव, मैसूर, १९८४. ७. भामती चतुःसूत्री अंग्रेजी अनुवाद सहित, एस.एस. सूर्यनारायण शास्त्री, अड्यार

___ मद्रास, १६३३. ८. अप्पयदीक्षित, सिद्धान्तलेशसंग्रह, कृष्णानन्द तीर्थ की व्याख्या सहित, सं. भाऊशास्त्री

वझे, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, १६६०॥

१०१

भामती-प्रस्थान और उसका विकास ६. अप्पय दीक्षित, सिद्धान्तलेशसंग्रह, जीवानन्द विद्यासागर संकलित व्याख्या सहित,

चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, १६EO १०. गंगाधरेन्द्र सरस्वती, वेदान्तसूक्तिमञ्जरी, ऊपर टिप्पणी ८ के ग्रन्थ में सम्मिलित। ११. अमलानन्द सरस्वती, शास्त्रदर्पण, १२. अन्नं भट्ट, ब्रह्मसूत्रवृत्ति (मिताक्षरी) (हस्तलिखित, गवर्नमेण्ट ओरयिन्टल मैनुस्कृष्ट

लाइब्रेरी, मद्रास)। १३. लक्ष्मीन्द्रसिंह आनोग, मद्रास गवर्नमेण्ट ओरयिन्टल सिरीज़, मद्रास १६५३।

पंचम अध्याय