०१. उपक्रम
आचार्य शंकर द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद के विकास में उनके शिष्य-प्रशिष्यों में आचार्य पद्मपाद, सुरेश्वराचार्य, प्रकाशात्मा, सर्वज्ञात्ममुनि और वाचस्पति मिश्र का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इन महान् विभूतियों का आविर्भाव ईस्वी के अष्टम एवं नवम शतकों में हुआ था। अतएव ईस्वी अष्टम और नवम शतकों का काल अद्वैतवेदान्त का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य शंकर ने अपने भाष्यों में अद्वैतवेदान्त का तर्कपूर्ण प्रतिपादन किया है, किन्तु उपर्युक्त दार्शनिकों ने अध्यास, मिथ्यात्व, अविद्या का भावरूपतत्त्व, जीव-ब्रह्म सम्बन्ध, जीवस्वरूप, अविद्यानिवृत्ति आदि विषयों पर अद्वैतविरोधी मतों का युक्तियुक्त प्रत्याख्यान करके स्वसिद्धान्तों की स्पष्ट व्याख्या की है। शंकरोत्तर अद्वैतवेदान्त के इन आचार्यों ने अपनी तर्कपूर्ण पैनी युक्तियों से एक ओर बौद्ध और न्याय के दार्शनिकों की अद्वैतवाद पर आक्षिप्त आपत्तियों का उत्तर प्रस्तुत किया तो दूसरी ओर रामानुज मध्वादि वैष्णव दार्शनिकों के द्वैतवादपरक युक्तियों का भी खण्डन किया। इस प्रकार इन वेदान्ताचायौं ने शंकरोत्तर अद्वैतवेदान्त को एक दृढ़तम आधार पर प्रस्तुत किया।
उपर्युक्त प्रमुख आचार्यों में शंकर के शारीरकभाष्य पर वाचस्पति मिश्र की प्रसिद्ध “भामती” के नाम से “भामती-प्रस्थान” और पद्मपाद की पंचपादिका टीका के व्याख्याकार प्रकाशात्मयति का “पंचपादिका विवरण-टीका” के नाम से “विवरण- प्रस्थान” - ये दो प्रस्थान अद्वैतवेदान्त के प्रामाणिक सम्प्रदाय के रूप में प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार ब्रह्मसिद्धि की परम्परा से मण्डन-प्रस्थान के तृतीय प्रस्थान का कम महत्त्व नहीं है। प्रस्तुत निबन्ध में बिवरण-प्रस्थान के दार्शनिक विकास पर प्रकाश डाला जायेगा।
०२. आचार्य पदमपाद
आचार्य पद्मपाद शंकराचार्य के साक्षात् और अन्यतम शिष्य थे। उनका पूर्व नाम सनन्दन था। दक्षिण में चोल देश में उनका जन्म हुआ था। वे आचार्य शंकर के समकालीन थे और आचार्य शंकर का समय ७८८-८२० ईस्वी माना जाता है। देखिए, भारतीय दर्शन का इतिहास, डा. सुरेन्द्रनाथ दास गुप्त, हिन्दी अनुवाद, जयपुर, १६७८, भाग १, पृ. ४२३ । किन्तु अब शंकराचार्य का समय इससे १५० वर्ष पूर्व माना जाता है। देखिए, अत्रैव भूमिका (सं.)। शंकराचार्य के ब्रह्मलीन होने के बाद आचार्य पदमपाद गोवर्धनमट पुरी के जगद्गुरु
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास शंकराचार्य पद पर अभिषिक्त हुए थे। शंकराचार्य के निर्देशानुसार पद्मपाद ने उनके शारीरकमाष्य के ऊपर पंचपादिका नामक टीका लिखी थी। इसके नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें पादों की व्याख्या थी, परन्तु वर्तमान में पंचपादिका ग्रन्थ जिस रूप में उपलब्ध है, वह ब्रह्मसूत्र चतुःसूत्री तक ही सीमित है। चार सूत्रों के भाष्य पर व्याख्या के बाद यह ग्रन्थ अकस्मात् समाप्त हो जाता है। इस कारण यह एक प्रकार से अधूरा है। माधवाचार्यकृत शंकरदिग्विजय के अनुसार पंचपादिका का शेष भाग भी था, जिसका नाम ‘वृत्ति" था। परन्तु इस समय “वृत्ति” नामक वह ‘भाग उपलब्ध नहीं है। (यत्पूर्वभागः किल पंचपादिका तच्छेपगा वृत्तिरिति प्रथायसी, शंकरदिग्विजय श्लोक ७०-७१) मा वा का
शंकरदिग्विजय में वर्णित एक कथा के अनुसार पद्मपाद आचार्य ने सम्पूर्ण ब्रह्मसूत्रभाष्य पर एक टीका लिखी थी जिसका नाम बेदान्तडिाण्डम था। उसे लिखकर और अपने मामा के घर रखकर वे तीर्थयात्रा पर चले गये। मामा मीमांसक थे। उन्होंने जब इस वैदुष्यपूर्ण टीका का अवलोकन किया तो टीका के विषयगाम्भीय एवं ताकिक प्रस्तुति को देखकर उनमें पद्मपाद के प्रति द्वेषभाव उत्पन्न हुआ और मीमांसाशास्त्र-विरोधी ग्रन्थ मानकर उसे जला दिया। पद्मपाद जब तीर्थाटन से वापस आये और ग्रन्थ के नष्ट होने का ज्ञान हुआ तो उन्होंने अपने गुरु शंकराचार्य को यह समाचार सुनाया। कहते हैं कि आचाय शंकर को पद्मपाद ने एक बार इस ग्रन्थ को पढ़कर सुनाया था। आचार्य शकर ने अपनी स्मृति से चतु:सूत्री तक उक्त ग्रन्थ को पुनः बोलकर लिखवाया। पर सम्पूर्ण टीका वे नहीं लिखवा पाये। चतु:सूत्री तक लिखवायी गई उक्त वेदान्तडिण्डिम टीका ही अब पंचपादिका के नाम से प्रसिद्ध है। पंचपादिका शांकरवेदान्त का अति महत्त्वपूर्ण निबन्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में पद्मपाद ने शाकरभाष्य के तात्पर्य का तार्किक और अभूतपूर्व विश्लेषण प्रस्तुत किया है। यह शांकरभाष्य का यथाथ आलोकग्रन्थ है।
इस ग्रन्थ के ऊपर आचार्य प्रकाशात्मयति की विवरण नामक टीका है। उसके नाम से “विवरण-प्रस्थान” प्रसिद्ध हुआ। पंचपादिका पर “विवरण” के अतिरिक्त और भी टीकाएं हैं। उन सब का वर्णन इस प्रकार है :
टीका-नाम
लेखक
१. पंचपादिका-विवरण २. पंचपादिका-दर्पण ३. पंचपादिका टीका ४. वेदान्तरत्नकोष ५. प्रबोधपरिशोधिनी ६. तात्पयद्योतनी
प्रकाशात्मयति स्वामी अमलानन्द
आनन्दपूर्ण विद्यासागर नृसिंहाश्रम आत्मस्वरूप विज्ञानात्मा
वेदान्त-खण्ड पद्मपाद के अन्य ग्रन्थों में शंकराचार्यकृत प्रपंचसारतत्र पर विवरण नामक टीका, शिवपंचाक्षरीभाष्य तथा विज्ञानदीपिका हैं। इनके प्रकाशन हो चुके हैं। शिवपंचाक्षरीभाष्य में ‘नमः शिवाय’ मन्त्र की पृथक्-पृथक् सात व्याख्याएं की गयी हैं। प्रत्येक व्याख्या अद्वैतवेदान्तानुसारी है। जो लोग ‘नमः शिवाय’ मंत्र का अर्थ जानना चाहते हों, उन्हें इस लघुकाय ग्रन्थ को अवश्य पढ़ना चाहिए। अध्याय २, टिप्पणी ७ में उद्धृत ग्रन्थ के साथ अन्त में ‘मंत्रराजप्रकाश’ नाम से यह ग्रन्थ दिया गया है। अद्वैतवेदान्त सम्प्रदाय में ‘नमः शिवाय’ यह मंत्रराज के नाम से विख्यात है। सं..
पुनश्च प्रपंचसारविवरण एक मानक कृति है। शारदातिलक के व्याख्याकार राघवभट्ट कहते हैं, “जो पद्मपादाचार्यसम्मत है वही श्रीविद्यासम्प्रदाय में मान्य है, अन्य लोग जो कहते हैं वह असत्य है क्योंकि वह पद्मपादाचार्य के ग्रन्थ के विरुन्द्र है" पद्मपादाचार्याणां सम्मतः (शारदातिलक, राघवभट्ट की विज्ञानचन्द्रिका सहित, बनारस संस्करण, पृ. १७०),
अन्ये…..आहुस्तदसत् पद्मपादाचार्यग्रन्थविरोधात् (वही, पृ. ३४७)। इससे इस प्रसिद्धि को भी बल मिलता है कि पद्मपादाचार्य एक सिद्ध (आत्मसाक्षात्कारकारी) पुरुष थे। उनके वचन आप्तवचन हैं।
वास्तव में पद्मपाद ही विवरण-प्रस्थान के जनक हैं। इस प्रस्थान को कभी-कभी इसीलिए टीका-प्रस्थान भी कहा जाता है क्योंकि पंचपादिका शारीरकभाष्य की एक टीका है।।
०३. प्रकाशात्मयति का विवरण
उपर्युक्त सभी टीकाओं में प्रकाशात्मयति की विवरण-टीका वास्तविक अर्थ में शांकरवेदान्त की मार्गदर्शक टीका है। विवरण-टीका परवर्ती काल में शांकर सम्प्रदाय में इतनी प्रख्यात हुई कि इसके ऊपर भी अनेक उप-टीकाएं लिखी गई जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं: उपटीका-नाम
लेखक १. ऋजु-विवरण
सर्वज्ञविष्णुभट्ट २. तत्त्वदीपन
अखण्डानन्द ३. तात्पर्यदीपिका
चित्सुखाचार्य ४. भावप्रकाशिका
नृसिंहाश्रम ५. पंचपादिकाबिवरण व्याख्या आनन्दपूर्ण विद्यासागर ६. पंचपादिका विवरणोज्जीवनी यज्ञेश्वर दीक्षित
विवरण की इन उपटीकाओं के अतिरिक्त इससे संबन्धित कई प्रकरण-ग्रन्थ भी लिखे गये जिनमें माधवाचार्य (विद्यारण्य १३५० इस्वी) द्वारा रचित “विवरणप्रमेयसंग्रह’ एवं रामानन्दसरस्वती लिखित विवरणोपन्यास प्रमुख हैं। इन ग्रन्थों से सुसज्जित विवरण प्रस्थान एक सुप्रतिष्ठित एवं समृद्ध प्रस्थान बन गया है। विवरणकार प्रकाशात्मयति अति विलक्षण
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास प्रतिभा के धनी थे। उनकी विवरण-टीका व्याख्या-ग्रन्थ होने पर भी एक स्वतन्त्र और मौलिक ग्रन्थ है। प्रकाशात्मयति वास्तव में शांकरभाष्य की पंचपादिका के प्रकाशस्तम्भ हैं, इसमें सन्देह नहीं है। विवरणकार प्रकाशात्मा का विशेष जीवन-परिचय उपलब्ध नहीं है। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उनका जन्म समय १२०० ईस्वी लिखा है दिखिए, भारतीय दर्शन, भाग २, हिन्दी अनुवाद, दिल्ली, १६७२ पृ. ४४५)।
वे संन्यासी थे। संन्यासी के जीवन का विशेष परिचय मिलना कठिन होता है। वे अनन्यानुभवाचार्य के शिष्य थे, ऐसा उल्लेख “विवरण” के प्रारम्भ में किया गया है। “अर्थतोऽपि न नाम्नैव योऽनन्यानुभवो गुरुः।” प्रकाशात्मयति विद्यारण्य के पूर्ववर्ती थे, क्योंकि विद्यारण्य ने विवरण पर “विवरणप्रमेयसंग्रह” की रचना की है। विद्यारण्य का समय चौदहवीं शताब्दी है। इस प्रकार प्रकाशात्मा का समय द्वादश शताब्दी के आस-पास सिद्ध होता है।
विवरण-टीका के बिना पंचपादिका की संक्षिप्त और सारगर्भित उक्तियों को हृदयंगम करना कठिन है। पंचपादिका में जो बीज-रूप में वेदान्त-सिद्धान्त वर्णित है, वही “विवरण’ में बहुशाखामय, स्पष्ट एवं विशाल वृक्ष के रूप में विकसित हुआ हैं।
पंचपादिका नौ वर्णकों में विभक्त है। वर्णक का अर्थ हैं वर्णना या व्याख्या। पंचपादिका विवरण में प्रत्येक वर्णक में एक-एक दार्शनिक विषय की व्याख्या की गई है। प्रथम वर्णक में अध्यास के स्वरूप की विस्तृत व्याख्या है। द्वितीय वर्णक में धर्मजिज्ञासा के बिना भी ब्रह्मजिज्ञासा सम्भव है, इसका निर्णय है। तृतीय वर्णक में ब्रह्मज्ञान में वेद-उपनिषद आदि शास्त्रों की उपयोगिता बतायी गयी है। चतुर्थ वर्णक में अद्वैत-विरोधी सभी आत्मवादों के खण्डनपूर्वक एक और अद्वितीय आत्मा के सिद्धान्त का समर्थन किया गया है। पंचम वर्णक में ब्रह्म-लक्षण का निरूपण है। षष्ट वर्णक में वेदादिशास्त्रों की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई है, यह दिखाया गया है। सप्तम एवं अष्टम वणकों में कहा गया है कि ब्रह्म के यथाथस्वरूप का प्रदर्शन करना ही शास्त्रों का तात्पर्य है और ब्रह्मज्ञान में शास्त्र ही प्रमाण हैं। नवम वर्णक में वेदान्तवाक्यों का समन्वय ब्रह्मवाद में किया गया है।
इस प्रकार नौ वर्णकों के माध्यम से “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा”, “जन्माद्यस्य यतः”, “शास्त्रयोनित्वात्” और “तत्तु समन्वयात्”, ब्रह्मसूत्र के इन चार सूत्रों (चतु:सूत्री) में निहित दार्शनिक सिद्धान्तों को विवरणकार ने जिज्ञासुओं को आमलकवत् करतलगत करा दिया है। उपयुक्त चार सूत्रों की व्याख्या में शांकरवेदान्त के प्रायः सभी प्रमुख सिद्धान्तों की व्याख्या हो गयी है। यही कारण है कि परवर्ती काल में अद्वैताचायों ने बड़े आदर के साथ विवरण-सिद्धान्तों का उल्लेख किया है। अद्वैतविरोधी अन्य सम्प्रदाय के आचार्य भी
अद्वैतवाद के खण्डन हेतु विवरणमत को उद्धृत करते हैं, क्योंकि उन्हें यह विश्वास था कि विवरणमत का खण्डन किये बिना अद्वैतमत का खण्डन सम्भव नहीं है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि विवरणमत का अद्वैतवेदान्त में कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है।
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वेदान्त-खण्ड
०४. ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ सूत्र एवं अध्यासभाष्य
प्रकाशात्मा ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इस सूत्र में “अथ” शब्द का अर्थ आनन्तर्य है। आनन्तर्य का अर्थ “साधन-चतुष्टय के अनन्तर”, होना है। ‘ब्रह्मजिज्ञासा’, पद का अक्षरशः अर्थ है-ब्रह्मविषयक ज्ञान की इच्छा । ब्रह्मविषयक ज्ञान के लिए विचार को ही कर्तव्य रूप में विहित किया गया है। विचार करने पर ही ब्रह्मविषयक ज्ञान होगा। इसलिये १. विवेक, २. वैराग्य, ३. शमदमादि षट् सम्पत्ति और ४. मुमुक्षुत्व - इस साधन-चतुष्टय से सम्पन्न अधिकारी को ब्रह्मज्ञान के लाभ-हेतु विचार करना चाहिए। यही उपर्युक्त सूत्र का सामान्य अर्थ है। “तत्र जिज्ञासापडेन अन्तीत विचारम् - उपलक्ष्य अनुष्ठानयोग्यतया साधनचतुष्टयसम्पन्नस्य ब्रह्मज्ञानाय विचारः कर्तव्य इति सूत्रवाक्यस्य श्रीतोऽर्थः सम्पद्यते (पंचपादिका सहित विवरण पृ. २२)। “अथ” शब्द से साधन-चतष्ट्य के अनन्तर अर्थ करने पर साधन-चतप्टय से सम्पन्न अधिकारी के लिए ही ब्रह्मजिज्ञासा का विधान किया जाता है। चार साधनों में चतर्थ और अन्तिम साधन मुमुक्षुत्व है, अर्थात् जिसको मुक्ति की कामना है, वही ब्राह्मविषयक विचार करेगा। यह मोक्ष-अधिकारी का विशेषण है। अधिकारी का जो विशेषण होता है, वही फल भी होता है। (तत्त्वदीपनसहित विवरण पृ. २३)। “स्वर्गकामः अग्निहोत्रं जहयात्” इसमें स्वर्गकामी अग्निहोत्र का अधिकारी है और स्वर्ग अधिकारी का विशेषण है। वहीं फल भी है। उपयुक्त सूत्र में अधिकारी का विशेषण मोक्ष है और वही ब्रह्मज्ञान के फल-रूप में प्रतिपादित है। उसका साधन ब्रह्मज्ञान है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त सूत्र का अर्थ यह भी है कि ब्रह्मज्ञान के लिये जो विचार करना है वह विचार करना वेदान्त-वाक्यों द्वारा ही सम्भव है, क्योंकि वेदान्त-वाक्यों से ही ब्रह्मतत्त्वविषयक प्रमिति उत्पन्न होती है, अन्यथा नहीं। ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’, इस सूत्र का आधारभूत श्रुतिवाक्य बृहदारण्यकोपनिषद् का “आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः” इत्यादि है। यहाँ पर विचार का प्रतिपादन श्रवणविधि द्वारा किया गया है। अर्थात् ब्रह्मविषयकज्ञान के लिए “विचारः कर्तव्यः” इस प्रकार श्रवण-विधि है।’ चारों साधनों से सम्पन्न व्यक्ति मुक्ति के साधनभूत, ब्रह्मज्ञान के लाभ-हेतु वेदान्तवाक्यों का विचार करें, यही सूत्रवाक्य का तात्पर्य है। भावप्रकाशिकाकार नृसिंहाश्रम के अनुसार मोक्ष की इच्छा अर्थात् मुमुक्षुत्व ही अधिकारी का विशेषण है। विवेकवैराग्यादि साधनत्रय द्वारा मोक्ष की इच्छा उत्पन्न होती है, इसलिये परम्परया उन्हें भी
अधिकारी का विशेषण कहा गया है।
अब यहां एक प्रश्न यह होता है कि “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा” का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण करने पर भी उससे अध्यासवाद की कोई संगति नहीं प्रतीत होती। इस प्रश्न को पूर्वपक्ष कहा जाता है। पूर्वपक्ष ऐसा मानता है कि शारीरकमीमांसाभाष्य में अध्यासभाष्यांश सूत्रानुसारी नहीं है। सूत्र का अर्थ करने पर अध्यास का अर्थ कहीं से भी उपलब्ध नहीं १. नृसिंहाश्रम विवरणभाव प्रकाशिका, (मद्रास संस्करण, १५), ट. १ ।
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास होता। अतः अध्यास प्रथमसूत्र के ऊपर एक थोपा गया अंश है। इस पर विवरणकार आदि अद्वैतवेदान्ती कहते हैं कि अथातो ब्रह्मजिज्ञासा सूत्र में साक्षात् रूप से अध्यास की संगति न होने पर भी तात्पर्यतः अध्यास की संगति उसमें निहित है। उक्त सूत्रार्थ को समझने के लिए अध्यास के स्वरूप को जानना आवश्यक है। अध्यास-स्वरूप को अच्छी तरह जाने बिना ब्रह्मजिज्ञासा की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती। इसी कारण भाष्यकार ने उक्त सूत्र का अक्षरशः अर्थ निर्णय करने के पूर्व तात्पर्यार्थ-रूप से सूत्रसूचित अध्यासभाष्य को उपोद्घात के रूप में प्रस्तुत किया है। कल
ग्रन्थ-अध्ययन में प्रवृत्त होने से पूर्व यह अवश्य जिज्ञासा होती है कि ग्रन्थ-अध्ययन का प्रयोजन क्या है? इससे क्या लाभ मिलेगा? इसी कारण शास्त्रकारों ने प्रयोजन, अधिकारी, विषय और सम्बन्ध, इन चारों को अनुबन्ध-चतुष्टय कहा है। भाष्यकार ने सूत्रभाष्य में साधन-चतुष्टय सम्पन्न व्यक्ति को अधिकारी का है। सम्बन्ध वही है जो पाठक और पाठ्यग्रन्थ का होता है। विषय और प्रयोजन की जानकारी ग्रन्थ-अध्ययन से पूर्व होनी चाहिए। उक्त सूत्र में विषय और प्रयोजन का उल्लेख स्पष्टतः न करके सूक्ष्मरूप से किया गया है। परन्तु जब तक उक्त विषय और प्रयोजन की विस्तृत व्याख्या नहीं की जाती तब तक वेदान्त-अध्येता को उसका ज्ञान नहीं होता। ऐसी स्थिति में अध्येता के मन
यन में अनास्था उत्पन्न हो सकती है और इस प्रकार वेदान्तशास्त्र से कोई भी उपकृत नहीं हो पायेगा। इन तथ्यों का विचार करके भाष्यकार ने प्रथम सूत्र की व्याख्या के पूर्व भूमिका-रूप में अध्यासभाष्य की रचना की है। 5
अब प्रश्न यह उठता है कि वेदान्तशास्त्र के विषय और प्रयोजन क्या हैं? और शास्त्र से विषय-प्रयोजन कैसे निर्धारित होंगे? वेदान्तशास्त्र का विषय जीवब्रह्मक्य है और प्रयोजन अनर्थनिवृत्ति अर्थात् बन्धन से मुक्ति है। इस बन्धननिवृत्ति को ही मोक्ष कहा गया है। ‘भाष्यकार ने अध्यासभाष्य के अन्त में विषय प्रयोजन का निर्देश करते हुए कहा है:
“अस्यानर्थहतोः प्रहाणाय आत्मैकत्वविद्याप्रतिपत्तये
सर्वे वेदान्ता आरभ्यन्ते।” बन्ध ब्रह्मज्ञाननिवर्त्य है। वह अज्ञानजन्य और अज्ञानस्वरूप है। बन्ध यदि अज्ञानस्वरूप और अज्ञानजन्य न होता तो ज्ञान द्वारा उसकी निवृत्ति न होती। ज्ञान सर्वदा अज्ञान का निर्वतक होता है। अज्ञान वास्तविक स्वरूपवाला नहीं है। अज्ञान वास्तविक स्वरूपवाला होता तो ज्ञान से अज्ञान-निवृत्ति ही सम्भव न होती। (पञ्चपादिकासहित विवरण पृ. ३६-४७)। इसलिये अज्ञानजन्य बन्ध अवस्तुभूत होने के कारण आरोपित है। आरोपित को ही अध्यस्त कहते हैं। आरोपित या अध्यस्त की ही ज्ञान द्वारा निवृत्ति होती है, वास्तविक सत्य वस्तु की नहीं। यदि बन्ध अध्यस्त है तो अध्यास स्वीकार करना पड़ता है। अध्यास स्वीकार न करने पर तथा लक्षणप्रमाणादि से अध्यास का प्रतिपादन न करने पर ब्रह्मज्ञान
वेदान्त-खण्ड
द्वारा सूचित बन्धनिवृत्ति सम्भव नहीं होगी। भाष्यकार एवं विवरणकार आदि आचार्यों का आशय है कि प्रथमसूत्र में अन्तर्निहित अर्थ को सम्यक् रूप से समझने के लिये अध्यास की स्वीकृति एवं आलोचना आवश्यक हो जाती है। सूत्र में अतः साक्षात् रूप से अध्यास शब्द का उल्लेख न होने पर भी अध्यास स्वीकार किये बिना सूत्रार्थ की उपपत्ति नहीं हो सकती। अतएव, अध्यासप्रतिपादक अध्यासभाष्य सूत्र से असम्बद्ध नहीं है, अपितु सूत्रानुसारी एवं सूत्रारूढ़ है। जो सूत्रारूढ़ है उसे अभाष्य नहीं कह सकते । इसीलिये अध्यासभाष्य भी सूत्रसंगतभाष्य है। उसका अध्ययन निरर्थक नहीं है। अध्यास-भाष्य के भाष्यत्व को सिद्ध करने में आचार्य पद्मपाद ने अपनी “पंचपादिका” में उपर्युक्त युक्तियों की व्याख्या प्रस्तुत की है। इन युक्तियों को आधार मानकर विवरणकार प्रकाशात्मा ने तार्किकों को हृदयंगम कराने के लिये अनुमान प्रयोग द्वारा विस्तृत रूप से अध्यासभाष्य का विश्लेषण किया है। उन्होंने पहले एक अनुमान के द्वारा विचारशास्त्र को आरम्भणीय बताया है। कोई शास्त्र आरम्भणीय तभी हो सकता है जब उसमें विषय और प्रयोजन हों। प्रयोजन बन्धनिवृत्ति है। इसी प्रकार अध्यासभाष्य की संगति के लिये कई अनुमान प्रस्तुत किये गये हैं। अध्यस्तवस्तु
और अध्यास दोनों ही मिथ्या हैं। इसका विमर्श-विषय पंचपादिका एवं विवरणादि टीकाओं में विस्तार से किया गया है। अध्यासभाष्य की संगति सिद्ध करने के लिये प्रकाशात्मा ने विवरण में यह अनमान दिया है-विचारशास्त्र आरम्भणीय है. संभावित विषय के प्रयोजन के कारण, कृषिवत्। इस अनुमान से उन्होंने शास्त्र-विचार को विषय-प्रयोजन वाला प्रतिपादित किया है। (भावप्रकाशिका में अनुमान के द्वारा बन्ध को मिथ्या सिद्ध किया गया है भावप्रकाशिका पृ. १७-१८)।
इस प्रकार बन्ध को अविद्यात्मकतया अध्यस्त सिद्ध करके अध्यासभाष्य की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है। अन्यथा तत्त्वदीपनकार के अनुसार सम्पूण शास्त्र-विचार जग्गववाक्य’ के समान उन्मत्त प्रलाप अर्थात् निरर्थक बकवास होगा। अद्वैताचार्य विवरणकार, भावप्रकाशिकाकार नृसिंहाश्रम, तत्त्वदीपनकार अखण्डानन्द आदि वेदान्तियों ने अपने अपने विश्लेषण एवं व्याख्यान-कौशल से प्रथमसत्र की व्याख्या के पूर्व अध्यासभाष्य को सुत्रसंगत सिद्ध कर दिया है और उसकी आवश्यकता पर बल दिया है।
०५. अध्यास
आत्मा चेतन है और देह जड़ वस्तु है। भाष्यकार का कहना है कि जड़ और चेतन, इन दोनों के धर्म भिन्न-भिन्न हैं एवं एक दूसरे के विपरीत हैं। चेतन का धर्म ज्ञान है और जड़ का धर्म जड़ता। आत्मा और शरीर या विषयी और विषय, दोनों विपरीत धर्म वाले १. जरदायवाक्य एक प्रकार से निरर्थक असम्बद्ध शब्दराशि को कहा जाता है। इस विषय में एक प्रसिद्ध
उक्ति तत्त्वदीपन पृ. १ में उद्धृत की गयी है जरदगवः कम्बलापादुकास्था द्वारि स्थितो गायति मद्रकारिका। ते वामणी पृच्छति पुत्रकामा गजन समाया लशुनन्य को प्रथः ।।
७
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास हैं। उनके परस्पर के धर्मों को एक दूसरे में मानना अज्ञान के कारण है। अज्ञान के कारण अज्ञानी पुरुष शरीर-इन्द्रियों के धमों को आत्मा में आरोपित करके “मैं कश है”, “मैं अन्था हूँ” इत्यादि शरीरेन्द्रिय के धो को आत्मा में अनुभव करने लगता है। भाष्यकार ने इस प्रकार अध्यास को मिथ्याज्ञाननिमित्त कहा है। पंचपादिकाविवरणादि ग्रन्थों में उक्त अध्यासविषयक विस्तृत व्याख्या एवं समीक्षा प्रस्तुत की गई है। विवरणकार प्रकाशात्मयति ने अध्यास का उपादान मिथ्या अज्ञान को ही कहा है। अन्य दोषों का अध्यास के निमित्त कारण बतलाया है। इसी मिथ्याज्ञान का वर्णन करते हुए आचाय पद्मपाद ने पंचपादिका में “मिथ्या च तदज्ञानं च मिथ्याज्ञानम” कहा है, अथात अज्ञान मिथ्या है। यही मिथ्याज्ञान अध्यास का कारण है। भाष्यकार का कथन है कि अनादि मिथ्याज्ञान के कारण चिदात्मा
और जड़ देहादिवस्तुओं में जो विभेद है उसे भान्तदर्शी भूल जाता है और सत्य-मिथ्या को मिलाकर के दोनों धर्मों को भी मिलाकर अनुभव करता है। इसी सत्य और अनृत के मिथुन (युगल) को ही चिदचिद्-ग्रन्थि या अध्यास कहते हैं। जब तक अध्यास है, तब तक व्यवहार भी है। जब तक आत्मा-अनात्मा के विवेकज्ञान का उदय नहीं होगा तब तक अज्ञान का नाश नहीं होगा और अध्यासपूर्वक ही सभी व्यवहार चलेंगे।
भाष्यकार ने अध्यासभाष्य में अध्यास का लक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा है - स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृष्टावभास:"। अध्यास का संक्षिप्त लक्षण “अवभासो ध्यासः”, इस प्रकार होता है। स्मृतिरूप, परत्र और पूर्वदृष्टपद अतिव्याप्ति आदि दोषों के वारण-हेतु उपन्यस्त किये गये हैं। अवभासपद अव + भास् धातु से बना है। मास का अर्थ प्रकाश है। ज्ञानवस्तु ही सृष्टि में एकमात्र प्रकाश है। अतः भाववाच्य में ‘घ’ प्रत्यय करने पर ज्ञान और कर्मवाच्य अर्थ में ‘घ’ प्रत्यय करने पर भास’ का अर्थ ज्ञेयवस्तु होगा। “अव” का अर्थ-अवसाद को प्राप्त होना, अथात् बाधित होना है। “नेदं रजतम्”, इस प्रकार भ्रमस्थलीय रजतज्ञान और रजतबस्तु दोनों का बाध हो जाता है। अतः अमस्थल में ‘इदं रजतम्” ज्ञान “अवभास” है, न कि वास्तविक ज्ञान। शुक्ति में रजतज्ञान और रजतवस्तु - दोनों ही अध्यस्त हैं। इस अध्यास का कारण शुक्तिविषयक अज्ञान है। अध्यस्तज्ञान बाधित होने के कारण मिथ्या है। प्रबदृष्ट पद का अर्थ है पूर्व में दृष्ट वस्तु । इसका दूसरा अर्थ है-पूर्व में दृष्टवस्तु के समान दर्शन। इसके साथ “परत्र” अथात अधिष्ठान में, इस प्रकार मिलाकर “पूर्वदृष्टावभासः” बन जाता है। पूर्वदृष्टावभास" का अर्थ है पहले दर्शन की प्रतीति । यहाँ पर सत्यदर्शन की आवश्यकता नहीं है। शक्तिरजतमम में रजत की प्रतीति होता है। वह प्रतीति भी पूर्वदृष्ट सत्यरजतदर्शन की प्रतीति के समान प्रतीति होती है। जिस प्रकार शक्तिविषयक अज्ञान के कारण रजतभ्रम होने लगता है, उसी प्रकार प्रत्यगात्मा चित्स्वरूप स्वयंप्रकाश होने परभी तविषयक अज्ञान अहंकारादि अतद्रूप प्रतिभास का निमित्त बनता है। उसी प्रकार स्वरूपतः एक अभिन्नब्रह्म होने पर अनादि अज्ञान के कारण जीव-जगत् रूप से नाना प्रतीत होता है।वेदान्त-खण्ड
अध्यासलक्षण में परत्र" का अर्थ है आपेक्षिक सत्याधिष्ठान। शुक्तिरजतभ्रम में शुक्ति अपेक्षया रजत न्यूनसत्ताक है, अतः प्रातीतिक एवं मिथ्या है। यहाँ पर शुक्ति-अधिष्ठान प्रातीतिक रजत की अपेक्षा सत्य है, अर्थात् व्यावहारिक सत्य है। ब्रह्म में जगभ्रम में शुक्तिसहित सम्पूर्णजगत् ही अमस्वरूप मिथ्या है। वहाँ पर सदधिष्ठानब्रह्म ही अधिकसत्ताक है। अतः वह सत्य है, क्योंकि ब्रह्मविषयक ज्ञान से जगत्प्रपंच का बाध होता है। सद्ब्रह्म का बाध किसी भी ज्ञान से नहीं होता। वह त्रिकालाबाध्य है। अध्यास के लिये विषमसत्ताक होना आवश्यक है। भाष्यकार द्वारा प्रदर्शित “सत्यानृतमिथुनीकृत्य” का भी यही तात्पर्य है कि समसत्ताकभ्रम सम्भव नहीं है।
अध्यासलक्षण में “परत्र’ पद से स्मृति में अतिव्याप्ति का निवारण किया गया है, क्योंकि स्मृति के लिए “परत्र” अर्थात् सम्मुखम्य विषय की आवश्यकता नहीं है। कल्पतरूकार अमलानन्द स्वामी ने “असन्निहितस्य परत्र प्रतीतिरध्यासः” इस प्रकार के अध्यास का लक्षण प्रस्तुत किया है। असन्निहित का अर्थ है अधिष्ठान में वास्तव में आरोप्यवस्तु का न होना।
अध्यासवाद शून्यवाद नहीं है। एतदर्थ भी ‘परत्र" अर्थात् सदधिष्टानभ्रम स्वीकार किया गया है। शून्यवादी भ्रम के लिये सदधिष्ठान स्वीकार नहीं करते, किन्तु अद्वैतवाद के
अनुसार निरधिष्ठान प्रम नहीं होता। स्मृतिज्ञान को भी भमज्ञान नहीं माना गया है। स्मृतिज्ञान के लिये भी सम्मुख वस्तु की आवश्यकता नहीं होती। इसी कारण अध्यासलक्षण में स्मृति-पद न रखकर ‘स्मृतिरूप" पद का समावेश किया गया है। स्मृति के समान, न कि स्मृति। अब बिचार्य यह है कि स्मृति के साथ में समानताएं कौन कौन-सी हैं जो अध्यास में हैं? स्मृति जिस प्रकार संस्कारजन्य होती है, उसी प्रकार अध्यास में भी संस्कार की आवश्यकता होती है। जिसने पहले कभी सप नहीं देखा उसे सप-भ्रम नहीं हो सकता। इसलिये “पूर्वदृष्ट” कहा गया है। पूर्वदृष्ट होने के साथ उसे संस्कार के रूप में रहना चाहिए, तभी रज्जु को देखकर रज्जु की समानता के कारण सर्प-संस्कार उद्बोधित होते हैं और सम्मुखस्थ रज्जु में सर्पमम होता है। अतः स्मृतिरूप में संस्कारजन्यत्व ही स्मृति के साथ समानता है (पंचपादिका, मद्रास, पृ. ५६)। वस्तुतः स्मृति और अमज्ञान में बहुत भिन्नता है। संस्कारजन्यता में समानता है। परन्तु अमज्ञान में संस्कारजन्यत्व के साथ-साथ
आगन्तुक दोषों की भी आवश्यकता है। शुक्तिरजतनम में चक्षु में काचकामलादि आगन्तुक दोष हैं, जो उक्त भ्रम में निमित्त बनते हैं। जिस प्रकार राम और श्याम दोनों को साथ-साथ भ्रमण करते देखने पर बाद में यदि श्याम को देखते हैं तो राम का स्मरण हो आता है और उस स्मृतिज्ञान के उद्बोधक श्याम का ज्ञान होता है, उसी प्रकार शुक्तिरजतज्ञानस्थल में शुक्तिखण्ड के चाकचिक्यादिदर्शन उद्बोधक हैं और दूरत्वादि दोष हैं। इस प्रकार ‘स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृष्टावभासः" अध्यास का निर्दृष्ट लक्षण हुआ। इस अE यास लक्षण में “अवभास” पद के अतिरिक्त अन्य पदों द्वारा भ्रमस्थल में चार ख्यातिबादों
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास का निराकरण करके अनिर्वचनीय ख्यातिवाद का समर्थन किया गया है। क्योंकि “अवभास” कहने से सत्ख्याति का और ‘परत्र" कहने से निरधिष्ठानक असख्याति का निवारण हो जाता है। सत्ख्याति और असत्ख्याति के निवारण द्वारा अन्य ख्यातियों का भी निराकरण हो जाता है तथा अनिवर्चनीयख्याति की स्थापना हो जाती है। पंचपादिकाविवरणादि ग्रन्थों में अनेक दृष्टान्तों सहित इस आचार्योंक्त अध्यासलक्षण को घटाया गया है। पद्मपादाचार्य कहते हैं- जैसे, जपाकुसुम के सान्निध्य से स्फटिक स्वच्छ होने पर भी उसके संसर्ग से उसके धर्म की प्रतीति स्फटिक में होने लगती है, स्फटिक में लालिमा मिथ्या है, क्योंकि उसमें लालिमा वस्तुतः है ही नहीं। उसी प्रकार आत्मा में अहंकारादि के न होने पर भी उनका उपराग होने को ही अध्यास कहा जाता है। इसी प्रकार दर्पण में मुख-प्रतिबिम्ब का उदाहरण देकर अध्यास की व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
भाष्यकार ने कई प्रकार के अध्यासों का विवरण दिया है, जैसे अन्योन्याध्यास, धर्माध्यास, विषयाध्यास, आदि। परवर्ती अद्वैतवेदान्त के आचार्यों ने ज्ञानाध्यास और अाध्यास भेद से अध्यास का द्विविध भेद बतलाया है। अथाध्यास के भीष्ट प्रकार हैं: (१) केवलसम्बन्धाध्यास - अनात्मा में आत्मा का सम्बन्धाध्यास होता है। (२) सम्बन्धसहितसम्बन्धी का अध्यास - जैसे अत्मा में अनात्मा के सम्बन्ध-स्वरूप दोनों
का अध्यास होता है। (३) केवलधर्माध्यास - आत्मा में स्थूलदेह के धर्मों का अध्यास। (2) धर्मसहितधर्मी का अध्यास = अन्तःकरण के धर्मों एवं स्वरूप दोनों का आत्मा में
अध्यास। (५) अन्योन्याध्यास - आत्मा में अनात्मा का , अनात्मा में आत्मा का अध्यास। (६) अन्यतराध्यास - आत्मा में अनात्मा स्वरूपतः अध्यस्त है, अनात्मा में आत्मा
स्वरूपतः अध्यस्त नहीं है।
अर्थाध्यास का स्वरूपाध्यास और संसाध्यास करके भी भेद करते हैं। ज्ञान द्वारा बाधायोग्यवस्तु अधिष्ठान में स्वरूपतः अध्यस्त होती है, जैसे देहादि-वस्तु आत्मा में स्वरूपतः अध्यरत हैं। बाध अयोग्यवस्तु का संसर्गाध्यास होता है-जैसे आत्मा का अनात्मा में अध्यास संसर्गाध्यास है।
०६. तमसो भावरूपत्व
जिस प्रकार अध्यासभाष्य की संगति के विषय में विवरण सम्प्रदायाचार्यों ने बहुत लिखा है, उसी प्रकार तमसोभावरूपत्व के ऊपर विवरणकारादि वेदान्ताचार्यों ने बहुत विश्लेषण एवं युक्ति-तकों की व्याख्या प्रस्तुत की है। अद्वैतवाद के अनुसार अविद्याभावरूप है। प्रकाशात्मा ने अविद्या के भावरूपत्व पर एक अनुमान प्रस्तुत किया है। विवरण की टीकाओं में इस अनुमान का विस्तृत विश्लेषण मिलता है। अविद्या भावरूपत्वसाधक अनुमान
वेदान्त-खण्ड
में “अन्धकारे प्रथमोत्पन्नप्रदीपप्रभावत्” दृष्टान्त प्रस्तुत किया गया है। इस दृष्टान्त में अन्धकार यदि अभावरूप होगा तो अविद्याभावरूप साधक अनुमान साध्यविकल दृष्टान्तवाला हो जायेगा। इस कारण अन्धकार को भावरूप सिद्ध करना आवश्यक है। यही कारण है, विवरणकार ने अविद्या को भावरूप सिद्ध करने से पूर्व अन्धकार को भावरूप सिद्ध किया है। उधर भाष्यकार के “युष्मदष्मत्प्रत्ययगोचरयोः” इस वाक्य के अनुसार तत्त्वदीपनकार ने आत्मानात्मा के इतरेतराध्यासाभाव में जो अनुमान प्रस्तुत किया है, उसमें “तम प्रकाशवत्" दृष्टान्त है। यदि तमः अभावरूप होगा तो अनुमान उपाधियुक्त होकर असद्हेतुक सिद्ध होगा और साध्यसिद्धि में असमर्थ होगा। यहाँ पर भी तमः के भावरूपत्वसिद्धि की
आवश्यकता है।
अन्धकार के अभावरूपत्व में अद्वैतवेदान्तियों ने नाना प्रकार के दोषों का उदमावन किया है। उनका कथन है कि अभाव का उपचय-अपचय नहीं होता। हमें अल्प अन्धकार, घनान्धकार का अनुभव होता है। अभाव का कोई रूप नहीं होता। हमें अन्धकार का प्रत्यक्षानुभव है। अतः उसमें श्यामल रूप है। विवरणकार ने अन्धकार के अमावस्वरूपत्व-खण्डन के लिये दो हेतु प्रदर्शित किये हैं - अवस्थावत्व और रूपवत्व। तत्त्वदीपनकार अखण्डानन्द स्वामी के अनुसार अन्धकार के अभावरूपत्वखण्डन में न्याय-प्रयोग इस प्रकार होगा - ‘तमो नाभावः, अवस्थावत्वात, रूपवत्वाच्च, केशवत"| भावप्रकाशिकाकार नसिंहाश्रम के अनुसार न्याय प्रयोग इस प्रकार होगा :
“तमो द्रव्यम्, अबस्थावत्वात्, रूपवत्वाद् वा, प्रकाशवत्”। हेतु पक्षधर्मता सिद्ध करने के लिए नृसिंहाश्रम ने कहा है:- ‘न चासिद्धिः, ईषत् तमः, तमलमालाश्यामलं तमः इत्यनुभवात्।
अन्य दार्शनिकगण तमः की प्रतीति अर्थात् अन्धकारदर्शन को भ्रम मानते हैं, क्योंकि जिस प्रकार आलोका’भावस्थल में अन्धकारदर्शन होता है, उसी प्रकार चक्षु मूंदकर भी अन्धकार की प्रतीति होती है। अद्वैतवेदान्ती आँख बन्द करके तमोदर्शन को श्रम स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार जिस प्रकार कणावरुद्ध करके कुछ सुनाई देता है, उसी प्रकार आखें बन्द करके भी अन्धकार का दर्शन होता है। प्रश्न यह उठाया जाता है कि यदि आन्तर तमः चक्षुग्रात्य है तो नयनान्तर्गताञ्जन भी चक्षास्य क्यों नहीं है। तमः आलोकनिवयं है। अतः तमोग्रहण में आलोक की आवश्यकता नहीं है। तमः अन्य द्रव्यों के समान रूपबद् होने पर भी, उसमें वैशिष्ट्य यह है कि उसके दर्शन के लिये आलोक की आवश्यकता नहीं पड़ती, ऐसा विवरणप्रमेयसंग्रहकार विद्यारण्यस्वामी का मत है (विवरणप्रमेयसंग्रह, बनारस, पृ.८०)। नृसिंहाश्रम स्वामी ने आलोकप्रत्यक्ष का उदाहरण प्रस्तुत करके तमः प्रत्यक्ष में आलोक की अनावश्यकता प्रदर्शित की है। उनके अनुसार जिस प्रकार रूपवद् द्रव्य होने पर भी आलोक के प्रत्यक्ष में दूसरे आलोक की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसी प्रकार रूपवद् द्रव्य होने पर भी अन्धकार के प्रत्यक्ष में आलोक की आवश्यकता नहीं है।
विबरण-प्रस्थान और उसका विकास उनके अनुसार इस कारण रूपवद् वस्तुदर्शन में आलोकसहकृतत्वव्याप्ति ही स्वीकार्य नहीं है (भावप्रकाशिका पृ. ५२)।
___ पूर्वपक्ष की ओर से यह बात कही गई कि अन्धकार रूपवद् द्रव्य है ही नहीं। नृसिंहाश्रम कहते हैं कि “यद्पवत्, तत् स्पर्शवत्”, इस व्याप्ति के नियम से अन्धकार में स्पर्श न होने के कारण रूप भी नहीं हो सकता। रूप न होने से अन्धकार को भावरूप भी नहीं कहा जा सकता। इस पर तात्पर्यदीपिकाकार कहते हैं कि जिस प्रकार स्वण तेजस पदार्थ में उष्णगुण होता है, परन्तु स्वर्णाभूषण पहने व्यक्ति को उनसे कभी भी उष्णस्पर्श का अनुभव नहीं होता, उसी प्रकार अन्धकार में भी सिद्धान्ती को स्पर्शगुण स्वीकार्य है, किन्तु उसका स्पर्श अनुभूत नहीं होता। अतः अन्धकार स्पर्शवत् होने से रूपवद् द्रव्य है
और रूपवद् द्रव्य होने से भावरूप है (चित्सुखाचार्य की तात्पर्यदीपिका पृ. २७) ।
०७. अविद्या का स्वरूप और भावरूपत्व
विवरणप्रस्थान में अविद्या के स्वरूप के विषय में विस्तृत समीक्षा प्रस्तुत की गई है। भाष्यकार ने मायाशक्ति को “अविद्यात्मिका” कहकर माया और अविद्या में अभेद बतलाया है। इसकी पुष्टि विचरणकार प्रकाशात्मयति ने अपनी विवरणटीका में की है। अविद्या अद्वैतवाद का एक आधारभूत सिद्धान्त है। इसी अविद्यासिद्धान्त के आधार पर ही अद्वैताचार्य जगत्सृष्टि की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।
अविद्या अर्थात् अज्ञान साक्षिप्रत्यक्ष है। “अहमज्ञः “मामन्यं च न जानामि”, इस प्रकार अज्ञान का प्रत्यक्ष होता है। पूर्वपक्षी के अनुसार जिस प्रकार “भूतले घटो नास्ति” यहाँ पर भूतल पर घट का अभाव माना जाता है, उसी प्रकार मयि ज्ञान नास्ति" यहाँ पर ज्ञानाभाव ही प्रदर्शित होता है। अत: “अहमज्ञः” में भी जानाभाव समझना होगा। प्रकाशात्मयति का उत्तर है कि उक्त “अहमज्ञः” में ज्ञान को ज्ञानाभाव नहीं कह सकते, क्योंकि अभाव कभी भी अपरोक्षज्ञान का विषय नहीं हो सकता। उक्त स्थल में हमें अपरोक्ष ज्ञान होता है। साक्षिभास्य सुख-दुःखादि का ज्ञान जिस प्रकार अपरोक्ष ज्ञान होता है, उसी प्रकार साक्षिभास्य अज्ञान की प्रतीति भी अपरोक्ष ज्ञान है। इसी कारण वह अभावप्रतीति नहीं है। अद्वैतमत में अभाव अनुपलब्धि नामक षष्ट प्रमाण से येय है। अतः अज्ञान को ज्ञानाभाव नहीं माना जा सकता। विवरणाचार्य प्रकाशात्मयति सुषुप्तिकाल में भी भावरूप अज्ञान की सिद्धि करते हैं। उनका कहना है कि सप्ति-काल में ज्ञानाभाव सिद्ध करने के लिए “सुषुप्तिकालीनः आत्मा ज्ञानसामान्याभाववान्, व्यवहारसामान्याभावात्”, इस अनुमान की सिद्धि के लिये सुषुप्तिकालीन आत्मा को प्रकाशवान् रहना होगा और व्यवहार सामान्याभाव की भी प्रतीति आवश्यक है, अन्यथा अनुमान बाधित होगा।
आचार्य चित्सुख ने तत्त्वप्रदीपिका में भावरूप अविद्या का लक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा है :
वेदान्त-खण्ड अनादिभावरूपं यद् विज्ञानेन विलीयते।
तदज्ञानमिति प्राज्ञो लक्षणं संप्रचक्षते।। जो अनादि एवं भावरूप है तथा तत्त्वज्ञान से जिसका विनाश हो जाता है, पण्डितगण उसे अज्ञान कहते हैं।
आचार्य मधुसूदन सरस्वती के अनुसार “अनादिभावत्वे सति ज्ञाननिवत्या" आवद्या है, अर्थात् अनादि भावरूप एवं ज्ञाननाश्या अविद्या है। अविद्यालक्षणों में विशेषतः हमें तीन पद मिलते हैं- (9) अनादि, (२) भावरूप और (३) ज्ञाननाश्य । उक्त अज्ञानलक्षणोक्त
अनादि" विशेषण द्वारा परवती ज्ञान द्वारा नाश्य पर्ववती ज्ञान में अतिव्याप्तिदोष का वारण किया गया है। पूर्ववर्ती ज्ञान परवर्ती ज्ञान से नष्ट होता है। उस ज्ञान में भी भावरूपत्व और ज्ञाननाश्यत्व है। परन्तु वह ज्ञान अनादि नहीं है। अज्ञान-नक्षण में भावरूपत्व पद न होता तो प्रागभाव के अनादि होने के कारण तथा ज्ञाननाश्य भी होने के कारण, उसमें अतिव्याप्ति दोष होता। इसीलिये भावरूपल पद का समावेश है। विवरणाचार्य की ही शैली का अवलम्बन करके चित्सुखाचार्य ने उनदक्तमयं न जानामि। इसमें ज्ञानविशेषाभावपक्ष का खण्डन किया है। आचार्य का कहना है कि पूर्वपक्षा “तदुक्त अर्थे प्रमाणज्ञानं नास्ति’, ऐसा कहकर भी ज्ञानाभावसिद्ध नहीं कर सकते, क्योंकि तदुक्ते अर्थे प्रमाणज्ञानं नास्ति, यह भी एक प्रमाणज्ञान है। इस प्रमाण-ज्ञान के रहते हुए पूर्वपक्षी प्रमाणज्ञानाभाव कैसे स्वीकार करेंगे? इसमें व्याघातदोष भी है, प्रमाणज्ञान के माध्यम से प्रमाणज्ञान नहीं है, कहा गया, जैसे, “मम मुखे जित्वा नास्ति’’ कहने पर व्याघातदोष होगा। “त्वदुक्ते अर्थे पूर्वोक्तातिरिक्तप्रमाणज्ञानं नास्ति,” इस प्रकार का ज्ञान भी प्रमाणज्ञान ही है, अतः व्याघात अवश्यम्भावी है। इस प्रकार साक्षिप्रत्यक्ष के द्वारा अज्ञान भावरूप है, यह सिद्ध होता है।
अविद्या के भावरूपत्व को अनुमान-प्रमाण से भी सिद्ध किया गया है। विवरणाचार्य ने भावरूप अविद्या की सिद्धि में इस प्रकार अनुमान प्रस्तुत किया है :
“विवादगोचरापन्नं प्रमाणज्ञानं, स्वप्रागभावव्यतिरिक्त-स्वविषयावरण-स्वनिवयस्वदेशगत वस्त्वन्तर पूर्वकं भवितुमर्हति, अप्रकाशितार्थप्रकाशकत्वात्, अन्धकारे प्रथमोत्पन्नप्रदीपप्रभावत् इति । इस अनमान से अविद्या का भावरूपत्व सिद्ध किया गया है। विवरणकार का कहना है कि अन्धकार में प्रथमोत्पन्न प्रदीपप्रभा अप्रकाशित विषय को प्रकाशित करती है। वह भावरूप अन्धकार को दूर करती है। इस दृष्टान्त से विवरणाचार्य ने प्रतिपादित किया है कि प्रमाणज्ञान अप्रकाशित विषय को प्रकाशित करता है और साथ में वह किसी भावरूप वस्तु का निवर्तक भी है। वह भावरूपवस्तु अविद्या है। उक्त अनुमान का पक्ष प्रमाणज्ञान है और स्वप्रागभावव्यतिरिक्तवस्त्वन्तरपूर्वकत्व साध्य है। प्रागभावभिन्न, प्रमाणज्ञान के विषय का आवरक, प्रमाणज्ञाननिवत्य, प्रमाणदेशगत वस्त्वन्तर अविद्या ही है। इस अनुमान में अर्थान्तरतादि दोष नहीं हैं, क्योंकि उक्त अनुमान से विषयान्तर की सिद्धि नहीं होती।
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास इस अनुमान में विवादगौचरापन्नं प्रमाणज्ञानम् " पक्ष है। यहाँ “ज्ञान” पद विशेष्य और विवादगोचरापन्न तथा प्रमाण, दोनों पद विशेषण हैं। तात्पर्यदीपिकाकार ने कहा है कि धारावाहिक ज्ञान का प्रथमकोटि का ज्ञान अज्ञाननिवर्तक होता है, किन्तु द्वितीयादिकोटि का धारावाहिक ज्ञान अज्ञाननिवर्तक नहीं है। इन द्वितीयादिकोटि के धारावाहिक ज्ञानों को पक्षबहिर्भूत रखने के लिये “विवादगोचरापन्न” और “प्रमाण” पदों को पक्षविशेषण के रूप में समाविष्ट किया गया है (तत्त्वदीपन, पृ. १०१-१०२)। साक्षिभास्य सुखादि ज्ञान भी अज्ञान निवर्तक नहीं होता, क्योंकि साक्षिचैतन्य अज्ञान का प्रकाशक है, नाशक नहीं। इसलिये भी उसे ““प्रमाणज्ञान’’ कहा गया है। साध्यदल में “वस्तु-अन्तर-पूर्वक’ कहकर अन्य वस्तुरूप आत्मभिन्न वस्तु भावरूप अविद्या को ही लिया गया है। इसी प्रकार अन्य विशेषणों की भी उपयोगिता तथा निर्दोषता दिखाई गई है। लक्षण में “अप्रकाशितार्थप्रकाशकत्वात्” हेतु है। द्वितीयधारावाहिकज्ञान एवं स्मृति में व्यभिचार न हो, इसलिये उक्त पदों का समावेश हुआ है। (विष्णुभट्ट उपाध्यायकृत ऋविवरण पृ. १०२)। स्मृति को प्रमाणज्ञान न मानने के कारण अद्वैतीगण उसे अविद्यानिवर्तक नहीं मानते। “अन्धकारे प्रथमोत्पन्नप्रदीपप्रभावत्”, यह दृष्टान्त दल है। धूप में सूर्यप्रभाव्याप्तदेश में अन्धकार नहीं होता, अतः वहाँ पर प्रदीपप्रभा अन्धकार का निवर्तक नहीं होती, इस प्रकार हेतु साधन और साध्यविकल होता, इसलिये “अन्धकारे” शब्द का समावेश है। प्रथमोत्पन्न प्रदीपनभा ही अन्धकार का नाशक है। बाद की प्रदीपप्रभा के समय अन्धकार होता ही नहीं। अतः पश्चाद्वर्ती प्रदीपप्रभा अंधकार का नाशक नहीं होती। इसलिये ‘प्रथमोत्पन्न” विशेषण का समावेश हेतु में किया गया है।
भाष्यकार ने अविद्या को “परमेश्वराश्रया” कहा है। अतः अविद्या का आश्रय और विषय भी ब्रह्म ही है। (संक्षेपशारीरक १/३/E३)। इस अविद्या की आवरण एवं विक्षेप नामक दो शक्तियाँ हैं। शुक्तिरजतश्रम में शुक्तिविषयक अज्ञान अज्ञान की आवरण-शक्ति है। इसी आवरणशक्ति के कारण शुक्ति का वास्तविक ज्ञान आवृत होता है और उसी स्थल में अर्थात् शुक्तिरूप अधिकरण में अज्ञान की विक्षेपशक्ति से रजतभम उत्पन्न होता है। उसी प्रकार अविद्या की आवरणशक्ति से विशुद्ध चैतन्य का स्वरूप आवृत हो जाता है। इसी अविद्या की विक्षेपशक्ति से ब्रह्माधिष्ठानक मिथ्या भेदप्रपंच की उत्पत्ति होती है। ब्रह्मविषयक अविद्या के कारण ब्रह्माश्रय में जगद्मम होता है। ब्रह्मविषयक साक्षात्कारज्ञान से ही दोनों शक्तियों के साथ अविद्या की निवृत्ति होती है।
०८. ब्रह्म का स्वरूप और लक्षण
(१) ब्रह्म का स्वरूप
अद्वैतवेदान्त के अनुसार विशुद्ध आत्मा ही ब्रह्म है। “अयमात्मा ब्रह्म’ इत्यादि वेदान्त-वाक्यों द्वारा आत्मा ब्रह्म है, यह सिद्ध है। यह आत्मा विषयी है। विषयनिष्ठ दृष्टि से देखने पर वह ब्रह्म है। विषय का सार ब्रह्म है, क्योकि वही सम्पूर्ण विषयों का अधिष्ठान
वेदान्त-खण्ड
है, अन्तर्निहित तत्त्व है। विषयी का सार आत्मा है। विषयी से कभी-कभी जीव को भी सम्बोधित किया जाता है। अतः इसके सारतत्व को आत्मा कहा जा सकता है। चूंकि अद्वैतवेदान्त के अनुसार परमतत्त्व वस्तुतः विषय और विषयी दोनों से परे है, अतः दोनों प्रकार से एक ही परमतत्व है, यह भी कहा जा सकता है, क्योंकि परमतत्त्व विश्वातीत होते हुए भी विश्व में ओत-प्रोत है। विश्व में ओत-प्रोत होन का अर्थ है विषय और विषयी दोनों में ओत-प्रोत होना। इसलिए उस परमतत्व को चाहे “अहं ब्रह्मास्मि” करके जानो, चाहे “तत्त्वमसि” करके, बात एक ही है। आत्मा करके अपने अन्दर जानना या ब्रह्म करके सर्वत्र ब्रह्मदर्शन करना, दोनों बातों में कोई अन्तर नहीं, क्योंकि श्रुति कहती है कि वह “अणोरणीयान् महतो महायान्” है।
यह आत्मा या ब्रह्म अदेतवेदान्त के अनुसार वस्तुतः निर्माण है। यहाँ सगणता भी मान्य है, परन्तु वह अविद्या के कारण औपाधिक है, वस्तुतः ब्रह्म सगुण नहीं है। अद्वैतवेदान्त में एक अद्वैत तत्व को स्वीकार किया गया है। एक अद्वैत तत्त्व की सिद्धि द्वत के निषेध से होती है, इसलिए इस दर्शन के अनुसार अधिष्ठानस्वरूप ब्रह्म के अतिरिक्त परमार्थ सत् और कुछ नहीं है। ब्रह्म में गुण या विशेष कुछ भी स्वीकार करने पर इस अद्वैतवाद की स्थापना नहीं हो सकती। अतः ब्रह्मातिरिक्त गुणादि शब्दों से जो कुछ भी बोध होता है, वह प्रातीतिक है। इसलिए “नेह नानास्ति किंचन”, “सर्व खल्विदं ब्रह्म’ आदि वेदान्त-वाक्यों के आधार पर अद्वैत-वेदान्ती जगन्मिथ्यात्व की सिद्धि करते हैं।
(२) ब्रह्म का स्वरूप लक्षण
“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म”, अद्वैत वेदान्तियों के अनुसार ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है। ब्रह्म के इस स्वरूप लक्षण को भी नेतिपरक ही समझना चाहिए, क्योंकि इसे अस्तिपरक मानने पर पूर्णतया लक्षण को ही अध्यस्त मानना पड़ेगा। यद्यपि नास्ति मुखेन लक्षण भी अध्यस्त ही होता है फिर भी नेति-नेति करके ब्रह्म का स्वरूप-लक्षण संभव है क्योंकि ब्रह्म में वृत्ति-व्याप्यता ही अपेक्षित है, फल-व्याप्यता नहीं। अतः निषेध मुख से लक्षणस्थ सत्य पद का अर्थ असत्य की व्यावृत्ति, ज्ञान पद का अर्थ जड़ की व्यावृत्ति एवं अनन्तपद का अर्थ परिच्छिन्न की व्यावृत्ति होगा। अथात् ब्रह्म असत नहीं, जड़ नहीं, परिच्छिन्न नहीं है। ब्रह्म उक्त प्रकार से असत्य, जड़ एवं परिच्छिन्न से जब भिन्न है, तो यह शंका हो सकती है, क्या ब्रह्म में असत्य-भेद, जड़-भेद एवं परिच्छिन्न-भेद रहते हैं? पूर्वोक्त तीनों भेद क्या ब्रह्म के धर्म नहीं हैं? अतएव क्या ब्रह्म निर्विशेष न होकर सविशेष नहीं हो जाता है? उसके उत्तर में अद्वैत वेदान्तियों का कहना है कि असत्य की व्यावृत्ति, जड़ की व्यावृत्ति एवं परिच्छिन्न की व्यावृत्ति ब्रह्म से पृथक् नहीं है। व्यावृत्ति ब्रह्मस्वरूप है। “रजत नहीं है”, यहां पर रजत-अभाव जिस प्रकार शुक्ति-रूप है, उसी प्रकार प्रकृत स्थल में भी व्यावृत्ति, अर्थात, असत्य, जड़ एवं परिच्छिन्न की व्यावृत्ति, ब्रह्मस्वरूप है। तीनों पद शुद्ध ब्रह्म का
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास बोध कराते हैं। व्यावृत्ति अभावरूप धर्म है, परन्तु अद्वैतमत में वह अधिकरण-रूप है। अधिकरण ब्रह्म है। अतः ब्रह्म से वह अतिरिक्त नहीं है। मण्डन मिश्र आदि भावाद्वैतवादी अद्वैत वेदान्ती भावरूप ब्रह्म की एकता की सिद्धि करते हैं। भावरूप ब्रह्म के अतिरिक्त उसमें अभावरूप धर्मों के होने पर भी उनके मत में अद्वैत की हानि नहीं होती। जो भी हो, मण्डन मिश्र के अनुसार अमाच-रूप धमों को अतिरिक्त मानने पर अद्वैतवाद की हानि नहीं होती। अन्य अद्वैत वेदान्तियों के अनुसार अभाव ब्रह्मरूप ही है, इसलिए भी उससे कोई क्षति नहीं होती है। वस्तुतः अधिकांश अद्वैत वेदान्ती भावाद्वैतवाद को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार ब्रह्म में अथवा ब्रह्म के अतिरिक्त भाव-अभाव रूप किसी भी प्रकार के कोई धर्म सम्भव नहीं हैं। एकमात्र सर्वग्राही एवं सर्वातीत ब्रह्म ही सत्य है। अगर कहीं असत्य भी है तो वह ब्रह्म ही है। ब्रह्म असत्य नहीं है, अपितु असत्य के रूप में जो प्रतिभात होता है, उसमें भी अगर कोई सार है, तो वह भी ब्रह्म ही है।
(३) ब्रह्म का तटस्थ लक्षणः
ब्रह्म जगत्-जन्मादि का कारण है, यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। इस लक्षण की परिभाषा आचार्य धर्मराजाच्वरीन्द्र ने वेदान्तपरिभाषा में यों दी है- ‘‘जो सम्पूर्ण लक्ष्य में स्थित न होता हुआ भी व्यावर्तक होता है, अर्थात् लक्ष्य के एक देश में होता है, साथ में इतर व्यावर्तक भी होता है, वही तटस्थ लक्षण है। जैसे गन्धवत्व पृथ्वी का लक्षण है। महाप्रलय में परमाणुओं में तथा उत्पत्तिकाल में घटादि में गन्ध नहीं रहती, फिर भी गन्धवत्व को नैयायिक पृथ्वी का लक्षण मानते हैं। बादरायण ने “जन्माद्यस्य यतः’’ (ब्रसू. १/१/२) सूत्र द्वारा ब्रम का तटस्थ लक्षण प्रस्तुत किया है। भाष्यकारों के अनुसार ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते’’ इत्यादि वेदान्तवाक्यों का अनुसरण करते हुए सूत्रकार ने ब्रह्म का उक्त लक्षण प्रस्तुत किया है। ब्रह्म में जगत् जन्मादिकारणत्व यावतद्रव्यभावी नहीं है। लक्ष्यैकदेश में कहीं पर आरोपित रूप से जगत्कारणत्व है। इसलिए तटस्थतया ब्रह्म का प्रतिपादन अधिक संगत है। तटस्थ लक्षण में जिन धर्मों को मानकर तटस्थ लक्षण का विधान किया जाता है, उन धर्मों की स्थिति वस्तु में कदाचित् एवं कथंचित् होती है। जैसे, देवदत्त के गृह को खोजता हुआ कोई व्यक्ति (यज्ञदत्त) आता है एवं पछे जाने पर कोई उसको बतलाता है कि वह देवदत्त का घर है जिसके सामने गौ खड़ी है। देवदत्त के गृह के लिए गौ की पहचान अनिवार्य नहीं है. गौ गह के सामने सदा सबदा रहेगी. यह बात निश्चित नहीं है। फिर भी वह व्यक्ति देवदत्त के घर को जान जाता है अर्थात गी की पहचान से वह देवदत्त के घर को पहचान लेता है। इस प्रकार गौ के साथ देवदत्त के गृह का अनिवार्य संसर्ग न होते हुए भी गौ उस मोहल्ले के इतर गृहों की व्यावर्तक होती है। साथ में गौ देवदत्त के गृह का भी बोधक होती है। इसे तटस्थ लक्षण समझना चाहिए। विद्यारण्यमुनि ने अपने ग्रन्थ विवरणप्नमेयसंग्रह में ब्रह्म के लक्षण के विषय में पूर्वपक्षवादियों
"
वेदान्त-खण्ड के द्वारा उत्थापित आक्षेपों का प्रत्याख्यान करते हुए कहा है कि जन्मादि को मानकर ब्रह्म का तटस्थ लक्षण सम्भव है, काकाधिकरणत्वबदुपपत्तेः” अर्थात् काक आदि को चिन्ह मानकर जिस प्रकार गृह की पहचान हो जाती है, उसी प्रकार जन्मादि को मानकर ब्रह्म का लक्षण हो जायेगा। काक अधिकरणत्व गृह के अन्तर्भूत नहीं होता, क्योंकि गृह के अन्तर्भूत मान लेने पर काक के उड़ जाने से गृह का एक भाग नष्ट हुआ है, ऐसी वृत्ति हो जायेगी, इसलिए काक अधिकरणत्व गृह के लिए औपाधिक मात्र है।
वह लक्ष्य का अंग नहीं है। वह केवल लक्षण के ही अन्तर्गत है। काक मात्र उपलक्षण होकर ही गृह का लक्षण होता है। इसी प्रकार जन्मादि ब्रह्म के उपलक्षण हैं और जन्मादि धर्म ब्रह्म के औपाधिक धर्म हैं। वे धर्म लक्षण के अन्तर्गत हैं, न कि लक्ष्य के अन्तर्गत । जन्मादि धर्मों से ब्रह्म का संसग नहीं है, इसलिए ब्रह्म में जन्मादिकारणत्व का अन्तर्भाव नहीं होता। साथ में जगत-प्रपंच की कारणता ब्रह्म ही है, यह सिद्ध होता है। आचार्य अण्णय दीक्षित ने “कल्पतरुपरिमल’ में तटस्थ का लक्षण करते हाए कहा है कि लक्षण को सकल इतर का व्यावर्तक होना चाहिए, साथ में लक्ष्य-बोधन में समर्थ भी होना चाहिए। जगत इत्यादि का जो कारणत्व ब्रह्म का लक्षण है वह “शाखाग्रे चन्द्रः” के समान तटस्थलक्षण है।
शाखा चन्द्रः यह वाक्य चन्द्र को अन्य तारों से व्यायत्त करता है। इसमें इतर-व्यावर्तकत्व है। साथ में चन्द्र का बोध भी हो जाता है (कल्पतरुपरिमल, पृ.)। इसीलिए इसे तटस्थ लक्षण का उदाहरण समझना चाहिए। तटस्थ लक्षण के अन्तगत समस्त अध्यारोपित कारणला “जगतकर्तृत्व”, जीवेश्वर-विभागादि आते हैं। वे सब जितने भी विभाजन हैं, सब ब्रह्म में तटस्थतया ही है।
(४) ब्रह्म की जगत्कारणता
अद्वैत-आचार्यों ने ब्रह्म को जगत् का कारण कहा है। ब्रह्म में जगत-कारणता तटस्थतया ही क्यों न हो, पर ब्रह्म के अतिरिक्ति अन्य कोइ जगत का कारण नहीं है, यही अद्वैताचार्यों का मत है। ब्रह्म में आरोपित जगत्प्रपंच का निषेध है। यदि आरोपित जगत्-प्रपंच किसी अर्थ में है तो वह ब्रह्म में ही स्थित है, यही अद्वैत सिद्धान्त है। अतः प्रश्न यह उठता है कि अद्वैत वेदान्ती ब्रह्म को किस रूप में जगत् का कारण मानते हैं? मुख्यतः घटोत्पत्ति के लिए उपादान एवं निमित्त दोनों कारणों की आवश्यकता होती है। मिट्टी घट का उपादान कारण है, कुम्हार उसका निमित्त कारण है। जगलप्रपंच कार्य के लिए ब्रह्म उपादान कारण है या निमित्त कारण अथवा दोनों हैं? दोनों कारणों में से एक कारण मानने पर ब्रह्म की व्यापकता नष्ट हो जायेगी और ब्रह्म को दोनों कारण मानने के लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता। इस प्रकार पूर्वपक्षी आक्षेप उठाते हैं (विवरणप्रमेयसंग्रह पृ. ६४७)। इसके उत्तर में विद्यारण्य मुनि ने कहा है कि ब्रह्म उपादान एवं निमित्त दोनों ही कारण है। सूत्र में “यतः शब्द से यही अभिप्रेत है। ब्रह्म निमित्त कारण है। इसके लिए
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास
“यतो वा’ आदि श्रुतिप्रमाण हैं ही। ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है। उसमें “ऐतदात्म्यमिदं सर्वम्, इदं सर्वं यदयमात्मा, आत्मैवेदं सर्वम्’’ इत्यादि श्रुतियां प्रमाण हैं। क्योंकि अद्वैतवेदान्त में ब्रह्म के अतिरिक्त कोई वस्तु स्वीकृत नहीं है, इसीलिए अन्तिम कारणता ब्रह्म में ही मानी जाती है। सर्वज्ञात्म मुनि के अनुसार एकमात्र परब्रह्म ही जगत्-योनि है। उनके अनुसार शुद्ध ब्रह्म ही जगत् का उपादान कारण है। चूंकि कूटस्थ ब्रह्म स्वरूपतः जगत् का कारण नहीं बन सकता, इसलिए माया को अद्वैत वेदान्तियों ने द्वारकारण माना है। माया के बिना ब्रह्म में जीव-जगत् का विवर्तन सम्भव नहीं है। अप्पय दीक्षित ने संक्षेपशारीरककार सर्वज्ञात्ममुनि के मत को उद्धृत करते हुए सिद्धान्तलेशसंग्रह में कहा है, “केचित् आहुःशुद्धमेवोपादानम्”, अर्थात् कुछ लोग मानते हैं कि विवरणकार के अनुसार शुद्ध ब्रह्म जगत का उपादान नहीं हो सकता, अर्थात अपरिणामी (कटस्थ ब्रह्म जगत का उपादान कारण नहीं बन सकता। शुद्ध ब्रह्म को विवर्तकारण अर्थात् विवर्त कार्य का अधिष्ठान तो कहा जा सकता है, किन्तु परिणाम को दृष्टि में रखते हुए माया को ही जगत् का उपादान कारण कहना होगा। अप्पय दीक्षित ने विवरणकार के मत को प्रस्तुत करते हा सिद्धान्तलेशसंग्रह में लिखा है कि “सर्वज्ञत्वादिविशिष्टं मायाशबलमीश्वररूपमेव उपादानम्”, अथात् सर्वज्ञत्वादि विशिष्ट मायारूप उपाधि से विशिष्ट ब्रह्म ही जगत् का उपादान कारण है। परन्तु परिणामी उपादान के लिए माया को ही ब्रह्माश्चित रूप से कारण मानना होगा, क्योंकि जगत् परिणाम का आरोप ब्रह्म में सीधा नहीं माना जा सकता अथवा संक्षेपशारीरककार के समान बीच में माया को माध्यम रखना होगा। ब्रह्मसूत्रभाष्यभामती के मंगलश्लोक में वाचस्पति मिश्र ने कहा है “अनिवांच्याविद्यादितयसचिवस्यप्रभवतोवियायस्यैतेवियदनिलतेजोऽववनयः ।’ आचाय शंकर के अनुसार मायाशक्तिमान् ब्रह्म जगत् का कारण है। माया जगत् का उपादान है। उस उपादान का आश्रय ब्रह्म है, इसीलिए ब्रह्म उपादान कारण है। सुरेश्वर आचार्य ने आचार्य शंकर का अनुसरण करते हुए बृहदारण्यकभाष्यवार्तिक में अज्ञान को उपादान कारण तथा उस अज्ञान को आश्रित करके ब्रह्म को जगत का उपादान कारण कहा है। माया का स्वरूप अनिर्वचनीय है। इसीलिए शुद्ध ब्रह्म में आथित होने पर भी वह शुद्ध ब्रह्म को स्पर्श नहीं करती। इस प्रकार से ब्रह्म को ही निमित्त कारण एवं उपादान कारण दोनों ही कहा जा सकता है। जिन आचार्यों ने शुद्ध ब्रह्म को उपादान कारण नहीं माना, उनका तात्पर्य इतने से ही है कि अधिष्टानता शुद्ध ब्रह्म की होने पर भी वह उपादानत्व-कुक्षि में प्रवेश नहीं करता। वह अस्पृष्ट ही रहता है। इसी दृष्टि से शुद्ध ब्रह्म का निमित्त एवं उपादान कारणता का भी निषेध किया जा सकता है, साथ में माया को माध्यम बनाकर दोनों कारणताओं का आरोप उसमें किया भी जा सकता है। इसीलिए पदार्थतत्वनिणयकार ने ब्रह्म
और माया दोनों को ही जगत का उपादान कारण कहा है। ब्रह्म को शुद्ध बतलाने के लिए सिद्धान्तमुक्तावलीकार प्रकाशानन्द सरस्वती ने माया-शक्ति को ही उपादान कारण कहा है,
ब्रह्म को नहीं।वेदान्त-खण्ड इस प्रकार ब्रह्म की कारणता के विषय में मतभेद- सा दीखता है। परन्तु बात एक ही है। अद्वैतवेदान्त के सामने एक ही समस्या है, ब्रह्म को कार्य-कारणभाव से परे रखकर किसी द्वितीय तत्व की स्वीकृति के बिना आरोपित प्रपंच की व्याख्या प्रस्तुत करना। इसी समस्या के समाधान में भिन्न-भिन्न युक्तियों से अद्वैताचार्यों ने कारणता की व्याख्या की है। माया के माध्यम से कारणता कहने का अर्थ है ब्रह्म को निर्विशेष सिद्ध करना। साथ में माया का भी वास्तविक अर्थ में निषेध करना है। (५) परिणाम और विवर्तवाद :
ब्रह्म की कारणता के प्रसंग में यह भी बात समझ लेनी चाहिए कि अद्वैतवादी जगत्-प्रपंच को ब्रह्म का विवर्त मानते हैं और इसके साथ ही माया का परिणाम मानते हैं। धर्मराजाध्वरीन्द्र ने “उपादानविषमसत्ताक कार्यापत्ति” को बिवर्त कहा है। अप्पय दीक्षित ने उपादानकारण के समान धर्मों के अन्यथाभाव को परिणाम और उससे विलक्षण अन्यथाभाव को विवर्त कहा है, (सिद्धान्तलेशसंग्रह पृ.५८-६०)। सीधे अर्थ में बिलक्षण भाव को बिवत कहा जा सकता है। कारण गुणों को लेते हुए परिबर्तन को परिणाम कहा जा सकता है। रज्जुसर्प अमस्थल में सर्प रज्जुगत अज्ञान का परिणाम है तथा रज्जु का विवत है। दूध जिस प्रकार दधि में परिणत हो जाता है, उसे परिणाम कहते हैं, परन्तु विभम स्थल की वस्तु को विवर्त ही कहा जायेगा।
पूर्वोक्त अर्थों में सम्पूर्ण कार्य-जगत् ब्रह्म का विवर्त है, क्योंकि ब्रह्म ही कार्य-जगत का अधिष्ठान है। ब्रह्म कारण के अतिरिक्त कार्य-जगत् का अस्तित्व नहीं है । पञ्चपादिकाविबरण पृ. २०७)।
०९. जीव का स्वरूप
जीव की उपाधि
परब्रह्म अद्वैत चिदानन्दस्वरूप है। जो देहाभिमानी अहंप्रत्ययगम्य है, वह प्रकृत आत्मा नहीं है, वह अविद्या-कल्पित अर्थात् अविद्या में प्रतिविम्बित चैतन्य है, जिसे जीव कहते हैं। तत्त्वविवेककार एवं प्रकटार्थविवरणकार दोनों के अनुसार अविद्या में चितप्रतिबिम्ब ही जीव है। अण्णय दीक्षित ने सर्वज्ञात्म मुनि के मत को उद्धत करते हुए कार्योपाधिरयं जीवः” ऐसा कहा है। अविद्या प्रतिबिम्ब जीव है, इसका समर्थन विवरणकार ने भी किया है (पंचपादिकाविवरण, पृ. २६४)। सूर्य जिस प्रकार विभिन्न जलपूर्ण पात्रों में प्रतिबिम्बित होता है, उसी प्रकार शुद्ध चैतन्यस्वरूप ब्रह्म अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित होकर जीव-भावापन्न होता है। परमेश्वर का माया में प्रतिबिम्बित इश्वरभाव जिस प्रकार मिथ्या है, उसी प्रकार जीवभाव भी मिथ्या है। वस्तुतः परमात्मा शद्ध अंश में जीवाभिन्न है। वह असीम, अनन्त होते हुए भी सीमित के समान, अभिन्न होकर भी भिन्न के समान, अकर्ता होकर भी कर्ता
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास के समान, अभोक्ता होकर भी भोक्ता के समान, अज्ञाता होकर ज्ञाता के समान, मन-वाणी के द्वारा अगोचर होकर भी अहं-प्रत्ययगोचर होकर जीव-भावापन्न हो जाता है। अनन्त महाकाश जिस प्रकार घटादि उपाधिभेद से सखण्ड एवं भिन्न-भिन्न प्रतीत होने लगता है, उसी प्रकार अखण्ड चैतन्य भी अविद्या-उपाधियोग से इन्द्रिय, मन एवं शरीर के धर्मों से विशिष्ट होकर प्रतीत होने लगता है। इस प्रकार शुद्ध चैतन्य ही अहं-अभिमानी जीव कहलाता है। ब्रह्म के जीवभाव की व्याख्या में अद्वैत वेदान्तियों में मतभेद दिखाई देते हैं। इनमें से अवच्छेदवाद एवं प्रतिबिम्बबाद उल्लेखनीय हैं।
(२) अवच्छेदवाद एवं प्रतिबिम्बवाद
अवच्छेदबादी के मत में अन्तःकरण-अबच्छिन्न चेतन ही जीवात्मा है। यह अन्तःकरण प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न है। इसी कारण जीवात्मा भी नाना है। इस मत में जीव घटाकाश के समान तथा ब्रह्म महाकाश के समान है। अबच्छेदवाद के समर्थन में अवच्छेदवादी “अंशोनाना व्यपदेशात्” (ब्रह्म सूत्र २/३/४३) यह सूत्र प्रस्तुत करते हैं। उपनिषद् में कहीं-कहीं पर जीव का ब्रह्माग्नि के स्फुलिंग के रूप में वर्णन किया गया है। इस प्रकार से अवच्छेदवाद मान लेने पर ब्रह्म-जीव में उपास्य उपासक भाव भी बन सकता है।
प्रतिबिम्बवादी जीव को शुद्ध चेतन का प्रतिबिम्ब मानते है और अपने मत के समर्थन में “आभास एव च” (ब्रह्मसूत्र २/३/५०), यह सूत्र प्रस्तुत करते हैं। इस सूत्र के अनुसार जीव ब्रह्म का आभास है, अर्थात् प्रतिबिम्ब है। ब्रह्म विम्ब है, जीव प्रतिबिम्ब है। जिस प्रकार सूर्य और जलस्थित सूर्य के प्रतिबिम्ब में भेद नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्म और ब्रह्म-प्रतिबिम्ब जीव में भेद नहीं है। फिर भी प्रतिबिम्ब के आधार के नाना होने से जिस प्रकार प्रतिबिम्बभाव से सूर्य नाना हो सकता है, इसी प्रकार नाना अन्तः करणों में प्रतिबिम्बित ब्रह्म भी नाना जीवरूप में प्रतीत होता है। प्रतिबिम्बवादी “अंशो नाना” इस सूत्र के भाष्य की व्याख्या करते हुए इस सूत्र को भी अपने ही समर्थन में प्रस्तुत करते हैं। सूत्र के शांकरभाष्य में “अंश इव अंशः”, न हि निरवयवस्य मुख्योऽशः सम्भवति (२/३/४३ का भाष्य)। अर्थात अवयवरहित शद्ध चैतन्य का अंश सम्भव नहीं है, इसलिए जीव को प्रतिबिम्ब ही मानना चाहिए। ब्रह्म के साथ जीव का अंशाशिभाव-सम्बन्ध सम्भव नहीं है। “आभास एव च”, इस सूत्र में “एव” शब्द होने के कारण प्रतिबिम्बबाद ही समर्थित होता है। आचार्य गोविन्दानन्द शांकरभाष्यरत्नप्रभा में “एव” शब्द के ऊपर जोर देकर कहते हैं कि सूत्रकार द्वारा प्रतिबिम्बवाद ही अभिप्रेत है और भाष्यकार ने उसी का समर्थन किया
है।
आचार्य सुरेश्वर के मत में बिम्ब और प्रतिबिम्ब अभिन्न नहीं हैं। प्रतिबिम्ब बिम्ब की छाया अर्थात् आभास है। मुख की छाया मुख से भिन्न है। इस प्रकार ब्रह्म की छाया अर्थात् आभास ब्रह्म से भिन्न है। छाया सत्य नहीं, मिथ्या है। इसलिए प्रतिबिम्ब भी सत्य
वेदान्त-खण्ड
नहीं, मिथ्या है। समष्टि-माया का आभास ईश्वर एवं व्यष्टि अविद्या का आभास जीव है।
(३) प्रतिबिम्बवाद पर विभिन्न आचार्यों के मत
प्रतिबिम्बबादी उक्त आभासवाद में अरुचि प्रकट करते हैं। उनके अनुसार जीव की व्याख्या प्रतिबिम्बबाद से अधिक संगत हो सकती है। दर्पण में प्रतिबिम्बित मुखप्रतिबिम्ब वस्तुतः मुख से पृथक् वस्तु नहीं है। इस प्रकार बुद्धिदर्पण में प्रतिबिम्बित चितप्रतिबिम्ब चिदात्मा से भिन्न नहीं है। बिम्ब से प्रतिबिम्ब को पूर्णतः यदि भिन्न माना जाय, तो बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव ही नहीं बन सकता। इसलिए प्रतिबिम्ब को बिम्ब से भिन्न नहीं मानना चाहिए। इस मत में जब ‘दर्पण में मुख नहीं है,” ऐसा करके बाधज्ञान का उदय होता है, तो उस समय मुख के साथ दर्पण के सम्बन्ध का ही बोध होता है। इससे प्रतिबिम्ब से बिम्ब भिन्न नहीं सिद्ध होता। यहां पर शंका हो सकती है कि जैसे दपणगत मुख-प्रतिबिम्ब ज्ञान-शून्य होता है, उसी प्रकार जीव भी ज्ञान-शून्य होगा। अर्थात् जीव अपने आत्मा के साथ अपना भेद नहीं जान सकता, क्योंकि वह प्रतिबिम्ब है, जैसे दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब । दर्पण में स्थित जो मुखप्रतिबिम्ब है, यह मुख के साथ अपना अभेद नहीं समझ सकता, क्योंकि वह अचेतन है। प्रतिबिम्ब को चेतन नहीं मान सकते, क्योंकि चेतन मानने पर मुख में चेष्टा हुए बिना ही प्रतिबिम्ब में चेष्टा होने लगेगी। परन्तु मुख में चेष्टा हुए बिना प्रतिविम्ब में चेष्टा नहीं होती। जीव में चैतन्य-गुण जीव-भाव के समय में भी होता है। इसके उत्तर में यही कहा जायेगा कि दष्टान्त साशं में नहीं दिया जाता। दष्टान्त में इतना ही लेना चाहिए कि प्रतिबिम्ब और बिम्ब में जिस प्रकार भेद नहीं है, प्रतिबिम्ब वस्तुतः बिम्ब ही है, उसी प्रकार अन्तःकरण आदि उपाधियों को छोड़ने पर जीव ब्रह्म ही है। दर्पण में स्थित मुख प्रतिबिम्ब को मुख से भिन्न नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा कहने पर मुख के बिना भी प्रतिबिम्ब की स्थिति की आपत्ति होगी। कुछ अद्वैत वेदान्तियों के अनुसार प्रतिबिम्ब-बोध पूर्णतया भान्तिमात्र है। जब प्रतिबिम्ब गृहीत होता है तब नेत्र-रश्मि दर्पण से टकराकर वापिस आकर पुनः बिम्ब-रूप मुख का ही ग्रहण कराती है। ग्रहण मुख का ही होता है। इसी कारण प्रतिबिम्ब विपरीत रूप में गृहीत होता है। अवच्छेदबाद में प्रतिबिम्बवादी दोष देते हुए कहते हैं कि जब चैतन्य अन्तः करण द्वारा परिच्छिन्न होता है तब वही परिच्छिन चैतन्य मृत्यु के पश्चात् नहीं रह सकता। जिस प्रकार घट को इधर-उधर ले जाया जा सकता है उसी प्रकार अन्तःकरण का परलोकगमन सम्भव है, किन्तु घट को स्थानान्तरित करने पर घट के अन्दर पूर्वाकाश नहीं रहता, अपितु जहां तट पर घट को ले जाया गया वहां का आकाश घट के अन्दर होता है, क्योंकि आकाश का गमन-आगमन सम्भव नहीं। इसी प्रकार शरीरपात के अनन्तर अन्तःकरण जब परलोकगमन करता है तब इहलोक में अन्तःकरण-अवच्छिन्न चेतन के साथ परलोकगमन नहीं करता, क्योंकि महाकाश-स्थानीय चेतन का गमनागमन सम्भव नहीं है। परलोकगामी
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास
७१ अन्तःकरण परलोकस्थ चैतन्य प्रदेश को ही अवच्छेद करेगा, इस लोक के चैतन्य-प्रदेश को नहीं। ऐसी स्थिति में इहलोक-परलोक चैतन्य भागों के भिन्न-भिन्न होने के कारण अन्तःकरण के एक होने पर भी जीव भिन्न-भिन्न होंगे तथा प्रतिकर्म व्यवस्था नहीं बनेगी। इससे कृत-नाश एवं अकृत-आगम दोष होंगे। एक जीव शुभ कर्म करके परलोक में भिन्न जीव हो जाने के कारण उस शुभ कर्म का फल नहीं पा सकेगा। इसी प्रकार अशुभ कर्म के लिए भी समझना चाहिए। यदि इहलोक-परलोक में चैतन्य में काल्पनिक भेद नहीं मानेंगे तो जीवेश्वर-भेद करना भी कठिन होगा। जिस प्रकार इहलोक-परलोक में एक चैतन्य है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न अन्तःकरणों में एक ही चैतन्य होने के कारण प्रतिकर्म-व्यवस्था नहीं बन पायेगी। जो चैतन्य राम के अन्तःकरण द्वारा परिच्छिन्न हुआ है, वहीं चैतन्य श्याम के भी अन्तःकरण द्वारा परिच्छिन्न होगा। इस प्रकार सुख-दुःख-भोग में अव्यवस्था होगी। प्रतिबिम्बवादियों का कहना है कि अवच्छेदबाद में जिस प्रकार अवच्छेद के गमनागमन की आपत्ति होती है, प्रतिबिम्बवाद में उसकी सम्भावना नहीं है। प्रतिबिम्बबाद में बिम्ब एक है, इसलिए भिन्न-भिन्न अन्तःकरण-रूप दर्पणों में एक ही बिम्बभूत चैतन्य के नाना प्रतिबिम्ब हो सकते हैं। फिर भी नाना प्रतिबिम्ब एक बिम्ब से अभिन्न हैं। अतः चे प्रतिबिम्ब अन्तःकरण-भेद से नाना लगने पर भी वस्तुतः एक ही हैं। इस मत में शुद्ध चतन्य बिम्ब- स्थानीय है। वह किसी भी उपाधि से परिच्छिन्न नहीं होता।
कुछ लोग ईश्वर को भी शुद्ध चेतन का प्रतिबिम्ब मानते हैं और जीव को भी। कुछ लोग ईश्वर को बिम्ब और जीव को प्रतिबिम्ब कहते हैं। प्रकाशात्मयाते के अनुसार इश्वर बिम्ब-स्थानीय है और जीव उसका प्रतिबिम्ब है। अविद्या में चैतन्य का आभास ही जीव है। उनके अनुसार जीवेश्वर-भेद-साधक उपाधि अज्ञान है। अनादि अज्ञान के बिना जीवेश्वर-भेद नहीं होता। अज्ञान के विनाश होने पर जीव ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। ब्रह्म के प्रतिबिम्ब ग्रहण करने में समर्थ अविद्या ही है। एक उपाधि में एक ही प्रतिबिम्ब पड़ सकता है। दो प्रतिबिम्बों के लिए दो उपाधियाँ चाहिए, परन्तु ऐसा सम्भव नहीं। इसलिए जीव और ईश्वर दोनों ही प्रतिबिम्ब हैं, यह मत नहीं माना जा सकता। ईश्वर बिम्ब है और जीव प्रतिबिम्ब । इस प्रकार का सिद्धान्त ही टीक है। बिम्ब होने के कारण ईश्वर में स्वातन्त्र्य आदि गुणों के होने में असंगति भी नहीं है और इस प्रकार जीब इश्वराधीन भी रहेगा।
२/१/३३), इस सूत्र की भी संगति बैठ जाती है। लोक में भी दर्पण में पड़े हुए अपने प्रतिबिम्ब के ऋजु-वक आदि भावों को देखकर बिम्बभूत व्यक्ति खेलता है, प्रसन्न होता है। वैसे ही ब्रह्म अविद्या में प्रतिबिम्बित अपने ही रूप-जीवों को देखकर खेलता है। इसी अर्थ में अर्थात् ईश्वर स्वतन्त्रतापूर्वक सृष्टिलीला रचता है, इस अर्थ में इश्वर बिम्ब है और जीव प्रतिबिम्ब है, यह सिद्धान्त अधिक संगत लगता है। प्रतिबिम्ब-ईश्वरवादियों के अनुसार ईश्वर की स्वतन्त्रता की कल्पना क्लिष्ट होगी। जो लोग अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित चैतन्य
बेदान्त-खण्ड
को जीव कहते हैं, उनके सिद्धान्त की व्याख्या सुसंगत नहीं है, अथवा उनके सिद्धान्त की यह व्याख्या कि जीव अविद्या प्रतिबिम्बित चैतन्य है, इस मत के अनुसार हो जायेगी। अविद्या में चित् का प्रतिबिम्ब ही जीव है, फिर भी भिन्न-भिन्न अन्तकरणों के साथ तादात्म्य-अध्यास होने के कारण उन-उन अन्तःकरण-प्रयुक्त जीवों में सुख-दुःख, कर्तृत्व-भोकृत्तव आदि धर्म सम्भव हो सकते हैं। इन धर्मों के लिए अन्तःकरण ही विशेष- अभिव्यक्ति का स्थान है। अन्तःकरण अविद्या का ही परिणाम है। इसलिए अविद्या में प्रतिबिम्बित चेतन जीव है, इसकी व्याख्या, अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित चैतन्य जीव है, इस प्रकार करने पर भी किसी प्रकार की असंगति नहीं हैं।
(४) बिम्ब से प्रतिबिम्ब भिन्न है या अभिन्न?
प्रतिबिम्ब बिम्ब से भिन्न है या अभिन्न है? यह सत्य है या मिथ्या इन प्रश्नों के उत्तर में कुछ अद्वैत वेदान्ती प्रतिबिम्ब को बिम्ब से अभिन्न कहते हैं। भेद की जो प्रतीति होती है, वह भ्रमात्मक है। इस मत के अनुसार बिम्ब-अभिन्न होने के कारण प्रतिबिम्ब भी सत्य है। अनुमान के रूप में प्रतिबिम्ब की सत्यता की सिन्द्रि इस प्रकार होगी - “बिम्ब के समान प्रतिबिम्ब भी सत्य है, प्रतिबिम्ब से अभिन्न होते हा भी बाधाभाव होने के कारण”। इस प्रकार अभिन्नतया प्रतिबिम्ब सत्य होता है। कुछ आचार्यों के मत में बिम्ब एवं प्रतिबिम्ब अभिन्न नहीं है। बिम्ब सत्य है, प्रतिबिम्ब मिथ्या है। उनके अनुसार मुख का प्रतिबिम्ब दर्पण में है, ग्रीवा में स्थित मुख दर्पणस्थ मुख नहीं हो सकता। गौवास्थ मुख और दर्पणस्थ मुख परस्पर विपरीत होते हैं। जो लोग कहते हैं कि “हमने दर्पण में अपना मुख देखा है”, उनका ऐसा अभेद-कथन भ्रमपूर्ण है। और भी, बात यह है कि छोटे दर्पण में मुख बड़ा होने पर भी छोटा ही दिखाई देगा। इस प्रकार बिम्ब-प्रतिबिम्बभेदवादी के अनुसर बिम्ब प्रतिबिम्ब से भिन्न सिद्ध होता है। इसलिए अद्वैत विद्याचार्य प्रतिबिम्ब को मिथ्या ही कहते हैं। विवरणाचार्य आदि के अनुसार दर्पण को देखकर मनुष्य कहता है कि “मेरा मुख मलिन है, मेरा मुख दीख रहा है”, इत्यादि। इस प्रकार के व्यवहार से बिम्ब और प्रतिबिम्ब का अभेद सिद्ध होता है। प्रतिबिम्ब बिम्बाभिन्न है। भेद-व्यवहार औपचारिक है। (देखिए सिद्धान्तलेशसंग्रह, अच्युतग्रन्थमाला, सं. २०११, वाराणसी, पृ. ३२२)।।
विवरणानुसारी आचार्यों का और भी कहना है, प्रतिबिम्ब यदि बिम्ब से भिन्न एवं मिथ्या हुआ, तो “अहं ब्रह्मास्मि’ एवं ‘तत्त्वमसि’ आदि वेदान्त-वाक्यों में प्रतिपादित
जीव-ब्रह्मैक्य की सिद्धि कैसे होगी? इन वाक्यों में जीव को ब्रह्म ही कहा गया है और ब्रह्म होने के कारण जीव वस्तुतः नित्य शुद्ध स्वरूप है। ऐसे जीव को बिम्ब से प्रतिबिम्ब को भिन्न मानकर मिथ्या कह देने पर श्रुति-वाक्यों की असंगति होगी, इसीलिए प्रतिबिम्ब को बिम्बाभिन्न मानना चाहिए तथा उसे सत्य मानना चाहिए। विवरणाचार्य के इस मत का
अनुसरण विद्यारण्य मुनि आदि आचार्य भी करते हैं।
७३
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास बिम्ब-प्रतिबिम्बभिन्नवादी अद्वैतविद्याचार्य आदि का कहना है कि पूर्वोक्त प्रतिबिम्ब को बिम्ब से अभिन्न एवं सत्य मानने पर जीव प्रतिबिंबिततया सत्य सिद्ध होगा, जबकि अहंबुद्धिगम्य जीव अध्यस्त होने के कारण मिथ्या हुआ करता है।
वस्तुतः अद्वैतवेदान्त के अनुसार जीवगत शुद्ध चैतन्य ही ब्रह्म है। “अहं ब्रह्मास्मि” आदि वाक्यों द्वारा लक्षणा से उसी का शुद्ध चैतन्य से अभेद कहा गया है, न कि अध्यस्त अहं के साथ। अध्यस्त अहन्तादि धर्मों की व्यावृत्ति करके ही जीवब्रह्माभेद सिद्ध होता है। इस प्रकार जीव को अध्यस्ततया मिथ्या भी कहा जा सकता है तथा शुद्ध चैतन्यतया ब्रह्माभिन्न होने के कारण सत्य भी कहा जा सकता है। इसीलिए पूर्वोक्त प्रतिबिम्ब की सत्यता एवं प्रतिबिम्ब के मिथ्यात्व में कोई असंगति नहीं है। दर्पणस्थ प्रतिबिम्ब पृथक् रूप से मिथ्या है, और बिम्ब-रूप से सत्य है। इसलिए उक्त दोनों मतों में बहुत सैद्धान्तिक मतभेद नहीं दीखता।
१०. जगत् और जगन्मिथ्यात्व
अद्वैतवाद जगत् के बारे में विवतबाद को मानता है। अज्ञान के कारण जिस प्रकार रस्सी में सर्प का भम होता है, उसी प्रकार अविद्या के कारण ब्रह्म में मिथ्या प्रपंच का भ्रम होता है। जिस प्रकार रस्सी में दृष्ट सर्प का उपादान रस्सी है, उसी प्रकार ब्रह्म भी सर्वाधिष्टानरूप से मिथ्या-प्रपंच का आश्रय है। जिस प्रकार सर्प-प्रम के कारण रस्सी में किसी भी प्रकार की विकृति नहीं आती, उसी प्रकार ब्रह्म भी प्रपंच-भम के कारण विकृत नहीं होता। वह सच्चिदानन्दरूप से अविकत होता हुआ भी प्रपंच का विवतोपादान’ बनता है। परब्रह्म जगत् का परिणामी कारण नहीं है, क्योंकि श्रुति ब्रह्म को निर्विकाररूप से प्रतिपादित करती है। विवर्तबाद के अनुसार सम्पूर्ण विश्व मायाकल्पित और मिथ्या है। अद्वैतवेदान्त में सदसदनिर्वचनीय को मिथ्या कहा जाता है। कार्यजगत् सद् ब्रह्म का विवर्त है, परिणाम नहीं। बिवत और परिणाम के लक्षण आचार्यों ने भिन्न-भिन्न रूप से किये है
वस्तुनस्तत्समसत्ताको अन्यथाभावः परिणामः, तदसम सत्ताको विवर्त इति वा, कारणसलक्षणोऽन्यथाभावः परिणामः तद्विलक्षणो विवर्त इति वा, कारणभिन्न कार्य परिणामः, तदभेदं विनैव तद्व्यतिरेकेण दुर्वचं कार्य विवर्त इति वा
(सिद्धान्तलेशसंग्रह, प्रथम परिच्छेद)। इसी प्रकार वेदान्त-परिभाषा में भी परिणाम और विवर्त के लक्षण दिये गये हैं “परिणामो नाम उपादान-समसत्ताककार्यापत्तिः, विव” नाम उपादानविषमसत्ताककार्यापत्तिः।” उपादानसमानजातीय कार्य को परिणाम और विवर्त उपादानविषमजातीय काय को कहते हैं, जैसे दही दूध का परिणाम है और शुक्तिरजत शुक्ति का विवत है। विवर्तभूत कार्य-प्रपंच
वेदान्त-खण्ड
को अनिवाच्य भी कहा जाता है। इसी कारण विवर्तवाद को आनवाच्यवाद आर मायावाद भी कहा जाता है।
अद्वैतवेदान्त का विवतबाद सांख्यदर्शन-अभिमत सत्कायबाद से बिलक्षण होता हुआ भी कुछ अंश में समान है। अद्वैतमत में जगत् सत् ब्रह्म का विवर्त है और माया का परिणाम है। सांख्य के अनुसार जगत् त्रिगुणात्मिका प्रकृति का परिणाम है। किन्तु सांख्य के अनुसार कार्यरूप जगत् (प्रपंच) सत्य है। अद्वैत के अनुसार जगत् का उपादान माया है और वह अनिर्वाच्य है। इसलिए माया का परिणाम जगत् (प्रपंच) भी सदसदरूपेण अनिर्वाच्य है, अर्थात् मिथ्या है। सांख्य का यह कथन कि कार्य मात्र ही कारण का अवस्थाविशेष है, अद्वैतवादी को स्वीकार्य है। सांख्यदर्शन कार्य और कारण में अभेद सम्बन्ध मानता है। विवर्तबादी के अनुसार यह मत एक सीमा तक ही सत्य है क्योंकि कार्यरूप प्रपंच अविद्याकाय होने के कारण सत्त्वरजस्तमोगुणात्मक है, अताएब वह अविशुद्ध है। पुनश्च कारणरूप-ब्रह्म गुणातीत अतिशुद्ध अपापविद्ध है। कार्य ससीम है और कारण असीम (अखण्ड) है। दोनों में सर्वथा अभेद नहीं हो सकता। कार्य मिथ्या या माया का परिणाम है। माया के धर्म शुद्ध ब्रह्म को स्पर्श नहीं करते। अद्वैतवादियों ने आरम्भवादी न्यायवैशेषिकों द्वारा स्वीकृत असत्कार्यवाद को भी स्वीकार नहीं किया, क्योंकि आरम्भवाद के अनुसार काय कारण से एक नवीन आरम्भ है। अद्वैतवादी कार्य को कारण से “अनन्य” मानते हैं। न्याय के कार्यकारणबाद के अनुसार कार्य कारण से पूर्णतया भिन्न होता है। सांख्य के कार्य-कारणवाद के अनुसार कार्य कारण के ही समान स्तर का होता है। इसीलिए उक्त दोनों सिद्धान्तों के अनुसार कार्य-कारण की समीचीन व्याख्या नहीं हो सकती, क्योंकि कार्य और कारण को भिन्न-भिन्न मानने पर एक को जानने पर कार्यमात्र को जानना हो जाता है, इस प्रतिज्ञा का उपपादन नहीं हो सकता। इसी कारण अद्वैतवादियों ने कार्य को कारणसत्ता में अनुप्राणित माना है। “अनन्य” का अर्थ अनतिरिक्त है। कार्य-प्रपंच कारण ब्रह्म से अतिरिक्त नहीं है, यही उक्त ‘अनन्य’ पद का तात्पर्य है। कार्य की सत्ता स्वतन्त्र नहीं है. अद्वैतवेदान्त का कार्य-कारणवाद के सम्बन्ध में यही अभिप्राय है। सांख्य-दर्शन कार्य को सत् कहता है। अद्वैतवादी सत्कायवाद को नहीं अपितु सत्कारणवाद को मानते हैं। इसको सतविवर्तवाद भी कह सकते हैं। इस दृष्टि से सत्कार्यवाद और आरम्भवाद विवर्तवाद की पूर्वभूमिका ही हैं।
“प्रतिष्ठितेऽस्मिन् परिणामवादे स्वयं समायाति विवर्तवादः। आरम्भवादः परिणामवादो विवर्तवादस्य हि भूमिकेयम् ।”
(अद्वैतब्रह्मसिद्धि) सत्कार्यवाद के प्रसंग में कार्य-कारण के सम्बन्ध की व्याख्या करने के लिए ब्रह्मसूत्रकार ने “अनन्य” पद का जो प्रयोग किया है, उसकी व्याख्या में शंकराचार्य का
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास कहना है कि द्रष्ट्र-दृश्य, भोक्त-भोग्य, ज्ञातृ-शेय, कारणकार्य आदि विभाग अद्वैतमत में व्यावहारिक दृष्टि से मानने पर भी वस्तुतः इनका कोई पारमार्थिक अस्तित्व नहीं है। परमार्थ सत् एकमात्र ब्रह्म है। अन्य वस्तुओं की सत्ता भी अधिष्ठान-ब्रह्म के कारण है। समुद्र की लहरें जिस प्रकार समुद्र से पृथक् नहीं हैं, मिट्टी के घटादि जिस प्रकार मिट्टी से भिन्न नहीं हैं, और सुवर्ण-आभूषण जिस प्रकार सुवर्ण से भिन्न नहीं है, उसी प्रकार विश्वप्रपंच भी कारणस्वरूप ब्रह्म के अतिरिक्त (भिन्न) नहीं है। घटादि तो मात्र कथन के लिए हैं, वस्तुतः तत्त्व तो मिट्टी ही है। उसी प्रकार आपाततः ब्रह्म में प्रपंच भी दिखाई देता है। परमार्थ सत्य तो ब्रह्म ही है। आकाशादि पदार्थ भी अधिष्टान की सत्ता से ही भासित हो रहे हैं। परमार्थतः ब्रह्म के अतिरिक्त द्वितीय वस्तु नहीं है।
आचार्य शंकर के “अध्यासो मिथ्येति भवितुं युक्तम्”, इस वचन को आधार मानकर ही पदमपादाचार्य ने पंचपादिका में कहा है मिथ्या शब्दो द्वयर्थः अपनववचनो निर्वचनीयतावचनश्च”, अथात् मिथ्या शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं। (१) अपनवचन, क्योंकि मिथ्या शब्द का लोक में अपनव अर्थ में भी प्रयोग देखा जाता है। तथा (२) अनिर्वचनीयतावचन अधात सदसदादि रूपों से अकथनीय। यहां पर मिथ्या शब्द का अर्थ अनिर्वचनीयता ही है, मिथ्येत्यनिर्वचनीयतोच्यते”। अतः मिथ्यात्व का लक्षण हुआ सदसदनधिकरणस्वरूप अनिर्वाच्यत्व, अर्थात् सत् भी नहीं, असत् भी नहीं, सदसदरूप भी नहीं, तीनों प्रकारों से विलक्षण। जो सद्रूप से और सदसद् उभय रूप से भी कथनीय नहीं है, वही अनिर्वचनीयरूप मिथ्या है। नृसिंहाश्रम ने वेदान्त-तन्वविवेक में पंचपादिका का यह लक्षण उन्द्रत किया है। जो तुच्छ असत् है जैसे आकाशकस्मादि, उसमें अन्यत्वादि धर्म भी सम्भव नहीं है। अतः तुच्छ में उक्त लक्षण की आतव्याप्ति नहीं हो सकती। अन्यत्वादि । मि को तछ में मानने पर तुच्छ भी प्रपंच के ही अन्तर्गत होगा। दूसरी बात यह है कि तुच्छ तो निःस्वरूप है (वेदान्ततत्त्वविवेक पृ. १६८)।
अब शंका हो सकती है कि अनिर्वचनीयत्वरूप से तो फिर भी निर्वचनीय हो ही रहा है? इसके उत्तर में अद्वैतवादियों का कहना है कि निरुक्तिबरहतामात्र को तो हम अनिर्वचनीय कहते नहीं, अपितु सत्वासत्त्व उभयरूप से निरुक्तिबरहता को अनिर्वचनीय कहते हैं (अद्वैतसिद्धि पृष्ठ १७३)।”
पंचपादिका के इस लक्षण को मधुसूदन ने अद्वैतसिद्धि में पंचम लक्षण के रूप में उपन्यस्त किया है। उक्त सदसदनधिकरणत्वरूप अनिवांच्यत्व अप्रसिद्ध है, ऐसा आक्षेप द्वैतबादी न्यायामृतकार ने किया है और उक्त सदसदनधिकरणत्वरूप साध्य के तीन विकल्प करके तीनों में अर्थान्तरतादि दोष प्रदर्शित किये हैं। उक्त तीनों विकल्पों में से द्वितीय “सत्त्वात्यन्ताभावासत्त्वात्यन्ताभावरूपधमद्वय” विकल्प को मान लेने पर पूर्वोक्त दोपों की सम्भावना नहीं है। अप्रसिद्धि-विशेषणता अर्थात् साध्याप्रसिद्धि की आपत्ति के निरसन के लिए अनुमान-प्रयोग से सामान्यतया साध्य की प्रसिद्धि की जाती है, यथा सत्त्य और
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वेदान्त-खण्ड
असत्त्व, इन दोनों धमों का किसी एक धर्मी में अभाव अवश्य होगा, धर्मी होने से, रूपरस के समान, जैसे रूप और रस पृथ्वी और जल के धर्म हैं और इन दोनों का अभाव वायू में सिद्ध है। रूप और रस में धर्मस्वरूप हेतु है तथा एकधर्मी वायु में रूप और रस का अत्यन्ताभाव है। इस प्रकार अनुमान के अंग, हेतु एवं साध्य की व्याप्ति भी प्रसिद्ध है। पूर्वोक्त अनुमान का पक्ष है सदसत्त्व। उसमें हेत धमत्व सिद्ध ही है अर्थात् हेतु की पक्षवृत्तिता सिद्ध हुई। अतः अनुमान-बल से सत्त्वासत्त्व धर्मों का अत्यन्ताभाव किसी एक धर्मी में अवश्य होगा। इस प्रकार सत्त्वासत्त्वानधिकरणवरूप साध्य सामान्यतः सिद्ध होने पर साध्याप्रसिद्धि दोष नहीं लगाया जा सकता।
पंचपादिकाविवरणकार प्रकाशात्मयति ने “प्रतिपन्नोपाधावभावप्रतियोगित्वमेव मिथ्यात्वं नाम”, इस प्रकार मिथ्यात्व का लक्षण किया है। अद्वैतसद्धिकार ने इस लक्षण को और स्पष्ट करने के लिए लक्षणस्थ अभाव पद के स्थान में ‘कालिक निषेध” शब्द का प्रयोग किया है। विवरणकार ने “नेह नानास्ति’ इस श्रुति का अनुसरण करते हुए यह लक्षण प्रस्तुत किया है। ‘लक्षण” का अर्थ है “प्रतियोगी के आधाररूप से प्रतीत जो अधिकरण है उसमें एवं भूत अधिकरण में अत्यन्ताभाव का प्रतियोगित्व ही मिथ्यात्व है’। इस लक्षण में स्वाश्रय रूप से अभिमत अथांत प्रतिपन्नोपाधी” इस पद के ग्रहण हाने से आकाशकसमादि में मिथ्यात्व-लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं होगी। आकाशकुसुम या शशविषाण अलीक पदार्थ है। अलीक पदार्थ की प्रतीति किसी भी आधार में नहीं होती। ब्रह्म में भी लक्षण की अतिव्याप्ति नहीं है। ब्रह्म सकल पदार्थों का अधिष्ठान है, परन्तु ब्रह्म का कोई अधिष्ठान नहीं है, वह निरधिष्ठान है। आकाशादि प्रपंच लक्षण का लक्ष्य है। उसमें लक्षण जाता है, क्योंकि अद्वैतमत में आकाशादि सभी प्रपंच सब्रह्माश्रित है, अतएव आकाशादि प्रपंच अन्याथित होने के कारण मिथ्या हैं। प्रकाशात्मयति द्वारा प्रदर्शित इस लक्षण में “प्रतिपन्नोपाधि” पद के द्वारा प्रतिपतित्त अर्थात् ज्ञान की बात कही गई है। यह प्रतिपत्ति यथार्थरूप प्रतिपत्ति है या भान्तिरूप? यदि प्रतिपत्ति यथाथरूप है अथात् स्वाश्रय में वस्तुतः वह है, तब तो उस वस्तु का उस आधार में अत्यन्ताभाव असंभव हो जायेगा, अतएव वह बस्तु त्रैकालिक निषेध का प्रतियोगी कैसे होगी? और प्रतिपत्ति को मिथ्या अर्थात् प्रान्तिरूप प्रतिपत्ति स्वीकार करने पर लक्षण में सिद्धसाधनतादोष होगा, क्योंकि जहाँ जो वस्तु नहीं है वहां पर उस वस्तु का अत्यन्ताभाव तो प्रतिवादी को भा स्वीकार है। लक्षण में कुछ नई बात तो रही नहीं? इस आक्षेप के निराकरण के लए कहना होगा कि उक्त मिथ्यात्व-लक्षण में प्रतिपन्नोपाधि पद द्वारा विवक्षित प्रतिपत्ति न भ्रमरूप है और न प्रमारूप है, अपितु भ्रमप्रमा-साधारणी प्रतिपत्ति ही विवक्षित है। वह कोई विशेष प्रतिपत्ति नहीं है। “पर्वतो वहिलमान, धूमात्”, इस अनुमान में हेतु धूम, पर्वतीय अथवा महानसीय, इस प्रकार किसी विशेष धूम को हेतु नहीं कहा जा सकता, क्योंकि दोनों पक्ष ही दोषयुक्त हैं। पर्वतीय धूम को यदि हेतु मान लिया जाए तब महानस-दृष्टान्त में पर्वतीय धूम के अभाव होने के कारण
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास
महानसीय धूम के न रहने के कारण स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास होगा। अतएव सामान्य धूम को हेतु लिया जाता है, न कि महानसीय या पर्वतीय आदि विशेष धूम को। इसी प्रकार प्रकृत लक्षण में प्रतिपत्ति से भमप्रमासामान्य प्रतिपत्ति ली जायेगी, भान्तिरूप या प्रमारूप प्रतिपत्ति
नहीं।
यहाँ अद्वैतवादी का कहना है कि त्रैकालिक निषेध अर्थात् अत्यन्ताभाव को तात्त्विक मान लेने पर किसी प्रकार की असंगति नहीं होगी, क्योंकि अद्वैतबाद में अभाव को अधिकरणरूप माना जाता है, अर्थात् यह जो कहा गया था कि अभाव को तात्त्विक मानने पर अद्वैतवाद की हानि होगी, वह ठीक नहीं है। परिदृश्यमान विश्वप्रपंच का आश्रय ब्रह्म में प्रपंच का निषेध ब्रह्मस्वरूप ही है, उससे अतिरिक्त नहीं। अतिरिक्त स्वीकार करने पर तो द्वैतवाद आ ही जायेगा। और यह भी आक्षेप निराधार है कि प्रपंचनिषेध यदि तात्विक है तो उस सत्य या तात्त्विक निषेध का प्रतियोगी प्रपंच तात्विक हो जायेगा। शुक्ति-रजत में प्रातिभासिक रजत का जो शुक्ति में अभाव है वह तो व्यावहारिक अभाब ही है। प्रातिमासिक रजत की अपेक्षा व्यावहारिक अभाव अधिक सत्य है, फिर भी व्यावहारिक सत्य अभाव के प्रतियोगी अध्यस्त रजत को सत्य रजत कहा नहीं जाता। उसमें निषेध को अतात्विक मानने पर भी कोई हानि नहीं, क्योंकि उस प्रकार निषेध भी व्यावहारिक तथा मिथ्या है।
पुनश्च “ज्ञान-निवर्त्यत्वं वा मिथ्यात्वम्” ज्ञान द्वारा जिसका बाध हो वह मिथ्या है इस लक्षण को लीजिए। विवरणाचार्य प्रकाशात्मयति के अनुसार-‘‘बाध्यत्व मिथ्यात्व है” और यह बाध्यत्व प्रतिपन्नोपाधि में अभाव प्रतियोगित्वरूप मिथ्यात्व का निरूपण है। यह नेह नानाऽस्ति किंचन" इस श्रुति कि अनुसार है और ज्ञाननिवर्त्यत्वरूप मिथ्यात्वलक्षण “विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः” इत्यादि श्रुत्यनुसार भी है। विवरणकार द्वारा प्रदर्शित मिथ्यात्व का यह द्वितीय लक्षण (अर्थात् मिथ्यात्व-लक्षणों में तृतीय लक्षण) अन्य आचार्यों द्वारा भी समर्थित है। वार्तिककार सुरेश्वर चार्य ने भी “तत्त्वमत्त्यादि वाक्योत्थसम्यधी जन्ममात्रतः” इस कथन के द्वारा इस लक्षण का उल्लेख किया है (वेदान्तप्रक्रिया प्रत्यभिज्ञा, वार्तिक्यस्थानपरीक्षा पृ. २२०)।
इस लक्षण में पूर्वपक्षी दोष दिखाते हुए कहते हैं, ‘‘ज्ञान-निवय॑त्व ही मिथ्यात्व है", ऐसा कहने पर जिस किसी रूप में ज्ञान-निवत्यत्व लिया जा सकता है अर्थात् स्वोत्तरवर्ति योग्य विभु-विशेषगुणत्वरूप से भी ज्ञान द्वारा निवर्त्यत्व लिया जा सकता है। ऐसा अर्थ करने पर उत्तर-ज्ञान द्वारा निवर्तनीय पूर्वज्ञान में मिथ्यात्वलक्षण की अतिव्याप्ति होगी। जैसे “अयं घटः”, ऐसा मुझे ज्ञान हुआ। पश्चात् “अयं पटः" ऐसा ज्ञान हुआ। इस प्रक्रिया में अयं पट: इस उत्तरज्ञान के उत्पन्न होने से अयं घट:" यह गर्वज्ञान नष्ट हो जाता है। ऐसा नियम है और अनुभव से भी सिद्ध है। अतएव उत्तरज्ञान द्वारा पूर्वज्ञान का नाश हुआ और मिथ्यात्व-लक्षण की अतिव्याप्ति पूर्वज्ञान में हुई। परन्तु यहाँ उत्तरज्ञान से नाश्य पूर्वज्ञान७८
वेदान्त-खण्ड
विनाशी तो है, पर वह मिथ्या नहीं है। अतः अलक्ष्य में लक्षण के जाने से अतिव्याप्ति हुई। अतएव सिद्धसाधनता-दोष होगा। दृश्यत्वादि हेतु द्वारा इस प्रकार के मिथ्यात्व की सिद्धि करने पर अंशतः सिद्धसाधनता है, क्योंकि पूर्वज्ञान में ज्ञान-निवत्यत्त्व पूर्वपक्षी भी स्वीकार करते हैं और मुद्गरपातादि द्वारा निवर्त्य अतीत घटादि में लक्षण की अव्याप्ति होगी, क्योंकि मुद्गर या दण्ड के प्रहार से जो घट नष्टहो चुका है, सिद्धान्त पक्ष में तो वह मिथ्या ही है। उस मिथ्या अतीत घट में लक्षण नहीं पहुंचा, क्योंकि वह अतीत घट ज्ञान द्वारा निवर्त्य नहीं, अपितु मुद्गरादि द्वारा निवर्त्य है और यदि सिद्धान्ती “ज्ञानत्वेन ज्ञाननियत्यत्वं वा मिथ्यात्वम्”, ऐसा लक्षण कहते हैं, तब अर्थ होगा-“ज्ञानत्वावच्छिन्नकारणतानिरूपितकार्यतावत् जो नाश है, उस नाशप्रतियोगित्व मिथ्यात्व” - इस प्रकार के अर्थ करने पर भी मुद्गरादि द्वारा नष्ट घटादि में अव्याप्ति तो रहेगी ही, और मिथ्यात्वानुमान का दृष्टान्त भी साध्यविकल है, क्योंकि शुक्तिज्ञान द्वारा रजत का नाश हो गया, ऐसा अनुभव से असिन्द्र है। इसी प्रकार प्रपंच-नाश के प्रति ब्रह्मज्ञान की भी कारणता नहीं है। यह लक्षण असंभव-दोष से भी युक्त है, क्योंकि अपरोक्ष अध्यास के निवर्तक ज्ञान को भी अपरोक्ष ही होना चाहिए, परोक्ष ज्ञान के द्वारा अपरोक्ष अध्यास की निवृत्ति कैसे हो सकती है? अतः शुक्तिरजतादि अधिष्टानतत्त्वसाक्षात्कारत्वरूप से ज्ञान निवत्य होने पर भी ज्ञानत्वेन ज्ञान-निवत्य नहीं है। यदि सिद्धान्ती पूर्वोक्त दोषों को दूर करने के लिए “ज्ञानत्वव्याप्यधर्मेण ज्ञाननिवत्यत्वं मिथ्यात्वम” ऐसा कहें, तो भी अतिव्याप्ति दोष से मुक्ति नहीं है। कारण, ज्ञानत्वव्याप्यधम स्मृतित्व और उस स्मृतित्व रूप से ज्ञान-निवर्त्यत्व संस्कार दोनों में है। संस्कारों में स्मृति उत्पन्न होती है। पश्चात् स्मृतिजनक संस्कार नष्ट हो जाते हैं। अतः संस्कार में स्मृतिनाश्यत्व है और स्मृतिनाश्यत्वप्रयुक्त मिथ्यात्व संस्कार में अतिव्याप्त है। यदि अद्वैतवादी कहें कि संस्कार में स्मृतिनाश्यत्व होने पर भी नाशकतावच्छेदक धम स्मृत्ति नहीं अपित उत्तरवर्ती आत्मविशेषगुणत्व ही है, अतः ज्ञानत्वव्याप्यधर्मपुरःसर स्मृति संस्कारनाशक नहीं है, आत्मविशेषगुणत्व तो ज्ञानत्वव्याप्य धर्म है नहीं। इस प्रकार अद्वैतवादी का दोषमुक्त होने का प्रयास व्यर्थ है, क्योंकि स्मृति स्मृतित्वरूप से ही संस्कार का ही निवर्तक है। आत्मविशेष गुणत्वरूप को निवर्तक मानने पर इच्छा, कृति, द्वेपादि को भी, आत्मविशेषगुण होने के कारण, संस्कार निवर्तक मानना पड़ेगा। ज्ञान-प्रागभाव भी ज्ञान-निवर्त्य है, परन्तु वह मिथ्या नहीं है। इस प्रकार “नामरूपाद् विमुक्तः " इत्यादि श्रुति द्वारा नामरूप की निवृत्ति प्रतिपादित होने पर भी नामरूप का मिथ्यात्व सिद्ध नहीं होता। यही पृवपक्ष का आशय है।
पूर्वपक्ष की ओर से उक्त आशंकाओं के करने पर अद्वैत वेदान्ती उत्तर देते हैं कि मिथ्यात्वलक्षण असम्भव नहीं है। “ज्ञाननिवत्यं” का अर्थ हम इस प्रकार नहीं करते जैसा कि पूर्वपक्षी ने किया है। ‘ज्ञाननिवत्यत्व” से हमारा तात्पर्य है, ज्ञानप्रयुक्त वस्थितिसामान्यविरह-प्रतियोगित्वम्" अर्थात् ज्ञानप्रयुक्त अवस्थितिसामान्य का जो अत्यन्ताभाव है उसका प्रतियोगित्व ही ज्ञाननिवर्त्यत्व का अर्थ है और एवंभूत प्रतियोगित्व ही मिथ्यात्व है।
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास
ज्ञान पद से अधिष्ठानतत्त्वज्ञान लेना है, अर्थात् अधिष्ठानतत्त्वज्ञान-व्यापक जो अवस्थितिसामान्य का अत्यन्ताभाव है उसका प्रतियोगित्व मिथ्यात्व है। न ।
मिथ्यात्व के उपर्युक्त तीन लक्षणों के अतिरिक्त चित्सुखाचार्य एवं आनन्दभट्टारक द्वारा प्रस्तुत दो लक्षण और हैं। मधुसूदन सरस्वती ने इन पांचो लक्षणों की अद्वैतसिद्धि में विस्तृत व्याख्या एवं समीक्षा प्रस्तुत की है। (द्रष्टव्य इसी ग्रन्थ में वादप्रस्थान)।
११. शब्दापरोक्षवाद और अविद्यानिवृत्ति
“तत्त्वमसि’ आदि वाक्यों द्वारा अथवा “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” इत्यादि वाक्यों द्वारा ब्रह्मसाक्षात्कार हो जाता है. ऐसा विवरणसम्प्रदाय का मत है। यत्साक्षादपरोक्षाद ब्रह्म” इत्यादि वाक्यों में स्वग्नकाशब्रह्मविषयक ज्ञान को अपरोक्षज्ञान कहा गया है। विशुद्धब्रह्मविषयक अज्ञान ही समस्त दुःखादि अनों का मूल है। वेदान्तवाक्यजन्य अपरोक्षज्ञान से ही अज्ञाननाशपूर्वक अनर्थों से मुक्ति सम्भव है।
भामती-प्रस्थान वेदान्तवाक्यजन्यज्ञान को अपरोक्षज्ञान नहीं स्वीकार करता। उनके अनुसार “तत्वमसि’ आदि वेदान्तवाक्यजन्य ज्ञान शब्दज्ञान है और शब्दज्ञान पराक्षज्ञान होता है। वेदान्तवाक्य श्रवण के अनन्तर कर्म और उपासना की सहकारिता से अविद्यानिवृत्ति होती है।
विवरणप्रस्थान के अनुसार शब्द से ही अपरोक्षज्ञान होता है। वह ‘दशमस्त्वमसि” वाक्य से खोया हुआ दशम व्यक्ति के अपरोक्ष का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। कहीं पर दश व्यक्ति एक नदी पार करके अपने को छोड़कर नी व्यक्तियों को गिन रहे थे। प्रत्येक साथी अपने को गिनना भूल जाता था और सभी दशवें साथी को खोया हुआ समझते थे। किसी पथिक ने नौ साथियों को गिनकर दशवें व्यक्ति को स्पर्शकर के बताया _ ‘दशमस्त्वमसि’’, (तुम दसवें हों)। तब उन सभी को दशवाँ साथी दिखाई दिया। इसे शब्द अपरोक्ष ज्ञान कहले हैं। यह साक्षात्कार “दशमस्त्वमसि’ इस वाक्य या शब्द से हुआ है। इसी प्रकार विवरणाचार्यों के अनुसार ‘तत्त्वमसि” आदि वाक्यों से अपरोक्षज्ञान अर्थात् साक्षात्कार हो जाता है।शब्दापरोक्षवाद के पक्ष में विवरण सम्प्रदायाचार्यों ने अनुमानादि प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं।’ भामती-प्रस्थान के आचार्यों ने शब्दापरोक्षवाद का प्रत्याख्यान करते हुए विवरण-सम्प्रदाय द्वारा प्रस्तुत अनुमान में दोषों का प्रदर्शन किया है। परन्तु विवरणपन्थी आचार्य चित्सख ने अनेक यक्तियों और तकों से उन दोषों का निराकरण किया है। उनका कहना है कि ‘दशमस्त्वमसि" कहने पर यहाँ तक अपरोक्ष ज्ञान होता है कि अन्य व्यक्ति को भी सुनते ही दशम व्यक्ति के रूप में अपना साक्षात्कार हो जाता है। अतः श्रुतिवाक्यों से ब्रह्मसाक्षात्कार या अपरोक्ष ज्ञान होने में बाधा क्या है? ब्रह्मसाक्षात्कार में शब्द को अपरोक्षज्ञान का जनक स्वीकार करना ही होगा। ‘यमन सान मनुते", “अप्राप्य मनसा
१. विमल शाब्दज्ञानम् अपरोक्षम, अपरोक्षविषयावात, मुखज्ञानवत्। चिमुखी, पृष्ठ ३३३ ।
सह” इत्यादि वाक्यों का अर्थ है कि अन्तःकरण के माध्यम से ब्रह्मसाक्षात्कार नहीं होगा, क्योंकि “तमसः पारं दर्शयति”। अन्धकार के परे आचार्य दिखाते हैं, इस छान्दोग्यश्रुति के उपदेश से साक्षात्कार होगा तथा अन्धकार का अतिक्रमण होगा। साक्षात्कार में जो प्रतिबन्धक रहता है, उसे मनन तथा निदिध्यासन से दूर किया जाता है और प्रतिबन्धक के दूर होने पर शब्दश्रवण से ही साक्षात्कार हो जाता है। अतः मनन और निदिध्यासन व्यर्थ नहीं हैं, क्योंकि मनन और निदिध्यासन से ही प्रतिबन्धक अपसारित होता है। इस प्रकार विवरणकार का ही अनुसरण करते हुए चित्सुखाचार्य ने शब्दापरोक्षवाद की व्याख्या प्रस्तुत की है। भगवत्पाद भाष्यकार ने कहा था “आत्मैकत्वविद्याप्नतिपत्तये सर्वे वेदान्ता आरभ्यन्ते”। इसका तात्पर्य है कि जीव-ब्रह्मकत्व का बोध कराने वाली ब्रह्मविद्या के ज्ञान के लिये ही सम्पूर्ण वेदान्तशास्त्रों का उपदेश है। उक्त ब्रह्मविद्याप्राप्ति से अथात ब्रह्म के अपरोक्ष बोध से अविद्या की निवृत्ति होती है और साधक मुक्त हो जाता है। उक्त अविद्यानिवृत्ति किस प्रकार सम्भव है? अविद्या अनादि और भावरूप है, यह अविद्या प्रकरण में पहले कहा गया है। विवरणकार प्रकाशात्मयति का कहना है कि जिस प्रकार अनादि प्रागभाव की निवृत्ति होती है, वैसे बौद्धदर्शन के भी अनुसार अनादि वासना प्रवाह की निवृत्ति होती है, उसी प्रकार अनादि अविद्या की भी निवृत्ति होगी। न्यायमत के अनुसार अनादि मिथ्याज्ञानप्रवाह की निवृत्ति मानी गई है, सांख्य के अनुसार अनादि अविवेक की भी निवृत्ति कही गई है। उसी प्रकार अद्वैत के अनुसार अनादि अविद्या की भी निवृत्ति होती है। अविद्या को भावरूप सिद्ध किया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अविद्या सद्ब्रह्म के समान भावरूप है। अविद्या तो अद्वैत के अनसार सदसद-विलक्षण अनिवचनीय रूप है। अनिर्वचनीय ही अद्वैत के अनुसार मिथ्या है और मिथ्या अविद्या का नाश साक्षात्कारज्ञान से हो जाता है। अविद्या के नाश होते ही जीवब्रोक्यबोध हो जाता है। विवरण आचार्य प्रकाशात्मयति ने जीच-ब्रह्मविषयक भेदाभेदवादादि का प्रत्याख्यान करके भाष्यकार का अनुसरण करते हुए ब्रह्मजीवक्यवाद का समर्थन किया है। प्रकाशात्मयति का मत है कि ईश्वर के प्रतिबिम्बस्वरूप जीव को जब तत्त्वज्ञान होता है तब वह मुक्त भी होता है- न बिम्बकृतं तत्त्वज्ञानाश्रयत्वम् किन्तु भान्तत्वकृतम् । तत्त्वज्ञान से जब अविद्या की निवृत्ति हो जाती है, तब जीव आन्नद-स्वरूप ब्रह्म हो जाता है।
१२. विवरण-प्रस्थान पर परवर्ती आचार्यों का प्रभावः
विवरण-टीका का गाम्भीर्य एवं महत्त्व सभी परवर्ती अद्वैतवादी स्वीकार करते हैं। इस को परवर्ती वेदान्ताचार्यों ने अपनी व्याख्या के लिए मूल आधार माना है। यहाँ तक कि परवर्ती आचार्यों के टीका-ग्रन्थों में किसी-न-किसी रूप में विवरण का उल्लेख अवश्य रहा है। विवरण में चर्चित एक-एक विषय परवर्ती आचार्यों के लिए गवेषणा एवं व्याख्या का गम्भीर विषय रहा है। जैसे, विवरण में चर्चित मिथ्यात्वलक्षण परवर्ती विद्वानों के लिये
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास विश्लेषण का विषय रहा है।
मधुसूदन सरस्वती ने अपने ग्रन्थ अद्वैतसिद्धि में मिथ्यात्व के पांच लक्षणों की समीक्षात्मक व्याख्या प्रस्तुत की है। उन पाँच लक्षणों में प्रथम लक्षण पद्मपादाचार्य की पंचपादिका से और दो लक्षण विवरण से बड़े आदर के साथ उद्धृत किये गये हैं। शेष दो लक्षणों में से एक चित्सुखाचार्य का एवं एक आनन्दबोध भट्टारक का है। विवरण में “प्रतिपन्नोपाधौ अभावप्रतियोगित्वमेव मिथ्यात्वम्” इतना ही उल्लेख किया गया था। परन्तु मधुसूदन सरस्वती ने पूर्वपक्ष के आक्षेपों का जाल बिछाकर बड़ी पाण्डित्यपूर्ण रीति से खण्डन किया तथा अपनी व्याख्या प्रस्तुत की है। इसी प्रकार विवरण के द्वितीय मिथ्यात्वलक्षण के ऊपर भी युक्तियों और तकों से विचार-विमर्श अद्वैतसिद्धि में किया गया है। विवरण ने ‘इदं रजतम्" इस प्रकार के अमज्ञान की उपपत्ति के लिये रजताकार अविद्यावृत्ति स्वीकार किया है। इसी विवरण पक्ति को लेकर अद्वैतसिद्धिकार ने “आविद्यकरजतोत्पत्ति” और “रजतगोचर अविद्यावृत्ति” नामक दो प्रसंगों की सबिस्तार पर्यालोचना की है। इसी प्रकार विवरण में सत्तात्रैविध्य का उल्लेख है, जिस की अद्वैतसिद्धि में विस्तृत व्याख्या है।
में इसमें सन्देह नहीं कि विवरण का गाम्भीर्य एवं उसकी युक्ति युक्तकों की संगति का अवतरण देखकर विवरणोत्तर प्रायः सभी अद्वैताचार्य विवरण से अत्यन्त प्रभावित हैं। विवरण सम्प्रदाय के अग्रणी आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं:
तत्त्वदीपनकार अखण्डानन्द, तात्पर्यदीपिकाकार चित्सुखाचार्य, ऋविवरणकार सर्वज्ञ विष्णुभट्ट, भावप्रकाशिकाकार नृसिंहाश्रम, आनन्दपूर्ण विद्यासागर, यज्ञेश्वरदीक्षित, विवरणप्रमेयसंग्रहकार विद्यारण्यस्वामी आदि आचार्य । किन्तु इसमें भी सन्देह नहीं है कि इन
आचार्यों का अपना-अपना वैशिष्ट्य भी है। इनके कुछ अपने-अपने मत भी हैं।
विवरण-सम्प्रदाय के साहित्यिक विस्तार का एक और भी कारण है। आचाय शंकर से लेकर आज तक इस परम्परा में जो भी लेखक और टीकाकार जुड़े, वे सभी प्रायः गृहत्यागी संन्यासी थे। यही कारण है कि आज तक कहीं-कहीं पर जहाँ भी वेदान्तशास्त्र का अध्यापन-अध्ययन एवं लेखन होता है वे सभी स्थान अधिकांशतः आश्रम या मट है। साधु-संन्यासियों ने अपनी बेदान्त-अध्ययन-परम्परा में विवरण का ही अधिक अनुसरण किया है। ब्रह्मसूत्र, शारीरकभाष्य, पञ्चपादिका, विवरण-इस परम्परा से विवरण-सम्प्रदाय में वेदान्त का गंभीर अध्ययन होता रहा है। विवरण दण्डी संन्यासियों की आध्यात्मिक पिपासा को शान्त करता रहा है। यह बस्तुतः अद्वैत सिद्धान्तों का विमन दर्पण है।
प्रकाशात्मयति, अखण्डानन्द, विद्यारण्य आदि सभी संन्यासी थे। इसके विपरीत भामतीप्रस्थान के प्रणेता स्वयं वाचस्पतिमिश्न गृहस्थ थे। उनके अनुयायी भी अधिकतर गृहस्थ थे। अलबत्ता अमलानन्द सरस्वती अपवाद है क्योंकि वे भामती-प्रस्थान के संन्यासी
वेदान्त-खण्ड
१३. विवरणप्रस्थान और मण्डन मिश्रः १. विवरणप्रस्थान के आचार्य शब्दापरोक्षवादी हैं। वे वेदान्तवाक्यजन्यज्ञान से ब्रह्मसाक्षात्कार
मानते हैं। इसके विपरीत मण्डन एवं उनके अनुयायी वाचस्पति शब्दजन्य ज्ञान को परोक्ष ज्ञान मानते हैं। उनके अनुसार ब्रह्मसाक्षात्कार हेतु उपासनादि की भी
आवश्यकता होती है। विवरण-प्रस्थान भाष्यकार का अनुसरण करते हुए श्रमस्थल में अनिर्वचनीय ख्याति स्वीकार करता है। परन्तु मण्डनप्रस्थान प्रामस्थनीय ज्ञान की व्याख्या में विपरीत ख्याति स्वीकार करता है। विवरण-प्रस्थान अविद्या को एक मानता है। मण्डन मिश्र के अनुसार अग्रहण एवं
अन्यथाग्रहण नामों से अविद्या दो प्रकार की होती है। ४. मण्डनप्रस्थान एवं भामती - प्रस्थान के अनुसार अविद्या का आश्रय जीव है और
विषय ब्रह्म है। विवरणप्रस्थान के अनुसार अविद्या का आश्रय और विषय दोनों ही
ब्रह्म हैं। १. विवरणप्रस्थान और भामतीप्रस्थान ब्रह्माद्वैतवादी हैं। मण्डनमस्थान भावाद्वैतवादी है
जिसके अनुसार अविद्यानिवृत्ति ब्रह्मातिरिक्त है। अथात् अभाव-तत्त्व के होने से भावाद्वैत के अद्वैततत्व की हानि नहीं होती है, क्योंकि ब्रह्म ही एकमात्र और
अद्वितीय भाव-तत्त्व (सत्) हैं। मण्डन मिश्र शब्दब्रह्मवाद और स्फोटवाद को स्वीकार करते हैं। विवरण-प्रस्थान
भामती-प्रस्थान की भांति स्फोटवाद का खण्डन करता है। ७. मण्डन मिश्र जीवन्मुक्ति को स्वीकार नहीं करते हैं। किन्तु विवरणप्रस्थान
जीवन्मुक्ति को भी मानती है। स्वामी विद्यारण्य ने जीवन्मुक्तिविवेक नामक ग्रन्थ लिखकर जीवन्मुक्ति के स्वरूप, साधन, कारण तथा प्रयोजन का मुमुक्षु-उपयोगी विवेचन किया है।
स्पष्ट है कि विवरण - प्रस्थान के मूल संस्थापक पद्मपाद का मुख्य लक्ष्य शांकर अद्वैतवेदान्त को मण्डन मिश्र के अद्वैतवाद से भिन्न करना था। इसमें उनको तथा उनके अनुयायियों को पर्याप्त सफलता मिली है।
विवरण-प्रस्थान और उसका विकास
सन्दर्भ-ग्रन्थ (संपादक द्वारा संकलित)
१. ब्रह्मसूत्रशाकरभाष्य पंचपादिका विवरणादि नवटीका, १६३३, कलकत्ता संस्करण,
अनन्तकृष्ण शास्त्री द्वारा सम्पादित। (उक्त ग्रन्थ में)
विवरण तत्त्वदीपन - अखण्डानन्दस्वामी, वही, १६३३ । ३. विवरणभावप्रकाशिका, नृसिंहाश्रम, मद्रास, १६५८ | ४. संक्षेपशारीरक, सर्वज्ञमुनि, काशी १६४४| ५. ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य, निणयसागर, सं. १८३८ । ६. विवरणप्रमेयसंग्रह, विद्यारण्यस्वामी, बनारस, १९६६ सम्वत्। ७. चित्सुखी, चित्सुखाचार्य, १६१५, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई।
अद्वैतसिद्धि - मधुसूदन सरस्वती, निणयसागर प्रेस, बम्बई, १६१७ । . ऋजुविवरण, विष्णुभट्टोपाध्याय, कलकत्ता संस्करण, १६३३ । १०. विवरणतात्पयदीपिका, चित्सुखाचाय, कलकत्ता, १६३३| ११. भारतीय दर्शन का इतिहास, सुरेन्द्र नाथ दास गुप्ता भाग एक और दो हिन्दी
अनुवाद, जयपुर, १९७८।। १२, शंकरदिग्विजय, माधवाचार्य, वाणीविलास प्रेस, श्रीरंगम्, १७२। १३. भारतीयदर्शन भाग २, डॉ. राधाकृष्णन्, हिन्दी अनुवाद, दिल्ली, १८७२। १४. ब्रह्मसिद्धि, मण्डनमिश्र, मद्रास, १६३७ (सं. कुपस्वामी शास्त्री)। १५. वेदान्तपरिभाषा, धर्मराजावरीचन्द्र, बनारस, २०११ सम्बत्। १६. लघुचन्द्रिका, निर्णयसागर, सागर प्रेस बम्बई, १६१७/ १७. सिद्धिव्याख्या, विट्ठलेशोपाध्याय, १८१७ जना उक्त ग्रन्थ संख्या में शामिल)। १४. अप्पयदीक्षित, सिद्धान्तलेशसंग्रह, हिन्दी अनुवाद सहित, अच्युत गन्थमाला, वाराणसी। १६. सेनगुप्त, डा. वतीन्द्र कुमार, ए क्रिटीक आफ द विवरण स्कूल, फमा के.एन.
मुखोपाध्याय, कलकत्ता, १५६ २०. विद्यारण्य, जीवन्मुक्तिविवेक, अंग्रेजी अनुवाद सहित, अम्बर, मद्रास १८७६ | २१. पद्मपाद, पञ्चपादिका, विजयानगरम् संस्कृत सिरीज, नं.३, वाराणसी, १८८१॥ २२. प्रकाशात्मा, पञ्चपादिका विवरण, तत्त्वदीपन तथा भावाप्रकाशिका के उद्धरणों सहित
सं. रामशास्त्री भागवताचार्य, विजयानगरम् संस्कृत सिरीज नं. ५. वाराणसी, १९८२ २३. पद्मपाद विज्ञानदीपिका, सं. डा. उमेश मिश्र, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। २४. आर्थर एवलन, (सं.) शंकराचार्यकृत प्रपंचसार, पद्मपादकृत प्रपंचसाविवरण तथा
अज्ञातकतृक प्रयोगक्रमदीपिका सहित, शिवपञ्चाक्षरीभाष्य समेत, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १६८१।
वेदान्त-खण्ड २५, पमपाद, मंत्रराजप्रकाश, अत्रैव अध्याय २, टिप्पणी ७ के ग्रन्थ में सम्मिलित। २६. वेंकटरमैया, डी., पंचपादिका, अंग्रेजी अनुवाद, गायकवाड ओरियन्टल सिरीज़ ,
बड़ौदा, १४८ २७. सूर्यनारायण शास्त्री और शैलेश्वर सेन, विवरणप्रमेयसंग्रह, अंग्रेजी अनुवाद,
आन्न विश्वविद्यालय सिरीज़, बाल्टेयर, १६४५। २८. लक्ष्मणदेशिकेन्द्र, शारदातिलक, राघव भट्ट की पदार्थादर्श टीका सहित, चौखम्भ्वा
संस्कृत संस्थान, वाराणसी। २६. रामानन्द सरस्वती, विवरणोपन्यास, चौखम्बा, वाराणसी, १६०२। ३०. उक्त २३-२५ सूचीबद्ध ग्रन्थों को पद्मपाद की प्रामाणिक कृति मानने में बहुतों को
सन्देह है। १७वीं शती का शारदातिलक तन्त्र का ग्रन्थ है जिसमें पद्मपाद को बहुधा उधृत किया गया है। उसके सभी उन्दरण प्रपंचसागविवरण से है। अद्वत्तवेदान्त के सम्प्रदाय में तन्त्रसाधना और तांत्रिक पूजा के ग्रन्थों में से शंकराचार्यकृत सौन्दर्यलहरी का महत्त्व है वैसे प्रपंचसार का भी है। अतएव उपयुक्त ग्रन्थ इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
चतुर्थ अध्याय