१. आचार्य शंकर का व्यक्तित्व
अद्वैतवेदान्त ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय दर्शन के क्षेत्र में शंकराचार्य ने एक युगान्तरकारी कान्ति की है। उन्होंने भारतीय दर्शन के इतिहास को, विशेषतः अद्वैतवेदान्त के इतिहास को, दो युगों में बांट दिया है जिन्हें प्राक शड़कर-युग और शङ्करोत्तर-युग कहा जाता है। प्रथम युग में कर्म का महत्त्व था, द्वितीय युग में ज्ञान का। प्रथम युग में बौद्ध दर्शन तथा वैदिक दर्शन का संघर्ष था। द्वितीय यग में यह संघर्ष समाप्त हो गया और इसमें दो अन्य संघर्ष प्रकट हो गये, एक अद्वैत-वेदान्त और वैष्णव-वेदान्त का संघर्ष था तथा दूसरा न्यायदर्शन और अद्वैतवेदान्त का संघर्ष। इस प्रकार राइकराचाय को बौद्धदशन का अन्त करने वाला समझा जाता है। फिर भी वैष्णव वेदान्तियों ने उन्हें प्रचामल बौद्ध कहा है और उनके ब्रह्मवाद को शून्यवाद से अभिन्न किया है तथा उनके मायावाद को बौद्ध महायान का ही दूसरा प्रकार बताया है। किन्तु शंकरोत्तर अद्वैत वेदान्तियों ने इन दोषारोपों का खंडन किया है और ब्रह्मवाद तथा शून्यवाद के अन्तर को बताते हुए बोद्ध मायाबाद तथा अद्वैत-मायावाद का भेद स्पष्ट किया है। उनके मत से शून्यवाद मूलतः व्यतिरेक दृष्टि है, ‘नेति नेति’ का मार्ग है और अद्वैतवाद अन्वयष्टि है, ‘इति-इति’ का मार्ग है। शुन्यबाद अद्वयवाद है अर्थात दो परस्पर विरोधी दृष्टियों का निराकरण है। उसके विपरीत अद्वैतवेदान्त इन दृष्टियों से उभयगत सत्य को उजागर करता है। पुनश्च बौद्ध-मायावाद असवाद या व्यष्टिगत ‘प्रम का सिद्धान्त है, जब कि अद्वैत-मायाबाद सद्-असद् विलक्षण का सिद्धान्त है और समष्टिगत भम का सिद्धान्त है।
वैदिक धर्म के सभी सम्प्रदाय शङ्कराचाय को अपना आचाय मानते हैं। भक्तमाल के रचयिता नाभादास ने लिखा है कि ‘कलियुग धर्म पालक प्रगट आचारज शकर सुभट," शंकराचार्य कलियुग में स्मार्त धर्म के आचार्य है। वे शैव, शाक्त, गाणपत्य, सौर, ब्राह्म और वैष्णव इन पट् सम्प्रदायों के आचार्य हैं। इनमें से प्रत्येक सम्प्रदाय का समन्वय उन्होंने निगुण ब्रह्मवाद से किया है। यह समन्वय ससिद्धान्तसंग्रह में देखा जा सकता है। इसके लेखक शंकराचार्य माने जाते हैं, किन्तु ये शंकराचार्य कोई परवर्ती जगद्गुरु शंकराचाय हैं, आदि शंकर नहीं। इसमें कमशः (१) लोकायतिकपक्ष, (२) आहतपक्ष, (३) बौद्धपक्ष, (४) वैशेषिकपक्ष, (५) नैयायिकपक्ष, (६) प्रभाकरपक्ष, (७) भट्टाचार्यपक्षा(८) सांग्यपक्ष, (६) पतञ्जलिपक्ष, (१०) वेदव्यासपक्ष और वेदान्तपक्ष के विवेचन हैं। प्रथम १० मतों को क्रमशः
शङ्कराचार्य का अद्वैतवेदान्त अन्तिम मत की ओर बढ़ते हुए देखा जा सकता है। इस ग्रन्थ में यह उल्लेख योग्य है कि वेदान्तपक्ष वेदव्यास पक्ष से भिन्न है। वे श्रुति-स्मृति-प्रतिपादित सन्मार्ग के प्रवर्तक और संरक्षक आचार्य हैं। इसीलिए उनको श्रुति, स्मृति और पुराणों का आलय कहा गया है -
श्रुतिस्मृतिपुराणानामालयं करुणालयम् । उनका दर्शन निःसन्देह श्रुतियों, स्मृतियों तथा पुराणों का निचोड़ है।
ऐसे महान् दार्शनिक को ईश्वर का एक विशेष अवतार समझ लेना सहज स्वाभाविक है। इनके जीवनचरित्र पर अनेक ग्रन्थ हैं जिनमें माधव का शंकरदिग्विजय, और आनन्दगिरि का शंकरबिजय मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त उनके जीवनचरित पर और भी ग्रन्थ हैं जिनका वर्णन आचार्य बलदेव उपाध्याय ने अपने ग्रन्थ “श्रीशंकराचार्य” में किया है। किन्तु इन सभी ग्रन्थों में ऐतिहासिक सामग्री और प्रशंसात्मक काव्य का इतना मिश्रण हो
गया है कि आचार्य शंकर का प्रामाणिक जीवनचरित लिखना एक समस्या हो गया है। फिर भी कुछ तथ्य अकाट्य हैं जो निम्न हैं :
१. आचार्य शंकर का जन्म केरल प्रान्त में कालडी नामक ग्राम में नम्बूदरीपाद ब्राह्मणकुल में हुआ था। किन्तु कब हुआ था? इस पर मतैक्य नहीं है। सम्प्रति उनके जन्मकाल के समय में प्रायः बारह मत प्रचलित हैं जो उनको ५०० ई. से लेकर ७० ई. तक बताते हैं। इस अनिश्चितता में आशा की एक किरण वाचस्पति मिश्र का निश्चित समय है जिन्होंने ६ वि. सं. में न्यायसूची निबन्ध लिखा था और जिन्होंने शंकर के शारीरकभाष्य पर भामती नामक टीका लिखी है। अतः शंकर का आविर्भावकाल निश्चित रूप से ८४१ ई. (८८८-५७) से पहले था। एक और प्रमाण यह है कि शंकराचाय के शिष्य सुरेश्वर का उद्धरण जैन दार्शनिक विद्यानन्द ने दिया है जिनका उन्द्ररण शान्तक्षित ने तत्त्वसंग्रह में दिया है। तत्त्वसंग्रह का रचनाकाल ७४८ ई. है। अताव विद्यानन्द्र, सुरेश्वर और शंकर निश्चित रूप से७४८ ई.के पहले थे। किन्तु सामान्यतः माना जाता है कि उनका जन्म ७८८ ई. में और निधन ८२० ई. में हुआ था। उनका जीवन मात्र ३२ वर्ष का था। उनके बारे में प्रसिद्ध है -
अष्टवर्षे चतुर्वेदी द्वादशे सर्वशास्त्रवित्।
षोडशे कृतवान् भाष्यं द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात् ।। । २. अर्थात् आठ वर्षों की आयु तक शंकराचार्य ने चारों वेदों का अध्ययन कर लिया, बारह वर्ष की आयु तक वे सभी शास्त्रों के ज्ञाता हो गये, सोलह वर्ष की उम्र में उन्होंने बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर शारीरकभाष्य लिखा और ३२ वर्ष में उनकी इहलीला समाप्त हो गयी। उनके जन्मकाल के विषय में आधुनिक खोजों से नया प्रकाश पड़ा है और यह माना जा रहा है कि ६३० ईसवी अर्थात् ६८७ वि. सं. के आस-पास ये अवश्य जीवित थे। इस
२२
वेदान्त-खण्ड
प्रकार प्रचलित मान्यता से कम से कम १०० वर्ष पहले उनका जन्म निश्चित होता है। अर्थात् उनका कर्म-काल सातवीं शती ईसवी है।
३. उनके पिता का नाम शिवगुरु था। उनकी माता का नाम माधव के शंकर दिग्विजय के अनुसार सती था और आनन्दगिरि के शंकरदिग्विजय के अनुसार विशिष्टा
४. पांच वर्ष की आयु में ही शंकर का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ था। वेदाध्ययन के पश्चात् उनमें वैराग्य पैदा हो गया। उन्होंने आचार्य गोविन्द से नर्मदा के तट पर संन्यास की दीक्षा ली। ये आचार्य गोविन्द गौडपाद के शिष्य थे और नर्मदा नदी के तट पर रहते थे। वहीं शंकर ने दीक्षा ली थी। तत्पश्चात् वे काशी और हिमालय गये। फिर उन्होंने सम्पूर्ण देश की परिक्रमा की और चार मठ स्थापित किये-उत्तर में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्मठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धनमठ, पश्चिम में द्वारका में शारदामठ और दक्षिण में श्रृंगेरी में श्रृंगेरीमठ। इन चार मठों के अतिरिक्त कांची में कामकोटमट और काशी में सुमेरुमट भी शंकराचार्य द्वारा स्थापित माने जाते हैं। इन सभी मठाधीशों को जगद्गुरु शंकराचार्य कहा जाता है। जिनका कर्तव्य आचार्य शंकर के मत का प्रचार-प्रसार तथा उन्नयन करना है। इन मठों के अतिरिक्त बारह ज्योतिर्लिगों की स्थापना का श्रेय भी शंकर को दिया जाता है। कैलास से वे इन स्फटिक-लिंगों को लाये थे और देश के विभिन्न स्थानों में उनकी स्थापना की थी। इसी प्रकार देश में अनेक शक्तिपीट हैं जहां शंकराचार्य गये थे और उनकी स्थापना की थी या उनका जीणोद्धार किया था। कुछ भी हो, शंकर ने अद्वैतवेदान्त के संगठन को बहुत दृढ़तापूर्वक स्थापित किया था। जहां-जहां उनके मट हैं वहां-वहां वैटिक मत और वेदान्त का विपुल प्रचार है।
६. शंकराचार्य का शास्त्रार्थ मीमांसक मण्डन मिश्र से हुआ था। शास्त्रार्थ में परास्त हो जाने पर मण्डन मिश्र ने आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार किया था। परन्तु संन्यासी होने पर उनका नाम क्या सुरेश्वर था? इस प्रश्न पर विवाद हैं।
७. शंकराचार्य का शास्त्रार्थ निश्चित रूप से तत्कालीन बौद्ध दार्शनिकों से हुआ था। किन्तु वे दार्शनिक कौन थे? इस प्रश्न का सुनिश्चित उत्तर नहीं है। संभवतः उनके समय कोई विख्यात और प्रखर बौद्ध दार्शनिक इस देश में नहीं थे।।
८. शंकराचार्य ने अपने समय के प्रमुख नगरों में मथुरा, अयोध्या सुघ्न और पाटलिपुत्र का उल्लेख किया है। इसी प्रकार उन्होंने व्यक्तिवाचक नामों में कृष्णगुप्त, जयसिंह, पूर्णवर्मा, बलवर्मा, भद्रसेन तथा विष्णमिश्र का नामोल्लेख किया है जो उनके समकालीन लगते हैं। देवदत्त, यज्ञदत्त, डित्थ तथा इवित्थ का भी प्रयोग उन्होंने व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में किया है, किन्तु ये नाम ऐतिहासिक पुरुषों के न होकर केवल अमुक वाचक लगते हैं। अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों में उन्होंने दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, सुन्दर पाण्ड्य तथा उपवर्ष का उद्धरण दिया है। अतः वेनिश्चयेन इनसे परखती थे।
शङ्कराचार्य का अबैतवेदान्त
२. शंकराचार्य और उनके शिष्यों के ग्रन्थ
वास्तव में संगठन-शक्ति से भी बढ़कर आचार्य शंकर की चिन्तन-शक्ति और लेखन-शक्ति थी। सम्प्रति उनके नाम से अनेक ग्रन्थ प्रचलित हैं जिन्हें शंकर-ग्रन्थावली में प्रकाशित किया गया है। देखिए श्री शाङ्करग्रन्थावलिः १० खण्डों में प्रथम संस्करण, १६१०, द्वितीय संस्करण १६८१-१९८३, समता बुक्स मद्रास । ये खण्ड हैं- (9) स्तोत्राणि, (२) प्रकरणग्रन्थाः (३) उपदेशसाहस्री, (४) प्रपंचसार, (५) लघुभाष्याणि, (६) गीताभाष्यम्, (७) शारीरकभाष्यम्, (८) उपनिषद्भाष्याणि, (E) छान्दोग्योपनिषद्भाष्यम्, (१०) बहदारण्यकोपनिषदभाष्यम। डॉ. श्रीकष्णपाद वेलवल्कर डॉ. गोपीनाथ कविराज और डॉ. संगम लाल पाण्डेय ने इन सभी ग्रन्थों की प्रमाणिकता का विचार किया है। फलस्वरूप शंकर ग्रन्थावली में जितने ग्रन्थ मुद्रित हैं वे सभी आचार्य शंकर की रचनाएं नहीं हैं। उनकी प्रामाणिक रचनाएं केवल निम्न हैं . १. बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर शारीरकभाष्य।
ईश, केन, कठ, प्रश्न, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक,
मुण्डक और माण्डूक्य इन दश उपनिषदों पर भाष्य। ब ता ३. भगवद्गीता का भाष्य।
उपदेशसाहसी (केवल पद्यात्मक अंश)। जान शंकर-गन्थावली में जो अन्य प्रकरण-गन्थ शामिल हैं। वे आदि शंकर की रचनाएं न होकर उन जगद्गुरु शंकराचार्यों की रचनाएं हैं जो शंकराचार्य द्वारा स्थापित मटों में मठाधीश थे। अतएव उनका भी विषय अद्वैतवाद ही है। परन्तु आचार्य शंकर के मत की व्याख्या के लिए उनको आधार नहीं बनाया जा सकता है। इन ग्रन्थों में विवेकचूड़ामणि, दशश्लोकी, दृग्दृश्यविवेक, अपरोक्षानुभूति आदि अधिक प्रचलित हैं। इनमें एक ग्रन्थ एकश्लोकी है जिसमें अद्वैतवेदान्त का सारतत्त्व समझाया गया है। वह या है
किं ज्योतिस्तवभानुमानहनि मे रात्री प्रदीपार्दिक स्यादेवं रविदीपदर्शनविधौ कि ज्योतिराख्याहि मे। चक्षुस्तस्य निमीलनादिसमये किं धीर्थियो दर्शने
किं तत्राहमतो भवान्परमकं ज्योतिस्तदस्मि प्रभो। न इसमें शंकराचार्य का एक कुष्ठ रोगी से संवाद है जो अन्त में कहता है कि वह वस्तुतः स्वप्रकाश, स्वयंज्योति है। इस एक श्लोक पर स्वयंप्रकाश यति की टीका भी है। कभी-कभार श्लोकार्ध में भी अद्वैतवेदान्त के मुख्य विषय का प्रतिपादन शंकराचार्य के निम्न वाक्य से किया जाता है -
वेदान्त-खण्ड
श्लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।। इस श्लोक की द्वितीय पंक्ति ब्रह्मज्ञानाबली माला के श्लोक २० की प्रथम पंक्ति है। वह श्लोक यों है -
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः । अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः।।
(ब्रह्मज्ञानावली माला, २०)। शंकराचार्य के नाम से प्रचलित ग्रन्थों में दक्षिणामूर्तिस्तोत्र, चर्पटपंजरिकास्तोत्र कनकधारास्तोत्र, योगतारावली, आत्मबोध, अपरोक्षानुभूति, पंचीकरण आदि का भी विशेष प्रचार है। ये सब उनके प्रकरण-ग्रंथों की सूची में सूचीबन्द है।
कुछ ऐसे ग्रन्थ भी हैं जो शंकराचार्य के नाम से प्रचलित है, किन्तु वे शंकर ग्रन्थावली में सम्मिलित नहीं हैं। न ही वे किसी उपनिषद् के भाष्य हैं। ऐसे ग्रन्थों में महानशासन का प्रमुख स्थान है जिसे आदि शंकराचार्य की कृति मानने में परम्परा का विशेष आग्रह है। क्योंकि इसमें शंकराचार्य कहते है - ‘मै ही कलियुग का जगद्गुरु हूँ। मेरे मट का जो आचार्य है उसमें वास्तव में मै ही विद्यमान हूँ।’ यदि शंकराचार्य के इस वचन को न माना जाय तो उनके मट की परम्परा को अस्वीकार करना पड़ेगा। अतः परम्परा-न्याय से मानना पड़ता है कि महानुशासन आचार्य शंकर की ही कृति है।
- आजकल योगसूत्र पर व्यासभाष्यविवरण नामक एक योगदशन-ग्रन्थ को भी शंकराचाय की कति माना जा रहा है। इसका प्रकाशन १५२ में मद्रास से हुआ। इसके संपादक पी एस. रामशास्त्री और एम.आर. कृष्णमूर्ति शास्त्री ने सिद्ध किया है कि यह भगवत्पाद शंकराचार्य की ही कृति है। जापानी विद्वान् ताकामूरा, मायेडा आदि भी इसे शंकराचार्य की कृति मानने के पक्ष में है। ___ इसी प्रकार श्रीविद्या-सम्प्रदाय के भी कुछ ग्रन्थ शंकराचार्य-रचित कडे जाते हैं। उन्हें भी मानना आवश्यक है क्योंकि शंकराचार्य के मठों में श्रीयन्त्र की पूजा होती है और शंकराचार्य को श्रीविद्या-सम्प्रदाय से जोड़ने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। ऐसे ग्रन्थों में प्रमुख सौन्दर्यलहरी है जिस पर ३१ टीकाएं हैं। इन टीकाओं में लक्ष्मीधर की टीका सर्वोत्तम मानी जाती है। उसमें ३१वें श्लोक की व्याख्या में ६४ तन्त्रों के नाम गिनाये गये हैं। किन्तु उन्हें ऐहिकसिन्द्रिपरक और वैदिक मार्ग से दूर कहा गया है।
का सौन्दर्यलहरी के अतिरिक्त प्रपंचसार को भी शंकराचाय की कृति माना जाता है। पद्मपाद ने इस पर विवरण नामक टीका लिखी है। अमत्यानन्द सरस्वती ने वेदान्तकल्पतरु में पंपचसार से उद्धरण दिया है। गीर्वाणेन्द्र सरस्वती ने प्रपंचसारसंग्रह नामक ग्रन्थ में इसका संक्षेप किया है। इसमें कुल ३६ पटल (अध्याय) हैं। प्रपंचसारतन्त्र श्रीविद्या- सम्प्रदाय
शङ्कराचार्य का अद्वैतवेदान्त का ग्रन्थ है। क्योंकि अद्वैतवेदान्त केवल मनन मात्र नहीं है अपितु निदिध्यासन के रूप में ध्यान-धारणा-समाधि की एक साधना का सारपथ भी निर्दिष्ट करता है और ऐसी साधना प्रपंचसार में है। अतः प्रपंचसार को शंकराचार्य की कृति मानने में कोई आपत्ति नहीं है।
अद्वैतवेदान्त का प्रगाढ सम्बन्ध श्रीविद्या-सम्प्रदाय से है।
आचार्य शंकर की रचनाओं में दो वर्ग हैं - भाष्य और प्रकरण। उपदेशसाहसी प्रकरण-ग्रन्थ है और शेष भाष्यग्रन्थ हैं। भाष्यों में भी तीन वर्ग है-ब्रह्मसूत्रभाष्य, उपनिषद्भाष्य
और गीताभाष्य । इन भाष्यों के द्वारा शंकराचार्य ने सिद्ध किया है कि अद्वैतवेदान्त के तीन प्रस्थान हैं- उपनिषद्, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र। तीनों का समन्वय अद्वैतवाद में होता है। यह उल्लेखनीय है कि शंकर के पूर्व कोई भी व्यक्ति प्रस्थानत्रयी का भाष्यकार नहीं था। यद्यपि उनके पूर्व कुछ लोगों ने उपनिषदों पर, कुछ अन्य लोगों ने ब्रह्मसूत्र पर तथा कुष्ठ
और लोगों ने भगवद्गीता पर बृत्तियां लिखी थीं, तथापि तीनों पर भाष्य लिखकर यह सिद्ध करना कि इन सबका मत एक ही है - यह कार्य सर्वप्रथम आचार्य शंकर ने किया था। उनका यह कार्य इतना प्रभावशाली तथा महत्त्वपूर्ण सिन्द्र हुआ कि आज तक विद्वान तथा आचार्यगण इन मुलग्रन्थों पर भाष्य लिखते जा रहे हैं। प्रस्थानत्रयी का जो भी भाष्यकार हो वह निश्चितरूप से शंकराचार्य का ऋणी है और उनके आदर्श पर चल रहा है। इस प्रकार वेदान्त के सभी सम्प्रदाय जिनमें प्रस्थानत्रयी का भाष्य किया गया है. वास्तव में शंकराचार्य के ही प्रभाव क्षेत्र में आते हैं।
शंकराचार्य के उपयुक्त सभी ग्रन्थों पर आनन्दगिरि ने टीकाएं लिखा है जिनका उपयोग उन ग्रन्थों की प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए किया जाता है। शडकराचार्य नैष्टिक ब्रह्मचारी थे और ब्रह्मचर्य-अबस्था के पश्चात उन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। उनके चार प्रमुख शिष्य थे जिनके नाम पद्मपाद, सुरेश्वर, त्रोटक और प्रस्तामलक हैं। पदमपाद और सुरेश्वर ने अद्वैतवेदान्त के दो सम्प्रदायों की स्थापना की है जिन्हें क्रमशः विवरण-प्रस्थान और बार्तिक-प्रस्थान कहा जाता है। उनके ग्रन्थों के वर्णन उन-उन प्रस्थानों के विवरण में आगे दिये गये हैं। हस्तामलक के नाम से केवल उनका हरतामलक-स्तोत्र प्रसिद्ध है जिसमें १४ श्लोक हैं। इन पर शंकराचाय की एक टीका भी है। किन्तु उसके शंकराचार्यक्त होने में बहुतों को सन्देह है। फिर भी यह ग्रन्थ अपने ढंग का निराला है
और याज्ञवल्क्य की संवाद-शैली का प्रतिपादक है। इसमें गुरु-शिष्य संबाद है। गुरु ने पृष्ठा । - (प्रथम श्लोक में)
कस्त्वं शिशो कस्य कुतोऽसि गन्ता, किं नाम ते त्वं कुत आगतोऽसि। एतन्मयोक्तं वद चार्भक त्वं मत्प्रीतये प्रीतिविवर्धनोऽसि ।।
वेदान्त-खण्ड
। तब शिष्य ने १३ श्लोकों में उत्तर दिया जिसका सार निम्न श्लोक में ही आ जाता है
नाहं मनुष्यो न च देवयक्षी न ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राः।। न ब्रह्मचारी न गृही वनस्थो,
भिक्षुश्च नाहं निजबोधरूपः।। इस प्रकार हस्तामलक ने अतिवर्णाश्रमी धर्म का प्रतिपादन किया जो शंकराचार्य का मुख्य प्रतिपाद्य था। हस्तामलकस्तोत्र गुरु-शिष्य-संवाद की प्रणाली से अद्वैतवेदान्त का उपदेश देने वाला एक मानक ग्रन्थ है। इसके तौल पर अनेक ग्रन्थ लिखे गये जिनमें १८वीं शती का लिखा ग्रन्थ अद्वैतबोधदीपिका है। इसके लेखक तमिलनाडु के करपात्र स्वामी हैं। इसमें कुल १२ अध्याय थे। अन्तिम चार अध्याय अनुपलब्ध हैं। शेष आठ अध्यायों के तमिल और अंग्रेजी अनुवाद हैं। बीसवीं शती के अद्वैती रमण महर्षि पर इस ग्रन्थ का बहुत अधिक प्रभाव था। देखिए, अद्वैतबोधदीपिका, अंग्रेजी अनुवाद, तृतीय संस्करण, श्री रमणाश्रम, तिरुवन्नमलप। हस्तामलकस्तोत्र के लिए बलदेव उपाध्याय कृत श्री शंकराचार्य, प्र.१७। परन्तु शकराचाय ने इसका समन्वय वणाश्रम धम से भी किया था जिसके कारण वे सनातनधर्म या स्मातधर्म के आचार्य माने जाते हैं।
आचार्य त्रोटक या तोटक के नाम से कई ग्रन्थ प्रचलित हैं जिनमें मुख्य श्रुतिसारसमुद्धरण है। यह त्रोटक छन्द में लिखा गया है। इस कारण इस ग्रन्थ को “त्रोटक शलोक” कहा गया है। इसी के आधार पर उनका त्रोटक या तोटक नाम प्रचलित हो गया है। वैसे उनका नाम आनन्दगिरि था जो शंकराचार्य के भाष्यों पर टीका लिखने वाले आनन्दगिरि (आनन्दज्ञान) से भिन्न थे।
। श्रुतिसारसमुद्धरण में १७E त्रोटक हैं। इस पर सच्चिदानन्द योगीन्द्र की तत्वदीपिका व्याख्या नामक तोटक वृत्ति है। इस ग्रन्थ के निम्न श्लोक ऐतिहासिक और दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं
१. “तत्त्वमसि’ यह वाक्य उपासनापरक है या गुणवादपरक या स्तुतिपरक या विपरीत-बोधक या ब्रह्मत्व बोधक? इन सभी विकल्पों का सुन्दर वर्णन निम्न श्लोकों में किया गया है -
भन आदिषु कारणदृष्टिविधिः प्रतिमासु च देवधियां करणम्। स्वमतिं त्वनपोह्य यथा हि तथा त्वमसीति सदात्ममतिर्वचनात् ।।
शङ्कराचार्य का अद्वैतवेदान्त अथवा त्वमिति ध्वनिवाच्यमिदं सदसीति बदेद्वचनं गुणतः। मिशाला विभयं पुरुष प्रवदन्ति यथा मृगराडयमीश्वरगुप्त इति।।
यदि वा स्तुतये सदसीतिवदेन्मघवानसि विष्णुरसीति यथा। स्वमिति श्रुतिवाच्यसतत्त्वकतामथवा सत एव वदेद्वचनम् ।।
यदि तत्त्वमिति ध्वनिनाऽभिहितः परमात्मसतत्त्वक एव सदा। किमिति स्वकमेव न रूपमवेत् प्रतिबोध्यत एव यतो वचनैः।।
अतएव हि जीवसदात्मकतां नहि तत्त्वमसीति वदेवचनम् । यदपीदृशमन्यदतो वचनं तदपि प्रथयेदनयैव दिशा ।।
त्वदुदाहृतवाक्यविलक्षणता वचनस्य हि तत्त्वमसीति यतः । अतएव न दृष्टिविधानपरं सत एच सदात्मकतागमकम्।।
उपर्युक्त श्लोकों में जहां अन्य विकल्पों का निराकरण करके अन्तिम विकल्प को सिद्ध किया गया है, वहीं ‘ईश्वरगुप्त मृगराज है’ - यह वाक्य लिखकर त्रोटकाचार्य ने बताया है कि ईश्वरगुप्त (या ईश्वर वर्मा) नामक कोई गुप्तवंशीय राजा उनका समकालीन था।
२. द्रविडाचार्य ने तत्त्वमसि की व्याख्या शबरराजपुत्रन्याय के आधार पर की थी। इस पर त्रोटकाचार्य कहते हैं -
द्रविडोऽपि च तत्त्वमसीति बचो निवर्तकमेव निरूपितवान् ।
शबरेण विवर्धितराजशिशोर्निजजन्मविदुक्तिनिदर्शनतः ।। ३. अद्वैतवेदान्त में माना जाता है कि
यावदायुस्त्रयो बन्धा वेदान्तो गुरुरीश्वरः ।
आदी विद्याप्रसिद्धयर्थं कृतघ्नत्वापनुत्तये ।। अर्थात यावज्जीवन वेदान्त का अध्ययन, गुरु-भक्ति और ईश्वर-भक्ति कर्तव्य हैं पहले विद्याप्राप्ति के लिए और विद्या प्राप्त हो जाने पर कृतघ्नता को दूर करने के लिए। इस मत की अभिव्यक्ति त्रोटकाचार्य निम्न श्लोक में करते हैं :
तव दास्यमह भृशमामरणात् प्रतिपाद्य शरीरधृति भगवन् । करवाणि मया शकनीयमिदं तवकर्तुमतो न्यदशक्यमिति।।वेदान्त-खण्ड
शङ्कराचार्य का शिष्य-मण्डल कैसा था? इसका भी दिग्दर्शन त्रोटकाचार्य ने निम्न श्लोक में किया है
येषां धीसूर्यदीप्त्यां प्रतिहतिमगमन्नाशमेकान्ततो मे ध्वान्तं स्वान्तस्य हेतुर्जननमरणसन्तानदोलाधिरूढ़ेः । येषां पादौ प्रपन्नाः श्रुतिशमविनयैर्भूषिताः शिष्यसंघाः
सद्यो मुक्तौ स्थितास्तान्यतिपरमहितान्यावदायुनमामि ।। शङ्कराचार्य का शिष्यमण्डल दशनामी सम्प्रदाय के नाम से जाता है, जिसमें सरस्वती, आश्रम, तीर्थ, भारती, वन, आरण्य, पर्वत, गिरि, सागर और पुरी - इन दश नाम वाले संन्यासी होते हैं। इनमें भी प्रथम चार प्रमुख हैं जिनमें से शंकराचार्य द्वारा संस्थापित मटों के जगद्गुरु शंकराचार्य बनाये जाते हैं। अन्तिम छ: नागा साधु के नाम से विख्यात हैं जिनके छः अखाड़े और ५२ मढ़ी बतलाये जाते हैं। इनके सर्वोच्च अधिकारी
को महामण्डलेश्वर कहा जाता है। प्रत्येक अखाड़े के महामण्डलेश्वर अलग-अलग होते हैं।
जगद्गुरु शंकराचार्य के मटों का विवरण मठाम्नाय के अनुसार निम्न तालिका में प्रस्तुत है
मठग्राम की तालिका
क्रम मद
क्षेत्र
आम्नाय
सम्प्रदाय
अंकित नामदेव
देवी
आचार्य
ब्रह्माच्यारी तीर्थ
वेद
महावाक्य
पुरुषोत्तम
पूर्व
भोगवार
भरणा, बन
जगन्नाच
विमाना
पद्मपाद
प्रकाश
महोचचिः
मक्
प्रधान ग्राम
कश्यप
गोवर्धन
(अंग, बंग,
रामेश्वर
दक्षिण
भूरियार
सरस्वती,
आदिवाराक्ष
कामाक्षी हस्तामलकः चतन्य
मुंगभद्रा
गनुः
अहं ब्राह्मास्मि
भूर्भुवः
कर्नाटक,
तमिलनाडू
केरल)
शङ्कराचार्य का अद्वैतवेदान्त
दारिका
कीटकर
पश्चिम
अविगत
तीर्थ, आश्रम सिन्देश्वर
मदकानी विश्वरूप
(सिन्यु,
सीधीर,
बदरिका
उत्तर
आनन्दवार गिरि, पर्वत
नारायण
पूर्णागिरि त्रोटकाचार्य
आनन्द
अलकनन्दा अधर्व
अक्षमात्मा
काश्मीर
५.
सुमेरु मठ
केलास
काम्नाय काशी
मानसबम सामवेद
सत्यज्ञान
वेदान्त-खण्ड
इन मठों के संचालन के लिए शंकराचार्य ने कुछ उपदेश दिये थे जो सम्पति महानुशासन के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसमें २६ श्लोक है। इसमें शंकराचार्य के समाज-दर्शन का निरूपण है। अतएव इसको यहाँ पूर्णरूपेण प्रस्तुत किया जा रहा है -
महानुशासनम्
आम्नायाः कथिताः येते यतीनाञ्च पृथक्-पृथक् । ते सर्वे चतुराचार्या नियोगेन यथाक्रमम् ।। १ ।।
प्रयोक्तव्याः स्वधर्मेषु शासनीयास्ततोऽन्यथा। कुर्वन्तु चैव सततमटनं धरणीतले।। २।।
विरुद्धाचारणप्राप्तावाचार्याणां समाज्ञया।
लोकान् संशीलयन्वेव स्वधर्माप्रतिरोधतः ।। ३ ।।
स्वस्वराष्ट्रप्रतिष्ठित्यै संचारः सुविधीयताम् । मठे तु नियतो वास आचार्यस्य न युज्यते।। ४ ।।
वर्णाश्रमसदाचारा अस्माभिर्ये प्रसाधिता। रक्षणीयास्तु एवैते स्वे स्वे भागे यथाविधि ।। ५ ।।।
यतो विनष्टिमहती धर्मस्यात्र प्रजायते। मान्य संत्याज्यमेवात्र दाक्ष्यमेव समाश्रयेत् ।। ६ ।।
परस्परेण कर्तव्या आचार्येण व्यवस्थितिः ।। ७ ।। मर्यादाया विनाशेन लुप्तेरन्नियमा शुभाः। कलहाङ्गारसम्पत्तिरतस्ता परिवर्जयेत् ।। ८ ।।
परिबाडाचार्यमर्यादा मामकीनां यथाविधि । चतुः पीठाधिगां सत्तां प्रयुज्याच्च पृथक्-पृथक् ।। ६ ।।
शुचि जितेन्द्रियों वेदवेदांगविशारदः । योगज्ञः सर्वशास्त्राणां स मदास्थानमाप्नुयात् ।। १० ।।
शकराचार्य का अद्वैतवेदान्त उक्तलक्षणसम्पन्नः स्याच्चेपीठभाग्भवेत्। अन्यथा रूढपीठोऽपि निग्रहा) मनीषिणाम् ।। ११ ।।
न जातु मठमुच्छिन्द्यादधिकारिण्युपस्थिते। मला विघ्नानामपि बाहुल्यादेष धर्मः सनातनः ।। १२ ।।
अस्मत्पीठसमारूढ़ः परिबाडुक्तलक्षणः । अहमेवेति विज्ञेयो यस्य देव इति श्रुतेः ।। १३ ।।
एक एवाभिषेच्यः स्यादन्ते लक्षणसम्मतः । तत्तत्पीठे कमेणैव न बहु युज्यते क्वचित् ।। १४ ।।
सुधन्वनः समीत्सुक्यनिवृत्यै धर्महेतवे। देवराजोपचारांश्च यथावदनुपालयेत् ।। १५ ।।
केवलं धर्ममुदिदश्य विभवो ब्राह्मचेतसाम्। विहितश्चोपकाराय पद्यपत्रनयं व्रजेत् ।। १६ ।।
सुधन्वा हि महाराजस्तदन्ये च नरेश्वराः । धर्मपारम्परीमेतां पालयन्तु निरन्तरम् ।। १७ ।।
चातुर्वण्यं यथायोग्य वाङ्मनः कायकर्मभिः । गुरोः पीठं समर्चेत विभागानुक्रमेण वै ।। १८ ।।
धरामालम्ब्य राजानः प्रजाभ्यः करभागिनः । कृताधिकारा आचार्या धर्मतस्तद्वदेव हि ।। १६ ।।
धर्मो मूलं मनुष्याणां स चाचार्यावलम्बनः ।
तस्मादाचार्यसुमणेः शासन सर्वतोऽधिकम् ।। २० ।।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन शासनं सर्वसम्मतम् ।
आचार्यस्याविशेषेण ह्यौदार्यभरभागिनः ।। २१ ।।
वेदान्त-खण्ड
आचार्याक्षिप्तदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः । . निर्मला स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा।। २२ ।।
इत्येवं मनुरप्याह गौतमोऽपि विशेषतः । - विशिष्टशिष्टाचारोऽपि मूलादेव प्रसिद्धयति ।। २३ ।।
तानाचार्योपदेशांश्च राजदण्डांश्च पालयेत् । मान तस्मादाचार्यराजानानवद्यौ न निन्दयेत् ।। २४ ।।
धर्मरूपपद्धतिहयेषा जगतः स्थितिहेतवे । सर्ववर्णाश्रमाणां हि यथाशास्त्र विधीयते ।। २५ ।।
कृते विश्वगुरुर्ब्रह्मा त्रेतायामृषिसत्तमाः । द्वापरे व्यास एव स्वात् कलावत्र भवाम्यहम् ।। २६ ।।
(इति महानुशासनम्) यहां जगद्गुरु शंकराचार्य को साक्षात् आदि शंकराचार्य की मूर्ति कहा गया है। उनके कर्तव्यों का वर्णन किया गया है तथा उनकी योग्यता का भी उल्लेख है। यह भी बताया गया है कि यदि वे अपने कर्तव्य से च्युत हो जाएँ तो मनीषिगण ( अर्थात् गृहस्थ विद्वान्) उन्हें जगद्गुरु शंकराचार्य की गद्दी से हटा दें। उल्लेखनीय है कि प्रत्येक मट में अध्यक्ष तो जगद्गुरु शंकराचार्य के नाम से कोई संन्यासी होता था किन्तु उसका प्रबन्धक आचार्य का कोई गृहस्थ शिष्य होता था। इस प्रकार शंकराचार्य ने विरचत और गृहस्थ दोनों के मेल से मठ के संचालन की व्यवस्था बनाई थी। उनके अनुसार धानुशासन आचार्य का अनुशासन है। आचार्य को राजावत् महत्त्व या उससे भी अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए क्योंकि धर्म राज्य का भी मूल है।
(क) शारीरकभाष्य
शंकराचार्य के ग्रन्थों में शारीरकभाष्य, बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य और भगवद्गीताभाष्य का महत्त्व सर्वाधिक है। इनमें से अंतिम का विवेचन अन्यत्र किया जायेगा। यहां प्रथम दो का विवेचन प्रस्तुत किया जाता है।
शारीरकभाष्य एक क्रान्तिकारी ग्रन्थ है। इसके खंडन में भास्कर, रामानुज, मध्व आदि ने ब्रह्मसूत्र पर अपने-अपने भाष्य लिखे हैं। इससे वेदान्त-सम्प्रदाय में अद्वैत- वेदान्त के खंडन की एक परम्परा विकसित हुई है। किन्तु इस परम्परा के उत्तर में शारीरकभाष्य
शङ्कराचार्य का अद्वैतवेदान्त के समर्थन में भी अनेक टीकाएं लिखी गयी हैं जिनमें पद्मपाद, वाचस्पति मिश्र, सर्वज्ञात्मा, चित्सुखाचार्य, आनन्दगिरि, गोविन्दानन्द, अनुभूतिस्वरूपाचार्य आदि की टीकाओं का प्रभाव दार्शनिक जगत् पर बहुत पड़ा है। निःसन्देह शारीरकभाष्य एक अत्यन्त मालिक कृति है। उसको कुछ टीकाएं भी इतनी मौलिक सिद्ध हुई है कि उन पर भी अनेक टीकाएं रची गयी हैं। इस क्षेत्र में वाचस्पति मिश्र की भामती, प्रकाशात्मा का विवरण, अमलानन्द का कल्पतरु, गोविन्दानन्द की रत्नप्रभा और सर्वज्ञात्मा का संक्षेपशारीरक विशेष उल्लेखनीय है, क्योंकि इन पर कई उच्चकोटि की टीकाओं की रचना हुई है जिनसे अनेक दार्शनिक विवादों
और मतवादों का उद्भव हुआ है। निम्नलिखित तालिका में शारीरकभाष्य पर २५ साक्षात् टीकाएं दी गई हैं जिनमें टीका की टीका को छोड़ दिया गया है, अर्थात् अनुटीकाओं (सब कमेन्टरी) की गणना इसमें नहीं की गयी है। शारीरकभाष्य की टीकाएं
लेखक १. पचपादिका
पद्मपाद (केवल चतुःसूत्री तक
उपलब्ध) २. भामती
वाचस्पति मिश्र संक्षेपशारीरक
सयज्ञात्मा मान (पद्य में) न्यायनिर्णय
आनन्दारि रत्नप्रभा
गोविंदानन्द प्रकटार्थविवरण
अनुभूति स्वरूपाचार्य भाष्य माव-प्रकाशिका
चित्सुखाचार्य लगातार नामक ८. ब्रह्मविद्याभरण
अद्वैतानन्द . सुबोधिनी कि
शिवनारायण तीथ न । १०. ग्रह्मसूत्र-दापिका
शंकरानन्द
। ११. शारीरकन्यायरक्षामाणे
अप्पयदीक्षित १२. शारीरक-मीमांसाभाष्य-बार्तिक नारायणानन्द सरस्वती (गद्य में) १३. ब्रह्मसूत्रभाष्यार्थ-संग्रह
ब्रह्मानन्द यति १४. ब्रह्मसूत्रभाष्यव्याख्या-विद्याश्री
ज्ञानोत्तम भट्टारक १५. शारीरकमीमांसाभाष्यटिप्पणी प्रदीप अनन्तकृष्ण शास्त्रीनगर १६. वेदान्तदीपिका विष-विदग्धा
सभानाथ शतक्रतु १७. शास्त्रदर्पण
अमलानन्द १८. सूत्राचिन्तामणि
बालेश्वर यज्चा १६. ब्रह्मसूत्ररत्नावली
सुब्रह्ममण्य शास्त्री (अनुष्टुप में) २०. ब्रह्मसूत्रवृत्ति
सुरेश्वराचार्य २१. ब्रह्मसूत्रवृत्ति (मिताक्षरी)
अन्नंभट्ट (भामती प्रस्थानानुसार)
वेदान्त-खण्ड
२२. ब्रह्मसूत्रवृत्ति ब्रह्मतत्त्वप्रकाशिका सदाशिव ब्रह्मेन्द्र २३. भाष्यगाम्भीर्यार्थ-निर्णयमण्डन वेंकट राघव शास्त्री २४. व्यासतात्पर्यनिर्णय
अय्यप्पा दीक्षित (अन्य भाष्यों से
शारीरकभाष्य का तुलनात्मक अध्ययन) २५. शारीरकन्यायमणिमाला
अज्ञात (प्रत्येक पाद के न्यायों का
विवेचन) पद्मपाद और वाचस्पति मिश्र दोनों ने ही शारीरकभाष्य को प्रसन्न और गम्भीर कहा है (प्रसन्नगम्भीरं भाष्यम्)। उसके जिन अंशों का विशेष महत्त्व है उनमें निम्नलिखित प्रमुख है
उपोद्घात जिसमें अध्यास-सिद्धान्त का निरूपण है। अध्यास की परिभाषा है - स्मृतिरूपः परपूर्वदृष्टावभासः । अथवा अतस्मिन् तद् बुद्धिः । चतुःसूत्री जिसमें बादरायण के ब्रह्मसूत्र के प्रथम चार सूत्रों की व्याख्या है। प्रायः उपोद्घात को भी चतु:सूत्री में शामिल कर लिया जाता है। चतुःसूत्री के अन्त में शंकराचार्य ने सुन्दरपाण्ड्य की तीन कारिकाओं को उद्धृत किया है जिनका अद्वैत ज्ञानमीमांसा में विशेष महत्त्व है। स्मृतिपाद का भाष्य अर्थात् ब्रह्मसूत्र के द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद का भाष्य। इसमें विशेषतः योग और सांख्य का खंडन किया गया है। तर्कपाद का भाष्य अर्थात् ब्रह्मसूत्र के द्वितीय अध्याय के द्वितीय पाद का भाष्य जिसमें सांख्यदर्शन, वैशेषिकदर्शन, सास्तिवाद बौद्धदर्शन, विज्ञानवाद बौद्रदर्शन, जैनदर्शन, पाशुपत-मत और पाञ्चरात्र-मत का खण्डन किया गया है। डॉ. याकोबी ने सिद्ध किया है कि विज्ञानवाद का जो खंडन शंकराचार्य ने किया है वह वास्तव में उनका अपने समकालीन विज्ञानवाद का खंडन है, वैसे बादरायण ने ब्रह्मसूत्र में शून्यवाद का खण्डन किया था, विज्ञानवाद का नहीं; क्योंकि उनके समय में विज्ञानवाद का विकास नहीं हुआ था। याकोबी के अनुसार उपवर्ष ने भी अपनी वृत्ति में शून्यबाद का खण्डन किया था। आनन्दमयाधिकरण, जिसमें सिद्ध किया गया है कि ब्रह्म आनन्द है, आनन्दमय नहीं। इस अधिकरण में पहले ब्रह्म को आनन्दमय सिद्ध किया गया है और बाद में अधिकरण की इस व्याख्या का खंडन करते हुए एक दूसरी व्याख्या की गयी है जिसमें ब्रह्म को आनन्द सिद्ध किया गया है। ब्रह्मसूत्र४/१३/१४ के शारीरकभाष्य में जर्मन विद्वान् पाल डायसन के अनुसार परा तत्त्वविद्या, परा सृष्टिविद्या, परा मनोविद्या, परा नीतिविद्या, परा परलोक- विद्या
और परा ब्रह्मविद्या का सुन्दर वर्णन है। इस कारण भाष्य का यह अंश बहुत महत्त्वपूर्ण है।
शङ्कराचार्य का अद्वैतवेदान्त ७. ब्रह्मसूत्र १/३/२८ के भाष्य में शंकराचार्य ने कथोपकथन की शैली में स्फोटबाद का
खंडन और उपवर्ष के वर्णवाद का विवरण प्रस्तुत किया है। वे स्वयं वर्णवाद को मानते हैं और स्फोटवाद का खंडन करते हैं। भाष्य का यह अंश भाषा-दर्शन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण है। पाल डायसन ने इसको बहुत महत्त्व दिया है। ‘एक आत्मनः शरीरे भावात्’ (ब्रह्मसूत्र ३/३/५३) के भाष्य में शंकराचार्य ने जो विवेचन किया है वह आत्मवाद के लिए अत्यन्त उपयोगी है। प्रो. अनुकूलचन्द्र मुकजी ने इस भाष्य के आधार पर शङ्कराचार्य के आत्मवाद का सम्यक् निरूपण एक स्वतंत्र ग्रन्थ में किया है। इस भाष्य का महत्त्व उपवर्ष के मत को जानने के लिए भी किया जाता है। यहां शंकराचार्य ने लिखा है कि जैमिनि के मीमांसासूत्र में प्रसंगतः आत्मा का विवेचन उपस्थित होने पर उपवष कहते हैं कि यह विवेचन बादरायण के ब्रह्मसूत्र ३/३/५३ के भाष्य में किया जाएगा। इस आधार पर अनेक मीमांसकों ने माना है कि वेदान्त का मुख्य प्रतिपाद्य विषय आत्मा है, जो मीमांसा को मी मान्य है। बे पूनः कहते हैं कि ३/३/५३ सूत्र की वृत्ति की सामग्री को ही शबर स्वामी ने मीमांसासूत्रभाष्य के वृत्तिकारग्रन्थ नामक अंश में रखा है। यह वृत्तिकारग्रन्थ मीमांसासूत्र १/१/५ के शाबर भाष्य में उद्धृत है। वृत्तिकार के मत का अनुसरण करते हुए शबरस्वामी, कुमारिल भट्ट तथा पार्थसारथि ने जैमिनि की कममीमांसा और बादरायण की ब्रह्ममीमांसा में अविरुद्ध अंश को रेखांकित किया है। परवर्ती अद्वैतवेदान्ती सदानन्द काश्मीरक ने अद्वैतब्रह्मसिद्धि में ठीक ही लिखा है -
जैमिनीये च वैयासे विरुद्वांशो न कश्चन ।
श्रुत्या वेदार्थविज्ञाने श्रुतिपारं गती हि तौ।। ६. ३/२/२१ के भाष्य में शंकराचार्य ने प्रपंचविलयवाद का विस्तार से वर्णन किया है
और अन्त में इसका खण्डन किया है। कुछ अद्वैतवेदान्ती फिर भी अपंचविलयबाद को शंकर के पूर्व तथा पश्चात् मानते रहे हैं और यह मत शांकर वेदान्त में एक
प्रौढ़िवाद बन गया है। इसे एकदेशी वेदान्ती का मत कहा जाता है। १०. ब्रह्मसूत्र २/१/११ का भाष्य अद्वैतवेदान्त में तक के महत्व को जानने के लिए
आवश्यक है। यहां शंकराचार्य ने प्रदर्शित किया है कि यद्यपि ब्रह्ममीमांसा में सामान्यतः तक अप्रतिष्टित है तथापि कुछ विषयों में वह मान्य है और तक से ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करने में सुविधा मिलती है। किन्तु शर्त यह है कि तक को
श्रुति-सम्मत होना चाहिए। ११. ब्रह्मसूत्र २/१/११ के भाष्य में कारण और कार्य का अमेद प्रतिपादित किया गया
है जो शंकराचार्य के दर्शन को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। इसी प्रकार शारीरकभाष्य के अनेक अंशों में विशुद्ध दर्शन के सिद्धान्तों की चर्चा हुई है जिन्हें
वेदान्त-बण्ड सामान्यतः विद्वान् लोग परिशिष्ट मानते हैं, क्योंकि वे मूल सूत्रों की व्याख्या में परिशिष्ट की भूमिका निभाते हैं। कुछ विद्वान् शारीरकभाष्य को इतना महत्त्व देते हैं कि यदि शंकराचाय के किसी ग्रन्थ में कोई मत शारीरकभाष्य के विरुद्ध है तो वे उसे शंकर का मत नहीं मानते हैं।। शारीरकभाष्य अद्वैतवेदान्त का मूलग्रन्थ हो गया है और एक अर्थ में इसने अपने मूल ब्रह्मसूत्र को भी केन्द्रीय महत्त्व से हटा दिया है। जितना महत्त्व शारीरकभाष्य का है उतना ब्रह्मसूत्र का नहीं है। ब्रह्मसत्र १/9/9 में अथ पद की व्याख्या करते हा शंकराचार्य ने वेदान्त को कर्ममीमांसा से स्वतंत्र और पृथक् शास्त्र सिद्ध किया है। यह उनका युगान्तरकारी कार्य था। फिर भी उन्होंने वेदान्त-शास्त्र के अधिकारी को साधनचतुष्टयसंपन्न माना है। सदसद्-विवेक, इहामुत्रार्थभोगवैराग्य, शम-दम-उपरति तितिक्षा-समाधान-श्रद्धा, पट्सम्पत्ति तथा ममक्षत्व- ये साधन-चतुष्टय हैं। इनके आधार पर अद्वैत नीतिशास्त्र की अद्वैत-ज्ञान में पूर्वभूमिका है। अद्वैत नीतिशास्त्र के लिए देखिया, डा. रामानन्द तिवारी, श्री शंकराचार्य का आचारदर्शन, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, १६४६।
(ख) बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य
शंकराचार्य के ग्रन्थों में बृहदारण्यकोपनिषदभाष्य को सबाधिक महत्त्व इसलिए मिला है कि इस पर उनके साक्षात् विद्वान् शिष्य सुरेश्वराचार्य ने बृहदारण्यकोपनिषद भाष्य-वातिक नामक एक बृहद् ग्रन्थ लिखा है जिस पर आनन्दगिरि ने एक विशद टीका लिखी है। जैसे शारीरकभाष्य का उपक्कम अध्यासबाद से होता है वैसे इस भाष्य के उपक्कम में भी शंकराचार्य ने एक उपोद्धात लिखा है जिस पर सुरेश्वर के वार्तिक को संबन्ध-वातिक कहा जाता है, क्योंकि इसमें कर्मकाण्ड से ज्ञानकाण्ड का सम्बन्ध बताया गया है।
शंकराचार्य के बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य पर निम्न टीकार हैं १. सुरेश्वराचार्य का बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य पर वार्तिक जो पद्यमय है।
आनन्दगिरि की टीका। यह वार्तिक की टीका से भिन्न है। ३. शिवानन्द यति की बृहदारण्यकभाष्य-टिप्पणी
पुनश्च सुरेश्वर के बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य-वार्तिक पर निम्नलिखित टीका ग्रन्थ हैं।
आनन्दगिरिकृत बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्यवार्तिक-टीका। २. विद्यारण्यकृत बृहदारण्यकवार्तिकसार (पद्य में)। ३. महेश्वरानन्द तीर्थकृत विद्यारण्य के बृहदारण्यकबार्तिकसार पर बृहदारण्यकभाष्य
वार्तिक व्याख्या संग्रह। ४. नृसिंहप्रज्ञ मुनिकृत बृहदारण्यकवातिक न्यायतत्त्व-विवरण। ५. आनन्दपूर्ण विद्यासागरकृत बृहदारण्यकवातिक-सम्बन्धोक्ति।
शङ्कराचार्य का अद्वैतवेदान्त
३७
६… आनन्दपूर्ण विद्यासागरकृत बृहदारण्यक वातिक व्याख्या न्यायकल्पलतिका।
इन टीकाओं के कारण बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य-वार्तिक का महत्त्व अद्वैत वेदान्त में घनीभूत हो गया है। मूलतः इसी बार्तिक को लिखने के कारण सुरेश्वर को बार्तिककार कहा जाता है जैसे शंकराचार्य को शारीरकभाष्य लिखने के कारण ‘भगवत्पाद भाष्यकार माना जाता है। बृहदारण्यकोपनिषद् के प्रसिद्ध याज्ञवल्क्य मैत्रेयी-संवाद में आत्मा के स्वरूप का विवेचन ज्ञान-मीमांसा तथा मूल्यमीमांसा के दृष्टिकोणों से किया गया है। याज्ञवल्क्य, शंकर, सुरेश्वर, आनन्दगिरि, विद्यारण्य और आनन्दपूर्ण विद्यासागर ने उस आत्मवाद को अपनी-अपनी युक्तियों से संबंधित किया है। ये सब वार्तिक प्रस्थान के आचार्य है।
निर्गुण ब्रह्मवा
शङ्कराचार्य ने ब्रह्म के दो लक्षण माने हैं जिन्हें तटस्थ लक्षण और स्वरूप लक्षण कहा जाता है। तटस्थ नक्षण का निरूपण “जन्मायस्य यतः” है। अथात् “ब्रह्म वह है जो इस जगत् के उद्भव, स्थिति और लय का हेतू है” यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। ऊपर से देखने पर यह ब्रह्म के अस्तित्व के लिए एक सृष्टि-वैज्ञानिक युक्ति प्रतीत होती है। किन्तु शंकराचार्य कहते हैं कि यह लक्षण तैत्तिरीय उपनिषद् की भृगुवल्ली का संक्षिप्त सार है। ब्रह्म का ज्ञान अनुमान से नहीं किन्तु श्रुति से होता है। स्वरूप लक्षण है - ‘सत्यं ज्ञान मनन्तं ब्रह्म, अर्थात् ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त या आनन्द है। वह सच्चिदानन्द है।
ब्रह्म के इन दो लक्षणों पर कई विवाद हैं। पहला विवाद इस बात पर है कि क्या ब्रह्म दो हैं? क्या लक्षण-भेद से लक्ष्यभेद होता है। अद्वैत-विरोधी दार्शनिक मानते हैं कि
अद्वैतवेदान्त में दो ब्रह्म की मान्यता है - सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म। पहला सविशेष और साकार है और दूसरा निर्विशेष तथा निराकार है। पहला सृष्टिकर्ता है और दूसरे के लिए सृष्टि मिथ्या है या अजात है। संगण ब्रह्म ईश्वर है। निगुण ब्रह्मवाद निरीश्वरवाद है। किन्त उभय ब्रह्मवाद का खंडन सभी अद्वैतवेदान्ती करते हैं। स्वयं शंकराचार्य ने दिखलाया है कि ‘जन्माद्यस्य यतः" का तात्पर्य आनन्दरूप ब्रह्म में है, क्योंकि आनन्द से ही सृष्टि के उद्भव, स्थिति और लय तैत्तिरीयोपनिषद के अनसार होते हैं। इसी प्रकार सच्चिदानन्द को वहा का लक्षण मानने पर भी अन्त में सिद्ध होता है कि आनन्द ही ब्रह्म है। अतएव आनन्द ब्रह्म है, इस विषय पर स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण का मतैक्य है। इस कारण ब्रह्म एक
और अद्वितीय सत् है। वही चित् है। वही आनन्द है। चित् और आनन्द गुण नहीं हैं, अपितु सद्रूप है। पुनश्च सद्रूप होने पर भी वे सत् से अधिक या न्यून नहीं हैं, किन्तु पूर्ण तथा सत् के पर्याय हैं।
दूसरा विवाद ब्रह्म के स्वरूप लक्षण पर उठता है। सत, चित् और आनन्द में परस्पर क्या सम्बन्ध है? इनमें कौन मुख्य है और और कोन गुण है। इन प्रश्नों पर कई मत है। एक मत है कि सत, चित् और आनन्द प्रत्येक पूर्णरूपेण ब्रह्म को परिभाषित या लक्षितवेदान्त-खण्ड
करता है। अर्थात् सत् ब्रह्म है, चित् ब्रह्म है, आनन्द ब्रह्म है। ये वास्तव में तीन लक्षण हैं। प्रत्येक लक्षण पर्याप्त है। दूसरा मत है कि सत् से चित् अधिक व्यापक है और आनन्द चित् से भी अधिक व्यापक है। इस प्रकार आनन्द-ब्रह्म में अन्य दो लक्षण समाहित हो जाते है। तीसरा मत है कि सत, चित् और आनन्द प्रत्येक केवल ब्रह्म का संकेत करते हैं। वे यह बताते हैं कि ब्रह्म है और यह नहीं बताते कि ब्रह्म क्या है? अर्थात् ये लक्षण ब्रह्म के इदम्-स्वरूप का संकेत करते हैं और उसके गुण या किं-स्वरूप का उद्घाटन नहीं करते, क्योंकि वह अनुभवैकगम्य है। चौथा मत है कि इन तीनों पदों के निषेधात्मक अर्थ है। अर्थात् सत् का तात्पर्य है कि ब्रह्म असत नहीं है, चित् का तात्पर्य है कि ब्रह्म अचित नहीं है और आनन्द का तात्पर्य है कि ब्रह्म दुःख नहीं हैं। इस प्रकार निषेध द्वारा ये तीनों पद एक ही तय का संकेत करते हैं। इन पदों का अर्थ अभिधामूलक नहीं है, किन्तु लक्षणामूलक है। यहां लक्षणा का जो प्रकार माना जाता है उसे भागत्यागलक्षणा या जहदजहत लक्षणा कहते हैं। इसके अनसार ब्रह्म सत भी है और सत के अतिरिक्त भी कर है, ब्रह्म चित् भी है और चित् के अतिरिक्त भी कुछ है, ब्रह्म आनन्द है और आनन्द के
अतिरिक्त भी कुछ है। वह ऐसा सत् है जो विभु और नित्य है तथा देश, काल और निमित्त से अपरिच्छिन्न है। शब्दों द्वारा उसका वर्णन नहीं हो सकता। वह अवाङ् है।
एक अन्य प्रश्न है कि ब्रह्म ज्ञात है या अज्ञात। यदि वह ज्ञात है तो वेदान्त निरर्थक है और यदि वह अज्ञात है तो उसके बारे में जिज्ञासा ही नहीं हो सकती और इसलिए वेदान्त असंभव है। इस समस्या का समाधान करते हा शंकराचार्य कहते हैं कि ब्रह्म सभी को ज्ञात है, क्योंकि वह आत्मस्वरूप है और सभी को अपनी आत्मा की सहज प्रतीति होती है। किन्तु ब्रह्म का यह निर्विशेष रूप है। उसका विशेष रूप अज्ञात रहता है। उसके बारे में अनेक मत हैं। उन मतों का खंडन करके अन्ततः यह सिद्ध करना कि ब्रह्म का कोई सविशेष रूप नहीं हो सकता है, वेदान्त का प्रकार्य है। अतएव ब्रह्म ज्ञात भी है और वेदान्त की सार्थकता भी है।
अब प्रश्न उठता है कि ब्रह्म के लिए प्रमाण क्या है? शंकराचार्य मानते हैं कि ब्रह्म के लिए प्रथम प्रमाण श्रुति है जो उसके स्वरूप का वर्णन विशदरूप से करती है। द्वितीय प्रमाण स्वानुभूति है जिसके आधार पर महर्षियों ने अनुभव किया कि उनकी आत्मा ही ब्रह्म है - ‘अयमात्मा ब्रह्म’ या मैं ही ब्रह्म हूँ, ‘अहं ब्रह्मास्मि’। फिर अन्त में युक्ति द्वारा ऐसे ब्रह्म को सिन्द किया जा सकता है. क्योंकि देश, काल और निमित्त से जितनी बस्तएं परिच्छिन्न या सीमित है, वे निर्देश करती हैं कि अन्ततोगत्वा कोई तत्त्व सा है जो असीम, आनन्द, अनादि तथा अपरिचिछन्न है। यही ब्रह्म है। बृहत्तम होने के कारण, अनन्त होने के कारण उसे ब्रह्म कहा जाता है। मैक्समूलर ने ब्रह्म का मूल अर्थ शब्द (वरबम्) किया है। ग्रीक भाषा का ‘वरबम्’ शब्द और संस्कृत का ब्रह्मन् एकार्थक हैं। देखिए, मैक्समूनर, ए, वेदान्त फिलासफी, प्रथम संस्करण, १८६४, तृतीय संस्करण १६५५, सुशील गुप्त (इण्डिया) लिमिटेड, ३५ चित्तरंजन एवेन्यू, कलकल्ला, पृ. ।
शङ्कराचार्य का अद्वैतवेदान्त
३E ब्रह्म का निरूपण शंकराचार्य ने अध्यात्मविद्या, अधिभूतविद्या तथा अधिदेवविद्या के अनुसार किया है। अध्यात्मविद्या के अनुसार आत्मा और ब्रह्म में अभेद है। अधिभूतविद्या या सृष्टिविद्या के अनुसार जगतरूपी कार्य तथा जगत् के कारण ब्रह्म में अभेद है। अधिदेवविद्या या देवविद्या के अनुसार उपासक जीव तथा उपास्य ईश्वर में अभेद है और यह अभेद तत्त्व ब्रह्म है।
आत्मवाद
आत्मा के स्वरूप का विवेचन अध्यात्मविद्या के नाम से विख्यात है। उपनिषदों में छान्दोग्योपनिषद् में ‘तत् त्वमसि’ द्वारा, माण्डूक्योपनिषद् में ‘अयमात्मा ब्रह्म’ द्वारा, बृहदारण्यकोपनिषद् में ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ द्वारा आत्मा के स्वरूप का विवेचन किया गया है। शङ्कराचार्य ने इस ओर जो क्रान्ति की है उसके बीज केनोपनिषद् तथा बृहदारण्यकोपनिषद् में विशेष रूप से मिलते हैं जहां कहा गया है कि ‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्’ (विज्ञाता को किसके द्वारा जाना जा सकता है?) अथवा जो विदित है तथा साथ ही जो अविदित है आत्मा उससे भिन्न है। इन वादों को संगठित करते हुए शंकराचार्य ने आत्मा के ज्ञान में अध्यास-दोष की प्रबल संभावना बतलायी। आत्मा ज्ञाता है। जो ज्ञेय है वह अनात्मा है। आत्मा स्वयंसिद्ध है और ज्ञेय (अनात्मा) आगन्तक है। आत्मा अविषय है और जो ज्ञेय है वह विषय है। आत्मा को इस प्रसंग में विषयी कहा जाता है। वह प्रत्यक है और विषय पराक है। यदि आत्मा भी विषय होती तो ज्ञान असंभव हो जाता क्योंकि जैसे नट म्वयं अपने ऊपर खड़े होकर नाच नहीं सकता है, वैसे विषय स्वयं विषयी होकर ज्ञान-व्यापार नहीं संपादित कर सकता। स्वात्मनि क्रियाविरोधात, क्योंकि स्वयं अपने ऊपर कोई का कोई किया नहीं कर सकता है। इस प्रकार ज्ञान की सम्भावना का तात्पर्य है कि विषय से भिन्न कोई विषयी हो। इतना अन्तर होने के कारण आत्मा और विषय का तादात्म्य या अभेद नहीं किया जा सकता। एक का दूसरे पर आरोप या एक के गुण का दूसरे के गुण के साथ अभेद का आरोप नहीं किया जा सकता। किन्तु ऐसा आरोप लोक-प्रत्यक्ष है, सभी करते हैं। वे अतत् में तद्-बुद्धि (अतस्मिन् तद् बुद्धिः) रखते हैं। यही अध्यास है। यह नैसर्गिक प्रवृत्ति है। इसके कारण अज्ञान का उद्भव होता है और आत्मा को लोग अन्यथा समझते हैं। अतएव आत्मा को समझने के लिए अध्यास से बचना चाहिए। यही शंकर के अध्यासवाद का मूल मन्तव्य है।
इस आधार पर जो लोग देह, इन्द्रिय, मन, अहंकार, वाक् या प्राण को आत्मा मानते हैं उनके मत दोषपूर्ण हैं, क्योंकि वे आत्मा को एक विषय के रूप में ग्रहण करते हैं जो
अध्यास-दोष है। फिर जो लोग आत्मा को कता या भोक्ता या दोनों मानते हैं वे भी गलत हैं क्योंकि कलापन या भोक्तापन भी विषय हैं जो बिषयी की अपेक्षा करते हैं और इसलिए ये स्वयं विषयी नहीं हो सकते हैं। आत्मा का कोई नाम या रूप भी नहीं हो सकता, क्योंकि नाम और रूप भी विषय हैं और आत्मा अविषय है। आत्मा का जन्म तथा मरण भी नहीं
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वेदान्त-खण्ड
हो सकता, क्योंकि जन्म और मरण विषयों के लक्षण हैं और विषयी पर उनका आरोप करना दोषपूर्ण है। आत्मा न तो कारण है और न कार्य, न तो दैशिक है और न कालिक, क्योंकि कार्यकारण, देश तथा काल से सम्बन्धित सभी पदार्थ विषय हैं और आत्मा अविषय होने के कारण उनसे प्रकारतया भिन्न है। इसी प्रकार द्रव्य, गुण, कर्म, सम्बन्ध, भाव, अभाव, आदि पदार्थ भी आत्मा के विषय होने के कारण आत्मा नहीं हो सकते हैं। अर्थात आत्मा कोई द्रव्य, गुण, कर्म, सम्बन्ध, भाव या अभाव नहीं है। समस्त विषयों से व्यतिरिक्त होने के कारण प्रश्न उठता है कि क्या आत्मा अज्ञेय है?
इस पर शङ्कराचार्य का कहना है कि आत्मा अज्ञेय नहीं है, दुर्जेय वह अवश्य है। वह ज्ञान-स्वरूप है। जो भी ज्ञेय है वह अपने को तथा आत्मा को दोनों को आपादित करता है। वास्तव में आत्मा को द्रष्टा या ज्ञाता कहना भी औपचारिक (उपलक्षण) है, क्योंकि वह दृष्टिमात्र या ज्ञानमात्र है। वह प्रतिबोध-विदित ज्ञान है। वह बोधस्वरूप है। ज्ञान के विश्लेषण में शंकराचार्य ज्ञान, ज्ञाता तथा जेय - इन तीन घटकों को स्वीकार करते हैं। इनमें
ज्ञान आधार है और ज्ञाता-ज्ञेय आधेय हैं। ज्ञान ज्ञाता-ज्ञेय की प्रागपेक्षा है और ज्ञाता-ज्ञेय ज्ञान की प्रागपेक्षा नहीं हैं। चूंकि ज्ञान सभी विषयों में अनुस्यूत है, अर्थात सभी विषय ज्ञानपूर्वक या आत्मपूर्वक ही सम्भव हैं, बिना आत्मा के किसी वस्तु का ग्रहण नहीं हो सकता। इसलिए आत्मा को सर्वम् कहा जाता है। ‘आत्मव्यतिरेकेण अग्रहणात् आत्मैव सर्वम् (बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य २/४/६)। वह समस्त स्रोतों का आधार होते हुए भी उनसे निरपेक्ष या असंग है। असंगो हि अयं पुरुषः। आत्मा का खंडन असंभव है, क्योंकि जो खंचन होगा वह ज्ञानस्वरूप होने के कारण आत्मा का ही स्वरूप होगा। इसीलिए शंकराचार्य कहते हैं कि ‘यो यस्य निराकता तदेव तस्य स्वरूपम् । अर्थात् आत्मा अखंडनीय है। वही सब का परम पेष्ट है क्योंकि अन्य सब कुछ आत्मा के लिए ही काम्य होता है। आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति’। आत्मा स्वयं आप्तकाम है।
_आत्मा स्वयंसिद्ध या स्वयंप्रकाश है। उसको किसी वृत्ति या विज्ञान या युक्ति द्वारा सिन्द नहीं किया जा सकता है. क्योंकि ऐसे सभी प्रमाण आत्मा की अपेक्षा ग्यते । परन्त इसका तात्पर्य यह नहीं है कि आत्मा असिद्ध है। वह अपने को स्वयं सिद्ध करती है। जैसे रूप का तात्पर्य है कि चक्षु इन्द्रिय है, शब्द का तात्पर्य है कि श्रवण इन्द्रिय है वैसे ही ज्ञेय या प्रमाण का तात्पर्य है कि आत्मा है। उसके होने पर ही अन्य सभी का अस्तित्व है। पर जो उससे अन्य है वह वास्तव में उससे अनन्य ही है। अन्यत्व मिथ्या है। कहीं कष्ट भी आत्मा से अन्य नहीं है। आत्मा सर्वव्यापी या विभू है। वह ब्रह्म है अर्थात् निरपेक्ष सत् है। प्रत्येक मनुष्य अनुभव करता है कि मै हूँ। कोई यह अनुभव नहीं करता कि मैं नहीं हूँ। इस अन्वय-व्यतिरेक से सिद्ध है कि आत्मा है। ‘सर्वो हि आत्मास्तित्वं प्रत्येति, न नाहमस्मीति । यदि हि नामास्तित्वप्रसिद्धिः स्यात् सर्वो लोको नाहमस्मीति प्रतीयात्’ (शारीरकभाष्य
शाडकराचार्य का अवैतवेदान्त
मायावाद
आत्मा से भिन्न जो कुछ हो सकता है उसे शंकराचार्य ने माया कहा है। यद्यपि व्यावहारिक जगत में जो कुछ है वह सब आत्मपूर्वक होने के कारण आत्मा से अनन्य है तथापि दुर्जनतोषन्याय से मान लिया जाता है कि यदि कुछ आत्मा से अन्य है तो वह मिथ्या या माया है। किन्तु वह अस्त नहीं है क्योंकि मृगजल, स्वप्न आदि जो असत् माने जाते हैं वे सभी विषय हैं और इस कारण वे आत्मा से अनन्य हैं। माया परिभाषया इस प्रकार की नहीं है। फिर वह सत् भी नहीं है क्योंकि जो सत् है वह आत्मा है। इसलिए माया सदसद्-विलक्षण है। यही नहीं, शंकराचार्य ने उसे तत्त्व और अन्यत्व से भी अनिर्वचनीय
‘अव्यक्ता हि माया तत्त्वान्यचनिरुपणस्य अशक्यत्वात
(शारीरकभाष्य १/४/३) वह शुद्धरूप में अनिर्वचनीय है। किन्तु यहाँ अनिर्वचनीय पद का अर्थ अवर्णनीय नहीं है, वरन् सदसद् या तत्त्व और अन्यत्व से निर्वचन-योग्य न होना है। परन्तु माया का यह निरूपण पारमार्थिक दृष्टि से है। व्यावहारिक दृष्टि से माया नामरूपात्मक सत् है। इस अर्थ में जितने विषय है वे सब मायिक या माया के अन्तर्गत हैं। उनकी उत्पत्ति, स्थिति और लय माया में हैं।
व्यावहारिक रूप में माया स्वप्न से भिन्न है। जाग्रत अवस्था में स्वप्न का मिथ्यात्व सिद्ध हो जाता है, किन्तु माया का मिथ्यात्व स्वप्न तथा जाग्रत दोनों अवस्थाओं में सिद्ध नहीं होता । उसका मिथ्यात्व आत्मज्ञान होने पर ही सिद्ध होता है जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति
और मुर्छा की अवस्थाओं से भिन्न है। किन्तु यह अवस्था ब्रह्मज्ञानियों को ही प्राप्त होती है। प्राकृत जन माया में ही पड़े रहते हैं। इस कारण वे अध्यासग्रस्त रहते हैं। अथवा यों कहिए कि अध्यास ही माया का हेत है। यदि अध्यास का निराकरण हो जाय तो माया का निराकरण स्वतः हो जाय। अध्यास ही अविद्या है। अविद्या माया का कारण है। कभी-कभी
अविद्या और माया को पर्यायवाची मान लिया जाता है और उनमें यदि मेद किया जाता है तो उन्हें कमशः ज्ञानमीमांसा और तत्वमीमांसा का विषय माना जाता है। अर्थात् तत्त्वमीमांसा में जो माया है वही ज्ञानमीमांसा में अविद्या है।
माया ईश्वर की शक्ति है। श्रुति और स्मृति में उसी को प्रकृति कहा गया है। वह संसार का बीज है। शंकर कहते हैं -
सर्वज्ञस्य ईश्वरस्य आत्मभूत इच अविद्याकल्पिते नामरूपे तत्त्वान्यत्वाभ्यामनिर्वचनीये संसारबीजभूते च श्रुतिस्मृत्योरभिलप्यते। (शारीरक भाष्य २/१/४)
वेदान्त-खण्ड इस प्रकार यद्यपि ब्रह्म जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है तथापि माया उसका द्वारकारण है। माया द्वारा ही ब्रह्म का कारणत्व है।
माया की तीन शक्तियां है जिन्हें आवरणशक्ति, विक्षेपशक्ति और मल शक्ति कहा जाता है। आवारण द्वारा वह सत् के प्रकाशन पर पर्दा डालती है। विक्षेपशक्ति द्वारा वह सत् के स्थान पर असत् (सद्-विविक्त) का निरूपण करती है। मल-शक्ति द्वारा वह जीवों को पाप तथा अशुभ कम के लिए प्रेरित करती है।
सृष्टि-विद्या
गौडपाद की परम्परा को मानते हुए शंकराचार्य सृष्टिविद्या को परा विद्या या परमार्थ ज्ञान नहीं मानते हैं। किन्तु वह ब्रह्मविद्या या परमार्थ ज्ञान को प्राप्त करने में सहायक है, क्योंकि वह प्रदर्शित करती है कि सृष्टि का मूलकारण एक और अद्वितीय सत् है जो सृष्टि में सर्वत्र समान रूप से विद्यमान है। इस प्रकार सृष्टिविद्या अभेडवाद को सुदृढ़ करती है। सृष्टिविद्या एक आख्यायिका है जिसका प्रयोजन आत्मबोध है। अपने में वह स्वयं अर्थवादमात्र है। शंकराचार्य कहते हैं -
अत्र आत्मावबोधार्थमात्रस्य विवक्षितत्वात् सर्वोऽयम् अर्थवाद इत्यदोषः । मायाविवद् वा महामायावी देवः सर्वज्ञः सर्वशक्तिः सर्वमेतच्चकार सुखावबोधनप्रतिपत्यर्थ लोकवद् आख्यायिकादिप्रपञ्च इति युक्ततरः पक्षः। नहि सृष्ट्रियाख्यादिकादिपरिज्ञानात् किंचित् फलमिष्यते। ऐकात्म्यस्वरूपपरिज्ञानात् त्वमृतत्वं फलं सर्वोपनिषत्प्रसिद्धम् । स्मृतिसु च गीतासु समं सर्वभूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् इत्यादिना।
(ऐतरेयोनिषद्भाष्य २/१) | शांकर अद्वैतवेदान्त जिस सृष्टिविद्या को व्यवहार जगत् में उपयोगी मानता है वह ईश्वरकर्तृक सृष्टि है। ईश्वर अपनी मायाशक्ति से आकाश, वायु, तेज (अग्नि), अप (जन)
और पृथिवी इन पांच महाभूतों की क्रमशः सृष्टि करता है। तत्पश्चात पंचीकरण द्वारा सभी भौतिक वस्तुओं की सृष्टि होती है। जगत् की सभी वस्ता पांचभौतिक हैं। पंचीकरण नामक प्रकरण ग्रन्थ में इसका विशद विवेचन है। पंचीकरण का अर्थ यह है कि मिट्टी की बनी सभी वस्तुओं में १/२ भाग मिट्टी का और शेष आधे भाग में बराबर बराबर अर्थात् १/८ भाग शेष चार भूतों का रहता है। उदाहरण के लिए घट में १/२ पृथिवी, १/: आकाश, १/- वायू, १/८ अग्नि और १/ जल रहता है। इसी प्रकार दीपक के प्रकाश में १/२ अग्नि, १/८ आकाश, १/ वायु, १/४ जल तथा १/- प्रथिवी के अंश हैं।
इन पांच भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति अहंकार से होती है। इसी से मन, जानेन्द्रियों
शङ्कराचार्य का अद्वैतवेदान्त और कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। अहंकार की उत्पत्ति बुद्धि से होती है और बुद्धि की उत्पत्ति ईश्वर और प्रकृति (माया) के संयोग से होती है। इस प्रकार अद्वैतवेदान्त की सृष्टि-प्रक्रिया में सांख्यसिद्धांत को थोड़ा हेर-फेर कर स्वीकार किया गया है। जहां सांख्य प्रकृति को स्वतन्त्र और वास्तविक मानता है वहां शंकराचार्य प्रकृति को ईश्वराधीन तथा माया मानते हैं।
ईश्वर और जीव
मायायुक्त होने पर ब्रह्म को ही ईश्वर कहा जाता है। इस प्रकार तत्वतः ब्रह्म और ईश्वर में पूर्ण अभेद है। ईश्वर मायाशबल या मायोपाधिक या सोपाधिक ब्रह्म है और ब्रह्म मायारहित या निरुपाधिक ईश्वर है। माया वहा की आपाधिक और इश्वर की वास्तविक शक्ति है। ब्रह्म का अस्तित्व माया के बिना है, किन्तु ईश्वर का अस्तित्व माया के बिना नहीं हो सकता। ईश्वर इस कारण मायावी या महामायावी है। इसमें माया की विक्षेप शक्ति रहती है। माया की आवरण-शक्ति और मल-शक्ति ईश्वर में नहीं है। इस कारण ईश्वर में अज्ञान तथा अशुभ नहीं है। वह सर्वज्ञ और सर्वगुणसम्पन्न है। वह सर्वशक्तिमान है। वहीं सृष्टि का कत्ता, धर्ता और हर्ता है। इस कारण उसे क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) कहा जाता है। पर ये सब कार्यब्रह्म हैं और इनकी अपेक्षा कारण-ब्रह्म को क्रमशः महाब्रह्मा, महाविष्णु या महाशिब कहा जाता है। पर कार्यब्रह्म और कारणब्रह्म में जो सम्बन्ध है वह यह है कि कार्य कारण का संस्थान मात्र है ‘कारणस्यैव संस्थानमात्र कायम्’ (शारीरकभाष्य २/२/१७) कार्य-ब्रह्म को अवर या अपर ब्रह्म कहा जाता है। शंकराचार्य की मान्यता है कि पर ब्रह्म और अपर ब्रह्म का ज्ञान युगपत् होता है और अपर ब्रह्म के द्वारा ही परब्रह्म का ज्ञान हो सकता है। इस अपर ब्रह्म को शब्दवादी शब्द-ब्रह्म कहते हैं और मानते हैं कि जो शब्द ब्रह्म को जानते हैं वे ही पर ब्रह्म को जान सकते है। ‘शब्दब्रह्मणि निष्णातः परब्रह्माधिगच्छिति’।
किन्त क्या ईश्वर का ईश्वरत्व परमाथतः नहीं होशंकर ईश्वर का विवेचन करते हा कहते हैं कि ईश्वर अविद्याकृतनामरूपोपाधि का अनुरोधी है। इस उपाधि के परिप्रेक्ष्य में ही उसका ईश्वरत्व, सर्वज्ञत्व और सर्वशक्तिमत्व है। सभी उपाधियों से मुक्त आत्मा में न तो कोई ईश्वर है न कोई इशितत्व (शारीरकभाष्य २/१/१४) । इस प्रकार ईश्वरत्व काल्पनिक है, किन्तु सदृपत्वेन ईश्वर परमार्थतः सत्य है।
ईश्वर का कोई निज नाम नहीं है। वह अनाम है। उसके सभी नाम जो प्रसिद्ध हैं वे सब गौण वा गुणवाचक हैं। इन नामों का महत्त्व इश्वर की उपासना में है। ईश्वर उपास्य है। किन्तु उसकी उपासना मात्र साधन है। वह साध्य नहीं है। उसके द्वारा इश्वर के वास्तविक रूप को समझना साध्य है। उससे ब्रह्मजिज्ञासा में वृद्धि होती है और अन्ततः ज्ञान मिलता है। ब्रह्म जिज्ञास्य है। वह उपास्य नहीं है। किन्तु उपासना का फल ज्ञान प्राप्त करना
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वेदान्त-खण्ड
है। उपासना-बल से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह ब्रह्मात्म्यैक्य का साधन है। ।
जीव इंशितव्य है। ईश्वर निरतिशयोपाधिसंपन्न है और जीव निहीनोपाधिसंपन्न है। ईश्वर जीवों पर शासन करता है। जीब चेतन है। वह शरीर का अध्यक्ष तथा प्राणों का धारयिता है। सप्राणता जीवत्व का प्रमुख लक्षण है। समाण होने से जीव गति करता है। देहपात के पश्चात् भी प्राण आत्मा के साथ रहता है। इसी कारण जीव स्वकर्म के अनुसार पितृयान या देवयान या तिर्यक् गति को प्राप्त होता है। उसका चेतन अंश अविनाशी है। वही उसका स्वरूप है। वह आत्मा है। उसके अन्य अंश नश्वर हैं। वे इसे उसके कर्म के अनुसार मिलते हैं और आते-जाते रहते हैं। जब तक जीव कर्म में आसक्त रहता है तब तक वह अपने स्वरूप से दूर रहता है, अध्यास में रहता है और इस कारण जन्म-मरण रूपी संसार में आबागमन करता रहता है। जब वह कमों का उच्छेद करता है तब वह तद्वारा अपने आवागमन को भी दूर कर देता है। ऐसा ज्ञान से ही संभव है। कोई अन्य माग मुक्ति के लिए नहीं है। नान्यः पन्थाः विद्यते अयनाय ।
जीब और ईश्वर के सम्बन्ध में शंकराचार्य का कोई एक निश्चित मत नहीं है। उनके मत से दोनों अविद्योपाधिक हैं, काल्पनिक है। उनके मत में प्रतिबिम्बबाद, अवच्छेदवाद और आभासवाद के बीज हैं जिनका विकास उनके परवर्ती अनुयायियों ने किया है। परमार्थतः जीव और ईश्वर आत्मा के मात्र विषय हैं। उपाधियों को दूर कर देने पर जीव का स्वरूप आत्मा हो जाता है और ईश्वर का स्वरूप ब्रह्म। तब आत्मा ब्रह्म है यह सिद्ध हो जाता है अर्थात् ब्रह्मात्मैक्थवाद सिद्ध हो जाता है। “तत्त्वमसि’ के अर्थ का उद्घाटन करने में जीव और ईश्वर के सम्बन्ध का उद्घाटन हो जाता है। तत् और त्वम् के वाच्यार्थ कमशः ईश्वर और जीव हैं। किन्तु उनका लक्ष्यार्थ एक ही है जो एक और अद्वितीय सत् है। उसे ही आत्मा या ब्रह्म कहा जाता है।
मोक्ष और मोक्षमार्ग
आत्मा जीव का पारमार्थिक स्वरूप है। जब जीव इस स्वरूप को समझता है तब वह सभी बन्धनों से मुक्त हो जाता है। आत्मज्ञान ही मोक्ष है। वह नित्य प्राप्त है। किन्तु जीब अज्ञानवश उसको जान नहीं पाता है। वह नित्य निवृत्त अनात्मतत्त्व को हटा नहीं पाता है। वह आत्मा में इन अनात्मतत्त्वों का आरोप करता है। इस कारण वह बन्धन में रहता है। जब उसका यह अज्ञान दूर हो जाता है तो उसे नित्य प्राप्त आत्मज्ञान की प्राप्ति तथा नित्य निवृत्त अज्ञान की निवृत्ति होती है। इस प्रकार शंकराचार्य ने मोक्ष का वर्णन दो प्रकारों से किया है-आत्मज्ञान की प्राप्ति और अज्ञान की निवृत्ति। इनमें कौन कारण है और कौन काय? इस प्रश्न का विवेचन उन्होंने नहीं किया। इसका विवेचन परवती अद्वैतवेदान्त में हुआ है।
परन्तु शंकराचार्य ने स्पष्ट किया है कि मोक्ष न तो संपद्-रूप है, न प्राप्य है। वह
शङ्कराचार्य का अद्वैतवेदान्त
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न तो विकार्य है और न संस्कार्य । वह न हेय है न उपादेय। वह ब्रह्मभाव है। ब्रह्मभाव ब्रह्म-ज्ञान है। ‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ।’ ज्ञान के अतिरिक्त मोक्ष में किसी अन्य का स्पर्शमात्र नहीं है। अर्थात् उसमें भाव या क्रिया नहीं है। मोक्ष नित्य है। इस कारण वह हेयोपादेय-रहित है क्योंकि जो हेय या उपादेय है वह अनित्य है। इसी प्रकार जो काय, विकाय या संस्कार्य है वह भी अनित्य है। मोक्ष अशरीरत्व है। शरीर सहित सभी कार्यसमुह का मिथ्याज्ञान मोक्ष में निवृत्त हो जाता है।
इस पर प्रश्न उटता है कि क्या शरीर रहते मोक्ष नहीं मिल सकता। यहां शंकराचार्य कहते हैं-जीवन्मुक्ति संभव है। शरीर रहते भी कोई ब्रह्मज्ञानी हो सकता है। उसका शरीर उसके लिए वैसे ही है जैसे सांप का केचुल सांप के लिए रहता है। वह अपने शरीर से सर्वत्र अप्रभावित या असंरगष्ट रहता है। इस प्रकार देहवान या विदेह दोनों निथतियों में मोक्ष मिल सकता है। प्रथम को जीवन्मुक्ति और दूसरे को विदेशमुक्ति कहा जाता है।
अपने मोक्षवाद को स्पष्ट करते हा शंकराचार्य ने छान्दोग्योपनिषद् ५/१/२ के भाष्य में लिखा है कि ब्रह्मलोक में सगुणोपासक ईश्वर के सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य आर सायज्य का जो लाभ करता है वह सापेक्ष अमतत्व का अनभव है और साक्षात मोक्ष (सद्या मुक्ति ) नहीं है क्योंकि वह सृष्टिकर्ता के जीवनकाल तक ही रहता है और पूनः साष्ट के आरम्भ में उस उपासक को जन्म लेना पड़ता है। अलबत्ता, यदि वह ब्रह्मलोक में ज्ञान प्राप्त कर ले तब बह मुक्त हो सकता है। इस प्रकार शंकराचार्य ने दिखलाया है कि पंचाग्नि-विद्या आदि की उपासना से मोक्ष नहीं मिल सकता है। उससे केवल आपेक्षिक मुक्ति मिलती है। शंकर का यह मत वैष्णव आचार्यों को स्वीकार्य नहीं है। शंकराचार्य ने मोक्ष के जिस स्वरूप को बतलाया है वह उनके दर्शनों में नहीं है। सद्योमुक्ति अद्वैतवेदान्त का अपना विशिष्ट
ज्ञानमार्ग ही मोक्ष-माग है। कर्ममार्ग से केवल चित्त शान्ति होती है। चित्त-शुद्धि से भक्ति जागृत होती है और भक्ति माग तत्पश्चात तैयार होता है। भक्ति से ज्ञान के प्रति अनराग पैदा होता है और इस कारण भक्तिमार्ग का अवसान ज्ञानमाग के निमाण में हा जाता है। ज्ञान से मोक्ष मिलता है। इस प्रकार शंकराचार्य ने कम, भक्ति और ज्ञान का कम-समुच्चय किया है। उन्होंने इनके सहसमुच्चय का खंडन किया है। उनका मत है कि ज्ञानोत्तर भक्ति और ज्ञानोत्तर कर्म दोनों असंभव हैं, क्योंकि भक्ति और कर्म के लिए द्वैतभाव या भेद की आवश्यकता है और आत्मज्ञान होने पर द्वैतभाव या भेद का पुण निराकरण हो जाता है। ‘तत्र कः शोकः को मोहः एकत्वमनुपश्यतः?
_ज्ञानमार्ग के अन्तर्गत श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार के सोपान हैं। श्रवण का अर्थ उपनिषदों का अध्ययन या श्रवण करना है। मनन का अर्थ है, उपनिषत्प्रोक्त ब्रह्म के ऊपर मनन करना। इसके अन्तर्गत उन सभी दर्शनों की आलोचना आती है जो ब्रह्मबाद में बाधक हैं। जब तक उनका खंडन न कर दिया जाय तब तक ब्रह्माबाद में दृढ़
वेदान्त-खण्ड विश्वास नहीं जम सकता। शंकराचार्य ने मनन के अन्तगत ही मीमांसा, सांख्य, योग, वैशेषिक, बौद्धमत, जैनमत, पाशुपत और पांचरात्र मत का खंडन किया है। पुनश्च उनके मनन का मुख्य प्रतिपाद्य यह है कि सभी उपनिषदों की सम्मति ब्रह्मात्मैक्यवाद के ऊपर है और यह मत सभी दर्शनों को स्वीकार्य होना चाहिए क्योंकि इससे उनका अबिरोध है। इस मत के द्वारा वे अपने-अपने मतों को सुसंगत बना सकते हैं। इस प्रकार ज्ञानमार्ग परमार्थ-दर्शन और व्यवहार-दर्शन के भेद को स्वीकारता है और मानता है कि व्यावहारिक रूप में कोई भी दर्शन माना जा सकता है । किन्तु उसका दावा है कि पारमार्थिक रूप में केवल अद्वैतवाद ही स्वीकार योग्य है, अन्य दर्शन नहीं।
मनन के पश्चात् ब्रह्म-ज्ञान का सतत चिन्तन किया जाता है जिसे निदिध्यासन कहा जाता है। निदिध्यासन में एकाग्रता और एकतानता का महत्व है। इससे कीट गवत ब्रह्मात्मैक्य का अनुभव होता है। यही आत्म-साक्षात्कार है। यह प्रत्यक्षवत् स्पष्ट है और वैधयुक्तिवत् सत्य है। इसका स्फुरण श्रुतियों के माध्यम से होता है। इसलिये श्रुतियों को इस अनुमब का करण डान्द्रय) माना जाता है।
शंकराचार्य के ज्ञानमार्ग में तर्क और श्रुति-ज्ञान का समन्वय है। तक का प्रयोग श्रुत्यर्थ को ग्रहण करने में आवश्यक है। श्रुति-ज्ञान तर्क-ज्ञान को प्रेरित करता है, उसके समक्ष एक आदर्श रखता है। तर्क-ज्ञान उस आदर्श को प्राप्त करने के लिए अपनी अन्तरंग समीक्षा करता है। वह अपने को जितना युक्तियुक्त और परिपूर्ण बनाता है उतना ही वह ब्रह्मात्मैक्य के अनुभव के सन्निकट पहुंचाता है। ‘तको वै ऋषिः। तर्क ही आपज्ञान का प्राप्त कर्ता है।
तर्क की प्रणाली प्रधानतः अध्यारोप और अपवाद की विधि से संबंधित है। उपनिषदों के पंचकोश के सिद्धान्त में इस विधि का सर्वप्रथम निदर्शन मिलता है। उसी को एक दार्शनिक विधि का रूप देते हुए शंकर के पूर्ववती अद्वैत वेदान्तियों ने, विशेषतः मण्डन मिश्र ने, यह मत प्रस्तावित किया कि अध्यारोप और अपवाद के द्वारा निष्प्रपंच ब्रह्म का निरूपण किया जाता है- ‘अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते। शंकराचार्य ने भी तर्कवाद में विभिन्न दर्शनों का खण्डन करते हुए इसी प्रणाली को स्वीकार किया है। आत्मा के स्वरूप का निर्णय करने में भी इसका प्रयोग उन्होंने किया है। जब तक अध्यारोप की संभावना है तब तक उसका अपवाद भी रहेगा। यदि सभी प्रकार के अध्यारोपों या प्रकल्पनाओं का अन्त हो जाये और पुनः अध्यारोप का स्फुरण न हो तो समझना चाहिए कि आत्मज्ञान की स्थिति पहुंच गयी है। निर्विकल्प आत्मज्ञान ही अध्यारोपापबाद-प्रक्रिया का लक्ष्य है।
शकराचार्य का अद्वैतवेदान्त
सहायक ग्रन्थ
१. शंकराचार्य शारीरकभाष्य सं. नारायण राम आचार्य, निर्णयसागर
प्रेस, बम्बई, १६४ २. शंकराचार्य
बृहदारण्यकोपनिषदभाष्य, हिन्दी अनुवाद सहित, गीताप्रेस
गोरखपुर। ३. शंकराचार्य छान्दोग्योपनिषद्भाष्य, हिन्दी अनुवाद सहित, गीताप्रेस,
गोरखपुर। ४. शंकराचार्य ऐतरेयोपनिषद्भाष्य, हिन्दी अनुवाद सहित, गीताप्रेस, गोरखपुर ५. शंकराचार्य तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्य, हिन्दी अनुवाद सहित, गीताप्रेस,
गोरखपुर शंकराचार्य ईश, केन, कट, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य उपनिषदों पर
भाष्य, हिन्दी अनुवाद सहित गीताप्रेस, गोरखपुर
७. शंकराचाय
उपदेशसाहस्री, आनन्दज्ञानकृत साहसीटीका सहित, महेश
शोध संस्थान, वाराणसी। पाल डायसन
वेदान्त दर्शन, हिन्दी अनुवादक डॉ. संगमलाल पाण्डेय।
उ.प्र. हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, लखनऊ ६. गोपीनाथ कविराज : रत्नप्रभा के हिन्दी अनुवाद की भूमिका, अच्युत ग्रन्थमाला,
वाराणसी, १६३६। १०. संगम लाल पाण्डेय : प्री-शंकर अद्वैत फिलासफी, दर्शनपीठ, इलाहाबाद द्वितीय
संस्करण १९८३। ११. बलदेव उपाध्याय : श्री शंकराचार्य , हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद १६५० । १२. विद्यारण्य
श्रीमच्छंकर दिग्विजय, वाणी विलास मुद्रणालय, श्रीरंगम्
१६७२। १३. अनन्तानन्दगिरि श्रीशंकरविजय, कलकत्ता १४. संगम लाल पाण्डेय मूल शाकर वेदान्त (शंकराचार्य के ग्रन्थों में दाशनिक अंशों
का संग्रह, हिन्दी अनुवाद) सेण्ट्रल बुक डिपो, इलाहाबाद, १७EIवेदान्त-खण्ड
१५. बई इन्डेक्स
१६. काल एच. पाटर
पृ.७. बेलवल्कर, एस.के.:
टु द ब्रह्मसूत्रभाष्य आफ शंकर, भाग १ (१९७१) भाग २ (१६७३), मद्रास विश्वविद्यालय (शारीरकभाष्य की पदानुक्रमणिका) । (सं.) इनसाइक्लोपाडिया आफ झण्डयन फिलासफी, भाग ३, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली १८८१ । वेदान्त फिलासफी, पूना, १६२१। इस ग्रन्थ में डा. वेलबल्कर ने शंकराचार्य की यथार्थ कृति केवल निम्न ग्रन्थों को माना है - शारीरकभाष्य, भगवद्गीताभाष्य, ईश-केन-कट-प्रश्न- मुण्डक तैत्तिरीय-ऐतरेय-छान्दोग्य-बृहदारण्यकोपनिषद् के भाष्य । आनन्दलहरी । इस पर ३० टीकाएं है। गोविन्दाष्टक (आनन्दतीथ ने इस पर टीका लिखी), दक्षिणामूर्ति स्तोत्र (केवल प्रथम आट मलोक प्रामाणिक है।), दशश्लोकी जिस पर मधुसूदन की सिद्धान्तबिन्दु टीका है। द्वादशपंजारकास्तोत्र, भजगोविन्दम् स्तोत्र, पट्पदी (जिस पर छः टीकाएं हैं)। हरिमीडे स्तोत्र (जिस पर टीकाएं है)। अपरोक्षानुभूति (जिस पर कई टीकाए हैं) आत्मबोध (जिस पर कई टीकाए है।। उपदेशसाहसी जिस पर आनन्दतीर्थ, रामतीर्थ और बोधनिधि का टीका हैं। पंचाकरण और शतश्लोकी (जिल पर आनन्दागार की टीका प्रकाशित है)। इन चौबास ग्रन्थों को प्रामाणिक तथा ३५८ ग्रन्थों को अप्रामाणिक और विवेक चमामाण, माण्डक्यउपनिषद - माण्डूक्यकारिकामाप्य आदि २६ ग्रन्यों को शंकराचायकतक होने में विवादग्रस्त बताया है। वेदान्तसूत्र-शांकर-भाष्य का अंग्रेजी अनुवाद ‘वेदान्तसबाज बिद द कमेन्टरी आफशकर, सड बुक्स आफ द ईस्ट, सं. मैक्समूलर १० इसमें थीबो ने भूमिका में दिखाया है कि रामानज काश्रीभाग्यशंकर के शारीरक-माप्य से अधिक बादरायणानसारी है द वेदान्त, भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, १६२६ । इसमें शंकर, रामानुज, मध्व, निम्बार्क और बल्लभ के ब्रह्मसूत्रभाष्यों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है।
१८. थीबो, जार्ज,
१६. घाटे, वी.एस.
२०. त्रोटक,
२१. हस्तामलक.
शङ्कराचार्य का अद्वैतवेदान्त श्रुतसारसमुद्धरणम् सच्चिदानन्द योगीन्द्र की टीका सहित, आनन्दाश्रम, पूना, १६३६ । हस्तामलकस्तोत्र, शंकराचार्यकृतभाष्य सहित, वाणीविलास प्रेस, श्रीरंगम्। इस पर स्वयंप्रकाशमुनि, आनन्दप्रकाश भट्टारक की तथा एक अज्ञात कर्तृक टीका३ -टीकाएं और है। प्रायः इस ग्रंथ और शंकराचार्य की टीका को आचार्यों का प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं माना जाता।
तृतीय अध्याय