१. प्राचीन वेदान्त
शंकर के पूर्व वेदान्त की तीन परम्पराएं दृष्टिगत होती हैं। एक, अद्वैत वेदान्त की परम्परा है, दूसरी, भेदाभेदवाद की परम्परा है और तीसरी, भेदबाद की परम्परा है। अद्वैतवाद की परम्परा का उल्लेख वेदान्तेतर दर्शनों के इतिहास में भी मिलता है। जैन दार्शनिक समन्तभद्र जो शकर के पूर्ववर्ती थे अद्वैतवाद का उल्लेख आप्तमीमांसा में करते हैं
अद्वैतैकान्तपक्षे दृष्टौ भेदो विरुध्यते।
कारकाणां क्रिययोश्च नैकं स्वस्मात् प्रजायते ।। बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ने तत्त्वसंग्रह में प्राचीन अद्वैतवेदान्त का वर्णन किया है। उनके टीकाकार कमलशील “अद्वैतदर्शनावलम्बिनश्च औपनिषदिकाः" कहकर अद्वैत वेदान्त का उल्लेख किया है। स्वयं शंकराचार्य ने अपने पूर्ववर्ती वेदान्तियों में सुन्दर पाण्ड्य, द्रविडाचार्य, उपवर्ष, भर्तृप्रपंच, गौडपाद तथा ब्रह्मदत्त के मतों का उद्धरण दिया है। बादरायण और गौडपाद के ग्रन्थों पर उन्होंने भाष्य ही लिखे हैं। मंडन मिश्र उनके बरिष्ट समकालीन थे। उन्होंने भर्तृमित्र का उल्लेख किया है। भर्तृहरि के वाक्यपदीय में शब्दाद्वैतवाद और विवर्तवाद का वर्णन है। वे भी शंकर के पूर्व थे। ये सभी जरन्मायावादी या प्राचीन अद्वैतवेदान्ती कहे जाते हैं।
रामानुज ने वेदार्थसंग्रह में बोधायन, टंक, द्रविड, कुहदेव, कपर्दि, भारुचि प्रभृति वेदान्तियों का नामोल्लेख किया है जो उनके सम्प्रदाय से संबंधित थे। यामुनाचार्य ने टंक, भर्तृप्रपंच, भर्तृमित्र, भर्तृहरि, ब्रह्मदत्त को शंकर के पूर्ववर्तियों में माना है। कुछ लोग बोधायन और उपवर्ष को अभिन्न समझते हैं। इसी प्रकार टंक और ब्रह्मनन्दि को एक ही व्यक्ति माना जाता है। द्रविड और द्रविडाचार्य भी एक ही व्यक्ति के नाम हैं । शंकर के सभी पूर्ववर्ती या तो उपनिषद् के भाष्यकार थे या ब्रह्मसूत्र के लेखक। परन्तु उनमें से बादरायण और गौडपाद को छोड़कर किसी के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। केवल उनके कुछ वाक्य ही मिलते हैं।
बादरायण ने ब्रह्मसूत्र में बादरायण, आत्रेय, आश्मरथ्य, औडुलोमि, वादरि, जैमिनि, कार्णाजिनि और काशकृत्स्न, इन आठ वेदान्तियों के मतों का उल्लेख उनके नाम से किया
वेदान्त-खण्ड
है। इनके मतों के लिए देखिए प्रो. संगमलाल पाण्डेय-कृत प्री- शंकर अद्वैत फिलासफी। वेदान्तदेशिक का मत है कि संकर्षण-काण्ड (चार अध्याय) काशकृत्स्न कृत हैं। किन्तु उनका मत अन्य प्रमाणों से परिपुष्ट नहीं होता। कदाचित् इनमें से प्रत्येक ने अपने-अपने ब्रह्मसूत्र लिखे थे। किन्तु बादरायण के ब्रह्मसूत्र को छोड़कर अन्य ब्रह्मसूत्र उपलब्ध नहीं हैं। इन वेदान्तियों में बारि, बादरायण, औडुलोमि और काशकत्रन अद्वैतवादी थे। रामानुजी विद्वान सुदर्शन सूरि ने लिखा है कि आश्मरथ्य भेदाभेदावाद को मानते थे और यादवप्रकाश ने उनके मत का प्रचार किया था। आन्त्रेय और जैमिनि कमज्ञान-समुच्चयवादी थे और उन्होंने पूर्वमीमांसा तथा उत्तरमीमांसा का समन्वय किया था। परम्परा के अनुसार जैमिनि व्यास के शिष्य थे और व्यास बादरायण का ही अपर नाम है। जैमिनि की ही भांति काष्णाजिनि का मत लगता है। इस प्रकार ब्रह्मसूत्रकारों में अधिकांश अद्वैतवादी थे जो केवल पूर्वमीमांसा को मानते थे। वे निःसन्देह भेदवादी थे। ऐसे लोगों में भर्तृमित्र आते हैं।
कुछ लोग योगवासिष्ठ, परमार्थसार और भागवतपुराण को शंकर-पूर्व मानते हैं। किन्तु आधुनिक खोजों ने इन ग्रन्थों को शङकरोत्तर युग की रचना सिद्ध कर दिया है। वास्तव में उपवर्ष और बोधायन दो व्यक्ति थे। उपवर्ष अद्वैतवेदान्ती थे और बोधायन विशिष्टाद्वैतवादी थे। रामानुज-वेदान्त और रामानन्द-वेदान्त में बोधायन को विशिष्टाद्वैतबादी माना गया है। पदमपाद ने भी शंकर के पूर्व ब्रह्मसूत्र की दो वृत्तियों का उल्लेख पंचपादिका में किया है। उनमें से एक उपवर्ष की है और दूसरी बोधायन की। ये दोनों वृत्तिकार के नाम से प्रसिद्ध है। उपवर्ष की वृत्ति के कुछ अंश को मीमांसा-भाष्यकार शबर ने 9/9/2 के सूत्रभाष्य में वृत्तिकार-ग्रन्थ के रूप में उद्धृत किया है। शंकराचार्य ने उन्हें स्फोटबाद का विरोधी और वर्णवाद का समर्थक बताया है।
सुन्दर पाण्ड्य ने कदाचित् उपवर्ष की ब्रह्मसूत्रवृत्ति पर श्लोकमय वार्तिक लिखा था। उनके वार्तिक के १० श्लोक उपलब्ध हैं जिनकी खोज डॉ. संगमलाल पाण्डेय ने की है। इनमें अद्वैतवेदान्त की ज्ञानमीमांसा का निरूपण है।
भर्तृप्रपंच एक प्रख्यात वेदान्ती थे। उनका मत भेदाभेदवाद है। उनके अनुयायी चार सम्प्रदायों में बँटे थे। इससे उनके वेदान्त का प्रचार शंकर के पूर्ववर्ती युग में विशेष रूप से था। संभवतः उन्होंने बृहदारण्यकोपनिषद् पर एक भाष्य लिखा था जो सम्प्रति अनुपलब्ध है। शंकर, सुरेश्वर और आनन्दगिरि ने क्रमशः बृहदारण्यकोपनिषद् के भाष्य, बार्तिक और टीका में उनके मतों का उल्लेख किया और खंडन भी किया है। भर्तृप्रपंच सत् की आठ अवस्थाओं को मानते थे जो निम्न है-
माया (१) अन्तर्यामी, (२) साक्षी, (३) अव्याकृत, () सूत्रात्मा, (’) विराट्, (६) देवता, (७) जाति, और (८) पिण्ड। वे जीव को द्रष्टा, कर्ता और भोक्ता मानते थे। वे कर्मज्ञान-समुच्चयवादी थे। डॉ. संगम लाल पाण्डेय ने दिखलाया है कि उनका दर्शन सांख्य
और अद्वैतवाद के बीच की एक कड़ी है। प्रो. मैसूर हिरियण्णा ने उन्हें परिणामवादी सिद्ध किया है।
शकर पूर्व वेदान्त शंकराचार्य ने बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य ३।८।१२ में भर्तृप्रपंच के मतों को यों उद्धृत किया है
तत्र केचिद् आचक्षते। परस्य महासमुद्रस्थानीयस्य ब्रह्मणः
अक्षरस्य अप्रचलितस्वरूपस्य ईषत्प्रचलितावस्था अन्तर्यामी, अत्यन्तप्रचलितावस्था क्षेत्रज्ञो, यः तं न वेद अन्तर्यामिणम् । तथान्ये पञ्च अवस्थाः परिकल्पयन्ति । तथा अष्टावस्थाः ब्रह्मणो भवन्तीति बदन्ति । अन्ये अक्षरस्य शक्तय एता. इति वदन्ति अनन्तशक्तिमद् अक्षरमिति च। अन्ये तु
अक्षरस्य विकारा इति वदन्ति। भर्तृप्रपंच के कुछ अनुयायी ब्रह्म की तीन अवस्था मानते हैं (अक्षर, अन्तर्यामी और क्षेत्रज्ञ।) कुछ पांच अवस्था मानते हैं और कुछ आठ अवस्था मानते हैं और क्षेत्रज्ञ। कुछ लोग इन अबस्थाओं को अक्षर की शक्ति मानते हैं तो कुछ लोग इन्हें विकार मानते हैं।
___ इनका खंडन करते हुए शंकराचार्य वहीं कहते हैं कि अक्षर को श्रुतियों ने संसारधर्म से अतीत (परे) घोषित किया है। अतएव उसकी अवस्थाएं और शक्तियां संभव नहीं हैं, क्योंकि ये संसारधर्म के अन्तर्गत है। ऐसे ही अक्षर का विकार भी संभव नहीं है। _इसी प्रकार शंकराचार्य बृहदारण्यकोपनिषद्भाष्य ५।१।१ में “अत्रैके वर्णयन्ति", से भर्तृप्रपंच के भेदाभेदवाद का वर्णन करते हैं और तत्पश्चात् वहीं उसका खण्डन करते हैं, क्योंकि भेदाभेद की कल्पना श्रुति, स्मृति तथा न्याय से विरुद्ध होने के कारण सुविवक्षित नहीं है। इसमें अन्तर्विरोध है। श्रुतियां और स्मृतियां ब्रह्म को निरवयब बताती हैं, ‘नेति नेति’ से उसका वर्णन करती हैं।
भतमित्र ने भी संभवतः बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर एक वृत्ति लिखी थी। मण्डन मिश्र ने ब्रह्मासिद्धि के चतुर्थ काण्ड में उनके मत की आलोचना की है। वे द्वैतवादी प्रतीत होते हैं। किन्तु चूंकि उनका ग्रन्थ अनुपलब्ध है, अतएव इस प्रसंग में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। कुमारिल ने लिखा है कि भतमित्र ने मीमांसा को लोकायतीकृत कर दिया था।
ब्रह्मदत्त एक वेदान्ती थे जो जीवन्मुक्ति को नहीं मानते थे। वे नियोगवादी थे। उनके मत को भावाद्वैत कहा जाता है। वे प्रपंचविलयवाद को भी मानते थे जिसका खंडन आचार्य शंकर ने किया है। मंडन मिश्र और सुरेश्वर ने भी उनके मतों का निराकरण किया है। आचार्य ब्रह्मनन्दि ने छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा था। इस कारण उन्हें छान्दोग्य-वाक्यकार या वाक्यकार कहा जाता है। उनके भाष्य पर द्रविडाचार्य ने एक टीका लिखी थी। उसमें उन्होंने ‘तत्त्वमसि’ की व्याख्या में शबर-संवर्धित राजपत्र की कहानी लिखी है जिससे ‘तत्त्वमसि’ के अर्थ को समझने में सुगमता होती है। कहानी यह है - एक राजपुत्र था।
वेदान्त-खण्ड किन्तु शैशव में उसका पालन-पोषण एक शबर ने किया था। वह अपने को शबर समझता
था। जब वह बड़ा हुआ तो उसने अपने पराक्रम से एक राज्य स्थापित करने का प्रयास किया। जो लोग इस घटना को जानते थे उन्होंने बताया कि वह राजपुत्र है, शबर नहीं। तब उसे अपनेपन का ज्ञान हुआ। फिर वह अपने प्रयास में सफल हुआ और उसने एक राज्य की स्थापना की । ऐसे ही भूलकर हम अपने को ब्रह्म से भिन्न समझते हैं। जब शुति बताती है कि मैं ब्रह्म हूँ, तब मुझे अपनेपन का बोध होता है। “सिद्धे तु निवर्तकत्वात्’, द्रविडाचार्य का यह वाक्य शंकरोत्तर वेदान्त के ग्रन्थों में बहुधा देखने को मिलता है। इसका अर्थ है कि अज्ञान को निवृत्त करने पर आत्मा का बोध हो जाता है। अर्थात् आत्मज्ञान नेति-नेति की प्रकिया द्वारा होता है।
ये सभी शंकर-पूर्व दार्शनिक प्राचीन उपनिषदों के समय के बाद हुए थे। इन्हीं के प्रयास से वेदान्त का विकास सर्वप्रथम उपनिषदों के भाष्यों के माध्यम से या उनके मतों को सत्रबद्ध करने से हुआ था। शंकराचार्य को अवश्य ही इनमें से अधिकांश भाष्य और सूत्र देखने को मिले थे। इन वेदान्तियों के अतिरिक्त बादरायण, गौडपाद, भर्तृहरि तथा मंडनमिश्र ऐसे शंकर-पूर्व वेदान्ती हैं जिनके ग्रन्थ संप्रति उपलब्ध हैं। अतएव उनके मतों
का विचार यहां अब क्रमशः किया जाएगा।
२. बादरायण
बादरायण ने ब्रह्मसूत्र लिखा जिसमें चार अध्याय हैं। इन अध्यायों के नाम क्रमश: समन्वय-अध्याय, अबिरोध-अध्याय, साधन-अध्याय और फल-अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। प्रत्येक पाद में कई अधिकरण है। अन्त में प्रत्येक अधिकरण में एक या अनेक सूत्र हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ सूत्र-शैली में लिखा गया एक मानक ग्रन्थ है। इसका प्रथम सूत्र है - ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ और अन्तिम सूत्र है ‘अनावृत्तिः शब्दात अनावत्तिः शब्दात। प्रथम सूत्र का अर्थ है-अतः अब ब्रह्मजिज्ञासा करनी चाहिए और अन्तिम सूत्र का अर्थ है - श्रुतियां बताती हैं कि जो लोग देवयान से चन्द्रलोक को प्राप्त करते हैं, वे वहां से और ऊर्ध्वगति करते हैं, ब्रह्मलोक पहुंचते हैं और वहां से उनकी पुनरावृत्ति (पुनरागमन) इस मानव-लोक में इस कल्प में नहीं होती है। उन्हें ब्रह्म का सान्निध्य मिल जाता है।
ब्रह्मसूत्र को शंकराचार्य ने शारीरकमीमांसासूत्र कहा है, क्योंकि इसमें मुख्यतः शारीरक आत्मा (देही आत्मा) का विवेचन है। कुछ अन्य लोग इसे वेदान्त-सूत्र कहते हैं। शंकराचार्य के अनुसार यह ग्रन्थ सभी उपनिषदों का सारांश प्रस्तुत करता है और इस कारण सर्वशाखीय उपनिषदों का सार है। बादरायण के अतिरिक्त जो अन्य ब्रह्मसूत्रकार थे उनके ब्रह्मसूत्र सम्भवतः एक शाखीय थे या एक शाखा के उपनिषद का सारांश प्रस्तुत करते थे। शंकराचार्य का मत है कि ब्रह्मसूत्र वेदान्त (उपनिषद) के वाक्यों का संग्रथन करते हैं, अर्थात् उपनिषद्-वाक्यों का उदाहरण देकर विचार करते हैं, क्योंकि ब्रह्मबोध उपनिषद्- वाक्यों
शंकर पूर्व वेदान्त की विचारणा के अभ्यास से ही संपन्न होता है।
“वेदान्तवाक्यकुसुमग्रथनत्वात्सूत्राणाम्। वेदान्त वाक्यानि हि सूत्रैरुदाहृत्य विचार्यन्ते । वाक्यार्थविचारणाध्यवसाननिर्वृत्ता हि ब्रह्मावगतिः”
(शारीरक भाष्य १/१/२) बादरायण के काल के बारे में कोई निश्चित मत नहीं है। पाणिनि ने उनका नामोल्लेख किया है, पराशर्य के नाम से। उन्हें व्यास से अभिन्न समझा जाता है। इस कारण उनके काल निर्णय में ई.पू. ६७५ से लेकर ई.पू. २०० तक की समय-सीमा निर्धारित की जाती है। सामान्यतः माना जाता है कि वे लगभग २०० ई.पू. के आसपास
अवश्य थे क्योंकि उन्होंने बौद्धों के सर्वास्तिवाद और विज्ञानवाद का खण्डन किया है जिनका उद्भव १०० ई.पू. में हुआ था। करना बादरायण का ब्रह्मसूत्र निःसन्देह सभी ब्रह्मसूत्रों में श्रेष्ट था। इसीलिए उस पर अनेक आचार्यों ने भाष्य लिखे और वह सुरक्षित रहा तथा विलुप्त नहीं हुआ। आज भी उस पर भाष्य या वृत्ति लिखने की परम्परा बनी हुई है। यह उसकी प्रासंगिकता और प्रामाणिकता का सबसे बड़ा प्रमाण है। कहा जाता है कि चैतन्यमत में पहले ब्रह्मसूत्र का कोई भाष्य नहीं था। इस कारण उनके मत को वेदान्त के बाहर का मत समझा जाता था। इस भान्ति को दूर करने के लिए बलदेव विद्याभूषण ने ब्रह्मसूत्रं पर एक चैतन्यमतानुसारी भाष्य (गोविन्दभाष्य) लिखा। तत्पश्चात् इस आधार पर चैतन्यमत को वेदान्त का एक सम्प्रदाय माना गया। इस प्रकार ब्रह्मसूत्र वेदान्त की कसौटी है। ब्रह्मसूत्र पर अनेक भाष्य लिखे गये हैं। उनमें से निम्नलिखित को प्रमुख भाष्य माना जाता है :
लेखक भाष्य १. शंकराचार्य, शारीरक भाष्य (अद्वैतवाद)
भास्कर, भास्करभाष्य (भेदाभेदवाद) रामानुज, श्रीभाष्य (विशिष्टाद्वैतवाद) मध्य, पूर्णप्रज्ञभाष्य (द्वैतबाद) निम्बार्क, वेदान्तपारिजात (द्वैताद्वैतवाद) श्रीकण्ट, शैवभाष्य (शैवविशिष्टाद्वैतवाद) श्रीपति, श्रीकर भाष्य (वीरशैवमत) रामानन्द, आनन्दभाष्य (रामविशिष्टाद्वैतवाद)
बल्लभ, अणुभाष्य (शुद्धाद्वैतवाद) १०. विज्ञानभिक्षु, विज्ञानामृतभाष्य (अविभागाद्वैतवाद)
काल छवीं शती ई.
वीं शती ई. ११वीं शती ई. १३वीं शती ई. ११वीं शती ई. १३वीं शती ई. ११वीं शती ई. १५वीं शती ई. १५वीं शती ई. १७वीं शती ई.
७.
वेदान्त-खण्ड
११. बलदेव विद्याभूषण, गोविन्दभाष्य (अचिन्त्य भेदाभेदबाद) १.वीं शती ई. १२. रामप्रसाद, जानकीभाष्य (सीताविशिष्टाद्वैतवाद) २०वीं शती ई.
मुक्तानन्द, ब्रह्ममीमांसाभाष्य (नव्यविशिष्टाद्वैतवाद) १८वीं शती (स्वामिनारायणी) पंचानन तकरल, शक्तिभाष्य
५. बीसवीं शती ई. (शक्तिविशिष्टाद्वैतवाद) भट्टाचार्य र १५. आर्यमुनि, वेदान्त-दर्शनभाष्य (आर्य समाजी) बीसवीं शती ई. १६. मधुसूदन ओझा, विज्ञानभाष्य (आधुनिक विज्ञान) बीसवीं शती ई..
इन सभी भाष्यों में शैवभाष्य, वीरशैवभाष्य और शक्तिभाष्य की रचना क्रमशः शैवमत और वीरशैवमत तथा शाक्तमत को वेदान्त के अन्तर्गत लाने के लिए की गयी है। अतः इन मतों में इन भाष्यों का मौलिक और संरचनात्मक महत्त्व नहीं है। यही हाल उक्त नं. १२, १५ और १६ के भाष्यों की है। विज्ञानभिक्ष के भाष्य का भी महत्त्व वेदान्त में कम है, क्योंकि वे मूलतः सांख्य-योग के आचार्य थे और उनका भाष्य सांख्य-योग से प्रभावित है। इस प्रकार भाष्य शेष बचते हैं जो वेदान्त के विभिन्न सम्प्रदायों से संबंधित हैं।
इन भाष्यों के अतिरिक्त वेदान्त-सूत्र पर दजनों वृत्तियां भी लिखी गयी हैं। सम्प्रति जिन बत्तियों का महत्त्व है उनमें से निम्नलिखित मख्य हैं
१. समरपुंगव दीक्षित
अद्वैतविद्यातिलक (अद्वैतवाद) २. ब्रोन्द्र सरस्वती
अद्वैतामृत (अद्वैतवाद) ३. सुरेश्वराचार्य
ब्रह्मसूत्रवृत्ति (अद्वैतवाद) नारायणतीर्थ
ब्रह्मसूत्रवृत्ति (अद्वैतबाद) ५. धर्मभट्ट (रामानन्द सरस्वती) ब्रह्मसूत्रवृत्ति (ब्रह्मामृतवर्पिणी) (अद्वैतवाद) ६. शंकरानन्द
ब्रह्मसूत्रवृत्ति (अद्वैतवाद) रामानन्द
वेदान्तदर्शनम् (अद्वैतवाद) (ब्रह्मामृतवर्षिणी) ८. रघुवराचाय
ब्रह्मसूत्रवृत्ति (रामानन्द-वेदान्त) है. अप्पयदीक्षित
नयमञ्जरी (अद्वैतवाद) (ब्रह्मसूत्रवृत्ति) १०. ब्रह्मानन्द सरस्वती
वेदान्तसूत्रमुक्तावली (अद्वैतबाद) ११. अनन्तकृष्ण शास्त्री (प्रभाब्रह्मसूत्रभाष्य) (अद्वैतबाद) १२. लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ब्रह्मसूत्रवृत्ति (अद्वैतवाद)
इन भाष्यों और वृत्तियों में से कइयों पर भी पुनः टीकाएं लिखी गयी हैं। इसलिए ब्रह्मसूत्र का महत्त्व वेदान्त-दर्शन में केन्द्रीय है। पर इन वृत्तियों और भाष्यों के कारण बादरायण के मत को जानने में कठिनाई होती है। अतः प्रश्न उठता है कि बादरायणानुसारी भाष्य या वृत्ति कौन है?
शंकर पूर्व वेदान्त इस प्रश्न का विचारपूर्वक उत्तर देने के लिए अनेक विद्वानों ने ग्रन्थ लिखे हैं। किसी ने शंकर के भाष्य को बादरायणानुसारी सिद्ध किया तो किसी ने रामानुज के भाष्य को, या मध्व के भाष्य को या निम्बार्क के भाष्य को या वल्लभ के भाष्य को। इतना भेद होते हुए भी यह निर्विवाद है कि वैष्णवभाष्यों में रामानुज का श्रीभाष्य सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए वास्तविक विवाद केवल शारीरकभाष्य और श्रीभाष्य के बीच में है। परन्तु यह विवाद कभी अन्त होने वाला नहीं है। इस कारण वह चलता रहता है। दोनों की परम्पराओं का दावा है कि व्यास या बादरायण उनके ही दर्शन के अग्रदूत हैं। आधुनिक विद्धान् जार्ज थीबो ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा है कि रामानुज का भाष्य बादरायणानुसारी है और शंकर का भाष्य उपनिषदों के अनुसार है। पर प्रश्न उठता है कि क्या बादरायण ने अपने बह्मसूत्र में उपनिषदों के दर्शन को संक्षिप्त रूप में नहीं रखा है? प्रत्येक भाष्यकार मानता है कि ब्रह्मसूत्र उपनिषदों का सारांश है। अतएव, यदि उपनिषद्-दर्शन के प्रति शंकर का भाष्य सर्वाधिक न्याय करता है तो उनका ही भाष्य बादरायणानुसारी है।
ब्रह्मसूत्र के बारे में एक दूसरा प्रश्न उठता है कि पूर्वमीमांसा के साथ इसका क्या सम्बन्ध है। इस प्रश्न पर शंकराचार्य कहते हैं कि ब्रह्मसूत्र में वेदान्त का प्रतिपादन है और वदान्त कममीमांसा से स्वतंत्र है। इस कारण ब्रह्मसूत्र मीमांसासूत्र का शेष भाग या अंग नहीं है। किन्तु अन्य भाष्यकार विशेषतः रामानुज और उनके अनुयायी मानते हैं कि पूर्वमीमांसा
और उत्तरमीमांसा दोनों को मिलाकर शास्त्रैक्य का विधान किया गया है। मीमांसा और वेदान्त एक ही शास्त्र के दो अंग हैं। कोई एक दूसरे से स्वतंत्र नहीं है। इस प्रसंग में शंकराचार्य ने जो क्रान्ति की है वह विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने वेदान्त-चिन्तन को धर्म या धर्म के चिन्तन से स्वतन्त्र करके दर्शनशास्त्र की स्वतन्त्रता का प्रतिपादन किया है और एक सम्प्रदाय-निरपेक्ष दर्शन प्रदान किया है। कहा नहीं जा सकता कि बादरायण ऐसा मानते थे या नहीं। परन्तु सत्य यही लगता है कि वेदान्त मीमांसा शास्त्र से स्वतन्त्र है।
कुछ भी हो, इतना निश्चित है कि बादरायण ब्रह्मवादी, एकेश्वरवादी, मोक्षवादी और ज्ञानमार्गी थे। उन्होंने वेदान्तेतर दर्शनों का खंडन करके वेदान्त की सर्वश्रेष्टता प्रतिपादित की थी। किन्तु उनका ब्रह्मवाद, मोक्षवाद या ज्ञानमार्ग क्या था? इस पर विवाद की गुंजाइश है और यहां विभिन्न परम्पराएं अपने-अपने मत प्रस्तुत करेंगी। परन्तु उनकी चतु:सूत्री सर्वसम्मति से वेदान्त की अक्षय निधि है। उसका प्रथमसूत्र ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’, वेदान्त का श्रेष्ट उपक्रम है। उसका ब्रह्म-लक्षण ‘जन्माद्यस्य यतः’ सबको मान्य है। उसका ‘शास्त्रयोनित्वात्’, सूत्र जिसका अर्थ है कि ब्रह्म का ज्ञान श्रुति से ही होता है, निर्विवाद है। इसी प्रकार चतुर्थ सूत्र ‘तत्तु समन्वयात्’ समन्वयवाद की शिक्षा देता है जो सभी वेदान्तियों
को स्वीकार्य है।वेदान्त-खण्ड
३. गौडपाद
गौडपाद निर्विवादरूप से अद्वैतवादी थे। मैक्स वालेसर नामक एक जर्मन विद्वान ने सन्देह किया कि गौडपाद कोई व्यक्ति ही नहीं थे। पर इस सन्देह का निराकरण आधुनिक विद्वानों ने अच्छी तरह कर दिया है। स्वयं शंकराचार्य ने छान्दोग्योपनिषद के भाष्य में लिखा है कि उनके समय में प्रकरण-चतुष्टय नामक ग्रन्थ (माण्डूक्यकारिका) की शिक्षा उसके लेखक देते थे। उनके शिष्य सुरेश्वर ने गौडपाद का नामोल्लेख किया है। परम्परया भी गौडपाद शंकराचार्य के परमगुरु माने जाते हैं। उनकी रचना माण्डूक्यकारिका या आगमशास्त्र है जिसमें चार प्रकरण हैं- (9) आगम प्रकरण, (२) वैतथ्य प्रकरण, (३) अद्वैत प्रकरण
और (3) आत्म-शान्ति प्रकरण। कुछ वेदान्ती आगम प्रकरण को श्रुति मानते हैं। कुछ अद्वैतवेदान्ती प्रथम दो प्रकरणों को श्लोकवृत्ति और अन्तिम दो प्रकरणों को श्लोकवार्तिक मानते हैं। शंकराचार्य ने इस पर एक भाष्य लिखा है। वे समस्त ग्रन्थ को माण्डूक्योपनिषद् का एक स्वतंत्र भाष्य मानते हैं। उनके मत से गौडपाद ने उपनिषदों से अद्वैतवाद, अजातवाद, अस्पर्शयोग तथा मायावाद का आविष्कार किया है। यद्यपि गौडपाद के नाम से कई और ग्रन्थ प्रचलित हैं, तथापि वे प्रामाणिक नहीं हैं और उनके विषय भी अद्वैत वेदान्ती नहीं हैं। इन ग्रन्थों में सांख्यकारिकाभाष्य नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषदभाष्य, उत्तरगीता-वृत्ति, श्रीविद्यारत्नसूत्र, सुभगोदय और दुगासप्तशती-भाष्य हैं। अन्तिम तीन तन्त्रशास्त्र के ग्रन्थ
_गौडपाद के जिन सिद्धान्तों का प्रभाव अद्वैतवेदान्त के परवर्ती इतिहास पर विशेष रूप से पड़ा है उनमें से निम्नलिखित मुख्य हैं -
१. प्रणव की उपासना
____प्रणव का अर्थ ओम् है। ओम् में चार मात्राएं हैं। अ, उ, म और अर्थ मात्रा। इन मात्राओं से कमशः जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्था का बोध होता है और उनमें जो सत्ता विद्यमान रहती है उसका ही वाचक ओम् है। ओम् का ध्यान ब्रह्म का ध्यान है। परवी आचार्यों ने सोऽहम् से ओम् की निष्पत्ति की है और ओम् का अर्थ बताया है, मैं ब्रह्म हूँ” उदाहरण के लिए तत्त्वानुसंधान में महादेव सरस्वती कहते हैं
सोऽहमित्यत्र सकारहकारयोर्लोपे कृते परिशिष्टयोः “ओऽम्"
इत्यनयोः सन्धिं कृत्वोच्चारणे ओमिति शब्दो निष्पन्नः। कुछ भी हो, ओम् का उच्चारण ऊर्ध्वगति का प्रदाता है। वह उदात्त और दिव्य अनुभव प्रदान करता है।
शंकर पूर्व वेदान्त २, आत्मवाद आत्मा अवस्था-चतुष्टय से व्यतिरिक्त है:
अर्थात् वह जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय अवस्थाओं से परे है। गौडपाद ने जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय की अवस्थाओं का विश्लेषण करते हुए दिखलाया है कि इन अवस्थाओं में व्यष्टि और समष्टि एक साथ अनुभव में आते हैं। उनका विश्लेषण यों
तुरीय
ब्रह्म
अवस्था व्यष्टि समष्टि
तथ्य
जाग्रत
विश्व
विराट् विश्व = विराट् स्वप्न
तैजस हिरण्यगर्भ तैजस = हिरण्यगर्भ सुषुप्ति
प्राज्ञ
ईश्वर
प्राज्ञ = ईश्वर आत्मा
आत्मा = ब्रह्म जाग्रत के अभिमानी जीव को विश्व कहा जाता है और उसके समस्त विषय-समूह-रूपी चैतन्य को विराट्। इसी प्रकार स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय की अवस्थाओं के अभिमानी क्रमशः तैजस, प्राज्ञ और आत्मा हैं तथा उनके समस्त विषय-समूह-रूपी चैतन्य क्रमशः हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), ईश्वर और ब्रह्म (परम ब्रह्म) हैं। इस विश्लेषण से गौडपाद ने व्यष्टि और समष्टि की एकता का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धान्त का परवर्ती युगों में और अधिक विकास हुआ। प्रत्येक अवस्था में चार अवस्थाएं मानी गई । और इस प्रकार कुल १६ अवस्थाएं हो गयीं। उदाहरण के लिए जाग्रत में जाग्रत, जाग्रत में स्वप्न, जाग्रत में सुषुप्ति और जाग्रत में तुरीय, यह प्रथम अवस्था का विकसित चतुष्क हैं। इसी प्रकार अन्य अवस्थाओं के चतुष्क हैं। इन १६ अवस्थाओं में १६ कलावाले पुरुष के अनुभव की बात की गई है।
३. आत्मवाद
सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद दोनों का खंडन करते हुए गौडपाद ने अजातवाद को स्थापित किया है, क्योंकि उस पर उक्त दोनों मतों की सहमति है -
भूतं न जायते किंचिद् अभूतं नैव जायते। विवदन्तो द्वया ह्येवमजाति ख्यापयन्ति ते ।। (माण्डूक्यकारिका ४/४)
और भी, कोई वस्तु न तो स्वतः उत्पन्न होती है और न परतः और न उभयतः । स्वतो वा परतो वापि न किंचिद् वस्तु जायते।
सदसत् सदसद्वापि न किंचिद् वस्तु जायते।
(माण्डूक्यकारिका ४/२२)
वेदान्त-खण्ड इस प्रकार कार्यकारणवाद अनुपपन्न है। कार्य कारण से अनन्य है, अन्य नहीं।
४. मायाबाद
जैसे स्वप्न में दयाभास होता है, वैसे जाग्रत में भी। यह द्वयाभास मायिक है।
यथा स्वप्ने द्वयाभासं स्पन्दते मायया मनः।
तथा जाग्रद् द्वयाभासं स्पन्दते मायया मनः ।।
(माण्डूक्यकारिका ३/२६) मायावाद का निरूपण वेद और उपनिषदों में हुआ है। ‘नेह नानास्ति किंचन’, ‘इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप इयते’, इन उदाहरणों में मायावाद स्पष्ट है।
नेह नानेति चाम्नायादिन्द्रो मायाभिरित्यपि। अजायमानो बहुधा मायया जायते तु सः।।
(माण्डूक्यकारिका ३/२४) .. तब सृष्टिविद्या क्या है जिसका वर्णन उपनिषदों में मिलता है? सृष्टिविद्या आत्मज्ञान को प्राप्त करने का उपाय है। वह कोई यथार्थ का निरूपण नहीं है। उसका तात्पर्य अभेदवाद
मूल्लोहविस्फुलिंगाद्यैः सृष्टि र्या चोदिताऽन्यथा । उपायः सोऽवताराय नास्ति भेदः कथंचन ।। ।
(माण्डूक्यकारिका ३१५)
५. अद्वैतवाद का अविरोधः
अद्वैतवाद सभी द्वैतवादों की प्रागपेक्षा है। द्वैतवादों का अद्वैतवाद से उनका विरोध नहीं है।
आपस में विवाद है, पर
मा स्वसिद्धान्तव्यवस्थासु द्वैतिनो निश्चिता दृढम्। कि
परस्परं विरुध्यन्ते तैरयं न विरुध्यते ।। अद्वैतं परमार्थो हि द्वैतं तद्भेद उच्यते । तेषामुभयथाद्वैत तेनायं न विरुध्यते।।
निका (माण्डूक्यकारिका ३।१७।१८) ।
शंकर पूर्व वेदान्त द्वैतवाद मायिक या व्यावहारिक है, अद्वैतवाद पारमार्थिक है। ।
मायामात्रमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थतः ।
(माण्डूक्यकारिका ११७)
६. मोक्षवाद : ___ मोक्ष नित्य प्राप्त है, क्योंकि वह आत्मज्ञान है जिसकी प्रीति अज्ञान के निवृत्त हो जाने पर सब को होती है। बन्धन और मुक्ति, उत्पत्ति और निरोध साधक और साध्य,ये सब वाणी के विलास मात्र हैं। परमार्थता केवल अद्वैत है जिसे तत् से संबोधित किया जाता
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः । न मुमुक्षु न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ।।
(माण्डूक्यकारिका २॥३२)
७. क्या गौडपाद प्रच्छन्न बौद्ध थे?
1 इस प्रश्न के उत्तर में कुछ आधुनिक विद्वानों ने उन्हें बौन्द्र माना है। इनमें मुख्य हैं पं. विधुशेखर भट्टाचार्य जिन्होंने गौड़पाद के आगमशास्त्र की तुलना शून्यवाद के ग्रन्थों से की है। किन्तु गौडपाद ने स्वंय लिखा है कि वे जो कुछ कह रहे हैं उसे बुद्ध ने नहीं कहा था -
“नैतद् बुद्धेन भाषितम्”।
(माण्डूक्यकारिका ४ IEE) किन्तु इस वाक्य की भी खींचातानी की गयी है और कहा गया है कि बुद्ध का वचन भी यथार्थतः अवचन (उपशम, शान्ति, मौन) है और यही गौडपाद यहां कह रहे हैं। परन्तु गौडपाद यहां मौनवाद का वर्णन नहीं कर रहे हैं, अपितु अपने अद्वैतवाद को बौद्धमत से भिन्न कर रहे हैं। शुन्यवाद अद्वयवाद है, अद्वैतवाद नहीं। इस अन्तर को न समझने के कारण लोगों ने गौडपाद को बौद्ध या प्रच्छन्न बौन्द्र कहा है। वे शुन्द्र अद्वैत वेदान्ती हैं जो शांकर सम्प्रदाय में सम्प्रदायविद् आचार्य के रूप में माने जाते हैं। उनकी माण्डूक्यकारिका अद्वैतवेदान्त का एक मानक ग्रन्थ है। इस पर निम्नलिखित टीकाएं हैं १. शंकराचार्य का माण्डूक्योपनिषद् गौडपादकारिकाभाष्य। २ आनन्दगिरि की माण्डूक्योपनिषत्कारिकाभाष्य-टीका ।
वेदान्त-खण्ड
३. स्वयंप्रकाशानन्द सरस्वती की माण्डूक्यकारिका व्याख्या (मिताक्षरा) ४. अनुभूतिस्वरूपाचार्य की गौडपादाचार्य भाष्यटिप्पणी। इनके अतिरिक्त परवर्ती उपनिषदों पर भी गौडपाद का प्रभाव देखा जा सकता है।
४. भर्तृहरि
पं. गोपीनाथ कविराज ने रामभद्र दीक्षित के पतंजलिचरित और आत्मबोधकृत गौडपादोल्लास ग्रन्थ के आधार पर लिखा है कि पूर्वाश्रम में गौडपाद भाष्यकार पतंजलि के शिष्य थे। उन्होंने चन्द्र को व्याकरण पढ़ाया था। संन्यास लेने पर चन्द्र का ही नाम गोविन्द हो गया जो शंकराचार्य के गुरु थे। चन्द्र ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति की कन्याओं से चार विवाह किये थे जिनसे क्रमशः वररुचि, विक्रम, भट्टि और भतृहरि थे। ये सभी वैयाकरण थे।
सम्प्रति भर्तृहरि का ग्रन्थ वाक्यपदीय उपलब्ध है। यह श्लोकों में लिख गया है जिन्हें कारिका कहा जाता है। इसमें तीन काण्ड है- ब्रह्मकाण्ड, वाक्यकाण्ड और पदकाण्ड। पहले काण्ड में शब्दाद्वैतवाद का प्रामाणिक विवेचन है। इस के प्रथम दो काण्डों पर भर्तृहरि-रचित एक वृत्ति भी है। वाक्यपदीय पर हेलाराज और पुण्यराज की टीकाएं हैं। ब्रह्मकाण्ड पर पं. रघुनाथ शमा ने अम्बाकी नामक एक टीका लिखी है। महाभाष्य की टीका दीपिका, शब्दाः गातुसमीक्षा, नीतिशतक, श्रृंगारशतक, वैराग्य शतक और भट्टिकाव्य भी भतृहरि के ग्रन्थ बताये जाते हैं। शब्दधातुसमीक्षा उपलब्ध नहीं है। इसके कुछ श्लोक ही काश्मीर शैवमत के आचार्य उत्पल ने उद्धृत किये हैं। नीतिशतक, श्रृंगारशतक, वैराग्यशतक तथा भट्टिकाव्य को कुछ लोग वाक्यपदीयकार भर्तृहरि के ग्रन्थ नहीं मानते हैं। उनके लेखक संभवतः दूसरे भतृहरि थे।
भर्तृहरि के जिन सिद्धान्तों का अद्वैतवाद में प्रवेश हो गया है उनमें से निम्नलिखित मुख्य हैं:
१. शब्दाद्वैतवाद
शब्दतत्व अक्षर ब्रह्म है। वह अनादिनिधन है। समस्त सृष्टि शब्द-तत्त्व से उत्पन्न हुई है, शब्द स्थित है और अन्ततः शब्दतत्त्व में लीन हो जाती है। जगत् की यह प्रक्रिया शब्दतत्त्व या अक्षर ब्रह्म का विवर्त है।
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।।
(वाक्यपदीय १.१)
शंकर पूर्व वेदान्त शब्दतत्त्व वस्तुतः शाब्दिक बोध है जो प्रत्ययों का मूल है। शब्दाद्वैतवाद प्रत्ययवाद का मूल है और उससे अधिक व्यापक तथा गहन है, क्योंकि कोई ऐसा प्रत्यय नहीं है जो शब्दवित न हो। ज्ञान शब्दमय या वाङ्मय है
न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते। अनुविद्वमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते।।
(वाक्यपदीय १.१२३) उपर्युक्त प्रथम उद्धरण से स्पष्ट है कि भर्तृहरि विवर्तवादी थे। किन्तु काश्मीर शैवमत के आचार्यों ने उनके विवर्तवाद को परिणामवाद बतलाया है। अद्वैतवादी आचार्यों ने इसे परिणामवाद से भिन्न करके एक अन्य सिद्धान्त कहा है। इस प्रकार विवर्तबाद के मूल में अविद्या है। मतृहरि स्वयं कहते है कि काल अविद्यामय है और विद्या प्राप्ति के पश्चात् कान्न का मिथ्यात्व सिद्ध हो जाता है -
शक्त्यात्मदेवतापेक्षभिन्न कालदर्शनम् । प्रथमं तदविद्यायां यद् विद्यायां न वर्तते।।
(वाक्यपदीय ३. काल ६२) इस प्रसंग में चित्सुखी के टीकाकार प्रत्यक्वरूप लिखते हैं
शुद्धतत्त्वं प्रपञ्चस्य न हेतुरनिवृत्तितः।
- ज्ञानज्ञेयादिरूपस्य मायैव जननी ततः।। इस प्रकार भतृहरि ने शब्दाद्वैतवाद का प्रतिपादन विवतवाद और मायावाद के आधार पर किया है। उनके पूर्व किसी ने ‘बिवर्त" शब्द का प्रयोग इसके दार्शनिक अर्थ में नहीं किया था। वे ही विवर्तवाद के जनक हैं।
२. आगमवाद
धर्म का ज्ञान केवल आगम या बेद से हो सकता है, तर्क से नहीं। ऋषियों का जो आर्षज्ञान या प्रातिभज्ञान है वह भी आगमपूर्वक है
नागमादृते धर्मस्तर्केण व्यवतिष्ठते। ऋषीणामपि यद्ज्ञानं तदप्यागमपूर्वकम् ।।
(वाक्यपदीय १.३०) तर्क से जो मत स्थापित किया जाता है उसका खंडन संभव है, क्योंकि अधिक युक्ततर तर्क से वह कट जाता है।
वेदान्त-खण्ड यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः कुशलैरनुमातृभिः। अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपद्यते।।
(वाक्यपदीय १.३०) अतः तक के आधार पर धर्म-निरूपण नहीं किया जा सकता। धम शाश्वत या नित्य सत्य है। वह वेदैकमानगम्य है। हम
३. अध्यारोपापवाद-विधि
अध्यारोपापवाद-विधि का तात्पर्य असत्य से सत्य की ओर चलना है - असतो मा सद् गमय । इस प्रसंग में भर्तृहरि कहते हैं कि जैसे बालकों को असत्य के द्वारा (अक्षरों को वास्तविकता प्रदान करके ) शब्द का ज्ञान कराया जाता है, वैसे असत्य कल्पनाओं द्वारा सत्य का भी ज्ञान कराया जाता है :
उपायः शिक्षमाणानां बालानामुपलालनाः। असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते।।
(वाक्यपदीय २.२४०) वास्तव में वस्तुओं के जिन गुणों या विशेषताओं को हम उन पर आरोपित करते हैं वे उपाधि हैं। जैसे शंकराचार्य ने अविद्योपाधि शब्द का प्रयोग किया है वैसे ही भर्तृहरि ने असत्योपाधि का प्रयोग किया है -
सत्यं वस्तु तदाकारैरसत्यैरवधार्यते। का असत्योपाधिभिः शब्दैः सत्यमेवाभिधीयते ।।
(वाक्यपदीय १.२०-२१)
४. स्फोटवाद
ऋग्वेद में वाक् के चार प्रकार, परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी बताये गये हैं। भर्तृहरि इनमें से केवल अन्तिम तीन को मानते हैं। इनके मत से शब्द तत्व की तीन अवस्थाएं हैं-पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। ये अवस्थाएं चैतन्य, बुद्धि, मन, प्राण और ज्ञानेन्द्रिय से संयुक्त हैं। पश्यन्ती वह शब्द है जो भेद-रहित और अक्रम है। उसमें शब्द
और अर्थ का भेद नहीं है। शब्द और अर्थ दोनों का एकीकृत रूप पश्यन्ती का स्वरूप है। मध्यमा शब्द की वह अवस्था है जिसमें अर्थ और शब्द में भेद हो जाता है यद्यपि दोनों का संयोग बना रहता है। यह मानसिक अवस्था है। शब्द प्रकाशक है और अर्थ प्रकाश्य। इसी अवस्था में शब्द को भर्तृहरि ने स्फोट का नाम दिया है।
शंकर पूर्व वेदान्त वैखयां कृतो नादः परश्रवणगोचरः।
मध्यमाकृतो नादः स्फोटव्यंजक उच्यते।।। पं. रंगनाथ पाटक ने स्फोट-दर्शन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १६६, में प्रस्तावना पृ. ञ पर इस कारिका को भर्तृहरि की कारिका बताया है। किन्तु यह वाक्यपदीय में नहीं है।
वैखरी शब्द की अभिव्यक्त अवस्था है। इसे अन्य लोग सुन सकते हैं। मनुष्य आपसी व्यवहार में इसी का प्रयोग करते हैं।
शब्द की आत्मा दो हैं -नित्य और कार्य अथवा जाति और व्यक्ति अथवा स्फोट और ध्वनि। ध्वनि अनित्य है, कार्य है, व्यक्ति है। स्फोट नित्य है, कारण है, जाति है।
स्फोटवाद शब्दार्थ की एकता का सिद्धान्त है। शब्द और अर्थ अपृथक हैं। अर्थ शब्दगत है। शब्द-शक्ति से अर्थ प्रकट होता है। शब्द का संविद्रूपी चैतन्य या प्रज्ञा से नित्य संबन्ध है। स्फोटबाद प्रातिभज्ञान का सिद्धान्त है। प्रातिभज्ञान द्वारा अर्थ का निर्धारण होता है। स्फोटवाद सामान्य को सत् मानता है। वह सामान्यवाद है। जो सामान्य को पदार्थ नहीं मानते वे स्फोटवाद का खंडन करते हैं। स्फोटवाद के उदाहरण में गो शब्द को लिया जाता है। यहां गो का अर्थ पहले होता है और वह गकार (ग) तथा उकार (उ) के अर्थ करने के बाद नहीं होता है - यह स्फोटवाद है। यह पद-स्फोट का उदाहरण है। इसी प्रकार वाक्य-स्फोट होता है। देवदत्त ग्राम जाता है-यह वाक्य है। इसका अर्थ ‘देवदत्त’’ “ग्राम”
और “जाता है” से नहीं निर्मित होता है। इस वाक्य को सुनते ही इसका संपूर्ण अर्थ स्पष्ट हो जाता है। बाक्य के विभिन्न शब्द उस अर्थ को उत्पन्न करने में सहायक हैं। किन्तु वह अर्थ इन घटकों पर निर्भर नहीं है। वह मूलतः अखण्ड है। वाक्य ही भाषा की इकाई है।
स्फोट को सिद्ध करने के लिए निम्न युक्ति दी जाती है
स्फोटः सत्, शब्दबोधहेतुत्वात्, जातिवत् । पुनश्च वह निम्न युक्ति के आधार पर नित्य माना जाता है
स्फोटः नित्यः, सत्त्वात, जातिवत्।। इन युक्तियों को अद्वैतवेदान्ती मण्डन मिश्र ने अपनी पुस्तक म्फोटसिन्द्धि में दिया है। उन्होंने स्फोटबाद का समन्वय ब्रह्मवाद से किया था।
५. मण्डन मिश्र
प्रसिद्ध है कि मण्डन मिश्र कुमारिल के अनुयायी मीमांसक थे, उनसे शंकराचार्य का शास्त्रार्थ हुआ था, उसमें परास्त हो जाने पर उन्होंने संन्यास ग्रहण किया और तब उनका
वेदान्त-खण्ड नाम सुरेश्वर हो गया। किन्तु इस प्रसिद्धि के आधार पर मण्डन मिश्र और सुरेश्वर की जो अभिन्नता की जाती है वह सर्वसम्मत नहीं है। आधुनिक खोजों ने सिद्ध किया है कि मंडन मिश्र और सुरेश्वर दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं और दोनों के ग्रन्थ अद्वैतवेदान्त के ऊपर हैं जिनमें सैद्धान्तिक मतभेद हैं। अतः मंडन मिश्र के अद्वैतवेदान्त को शंकर-पूर्व और सुरेश्वर के अद्वैतवेदान्त को शंकरोत्तर माना जाता है। मंडन मिश्र के तीन ग्रन्थ अद्वैत वेदान्ती है-ब्रह्मसिद्धि, स्फोटसिद्धि और विनम-विवेक। अन्तिम ग्रन्थ का समावेश पहले ग्रन्थ में भी है।
ब्रह्मसिद्धि पर चित्सुख की अभिप्रायप्रकाशिका, शंखपाणि की ब्रह्मासिन्द्रि-व्याख्या और आनन्दपूर्ण की भावशुद्धि नामक टीकाएं हैं जो प्रकाशित हो गयी हैं। स्फोटसिद्धि पर परमेश्वर की गोपालिका नामक टीका है। ब्रह्मसिद्धि में चार काण्ड हैं- ब्रह्मकाण्ड, तककाण्ड, नियोगकाण्ड, और सिद्धिकाण्ड । सम्पूर्ण ग्रन्थ उत्कृष्ट और क्लिष्ट गद्य में है जिसमें बीच-बीच में कारिकाएं हैं। प्रथम काण्ड में ३, द्वितीय काण्ड में ३२, तृतीय काण्ड में १८३ और चतुर्थ काण्ड में १२ कारिकाएं हैं, जिनमें मंडन मिश्र के मनों की स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है। अद्वैतवेदान्त के इतिहास पर मंडन मिश्र के जिन सिद्धान्तों का विशेष प्रभाव पड़ा है वे निम्नलिखित हैं -
१. भेद का निराकरणः ।
मण्डन मिश्र ने ब्रह्मसिद्धि के तर्ककाण्ड में सिद्ध किया है कि भेद न तो प्रत्यक्षगोचर है और न अनुमानगम्य। वह न तो उपमान से जाना जाता है और न अर्थापत्ति से। तत्वतः वह किसी वस्तु का गुण भी नहीं है -
न भेदो वस्तुनो रूपं तदभावप्रसङ्गतः। । अरूपेण च भिन्नत्वं वस्तुनो नावकल्पते।।
(ब्रह्मसिद्धि २.५) भेद अभाव भी नहीं है क्योंकि बिना आश्रय के अभाव की प्रतीति नहीं होती है
लब्धरूपे क्वचित् किंचित् तादृगेव निषिध्यते। विधानमन्तरेणातो न निषेधस्य संभवः।।
मत (ब्रह्मसिद्धि २.२) भेद तत्त्व और अन्यत्व से अनिर्वचनीय है। वह मात्र कल्पनाप्रसूत है। भेद के निराकरण द्वारा अभेद सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार मंडन मिश्र का अद्वैतवाद भावाद्वैतवाद है। उनके इस मत का प्रभाव भेद के निराकरण पर विशेष रूप से पड़ा है। जब-जब विरोधियों ने भेदसिद्धि की है तब-तब अद्वैतवेदान्तियों ने उसका खण्डन करके अभेदसिद्धि
शंकर पूर्व वेदान्त
की है। इस विवाद पर मण्डन मिश्र का भयंकर प्रभाव पड़ा है।
ब्रह्म के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए मंडन मिश्र कहते हैं कि उसका अस्तित्व सभी प्रत्ययों से सिद्ध है -
EET 17लोक में ब्रह्म अत्यन्त अप्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि वह सबप्रत्यय वेद्य है। ब्रह्म के बिना प्रत्येतव्य (अथात् प्रत्यय) असंभव है। ब्रह्म सामान्य प्रत्यय है जो सभी विशेष प्रत्ययों में अनुगमन करता है। वह भेदोपसंहारावशिष्ट है। इसीलिए उसे सत्य कहकर श्रुतियों ने प्रतिपादन किया है। (दृष्टव्य ब्रह्मसिद्धि, चतुर्थ काण्ड)। ।
२. प्रत्यक्ष का विश्लेषण
मण्डन मिश्र कहते हैं कि प्रत्यक्ष केवल भाव पदाथों को सिद्ध करता है, भेद या अभाव को नहीं, क्योंकि जब तक किसी विषय का इन्द्रिय से सन्निकर्ष नहीं होता तब तक प्रत्यक्ष नहीं होता। अतएव, जब वेद कहते हैं कि नानात्व असत् है तो यह वेदवाक्य प्रत्यक्ष से अविरुद्ध है और इस कारण प्रमाणित है।
आहुर्विधातृप्रत्यक्षं न निषेधृ विपश्चितः। नैकत्व आगमस्तेन प्रत्यक्षेण विरुध्यते।। (ब्रह्मसिद्धि २.१)
३. मोक्षवाद
मंडन मिश्र के अनुसार मोक्ष अविद्यास्तमय है। अविद्या संसार है। विद्या मोक्ष है। वह अद्वय और शान्ति है।
अविद्यास्तमयो मोक्षः सा संसार उदाहृता।
विद्यैव चाद्वया शान्ताऽतस्तमय उच्यते।। (ब्रह्मसिद्धि ३.१०६) जहां कुछ अद्वैतवेदान्ती स्थितप्रज्ञ को जीवन्मुक्त मानते हैं वहां मंडन मिश्र उसे केवल साधक मानते हैं। वह जीवन्मुक्त नहीं है क्योंकि उसे कतव्य-बोध रहता है।
४. प्रपंचविलयवादः
__मंडन मिश्र प्रपंचविलयवादी हैं। प्रपंच का विलय श्रुति से सिद्ध है। अन्य प्रमाणों से प्रपंचप्रविलय गोचर नहीं है।
सर्वप्रत्ययवेद्ये वा ब्रह्मरूपे व्यवस्थिते। प्रपंचस्य प्रविलयः शब्देन प्रतिपाद्यते।। प्रविलीनप्रपंचेन तद्रूपेण न गोचरः। मानान्तरस्येति मतमाम्नायैकनिबन्धनम् ।। (ब्रह्मसिद्धि ४.३-४)वेदान्त-खण्ड मण्डन मिश्र का प्रभाव वाचस्पति मिश्र पर बहुत पड़ा है। दोनों गृहस्थ वेदान्ती थे और कर्मज्ञानसमुच्चयवादी थे। प्रकटार्थ विवरणकार ने वाचस्पतिमिश्र को मण्डन पृष्ठसेवी कहा है। बाध-प्रस्थान पर भी मण्डनमिश्र का प्रभाव देखा जा सकता है। अद्वैतवेदान्त की तर्क-प्रणाली का जितना विकास उन्होंने किया है उतना उनके पूर्व किसी ने नहीं किया था। मीमांसा के मतों का खंडन उन्होंने नियोग काण्ड में किया है। अतएव उन्हें ऐसा मीमासक माना जाता है जो मीमांसा और वेदान्त का क्रमिक समन्वय करते हैं। कर्ममार्ग को उन्होंने संयोग पृथक्त्व न्याय से स्वीकार किया है। कर्म करने से इस कारण अनासक्ति उत्पन्न होती है और अन्ततः वह साक्षात् ज्ञान का कारण हो जाता है। कर्ममागी को ज्ञान प्राप्त
करने के लिए भक्ति या उपासना की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
सहायक ग्रन्थ
उदयवीर शास्त्री : वेदान्तदर्शन का इतिहास, विरजानन्द वैदिक संस्थान, ग्राजियाबाद, १६७० गोपीनाथ कविराज : रत्नप्रभा के हिन्दी अनुवाद की भूमिका अच्युत माण्डूक्योपनिषद् ग्रन्थमाला, वाराणसी १६३६ । गौडपाद की माण्डूक्यकारिका, शांकरभाष्य और आनन्दगिरि टीका सहित वाणा
विलास संस्कृत पुस्तकालय, वाराणसी १६४२।। ४. शंकराचार्य : माण्डूक्यकारिकाभाष्य देखिए ऊपर टिप्पणी ३।। ५. मण्डन मिश्र : ब्रह्मसिद्धि व्याख्याद्र, चित्सुख और आनन्दपूर्ण की टीकाओं के सहित
सं. अ. कृ. शास्त्री, मद्रास गवर्नर्मेण्ट ओरियन्टल मैनुस्कृष्ट सिरीज, १६६३।। ६. भर्तृहरि : वाक्यपदीय, सं. के. वी. अभ्यंकर और वी.पी. लिमये पूना
विश्वविद्यालय, १८६५। बादरायण : ब्रह्मसूत्र शारीरक भाष्य सहित, पं. नारायण राम आचार्य, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, १६४८॥ संगमलाल पाण्डेय : प्री-शंकर अद्वैत फिलासफी, दर्शनपीट, इलाहाबाद द्वितीय संस्करण, १८८३।
शंकर पूर्व वेदान्त E. मुरलीधर पाण्डेय : श्रीशङ्कराठ्मागद्वैतवादः, १०. गंगानाथ झा : शांकर वेदान्त, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, १६३६ । ११. एम. हिरियण्णा : इण्डियन फिलासफिकल स्टडीज दो भाग – काव्यालय, मैसूर,
१६५७ १२. टी.एम.पी. महादेव : गौडपाद, मद्रास विश्वविद्यालय, १८५२ १३. विधुशेखर भट्टाचार्य : द आगमशास्त्र ऑफ गौडपाद, कलकत्ता विश्वविद्यालय१६४२ १४. कुप्पूस्वामी शास्त्री संपादित - ब्रह्मसिद्धि, शंखपाणि की दीका से युक्त, मद्रास
गवर्नमेण्ट ओरविन्टल मैनुस्कृप्ट सिरीज, मद्रास १६३७ । १५. सहस्रबुद्धे, एम.टी.ए. सर्वे ऑफ प्री-शंकर अद्वैत वेदान्त, पूना विश्वविद्यालय,१६६८ । १६. अय्यर, के.ए. सुब्रह्मण्य, स्फोटसिद्धि आफ मण्डन मिथ।
द्वितीय अध्याय