विश्वास-प्रस्तुतिः १
क भूतानि व देहो वा केन्द्रियाणि क वा मनः ।
क शून्यं क च नैराश्यं मत्स्वरूपे निरञ्जने॥१॥
मूलम् १
क भूतानि व देहो वा केन्द्रियाणि क वा मनः ।
क शून्यं क च नैराश्यं मत्स्वरूपे निरञ्जने॥१॥
अन्वयः १
निरञ्जने मत्स्वरूपे भूतानि क्व वा देहः क्व, इन्द्रियाणि क वा मनः क्व, शून्यम् क्व, नैराश्यम् क्व च ॥ १ ॥
हिन्दी १
पूर्व वर्णन की हुई आत्मस्थिति जिस की हो जाय उस जीवन्मुक्त की दशा का इस प्रकारण में चौदह श्लोकोङ्कर के वर्णन करते हैं कि, हे गुरो! मैं सम्पूर्ण उपाधिरहित हूं, इस कारण मेरे विषें पञ्चमहाभूत तथा देह तथा इन्द्रियें तथा मन नहीं है, क्योङ्कि में चेतनस्वरूपहून्तिसी प्रकार शून्यपना और निराशपना भी नहीं है ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २
क शास्त्रं क्वात्मविज्ञानं क्व वा निर्विषयं मनः ।
क तृप्तिः क वितृष्णात्वं गतद्वन्द्रस्य मे सदा ॥२॥
मूलम् २
क शास्त्रं क्वात्मविज्ञानं क्व वा निर्विषयं मनः ।
क तृप्तिः क वितृष्णात्वं गतद्वन्द्रस्य मे सदा ॥२॥
अन्वयः २
सदा गतद्वन्द्वस्य मे शास्त्रम् क्व, आत्मविज्ञानम् क, वा निर्विषयम् मनः क्व, तृप्तिः क्व, वितृष्णात्वम् व ॥ २ ॥
हिन्दी २
शास्त्राभ्यास करना, आत्मज्ञान का विचार करना, मन को जीतना, मन में तृप्ति रखना और तृष्णा को दूर करना यह कोई भी मुझ में नहीं है, क्योङ्कि मैं इन्दरहित हूं ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ३
क विद्याक्कच वांविद्या काहं वेदं मम कवा।
कबन्धः क्व च वा मोक्षःस्वरूपस्य वरूपिता ॥३॥
मूलम् ३
क विद्याक्कच वांविद्या काहं वेदं मम कवा।
कबन्धः क्व च वा मोक्षःस्वरूपस्य वरूपिता ॥३॥
अन्वयः ३
(मयि ) विद्या व वा विद्या च क्व, अहम् क्व इदम् क्क वा मम क्व, बन्धः क्व वा मोक्षः च क्व, स्वरूपस्य रूपिता व ॥३॥
हिन्दी ३
अहङ्काररहित जो मैं हूं तिस मेरे विषें विद्या अविद्या मैं हूं, मेरा है, यह है इत्यादि आभिमान के धर्म नहीं है तथा वस्तु का ज्ञान मेरे विषें नहीं है और बन्ध मोक्ष मेरे नहीं होते हैं, मेरा रूप भी नहीं है, क्योङ्कि मै चैतन्य मात्र हूं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ४
क प्रारब्धानि कर्माणि जीवन्मुक्तिरपि कवा ।
क तद्विदेहकैवल्यं निर्विशेषस्य सर्वदा॥४॥
मूलम् ४
क प्रारब्धानि कर्माणि जीवन्मुक्तिरपि कवा ।
क तद्विदेहकैवल्यं निर्विशेषस्य सर्वदा॥४॥
अन्वयः ४
सर्वदा निर्विशेषस्य ( मे ) प्रारब्धानि कर्माणि क्व, वा जीवन्मुक्तिः अपि क्व, तद्विदेहकैवल्यम् क्व ॥ ४॥
हिन्दी ४
सर्वदा निर्विशेष स्वरूप जो मैं तिस मेरे प्रारब्धकर्म नहीं होता है और जीवन्मुक्ति अवस्था तथा विदेहमुक्तिभी नहीं है क्योङ्कि मैं सर्वधर्मरहित हूं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ५
व कर्ता क्व च वा भोक्ता निष्किंयं ग स्फुरणं व वा।
वापरोक्षं फलं वाक निःस्वभावस्य मे सदा ॥५॥
मूलम् ५
व कर्ता क्व च वा भोक्ता निष्किंयं ग स्फुरणं व वा।
वापरोक्षं फलं वाक निःस्वभावस्य मे सदा ॥५॥
अन्वयः ५
सदा निःस्वभावस्य मे कर्ता व वा भोक्ता व वा निष्क्रियम् स्फुरणम् क्व, अपरोक्षम् व वा फलम् क्व ॥ ५ ॥
हिन्दी ५
मैं सदा स्वभावरहित हूं, इस कारण मेरे विषें कर्तापना नहीं है, भोक्तापना नहीं है तथा विषयाकारवृत्त्यवच्छिन्न चैतन्यरूप फल नहीं है ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ६
कलोकः क्व मुमुक्षुर्वा क योगी ज्ञानवान् कवा।
कबद्धःकच वा मुक्तः स्वस्वरूपेऽहमद्वये॥६॥
मूलम् ६
कलोकः क्व मुमुक्षुर्वा क योगी ज्ञानवान् कवा।
कबद्धःकच वा मुक्तः स्वस्वरूपेऽहमद्वये॥६॥
अन्वयः ६
अहमद्रये स्वस्वरूपे लोकः क्व वा मुमुक्षुः क्व, योगी क, ज्ञानवान् क्व, बद्धः क्व वा मुक्तः च क्व ॥ ६ ॥
हिन्दी ६
आत्मरूप अद्वैत स्वस्वरूप के होनेपर न लोक है, न मोक्ष की इच्छा करनेवाला हूं, न योगी हूं, न ज्ञानी हूं, नबन्धन है, न मुक्ति है ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ७
व सृष्टिः क्व च संहारःक्क साध्यं क च साधनम् ।
व साधकः क सिद्धिा स्वस्वरूपेऽहमद्रये ॥ ७॥
मूलम् ७
व सृष्टिः क्व च संहारःक्क साध्यं क च साधनम् ।
व साधकः क सिद्धिा स्वस्वरूपेऽहमद्रये ॥ ७॥
अन्वयः ७
अहम्-अद्वये स्वस्वरूपे सृष्टिः क, संहारः च व साध्यम् क्व, साधनम् च क्व, साधकः क्व वा सिद्धिः क्व ॥ ७॥
हिन्दी ७
आत्मरूप अद्वैत स्वस्वरूप के होनेपर न सृष्टि है, न कार्य है, न साधन है और न सिद्धि है, क्योङ्कि मैं सवेन्धर्म रहित हूँ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ८
क प्रमाता प्रमाण वाक प्रमेयङ्क च प्रमा।
क किञ्चित्क न किञ्चिद्वा सर्वदा विमलस्य मे ॥ ८॥
मूलम् ८
क प्रमाता प्रमाण वाक प्रमेयङ्क च प्रमा।
क किञ्चित्क न किञ्चिद्वा सर्वदा विमलस्य मे ॥ ८॥
अन्वयः ८
सर्वदा विमलस्य मे प्रमाणं वा प्रमाता क्व प्रमेयं क प्रमा च क्व किञ्चित् क्व न किञ्चित् क्व ॥ ८॥
हिन्दी ८
आत्मा उपाधिरहित है तिस आत्मा के विषें प्रमाता, प्रमाण तथा प्रमेय ये तीनों नहीं है और कुछ है अथवा कुछ नहीं है, ऐसी कल्पना भी नहीं है ॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ९
क विक्षेपः क चैकाम्यं क निर्बोधः क मूढता।
क हषः क विषादो वा सर्वदा निष्क्रियस्य मे ॥९॥
मूलम् ९
क विक्षेपः क चैकाम्यं क निर्बोधः क मूढता।
क हषः क विषादो वा सर्वदा निष्क्रियस्य मे ॥९॥
अन्वयः ९
सर्वदा निष्क्रियस्य मे विक्षेपः क्व ऐकाम्यं चक्क निर्बोधः क्व मूहता क्व हर्षः क्व विषादः क्व ॥ ९ ॥
हिन्दी ९
मैं सदा निर्विकार आत्मस्वरूप हूं इस कारण मेरे विषें विक्षेप तथा एकाग्रता, ज्ञानीपना, मूढता, हर्ष और विषाद ये विकार नहीं है ॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १०
कचैष व्यवहारो वा क च सा परमार्थता ।
व सुखं क च वा दुःखं निर्विमर्शस्य मे सदा ॥१०॥
मूलम् १०
कचैष व्यवहारो वा क च सा परमार्थता ।
व सुखं क च वा दुःखं निर्विमर्शस्य मे सदा ॥१०॥
अन्वयः १०
सदा निर्विमर्शस्य मे एषः व्यवहारः क्व वा सा परमार्थता च क्व, सुखं च क्व वा दुःखं च क्व ॥ १० ॥
हिन्दी १०
मैं सदा सङ्कल्पविकल्परहित आत्मस्वरूप हूं, इस कारण मेरे विषें व्यवहारावस्था नहीं है, परमार्थावस्था नहीं है और सुख नहीं है तथा दुःख भी नहीं है ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ११
क्वमायाक च संसारःव प्रीतिर्विरतिः कवा।
क जीवः क्व च तद्ब्रह्म सर्वदा विमलस्य मे ॥११॥
मूलम् ११
क्वमायाक च संसारःव प्रीतिर्विरतिः कवा।
क जीवः क्व च तद्ब्रह्म सर्वदा विमलस्य मे ॥११॥
अन्वयः ११
सर्वदा विमलस्य मे माया व संसारः च क्व प्रीतिः कवा विरतिः क जीवः क्व तत् ब्रह्म च क्व ॥ ११ ॥
हिन्दी ११
मैं सदा शुद्ध उपाधिरहित आत्मस्वरूप हूं, इस कारण मेरे विषें माया नहीं है, संसार नहीं है, प्रीति नहीं है, वैराग्य नहीं है, जीवभाव नहीं है तथा ब्रह्मभावभी नहीं है ॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १२
क प्रवृत्तिनिवृत्तिा क मुक्तिः क च बन्धनम् ।
कूटस्थनिविभागस्य स्वस्थस्य मम सर्वदा ॥ १२॥
मूलम् १२
क प्रवृत्तिनिवृत्तिा क मुक्तिः क च बन्धनम् ।
कूटस्थनिविभागस्य स्वस्थस्य मम सर्वदा ॥ १२॥
अन्वयः १२
कूटस्थनिर्विभागस्य सदा स्वस्थस्य मम प्रवृत्तिः क. वा निवृत्तिः क, मुक्तिः क, बन्धनम् च क्व ॥ १२ ॥
हिन्दी १२
आत्मस्वरूप जो मैं हूं तिस मेरे विषें प्रवृत्ति नहीं है, मुक्ति नहीं है तथा बन्धन भी नहीं है ॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १३
कोपदेशःव वा शास्त्रं क शिष्यः कं च वा गुरुः।
क चास्ति पुरुषार्थो वा निरुपाधेः शिवस्य मे ॥ १३ ॥
मूलम् १३
कोपदेशःव वा शास्त्रं क शिष्यः कं च वा गुरुः।
क चास्ति पुरुषार्थो वा निरुपाधेः शिवस्य मे ॥ १३ ॥
अन्वयः १३
निरुपाधेः शिवस्य मे उपदेशः क्व वा शास्त्रं व शिष्यः क्व वा गुरुः क्व वा पुरुषार्थः क्व च अस्ति ॥ १३ ॥
हिन्दी १३
उपाधिशून्य नित्यानन्दस्वरूप जो मैं हूं तिस मेरे अर्थ उपदेश नहीं है, शास्त्र नहीं है, शिष्य नहीं है, गुरु नहीं है तथा परम पुरुषार्थ जो मोक्ष सो भी नहीं है ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १४
क चास्ति क च वा नास्ति क्वास्ति चैकं क च द्वयम् ।
बहुनात्र किमुक्तेन किञ्चिन्नोत्तिष्ठते मम ॥ १४॥
मूलम् १४
क चास्ति क च वा नास्ति क्वास्ति चैकं क च द्वयम् ।
बहुनात्र किमुक्तेन किञ्चिन्नोत्तिष्ठते मम ॥ १४॥
अन्वयः १४
( मम ) अस्ति च क, वा न अस्ति च क्व, एक च के अस्ति, द्वयं च क्व, इह बहुना उक्तेन किम्, मम किश्चित् न उत्तिष्ठते ॥ १४ ॥
हिन्दी १४
मैं आत्मस्वरूप हूं इस कारण मेरे विषें अस्तिपना नहीं है, नास्तिपना नहीं है, एकपना नहीं है, द्वैतपना नहीं है इस प्रकार कल्पित पदार्थो की वार्ता करोडों वर्षापर्यन्त कहूं तब भी हार नहीं मिल सकता, इस कारण से कहता हूं कि, मेरे विषें किसी कल्पना का भी आभास नहीं होता है, क्योङ्कि मैं एकरस चेतन स्वरूप हूं ॥१४॥
इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकासहितं विंशतिकं प्रकरणं समाप्तम् ॥२०॥