१९

विश्वास-प्रस्तुतिः १

तत्त्वविज्ञानसन्दंशमादाय हृदयोदरात् ।
नानाविधपरामर्शशल्योद्धारः कृतोमया॥१॥

मूलम् १

तत्त्वविज्ञानसन्दंशमादाय हृदयोदरात् ।
नानाविधपरामर्शशल्योद्धारः कृतोमया॥१॥

अन्वयः १

मया हृदयोदरात् तत्त्वविज्ञानसन्दंशम् आदाय नानाविधपरामर्शशल्योद्धारः कृतः ॥ १॥

हिन्दी १

श्रीगुरु के मुख से साधनसहित ज्ञान का श्रवण करके शिष्य को आत्मस्वरूप के विषें विश्रामप्राप्त हुआ, तिसका सुख आठ श्लोकोङ्कर के वर्णन करते हैं। हे गुरो! आपसे तत्वज्ञानरूप साण्डसी को लेकर अपने हृदय में से नाना प्रकार के सङ्कल्पविकल्परूप काण्टे को दूर कर दिया ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २

कधर्मःकच वा कामः क चार्थः क विवेकिता।
कद्वैतङ्क च वाद्वैतं खमहिनि स्थितस्य मे॥२॥

मूलम् २

कधर्मःकच वा कामः क चार्थः क विवेकिता।
कद्वैतङ्क च वाद्वैतं खमहिनि स्थितस्य मे॥२॥

अन्वयः २

स्वमहिम्नि स्थितस्य से धमः क, वा कामः च क; अर्थः क; विवकिता च का द्वैतम् क; वा अद्वैतम् च के ॥ २॥

हिन्दी २

हे गुरो ! धर्म अर्थ काम मोक्ष इन चारों का फल तुच्छ है, इस कारण तिन धर्मादिरूप काण्टे को दूर करके आत्मस्वरूप के विषें स्थिति को प्राप्त हुआ जो मैं तिस मुझे द्वैत नहीं भासता है, इस कारण ही मुझे अद्वैतविचार भी नहीं करना पडता है, क्योङ्कि “ उत्तीर्णे तु परे पारे नोकायाः किं प्रयोजनम् “ जब परली पार उतर गये तो फिर नौ का की क्या आवश्यकता है ? इस कारण जब द्वैत का भान ही नहीं है तो फिर अद्वैत विचार करने से फल ही क्या ? ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३

क भूतं व भविष्यद्वा वर्तमानमपि क वा ।
क देशःव चवा नित्यं स्वमहिनि स्थितस्य मे ॥३॥

मूलम् ३

क भूतं व भविष्यद्वा वर्तमानमपि क वा ।
क देशःव चवा नित्यं स्वमहिनि स्थितस्य मे ॥३॥

अन्वयः ३

नित्यम् स्वमहिनि स्थितस्य मे भूतम् क वा भविष्यत् क, अपि वा वर्तमानम् क, देशः क ( अन्यत् ) च वा क॥ ३ ॥

हिन्दी ३

नित्य आत्मस्वरूप के विषें स्थित जो मैं तिस मुझे भूतकाल कहां है, भविष्यत् काल कहाँ है, वर्तमानकाल कहां है, देश कहां है तथा अन्य वस्तु कहां है ?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४

व चात्मा क चवानात्मा क शुभकाशुभं तथा ।
कचिन्ताक चवाचिन्ता स्वमहिम्निस्थितस्य मे॥४॥

मूलम् ४

व चात्मा क चवानात्मा क शुभकाशुभं तथा ।
कचिन्ताक चवाचिन्ता स्वमहिम्निस्थितस्य मे॥४॥

अन्वयः ४

स्वमहिन्नि स्थितस्य मे आत्मा क बा अनात्मा च क; शुभम् क तथा अशुभम् क. चिन्ता कवा अचिन्ता च व ॥ ४ ॥

हिन्दी ४

आत्मस्वरूप के विषें स्थित जो मैं तिस मुझे आत्मा, अनात्मा, शुभ, अशुभ, चिन्ता और अचिन्ता यह नाना प्रकार भेद नहीं भासता है ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५

कस्वप्नःक्क सुषुप्तिा क च जागरणं तथा।
व तुरीयं भयं वापि स्वमहिम्नि स्थितस्य मे॥५॥

मूलम् ५

कस्वप्नःक्क सुषुप्तिा क च जागरणं तथा।
व तुरीयं भयं वापि स्वमहिम्नि स्थितस्य मे॥५॥

अन्वयः ५

स्वमहिम्न स्थितस्य मे स्वप्नः व वा सुषुप्तिः च क, तथा जागरणम् क्व, तुरीयम् अपि वा भयम् व ॥५॥

हिन्दी ५

आत्मस्वरूप के विषें स्थित जो मैं तिस मेरी स्वप्नावस्था नहीं होती है, सुषुप्ति अवस्था नहीं है तथा जायत् अवस्था नहीं होती है, क्योङ्कि यह तीनों अवस्था बुद्धि की हैं, आत्मा की नहीं हैं, मेरी तुरीयावस्थाभी नहीं होती है तथा अन्तःकरणधर्म जो भय आदि सोभी मुझे नहीं होता है ॥५॥

क दूरङ्क समीपं वा बाह्य काभ्यन्तरं कवाक
स्थूलङ्कच वा सूक्ष्म स्वमहिन्नि स्थितस्य मे॥६॥

अन्वयः ६

स्वमहिम्नि स्थितस्य मे दूरम् क वा समीपम् क्व, बाह्यम् क वा आभ्यन्तरम् क, स्थूलम् क्व वा सूक्ष्मम् च व ॥ ६ ॥

हिन्दी ६

दूरपना, समीपपना, बाहरपना, भीतरपना, मोटापना तथा सूक्ष्मपना ये सब मेरे विषें नहीं हैं क्योङ्कि मैं तो सर्वव्यापी आत्मस्वरूप में स्थित हूं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७

जिगाट क मृत्यु वितं वा व लोकाः कास्य क लौकिकम् ।
क लयः व समाधिवा स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ॥ ७॥

मूलम् ७

जिगाट क मृत्यु वितं वा व लोकाः कास्य क लौकिकम् ।
क लयः व समाधिवा स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ॥ ७॥

अन्वयः ७

स्वमहिम्नि स्थितस्य अस्य मे मृत्युः क्व, जीवितम् क, लोकाः क्व वा लौकिकम् क्व, लयः क्व वा समाधिः क्व ॥ ७॥

हिन्दी ७

आत्मस्वरूप के विषें स्थित जो मैं तिस मेरा मरण नहीं होता है, जीवन नहीं होता है, क्योङ्कि मैं तो त्रिकाल में सत्यरूपह, केवल आत्मामात्र को देखनेवाला जो में तिस मुझे भू आदि लोकों की प्राप्ति नहीं होती है इसी कारण मुझे कोई लोकिक कार्य भी कर्तव्य नहीं है। मैं पूर्णात्मा हूं, इस कारण मेरा लय वा समाधि नहीं होती है ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८

अलं त्रिवर्गकथया योगस्य कथयाप्यलम् ।
अलं विज्ञानकथया विश्रान्तस्य ममात्मनि ॥८॥

मूलम् ८

अलं त्रिवर्गकथया योगस्य कथयाप्यलम् ।
अलं विज्ञानकथया विश्रान्तस्य ममात्मनि ॥८॥

अन्वयः ८

आत्मनि विश्रान्तस्य मम त्रिवर्गकथया योगस्य कथया अलम् विज्ञानकथया अपि अलम् ॥ ८॥

हिन्दी ८

आत्मा के विषें विश्राम को प्राप्त हुआ जो मैं तिसमझे धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग की चर्चा से कुछ प्रयोजन नहीं है, योग की चर्चा कर के कुछ प्रयोजन नहीं है, तथा ज्ञान की चर्चा करने से भी कुछ प्रयोजन नहीं है ॥ ८॥

इति श्रीमदष्टावक्रमुनिकृतायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितैकोनविंशतिकं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १९॥