१८ शान्तिशतकम्

विश्वास-प्रस्तुतिः १

यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रमः।
तस्मै सुखैकरूपाय नमःशान्ताय तेजसे॥१॥

मूलम् १

यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रमः।
तस्मै सुखैकरूपाय नमःशान्ताय तेजसे॥१॥

अन्वयः यस्य बोधोदये भ्रमः स्वमवत् भवति; तावत् तस्मै सुखैकरूपाय शान्ताय तेज से नमः ॥ १॥

इस प्रकरण में शान्ति की प्रधानता वर्णत करते हुए प्रथम शान्ति का वर्णन करते हैं तहां भी प्रथम शान्त आत्मा को नमस्कार करते हैं, जिस आत्मा का ज्ञान होते ही यह प्रत्यक्ष संसार स्वप्र की समान मिथ्या भासने लगता है, प्रथम तिस सुखरूप प्रकाशमान शान्तसङ्कल्पस्वरूप आत्मा के अर्थ नमस्कार है ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २

अर्जयित्वाऽखिलानर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान् ।
नहि सर्वपरित्यागमन्तरेण सुखी भवेत् ॥२॥

मूलम् २

अर्जयित्वाऽखिलानर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान् ।
नहि सर्वपरित्यागमन्तरेण सुखी भवेत् ॥२॥

अन्वयः २

अखिलान् अर्थान् अर्जयित्वा पुष्कलान् भोगान आप्नोति, सर्वपरित्यागमन्तरेण सुखी नहि भवेत् ॥ २॥

हिन्दी २

यहां शान्तसङ्कल्पस्वरूपको ही सुखरूप कहा, तिस कारण शङ्का होती है कि, धनी पुरुष भी तो सुखी होता है फिर शान्तसङ्कल्पको ही सुखरूप किस प्रकार कहा ? तिस का समाधान करते हैं कि पुरुष धन, धान्य, स्त्री और पुत्र आदि अनेक पदार्थों को प्राप्त कर के अनेक प्रकार के भोगोङ्को ही भोगता है, सुखरूप नहीं होता है, क्योङ्कि उन भोगों के नष्ट होनेपर फिर दुःख प्राप्त होता है, इस कारण सम्पूर्ण सङ्कल्पविकल्पों का त्याग किये बिना सुखरूप कदापि नहीं हो सकता ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३

कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः ।
कुतः प्रशमपीयूषधारासारमृते सुखम् ॥३॥

मूलम् ३

कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः ।
कुतः प्रशमपीयूषधारासारमृते सुखम् ॥३॥

अन्वयः ३

कर्त्तव्यदुःखमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः प्रशमपीयूपधारासारम् ऋते सुखं कुतः ? ॥ ३ ॥

मिथ्यारूप जो सङ्कल्प विकल्प है उन को तुच्छ जानना ही सङ्कल्पविकल्प का त्याग है, जै से वन्ध्यापुत्र को मिथ्यारूप जान लेना ही त्याग है क्योङ्कि मिथ्यारूप वस्तु का अन्य किसी प्रकार का त्याग नहीं हो सकता, यह विषय अन्य रीतिसे दिखाते हैं नाना प्रकार के जो
कर्म उन कर्मों से उत्पन्न होनेवाले जो दुःख वही हुआ सूर्य की किरणों का अत्यन्त तीक्ष्ण ताप तिस से दग्ध हुआ है अन्तःकरण जिस का ऐसे पुरुष को सङ्कल्प विकल्प की शान्तिरूप अमृतधारा की वृष्टि के बिना सुख कहां से हो सकता है ? ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४

भवोऽयं भावनामात्रो न किञ्चित्परमार्थतः ।
नास्त्यभावः स्वभावानां भावाभावविभाविनाम् ॥४॥

मूलम् ४

भवोऽयं भावनामात्रो न किञ्चित्परमार्थतः ।
नास्त्यभावः स्वभावानां भावाभावविभाविनाम् ॥४॥

अन्वयः ४

अयम् भवः भावनामात्रः परमार्थतः किञ्चित् न ( अस्ति ); भावाभावविभाविनाम् स्वभावानाम् अभावः न अस्ति ॥ ४॥

हिन्दी ४

संसाररूपी विष को दूर करनेवाला होने के कारण सङ्कल्पविकल्प के शान्तिरूप को अमृतरूप कर के वर्णन करते हैं कि यह संसार सङ्कल्पमात्र है, वास्तवदृष्टि से एक आत्मा के सिवाय दूसरा कुछ नहीं है, यहां वादी शङ्का करता है कि भावरूप जो दृश्यमान जगत् है सो नष्ट होने के अनन्तर अभावरूप शून्य हो जाता है, इस प्रकार तो शून्यवादी का मत सिद्ध होता है ? इस के उत्तर में श्रीगुरु अष्टावक्रजी कहते हैं, कि सङ्कल्पमात्र जगत् के नाश होन के अनन्तर सत्यस्वभाव आत्मा अखण्डरूप से विराजमान रहता है, इस कारण संसार का नाश होने के अनन्तर शून्य नहीं रहता है, किन्तु उस समय निर्विकल्प केवलानन्दरूप मुक्त आत्मा रहता है ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५

न दूरं न च सङ्कोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम् ।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरञ्जनम् ॥५॥

मूलम् ५

न दूरं न च सङ्कोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम् ।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरञ्जनम् ॥५॥

अन्यय:निर्विकल्पम् निरायासम् निर्विकारम् निरञ्जनम् आत्मनः पदम् न दूरम् न च सङ्कोचात् (किन्तु ) लब्धम् एव (अस्ति) ॥५॥

वादी प्रश्न करता है कि, सङ्कल्पविकल्प की निवृत्ति होते ही आत्मा को अमृतत्व की प्राप्ति किस प्रकार हो जाती है ? तहां कहते हैं कि आत्मस्वरूप दूर नहीं है किन्तु सदा प्राप्त है; और परिपूर्ण है सदा सङ्कल्पविकल्परहित है, निरायास कहिये श्रम के बिना ही प्राप्त है, विकार जो जन्म और मृत्यु तिन से रहित है और निरञ्जन कहिये माया (अविद्या) रूप उपाधिरहित है, जिस प्रकार कण्ठ में धारण की हुई मणि भूल से दूसरे स्थान में ढूण्ढने से नहीं मिलती है और विस्मृति के दूर होते ही कण्ठ में प्रतीत हो जाती है, तिसी प्रकार अज्ञान से आत्मा दूर प्रतीत होता है परन्तु ज्ञान होनेपर प्राप्त ही है ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६

व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः।
वीतशो का विराजन्ते निरावरणदृष्टयः॥६॥

मूलम् ६

व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः।
वीतशो का विराजन्ते निरावरणदृष्टयः॥६॥

अन्वयः ६

निरावरणदृष्टयः व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः वीतशोकाः ( सन्तः ) विराजन्ते ॥ ६॥

हिन्दी ६

तत्वज्ञान से आत्मप्राप्ति होती है ऐसा जो शास्त्रकारों को व्यवहार है सो किस प्रकार होता है ? और यदि आत्मा नित्य प्राप्त ही है तो गुरु के उपदेश और शास्त्राभ्यास की क्या आवश्यकता है, तहां कहते हैं कि केवल अज्ञानरूपी मोह का परदा पड रहा है, तिस से आत्मस्वरूप का प्रकाश नहीं होता है। इस कारण समुद्र उपदेश से मोह को दूर कर के जिस से स्वरूप का निश्चय किया है, ऐसा जो ज्ञानी है, वह जगत् में शोभायमान होता है और उस की दृष्टिपर फिर मोहरूपी परदा नहीं पडता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७

समस्तं कल्पनामात्रमात्मा मुक्तःसनातनः।
इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत् ॥७॥

मूलम् ७

समस्तं कल्पनामात्रमात्मा मुक्तःसनातनः।
इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत् ॥७॥

अन्वयः ७

समस्तम् कल्पनामात्रम्, आत्मा सनातनः मुक्तः धीरः इति विज्ञाय हि बालवत् किम् अभ्यस्यति ॥ ७॥

हिन्दी ७

यह सम्पूर्ण जगत् कल्पनामात्र है और आत्मा नित्यमुक्त है; ज्ञानी पुरुष इस प्रकार जानकर क्या बालक की समान सांसारिक व्यवहार करता है ? अर्थात् कदापि नहीं करता है ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८

आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ ।
निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्॥८॥

मूलम् ८

आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ ।
निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्॥८॥

अन्वयः ८

आत्मा ब्रह्म, भावाभावौ च कल्पितौ इति निश्चित्य निष्कामः ( सन् ) किं विजानाति, किं ब्रूते, किं च करोति ॥८॥

हिन्दी ८

सम्पूर्ण कल्पनामात्र है, इस ज्ञान का मूल कारण जो तत्त्वम्पदार्थ का ऐक्यज्ञान उसी को कहते हैं कि, आत्मा कहिये, जीवात्मा जो त्वम् ’ पदार्थ है और ब्रह्म तत्पदार्थ है, ये दोनों अभिन्न हैं और अधिष्ठानरूप ब्रह्म का साक्षात्कार होनेपर भाव, अभावरूपसम्पूर्ण घटादि दृश्य पदार्थ कल्पित हैं ऐसा निश्चय कर के निष्काम होता हुआ ज्ञानी क्या जानता है क्या कहता है ? और क्या करता है ? अर्थात् मन के ब्रह्माकार होने के कारण न कुछ जानता है, न कुछ कहता है, और न कुछ करता है किन्तु आत्मस्वरू में स्थित होता है ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ९

अयं सोऽहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पनाः ।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णीभूतस्य योगिनः॥९॥

मूलम् ९

अयं सोऽहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पनाः ।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णीभूतस्य योगिनः॥९॥

अन्वयः ९

सर्वम् आत्मा इति निश्चित्य तूष्णीभूतस्य योगिनः अयम् सः अहम्, अयम् अहम् न इति विकल्पनाः क्षीणा: (भवन्ति) ॥९॥

हिन्दी ९

आत्मज्ञान से सम्पूर्ण कल्पना निवृत्त हो जाती है यह दिखाते हैं। जिस पुरुष को सम्पूर्ण जगत् ब्रह्मरूप भासता है वह पुरुष मुनिव्रतरूपी योगदशा को प्राप्त होता है, क्योङ्कि उस पुरुष का मन वृत्तिरहित होकर ब्रह्म के विषें एकाकार हो जाता है तदनन्तर उस पुरुष को अपना तथा पर का ज्ञान नहीं रहता है, अर्थात् मैं ध्यान करता हूं और दूसरा पुरुष अन्य कार्य करता है, यह अज्ञान दूर हो जाता है, तात्पर्य यह है कि, उस पुरुष की कल्पनामात्र नष्ट हो जाती है ॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः १०

न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढता।
न सुखं न च वा दुःखमुपशान्तस्य योगिनः॥१०॥

मूलम् १०

न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढता।
न सुखं न च वा दुःखमुपशान्तस्य योगिनः॥१०॥

अन्वयः १०

उपशान्तस्य योगिनः विक्षेपः न, ऐकाग्र्यम् च न, अतिबोधः न, मूहत। न, सुरक्म् न वा, दुःखम् च न (भवति)॥१०॥

हिन्दी १०

अब सङ्कल्पविकल्परहित पुरुष का स्वरूप दिखाते हैं, जो पुरुष सङ्कल्पविकल्परहित होकर शान्ति को प्राप्त होता है, उस शान्तस्वभाव योगी के मन को किसी बात का विक्षेप नहीं होता है, एकाग्रता नहीं होती है, अत्यन्त ज्ञान अथवा मूढता नहीं होती है, सुख नहीं होता है, और दुःख भी नहीं होता है, क्योङ्कि वह केवल ब्रह्मानन्दस्वरूप होता है।॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ११

स्वाराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने ।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः॥११॥

मूलम् ११

स्वाराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने ।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः॥११॥

अन्वयः ११

निर्विकल्पस्वभावस्य योगिनः स्वाराज्ये मैक्ष्यवृत्ती लाभालाभे जने वने च विशेषः न अस्ति ॥ ११॥

हिन्दी ११

सङ्कल्प और विकल्प से रहित है स्वभाव जिस का ऐसे योगी (ज्ञानी) को स्वर्ग का राज्य मिलनेसे, प्रारब्धकर्मानुसार प्राप्त हुए वस्तु से तथा जनसमूह में निवास होने से कुछ प्रसन्नता नहीं होती है और भिक्षा माङ्गकर निर्वाह करनेसे, किसी पदार्थ की प्राप्ति न होने से तथा निर्जन स्थान में रहने से कुछ अप्रसन्नता नहीं होती है, क्योङ्कि उस का मन तो ब्रह्माकार होता है ॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः १२

क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः॥१२॥

मूलम् १२

क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः॥१२॥

अन्वयः १२

इदम् कृतम्, इदम् न ( कृतम् ), इति द्वन्द्वैः मुक्तस्य योगिनः धर्मः क्व, कामः च क्व, अर्थः क्व वा विवेकिता च क्व ॥१२॥

यह किया, यह नहीं किया इत्यादि द्वन्द्वों से रहित योगी को धर्म कहां, काम कहां, अर्थ कहां और मोक्ष का उपायरूप ज्ञान कहां ? क्योङ्कि जब धर्मादि का कारण
अविद्या और सङ्कल्पविकल्पादि ही नहीं होते तो धर्मादि किस प्रकार हो सकते हैं ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः १३

कृत्यं किमपि नैवास्ति न कापि हृदि रञ्जना ।
यथाजीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिनः॥१३॥

मूलम् १३

कृत्यं किमपि नैवास्ति न कापि हृदि रञ्जना ।
यथाजीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिनः॥१३॥

अन्वयः १३

जीवन्मुक्तस्य योगिनः इह किम् अपि कृत्यम् न एक अस्ति, ( तथा ) हृदि का अपि रञ्जना न ( अस्ति ), किन्तु यथाजीवनम् एव ( भवति ) ॥ १३ ॥

हिन्दी १३

जीवन्मुक्त योगी को इस संसार में कुछ भी करने को नहीं होता है और हृदय के विषें कोई अनुराग ही नहीं होता है, तथापि जीवन्मुक्त पुरुष जीवन के हेतु अदृष्ट के अनुसार कर्म करता है ॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः १४

क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व तद्धयानं क्व मुक्तता ।
सर्वसङ्कल्पसीमायां विश्रान्तस्य महात्मनः॥१४॥

मूलम् १४

क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व तद्धयानं क्व मुक्तता ।
सर्वसङ्कल्पसीमायां विश्रान्तस्य महात्मनः॥१४॥

अन्वयः १४

सर्वसङ्कल्पसीमायाम् विश्रान्तस्य महात्मनः मोहः का विश्वम् क्व, तद्धयानम् क्व वा मुक्तता च क्व ॥ १४ ॥

सम्पूर्ण सङ्कल्पों की सीमा कहिये अवधि जो आत्मज्ञान तिस के विषें विश्राम को प्राप्त होनेवाले योगी को मोह कहां ? और विश्व कहां ? और विश्व का चिन्तन
कहां ? तथा मुक्तपना कहां ? क्योङ्कि वह तो ब्रह्मस्वरूप हो जाता है ॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः १९

येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोतु वै।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति॥१९॥

मूलम् १९

येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोतु वै।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति॥१९॥

अन्वयः १५

येन इदम् विश्वम् दृष्टम् सः वै न अस्ति, इति करोतु (यः) पश्यन् अपि न पश्यति (सः) निर्वासनः (सन् ) किम् कुरुते ॥ १५॥

हिन्दी १५

जिसने यह घटादि विश्व देखा है, वह कदाचित् घटादि विश्व नहीं है ऐसा जाने, परन्तु जो देखता हुआ भी नहीं देखता है वह वासनारहित होकर क्या करे ? अर्थात् कुछ भी नहीं अर्थात् जिस को वासनाओं का संस्कार ही नहीं है वह त्याग ही क्या करे ॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः १६

येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत् ।
किं चिन्तयति निश्चिन्तो द्वितीयं योन पश्यति॥ १६॥

मूलम् १६

येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत् ।
किं चिन्तयति निश्चिन्तो द्वितीयं योन पश्यति॥ १६॥

अन्वयः १६

येन परम ब्रह्म दृष्टम् सः अहं ‘ब्रह्म’ इति चिन्तयेत्, यः (तु ) द्वितीयम् न पश्यति ( सः ) निश्चिन्तः ( सन् ) किम् चिन्तयति ॥ १६ ॥

जो पुरुष परब्रह्म को देखे, वह ‘मैं ब्रह्म हूं’ ऐसा चिन्तन करे और जो द्वितीय को देखता ही नहीं है, वह निश्चिन्त
होकर क्या चिन्तन नहीं करेगा ? अर्थात् कुछ भी चिन्तन नहीं करेगा, अर्थात् जिस की द्वैतदृष्टि नहीं है उ से ब्रह्मचिन्तन करनेको भी कोई आवश्यकता नहीं है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः १७

दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम् ॥१७॥

मूलम् १७

दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम् ॥१७॥

अन्वयः १७

येन आत्मविक्षेपः दृष्टः असौ तु निरोधम् कुरुते, उदारः तु विक्षिप्तः न भवति, (सः) साध्याभावात् किम करोति ? ॥ १७॥

हिन्दी १७

अन्तःकरण का विक्षेप जिस पुरुष के देखने में आता हो वह मन को वश में करने का उपाय करे और जो सर्वत्र एक ब्रह्मको ही देखता है, उस के तो विक्षेप है ही नहीं, उस को कुछ साधने योग्य नहीं होता है इस कारण वह कुछ साधन भी नहीं करता है ॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः १८

धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
नसमाधिन विक्षेपं न लेप स्वस्य पश्यति॥१८॥

मूलम् १८

धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
नसमाधिन विक्षेपं न लेप स्वस्य पश्यति॥१८॥

अन्वयः १८

लोकविपर्यस्तः धीरः लोकवतु वर्तमानः अपि स्वस्य समाधिम् विक्षेपम् न (तथा) लेपम् (च) न पश्यति ॥ १८॥

संसार के विक्षेपों से रहित धीर पुरुष संसारी पुरुष की समान वर्ताव करता हुआ भी अपने विषें समाधि को नहीं
मानता है, विक्षेप नहीं मानता है, तथा किसी कार्य में आसक्ति भी नहीं मानता है ॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः १९

भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः ।
नैव किञ्चित्कृतं तेन लोकदृष्टया विकुर्वता॥१९॥

मूलम् १९

भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः ।
नैव किञ्चित्कृतं तेन लोकदृष्टया विकुर्वता॥१९॥

अन्वयः १९

यः बुधः तृप्तः भावाभावविहीनः (तथा) निर्वासनः ( भवति ) लोकदृष्टया विकुर्वता ( अपि ) तेन किञ्चित् एव कृतम् ॥ १९ ॥

हिन्दी १९

जोज्ञानी है वह अपने आनन्द से परिपूर्ण रहता है। इस कारण किसी की स्तुति निन्दा नहीं करता है. लोक तो यह देखते है कि ज्ञानी अनेक प्रकार की क्रिया करता है, परन्तु ज्ञानी आसक्तिपूर्वक कोई भी क्रिया नहीं करता है, क्योङ्कि ज्ञानी को अभिमान नहीं होता है ॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २०

प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः ।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठतः सुखम् ॥२०॥

मूलम् २०

प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः ।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठतः सुखम् ॥२०॥

अन्वयः २०

यदा यत् कर्तुम् आयाति तत् सुखम् कृत्वा तिष्ठतः धीरस्य प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ दुर्ग्रहः न एव ( भवति ) ॥ २० ॥

प्रारब्ध के अनुसार जो प्रवृत्त अथवा निवृत्त कर्म जब करने में आवे, उस को अनायस ही में कर के स्थित होनेवाले
धीर पुरुष को प्रवृत्ति के विषें अथवा निवृत्ति के विषें दुराग्रह नहीं होता है ॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २१

निर्वासनो निरालम्बःस्वच्छन्दोमुक्तवन्धनः ।
क्षिप्तः संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत् ॥२१॥

मूलम् २१

निर्वासनो निरालम्बःस्वच्छन्दोमुक्तवन्धनः ।
क्षिप्तः संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत् ॥२१॥

अन्वयः २१

निर्वासनः निरालम्बः स्वच्छन्दः मुक्तबन्धनः ( ज्ञानी) संस्कारवातेन क्षिप्तः (सन् ) शुष्कपर्णवत् चेष्टते ॥ २१ ॥

हिन्दी २१

यहां वादी शङ्का करता है कि, तुम तो ज्ञानी को वासनारहित कह रहे हो फिर वह प्रवृत्त अथवा निवृत्त कर्म किस प्रकार से करता है ? तहां कहते हैं कि, ज्ञानी वासनारहित है, ज्ञानी को किसी का आधार नहीं लेना पडता ह, इस कारण ही स्वाधीन होता है, तथा ज्ञानी को राग द्वेष नहीं है परन्तु प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त होता है, उस को करता है. जिस प्रकार पृथ्वी के ऊपर पड़े हुए सूखे पत्तों में कहां जाने की अथवा स्थित होने की वासना (सामर्थ्य) नहीं होती है परन्तु जिस दिशा का वायु आता है उसी दिशा को पत्तेउडने लगते हैं, इसी प्रकार ज्ञानी प्रारब्ध के अनुसार भोगचेष्टा करता है ॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २२

असंसारस्य तु क्वापि न हर्षों न विषादता।
स शीतलमना नित्यं विदेह इव राजते॥२२॥

मूलम् २२

असंसारस्य तु क्वापि न हर्षों न विषादता।
स शीतलमना नित्यं विदेह इव राजते॥२२॥

अन्वयः २२

असंसारस्य तु के, अपि हर्षः न (भवति ), विषादता (च) न (भवति) नित्यम् शीतलमनाः सः विदेहः इव राजते॥२२॥

हिन्दी २२

जिस के संसार के हेतु सङ्कल्प विकल्प दूर हो जाते हैं, उस असारी पुरुष को न हर्ष होता है न विषाद होता है अर्थात उस के चित्त में हर्ष आदिछः उर्मि नहीं उत्पन्न होती हैं, वह नित्य शीतल मनवाला मुक्त की समान विराजमान होता है ॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २३

कुत्रापिन जिहासास्ति नाशोवापि न कुत्रचित् ।
आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः॥२३॥

मूलम् २३

कुत्रापिन जिहासास्ति नाशोवापि न कुत्रचित् ।
आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः॥२३॥

अन्वयः २३

शीतलाच्छतरात्मनः आत्मारामस्य धीरस्य कुत्र अपि जिहासा न (अस्ति) वा कुत्रचित् अपि नाशः न (अस्ति) ॥२३॥

हिन्दी २३

जो पुरुष आत्मा के विषें रमण करता है, वह धीरवान होता है और उस पुरुष का अन्तःकरण परम पवित्र और शीतल होता है उस को किसी वस्तु के त्यागने की इच्छा नहीं होती है, और किसी वस्तु के ग्रहण करने की भी इच्छा नहीं होती है, क्योङ्कि उस ज्ञानी के राग द्वेष का लेशमात्र भी नहीं होता है और उस ज्ञानी को कहीं अनर्थ भी नहीं होता है, क्योङ्कि अनर्थ का हेतु जो अज्ञान सो उस के विषें नहीं होता है ॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २४

प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।
प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता॥२४॥

मूलम् २४

प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।
प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता॥२४॥

अन्वयः २४

प्रकृत्या शून्यचित्तस्य प्राकृतस्य इव यदृच्छया कुर्वतः अस्य मानः न (वा ) अवमानता न ॥ २४ ॥

हिन्दी २४

स्वभाव से ही जिस का चित्त सङ्कल्पविकल्परूप विकार से रहित है और जो प्रारब्धानुसार प्रवृत्त निवृत्त कर्मो को अज्ञानी की समान करता है, ऐसे धीर कहिये ज्ञानी को मान और अपमान का अनुसन्धान नहीं होता है ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २५

कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्धरूपिणा ।
इति चिन्तानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोति न ॥२५॥

मूलम् २५

कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्धरूपिणा ।
इति चिन्तानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोति न ॥२५॥

अन्वयः २५

इदम् कर्म देहेन कृतम् शुद्धरूपिणा मया न ( कृतम्) यः इति चिन्तानुरोधी ( सः) कुर्वन् अपि न करोति ॥ २५॥

हिन्दी २५

सम्पूर्ण कर्म किया देह करता है मैं नहीं करता हूं क्योङ्कि मैं तो शुद्धरूप साक्षी हूं. इस प्रकार जो विचारता है, वह पुरुष कर्म करता हुआ भी बन्धन को नहीं प्राप्त होता है क्योङ्कि उस को कर्म करने का अभिमान नहीं होता है ॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २६

अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः।
जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरनपिशोभते॥२६॥

मूलम् २६

अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः।
जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरनपिशोभते॥२६॥

अन्वयः २६

जीवन्मुक्तः अतद्वादी इव कुरुते, (तथा)अपि बालिश: न भवेत् ( अतः एव ) संसरन् अपि सुखी श्रीमान् शोभते ॥२६॥

हिन्दी २६

किये हुए कार्य को “ मैं करता हूं “ ऐसे नहीं कहता हुआ जीवन्मुक्त पुरुष कार्य को करता हुआ भी मूर्ख नहीं होता है, क्योङ्कि अन्तःकरण के विषें ज्ञानवान होता है, इस कारण ही संसार के व्यवहार को करता हुआ भी भीतर सुखी और शोभायमान होता है ॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २७

नानाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्ति मागतः।
न कल्पतेन जानाति न शृणोति न पश्यति ॥२७॥

मूलम् २७

नानाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्ति मागतः।
न कल्पतेन जानाति न शृणोति न पश्यति ॥२७॥

अन्वयः २७

नानाविचारसुश्रान्तः विश्रान्तिम् आगतः धीरः न कल्पते न जानाति न शृणोति न पश्यति ॥ २७॥

नाना प्रकार के सङ्कल्पविकल्परूप विचारों से रहित होकर आत्मा के विषें विश्राम को प्राप्त हुआ धीर कहिये ज्ञानी पुरुष सङ्कल्पविकल्परूप मन के व्यापार को नहीं करता है, और न जानता है तथा बुद्धि के व्यापार को नहीं करता है, शब्द को नहीं सुनता है, रूप को नहीं
देखता है अर्थात् इन्द्रियमात्र के व्यापार को नहीं करता है क्यों कि उ से कर्तृत्व का अभिमान कदापि नहीं होता है ॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २८

असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षुर्न चेतरः।
निश्चित्य कल्पितं पश्यन्ब्रह्मैवास्ते महाशयः॥२८॥

मूलम् २८

असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षुर्न चेतरः।
निश्चित्य कल्पितं पश्यन्ब्रह्मैवास्ते महाशयः॥२८॥

अन्वयः २८

( ज्ञानी ) असमाधेः मुमुक्षुः न अविक्षेपात् इतरः च न (सर्वम् ) कल्पितम् ( इति ) निश्चित्य पश्यन् ( अपि) महाशयः ब्रह्म एव आस्ते ॥ २८ ॥

हिन्दी २८

ज्ञानी मुमुक्षु नहीं होता है, क्योङ्कि समाधि नहीं करता है और बद्ध भी नहीं होता है, क्योङ्कि ज्ञानी के विषें विक्षेप कहिये द्वैत भ्रम नहीं होता है, किन्तु यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् कल्पित है ऐसा निश्चय कर के तदनन्तर बाधित प्रपञ्च की प्रतीतिसे देखता हुआ भी निर्विकार चित्त होता है इस कारण साक्षात् ब्रह्मस्वरूप होकर स्थित होता है ॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २९

यस्यान्तः स्यादहङ्कारो न करोति करोति सः ।
निरहङ्कारधीरेण न किञ्चिद्धि कृतं कृतम् ॥२९॥

मूलम् २९

यस्यान्तः स्यादहङ्कारो न करोति करोति सः ।
निरहङ्कारधीरेण न किञ्चिद्धि कृतं कृतम् ॥२९॥

अन्वयः यस्य अन्तः अहङ्कारः स्यात् सः न करोति (अपि) करोति निरहङ्कारधीरण हि कृतम् ( अपि) किञ्चित्न कृतम्॥२९॥

तहां वादी शङ्का करता है कि, संसार को देखता हुआ भी ब्रह्मरूप किस प्रकार हो सकता है तिस का समाधान करते हैं कि, जिस के अन्तःकरण के विषें अहङ्कार का अध्यास होता है, वह पुरुष लोकदृष्टि से न करता हुआ भी सङ्कल्पविकल्प करता है क्योङ्कि उस को कर्तृत्व का अध्यास होता है और अहङ्काररहित जो धीर कहिये ज्ञानी पुरुष है, वह लोकदृष्टि से कार्य करता हुआ भी अपनी दृष्टि से नहीं करता है क्योङ्कि उस को कर्तृत्व का अभिमान नहीं होता है ॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३०

नोद्विग्नं न च सन्तुष्टमकर्तृस्पन्दवर्जितम्।
निराशं गतसन्देहं चित्तं मुक्तस्य राजते ॥३०॥

मूलम् ३०

नोद्विग्नं न च सन्तुष्टमकर्तृस्पन्दवर्जितम्।
निराशं गतसन्देहं चित्तं मुक्तस्य राजते ॥३०॥

अन्वयः ३०

मुक्तस्य चित्तम् उद्विग्नम् न (भवति) सन्तुष्टम् च ना ( भवति ) अकर्तृस्पन्दवर्जितम् निराशम् गतसन्देहम् राजते ॥३०॥

हिन्दी ३०

जो जीवन्मुक्त पुरुष है उस के चित्त में क भी उद्वेग (घबड़ाहट ) नहीं होता है तिसी प्रकार सन्तोष भी नहीं होता है, क्योङ्कि कर्तापने के अभिमान का उस के विषें लेश भी नहीं होता है, तिसी प्रकार उस को आशा तथा सन्देह भी नहीं होता है, क्योङ्कि वह तो सदा जीवन्मुक्त है ॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३१

निर्व्यातुं चेष्टितुं वापि यच्चित्तं न प्रवर्तते ।
निनिमित्तमिदं किन्तु निर्ध्यायति विचेष्टते ॥३१॥

मूलम् ३१

निर्व्यातुं चेष्टितुं वापि यच्चित्तं न प्रवर्तते ।
निनिमित्तमिदं किन्तु निर्ध्यायति विचेष्टते ॥३१॥

अन्वयः ३१

यच्चित्तम् निर्ध्यातुम् अपि वा चेष्टितुम् न प्रवर्त्तते किन्तु इदम् निर्निमित्तम् निया॑यति विचेष्टते ॥ ३१ ॥

हिन्दी ३१

जिस ज्ञानी का चित्त कियारहित होकर स्थित होने को अथवा सङ्कल्प विकल्पादिरूप चेष्टा करने को प्रवृत्त नहीं होता है, परन्तु ज्ञानी का चित्त निमित्त कहिये सङ्कल्पविकल्परहित होकर आत्मस्वरूप के विषें निश्चल स्थित होता है तथा अनेक प्रकार की सङ्कल्पविकल्परूप चेष्टा भी करता है ॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३२

तत्त्वं यथार्थमाकण्यं मन्दः प्राप्नोति मूढताम् ।
अथवा याति सङ्कोचममूढः कोऽपि मूढवत् ॥३२॥

मूलम् ३२

तत्त्वं यथार्थमाकण्यं मन्दः प्राप्नोति मूढताम् ।
अथवा याति सङ्कोचममूढः कोऽपि मूढवत् ॥३२॥

अन्वयः ३२

मन्दः यथार्थम् तत्त्वम् आकर्ण्य मूढताम् प्राप्नोति अथवा सङ्कोचम् आयाति कः अपि अमूढः ( अपि ) मूढवत् (भवति ) ॥ ३२ ॥

कोई अज्ञानी श्रुतिसे यथार्थतत्व ( तत् और त्वम् पदार्थ के कल्पित भेद ) को श्रवण कर के असम्भावना और विपरीत भावनाओं के द्वारा अर्थात् संशय और
विपर्यय कर के मूढता को प्राप्त होता है, अथवा तत्-त्वम् पदार्थ के भेद को जानने के निमित्त सङ्कोच कहिये चित्त की समाधि लगाता है और कोई ज्ञानी भी बाहर की गतिसे मूढ की समान बाहर के व्यवहारों को करता है ॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३३

एकाग्रता निरोधो वा मूढैरभ्यसते भृशम् ।
धीराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत् स्वपदे स्थिताः॥३३॥

मूलम् ३३

एकाग्रता निरोधो वा मूढैरभ्यसते भृशम् ।
धीराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत् स्वपदे स्थिताः॥३३॥

अन्वयः ३३

मूतैः एकाग्रता वा निरोधः भृशम् अभ्यस्यते स्वपदे स्थिताः धीराः सुप्तवत् कृत्यम् न पश्यन्ति ॥ ३३ ॥

हिन्दी ३३

जो देहाभिमानी मूर्ख हैं वे मन को वश में करने के अर्थ अनेक प्रकार का अभ्यास करते हैं परन्तु उन का मन वश में नहीं होता है और जो आत्मज्ञानी धैर्यवान् पुरुष है, वह आत्मस्वरूप के विषें स्थिति को प्राप्त होता है उस का मन तो स्वभाव से ही वशीभूत होता है, जिस प्रकार निद्रा के समय में मन की चेष्टा बन्द हो जाती है, तिसी प्रकार ज्ञान होनेपर मन की चेष्टा बन्द हो जाती है, क्योङ्कि अद्वैतात्मस्वरूप के ज्ञान से भ्रममात्र की निवृत्ति हो जाती है ॥३३॥

अप्रयत्नात्प्रयत्नाद्रा मूढा नाप्नोति नितिम् ।
तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः३४॥

अन्वयः ३४

मूढः अप्रयत्नात् वा प्रयत्नात् ( अपि ) निवृतिम् न आमोति प्राज्ञः तत्त्वनिश्चयमात्रेण निर्वृतः भवति ॥ ३४ ॥

हिन्दी ३४

जो मूढ पुरुष है और जिस को आत्मज्ञान नहीं हुआ है वह अनेक प्रकार का अभ्यास कर के मन को वश में करे अथवा न करे तौ भी उस को निवृत्ति का सुख नहीं प्राप्त होता है, और जोआत्मज्ञानी हे उसने तो ज्यों ही आत्मस्वरूप का निश्चय किया कि, वह परम निवृत्ति के सुख को प्राप्त होता है ॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३५

शुद्धं बुद्ध प्रियं पूर्ण निष्प्रपञ्चं निरामयम् ।
आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपराजनाः॥३५॥

मूलम् ३५

शुद्धं बुद्ध प्रियं पूर्ण निष्प्रपञ्चं निरामयम् ।
आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपराजनाः॥३५॥

अन्वयः ३५

तत्र अभ्यासपराः जनाः शुद्धम् बुद्धम् प्रियम् पूर्णम् निष्प्रपञ्चम् निरामयम् तम् आत्मानम् न जानन्ति ॥ ३५ ॥

हिन्दी ३५

सद्गुरु और वेदान्तवाक्यों की शरण लिये बिना देहाभिमान दूर नहीं होता है तिस देहाभिमान से मन जगत् के विषें आसक्त रहता है, तिस कारण वह पुरुष आत्मस्वरूप को नहीं जानता है क्योङ्कि आत्मस्वरूपता शुद्ध है, चैतन्यस्वरूप है और आनन्दरूपपरिपूर्ण, संसार की उपाधि से रहित तथा विविधतापरहित है, इस कारण देहाभिमानी पुरुष को उस का ज्ञान नहीं होता है ॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३६

नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूढोऽभ्यासरूपिणा ।
धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः॥३६॥

मूलम् ३६

नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूढोऽभ्यासरूपिणा ।
धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः॥३६॥

अन्वयः विमूढः अभ्यासरूपिणा कर्मणा मोक्षम् न आप्नोति धन्यः विज्ञानमात्रेण अविक्रियः मुक्तः तिष्ठति ॥ ३६॥

जो पुरुष देहाभिमानी है वह योगाभ्यासरूप कर्म कर के मोक्ष को नहीं प्राप्त होता है क्योङ्कि, कर्ममात्र से मोक्षप्राप्ति होना दुर्लभ है. सोई श्रुतिमें भी कहा है कि “न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनै के अमृतत्वमानशुः “ योगाभ्यास आदि कर्म से मोक्ष नहीं होता है, सन्तान उत्पन्न करने से मोक्ष नहीं होता है, धन प्राप्त करने से मोक्ष नहीं होता है, यदि किन् ही ज्ञानियों को मोक्ष की प्राप्ति हुई है तो देहाभिमान के त्याग से ही हुई है इस कारण कोई भाग्यवान् विरला पुरुष ही आत्मज्ञान की प्राप्तिमात्र से त्याग दिये हैं सम्पूर्ण सङ्कल्प विकल्पादि जिसने ऐसा होकर मुक्त हो जाता है ॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३७

मूढो नाप्नोति तद्ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति।
अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक्॥३७॥

मूलम् ३७

मूढो नाप्नोति तद्ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति।
अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक्॥३७॥

अन्वयः ३७

यतः मूढः ब्रह्म मतिम इच्छ त ( अन ) नत् न । आप्नोति हि धीरः अनिच्छन् अपि पर कह रूपक भवति॥३७॥

हिन्दी ३७

मूढपुरुष योगाभ्यासरूप कर्म कर के ब्रह्मरूप होने की इच्छा करता है, इस कारण ब्रह्म को नहीं प्राप्त होता है और ज्ञाता तो मोक्ष की इच्छा न करता है तो भी परब्रह्म के स्वरूप को प्राप्त होता है क्योङ्कि उस का देहाभिमान दूर हो गया है ॥३७॥

निराधाराग्रहव्यग्रा मूढाः संसारपोषकाः।
एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः३८

अन्वयः ३८

मूढाः निराधाराः ग्रहव्यग्राः संसारपोषकाः ( भवन्ति); बुधैः अनर्थमूलस्य एतस्य मूलच्छेदः कृतः ॥ ३८ ॥

हिन्दी ३८

”मूढ जो अज्ञानी पुरुष हैं वे सद्गुरु और वेदान्तवाक्यों के आधार के बिना ही केवल योगाभ्यासरूप कर्म करके ही मैं मुक्त हो जाऊँगा इस प्रकार निरर्थक दुराग्रह करनेवाले और संसार को पुष्ट करनेवाले होते हैं, संसार को दूर करनेवाला जो ज्ञान जिस का उन के विषें लेश भी नहीं है और ज्ञानी पुरुष जो हैं उन्होन्ने जन्ममरणरूपअनर्थ के मूलकारण इस संसार को ज्ञान के द्वारा मूल से ही छेदन कर दिया है ॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३९

नशान्ति लभते मूढो यतःशमितुमिच्छति।
धीरस्तत्त्वं विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानसः॥३९॥

मूलम् ३९

नशान्ति लभते मूढो यतःशमितुमिच्छति।
धीरस्तत्त्वं विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानसः॥३९॥

अन्वयः ३९

यतः मूढः शमितुम् इच्छति ( अतः ) शान्तिम् न लभते; धीरः तत्त्वम् विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानसः(भवति)॥३९॥

हिन्दी ३९

जोमूढ कहिये देहाभिमानी पुरुष है वह योगाभ्यास के द्वारा शान्ति की इच्छा करता है, परन्तु योगाभ्यास से शान्ति को प्राप्त नहीं होता है, और ज्ञानी पुरुष आत्मतत्व का निश्चय कर के सदा शान्तमन रहता है ॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४०

कात्मनो दर्शनं तस्य यदृष्टमवलम्बते।
धीरास्तं तनपश्यन्ति पश्यन्त्यात्मानमव्ययम् ॥४०॥

मूलम् ४०

कात्मनो दर्शनं तस्य यदृष्टमवलम्बते।
धीरास्तं तनपश्यन्ति पश्यन्त्यात्मानमव्ययम् ॥४०॥

अन्वयः ४०

यत् दृष्टम् अवलम्बते तस्य आत्मनः दर्शनम् क; ते धीराः तम् पश्यन्ति ( किन्तु ) तम् अव्ययम् आत्मानम् पश्यन्ति ॥ ४०॥

हिन्दी ४०

जो अज्ञानी पुरुष दृष्ट पदार्थों को सत्य मानता है, उस को अत्मदर्शन किस प्रकार हो सक्ता है? परन्तु धैर्यवान् पुरुष तिन दृष्ट पदार्थो को सत्य नहीं मानता है किन्तु एक अविनाशी आत्मा को देखता है ॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४१

क निरोधो विमूढोऽस्य यो निबन्धं करोति वै ।
स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदासावकृत्रिमः॥४१॥

मूलम् ४१

क निरोधो विमूढोऽस्य यो निबन्धं करोति वै ।
स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदासावकृत्रिमः॥४१॥

अन्वयः ४१

यः वै निर्बन्धम् करोति, ( तस्य ) विमूढस्य निगेधः क; स्वारामस्य धीरस्य एव असो सर्वदा अकृत्रिमः (भवति) ॥४१॥

हिन्दी ४१

जो मूढ देहाभिमानी पुरुष शुष्कचित्तनिरोध के विषें दुराग्रह करता है, तिस मूढ के चित्त का निरोध किस प्रकार हो सकता है ? अर्थात् उस के चित्त का निरोध कदापि नहीं हो सकता है, क्योङ्कि समाधि के अनन्तर अज्ञानी का चित्त फिर सङ्कल्पविकल्पयुक्त हो जाता है और आत्माराम धीर पुरुष के चित्त का निरोध स्वाभाविक ही होता है। क्योङ्कि उस का चित्त सङ्कल्पादिरहित निश्चल और ब्रह्माकार होता है ॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४२

भावस्य भावकः कश्चिन्न किञ्चिद्भावकोऽपरः।
उभयाभावकःकश्चिदेवमेव निराकुलः॥४२॥

मूलम् ४२

भावस्य भावकः कश्चिन्न किञ्चिद्भावकोऽपरः।
उभयाभावकःकश्चिदेवमेव निराकुलः॥४२॥

अन्वयः ४२

कश्चित् भावस्य भावकः अपरः न किञ्चित् भावक: एवम् कश्चित् उभयाभावकः एव नि कुलः आस्ते ॥ ४२ ॥

हिन्दी ४२

कोई नैयायिक आदि ऐसा मानते हैं कि, यह जगत् वास्तव में सत्य है और कोई शून्यवादी ऐसा मानते हैं कि, कुछ भी नहीं है और हजारों में एक आदमीआत्मा का अनुभव करनेवालाअभाव और भाव दोनों को न मानकर स्वस्थचित्तवाला रहता है ॥ ४२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४३

शुद्धमद्वयमात्मानं भावयन्ति कुबुद्वयः।
नतु जानन्ति सम्मोहाद्यावज्जीवमनिर्वृताः॥४३॥

मूलम् ४३

शुद्धमद्वयमात्मानं भावयन्ति कुबुद्वयः।
नतु जानन्ति सम्मोहाद्यावज्जीवमनिर्वृताः॥४३॥

अन्वयः ४३

कुबुद्धयः शुद्धम् अद्वयम् आत्मानम् भावयन्ति, जानन्ति तु न; सम्मोहात् यावज्जीवम् अनिवृताः ( भवन्ति ) ॥४३॥

हिन्दी ४३

मूढबुद्धि अर्थात् देहाभिमानी पुरुष आत्मा का चिन्तन करते हैं, परन्तु जानते नहीं क्योङ्कि मोह से युक्त होते हैं. इस कारण ही जन्मभर उन की सङ्कल्पविकल्पों से निवृत्ति नहीं होती है, अतएव सन्तोषको भी नहीं प्राप्त होते हैं ॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४४

मुमुक्षोर्बुद्धिरालम्बमन्तरेण न विद्यते।
निरालम्बैव निष्कामा बुद्धिमुङ्क्तस्य सर्वदा ॥४४॥

मूलम् ४४

मुमुक्षोर्बुद्धिरालम्बमन्तरेण न विद्यते।
निरालम्बैव निष्कामा बुद्धिमुङ्क्तस्य सर्वदा ॥४४॥

अन्वयः ४४

मुमुक्षोः बुद्धिः आलम्बम् अन्तरेण न विद्यते; मुक्तस्य बुद्धिः सर्वदा निरालम्बा निष्कामा एव ॥ ४४ ॥

हिन्दी ४४

जिस को आत्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ है ऐसे मुमुक्षुपुरुष की बुद्धि सधर्मकवस्तुरूप आश्रय के बिना नहीं होती है और जीवन्मुक्त पुरुष की बुद्धि मुक्तिविषयमें भी इच्छारहित और सदा निरालम्ब (निर्विशेष आत्मानुरूप ) होती है ॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४५

विषयद्वीपिनो वीक्ष्य चकिताःशरणार्थिनः ।
विशन्ति झटिति कोडं निरोधैकाग्रसिद्धये॥४५॥

मूलम् ४५

विषयद्वीपिनो वीक्ष्य चकिताःशरणार्थिनः ।
विशन्ति झटिति कोडं निरोधैकाग्रसिद्धये॥४५॥

अन्वयः ४५

विषयद्वीपिनः वीक्ष्य चकिताः शरणार्थिनः ( मूढाः) निरोधैकाग्रसिद्धये झटिति क्रोडम् विशन्ति ॥ ४५ ॥

हिन्दी ४५

विषयरूप व्याघ्र को देखकर भयभीत हुए, रक्षा की इच्छा करनेवाले अज्ञानी पुरुष ही जल्दी से चित्त का निरोध और एकाग्रता को सिद्धि के अर्थ गुहा के भीतर घुसते हैं, ज्ञानी नहीं घुसते हैं ॥ ४५ ॥

निर्वासनं हरिं दृष्ट्वा तूष्णीं विषयदन्तिनः।
पलायन्तेन शक्तास्ते सेवन्ते कृतचाटवः४६॥

अन्वयः ४६

विषयदन्तिनः निर्वासनम् हरिम् दृष्ट्वा न शक्तः ( सन्तः) तूष्णीम् पलायन्ते ते कृतचाटवः सेवन्ते ॥ ४६ ॥

वासनारहित पुरुषरूप सिंह को देखकर विषयरूपी हस्ती असमर्थ होकर चुपचाप भाग जाते हैं और तिस वासनारहित पुरुष को आकर्षित होकर स्वयं सेवन करते

विश्वास-प्रस्तुतिः ४७

नमुक्तिकारि का धत्ते निःशं को युक्तमानसः ।
पश्यन् शृण्वन् स्टशन जिघनश्नन्नास्ते यथासुखम् ॥४७॥

मूलम् ४७

नमुक्तिकारि का धत्ते निःशं को युक्तमानसः ।
पश्यन् शृण्वन् स्टशन जिघनश्नन्नास्ते यथासुखम् ॥४७॥

अन्वयः ४७

निःशङ्कः युक्तमानसः (ज्ञानी) मुक्तिकारिकां न धत्तेः (किन्तु ) पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अनन् यथासुखम् आस्ते ॥ ४७॥

हिन्दी ४७

अनिःशङ्क और निश्चल मनवाला ज्ञानी यम नियम आदि योगक्रिया को आग्रह से नहीं करता है, किन्तु देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूङ्घता हुआ और भोजन करता हुआ भी आत्मसुख के विषे ही निमग्न रहता है ॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४८

वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्धबुद्धिनिराकुलः।
नैवाचारमनाचारमौदास्यवान पश्यति ॥४८॥

मूलम् ४८

वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्धबुद्धिनिराकुलः।
नैवाचारमनाचारमौदास्यवान पश्यति ॥४८॥

अन्वयः ४८

वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्ध बुद्धिः निराकुलः (ज्ञानी) आचारम् अनाचरम् वा औदास्थम् न एव पश्यति ॥ ४८ ॥

हिन्दी १८

गुरु और वेदान्तवाक्यों के द्वारा चैतन्यस्वरूप आत्मा के श्रवणमात्र से हुआ है परिपूर्ण आत्मा का साक्षात्कार जिस को और निराकुल अर्थात् अपने स्वरूपके विषं स्थित ज्ञानी आचार को वा अनाचार को अथवा उदासीनता इन की ओर दृष्टि नहीं देता है, क्योङ्कि वह ब्रह्माकार होता है ॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४९

यदा यत्कर्तुमायाति तदा तत्कुरुते ऋजुः ।
शुभ वाप्यशुभं वापि तस्य चेष्टा हि बालवत् ॥४९॥

मूलम् ४९

यदा यत्कर्तुमायाति तदा तत्कुरुते ऋजुः ।
शुभ वाप्यशुभं वापि तस्य चेष्टा हि बालवत् ॥४९॥

अन्वयः ४९

यदा यत् वा अपि शुभम् अपि वा अशुभम् कर्तुम् आयाति तदा तत् ऋजुः ( सन् ) कुरुते ( यतः ) हि तस्य चेष्टा बालवत् ( भवति ) ॥ ४९ ॥

हिन्दी ४९

अब जो शुभ अथवा अशुभ कर्म प्रारब्धानुसार करना पड़ता है, उस को आग्रहरहित होकर करता है क्योङ्कि तिस जीवन्मुक्त ज्ञानी की चेष्टा बालक की समान होती है, अर्थात् वह प्रारब्धानुसार कर्म करता है रागद्वेष से नहीं करता है ॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५०

स्वातन्त्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातन्त्र्याल्लभते परम् ।
स्वातन्त्र्यानिवृति गच्छेत्स्वातन्त्र्यात्परमं परम्॥५०॥

मूलम् ५०

स्वातन्त्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातन्त्र्याल्लभते परम् ।
स्वातन्त्र्यानिवृति गच्छेत्स्वातन्त्र्यात्परमं परम्॥५०॥

अन्वयः ५०

स्वातन्त्र्यात सुखम् आप्नोति, स्वातन्त्र्यात् परमू लमते; स्वातन्त्र्यात निवृति गच्छेत, सातच्यात् परमम् पदमा (प्रामुयात् )॥५०॥

हिन्दी ५०

रागद्वेषरहित पुरुष सुख को प्राप्त होता है, परम ज्ञान को प्राप्त होता है और नित्य सुख को प्राप्त होता है तथा आत्मस्वरूप के विषें विश्राम को प्राप्त होता हे॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५१

अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः॥५१॥

मूलम् ५१

अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः॥५१॥

अन्वयः ५१

यदा स्वात्मनः अकर्तृत्वम् अभोक्तृत्वम् मन्यते तदा एव ( अस्य ) समस्ताः चित्तवृत्तयः क्षीणाः भवन्ति ॥५१॥

हिन्दी ५१

जब पुरुष अपने विषें कर्तापने का और भोक्तापनेका अभिमान त्याग देता है तब ही उस पुरुष की सम्पूर्ण चित्त की वृत्ति क्षीण हो जाती हैं ॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५२

उच्छृखलाप्यकृति का स्थिति(रस्य राजते।
न तु सस्टहचित्तस्य शान्तिमूण्ढस्य कृत्रिमा॥५२॥

मूलम् ५२

उच्छृखलाप्यकृति का स्थिति(रस्य राजते।
न तु सस्टहचित्तस्य शान्तिमूण्ढस्य कृत्रिमा॥५२॥

अन्वयः ५२

धीरस्य उच्छृखला अपि अकृति का स्थितिः राजते; सस्पृहचित्तस्य मूहस्य कृत्रिमा शान्तिः तु न ( राजते ) ॥ ५२॥

हिन्दी ५२

जो पुरुष निःस्पृहचित्त होता है उस धैर्यवान ज्ञानी की स्वाभाविक शान्तिरहित भी स्थिति शोभायमान होती है और इच्छा से आकुल है चित्त जिसका ऐसे अज्ञानी पुरुष की बनावटी शान्ति शोभित नहीं होती है ॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५३

विलसन्ति महाभोगविशन्ति गिरिगहरान् ।
निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः॥५३॥

मूलम् ५३

विलसन्ति महाभोगविशन्ति गिरिगहरान् ।
निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः॥५३॥

अन्वयः ५३

अबद्धाः मुक्तबुद्धयः निरस्तकल्पनाः धीराः महामोगैः विलसति गिरिगह्वरान् विशन्ति ॥५३॥

हिन्दी ५३

जिन ज्ञानियों की कल्पना निवृत्त हो गई है, जो आसक्तिरहित हैं, तथा जिन की बद्धि अभिमानरहित है वे ज्ञानी पुरुष क भी प्रारब्धानुसार प्राप्त हुए भोगों से विलास करते हैं और क भी प्रारब्धानुसार पर्वत और वनों के विषें विचरते हैं ॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५४

श्रोत्रियं देवतां तीर्थमङ्गनां भूपतिं प्रियम् ।
दृष्ट्वा सम्पूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना॥५४॥

मूलम् ५४

श्रोत्रियं देवतां तीर्थमङ्गनां भूपतिं प्रियम् ।
दृष्ट्वा सम्पूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना॥५४॥

अन्वयः ५४

श्रोत्रियम् देवताम् तीर्थम् सम्पूज्य (तथा) अङ्गनाम् भूपतिम् प्रियम् दृष्ट्वा धीरस्य हदि का अपि वासना न (जायते)॥५४॥

हिन्दी ५४

वेदपाठी ब्राह्मण और देवता की प्रतिमा तथा तीर्थका पूजन कर के और सुन्दर स्त्री राजा और प्रिय पुत्रादिको देखकर भी ज्ञानी के हृदय में कोई वासना नहीं उत्पन्न होती है ॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५५

भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।
विहस्य धिकृतो योगी न याति विकृति मनाकू॥५५॥

मूलम् ५५

भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।
विहस्य धिकृतो योगी न याति विकृति मनाकू॥५५॥

अन्वयः ५५

योगी भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैः दौहित्रैः च अपि च गोत्रजैः विहस्य धिकृतः ( अपि) मनाक विकृतिम् न याति ॥ ५५॥

हिन्दी ५९

सेवक स्त्री पुत्र दौहित्र (धेवते ) और अन्य गोत्रके पुरुष भी यदि योगी का उपहास करें या धिकार देवें तो उस का मन किञ्चिन्मात्र भी क्षोभ को नहीं प्राप्त होता है, क्योङ्कि उस ज्ञानी का मोह दूर हो जाता है ॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५६

सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न । च खिद्यते ।
तस्याश्चर्यदशां तां तां ताशा एव जानते॥५६॥

मूलम् ५६

सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न । च खिद्यते ।
तस्याश्चर्यदशां तां तां ताशा एव जानते॥५६॥

अन्वयः ५६

(योगी) सन्तुष्टः अपि सन्तुष्टः न ( भवति); खिन्नः अपि च न खिद्यते; तस्य तां तां तादृशाम् आश्चर्यदशाम्. तादृशाः एव जानते ॥५६॥

हिन्दी ५६

ज्ञानी लोकदृष्टि से सन्तोषयुक्त दीखता हुआभी सन्तोषयुक्त नहीं होता है और लोकदृष्टि से खिन्न दखिता हुआ भी खिन्न नहीं होता है, ज्ञानी की इस प्रकारकी दशा को ज्ञानी ही जानते हैं ॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५७

कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः।
शून्याकारा निराकारा निर्मिकारानिरामयाः॥५७॥

मूलम् ५७

कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः।
शून्याकारा निराकारा निर्मिकारानिरामयाः॥५७॥

अन्वयः ५७

संसारः कर्तव्यता एव शून्याकाराः निराकाराः निर्विकाराः निरामयाः सूरयः ताम् न पश्यन्ति ॥५७॥

हिन्दी १७

कर्तव्यता कहिये मेरा यह कर्तव्य है इस प्रकार का जो कार्य का सङ्कल्प है सोई संसार है परन्तु सम्पूर्ण विश्वके नाश होनेपर भी जो वर्तमान रहते हैं और जो निराकार कहिये घटादिके से आकार से रहित हैं और जो सर्वत्र आत्मदृष्टि करनेवाले तथा सङ्कल्पविकल्परूपी रोगसे रहित हैं वे कदापि कर्तव्यता को नहीं देखते हैं अर्थात् किसी कार्य के करने का सङ्कल्प नहीं करते हैं ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५८

अकुर्वन्नपि सङ्क्षोभाव्यग्रःसर्वत्र मूढधीः।
कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः॥५८॥

मूलम् ५८

अकुर्वन्नपि सङ्क्षोभाव्यग्रःसर्वत्र मूढधीः।
कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः॥५८॥

अन्वयः ५८

मूढधीः अकुर्वन् अपि सर्वत्र सङ्क्षोभात् व्यग्रः ( भवति); हि कुशलः तु कृत्यानि कुर्वन् अपि निराकुल: ( भवति ) ॥५८॥

हिन्दी ५८

अज्ञानी पुरुष कर्मो को न करता हुआ भी सर्वत्र सङ्कल्पविकल्प करने के कारण व्यग्र रहता है, और ज्ञानी कार्या को करता हुआ भी निर्विकारचित्त रहता है क्योङ्कि वह तो आत्मसुख के विषें विराजमान होता है ॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५९

सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च ।
सुखं वक्ति सुखं ते व्यवहारेऽपि शान्तधीः॥५९ ॥

मूलम् ५९

सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च ।
सुखं वक्ति सुखं ते व्यवहारेऽपि शान्तधीः॥५९ ॥

अन्वयः ५९

शान्तधीः व्यवहारे अपि सुखम् आस्ते; सुखम् शेते; सुखम् आयाति; ( सुखम् ) च याति; सुखम् वक्ति, सुखम् मुङ्क्ते ॥ ५९॥

हिन्दी २९

प्रारब्ध के अनुसार व्यवहार के विषें वर्तमान भी आत्मनिष्ठा बुद्धिवाला ज्ञानी सुखपूर्वक बैठता है, सुखपूर्वक शयन करता है, सुखपूर्वक आता है, सुखपूर्वक जाता है, सुखपूर्वक कहता है तथा सुखपूर्वक ही भोजन करता है अर्थात् सम्पूर्ण इन्द्रियों के व्यापार को करता है परन्तु आसक्त नहीं होता है क्योङ्कि उस का चित्त तो ब्रह्माकार होता है ॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६

स्वभावाद्यस्य नैवार्तिलाकवद्याहारिणः ।
महातूद इवाक्षोभ्यो गतकेशःस शोभते ॥६॥

मूलम् ६

स्वभावाद्यस्य नैवार्तिलाकवद्याहारिणः ।
महातूद इवाक्षोभ्यो गतकेशःस शोभते ॥६॥

अन्वयः ६०

व्यवहारिणः यस्य स्वभावात् लोकवत् आतिः नैव ( भवति किन्तु ) सः महादः इव अक्षोभ्यः गतक्लेशः शोभते ॥ ६०॥

हिन्दी ६

व्यवहार करते हुए भी ज्ञानी को स्वभाव से ही संसारी पुरुष की समान खेद नहीं हाता है किन्तु वह ज्ञानी बड़े जल के सरावर की समान चलायमान नहीं होता है और निर्विकार स्वरूप में शोभायमान होता है ॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६१

निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते ।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी॥६१॥

मूलम् ६१

निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते ।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी॥६१॥

अन्वयः ६१

मूढस्य निवृत्तिः अपि प्रवृत्तिः उपजायते धीरस्य प्रवृत्तिः अपि निवृत्तिकलभागिनी ( भवति ) ॥ ६१॥

हिन्दी ६१

अमूढ की निवृत्ति कहिये बाहोन्द्रियों को विषयों से निवृत्त करना भी प्रवृत्तिरूप ही होता है क्योङ्कि उस के अहङ्कारादि दूर नहीं होते हैं और ज्ञानी की सांसारिक व्यवहारमें प्रवृत्ति भी निवृत्तिरूप ही होती है क्योङ्कि ज्ञानी को ‘अहं करोमि ’ ऐसा अभिमान नहीं होता है ॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६२

परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढस्य दृश्यते ।
देहे विगलिताशस्य व रागःक विरागता ॥६२॥

मूलम् ६२

परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढस्य दृश्यते ।
देहे विगलिताशस्य व रागःक विरागता ॥६२॥

अन्वयः ६२

मूढस्य प्रायः परिग्रहेषु वैराग्यम् दृश्यते; देहे विगलिताशस्य व रागः ( स्यात् ) व विरागिता ( स्यात् ) ॥ ६२ ॥

हिन्दी ६२

जो मूर्ख देहाभिमानी पुरुष है वही मोक्ष की इच्छासे धन, धाम, स्त्री, पुत्रादिकों का त्याग करता है और जिस का देहाभिमान दूर हो गया है ऐसे जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष का स्त्रीपुत्रादि के विषें न राग होता है, न विराग होता है॥ ६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६३

भावनाभावनासक्ता दृष्टिमूढस्य सर्वदा।
भाव्यभावनया सा तु स्वस्थस्यादृष्टरूपिणी॥६३॥

मूलम् ६३

भावनाभावनासक्ता दृष्टिमूढस्य सर्वदा।
भाव्यभावनया सा तु स्वस्थस्यादृष्टरूपिणी॥६३॥

अन्वयः ६३

मूहस्य दृष्टिः सर्वदा भावनाभावनासक्ता (भवति) स्वस्थस्य तु सा भाव्यभावनया अदृष्टरूपिणी ( भवति ) ॥ ६३ ॥

हिन्दी ६३

मूर्ख देहाभिमानी पुरुष की दृष्टि सर्वदा सङ्कल्प और विकल्प के विषें आसक्त होती है और आत्मस्वरूपके विर्षे स्थित ज्ञानी की दृष्टि यद्यपि सङ्कल्पविकल्पयुक्तसी दीखती है परन्तु तथापि सङ्कल्पविकल्प के लेप से शुद्ध रहती है, क्योङ्कि ज्ञानी को ‘अहं करोमि ऐसा अभिमान नहीं होता है ॥ ६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६४

सर्वारम्भेषु निष्कामो यश्चरेद्वालवन्मुनिः।
न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणेऽपि कर्मणि॥६४॥

मूलम् ६४

सर्वारम्भेषु निष्कामो यश्चरेद्वालवन्मुनिः।
न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणेऽपि कर्मणि॥६४॥

अन्वयः ६४

यः मुनिः बालवत् सर्वारम्भेषु निष्कामः चरेत् तस्य शुद्धस्य कर्मणि क्रियमाणे अपि लेपः न ( भवति ) ॥ ६४ ॥

हिन्दी ६४

तहाँ वादी शङ्का करता है कि, यदि ज्ञानी सङ्कल्पविकल्प कर के क्रिया करता है तो उस की द्वैतबुद्धि क्यों नहीं होती है ? तिस का समाधान करते हैं किजो ज्ञानी पुरुष बालक की समान निष्काम होकर प्रारब्धानुसार प्राप्त हुए कर्मो के विषें प्रवृत्त होता है उस निरंहकार ज्ञानी को कर्म करनेपर भी कर्तृत्व का दोष नहीं लगता है क्यों के उस को तो कर्तापने का अभिमानही नहीं होता है ॥ ६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६५

स एव धन्य आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः ।
पश्यञ्मृण्वन्स्टशअिघनश्ननिस्तषमानसः॥६५॥

मूलम् ६५

स एव धन्य आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः ।
पश्यञ्मृण्वन्स्टशअिघनश्ननिस्तषमानसः॥६५॥

अन्वयः ६५

सः एव आत्मज्ञः धन्यः यः सर्वभावेषु समः ( भवति अत एव सः) पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अनन् ( अपि) निस्तर्षमानसः ( भवति ) ॥ ६५ ॥

हिन्दी ६५

वही धैर्यवान ज्ञानी धन्य है, जो सम्पूर्ण भावों में समानबुद्धि रखता है, इस कारण ही वह देखता हुआ, श्रवण करता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूङ्घता हुआ और भोजन करता हुआ भी सब प्रकार की तृष्णारहित मनवाला होता है ॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६६

कसंसारक चाभासः क्व साध्यं क च साधनम् ।
आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्य सर्वदा॥६६॥

मूलम् ६६

कसंसारक चाभासः क्व साध्यं क च साधनम् ।
आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्य सर्वदा॥६६॥

अन्वयः ६६

आकाशस्य इव सवदा निर्विकल्पस्य धीरस्य सन्तारः क आभासः च क साध्यम् व साधनम् च क ॥ ६६ ॥

हिन्दी ६६

जो धैर्यवान ज्ञानी है, वह सम्पूर्ण सङ्कल्पविकल्परहित होता है, उस को संसार कहां ? और संसारकाभान कहाँ और स्वर्गादिसाध्य कहां तथा यज्ञ आदि साधन कहां ! क्योङ्क वह सदा आकाशवत् निर्लेप और कल्पनारहित होता है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६

स जयत्यर्थसन्न्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधियस्य वर्तते ॥६॥

मूलम् ६

स जयत्यर्थसन्न्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधियस्य वर्तते ॥६॥

अन्वयः ६७

पूर्णस्वरमविग्रहः सः अर्थसन्न्यासी जयति यस्य अनबच्छिन्न अकृत्रिमः समाधिः वर्तते ॥ ६७ ॥

हिन्दी ६

पूर्ण स्वभाववाला है स्वरूप जिस का ऐसे अर्थ कहिये दृष्ट और अदृष्ट फल को त्यागनेवाले की जय ( सर्वोपरि उन्नति ) होती है, जिस का पूर्णस्वरूप आत्मा के विषें स्वाभाविक समाधि होता है ॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६८

बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्त्वो महाशयः ।
भेगमोक्षनिराकाङ्क्षी सदा सात्रनीरसः॥६८॥

मूलम् ६८

बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्त्वो महाशयः ।
भेगमोक्षनिराकाङ्क्षी सदा सात्रनीरसः॥६८॥

अन्वयः ६८

अत्र बना उक्तत किम् ? ( यतः ) ज्ञानतत्त्व: महाशयः भोगमे क्षानराकाङ्क्ष सदा सत्र नीरमः ( भवति ॥६८॥

हिन्दी ६८

ज्ञानी पुरुष के अनेक प्रकार के लक्षण हैं उन का पूर्णरीतिसे तो वर्णन करना कठिन है परन्तु ज्ञानी पुरुषका एक साधारण लक्षण यह है कि यहां ज्ञानीक बहुत लक्षण कहने से कुछ प्रयोजन नहीं है. कम्बल साधारण लक्षण यह है कि, ज्ञानी आत्मतत्व का जाननेवाला, आत्मस्वरूप के वि मन, भोग और मोक्षकी इच्छा से रहित तथा सदा याग आदि साधनों के विर्षे प्रीति न करनेवाला होता है ॥ ६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६९

महदादि जगद्वैतं नाममात्रविजृम्भितम् ।
विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते ॥६९॥

मूलम् ६९

महदादि जगद्वैतं नाममात्रविजृम्भितम् ।
विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते ॥६९॥

अन्वयः ६९

दैतम् नाममात्रविजृम्भितम् महदादि जगत् विहाय शुद्धबोधस्य किम् कृत्यम् अवशिष्यते ॥ ६९ ॥

हिन्दी ६९

द्वैत रूप से भसनेवाले, नाममात्र ही भिन्नरूपसे भासमान, महत्तत्व आदि जगत् के विषें कल्पना को दूर कर के स्वप्रकाश चैतन्यस्वरूप ज्ञानी को क्या कई कार्य करना बा की रहता है ? अर्थात् कोई कार्य करना नहीं रहता है ॥ ६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७

भ्रमभूतमिदं सर्व किञ्चिन्नास्तीति निश्चयी ।
अध्क्ष्यस्फरणः शुद्धः। स्वभावेनैव शाम्याते॥७॥

मूलम् ७

भ्रमभूतमिदं सर्व किञ्चिन्नास्तीति निश्चयी ।
अध्क्ष्यस्फरणः शुद्धः। स्वभावेनैव शाम्याते॥७॥

अन्वयः ७०

इदम् सर्वम् भ्रमभूतम् (परमार्थतः) किञ्चित् न अस्ति इति निश्चयी अलक्ष्यस्फुग्णः शुद्धः स्वभावेन एव शाम्यति ॥ ७० ॥

हिन्दी ७०

अधिष्ठान का साक्षात्कार होनेपर यह सम्पूर्ण विश्व ‘भ्रममात्र है, परमार्थहाष्ट से कुछ भी नहीं है, इस प्रकार जिस का निश्चय हुआ ह र स्वप्रकाश चेतनस्वरूप तथा स्वरूप के साक्षात्कार से दूर हो गया है अज्ञानरूप मल जिस का ऐसा ज्ञानी स्वभाव से ही शान्ति को प्राप्त होता है।॥ ७० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७

शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्यतः।
क विधिः क च वैराग्यं क त्यागःकशमोऽपिवा॥७॥

मूलम् ७

शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्यतः।
क विधिः क च वैराग्यं क त्यागःकशमोऽपिवा॥७॥

अन्वयः ७१

शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावम् अपश्यतः ( ज्ञानिनः ) विधिः क वैराग्यम् व त्यागः व अपि वा शमः च क ॥ ७१ ॥

हिन्दी ७१

शुद्ध स्फुरणरूप अर्थात् स्वप्रकाशचेतनस्वरूप और दृश्य पदार्थोको भी न देखनेवाले ज्ञानी को किसी कर्म के करने की विधि कहां ? और विषयों से वैराग्य कहां ? और त्याग कहां? तथा शान्तिभो करना कहां? यह सब तो ता हो सकता है जब सांसारिक पदार्थाक वि हाट होती है ॥ ७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७२

स्फुरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यतः ।
क्व बन्धः क च वा मोक्षः व हर्षेःक् विषादता॥७२॥

मूलम् ७२

स्फुरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यतः ।
क्व बन्धः क च वा मोक्षः व हर्षेःक् विषादता॥७२॥

अन्वयः ७२

अनन्तरूपेण स्फुरतः प्रकृतिम् च न पश्यतः (ज्ञानिनः) बन्ध. व मोक्ष कहः क वा विषान्ता च क ॥ ७२ ॥

हिन्दी ७२

जो ज्ञानी है वह अनन्तरूप कर के भासता है और आत्माकोजानता है और देहादेि के विषें दृष्टि नहीं लगाता है, उस को संसार का बन्धन नहीं होता है, मोक्ष की इच्छा नहीं होती है, हर्ष नहीं होता है और विषाद भी नहीं होता है ॥ ७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७३

बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्र विवतते।
निर्मपो निरहङ्कारो निष्कामः शोभते बुधः॥७३॥

मूलम् ७३

बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्र विवतते।
निर्मपो निरहङ्कारो निष्कामः शोभते बुधः॥७३॥

अन्वयः ७

बुद्धिपर्यन्तसम्मारे मायामात्रम् विवर्त्तते ( अतः) बुधः निर्ममः निहिङ्कारः निष्कामः शोभते ॥ ७ ॥

हिन्दी ७३

यह जगत् अज्ञान से भासता है और ज्ञान से जब मायामात्र (अज्ञान) निवृत्त हो जाता है तब ज्ञानस्वरूप आत्मा ही शेष रहता है इस कारण ज्ञानी को इस संसारमें ममता अहङ्कार तथा इच्छा नहीं होती है, इस कारण ब्रह्माकारात्तेकर के अत्यन्त शोभायमान होता है ॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७४

अक्षयं गतसन्तापमात्मानं पश्यतो मुनः।
क विद्या कच वा विश्वङ्क देहाऽहं ममति वा ॥७४॥

मूलम् ७४

अक्षयं गतसन्तापमात्मानं पश्यतो मुनः।
क विद्या कच वा विश्वङ्क देहाऽहं ममति वा ॥७४॥

अन्वयः ७४

अक्षयम् गतसन्तापम् आत्मानम् पश्यतः मुनेः विद्या क वा विषयक दहः वा अहम् मम इति च क ॥ ७४ ॥

हिन्दी ७४

अविनाशी सन्तापरहित ऐसे आत्मस्वरूप का जिसको ज्ञान हुआ है ऐसे ज्ञानी को विद्या (शास्त्र ) कहां ? और विश्व कहां ? और देह कहां ? तथा अहम्ममभाव कहाँ ? क्योङ्कि उस को आत्मा से भिन्न अन्य स्फुरण ही नहीं होता है ॥ ७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७९

निरोधादीनि कर्माणिजहाति जडधीयदि।
मनोरथान्प्रलापांश्च कर्तुमानोत्यतत्क्षणात्॥७९॥

मूलम् ७९

निरोधादीनि कर्माणिजहाति जडधीयदि।
मनोरथान्प्रलापांश्च कर्तुमानोत्यतत्क्षणात्॥७९॥

अन्वयः ७५

जडधीः यदि निरोधादीनि कर्माणि जहाति ( तर्हि ) अतत्क्षणात् मनोरथान प्रलापान च कर्तुम् आनोति ॥ ७५ ॥

हिन्दी ७५

जो मूढबुद्धि देहाभिमानी पुरुष है वह अति परिश्रम कर के मन का निरोध करता है परन्तु निरोध समाधिके छूटते ही उस का मन फिर तुरन्त ही अनेक प्रकार से सङ्कल्प विकल्प करने लगता है और प्रलाप आदि सम्पूर्ण व्यापारों को करने लगता है इस कारण ज्ञान के बिना निरोध कुछ काम नहीं देता है ॥ ७५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७६

मन्दः श्रुत्वापि तद्वस्तु न जहाति विमूढताम् ।
निर्विकल्पो बहियत्नादन्तविषयलालसः॥७६॥

मूलम् ७६

मन्दः श्रुत्वापि तद्वस्तु न जहाति विमूढताम् ।
निर्विकल्पो बहियत्नादन्तविषयलालसः॥७६॥

अन्वयः ७६

मन्दः तत् वस्तु श्रुत्वा अपि विमूहताम् न जहाति (अतः मूढः ) यत्नात् बहिः निर्विकल्पः अन्तः विषयलालस: (भवति)॥ ७६ ॥

हिन्दी ७६

जो देहाभिमानी मूढ पुरुष है वह वेदान्तशास्त्रके अनेक ग्रन्थों के द्वारा आत्मस्वरूप को सुनकर भी देहाभिमान को नहीं त्यागता है. यद्यपि अति परिश्रम करके ऊपर से त्याग दिखाता है परन्तु मन में अनेक विषयवासना रहती है ॥ ७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७७

ज्ञानाइलित का यो लोकदृष्टयापि कर्मकृत् ।
नाप्नोत्यवसरं कर्तुं वक्तुमेव न किञ्चन ॥ ७७॥

मूलम् ७७

ज्ञानाइलित का यो लोकदृष्टयापि कर्मकृत् ।
नाप्नोत्यवसरं कर्तुं वक्तुमेव न किञ्चन ॥ ७७॥

अन्वयः ७७

यः ज्ञानात् गलितकर्मा ( सः ) लोकदृष्टया कर्मका अपि किञ्चन कर्तुम् न वक्तुम एव (च) अवसरम् न आमोति॥७७॥

हिन्दी ७

ज्ञानी लोकाचार के अनुसार कर्म करता है परन्तु ज्ञान के प्रतापले कर्मफल की इच्छा नहीं करता है क्योङ्कि वह केवल आत्मस्वरूप के विषें लीन रहता है तिस से उस को कर्म करने का अथवा कहने का अवसर नहीं मिलता है ॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७८

क तमः क प्रकाशोवा हानं क च न किञ्चन ।
निर्विकारस्य धीरस्य निरातङ्कस्य सर्वदा॥७८॥

मूलम् ७८

क तमः क प्रकाशोवा हानं क च न किञ्चन ।
निर्विकारस्य धीरस्य निरातङ्कस्य सर्वदा॥७८॥

अन्वयः ७८

सर्वदा निरातकस्य निर्विकारस्य धीरस्य तमः कवा प्रकाशः क हानम् च क ( तस्य ) किश्चन न ( भवति ) ॥७८॥

हिन्दी ७८

जो ज्ञानी है वह निर्विकार होता है, उस को काल आदि का भय नहीं होता है, उस को अन्धकार का भान नहीं होता है, प्रकाश का भान नहीं होता है, उसको किसी बात की हानि नहीं होती है, भय नहीं होता है, वह सर्वदा मुक्त होता है ॥ ७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७९

व धैर्य क विवेकित व निरातङ्कतापिवा।
अनिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्सभावस्य योगिनः॥७९॥

मूलम् ७९

व धैर्य क विवेकित व निरातङ्कतापिवा।
अनिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्सभावस्य योगिनः॥७९॥

अन्वयः ७१

तिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्वभावस्य योगिनः धैर्यम कविवेकित्वम् क अपि च निरातङ्कता क ॥ ७१ ॥

हिन्दी ७९

ज्ञानी का स्वभाव किसी के ध्यान में नहीं आता है। क्योङ्कि ज्ञानी स्वभावरहित होता है उस का धीरजपना, ज्ञानीपना तथा निर्भयपना नहीं होता है ॥ ७९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८

न स्वर्गो नैव नरको जीवन्मुक्तिन चैव हि ।
बहुनात्र किमुक्तेन योगदृष्टयान किञ्चन ॥८॥

मूलम् ८

न स्वर्गो नैव नरको जीवन्मुक्तिन चैव हि ।
बहुनात्र किमुक्तेन योगदृष्टयान किञ्चन ॥८॥

अन्वयः ८

अत्र बहुना उक्तेन किम योगदृष्टया स्वर्गः न नरक: न एव हि जीवन्मुक्तिः च एव न, किश्चन न (भवति )॥८॥

हिन्दी ८

जिस ज्ञानी की सर्वत्र आत्मदृष्टि हो जाती है उसको स्वर्ग, नर्क और मुक्ति आदि का भेद नहीं होता है अर्थात् अधिक कहने से क्या प्रयोजन है, ज्ञानी पुरुष को किसी प्रकार का भी भेद नहीं भासता है ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८

नैवं प्रार्थयते लाभं नालाभेनानुशोचति।
धीरस्य शीतलं चित्तममृतेनैव पूरितम् ॥८॥

मूलम् ८

नैवं प्रार्थयते लाभं नालाभेनानुशोचति।
धीरस्य शीतलं चित्तममृतेनैव पूरितम् ॥८॥

अन्वयः ८१

(धीरः) लामम् प्रार्थयते न एवम् अलामेन अनुशोचति न ( अतः ) धीरस्य चित्तम् अमृतेन पूरितम् शीतलमा एव ( भवति ) ॥ ८१ ॥

हिन्दी ८१

जो ज्ञानी है वह लाभ की इच्छा नहीं करता है और लाभ नहीं होते तो शोक नहीं करता है और इस कारण ही धैर्यवान् ज्ञानी का चित्तज्ञानामृत से परिपूर्ण और इसी कारण शीतल कहिये तापत्रयरहित होता है ॥ ८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८२

नशान्तं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निन्दति।
समदुःखसुखस्तृप्तः किञ्चित्कृत्यं न पश्यति ॥ ८२॥

मूलम् ८२

नशान्तं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निन्दति।
समदुःखसुखस्तृप्तः किञ्चित्कृत्यं न पश्यति ॥ ८२॥

अन्वयः ८२

निष्कामः शान्तम् न स्तौति; दुष्टम् अपि न निन्दति, एसः (सन ) समदुःखसुखः (भवति ) ( निष्कामत्वात ) किश्चित् कृत्यम् न पश्यति ॥८२॥

हिन्दी ८२

जो पुरुष कामनाशून्य ज्ञानी है वह किसी शान्त पुरुष को देखकर प्रशंसा नहीं करता है और दुष्ट को देखकर निन्दा नहीं करता है क्योङ्कि वह अपने ज्ञानरूपी अमृत से तृप्त होता है तिस कारण सुखदुःख की कल्पना नहीं करता है, तथा किसी कृत्य को नहीं देखता है ॥ ८२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८३

धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं न दिदृक्षति ।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न तोनचजीवति॥८३॥

मूलम् ८३

धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं न दिदृक्षति ।
हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न तोनचजीवति॥८३॥

अन्वयः ८३

हर्षामर्षविनिर्मुक्तः धीरः संसारम् न देटि; आत्मानम् न दिदृक्षति; न मृतः ( भवति ); न च जीवति ॥ ८३ ॥

हिन्दी ८३

जो धैर्यवान अर्थात् ज्ञानी है वह संसार का द्वेष नहीं करता है तथा आत्मा को देखने की इच्छा नहीं करता है, क्योङ्कि वह स्वयं ही आत्मस्वरूप है इस कारण उसको हर्ष तथा शोक नहीं होता है और जन्ममरणरहित होता है॥ ८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८४

निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च ।
निश्चिन्तःस्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः॥ ८४॥

मूलम् ८४

निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च ।
निश्चिन्तःस्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः॥ ८४॥

अन्वयः ८४

पुत्रारादी निःस्नेहः, विषयेषु च निष्कामः, स्वशरीरे मपि निश्चिन्तः; निराशः, बुधः शोभते ॥ ८४ ॥

हिन्दी ८४

पुत्र स्त्री आदि के विषेप्रीति न करनेवाला, विषयोङ्के नादिक की चिन्ता न करनेवाला, इस प्रकार सर्वत्र आशारहित ज्ञानी शोभा को प्राप्त होता है ॥ ८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८५

तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथा पतितवर्तिनः।
स्वच्छन्दं चरतो देशान्यवास्त-मितशायिनः॥ ८५॥

मूलम् ८५

तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथा पतितवर्तिनः।
स्वच्छन्दं चरतो देशान्यवास्त-मितशायिनः॥ ८५॥

अन्वयः ८५

यत्रास्तमितशायिनः देशान् स्वच्छन्दम् चरतः, वथापतितवर्तिनः धीरस्य सर्वत्र तुष्टि ( धवनि ) ॥ ८५ ॥

हिन्दी ८५

जो ज्ञानी पुरुष है, उस को जो कुछ प्रारब्धानुसार मिल जाय उसस ही वह वर्ताव करता है और परम सन्तोपको प्राप्त होता है, तदनन्तर अपनी दृष्टि जिधर को उठ जाती है उनी देशों में विचरता है और जहां ही सूर्य अस्त होय तहां ही शयन करता है ॥ ८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८६

पततूहेतु वा देहो नास्य चिन्ता महात्मनः ।
स्वभावभूमिविश्रान्तिविस्मृताशेषसंसृतेः॥८६॥

मूलम् ८६

पततूहेतु वा देहो नास्य चिन्ता महात्मनः ।
स्वभावभूमिविश्रान्तिविस्मृताशेषसंसृतेः॥८६॥

अन्वयः ८६

देहः पततु वा उदेतु, स्वभावभूमिविश्रान्तिविस्मृताशेपसम्मृतेः महात्मनः अस्य चिन्ता न ( भवति ) ॥८६ ॥

हिन्दी ८६

देह नष्ट होय अथवा रहे परन्तु अपने स्वरूपरूपी भूमि के विश्रामकर के सम्पूर्ण संसारकोभूलनेवाले ज्ञानीको इस देह की चिन्ता नहीं होती है ॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८७

अकिञ्चनः कामचारो निन्द्रश्छिन्नसंशयः ।
असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः॥८७॥

मूलम् ८७

अकिञ्चनः कामचारो निन्द्रश्छिन्नसंशयः ।
असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः॥८७॥

अन्वयः ८७

अकिञ्चनः कामचारः निईन्दः छिन्नसंशयः सर्वभावेषु असक्तः वुधः केवल: रमते ॥ ८७ ॥

हिन्दी ८७

जो ज्ञानी है वह इकला ही आत्मस्वरूप के विषें रमता है, कुछ पास नहीं रखता है, तथापिअपनी इच्छानुसार बर्ता करता है, सुखदुःखते रहित होता है, ज्ञानी को संशय नहीं होता है और सम्पूर्ण विषयों से विरक्त रहता है॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८८

निर्ममः शोभते धीरः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
सुभिन्नहृदयग्रन्थिविनिधूतरजस्तमः॥८८॥

मूलम् ८८

निर्ममः शोभते धीरः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
सुभिन्नहृदयग्रन्थिविनिधूतरजस्तमः॥८८॥

अन्वयः ८८

निर्ममः समलोष्टाश्मकाञ्चनः सुभिन्नहृदयग्रन्थिः विनिर्धूतरजस्तमः धीरः शोभते ॥ ८८ ॥

हिन्दी ८८

ममता का त्यागनेवाला, मट्टी. पत्थर और सुवर्णको समान माननेवाला आर दूर हो गई है हृदय की अज्ञानरूपी ग्रन्थि जिस की ऐसा और दूर हो गये हैं रज और तमगुण जिस के ऐसा ज्ञानी शोभा को प्राप्त होता है ॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८९

सर्वत्रानवधानस्य न किञ्चिद्वासना हृदि ।
मुक्तात्मानो वितृप्तस्य तुलना केन जायते ॥ ८९॥

मूलम् ८९

सर्वत्रानवधानस्य न किञ्चिद्वासना हृदि ।
मुक्तात्मानो वितृप्तस्य तुलना केन जायते ॥ ८९॥

अन्वयः ८९

सर्वत्र अनवधानस्य हदि किश्चित् वासना न (भवति); (अतः) मुक्तात्मनः वितृप्तस्य ( तस्य) केन तुलना जायते ॥ ८९॥

हिन्दी ८९

जिस की सम्पूर्ण विषयों में आसक्ति नहीं है और जिसके हृदय के विषें किचिन्मात्र भी वासना नहीं है और जो मात्मानन्द के विषें तृप्त है, ऐसे जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुषकी समान त्रिलो की में कौन हो सकता है ॥ ८९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ९

जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपिन पश्यति।
ब्रुवन्नपि न च ब्रूते कोऽन्यो निवासनाहते ॥९॥

मूलम् ९

जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपिन पश्यति।
ब्रुवन्नपि न च ब्रूते कोऽन्यो निवासनाहते ॥९॥

अन्वयः ९

(यः ) जानन् अपि न जानाति, पश्यन् अपि न पश्यति ब्रुान् अपि च न ब्रूते; ( सः) निर्वासनात् ऋते अन्यः कः ? ॥९ ॥

हिन्दी ९

जो जानता हुआ भी नहीं जानता है, देखता हुआभी नहीं देखता है, बोलता हुआ भी नहीं बोलता है, ऐसा पुरुष ज्ञानी के सिवाय जगत् में और दूसरा कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है, क्योङ्कि ज्ञानी को अभिमान तथा वासना नहीं होती है ॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ९

भिक्षुर्वा भूपतिवापि यो निष्कामः स शोभते।
भावेषु गलिता यस्य शोभनाशोभना मतिः॥९॥

मूलम् ९

भिक्षुर्वा भूपतिवापि यो निष्कामः स शोभते।
भावेषु गलिता यस्य शोभनाशोभना मतिः॥९॥

अन्वयः ९

यस्य मावेषु शोमनाशीमना मतिः गलिता, (एताहुशः यः) निष्कामः सः भिक्षुः वा अपि वा भूपतिः शोभते॥९॥

जिस ज्ञानी की शुभ पदार्थों में इच्छा बुद्धि नहीं होती है और अशुभ पदार्थों में द्वेषबुद्धि नहीं होती है ऐसा जो कामनारहित ज्ञानी है वह राजा हो तो विदेह ( जनक) समान शोभित होता है और भिक्षु होय तो परम ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्यमुनि की समान शाभाको प्राप्त होता है क्यों कि आत्मानद के विषें मन पुरुषको राज्य बन्धन नहीं करता है और त्याग माक्षदायक नहीं होता है । ९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ९२

कस्वाच्छन्ध कसङ्कोचःकवा तत्वविनिश्चयः ।
निर्व्याजाजवभूतस्व चरितार्थस्य योगिनः॥९२॥

मूलम् ९२

कस्वाच्छन्ध कसङ्कोचःकवा तत्वविनिश्चयः ।
निर्व्याजाजवभूतस्व चरितार्थस्य योगिनः॥९२॥

अन्वयः ९२

नियाजावभूतस्य चरितार्थस्य योगिनः स्वान्छन्धम् क सङ्कोचः क वा तत्त्वांवनिश्चयः क ॥ ९२ ॥

हिन्दी ९२

जिस पुरुष का मन कपटरहित और कोमलतायुक्त है और जिसने आत्मज्ञानरूपी कार्य को सिद्ध किया है, ऐसे जीवन्मुक्त पुरुष को स्वाधीनपना नहीं होता है और पराधीनपना भी नहीं होता है, तत्व का निश्चय करनाभी नहीं होता है, क्योङ्कि उस का देहाभिमान दूर हो जाता है ॥ ९२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ९३

आत्मविश्रान्तितृप्तेन निराशेन गतातिना ।
अन्तर्यदनुभूयेत तत्कथं कस्य कथ्यते॥९३॥

मूलम् ९३

आत्मविश्रान्तितृप्तेन निराशेन गतातिना ।
अन्तर्यदनुभूयेत तत्कथं कस्य कथ्यते॥९३॥

अन्वयः ९३

आत्मविश्रान्तितृप्तेन निराशेन गतातिना (ज्ञानिना) अन्तः यत् अनुभूयेत, तत् कथम् कस्य कथ्यते ॥ ९३ ॥

हिन्दी ९३

जो पुरुष आत्मस्वरूप के विषें विश्रामरूपअमृतका पान कर के तृप्त हुआ है और आशामात्र निवृत्त हो गई है तथा जिस के भीतर की पीडा शान्त हो गई है ऐसा ज्ञानी अपने अन्तःकरण के विषें जो अनुभव करता है, उस को प्राणी किस प्रकार कह सकता है और उस अनुभव को किस को कहां जाय ? क्योङ्कि इस का आधिकारी दुर्लभ है ॥ ९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ९४

सुप्तोऽपिन सुषुप्तौ च स्वप्नेऽपि शायतो नच।
जागरेऽपि न जागति धीरस्तृप्तःपदे पदे ॥९४ ॥

मूलम् ९४

सुप्तोऽपिन सुषुप्तौ च स्वप्नेऽपि शायतो नच।
जागरेऽपि न जागति धीरस्तृप्तःपदे पदे ॥९४ ॥

अन्वयः ९४

पदे पदे तृप्तः धीः सुषुमो भी च न सुप्ता, स्वप्ने अपि च न शयितः, जागरे अपि न जागति ॥ ९४ ॥

हिन्दी ९४

ज्ञानी की सुषुप्ति अवस्था दीखती है परन्तु ज्ञानी सुषुप्ति के वशीभूत नहीं होता है, स्वप्नावस्था भासती है परन्तु ज्ञानी शयन नहीं करता है किन्तु साक्षीरूप रहता हे और जाग्रदअवस्था भासती है परन्तु ज्ञानी जाग्रदवस्था के विकारों से अलग रहता है क्योङ्कि यह तो न अवस्था बुद्धि की है और जो बुद्धि से पर है और आत्मानन्द से तृप्त है ॥ ९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ९५

ज्ञः सचिन्तोऽपि निश्चिन्तः सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः।
सुबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहङ्कारोऽनहङ्कृती॥९५॥

मूलम् ९५

ज्ञः सचिन्तोऽपि निश्चिन्तः सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः।
सुबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहङ्कारोऽनहङ्कृती॥९५॥

अन्वयः ९५

ज्ञः सचिन्तःअपि निश्चिन्तः ( भवति ), सेन्द्रियः अपि निरिन्द्रियः ( भात ); सुबुद्धिः अपि निद्धिः ( भवति ); साहङ्कारः अपि निरहङ्कृतिः (भवात) ॥ ९५ ॥

हिन्दी ९५

ज्ञानी को चिन्ता है ऐसा लोकों के देखने में आता है परन्तु ज्ञानी निश्चित होता है, ज्ञानी इन्द्रियोन्तहित दीखता है परन्तु वास्तव में ज्ञान इन्द्रियरहित होता है, व्यवहारमें ज्ञानी चतुरबुद्धिवाला दीखता है, परन्तु बानी बुद्धिरहित होता है और ज्ञानी अहङ्कारयुक्तसा दीखता है परन्तु ज्ञानी को अहङ्कार का लेश भी नहीं होता है ॥ ९५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २६

न सुखीन च वा दुःखी न विरक्तो न सङ्गवान्।
न मुमुक्षुने वा मुक्तो न किञ्चिन्नच किञ्चन॥ २६॥

मूलम् २६

न सुखीन च वा दुःखी न विरक्तो न सङ्गवान्।
न मुमुक्षुने वा मुक्तो न किञ्चिन्नच किञ्चन॥ २६॥

अन्वयः १६

( ज्ञानी ) न सुखी; वा न च दुःखी; न विरक्तः, न सङ्गवान् न मुमुक्षु वा न मुक्तः, न किञ्चित् न च किञ्चन ॥१६॥

हिन्दी ९६

ज्ञानी सुखी नहीं होता है, दुःखी नहीं होता है, विरक्त नहीं होता है, आसक्त नहीं होता है, मोक्षकी इच्छा नहीं करता है, मुक्त नहीं होता है, सत्रूप, अनिर्वचनीय होता है ॥ ९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २७

विक्षेपेऽपिन विभिप्तःममाधौ न ममाधिमान् ।
जाड्यापन जडो धन्यः पाण्डित्यऽपिन पण्डितः॥२७॥

मूलम् २७

विक्षेपेऽपिन विभिप्तःममाधौ न ममाधिमान् ।
जाड्यापन जडो धन्यः पाण्डित्यऽपिन पण्डितः॥२७॥

अन्वयः ९७

धन्यः विक्षपे अपि लिक्षिप्त. न, ममाचौ समाधिमान् म, जाडये अपि जड. न; पाण्डिन्ये अपि पण्डित न ॥ ९७ ॥

हिन्दी ९७

ज्ञानी का विक्षेप दीखता है परन्तु ज्ञानी विक्षिप्त नहीं होता है, ज्ञानी की समाधि दीखती है परन्तु ज्ञानी समाधि नहीं करता है, ज्ञानी के विपें जडपना दीखता है परन्तु ज्ञानी जड नहीं होता है तथा ज्ञानी में पण्डितपना दोखता है परन्तु ज्ञानी पण्डित नहीं होता है, क्योङ्कि यह सम्पूर्ण विकार देहाभिमानी के वर्षे रहते हैं ॥ ९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ९८

मुक्तो यथास्थितिव यः कृतकर्तव्यनिवृतः।
समः सर्वत्र वैतष्ण्यान्न स्मरत्यकृतं कृतम् ॥ ९८॥

मूलम् ९८

मुक्तो यथास्थितिव यः कृतकर्तव्यनिवृतः।
समः सर्वत्र वैतष्ण्यान्न स्मरत्यकृतं कृतम् ॥ ९८॥

अन्वयः ९८

यथास्थितिस्वस्थः कृत कर्नव्यनिर्वृतः सर्वत्र समः मुक्तः बैतडण्यात कृतम् अकृतम् न स्मरति ॥ ९८॥

हिन्दी ९८

जैसी अवस्था प्राप्त होय उसमें ही स्वस्थ रहनेवाला और किये हुए और कर्तव्यकर्मो के विषें अहङ्कार और उद्वेग न करनेवाला अर्थात् सन्तोषयुक्त तथा सर्वत्र आत्मदृष्टि करनेवाला जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष तृष्णा के न होने से यह कार्य किया, यह नहीं किया ऐसा स्मरण नहीं करता है ॥ ९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ९९

न प्रीयते वन्धमानो निन्द्यमानो न कुप्यति ।
नैवोदिजति मरणेजीवने नाभिनन्दति॥९९॥

मूलम् ९९

न प्रीयते वन्धमानो निन्द्यमानो न कुप्यति ।
नैवोदिजति मरणेजीवने नाभिनन्दति॥९९॥

अन्वयः ९९

(ज्ञानी) वन्द्यमानः प्रीयते न निन्द्यमानः कुप्यति न; मरणे उद्विजति न; एव जीवने अभिनन्दति न ॥ ९९ ॥

हिन्दी ९९

जो ज्ञानी है उस की कोई प्रशंसा करे तो प्रसन्न नहीं होता है और निन्दा करे तो कोप नहीं करता है, तिसी प्रकार मृत्यु भी सामने आता दीखे तो भी ज्ञानी घबडता नहीं है और बहुत वर्षाम्पर्यन्त जीवें तो भी प्रसन्न नहीं होता है ॥ ९९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः १००

न धावति जनाकीर्ण नारण्यमुपशान्तधीः ।
यथा तथा यत्र तत्र सम एवावतिष्ठते ॥१००॥

मूलम् १००

न धावति जनाकीर्ण नारण्यमुपशान्तधीः ।
यथा तथा यत्र तत्र सम एवावतिष्ठते ॥१००॥

अन्वयः १००

उपशान्तधीः जनाकीर्णम् न धावति, (तथा ) अरण्यम् न (धावति) किन्तु यत्र तत्र यथा तथा समः एव अवतिष्ठते ॥ १००॥

हिन्दी १००

जिस ज्ञानी की वृत्ति शान्त हो गई है वह जहां मनुष्यों की सभा होय तहां जाने की इच्छा नहीं करता है, तिसी प्रकार निर्जन स्थान जो वन तहां भी जाने की इच्छा नहीं करता है, किन्तु जिस समय जो स्थान मिल जाय तहां ही स्थिति कर के निवास करता है, क्योङ्कि नगरमें तथा वन में ज्ञानी की एक समान बुद्धि होती है अर्थात् ज्ञानी की दृष्टि में जैसा नगर है वैसा ही वन होता है॥१००॥

इति श्रीमदष्टावक्रमनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं शान्तिशतकं नामाटादश प्रकरणं समाप्तम् ॥१८॥