विश्वास-प्रस्तुतिः १
तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा ।
तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यमे- का की रमते तु यः॥१॥
मूलम् १
तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा ।
तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यमे- का की रमते तु यः॥१॥
अन्वयः १
यः तु तृप्तः स्वच्छेन्द्रियः (सन् ) नित्यम् ए का की रमते; तेन ज्ञानफलं तथा योगाभ्यासफलम् प्राप्तम् ॥ १॥
हिन्दी १
अब अन्य पुरुषोङ्की भी ज्ञान में प्रवृत्ति होने के अर्थ तत्वज्ञान के फल का निरूपण करने की इच्छा करते हुए गुरु प्रथम तत्वज्ञान की दशा का निरूपण करते हैं जो पुरुष इन्द्रियों को विषयों से हटाकर और अपने स्वरूपमें ही तृप्त होकर विषयसंयोग के बिना इकला ही सदा आत्मा के विषें रमण करता है, उस पुरुषने ही ज्ञान का तथा योग का फल पाया है ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २
न कदाचिजगत्यस्मिस्तत्त्वज्ञो हन्त खिद्यति ।
यत एकेन तेनेदं पूर्ण ब्रह्माण्डमण्डलम् ॥२॥
मूलम् २
न कदाचिजगत्यस्मिस्तत्त्वज्ञो हन्त खिद्यति ।
यत एकेन तेनेदं पूर्ण ब्रह्माण्डमण्डलम् ॥२॥
अन्वयः २
हन्त ! तत्वज्ञः कदाचित् अस्मिन् जगति न खिद्यति; यतः एकेन इदं ब्रह्माण्डमण्डलम् पूर्णम् ॥ २ ॥
हिन्दी २
हे शिष्य ! इस संसार के विषें आत्मतत्वज्ञानी कदापि खेद को नहीं प्राप्त होता है, क्योङ्कि तिस इकले से ही यह ब्रह्माण्डमण्डल पूर्ण है, सो दूसरे के न होने से खेद किस प्रकार हो सकता है, सोई श्रुतिमें भी कहा है “द्वितीया? भयं भवति ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ३
नजातु विषयाः केपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी ।
सल्लकीपल्लवप्रीतभिवेभं निम्बपल्लवाः ॥ ३॥
मूलम् ३
नजातु विषयाः केपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी ।
सल्लकीपल्लवप्रीतभिवेभं निम्बपल्लवाः ॥ ३॥
अन्वयः ३
सल्लकीपल्लवप्रीतम् इभं निम्बपलवाः इव अमी के अपि विषयाः स्वारामं जातु न हर्षयन्ति ॥ ३ ॥
हिन्दी ३
जो निरन्तर आत्मा के विषें रमता है, वह आत्माराम कहाता है, तिस आत्माराम पुरुष को जगत् के कोई विषय क्या प्रसन्न कर सकते हैं, जिस प्रकार एक महामदोन्मत्त हस्ती वन में हजार हस्तियों के झुण्ड में विहार करता है और परम मधुरस्वादवाली सल्लकीनामक लता के कोमल पत्तों का प्रेमपूर्वक भक्षण करता है, और कडुवे नीम के पत्तों से प्रसन्न नहीं होता है, तिसी प्रकार ज्ञानी भी परम मधुर आत्मा का स्वाद लेता है और विषयों के सुखों को परम कडुआ जानकर त्याग देता है अर्थात् उन की ओर दृष्टि भी नहीं देता है ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ४
यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासिता।
अभुक्तेषु निराकाङ्क्षी ताहशो भवदुलभः॥४॥
मूलम् ४
यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासिता।
अभुक्तेषु निराकाङ्क्षी ताहशो भवदुलभः॥४॥
अन्वयः ४
यः तु भुक्तेषु भोगेषु अधिवासिता न भवति; (तथा) अभुक्तेषु निराकाङ्क्षी ( भवति ) तादृशः (पुरुषः) भवदुर्लभः॥४॥
हिन्दी ४
जिस की भोगे हुए विषयों में आसक्ति नहीं होती है, और नहीं भोगे हुए विषयों में अभिलाषा नहीं होती है, ऐसा पुरुष संसार में दुर्लभ है अर्थात् करोडों में एक आदमी होता है ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ५
बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते।
भोगमोक्षनिराकाङ्क्षीविरलोहि महाशयः॥५॥
मूलम् ५
बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते।
भोगमोक्षनिराकाङ्क्षीविरलोहि महाशयः॥५॥
अन्वयः ५
इह संसारे बुभुक्षुः मुमुक्षुः अपि दृश्यते हि भोगमोक्षनिराकाङ्क्षी महाशयः विरलः ॥ ५॥
हिन्दी ५
इस संसार में विषयभोग की अभिलाषा करनेवाले भी बहुत देखने में आते हैं और मोक्ष की इच्छा करनेवाले भी बहुत देखने में आते हैं परन्तु विषयभोग और मोक्ष दोनों की इच्छा न करनेवाला तथा पूर्णब्रह्म के विषें अन्तःकरण लगानेवाला विरला ही होता है, सोई श्रीकृष्णभगवान्ने भगवद्वीता के विषें कहा है कि “यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः” ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ६
धर्मार्थकाममोक्षेषुजीविते मरणे तथा।
कस्याप्युदारचित्तस्यहेयोपादेयतान हि॥६॥
मूलम् ६
धर्मार्थकाममोक्षेषुजीविते मरणे तथा।
कस्याप्युदारचित्तस्यहेयोपादेयतान हि॥६॥
अन्वयः ६
धमार्थकाममोक्षेषु जीविते तथा मरणे कस्य अपि उदारचित्तस्य हि हेयोपादेयता न ॥ ६॥
हिन्दी ६
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार परम फल हैं, इन के विषें सम्पूर्ण प्राणियों का अन्तःकरण बन्धा है तथा सम्पूर्ण प्राणियों को जन्ममरण का भय रहता है, परन्तु ज्ञानी पुरुष का मन धर्मादि के विषें नहीं बन्धता है और जो ज्ञानी तिन धर्मादिक को सुखरूप जानकर ग्रहण नहीं करता है और दुःखरूप जानकर त्यागता नहीं है, तथा जीवनमरण से अपनी कुछ वृद्धि और हानि नहीं समझता है ऐसा ज्ञानी कोई विरला ही होता है ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ७
वाञ्छा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ ।
यथा जीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम् ॥७॥
मूलम् ७
वाञ्छा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ ।
यथा जीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम् ॥७॥
अन्वयः ७
( यस्य ) विश्वविलये वाञ्छा न, तस्य स्थितौ च देषः न ( अस्ति ) तस्मात् धन्यः ( सः ) यथाजीविकया यथासुखम् आस्ते ॥ ७ ॥
जो ज्ञानी है, उस को इस विश्व के नाश की इच्छा नहीं होती है तथा तिस विश्व की स्थितिसे द्वेष नहीं होता है, क्योङ्कि वह ज्ञानी तो जानता है कि, सदा सर्वत्र एक
ब्रह्म ही प्रकाश कर रहा है और प्रारब्धकर्मानुसार देह को धारण करता है तथा सदा सुखरूप रहता है ऐसा ज्ञानी पुरुष धन्य है ॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ८
कृतार्थोऽनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधीः कृती।
पश्यन् शृण्वन् स्टशन जिघनश्नन्नास्ते यथासुखम् ॥ ८॥
मूलम् ८
कृतार्थोऽनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधीः कृती।
पश्यन् शृण्वन् स्टशन जिघनश्नन्नास्ते यथासुखम् ॥ ८॥
अन्वयः ८
अनेन ज्ञानेन ( अहम् ) कृतार्थः इति एवम् गलि. तधीः कृती पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अनन् यथासुखम् आस्ते ॥ ८॥
हिन्दी ८
इस “ तत्वमसि “ आदि महावाक्य के ज्ञान से मैं कृतार्थ होगया हूं ऐसा निश्चय होने से देहादि के विषें जिस की आत्मबुद्धि नष्ट हो गई है, ऐसा ज्ञानी देखता हुआ, श्रवण करता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूङ्घता हुआ तथा भक्षण करता हुआ भी सुखपूर्वक ही स्थित होता है अर्थात् मैं ज्ञान से कृतार्थ होगया ऐसी बुद्धि के कारण, बाह्य इन्द्रियों का व्यापार होनेपर भी मूर्ख की समान ज्ञानी को खेद नहीं होता है ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ९
शून्या दृष्टिर्वृथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च ।
न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे ॥ ९॥
मूलम् ९
शून्या दृष्टिर्वृथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च ।
न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे ॥ ९॥
अन्वयः ९
क्षीणसंसारसागरे ( पुरुषे ) दृष्टिः शून्या, चेष्टा वृथा, इन्द्रियाणि च विकलानि, स्पृहा न वा विरक्तिः न ॥९॥
हिन्दी ९
जिस ज्ञानी का संसारसागर क्षीण हो जाता है उस को विषयभोग की इच्छा नहीं होती है और विषयों से विरक्ति भी नहीं होती है, क्योङ्कि ज्ञानी की दृष्टि कहिये मन का व्यापार शून्य कहिये सङ्कल्पविकल्परहित होता है और चेष्टा कहिये शरीर का व्यापार वृथा कहिये फल की इच्छा से रहित होता है तथा नेत्र आदि इन्द्रिये विकल कहिये समीप में आये हुए भी विषयों को यथार्थ रूप से न जाननेवाली होती हैं सोई भगवद्गीता के विषें कहा भी है कि “ यस्मिन् जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः “ ॥ ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १०
न जागर्ति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति ।
अहो परदशा कापि वर्त्तते मुक्तचेतसः ॥ १०॥
मूलम् १०
न जागर्ति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति ।
अहो परदशा कापि वर्त्तते मुक्तचेतसः ॥ १०॥
अन्वयः १०
न जागर्ति न निद्राति न उन्मीलति न मीलति, अहो मुक्तचेतसः का अपि परदशा वर्तते ॥ १० ॥
हिन्दी १०
न जागता है, न शयन करता है, न नेत्रों के पलकों को खोलता है, न मीचता है अर्थात् सम्पूर्ण विषयों को ब्रह्मरूप देखता है, इस कारण आश्चर्य है कि, मुक्त है चित्त जिस का ऐसे ज्ञानी की कोई परम उत्कृष्ट दशा है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ११
सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः ।
समस्तवासनामुक्तो मुक्तः सर्वत्र राजते ॥ ११ ॥
मूलम् ११
सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः ।
समस्तवासनामुक्तो मुक्तः सर्वत्र राजते ॥ ११ ॥
अन्वयः ११
मुक्तः सर्वत्र स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः ( च ) दृश्यते; ( तथा ) समस्तवासनामुक्तः ( सन् ) सर्वत्र राजते ॥ ११॥
हिन्दी ११
जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष सुख दुःखादि सर्वत्र स्वस्थ चित्त रहनेवाला और शत्रु मित्र आदि सब के विषें निर्मल अन्तःकरणवाला (समदर्शी ) दीखता है और सम्पूर्ण वासनाओं से रहित होकर सब अवस्थाओं के विषें आत्मस्वरूप के विषें विराजमान होता है ॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १२
पश्यन् शृण्वन् स्टशन जिघनश्नन्गृह्णन्वदन् वजन् ।
ईहितानीहितैर्मुक्तो मुक्त एव महाशयः ॥ १२॥
मूलम् १२
पश्यन् शृण्वन् स्टशन जिघनश्नन्गृह्णन्वदन् वजन् ।
ईहितानीहितैर्मुक्तो मुक्त एव महाशयः ॥ १२॥
अन्वयः १२
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिवन् अनन् गृह्णन् वदन वजन ( आप ) ईहितानीहितः मुक्तः महाशयः मुक्तः एव ॥ १२॥
हिन्दी १२
देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूङ्घता हुआ, ग्रहण करता हुआ, भोजन करता हुआ, कथन करता हुआ तथा गमन करता हुआ भी इच्छा और द्वेष से रहित ब्रह्म के विषें चित्त लगानेवाला मुक्त ही है ॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १५
सुखे दुःखे नरे नायाँ सम्पत्सु च विपत्सुच।
विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः॥१५॥
मूलम् १५
सुखे दुःखे नरे नायाँ सम्पत्सु च विपत्सुच।
विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः॥१५॥
अन्वयः १५
सुखे दुःखे, नरे ना-म् सम्पत्सु, च विपत्सु च धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः विशेषः न एव ॥ १५ ॥
हिन्दी १५
सम्पूर्ण वस्तुओं के विषें एक आत्मदृष्टि करनेवाले जिस धीर पुरुष का मन सुख के विष और स्त्रीविलास के विषें तथा सम्पत्ति के विषें प्रसन्न नहीं होता है और महादुःख तथा विपत्ति के विषें कम्पायमान नहीं होता है वही मुक्त है ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १६
न हिंसा नैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता।
नाश्चर्य नैव च क्षोभः क्षीण संसरणे नरे॥१६॥
मूलम् १६
न हिंसा नैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता।
नाश्चर्य नैव च क्षोभः क्षीण संसरणे नरे॥१६॥
अन्वयः १६
क्षीणसंसरणे नरे हिंसा न, कारुण्यम् न, औद्धत्यम् न, दीनता च एव न, आश्चर्यम् न, क्षोभः च एव न ॥ १६ ॥
जिस पुरुष का संसार क्षीण हो जाता है अर्थात् देहाभिमान दूर हो जाता है उस का जन्ममृत्युरूप बन्धन दूर हो जाता है, ऐसे ज्ञानी के मन में हिंसा कहिये परद्रोह नहीं हो जाता, दयालुता नहीं होती है, उद्धतता नहीं होती है, दीनता नहीं रहती है, आश्चर्य नहीं रहता
है और क्षोभ भी नहीं रहता है, क्योङ्कि ज्ञानी का एक ब्रह्माकार हो जाता है ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १७
नमुक्तो विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुपः।
असंसक्तमना नित्यं प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते॥१७॥
मूलम् १७
नमुक्तो विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुपः।
असंसक्तमना नित्यं प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते॥१७॥
अन्वयः १७
मुक्तः विषयद्वेष्टा न ( भवति ), वा विषयलोलुपः (च) न ( भवति, ), (किन्तु ) नित्यम् असंसक्तमनाः (सन) प्राप्ताप्राप्तम् उपाइनुते ॥ १७ ॥
हिन्दी १७
जीवन्मुक्त पुरुष विषयों से द्वेष ( विषयों का त्याग) नहीं करता है और विषयों में आसक्त भी नहीं होता है किन्तु विषयासक्तिरहित है मन जिस का ऐसा होकर नित्य प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त और अप्राप्त को भोगता है ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १८
समाधानासमाधानहिताहितविकल्पनाः ।
शून्यचित्तो न जानाति कैवल्यमिव संस्थितः॥१८॥
मूलम् १८
समाधानासमाधानहिताहितविकल्पनाः ।
शून्यचित्तो न जानाति कैवल्यमिव संस्थितः॥१८॥
अन्वयः १८
शून्यचित्तः कैवल्यम् संस्थितः इव समाधानासमाधानहिताहितविकल्पनाः न जानाति ॥ १८ ॥
शून्य है चित्त जिस का ऐसा जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष विदेह कैवल्यदशा को प्राप्त हुए की समान समाधान,
असमाधान, हित और अहित की कल्पना को नहीं जानता है, क्योङ्कि उस का मन ब्रह्माकार हो जाता है ॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १९
निर्ममो निरहङ्कारो न किञ्चिदिति निश्चितः।
अन्तर्गलितसर्वाशः कुर्वनपि करोति न॥१९॥
मूलम् १९
निर्ममो निरहङ्कारो न किञ्चिदिति निश्चितः।
अन्तर्गलितसर्वाशः कुर्वनपि करोति न॥१९॥
अन्वयः १९
निर्ममः निरहङ्कारः किञ्चित् न इति निश्चितः अन्तर्ग: लितसर्वाशः कुर्वन् अपि न करोति ॥ १९ ॥
हिन्दी १९
जिस की स्त्रीपुत्रादि के विषें ममता दूर हो गई है और जिस का देहाभिमान दूर हो गया है तथा ब्रह्म से अन्य द्वितीय कोई वस्तु नहीं है ऐसा जि से निश्चय हो गया है और जिस की भीतर की आशा नष्ट हो गई है ऐसा ज्ञानी पुरुष विषयभोग करता हुआ भी नहीं करता है अर्थात् उस में आसक्ति नहीं करता है ॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २०
मनःप्रकाशसम्मोहस्वप्नजाड्यविवर्जितः।
दशां कामपि सम्प्राप्तो भवेदलितमानसः ॥२०॥
मूलम् २०
मनःप्रकाशसम्मोहस्वप्नजाड्यविवर्जितः।
दशां कामपि सम्प्राप्तो भवेदलितमानसः ॥२०॥
अन्वयः २०
मनःप्रकाशसम्मोहस्वमजाडयविवर्जितः । गलितमानसः काम अपि दशाम् सम्प्राप्तः भवेत् ॥ २० ॥
जिस के मन के विषें मोह नहीं है ऐसा जो ज्ञानी पुरुष है उस के मन का प्रकाश तथा अज्ञानरूपी जडत्व निवृत्त हो जाता है तिस ज्ञानी की कोई अनिर्वचनीय
अष्टावक्रगीता।दशा होती है अर्थात् उस ज्ञानी की दशा किसी के जानने में नहीं आती है ॥२०॥
इति श्रीमदष्टावकमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं तत्त्वज्ञस्वरूपविंशतिकं नाम सप्तदशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १७॥