१६ विशेषोपदेशम्

विश्वास-प्रस्तुतिः १

आचक्ष्व शृणु वातात नानाशास्त्राण्यनेकशः।
तथापि न तव स्वास्थ्यंसर्वविस्मरणाहते॥१॥

मूलम् १

आचक्ष्व शृणु वातात नानाशास्त्राण्यनेकशः।
तथापि न तव स्वास्थ्यंसर्वविस्मरणाहते॥१॥

अन्वयः १

हे तात ! नानाशास्त्राणि अनेकशः आचक्ष्व वा शृणु तथापि सर्वविस्मरणात् ऋते तव स्वास्थ्यम् न स्यात् ॥ १॥

हिन्दी १

तत्वज्ञान के उपदेश से जगत् को आत्मस्वरूप से देखना और तृष्णा का नाश करना ही मुक्ति कहाती है, यह विषय वर्णन करते हैं, हे शिष्य ! तू नाना प्रकार के शास्त्रों को अनेक बार अन्य पुरुषों के अर्थ उपदेश कर अथवा अनेक बार श्रवण कर परन्तु सब को भूले बिना अर्थात् सम्पूर्ण वस्तु के भेद का त्याग किये बिना स्वस्थता अर्थात मुक्ति कदापि नहीं होगी किन्तु सम्पूर्ण वस्तुओं में भेद दृष्टि का त्याग करने से ही मोक्ष होगा। तहां शिष्य शङ्का करता है कि, सुषुप्ति अवस्था के विषें किसी वस्तु का भी भान नहीं होता है इस कारण सुषुप्ति अवस्था में सम्पूर्ण प्राणियों का मोक्ष हो जाना चाहिये। इस शङ्का का गुरु समाधान करते हैं कि सुषुप्ति में सम्पूर्ण वस्तुओं का भान तो नहीं रहता है परन्तु एक अज्ञान का भान तो रहता है, इस कारण मोक्ष नहीं होता है और जीवन्मुक्त का तो अज्ञानसहित जगन्मात्र का ज्ञान नहीं रहता है, इस कारण उस का मुक्ति हुइहा समझना चाहिय॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २

भोगं कर्म समाधि वा कुरु विज्ञ तथापि ते।
चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थरोचयिष्यति॥२॥

मूलम् २

भोगं कर्म समाधि वा कुरु विज्ञ तथापि ते।
चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थरोचयिष्यति॥२॥

अन्वयः २

हे विज्ञ ! ( त्वम् ) भोगम् कर्म वा समाधिम् कुरु तथापि ते चित्तम् अत्यर्थम् निरस्तसर्वाशम् रोचयिष्यति ॥२॥

हिन्दी २

हे शिष्य ! तू ज्ञानसम्पन्न होकर विषयभोग कर अथवा सकाम कर्म कर अथवा समाधि को कर तथापि सम्पूर्ण वस्तुओं के विस्मरण से सब प्रकार की आशा से रहित तेरा चित्त आत्मस्करूप के वि ही अधिक रुचि को उत्पन्न करेगा ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३

आयासात्सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन ।
अनेनैवोपदेशेन धन्यः प्राप्नोति निर्वृतिम् ॥३॥

मूलम् ३

आयासात्सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन ।
अनेनैवोपदेशेन धन्यः प्राप्नोति निर्वृतिम् ॥३॥

अन्वयः ३

सकल: आयासात् दुःखी ( भवति ), ( परन्तु ) एनम् कश्चन न जानाति; अनेन उपदेशेन एव धन्यः निर्वृतिम् मामोति ॥ ३ ॥

हिन्दी ३

प्राणिमात्र विषय के परिश्रम से दुःखी होते हैं परन्तु कोई इस वार्ता को नहीं जानता। क्योङ्कि विषयानन्द के विषें निमग्न होता है, जो भाग्यवान् पुरुष होता है वह सद्गुरु से इस उपदेश को ग्रहण कर के परम सुख को प्राप्त होता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४

व्यापारेखिद्यते यस्तु निमेषोन्मेषयोरपि ।
तस्यालस्यधुरीणस्थ सुखं नान्यस्य कस्यचित् ॥४॥

मूलम् ४

व्यापारेखिद्यते यस्तु निमेषोन्मेषयोरपि ।
तस्यालस्यधुरीणस्थ सुखं नान्यस्य कस्यचित् ॥४॥

अन्वयः ४

यः तु निमेषोन्मेषयोः अपि व्यापारे खिद्यते आलस्यधुरीणस्य तस्य (एव) सुखम् (भवति), अन्यस्य कस्यचित् न॥४॥

हिन्दी ४

जो पुरुष नेत्रों के निमेष उन्मेष के व्यापार में अर्थात् नेत्रों के खोलनेमून्दनमें भी परिश्रम मानकर दुःखित होता है, इस परम आलसीको ही अर्थात् उस निष्क्रिय पुरुषको ही परम सुख मिलता है, अन्य किसीको ही नहीं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५

इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तं यदा मनः।
धर्मार्थकाममोक्षेषु निरपेक्षं तदा भवेत् ॥५॥

मूलम् ५

इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तं यदा मनः।
धर्मार्थकाममोक्षेषु निरपेक्षं तदा भवेत् ॥५॥

अन्वयः ५

इदम् कृतम्, इदम् न ( कृतम् ), इति द्वन्दैः यदा मनः मुक्तम् ( भवति ) तदा धर्मार्थकाममोक्षेषु निरपेक्षम् भवेत् ॥ ५॥

हिन्दी ५

जिस के मन का द्वैतभाव नष्ट हो जाय अर्थात् यह कार्य करना चाहिये, यह नहीं करना चाहिये, यह विधिनिषेधरूपी इन्द्र जिस के मन से दूर हो जाय, वह पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारोम्में भी इच्छा न करे, क्योङ्कि वह पुरुष जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६

विरक्तो विषयद्वेष्टा रागी विषयलोलुपः ।
ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो नरागवान्॥६॥

मूलम् ६

विरक्तो विषयद्वेष्टा रागी विषयलोलुपः ।
ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो नरागवान्॥६॥

अन्वयः ६

विरक्तः विषयद्वेष्टा ( भवति ), रागी विषयलोलुपः (भवति ) ग्रहमोक्षविहीनः तु न विरक्तः (भवति ) न रागवान ( भवति ) ॥ ६॥

जो पुरुष विषय से द्वेष करता है वह विरक्त कहाता है और जो विषयों में अतिलालसा करता है वह रागी (कामुक) कहाता है, परन्तु जो ग्रहण और मोक्ष से रहित ज्ञानी होता है, वह न विषयों से द्वेष करता है, और न विषयों से प्रीति करता है अर्थात् प्रारब्धयोगानुसार जो प्राप्त होय उस का त्याग नहीं करता है और
अप्राप्त वस्तु के मिलने की इच्छा नहीं करता है इस कारण जीवन्मुक्त पुरुष विरक्त और रागी दोनों से विलक्षण होता है ॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७

हेयोपादेयता तावत्संसारविटपाङ्कुरः।
स्टहा जीवति याव? निर्विचारदशास्पदम्॥ ७ ॥

मूलम् ७

हेयोपादेयता तावत्संसारविटपाङ्कुरः।
स्टहा जीवति याव? निर्विचारदशास्पदम्॥ ७ ॥

अन्वयः ७

निर्विचारदशास्पदम् स्पृहा यावत् जीवति तावत् वै हेयोपादेयता संसारविटपाङ्कुरः ( भवति ) ॥ ७ ॥

हिन्दी ७

तहां शङ्का होती है कि, ज्ञानियों के विषें तो त्याग और ग्रहण का व्यवहार देखने में आता है । तहां कहते हैं कि जिस समयपर्यन्त अज्ञानदशा के निवास करने का स्थानरूप इच्छा रहती है तिस समयपर्यन्त ही पुरुष का ग्रहण करना और त्यागनारूप संसाररूपी वृक्ष का अङ्कुर रहता है और ज्ञानियों का तो इच्छा न होने के कारण त्यागना और ग्रहण करना देखने मात्र होते हैं ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८

प्रवृत्तौ जायते रागो निवृत्तौ द्वेष एव हि।
निर्द्वन्द्रो बालवद्वीमानेवमेव व्यवस्थितः॥८॥

मूलम् ८

प्रवृत्तौ जायते रागो निवृत्तौ द्वेष एव हि।
निर्द्वन्द्रो बालवद्वीमानेवमेव व्यवस्थितः॥८॥

अन्वय:- हि प्रवृत्तौ रागः, निवृत्तौ एव द्वेषः जायते ( अतः) धीमान् बालवत् निईन्द्रः ( सन् ) एवम् एव व्यवस्थितः भवेत् ८
यदि विषयों में प्रीति करे तो प्रीति दिनपर दिन बढती जाती है और विषयों से द्वेषपूर्वक निवृत्त होय
तो दिनपर दिन विषयों में द्वेष होता जाता है; इस कारण ज्ञानी पुरुष शुभ और अशुभ के विचाररहित जो बालक तिस की समान रागद्वेषरहित होकर सङ्गपूर्वक जो विषयों में प्रवृत्ति करना और द्वेषपूर्वक जो विषयों से निवृत्त होना इन दोनों से रहित होकर रहे और प्रारब्धकर्मानुसार जो प्राप्त होय उस में प्रवृत्त होय और अप्राप्ति की इच्छा न करे ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ९

हातुमिच्छति संसारं रागीदुःखजिहासया।
वीतरागोहि निर्मुक्तस्तस्मिन्नपि न खिद्यति ॥९॥

मूलम् ९

हातुमिच्छति संसारं रागीदुःखजिहासया।
वीतरागोहि निर्मुक्तस्तस्मिन्नपि न खिद्यति ॥९॥

अन्वयः ९

रागी दुःखजिहासया संसारम् हातुम् इच्छति; हि वीतरागः निर्मुक्तः ( सन् ) तस्मिन् अपि न खिद्यति ॥ ९ ॥

हिन्दी ९

जो विषयासक्त पुरुष है वह अत्यन्त दुःख भोगने के अनन्तर, दुःखों के दूर होने की इच्छा कर के संसार को त्याग करने की इच्छा करता है और जो वैराग्यवान् पुरुष है वह दुःखों से रहित हुआ संसार में रहकर भी खेद को नहीं प्राप्त होता है ॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः १०

यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा ।
न च ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभागसौ ॥१०॥

मूलम् १०

यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा ।
न च ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभागसौ ॥१०॥

अन्वय:- यस्य मोक्षे अपि अभिमानः तथा देहे अपि ममता असौ न च ज्ञानी न वा योगी (किन्तु ) केवलम् दुःखभाक् १०
जिस पुरुष को ऐसा अभिमान है कि, मैं मुक्त हूं, त्यागी हूं, मेरा शरीर उपवास आदि अनेक प्रकार के कष्ट सहने में समर्थ है और जिस का देह के विषें ममत्व है, वह पुरुष न ज्ञानी है, न योगी है किन्तु केवल दुःखी है, क्योङ्कि उस का अभिमान और ममता दूर नहीं हुए हैं ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ११

हरो यापदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा।
तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाहते ॥११॥

मूलम् ११

हरो यापदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा।
तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाहते ॥११॥

अन्वयः ११

यदि हरः वा हरिः (अथवा ) कमलजः अपि ते उपदेष्टा (स्यात) तथापि सर्वविस्मरणात् ऋते तव स्वास्थ्यम न स्यात् ॥ ११॥

हिन्दी ११

हे शिष्य ! साक्षात् सदाशिव तथा विष्णु भगवान् और ब्रह्माजी ये तीनों महासमर्थ भी तेरे को उपदेश करें, तौ भी सम्पूर्ण प्राकृत, अनित्य वस्तुओं की विस्मृति बिना तेरा चित्त शान्ति को प्राप्त नहीं होयगा और जीवन्मुक्तदशा का सुख प्राप्त नहीं होयगा ॥११॥

इति श्रीमदृष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं विशेषोपदेशं नाम षोडशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १६॥