यथातथोपदेशेन कृतार्थःसत्वबुद्धिमान्॥
आजीवमपिजिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति॥१॥
अन्वयः १
सत्वबुद्धिमान (शिष्यः ) यथा तथा उपदेशेन कृतार्थः ( भवति ), परः आजीवम् जिज्ञासुः अपि तत्र विमुह्यति ॥ १ ॥
हिन्दी १
यद्यपि गुरुने शिष्य के अर्थ पहिले आत्मतत्व का उपदेश किया है तथा शास्त्र में ऐसा नियम है कि, कठिन से जानने योग्य होने के कारण शिष्यों के अर्थ आत्मतत्व का बारम्बार उपदेश करना चाहिये और छान्दोग्य उपनिषद् के विषें गुरुने शिष्य के अर्थ बारम्बार आत्मतत्व का उपदेश किया है, इस कारण गुरु फिर भी शिष्य के अर्थ आत्मतत्व का उपदेश करते हुए प्रथम ज्ञान के अधिकारी और अनधिकारी का वर्णन करते हैं कि, जिस की बुद्धि सात्वि की होती है वह शिष्य यथाकथञ्चित् उपदेश श्रवण करके भी कृतार्थ हो जाता है, इस कारण ही सत्ययुग के विषें केवल एक अक्षर ब्रह्म जो ॐ कार तिसके ही उपदेशमात्र से अनेक शिष्य कृतार्थ होगये अर्थात् ज्ञान को प्राप्त होगये और जिन की तामसी बुद्धि होती है, उन को मरणपर्यन्त उपदेश करो तब भी उन को आत्मस्वरूप का ज्ञान नहीं होता है, किन्तु महामोह में पड़े रहते हैं, प्रह्लादजी का पुत्र विरोचन दैत्य था उन को ब्रह्माजीने अनेक बार उपदेश किया, तो भी वह महामोहयुक्त ही रहा, क्योङ्कि वह तामसी बुद्धिवाला था ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २
मोक्षो विषयवैरस्य बन्धो वैषयि को रसः ।
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु ॥२॥
मूलम् २
मोक्षो विषयवैरस्य बन्धो वैषयि को रसः ।
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु ॥२॥
अन्वयः २
विषयवैरस्यम् मोक्षः, वैषयिकः रसः बन्धः विज्ञानम् एतावत् एव; यथा इच्छसि तथा कुरु ॥ २॥
हिन्दी २
अब बन्ध और मोक्ष का स्वरूप दिखाते हैं कि, विषयों के विषें आसक्ति न करना य ही मोक्ष है और विषयों में प्रति करना य ही बन्धन है, इतना ही गुरु और वेदान्त के वाक्यों से जानने योग्य है, इस कारण हे शिष्य ! जैसी तेरी रुचि हो वैसा कर ॥२॥
वाग्मिप्राज्ञमहोद्योगञ्जनं मूकजडालसम् ।
करोतितत्त्वबोधोऽयमतस्त्यक्तो बुभुक्षुभिः३
अन्वयः ३
अयम् तत्त्वबोधः वाग्मिप्राज्ञमहोद्योगम् जनम् मूकजडालसम् करोति अतः बुभुक्षुभिः त्यक्तः ॥ ३॥
हिन्दी ३
अब इस बात का वर्णन करते हैं कि, तत्वज्ञान के सिवाय किसी अन्य से विषयासक्ति का नाश नहीं हो सकता है, यह प्रसिद्ध तत्वज्ञान वाचाल पुरुष को मूक (गूङ्गा) कर देता है, पण्डित को जड कर देता है, परम उद्योगी पुरुषको भी आलसी कर देता है, क्योङ्कि, मन के प्रत्यगात्मा के विषें लगने से ज्ञानी की वाणी मन और शरीर की वृत्तिये नष्ट हो जाती हैं इस कारण ही विषयभोग की लालसा करनेवाले पुरुषोन्ने आत्मज्ञान का अनादर कर रखा है ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ४
न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान् ।
चिद्रूपोऽसि सदा साक्षीनिरपेक्षः सुखं चर॥४॥
मूलम् ४
न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान् ।
चिद्रूपोऽसि सदा साक्षीनिरपेक्षः सुखं चर॥४॥
अन्वयः ४
हे शिष्य ! त्वम् देहः न, ( तथा ) ते देहः न, भवान् कर्ता वा भोक्ता न, ( यतः ) ( भवान् ) चिद्रूपः सदा साक्षी असि, ( अतः ) निरपेक्षः ( सन् ) सुखं चर ॥ ४ ॥
हिन्दी ४
अब तत्वज्ञान की प्राप्ति के अर्थ उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! तू देहरूप नहीं है तथा तेरा देह नहीं है क्योङ्कि तू चैतन्यरूप है तिसी प्रकार तू कर्मों का करनेवाला तथा कर्मफल का भोगनेवाला नहीं है, क्योङ्कि कर्म करना और फल भोगना यह मन और बुद्धि के धर्म हैं और तू तो मन और बुद्धि से भिन्न साक्षीमात्र इस प्रकार है जिस प्रकार घट का देखनेवाला घट से भिन्न होता है, इस कारण हे शिष्य ! देह के सम्बन्धी जोस्त्रीपुत्रादि तिन से उदासीन होकर सुखपूर्वक विचर ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ५
रागद्वेषौ मनोधर्मों न मनस्ते कदाचन ।
निर्विकल्पोऽसि बोधात्मानिर्विकारः सुखं चर ॥५॥
मूलम् ५
रागद्वेषौ मनोधर्मों न मनस्ते कदाचन ।
निर्विकल्पोऽसि बोधात्मानिर्विकारः सुखं चर ॥५॥
अन्वयः ५
रागद्वेषौ मनोधर्मी (भवतः) मनः ते ( सम्बन्धि ) कदाचन न ( भवति ), (यतः त्वम् ) निर्विकल्पः बोधात्मा असि, ( अतः ) निर्विकारः ( सन् ) सुखं चर ॥ ५ ॥
हिन्दी ५
हे शिष्य ! राग और द्वेष आदि मन के धर्म हैं तेरे नहीं हैं और तेरा मन के साथ कदापि सम्बन्ध नहीं है, क्यों कि तू सङ्कल्पविकल्परहित ज्ञानस्वरूप है, इस कारण तू रागादिविकाररहित होकर सुखपूर्वक विचर ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ६
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
विज्ञायनिरहङ्कारोनिर्ममस्त्वं सुखीभव ॥६॥
मूलम् ६
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
विज्ञायनिरहङ्कारोनिर्ममस्त्वं सुखीभव ॥६॥
अन्वयः ६
सर्वभूतेषु च आत्मानम् सर्वभूतानि च आत्मनि विज्ञाय त्वम् निरहङ्कारः निर्ममः ( सन् ) सुखी भव ॥ ६॥
हिन्दी ६
आत्मा सम्पूर्ण प्राणियों के विषें कारणरूप से स्थित है, और सम्पूर्ण प्राणी आत्मा के विषें अध्यस्त हैं इस प्रकार जानकर ममता और अहङ्काररहित सुखपूर्वक स्थित हो ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ७
विश्व स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे।
तत्त्वमेव न सन्देहश्चिन्मूत विज्वरो भव ॥७॥
मूलम् ७
विश्व स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे।
तत्त्वमेव न सन्देहश्चिन्मूत विज्वरो भव ॥७॥
अन्वयः ७
यत्र इदम् विश्वम् सागरे तरङ्गा इव स्फुरति, तत् त्वम् एव ( अत्र) सन्देहः न, ( अतः ) हे चिन्मूत ! ( त्वम् ) विज्वरः भव ॥ ७॥
जिस प्रकार समुद्र के विषें जो तरङ्ग हैं वे कल्पित और अनित्य हैं, तिसी प्रकार जिस आत्मा के विषें यह विश्व कल्पित है वह तू ही है, इस में कुछ सन्देह नहीं
है, इस कारण हे चैतन्यरूप शिष्य ! तू सम्पूर्ण सन्तापरहित हो ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ८
श्रद्धस्व तात श्रद्धस्व नात्र मोहं कुरुष्व भोः।
ज्ञानस्वरूपोभगवानात्मा त्वं प्रकृतेःपरः॥८॥
मूलम् ८
श्रद्धस्व तात श्रद्धस्व नात्र मोहं कुरुष्व भोः।
ज्ञानस्वरूपोभगवानात्मा त्वं प्रकृतेःपरः॥८॥
अन्वयः ८
भोः तात ! श्रद्वस्व श्रद्धस्व, अत्र मोहम् न कुरुष्व (यतः) त्वम् ज्ञानस्वरूपः भगवान् प्रकृतेः परः आत्मा (असि) ॥ ८ ॥
हिन्दी ८
हे तात ! गुरु और वेदान्त के वचनोम्पर विश्वास कर, विश्वास कर, आत्मा की चेतनस्वरूपता के विषय में मोह कहिये संशयविपर्ययस्वरूप अज्ञान मत कर, क्योङ्कि तू ज्ञानस्वरूप, सर्वशक्तिमान, प्रकृतिसे पर आत्मस्वरूप है ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ९
गुणैः संवेष्टितो देहस्तिष्ठत्यायाति याति च ।
आत्मा न गन्ता नागन्ता किमेनमनुशोचसि॥९॥
मूलम् ९
गुणैः संवेष्टितो देहस्तिष्ठत्यायाति याति च ।
आत्मा न गन्ता नागन्ता किमेनमनुशोचसि॥९॥
अन्वयः ९
गुणैः संवोष्टतः देहः तिष्ठति आयाति याति च आत्मा न गन्ता न आगन्ता ( अतः) एनम् किम् अनुशोचसि ॥ ९॥
हिन्दी ९
गुण कहिये इन्द्रिय आदि से वेष्टित देह ही संसार के विषें रहता है, आता है और जाता है और आत्मा तो न जाता न आता है, इस कारण मैं जाऊङ्गा, मेरा मरण होगा इत्यादि देह के धर्मों से आत्मा के विषें शोक मत कर, क्योङ्कि आत्मा तो सर्वव्यापी और नित्यस्वरूप है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १०
देहस्तिष्ठतु कल्पान्तं गच्छत्वचैव वा पुनः।
व वृद्धिःक्व च वा हानिस्तव चिन्मात्ररूपिणः॥१०॥
मूलम् १०
देहस्तिष्ठतु कल्पान्तं गच्छत्वचैव वा पुनः।
व वृद्धिःक्व च वा हानिस्तव चिन्मात्ररूपिणः॥१०॥
अन्वयः १०
देहः कल्पान्तम् तिष्ठतु वा पुनः अद्य एव गच्छतु; चिन्मात्ररूपिणः तव क्व हानिः वा क्व च वृद्धिः ॥ १० ॥
हिन्दी १०
हे शिष्य ! यह देह कल्पपर्यन्त स्थित रहे, अथवा अब ही नष्ट हो जाय तो उस से तेरी न हानि होती है और न वृद्धि होती है, क्योङ्कि तू तो केवल चैतन्यस्वरूप है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ११
त्वय्यनन्तमहाम्भोधौविश्ववीचिःस्वभावतः ।
उदेतुवास्तमायातुनतेवृद्धिर्नवाक्षतिः॥११॥
मूलम् ११
त्वय्यनन्तमहाम्भोधौविश्ववीचिःस्वभावतः ।
उदेतुवास्तमायातुनतेवृद्धिर्नवाक्षतिः॥११॥
अन्वयः ११
अनन्तमहाम्भोधौ त्वयि स्वभावतः विश्ववीचिः उदेतु वा अस्तम् आयातु ते वृद्धिः न वा क्षतिः न ॥ ११ ॥
हिन्दी ११
हे शिष्य ! तू चैतन्य अनन्तस्वरूप है और जिस प्रकार समुद्र के विषें तरङ्ग उत्पन्न होती हैं और लीन हो जाती हैं, तिस प्रकार तेरे (आत्माके) विषें स्वभाव से संसार की उत्पत्ति और लय हो जाता है, तिस से तेरी किसी प्रकार की हानि अथवा वृद्धि नहीं है ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १२
तातचिन्मात्ररूपोऽसिन ते भिन्नमिदञ्जगत् ।
अतःकस्यकथङ्कुत्रहेयोपादेयकल्पना॥१२॥
मूलम् १२
तातचिन्मात्ररूपोऽसिन ते भिन्नमिदञ्जगत् ।
अतःकस्यकथङ्कुत्रहेयोपादेयकल्पना॥१२॥
अन्वयः १२
हे तात ! ( त्वम् ) चिन्मात्ररूपः असि, इदम् जगत् ते भिन्नम् न, अतः हेयोपादेयकल्पना कस्य कुत्र कथम् (स्यात् ) ॥ १२॥
हिन्दी १२
हे शिष्य ! तू चैतन्यमात्रस्वरूप है, यह जगत् तुझ से भिन्न नहीं है, इस कारण त्यागना और ग्रहण करना कहां बन सकता है और किस का हो सकता है और किस में हो सकता है ॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १३
एकस्मिन्नव्ययेशान्तेचिदाकाशेऽमलेत्वयि ।
कुतोजन्मकुतोकमकुतोऽहङ्कारएवच ॥ १३॥
मूलम् १३
एकस्मिन्नव्ययेशान्तेचिदाकाशेऽमलेत्वयि ।
कुतोजन्मकुतोकमकुतोऽहङ्कारएवच ॥ १३॥
अन्वयः १३
एकस्मिन् अव्यये शान्ते चिदाकाशे अमले त्वयि जन्म कुतः कर्म कुतः, अहङ्कारः च एव कुतः ॥ १३ ॥
हिन्दी १३
हे शिष्य ! तू अविनाशी, एक, शान्त, चैतन्याकाशस्वरूप और निर्मलाकाशस्वरूप है, इस कारण तेरा जन्म नहीं होता है तथा तेरे विषें अहङ्कार होना भी नहीं घट सकता है, क्योङ्कि कोई द्वितीय वस्तु होय तो अहङ्कार होता है, तथा तेरे विषें जन्म होना भी नहीं बन सकता है, क्योङ्कि अहङ्कार के बिना कर्म नहीं होता है, इस कारण तू शुद्धस्वरूप है ॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १४
यत्त्वं पश्यसि तत्रेकस्त्वमेव प्रतिभास से ।
किं पृथक् भासते स्वर्णात्कटकाङ्गदनूपुरम् ॥ १४॥
मूलम् १४
यत्त्वं पश्यसि तत्रेकस्त्वमेव प्रतिभास से ।
किं पृथक् भासते स्वर्णात्कटकाङ्गदनूपुरम् ॥ १४॥
अन्वयः १४
यत् त्वम् पश्यसि तत्र त्वम् एव एकः प्रतिभाससे; कटकाङ्गदनूपुरम् किम् स्वर्णात् पृथक् भासते ॥ १४॥
हिन्दी १४
जिस प्रकार कटक, बाजूबन्द और नूपुर आदि आभूषणों के विषें एक सुवर्ण ही भासता है, तिसी प्रकार जिस २ कार्य को तू देखता है तिस २ कार्य के विषें एक कारण स्वरूप तू ही (आत्मा ही ) भासता है ॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १५
अयं सोऽहमयं नाहं विभागमिति सन्त्यज।
सर्वमात्मेति निश्चित्य नि:सङ्कल्पःसुखीभव ॥१५॥
मूलम् १५
अयं सोऽहमयं नाहं विभागमिति सन्त्यज।
सर्वमात्मेति निश्चित्य नि:सङ्कल्पःसुखीभव ॥१५॥
अन्वयः १५
सः अयम् अहम्, अयम् अहम् न इति विभागम् सन्त्यज, (तथा ) सर्वम् आत्मा इति निश्चित्य निःसङ्कल्पः (सन् ) सुखी भव ॥ १५॥
हिन्दी १५
यह जो सम्पूर्ण देह आदि पदार्थ हैं तिन का मैं साक्षी हूं और मैं देह, इन्द्रिय आदिरूप नहीं हूं अथवा यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं, इस भेद का त्याग कर और सम्पूर्ण जगत् आत्मा ही है ऐसा निश्चय करके, सम्पूर्ण सङ्कल्प विकल्पों को त्यागकर सुखी हो ॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १६
तवैवाज्ञानतो विश्वं त्वमेकः परमार्थतः।
त्वत्तोऽन्यो नास्ति संसारी नसंसारीच कश्चन ॥ १६॥
मूलम् १६
तवैवाज्ञानतो विश्वं त्वमेकः परमार्थतः।
त्वत्तोऽन्यो नास्ति संसारी नसंसारीच कश्चन ॥ १६॥
अन्वयः-विश्वम् तव अज्ञानतः एव ( भवति ), परमार्थतः त्वम् एकः ( एव अतः) संसारी त्वत्तः अन्यः न अस्ति; असं. सारी च कश्चन ( त्वत्तः अन्यः ) न ( अस्ति )॥१६॥
हे शिष्य ! तेरे अज्ञान से ही विश्व भासता है, वास्तव में संसार कोई नहीं है, परमार्थस्वरूप अद्वितीय तू एक ही है, इस कारण ही तुझ से अन्य कोई संसारी अथवा असंसारी नहीं है ॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १७
भ्रान्तिमात्रमिदं विश्वं न किञ्चिदिति निश्चयी ।
निर्वासनःस्फूर्तिमात्रो न किञ्चिदिव शाम्यति॥ १७॥
मूलम् १७
भ्रान्तिमात्रमिदं विश्वं न किञ्चिदिति निश्चयी ।
निर्वासनःस्फूर्तिमात्रो न किञ्चिदिव शाम्यति॥ १७॥
अन्वयः १७
इदम् विश्वम् भ्रान्तिमात्रम् किञ्चित् न, इति निश्चयी (परुषः ) निर्वासनः स्फूर्तिमात्रः ( सन् ) न किश्चित शाम्यति ॥ १७ ॥
हिन्दी १७
यह विश्व भान्तिमात्र से कल्पित है, वास्तव में किञ्चिन्मात्र भी सत्य नहीं है, इस प्रकार जिस को निश्चय हुआ है वह पुरुष वासनारहित और प्रकाशस्वरूप होकर केवल चैतन्यस्वरूप के विषें शान्ति को प्राप्त होता है ॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १८
एक एव भवाम्भोधावासीदस्ति भविष्यति।
नतेबन्धोऽस्ति मोक्षो वा कृतकृत्यःसुखं चर ॥१८॥
मूलम् १८
एक एव भवाम्भोधावासीदस्ति भविष्यति।
नतेबन्धोऽस्ति मोक्षो वा कृतकृत्यःसुखं चर ॥१८॥
अन्वयः १८
भवाम्भोधौ एकः एव आसीत्, अस्ति भविष्यति, ( अतः ) ते बन्धः वा मोक्षः न अस्ति (अतः त्वम् ) कृतकृत्यः ( सन् ) सुखं चर ॥ १८॥
हिन्दी १८
भूत भविष्यत् और वर्तमानरूप त्रिकालमें भी इस संसारसमुद्र के विषें तू ही था और तू ही है तथा तू ही होगा अर्थात् इस संसार के विषें सदा एक तू ही रहा है, इस कारण तेरा बन्ध और मोक्ष नहीं है, सो कृतार्थ हुआ तू सुखपूर्वक विचर ॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः १९
मा सङ्कल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय ।
उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे ॥ १९॥
मूलम् १९
मा सङ्कल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय ।
उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे ॥ १९॥
अन्वयः १९
( हे शिष्य ! ) चिन्मय ! सङ्कल्पविकल्पाभ्याम् चित्तम् मा क्षोभय उपशाम्य आनन्दविग्रहे स्वात्मनि सुखम् तिष्ठ ॥ १९॥
हिन्दी १९
हे शिष्य ! तू चैतन्यस्वरूप है, सङ्कल्प और विकल्पों से चित्त को चलायमान मत कर, किन्तु चित्त को सङ्कल्पविकल्पों से शान्त कर के आनन्दरूपआत्मस्वरूप के विषें सुखपूर्वक स्थित हो ॥ १९॥
त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किञ्चिद्धृदिधारय ॥
आत्मा त्वं मुक्त एवासि किं विमृश्य करिष्यसि ॥२०॥
अन्वयः २०
सर्वत्र एव ध्यानम् त्यज, हदि किञ्चित् अपि मा धारय , आत्मा त्वम् मुक्तः एव असि, ( अतः) विमृश्य किम् करिष्यसि ॥२०॥
हिन्दी २०
हे शिष्य.! सर्वत्र ही ध्यान का त्याग कर, कुछ भी सङ्कल्प विकल्प हृदय के विषेधारण मत कर, क्योङ्कि आत्मरूप तू सदा मुक्त ही है, फिर विचार (ध्यान) कर के और क्या फल प्राप्त करेगा॥२०॥
इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं तत्त्वोपदेशविंशतिकं नाम पञ्चदशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १९॥