विश्वास-प्रस्तुतिः १
प्रकृत्या शून्यचित्तोयःप्रमादाद्भावभावनः ।
निद्रितोबोधित इव क्षीणसंसरणो हि सः ॥१॥
मूलम् १
प्रकृत्या शून्यचित्तोयःप्रमादाद्भावभावनः ।
निद्रितोबोधित इव क्षीणसंसरणो हि सः ॥१॥
अन्वयः १
प्रकृत्या शून्यचित्तः प्रमादात् भावभावनः यः निद्रितः इव बोधितः ( भवति ) सः हि क्षीणसंसरणः ॥ १॥
अब शिष्य अपनी सुखरूप अवस्था का वर्णन करता है कि, अपने स्वभाव से तो चित्त के धर्मो से रहित है और बुद्धि के द्वारा प्रारब्धकमों के वशीभूत होकर अज्ञान के कारण सङ्कल्पविकल्प की भावना करता है, जिस प्रकार कोई पुरुष सुखपूर्वक शयन करता होय उस को कोई पुरुष जगाकर काम करावे तो वह काम उस पुरुष के मन की इच्छा के अनुसार नहीं होता है, किन्तु अन्य
पुरुष के वशीभूत होकर कार्य करता है वास्तव में उस का चित्त कार्य के सङ्कल्पविकल्प से रहित होता है तिसी प्रकार प्रारब्धकर्मानुसार सङ्कल्पविकल्प करनेवाले पुरुष का चित्त विषयों से शान्त अर्थात् संसाररहित होता है ॥१॥
कधनानि व मित्राणिक मे विषयदस्यवः ।
कशास्त्रं क च विज्ञानं यदा मे गलितास्टहार
अन्वयः २
यदा मे स्पृहा गलिता (तदा) मे धनानि व, मित्राणि क, विषयदस्यवः क्व, शास्त्रम् क्व, विज्ञानम् च क्व ॥ २॥
हिन्दी २
विषयवासना से रहित पूर्णरूप जो मैं हूं तिस मेरी यदि इच्छा नष्ट हो गई तो फिर मेरे धन कहां, मित्रवर्ग कहां, विषयरूप लुटेरे कहां और शास्त्र कहां अर्थात् इन में से किसी वस्तु भी मेरी आसक्ति नहीं रहतीहै॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ३
विज्ञाते साक्षिपुरुषे परमात्मनिचेश्वरे।
नैराश्येबन्धमोक्षेचन चिन्ता मुक्तये मम ॥३॥
मूलम् ३
विज्ञाते साक्षिपुरुषे परमात्मनिचेश्वरे।
नैराश्येबन्धमोक्षेचन चिन्ता मुक्तये मम ॥३॥
अन्वयः ३
साक्षिपुरुषे परमात्मनि ईश्वरे च विज्ञाते बन्धमोक्षेच नैराश्ये ( सति ) मम मुक्तये चिन्ता न ॥ ३ ॥
देह, इन्द्रिय और अन्तःकरण के साक्षी सर्वशक्तिमान परमात्मा का ज्ञान होनेपर पुरुष को बन्ध तथा मोक्षकी
आशा नहीं होती है और मुक्ति के लिये भी चिन्ता नहीं होती है ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ४
अन्तर्विकल्पशून्यस्य बहिःस्वच्छन्द-चारिणः।
भ्रान्तस्येव दशास्तास्तास्ताह-शा एव जानते ॥४॥
मूलम् ४
अन्तर्विकल्पशून्यस्य बहिःस्वच्छन्द-चारिणः।
भ्रान्तस्येव दशास्तास्तास्ताह-शा एव जानते ॥४॥
अन्वयः ४
अन्तर्विकल्पशून्यस्य भ्रान्तस्य इव बहिःस्वच्छन्दचारिणः ( ज्ञानिनः ) ताः ताः दशाः तादृशाः एव जानते ॥ ४ ॥
हिन्दी ४
अन्तःकरण के विषें सङ्कल्पविकल्प से रहित और बाहर भ्रान्त (पागल) पुरुष की समान स्वच्छन्द होकर विचरनेवाले ज्ञानी की तिन तिन दशाओं को तै से ही ज्ञानी पुरुष जानते हैं ॥४॥
इति श्रीमदष्टावक्रगीतायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं शान्तिचतुष्टयं नाम चतुर्दशं प्रकरणं समाप्तम् ॥१४॥