१३ यथासुखसप्तकम्

अकिञ्चनभवंस्वास्थ्यं कौपीनत्वेऽपिदुर्लभम्।
त्यागादानेविहायास्मादहमासेयथासुखम् १

अन्वयः १

कौपीनत्वे अपि अकिञ्चनभवम् स्वास्थ्यम् दुर्लभम् , अस्मात् अहम् त्यागादाने विहाय यथासुखम् आ से ॥ १॥

हिन्दी १

अब जीवन्मुक्ति अवस्था का फल जो परम सुख तिस का वर्णन करते हैं, सम्पूर्ण विषयों के विषें आसक्ति का त्याग करने से उत्पन्न होनेवाली चित्त की स्थिरता, कोपीनमात्र में आसक्ति करने से भी नहीं प्राप्त होती है, इस कारण मैं त्याग और ग्रहण के विषें आसक्ति का त्याग कर के सर्वदा सुखरूप से स्थित हूं ॥१॥

कुत्रापि खेदःकायस्य जिह्वा कुत्रापि खिद्यते।
मनः कुत्रापितत्त्यक्त्वा पुरुषार्थेस्थितःसुखं२

अन्वयः २

कुत्र अपि कायस्य खेदः (भवति ) कुत्र अपि जिह्वा (खिद्यते) कुत्र अपि मनः (खिद्यते) ( अतः) तत् त्यक्त्वा सुखम् पुरुषार्थ स्थितः ( अस्मि ) ॥ २॥

हिन्दी २

यदि व्रततीर्थादि सेवन करे तो शरीर को खेद होता है और यदि गीताभागवतादि स्तोत्रों का पाठ किया जाय तो जिह्वा को खेद होता है, और यदि ध्यान समाधि की जाय तो मन को खेद होता है, इस कारण मैं इन तीनों दुःखों का त्याग कर के सुखपूर्वक आत्मस्वरूप के वि स्थित हूं ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३

कृतं किमपि नैवस्यादिति सचिन्त्य त-त्त्वतः ।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा से यथासुखम् ॥३॥

मूलम् ३

कृतं किमपि नैवस्यादिति सचिन्त्य त-त्त्वतः ।
यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा से यथासुखम् ॥३॥

अन्वयः ३

कृतम् किम् अपि तत्त्वतः न एव स्यात् इति सञ्चिन्त्य यदा यत् कर्तुम् आयाति तत् कृत्वा यथासुखम् आ से ॥ ३ ॥

वादी शङ्का करता है कि, वाणी मन और शरीर इन तीनों के व्यापार का त्याग होने से तो तत्काल शरीर का नाश हो जायगा, क्योङ्कि इस प्रकार के त्याग से अन्नजल का भी त्याग हो जायगा, फिर शरीर किस प्रकार
रह सकेगा ? तिस का समाधान करते हैं, कि शरीर इन्द्रियादि से किया हुआ कोई कर्म आत्मा का नहीं हो सकता है, इस प्रकार विचार कर जो कर्म करना पडता है उस कर्म को अहङ्काररहित कर के मैं आत्मस्वरूप के विषें सुखपूर्वक स्थित हूं ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४

कर्मनैष्कर्म्यनिर्बन्धभावा देहस्थयोगिनः।
संयोगायोगविरहादहमा से यथासुखम्॥४॥

मूलम् ४

कर्मनैष्कर्म्यनिर्बन्धभावा देहस्थयोगिनः।
संयोगायोगविरहादहमा से यथासुखम्॥४॥

अन्वयः ४

कर्मनैष्कर्म्यनिर्वन्धभावाः देहस्ययोगिनः (भवन्ति ) अहम् (तु ) संयोगायोगविरहात् यथासुखम् आ से ॥ ४ ॥

हिन्दी ४

तहां वादी शङ्का करता है कि, या कर्ममार्ग में निष्ठा करे या निष्कर्ममार्गमें ही निष्ठा करे एकसाथ दोनों मार्गोम्पर चलना किस प्रकार हो सकेगा ? तहां कहते हैं, कर्म और निष्कर्म तौ देह का अभिमान करनेवाले योगीको ही होते हैं और मैं तो देह के संयोग और वियोग दोनों को त्यागकर सुखरूप स्थित हूं ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५

अर्थानौँ न मे स्थित्या गत्या न शयनेन वा।
तिष्ठन् गच्छन् स्वपन तस्मादहमा से यथासुखम् ॥५॥

मूलम् ५

अर्थानौँ न मे स्थित्या गत्या न शयनेन वा।
तिष्ठन् गच्छन् स्वपन तस्मादहमा से यथासुखम् ॥५॥

अन्वयः ५

स्थित्या गत्या (च) मे अर्थानौँ न वा शयनेन (च) न तस्मात् तिष्ठन् गच्छन् स्वपन् यथासुखम् आ से ॥५॥

हिन्दी ५

लौकिक व्यवहार के विषे भी मेरे को अभिमान नहीं है, क्योङ्कि स्थिति, गति तथा शयन आदि से मेरा कोई हानि, लाभ नहीं होता है, इस कारण मैं खडा रहूं वा चलता रहूं अथवा शयन करता रहूं तो उस में मेरी आसक्ति नहीं होती है, क्योङ्कि मैं तो सुखपूर्वक आत्मस्वरूप के विषें स्थित हूं ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६

स्वपतो नास्ति मे हानिः सिद्धिर्यत्नवतो न-वा।
नाशोल्लासौ विहायास्मादहमा से यथा-सुखम् ॥६॥

मूलम् ६

स्वपतो नास्ति मे हानिः सिद्धिर्यत्नवतो न-वा।
नाशोल्लासौ विहायास्मादहमा से यथा-सुखम् ॥६॥

अन्वयः ६

मे स्वपतः हानिः न अस्ति यत्नवतः वा सिद्धिः न (अस्ति); अस्मात् नाशोल्लासौ विहाय अहम् यथासुखम् आसे॥६॥

हिन्दी ६

सम्पूर्ण प्रयत्नों को त्याग कर के शयन करूं तो मेरी किसी प्रकार की हानि नहीं है और अनेक प्रकार के उद्यम करूं तो मेरा किसी प्रकार का लाभ नहीं है, इस कारण त्याग और सङ्ग्रह को छोडकर मैं सुखपूर्वक आत्मस्वरूप के विषें स्थित हूं ॥६॥

सुखादिरूपानियमं भावेष्वालोक्यभूरिशः ।
शुभाशुभेविहायास्मादहमासेयथासुखम् ७॥

अन्वयः ७

मावेषु भूरिशः सुखादिरूपानियमम् आलोक्य अस्मात् अहम् शुभाशुभे विहाय यथासुखम् आ से ॥ ७॥

हिन्दी ७

भाव जो जन्म तिन के विषें अनेक स्थानों में सुखदुःखादि धर्मो की अनित्यता को देखकर और इस कारण ही शुभ और अशुभ कर्मो को त्यागकर मैं सुखपूर्वक आत्मस्वरूप के विषें स्थित हूं ॥७॥

इति श्रीमदष्टावक्रानिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं यथासुखसप्तकं नाम त्रयोदशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १३॥