विश्वास-प्रस्तुतिः १
कायकृत्यासहःपूर्व ततो वाग्विस्तरासहः ।
अथचिन्तासहस्तस्मादेवमेवाहमास्थितः॥१॥
मूलम् १
कायकृत्यासहःपूर्व ततो वाग्विस्तरासहः ।
अथचिन्तासहस्तस्मादेवमेवाहमास्थितः॥१॥
अन्वयः १
पूर्वम् कायकृत्यासहः, ततः वाग्विस्तरासहः, अथ चिन्तासहः, तस्मात् अहम् एवम् एव आस्थितः ( अस्मि )॥१॥
हिन्दी १
पूर्व प्रकरण के विषें ज्ञानाष्टक से वर्णन किये हुए विषयको ही शिष्य अपने विषें दिखाता है शिष्य कहता है कि हे गुरो ! प्रयम मैन्ने आप की कृपा से कायिक क्रियाओं का त्याग किया, तदनन्तर वाणी के जपरूप कर्म का त्याग किया इस कारण ही मन के सङ्कल्पविकल्परूप कर्म का त्याग किया इस प्रकार मैं सब प्रकार के व्यवहारों का त्याग कर के केवल चैतन्यस्वरूप आत्मा का आश्रय कर के स्थित हूं ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २
प्रीत्यभावेन शब्दादेरदृश्यत्वेन चात्मनः ।
विक्षेपैकाग्रहदय एवमेवाहमास्थितः ॥२॥
मूलम् २
प्रीत्यभावेन शब्दादेरदृश्यत्वेन चात्मनः ।
विक्षेपैकाग्रहदय एवमेवाहमास्थितः ॥२॥
अन्वयः २
शब्दादेः प्रीत्यभावेन, आत्मनः च अदृश्यत्वेन विक्षेपैकाग्रहृदयः अहम् एवम् एव आस्थितः (अस्मि ) ॥२॥
उपरोक्त तीन प्रकार के कायिक आदि व्यापारों के त्यागने में कारण दिखाता है कि नाशवान् फल के उत्पन्न करनेवाले शब्दादि विषयों के विषें प्रीति न होने से और आत्मा के अदृश्य होने से मेरा हृदय तीनों प्रकार के विशेपों से रहित और एकाग्र है, अर्थात् नाशवान् स्वर्गादि फल देनेवाले जप आदि के विषें प्रीति न होने से तो मेरे विषें जपरूप विक्षेप नहीं है और आत्मा अदृश्य है इस
कारण आत्मा ध्यान का विषय नहीं है, इस कारण चिन्तारूप मन का विक्षेप भी मेरे विषें नहीं है, इस कारण मैं आत्मस्वरूप कर के स्थित हूं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ३
समाध्यासादिविक्षिप्तौ व्यवहारः समाधये।
एवं विलोक्यनियममेवमेवाहमास्थितः॥३॥
मूलम् ३
समाध्यासादिविक्षिप्तौ व्यवहारः समाधये।
एवं विलोक्यनियममेवमेवाहमास्थितः॥३॥
अन्वयः ३
समाध्यासादिविक्षिप्तौ ( सत्याम् ) समाधये व्यवहारः (भवति ), एवम् नियमम् विलोक्य अहम् एवम् एव आस्थितः (अस्मि )॥३॥
हिन्दी ३
तहां शङ्का होती है कि, किसी प्रकार का विक्षेप न होनेपर भी समाधि के अर्थ तो व्यवहार करना ही पडेगा तिस का समाधान करते हैं कि, यदि कर्तृत्व भोक्तृत्व का अध्यासरूप विक्षेप होता अर्थात् मैं कर्त्ता हूं, मैं भोक्ता हूं इत्यादि मिथ्या अध्यासरूपविषेक्ष यदि होता तो उस की निवृत्ति के अर्थ समाधि के निमित्त व्यवहार करना पडता है; यदि ऐसा अध्यास नहीं होता तो समाधि के निमित्त व्यवहार नहीं करना पडता है, इस प्रकार के नियम को देखकर शुद्ध आत्मज्ञान का आश्रय लेनेवाले मेरे विषें अध्यास न होने के कारण समाधिशून्य में आत्मस्वरूप के विषें स्थित हूं ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ४
हेयोपादेयविरहादेवं हर्षविषादयोः।
अभावादद्यहेब्रह्मन्नेवमेवाहमास्थितः ॥ ४॥
मूलम् ४
हेयोपादेयविरहादेवं हर्षविषादयोः।
अभावादद्यहेब्रह्मन्नेवमेवाहमास्थितः ॥ ४॥
अन्वयः हे ब्रह्मन् ! हेयोपादेयविरहात् एवम् हविषादयोः अभावात् अद्य अहम् एवम् एव आस्थितः ( अस्मि ) ॥४॥
शिष्य कहता है कि, हे गुरो ! मैं तो पूर्णस्वरूप हूं इस कारण किस का त्याग करूं ? और किस का ग्रहण करूं? अर्थात् न मेरे को कुछ त्यागने योग्य है और न कुछ ग्रहण करने योग्य है, इसी प्रकार मेरे को किसी प्रकार का हर्ष शोक भी नहीं है, मैं तो इस समय केवल अत्मस्वरुप के विषें स्थित हूँ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ५
आश्रमानाश्रमं ध्यानं चित्तस्वीकृतवर्जनम्।
विकल्पममवीक्ष्यतैरेवमेवाहमास्थितः॥५॥
मूलम् ५
आश्रमानाश्रमं ध्यानं चित्तस्वीकृतवर्जनम्।
विकल्पममवीक्ष्यतैरेवमेवाहमास्थितः॥५॥
अन्वयः ५
आश्रमानाश्रमम् ध्यानम् चित्तस्वीकृतवर्जनम् एतैः एव मम विकल्पम् वीक्ष्य अहम् एवम् एव आस्थितः (अस्मि)॥५॥
हिन्दी ५
मैं मन और बुद्धि से परे हूं, इस कारण मेरे विषें वर्णाश्रम के विषें विहित ध्यान कर्म और सङ्कल्प, विकल्प नहीं हैं, मैं सब का साक्षी हूं ऐसा विचार कर आत्मस्वरूप के विषें स्थित हूं ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ६
कर्मानुष्ठानमज्ञानाद्यथैवोपरमस्तथा।
बुद्धासम्यगिदन्तत्त्वमेवमेवाहमास्थितः॥६॥
मूलम् ६
कर्मानुष्ठानमज्ञानाद्यथैवोपरमस्तथा।
बुद्धासम्यगिदन्तत्त्वमेवमेवाहमास्थितः॥६॥
अन्वयः ६
यथा अज्ञानात् कर्मानुष्ठानम् तथा एव उपरमः (भवति ), इदम् तत्त्वम् सम्यक बुद्धा अहम् एवम् एव आस्थितः (अस्मि)॥६॥
हिन्दी ६
जिस प्रकार का कर्मानुष्ठान ( कर्म करना) अज्ञान से ही होता है तिस प्रकार कर्म का त्याग भी अज्ञान से ही होता है, क्योङ्कि आत्मा के विषें त्यागना और ग्रहण करना कुछ भी नहीं बनता है, इस तत्व को यथार्थ रीतिसे जानकर मैं आत्मस्वरूप के विषे ही स्थित हूं ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ७
अचिन्त्यं चिन्त्यमानोऽपि चिन्तारूपं भजत्यसौ।
त्यक्त्वा तद्भावनं तस्मादेव-मेवाहमास्थितः॥७॥
मूलम् ७
अचिन्त्यं चिन्त्यमानोऽपि चिन्तारूपं भजत्यसौ।
त्यक्त्वा तद्भावनं तस्मादेव-मेवाहमास्थितः॥७॥
अन्वयः ७
अचिन्त्यम् चिन्त्यमानः अपि असौ चिन्तारूपम् भजति, तस्मात् तद्भावनम् त्यक्त्वा अहम् एवम् एव आस्थितः (अस्मि )॥७॥
हिन्दी ७
अचिन्त्य जो ब्रह्म है तिस को चिन्तन करता हुआ भी यह पुरुष आत्मचिन्तामय रूप को प्राप्त होता है, तिस कारण ब्रह्म के चिन्तन का त्याग कर के मैं आत्मस्वरूप के वित्रं स्थित हूं ॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ८
एवमेव कृतं येन स कृतार्थों भवेद-सौ ।
एवमेव स्वभावो यःस कृतार्थो भवेदसौ॥८॥
मूलम् ८
एवमेव कृतं येन स कृतार्थों भवेद-सौ ।
एवमेव स्वभावो यःस कृतार्थो भवेदसौ॥८॥
अन्वयः ८
येन एवम् एव कृतम् सः असौ कृतार्थः भवेत्, यः एवम् एव स्वभावः सः असौ कृतार्थः भवेत् ॥ ८॥
हिन्दी ८
जिस पुरुषने इस प्रकार आत्मस्वरूप को साधनों के द्वारा सर्वक्रियारहित किया है वह कृतार्थ है और जो बिना साधनोङ्के ही स्वभाव से क्रियारहित शुद्ध आत्मस्वरूप के ज्ञानवाला है, उस के कृतार्थ होने में तो कहना ही क्या है॥८॥
इति श्रीमदृष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितम् एवमेवाष्टकं नाम द्वादशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १२॥