११ ज्ञानाष्टकम्

विश्वास-प्रस्तुतिः १

भावाभाविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी।
निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति॥१॥

मूलम् १

भावाभाविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी।
निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति॥१॥

म अन्वय:- भावाभावविकारः स्वभावात् ( जायते ) इति निश्चयी (पुरुषः) निर्विकारः गतक्लेशः च (सन् ) सुखेन एव उपशाम्यति ॥ १॥

पूर्वोक्त शान्ति ज्ञान से ही होती है अन्यथा नहीं होती है, इस का बोध करने के निमित्त आठ श्लोकों से ज्ञान का वर्णन करते हुए प्रथम ज्ञान के साधनों का वर्णन करते हैं, किसी वस्तु का भाव और किसी वस्तु का अभाव यह जो विकार है सो तो स्वभाव कहिये माया और पूर्वसंस्कार के अनुसार होता है, आत्मा के सकाश से नहीं होता है ऐसा निश्चय जिस पुरुष को होता है वह पुरुष अनायास से ही शान्ति को प्राप्त हो जाता है ॥१॥

ईश्वरःसर्वनिर्माता नेहान्य इति निश्चयी॥
अन्तर्गलितसर्वाशःशान्तःक्वापिन सज्जते २

अन्वयः २

इह सर्वनिर्माता ईश्वरः, अन्यः न इति निश्चयी (पुरुषः ) अन्तर्गलितसर्वाशः शान्तः (सन् ) क अपि न सजते ॥२॥

हिन्दी २

तहां शिष्य शङ्का करता है कि, माया तो जड है उस के सकाश से भावाभावरूप संसार की उत्पत्ति किस प्रकार हो सकती है ? तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, सम्पूर्ण जगत् रचनेवाला एक ईश्वर है, अन्य जीव जगत् का रचनेवाला नहीं है, क्योङ्कि जीव ईश्वर के वशीभूत हैं, इस प्रकार निश्चय करनेवाला पुरुष ऐसे निश्चय के प्रभाव से ही दूर हो गई है सब प्रकार की तृष्णा जिस की ऐसा और शान्त कहिये निश्चल चित्त होकर कहीं भी आसक्त नहीं होता है ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३

आपदः सम्पदः काले दैवादैवेति निश्चयी।
तृप्तःस्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वाञ्छति न शोचति ॥३॥

मूलम् ३

आपदः सम्पदः काले दैवादैवेति निश्चयी।
तृप्तःस्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वाञ्छति न शोचति ॥३॥

अन्वयः काले आपदः सम्पदः (च) देवात् एव (भवन्ति । इति निश्चयी तृप्तः ( पुरुषः ) नित्यम् स्वस्थन्द्रियः ( सन् ) न वाञ्छति न शोचति ॥ ३ ॥

तहां शङ्का होती है कि, यदि ईश्वर ही संसार को रचनेवाला है तो किन् ही पुरुषों को दरिद्री करता है, किन् ही को धनी करता है और किन् ही को सुखी करता है तथा किन् ही को दुःखी करता है. इस कारण ईश्वर के विषें वैषम्य और नैर्घण्य दोष आवेगा। तहां कहते हैं कि, किसी समय में आपत्तियें और किसी समय में सम्पत्तिये
ये अपने प्रारब्ध से होती हैं, इस कारण ईश्वर के विषें वैषम्य और नैपुण्यदोष नहीं लग सकता. इस प्रकार निश्चय करनेवाला पुरुष सब प्रकार की तृष्णाओं से रहित और विषयों से चलायमान नहीं हुई हैं इन्द्रियें जिस की ऐसा होकर अप्राप्त वस्तु की इच्छा नहीं करता है और नष्ट हुई वस्तु का शोक नहीं करता है ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४

सुखदुःखेजन्ममृत्यू दैवादेवेतिनिश्चयी।
साध्यादशीनिरायासःकुर्वन्नपिनलिप्यते॥४॥

मूलम् ४

सुखदुःखेजन्ममृत्यू दैवादेवेतिनिश्चयी।
साध्यादशीनिरायासःकुर्वन्नपिनलिप्यते॥४॥

7 अन्वय:- सुखदुःखे, जन्ममृत्यू दैवात् एव (भवन्ति ) इति निश्चयी, साध्यादर्शी, निरायासः ( पुरुषः कर्माणि) कुर्वन अपि न लिप्यते ॥ ४॥

तहां शिष्य शङ्का करता है कि, हे गुरो ! पूर्वोक्त निश्चययुक्त पुरुष भी कर्म करता हुआ देखने में आता है सो कै से हो सकता है ? तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, कर्म के फलरूप सुखदुःख और जन्ममृत्यु प्रारध के अनुसार होते हैं, इस प्रकार निश्चयवाला पुरुष ऐसी दृष्टि नहीं करता है कि, अमुक कर्म मुझे करना चाहिये और इस कारण ही कर्म करने में परिश्रम नहीं करता है, और प्रारब्धकर्मानुसार कर्म कर के लिप्त भी नहीं होता है, अर्थात् पापपुण्यरूप फलका
भोगनेवाला नहीं होता है, क्योङ्कि उस पुरुष को मैं कता हूं, ऐसा अभिमान नहीं होता है ॥४॥

चिन्तयाजायतेदुःखन्नान्यथेहेतिनिश्चयी।
तयाहीनःसुखी शान्तःसर्वत्रगलितस्टहः॥

अन्वयः ५

इह दुःखम् चिन्तया जायते, अन्यथा न इति निश्चयी (पुरुषः) तया हीनः ( सन् ) सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः ( भवति ) ॥५॥

हिन्दी ५

तहां शङ्का होती है कि, यह कै से हो सकता है कि, कर्म करके भी पापपुण्यरूप फल का भोक्ता न होता हे ? तहां कहते हैं, इस संसार के विषें दुःखमात्र चिन्ता से उत्पन्न होता है, किसी अन्य कारण से नहीं होता है, इस प्रकार निश्चयवाला चिन्तारहित पुरुष शान्ति तथा सुख को प्राप्त होता है, और उस पुरुष की सम्पूर्ण विषयों से अभिलाषा दूर हो जाती है ॥५॥

नाहन्देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।
कैवल्यमिव सम्प्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्॥

अन्वयः ६

अहम् देहः न, मे देहः न, (किन्तु ) अहम् बोधः इति निश्चयी (पुरुषः ) कैवल्यम् सम्प्राप्तः इव कृतम् अकृतम न स्मरति ॥ ६ ॥

पूर्वोक्त साधनों से युक्त ज्ञानियों की दशा को निरूपण करते हैं कि-मैं देह नहीं हूं तथा मेरा देह नहीं है, किन्तु
में ज्ञानस्वरूप हूं, इस प्रकार जिस पुरुष का निश्चय हो जाता है, वह पुरुष ज्ञान के द्वारा अभिमान का नाश होने के कारण मुक्तिदशा को प्राप्त हुए पुरुष की समान कर्म अकर्म का स्मरण नहीं करता है अर्थात् उस के विषें लिप्त नहीं होता है ॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ७

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तमहमेवेति निश्चयी।
निर्विकल्पः शुचिः शान्तःप्राप्ता-प्राप्तविनिर्वृतः॥७॥

मूलम् ७

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तमहमेवेति निश्चयी।
निर्विकल्पः शुचिः शान्तःप्राप्ता-प्राप्तविनिर्वृतः॥७॥

अन्वयः ७

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तम् अहम् एव इति निश्चयी ( पुरुषः ) निर्विकल्पः शुचिः ( तथा ) शान्तः ( सन ) प्राप्ताप्राप्त विनिर्वृतः ( भवति ) ॥ ७॥

हिन्दी ७

ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सम्पूर्ण जगत् में ही हूं, इस प्रकार निश्चयवाले पुरुष के सङ्कल्प विकल्प नष्ट हो जाते हैं, विषयासक्तरूप मल से रहित हो जाता है, उस पुरुष का महापवित्र जो आत्मा सो प्राप्त और अप्राप्त वस्तु की इच्छा से रहित होकर परम सन्तोष को प्राप्त होता है ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८

नानाश्चर्यमिदं विश्वं न किञ्चिदिति निश्चयी ।
निर्वामनः स्फूर्तिमात्रो न किञ्चिदिति शाम्यति ॥८॥

मूलम् ८

नानाश्चर्यमिदं विश्वं न किञ्चिदिति निश्चयी ।
निर्वामनः स्फूर्तिमात्रो न किञ्चिदिति शाम्यति ॥८॥

अन्वयः ८

नानाश्चर्यम् इदम् विश्वम् किञ्चित् न, इति निश्चयी ( पुरुषः ) निर्वासनः स्फूर्तिमात्रः ( सन् ) न किञ्चित् इति शाम्यति ॥ ८॥

हिन्दी ८

तहां शङ्का होती है कि, ज्ञानी के सङ्कल्प, विकल्प स्वयं ही किस प्रकार नष्ट हो जाते हैं अधिष्ठानरूप ब्रह्म का साक्षात्कारज्ञान होनेपर जगत् कल्पित प्रतीत होने लगता है और नानारूपवालाजगत् भी ज्ञान का आत्मस्वरूप ही प्रतीत होता है कि, यह सम्पूर्ण जगत् मेरी (आत्माकी) सत्ता से ही स्फुरित होता है ऐसा निश्चय होते ही ज्ञानी की सम्पूर्ण वासना नष्ट हो जाती है और चैतन्यस्वरूप हो जाता है और उस को कोई व्यवहार शेष नहीं रहता है, इस कारण शान्ति को प्राप्त हो जाता है और उसज्ञानी की कार्यकारणरूप उपाधिनष्ट हो जाती है, क्योङ्कि ज्ञानी को सम्पूर्ण जगत् स्वप्न की समान भासने लगता है ॥ ८॥

इति श्रीमदष्टावक्रमनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं ज्ञानाष्टकं नामैकादशं प्रकरणं समाप्तम् ॥११॥