१० उपशमाष्टकम्

विश्वास-प्रस्तुतिः १

विहाय वैरिणं काममर्थ चानथसङ्कुलम् ।
धर्ममप्येतयोहतुं सर्वत्रानादरं कुरु ॥१॥

मूलम् १

विहाय वैरिणं काममर्थ चानथसङ्कुलम् ।
धर्ममप्येतयोहतुं सर्वत्रानादरं कुरु ॥१॥

अन्वयः १

वैरिणम् कामम् अनर्थसङ्कुलम् अर्थम् च ( तथा ) एतयोः हेतुम् धर्मम् अपि विहाय सर्वत्र अनादरम् कुरु ॥ १॥

हिन्दी १

पूर्व में विषयों के बिना भी सन्तोषरूप से वैराग्य का वर्णन किया, अब विषयतृष्णा के त्याग का गुरु उपदेश करते है, हे शिष्य! ज्ञान का शत्रु जो काम तिस का त्याग कर और जिस के पैदा करने में, रक्षा करने में तथा खर्च करने में दुःख होता है ऐसे सर्वथा दुःखों से भरे हुए अर्थ कहिये धन का त्याग कर, तथा काम और अर्थ दोनों का हेतु जो धर्म तिस का भी त्याग कर और तद्नन्तर धर्म अर्थ कामरूप त्रिवर्ग के हेतु जो सकाम कर्म तिन के विषें आसक्ति का त्याग कर ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २

स्वप्नेन्द्रजालवत्पश्य दिनानि त्रीणि पञ्च वा ।
मित्रक्षेत्रधनागारदारदायादिसम्पदः ॥२॥

मूलम् २

स्वप्नेन्द्रजालवत्पश्य दिनानि त्रीणि पञ्च वा ।
मित्रक्षेत्रधनागारदारदायादिसम्पदः ॥२॥

अन्वयः २

( हे शिष्य ! ) त्रीणि पञ्च वा दिनानि (स्थायिन्यः) मित्रक्षेत्रधनागारदार मायादिसम्पदः स्वप्नेन्द्रजालवत् पश्य ॥ २ ॥

हिन्दी २

तहां शिष्य शङ्का करता है कि, स्त्री, पुत्रादि और अनेक प्रकार के सुख देनेवाले जो कर्म तिन का किस प्रकार त्याग हो सकता है तहां गुरु कहते हैं कि, हे शिष्य ! तीन अथवा पाञ्च दिन रहनेवाले मित्र, क्षेत्र, धन, स्थान, स्त्री और कुटुम्बी आदि सम्पत्तियों को स्वप्न और इन्द्रजाल की समान अनित्य जान ॥२॥

यत्रयत्र भवेत्तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै।
प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णःसुखीभव ३॥

अन्वयः ३

वै यत्र यत्र तृष्णा भवेत् तत्र संसारम् विद्धि (तस्मात्) प्रौढवैराग्यम् आश्रित्य वीततृष्णः ( सन् ) सुखी भव ॥ ३ ॥

हिन्दी ३

अब यह वर्णन करते हैं कि, सम्पूर्ण काम्यकर्मों में अनादर करना रूप वैराग्य ही मोक्षरूप पुरुषार्थ का कारण है, जहां २ विषयों के विषें तृष्णा होती है तहां ही संसार जान, क्योङ्कि, विषयों की तृष्णा ही कर्मों के द्वारा संसार का हेतु होती है, तिस कारण दृढ वैराग्य का अवलम्बन करके, अप्राप्त विषयों में इच्छारहित होकर आत्मज्ञान की निष्ठा कर के सुखी हो ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ४

तृष्णामात्रात्म को बन्धस्तन्नाशोमोक्ष उच्यते।
भासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः ॥४॥

मूलम् ४

तृष्णामात्रात्म को बन्धस्तन्नाशोमोक्ष उच्यते।
भासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः ॥४॥

अन्वयः ४

बन्धः तृष्णामात्रात्मकः तन्नाशः मोक्षः उच्यते, भवासंसक्तिमात्रेण मुहुर्मुहुः प्राप्तितुष्टिः ( स्यात् ) ॥ ४ ॥

हिन्दी ४

जाउपरोक्त विषयको ही अन्य रीतिसे कहते हैं, हे शिष्य! तृष्णामात्र ही बड़ा भारी बन्धन है और तिस तृष्णामात्र का त्याग ही मोक्ष कहाता है, क्योङ्कि संसार के विषें आसक्ति का त्याग कर के बारम्बार आत्मज्ञान से उत्पन्न हुआ सन्तोष ही मोक्ष कहाता है ॥ ४॥

त्वमेकश्चेतन शुद्धोजडं विश्वमसत्तथा ।
अ-विद्यापि न किञ्चित्सा का बुभुत्सातथापिते ५

अन्वयः ५

त्वम् एकः चेतनः शुद्धः ( आसि) विश्वम् जडम् तथा असत् ( अस्ति ) अविद्या आपि किञ्चित् न, तथा ते सा बुभुत्सा अपि का ? ॥ ५॥

तहां शङ्का होती है कि, यदि तृष्णामात्र ही बन्धन है तब तो आत्मप्राप्ति की तृष्णा भी बन्धन हो जायगी ? तहां कहते हैं कि, इस संसार में आत्मा, जगत् और अविद्या ये तीन ही पदार्थ हैं, तिन तीनों में आत्मा (तू) तो अद्वितीय, चेतन और शुद्ध है, तिन चैतन्यस्वरूप पूर्णरूप आत्मा के जानने की इच्छा (तृष्णा) बन्धन नहीं होता है, क्योङ्कि आत्मभिन्न जड पदार्थो के विषें इच्छा
करना ही तृष्णा कहाती है क्योङ्कि जड और अनित्य होने के कारण जगत् के विषें इच्छा करना वन्ध्यापुत्र की समान मिथ्या है, उस इच्छा से किसी प्रकार की सिद्धि नहीं होती है, तिसी प्रकार माया के जानने की इच्छा (तृष्णा) करना भी निरर्थक ही है, क्योङ्कि माया सत्रूपकर के अथवा असत्ररूप कर के कहने में नहीं आती है ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ६

राज्यं सुताःकलत्राणिशरीराणिसुखानिच ।
संसक्तस्यापिनष्टानितवजन्मनिजन्मनि ॥६॥

मूलम् ६

राज्यं सुताःकलत्राणिशरीराणिसुखानिच ।
संसक्तस्यापिनष्टानितवजन्मनिजन्मनि ॥६॥

अन्वयः ६

संसक्तस्य अपि तव राज्यम् सुताः कलत्राणि शरीराणि सुखानि च जन्मनि जन्मनि नष्टानि ॥ ६॥

हिन्दी ६

अब संसार की जडता और अनित्यता को दिखाते हैं कि, हे शिष्य ! राज्य, पुत्र, स्त्री, शरीर और सुख इन के विषें तैन्ने अत्यन्त ही प्रीति की तब भी जन्मजन्म में नष्ट हो गये, इस कारण संसार अनित्य है ऐसा जानना चाहिये ॥६॥

अलमर्थेन कामेन सुकृतेनापि कर्मणा।
एभ्यः संसारकान्तारेन विश्रान्तमभून्मनः७

अन्वयः ७

अर्थेन कामेन सुकृतेन कर्मणा अपि अलम्, (यतः) संसारकान्तारे एभ्यः मनः विश्रान्तम् न अभूत् ॥७॥

हिन्दी ७

अब धर्मअर्थकामरूप त्रिवर्ग की इच्छा का निषेध करते हैं, हे शिष्य! धन के विषे, काम के विषें और सकाम कर्मों के विषे भी कामना न कर के अपने आनन्दस्वरूप के विषें परिपूर्ण रहे, क्योङ्कि, संसाररूपी दुर्गममार्ग के विषें भ्रमता हुआ मन इन धर्म-अर्थ-काम से विश्राम को कदापि नहीं प्राप्त होयगा तो कदापि संसारबन्धन का नाश नहीं होयगा ॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ८

कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा।
दुःखमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम्॥८॥

मूलम् ८

कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा।
दुःखमायासदं कर्म तदद्याप्युपरम्यताम्॥८॥

अन्वय:- ( हे शिष्य ! ) आयासदम् दुःखम् कर्म कायेन मनमा गिरा कति जन्मानि न कृतम् तत् अद्य अपि उपरम्यताम्८॥

अब क्रियामात्र के त्याग का उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! महाक्लेश और दुःखों का देनेवाला कर्मकाय, मन और वाणी से कितने जन्मोम्पर्यन्त नहीं किया ? अर्थात् अनेक जन्मों में किया, और तिन जन्मजन्म में किये हुए कर्मों से तैन्ने अनर्थ ही पाया, तिस कारण अब तो तिन कर्मो का त्याग कर ॥८॥

इति श्रीमदष्टावक्रमनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं गुरुप्रोक्तम् उपशमाष्टकं नाम दशमं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १०॥