विश्वास-प्रस्तुतिः १
कृताकृतेचदन्द्रानिकदाशान्तानिकस्य वा।
एवं ज्ञात्वेह निर्वदाद्भवत्यागपरोऽवती॥१॥
मूलम् १
कृताकृतेचदन्द्रानिकदाशान्तानिकस्य वा।
एवं ज्ञात्वेह निर्वदाद्भवत्यागपरोऽवती॥१॥
अन्धय:कृताकृते द्वन्द्वानि कस्य कदा वा शान्ता एवम् ज्ञात्वा इह निर्वेदात् त्यागपरः अवती भव ॥ १॥
उपर के प्रकरण के विषें गुरुने कहा कि, “ न किसी वस्तु को ग्रहण कर न त्याग कर तहां शिष्य प्रश्न करता है, त्याग की क्या रीति है ? तिस के समाधान में गुरु आठ श्लोकों से वैराग्य वर्णन करते हैं कि, कृत और भकृत अर्थात् यह करना चाहिये, यह नहीं करना
चाहिये, इत्यादि अभिनिवेश और सुखदुःख, शीत, उष्ण आदि द्वन्द्र किसी के क भी शान्त हुए हैं ? अर्थात् क भी किसी के निवृत्त नहीं हुए. इस प्रकार जानकर इन कृत अकृत और सुखदुःखादि के विषें विरक्ति होने से त्यागपरायण और सम्पूर्ण पदार्थों के विषें आग्रह का त्यागनेवाला हो ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २
कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलो-कनात् ।
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सो-पशमं गताः ॥२॥
मूलम् २
कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलो-कनात् ।
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सो-पशमं गताः ॥२॥
अन्वयः २
हे तात ! लोकचेष्टावलोकनात् कस्य अपि धन्यस्य जीवितेच्छा बुभुक्षा बुभुत्सा च उपशमम् गताः ॥२॥
हिन्दी २
चित्त के धर्मों का त्यागरूप वैराग्य तो किसीको ही होता है, सब को नहीं, यह वर्णन करते हैं, हे शिष्य ! सहस्रों में से किसी एक धन्य पुरुषकी ही संसार की उत्पत्ति और नाशरूप चेष्टा के देखने से जीवन की इच्छा और भोग की इच्छा तथा जानने की इच्छा निवृत्त होती है।॥२॥
अनित्यं सर्वमेवेदं तापत्रितयदूषितम् ।
असारन्निन्दितंहेयमितिनिश्चित्यशाम्यति ३
अन्वयः ३
तापत्रितयदूषितम् इदम् सर्वम् एव अनित्यम् असारम् निन्दितम् हेयम् इति निश्चित्य ( ज्ञानी) शाम्यति ॥३॥
हिन्दी ३
तहां शिष्य शङ्का करता है कि, ज्ञानी पुरुषों की जो सम्पूर्ण विषयों में आसक्ति नष्ट हो जाती है उस में क्या कारण है ? तहां कहते हैं कि, यह सम्पूर्ण जगत् अनित्य है, चैतन्यस्वरूप आत्मा की सत्ता से स्फुरित होता है, वास्तव में कल्पनामात्र है और आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक इन तीनों दुःखों से दूषित हो रहा है अर्थात् तुच्छ है, झूठा है, ऐसा निश्चय कर के ज्ञानी पुरुष उदासीनता को प्राप्त होता है ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ४
कोऽसौ कालो वयः किंवा यत्र द्वन्द्वानि नो नृणाम् ।
तान्युपेक्ष्य यथाप्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात् ॥४॥
मूलम् ४
कोऽसौ कालो वयः किंवा यत्र द्वन्द्वानि नो नृणाम् ।
तान्युपेक्ष्य यथाप्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात् ॥४॥
अन्वयः ४
यत्र नृणाम् द्वन्द्वानि नो (सन्ति ) असौ कः कालः किम् वयः तानि उपेक्ष्य यथाप्राप्तवर्ती ( सन् ) सिद्धिम् अवाप्नुयात् ॥ ४ ॥
अब यह वर्णन करते हैं कि, सुखदुःखादि द्वन्द्व तो प्रारब्ध कर्मों के अनुसार अवश्य ही प्राप्त होङ्गे परन्तु तिन सुखदुःखादि के विषें इच्छा और अनिच्छा का त्याग कर के प्रारब्धकर्मानुसार प्राप्त हुए सुखदुःखादि द्वन्द्वों को भोगता हुआ मुक्ति को प्राप्त होता है, ऐसा कौनसा काल है कि, जिस में मनुष्य को सुखदुःखादि इन्द्रों की प्राप्ति न हो और ऐसी कौनसी अवस्था है कि, जिसमें
मनुष्य को सुख दुःख आदि न हो ? अर्थात् जिस में मनुष्य को सुख दुःखादि नहीं होते हो ऐसा न कोई समय है और न कोई ऐसीअवस्था है.सर्व काल में और सब अवस्थाओं में सुख दुःख तो होते ही हैं ऐसा जानकर तिन सुख दुःखादि के विषें सङ्कल्प विकल्प को त्यागनेवाला पुरुष प्रारब्धकर्मानुसार प्राप्त हुए सुखदुःखादि को आसक्तिरहित भोगकर सिद्धि कहिये मुक्ति को प्राप्त होता है ॥ ४॥
नाना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा ।
दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नः को नशाम्यति मानवः ५
अन्वयः ५
महर्षीणाम् साधूनाम् तथा योगिनाम् नाना मतम् दृष्ट्वा निर्वेदम् आपन्नः कः मानवः न शाम्यति ॥ ५॥
अब इस वार्ता को वर्णन करते हैं कि, तत्वज्ञान के सिवाय अन्यत्र किसी विषयमें भी निष्ठा न करे । ऋषियों के भिन्न २ रीति के नाना प्रकार के मत हैं, तिन में कोई होम करने का उपदेश करते हैं, कोई मन्त्र जप करने का उपदेश करते हैं, कोई चान्द्रायण आदि व्रतों की महिमा वर्णन करते हैं, तिसी प्रकार साधु कहिये भक्तपुरुषकि भी अनेक भेद और सम्प्रदाय हैं. जै से कि, शैव शाक्त वैष्णव आदि तथा योगियों के मत भी अनेक प्रकार के हैं, तिस में कोई अष्टाङ्गयोग की साधना करते हैं आर कोई वत्वों की गणना करते हैं इस प्रकार भिन्न २
प्रकार के मत होने के कारण तिन सब को त्यागकर वैराग्य को प्राप्त हुआ कोन पुरुष शान्ति को नहीं प्राप्त होता है ? किन्तु शान्ति को प्राप्त होगा ही ॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ६
कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न कि गुरुः।
निर्वेदसमतायुक्त्यायस्तारयतिसंसृतेः॥६॥
मूलम् ६
कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न कि गुरुः।
निर्वेदसमतायुक्त्यायस्तारयतिसंसृतेः॥६॥
अन्वयः ६
निर्वेदसमतायुक्त्या चैतन्यस्य मूर्तिपरिज्ञानम् कृत्वा यः न किं गुरुः ( सः ) संसृतेः तारयति ॥ ६॥
हिन्दी ६
अब यह वर्णन करते हैं कि, कर्मादि का त्याग कर के केवल ज्ञाननिष्ठाका ही आश्रय करना चाहिये, निर्वेद कहिये वैराग्य अर्थात् विषयों के विषें आसक्ति न करना और समता कहिये शत्रुमित्रादि सब के विषें समदृष्टि रखना अर्थात् सर्वत्र आत्मदृष्टि करना तथा युक्ति श्रुतियों के अनुसार शङ्काओं का समाधान करना, इन के द्वारा सच्चिदानन्दस्वरूप का साक्षात्कार कर के फिर कर्ममार्ग के विषें गुरु का आश्रय न करनेवाला पुरुष अपने आत्मा को तथा औरोङ्को भी संसार से तार देता है ॥६॥
पश्य भूतविकारांस्त्वं भूतमात्रानयथार्थतः।
तत्क्षणाद्वन्धनिर्मुक्तःस्वरूपस्थो भविष्यसि
अन्वयः ७
(हे शिष्य !) भूतविकारान् यथार्थतः भूतमात्रान् पश्य ( एवम् ) त्वम् तत्क्षणात् बन्धनिर्मुक्तः स्वरूपस्थ: भविष्यसि ॥७॥
हिन्दी ७
चैतन्यस्वरूप के साक्षात्करने का उपाय कहते हैं कि, हे शिष्य ! भूतविकार कहिये देह इन्द्रिय आदि को वास्तव में जड जो पञ्चमहाभूत तिन का विकार जान आत्मस्वरूप मत जान यदि गुरु, श्रुति और अनुभव से ऐसा निश्चय कर लेगा तो तात्कालहि संसारबन्धन से मुक्त होकर शरीर आदि से विलक्षण जो आत्मा तिस आत्मस्वरूप के विषें स्थिति को प्राप्त होयगा, क्योङ्कि शरीर आदि के विषें आत्मभिन्न जडत्व आदि का ज्ञान होनेपर तिन शरीर आदि का साक्षी जो आत्मा सो शीघ्र ही जाना जाता है ॥७॥
वासना एव संसार इति सर्वा विमुञ्चताः ।
तत्त्यागोवासनात्यागात्स्थितिरद्ययथातथा ८
अन्वयः ८
संसारः वासनाः एव इति ताः सर्वाः विमुञ्च, वासनात्यागात् तत्त्यागः अद्य स्थितिः तथा यथा ॥ ८ ॥
इस प्रकार आत्मज्ञान होनेपर आत्मज्ञान के विषें निष्ठा होने के लिये वासना के त्याग करने का उपदेश करते हैं कि, विषयों के विषें वासना होना ही संसार है, इस कारण हे शिष्य! तिन सम्पूर्ण वासनाओं का त्याग कर वासना के त्याग से आत्मनिष्ठा होनेपर तिस संसार का स्वयं त्याग हो जाता है और वासनाओं के त्याग होने
पर भी संसार के विषें शरीर की स्थिति प्रारब्ध कर्मों के अनुसार रहती है ॥८॥
ला इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां मा भाषाटीकया सहितं गुरुप्रोक्तं निर्वेदाष्टकं नाम नवमम्प्रकरणं समाप्तम् ॥९॥