विश्वास-प्रस्तुतिः १
व तदाबन्धो यदा चित्तं किञ्चिद्वाञ्छति शोचति ।
किञ्चिन्मुञ्चति गृह्णाति कि-काश्चिद्धृष्यतिकुप्यति ॥ १॥
मूलम् १
व तदाबन्धो यदा चित्तं किञ्चिद्वाञ्छति शोचति ।
किञ्चिन्मुञ्चति गृह्णाति कि-काश्चिद्धृष्यतिकुप्यति ॥ १॥
अन्वयः १
यदा चित्तम् किञ्चित् वाञ्छति शोचति किञ्चित् मुञ्चति गृह्णाति किञ्चित् हृष्यति कुप्यति तदा बन्धः भवति ॥ १॥
हिन्दी १
इस प्रकार छः प्रकरणोङ्कर के अपने शिष्य की सर्वथा परीक्षा लेकर, बन्धमोक्ष की व्यवस्था वर्णन करने के मिष से गुरु अपने शिष्य के अनुभव की चार श्लोकों से प्रशंसा करते हैं कि, हे शिष्य ! तेन्ने जो कहा कि, मेरे को (आत्माको) कुछ त्याग करना और ग्रहण करना नहीं है सो सत्य है, क्योङ्कि, जब चित्त किसी वस्तु की इच्छा करता है, किसी वस्तु का शोक करता है, किसी वस्तु का त्याग करता है, किसी वस्तु का ग्रहण करता है, किसी वस्तु से प्रसन्न होता है, अथवा कोप करता है तब ही जीव का बन्ध होता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः २
तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वाञ्छति न शोचति।
नमुञ्चतिन गृह्णाति नहष्यति नकुप्यति॥२॥
मूलम् २
तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वाञ्छति न शोचति।
नमुञ्चतिन गृह्णाति नहष्यति नकुप्यति॥२॥
अन्वयः २
यदा चित्तम न वाञ्छति न शोचति न मुञ्चति न हाति न एज्यति न कुष्यति ॥ २॥
हिन्दी २
जब चित्त इच्छा नहीं करता है, शोक नहीं करता है; किसी वस्तु का त्याग नहीं करता है, ग्रहण नहीं करता है, तथा किसी वस्तु की प्राप्तिसे प्रसन्न नहीं होता है और कारण होनेपर भी कोप नहीं करता है तब ही जीव की मुक्ति होती है ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ३
तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं कास्वपि दृष्टिषु ।
तदा मोक्षो यदा चित्तमसक्तं सर्वदृष्टिषु ॥३॥
मूलम् ३
तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं कास्वपि दृष्टिषु ।
तदा मोक्षो यदा चित्तमसक्तं सर्वदृष्टिषु ॥३॥
अन्धय:यदा चित्तम् कासु अपि दृष्टिषु सक्तम् तदा बन्धः, यदा चित्तम् सर्वदृष्टिषु असक्तम् तदा मोक्षः ॥ ३ ॥
इस प्रकार बन्ध मोक्ष का भिन्न २ वर्णन किया अब दोनों इकट्ठा वर्णन करते हैं, जिस का चित्त आत्मभिन्न किसी भी जड पदार्थ के विषें आसक्त होता है, तब जीव का बन्ध होता है और जब चित्त आत्मभिन्न सम्पूर्ण जड पदार्थों के विषें आसक्तिरहित होता है, तब ही जीव का मोक्ष होता है ॥३॥
यदा नाहं तदा मोक्षो यदाह बन्धनं तदा॥
मत्वेतिहेलयाकिञ्चिन्मागृहाणविमुञ्चमा ४॥
अन्वयः ४
यदा अहम् न तदा मोक्षः, यदा अहम् तदा बन्धनम् इति मत्वा हेलया किञ्चित् मा गृहाण मा विमुञ्च ॥ ४ ॥
सम्पूर्ण विषयों के विषें चित्त आसक्त न होय ऐसी साधनसम्पत्ति प्राप्त होनेपर भी अहङ्कार दूर हुए बिना
मुक्ति नहीं होती है य ही कहते हैं कि, जबतक मैं देह हूं इस प्रकार अभिमान रहता है तबतक ही यह संसारबन्धन रहता है और जब मैं आत्मा हूं, देह नहीं हूं, इस प्रकार का अभिमान दूर हो जाता है, तब मोक्ष होता है. इस प्रकार जानकर व्यवहार दृष्टि से न किसी वस्तु को ग्रहण कर न किसी वस्तु का त्याग कर ॥४॥
॥ इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं गुरुप्रोक्तं बन्धमोक्षव्यवस्था नामाष्टमं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ८॥