०७ अनुभवपञ्चकविवरणम्

भय्यनन्तमहाम्भोधौ विश्वपोत इतस्ततः ।
भ्रमति सान्तवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता॥

अन्वयः १

अनन्तमहाम्भोधी माये स्वान्तवातेन विश्वपोतः इतस्ततः भ्रमति; मम असहिष्णुता न अस्ति ॥ १॥

हिन्दी १

पञ्चम प्रकरण के विषें गुरुने इस प्रकार वर्णन किया कि, लय योग का आश्रय किये बिना सांसारिक व्यवहारों का विक्षेप अवश्य होता है, तिस के उत्तर में षष्ठ प्रकरण के विषें शिष्यने कहा कि, आत्मा के विषें इष्टअनिष्टभाव तिस कारण आत्मा का त्याग, ग्रहण, लय आदि नहीं होता है, अब इस कथनका ही पाञ्च श्लोकों से विवेचन करते हैं कि, मैं चैतन्यमय. अनन्त समुद्र हूं और मेरे विषें संसाररूपी नौ का मनरूपी वायु के वेग से चारों ओर को घूमती है तिस संसाररूपी नौ का के भ्रमण से मेरा मन इस प्रकार चलायमान नहीं होता है, जिस प्रकार नौ का से समुद्र चलायमान नहीं होता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः २

मय्यनन्तमहाम्भोधौजगदीचिःस्वभावतः ।
उदेतु वास्तमायातुन मे वृद्धिर्न च क्षतिः॥२॥

मूलम् २

मय्यनन्तमहाम्भोधौजगदीचिःस्वभावतः ।
उदेतु वास्तमायातुन मे वृद्धिर्न च क्षतिः॥२॥

अन्वयः २

अनन्तमहाम्भोधौ मयि स्वभावतः जगद्दीचिः उदेतु; वा अस्तम् आयातु, मे वृद्धिः न क्षतिः च न ॥ २॥

हिन्दी २

.इस प्रकार यह वर्णन किया कि, संसार के व्यवहारों से आत्मा की कोई हानि नहीं होती है और अब यह वर्णन करते हैं कि, संसार की उत्पत्ति और लय से भी आत्मा की कोई हानि नहीं होती है, मैं चैतन्यमय अनन्तरूप समुद्र हूं, तिस मेरे (आत्माके) विषें स्वभाव से संसाररूपी तरङ्ग उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं, तिन संसाररूपी तरङ्गों के उत्पन्न होने से मेरा कोई लाभ नहीं होता है और नष्ट होने से हानि नहीं होती है क्योङ्कि, में सर्वव्यापी हूं इस कारण मेरी उत्पत्ति नहीं हो सकती है और मैं अनन्त हूं इस कारण मेरा लय (नाश) नहीं हो सकता है ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ३

मय्यनन्तमहाम्भोधौ विश्वनाम विकल्पना।
अतिशान्तोनिराकार एतदेवाहमास्थितः॥३॥

मूलम् ३

मय्यनन्तमहाम्भोधौ विश्वनाम विकल्पना।
अतिशान्तोनिराकार एतदेवाहमास्थितः॥३॥

अन्वयः ३

अनन्तमहाम्भोधौ मयि विश्वम् विकल्पना नाम ( अतः ) अहम् अतिशान्तः निराकारः एतत् एव मास्थितः (अस्मि ) ॥३॥

हिन्दी ३

इस कहे हुए समुद्र और तरङ्ग के दृष्टान्त से आत्मा के विषें परिणामीपने की शङ्का होती है, तिस शङ्का की निवृत्ति के अर्थ कहते हैं कि, अनन्तसमुद्ररूप जो मैं तिस मेरे विषें जगत् केवल कल्पनामात्र है सत्य नहीं है, इस कारण ही में शान्त कहिये सम्पूर्ण विकाररहित और निराकार तथा केवल आत्मज्ञान का आश्रित हूं ॥३॥

नात्मा भावेषु नो भावस्तत्रानन्ते निरञ्जने ।
इत्यसक्तोऽस्टह शान्त एतदेवाहमास्थितः४

अन्वयः ४

मावेषु आत्मा न, अनन्ते निरञ्जने तत्र भावः नो इति माम् मसक्तः भस्पृहः शान्तः एतत् एव आश्रितः (अस्मि)॥४॥

हिन्दी ४

अब आत्मा की शान्तस्वरूपताका ही वर्णन करते हैं कि, देह इन्द्रियादि पदार्थों के विषें आत्मपना अर्थात् सत्यपना नहीं है, क्योङ्कि देहेन्द्रियादि पदार्थ उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं और देह-इन्द्रियादिरूप उपाधि आत्मा के विषें नहीं है, क्योङ्कि आत्मा अनन्त और निरञ्जन है, इस कारण ही इच्छारहित और शान्त तथा तत्वज्ञान का आश्रित हूं ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः ५

अहो चिन्मात्रमेवाहमिन्द्रजालोपमं जगत् ।
अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना ॥५॥

मूलम् ५

अहो चिन्मात्रमेवाहमिन्द्रजालोपमं जगत् ।
अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना ॥५॥

अन्वयः ५

अहो अहम् चिन्मात्रम् एव जगत् इन्द्रजालोपमम् अतः मम हेयोपादेयकल्पना कुत्र कथम् ( स्यात् ) ॥५॥

हिन्दी ५

आत्मा इच्छादिरहित है इस विषय में और हेतु कहते हैं कि, अहो मैं अलौकिक चैतन्यमात्र हूं और जगत इन्द्रजाल कहिये बाजीगर के चरित्रों की समान है, इस कारण किसी पदार्थ के विषें मेरे ग्रहण करने की और त्यागने की कल्पना किस प्रकार हो सकती है ? अर्थात् न तो मैं किसी पदार्थ को त्यागता हूं और न ग्रहण करता हूं ॥५॥

इति श्रीमदृष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां । भाषाटीकया सहितम् अनुभवपञ्चकविवरणं नाम सप्तमं प्रकरणं समाप्तम् ॥७॥