आकाशवदनन्तोऽहं घटवत्प्राकृतं जगत् ।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥
जंअन्वय:- अहम् आकाशवत् अनन्तः, प्राकृतम् जगत् घटवत् इति ज्ञानम् ( अनुभवसिद्धम् ), तथा एतस्य त्यागः न, ग्रहः न, लयः (न ) ॥ १॥
इस प्रकार पञ्चम प्रकरण में गुरुने लयमार्ग का उपदेश किया, अब शिष्य प्रश्न करता है कि, अत्माजो अनन्तरूप है उस का देहादि के विषें निवास करना किस प्रकार घटेगा ? तिस का गुरु समाधान करते हैं कि, आत्मा आकाश की समान अनन्तरूप है और प्रकृति का कार्य जगत् घट की समान आत्मा का अवच्छेदक और निवासस्थान है अर्थात् जिस प्रकार आकाश घटादि में व्याप्त होता है तिसी प्रकार आत्मा देह के विषें व्याप्त है, इस प्रकार का जो ज्ञान है, सो वेदान्तसिद्ध और अनुभवसिद्ध है, इस में कुछ सन्देह नहीं है तिस कारण उस आत्मा का त्याग नहीं है और ग्रहण नहीं है, तथा लय नहीं है।॥१॥
महोदधिरिवाहं स प्रपञ्चो वीचिसनिमः ।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥
अन्वयः २
सः अहम् महोदधिः इव, प्रपञ्चः वीचिसनिमः इति झानम् ( अनुभवसिद्धम् ); तथा एतस्य त्यागः न, ग्रहः न, ज्यः (न)॥२॥
हिन्दी २
इस घट और आकाश के दृष्टान्त से देह और आत्मा के भेद की शङ्का होती है, तहां कहते हैं कि, वह पूर्वोक्त मैं (आत्मा) समुद्र की समान हूं और प्रपञ्च तरङ्गों की समान है, इस प्रकार का ज्ञान अनुभवसिद्ध है, तिस कारण इस आत्मा का त्याग ग्रहण और लय होना सम्भव नहीं है ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः ३
अहंसशुक्तिसङ्काशो रूप्यवदिश्वकल्पना ।
इतिज्ञानन्तथेतस्य न त्यागोन ग्रहोलयः ॥३॥
मूलम् ३
अहंसशुक्तिसङ्काशो रूप्यवदिश्वकल्पना ।
इतिज्ञानन्तथेतस्य न त्यागोन ग्रहोलयः ॥३॥
अन्वयः ३
सः अहम् शुक्तिसङ्काशः, विश्वकल्पना रूप्यवत्, इति ज्ञानम् तथा एतस्य, त्यागः न, ग्रहः न, लयः (न) ॥३॥
हिन्दी ३
इस समुद्र और तरङ्गों के दृष्टान्त से आत्मा के विषें विकार की शङ्का होती है इस शिष्य के सन्देह का गुरु समाधान करते हैं कि, जिस प्रकार सीपी के विषें रजत कल्पित होता है इसी प्रकार आत्मा के विषें यह जगत् कल्पित है, इस प्रकार का वास्तविक ज्ञान होनेपर आत्मा का त्याग, ग्रहण और लय नहीं हो सकता है ॥३॥
अहं वा सर्वभूतेषु सर्वभूतान्यथो मयि।
इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागोन ग्रहो लयः४॥
की अन्वयः सर्वभूतेषु अहम् अथो वा सर्वभूतानि मयि इति ज्ञानम् ( अनुभवसिद्धम् ); तथा एतस्य त्यागः न, ग्रहः न, लयः ( न ) ॥ ४॥
तहां शिष्य शङ्का करता है कि, सीपी और रजतकों जो दृष्टान्त दिखाया तिस से तो आत्मा के विषें परिच्छिव्रता अर्थात् एकदेशीपनारूप दोष आता है तहां कहते हैं कि, मैं सम्पूर्ण प्राणियों के विषें सत्तारूप से स्थित रहता हूं, इस कारण सम्पूर्ण प्राणी मुझ अधिष्ठानरूप के वि ही स्थित हैं, इस प्रकार का ज्ञान वेदान्तशास्त्र के विषें प्रतिपादन किया है, ऐसा ज्ञान होनेपर आत्मा का त्याग ग्रहण और लय नहीं होता है ॥४॥
इति श्रीमदृष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं शिष्योक्तमुत्तरचतुष्कं नाम षष्ठं प्रकरणं समाप्तम् ॥६॥